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________________ ६६ धरणामुदस्ताव शिवस के रूप में निर्दिष्ट तप साधना को पूर्ण नहीं कर लेता है। और संघ इरा तथ्य से आश्वस्त नहीं हो जाता है कि वह पुन: अपराध नहीं करेगा | जैन परम्परा में बार-बार अपराध करने वा आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के लिए यह दण्ड प्रस्तावित किया गया है। स्थानांग सूत्र के अनुसार साधर्मियों की चोरी करने वाला, अन्यधर्मियों की चोरी करने वाला तथा डण्डे, लाठी बादि से दूसरे भिक्षुओं पर प्रहार करने वाला भिक्षु अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य माना जाता है । प्रायश्वित देने का अधिकार सामान्य प्रादेका अधिकार आचार्य या गणि का माना गया है। सामान्य व्यवस्था के अनुसार अपराधी को अपने अपराध के लिए आचार्य के समक्ष अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए और आचार्य को भी परि स्थिति और अपराध की गुरुता का विचार कर उसे प्रायश्चित्त देना चाहिए। इस प्रकार दण्ड या प्रायश्वित देने का सम्पूर्ण अधिकार आचार्य, गणिया प्रवर्तक को होता है। आचार्य या गणि की अनुपस्थिति में उपाध्याय, उपाध्याय की अनुपस्थिति में प्रवर्तक अथवा वह वरिष्ठ मुनि जो छेद सूत्रों का ज्ञाता हो, प्रायश्चित्त दे सकता है। स्वगण के आचार्य आदि के अभाव में अन्य गण के स्वलिंगी आचार्य बादि से भी प्रायश्चित्त लिया जा सकता है । किन्तु अन्य गण के आचार्य आदि तभी प्रायश्चित्त दे सकते हैं जब उनसे इस सम्बन्ध में निवेदन किया जाये जीत कल्प के अनुसार स्वलिंगी अन्य गण के आचार्य या मुनि को अनुपस्थिति में सूत्र का अध्येता गृहस्य जिसने दीक्षा पर्याय छोड़ दिया हो वह भी प्रायश्वित दे सकता है। इन सब के अभाव में साधक स्वयं भी पापशोधन के लिए स्वविवेक से प्रायश्चित्त का निश्चय कर सकता है । क्या प्रायश्चित सार्वजनिक रूप में दिया जाये ? 1 इस प्रश्न के उत्तर में जनाचायों का दृष्टिकोण अन्य पर पराओं से भिन्न है। वे प्रायश्चित्त या दण्ड को आत्मशुद्धि का साधन तो मानते हैं लेकिन प्रतिरोधात्मक सिद्धांत के विरोधी हैं। उनकी दृष्टि में दण्ड केवल इसलिए नहीं दिया जाता है कि उसे देखकर अन्य लोग अपराध करने से भयभीत हों, अत: जैन पर परा सामूहिक रूप में, खुले रूप में दण्ड की विरोधी है, इसके विपरीत बौद्ध परम्परा में दण्ड या प्रायश्चित्त को संघ के सम्मुख सार्वजनिक रूप से देने की परम्परा है। बौद्ध परम्परा में प्रवारणा के समय साधक भिक्षु को संघ के सम्मुख अपने अपराध को प्रकट कर संघ प्रदत्त प्रायश्चित या दण्ड को स्वीकार करना होता है । वस्तुतः बुद्ध के निर्वाण के बाद किसी संघ प्रमुख की नियुक्ति को आवश्यक नहीं माना गया, अतः प्रायश्चित्त या दण्ड देने का दायित्व संघपद पर आ पड़ा। किन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सार्वजनिक रूप से दण्डित करने की यह प्रक्रिया उचित नहीं है, क्योंकि इससे समाज में व्यक्ति की प्रतिष्ठा गिरती है, तथा कभी-कभी सार्वजनिक रूप से दण्डित किये जाने पर व्यक्ति विद्रोही बन जाता है । अपराध की समानता पर दण्ड की समानता का प्रश्न प्रायश्चित्तों की चर्चा के प्रसंग में यह भी विचारणीय है कि क्या जैन संघ में समान अपराधों के समान दण्ड की व्यवस्था है या एक ही समान अपराध के लिए दो व्यक्तियों को अलग-अलग दण्ड दिया जा सकता है। जैन विचारकों के अनुसार एक ही के अपराध के लिए सभी के व्यक्तियों को एक ही समान दण्ड नहीं दिया जा सकता। प्रायश्चित्त के कठोर और मृदु होने के लिए व्यक्ति की सामाजिक स्थिति एवं वह विशेष परिस्थिति भी विचारणीय है जिसमें कि यह अपराध दिया गया है। उदाहरण के लिए एक ही समान प्रकार के अपराध के लिए जहाँ सामान्य विक्षु या भिक्षुणी को अल्प दण्ड की व्यवस्था है नहीं धमण संघ के पदाधिकारियों को अर्थात् प्रतिप्रवर्तक गणि, आचार्य आदि को कठोर दण्ड देने की व्यवस्था है। पुनः जैन आचार्य यह भी मानते हैं कि यदि कोई व्यक्ति स्वतः प्रेरित होकर कोई अपराध करता है और कोई व्यक्ति परिस्थितियों से बाध्य होकर अपराध करता है तो दोनों के लिए अलग-अलग प्रकार के प्रायश्चित्त की व्यवस्था है। यदि हम मैथुन सम्बन्धी अपराध को लें तो जहाँ बलात्कार की स्थिति में भिक्षुणी के लिए किसी दण्ड की व्यवस्था नहीं है किन्तु उस स्थिति में भी यवि बहु सम्भोग का आस्वादन लेती है तो उसके लिए प्रायश्चित्त की व्यवस्था है अतः एक ही प्रकार के अपराध हेतु दो भिन्न व्यक्तियों व परिस्थितियों में अलग-अलग प्रायश्वित्त का विधान किया गया है। यहीं नहीं नाना ने यह भी विचार किया है कि अपराध किसके प्रति किया गया है। एक सामान्य साधु के प्रति किए गये अपराध की अपेक्षा आचार्य के प्रति किया गया अपराध अधिक दण्डनीय है जहाँ सामान्य व्यक्ति के लिए किये गये अपराध को मृदु या अल्प दण्ड माना जाता है वहीं श्रमण संघ के किसी पदाधिकारी के प्रति किये गये अपराध को कठोर दण्ड के योग्य माना जाता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि अपने प्रायश्चित विधान या दण्ड प्रक्रिया में व्यक्ति या परिस्थिति के महत्व को ओझल नहीं किया है और माना है कि व्यक्ति और परिस्थिति के आधार पर सामान्य और विशेष व्यक्तियों को अलग-अलग प्रायश्चित्त दिया जा सकता है जबकि सामान्यतया बौद्ध परम्परा में इस प्रकार के विचार का अभाव देखते हैं । हिन्दु परम्परा यद्यपि प्रायश्वित के सन्दर्भ में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति का मूल्यांकन करती है किन्तु उसका दृष्टिकोण जैन परम्परा से बिल्कुल विपरीत दिखाई देता है। जहाँ जैन परम्परा उसी अपराध के लिए प्रतिष्ठित
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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