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________________ सूत्र ३१२ आराधक-अपारम्भ अणगार आराधक-विराधक [१३७ ४ सयाओ मेहुणाओ पजिविरया । (४) संपूर्णत; अब्रह्मचर्य से प्रतिषिरत होते हैं। ५. सम्याओ परिगहाओ पडिविरया। (५) तथा सम्पूर्णतः परिग्रह से प्रतिविरत होते हैं। ६. सच्चामो कोहाओ, ७. माणाओ, ८. मायाओ, सम्पूर्णतः (१) क्रोध से, (७) मान से, (८) माया से, ६. लोभाओ, १०. पेज्जाओ, ११. दोसाओ, १२. कलाहाओ, (६) लोभ से, (१०) राग से, (११) द्वष से, (१२) कलह से, १३, बाभक्खाणाओ, १४. पेसुग्णाओ, १५. परपरिवायाओ, (१३) अभ्याख्यान से, (१४) पशुन्य से, (१५) परपरिवाद से, १६. अरइरईओ, १७. मायामोसाओ, १८. मिच्छासण- (१६) अरति-रति से, (१७) माया मृषा से, (१८) मिध्यादर्शनसल्लाओ परिविरया। शल्य से यावजीवन प्रतिविरत होते हैं। सम्बाओ आरम्भ-समारम्माओ परिविरया। सब प्रकार के आरम्भ-समारम्भ से प्रतिविरत होते हैं, सय्याओ करण-काराबणाओ पडिविरया। करने तथा कराने से सम्पूर्णतः प्रतिविरत होते हैं, सव्याओ पयग-पयायणाओ पडिविरया । पकाने एवं पकवाने से सर्वथा प्रतिविरत होते हैं, सख्याओ कोट्टण-पिट्टण-तज्जण-तालण-बह-बंध-परिकिलेसाओ काटने, गीटने, तजित करने, ताड़ित करने, वध-बन्धन एवं परिविरया। किसी को कष्ट देने से सम्पूर्णत: प्रतिविरत होते हैं। सव्याओ पहाण महण-बष्णप-विलेवण-सह-फरिस-रस-रव- स्नान, मर्दन-वर्णक-विनेएन-शब्द-स्पर्श-रस-रूप-गन्ध-मालागंध-मल्लालंकाराओ पजिविरया। और अलंकार से सम्पूर्ण रूप से प्रतिविरत होते हैं। जे पावणे तहप्पगारा सावज्जजोगोवहिया कम्मंता परपाण- इसी प्रकार और भी जो पाप-प्रवृत्तियुक्त, छल-प्रपंचयुक्त परियावर फरा कज्जंति, तओ वि पडिविरण जाबन्जीवाए। दूसरों के प्राणों को कष्ट पहुंचाने वाले कर्म किये जाते हैं उनसे भी जीवन भर के लिए सम्पूर्णतः प्रतिविरत होते हैं । से जहाणामए अणणारा भवंति-१. हरियासमिया, २. वे अनगार भगत्रात-(१) ईर्यासमिति युक्त, (२) भाषा भासासमिया, ३. एसणासमिपा, ४, मायाण-भंड-मत्त- समिति युक्त, (३) एषणा समिति युक्त, (४) पात्र आदि के उठाने, णियखेवणासमिया, ५. उच्चार-पासवण खेल-संघाण-जल्ल इधर-उधर रखने की समिति से युक्त, (५) मल-मूत्र-खंखार परिट्ठरवगिमा ममिया, नाक आदि का मैल त्यागने की समिति से युक्त होते हैं। मणसमिया, वइसमिया, कायसमिया, मणगुत्ता, वहगुत्ता, मग समित, वरन सगित, काय समित, जो मन बचन तथा कायगुत्ता, पुसा, गुलिपिया, गुत्तबंभयारी, चाई, लज्जू, शरीर की क्रियाओं का संयम करने वाले, गुप्त---शब्द आदि विषयों धन्ना, तिखमा, जिइंदिया, सोहिया, अणियाणा, अप्पस्सुपा, में राग रहित-अन्तर्मुख. गुप्तेन्द्रिय-इन्द्रियों को उनके विषय अबहिल्लेसा सुसामग्णरया, दंता, हणमेव निगाथं पावयणं व्यापार में लगाने की उत्सुकता से रहित, गुप्त ब्रह्मचारी-नियमोपुरओकाऊं विहरति ।। पनियम पूर्वक ब्रह्मचर्य का संरक्षण करने वाले, त्यागी, लज्जा वाले, धन्य, क्षमा-धारी, जितेन्द्रिय, शोधन करने वाले, अल्प उत्सुक्र, संयत-विचार वाले, सुश्रामण्यरत, दान्त और केवल इस निग्रंथ प्रवचन में श्रद्धा रडकर विचरण करते हैं। तेसि गं भगवंताणं एएणे विहारेण विहरमाणाणं अत्यगइ- ऐसी चर्या द्वारा संयमी जीवन का निर्वाह करने वाले पूजयाणं अपते अणुत्तरे णिच्वाधाए निराबरणे कसिणे पडिपुण्णे नीय श्रमणों में से कक्ष्यों को अन्तरहित सर्वश्रेष्ठ, वाधारहित, केवलवरणाणतणे समुष्पज्जा। आवरणरहित, सर्वार्थग्राहक, परिपूर्ण, केवलज्ञान केवलदर्शन समुत्पन्न होता है। ते बहूई वासाई केबलरियागं पाउणं ति, पाणिता भत्तं वे वहत वो तक केवलीपर्याय का पालन करके, आत में पच्चक्वंति पच्चविखत्ता, बहई भत्ताई अणसणाए छेति, आहार का परित्याग करके अनशन सम्पन्न कर, छवित्ता, १ उपमा का अंश संयमी प्रकरण में देखें।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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