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________________ ११०-१९२ गिलाण्ट्ठा बिगड़ गहण विहाणं १६० मा प 'अट्ठो मंते ! गिलाणस्स' से य वइज्जा - "अडो" से ये पुच्छिमध्ये "केवइएण अड्डो ?" की बक्ता एवएवं अट्टो विलासा" ये जं से पमाणं वयह, से य पमाणओ वितध्ये । — के लिए विकृति प्रण करने का विधान से व विभा से व विधवेमा सा सेय पमाणपते हो "अलाहि" इय वसथ्यं सिया । से किमाहू मते ! एवएवं अट्टी दिलास सिया गं एवं जयं परोपजि पछा तुम सिया पाहता।" एवं से कप्प पाहिलए नो से कम्प गिलानीसाए परिवाहिताए । -दसा. द. ८, सु. १७ बुट्टिकाए एवमहिय भरा-पाण भक्तण-विही १६१. वासावासं पज्जोसवियरस निर्णयस्स वा निगांधीए वा महापापडियाए अनुपविटुस्स निगिशिव निक्स मुट्टिकाएं निवइज्जा, कापड से आहे आरामंसि या, आहे उवत्सयसिवा, अहे विमहिंसि वा आहे मूलसिया sarve नो से कप्पड़ पुध्वगहिएणं भस-पाणं वेलं उत कम्प से पुण्यामेव विडग भुरखा, पिकवा पहिगं लिहिलय संयमविजय-संपमजिय गाव कद्दू से पूरे जेणेव उवस्सए तेणेव उपायच्छित भो से कप्पड़ तं योग सत्येव उवायणा वित्तए । संयमी जीवन --दसा. द. सु. ४४ P [16 NNN गतान के लिए विकृति ग्रहण करने का विधान १०.रहे एनियों में सेवा करने वा नाव से पूछे कि "हे भगवन् ! आज किसी ग्लान के पथ्य की आवश्य कता है ?" आचार्य कहे- 'हाँ आवश्यकता है।' निर्ग्रन्थ पूछे 'कितनी मात्रा आवश्यक है ?" आचार्य कहे " इतनी मात्रा आवश्यक है ।" इस प्रकार ने जितना प्रमाण कहें उस प्रमाण से लाना चाहिए। वैयावृत्य करने वाला निर्ग्रन्थ गृहस्थ के घर जाकर पथ्य की याचना करे तथा आवश्यकतानुसार प्राप्त होने पर "बस पर्याप्त है" इस प्रकार कहे । गृहस्य यदि वाहे "हे भदन्त ! बार ऐसा क्यों कहते हैं? तब निग़न्थ इस प्रकार कहे "ग्लान साधु के लिए इतनी ही पर्याप्त है ।" इस प्रकार कहने पर भी यदि हस्य कि "हे! और भी ग्रहण करो । ग्लान के उपयोग में आने के बाद आप भी खा लेना या पी लेना ।" १९१ वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियाँ गृहस्थों के घरों में आहार के लिए गये हुए हों और उस समय रुक कर वर्षा आने लगे तो उन्हें आराम गृह, उपाश्रय विकट (चौतरफ से खुले ) गृह और वृक्ष के नीचे आकर ठहरना कल्पता है । किन्तु पूर्व गृहीत भक्त पान से भोजन वेला का अतिक्रमण करना नहीं कल्पता है । ( अर्थात् सूर्यास्त पूर्व) निर्दोष आहार खा-पीकर पात्रों को मंडपोंछकर और साफ करके एकत्रित करे तथा सूर्य के रहते हुए । जहाँ उपाश्रय हो वहाँ आ जाए। किन्तु वहाँ (अन्यत्र) रात रहना नहीं कल्पता है। गृहस्थ के ऐसा कहने पर अधिक पथ्य लेना कल्पता है। मिलान के निमित्त से अधिक ग्रहण करना नहीं कल्पता है । वर्षा बरसने पर पूर्व गृहीत भक्तन्पान के उपयोग की विधि 1 बुद्विकाए विडिए णिग्गंध-निग्गंधी एगयओ चिट्ठ वर्षा दरसने पर एक स्थान में निर्धन्यनिन्थियों के छह विही रने की विधि १२. बासावा जोसवियरस निगमरस वा निपीए वा १९२. वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियाँ गृहस्थों के घरों में १ दसा० द० ८, सु० ४०
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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