Book Title: Pundarik Charitram
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Mohanlal Girdharlal Shah Bhavnagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनगर-श्री "शारदाविजय" जैन ग्रन्थमाला. (२) PrvकपEVANWERENAVAKWANDrovococoooooooooooooor RAJ- SAJHALISAJHAMASHAMALHALI-SAMAJECTNA लागार श्रीरत्नप्रनसूरि-शिष्य-आचार्यश्रीकमलप्रनविरचितम् श्रीपुण्डरीक-चरित्रम्. می NaraharinaalakaMMRPer - संपादक:-दोशी-जीवराजतनुजा पं०-वेचरदासो न्यायतीर्थो व्याकरणतीर्थश्च. इदं पुस्तकं शाह-गिरधरलाळस्यात्मजेन मोहनलालेन भावनगरे शारदाविजय-मुद्रणालये मुद्रयित्वा प्रकाशितम्. : २०. सन् १९२४ वैक्रमम् १९८० वर्धमानीयम् २४५० मूल्यम् १०-०-० रूप्यकाः Matulal Bashkarbhai at the Sharda-Vijaya printing press-BHAVNAGAR. បានដៃ BHBaaaaaacasesexaaaaaaaaaaaaaaaaaa DRONAROOOOOOOORUAE For Private & Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SPERMER 0000000000000000000 प्रस्तावना. - - - - श्रीमान् महावीरमभुना जैन शानमा कोटीगण, वज्रशाखा अने चंद्रगच्छ विस्तार पाम्यो. चंद्रगच्छना नायक श्री चंद्रप्रभमूरिनी पाटे धर्मघोषसूरि थया. धर्मघोपमूरिनी पाटे चक्रेश्वरमरि, चक्रेश्वरसूरिनी पाटे त्रिदशमभमूरि, त्रिदश-8 समरिनी पाटे तिलकसरि, तिलकमूरिनी पाटे धर्मप्रभमुरि, धर्मप्रभमूरिनी पाटे अभयमममूरि अमे अभयप्रभमूस्लिी पाडे रत्नप्रभसूरि थया. ते रत्नमभमूरिना शिष्य कमलमभमूरि चौदमा सेकामां थया जेमणे आ पद्यपंध मूळग्रंथाली स्वना विक्रम संवत १३७२ मां धोळका गाममां करी. भामूळ ग्रंथना रचनार महान् धुरंधर आचार्य थइ गया. तेमनो संस्कृत भाषा उपर अलौकिक काबु होवो जोहर 18 कारण के तेमर्नु बनाई आ महाकाव्य विविध प्रकारना अलंकारो भने उपमाओथी व्याप्त छे, एटलुज नहि पण केटलाक अहंकारी भने उपमानो तो विचित्र अने अलौकिक रीते घटाव्या छे. कविओ जे कहे छ के 'साचु अमृत काव्यरसज छ तेने आ ग्रंथ परेपूरी पुष्टि आपे छे. संस्कृत जाणनारने आ ग्रंथ अवश्य वाचवा लायक अने घणुंज ज्ञान आपवावाळो छे. ठेकाणे काणे वीजे स्थळे रष्टिमां न आवे तेका प्रस्ताविक लोको पाया आकाक्ष्यमा घणा आवे छे. आ ग्रंथ पांचवाथी अने वांच्या PGDOGONOGO OooooooooooooooooooOOOOộc Jain Educal Ixternational Anilw.jainelibrary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम् ।२॥ 18 पछी तेर्नु मनन कारवाथी कौए काध्यमां गुंथेली चमत्कृतिनो प्रकाश थाय छे. वांचनारने एकंदर आनंद रस उपजावनार 8| मने एक वखत वांच्या पछी फरीथी तेनुं तेज पुस्तक वांचवानी मेरणा करनारुं आ पुस्तक छे. आ संस्कृत काव्य महाकाव्य छे. कर्ताए जो के तेनी अंदर अनेक चमत्कारी अने भावो प्रगटपणे तेमज गढपणे 8 राखेला छे छतां तेने अत्यंत कठण थवा दीधुं नथी, संस्कृत भाषा अत्यंत कोमळ छटादार अने आनंददायक छे. वांचनारने संस्कसनो तेमज जैनशास्त्रनो सारो बोध आपनाएं आ काव्य छे. माज सुधी शश्रृंजयना दीपकतुल्य पुंडरीकस्वामी जेवा महा पुरुषतुं चरित्र संपूर्णपणे बहार न पडवार्नु कारण एज देखाय के के कमलमभमुरिए रचेला आ काव्यनी नकलो जोइए तेटला प्रमाणमा लखायेली नहि होय, कारणके आ चरि मी प्रत अमने फक्त एकज मळी शकी अने ते पण पडी मात्रानी अने अत्यंत जुनी होवाथी जीर्ण मायः हती. आ ग्रंथ अत्यंत उपयोगी तेमज प्रसिद्ध करवानी आवश्यकतावाळी होवाथी अमे एक सारा पंडित तरीके गणांता मी. बेंचरदास पासे सारी रीते संशोधन करावी बहार पाड्यो छे. वांचनारने सरळ थवा वास्ते पर्याय शब्दो अने नोट पूरता प्रमाणमा आपेली छे. आ ग्रंथना आठ सर्ग अने छेवटे एक सर्ग जेटली समाप्ति करेली छे. तेमा विस्तारथी पुंडरीकस्वामीन चरित्र लखवा उपरांत संक्षेपथी प्रथम चक्रवर्ती भरतमहाराजनुं अने प्रथम जिनपति ऋषभदेवनु वर्णन आपेलं छे. सिद्धाद्रि-शत्रुजय, वर्णन पण सारा प्रमाणमां आपी घणो प्रकाश कर्यों केविषयानुक्रमणिका सर्ग १ को-आ सर्गमां कर्ताए मांगलिक करीने युगादिनाथने केवळज्ञानना प्रसंगमा अयोध्यानगरीथी शरुआत करीने ऋषभदेवराजा, तेमनी परिनओ, तेमना पुषोना पूर्वभवनी साये जन्म अने नामो, पुंडरीफस्वामीनो जन्म, ऋषभदेवनी gooooooooooooooooOoooooooooo aanoo0000 000000000 ॥२॥ Jain Educatieidernational For Private & Personal use only 12dainelibrary.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $500 पुटरीक-8 दीक्षा तथा तेमने भिक्षानी अमाप्ति, कच्छ महाकच्छ, नमि अने विनमि, श्रेयांसकुमारनु दान, तक्षशिलाना उद्याना बाहु॥३॥ बलिने प्रभुनो समागम न थवो, प्रभुने केवळज्ञान थया पछी मरुदेवा माताने लइने भरतराजानुं वंदन माटे जवू, मरुदेवा मातार्नु सिद्धिगमन, पुंडरीकस्वामीनी दीक्षा अने गणधरपदनी स्थापना विगेरे वर्णवेला छे. - सर्ग २ जो-भरतराजानो दिगविजय, भरत चक्रीना अहाणुं भाइओनी दीक्षा, बाहुबलि साये युद्धनी तैयारीनु वर्णन आपेल छे. सर्ग ३ जो-भरत अने बाहुबलिन युद्ध. बाहुबलिने केवळज्ञान, ऋषभदेवन स्फटिकाचळ उपर गमन भरतमहाराजे करेलु साधर्मिक वात्सल्य, भरतराजाए करेला चार वेदो, भरत पुत्र मरीचिनोमद, भरतमहाराजनुं चोवीश जिनना नामवाल्डं 18 बार श्लोकनुं वीतराग स्तोत्र, पुंडरीकस्वामीए पोताने केवळज्ञानना संबंधमां करेलो प्रश्न, प्रभुनी आज्ञानुसार पुंडरीकस्वामीनुं विमळाचळ प्रत्ये गमन वर्णवेला छे. सगे ४ थो-विहार करता पुंडरीकस्वामीनं पोतनपुरना उद्यानमां आगमन, त्यां मौन रहेल रत्नचूडराजा साये 8 मुनिचंद्र नामना मंत्री- आगमन, मंत्रीए राजाना मौन थवाना संबंधमां करेल प्रश्न, पुंडरीकस्वामीए कहेल दान महिमा प्रद शित राजानो पूर्वभव, ते रत्नचूडराजानुं पांच हजार मंडलिक राजाओ साथे दीक्षा ग्रहण- वर्णन. सर्ग ५ मो-पुंडरीकस्वामीन चंपापुरीयां आगमन, लक्ष्मीधरराजानुं चंद्रना छत्र सहित प्रभुने वंदन करवा आवq, हरिणगमेषोदेवे ते राजाने चन्द्रनु छत्र प्राप्त थवानुं पूछेलु कारण, पुंडरीकस्वामीए कहेल शियळ अने तप महिमा प्रदर्शित करनार लक्ष्मीधरराजानो पूर्वभव, एंशी लाख मंडळीकराजा सोथे लक्ष्मीधरराजाए लीधेली दीक्षानुं वर्णन. सगे ६ हो-पुंडरीकस्वामीनुं गजपुरनगरमा आगमन, त्यां सोमयशाराजानु विजयसेन मंडळीकराजा तथा गुणाराम 181 ॥३. cosxosooooo 000000000000000000 106 Ooooooooooooooooooooooooooo Jain Educatiemational d.jainelibrary.org Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीक ॥ ४॥ वानी साथै आव श्वाननी धर्म भावनाना संबंधमां पुंडरीकस्वामीए कहेळ भावमहिमा प्रदर्शितः विजयसेन राजानो पूर्वभव अने देव द्रव्य भक्षण उपर गुणाराम श्वानना पूर्व भवनुं वर्णन अने विजयसेन राजानुं दीक्षाः ग्रहक सर्ग ७ मो - पुंडरीकस्वामीनुं मथुरापुरीमां आगमन, त्यां धन श्रेष्ठीनुं पोताना पुत्र देवदत्तने लइने आषवुं. श्रेष्ठीए देवदत्तन स्त्री विमळाना दुर्भिगंधपणानो करेलो प्रश्न, पुंडरीकस्वामीए कहेल देवदत्तनो तथा मुनिनी दुगंच्छा, मंदिरनी आशातना अने प्राणिओनो वियोग करवाना फळ प्रदर्शित देवदत्त अने विमळाना पूर्वभवनुं वृत्तांत अने देवदत्तनुं त्रीश हजार वणिकोनी साथे दीक्षाग्रहण. सर्ग ८ मो - भरतचक्रवर्ती प्रथमतीर्थपतिने वांदवा जाय छे. ते बखते तेमनी साथै पुंडरीकस्वामीने नहि देखवायी प्रभु तेनुं कारण पूछे छे. प्रभु कहे छे के पुंडरीक गणधर विमळाचळ प्रत्ये जाय छे अने त्यां तेमने केवळज्ञान उत्पन्न थवानुं छे. भरतराजानी ते वखते संघ काढीने सिद्धाचळप्रत्ये जवानी इच्छा थाय छे अने प्रभुने साथै पधारवा विज्ञप्ति करे छे. पछी प्रभु तथा संघ सहित भरतराजा नीकळी मथुरामां पुंडरीकस्वामीनी साथे मछे के संघः सिद्धाचळनी ते वखतना तळाटी रुप वणारसीपुरीमां पहोंचे छे. भरतराजा अहिं विमळाचळना दर्शननो अपूर्व उत्सव करे छे. चैत्री पूर्णीमाने दिवसे पुंडरीकस्वामी पांच क्रोड मुनिओ साथे अनशन करी केवळज्ञान पामी मोक्षे जाय छे. भरतराजा सिद्धा चक्र उपर जिनमासाद करे छे. प्रांते आदिजिननो परिवार बतावी अष्टापद उपर आदिश्वर प्रभुना निर्वाणनुं वर्णन अने, अष्टापद उपर भरतराजाए करावेल जिनमंदिरनुं वर्णन छे. छेवटे समाप्तिमां-भरतराजाने अरिसाभुवनमां केवळज्ञान अने अष्टापद उपर तेमना निर्वाणी आपेली छे. प्रांत ग्रंथकारनी परंपरानुं वर्णन आपी आ ग्रंथ समाप्त करेल. छे. Jain Educatiomational च jainelibrary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घुवीक आ ग्रंथना पहेला अण सर्गमां अने आठमा सर्गमा जे आदिश्वर भगवाननु चरित्र, भरतमहाराज चरित्र तथा शबंजयनी हकीकत आपेली छे ते जो के घणे ठेकाणे आवी गयेली छे, छतां आ ग्रंथमां तेज हकीकतनुं कर्ताए घणी खुबीथी वर्णन कर्य है. सर्ग चोथा, पांचमा, छठा अने सातमामां आपेला चार चरित्रो तदन अप्रसिद्ध छे. ते चरित्रो खास मनन पर्वक वाचवा जेवा छे अने जीवनमा घणोज सुधारो करवावाळा है. आ ग्रंथ हाथमां लीधा पछी साद्यंत वांचवानी रुची थया विना रहेती नयी. आ ग्रंथन जो विस्तारथी विवरण करवा घेसीये तो ग्रंथ करतां पण मोटुं पुस्तक पड जाय तेमवार 18 साचत वांची जइ कर्त्तानो अने प्रसिद्ध कर्त्तानो श्रम साफल्य करशो एवी आशा छे. आ पुस्तकनुं गौरव वधारवा तेमां आवता पंदर आकर्षक चित्रो नाखवामां आव्या छे. संस्कृतना अभ्यासीओ सर्व होता नथी तेथी तेमज ग्रंथ वाचवा भणवा योग्य होवाथी अमे आ ग्रंथनु भाषांतर पण बहार पाडयुं छे ग्रंथनी अंदरना सधळा प्रस्ताविक श्लोको भाषांतरमा दाखल कर्या छे. भाषांतर अत्यंत रसीक छे अने १३ डीझाइनना चित्रो नाखी सचित्र करेल छे. भाषांतर प्रसारक सभाना मंत्री रा. रा. कुंवरजी आणंदजीभाइनी दृष्टि नीचे छपायेक के. भाषांतरनी किंमत फक्त रु. ५ राखी छे. SOROR 2000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000 संवत १९८० चैत्र शुद १५ शाह मोहनलाल गीरधरलाल. भावनगर. Jain Education olemnational iow.jainelibrary.org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ॥ श्रीजैनी शारदा विजयते ॥ अहेम् । श्रीपुण्डरीक-चरित्रम् श्रीरत्नप्रभसूरि-शिष्य आचार्यश्रीकमलप्रभविरचितम् । मङ्गलानि - 8.श्री-कीर्ती-श्वरता-ऽऽत्ममोदसदनं दुष्कर्मनिष्कन्दनं स्थैयौं-दार्य-विवेकिताप्रमदनं सर्वाऽमरामोदनम् । स्फूर्जत्सप्तनयं सुहेतुनिचयं विज्ञातविश्वत्रयं पायात् पुण्यमयं सुमङ्गलमयं वो वाङ्मयं चिन्मयम् ॥१॥ श्रीप्रथमो जिनः - विश्वच्छायाविधायी सकलसुकविपुस्कोकिलाचवाचः संस्कुर्वन् मञ्जुरीतिप्रभृतिचतुरतामञ्जरीस्वाददानात्।। आकल्प स्थायिरूपोऽतुलरस-फलदःसद्विवेको रसालो येन प्रारोपितोऽसौप्रथमजिनपतिर्यच्छताद् वाञ्छितानि॥8 8 श्रीशान्तिजिनः - ४ दत्तेऽल्पादपि सेवनान्निजतुलां पारापतस्यात्मनो देहेनाऽपि तदेष मे त्रिभुवनेश्वर्या जिनेन्द्रश्रियः । १ सप्त नयाश्चैतेः-नैगमः, संग्रहः, व्यवहारः, ऋजुमूत्रः, शब्दः, समभिरूढः, एवंभूतश्च । २ प्रवचनम् । ३ चितेः कारणात-उपचारदृष्टया चिन्मयम् । ४ उच्चवाच:-उच्चा वाचः संस्कुर्वन् । ५ त्रिभुवनेश्वर्याः चक्रवर्तिश्रियाः । 0000000000000000000000000000000000000000000000 Jain Education national xhinelibrary.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिटरीक - दाता सख्यमितीव चक्रिकमलां जन्मद्वयस्याऽनुगा यो हष्टां कृतवान् करोतु स जिनः शान्तिः प्रभा सप्रमाम् ॥ श्रीनेमिजिनः - गत्वोहाहमिषान्निजोजसगुणेनैवाऽष्टजन्मप्रियां मोहारेः प्रविमोच्य पाणिनिहिते दीक्षाऽभिधे भाजने । हस्तक्षालनवत् प्रदाय विमलज्ञानाम्बु सिद्धेः सुखं भोज्यं भोजितवान् स्वयं तु बुभुजे पश्चात् स नेमिः श्रिये ॥४॥ श्रीपार्श्वजिनः - यः पूर्व कमठस्य वृष्टिसमये नागेश्वरात् सोल्लसद्-देहो वृद्धिमयन् सुरद्रुम इवोत्सर्पत्फणापल्लवः । उन्मीलत्सुमना विनीलकिरणैः परिव प्रावृतो जातज्ञानफलस्तदैव कुरुतात् पार्श्वः श्रियं पार्श्वगाम् 8 श्रीवर्धमानजिन::४स्वामी श्रीत्रिशलोदरेऽतिलघुतां स्नात्रे पदप्रान्ततो मेरोनर्तनशिक्षणे च गुरुतां विश्वे निजां दर्शयन् । मातुगौरवमुच्चकैः कथितवान् यो गर्भयोगी जिनः सोऽस्तु ध्यानविवर्धमानमहिमा श्रीवर्धमानः श्रिये ॥६॥ 8 श्रीगुरुः पुण्डरीका - १२ आद्यं केवलरत्नकोशमचलं शत्रुजयाख्यं जवाद् गत्वा यः प्रकटं विधाय विजितक्रोधादिशत्रुव्रजान् । योधेन्द्रानिव सन्मुनीन् विहितवानऽक्षीणलक्ष्मीयुतान् श्रीनाभेयनिदेशतः स गणराट् श्रीपुण्डरीकोऽवतात् ॥8 8 श्रीगौतमो गुरु:४ अस्त्यक्षीणमहानसी मयि यथा लन्धिः स्वभोगावधिः स्यादेषाऽपि कदा तथेति मनसा ध्यात्वेव हस्तस्थिताम्। 500000000000000000000000000000000000000 00000000000000 SchooCodb6d688560060OCOooOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO ॥२॥ Jain Education national djainelibrary.org Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रित्र POOTOO0000000 ज्ञानद्धिं प्रथम प्रदाय सुयतिव्यूहाय यो भुक्तवान् स खामी मम गो-तमोऽपहरतु श्रीगौतमोऽयं गुरुः ॥८॥8 श्रीअतिमुक्तको मुनिः - येन नारदमुनेः पुरः पुरा सिद्धतीर्थमहिमा महाद्भुतः। कीर्तितः सुकृतकीर्त्यलंकृतः सोऽतिमुक्तकयतीश्वरोऽवतात्॥ ४ 8 श्रीसूरीन्द्राः - .यः पञ्चधाऽऽचारविशेषितश्रीरवाप्तसिद्धान्तसमुद्रपारः। सूरीन्द्रवर्गोऽस्तु सुबोधिरत्नभरप्रदो ज्ञानरुचाग्रदीपः॥8 8 ग्रन्थकर्तुरात्मलाघवम् - पुण्डरीकचरित्रस्य प्रोज्ज्वलस्य विलोकने । मार्तण्डमण्डलस्येव स्वल्पदृष्टिः क्षमोऽस्मि किम् ? ॥ ११ ॥ 8 मुनिप्रेरणया प्रवृत्तिः - मुनीनां पितृतुल्यानां वाक्यालम्बनतोऽथवा । करिष्यामि पदोच्चारान् बाल: स्वल्पवलोऽप्यहम् ॥ १२ ॥ तथाच: शत्रुजयमाहात्म्ये पूर्वांचार्याः - सिरिसत्तुंजयगिरिवर-माहप्पं भदबाहुणा रइअं। श्रीशचुंजयगिरिवरमाहात्यं भद्रबाहुना रचितम् ॥ तत्तो य वयरसामी उद्धरइ इह समासेण ॥१३॥ ततश्च वज्रस्वामी उद्धरति इह समासेन.॥ १३ ॥ तं इह पालित्तेणं उद्धरिअं गिरिवरिंदरंदाओ। तद् इह पादलिप्तेन उद्धृतं गिरिवरेन्द्ररौद्रात् । १ गोः वाण्याः , तमः-अज्ञानम्-गो-तमः । २ "रुंदो विउल-मुहलेसु"-(दे० स० व०) इति देशीनाममालावचनाव अत्रत्यो रुंद-शब्दो विपुलार्थः, स च रौद्रशब्दप्रकृतिक इति । 0000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000 ॥३॥ Sooooo Jain Educatio Sternational jainelibrary.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम्. 10000000 पुण्डरीक-कप्पं पाहडेभिन्नं भणिमो संखेवओ सारं ॥१४॥ कल्पं प्राभृतभिन्नं भणामः संक्षेपतः सारम् ॥१४॥ पौण्डरीकी कथा श्रूयताम् - ॥४॥ अतश्च४ 8 विवेकलोचनार्कस्य श्रीनाभेयजिनेशितुः। धर्मवीरत्वशृङ्गारसुभगस्याद्यचक्रिणः ॥१५॥ शत्रंजयस्य सिद्धाद्रेश्चरित्रैश्चित्तचित्रदा । पौण्डरीकी कथा पुण्या पुण्याय श्रूयतां जनाः ॥१६॥ सत्पण्डिताः -(युग्मम्) प्रसद्य सद्भिविद्वद्भिर्मदाग्गुम्फे मनो निजम् । नर्मल्याय निधातव्यं कतकक्षोदवज्जले ॥१७॥ 8 अयोध्या8 अस्त्यऽयोध्येति नगरी गरीयासंपदास्पदम् । याऽहन्नाथा नृत्यतीव देवगेहध्वजैर्भुजैः ॥१८॥ ४ मणिवप्रस्फुरंद्धाम-जीरे प्रासादपद्मिनि । यस्याः प्रविष्टो मध्याह्न हंसो हंस इवाऽऽबभौ ॥१९॥ ४ दानं प्रियवाकुसहितं ददतो वीक्ष्य सज्जनान् । मौक्यतो लजिता यत्र कल्पवृक्षास्तिरोऽभवन् ॥२०॥ ४मानयन्ति सदा पुत्राः पितृन् यत्र पुरे भृशम् । इति प्रेक्ष्येव कामा-ज्यों धर्म पीडयतो नहि ॥२१॥ १२8 ऋषभो भूमिपतिः-पौराश्वः४ अर्हन् श्रीऋषभस्तत्र पाति भूमीपतिः प्रजाः। सुरा-ऽसुरशिरोरत्नराजिनीजितक्रमः ॥२२॥ आचारचातुरीचारु विश्व विश्वं चकार यः। स्रष्टत्यवादि पुरुषोत्तम-नाभिभवो जनः ॥२३॥ ४ १ एकः श्रीशत्रुजयकल्पः श्रीपादलिप्तमूरिणा संकलित- इति जैनग्रन्थावल्यां दृष्टम्, स एव अत्र अमेन ग्रन्थकृता ४ स्मृत इति सुसंभवम् । २ अत्र धामानि नीराणि, प्रासादाः पनानि । ३ मूकभावात् । ४ कृतारात्रिकमः । ५ विश्वं समस्तम् । Ro-occoonmoooookiAIN000000000000000000000 ॥४॥ Jain Education national Joiw.jainelibrary.org Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ४ बालेचन्द्रऽतिकौटिल्यं चञ्चलत्वं समीरेंगे। वहावेवातिदाहित्वं न पौरेषु कदाचन ॥२४॥ प्रीयन्ते गो-रसैर्यत्र गो-पोला उभयेऽपि हि । दान-सद्गतिसंयुक्ताः कुंजराश्च वृकंजराः ॥२॥ हृदि स्त्रीदर्शनाद् मारो बन्धश्च प्रेमतो नृणाम् । [प्तिमनो-वाक्-कायानां क्रियते यत्र यजनैः ॥२६॥ पवित्रा सचरित्रा च समृद्ध। तत्र धर्मिणि । न्यायिनि दानिनि सर्वाऽप्युर्वराजनि राजनि ॥२७॥ प्रभोः प्रगयिनी कीर्तिः सुरा-ऽसुर-मरेश्वरान् । नमयामास तन्नासावधिज्यं विदधे धनुः ॥२८॥ किंबहुना? धान्यादिना जिन-इनः स तमोऽपहार कुर्वस्तु येषु न केरै विधेऽङ्गितापम् । ८ धन्या जनाः प्रभुमहेषु च यैः सपुण्याः पीतः कुतूहलरस: स्मितपद्मनेत्रैः ॥२९॥ ऋषभपत्न्यो8सुमङ्गला खरूपेण दृशोराहितमङ्गला । सुनन्दा च सदाऽऽनन्दा प्रभोः पस्न्यौ बभूवतुः ॥३०॥ स्वामी ताभ्यामनासक्त-मनाः स बुभुजे सुखम् । पारो भोगफलाम्भोधेः प्राप्यते कथमन्यथा ? ॥३१॥ ४ अथाऽसंपूर्णषट्पूर्व-लक्षा देवी सुमङ्गला । दधेऽस्य गर्भ मोक्तिकं शुक्तिकेव पयोमुचः ॥३२॥ १ द्वितीयाचन्द्रस्य अतिवक्रवात् । २ पवने । ३ गो-रसाः दधि-नवनीतादिकाः, वाणीरूपाश्च । ४ गो-पालाः पृथ्वी-8 18/पाला.. आभीराश्च । ५दानं मदः, ददनं च। सद्गतिः-प्रशस्तं गमनम्, सद्वोधश्च-गतेोधार्यखात-अथवा गतिः स्वर्गादिः४] १६ गुप्तिनिषेधपक्षे गुप्तिः कारागृहम् । ७ तत असा ऋषभो न धनुः अधिज्यं विदधे-कील् एव सर्वेषां वशीकरणात । ८ इनः४ 18 सूर्यः, पतिश्च । ९ कराः किरणाः, रोज-देया भागाथ। 3000000000000000000000 5000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000 8 ॥५ ॥ Jain Education national Halainelibrary.org Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Occom हुण्डरीक-8 सुनन्दाऽपि हृदानन्दा प्रभुसेवाप्रभावतः । बभार गर्भ सद्धर्म-मर्दभ्रं भव्यधीरिव ॥३३॥ ॥६॥४अन्यादा नाश सत्ता । 8 अन्यदा निशि संसुप्ता साऽथ देवी सुमङ्गला। चतुर्दश महास्वप्नान् ददर्शाऽऽमोददायिनः ॥३४॥ गजो-क्ष-सिंह-लक्ष्मी-सक्-चन्द्रा-ऽर्क-कलश-ध्वजाः। पद्माकर-विमाना-ऽब्धि-रत्नपुञ्जा-ऽग्नयश्च ते ॥३५॥४ स्वप्नान् स्वबुद्धावास्थाप्य सा प्रबुद्धा महासती। प्रभाते सप्रभा प्रष्टुं प्रमोदात् प्रभुमभ्यगात् ॥३६॥ कराभ्यां क्रान्तहस्तीन्द्रं मृगेन्द्र सान्द्ररोचिषम् । दृष्ट्वा सो (स्वो) त्संगगं स्वप्ने सुनन्दाऽप्यत्र साऽऽययौ ॥३७॥ तयोः स्वप्नान निशम्याऽऽह स्वामी कोमलया गिरा । देवि ! स्वप्नप्रभावात् ते चक्री पुत्रो भविष्यति ॥३८॥8 सुमङ्गला पुनः प्राह मत्सुतः कर्मतः कुतः। भविष्यति स चक्रेशः प्रसयेदं वद प्रिय ! ॥३९॥ जगाद जगदीशोऽथ ज्ञानत्रयपवित्रवाक् । युवाभ्यां स्थिरचित्ताभ्यां देव्यो! संश्रूयतां वचः ॥४०॥ ऋषभपुत्रपूर्वभवा:क्षेत्रे महाविदेहाख्ये नगरी पुण्डरीकिणी। वज्रसेनाऽहतस्तत्र पुत्राः पञ्चाऽभवन्नमी ॥४१॥ वज्रनाभस्तथा बाहुः सुबाहुः पीठसंज्ञकः । महापीठश्चेति सुता आद्यश्चयभवञ्चिरम् ॥४२॥ कियत्यपि गते काले संसाराऽसारताविदः । वज्रसेनजिनस्याऽन्ते तपस्यां ते समासदन ॥४३॥ गणेश्वरपदे प्राप्त वज्रनाभो महामुनिः । अर्हद्भक्त्यादिभिः स्थानस्तीर्थेशत्वमुपार्जयत् ॥४४॥ ४बाहुबहुभ्यः साधुभ्यो भक्तं भक्तिभराद् ददत् । आर्जयच्चक्रवर्तित्वं महाभोगविभूतिदम् ॥४५॥ १ अदभ्रम्-संपूर्णम् । ĐỒ 6500 Ooooooo oooooooooooooooo १२ Jain Education n ational inelibrary.org Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम् ण्डरीक-8 यतःधर्मोपदेशे गुणसन्निवेशे चित्तप्रसादे शुचिशास्त्रवादे। अन्नं हि हेतुर्दुरिताब्धिसेतुयं यतिभ्यः शम-सन्मतिभ्यः॥ "तीहिं ठाणेहिं जीवा सुहदीहाउयत्ताए कम्मं त्रिभिः स्थानः जीवाः शुभदीर्घायुष्कतया कर्म पगरंति..तं जहा-पाणे नो अइवाइत्ता, नो मुसं प्रकुर्वन्ति. तद्यथा-प्राणान् नो अतिपात्य, नो मृषा 8वइत्ता, तहारूवं समणं वा फासुएणं, एसणिज्जेणं, उदित्वा, तथारूपं श्रमणं वा प्रासुकेन, एषणीयेन मणुन्नेणं, पीइकारणेणं असण-पाण-खाइम- मनोज्ञेन, प्रीतिकारणेन, अशन-पान-खादिम-8 18साइमेणं पडिलाभित्ता भवइ-इच्चेहिं तीहिं ठाणेहि स्वादिमेन प्रतिलाभ्य भवति-इत्येतस्त्रिभिः स्थान-8| 8जीवा मुहदीहाउयत्ताए कम्म पगरंति"। र्जीवाः शुभदीर्घायुष्कतया कर्म प्रकुर्वन्ति । सुबाहुः श्रीमणाङ्गेषु चक्रे विश्रामणां सदा । तत्प्रभावेण चक्रेशाऽधिकवीर्यत्वमार्जयत् ॥४७॥ OOOOOOOOOOOOOOoooooOOOOO पगरंति"। ठाणेहिं स्वान पीतिका GOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO ४/तपःपुषां ग्लानिमुपेयुषां यो जराजुषां देहमथो गुरूणाम् । ४विश्रामणाद्यैः कुरुते बलाढयं बलाधिकः स्यात् स कथं न विश्वे ? ॥