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________________ ६४ घरणानुयोग-२ वर्षावास योग्य पत्र सूत्र १७३-१७७ वासावसजोग्ग खेत्तं -- वर्षावास योग्य क्षेत्र१७३. से भिषण वा भिक्खूणी बा से उजं पुण जाणेज्जा गार्म वा १७३. वर्षावाम करने वाला भिक्षु या भिक्षुणी यदि ग्राम-यावत्-जाव-रायहाणि वा, राजधानी के राम्बन्ध में यह जाने किइमंसि खलु मामंसि वा-जाव-रायहाणिसि वा महती विहार- इस ग्राम---यावत्-राजधानी में स्वाध्याय करने योग्य भूमी, महती वियारभूमि । विशाल भूमि है, मल-मूत्र विसर्जन के लिए विशाल भूमि है । सुलझे जत्थ-पीढ-फरलग-सेपजा-संधारए, सुलभे फासुए उछ यहाँ पीठ, फलक, शय्या एवं संस्तारक की प्राप्ति भी सुलभ अहेसणिज्जे, है, साथ ही प्रासुक निर्दोष एवं एषणीय आहार पानी भी सुलभ है। णो जत्य बढे समण-जाव-वणीमगा उवागया उवागमिस्सति यहां बहुत से श्रमण यावत्-भिखारी आये हुए नहीं हैं य, अप्पाइण्णा-वित्ती, पण्णस्स मिक्खमण पवेसाए-जाव- और न आयेंगे, अतः वहाँ मांगने वालों की भीड़ भी नहीं रहती धम्माणुओग-चिताए। है, प्रज्ञावान साधु-साध्वी को यहां निकलना और प्रवेश करना --यावत्-धर्मचिन्तन करना उपयुक्त हो सकता है। सेवं गच्चा तहप्पगारं ग्राम वा-जाब-रायहाणि दा ततो यह जानकर ऐसे ग्राम-यावत्-राजधानी में यतनापूर्वक संजयामेव धामावासं उल्लिएज्जा । वावास व्यतीत करे । आ. सु. २, अ. ३. 3.१. सु. ४६६ वासावासाणंतर-विहार-अज्जोगं कालं वर्षावास के बाद विहार के अयोग्य काल१७४. अह पुणे जाणज्जा- चत्तारि मासा वासा-वासाणं १७४. यदि माधु-गाको यह जाने कि वर्षाकाल के चार मास थोतिबकता, हेमंताण य पंचा-दस-रायकप्पे परिसिते. म्यतीत हो चुके हैं तथा हेमन्त ऋतु को पांच या दस दिन व्यतीत अंतरा से मग्गा बहुपाणा जाव-संताणगा, णो जत्थ बहवे हो गये है। उस समय यदि मार्ग में अंडे हो-यावत् -मकड़ी समण जाव-वणीमगा उवागया उवामिस्संति य, सेवं गचा के जालों से युक्त हो, बहुत से श्रमण -गावत्-वणीमक आदि गो गामाणगाम दूइज्जेज्जा । उन गानों से आए न हों, न ही आने वाले हों तो यह जानकर -आ. सु. २, अ.३, उ. १. सु. ४६७ ग्रामानुयाम बिहार न करे। यासावासाणंतर विहार जोगं कालं.. वर्षावास के बाद बिहार के योग्य काल - १७५. अह पुणे जाणे ज्जा-चत्तारि मासा बासा-वासाणं १७५. यदि साधु साध्वी यह जाने कि वर्षाकाल के चार मास योतिकता, हेमंताण य पंच-बस-रायकप्पे परिसिते अंतरा गतीत हो चुके हैं तथा हेमन्त ऋतु के पांच दस दिन व्यतीत हो से मागा अपंडा-जाव-संताणमा, यहवे अस्थ समण-जाव- गए हैं । उस समय यदि मार्ग में अंडे नहीं है--यावत्-मकड़ी वणीमगा प्रवाण्या उवागमिस्संति य । सेवं गच्चा ततो पो जाले नहीं है। बहुत से धमण-यावत्-भिखारी भी उन संजयामेव गामाणगाम दूइज्जेज्जा । मागों पर आने जाने लगे हैं. या आने जाने वाले भी हैं तो यह -आ. सु. २, अ. ३, उ. १. शु. ४६८ जानकर, साधु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार कर सकता है। वासावासावरगह खेत्तपमाण वर्षावास के अबराह क्षेत्र का प्रमाण१७६. वासावास पज्जोसवियाणं कपई निग्गयाण या, निगंथीण १७६. वर्षावास में रहे हुए निर्गन्धों और नियन्थियों को चारों या सवओ समं ला सबकोसं ओवणं उगह ओमिण्हिताणं दिशाओं में तथा विदिशाओं में एक कोश सहित एक योजन क्षेत्र घिटिलं अहालवमयि उम्महे । -दमा. द. ८, गु. ८ का अवयह (स्थान) ग्रहण करके रहमा कल्पता है। उस अपग्रह से बाहर "यथालन्द काल" ठहरना भी नहीं कल्पता है। यासायासे बिहार करण विहि णिसेहो वर्षावास में विहार करने का विधि-निषेध - १७७. गो कप्पड़ निग्गंयाण दा जिग्गंथीण वा पहमपाउसंसि १७७. निर्ग्रन्थ और निग्रन्थियों को प्रथम प्रावृट् में प्रामानुग्राम मामाणुगामं दूधज्जित्तए। बिहार करना नहीं कल्पता हैपंचहि ठाणेहि कप्पइ, तं जहा बिन्तु पाँच कारणों से बिहार करना कल्पता है । जैसे
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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