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________________ सूत्र ३३४-३३५ निन्य-निग्यो द्वारा स्वरेखी परिचारणा का निदान आराधक-बिराधक [१६१ से गं ताओ देवलोगाओ बाउक्खएणं जाव पुमसाए पश्चा- वह देव उस देवलोक से आयु के क्षय होने पर—-यावत्याति जाव तस्स णं एगमवि आण वेमाणस्स जाव चत्तारि पुरुष रूप में उत्पन्न होता है यावत्--उसके द्वारा एक को पंच अवुत्ता चेव अबमुळेति "मण देवागुप्पिया ! कि बुलाने पर चार-पांच बिना बुलाये ही उठकर खड़े हो जाते हैं करेमो जाव कि से आसगस्स सबह ।" और पूछते हैं कि-हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें?-पावत् आपके मुख को कौन से पदार्थ अच्छे लगते हैं? १०-तस्स णं तहप्पगारस्त पुरिसजायस्स तहारुदे समणे प्र०-इस प्रकार की ऋद्धि से युक्त उस पुरुष को तप-संयम या माहणे वा उमओ कालं केवलिपष्णतं धम्ममा- के मूर्त रूप श्रमण-माहन उभय काल केबलि प्रजप्त धर्म इलमा कहते हैं ? उ.---हता ! आइक्लेम्ना । उ०-हो कहते हैं । प०-से पं पडिसुणिज्जा ? प्र०—क्या वह सुनता है ? उ०-हता पडिमुणिकजा । उ० - हाँ सुनता है। १०-से णं सद्दहेज्जा, पत्तिएम्जा, रोएज्जा ? प्र० क्या वह केवलि प्ररूपित धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति या रुचि करता है? जागो तिणठे समठे । अधिए ण से तस्स धम्मस्स उ०—यह सम्भव नहीं है, क्योंकि वह सर्वज्ञ प्ररूपित धर्म सद्दहणयाए। पर श्रद्धा करने के अयोग्य है। से य भवति महिन्छे-जान दाहिणगामिए घसए किन्तु वह उत्लाट अभिलाषायें रखता हुआ यावत्काहपक्लिए भागमेस्साए बुल्समबोहिए यापि भवति । दक्षिण दिशावती नरक में कृष्णपाक्षिक नैरयिक रूम में उत्पन्न होता है तथा भविष्य में उसे सम्यक्ल की प्राप्ति भी दुर्लभ होती है। एवं खलु समणाउसो! तस्स णियाणास इमेयास्वं हे आयुग्मान श्रमणो ! उस निदान पाल्य का यह पापकारी पाबए फलविवागे--जं णो संचाएति केवलि -- परिणाम है कि-- वह केवलि प्रजप्त धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति और पणतं धम्मं सहितए दा, पत्तियलिए वा, रुचि नहीं रखता है। रोइत्तए वा। -दसा. द. १०. सु. ३५-३७ (६) णिग्गंथ-णिग्गंथोए लगदेयो परिवारणानिवान करणं- निग्रन्थ नियन्थी द्वारा स्व-देवी परिचारणा का निदान करना३३५, एवं खस समणाजसो ! मए धम्मे पण्णसे-जान से य ३३५. हे आयुष्मान् श्रमणो! मैंने धर्म का निरूपण किया है परकममाणे माणुस्सएमु काम भोगेमु निण्यं गमछेज्जा, -यावत्-संयम की साधना में पराक्रम करते हुए निर्ग्रन्थ; मानब सम्बन्धी काम-भोगों से विरक्त हो जाए और वह यह सोचे कि"माणुस्सगा खलु काममोगा अधुवा-जाव-विपजणिना। "मानव सम्बन्धी कामभोग मध व है-यावत-त्याज्य हैं। संति उडवं देवा देवलोमंसि ते पं तत्य णो अण्णेसि देवाण जो ऊपर देवलोक में देव हैं- यहां अन्य देवों की देवियों देवीओ अमिजंजिय-अभिजिय परियारति, अपणो चेव के साथ विषय सेवन नहीं करते हैं, किन्तु स्वयं की विकुवित अप्पाणं विउवित्ता परियारेति, अप्पणिज्जियाओ बेबोओ देवियों के साथ विषय सेवन करते हैं। तथा अपनी देवियों के अमिज जिय अभिजिय परियारेति ।" साथ भी विषय-सेवन करते हैं।" "जह हमस्स सुचरिय-तव-नियम-भरवासरस कल्ला "यदि सम्यक प्रकार से आचरित मेरे इस तप-नियम एव फल विसि विसेसे अस्थि, अहमवि आगमेस्साए इमाई एया- ब्रह्मचर्य-पालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी हवाई विश्वाई भोगाइ मुंजमाणे विहरामि, से तं साहू।" आगामी काल में इम प्रकार के दिव्य भोग भोगते हुए विचरण करूं तो यह श्रेष्ठ होगा।" १.६ प्रथम निदान में देखें।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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