४८॥ ४श्रीवज्रनाभो व्याचख्यो सुबाहुं बाहुमप्यथ । जाती पीठ-महापीठौ रोषेण कलुषान्तरौ ॥४९॥ 8 उग्रं तपस्तपस्यन्तावप्येतौ रोषतो मुनी। ईषन्मायायुती स्त्रीत्वं कर्मापार्जयतामुभौ ॥२०॥ १ अयं पाठः स्थानाङ्गसूत्रे तृतीयस्थाने प्रथम उद्देशके (पृ० ११७ बाबू), २ श्रमणस्य इदम्-धामणम् । ॥ ७॥ Jain Educatiołohternational Qaw.jainelibrary.org Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 पुण्डरीक-8 वश्यपञ्चेन्द्रियाः पञ्च-नमस्कृतिकृतोऽथ ते। यतिनः कृतिनः पञ्च संप्रापुः पञ्चतां सुखात् ॥२१॥ ॥८॥ जीवः श्रीवज्रनाभस्य च्युतः सर्वार्थसिद्धितः। मरुदेवोरेऽभूव-महं नाभिनृपात्मजः ॥५२॥ "बाहोः पीठस्य जीवो नु च्युत्वा तस्माद् विमानतः। त्वत्कुक्षावागतौ देवि ! सांप्रत युग्मरूपिणी ॥२३॥ महापीठः सुबाहुश्च भोगान् भुक्त्वा च्युतौ ततः । संजातौ युग्मरूपेण सुनन्दाकुक्षिकन्दरे ॥५४॥ सुनन्दा न्यगदन्नाथ ! महापीठ-सुपीठयोः। जातं मायाफलं स्त्रीत्वं किं भावि नु तपाफलम् ॥२५॥ स्वामी जगाद हे देवि! महानन्दपप्रदम् । लप्स्येते केवलित्वं तौ महापीठ-सुपीठको ॥२६॥ एवं सुकोमलं स्नेह-सहितं मधुरोज्ज्वलम् । स्वामिनो गो-रसं पीत्वा ते प्रीते जग्मतुर्रहम् ॥५७॥ ८४ ऋषभपुत्रादिजननम् अथो सुमङ्गला युग्मं सुषुवे सुखवेश्महत् (2)। महौजा भरतपुत्रस्तत्र ब्राह्मी च पुत्रिका ॥५८॥ सुनन्दापि ततोऽसूत यमलं विमलं रुचा । तत्र बाहुबलिः पुत्रः सुन्दरी चैव पुत्रिका ॥१९॥ अथो एकोनपश्चाशत्-पुत्रयुग्मान्यजीजनत् । प्रभूतभाग्यसंभूतमङ्गला सा सुमङ्गला ॥६०॥ ४ तेषां नामानि:काबेर-कीर-काश्मीर-काम्बोज-कमलो-कलाः। करहाट-कुरुक्वाण-कैशिकक्रय-कोशलाः ॥३१॥ कारू-केशका-ऽरूष-कच्छ-कर्णाट-कीटकाः। केकि-कोल्लगिरी-कामरूप-कुङ्कण-कुन्तलाः ॥१२॥ कलिङ्ग-कलकूटी च केरलः कलकण्ठकः । खर्परः खस-खेटो वा गोप्या-ऽङ्गो गौड-गाङ्गको ॥६३॥ १ मृत्युताम् । x2xvc2Ooooooooooooooooo Hoặc Jain Education nation ainelibrary.org Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 पण्यम 0 -वैद्य-चैवरचूडाश्च जालंधर-कटंकणो। टक्कोडीआण-डाहाल-मा-तायक-तोसलाः ॥६४। दशार्ण-दण्डकौ देवसभ-नेपाल-नर्तकाः। पञ्चाल-पल्लवो पुण्डू-पाण्ड्य-प्रत्यग्रथा-बुंदाः ॥६५॥ बबरा बीर-भट्टीय-माहिष्मक-महोद(व)याः। मरुण्ड-मरुलो मेद-मरु-मद्गुरु-मकन: ॥१६॥ ४४मल्लवर्त-महाराष्ट्र-यवना राम-राटकाः। लाट-ब्रह्मो-त्तरब्रह्मावर्त-ब्राह्मणवाहकाः ॥६७।। विराट-बड-वैदेह-वनवास-वनायुजाः। वाल्हीक-वल्लवा-ऽवन्ति-वहया शक-सिंहलो ॥६८॥ 8 सुह्य-सूर-सौवीर-सुराष्ट्र-सुहडा-ऽश्मकाः । हूण-हरक-हाज-हंसा-हुहुक-हंहको ॥६९॥ 8 इत्यष्टानवतिः स्वामि-पुत्राः सुत्रीमेरोचिषः। उत्सवाद् दत्तनामानः सुजन्मानः शुभा बभुः ॥७॥ प्रभोरेतान्यपत्यानि धात्रीभिः पञ्चपञ्चभिः। लाल्यन्ते स्म समितिभिः शीलातानीव नित्यशः ॥ ७१॥ 8 शतपुत्रस्फुरत्पत्रो नालीकप्रतिभः प्रभुः। यशोरसे रसापीठे रेजे राजश्रियाऽनिशम् ॥७२॥ स्वामी सुवर्णवर्णाङ्गः सैच्छायाङ्वृतोऽङ्गाजैः। सुरशैल इवोद्भूतः कोमलैः कल्पवृक्षकैः ॥ ७३ ॥ पुत्राणां विवाहादिइतोऽस्ति तत्राऽयोध्यायामेव देवयशानृपः। शैशवादादिदेवस्य वयस्यः सुप्रशस्यधीः ॥ ७४ ॥ ४विमलाभिः कलालीभिः कलिता ललिता गुणैः। ऋषभश्रीरिति नाम्ना तस्माज्जाताऽस्ति पुत्रिका ॥ ७॥ ४ यस्यां विलोकितायां हि रतिर्न रतिदा दृशोः। सुदन्त्यां सुवदन्त्यां तुरीणां वीणाऽपि कर्णयोः ॥७३॥ १ इन्द्रकान्तयः । २ नालीकं कमलम् । ३ छाया कान्तिः, वृक्षच्छाया च । ४ सुरशैलो मेरुः । ५ रतिः स्मरपत्नी। ४६ रीणा क्षीणा। 0000000000000000000000000000000 ॥९ ॥ Jain Education national Mainelibrary.org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसर तां कन्यां लक्षणैर्धन्यां प्रभुः प्रेक्ष्य विचार्य च। स्मित्वा ययाचे तं भूपं भरतायाऽऽत्मसूनवे ॥ ७७॥ 8 चरित्रम् अथ देवयशाभूपः प्रणिपत्य जगत्पतिम् । स्वकरी कोरकीकृत्ये जगाद जगतां वरः ॥ ७८॥ 8 जगदीश ! क्व ते पुत्रो देवेभ्योऽधिककान्तिमान् ? । मम त्वत्पदासस्य मुग्धरूपा क्व बालिका? ॥ ७९ किन्तु प्रभो! मे तनया सवयास्तनयेन ते। अतः प्रसादमाधाय प्रमाणय मनोरथम् ॥ ८०॥ इति प्रतिश्रुतेऽनेन भरतं स्वसुतं प्रभुः। व्यवायत् सुविधिना कुमारीमृषभश्रियम् ॥ ८१ ॥ कुमारं भरतं मुग्धं क्रीडारम्भरतं:तया। वन-वाप्यादिषु प्रेक्ष्य कुतुकी स्वजनोऽभवत् ॥ ८२॥ कटाक्षैर्वचनैः पाणिक्षेपैरालिङ्गनैस्तयोः। स्नेहेन यौवनेनोचैत्रपा-मौग्ध्ये तनूकृते ॥ ८३ ॥ 8 बाल्यसेतुं व्यतिक्रम्य यौवनाम्भोधिमध्यगौ। ती दम्पती नवं सौख्यपीयूषं पपतुर्मिथः ॥ ८४ ॥ भरतपुत्रपुण्डरीकोत्पत्ति:18 इत्थं प्रयाति समये पद्मस्वप्नेन सूचितम् । सूनुमृषभसेनाख्यमृषभश्रीरसूत सा ॥ ८५॥ 8 पुण्डरीकगर्भस्वप्नात् पुण्डरीकाङ्गगन्धतः । पुण्डरीक इति जनैः कृताख्यो ववृधे शिशुः ॥ ८६ ॥ ४ श्रीऋषभविचिन्तनम्18 इतश्च जगतां नाथो भवपाथोनिधिं स्वयम् । प्रसरन्मोहतरङ्ग हतरङ्गं व्यचिन्तयत् ॥८७॥ ४. हहो ! आत्मन् ! विहायांऽही मोक्षं चेद् गन्तुमिच्छसि । संसारे ध्वस्तसंसारे किं लुब्धोऽसि विचेतनः ॥८८08 आत्मा आह- अन्येऽपि स्थिताः सन्ति। . १ कोरकीकृत्य संपुटीकृत्य । २ प्रमाणय प्रमाणं कुरु। ३ अंहः पापम् । ४ समीचीनः सारः ध्वस्तो यस्मिन् । 000000000000000000000000000000 0000000000000 0000000000000000000000000000000000 Jain Education national Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम् ण्डरीक प्रभुराहपञ्चेन्द्रियघटक्षितं स्मरसौख्यविषोदकम् । यथा यथा पिबन्त्येते तथा मूर्छन्ति जन्तवः ॥८९॥ 8 आत्मा आह-अहमत्र राजा। (प्रभुराह-) स्त्री-पुं-नपुंसकत्वे-श-रङ्करूपाणि यच्छतः। मोहस्य नटनाजीव ! कट नाऽद्यापि खिद्यसे ? ॥९०॥ किंबहुना?- सिष्णांसुरुच्चैमंगतृष्णकासु सोऽन्त्रीनिजाङ्गंपरिधित्सुरेव। खपुष्पमालां स्वगले निधिसँः समीहते यो विषयैः सुखानि ॥११॥ आत्मा प्रोचे-किं कुर्वे ? स्वामी आहततो व्रतं समाश्रित्य स्फूर्जन्नियमतीव्रतम् । आत्मानं च जनं चैनं मोचयाऽऽशुभारितः ॥९२॥ __लोकान्तिकाः सुरा जगुः8/अत्रान्तरे प्रभोरग्रे व्योम्नो लोकान्तिकाः सुराः। तीर्थ प्रवर्तय स्वामिन् ! इति प्राञ्जलयो जगुः ॥९३॥ श्रीऋषभ-भरतवार्तालाप:१२ ततः श्रीभरतं बाहुबलिप्रमुखबान्धवैः । युक्तमाकारयत् स्वामी सोऽपि तत्राययौ जवात् ॥९४॥ नत्वा पुरस्थितो ज्ञात-नयः स तनयः प्रभोः। प्रसादेभरतः प्रोचे भरतः स्वामिनाऽमुना ॥९॥ ४वयं मुमुक्षवो वत्स ! भवं परिजिहीर्षवः। ततो भव महीनस्त्वमहीनभुजविक्रमः ॥९६॥ . 18 १ स्नातुमिच्छुः । २ अन्त्र-आंतरडां। ३ परिधातुमिच्छुः। ४ निधातुमिच्छुः । ५ स्फूर्जन्ती नियमस्य तीव्रता ४. यस्मिन् तत् । ६ भवशत्रोः। ७ प्रसाद एव इभो हस्ती। ८ परिहर्तुमिच्छवः। ९ मत्थाः इनः स्वामी । POOTOOO0000000000000000000000000 OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO OOOOO ॥११॥ Jain Educa t ernational Maw.jainelibrary.org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रित्रमा पुण्डरीक-8 इत्यादेशं पितुः श्रुत्वा स्नेहगद्गदया गिरा। स कुमारः सुकमारमित्युवाचौचितीचंणः ॥९७१ यथा तात ! पवित्रं मे त्वत्पादरजसा शिरः । तथा राज्याभिषेकेऽपि सर्वतीर्थाम्भसा नहि ॥९८॥ "यथा त्वत्पाणिपद्मन सलीलेन श्रुती मम । प्रीयेते न तथा तात ! मागधानां चक्तिभिः ॥९९॥ _ श्रीऋषभोक्तिःहर्षद्रुमप्रसूनेन स्मितेन सुरभीकृताम् । उवाच वाचं स स्वामी भरतं स्वसुतं प्रति ॥१०॥ ४गृहारम्भं स्वयं श्रित्वा स्वतातं धर्मकर्मणि । अनुमत्य पुनन्त्यत्र पुत्रा अन्वर्थतस्तु ते ॥ १ ॥ वत्स ! धत्स्व ततो राज्यं प्राज्यं कुर्मी व्रतं वयम् । वृद्धानामिह सा भक्तियां धर्म प्रेरणा परा ॥ २॥8॥ ८४तातस्याऽऽज्ञां सुरैर्मान्यां श्रुत्वेति भरतः सुतः। द्विधाऽप्यवाङ्मुखस्तस्थौ विनीतानामियं स्थितिः ॥ ३ ॥8॥ 8 भरतराज्याभिषेक-बाहुबलिप्रमुखभागदानं च४ युगादीशनिदेशेन भरतं वरवारिभिः। कारितमङ्गालोद्गानाः प्रधानाः सिषिचुस्तदा ॥ ४ ॥ ४स बाहुबलिमुख्यानां खामी बाइबलस्पृशाम् । विश्वान् विश्वभराभोगान् तदौचित्याद् ददौ तदा । १२ 8. श्रीऋषभप्रव्रज्याभिषेकः दानं संवत्सरं यावद् दत्त्वा निर्मत्सराऽऽन्तरः। श्यामाष्टम्यां तियो चैत्रे तुरीये वासरांशके ॥ ६ ॥ ४चन्द्रे श्रितोत्तराषाढे सुरा-ऽसुर-नरेश्वरैः। शुचिभिः स्नापितो नीरैः सुरत्नशिबिकाश्रितः ॥ ७ ॥ अमरीभिश्च नारीभिः गीयमानोऽम्बरे भुवि । संसिद्धार्थः स सिद्धार्थ-वनं प्रापाऽङ्गिपावनः ॥ ८ ॥ १ सुकोमलम् । २ औचितीचतुरः। 0000000000000000000000000000000000000000000 वानाम सिवित्तस्तदा या ददौ तदा । Jain Education national wajainelibrary.org. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम्. 26OOOOOOOOOOO श्रीऋषभदीक्षा-मनापर्यवज्ञानम् (विशेषकम्) रत्नयानादयोत्तीर्याऽशोकोऽशोकतरोस्तले । स त्रिलोक्या अलंकारोऽलंकारानमुचत् प्रभुः ॥९॥ प्रभुः स्वकुन्तलान् श्यामान विश्वश्यामत्व भित् प्रभुः। उच्चखान युगादीशो जवान् मुष्टिचतुष्टयात् ॥१०॥ कल्याणकुम्भस्कन्धान-स्फुरत्पल्लवसंनिभाः। सन्त्वितीन्द्रेण संरुद्धः प्रभुः पञ्चममुष्टितः ॥११॥ आद्यस्त्रैलोक्यशृङ्गारः प्रासादाग्रे च मण्डनम् । वासो वासर्वसंमुक्तं दधौ स्कन्धे जिनेश्वरः ॥१२॥ दुग्धसिन्धौ विनिक्षिप्य कुन्तलानमरेश्वरः । तुमुलं मुकुलीचक्रे जनानां हस्तसंज्ञया ॥१३॥ कृतषष्ठतपः सिद्ध-नमस्कारं स्मरन्नरम् । सावद्ययोगं त्रिविधं त्रिधा सवै निषिद्धवान् ॥१४॥ 8 इति दीक्षाजुषो ज्ञानं मनःपर्यवसंज्ञकम् । उत्पेदे केवलज्ञानभानोः प्रातःप्रकाशवत् ॥१५॥ श्रीऋषभेण सह अन्येषां प्रव्रज्याभूपाः कच्छ-महाकच्छ-प्रमुखाः प्रभुणा सह । व्रतं जगृहिरे भक्ताश्चतुःसाहस्रसंमिताः ॥१६॥ 8 श्रीऋषभविहारे भिक्षाप्राप्ति:१२ सुरेषु सर्वपुत्रेषु स्तुत्वा नत्वा गतेब्वर्थ । मौनवान् मुनिनाथोऽयं विजहार धरातलम् ॥१७॥ ४ वर्ष यावत् पुरा दानं ददता सर्वगेहतः। स्वामिना दूरिता भिक्षा प्रभुं प्रापेव सा न तत् ॥१८॥ 8 केऽपि रूपवतीः कन्याः केऽपि मत्तांश्च दन्तिनः। केऽपि सा समृद्धिं स्वां प्रभवेऽढोकयन् मुदा ॥१९॥ ? वासवो देवेन्द्रः । २ पु०-गः । OOOOooooOOOOOOO 20000000 20000OOOOOOOOKwoowroo000000000000000000000000d ।।-१३॥ Jain Education rational ainelibrary.org Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनरीक-दारांस्तु कारा इव योऽत्युदारो नागांश्च नागानिव नाकिपूज्यः । भूतिं तथा भूतिमिवोच्चभूति-काम्यऽस्तकामोऽचकमज्जिनो न ॥२०॥ कच्छ- महाकच्छादीनां त्रिपथगातटस्थितिः8दुःसहान् सहमानेन स्वामिनैवं परीषहान् । सह गन्तुमशक्तास्ते कच्छाद्या इत्यचिन्तयन् ॥२१॥ इतरणं गरुडेनाऽधौ समीरेण समं रयः। आरब्धं स्वामिनाऽस्माभिः यत् तीव्र व्रतपालनम् ॥२२॥ चेतसा चिन्तयित्वैवं कच्छाद्या अल्पशक्तयः। तस्थुस्त्रिपथगाप्रस्थे स्वस्थेन मनसाऽखिलाः ॥२३॥ नमि-विनमीअथो नमि-विनम्याख्यौ व्यावृत्ती स्वामिकार्यतः। प्रेक्ष्य कच्छ-महाकच्छौ पितरौ चैवमूचतुः ॥२४॥ अभक्ताभ्यां युवाभ्यां किं ताता! लेभे ददृशी?। ऋषभस्वामिनो भक्तिः परत्रेहाऽपि सौख्यदा ॥२५॥ आहतुस्तौ प्रभोस्तीवं व्रतं स्वं चाल्पशक्तिकम् । ज्ञात्वा राज्यं त्वगृह्णन्तौ वयमित्थमिह स्थिताः ॥२६॥ ४ पित्रोः श्रुत्वा स्वरूपं तौ-ऊचतुः क्षत्रियोत्तमौ । त्यजद्भया स्वामिनं नैव युवाभ्यां सुकृतं कृतम् ॥२७॥ १२8 त्रिविष्टपहितः स्वामी सेवकानां सुरद्रुमः। अदास्यत् तद् वचो येन युवयोः स्यान् महोदयः ॥२८॥ तदाऽऽवामेकचित्तेन प्रभु सेवावहेऽधुना। साम्राज्यमपि यच्छन्तं भरतं मनसाऽपि न ॥२९॥ 18 इत्थं कृतप्रतिज्ञौ तौ प्रभुं प्राप्यैकमानसौ। पाणौ कृपाणौ बिभ्राणौ तिष्ठतुः पारिपार्श्वगौ ॥३०॥ स्वमनोवद् विभोरग्रे विरजीकृत्य भूमिकाम् । सिषेतुः सुमोऽम्भोभिः-लिप्सयेष फलस्य तौ ॥३१॥ १ सोनिष । २ भस्मयत । ३ न कामयांचवे। ४ पु० सिक्त्वा चक्राते । ५ सुमानि कुसुमानि । BoooopOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO దంచండించదలవాయవరం600-0000000 Jain Education national For Private & Personal use only wwwsainelibrary.org Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . COOOOOO . गुण्डरीक- धरणेन्द्रागमनम्।१५॥अन्यदा धरणेन्द्रोऽथ जिनपं नन्तुमागतः। सेवाहेवाकिनी वीक्ष्य तौ वीरौ विस्मिताऽवदत् ॥३२॥ दर्शयन्तौ प्रभु खड्गबिम्बेनैव हृदि स्थितम् । को युवां कुरुतं सेवां किमर्थं क्षत्रियोत्तमौ ॥३३॥ नमि-विनमिप्रतिवचःचक्रतुः फणिनाथं तो भृत्यावावामसी प्रभुः। दीक्षां जिघृक्षुर्वर्षेण दानाप्रीणयजगत् ॥३४॥ तदा दूरस्थितावावामभूव स्वामिकार्यतः। चिन्तामणिरिवैकोऽपि दास्यत्यत्राऽपि नौ मतम् ॥३५॥ यतः सेवकैनिजपतिः खलु सेव्यो निर्धनोऽपि सधनोऽपि परो न । नीरहीनमपि नीरदमेव चातकः श्रयति नैव समुद्रम् ॥३६॥ साधिपोऽवदत्इत्याग्रहस्थी तो प्रेक्ष्य मा भूत् सेवा वृथेत्यसो । प्रभुभक्तरतयोः सवरक्तः साधिपोऽवदत् ॥३७॥ परत्र भाविनी मुक्तिर्युवयोः रवामिसेवनात् । साधर्मिकत्वाद् विद्यारवं मत्तो गृहीतमादरात् ॥३८॥ अष्टचत्वारिंशद्विद्याः सहस्रान् धरणरतयोः। प्रददौ रोहिणी-गौरी-प्रज्ञप्तीप्रमुखानथ ॥३९॥ नमि-विनमिवैताढयगमनम् - प्रणम्य स्वामिनः पादः-वापृहय धरलेश्वरम् । विमानमद्भुतं कृत्वा-ऽऽरुह्य तौ व्योग्नि चेलतुः ॥४०॥ ४प्रभुभक्तिफलं पित्रोः संदर्य भरतस्य च । तौ निजं लोकमादाय गतौ वैतात्यपर्वतम् ॥४१॥ १ 'ऊचतुः' इति भवेत् । २ भृत्या आवाम् । ३ दूरस्थिती आवाम् अभूव । ४ पु० त । ५ पु० भक्ति-। OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO ooo oooo50000 ॥१५॥ Jain Educati emation alu.jainelibrary.org Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्र Sex xxx पुण्डरीक-ॐ कृत्वोत्तरस्यां षष्टिं सत्-पुराणि नमिभूपतिः । राजधानी निजा चके पुरे गगनवल्लभे ॥४२॥ विनमिदक्षिणश्रेण्यां पञ्चाशनगराण्यसो । संस्थाप्य सुस्थितिं चक्रे पुरेऽय रथपुरे ॥४३॥ ३ आद्यदानी श्रेयांसः - अतो वृषभनाथोऽपि क्षुत्परीषहसासहिः । भिक्षा गवेषयामास ग्रामे ग्रामे गृहे गृहे ॥४४॥ वरं व्रतजनन्या नो वैरस्यं भिक्षया सह । इति ज्ञात्वेव स विभु-रीहांचक्रे तया रसान् ॥४॥ ज्ञानादाद्यो जिनो मत्वा श्रेयांसं त्वाद्यदानिनम् । वत्सरान्ते निराहारः पुरं गजपुरं ययौ ॥४३॥ तत्र श्रीबाहुबलेश-पुत्रः सौम्ययशा नृपः। श्रेयांसोऽस्य सुतः स्वप्नं निश्यऽपश्यदयेदृशम् ॥४७॥ भूश निष्प्रंभतां प्र.सो मेरुः सर्वसुराश्रयः। सुधाम्भाकुम्भसे केन पुनश्चके प्रभःधिकः ॥४८॥ दृष्टं च श्रेष्ठिना स्वप्नं जयन् कोऽपि बहून् नरान् । खितः श्रेयांसप्ताहाय्यं प्राप्य सवीन जिगाय तान् ॥४९॥ ४ श्रीसोमयशसा दृष्टो भानुर्भानुपिवर्जितः। श्रेयांसोऽयोजयत् तांश्च सोऽपि तैः शुशुने पुनः ॥२०॥ सर्वे ते संसदि प्रातः स्वस्वस्वमविचारतः। श्रेयांसस्य शुभप्राप्तिं निश्चिन्वन्ति स्म चेतसि ॥१॥ यावत् सभायाः स्वस्थानं विचार्य समये ययुः। तावद् विवेश भगवान् पुरं धर्म इवाङ्गवान् ॥५२॥ ४पादान्ते लुठनं केचित् केचिन्न्युछनकानि च । पुरे प्रविशतश्चक्रुः प्रभोः प्रेमपरायणाः ॥२३॥ वृतं वन्दारुभिर्नाथं चातकैरिव नीरदम् । पश्यन् केकिवदुद्रीवः श्रेयांसो मुमुदेतराम् ॥२४॥ ईदृक्षं रूपमग्रेऽपि दृष्टमित्येष चिन्तयन् । सस्मार प्राग्भवेऽहन्तं वैरसेनं विलोकितम् ॥२५॥ १ पु० ऋपभ- । २ तया भिक्षया । ३ पु० रसा । ४ पु० निभवताम् । ५ वन्दनशीलो बन्दारुः । यावत् चित् केचिन्यु com xxx Mooooo000000000 पश्यन् केक्रिसेनं विली 0000000000000000 ४॥१६॥ Jain Education of national For Private & Personal use only attainelibrary.org Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-एतदोक्तं वज्रनाभोऽयं भरते भक्तिा जिनः । स्मृत्वा श्रेयांस इत्यागान-नामेयं प्रपितामहम् ॥२६॥ चरित्र नत्वा नाथं निमंत्रयाऽसौ दानायाऽनं व्यलोकयत् । तावदिक्षरमोऽभ्यागान-नव्यः श्रेयांसहकूपुरः ॥२७॥ इक्षु बालोऽग्रहीनाथस्त्यक्त्वाऽन्याः सुखखादिकाः। इत्युत्सुक इवाऽन्नेभ्यः स्नेहादिक्षुरसोऽभ्यगात् ॥२८॥ ४ सर्वकुम्भततेरिक्षु-रसं स वितते प्रभोः। करे वरेण भावेन सदाऽऽरोहच्छिखं ददौ ॥१९॥ तदा जयजयारावं देवा देव्यो दिवि व्यधुः। सुवर्ण-रत्नवर्ष च चक्रुस्तस्य गृहाजिरे ॥६॥ श्रेयांसं श्रेयसां स्थानं नृपाः सर्वेऽपि तुष्टुवुः । तापसास्तेऽभ्यधु थो भिक्षार्थी विविद कथम् ? ॥३१॥ सोऽवदद् वीक्षिते नाथेऽस्मार्ष पूर्व निजं भवम् । सारथिर्वज्रनाभस्य केशवोऽहं पुरा भवे ॥६२॥ स्वयंप्रभाभवात् पूर्व संगतः स्वामिना समम् । अष्टौ भवा अमुं यावद्-उत्पन्न: स्नेहवन्धतः ॥३३॥ इति श्रुत्वा नृपा हृष्टास्तापसाश्वाशिषं ददुः। जय त्वं दानिनां धुर्य ! जय धीरशिरोमणे ! ॥६४॥ ४ श्रीनाभेयकराऽऽलवालवलये वर्षात् प्ररूढः पुरा, कृत्वा गेहजनस्य संमदमयोऽशुष्यन् स दानद्रुमः। संसिच्येक्षुरसैः कृतो यतिमुदे येनाऽतिनव्यच्छविः, श्रेयांसः स नरोत्तमो विजयतां दानकवीरथिरम ॥३६॥४ १२४तदारभ्य जने जाते पुण्यनैपुण्यतत्परे । विहरन भगवान् भिक्षां यथाकालं स लेभिवान् ॥६६॥ विदधे पोरणां यत्र स्वामी तत्र स राजसूः । व्यधापयन्मणीपीठ-मन्यांहिस्पर्शरक्षकः ॥२७॥ साक्षादेतो प्रभोरंही इति ध्यायन् स पादुके। विधाय तत्राऽनुप्रातः पूजा भूजानिजोऽकरोत् ॥३८॥ श्रेयांसमिति कुर्वन्तं वीक्ष्याऽन्योऽपि जनोऽखिलः। प्रभुपारणस्य पृथ्व्यां कृत्वा पीठमपूपुजत् ॥३९॥ १ पु० न्यमन्त्र्य-१२ सद्-आरोहत्-शिवम् । ३ चु० भवान् । ४ यु० पारणा। ww. nelibrary.org côOSANO OoooooOo oOÔ Co000000 Jain Education in Qational Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक आदित्यमण्डलम् चरित्रम् आदिकृद् मण्डलमिद-मित्यस्माद् वचनाच्छनैः । आदित्यमण्डलमिति श्रुतिर्जगति पप्रये ॥७॥ ॥१८॥ प्रभुस्तक्षशिलापुरे18 ध्यानात् कृतमनोरक्षः प्रभुस्तक्षशिलापुरे । त्यक्तंक्रोधादिसंसर्गः कायोत्सर्गमदाद् बहिः ॥७२॥ बाहुबलिना वन्दनाय गतेऽपि असमागमः, तद्विलापश्च8 उद्यानपालैविज्ञप्तो नृपः स्वामिसमागमम् । सायं मुदाऽयं संध्यौ बली बाहुबली नृपः ॥७२॥ स्फूर्जत्तमोऽपवित्रायां रात्रौ यात्रौचिती नहि । प्रातस्तातस्ततो वन्द्योऽनवद्योऽयं मया नयात् ॥७३॥ निशायां स विशामीशश्चिन्तयित्वेति संस्थितः। पुरी प्रसाधयामास चारुचन्द्रोदयादिभिः ॥७४॥ प्रातः स्नातः श्वेतवासाः श्रितश्वेतमतंगजः। उच्चै(तसितच्छन्न-सितचामरवीजितः ॥७॥ रगत्तुरंगै राजन्यै राजेराजि स राजितः। परीतोऽन्तःपुरीवृन्दैरनुयातः पुरीजनैः ॥७३॥ तैरनवगीतैश्च प्रेक्षणैः प्रीणितेक्षणः। दत्तवित्तः स्फुरच्चित्तस्तवनं प्राप पावनम् ॥७७॥ यावद् गजं परित्यज्य विमुश्चन् मणिपादुके । क्व प्रभुः क्व प्रभुश्चेति जगाद जगतीपतिः ॥७८॥ ४वनीपालोऽवनीपालं नत्वा तावद् व्यजिज्ञपत् । देव ! देवाधिदेवो नो तिष्ठेद् भास्वति भास्वति ॥७९॥ श्रुत्वेति मूर्छितः प्राप भुवोऽङ्कमथ भूविभुः। चन्दनः शिशिरैः नीरैः ससंज्ञो व्यलपत् शुचा ॥८॥ हा तात! त्रिजगत्त्रातः! कथं त्रातस्त्वयाऽस्मि ना। स्वांहिवन्दनपुण्येन पापारेवलिनोऽधुना ॥८॥ ४१ पु० त्यक्तः। २ स्फूर्जता तमसा अपवित्रायाम् । ३ यात्राया औचिती। ४ पु०-सितच्छत्रम् । ५ राज्ञांराट-राजराट-तस्मिन् राजराजि। ६ प्रभावति सूर्ये। ७ निषेधार्थे । 18॥१८॥ 8 000000000000000000000 pooooo000000000000000000000000000000000 चारुचन्द्रोदयादिभिः ॥४ । उच्चैधृतसितच्छेत्र- राजराजि स ज Jain Education national IMlainelibrary.org Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥ १९ ॥ ४ ८ वृक्षं प्रति स्वामिना कृतसख्यत्वाद् वृक्षमुख्योऽसि वृक्ष ! भोः । त्वत्सदृक्षस्तु नैवाऽह-मलब्धप्रभुदर्शनः ॥ ८२ ॥ इत्युक्त्वा वृक्षं स्वामिना -ऽऽश्रितपूर्व मालिङ्गति । पृथुपुण्याऽसि हे पृथ्वि | प्रथमस्य जिनस्य यत् । पादौ व्यूढतरी रात्रा-वप्रासौ शिरसाऽपि मे ॥ ८३ ॥ इत्युक्त्वा प्रभुपादपद्मयो रजः शिरसि निक्षिपति । Jain Education इत्याऽऽभीक्ष्ण्येन मूर्च्छन्तं मूर्छयन्तं जनानमून् । वीक्ष्य राजमृगाङ्काख्यो मन्त्री प्रोचे नरेश्वरम् ॥८४॥ राजन् ! विलपनं मुक्त्वा पश्य श्री ऋषभप्रभुम् । कुत्र कुत्रेत्युदित्वाऽसौ राजा हरभ्यां व्यलोकयत् ॥ ८५ ॥ सचिवः प्रोचिवान् स्वामिन् ! जगन्नाथोस्ति नो हृदि । नित्यं चित्तंस्थितं रूप-मनित्यं वीक्षतां बहिः ॥८६॥ बाहुबलिना पादभूमौ मणिपीठकरणम् निःशोकोऽथ नृपो नाथ- पादभूमीवचीकरत् । मणिपीठं योजनोच्चं विस्तृतं पञ्चयोजनम् ॥८७॥ प्रभुः पुरिमतालके - १२ 8 इत्यार्या - नार्यदेशेषु भ्राम्यन् मौनी मुनोश्वरः । जनं दर्शनतः शान्तं शीतांशुरिव सोऽकरोत् ॥