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________________ ८ / चरणानुयोग : प्रस्तावना हमारी चेतना या आत्मा, अनन्त या पूर्ण न हो तो हमें अपनी आत्मा की उपलब्धि कहा जाता है। पाश्चात्य दर्शन में पूर्णता अपूर्णता का बोध भी नहीं हो सकता। वेडले का कथन है कि के दो अर्थ रहे हैं-एक अर्थ में वह चेतना के ज्ञान, भाव और चेतना अनन्त है, क्योंकि वह अनुभव करती है कि उसकी क्षम- संकल्प के मध्य सांग सन्तुलन है तो दूसरी ओर यह वैयक्तिक ताएँ सांत एवं सीमित हैं । लेकिन सीमा या पूर्णता को जानने सीमाओं और सीमितताओं से ऊपर उठना है, ताकि समाज के के लिए असीम एवं पूर्ण होना आवश्यक है । जब हमारी चेतना अन्य बटकों और हमारे बीच का हूँत समाप्त हो सके और यह ज्ञान रखती है कि वह सांत सीमित था अपूर्ण है तो उसका व्यक्ति एक महापुरुष के रूप में समाज का मार्गदर्शन कर सके । यह सीमित होने का ज्ञान स्वयं इस सीमा को पार कर जाता ब्रेडले का कथन है कि "मैं अपने को नैतिक रूप से अभिव्यक्त है । इस प्रकार ब्रेडले भी आत्मा (Self) में निहित पूर्णता का तभी करता हूँ, जब मेरी आस्मा मेरी निजी आत्मा नहीं रह संकेत करते हैं।' आत्मा पूर्ण है, यह बात भारतीय दर्शन के जाती, जब मेरा संकल्प अन्य लोगों के संकल्प से भिन्न नहीं रह विद्यार्थी के लिए नमी नहीं है. लेकिन इस आत्मपूर्णता का अर्थ जाता और जब मैं दूसरों के संसार में केवल अपने को पाता हूँ। यह नहीं कि हम पूर्ण हैं। पूर्णता हमारी क्षमता (Capacity) आत्मानुभूति का अर्थ है । असीम व अनन्त हो जाना, अपने व है, योग्यता (Ablity) नहीं। पूर्णता के प्रकाश में हमें अपनी पराये के अन्तर को निटा देना।" यह है पराभौतिक स्तर पर अपूर्णता का बोध होता है । अपूर्णता का बोध पूर्णता की उप- आत्मानुभूति का अर्थ । म विज्ञानिक स्तर पर आत्मानुभूति का स्थिति का संकेत अवश्य है, लेकिन वह पूर्णता की उपलब्धि अर्थ होगा हमारी सम्पूर्ण बौद्धिक, नैतिक एवं कलात्मक योग्यनहीं है । जैसे दूध में प्रतीत होने वाली स्निग्धता उसमें निहित साओं तथा क्षमताओं की अभिव्यक्ति । यदि हम अपनी कामनाओ मधन की मूचक अवश्य है. लेकिन मक्खा की उपलब्धि नहीं एवं उद्देश्यों को एक साय रखकर देखें तो सभी विशेष उद्देश्य है। जैसे दूध में निहित मक्खन को पाने के लिए प्रयत्न आवश्यक कुछ सामान्य और व्यापक उद्देश्यों के अन्तर्गत आ जाते हैं जो है वैसे आत्मा (Self) में निहित पूर्णता की उपलब्धि के लिए परस्पर मिलकर एक समन्वयात्मक समुच्च्य बन जाते है। इसी प्रयत्न आवश्यक है । नैतिकता या सदाचरण उसी सम्यक् प्रयत्न समन्वयात्मक समुच्चय में हमारी आत्मा पूर्ण रूप से अभिव्यक्त का सूचक है, जिसके माध्यम से हम उस पूर्णता को उपलब्ध कर होती हैं। सकते हैं । हैडफील्ड लिखते हैं कि "हम जो कुछ है वही हमारा भारतीय परम्परा में पूर्णता का अर्थ थोड़ा भिन्न है। "स्व" (Self) नहीं है, यरन हमारा "स्व" वह है जो कि हम पाश्चात्य परम्परा में आत्मा (Self) का अर्थ व्यक्तित्व है और हो सकते हैं। हमारी सम्भावनाओं में ही हमारी सत्ता अभि- जब म पाश्चात्य परम्परा में बात्मपूर्णता की बात कहते हैं तो ध्यक्त होती है और इगी अर्थ में आत्मपूर्णता हमारा साध्य भी उनका सात्पर्य है व्यक्तित्व की पूर्ण ता। व्यक्तित्व का तात्पर्य है है। जैसे एक बालक में निहित समय समताएँ जहाँ एक और शरीर और नेतना । लेकिन अधिकांश भारतीय दर्शन आत्मा को उसकी सत्ता में निहित हैं वहीं दूसरी ओर उसका साध्य हैं। तात्विक "सत्" के रूप में लेते हैं। अतः भारतीय चिन्तन के ठीक इसी प्रकार आत्मपूर्णता हमारा साध्य है। यदि हम आत्म- अनुसार आत्मपूर्णता का अर्थ अपनी तात्विक सत्यता की अथवा पूर्णता को नैतिक जीवन या धर्ण साधना का परम साध्य मानते परमार्थ की उपलब्धि है। यों भारतीय परम्परा में आत्मपूर्णता हैं, तो हमें यह भी स्पष्ट करना होगा कि आत्मपूर्णता का तात्पर्य का अर्थ आत्मा की ज्ञानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक क्या है ? आत्मपूर्णता का तात्पर्य आरमोपलब्धि ही है, वह स्त्र शक्तियों को पूर्णता भी मान्य है । भारतीय चिन्तन और विशेष में "सण" को पाना है। लेकिन जिस आत्मा या "स्व" को रूप से जैन चिन्तन के अनुसार मनुष्य के शान, भाव और संकल्प उपलब्ध करना है वह सीमित या अपूर्ण आत्मा नहीं, वरन् ऐसी का अनन्त ज्ञान, अनन्त सौख्य (आनन्द) और अनन्त शक्ति के आत्मा है जो समग्र वासनाओं, संकल्पों एवं संघर्षों से ऊपर है, रूप में अभिव्यक्त हो जाना ही आत्मपूर्णता है । यही वह अवस्या विशुश हष्टा एवं साक्षी स्वरूप है। हमारी शुद्ध सत्ता हमारे है जिसमें आत्मा परमात्मा बन जाता है। आत्मा की शक्तियों ज्ञान, भाव और संकल्प सभी का आधार होते हुए भी सभी से का अनावरण एवं पूर्ण अभिव्यक्ति, यही परमात्म-तत्व की प्राप्ति ऊपर एक निर्विकल्प, वीतराग, साक्षी आत्म-सत्ता की स्थिति है, और यही आत्मपूर्णता है। है । इसी स्थिति की उपलब्धि को पूर्णात्मा का साक्षात्कार, परम १ देखें Ethical Studies, chapter II उधृत जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग १, पृ. ४१२ । २ Psychology and Morals, p. 183. ३ Ethical Studics p. 11 ४ Ibid p. 11
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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