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जगत से सम्बन्ध रखते हुए का है।, सम्बन्ध सहित को विशिष्ट
और सम्बन्ध रहित को शुद्ध कहते हैं। विशिष्ट को शथल और शुद्धको श्याम भी कहा है । तात्पर्य यह है कि यह जगत् उस परमात्माका प्रकाशक है.यह सारा जगत उसी एकका प्रकाशित करता है । पर जिसको यह प्रकाशि: नरसा है या झाले हे है और अदृश्य है । जगत को अलग रख कर उसके निज स्वरूप को देखें तो वह उसके शुद्ध स्वरूप का दर्शन है. और जगत का अन्तर्यामी होकर उस पर शासन करता हुआ देखें तो वह उसके विशिष्टरूप का दर्शन है।
शुद्ध ज्ञेय और विशिष्ट उपास्य है । अब उसका शुद्ध स्वरूप तो सचिदानन्द स्वरूप वा नित्य शुद्ध. बुद्ध, मुक्तस्वभाव अथवा नेति नेति (यह नहीं यह नहीं) के सिवाय किसी प्रकारसे वर्णन नहीं होसकता. और अगम्य और अचिन्त्य होनेसे न हमारे जीवन पर उसका कोई प्रभाव पड़ता है, न हम अपनी त्रुटियाँ पूरी करने और अपने को उच्च अवस्थामें लानेके लिये उससे प्रार्थना कर सकते हैं, क्योंकि किसी मानुषी गुरण प्रेम, दयालुता आदि का हम शुद्धके साथ सम्बन्ध नहीं कर सकते, न किसी प्रकारसे उसकी पूजा कर सकते हैं। यह बात याज्ञवल्क्य मे गार्गीको शुद्धका उपदेश करते हुए बतलाई है-- __स हो वाच 'एतद्वै तदचरं गागि ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थूलमनए
घिमलोहितमस्नेहमच्छाय मतमोऽषाबनाकाशमसङ्गमरसम गन्धमचचुष्कभक्षोत्र पवागमनोऽतेजस्कमप्राणप्रमुखममात्रमनन्तर मवाह्यम् । न तदश्नाति किंचन न तदश्नाति कश्चन' (वृह उप० ३८)
उसने कहा-हे. गागै! इस अक्षर (ब्रह्म) को ब्राह्मण