८८॥ व्रताद् वर्षसहस्रान्ते पुरे पुरिमतालके । तले न्यग्रोधवृक्षस्य कानने शर्केदानने ॥८९॥ श्यामफाल्गुनैकादश्यां त्रिरात्रं प्रतिमास्थितः । उत्तराषाढगे चन्द्रे घातिकर्मक्षयोज्ज्वलः ॥९०॥ ध्यानान्तरस्थः पूर्वाह्णे प्रथमः स जिनाधिपः । अवाप केवलज्ञानं लोका - ऽलोकावलोकदम् ॥९१॥ (विशेषकम् ) १० राज । २ पु० चित्रस्थितं रूपमनित्यं वीक्ष्य तं वहि । ३ अचीकरत् । ४ तनाम्नि वने । mational olibood चरित्रम्: ॥ १९ ॥ jainelibrary.org Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥ २० ॥ ४ १२ स्वामी सिंहासनमाश्रयत् यथाधिकारं देवेन्द्र विहितेऽङ्गिहितेच्छया । स्वामी समवसरणे सिंहासनमथाऽऽश्रयत् ॥९२॥ पितामह्या सह भरतः इतश्च भरतो भक्ति भरतो जननीं पितुः । अकुण्ठोत्कुण्ठयाऽभ्येत्य तदा प्रातर्नमोऽकरोत् ॥ ९३ ॥ किमन्यैर्वीक्षितैर्वीक्ष्य नन्दनं निजनन्दनम् । नीलोचिह्न इतीवाssस्ये नेत्रे तं पश्येतो हृदि ॥ ९४ ॥ ज्यायान् पौत्रो जगन्मातः ! त्वत्पादानभिवन्दते । उक्त्वेति नत्वा पुरतो निविष्टो भरतेश्वरः ९५ ॥ हृत्कुम्भे स्नेहसंपूर्ण दुःखाग्नितापितेऽथ सा । मुञ्चस्यश्रूणि तद्विन्दू-निवाऽगदत् सगद्गदा ॥ ९६ ॥ लीलया लालयामासु-यै स्वर्गललनाः पुरा । स याति तीव्रतापासु पापासु मरुभूमिषु ॥९७॥ बाल्ये दिव्यामृताहारान् इन्द्रैरभ्यर्थ्य भोजितः । स पुत्रो मे क्षुवाक्षाम-कुक्षिश्रमति हा ! क्षितौ ॥९८॥ न स्नानं नाशनं पानं यानं तस्य न चाssसनम् । दुकूलं नास्ति ताम्बूलं श्रुत्वेत्यस्मि म्रिये न धिक् ॥ ९९ ॥ एकेनाऽपि सुपुत्रेण सुखी स्याद् वार्धके पिता । असौ सुतशते सत्य-प्यत्र भ्रमति दुःखितः ॥ २००॥ येन स्वपुत्र मुख्यत्वे कृतो दत्त्वा निजं पदम् । मम पुत्रस्य तस्य त्वं चिन्तामपि करोषि न ? ॥ १ ॥ इत्युक्त्वा तारतारं तां रुदतीं भरतोऽवदत् । कथं सामान्यनारीव-जगज्जननि ! रोदिषि ? ॥२॥ पुष्टज्ञानत्रयः स्वामी विलोकितजगत्त्रयः । यस्याः कुक्षाववातीर्णः सा किं शोकेन बाध्यते ॥ ३॥ १ जाणे गलीनां टपकां मुखे, तेने (ऋषभने) नेत्रो हृदये जुए । २ क्रियापदम् । ३० व्ययान् । ४ वृद्धावस्थायाम् । Jain Education national चरित्रम् ॥ २० ॥ binelibrary.org Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-राज्यं रज इव त्यक्त्वा प्राज्यं प्रकुरुते तपः। त्रिलोकीदैवतं मातः ! से किं स्याज्जनमात्रवत् ॥४॥ इति पौत्रसरस्वत्यां स्नात्वा तस्या मनोऽत्यजत् । शोकस्पोत्यमालिन्यं हर्षवासश्च पर्यधात् ॥५॥ तावत्8 भरताय वधापनद्वयम्वेत्रिणा ज्ञापिता-वेत्य तं विज्ञापयत्तामुभौ। स्वामिज्ञानं च चक्रस्य प्रादुभूति नरौ तदा ॥३॥ दिष्टयाऽद्य वर्धसे देव ! कानने शकटानने । युगादिजगदीशस्य संजज्ञे केवलं महः ॥७॥ निजगाद द्वितीयस्त-मद्भुतप्रतिभं प्रभो!। चक्ररत्न नभीरत्न-मिवाऽऽयुधगृहेऽजनि ॥८॥ ८ अथो व्यचिन्तयचित्ते तदा भरतभूपतिः। कस्यादौ कस्य वा पश्चाद् उत्सवी मम बुध्यते ॥९॥ आ! कुत्सो मम संदेह इन्द्र-चक्रिपदमदम् । पुण्यं प्रभुप्रणामात् स्यात् चक्रात् पापं तु दुस्सहम् ॥१०॥ 8. वन्दनाय गमनम्8/राजा ध्यात्वेति दानेन तो संतोष्य व्यसर्जयत् । आरूरुहद् गजं देवीं मरुदेवां सहात्मना ॥११॥ परीतोऽन्तःपुरी-पौरीः पुण्डरीकादिभिः सुतः। पितामही महीन्द्रोऽपि जगाद भरतो ब्रजन् ॥१२॥ रूप्य-स्वर्ण-मणीरूप-मिन्द्रः शालत्रयं पुरः। कृतमस्ति जनन्यत्र त्वत्पुत्रासनहेतवें ॥१३॥ पवित्रचित्रसंस्तोत्र-व्यग्रास्त्वत्पुत्रदृकपुरः। कुर्वन्त्येते जयध्वानं चतुःषष्टिः सुरेश्वराः ॥१४॥ रम्भा-तिलोतमाद्याभि-देवीभिदिव्यभाषया । चतुराश्चारु चर्यो गीयन्ते शृणु कौतुकात् ॥१५॥ १ पु० सा । यो वृषभः त्रिलोकीदैवतं स किं स्याज्जनमात्रवत् । २ पु. लोक-1 000000000000000000ROMOON 12 nebrary.org Jain Education t ational Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक & Đào ôtô sofa O मरुदेवा कौँ दत्त्वा आकर्णयति॥२२॥ अमर-नर-मुकुटमणिकिरणरञ्जितपदं विमलतरचरितभरनिहतपापापदम् । ललिततरकलितबहुविमलगुणसुन्दरं प्रथमजिनमखिलजनवृजिनहरणादरम् ॥१६॥ भरतभुवि दुरितभरतिमिररविमद्भुतं सकलकुलगुरुगुरो भिनृपतेः सुतम् । नमत दर्शितविवेकौघमणिगणनिधि प्रहतबहुसलिलमलकलितयुगलकविधिम् (युग्मम् ) ॥१७॥ प्रथमजिनेशो विहितावेशो विपुलपरीवहवर्गम् । अहह ! विहे सुललितदेहे कथमिह हतसुखसर्गम् ? ॥१८॥ वर्षसहस्रं दुःखमजलं परिवह्यानिशमेव । प्रकटितसारं जगदुपकारं संप्रति कुरुषे देव! ॥१९॥ यस्य कुलेऽमलकमलनिभेऽयं जिनवरराजमरालः । बालः कलिं किल विदधे धन्यो धन्यो नाभिनृपालः २०४॥ 8|स्थित्वा यस्या वपुषि जिनो जननयनामृतगात्रम् । ईहररूपं किल विदधे मरुदेवा स्तुतिपात्रम् ॥२१॥ ४ मोहाम्भोधौ युगलविधौ मनन्तं भुवि सर्वम् । धारयति स्म निजैर्वचनैर्वन्दे तं गतगर्वम् ॥२२॥ 8सुर-नर-किंनर-नागकुलान्यतिनिर्मलभामंन्ति । अस्य निपीय सुवागमृतं संसार संसार संसारं प्रतरन्ति ॥२३॥8 १२४सुरवर-किंनर-नाग-नरा यं युगपत् प्रणिपत्य । इह हि पिबन्ति सुवागमृतं देवं देवं देवं प्रणमामि ॥२४॥४॥ ४ मरुदेवया ऋषभ-वैभवो दृष्ट:४ श्रुत्वेत्युद्भूतहर्षाश्रु-सुधापुरैः सुविस्तृतः। नीलीपङ्कः क्षणाक्षिसः मरुदेवाऽक्षियुग्मतः ॥२५॥ ४प्रभोर्वाक्यप्रभोल्लासैः प्रफुल्लनयनाम्बुजा। आलोककलिताऽऽलोक्य पुत्रद्धि सा व्यचिन्तयत् ॥२६॥ १ पु० गतवर्गम् । २ भा-प्रभा-तद्वन्ति । Aooooooooo OOOOOOOOOOO ooooooooooo ४ ॥ २२ ॥ Jain Education W ational Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक तस्या एकीभावचिन्तनम्॥२३॥ अये! मदीयपुत्रस्य वैभवं भुवनाद्भुतम् । भरतस्याऽस्य हाहाऽहं वृथा दोषमदा पुरा ॥२७॥ सुसाः स्युर्यावदुत्सङ्गे सुतास्तावन्निजा ध्रुवम् । एष वैभवसंयुक्तोऽ-प्यौदासीन्ययतो मयि ॥२८॥ ४४वदन्त्यां वत्स! वत्सेति रुदन्त्यां मे मुदे सुतः । अयं स्ववार्ती न भैषी-देकदेवमुखादपि ॥२९॥ वृथा तद्दुःखिता पूर्व-महमस्य विमोहतः। यतो न कोऽपि कस्याऽपि विश्वे खाथै केनिधिते ॥३०॥ एवं मोहः सौख्यचौरो मनोऽस्या धर्म्यमप्यगात् । दुर्जनस्थानदानेन सतां देशान्तरो भवेत् ॥३१॥ 8 मरुदेवासिद्धिगमनम् जातेऽस्याः परमेश्वर्याः परमे ब्रह्मणि स्फुटे । आत्माऽत्यजद् निजं देहं तिष्ठेद् गुप्तौ हि कः प्रभुः ॥३२॥ 18 अत्र क्षेत्रेऽवसर्पिण्यां सिद्धस्यायस्य तबपुः। पूजयित्वाऽऽशु विबुधा निदधुर्दग्धनीरची ॥३३॥ भरतशोकापगमः-ऋषभस्तुतिश्च8|अथाऽसौ भरतः सौरैरिन्द्रवाक्यैरशोकहत् । अशोकच्छायया छन्नो विशेज्जैनेन्द्रसमनि ॥३४॥ १०४यथाविधि प्रविश्याऽसौ त्रिः परीय जिनेश्वरम् । महेन्द्रः स महीन्द्रश्च तदा तुष्टुवतुः समम् ॥३५॥ देव-भरतकृता ऋषभस्तुतिः नमो नाभेयाय भ्रवमनुपमेयाय महसा भवल्लोकालोकामलतरविलोकाय सहसा। महामोहान्मूढं भवकुहरगूढं जनमनः प्रचक्रे यो वक्रेतरशिवपरपथस्थं विधजिनः ॥३६॥ १ पु० निष्ठिचेत् । २ हृत्-हृदयम् । 30000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000 Jain Education amational njainelibrary.org Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-8 अहो! देहोऽप्यहोवसतिरिह नानापरिभव-व्यथाकारी मान्यः स्तव-नमनतो मे समभवत् । सितिः पङ्कः पङ्केरुह निवहतः किं न वहति, प्रसिद्धि वा स्वर्णात् किल मलगणो जन्यजनिताम् ॥३७॥ मनो हन्ता हन्त ! स्कुटमसि सुविद्धांस्यपि जगन्-मनांसि त्वय्येवाऽहमहमिकया यान्ति तदहो!। अपूर्व सौभाग्यं किमिदमथवा संसदि तव, प्रभो! स्नियन्त्येते भुजग-नकुलाद्या अपि मिथः ॥३८॥ जगन्ध ! स्वामिन् ! यदि तब मता सर्वसमता, तदंहः किं हंसिं प्रमदयति चेतांसि किमु वा। विदूरे संसार शिवमुखमदरे च कुरुवे, वितर्क को वाऽसाऽवनवगत ! तुभ्यं जिन ! नमः ॥३९॥ गुणानां निर्णाशं विषयसुखविक्षेपमखिलं, कलत्रा-ऽपत्यादिस्वजनविरह देव ! यतिनाम् । भवान् यच्छन् यच्छत्यलमतुलसौख्यं स्थिरतरं, न विज्ञः सर्वज्ञ! त्वमिव सुखदाने त्रिजगति ॥४०॥ 8स्फुरत्केन्द्रत्वेन त्वदमलमुखश्वेतरुचिना, प्रभो! दृष्टे जीवे सुकृतधनगेहस्थितिभृति। अभूचित्ते लग्ने त्वपि मम महानन्दजननं, तमाक्रोडो वक्रोऽपि हि मयि न वक्रो भवति तत् ॥४१॥ विभो! भव्यव्यूहं विभव ! विभवस्थं स्थिरविभ!, वृषाङ्कत्वे तिष्ठन्नपमलवृषाङ्कत्वसहितम् । १२ नमस्कारायैनं निजपदगतं भक्तिभरतः, करोषीति स्थाने जिन ! निजपदेऽप्यक्षरमये ॥४२॥ प्रसिद्धा ते स्वामिन् ! युगल विधिविच्छेदपरतां, यथा सिद्धान्तेऽमी अभिदधति दक्षाः खलु तथा । 18|अहं व्यक्तं मन्ये सुखमसुखमात्मीयमितरत, रिपुर्मित्रं चेति प्रबलयुगलोन्मूलनमलम् ॥४३॥ 18|१ हन्ता घातकः । २ संसदि सभायाम् । ३ अंहः पापम् । ४ हंसि घातं करोषि । ५ असी अनवगत !। ६ श्वेतरुचिः-चन्द्रः ।। 18७ क्रोडो वराहः । ८ अत्र श्लोके वृषभ-शब्दगतानांव-घ-भ-इति-अक्षरप्रयाणां पादानुक्रमपूर्वमर्थः सूचितः । 500000000000000000000000000000000000000 0000000000 50000 Jain Education orational For Private & Personal use only ww&linelibrary.org Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रीक-हदम्भोधेर्जझेऽसमशम-समत्वाऽम्बुलहरी-परीता त्वद्वाक्यामृतममर-तिर्यग-नृबु सदा । समं स्वादं दत्ते सदसि धनिनामप्यधनिना, समं सौख्यं मोक्षे जनकमनु जन्यस्य हि गुणः ॥४४॥ स्वयं व्यर्थ साक्षादमृतममृतांशुक्षयकृते, ददौ गर्भावाप्तेरनृतममरत्वं च मरुताम् । 8वचः सत्यं तेऽथैरमृतमिह पीतं भुवि नृणां, प्रदत्ते गर्भादिव्यथनविरतां ताममरताम् ॥४॥ अपुण्ये पुण्ये वा जगति मनसः संगतिरिति, द्वयोरन्यद् वान्छन् परिहतमनास्त्वं जिनवर!। अनित्ये नित्ये वा भवति हि नृणां प्रेरणमति-रनेकान्ते कान्ते चरति विरतिस्थेति तव गौः ॥४६॥ विना यंग्यं यातो जिन ! गतिमगम्यां त्वदितरै-विना सन्नाहं त्वं स्मररिपुशराणामविषयः। असंख्यान्निःसंख्यं प्रहरसि तमोऽरीश्च भविना, महेलाहीनोऽपि स्थिरमहिम-हेलासुललितः ॥४७॥ 8/न ने त्रैरुन्नेयो मिलति सह नान्येन भुर्वने, न मेयो वैक्यः सन्मतिभिरुपमेयोने च विभो।। ४/श्रयेनापति समतृणमणेऽभावमपि नो, प्रमाणस्थैः पूज्य ! प्रमितिमयेते ते ने महिमा ॥४८॥ विचः शुद्धं बुडेननु मनसि जाता भवति सा, मनोऽणु व्यामूढं त्वमनणुगुणालंकृततनुः। मनोमुक्तो दृरं ननु मनसिजाऽगोचररुचे !, चिरं विश्वे विश्वेश्वर । जय जयवागविषय! ॥४९॥ 8 . गौ-वाणी। २ युग्य-शकटम् । ३ समाह-कवचम् । ४ पु. नास्ति । ५ निःसंख्यम्-असंग्रामम् । ६ महेला-खी।8 18/७ महिम्नः हेला-महिम-हेला । ८ प्रत्यक्षाविषयः । ९ अन्येन संमेलाऽभावाद् व्याप्तेरविषय:-अनुमानातीतः । १० आग-8 माविषयः । ११ उपमानाविषयः । १२ अर्यापत्तेरविषयः। १३ हे समतृणमणे।। १४ अभावाविषयः। १५ ममितिम अयते-8 गच्छति । १६ पु० नास्ति । १७ जयद्वार। 000001-200200omcho000000000000000000000000 ॥ २५॥ Jain Education national Kathainelibrary.org Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनरीक-इत्थं प्रथमतीर्थेशं प्रथमार्थकिरा गिरा। नुत्वा नत्वाऽनु देवेन्द्रं भरतो न्यविशत् पुरः ॥५०॥ आयोजनविसर्पिण्या सर्वभाषानुरूपया। गिराऽमृतमिराऽकादि देशना क्लेशमाशिमीम् ॥५१॥ ॥२६॥ . श्रीऋषभदेशना-तथाहि४ पापारीन् नन्ति लब्ध्वा मनुजतनुहयं येऽथ तेभ्यः प्रदत्ते, देवेन्द्रस्वादिकेभान् सुकृतनरपतिनित्पमापोहाय 18 ये तुद्रुह्यन्त्यमुष्मैकुचरितनिरतास्तान् खराभेषुदीने-वाऽऽरोप्याऽङ्गेषुजीवान् भ्रमयतिस भवं पीड्यन्गुनाह निर्मादत्वयुतधर्मः शर्मदः सेव्यतां ततः। यश्च कामा-ऽर्थ-मोक्षाणां जनकत्वं प्रयत्यहो॥१॥ 8 ऋषभपुत्र-पौत्रादिप्रव्रज्या18 श्रुत्वेति निर्मलां धर्मदेशनां देश-ने-ऽङ्गानाः। सम्यक्त्वं श्रावकत्वं च यतित्वं केऽपि केऽप्यधुः ॥५४॥ पुत्रा ऋषभसेनाद्यास्तदा पञ्चशतीमिताः। सप्त शतानि नसारो भरतस्य प्रवनजुः ॥५५॥ आद्यया देशनया चतुर्विधसंघ:ब्राह्मी व्रतं प्रपेदे सा श्रेयांसः श्रावकायताम् । सुन्दरी श्राविकात्वं च प्रभोर्देशनयाऽऽद्यया ॥२६॥ १२ चतुर्युतामशीतिं च गणेशान् विदधे विभुः। ऋषभसेनस्तेष्वाधः पुण्डरीकाऽभिधों हि य॥५७ 8 गणधरा:-द्वादशाङ्गं चउत्पत्ति-विगम-प्रौव्य-मयीं लब्ध्वा पदनयीम् । पुण्डरीकादयश्चक्रुदिशाङ्गीमयो रयात् ॥२८॥ मरीचिप्रव्रज्या-तापसाच१ देशस्य ना-पुरुषः, अना:-स्त्रियः। २ श्रावकायताम्-श्रावकस्य आयो लाभ: तताम् । అందించడం 000000000000000000000 १६॥ . Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम् सर्गः-२ २७॥ 000000000000000000000000000000000000000000000 तस्मिन् समवसरणे मरीचिव्रतमाददे । ऋते कच्छ-महाकच्छौ तदा सर्वेऽपि तापसाः ॥१९॥ ऋषभविहारः-भरतगमनं च अथो नाथ: पाथोधर इव सुधाकरविधी, व्यहार्षीदन्यत्र प्रसमरमहाज्ञानजलयुक। महं कृत्वा स्वश्रीभैरत इह स श्रीभरतराट्, जगामाऽयोध्यायां प्रमदभरकर्पूरकलसः ॥६॥ ग्रन्थकारोपसंहार:श्रीरत्नप्रभसूरिसूरकरंतो दोषाभिषङ्गं त्यजन्, यो जाइयस्थितिरप्यऽभूत् प्रतिदिनं प्राप्ताद्भुतमातिमः। श्रीकमलप्रमेण रचिते श्रीपुण्डरीकप्रभोः, श्रीशबुजयदीपकस्य चरिते सोऽयमाद्योऽभवत् ॥२६॥ इति श्रीरत्नप्रभमूरिशिष्य-आचार्य-श्रीकमलमविरचिते श्रीपुण्डरीकचरिते श्रीयुगादिनायकेवलबानश्रीपुण्डरीकचरित्राङ्गीकरण-गणधर-पदस्थापना नाम प्रथमः सर्गः॥ ॥ अथ द्वितीयः सर्गः ॥ भरतः शस्त्रगृहान्तरं गतः- . अथ शस्त्रगृहान्तरं गतः किल चक्रं भरतोऽतिरङ्गतः । दशशेत्यरयुक् तदाऽनमत् सुदिनायोदितपुण्यसूर्यवत् ॥१॥ अथ हर्षितसर्वपूर्जनं नवनैवेद्यभरेण पूजनम् । दिवसाष्टकमाहितोत्सवं नृपतिश्चक्रपुरोऽकरोत् तदा ॥२॥ मागधदेवविजयाय भरतगमनम्१ निजलक्ष्मीसमूहेन । २ कराः-किरणाः, हस्ताश्च । ३ दोषा-रात्री, दोषश्च । ४ सहस्र-आरायुक्तम् । ५ पुरः-पुर्याः, जना-लोकः। 200000000000000000000000000000000000000000000000000 ॥२७॥ Jan Educat c arnational ainelibrary.org Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..२ စဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝဝပ်ကာ पुण्डरीक- गजरत्नमसौ समाश्रितः सुमुहूर्तेऽथ गृहीतमङ्गलः। अनुचक्रमवक्रमानसोऽवलदैन्द्री दिशमेश भूपतिः ॥३॥ चरित्रम् हय-वर्धकि-चर्म-काकिणी-मणि-सेनान्य-सि-सत्पुरोधसः।नृपमन्वगुरातपत्रयुग-उदण्डोबधिका अपि॥४॥ भरतेश्वरसैनिकर्यदा जयढका पुरतः प्रताडिता। हृदयानि च गहवराण्यहो! युगपद ध्वनुरूचभूभृताम् ॥५॥8 ४ ककुभोरभसोत्थदुन्दुभी-भटभेरी-हय-हस्तिशब्दितः।बधिराअभवंस्तदाऽति तत् प्रतिजल्पन्ति न जल्पिता अपि जबनं पवनं विजिग्यिरे हरयश्चेह रयप्रचारिणः। तत आतपवारणं रजश्चयमुद्धृत्य सहाऽचलत् से तैः ॥७॥5 अयमस्य दिनप्रतापतो दहनं मालभतामितीव तहरिभिः खुरखातरेणुभिः पिदवे प्रीतिभरात खेंगो हरिः॥८ अथ योजनवाहिनी शनैर्नृपतेः श्रीभरतस्य वाहिनी । सुगभीरहृदः पुरोऽम्बुधेरुपकण्ठं परिलभ्य संस्थिता ॥९॥ ८वरवर्धकिना विनिमितेबमलेषु प्रचुरेबु धामसु । न्यवसाय सर्वसैनिका भुखमाद्वादशयोजनी क्षणात् ॥१०॥8॥ मणिपौषधशालिक नृपो विहितांवर्धकिनाऽतिनिर्मलाम्। कुशल कुशसंतरे स्थितः उपवासत्रयवानुवास सः।११ 8|अथ तुर्यदिने दिनोदये नृपतिः स्नाततनुर्वराम्बरः। चतुरन्तगवीरघण्टिकं रथमस्त्रैर्भूतमारुरोह सः ॥१२॥8 द्विरविं शशियुग्मसंयुतं प्रथमदीपमिवाऽमराचलः। भरतः कनकमभः स्थिरः स चतुर्घण्टरथं श्रितो बभौ ॥१३॥ १२8सुमहाः स महारथो रथं रथनाभियंसे तदाऽम्भसि । नृपतिः स्थिरसारसारथीरितरथ्यं खरसादसारयंत्॥१४॥४ धनुरत्र धनुर्धरोईरो जवतोऽधिज्यमयं विधाय तत् । गुरुकृतितोऽकरोत् तदाऽखिलयादांसि रणजीस्यथ ॥१५॥४] ४१ उच्चभूभृतः-उत्तमनृपाः, उच्चपर्वताश्च । २ पवनः भातपवारणं रजश्वयमुद्धृत्य तैः हरिभिः अश्वैः सह अवरुद-तैर्विजित-8 ४ वाद-विजितो हि छत्रं धरति । ३ खातम्-उत्क्षिप्तम् । ४ खगः-गगनगः । ५ हरिः-सूर्यः। ६ उवास। ७ रथनाभिप्रमाणे 18 8/८ ईरितरथ्यम-रथ्या-मार्गः । ९ उद्वर:-उत्कृष्टो परः। १० रणेन जवांसि वेगवन्ति-चपलानि-वस्तानि।। 8॥२८॥ COOOOOOOOOOOOOOOO O000000000000000000-000rna Jain Education national Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000लव అంగాంగా.. प्रहरीक-अथ मागधनिरं प्रति जलवो दादशयोजनस्थितम् । निजामसुगंशोभित विसर्जन सुवर्णपत्रिणम्॥ परिचय हरभसानभसा ययौ शरो गुरुसूत्कारपरः प्रमादिव । सुरसंसदि सुस्थितो मुखं भुवि निक्षिप्य तलं गमीय सः॥8 स सुरः सुशरं पुरस्थितं सहसा प्रेक्ष्य रुषाऽरुणोऽवदत् । मम संसदि कोऽमुमक्षिपन्निजजीवोदहने विखिन्नता फणिनाथफणामणीगणमुकुट कोऽत्र चिकीर्षुरुत्कटः।कहाऽमरन्तिदन्ततो निजजायाकरकरणे चिंकी: इति गर्वयुतः सुपर्वराट् निजपाणी परिगृय पत्रिणम् । इह पुगताक्षरावलिं विमलां वाचयति स्म विस्मयात् ॥ भरतः प्रथमोऽद्य चक्रिराट् दिशतिश्रीऋषभाजभूरिति।मम यच्छत दण्डमाशु भो! यदि नित्यं स्वसुलैषिणःसुरा मागधदेवजयः इति वीक्ष्य सुरोऽक्षराण्यसौ प्रशमी श्राद्ध वाऽऽगेंमेक्षणात्।। मणिभिः कुसुमैरिवोधेः सुधियाऽऽनर्च नदेवमेत्य तम् ॥२२॥ भरताहिपुरो विमुच्य तत् मणिसारं सह तेन पत्रिणा।विहिताजलिराह भक्तिमान् स जयारावपुरस्सरं सरः॥ ४करतः कुलिशं हरेरिव तपसस्तेज हवाऽऽस्य॑तो यते। शपनं च सतीमुखादिव सहते को धनुषः शरं तव ॥२४॥8 अहमस्मि तवैव सेवको भवतां भूपनिवेशिताऽधुना ।सततं मयि तत् प्रसन्नता करणीया निजयाऽऽशया प्रभो। इति भक्तिवचोभिरद्भुतैर्भरतःप्रीततरो विसज्य तम्। उधेः स्वरथं न्यवर्तयत् प्रणतिप्रान्तको हिसाधवः॥२६॥ हास गतः कटके विकण्टकः प्रविधायाऽऽशु नृपोऽथ पारणम्। दिवसाष्टकमुत्सवं व्यधात् प्रमदाद मागधदेवतं प्रति। निरो-देवः। २ म-वर्णाः-शोधनानि अक्षराणि । ३ गतः परस्य सररर-इति ध्वनिः सत्कारः। ४ कर्तु-18 मिच्छति चिकीः । ५ आगमा:-अलादीनि जैनसमाणि। ६ भास्पम्-मुखम् । ७ मणतिः-प्रणामः । 00000000000000000000000000000 .00000000000000000 Jain Education amational jainelibrary.org Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक वरदामपति-प्रभासकाधिपति- सिन्धुनदी विजयः चरित्रम् ॥ ३० ॥ ॐ वरदामुपतिं प्रभासकाधिपतिं सिन्धुनदीं विजित्य च । स्वबलाढयभुजोऽथ राजतं गुरुवैतादथगिरिं रयोदयात् ॥ २८ ॥ ४ सर्गः २ वैतादयदेवविजयः ४ ८ १२ गिरिदक्षिणपक्षतो निजं कटकं चक्रपतिर्निवेश्य सः । त्रिरुपोष्ये चकर्ष हर्षतः किल वैतादयकुमारनिर्जरम् ॥ २९ ॥ स सुरश्चलितासनः पुरः समुपेत्याद्भुतरत्नढौकनम् । प्रविधाय निधाय मस्तके भरताज्ञां च यथाऽऽगतं ययौ ॥ कृतपारणकोsटवासरं विरचय्योत्सवमद्भुतं नृपः । ललितः किल लीलयाऽलपद् निजसेनाधिपरत्नमुच्चकैः ॥ ३१ ॥ रजताचल सिन्धु निम्नगातट्युग्मसाधनाय सेनाधिपस्य आज्ञाकरणम् रजताचल सिन्धुनिम्नगातयुग्मं सकलं तु दक्षिणम् । स्वसुखेन सखे ! सुखेन भोः ! त्वरितं साधय साधनोद्यतः ॥ सिन्धुनदीपरतीरस्थतुरुष्काणां विजयः अथ सिन्धुनदीं स सैन्यपः सहसोत्तीर्य च चर्मसेतुना । प्रविजित्य तुरुष्कॅभूपतीनिह तद्दण्डधनान्युपानयत् ॥३३॥ तमिस्रा गुहा - प्रकाशनम् - पुनराप्य वचोऽत्र चक्रिणः स तमिस्राख्यगुहा प्रकाशने । त्रिरूपोष्य दिनाष्टकोत्सवं कृतमालाय सुराय निर्ममे ३४ हयरत्नगतस्त्रिधाऽऽहते दृढदण्डेन गुहाकफाटके । विरलीकृतवान् समाधिना मद - रोषाविव निर्वृतिं गमी ॥ ३५ ॥ कृतमालसुरविजयः— तदुपेत्य विभो ! न्यवेदयत् प्रतिरूढस्तुरगे प्रतापगे । मणिमस्य निवेश्य कुम्भके गजरूढः स चचाल चक्रिराट् ३६ १ रयो- वेगः । २ उपोष्य-उपवासं कृत्वा । ३ आकृष्टवान् । ४ तुरुष्कभूपतीन् - तुरुक्क - तुर्क - इति ख्यातान् भूपतीन् । ५ गन्ता । ॥ ३० ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ण्डरीक-स तमिस्रगुहां नरोत्तमो मणिभासा वितमिस्रता नयन्।स-कलैरनुगैः सहोडुभिर्गगने चन्द्र इवाऽविशत् तदा॥ चरित्रम्, ४ अथ का किणिमण्डलान्यसौ किल पश्चाशतमेककं विना । अनुगर्वजिनीप्रकाशने जननाथोऽजनयद् गजस्थितः :-२ अनिम्नगा-निम्नगा-नद्यौ४ दृषदामपि सुप्रतारिकामनिग्नगां सरितं व्यतीयिवान् । वरवर्धकिसेतुबन्धनात् स निम्नगामपि तूर्लेमजनाम् ॥ स्वयमुद्घटितादथोत्तरात् स गुहा-द्वारत आशु निर्गतः। प्रचचाल च चक्रपृष्ठगो भरतार्ध प्रविजेतुमुत्तरम्॥४०॥ भिल्लभटाः संतापसुनामकाःनृपसैन्यमदृष्टपूर्विणः किल संतापसुनामकारतदा । प्रविलोक्य धृतादरायुधा विधुर्युद्धमथाग्रयोध्धृभिः ॥४॥ अथ भिल्लभटैः पराङ्मुखे कटके चक्र पतेरयात् कृते। हयरत्नगतोऽथ सैन्यपः स दधावे भृश-सजिघांसया॥४२॥3 8 भिल्लानां देवाराधनम् हमकेन निराकृताश्च ते सुकृतेनेव सुविघ्नराशयः। विविधैनिजदेहतापनः कुलदेवानधिरा मुद्ययुः ॥४३॥ 8 अतिसेवनतः प्रतोषिता द्रुतमेत्याऽदमुखाः सुरा जगुः। कुरुतेति किमङ्गतापनं ननु वत्सा! बहुलड्डन्नानि च ॥ 8न नरैन सुरैर्न किकरैरसुरैनैव महोरगैरपि । निजपूर्वभवोत्थपुण्यतः प्रबलश्चक्रविभुर्विजीयते ॥४॥ 8.