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बसलाते हैं, कि न वह मोटा हैं न पतला, न छोटा न लम्बा न उस में लाली (कोई रूप ) है न स्नेह है. बिना छायाके है, बिना के है. बिना वायुके है, बिना रसके हैं, और बिना गन्धके है। थिन आँख for are faन वारसी और बिन मन के हैं। बिन तेज बिन प्राण और बिन मुखके हैं। उसका परिणाम कोई नहीं. न उसका कोई अन्दर है न उसका कोई बाहर हैं। न वह किसी को भांगता है न उसको कोई भोगता है । इसका अभिप्राय यही है कि इस रूप में न हम उसके कुछ अर्पण करते हैं न वह हमारे जीवन पर कोई प्रभाव डालता है या यूं कहो कि इस रूप में वह हमारे ज्ञानका परम लक्ष्य तो हो सकता है, पर उपास्य नहीं उपास्य वह अपने विशिष्ट रूपमें ही है)
(विशिष्टरूपमें उसकी अनेक रूपोंमें उपासना )
मनुष्यके हृदय में उसके जिस रूपके लिये भक्ति पूजा और उपासना है वह उसका विशिरूप ही और यह रूप उसका अनेक रूपों में पूजा जाताहै । इन्हीं रूपों को देवता कहते हैं, जो वेद में अमि इन्द्र, वायु. सूर्य मित्र, वरुण, पूषा आदि नामोंसे वर्णन किये हैं।
मनुष्य पहले पहले इन अलग अलग विशिष्ट रूपों में उसका चिन्तन कर सकता है, और जब वह उसकी महिमाको अग अलग अनुभव कर चुकता है. तो फिर उसका हृदय एक साथ सारं विश्वमें उसको महिमाका अनुभव करता हुआ उसका ध्यान और पूजन करता है. इस समष्टि रूपको अदिति, प्रजापति, पुरुष, हरिण्यगर्भ आदि नामोंसे बन किया है
शिरूपों (देवतारूपों) में परमात्माके जानने की आवश्यकता पहले पहल केवल शुद्ध रूपमें परमात्मा हुज्ञेय है । उसका जानना जगत् ही में सम्भव है, वह भी अनेक विशिष्ट रूपों (देवतारूपी) में। क्योंकि उसकी महिमा जो इस जगत में भी देखी जाती है इतनी बड़ी है, कि समष्टि रूपमें उसका ज्ञान मन की शक्तिसे