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वरणानुयोग-२
अन्न हो उपदेश योग्य है
सूत्र ७२-७३१
जग्मुं च पास हह मच्चिएहि,
इस संसार में मनुष्यों के साथ रागादि बन्धनों को तोड़ आरंभजीवी उपयाणुएस्सी ।
डाल, क्योकि वे आरम्भजीवी हैं, शारीरिक मानमिक उभय कामेसु गिद्धा णिचयं करति,
सुखों के या काम-भोगों के अभिलाषी हैं, वे काम-भोगों में आसक्त संसिच्चमाणा पुगरेति गर्न ।
होकार का का संचय करते रहते है और कर्मों का पंचय कर वे
पुनः पुनः जन्म धारण करते हैं। अवि से हासमासम्ज, हंता गंदीति णति ।
वह अज्ञानी मनुष्य अज्ञान के कारण हास्य विनोद द्वारा बलं बालस्स संगेग, वेरं बड़ोति अप्पणो ॥ प्राणियों का वध करके खुशी मनाता है ऐसे अज्ञानी पुरुषों का -आ. सु. १, अ. ३, उ.२, सु. ११३-११४ संसर्ग भी नहीं करना चाहिए। जिससे अपनी आत्मा के साथ
वर भाव की वृद्धि होती है। बालो ही उवएस जोग्गो
अज्ञ ही उपदेश योग्य है७२९. उद्देसो पासगस्स पत्थि ।
७२६. जो द्रष्टा (सत्यदर्शी) है उसके लिए उपदेश की आवश्य
कता नहीं होती। बाले पुण णिहे कामसमणुष्णे असमितदुक्खे दुमती वुक्याणमेव अज्ञानी पुरुष जो स्नेह के बन्धन में बंधा है, काम-सेवन में आव। अणुपरियति ।
अनुरक्त है, वह कभी दुःख का शमन नहीं कर पाता। वह दुःखी -आ.सु. १, अ. २, उ.३, सु.८० होफर दु.खों के आवर्त में बार-बार भटकता रहता है। सकम्मवोरिय सहवं
सकर्मवीर्य का स्वरूप -.. ७३०. सत्यमेगे सुसिक्वंति, अतिवायाय पाणिगं । ७३०. कुछ लोग प्राणियों को मारने के लिए शस्त्र चलाने की एगे भंते अहिपति, पाणभूयविहेडिणी ॥
अथवा धनुर्वेद आदि की शिक्षा प्राप्त करते हैं और कुछ लोग
प्राणियों और भूतों के विघातक मन्त्रों का अध्ययन करते हैं। माइणो कट्ट मायामओ, काममोगे समारमे ।
मायावी मनुष्य छल कपट करके काम भोगों को प्राप्त करते हंता छेत्ता पकत्सित्ता, आपसायाणगामिणो । हैं । वे अपने सुख के अनुगामी होकर प्राणियों को मारते काटते
और चीरते हैं। भणसा वयसा घेव, कायसा चेव अंतसो ।
असंयमी मनुष्य मन से, वचन से और काया से अशक्त होने आरतो परतो यावि, बुहा विय असंजता ।।
पर भी इस लोक के लिए या परलोक के लिए जीवों को हिंसा
करते हैं, करवाते हैं। वेरा कुस्खती वेरी, ततो बेरेहि रज्जती ।
हिमा करने वाला पुरुष अनेक जीवों के साथ वर का अनुपावोगा य आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो ॥ बन्ध करता है। जिससे वह नये देर में संलग्न ही जाता है।
(वास्तव में) हिंसा की प्रवृत्तियाँ मनुष्य को पाप की ओर ले
जाती हैं अन्त में उनका परिणाम दुःखदायी होता है। संपरागं णियचछंति, अत्तबुकशुकारिणो ।
स्वयं हिंसा आदि दुष्कृत करने वाले मनुष्य संसार (जन्मरग-वोसस्सिया बाला, पाचं कुव्वंति ते बहुं ।
मरण) को प्राप्त होते हैं। फिर राग-द्वेष के वशीभूत होकर बहुत
पाए करते हैं । एवं सकम्मबीरियं, बालाणं तु पवितं ।
___ यह बाल मनुष्यों का सकर्मचीर्य बतलाया गया है। अब एतो अकस्मयीरियं, पंडियाणं सुणेह मे। पण्डित मनुष्यों के अक्रमवीर्य को मुझसे मुनो ।
- सूय. सु. १, अ. ६, गा. ४-६ अकम्मयोरिय सरूवं
अकर्मवीर्य का स्वरूप७३१. बविए बंधणुम्मुक्के, सव्वतो छिण्णबंधणे ।
७३१. संयमी पुरुष बन्धन से मुक्त होकर प्रमाद या हिंसा में पणोल्ल पावगं कम्म, सल्स कंतति, अंतसो॥ सर्वतः प्रवृत्त नहीं होता है बह पाप-कर्म को दूर कर सम्पूर्ण
शल्य रूप कर्मों को काट देता है।