पुनरारमबलानुमानतो भवदाराधनतोषिता वयम् । इह विघ्नमहो महत्तरं ननु वत्साः ! प्रविधमहेऽधुना४६४ १ कलाभिः सहितैः सकलैः, समग्रेर्वा । २ अनुगा ध्वजिनि-सेना। ३ पाषाणानामपि । ४ तुलमपि यत्र मजति-ब्रुडतितूलमिति-रू'।५ चक्रस्य पृष्ठं गच्छति इति । ६ न दृष्टं पूर्व यैस्ते । ७ भृशं तेषां हन्तुमिच्छया। ८ कुरुत-इति । ९ भवताम् आराधनं भवदाराधनम् । ॥३१॥ 00000000000000000000000000000000000000000000000000 2023OOdmoooondom/DWwroo Jain Educat international w.jainelibrary.org Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-8 चक्रिपराजयाय तैः कृता मुशलधारा वृष्टिःइति मेघमुखा निगद्य ते प्रविकृत्याऽम्बुघनान् घनाघनान् । ववृधुर्मुशलप्रमाणकैर्यधारानिवहरयाऽम्बराता४७18 सर्गः-२ ध्वजिनीजनकण्ठदनतां गतमालोक्य जलं नृपोत्तमः । स्वकरेण चकार चर्म तत् क्षणतो द्वादशयोजनस्थितम् ॥ अधिरोप्य निजांचमूमिह प्रततं छत्रमपि व्यधात् तथा| जनदृष्टिविलोकहेतवे किल दण्डेऽस्यमणि न्यवीविशत् ॥ इह धान्यचयं कुटुम्बिना निहतं रूढमथो विपाचितम्। विविधं प्रतिवासरं रसाद् बुभुजे सैन्यमदैन्यमानसम्॥ इति चर्म-सितातपत्रयोः पुटमालोक्य जलान्तरे तरत्।जगदे जगदेकचित्रदं सुगुरुाम्यमिदं महाण्डकम् ॥११॥ अथ चक्रपतिः स ससमे दिवसे चिन्तितवानिदं हृदा।विहिता अहिता ममाहितैः कथमेतेऽम्बुधराः सुर्धरा इति चिन्तनतोऽस्य चक्रिणस्तनुरक्षासुविचक्षणैः सदा । किल षोडशभिः सहस्रकैरमरैर्मेवमुखा बभाषिरे॥५३ ३ इह चक्रिणि देवता! नृणां भरतक्षेत्रनिवासिनां प्रभो । प्रकुरुध्वमतीयदुष्टतां तदहो! मूर्खतरा मुमूर्षवः ॥२४॥३ ४ इति यक्षवचोभिरुद्धतैर्य युरम्भोदमुखा भयाकुलाः। प्रतताप घनौघनिर्गतो रविरुचैर्भरतप्रतापवत् ॥१५॥ भरतस्य पुरः कनिष्ठिकाङ्गुलिदानात् निजमूर्धरक्षणम्। विदयुश्चतुरास्तुरुष्कका क्षितिभोग तृणचर्वणादपि॥५६४ 18 हिमालयगमनम्8अथ सिन्धुतटं तदौत्तरं निजसेनापतिना विजित्य सः। प्रसरन्महिमा हिमालयं लघुमेषोऽगमदुचमाऽऽलेयः ॥५७४ 8शिविरं विनिवेश्य दक्षिणे स नितम्बेऽस्य गिरेः कृताष्टमः। अधिरुह्य रथं विसृष्टवान् निजबाणं हिमवत्कुमारके॥8 18 १ अम्बुघनान्-जलपूर्णान् मेघान् । २ सेनाजनकण्ठ-प्रमाणताम् । ३ घनाघः-मेघसमूहः। ४. उच्चरूपाया माया18 लम्या आलयः-गृहम्-स्थानम् । ५ सेनास्थानम् । 18॥३२॥ 0000000000010oncocomoroMP000000000 Doooooo Jain Education IX Tanel W ainelibrary.org Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-अमरः प्रतिगृह्य तं शरं विकयुक्-योजेनसततौ स्थितः। स तदक्षरवीक्षणाच्छंमी प्रणनामैत्य नृपं सढोकनः ॥१९॥ ४ चरित्रम्. प्रविसृज्य सुरं स आर्षभिनिजनामर्षभकूटपर्वते । प्रतिलिख्य च काकिणीमुखाद् विदघेऽष्टाहमहं महामहाः॥3 सर्ग:-२ रजताचलगमनम्18| अथ दिग्विजयान्निवृत्तवान् महसाऽनुत्तर एष उत्तरे । कटके रजताचलस्य तत् कटकं प्राटयदस्तकण्टकः ॥६॥ विनमि-नमिभ्यां सह संग्रामःविनमि च नमि खगेश्वरं विजिगीषुर्जगतीपतिस्ततः । अहतमसरं स रंहसा स्वशरं वीरवरो व्यसर्जयत ॥३२॥ नृपनायकसायकेक्षणाद् गुरुरोषारुणितेक्षणी क्षणात् । गगने गगनेचराषम् परिगृह्याऽऽययतुर्मिजाश्चमूः ॥१३॥ कटकानि रुषोत्कटान्यथ दिवि को द्वादशवत्सरी मिथः। शर-तोमर-भल्लि-शक्तिभिः प्रविजेंढवाहशक्तिभिः भरतो भरेतो भुजौजसा रथमारुह्य महारथस्ततः दृढसंगरबद्धसंगरः स धनुःसंग-रतोऽजनि स्वयम् ॥६६॥8 विनमि-नम्योः पराजयःबचरानपितान विपक्षकान् प्रविचार्येव धनुर्धरोत्तमः। विदधे स्वशरे रेयरितेरखिलानुद्गगतपक्षकान क्षणात् ६६४ १२ भरतार्शगवेगतो दले दलिते व्योम्नि घनप्रभो घसी। अचिरयुतितां समाश्रितः खचराधीश्वरयोः प्रतापकः६७/४ अथ शीततेरान्तरौ रयात् कुपितं सान्त्वयितुं तमार्षभिम् । विनमिश्च नमिः प्रणम्य तं चतुरो प्रोचतुरोचितीवणी १७२ योजनानि । २ शमी-नष्टगर्वः-शान्तः । ३ दिवि-गगने, को-भूमी। ४ प्रहारं चक्रुः। ५ भुजवलाना भरता-समहतः। ६ संगरो-युदम् । ७ संगर:-प्रविज्ञा।८ पनुःसंगे रतः। ९ रयेण-वेगेन रितः। १० आशृगाः पाणाः। ११ शीततरम्-आन्तरं हृदयं पयोस्। १२ मोचतुः औचितीचणी। 18 ॥ ३३॥ 000000000000000000000000000000000000000000000000 &000000000 Jain Education national Wijainelibrary.org Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण्डरीक- 8 अनभिज्ञतया यदाऽऽवयोरभव दुर्ललितं प्रभो ! त्वयि । अधुना सकलं सहस्व तत् किल सर्वसयाऽसि संश्रितः ॥ ताभ्यां धनढौकनम्, पुत्रीदानं च ॥ ३४ ॥ ४ ८ १२ नमिरार्षभये मणीगणं विदधे प्रीतिभरेण ढौकनम् । विनमिः स्वसुतामदान्मुदा स सुभद्रां ललनाशिरोमणिम् ॥ प्रमदादध चक्रधारिणा प्रविसृष्टौ स्वपुरं समागतौ । इति चारुविचारमादराद्विदधाते स्थिरमानसाविमौ ॥ ७१ ॥ नमि - विनम्योर्वैराग्यपूर्व व्रतादानम् - ऋषभप्रभुपुत्रमादिमं भरतेशं स्वगृहे समागतम् । न हि सच्चकुंवाऽतिमोहतो ह! ह! हाऽऽवामुचितेन वञ्चिती ॥ ऋषभप्रभुपादसेवनादिदमासं गुरुराज्यमीदृशम् । सर्मेरोऽसमेरोषतः कृतो धिगहो । तत् प्रथमाङ्गजन्मनः ॥७३ इह राज्यमदान्ध्यतो ध्रुवं विहितो द्वादशवार्षिको रणः । इति पापनिराँचिकीर्षया करवार्य प्रभुसंनिधौ व्रतम् ॥ इति चारु विचार्य चेतसा तनयो ज्ञातनंयौ निजे पदे । अभिषिच्य विभोः कराद् व्रतं बहुविद्याधरसंयुतो श्रितौ ॥ भरतस्य सिन्धुतटवने रमणम् अथ चक्रधरो वसुंधरावलयं निर्विलयं जयन्नयम् । सुरसिन्धुतटीगतं स्फुटीकृतनानाद्रुममाप काननम् ॥ ७३ ॥ सकलां सकलर्तुभिः सदा स सदाकीर - महीरुहावलिम् । अवलोक्य वनीमथाऽवनीरमणोऽयं रमणोद्यतोऽजनि स्थपतिः स्वपतिस्थितेः कृते मणिभिर्निर्मितसप्तभूमिकम् । विद्धे युदधेरिवोद्गतं विमलं मन्दिरमिन्दिराश्रयम्॥ १ सर्वसहा - पृथ्वी । २ सत्पूर्वस्य कृ धातोः परोक्षे अस्मत्पुरुषद्विवचनम् । ३ आवाम् । ४ समरो - युद्धम् । ५ असमरोष:अत्यन्तरोषः । ६ रणः संग्रामः । ७ निराकर्तुमिच्छया । ८ पञ्चम्या अस्मत्पुरुषद्विवचनं कृ धातोः । ९ नीतिज्ञौ । १० निर्विघ्नम् । ११ शोभनाकारा । १२ वर्धकिः । १३ इन्दिरा - लक्ष्मीः । Jain Education national परिय सर्गः - २ 11 28:11 jainelibrary.org Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-8 स्वयलेऽथ यथास्थिति स्थिते तरलोत्तुङ्गतुरङ्गसंगतः। तरुराजिविलोकनाय स प्रचचालाऽखिललोकनायकः॥७९॥ चरित्रम् भरतोऽथ रतिप्रियप्रभः स सुभद्राद्यवरोधसंयुतः। प्रविलोकितदिव्यकाननः समभूद् विस्मयतः स्मिताननं ८० 8 बन्दिकृतं द्रुमसंघ-वर्णनम्४ अथ बन्दिवरः प्रियंवदः प्रभुचित्तं परिभाव्य सस्पृहम् । रुचिरं रुचिरञ्जिताम्बरं दुमसंघं स जवादवर्णयत् ॥८१॥ विजयस्व विभो! पृथग्भुवःप्रविभागे सकलर्तुभिःस्थितैः। वनमद्भुतषड्रसं नय-प्रणय! त्वं नय नेत्रभोज्यताम् ॥६ 18 वर्षावर्णनम् ढदिव्यविभावतो विभी गगनेऽत्र स्थिरनेत्रचित्रदम् । शुभगं शुभगन्धतः शुचि प्रविमुश्चन्ति पयः पयोमुचः॥४॥ 8नयनप्रमदप्रदायिनः पुरतः पश्य विवेककेकिनः। सुमनोहरनृत्यकृत्यतो दयितानां दैयितं वितन्वतः ॥८४॥ नृप! केपि कला-कलापिना सुकलाऽऽलापवतीं विलोक्यताम्।ललितेक्षणवीक्षणात प्रिया-हृदयं येमदयन्ति हेलया 81 रवि-वहिमहोविनाशके जलदेऽप्यात्तपदा महखिनी । अहमस्मि तडिल्लता मदादिव नृत्यन्ती विलोकय प्रभो !8 शुचि सृष्टिकरं सुशीतलं सलिलं शोषितवान् भवान् भुवः। विधृताऽशनिरम्बुदो रविंविरुणद्धीति सुकालतांवहन् । १२४शीतं स्वादुजलं समग्रसरिता नीत्वाऽथ वारांनिधि-निम्नं क्षारमपेयमेव कुरुते मेघो विनष्टं तु तत् । 18 कृत्वा प्रोच्चतरं रसेन रुचिरं विश्वोपकारे नयेत-जीयासुः सुविवेकिनो धृतधनैः किं निर्विवेकैर्जनः ॥८८॥ 18१ निजसैन्ये । २ तुरंगा अश्वाः । ३ अवरोधः-अन्तःपुरम् । ४ रुच्या कान्त्या रञ्जितम्-अम्बरं गगनं येन द्रुमसंघेन18 अत्युचो दुमगणः । ५ नेत्रेण भोज्यताम्-भक्ष्यतां नय-नयनेन पश्य । ६ दिव्यविभावः-दिव्यशक्तिः। ७ विशेषेण भान्ति इति ८ स्थिरनेत्राः चातका:-इति प्रायः। ९ द्वितीयाबहुवचनम् । १० पियम् । ११. कळा-कलापवताम् । 30000ळळळळळग oooooo oh Jain Education national Ow.jainelibrary.org Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसमत्र सुरानुभावजाम्बुदपात्रात् परिरीय मारुतः । सुमेमालितमालतीलता-ललनाऽऽलिजनतः प्रमोदते॥८९॥४ सुविकासितसत्कदम्बिका जगतो जीवनदानतत्परातव दृष्टिसमा सुवृष्टिरपवतात् पार्थिव पार्थिवं जनम्।९० ॥३६॥ शरत्प्रशंसाधनकालमथाऽतिभूयसः समयात् संवलितोऽनुभूय सः। स्फुटमुचरति प्रियंवदः शरदि प्रोच्चरति प्रियंवदे ॥९१॥ स्मितपद्ममुखी सितेतरोत्पलनेत्रा धवलाभ्रवस्त्रयुक् । कलिताऽद्भुतबन्धुजीवकासबोद्रासिकुसुम्भचीवरा ॥९२8 कुसुमाथिततारका शिरोमणिमौलीयितशीतदीधितिः। गुरुमौक्तिकहारवल्लरीयितव्यामगहंसमालिको॥१३॥ क्रमुकाङ्कितनागवल्लिजच्छदीन शोणमुखान् शुकोत्तमान् शरदक्षतशालिहस्तके धती माङ्गलिकाय तेऽस्त्वसौ (विशेषकम् ) ॥९४॥ सिरसी सुषुवेऽम्बुजं सुतं विमलाऽस्थात् श्वपये च निम्नगा। स चकोरचयेऽशनं ददावपि दोषाकर उद्गते मुंनो.18 ४स्वविभां शरदुद्भवां शशी स सुभद्रावदनाय दत्तवान्। विदधाति चकोरगौरवं तदिदं देव ! सुराजवल्लभम् ९० इति बन्दिवरः शशंस तां शरदं सप्रशशंस च प्रभुः। विमलं जगतोऽपि जीवनं कुरुते यः स न किं प्रशस्यते ॥४ १२ अथ बन्दिवराय तत्क्षणं निजरत्नाभरणानि देहतः । प्रददौ प्रमदौचितीयुता भरताधीश्वरजीवितेश्वरी ॥९८॥४ हेमन्तऋतुप्रवर्णनम् १मुमेन कुसुमेन मालिता राजिता ।२ सप्तमी-एकवचनम् । ३ शीता दीषितयः किरणा यस्य-चन्द्रः। ४ समस्तमेतत् । 8 ५ क्रमुकं-पूगफलम् । ६ छदैः पर्भान्ति छदभाः। ७. इस्तको हस्तम, हस्तनक्षत्रं च-शरदि तस्यागमनात् । ८ सरोवरम् । ९ श्वपयः-गगनम्-गम्यते । १० मुना-अगस्ता उदिते। TOOOOOOOOOOO p000000000000000000000OOOOOMOOOOOOOOOOOOOOD c0000 Jain Education international Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक-ठस ससार ससारहन्मही-मिहिकामिहिकारिता महीम्।वदति स्म ततः प्रियंवदं स्थिरहेमन्तऋतुप्रवर्णनाम्॥ परिणम्. हिर्मरोचिरतिप्रतापनादिह निर्दछ रुषा सरोजिनीम् । हिममग्लपय विभौविभुं समये बन्धुरिपुनिहन्यते॥ सवितारमहो! हिमोद्यमेन निजाशप्रियिणं ररक्ष यत्। मुखमप्यवलोकतेऽस्य तदनहि जीवन जगतीजनोऽखिला महसीमधिपो यथायथा जडतामामं हिमात् तथातथा । जगतो हदयप्रकम्पना दोषी अपि गुरुतामगुर्भशम् ॥२॥8 8न गुरुगंगने गुरुर्गुरूस्त्वगुरुयः किल दुःखतोऽसितः। दहने दहति स्वदेहमप्यहिमांशी महिमच्युते हिमात् पिदधे खगचित्रभानुमप्यऽहहैनं पिदधातुमा हिमम् । करयुग्ममतो हुताशनो-परि लोकः सकलोऽपि यच्छति। वदतीति तदा प्रियंवदे नृपतिः प्राह सुधूम एष कः । अभिमत्य सविस्मयस्तु स न्यगद् भारतभूपतिं पुनः॥ 18कुकिन् ! इह दिव्यकुण्डकत्रितये धूपचयोऽसितो गुरुः । धनसार इति अयं पतद् वियतः पश्य सुरमभावतः असति दूमवल्लिजे सुमे जननाशो सुखिनी कथं भवेत् । इति तत्सुखहेतवेऽगुहेप्रमुखा अग्निमुखे विशन्त्यमी हिमतो हि मतोऽपि मे रुचा निवहोऽल्पो भवितेत्यऽवेत्य तत। निदधे रविरक्षयं महः त्वयि रे-ति निजाभिधारितम् ॥ ८॥ १ सारसहितं ससारं हृद हृदयं यस्य सः । २ मिहिकांशुश्चन्द्रः । ३ मिहिका-भूमिका-मातः काले पतद हिमा 18|४हिमरोचि:-चन्द्रः। ५विभाविभु-सूर्यम् । ६ सवितार-सूर्यम् । ७ आशा-दिशा अपि ।८ सूयः। ९ आम-पाप।१०दोषा-181 रात्रयः-अपि । ११ बृहस्पतिः । १२ अगुरुधूपविशेषः । १३ सूर्य । १४ शीतकाले हि जना अग्निशकटिका अभितः शीत-18/ निवारणाय करयुग्मं स्थापयन्ति, तल्लक्ष्यीकृत्य कविना एतद् उदक्षि सुरसम्-खगं गगनगम्-चित्रभानु सूर्यम् । १५ करनासा-श-सयोरक्यात । १६ अगुरुपभृतयो धूपविशेषाः। १७ त्वयि भरतसम्राजि 'शूर' इति निजाभिषाम। oooooooooooo00000OOOOOOOOOOOOONOLOdf COMWwwwapwwwdoor Jain Educational mational Jww.jainelibrary.org Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-इति बन्दिवराय वादिने वरवीरेषु मणिः शिरोमणिम् । भरताधिपतिः प्रदत्तवान् निजमुष्णां समानतेजसम्प रिजर ॥३॥णते शिशिराशयः क्षतिं स नरेशः शिशिराश्रयां श्रितः । जगदे जगदेकपालनः सुविवेकान् मुदितेन बन्दिनासा -३ द्रुमपत्रनिपातनाशुगै रचयन् को-रवतीव्रतामपि । नरराज ! रराज फाल्गुन: स्फुटवैरोचेनधामवृद्धिदः ॥११॥४॥ हरिदश्वहरि प्रभा द्रुषु स्फुटपत्रं दयितामुखेन्दुरुक् । कुसुमं च तवाङ्गपिङ्गता शिशिरोऽप्यातनुते फलोचयम् । वसन्तवर्णनाचलिते तदिलातलादिलाधिपती चारु वसन्तवर्णनाम् । अथ मागध एष वागधाकृतपीयूषरसोऽगिरद् गिरः ॥ मुकुलालिकुलाऽतिसंकुला वकुला भान्ति पुरोधराधिप। किमु मौक्तिकनीलरत्नजाः स्मरभूमीश्वरकोशराशयः ८8 अलीनां पटले तमोऽन्तरे ज्वलिताऽग्नाविव चम्पकोत्करे । स्मर एष स योगिनां गुरु तवान् यद्विरहातहत्तिलान ।। त्रिजगत्प्रियतामदृश्यतां सुतनूनामपि वर्णनीयताम् । ललितां जगदात्यहेतुतां लभतां किं न सता मता सेताम् ॥ 8 (युग्मम्.) १६॥ मुकुरोत्थपरागपिञ्जरामलिमालां वरमालिकामिव । ऋतुराजरमाऽध्यरोपयत् सहकारेऽत्र पिकद्विजोदितात् ॥ ४१ उष्णांशुः-सूर्यः । २ क्षतिं कृत्वा प्रणते नम्र जने यो नरेशः शिशिराशयः शीतलाभिप्रायः । पुनश्च शिशिराश्रयां शीतल१ समयां स्थितिं स्थितः-इति गम्यते । ३ को पृथिव्याम्, रवतीव्रताम्-शब्दतीव्रताम्-खडखडाटम्, कौरवाणां तीव्रतां च । ४ फाल्गुनो मासः, अर्जुनश्च । ५ वैरोचन:-सूर्यः । ६ हरिदश्व:-मूर्यः । ७ तद् इलातलात् । ८ वाचा अधः कृतः पीयूषरसः 18 येन सः । ९ योगवताम्-संयोगिनाम् । १० पुरोहितः। ११ स्मरः । १२ आम्रवृक्षे । १३ अन्यत्रापि द्विजोदितातू ब्राह्मणो दितात् वरमालारोपणम्, अत्राऽपि द्विजोदितात्-पक्षिवचनात् । 00000000000000000000000000000 dooooooooo Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरीक- अलिगायनसंकुला कृतद्विजतोषाऽद्भुतमञ्जरीध्वजा । मधुरा मधुराजधानिका पुरतो भाति रसालमालिका ॥ दददेष सुवर्णवत्फलं कलकण्ठः सुमनोलि हैर्वृतः। तरुराजिषु राजतां वहन् सहकारो नरराज ! राजताम् ॥ सर्गः-२ शिशिरं परिपीय यद् भृशं भुवि वृद्धोऽपि वयस्येतद्वनम्। द्विविधं सुरभीकरोत्यसौ सुकृतज्ञो नृप! पाटला-तरुः॥ ४४णिवल्लिवनं विलोक्यतां कृतकर्पूरसुवेगवेष्टनम् । सुखयेद् गुणयोग्यताजुषामपि संगो नयनानि धीमताम् ॥ पवनः परिगृह्य निर्मलं घनकर्पूरपरागमम्बरे । सुविवृत्य घृतालि-कालिमं कुरुते चन्द्रममुद्रतेजसम् ॥२२॥ नयने नय नेतरत्र तां नयनेतः! प्रति नागवल्लरीम्। वचसाऽखिलचित्तरञ्जिनी सुरंसंज्ञामपि या तु रञ्जयेत्॥ रदनादिपरिच्छदावृतां रसनां निर्मल भारतीश्वरीम् । कुस्तां वर्सनान्वितामिव क्रमुकं नागलतावरञ्जनात् ॥२४॥ ८४ किल नीलदुकूलकञ्चुली रतिराज्ञी हृदयस्य कोमला । फणिवेल्लरिका स्मरप्रभोः शिरसि श्रीकरिको जयत्यसो॥ सुदृशां हृदयस्य मोहनं नृप ! कर्पूरतरं पुरस्कुरु । अमुमत्र पिशङ्गपत्रिणा प्रवृतं नागलताद्वयेन तु ॥२६॥ 8 इतराः फणिवल्लयो वने निखिला निर्मलनीलकान्तयः । इदमत्र नवं लतायुगं शुभचामीकरचारुपत्रयुक् ॥२७॥ घनसारतरोः ससौरभं नवसौभाग्यमहो किमप्यदः । इदमीशवल्लरीद्वयं परिरभ्याऽस्ति रसाकुलं हि यत् २८४ १२ इह देव! तवप्रियाऽऽगमे भवताऽकोप्यधुनेति निश्चितम् । वसुधा प्रियमत्र सौम्यरक् वदतीयं वसुधाप्रिय वैयि॥ १ द्विजाः पक्षिणः । २ मधुर्वसन्तः । ३ सुमनांसि पुष्पाणि । ४ शिशिरं शीतकालजलम् । ५ मित्ररूपं. तदवनम् । १६ फणिवल्लिः ताम्बूललता । ७ धृतः अलीनां भ्रमराणां कालिमा यत्र परागे। ८ नागवल्लरीम्-ताम्बूलवल्लीम् । ९ सुरसज्ञाम् अमुस्वारस्तु काव्यवैचिच्यार्थम्-इति गम्यते। १० वसनम्-बस्त्रम् । ११ फणिवल्लरिका-ताम्बूललता । १२ मानसूचकचिडविशेषः। १३ नावगतोऽयं यथार्थम् । १४ तव निमित्तम् । ॥३९॥ Propoooooooooooooo0000000000000000 w.jainelibrary.org Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरसिंह! सुसिंहविष्टरं त्वमिहाऽलंकुरु विष्टपाधिप ।। ऋतुराजसुखं गृहाण च श्रममुचैर्निर्गृहाण च क्षणम् ॥३० ॥ ४० ॥ | अनुमत्य सुरागधीगिरः क्षितिपो निर्मलमागधीगिरः । स तु रङ्गमिवाऽऽत्मचेतसि प्रवहन्नेव तुरंगमत्यजत् ॥ ३१ ॥ अथ तत्र मृगेन्द्रविष्टरे विनिविष्टेऽखिलविष्टपेश्वरे । भरताधिपवल्लभाऽपि सा गुरुभद्रासनमाश्रयत् पुरः ॥ ३२ ॥ नृपदृष्टिमथो निजांशुकैविरजीकृत्य तदा प्रियंवदम् । उपदेशयति स्म चासने सुदृशो नोचितवञ्चिताः क्वचित् ॥ अथ भारतभूपभूषणप्रचयाय प्रसवावेचायकाः । कुसुमावचयाय नायकाः प्रययुर्दिव्यवनान्तरेऽभितः ॥३४॥ पुनरप्यवदत् प्रियंवदो निभृतं संभृतकौतुकोत्सुकः । इह दिव्यविमानमद्भुतं गगने यति विभोऽवधीयताम् ॥ इह काऽप्यमरी निजेश्वरीं प्रति कस्याऽप्यधिपस्य वर्णनम् । विद्धाति ततो जगत्प्रभो ! निभृतीभूय निशम्यते क्षणम् अनुमत्य सुमत्यलंकृतं वचनं तस्य चकार चक्रयपि । श्रवणौ श्रवणोद्यतौ निजौ नमयेत् प्रेम मम प्रभोरिति ३७ अथ भारतभूपतिस्तदा सकलान्तःपुरसंयुतो मुदा । अशृणोत् स्वशिरोऽम्बर । दिति श्रुतिलेपे घुसृणोपमं वचः ॥ ४ तथाहि - गगने देवीकृता भरतवर्णना १२ अमरीणामरीणां च महसां मोहयन् मनः । स वीरवरशृङ्गारो जीयाद् भरतभूपतिः ॥३९॥ यो राजा यंदु (?) वाचि भङ्गमतनुं कम्पं तनौ सर्वतो वैवर्ण्य निजदर्शनेन विततं स्वेदं च रोमोद्गमम् । वामानां द्वितयस्य मानहननं मारेण कुर्वन् समं शृङ्गारं च भयं च यत् पृथगदात् तत् कर्मजं तत्फलम् ॥ ४० ॥ आदौ येन सुविग्रहे क्षतर्मुरः पीठे प्रदत्तं रसात् संप्राप्य द्विविधा अपीह सुभगंमन्या महानायकाः । १ पुष्पोश्चयकारकाः । २ न गम्यतेऽत्र यदु-शब्दार्थ : - कदाचित् ' यदु' स्थानेऽन्यदपि पदं भवेत् । अथवा ' यदु ' इति 'यत्+उ' एवम् अव्ययं भवेत् । ३ क्षतम्- खण्डितम् - उरः वक्षस्थळम् । Jain Education national चरित्र सर्गः - २ 11·8011 v.jainelibrary.org Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-हारङ्गाद नित्यरताः सुलब्धविषयाः निजित्य संतोषितार-तस्यैकस्य सुवर्ण्यतेऽत्र महिमा श्रीवीर-शृङ्गारिणः ४१४ चरित्रम् क्रान्त्वा भूमिभृता शिरांसि सहसा सर्वत्र सधोदयो यः शुद्धोभयपंक्षभाक् कुवलयामोदप्रदोऽहनिशम् ।। ज्ञानोन्नम्रसरस्वतीरसभृतात्-यजन्म जज्ञे जिनात् सोऽयं सूरेंगणे कलां प्रवितरन् जीयात् स्थिरेन्दुर्नवः॥४२॥8 8/हेमन्तस्तनुकम्पनेन शिशिरो निष्पत्राधानतः, तजातिप्रसवैच्छिदे मधुरसौ ग्रीष्मस्तु संतापनात् । प्राट् हंसनिवासनात् शरदहो! तच्छीर्षविच्छेदनात् शत्रौ षड्विधकाल एव यदसि प्रादात् पुनः पञ्चताम् ॥ बाहर्यस्य विषादकज्जलजलस्थानेषु दुर्वैरिणां वक्त्रेषु स्फुटखड्गलेखिनिकया साक्षेपनिक्षिसया। सगिभित्तिषु सुस्थिरां जयभवां कीर्ति प्रशस्ति स्थिरा-मेणाङ्केद्युतिनिर्मला यदलिखत् तत् कस्य नात्यद्भुतम्॥8 यो राजा च्युतधर्मिणां क्रमयुगप्रक्षालनोत्थैर्जलैः श्रीखण्डद्रवसान्द्रित रचितया दानक्षणे गङ्गया। ४/कालिन्दी रिपुकामिनीनयनीरैः कृतां साजनैः संमील्याऽङ्गजतां व्यभासयदसौ तीर्थकरस्यात्मनि ॥४५॥ ४ १ पर्वतानाम्, राज्ञां च । २ उभयपक्षमाक्-मात-पिशुद्धपक्षमाक्-पक्षे शुक्ल-श्यामपक्षभाक् । ३ कुवलयम्-पृथिवी-8 18 वलयम्, पक्षे चन्द्रविकासि कमलम् । ४ सूरगणः शूरगणः, सूर्यगणश्च । ५ भरतराजो हि हेमन्तः-शत्रुशरीरकम्पनेन । १08६ शिशिरः निष्पत्रतायाः पर्णरहिततायाः, शत्रोः निष्पत्रताया आधानतः । ७ मधुर्वसन्तः-शत्रुजाति-उत्पत्तिच्छेदनाय । 18 ८ शत्रुहंसानां निवासनात् । ९ शत्रुशीर्षविच्छेदेन शरत् । १० एतत् तु आश्चर्यम्--यः पविधोपि यस्य असिः पञ्चतां मृत्युम, पञ्चसंख्यात्वमपि । ११ एणाङ्कश्चन्द्रः । १२ च्युतधर्मिणां युगलिनाम्-जैनसंप्रदाये युगलिनो धर्महीनाः (?) प्रसिद्धाः। था हि ऋषभजन्माभिषेके युगलिभिर्जलगङ्गा प्रवाहिता तथा भरतेन रिपुकामिनीनेत्रनीरैः साञ्जनैः यमुना प्रवाहिताइति पितृवत् पुत्रेण कृतम् । 8112॥ 0000000000000000000000000000000000000000000000000 Jain Education national Poliw.jainelibrary.org Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000 पुण्डरीक-यः स्वर्णान्यवगम्य गाढमृदुतामाश्रित्य रत्नोचयं त्यक्त्वा क्षारमिहाऽश्व-वारण-मणीन् सुज्ञानतः कामिनीम् ।।४ चरित्रम् . साधूक्त्या हृदि कल्पितं प्रवितरन् मेरु चरन्नाचलं वाघि कामगवीं च कल्पफलदं वेगाद् विजिग्ये विभुः॥४६॥ किंबहुनायद्वाक्यं न शृणोत्यसो न स कवियाँ नेक्षते साऽमरी नारी चारुचिराऽपि नैव सुभगाऽरण्याकुलीपुष्पवत् । विश्वे यानभिषेणयेन्नहि नृपास्ते न प्रशंसास्पदं ते स्युनों हृदयालवो हृदयगो येषामसौ न प्रभुः ॥४७॥ देवि ! गङ्गे यमधिपो रङ्गं गेयगुणोऽकरोत् । पीयूषरसनाशां तु रसनां मे बिभर्त्यसौ ॥४८॥ 18अलंकृतसुवाग-ऽङ्गा गङ्गाऽग्रे का वदत्यसौ। सुभद्रयेति तन्त्रोक्ते व्योम्नि प्रोचेऽथ जाह्नवी ॥४९॥ मनोरमे ! तवाऽऽसिच्य गयां पीयूषवर्षिणीम् । जातौ मद-प्रमोदाख्यौ कौँ मे तर्णकाविव ॥५०॥ 8मनोरमे ! मनोरं मे रमयित्वा वचोऽमृते । मनोरमेऽथ विरम तृष्णाशान्त्यै सुधां पिब ॥५१॥ 