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________________ सूत्र ६४५ आलोचना करने का क्रम आलोयणा करण-कमी आलोचना करने का क्रम ६४५. भिक्खु य अनयरं अकिवठाणं परिसेविता इलेक्जा ६४५. भिक्षु किसी अकृत्यस्थान का पतिसेवन कर उस की आलोएसए, जत्थेव अपणो आयरिय-उवज्झाए पासेज्ना, आलोचना करना चाहे तो जहाँ पर अपने आचार्य या उपाध्याय तस्संतिथं आलोएज्जा गाव अहारिहं तवोकम्मं पायच्छिदेखे वहाँ उनके समीप आलोचना करे – पावत् यथायोग्य पडवा | प्रायश्चित रूप तपःकर्म स्वीकार करे | तो चे अपणो धारिए पासेना अत्यसंभो साहम्मियं पासेज्जा बहुस्सुयं सम्मागर्म तस्संतियं आलो. एन्जा हारितयोकम्पं पायपिडिया नो वेव संभोदयं साहम्मियं पासेज्जा बहुस्सुयं बभागमं जत्थेव असंभवं साम्यियं पजा हुनुभाग तस्संतियं आलोएज्जा जाव अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्त' पश्चिवळजेज्जा | नो चेव णं असंमोहयं साहम्मियं परसेञ्जर बहुस्सुयं बभा धर्म जत्येव वाकवियं पातेजा बहुस्वागतांतियं आलोएन्नादान आहारिहंतोष पायच्छित पवि उजेश्मा । · नो क्षेत्र णं सारूवियं पासेज्जा बहुस्सुयं जन्मागमं जरथेष समणोवाक्षगं पच्छाकडं पासेज्जा बहुस्यं बभागमं कप्पड़ से सतिए आलोएलए या जाव - आहारिह तयोकम्मं पाय छित परिधज्जेस वा । नो मे समोवास पापा गर्म जवस भावापासेना, कपड़ से तस्संतिए आलोएज्जा वा पक्किमेलए बा जाव - अहारिहं पछि पडियजेस मा नो विवाई येडाई पासा बहिया म वा जान-ससिस वा पाईणाभिहे वा उीणामिमुहे वा करमलपरिमाहियं सिरसावल मत्थए अंजलि कट्टु एवं यदि अपने आचार्य या उपाध्याय न दिखे ( न मिले ) तो जहाँ पर साम्भोगिक ( समान समाचारी वाले) साथमिक साधु को देखे (मिले) "जो कि बहुत एवं बहु अनम हो" उसके समीप आलोचना करे - यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपः कर्म स्वीकार करे । तपाचार [३१e यदि सम्भोषिक माधम बहुत हुआगमन सादि न मिले तो जहाँ पर अन्य सम्भोग गाथमिक साधु को देखे– 'जो बहुश्रुत हो और बहुआगमज्ञ हो" वहीं उसके समीप आलोचना करे - यावत् - यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तप कर्म स्वीकार करे । यदि सागिकार्मिक बहुत और म साधु न दिखे (ग मिले तो जहाँ पर अपने साप साधु को देवे (मिले) "जो बहुत हो और बहुआ हो" यहाँ उसके समीप आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्विन रूप तपः कर्म स्वीकार करे । - यदि सारूप्य साधु बहुभुत और बागमशन दिले न मिले तो जहाँ पर पश्चात्कृत (संयम त्यागी) श्रमणोपासक को देखे ( मिले ) जो बहुत और बहुआrea हो वहाँ उसके समीप आलोचना करे-पावत भायोग्य प्रतिपा कर्म स्वीकार करे । यदि पश्चात श्रमणोपासक बहुश्रुत और बहुमागज्ञन दिये न मिले तो यहाँ पर सम्भावित हानी पुरुष (गममात्री स्व-पर- विवेकी सम्यक् दृष्टि व्यक्ति) को देखे (मिले) ता नहीं उसके समीप आलोचना करे यावत् प्रायशि रूप तपःकर्म स्वीकार करे । - यदि सम्यक् भावित ज्ञानी पुरुष न दिखे (न मिले तो ग्राम - यावत् - सनिवेश के बाहर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर अभिमुख हो करतल जोड़कर मस्तक के आवर्तन करे और मस्तक पर अंजली करके इस प्रकार बोले एग्जा 'एवइया मे अबराहा एवइ-पसुतो अहं अवरो" अरिहंतालिममा जान अहार योजन किया है" इस प्रकार बोलकर पायत्ति पश्चिवज्जेज्जा । "इतने मेरे दोष हैं और इतनी बार मैंने इन दोषों का वीर मिद्धों के बव. उ. १, मु. ३३ समीप आलोचना करे याषत्यवायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपः कर्म स्वीकार करे ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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