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________________ २४४] चरणानुयोग-२ एकलविहारी के आठ गुण सूत्र ५०२-५०५ अन्नगणाओ आगयं खुमायार-जाव-संकिलिहायारं तस्स निग्रन्थिनी आए तो निग्रन्थिनियों को पूछकर या बिना पूछे भी ठाणस्स आलोयावेता-जा-पायपिछतं परिवजावेसा पुच्छि- सेवित दोष की आलोचना-यावत्-दोषानुरूप प्रायश्चित्त स्वीतए वा, वाएसए था, उबटुरवतए या, संजित्तए वा, संव- कार कराके उसकी सुख माता पूछना, उसे वाचना देना, चारित्र सित्तए वा, तोसे इत्तरिय विस वा, अगुदिसं वा, उहिसिसए में पुनः उपस्थापित करना, उसके साथ बैठकर भोजन करने की वा, धारेसए था, संबनिगंभीओ नो इच्छेजा, सयमेव और साथ रखने की आज्ञा देना कल्पता है। उसे अल्पकाल के नियंठाग। लिए दिशा या अनुदिशा का निर्देश करना या धारण करना कल्पता -प. उ.७, सु. १.३ है। किन्तु यदि निर्ग्रन्थिनियां उसे न रखना चाहें तो उसे वाहिए कि वह पुनः अपने गण में चली जाए। ** एकल मिहार पर्या--१५ एगल्ल विहारिस्स अट्ट गुणा--- एकलविहारी के आठ गुण५०३. अहि पाहि संपणे मणगारे एगल्ल विहारपडिम उव- ५०३, आठ गुणों से सम्पन्न अणगार एकल विहार प्रतिज्ञा को संपमित्ताणं विहरित्तए, तं जहा स्वीकार कर विहार करने के योग्य होता है, यथा१. सब्दी पुरिसजाते, २. सरचे पुरिसजाते, १. श्रद्धावान् पुरुष, २. सत्यशील पुरुष, ३. मेहाबी पुरिसजाते, ४. बहुस्सुते पुरिसजाते, ३. मेधावी पुरुष, ४. बहुश्रुत पुरुष, ५. सत्तिम, ५. शक्तिमान् पुरुष, ६. अप्पधिगरणे, ६. अल्प कषाय या अल्प उपधि वाला पुरुष, ७. घितिमं, ८. बीरिय संपण्णे। ७. ध्रुतिमान् पुरुष, ८. वीर्य (उत्साह) सम्पन्न पुरुष, -ठाणं. अ. E, सु. ५९४ एगागी समणस्स आवास विहि-णिसेहो अकेले भिक्षु के रहने का विधि-निषेध५०४. से गार्मसि बा-जाव-सन्निवेससि वा अभिनिखगराए, अभि- ५०४. भिन्न-भिन्न बाड़, भिन्न-भिन्न प्राकार वाले, भिन्न-भिन्न द्वार निवदुवाराए अभिनिवखमण-पवेसगाए, वाले और भिन्न-भिन्न निष्क्रमण-प्रवेश वाले ग्राम-यावत्-- सन्निवेश में, नो कप्पइ बहुस्सुपरस बम्भागमस्स एपगियस्स भिक्लुस्स अकेले बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ भिर को भी बसना नहीं वरपए किमंगपुण अप्पसुयस्स अप्पागमस्स? कल्पता है तो अल्पश्रुत और अल्पआगमज्ञ भिक्ष को बसना कैसे कल्प सकता है ? अर्थात् नहीं कल्पता है। से गामसि वा-जाव-सन्निनेससि वा एगवगवाए, एगवाराए, एक बाड़ या एक प्राकार वाले, एक द्वार वाले और एक एगनिवखमण पवेसाए, निष्क्रमण-प्रवेश वाले ग्राम-यावत् - सन्निवेश में, कप्पड बहुस्सुयस्स मम्मागमस्स एगाणियरस मिक्खुस्स बस्थए अकेले बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ भिक्षु को दोनों समय संयम दुहओ कालं भिक्नुभावं पडिजागरमाणस । भान की जागृति रखते हुए रहना कल्पता है । -अव. अ. ६, मु.१४-१५ अवियत्त एगागी भिक्खुस्स दोसाई अपरिपक्व एकाकी भिक्षु के दोष५०५. गामाणुगाम इन्जमाणस्स बुज्जातं पुप्परक्कतं भवति अवि-५०५. जो भिक्षु अपरिपक्व अवस्था में है उसका अकेले प्रामानुयत्तस्स भिक्खुणो। माम विहार करना दुःखप्रद और पतन का कारण होता है ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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