8 अमुं मम वनाऽऽयातमवनायाऽवनेः स्थितम् । द्रष्टुं याम्यथ चक्रेशं चक्रे शं योऽत्र जन्मिनाम् ॥२२॥ 8/प्रविश्य कर्णयोरस्य गुणैर्बद्धवा मनो मम । तत्पाा जगृहे तन्न शक्नोम्यत्र विलम्बितुम् ॥५३॥ ४ अनयोर्वचनं परस्परं प्रवदन्त्योर्मनसोऽनुरागतः। व्रजति स्म विमानमाशु तत् नृपचित्ते प्रवितीर्य विस्मयम् ॥५४४ अबलामुखतः स्तुतिः श्रुतेत्यतिमन्दाक्षविलक्षमानसः । स तदा स्थितवानऽवाङ्मुखो वसुधावज्रधरो हृदा गुरुः॥8 ४ मम जीवितवल्लभः सुरा-ऽसुरनारीहृदये शेयो ध्रुवम् । इति तत्र तदा सुभद्रया विकसद्वक्त्रसरोजया स्थितम्॥४ १' आकुली' भाषायाम्-'आवळ' शब्देन ख्याता, तस्याः पुष्पाणि पीतानि मनोहराणि प्रसिद्धानि । २ अवनेः-पृथिव्याः, अवनाय-रक्षणाय । ३ शं-सुखम्, चक्रे-कृतवान् । ४ वजधर-इन्द्रः । ५ शेते इति शयः-निवासी । ४॥४२॥ 300000000000000000000000000000000000000000000000 . Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक 18वति स्म ततः प्रियंवदो जय कपूरतरोऽतिथिप्रियः। विष ()तोऽप्युपनीय सेवनात् प्रददौ यः सुवचःसुर्धा मम॥ ४ चरित्रम्. ॥४३॥ नृपनाथ ! मया सदा तव श्रवंसी आश्रवसीमसेविते। मम कर्णसुखं मनोरमां परिहाय प्रदाति कोऽधुना ॥५८४ सर्गः-२ अथ ताः कुसुमावचायिकाः कुसुमालंकरणानि भूभुजे। ग्रथितानि सुभङ्गिभिर्नवान्युपनिन्युनयनाग्रतस्तदा ॥५९४ नृपतिर्नृपतिप्रियाऽपि सा मणिभूषां प्रविमुच्य पर्यधात् । कुसुमाभरणानि कोमलं सुरभि कोऽर्मेलतान्वितस्त्यजेत् | विहिताद्भुतपुष्पभूषणस्तुरगस्थोऽखिलभूविभूषणः । प्रचचाल निजप्रियायुतो धृतसन्नाह इव स्मरोऽङ्गवान् ॥६१४ ग्रीष्मवर्णनाःअथ तत्र तैपर्तुशोभितां जगतीशो जगतीमधिश्रितः। जगदे मुदितेन बन्दिना रवितापाऽपनयोद्यतं वचः॥३२॥ सविताऽपि सुनिष्टुरैः करैर्जगतीप्राणमतिप्रतापयेत् । दहतीह च भूतधात्रिका न तु दुष्कील इदं किमद्भुतम्॥६३४/ जैडसंगमकोऽत्र गोपतिर्भूशवरस्यविवर्धकोऽभितः। इति दु:खत एव धात्रिका-हृदयं त्यक्तरसं तदाऽस्फुटत्॥६४४ तनाऽऽतपतप्तरूक्षितक्षितिवीक्षारुषिते स्ववीक्षणे । नृपते ! घनगोस्तैनीवने शिशिरस्त्यानवैसे प्रसादय ॥६५॥8 रसनात् सुखमद्भुतं फलै रसनायां ददती तु नेत्रयोः। निजदर्शनतः सुनीलतायुत एवाऽघनगोस्तनीलताः॥६६ १ विषं हि जलम्, पद्म केसरम्, भृणालश्च । २ श्रवसी-कर्णी । ३ आश्रवसीमसेविते-आसमन्तात् श्रवस्य-श्रवणस्य सीमा सेविता याभ्यां ते । ४ निर्मलतायुतः । ५ तपतुः-ग्रीष्मतुः। ६ दुष्टः कालः । ७ जलसंगमकः--लयोरक्यात् । ८ गोपतिः सूर्य:-भूपश्च । ९ वैरस्यं विरसताम् । १० तपनः मूर्यः । ११ वीक्षणं नेत्रम् । १२ गोस्तनीवनं द्राक्षावनम् । १३ शिशिरेण 18 स्त्याना वसा वल्लिविशेषो यत्र । १४ बहुवचनम् । ४॥४३॥ 00000000000000000000000000000000000000000 0000000000 Jain Education inational jainelibrary.org Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामा- सी सीता सासीकासमीरसंहिता वाले किन यता नि साई सुझानात् ।पाद 12फवानिशानातिनाति च पासिलियामारिका क्षितिगानिरातिकम पानसुतविकतामा । मिया पुणविनीजसो मारी विभूमीतिर ना मला नीति का जानाधने वापसीना पर सिकाशिमिता शुनिस्सी विनायकी स्वीर यादी नीव पुनीना फुटा। मापने बड़े परभित्री मा अनिलरी, भरपर्श विनापि न भावनिम्मानित हो । भारतात भोज्यं मितशिवाजा बाली सं रोसने वह तामवाने बीडदि पनम् ॥७॥ र दियसरी सोहर उतरति । अस्मेसिवितासन क्षणं मला लुतावाऽस्य (52 इति वानवा शोनुवा सोऽयं सरसोऽन्तोजनाम्। विंश विशास्त्रीको विजयानोभितानि । (सोम र अाले । सलीन माह । सौर व १ मा मानि। विना विधि१४. प्रासादिक खाना पनि शांति अनि । बाजा गीत गाती । की एक किस्सा, पनि ति की कार्य अगा-पुता हात दोन विका विशिष्ट शासन लगा । नीला-निलामीवी गीत। की चाहदि संशोधन नया रो गयी थी का सा ग १ ला ला १०. Provi Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-इनमणी रमणीकृतोऽशुभत्र रमणीयो रमणीयसः स्मरात् ।अधिको जगता रतीश्वरो हरवद्वेरिव गोपितोऽम्भसिाह चरिणम्. किल किञ्चित् कोमलेक्षणा रमयित्वा सुचिरं मृगेक्षणाः। विरराम ततोऽभिरामैरुग् जलकेलीरसतो रसाधिपः॥8 ॥४५ सर्ग:-२ नवरो खवरोधंयुक् सरस्तटगोऽयं रुरुचे रुचेः पदम् । घनकालमतीत्य तारिकाकलितो निर्मलचन्द्रमा इव ॥ धृतसहशचीवरस्तदा शुशुभे भूमिसँचीवरः स्थितः। किमु शारदचन्द्र-चन्द्रिका परिधीयास्ति सुवर्णपर्वतः॥8 अथ देवगृहं हिरण्मयं नृपतिर्वीक्ष्य विवेश यावता। मकरध्वजमूर्तिमद्भुतां पुरतस्तावदसौ व्यलोकयत् ॥७८ 8गुरुदिव्यसरोवरोद्भवैर्जलजैस्तं परिपूज्य च स्मरम् । स नृपोऽस्य च रङ्गमण्डपे किल शिश्राय मृगेन्द्रविष्टरम् ॥७९ भरतेन सुरीसमागमःइह काऽपि सुरी सुरीतिवित् समुपेत्य प्रणिपत्य तं नृपम् । अवतंसितपाणिपद्मका विदुषी प्रौढिमयुक्तमब्रवीत्। विजयख चिरं जगत्त्रयप्रभुनाभेयजिनेन्द्रनन्दन!। अवधार्य वचः सुधानिभं वसुधाधीश ! शृणु प्रसद्य मे ॥४॥ भरतक्षितिवासिनीचतुर्दशसाहस्रनदीश्वरीवृता । तव दर्शन मिच्छति प्रभो! ननु गङ्गा निजचित्तरगतः ॥८२॥४॥ इति तद्वचनं निशम्य स स्मितलीलाललितं किलाऽलपत् । तव वाग्विषये मनोरमे ! मम हर्षेण मनोऽरमेधते ॥८३४ १२ अथ भारतभूपतिप्रिया सहसा साऽऽह सुहास्यवासितम्। वचनाद् विदितामनोर मे(१)जगतीजीवितनाथ! किंतव इति तद्वचनं निपीय सा मुदिता यातवती च यावता। अभवन् सुविमानराशयः प्रकटास्तावदथाऽम्बरे सुरा॥8॥ १ स्मरादपि रमणीयः । २ जगतां हि मियो रतीश्वरः कामः-शिववः भयात् जले गोपितः प्रच्छन्नीकृत इव भरतः सरोवर-गतो भाति । ३ सुन्दरकान्तिमान् । ४ अवरोधो हि अन्तःपुरम् । ५ पदं स्थानम् । ६ मेघकालम् । ७ भूमिइन्द्रः। 18 ८ परिधानं कृत्वा । ९ मेरुः । १० सिंहासनम् । ११ सुरीतिं वेत्ति । १२ अरम् अत्यर्थम्-एधते-वर्धते । 10000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000 Jain Education Internal wibelainelibrary.org Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000 पुण्डराक-तत एकत उच्चयानतः खसखीवृन्दसखी स्मयन्मुखी। मुदितोदेतरत् पुरः प्रभोरिह मन्दाकिनिदेवता जवात्।।८६ ॥४६॥8 सुरीदर्शनाद् भरतो विस्मितः निजदेहमहोजले नृणां नयनं नीरजयन्त्यसौ तदा। भरतेशितरप्यपाहरत हृदयं रागतरङ्गभङ्गिभिः ॥८७॥8 अथ स त्रिदशापगां स्मरद्विमलस्नेहिलसारसौरभम् । अवलोक्य रसाधिपो रसादिति चित्तान्तरचिन्तयचिरम्॥ विद्वद्गोरससंभवं स्मरविधिः सत्पौष्पमन्थानतः, शृङ्गारं सुदधि प्रमथ्य जलित,यङ्गवीनैनवैः। यदेहावयवान् प्रयत्ननिरतः सुस्नेहिलान् कोमलान , स्फूर्जत्सौरभसंभृतान् व्यरचयन् मन्ये मनोमोहिनः ८९8 शृङ्गारं दधि पात्रके व शशिनि प्रेयोगुणावेष्टिना, वैशाखेन युवाभिलाषनिचयेनैव स्वभार्याकरः। 18निर्मथ्य व्यतनोदिमा स्मरविधिः सारैः कषायादिमत्, ज्योत्स्नातक्रममुश्चदत्र जगतस्तापोपशान्त्यै ध्रुवम् ॥९०81 8फुल्लत्तामरसं रसप्रविलसत् सौवर्णनालं स्फुरत, पञ्चप्रोज्ज्वलपद्मरागकलितं स्याच्चेत् प्रसत्यभम् । अस्याः शोणतलस्य निर्मलनखज्योतिष्मतः प्रोल्लस-जङ्गाऽनय॑रुचतस्तु समतां ध्यात् पदाम्भोरुहः ॥९२/४ 8/अरम्भाद्या रम्भा न हरिरणुमध्यो न कलस, सुवर्णः सौवण्यों न भवति मृणालं न मृदुलम् । 18न कम्बुः शोभाम्बुस्थितिरशितिरु: सोऽपि शितरुक, सगर्हः स्याद् वहीं सुतनु ! तनुमालोकितवताम् ९२ प्रत्यंशं प्रतिवासरं निजतनुं छित्त्वा कलङ्काकितं, चन्द्रः पर्वणि चित्रभानुमेहसो मध्ये जुहावाऽऽशु यत् । १ मुदिता उदतरत्-उत्ततार । २ निजदेहतेजोजले । ३ नीरजयन्ती कमलयन्ती-कमलं कुर्वती-नीरजं हि कमलम् । 18 ४ चित्तान्तः अचिन्तयत् । ५ स्मरब्रह्मा । ६ पुष्पाणां समूहः पौष्पम् । ७ कषायरसादियुक्तं तक्रम् । ८ विकसत् । -18 ९ मध्ये कृशः । १० श्वेतकान्तिः चन्द्रः-अपि शितरुक् श्यामकान्तिः । ११ सूर्यतेजसः । 8॥४ 000000000ccommodacco.00 000000 ॥ . Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अस्या आस्यशुकं शुतक्षियपदं तत् प्राप दुष्प्रापवाक् - पीयूषमसरात् प्रसिद्ध विबुधप्रीतिपदं प्रोज्ज्वलम् ॥९३॥ ॥ ४७ ॥ निःश्रीकं नवनीलनीरजमहो ! लीलाऽनिलान्दोलितं, ज्ञातेयाय चलन् कृतप्लुतिरपि स्यात् खञ्जनः खञ्जरुक् सारङ्गी भयतस्त्रसत्प्रचलिताऽपाङ्गाऽपि रङ्गाय नो, अस्याः प्रेश्य मद-प्रमोदरसकृत्संवीक्षणे वीक्षणे ॥९४॥ १ दोषोत्थानमवेक्ष्य नाशमपि च ज्ञात्वाऽऽयुषस्तौ खलु चक्रौ तीव्रतरं यदक्षतमिह ब्रह्मव्रतं चक्रतुः । तेनाऽस्यां स्मरवासचामरपुरि प्रौढस्तनौ निर्जरी, जज्ञाते सुकृतेन सुस्थिरनिजज्ञातेयसंयोगिनी ॥ ९५ ॥ इति चिन्तयतोऽस्य भूपतेः पुरतः क्षीरतरङ्गगौररुक् । कलिताऽद्भुतरत्नपादुका प्रलुलन्नीलदुकूल भासिनी ९६ अमरेंद्रुमपुष्पगुम्फनोत्तमधम्मिल्लसमुल्लसत्प्रभा । मितदिव्यविभूषणा सुरी सुरसिन्धुः पुरतः समाययौ ॥ ९७ ४ सुरीकृता भरतशंसा: ८ अथ भारतभूस्थिराखिलत्रिदशैश्वर्यभवनिया श्रितम् । द्विसहस्रमितैः सुरोत्तमैः सकलाङ्गं विकलङ्कतेजसम् ॥ ऋषभप्रभुनन्दनं नरामरशृङ्गारशिरोमणिं तु सा । अवलोक्य सविस्मय- स्मय- स्मर-हर्ष- स्थिरसाध्वसाऽजनि ॥ उपढौकयति स्म ढौकनान्यथ यावच्च सखी मनोरमा । इह तावदियं सुरापगा हृदये ध्यातवतीति विस्मिता २०० १२ ४ गरिमां गुणिनां गुणज्ञतां ललितत्वं चतुरत्वनिर्मलम् । जगदुत्तम निस्तमस्तनु प्रतिभैवाऽस्य विभोर्विभासयेत् ॥ १ - इति विस्मयः । १ शुको हि प्रसिद्धः । २ शुनं वृद्धिं गतम् । ३ अनिलः पवनः । ४ ज्ञातिभावाय । ५ खञ्जकान्तिः । ६ दोषाया रात्रेः उत्थानम्, दोषस्य उत्थानम् । ७ नात्राक्षराणि पठितुं शक्यन्ते - पुस्तके ' त्वक्षषः' इति अस्पष्टम् । ८ चक्रवाकीचक्रवाकौ । ९ ब्रह्मचर्यम् । १० अमरद्रुमः कल्पवृक्षः । Jain Education Interional परिश्रम् सर्गः - २ 11.89 11 ainelibrary.org Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८॥ पुण्डरीक-अयमादिजिनेन्द्रनन्दने भुवनेन्द्रो धृतरागधी-रयः । हृदयं मम धीरयत्यपि स्वदृशा सौम्यरुचिस्पृशा भृशम् ॥२॥ ४ चरिक -इति स्मयः। सर्गः-२ भुवनोत्तमकामिनीजनो हृदये ध्यायति यं रतक्षणे। रमयेद् यदि सोऽपि मा विभुः परशृङ्गारसुवासुवाम्बुधिः॥३8 -इति स्मरः । भरतेश्वरनेत्रजं जनद्वितयीहृत्कमलेऽस्ति मे तथा। अचिरादपि कामिनीजनप्रभुता संभवितेति वेम्यहम् ॥ ४४ -इति हर्षः॥ किमु मौग्ध्यमथो महोदधेः किमहं ज्ञानमहोदधेः पुरः। विदुषा विभुनाऽधुनाऽमुनासह शक्ष्यामि न वक्तुमुत्तमम्॥५३॥ -इति साध्वसम् ॥ चिरमित्यनुचिन्त्य ढोकने निहितेऽसौ सुरसिन्धुदेवता । प्रणनाम सखीशताऽऽवृता भरतं भारतभूमिदैवतम् ॥६॥४ ___ या सुरी सा गङ्गाःप्रतिहारिकया सुविष्टरे निहिते रत्नमये सुरापगा। भरतेशितुरग्रतस्तदा प्रविवेश स्मितहष्टलोचना ॥७॥ प्रथितप्रभुता-पवित्रितं पृथिवीशोऽप्रथयद् वचः शुचि। सुखिनी किमु देवि ! विद्यसे सं पुनाना जगतो जनं जलैः॥ अवदत् स्मितभासुरीकृताऽखिलरत्नप्रतिभा सुरी च सा। जयति त्वयि देव! किं कुतोऽप्यसुखं स्याद् जगदीश! जन्मिनाम् ॥९॥8 नवकीर्तिसरोऽन्तरे मनः-कलहंसः सुखितोऽस्मि मे तरन् । भवताऽस्मि कृता पवित्रतास्पदमद्य त्वनवद्यदर्शन॥8. १ म-आसने । २ स पृथिवीशः । COOOOOOOOOOOOOOOOO Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-8सुपवित्रये मेऽद्य मन्दिरं स्वपदाम्भोजरजाप्रसादतः।इति मानसमानमुज्ज्वलं वितर त्वं सुतरस्विनां वर! ११ चरित्रम्। ॥४९॥ विनमः खचरेशितुः सुता नृपते ! जीवितवल्लभा तव । मम गेहमुपैत्वहं यथा निजशक्त्या विदधामि सेवनम्। गङ्गागृहे भरतगमनम्इति भक्तिपुरःसरी सुरी सुरसिन्धुर्नरसिन्धुरं तदा । अधिरोप्य विमानमानयन्निजगेहे परिवारसंयुतम् ॥१३॥ विमलैः शिशिरैः सुगन्धिभिः सुकमारवसनैदिवोभवैः। विविधैरपि दिव्यभोजनर्जननाथं तमुपाचरत् सुरी।। ससुधावसुधासुधारितैर्ललितैनन्दनचन्दनैः सुमैः । अनुरञ्जितमानसं नृपं विदधे सा नति-मानसंगता ॥१५॥ 8अवगत्य मनःप्रकाशितैः सविभावैःशुचिहावभावकैः। सुरसोऽप्यमरी जनो भवेत् इति भावं सुरतं सुरीव्यधात् भरतस्य मनो मनागपि स्पृहयामास यत्र तत् सुरी। उपभोगविधावुपानयदवधिज्ञानवती स्वशक्तितः ॥१७॥8 विनमेस्तनयां च भूपतिं सुरसिन्धुः समुपाचरत् तथा। न विवेद यथा मनस्तयोयतिरिक्ताममरीमिमां मुदा 18 अतिदक्षतयाऽतिसेवया ललितत्वेन वशंवदीकृतः। अथ ताममरीमरीरमद् भरतो मुद्भरतो रतो भृशम्१९४/ 18 गणया सह दैविकं सुखं बुभुजे भरता१२विनमे सुतयाचगङ्गया सहमानुष्यक-दैविकं सुखम्।बुभुजेस निजेच्छयाऽयाऽऽसे रमेशोऽत्रसमा सहस्रकम् । ४ सुरसं प्रविलोक्य हर्षितं सुरसंगीतकरोऽन्यदा नृपम् । स तु बन्दिवरः प्रियंवदो वदति स्म प्रकटोचविस्मयः॥ अयोध्यास्मृतिः १ सुधासहितायां वसुधायां सुधारितैः । २ अरीरमत्-रमयामास । ३ हर्षभरतः । ४ अच्छया-निर्मळया । ४५ आस-चिक्षेप । NOOOOOOOOOOOOOOOOO Jain Education in Stational Satarjainelibrary.org Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-४ भुवनोत्तमवल्लभायान्वितमालोक्य भवन्तमीश्वर ! । घनसास्तकं स्मरामि तं फणिवल्लीयुगलेन शोभितम् ॥ परिषद अथ सस्मितमाह भूपतिः किमहो! त्वद्वदनं प्रियंवद ।चलितोत्कविलोचनद्वयं सुपरिम्लानमिवाद्य वीक्ष्यते ॥ सर्ग:-२ अवदत् तदनु प्रियंवदस्तदयोध्यानगरं विनाऽधुना । मम नो रमते मनो मनोरमभूमावपि संप्रति प्रभो! ng ४ असुखे न समेति रोचते निशि निद्रान दिने न भोजनम् । अत एव तनुस्तनुप्रभाऽजनि भूजानिशिरोमणे! मम यत:8"असुखंच सुखं च चेतसि स्थितमस्त्येव न जातु वस्तुनि।भविनःसुखिनः स्युरत्र यैर्यतिनस्तैरिह दुःखिताः खलु" भुवि किंनगराणिसन्ति नोबहवः किंनजनाश्च सन्ति वा निजजन्मपुरेसजन्मभिःसह यास्यात् प्रमदःसनाऽन्यतः इति तद्वचनात् सचेतनः समयित्वा कियतोऽपि वासरान्।समभूत्स्वपुरं समायितुंसमहीशः सहसा समुत्सुकः अथ सा सुरसिन्धुदेवताऽप्यवगत्यैव मनो नरेशितुः। निजगाद चिरं प्रसादिता भवताऽक्षोभवताऽहमीश्वर ! 8 तव दर्शनसौख्यसस्पृहा अथ साकेतनिवासिनीः प्रजाः। नृप! मोदयतां भवान् मयि प्रणयो विस्मरणीय एषन 8 इति भोगवियोगदं वचोऽप्यवदत् साऽत्र सुरी सुरीतिमत्। विदुषी हृदि नो तथासुखे यतते प्रेमविधौ यथा भृशम् ।। १२४ उचितोक्तित एव रञ्जितो भरतोऽवोचत देवि! मेऽनिशम्। ददती मनसो मतं सुखं भवती विस्मरतीह किं कदा 8 गङ्गोत्तरतटविजयःइति स स्ववशां प्रमोद्यतां सुरसिन्धुं भरतक्षितीश्वरः। प्रचचाल सुखेन सैन्यात् प्रविजित्याऽत्र तदुत्तरं तटम् ॥ 8 खण्डप्रतिपातिकागुहाविजयः, नव निधानानि च१ उत्कम्-उत्सुकम् । २ यापयित्वा । ३ मुरीतियुक्तम् । ४ सैन्यम् एव पादौ यस्य सः । OOOOOOOOOOOO 5000000000000000000000000000000000003 . Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥५१ ॥ 0000 पुण्डरीक-प्रविजित्य सुरं व्यतीयिवानथ खण्डप्रतिपातिकां गुहाम्।सुरसिन्धुतटेऽथ दक्षिणे विजितेऽत्राऽऽपं निधीनसो नव 8 अयोध्याप्राप्ति: सर्ग:-२ प्रविधाय निदेशवर्तिनः सकलानिरथमसौ नरा-ऽमरान् । स्वपुरं प्रति चेलिवानथो स्वगुहां सिंह इवाऽतिदुस्सहः भटेहेतिभिरत्र दर्शयन्निजतेजोऽङ्करकानिवाऽग्रतः। निजभूपशतातपत्रकैः कुसुमानि स्वयशस्तरोरिव ॥३६॥ अनतान् नमयन् प्रसादयन् प्रणतानुन्नमयन् विवेकिनः। विदुषः परिपूजयन्नयं तदयोध्यानगरं समासदत् ॥३७॥ अयोध्यावर्णना (युग्मम् ) मणि-तोरणराजिराजितां मुदितोत्कण्ठितपौरपूरिताम्। कुतुकाकुलसरकुलनिय विलसल्लास्यविलासितेक्षणाम् । ८४अतिनिर्मलरत्नपुत्रिकाङ्कितमश्चोच्चयचारुवीथिकाम् । निजदिग्विजयोत्थगीतिकाऽभिनवाऽऽकर्णनकर्णहर्षदाम्॥ 8 कलमगलतौर्यगजितेनटयन् केलिकलापिनां कुलम् । प्रविवेश पुरीमरीणरक भरतो मुद्भरतो नृपाधिपः ॥४०॥8 (विशेषकम् ) स्वपुरोहितरत्ननिर्मितान् बहुमाङ्गल्यविधीन् नयन् ययौ। निजसौंधमसौ धराधवः शुचिसौधर्मसदः सुरेन्द्रवत् । १२४ चक्रधराभिषेक:४ कलमङ्गलगानपूर्वकं विधिना द्वादश वत्सराण्यथो । अभिषिच्य नरा-ऽमराधिपैविधे चक्रधरोऽयमादिमः ४२ भरतभगिनी-सुन्दरीकृततपांसि १ आप माप । २ भटहेतिभिः भटशस्त्रैः। ३ पुत्रिका-भाषायाम्-'पुत्तलिका'। ४ अक्षीणकान्तिः। ५ सौधम् 8 18 आवासम् । ६ सौधर्मसभाम् । 0000000000000000000000000000000000000 SOOOOOOOOOOOOOOONarcomooRNOOD PRww.jainelibrary.org Jain Education Ternational 10 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक- 8 स शशाङ्ककलामिवाऽमलामवलोक्याऽतिकृशां च सुन्दरोम् । ॥ ५२ ॥ ४ ८ १२ सचिवान् परिपृष्टवान् नृपः प्रति तं प्राहुरमी अधोमुखाः ॥ ४३ ॥ | तव दिग्विजयायवासरादियमुच्चैर्व्रतसं जिघृक्षया । नृप ! षष्टिसहस्रवत्सराण्यकृतोऽस्तांऽशनमद्भुतं तपः ४३ सुन्दरीप्रव्रज्या अथ चक्रधरोऽपि सुन्दरीकृतचित्तः सह सुन्दरी मिमाम्। परिगृह्य विभोः कराद् व्रतं स तदाऽऽदापयति स्म सोत्सवम् लघुभ्रातॄन् प्रति दूतप्रेषणम् - अभिषेकविधावनागतान् वितते द्वादशवार्षिकेऽवि तान् । अभि दूतगणं व्यसर्जयद् भरतोऽष्टानवतिं निजानुजान् स्वनमस्करणाच संगमाद् भरतेशः त्वरितं प्रमोद्यताम् । इति दूतवचो निशम्य तद् जगदुस्ते जगदुद्धरा नृपाः ॥ अस्माकं स्वामी तु ऋषभ एव जनकः - प्रविभज्य स राज्यमात्मनो जनैनोऽस्माकमदात् पुराऽस्य च । भवतां पतिरेष लोभतः कथमस्मत्त इदं समीहते। इतरेण नहि प्रयोजनं निजराज्यं ननु रक्षितुं क्षमाः । बलतोषजुषो वयं स्वयं कथमेनं प्रविदध्महे पतिम् १ ॥ ४९ ॥ भरतो हि हतधीः हतधीरतिधीर एष चेत् रणरङ्गे समुपैतु तज्जवात् । न वयं च पराश्च एवं भोः ! स्वशरैर्नर्तयितुं तमागतम् ५० रुषिता अपि भो ! भृशं वयं निजतातेन समं विमृश्य तु । समरं भरतेन कुर्महे कलहारम्भरतेन नाऽन्यथा ५१ अष्टापदे ऋषभस्य देशना - १ अकृत - चकार । २ अस्ताशनम् - अस्तं क्षिप्तम्- अशनं भोजनं यत्र तपसि तद् अस्ताशनम् । ३ जननो जनकः - ऋषभदेवः चणि सर्गः - २ 1000 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ५३ ॥ पुण्डरीक - इति ते प्रणिगय भूमिषः प्रभुनष्टापदपर्वतस्थितम् । अभिगम्य मुदा प्रणम्य चाऽभ्यधुरुचैर्भरतांऽऽभियोगिकम् शुचिशान्त विलोचनांशुभिर्भगवानेष सुवाकणैरिव । अभिषिच्य जगौ निजाङ्गजांस्तदस्यानलशान्तये किल अनयाऽऽश्रितया श्रियाऽनया ननु यूयं तनया नयाधिकाः । कथमिच्छत संगमं हहा ! शुचिचित्ता इव धूर्तवेश्यया स्वपुर/जित पुण्यनीरदात् धनपूरो भविता विनश्वरः । स्थिरमत्र तु केवलं ततोऽद्भुतशीलद्रुममूलनाशनम् !!! अतिकुत्सतरै विनश्वरैर्भवभोगैः नरकान्तकारकैः । इह तुष्यति रङ्कवज्जनः शिवराज्याय करोति नोद्यमम् ५६ नवरा - ऽमरराज्यसौख्यदः परमात्मा परमः सुरद्रुमः । प्रकटीक्रियतामथ व्रतैर्विषयाशाविषवल्लिनाशनात् ॥५७॥ अपमानकलङ्कपाप्मनां विषयेच्छा ध्रुवमूलमंत्र भोः । । तदिमामपहाय मुक्तये सुकृताढ्याः कुरुताssदरं स्यात् वचसा मनसाऽङ्गकेन च श्रुत- सद्ध्यान- तपस्स्विह क्षमाः । दुरितान् कुशरीरसंगतान् ननु यूयं किमथो करिष्यथ ? विभुवाक्यमिदं निशम्य ते शमिनः संयमिनश्च जज्ञिरे । भरताय निजेश्वराय तेऽप्यथ दूता अभिगम्य चावदन् ४ ८ भरतेन लघुबन्धु - राज्यानि ग्रसितानि - अथ भूतिभृतानि जग्रसेऽनुजराज्यानि स सार्वभौमर । द्। स्फुटवह्निरिवेन्धनान्य हो ! अशनीनीव धनानि भस्मँकी भरतं सैन्यपो व्यजिज्ञपत् १२ १ नरशेखर शेखरीकृतक्रमयुग्मं भरतेशमन्यदा । प्रणिपत्य सुषेणसैन्यपः समुपेतः सदसि व्यजिज्ञपत् ॥ ६२ ॥ १ भरतदूतकथितसंदेशम् । २ अनयो हि अन्यायः, तम् आश्रितया अनया श्रिया । ३ अत्र संसारे केवलम् - आत्मतत्वं स्थिरम्, अत एव यद् यूयं शीलदुममूलनाशनं कर्तुमुद्यताः- तद् अद्भुतम् - इति गम्यते । ४ पुस्तके तु 'परहांत' इति अस्पष्टम् । ५ स्याद् वेगात् । ६ अशनानि भोजनानि । ७ भस्मकी भस्मकरोगवान् । सर्ग: - २ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ५४ ॥ ४ ८ १२ Jain Education In चक्रं नहि संविशति - परित्रम्: बलतो नमितोच्च भूधरे विहिते दिग्विजये प्रभो ! त्वया । समदेद्विरदः स्वशालिकामिव चक्रं नहि देव ! संविशेत् ४ सर्गः - २ को हि अजितः : सचिवः शुचिवाचमूचिवान् सुमतिः श्रीभरताधिपं प्रति । ननु कोsस्त्यजितो जगज्जिति त्वयि नाथेऽपि रवौ तमोंऽशवत् ॥ ६४ ॥ बाहुबली अजितः - स्मृतमाः ! प्रथमस्तवाऽनुजोन महाराज ! भृशं वशंवदः । स हि बाहुबली बलीयसां ततिभिः प्रस्तुतविक्रमस्तुतिः गुणरत्ननिधिर्बलाम्बुधिः सहितः स्वस्य महामहीधरैः । प्रसरन्निजमुद्रया स्थितः स्थिर-ओजोवडवाग्नि भीषणः भरतो हि वणिक् अविजित्य महाबलं ह्यमुं भवता दिग्विजयस्य कैतवात् । वणिजेव विदेशयायिता विदधे कोऽपि पराक्रमस्तु न अनुजः संमहा महाभुजस्त्वतिकीर्तिश्च बलं च मेध्रुवम् । इति चक्रिवचो निशम्य स न्यगद्द् मन्त्रिवरः ससंभ्रमम् मन्त्रिणा भरतः प्रेरितः उपमेयबलोऽमुनाऽधुना भुवने त्वं भुवनेश्वरोऽपि सन् । विजितेऽत्र महाभुजेऽनुजेऽनुपमौजा भव चक्रनायकः स्वसमं समुपेक्षसेऽथ तं सरलः स्वच्छनितान्तवत्सलः । लघुनाऽपि लघूकृतं वचो गणयिष्यन्ति नृपाः कथं तव ? कुरुषे प्रथमं रणं न चेद् निजदृतं विसृज प्रभो ! ततः । समुपेत्य नमत्यसौ यथेतरथा तु त्वममुं प्रणामय ॥ ७१ ॥ १ समदो हस्ती । २ महसा सहितः - समहाः । ational 000000000000000000000.00 ॥ ५४॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥५५॥8 बाहुबलिं प्रति दूतप्रेषणम् चरित्रम ति मन्त्रसमीरणैविभा-वसुरप्येष नृपः प्रशान्तहृत् । प्रति बाहुबलि दिदेश तु स्वकदूतं नय एष भूभुजाम्॥ सर्ग:-२ दूतगमनम्शतशोऽशकुननिवारितः स सुवेगः पविवेगतो गर्मन् । नियतं नियतिश्रिता गतिर्जगति स्यादिह धीमतामपि बहुलीदेशकीतिः१कणराशिभिरुच्चितर्घनैः सुख-लक्ष्म्य-ऽङ्गामणीगणरिव । बहलीकृतसंमदं दृशोहलीदेशमथो विवेश सः ॥७४।। १ सुरशैलसमेतदेवता-सुखगीतादिजिनेन्द्रगीतिकाः। प्रपठद्भिरनुत्सुकैः शुभैः श्रितदूतद्रुमशीतभूतलम् ॥७॥ किल बाहुबलि समेत्यहो! अपशास्त्रा-ऽनययुद्धनिश्चलः। इति भिल्लगिरा भिरुत्वसद्गज-शार्दूल-मृगेन्द्र-भोगिनम् ४पथि पान्थवधूविभूषणद्युतिनिधूततमीतमश्चयम् । फलशालितशालि पालिनीललनाऽऽनीतसुबाभूपतिम् ॥७७॥8 (चतुभिः कलापकम् ) ४ इति देशममुं व्यलोकयन् कुतुकैनव्यमनाः स दूतैना। इव देवभवं समागतं स्फुटमात्मानममन्यत ध्रुवम् ७८४ 8 तक्षशिला8 अथ निर्मलशालशालितां स विलोलध्वजराजिराजिताम्। स्फुटधर्म-यशोद्विवाससा सहितां तक्षशिलामवक्षत ___ बाहुबलिना दूतसमागमः, बाहुबलिकृता भरतभर्सना चस विशिष्टम्दो विशिष्टराट चकितः कौतुकितो विवेश ताम्। घटिकागृहपार्श्वगोरथं परिहत्याऽस्मरदीशवाचिकम् । १ 'गच्छन्' स्थाने 'गमन्' इति कवे चित्र्यम् । २तमीतमो रात्री-अन्धकारः। ३ दूतपुरुषः। DOORDOSCONTREAMIRRO00000 000000DWOOOOOct Jain Educatioterational diw.jainelibrary.org Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सग based o पुण्डरीक-नृपवाक्यमवाप्य वेगतः प्रतिहारोऽथ सुवेगसंज्ञकम् । जलरत्नजकुहिमस्फुरजलभावं तमवेशयत् सदः ॥८॥ नृपतिः क इति स्वसंशयं जनितं स्तम्भनिषक्तमूर्तिभिः।त्यजति स्म सविस्मथैर्वचोनिचयैर्वाहुबलेः स दौत्यकृत् । प्रणिपत्य निविष्टवत्यसावथ दते नृपतिर्जगी गिरम् । हृदयोद्भवहर्षवृक्षजस्मितपुष्पैः परिपूजितामिव ॥८३॥8 __ अयि भद्र ! ममाऽग्रजो बहुकुशली तिष्ठति भोः ! प्रियंवद ।। अयि तेन जिताः सभासदः पृथिवीशाः किमु सन्ति सन्मुदः ॥८४॥ मुखंभारत ! एष भारतं किमु जित्वा गतवान् महीतलम् । अपि तस्य परस्परं क्वचिद् न पुमर्थत्रितयं विबाधते 8 इति भूपसुवर्णवागलंकृतकोंऽथ स दूत ऊचिवान।स्मृतितोऽस्य जनाद् रुजावजो व्रजति स्यात कुशली कथं न सः४ समरेऽसमरेख एष चेत् क्व भटः स्यात् प्रकटस्तदोत्कटः। तरणियदिखे क्व तारको गरुडश्चेत् क्व नु चण्डकुण्डली 8 18|जननीमिव जीवदां नृपा भरताज्ञा बहु मानयन्ति ते । न निजं विषयं त्यजन्त्यहो! पुरुषार्था अपि तदुभयादिव? 8 अथ भारतभूमिभूमिपा भरतस्य स्वकभक्तिभारतः। विदधुर्विदितं स्वचक्रितोत्सवमाबादशवत्सरीमपि ८९४ 8स निजाननुजाननागतानविबुध्यात्र महे महत्यपि । पुरुषानरुषा व्यसर्जयद् मुदितस्तैनिजसंगमञ्चिकः ॥९०॥8 १२ सुविकल्प धियो विकल्प्य ते किमपिस्वान् विषयान् विहाय च।सुमधुव्रततां समाश्रयन् विकसन्नाथकरारविन्दतः४ा इति बन्धुवियोगनीरधौ स विषादानवधौ निमज्जति। तदमुं प्रति धीर ! संप्रति त्वमुपेक्षां कुरुषे किमन्यवत् ॥ लघुबन्धुवशोन यद्यपि त्वमुपेतो नृपते ! तदुत्सवे । अपवक्ति तवैतदन्यथा पिशुनोऽयं हि निसर्गतो जनः॥१३॥8 १ मुखस्य भायां शोभायां रत:-वाचालशिरोमणे।। २ असमरेखो हि अद्वितीयः । ३ प्रचण्डसर्पः । ४ निज-18 शक्तिभारेण । ५ निजसंगेन मञ्चे तिष्ठति-इति निज-संगमश्चिकः-समासनस्थायी । n OOOOOOOOOOOOOOO SOO00000 Jain Education Interational ainelibrary.org Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-भरतहिनमस्कृतेः कृतिन् ! प्रभवत्कीर्तिसरित्यहो! निजम्। जनवादरजोयुतं गुणप्रचयं क्षालय भो! प्रभालय! चरि रेधनं सभूधनःप्रददानोऽपि निखिलानुजीविनाम् । प्रियमानधनोऽतिनिस्पृहः स्पृहयत्यद्य तवाऽऽनतिं नृपा -२ ॥ ५७॥ २९ लघुबन्धुरहं मनोभ्रमः प्रविधेयस्त्वयि ! धेय ! न त्वया । शनिमात्मजमप्यहपतिग्लपयत्येव हि सूरभावतः॥९॥ ४ अवधीरयसेऽथ धीर ! चेत् प्रवरं चक्रधरं मदादमुम् । अरिभूरुहवदिरेष ते शलभत्वं सुलभं करिष्यति।९७॥ 18 किं बहुना18/अवनेरवने च जीवने यदि वाञ्छा हृदि काचिदस्ति ते। स्वरसाच्छिरसाऽस्य शासनं वह भूपा अपरे यथाऽखिला:8 8|अमरैभ्रमरैरिवास्य यत् परिसेव्यं पदपद्मयुग्मकम् । पृथिवीतललेशदेशप ! प्रणमंस्त्वं किमु तत्र लज्जसे? ॥१९॥ इति दूतवचो निशम्य स प्रबलो बाहुबलिनिजी भुजौ अवलोक्य जगाद तत्क्षणे स्फुरति प्रेरयतीव दक्षिणे॥३००४। 18मम संगममीहते स यत् रुचिरं तत् खलु पूज्य एव मे । यदनीनयदात्मनो भुजास्तदहो! प्रौढवया स्थिरस्मृति यदमीषु शमीभवत्सु भो! अतिवान्ता अपि राज्यसंपदः । अयमाहरदुत्सुकश्ववत् प्रकटस्नेह इवाऽस्ति ते पतिः लघुभिजित इत्यसद्धचो भुवि मा भूदिति ते पान्विताः। विदधुश्चरणं रणं न तजितकासी स बभूव निस्त्रपः॥३/४/ 18/अपवक्ति च मां महाजनोऽनुजराज्यग्रहणोद्यतं न तम् । पुनरत्र वचोहर ! त्वया पतिभक्तिः प्रकटीकृता भृशम् | । बाहुबलिना ऋषभ एव पूज्यः, नान्यःवरिवस्य इहादितीर्थकृद् भुवनेऽन्यो मम नैव दूत! भोः। गुरुवन्धुतया नमस्कृतिं भरतस्याऽस्मि करोमिनाऽन्यथा लघुबन्धुविवासनांहसान हि योग्योऽपिसमीहतेनतिम्।इति पापविशुद्धयेऽस्तु मे भुज उच्छेद-कशास्त्रभृदु गुरु:/8 १ प्रभामन्दिर ! । २ 'तु-अयि' इति पदच्छेदः । ३ अवनेः अवने रक्षणे । ४ अमीषु अष्टानवतिभ्रातृषु । ५ संयम विधः। 8६ 'अहम्' इत्यर्थे। NooooOOOOOOOYOOOOOOOooooooooOOOOOC Jain Education Al national R w.jainelibrary.org Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Docommonoro पुण्डरीक-निजबन्धुषु नैव सौहृदं मयिपुष्णाति मदग्रजोध्रुवम्। निजदिग्विजयजयशो-धनं सुखिनोदित्सति मेऽन्यथाकथम् चरित्रम्. अरिभूरुहवह्निरेष ते पतिरस्ति प्रतिभाति भासुरः। मम चापचनाघने शरैरतिवर्षत्यथ भावि किं हहा! ? ॥८॥ त्रिजगजनकोटिहद् मुर्दा जनकोऽयं जनको युगादिकृत् ।। _ अनुजोऽस्मि च यस्य विक्रमी न स सेव्योऽस्तु कथं सुरा-ऽसुरैः ? ॥९॥8 तरलीकृतलोचनो मया खुरलीभिर्विजितः पितुः पुरः। तदसौ मयि मा विलज्जतामिति मत्वा कृपयाऽस्मि नागतः४ हस्वकरेण सखे ! संखेरितःप्रपतत्कन्दुकवन् मया धृतः। पटुचाटुभृता गिराऽद्य तद् भृशमत्तस्य नु तस्य विस्मृतम् 8 अयि दूत! तवेश्वरो ध्रुवं निजचक्रेण करोत्यहंकृतिम् । किमधाकृतचक्रयुग्मका ननु कुर्वन्तु रथाः कथं न ताम् ॥ ४ ८ तदरे ! व्रज दूत ! वेगतो मदभूतग्रहिलं निजं पतिम् । प्रहिणु स्वकमण्डलाग्रतः शमिनं तं विदधामि मान्त्रिकः४ है।इति भाविरणश्रुतेरिवाऽऽहतनृत्यं किल बाहुभूपतिः। करवालमलालयत् करे स तु दूतः सभयः सदोऽत्यजत् ४ सुभटान् प्रकटायुधानिह प्रविलोक्यात्मरथं श्रितो भयात् । समतत्वरदुच्चवैरिणं सतताशङ्कि मनो नृणां भवेत् ॥ 1 दूतः प्रत्यागमत्, भरतं व्यजिज्ञपञ्च१२ बहलीविषयाद् विनिर्गतः स्थिरचित्तो निजनाथनीवृतः। भयतस्त्रसंतो विलोकयन् स उपेतो भरतं व्यजिज्ञपत्॥४ यदि मेरुरहर्पतेः करैयदि च व्योम समीरणेरणैः। यदि पाणिनिषेवणाद् पविझटिति प्रस्फुटति क्षितीश्वर ॥१७४ 18 बाहुबलिरजेयः४१ चापमेघे । २ खुरली तीरक्षेपणाभ्यासः । ३ 'सखा''ईरितः' इति पदद्वयम् । ४ भृशमत्तो भृशाभिमानी । ५ यदि तव ईश्वर:भरतः चक्रेण अहंकृति करोति, तदा चक्रद्वयसमेता रथाः कथं न अहंकृति घनघनं कुर्युः। ६ द्वितीयाबहुवचनमेतत् । ७ समीरणेरणैः पवनेरणैः-पवनानाम् ईरणैः। 3000000000Wore Jain Education inal Halew.jainelibrary.org Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीकन तथापि विभो ! विभोचयः प्रवरमानव-देव-दानवैः । अनुजस्तु मह। भुजस्तव स बली बाहुबली विजीयते ॥ (यु०) १ चरित्रम्॥ ५९ ॥ तव देव ! पराक्रमो यदा विहितोऽस्य श्रवणातिथिर्मया । स विलोक्य तदा निजी भुजौ स्मयते श्मश्रुंनिवेशिताङ्गुलिः १ सर्गः-२ प्रबलरिपुबलेभ्योऽशीतविद्याधरौघैः शरणवितर पेनाऽऽजन्म संतुष्टचित्तैः । ४ १२ कृतनवनगरीभिः शोभिता यत् पुरी सा चतुरतरसखीभिः सेविता स्वीश्वरीव ॥ २० ॥ स विक्रमयुतोऽद्भुतोपकृतिदत्तचित्तस्तथा सुरीभिरिह गीयतेऽध्यमृतपानशैथिल्यतः । यथा श्रुतिपथं श्रितो न मम कोऽपि वीरोत्तमः सुरासुरनरेष्वहो ! भरतभूमिवज्रायुधः ॥२१॥ चरणयुगमसौ समेत्य बन्धुर्मम वरिवस्यति चेति चिन्तनम् । मा मनसि नृपपते ! वृथा कृथा त्वं गगनसुमैरिव पूजनं जिनेन्दोः ॥२२॥ इत्थं दूतं वदन्तं प्रति सचिवधवः सोऽद्भुताटोपकोपः प्रोचे वाचं महोच्च भृकुटिकुटलितः प्रोत्कटास्यः प्रहस्य | द्वात्रिंशद्भूपसाहस्रकबलकलितेऽग्रे सुषेणे रणस्थे । रे ! रे ! कोऽयं स्वगेहप्रथित पृथुलो बालिशो बाहुभूपः २३ बाहुबलिना युद्धसज्जता प्रयाणं भो ! भूपा इति भरतनाथार्धवचन-प्रसादं संप्राप्योद्वसिततनुभिः सैन्यपतिभिः । हतां ढक्कां हक्कामिव रिपुन्नृपत्रासविधये भटौघः श्रुत्वाऽभूत् समरमदकर्पूरकलशः ॥२४॥ | द्वितीयः सर्गः - १ भाषायाम - मूछे ता दईने । २ सु + ईश्वरी - स्वीश्वरी । Jain Educationmational ॥ ५९ ॥ w.jainelibrary.org Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SoMO चरित्रम् सर्गः-३ पुण्डरीक-श्रीरत्नप्रभसूरिसूरकरतो दोषानुवङ्गं स्यजन् यो जाड्य स्थितिरप्यभूत् प्रतिदिनं प्राप्ताद्भुतप्रातिभः । ॥६०॥४ तेन श्रीकमलप्रभेण रचिते श्रीपुण्डरीकपभोः श्रीशत्रुजयदीपकस्य चरिते सगों द्वितीयोऽभवत् ॥३२॥ इति श्रीरत्नप्रभसूरिशिव्य- कमलप्रभसूरिविरचिते श्रीपुण्डरीकचरिते भरतदिग्विजय बाइबलिभूपोत्साहनो नाम द्वितीयः सर्गः । ॥ तृतीयः सर्गः ॥ अचलद् भरतः स श्रीमानथ भरतो रतोऽतिसौर्य प्रारूढो गुरुगजरत्नमादरेण । सोंवी कटकभरैनिजैरनुस् कुर्वाणोऽचलदखिल तो नरेन्द्रैः ॥१॥ त्वत्सैन्याद् व्रजति रसातलं रसाऽसौ तद् भूभृत्प्रथम ! शनैः कुरु प्रयाणम् । प्रोन्नादादिव गिरयोऽभ्यधुस्तमेवं मातङ्ग:-ऽश्व-करभ-पत्तिषु नदत्सु ॥२॥ 8/चन्द्रोऽयं भूवमिति भावतो हसन्तीमाश्लिष्य प्रसृतकरः कुमुद्रतीं ताम् ।। आत्मानं दलभरधूलिधूसरोऽपि सूर्योऽसाविह बहु मानयांबभूव ॥३॥8 __सा सेना बहलीदेशं प्राप18सा सेना प्रसृतरजस्तमार्सेमूहेऽप्युत्तङ्गस्तेनगुरुहस्तिराजयाना । राजन्ती गुणमणिभिः सुनायका द्राक् प्राप्याऽस्थादथ बहलीसुदेशकण्ठम् ॥४॥४ १ पुस्तके न स्पष्टम् । २ लध्वीम् । ३ हसमानाम् । ४ स्वीपक्षे-रात्रौ । ५ स्तनो हि मेघध्वनिरपि । 50000000000000000000000000000000000000000000000000001 ONONOKONOC Jain Education rational o ainelibrary.org Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक प्रारूढो बाहुराजः चरिक सततं चक्राधिपतिमथो निशम्य हर्षादायातं स्फुटजयडिण्डिमप्रबोषः। सर्गः-३ सैन्यानि त्वरयति स्म सभस्म योऽन्तः प्रारूढः करियरमत्र याहराजः ॥५॥ धूलीभिः सुपिहितभास्करेऽतिगर्जनिस्वानस्वननिभृताम्बरान्तराले। प्रत्युद्यत्पटुभहेतिविद्युतीह विस्तीर्ण धृतघनडम्बरेऽस्य सैन्ये ॥३॥ रोमाञ्चाङ्कुर उरसत्त्वरत्नभूषु वीरेषु प्रतिददृशेप्ररूढः।भीतानां तृणनिचयो मुखेष्वरीणांतन्नारीनयनयुगेषु चाम्बुपूर चक्राधीश्वरशिबिरस्य नाऽतिदूरे स्वं चक्रं रिघुनृपचक्रवालचक्रः । - (युग्मम्) - स्वादेशादथ लघुरार्षभिः सतर्षः शुद्धायां भुवि विनिवेशयांचकार ॥८॥ प्रातः स्यादिह जगद दिवीरयोस्तु संग्रामो व्यसमरसः कुतूहलाख्यः । व्याहतु वरुणमिवाऽगमत् प्रतीच्यां मित्रोऽसौ द्रुतमथ विश्वकर्मसाक्षी ॥९॥8 संध्यायामरुणविभौ रुषेव दीसावालोक्य द्रुतमुदितकरैः स्वकीयैः। सैन्यौघान् रणभरतोऽरुणत् स राजा सौम्यानां नहि पुरतो भवेद विरोध ४ तां श्यामां शशिवदनां विलोलतारां लिप्साङ्गीमिव परिलभ्य चन्द्रभाभिः। . वीरेन्द्रा उभयदलेषु चक्रुरुद्यत्क्रीडानि स्फुटविषमायुधार्चनानि ॥११॥8 ४१ सधूलि । २ हेतिः शस्त्रम् । ३ सेनावासः शिविरम् । ४ बाहुबलिः । ५ विषमरसः । ६ सूर्यः । ७ सैन्यसम्हान् । ४ 18/८ परिरभ्य । 0000000000000000000000000000 DONORMOOG0000000000000000000000000000000000000WOOR olo.jainelibrary.org Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ पुण्डरीक-बीती दोषी यमजनको भशारुणास्यः संत्रास्य स्वपतियुता लघूड-युक्तम् । सन्यैद्यौँः स निजकरचालरता (1) वेगेनानणुरणतौर्यगजितानि ॥१२॥ सर्गः-३ ""दन्तायाऽभ्युदितचमूसमूहमल्लद्वन्द्वस्यापरगिरि-पूर्वशैलसंस्थौ। चन्द्रा-ऽकौं प्रसृतमहामयूखदण्डानुद्दण्डान् विदंधतुरत्नरालभागे ॥१३॥ अश्वोऽश्वं प्रति सुभटो भटं च नागो नागेन्द्रं भुवि रथिनं रथीह खे तु। उन्नादप्रतिनिनदं रजो रजश्चाभ्यायासीद् दलयुगलस्य भावनैक्यात् ॥१४॥ नाराचस्फलनभवस्फुलिङ्गभाराभाराढये समररजोमहान्धकारे । आः ! केषामहरदसौ न जीवितद्रव्याणि प्रबलतरोऽत्र कालचौर ? ॥१॥8 प्रथमजिनेश्वरपूजाकृत्वा तौ प्रथमजिनेश्वरस्य पूजां युद्धाय स्थिरमनसौ तदाऽऽर्षभी द्वौ। सन्नाह्योत्कटकटकान्यकारयेतां कः सूरः स्वसुतहिताय नोद्यतेत ? ॥१६॥8॥ युद्धवर्णनाआकाशे करतललीलयैव वीररुत्क्षिप्ताः पृथुकुथैसंयुताः करीन्द्राः। भूयांसो भुवि सहसाऽसिताः पतन्त उत्पक्षा बलनिचयभ्रमं वितेनुः ॥१७॥ १ यमजनका सूर्यः । २ उडूनि नक्षत्राणि । ३ न प्रतीयते स्पष्टम् । ४ नाराच: लोहमयो बाणः । ५ भारस्य आभा, तया राब्धे । ६ पुस्तके न स्पष्टम् । ७ कुथः-भाषायाम्-हाथी उपर नाखवानी झूल । 666666666ल्लक పాటించుదమయం 1000గారం 3900ROOOK For Private & Personal use only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-प्रेोऽयं निजशिरसा हयो रयोच्चारांऽहिभ्यां रदनयुगाऽऽक्रमाद् गजस्य । स्कन्धेऽस्य स्वपतिमरोपयद् हतारिः किं न स्यादतिगुरुता सुशिक्षितेभ्यः ॥१८॥ सर्गः-३ क्षतबहकुम्भिकुम्भमुक्ताकीर्णायां रुधिरिमकुङ्कुमारुणायाम्। तत्रोया भटधटनाटयसंकटायां किं कुर्यान्न यमनृपः पुरप्रवेशम् ॥ दयायुक्तो बाहुभूप:सस्फोटं कुन्त-हय-हस्ति-योधदेहप्रस्फोटं स्फुटमवलोक्य बाहुभूपः । आश्लिष्टो हृदि दयया रयात् स वीरो धौढियो दृढमिति चिन्तयाँबभूव ८४संमः करटिभटादिकीटकोटीसंमर्दोत्कटकलुषं प्रजायमानम् । धर्मज्ञो बलसहितोऽप्युपेक्षमाणः किं लज्जे निजकुलती दयावंतों न? ॥२१॥ वातूलो रणदहनेऽस्त्रदीपिते य इङ्गालानिव सुभटान प्रदह्यमानान् । ___सोच्छ्वासो निकटगतोऽप्युपेक्षतेऽसौ निर्जीवो ध्रुवमिह चर्ममात्रिकेव ॥रशाह मनसि विचार्य वीरराजः स प्रेषीत् तदनु निजाग्रजाय दूतम् । तद्वाक्याद् भरतनृपोऽत्रपो रणाय प्राचालीत् खयमर्थ बन्धनायुयुत्स आयात भरतमहीमहेन्द्रमेनं दृष्ट्वाऽसौ समरकृते गृहीतदक्षः। राजन्यैः स कनककण्टकैः परीतः प्रारूढः कलभमिलापतिश्चचाल ॥२४॥ १ कौक्षेय:-असिः । २ धटं भाषायाम् 'धड' इति ख्यातम् । ३ पुस्तके कुत-तच अस्पष्टम् । समाळdodc00000000000000000000033000 युयुत्सु ॥२३ 250SOOCcSon: Jain Education ng mational Jaw.jainelibrary.org Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४॥ 000000000 पुण्डरीक-प्रक्रान्तं स्वयमथ युद्धमार्षभिभ्यां वीरभ्याममरवरा निरीक्ष्य सर्वे । परिश्रम विश्वस्य प्रलयभयात् प्रकम्पमाना आजग्मुर्नभसि समुल्लसद्विमानाः ॥२२॥ द्वयोरार्षभ्योः इन्द्रेण सह संवादःगीर्वाणविजयगिरं पुरो गिरद्भिः संयुक्तं सुरपतिरस्य दृष्टिसंज्ञम् । संप्राप्याऽगदचितं चितं च युक्त्या सदाक्यं भरतनृपाऽऽत्तरप्रशान्त्यै ॥२६॥ भोश्चक्रिनिखिलमिलातलं विजित्य संग्रामं निजभुजखर्जभञ्जनाय । आरिप्सुः सह लघुबन्धुना त्वं किं लज्जा परिरभसे स्वयं न देहे ॥२७॥ स्मित्वोचे भरतमहीमहेन्द्र इन्द्र! त्वं स्वर्गाधिप! न हि वेत्सि कार्यतत्वम्। स्वभ्रात्रा कलहमहो ! कदापि कोऽपि किं कण्डूकलितकरो नरः करोति ॥२८॥8 चक्रं तु प्रविशति नैव शस्त्रगेहे शान्तत्वे मन इव दुर्मदेऽजितेऽस्मिन् । आत्मत्वं सुविमल केवलौजसाऽऽयं विश्वान्तर्मम च पिधीयमानमस्ति ॥२९॥ १२ तचक्रं झटिति निवेश्य शस्त्रधाम्नि माता मयि नमतादथैकवारम् । बेगेनाऽपहरतु सर्वकार्यचक्रं भूपीठे भवतु विभुस्ततः स एव ॥३०॥ 18/श्रुत्वेदं भरतवचः सुनीतिपूतं स्वर्माथो लघुमृषभाङ्गाजं समेत्य । नाभेयाङ्गज ! जय वीरवारवर्य ! व्याहृत्येत्यवदद् हृदो मुदर्थम् ॥३१॥ १ आरम्भं कर्तुमिच्छुः । ॥६४॥ OooooOONOAAAAAOOOOOOoooo 00000 000000000 Jain Education in rational ainelibrary.org Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-ठभूमीन्द्र ! प्रणयपर ! त्वमग्रज स्वं हर्षेण दुतमिह किं न सत्करोषि । संरंभो भरतमभिप्रयाणकस्य पश्य स्वे मनसि शुभो विभाति किं भोः! ? ॥३२॥ अद्य श्रीभरतविभुः प्रयाणमेकं त्वभ्राता स्वयमयमिच्छतीह पूज्यः। प्रीत्याऽस्मिन् विनयपवित्रितां सुकीर्ति स्वामित्वं सकलभुवश्च संगृहाण ॥३३॥ देवेन्द्रं गरिमगभीरधीरसेनानेताऽसौ स्मयमयहास्यगर्भमूचे। वृद्धत्वाद् यदि मम सत्कृति नतिं वा गृह्णीयादयमथ तत् करोमि वेगात् ॥३४॥ ईशोऽहं भुवनजयी बलूलबाहुरित्युच्चैनिनमयिषुबलादसौ माम्। एनं न त्रिदिवपते! ततो नमामि गर्वाये नरि विनयो नयोदितो न ॥३५॥ अस्याद्याऽप्यथ न विनष्टमस्ति किञ्चित् तद्यातु स्वपुरमसौ निवृत्त्य वेगात् । त्वद्वाक्यादहमपि संगरप्रतिज्ञा मुक्त्वेमा त्रिदिवपते ! ध्रुवं निवर्त ॥३६॥ छाएषोऽन्यान् मदरहितान् विधाय भूपान् उन्मत्तो मदगजवद् गजान् समग्रान् । निनिद्रीकृतमथ मामनेकपारिं यद् योडं त्वभिलषतीह तद् त्रैलोक्योत्तममभिनम्य तातैमीशं सत्यत्वात् समदेमिदं मदुत्तमाङ्गम् । नैवाऽन्यं नमति परत्र चेहलोके को हित्वा मुकुटमहो! घटं विभर्ति ॥३ विस्मित्याऽवददथ वासवो महीशं वैषम्यं विपुलमते! मतेर्ममाऽत्र । १ बलूल-बलिष्ठम् । २ नमयितुमिच्छुः । ३ अनेकपारि सिंहम् । ४ तातम्-ऋषभदेवम् । ५ समद-मदसहितम् । Co000000OOGLEOOOOO000000000000000 Coooooooooooooooo09e9e996 Jain Education Inilaltional For Private & Personal use only Alw.jainelibrary.org Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही भरतनृपोऽस्ति चक्रवश्या शितायुधैर्युवाभ्याम् । ६६ वान नभास्थः ॥४ पुण्डरीक न्यायस्थो भरतनृपोऽस्ति चक्रवश्यः त्वं मानिन् ! विनयपरोऽस्य शिक्षणीयः ॥३९॥ चरित्रम्। हा-वाग्भ्यां भुज-युग-मुष्टि-दण्ड-युद्धोद्धव्यं न तु निशितायुधैर्युवाभ्याम् । सर्गः-३ अत्रार्थ ननु शपथो युगादिभर्तुरित्येतो सुरपतिरूचिवान् नभास्थ एताभ्यामिति वचने प्रतिश्रुतेऽन्यान् वीरांश्च प्रथमजिनाज्ञया निषिध्य । अङ्गाङ्गिमधनकृते तयोः सुरेन्द्रश्चक्रेऽस्यां भुवि सलिलप्रसूनवर्षम् ॥४१॥|8 अक्षियुद्धम्18वीरेन्द्रौ मददृढमानसौ समानौ तावन्धी इव सुभृताऽवनिमितोर्मी । . आयातौ रणविधये रणोर्वरायां द्वौ सूर्यो नभसि महाममित्येव ॥४२॥ तावुच्चै कुटियुगौ स्थिर।ग्रतारौ गौराङ्गो दृढमहिमोच्चवीरलक्ष्म्योः । प्रासादाविव नवतोरणौ विनीलपाञ्चालीयुगलयुतौ कृतौ सुवर्णैः ॥४३॥ देवानामवनिभुजां च लोचनौघैटेग्युग्मं युगपदपि श्रितं तयोस्तत् । नैवाल्पं किमपि विवेद भारखेदं दुष्पापात् सदृशसंगमादिवाऽत्र ॥४४॥8 भाव्येषोऽप्रतिदर्शनोऽस्मदने तत् तस्मिन्नपि समशीर्षिका धरासु ()। इत्यन्तर्भरतदृशौ विचिन्त्य बाष्पं संवेगादिव गिरतः स्म संनिमिथ्या ॥४५॥४ निर्विघ्नं ननु बहलीश्वरेण राज्ञा प्रत्यक्षं त्रिभुवनवासिनां जितं भोः!। १ निशितम्-तीक्ष्णम् । २ प्रधनम्-युद्धम् । ३ सुभृतौ अनिमितोमर्मी-इति पदच्छेदः। ४ प्रमातुमिच्छा प्रमित्सा। ॥६६॥ 1000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥६७॥ पुण्डरीक इत्युच्चैरमरगिरः स्मितोज्ज्वलाभाः संरंभान्नभसि भृशं विलेसुराशु ॥४६॥ ___ स्वरयुद्धम् सर्ग:-३ "चक्रीशो नयनजितोऽपि बाहुभूपं गर्वोचस्वररणहेतवे जवेन । ___ आह्वयतेऽनुमतेनोन्मृगेन्द्रनादं बाधिर्यप्रदमथ नाकि-नाग-नृणाम् ॥४७॥ स्वस्थेषु त्रिभुवनेषु बाहुवीरः सिंहस्य ध्वनितमप्रथत् प्रतापी। ___एतेनाऽभवदचला चलाऽचलानाण्यापेतुः किल कुकुभामिभा मुमूर्छः ॥४८॥ 8 मुष्टियुद्धम्१चक्रेशो वचनरणेन निजितोऽपि धैर्यानः किल बहलीश्वरं स्वयं सः। आह्वास्त द्रुतमथ पुष्टमुष्टियुद्धे मुञ्चेयुः किमवचनै रणं भुजालाः ॥४९॥8| 18/आस्फाय स्फुटमवनीभुजी भुजौ स्वावुत्पाट्योत्कटतरपुष्टिमेकहस्तम् । शोणाँक्षी पदपरिकम्प्रभूमिपीठौ दिग्नागाविव रुषितौ दधावतुस्तौ १२ यत्पाणिः सकलदलेन नाम्यते न तस्योच्चैर्भरतपतेस्तु मुष्टिसृष्टेः।। श्रीबाहुर्विगतमनाः शिरो धुनानः संरेजे मुदित इव प्रहारतोऽस्मात् ॥५१॥8| 8तां मूर्छा द्रुतमवमत्य बाहराजश्चक्रीशं पटरवटी स्वमुष्टिनैषः। १ विलासं चक्रुः । २ अचला पृथ्वी । ३ अचलाग्राणि गिरिशिखराणि । ४ अवचनैः-निन्दितवचनैः । ५ बाहुबलाः । 8 18| ६ आस्फाल्य । ७ रक्तनेत्रौ । ८ ग्रीवाया ऊर्श्वभागे-भाषायां 'डोक उपर' । SSOOOOOOOOON 20000000000000000000000 50000000000000000000000000000000000000000000000000000 18॥