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चरणानुयोग-२
आजीवन अनशन
सूत्र,५४३-५४६
अट्टमभलियस्स णं मिक्खुस्स कप्पंति तओ पाणगाई पडिगा- आष्टम भक्त (तीन उपवास) करने वाले भिक्ष को तीन हित्तए. तं जहा
प्रकार के पानी लेना कल्पता है - १. आयामए,
(१) आयामक--उबाले हुए चावलों का मांड आदि । २. सोबीरए,
(२) सौवीरक-कांजी छाछ के ऊपर का पानी । ३. सुदवियो।
-ठाणं. अ. ३. सु. १८८ (३) शुद्ध विकट-शुद्ध अचित्त शीतल जल । आवकहिय अणसण
आजीवन अनशन५४४. का सा अणसणा मरणे, दुषिहा सा वियाहिया । ५४४. जो मरणकालिक अनशन है वह शारीरिक चेष्टा की सधियारा अवियारा, कायचे? पई भवे ॥
अपेक्षा से दो प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) सविचारशरीर की हलन-चलन आदि क्रिया युक्त, (२) अविचार-शरीर
को हलन-चलन आदि क्रिया रहित । महवा सपरिकम्मा, अपरिकम्मा य आहिया।
अथवा अन्य प्रकार से भी दो-दो भेद कहे गये हैं, यथानिहारीमनीहारी, आहारच्छेओ य वोम वि ॥
(१) सपरिकर्म-धारीर की परिजर्या युक्त, -उत्त. अ. ३०, गा. १२-१३ (२) अपरिकर्म-कार की परिचर्या रहित ।
अथवा-(१) निहारिम, (२) अनिहारिम ।
इन सभी दो-दो भेदों में आहार का स्याग निश्चित है। संलेहणा करणकालं
संलेखना का काल क्रम५४५. तो बहुणि वासागि, सामण्णमणुपालिया। ५४५. मुनि अनेक वर्षों तक संयम का पालन कर इस ऋमिक इमेण कमजोगेण, अप्पागं संलिहे मुणी ।।
तप से अपनी आत्मा की सलेखना करे । बारसेव उ वासाई, संसहक्कोसिया भये।
संलेखना उत्कृष्ट बारह वर्ष, मध्यम एक वर्ष तथा जघन्य संबछर भनिमिया, छम्मासा य जहनिया ॥ छह मास की होती है। पढ़मे वासवउपकम्मि, विगईनिग्जूहणं करे।
बारह वर्ष की संलेखना करने वाला मुनि पहले चार वर्ष में बिहए वासचउक्कम्मि, विचितं तु तवं चरे ॥ विगयों का परित्याग करे। दूसरे चार वर्षों में फुटकर विचित्र
तप का आचरण करे। एगन्तरमायाम, कट संवच्छरे दुवे।
फिर दो वर्षों तक एकान्तर तप करे व पारणे के दिन तो संवच्छरऽवंतु, नाइबिगिटु तवं चरे॥
आयंबिल करे । म्यारहवें वर्ष के पहले छः महीनों में कठिन तप
न करे। तको संवारनं तु. विगिट्टतु तथं चरे।
म्यारहवें वर्ष के पिछले छः महीनों में कठिन तप करे। इस परिमियं घेख आयामं, तंमि संवच्छरे करे।
पूरे वर्ष में पारणे के दिन आयं विल करे। कोसी सहियमायाम, कटु संवच्छरे मुषी।
बारहवें वर्ष में मुनि कोटि सहित आयंबिल करे फिर पक्ष भासदमासिएणं तु, आहारेण तवं चरे ॥
या मास का अनशन तप करे। -उत्त. व. ३६, गा. २५०-२५५ पंडिय मरण सरूवं
पंडित मरण का स्वरूप५४६. अणुपुरुषेण विमोहाई, बाई धीरा समासज्ज । ५४६. मैं अनुक्रम से पण्डित मरण का स्वरूप कहूँगा। धैर्यवान्, वसुमतो मतिमतो, सन्वं गच्या अणेलिस ।। बुद्धिमान संयमी भिक्षु उसे पूर्ण रूप से जानकर तया स्वीकार
-आ. सु. १, अ. ८, 3.८, गा. १(१६) कर अनुपग समाधि को प्राप्त करे। सओ काले अभिपेए सबढो तालिसमन्तिए ।
जब मरण समय प्राप्त हो, उस समय जिस श्रद्धा से मुनिविगएज्ज-लोभ-हरिसं, मेयं बेहस्स कंपए।
धर्म को स्वीकार किया है, वैसी ही श्रद्धा से भिक्षु रोमांचकारी मृत्यु भयं को दूर करके गुरु के समीप अनशन के द्वारा शरीर के त्याग की इच्छा करे।