________________
३४
सर्वदर्शनसंग्रहे
इन भावनाओं में क्षणिकत्व-भावना का अनुमान नील आदि क्षणों ( = क्षणिक पदार्थों की सत्ता देखकर करना चाहिए । [ चूंकि नील आदि पदार्थ क्षणिक हैं इसलिए एक साधारण क्षणिकत्व की भावना मान लेनी चाहिए। इस भावना का साधक अनुमान इस प्रकार होगा ]-जिसकी सत्ता है वह क्षणिक है, जैसे ( उदाहरण )-मेघमण्डल । [ अब चूंकि सामने दिखलाई पड़नेवाले ] इन भावों की सत्ता है, [ इसलिए ये भाव भी क्षणिक होंगे ] । यह नहीं कह सकते कि उपर्युक्त अनुमान में हेतु ( 'सत्ता' ) असिद्ध है । ( असिद्ध हेतु उगे कहते हैं जो व्यवहारतः असंगत कारण हो, साध्य की तरह ही हेतु को भी सिद्ध करने की आवश्यकता पड़े । न्यायदर्शन में इस हेत्वाभास को साध्यसम कहा गया है, नव्य नैयायिकों ने असिद्ध मानकर इसके तीन भेद किये हैं । यहाँ पर कुछ लोग सन्देह करते हैं कि 'यत् मा तत् क्षणिकम्' में वस्तुओं का 'सत्' होना ही असिद्ध है क्योंकि सभी दार्शनिक पदार्थो को सत्तावान् नहीं मानते। लेकिन इस 'सत्' रूपी हेतु को असिद्ध मानना ठीक नहीं है-ग्रंथकार ऐसा कहते हैं । असिद्ध इसलिए नहीं मानते कि सत्व (सत्ता) में प्रयोजनमूलक कार्य करने की क्षमता रहती है ( अर्थक्रियाकारित्व = कोई भी काम किसी उद्देश्य या अर्थ से किया जाता है, उक्त प्रकार के कार्य करने की शक्ति जब रहे तभी सा होता है ); यह सत्व नील आदि क्ष.णक पदार्थों के प्रत्यक्ष से ही सिद्ध होता है [ सत्व का लक्षण 'अर्थक्रियाकारी होना' प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध होता है जब कि हम नील आदि पदार्थों को क्षणिक पाते हैं-नील आदि पदार्थ क्षण भर में अपनी अर्थसाधक क्रिया करके नष्ट हो जाते हैं, इसलिए ऊपर के अनुमान में भावों का सत् होना असिद्ध हेतु नहीं ] ।
दूसरा कारण :-एक नियम है कि व्यापक ( व्याप्त करनेवाला) का निष्कासन ( व्यावर्तन ) करने से व्याप्य का भी निष्कासन ( exclusion ) होता है ( व्यापक में नहीं रहनेवाली वस्तु व्याप्य में भी नहीं रहती ), इस नियम के द्वारा व्यापक पदार्थ से क्रम ( आगे-पीछे होना ) और अक्रम ( साथ-साथ होना ) का निष्कासन ( व्यावृति ) भी करने पर, क्षणिक होनेवाली वस्तुओं से सत्ता का निष्कासन भी सिद्ध होता है। [ अभिप्राय यह है कि व्यापक से किसी को अलग करना व्याप्य से भी उसे अलग कर देना है, अब व्यापक से क्रम-अक्रम ( जो अर्थक्रियाकारित्व या सत्ता को व्याप्त करता है ) को पृथक कर देते हैं इससे स्वभावतः अक्षणिक ( व्याप्य ) वस्तुओं से सत्ता पृथक् हो जाती है .:. क्षणिक सत् है क्योंकि अक्षणिक से सत् व्यावृत्त होता है। इससे 'यत्सत्तत्क्षणिक' सिद्ध होता है और उपर्युक्त अनमान हेतु के ठीक रहने से उचित प्रतीत होता है।]
__ यह सार्थक कार्य करने की शक्ति (जिसे यहाँ पर सता कहा जा रहा है ) क्रम (पूर्वापरता ) तथा अक्रम ( एक साथ होना ) से व्याप्त है और क्रम तथा अक्रम के बीच तीसरा विकल्प भी सम्भव नहीं है। वैसा करने पर निम्नलिखित नियम के अनुसार व्यावहारिक दृष्टि से विकट असंगति हो जायगी-"आपस में विरोधी [ पदार्थों ] के