६७॥ Jain Education national wiainelibrary.org Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एण्डरीक हन्ति स्म स्वभटविलोचनाश्रुनीरैः सार्धं सोऽपतदहहा! बलस्य गर्वः ॥५२॥ श्रीखण्डद्ववनियहरखण्डनक्तिव्याक्तिस्तं प्रगुणयति स्म बाहवीरः । मात्सर्येऽप्यमलतरः कुलस्य भावः स्यादग्नाविव रत्नकम्बलस्य ॥५३॥ दण्डयुद्धम्आक्षेपादतिखररोषरूक्षवीक्षौ दोर्दण्डस्थितदृढदण्डतः प्रचण्डौ । द्वावेतौ भुवनभयंकरौ मिथोऽपि गर्जन्तावथ समधावतां जवेन ॥५४॥ तत्र श्रीभरतनृपोऽथ बाहुभ्यूपं त्वाजानु प्रकटविभोऽपि वज्रमूर्तिम् । शीर्षस्योपरि घनघातपातनेन वेगेनाऽभिधरणि मज्जयांचकार ॥५५॥8 एकाङ्कादिव स इलाललात् सहेलं कृष्ट्वाऽही त्वरितमखण्डचण्डदण्डात् । चक्रीशं शिरसि निहत्य कण्ठदघ्नं भूपीठे हठकठिनो न्यमन्जयत् तम् ॥५६॥8 ४ दैवं हाऽस्त्विति सुभटा' अपि ब्रुवन्तः शस्त्राणि स्वभुजमदैः समं विमुच्य। कुद्दालान् जगृहुरथेशरत्नलोभात् मान्यः स्यात् क्वचिदपि कार्यतो हि हीनः । ॥५७ आकष्ट (टः) शिशिरजलैर्विलीनमूर्छश्चक्रीशः कथमहमेष वाऽत्र भूमौ । इत्यन्तर्भरतपतिः स संशयानश्चक्रेण श्रित उरुभानुना करा बाहुबलिघाताय चक्रक्षेपः-- १ रत्नकम्बलं हि तापसनिशने शीतलम, शीतसन्निधाने च उष्णं जायते इति श्रुतिः। २ पादौ। ३ विशालकिरणेन 181 0000000000000000000000000000000000000000000 300000000000000000000000000000000000 000000000000 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000 पुण्डरीक-8|चक्रेशो निजमनुजं जिघांसुराशुक्रोधोऽयं स्फुटमिव पिण्डितं स्वहस्तात् । ॥ ६९॥8 ज्वालालीजटलमिदं मुमोच चक्रं कल्पान्ताऽम्बुधर इवाऽशनि प्रगर्जन ॥५९॥8:-३ "तच्चक्रं प्रथि शर-शक्ति-कुन्त-खड्गै राजन्यैरपि परितः प्रहण्यमानम् । संप्राप्तं लघु लघुकार्षभेः समीपे किं मूतॊ भरतनृपप्रताप एषः ॥३०॥ चक्रं विफलम्षदखण्डावनिविजयी ममाऽपि नेता ह्येताभ्यां जित इति दृष्टिदोषहत्यै। चक्रं तत् खलु बहलीश्वरस्य बाह्वोरात्मानं भ्रमणपदे चकार हर्षा बाहुबलिना ऊवीकृतो मुष्टि:चक्रेऽस्मिन् गतवति चक्रवर्तिपाणी रोषेणाऽरुणनयनो दृढाग्रमुष्टिम् ।। दोर्दण्डं त्वरितमुदस्य बाहुयोद्धाऽधाविष्टाऽग्रजमपि बान्धवं जिघांसन् ॥६२॥ हा! चक्री हत इति वादिभिः सुरेन्द्रयों रुद्धो न खलु तमेव बाहुवीरम् । तजन्मा ललिततरो विवेक एको रुड्वाऽस्थादिति बली सुतोऽपि (2) ॥३३॥8 बाहुबलेविवेकोद्गमः-वैराग्यं चलोभे-यादिभिरवजित्य यो विचेतीचक्रे तद्गतपरमात्मधैर्य इत्थम् । १ अनुज लघुबन्धुम् । २ अशनि विद्युतम् । ३ शीघ्रम् । ४ नेत्राभ्याम्-नेत्रयुद्धे चक्रस्वामी भरतो नेत्राभ्यां जित-81 ४/इति । ५ अपूर्ण प्रतीयते, नातो विशदीकर्तुं शक्यते। ooooDecO00000000 500000000000000000000000000 H६९। Jain Education Inter nal wwginelibrary.org x Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166॥ पुण्डरीक एनं तं किमहह हन्मि मुष्टिनाऽहं हन्तव्या न विगतचेतना धीरैः ॥१४॥ स्वगोत्रे किल न हि बुद्धयते विनाशो मर्यादामिति न मुमोच चक्रमेतत् । एतस्मादपि भृशहिंस्रतो नृशंसः स्वं बन्धुं भरतमहं रुषा जिघांसन् ॥६५॥ ना किमु विरुणद्धि मां कदापि लोभायर्यदिन विचेतनीकृतः स्यात् । एतांश्च ध्रुवमपराधिनोऽन्तरारीन् जेष्यामि स्वयमिह जैनदीक्षयाऽहम् .. बाहुबलिना केशलोचः कृतःइत्यन्तविमलतरः सुधीः सुधीरो निश्चित्योद्धृतमुष्टिनाऽमुनैव बाहुः। मौलिस्थान द्रुतमुदमूलयत् समूलान् मूलानि स्वभवतरोरिवैष केशान् ॥६७॥8 लघुकान् कथं नमामि?8 एषोऽहं न हि विनतोऽग्रजस्य बन्योानाढ्यानपि लघुकान् कथं नमामि। तत्तुल्यो यदि च भवामि केवलद्धा तत् तातान्तिकमुपयामि नान्यथाऽहम् ॥६८॥8 १२ कृत्वेति स्वमनसि निश्चला प्रतिज्ञा योगीन्द्रो विमलदनङ्गसंगरङ्गxx। समधित सत्समाधिमाधि-व्याधिद्रूत्खननकुठारकं कठोरम् ॥ धावित्वा प्रतिभरतं प्रकोपमल्लं हन्ति स्म स्व-परगतं य एक एव । योऽक्षीणं व्यधित कुलाय कीर्तिदानं सोऽख्यात् त्रिभुवनवीरवीरमुष्टिः ॥७॥ १ मूढाः । २ हिंस्रम्-हिंसाकरणस्वभावम् । ३ बाहुबलिः । पु० नास्ति । ४ पुस्तके न स्पष्टं प्रतीयते । 00000000000000 00000000000000000000000000 3000000000000000000000000000000000000000000000000 ___Jain Education IXImational, Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक- 8 स्तुत्वेत्थं मुखरमुखः प्रमोदसंगी संगीतं शुचि विरज्य तत् पुरस्तात् । ॥ ७१ ॥ ८ १२ चरित्रम् सौधर्म समगमद् देवराजः संयुक्तः सकलसुरैः प्रहृष्टचित्तैः ॥७१॥ ४ सर्गः - ३ । इति श्रीबाहुबलिमहिमोदयः । भरतस्य विमर्शःपरिहृताखिलशस्त्रसमुच्चयं स्वमंनुजं विगलद्विषयेन्द्रियम् । भरत एष विलोक्य पुरः स्थितः प्रविममर्श सुविस्मितदुःखितः ॥ ७२ ॥ | विरहकृत्सकलैरपि बान्धवैर्धिमिदमस्तु सुचक्रिपदं मम । ननु मधूकतरोः फलजन्म किं सरसपत्रविनाशि न निन्द्यते ? ॥७३ बलिभुजैकदृशाऽपि निजं बलिं परिजनेन विभज्य विभुञ्जता । विहगकेन नु नेत्रशतायितं तदहमस्य समोऽस्मि न संप्रति ॥७४॥ दुरिततोऽस्तबलो विजितो ध्रुवम् ॥ ७५ ॥ मम विभुः स युगादिविभुर्भवेदिति वदन्तममुं प्रर्जिगीषता । न गणितो जनकोsपि मया ततो विजितवान् भुवनं कृतकेवलोत्सव ! भवान् सुकृतादहमग्रतः । ऋषभभक्तममुं परिखेदयन् - असुकृतिश्च श्रितवांश्च पराभवम् ॥ ७३ ॥ १ स्वकीयम् - लघुबन्धुम् । २ बलिभ्रुक् काकः । ३ शतं नेत्राणां यस्य असौ नेत्रशतः - तद्वद् आचरितम् - एकदृशाऽपि काकेन सपरिजन भोजनं कुर्वता नेत्रशतायितम् । ४ प्रजेतुम् इच्छता । ५ नास्ति सुकृतिर्यस्य । ॥ ७१ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-ठूस सुचिरं शुचिरन्तरिलापतिः समनुचिन्त्य घनाश्रुविमिश्रदृक् । चरित्रम् ॥ ७२ ॥ ४ सपदि बाहुबलि प्रणिपत्य तं विनयवान् गति स्म सगद्गदम् ॥७७ -३ भरतप्रार्थनाशपथलोपिनि पापिनि तापिनि त्वमकरो रण ऊर्ध्वकरी दयाम् । अयि मयि प्रविधाय तथाऽद्य तां नरपतित्वमलंकुरु निर्मम! ॥७८॥ परिहतस्य समग्रसहोदरैः सुकृतगात्रमिदं मम सांप्रतम् । अपयशोरिपुभिः परिवेष्टितं त्वदितरेण न बान्धव ! रक्ष्यते ॥७९॥18 ऋषभनन्दन ! वीरशिरोमणे ! कुचरितानि विषह्य नु चक्रिताम् । श्रय कृपाश्रय ! दास्यमहं श्रये तव बलेन हि बाहुबले ! जितः ॥८॥8 त्वमथ चकवचोऽमृतबिन्दना नुद तनोः तनुतापममुं मम । इति विलापपरं तमिलापति निजगदुः सचिवाः शुचिर्वाचिनः ॥८॥18॥ सचिवानां वाणी- त्वदनुजो मनुजोतम! निस्तमापदमदः सुयतिव्रतमाश्रितः । भवपरिभ्रमदं प्रसरन्मदं श्रयति चक्रिपदं न शिवेच्छया ॥८२॥8 भरतवासव ! संपिहिताश्रवस्तव सहोदर एष महामुनिः। 18१ अन्तःशुचिः । २ सप्तसीएकवचनम्, पुस्तके तु 'रणस' इति दुर्गम् । ३ दूरीकुरु । ४ शुचि पक्ति इति शुचिषाचिन् । ४५. तमोहीनं पदम् । 50000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000 ॥ ७२ । Jain Education Inter nal wwwtinelibrary.org Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पुण्डरीक = 50000000000000000000000000000000 स्वहृदभिग्रहयन्त्रितविग्रहो न हि महाऽऽग्रहितोऽपि वदत्यहो! ॥८ इति निशम्य स भारतभूपतिव्रतविभारतमाह निजानुजम् । सर्ग:-३ शिशिरयाऽथ रयान्निजया दशा मुनिवर ! स्पृश मां प्रशमस्पृहाcgl बाहुबलेः प्रसादःनवविभेव विवेकविवस्वतोनयनकान्तिरनेन निवेशिता भरतभूमिधरस्य मनोगुहामकृत दुःख़तमोरहिताक्षणात विगतसर्वधनोऽल्पधनादिव गलितविद्य इवाऽल्पपदस्मृतेः।अनुजलोचनगोचरमात्रतःप्रमुमुदे भरतो यतिबान्धवः भरतकृता बाहुबलिस्तुतिः- अथ मुनीश्वरमेनमनेनसं भरत एष मुदा भरतस्ततः। विनयवान् नतवान् नुतनयं स्वमतितः प्रवितत्य च वाङ्मयम् ॥८७॥ बाहुबले राज्ये अन्यराजस्थापना-भरतप्रत्यावर्तनं च४ाइह च सोमयशाः प्रसरद्यशाः प्रचुरशौर्यमहा महतो यशात् (१)। भरतभूपतिना बहलीपतिः स विहितोऽवहितोऽवनिपालने caus १४ बलभरैर्दधतीं पृथुवेपथु लघुकरग्रहवाननुरागिणीम्। उपवुभुक्षुरिलां भरतोऽविशंत् स्वनगरं मणिचित्रगृहान्तरम् यदनिविश्य न या (1) बुधमन्दिरं स किल बाहुबलिः परिखेदतः। धिगिह वक्रचरित्रमिदं ममेत्यजनि चक्रमहो! प्रशमाभितम् ॥९॥8॥ १ व्रतस्य विभायां रतम् । २ अपापम् । ३ भरः-समूहः । ४ स्तुतवान् । ५ अकासन्तोऽपि यशव शब्दो भवेदी 18 क्वचित् । ६ वेपथुः-कम्पः । ShoooooG00000000000000000000000NOORos - 000000000 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-अधिबलेऽपि हि बाहुबलौ व्रतं श्रितवति प्रतिबुद्धमिव स्वयम् । ॥७४॥8 प्रविशति स्म तथा स्वगृहे यथा निरसरन्नहिचक्रमथैकदा ॥९१॥४ सर्गः-३ Bअथस षोडशयक्षसहस्रकैद्विगुणसंख्यनृपैश्च निषेवितः शुचिगुणाभिरितो द्विगुणाभिरप्यनुदिनं प्रमदाभिरमोद्यत चतुरशीतिमिताद्भुतवारणा-ऽश्व-रथलक्षदलैर्भटकोटिभिः। नवतिषप्रमिताभिरथो पुरैवियतससतिसंख्यसहस्रकैः ॥१३॥ सहितमद्भुतचक्रिपदं श्रितो नवनिधान-चतुर्दशरत्नभृत्।स्वसमयं समयन्तमयं तदा रसमयं न विवेद रसापतिः। 18. इतश्च-बाहुबलितपः- हिम-समीरण-रेणु-महातपा-ऽम्बुद्-लता-ऽहि-खगाश्रयदुःखदैः स ऋतुभिः सुमना न मनाक् कदाप्यचलि बाहुबलिर्बलिनो व्रतात् ॥१५॥ किमु वशी स्ववशीकृतवानमून् षडपि षड्रिपुजैत्रमहाव्रतः ।। सखिभिरेभिरथारिचयं निजं मुनिरजारयदाशु ++ तत् ॥१६॥ बाहुबलेः तपसा श्रीऋषभस्य ममता- जितषडर्शकभारतवर्षजित् ऋतुयुतं च स वर्षमिदं मुनिः।। निरशनो जितवान् कथमन्यथा निजपितुर्लभतां ममतां मताम् ॥९७॥8 इह युगादिजिनोऽस्य सहोदरीयुगलवाश्रवणाद् मदनाशनम् । १ इतः । २ संगच्छमानम् । ३ पु० खण्डितम् । ४ जितषडंशकभारतवर्षा हि भरतः, तं जयति इति-जितषडंशक-8 भारतवर्ष जित्-बाहुबलि:-तेन भरतस्य पराजयात् । ५ अशनरहितः-उपवासी । ६ श्रीऋषभदेवस्य-अधस्तने श्लोकद्वये सा 8,ममता परिस्फुटा । ७ मदस्य नाशनम् । Soo OoooooooOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOoooooooooo0 SOOOOOO0000000000000000000000000000000000 . Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम् ॥७५॥ विदितवान् समयं च सुकेवलावरणकर्मविनाशकरं तदा ॥९८॥ श्रीयुगादिनिदेशेन बाहुबलिभगिनीद्धयेन 'अवतर आशु गजात्' इत्येवं बाहुरुपदिष्टः सर्गः-३ अथ युगादिजिनेशनिदेशतः स्वसयुगं समुपेत्य तदन्तिके। अवतराऽऽशु गजादपि बान्धवेत्यवददुच्चगिरा युगपत् तदा ॥९९॥४ प्रमुदितश्रवणस्तदुदीरितश्रवणतः श्रमणः स गतश्रमः। हृदि विचारयति स्म सविस्मयः किमु मम खसृवाक्यमिदं मृदु ॥१०॥ 8/न वंदतोऽनृतमादिजिनेशितुर्दहितरी हितरोपितमानसे। ___ न हि मतंगजमस्मि च संश्रितस्तदनयोर्गदितं किमु वेनि नो ? ॥१०॥ बाहुबलिविचारणा, तद्-माना-ऽपगमश्च- अहह ! तत्वयुतं च वचोऽनयोरहमवैमि बहिर्मुखधीयुतम् ।। यदिह मानमतंगजतोऽद्य मां द्रुतमिमे अवतारयतो हि ते ॥१०२॥४ शिवपथस्य हि यः खकनामजाक्षरयगेन करोति निषेधनम् । “तमविमान्य नु मा-नरिपुं कुधीरहमगां स्वपितुर्नतये न ही ॥१०॥४ भरतयुद्धमपास्य लघूनपि व्रतगुरून् शमिनः स्फुटकेवलान् । स्वमनसैव विकल्य विरोधयन्-अहमनल्पमदादर्तव्रतः ॥१०४॥8 ४१ 'वदतः' तृतीयपुरुषद्विवचनम् । २ हिते रोपित मानसं याभ्यां ते-। ३ वचसो विशेषणमेतत् । ४ प्रथमाद्विवचनम् । 8 18/५ 'मा-न' शब्दे 'मा'कार-'नकारी द्वौ अपि निषेधवाचकौ । ६ असत्यव्रतः। 8.७५॥ 100000000000000000000000000000000000000000000000 500000000000000000000000000000000000 Jain Education ational ollyw.jainelibrary.org Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-सपरिवारयुगादिजिनानतेः सफलयामि निजं भवमद्य तत् । इति विनीतमतिः स यतिर्जवादेचलदुच्चपदः किल यावता ॥१०५५ ॥ ७६ ॥ 8 तावत्-बाहवलेः केवलम् 8/प्रशमसौम्यतमः स रजस्तमश्चयमयं परिहाय मनो मुनिः। भृशमलोकसुलोकविलोकनप्रदमवाप महः किल के 8 सुराणां स्तुतिः- उदनदन दिवि दुन्दुभयोऽभितः समभवन् कुसुमोत्करपृष्टयः । उपययुर्नवकेवलिनं मुनिं सुमनसः प्रमदात् प्रणिनंसवः ॥१०७॥४॥ विमलचीरसुशान्तरसां स्तुतिं प्रकटयद्भिरथो दिविद्गणैः । परिवृतो विवृतोत्सवसंमदैर्मुनिरयात् स रयात् प्रभुसंनिधौ ॥१०८५४ सुरवधूकृतमङ्गलगीतिको जिनपतिं च परीय विभावसुम् । . मुनिवरः स उवाह सकेवलश्रियमिह स्फुटमौक्तिक(सत्) प्रभाम् ॥१०९॥ 8 यदि न के बलिनोऽप्यभवन् समास्तदिह केवलिनोऽस्य भवन्त्वमी। १ रजसाम्, तमसां च चयमयं मनः । २ लोका-ऽलोकविलोकनकुशलम्-इति । ३ पणन्तुम्-इच्छवः-नम्राः सुमनसः देवाः,8 सज्जनाश्च । ४ दिविषदो-देवाः । ५ लोके हि विभावसुम्-अग्निम् परिक्रम्य विवाहो वर-वध्वोः प्रसिद्धः-एवम् अत्रापि बाहु-8 बलिः, विभावसुम्-केवलज्ञानरूपविभायुतं श्रीऋषभं परीय-प्रदक्षिणीकृत्य केवलेन सहितां श्रियम्-मुक्तिरमणीम् उवाह। श्री४ऋषभषक्षे-विभा-शब्दः केवलज्ञानप्रभावाचकः, वसु-शद्रश्च धनवाचकः । ६ पूर्व तावत् अस्य बाहुबलेः समाः-समानाः केपि बलिनो न अभवन् । परन्तु इह अस्मिन् काले (बाहुबलिकेवलितासमये) अस्य बाहुबले। समानाः अमी केलिनो भवन्तुइति हृदयम् । अत्र व-बयोरक्यं नेयम् । 0000000000000000000000000000000 9oOoooooooooooooOOOOOOOoOOOOOO 00000000000 505000000000 JainEducation ingroanal 19w.jainelibrary.org Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति वदत्सु सुरा-ऽसुर-किंनरेष्वधिजगाम स केवलिपर्षदि ॥७७॥ सकलतापहरं प्रशमात्मकं समयतो बहुतः सरसं मुनिः। सर्गः-३ अनुदिनं कवलोचयमेकशः स सततं बुमुजे त्वथ केवलम् ॥१११॥ [प्रथमतीर्थपतेः स्फटिकाचले गमनम्-] सकलकेवलिलोकविदूरितामलमनोऽणुगणैरिव निर्मिते प्रथमतीर्थपतिः समवासरत् यतिततिप्रयुतः स्फटिकाचले ॥११२॥ [प्रथमतीर्थपतिदेशना-] विविधशालसुशालितमुद्भुतं सदुपदेशसदो झुंसदो व्यधुः। चतुरचारुचतुर्मुखरूपभागिह दिदेश स धर्ममधमैभित् ॥११॥ [तदा च-भरतदानम्-] ४ादशशतद्विकसार्धमिदं तदा कनककोटिचयं भरतो मुदा । प्रभुसमागमनं वदतां नृणामिह वितीर्य गिरें तमवाप सः ४/अथ यथाविधिनैष परीय तं प्रथमतीर्थपतिं भरतेश्वरः। समभिनम्य विधाय च संस्तुति सह सहस्रदृशा समुपाविशत् ॥११॥8/ [भरतो जगाद-] भरतचक्रपतिगुरु-देशनामिह निशम्य गतच्छलवत्सलः। निजसहोदरभोगविभुक्तये सपदि सोऽपि जगाद जगत्पतिम् प्रभुरभाषत चक्रपते ! भव-प्रभवभङ्गरभोगभरे रतम् । १ केवलिनां हि मनांसि निरुपयोगीनि-अत एव तानि तर्विदूरितानि, तेषां केवलिविदूरितमनसाम्-अणूनां विमलत्वेन तैरणुभिरिव निर्मिते अत एव विमले 181 स्फटिकाचले। २ दासदो देवाः। ३ अधर्म भिनत्ति-इति । ४ गिरं-वाणीम् । 'तम्' इति “ लिङ्गमतन्त्रम्" इत्यनेन 'गिर' शब्दस्य पुंलिङ्गत्वेन, अन्यथा ४/ताम इति भवेत । अथवा 'तम्' इति कोटित्रयस्य विशेषणम्, गिरः-अन्तम् -'गिरन्तम्' इति समस्तं वा वाच्यम् । ५ इन्द्रो हि सहसरक-ति पौराणिकाः । O ॥७८ ĐANON PORNOON 0000000000000000000000000000000000000000000000086 00000000000 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . ॥११२॥ पुण्डरीकन निजमनोऽपि विहाय सुसाधवो ह्यभिलषन्त्यपरं न तु भोजनात् ॥११७॥ ॥ ७८ ॥ [भरतो भोजनमानयत्-] इति निशम्य दृढप्रतिभो जमप्रभुरिहाद्भुतभोजनमानयत् । अथ जगाद विभो! मम बान्धवान् यतिवरान् विसृजाऽशनहेतवे ॥११८॥ जिनवरो न्यगनवभोजनं सुयतिनामिह कल्पत एव न । नृपतिपिण्ड-निमित्तकृता-ऽऽहतैस्त्रिभिरतिप्रकटगुरुदृषणैः हाइति विभोर्वचनादतिदैन्यभाक् मुषितवद् भरतोऽजनि चयपि । स्वविभुता स्वजनानुपयोगिनी सुमनसां सुखयेन मनांस्यहो! [सुरपतिरवदत्-] सुरपतिदृढधार्मिकबान्धवेऽसुखनिराकृतयेऽस्य तदाऽवदत् । सुयतिनां हि भवेयुरवग्रहा इह कियन्त इति प्रवद प्रभो!? ॥१२२॥४॥ [अवग्रहाः पञ्च-] प्रभुरवोचत भारतभूतले प्रथमकल्पपतेरथ चक्रिणः । नरपतेर्गहिणः स्वगुरोरिति भवति पञ्चविधोऽयमवग्रहः ॥१२२॥ [सुरपति-जनपतिभ्याम्-अवग्रहदानम्-] इति तदा गदिते प्रभुणा दिवःप्रभुरवग् जगदीश्वर ! नित्यशः। विचरणाय मया यतिनां ददे ध्रुवमवग्रॅह एष सुभारते ॥१२३॥ भरतभूपतिरप्यतिहर्षतः प्रथमतीर्थपतिं प्रणिपत्य सः । वसतये यतिनां प्रददौ तदा भरतभूमितले स्वमवग्रहम् । १ नृपतिपिण्डो-राजान्नम्। निमित्तकृतम्-साधून् उद्दिश्य हिंसादिकरणतो यद् भोजनादि कृतं तत् । आहृतम्-साधूनां भक्षणाय तेषां संमुखम् यद् आनीतं तत्-एतत्त्रयविशेषणीवीशष्ट भोजनं हिंसादिअनेकदोषजनकत्वेन न श्रमणानां कल्पते-इति । २ लुटितवत् । ३ दिवःप्रभुः-इन्दः । ४ अवग्रह-शब्दः अनुज्ञा-पर्यायप्रायः। 181॥ ७८॥ 500000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000 Jain Education national 81 ww.jainelibrary.org Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-कमहमथ सुरेश्वर ! भोजये ? भरतभूपतिनेत्युदिते तदा। 8 चरित्रम्. प्रतिजगाद दिवोऽधिपतिर्गुणाधिकजनेभ्य इदं प्रवितीर्यते ॥१२५॥8॥ सर्ग:-३ [जिनविहार:-भरतनगरीगमनं च-1 इति निगद्य विभुं प्रणिपत्य च त्रिदिवमापदसौ त्रिदिवप्रभुः।। व्यहरदन्यत एष जिनेश्वरः स भरतस्तु निजां नगरीमगात् ॥१२६॥8॥ [भरतः सुचिन्तितवान्-] अथ पुरं समुपेत्य सुचक्रभृत्-हृदि सुचिन्तितवान् सुकृतोत्सुकः। सुमुनयो न नयन्ति ममान्नमप्यथ गुणैर्भुवि को भविकोऽधिकः ॥१२७॥8 अविरताद् मदमी प्रवरा जिनानुगहृदो विरताऽविरता नराः। अहममीषु सुबत्सलतां दधत् भुवि भवामि कृतार्थधनोऽधुना ॥१२८॥ ४ [भरतेन साधर्मिकेभ्यः उक्तम्-मम गृहे भोजनं विधीयताम्-] 18स भरतः सुकृतैकरतः कृती प्रमदतस्त्विति संसदि संस्थितः। अविचलान् सुकृती भविनो जनान् समनुहय स भूर्येस इत्यवी ॥१२९॥ ननु कृषिप्रमुखा निजजीविका अपि विहाय गृहे मम भोजनम् । इह भवद्भिरहो! प्रविधीयतां सततधर्मरतैरथ भूयताम् ॥१३०॥ साधर्मिका वदन्ति-] अनुदिनोदयमेत्य ममाग्रतः प्रपठनीयमिदम्-विजितो भवान् । बहुतरं च भयं परिवर्धते-तदिह मा हन मा हन भूपते ! ॥१३१॥ १ मम भरतस्य अन्नम् । २ मत-मत्तः-मदपेक्षया इति-'मत्': पञ्चमीएकवचनम् । ३ महाहिंसादिभ्यो विरताः, अल्पहिंसादितो न विरतास्ते। ४ प्रभूतान् ५ एतद्-अनुकरणम्-अत एव न शब्दशास्वाद् विरुद्धम् । ॥७९॥ HOOOOO0000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000 Jain Education national Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीका 00000000000000000 ॥१३५॥8॥ Oooooooooooooooooooooooo मिति स्वविबोधविधित्सया स भरतो भविकाननुशिष्टवान् । चरित्रम् शिरसि चाऽक्षतवर्धनपूर्वकं तिलकतोऽनुवचश्च वदन्त्यमी ॥१३२॥ सर्गः-३ [भरतभावनम्-] इह समुंद्रससौख्यसमुद्रजाद्भुतमभ्रमिविभ्रमितान्तरः। तदुदितं वचनं च निशम्य तत् प्रतिदिनं हृदि चिन्तितवानिति ॥१३३॥ हह !!! केन जितो? विदितं ध्रुवं दृढतरैः प्रतिघंप्रमुखैरहम् । - इह च तद्भयमेव विवर्धते तदथ जीवदया क्रियतां मया ॥१३४॥ स तवचनैः प्रकटीकृताभुतविवेकहुताशनहेतिभिः। निजेरजो ज्वलयंस्तु कुसंगतं सुयश एव सुवर्णमथाऽतनोत सुकृतिनोऽस्य मुखेन्दुविलोकनात् शिशिरता शुचिता च भवत्यहो। इति विचार्य जना अतिदूरतोऽशनमिषाद् वनिनोऽत्र समाययुः ॥१३६॥8 [साधर्मिकपरीक्षणम्-] अथ विवेक्य- विवेकिविवेचने निपुणधीभिरथो सचिवैरयम् । निगदितो भरताधिपतिः स्वयं प्रकृतवानिह तेषु परीक्षणम् ॥१३७॥ 81 अणु-गुणा-ऽद्भुत-शिक्षणसद्गुणव्रतविदः शुचयः स्वर्संदा त्रिधा । इति दशद्विकपुण्डयुताः कृताः त्रिरथ तेन च काकिणिरेखिताः ॥१३८॥ [भरतेन विहिता वेदचतुष्टयी- स भविनां स्वयमात्मसधर्मिणां प्रपठनाय च वेदचतुष्टयम् । १ विधातुम् इच्छया । २ मुद्रासाहितः समुद्रः, सौख्यसहितः ससौख्यः, समुद्रजा लक्ष्मीः, तस्या अद्भुतमदभ्रम्या विभ्रमितम् आन्तरं यस्य सः । ३ प्रतिधाः क्रोधादिकषायाः। ४ हेतयः-शस्त्राणि । ५ निजं रजो मलः । ६ भोजनव्याजात् । ७ वनवासिनः । ८ स्वसभया। 000000000000000000 Jain Education of ational lol Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक :-३ सुकृतनिर्मलसूक्तसमन्वित रचितवानथ भारतभूपतिः ॥३९॥ ॥८१॥8 (अन्नसत्राणां विधापनम्-) तदनु सत्रगृहाणि बृहत्तराण्यतिसितानि तु पञ्च शतानि सः। स्थपतिरत्नकरेण च पूर्व दिग्भुवि पुरात् नृपतिनिरमीमपत् ॥४०॥18 रसवतीः सरसाः स रसोधिपोऽद्भुतरसात् तरसा स्थिरसारवान् । प्रमुदितोऽनुदिनं समभोजयद् विमलसत्रगृहेषु परीक्षितान् ॥४१॥ स्वपुरपश्चिमभूमितलेऽमलैमरकतैर्मणिभिः स महीमणिः। _ सपदि पञ्चशती सितवासनो व्यरचयत्-शुचिसत्रगृहाण्यसौ ॥४२॥ ४ इह सुषेणनृपः सुकुटुम्बिना विहितमन्नचयं सरसं नवम् । विविधशाकविपाकविशोभितं तदितरांश्च जनान् समभोजयत् ॥४३॥8॥ (पाठकशालिका व्यरचयत्-) नगरदक्षिणतो हृदि दक्षिणो मणिविनीलितपाठकशालिकाः। 8 व्यरचयद् विपुला बहशोऽभितः स सुकृतविततैवहशोभितः ॥४४॥8 भरतभूमिभुजा त्रिरुपोष्य सा हृदि धृता मुदितत्य सरस्वती। , विमलवेदचतुष्टयपुस्तकैरभृत ताः किल पाठकशालिकाः ॥४५॥8 (रचयति सुपौषधशालिका:-) निजपुरोऽन्तरतस्तु महत्तराः कनकपिङ्गमणीभिरयं नृपः।। सुरसहस्रयुजः स्थपतेः करात् रचयति स्म सुपौषधशालिकाः ॥४६॥8 १ सत्रगृहम्-अन्नगृहम्-"छत्रं " इति तामिलभाषायां प्रसिद्धम् । २ रसाधिपः-भूमिपतिः। ३ सिता पवित्रा वासना वृत्तियस्य सः। सरसम्-रसेन 18 सहितम, सुन्दरं च । ५ दक्षिणो दक्षः । ६ अभितः सर्वतः । DOCOMOC00000000000000000000000000000000000000000 0000000WOOOOOOOOOOM00000000000000 Jain Education rational SEXi Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -800 पुण्डरीक-अथ चतुर्यपि ते श्रुतपर्वसु प्रचुरपुण्यपवित्रतरा नराः। विद्धतेऽमलपौषधशालिकान्तरमुपेत्य सुपौषधमद्भुतम् । (विवाहविध्यादि-) अथ विवाहविविप्रमुखं नृपोऽखिलजनव्यवहारममुं तदा । ।८२ ॥ सर्गः-३ भविषु तेषु निरोपयति स्म सोऽतुलविवेकितया मुदितो भृशम् ॥४८॥81 सुकृतलोभरतो भरतोऽनिशं विविधदानमिति प्रददन् मुदा । सकलशारदचन्द्रवदुजवलं निजयशः प्रततान विशारदः ॥४९॥ 8 (अष्टमतीर्थपती शिवं गते जिनधर्मविहीनता-) 18/किल गतेऽष्टमतीर्थपती शिवं समभवद्-जिनधर्मविहीनता। अथ तदन्वयिनोऽसुकृते रता अजनि वेदचतुष्कमतोऽन्यथा ॥५०॥8 (श्रीऋषभः स्फटिकपर्वते, भरतप्रणतिश्च-) ऋषभदेवजिनः समवासरत् स्फटिकपर्वतशृङ्ग इति श्रुते । भरतचक्रपतिः समुपेत्य स प्रणतवान् बहुभक्तिभरानतः ॥५१॥४] 18/मुकुलितात्मकरः स्थितलोचनः प्रभुमुखाम्बुजतो मसृणोऽशृणोत् ।। सकलकृष्ण-बल-प्रतिकृष्णयुग्-जिनप-चक्रिनृणां चरितान्यसौ ॥२२॥ इति विचित्रचरित्रसमुच्चयं भरत एष निशम्य पवित्रहृत् । विपुलकौतुकसंकुलमानसो जिनपतिं प्रणिपत्य पुनर्जगौ ॥५३॥ (भरतप्रश्न:-) इह हि संसदि कोऽपि नरोत्तमः किमु जिनाधिप ! योऽस्ति स पुण्यमान् ।। जिनप-चक्रप-कृष्ण-बलादिवृत्तमनरेषु भविष्यति तेषु यः ॥५४॥ १ सुकृतलोभे रतः । २ इदानीं यद् वेदचतुष्कं वर्तते तद एतद् अन्यथाभूतम्-इति सांप्रदायिकाः । ३ स्निग्धः । ४ 'पुण्यवान्' इति शिष्टतरम् । ॥८२ ॥ owwrCo000000000000000 0000000000000000000 00000 00000000 Jain Education national For Private & Personal use only Roww.jainelibrary.org Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम्. ॥५६॥ पुण्डरीक- (श्रीऋषभप्रतिवचः, मरीचिपरिचयश्च-) भरतभूमिपतिः प्रभुणा तदा निजगदे जगदेकदयालुना। शृणु मरीचिरयं तव यः सुतो मम पुरोऽस्ति गृहीतमुनिव्रतः ॥५॥ सर्गः-३ बहुभवस्थितिकर्मवशादसौ न परिपालयितुं व्रतमीर्शिता। अथ बिभर्ति सहाऽऽतपवारणं स्फुटमिवाऽऽवरणं परमात्मनः मम मनः सकषायमतस्तनमपि वृणोति कषायितवाससा। इह च दण्डित एव भृशं त्रिधा त्रिविधदण्डधरोऽस्मि बहिस्ततः ॥२७॥ न निजकीतिसुगन्धियतोऽस्मि तत स हरिचन्दनमण्डलमण्डितः। इति च वेषधरो भ्रमति क्षिती भवति नैव गृही कुललज्जया ॥२८॥ 8श्रित इतीह नवीन मिव व्रतं भविजनैर्गदितोऽतिकुतूहलात् । वद जवानिजधर्ममथाह सः प्रभुमुखाभिहितोऽस्ति नहीतरः ॥५९॥४ 8/अहमशक्त इह व्रतपालने मशकवद् दुरितैरबलो हृदि । इति विबोध्य ममान्तिकमानयत्ययमनेकनरान् विमलान्तरः ॥६०॥४ 8 (चक्रधरः, प्रथमकृष्णः, अन्तिमजिनश्च मरीचिः-) त्वमिव चक्रधरः प्रियमित्र इत्यथ विदेहजमूर्केपुरीपतिः। प्रथमकृष्ण इतो भरतावनौ स भविताऽन्तिमतीर्थकरो ध्रुवम् ॥११॥ (भरतः सहर्ष वक्ति, नमति च-) तनय एष जिनो भविता ममेत्युदितसंमदमेदुरमानसः।। १ ईशिता समर्थः । २ आत्मनः परम्-आवरणम् । ३ शरीरम् । ४ 'विदेहक्षेत्रे मूकपुरी नाम नगरी' इति जैनसंप्रदायः । ॥८३। DOOOOOOOOOOOOOOOcroooooooo వరం Jain Education national xsw.jainelibrary.org Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिमरीचिमुपेत्य परीय च स्थित उवाच पुरो भरतेश्वरः ॥३२॥ व्रतमिदं गततीव्रतमत्र नो न च शरीरमिदं तव किंतु भो। किल भवान् भविता यदपश्चिमो जिनपतिस्तदहं प्रणमाम्यथ ॥६३॥ (मरीचिमदः-) इति निगद्य नमस्कृतवत्यथो प्रभुसमीपगते भरतेश्वरे । मुनिमरीचिरसौ चिरसौहृदान्निजपितुर्नमनान्मदवानभूत अहमहो! प्रियमित्र इति ध्रुवं सुभगभोगयुतः किल चक्रभृत् । अहमहो! प्रथमः पुरुषोत्तमः प्रभविताऽहमहोऽत्र जिनेश्वर ८४विहितविश्वविवेकविलोचनो मम पितामह आद्यजिनेश्वरः।। भरतचक्रपतिश्च पिता ततो महदलं सकलं विमलं कुलम् ॥६६॥४/ इति मरीचिमुनिविदुरोऽन्तराप्रमदतुन्दिलहृत् प्रननर्त सः। अबलधर्म-शरीरजुषामहो! रसवती सहते न हि चक्रगीः ॥६७॥8 (भरताभिग्रहग्रहणम्-) प्रतिदिनं विदधामि जिनार्चनं ध्रुवमभिग्रहमेनमथाग्रहात् । जिनपतेः पुरतो भरतोऽग्रहीद् विमलवासनया कलितस्तदा ॥३८॥8 (श्रीजिनबिम्ब-स्थापना-) प्रथमतीर्थपतिं प्रणिपत्य सोऽवतरति स्म ततः स्फटिकाचलात् सरपतिर्भरताय च हर्षितो मणिमयं जिनविम्बमिहापंगत ॥१९॥४] Gooooooooooooooooooooooooooooo000 ipooOCOMOO.0000000000000000000000000000000 १ परीय-परिक्रम्य । २ गता तीव्रता यास्मिन् व्रते तत् । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम् पुनरीक-अथ पुरं समुपेत्य स चक्रभृत्-निजगृहस्य पुरो मणिधामनि । _ अनुपमेयममेयमहाविभुं जिनविभुं तमतिष्ठपदुच्चधीः ॥७०॥ सर्गः-३ (जाहवीसमागमनम्-) अवधितो भरतं किल जाह्नवी जिनवरार्चनसंगतमानसम् । समवगत्य भृशं मुदिता हृदि सुखशयानममुं समुपागमत् ॥७॥ (भरत-जाहवी-प्रियालाप:-) सरभसं भरतो भूशनीरजःकृतमनाः स्मितलोचननीरजः। परिचितां च पुरा स्वपुरीस्थितां त्रिपथगाममरीमवदन्मुदा ॥७२॥ रादेयि! ते दयिते ! कथं समयतो भवदागमनं वद। किमु सहास्यमिहास्यसरोरुहं त्वमृतवर्षि विभषि दृशोर्मम ॥७३॥ निशम्य वचः प्रियतः प्रियं स्मितरुचा सह सा सहसाऽवदत् । अदयतो विषयोदयतो मया सुभग! तत्र तदाऽसि निषेवितः ॥७४॥8 नियनसोम ! ततो मनसो मम त्वमसि विस्मृत एव कदापि न । अथ भवन्तमवेत्य जिनार्चनाच्छिवपथे प्रभवन्तमिहाऽऽगता ॥७॥ अजननाय पुनर्जननायक! सुजिननायकमर्चय भावतः अहमहनिशमेव निषेवणं तव करोमि यथा विषविना (गङ्गाकारितं भरतस्नानादि-) इति स चक्रपतिः शुचिजाहवी-वचनतोऽनलसो नल-सोमक स्थापोचकाणः । २ रजोरहितम् नीरजः । ३ नीरज-कमलम् । ४ बहुतराद्-अयि-इति विशेषः । ५ इह-आस्पसरोरुहम्-इति पदभाः । । दया४ रहितात-इति गम्यते । ७ जन्मरहितपरप्राप्तये। ८ आलस्यहीनः । नलनरपतिवत् सोमरुचिः। 00000000000000000000000000000000000000000000000 nooooooooooo0000000000000000000 Jain Education Ourjainelibrary.org stational Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसि देहविशोधनती जवादधिजगाम सुमज्जनशालिकाम् ॥७७॥ ॥८६॥ स्फटिकपीठनिविष्टममुं स्फुटप्रभजलैः प्रविमर्य सुगन्धिभिः। सर्गः-३ गगनगा खयमेव सुरापगा लपयति स्म गतस्मयमानसा ॥७८॥ जलकणपचयोऽलकलालितो गुरुरूंचे रुरुचेऽस्य शिरःस्थितः । विमलकामतरोरिव शीर्षगः सुकृतबीजगणोऽस्य विधायकः ॥७९॥ विमलगाजलं वलयाकृति स्वशिरसि प्रदधत् पृथुनि स्फुटम् । निजगदेऽविजनैरयमीश्वरः प्रियतमा प्रबिभर्ति नु जाह्नवीम् ॥८॥8 ८हाधवलगाङ्गाजलप्रतिमप्रभं प्रविदलत्कदलीदलकोमलम् । वसनयुग्ममढौकयदभुतं नृपपतेः परिधानकृतेऽथ सा ।। (महासादितीर्थेश्वराः समीयु:-) श्रीमत्यहास-वरदाम-सुमागधाख्य-तीर्थाधिपाः स्वपरिवारयुताः समग्राः। _ चक्रेश्वरं च जिनपूजनबद्धबुद्धिं मत्वा समीयुरमलान् प्रविधाय वेषान् ॥८२॥ (श्रीजिनप्रतिमालपनादि-) जन्माभिषेकविधिमानपरासु सर्वदेवाङ्गनासु विलसन्मधुरस्वरासु॥8 गीर्वाणवाक्यसुभगं शुभगन्धवारिपूरैजिनलपनमेष चकार चक्री ॥८३॥ 8 आनन्दतस्तदनु नन्दनचन्दनेन कृत्वा विलेपनमसौ विगतावलेपः। प्रातः । ३ पुस्तके प्रायः सर्वत्र एव 'स्कटिक' स्थाने 'स्फुटिक' पाठः । ३ अलकैलालितः जलकणसमूहः । ४ महत्यै शोभायै । ५ परोक्षकालरूपम्'पाती। विस्तीर्णे चिरसि । ७ स्वजन:-इत्यर्थः । ८ प्रभासादितीर्थमामानि जैमसंप्रदायप्रसिद्धानि । ९ अवलेपो गर्वः। 00000000000ooooooooo 0000000000000000000000000000000000 0000000000 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टप्रकारमपि पूजनमष्टकमच्छेदाय तत्र विचकार स निर्विकारः ॥८॥ ॥८७ ॥ आरात्रिक दशविधत्रिकभाववेत्ता निर्माय स ध्रुवममायमनी नृनाथः। सन्माङ्गलिक्यविधये वरमाङ्गलिक्यदीपं प्रदीपसुकृतः कृतवान् कृतीशः ॥८५॥४ (श्रीवीतरागस्तवनम्-) अथो चतुर्विंशतितीर्थराज-नामाक्षराचं भरताधिराजः । श्रीवीतरागस्तवनं प्रधानं चक्रे विधायाऽऽत्म-मनोनिधानम् ॥८६॥ तथाहिः (श्रीऋषभ-महावीरो-) श्रीकेवलज्ञान विभैक.......धाम ! ऋते भवन्तं हृदयं दुरीहाँ। षट्शत्रुजातादतिदुःखरा........वी भक्याऽऽगतोऽस्मीत्यथ रक्ष वीर! ॥ ८७॥. cooc000HRSOPOS 5000006260000000000000000000000000000000000000000 क १ मायारहितमनोयुतः । २ भवन्तं विना दुरीहा दुष्टा ईहा आगत्य हृदयं चित्तम समलीकरोति-अपवित्रीकरोति-इति भावार्थः । ३ अतश्चाहम्परिपुसमूहात्-क्रोधादिकषायवर्गात प्रस्तः सन् अतिदुःखरावी अतिदुःखरोदनशील: भक्त्या आगतः, अतो हे भगवन् ! बीर ! अथ रक्ष-इति तत्त्वम् । । Jain Education ational jainelibrary.org Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-8 सगे QO0O.OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOoooooooooooOOO श्रीअजित-पार्श्वनाथौ श्रीवीतरागाद्भुतमोह-ता.....पा असंशयं जग्मुरकर्म पार्थ! । जिन ! त्वदास्यांशुसुधानिपाना तथा तव लाजलेन ना....थ ! ॥८८ ॥ श्रीसंभव-नेमिनाथौ श्रीमन्जिन ! त्वां हृदि दुःखदूने संस्थाप्य यदेव ! सुखीभवामि । भक्तिर्ममेयं न तु काऽपि नानावर्णा कृपां ते जयतीह नाथ! ॥८९॥ xooooooooooooooooooo0oooOOooo १ श्रीवीतराग ! पार्श्व ! अद्भुतमोह-तापाः त्वदास्यांशुसुधानिपानाः सन्तः -असंशयं अकर्म-निष्क्रियतां जग्मुः प्रापुः, तथा तव स्नात्रजलेन-अन्यत् सर्वे स्फुटमेव । २ अत्र पूर्वाध प्रीतम् । उत्तरार्धे तु-मम काऽपि भक्तिः, हे नाथ ! तव-ते-कृपा जयति-या न नानावां-किन्तु एकरूपा-अखण्डा-इति यावत् । ॥ Jain Education Netnational For Private & Personal use only IXhw.jainelibrary.org. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥ ८९ ॥ ४ ८ १२ 30000000000000 (श्रीअभिनन्दन - नमिजिनौ - ) अरूपिणी नष्टगुणा शिवश्री - भिन्ना कदाप्यस्तरसा रसेन (!) भवतोच्चका मिदमाश्रितास्तां जिन ! के न नेमुः ? ॥ ९० ॥ (श्रीसुमति- मुनिसुव्रतौ - ) नन्दत्प्रभावा Jain Education national न को मनोभूत्रिजगन्त्यम्-निं सुखाद् बबन्ध त्वरितं मनस्सु । मत्वेति हत्वा मन एव तीव्रं (1) तिरोभवस्त्वं शुचिधर्मघातः ! ॥ ९१ ॥ १] हे जिन ! हे रसेन ! ( रसानाम् - इन: स्वामी - रसेनः, तदामन्त्रणे ) या शिवश्रीः, नष्टगुणा ( रजस्-सत्वादिगुणरहितत्वेन, वा क्षायोपशमिकगुणहीनत्वेन, वा आत्मविशेषगुणाभावयुतत्वेन ) अत एव मित्रा, अस्तरसा, अरूपिणी च एतादृशी अपि सा भवता ( भवदाश्रिता सती) नन्दत्प्रभावा जाता अत एव है जिन ! तां शिवश्रियम्-उच्चकामिदमाश्रिताः केन नेमुः सर्व एव उच्चकामिनः उच्चस्थानाभिलाषिणः, दमाश्रिता दमयुताः श्रमणाः नेमुः इत्यर्थः । अथवा 'रसेन' इति तृतीया - एकवचनम् । अथवा भिन्न ! लोकोत्तरत्वेन सर्वतः पृथग्भूत! अकदापि निरन्तरम् अस्तरसा - रसहीना - इत्यादि पूर्ववत् । २ को मनोभूः कामदेवःअमूनि त्रिजगन्ति अपि मनस्तु न बबन्ध-अपि तु सर्व एव त्वरितं बबन्ध, अत एव हे तीव्र ! हे शुचिधर्मधात ! त्वं मन एव हत्वा तिरोऽभवः - अतस्त्वयि न कदापि मनोसामर्थ्यं प्रभवितुं प्रभु इति । अथवा हे शुचिधर्मधातः ! त्वं तत्रम् एव मनो हत्वा इत्यादि प्राग्वत् । 'तीव्रम्' इति पक्षे अस्य चित्रकाव्यत्वेन "नानुस्वार - विसर्गौ च चित्रभङ्गाय सम्मती” इति श्रीवाग्भटालंकारवचनत्वेन नात्र अनुस्वारः सन्नपि चित्रभङ्गं करोति । 15500 500000000 DOG DOO BOX 1000 चरित्रम् सर्ग: ३ ॥। ८९ ।। ww.jainelibrary.org Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक सर्ग:-३ (श्रीपनमभ-मल्लिजिनौ-) पश्याऽऽहिता दुनिगडे प्रमादेझको वयं दुःखकदन्नमेव । प्रभोऽसि सौख्यामृतमात्तधाम ! भवे त्वदन्ता किमिदं न भलिः ॥१२॥ (श्रीसुपार्श्व-अरनायो-) श्रीवीतरागेन्द्र ! शिवश्रिया - सुखा-ऽऽसुखाद्यल्पविकल्पभार! पार्श्वे न तस्याऽक्षरणोऽहिना ना (2) श्वेवृन्दमातिष्ठति नैव नाथ ! ॥ ९३ ॥ . १ हे प्रभो ! हे आत्तधाम ! (प्राप्तज्योतीरूप !-धाम-शब्दः ज्योतिः--पर्यायः-अकारान्तश्च) वयं भवे संसारे, प्रमादरूपे दुर्निगडे आहिताः सन्तः दुःख8 कदमकमेव अग्रक:-अमः (अन एव अद्मकः-स्वार्थिक:-क:) तत् त्वं पश्य । अस्य एतादृशस्य दुःखस्य प्रतीकाररूपं किमिदं सौख्यामृतमेव त्वदन्ता भल्लिा181 शत्रं न ? अर्थात् त्वत्समीपस्थितं सौख्यामृतमेव तस्य कष्टस्य छेदनाय भलि: पर्याता । २ हे श्रीवीतरागेन्द्र | हे नाथ ! हे अमुख-आसुखावल्पविकल्पभार । त्वं शिवश्रिया विराजसे (असुखं दुःखम, आमुखं संसारसुखम् ) तस्य वीतरागस्य पार्श्व अहिना सर्पण सह अक्ष-रणो न-रुद्राक्ष-ध्वनिन (अन्ये देवा रुद्राक्षेण 8 जापं जपन्ति, ससर्पाश्च) एवमेव तस्य पाश्वतृन्दमपि न आतिष्ठति (अन्येषां केषांचित् पूज्यतमानां निकटे श्ववृन्दमपि रश्यते) [अत्र 'श्ववृन्दम्' इत्यस्य उपरि 181 गतो रेफ:-चित्रकाव्यार्थमेव प्रयुक्त इति सम्बतें.] नाऽत्र 'ना' शब्दार्थों गम्यते । Jain Educationale mnational For Private & Personal use only 000000000000000000000000000000000000& 036000000000000000OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOVER Kanw.jainelibrary.org Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥९१॥ తెలు000000000000000000000 (श्रीचन्द्रप्रभ-कुन्थुनाथौ-) चन्द्रो यथा नन्दति सर्वरौ कु द्रवत् तु चन्द्राश्मचयोऽमृतं थु। प्रभो! तथाशान्तरसाम्विता जना भवन्ति ते वाग्भिरनूनवित्पथ! ॥९४ ॥ (श्रीसुविधि-शान्तिनाथौ-) श्रीरज्जुबद्धा नृततिं दृढाशां सुमोह एष भ्रमयन्नरातिर् । , विभो! तवाग्रे तु नयेत् कदा-ना-ss धि-व्याधि वहिप्रशमेऽसि पाथः ॥९५॥ B.00000000000000ooooooooPOOROWood १ पुस्तके तु 'चन्द्रो यथा नन्द ह सर्वकुं' इति पाठः । यथा सर्वरी-शर्वरी-रात्री चन्द्रः, कुं पृथिवीं नन्दति, एवमेव चन्द्राश्मचयो यथा थु इव अमृतं द्रवेत् तथा हे प्रभो!, हे अनूनवित् !-सवित् !, हे पथ | मार्गरूप! ते तव वाग्भिः-देशनाभिः, जनाः शान्त-रसान्विता भवन्ति । २ एष अरातिः मुमोहः श्रीरज्जुबां लक्ष्मीपाशबद्धाम, अत एव दृढाशा नृततिं भ्रमयन् कदापि हे विभो ! तव अग्रे न नयेत्-वं तु आधि-व्याधिवहिप्रशमे जलरूप:-आसे (पाथः-जलम्)। Jain Education Harjainelibrary.org ational Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक चरित्रम ॥ ९२॥४ सर्गः-३ (श्रीशीतल-धर्मनाथौ-) श्रीमन्नहं मोहतमोभिरन्धः शीलाध्वहीनं कृतवान् कुकर्म ।। तस्य क्षयोऽभूत् तव दर्शने ना-5 लसं मनो' मेऽस्तु तवाङ्कितेऽथ ॥९३ ॥ (श्रीश्रेयांस-श्रीअनन्तौ-) श्रीमन् ! यथाऽऽद्यो लघुरष्टजुः श्री. श्रेष्ठः प्रवृद्धथै वचनश्रिया अ। यांस्त्वं चित्तेऽणुरपीह नूनं सर्वोरुरेवाऽसि तथाऽद्य नेतः ! ॥९७॥ 000000000000000000000000 SoOo oOo oOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO हे श्रीमन् । अहं मोहतमोभिः अन्धः सन् शीलाध्वहीनं कुकर्म कृतवान् , तस्य कुकर्मणः तव दर्शने सति क्षयोऽभूत, भय तव अश्तेि मम 18 मनः अलसं न भवतु-दति । २ हे श्रीमन् ! यथा आद्यो लघुः-अकारः वचनश्रियाः प्रवृदय श्रीश्रेष्ठः अष्टजुः ('अटजुः' इति न गम्यते) [अथवा अष्टौ गुणान् जुषति-इति भवेत् तथा त्वम् अय हे नेतः । चित्ते यान् गच्छन् , अणुः अपि इह नूनं सदरेव सर्वगुरुरेव भसि इति। 000000000 ॥ १२॥ 18w.jainelibrary.org Jain Education national Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ĐỐsoocobaooooooo (श्रीवासुपूज्य-श्रीविमलौ-) वाग्मीश! ते सर्वसमा वचःश्री सर्ग:-३ सुधारवा सद्भिरिति व्यभावि । पूर्णा सुमात् त्वम्बुधितो निकाम ! ज्यागोरसोल्लोलततिः समूल ! ॥९८ ॥ इत्थं श्रीजिनराजमव्ययसुखा-ऽऽयु-वीर्य-तेजोयुतं स्वस्थैः श्रीऋषभादिनाममणिभिः श्रेणिद्वर्यस्थैः क्रमात् । नित्यं भूषितमात्मचेतसि मुदा संस्थाप्य यो ध्यायति सिद्धिश्रीकमलप्रभः स भवति स्फूर्जयशःसौरभः॥ -स्तवनम्। इति विधाय जिनार्चनमन्वहं भरतभूमिसुरैर्भरतोऽन्वितः । भविजनान् बहुशो भुवि भोजयन् सुकृतवान् कृतवानथ भोजनम् ॥२००॥8| शुरझरिद्-बरदाम-सुमागधायधिपदेवकृतं स्लपनं तदा। हृदि निधाय नृपा बहवो भुवि विदधिरे जिनपूजनमन्वहम् ॥१॥ उक्तं च१ पूर्वार्ध प्रतीतम् । उत्तरार्धे तु-यथा पूर्णात् सुमात् चन्द्रात् ('तुः' समुच्चयाथै) अत एव पूर्णात् अम्बुधितः ज्यायोरसोल्लोलततिः जायते-इत्यादिअन्यत् तु स्पष्टमेव । अत्रापि पुस्तके तु योरसालोलततिः' इति विचित्रः पाठः । २ पूर्वनिर्दिष्टेषु लोकेषु श्रेणाद्वये श्रीजिनराजनामानि प्रतीतान्येव-तानि च अस्माणि विशेषस्पष्टीकरणाय महाद्भिरक्षरैः मुद्रितानि । ३ अयं च ग्रन्थकर्तुरपि नामनिर्देशः 'कमलप्रभ' इति । ४ भूमिसुराः भूदेवा:-ब्राह्मणा इति यावत् । 8 ॥ ९३॥ 00000000000000000000000000000000000000000000000000 o ooooo * तु-यथा पूर्णात् सुमाद चन्द्रात वचित्रः पाठः । र पूर्वनिर्दिष्टप भोकेष श्रेणी भूमिसुराः भूदेवाः Jain Educatilernational vw.jainelibrary.org Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक चरित्रम्. đox SUS शस्तसमस्तसरित्-समुद्र-तीर्थोदकानि घोषणया । स्मरयन् प्रागभिषेक छेकः शेषं विधिं कुर्यात् ॥२॥ (भरतानुसरणम्-अन्यैः कृतम्-) भरतचक्रधराचरितं च तद् भविकभोजन-दानमपि क्षिती। सुकृतिभिर्विदधे निजशक्तितो नृपतिभिबहुभिर्बहुभावतः ॥३॥ (ऋषभसेनप्रश्नः स्फटिकाचले-) ४ऋषभसेनगणः प्रथमोऽन्यदा ऋषभदेवविभु प्रणिपत्य च। सविनयं स्फटिकाचलमूर्धनि सममपृच्छत केवलसंभवे 18 इह हि बाहुबलिप्रमुखाः प्रभो! यतिवरा अपि केवलिनोऽभवन् । प्रथमतः श्रिततीव्रतरव्रतः कथमहं न लभे परमं महः ? ॥५॥ 18 बहुभवोपचितं दृढकेवलावरणनाम-कुकर्म मम प्रभो! । ब्रजति केन तपोविधिनाऽधुना रुचिरतीर्थभुवि क्व नु वा क्षयम् ॥६॥४ 18 (युगादिजिनो जगाद-) अथ जगाद युगादिजिनाधिपो विमलशैल इतोऽपरदिग्भुवि । ध्रुवमनन्तमुनीश्वरमुक्तिदो विमलताकलितोऽस्ति पुराऽपि यः॥७॥ विमलशैलवरस्य शिरस्यहो! गणपते ! तव तस्य समीयुषः। विमलता शिवसौख्यफलावलिप्रसवकल्पलताऽस्ति च भाविनी ॥८॥ पथि भविप्रतियोधविधायिनो विमलशैलविभावविभासनम् । तव च तत्र भवेद् बहुभावनोदय इति त्रितयं दुरितापहम् ॥९॥ १ छेकः चतुरः । २ शिरसि शिखरे । ३ विभावः प्रभावः । ४ भविप्रतिबोधः, विमलीलविभासनम, भावनोदयश्च-एतत् त्रितयम् । 200000000000000000000000000000000000000000000000000 १२ XONNANON MOONONO ॥९४७ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक 30000000000000000000000000000000000000 यत:- त्रितयमेव तद् दर्शयति चरित्रम्"सयलम्मि जीवलोए तेण अहं घोसिउ एअमाघाओ। सकले जीवलोके तेन अहं घोषयितुमेतद् आख्यातः। सर्ग:-३ इक्कं पि जो दुहत्तं सत्तं बोहेइ जिणवयणे ॥१०॥ एकमपि यो दुःखात सत्त्वं बोधयति जिनवचने ॥१०॥ समत्तदायगाणं दुप्पडीयारं भवेसु बहुए। सम्यक्त्वदायकानां दुष्प्रतीकारं भवेषु बहुकेषु । ४सव्वगुणमीलियाहि वि उवयारसहस्सकोडीहिं॥११॥ सर्वगुणमीलिताभिरपि उपचा(का)र सहस्रकोटिभिः॥४ -एकम् । तित्थयराण गुरूणं साहूणं बंभयारीणं । तीर्थकराणां गुरूणां साधूनां ब्रह्मचारिणाम् । तित्थाणं खु पहावो पयासिओ परमसुहहे ॥१२॥ तीर्थानां खलु प्रभावः प्रकाशितः परमसुखहेतुम् १२४ 8तित्थयराण प्पहावं तित्थाणं चेव जो पयासेइ। तीर्थकराणां प्रभावं तीर्थानामेव यः प्रकाशयति । ४/खविऊण पावकम्मं सिद्धिसुहं सो लहइ जीवो १३ क्षपयित्वा पापकर्म सिद्धिसुखं स लभते जीवः ॥१३ 8 ४ तित्थाणं च जिणाणं मन्नेइ पूर्य संपइ न पहावं । तीर्थानां च जिनानां मन्यते पूजां संप्रति न प्रभावम्।। 8सो अत्थिक्कविह्वणो दुल्लहबोही नरो होही ॥१४॥ स आस्तिक्यविहीनः दुर्लभबोधिनरो भविष्यति१४४ -द्वितीयम् । -द्वितीयम् । 18 जिणनाहा गणनाहा जत्थय सिज्झन्ति कम्मपरिमुक्का। जिननाथा गणनाथाः यत्र च सिध्यन्ति कर्मपरिमुक्ताः 8 भवियाण पूयणिज्जं सिद्धिखित्तं हु तं वत्तं ॥१५॥ भव्यानां पूजनीयं सिद्धिक्षेत्रं खलु तद् वृत्तम् ।१४ सिद्धखित्तगयाणं भवियाणं भावणा भवे तिक्खा। सिद्धक्षेत्रगतानां भव्यानां भावना भवेत् तीक्ष्णा ॥१५॥ coolwoo00000000000000000 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक- साए भावणाए पावं कम्मं गलइ सयलं ॥१६॥ तीक्ष्णया भावनया पापं कर्म गलति सकलम् ॥१६॥४ चरित्रम्॥९६॥ .. तृतीयम् । -तीयम् ॥8 सर्गः-३ (सिद्धप्राभृते श@जय-वर्णिकाः गाथा:-) तथा च सिद्धपाहुडे--- तथा च सिद्धप्राभृते18 पढचारए असीई उमहे पन्नास जोयणा दिट्ठा। प्रथमारके अशीतिः ऋषभे पञ्चाशद् योजनानि दृष्टानि। ४वीरे जोयण बारस छठ इए सत्त रयणीओ॥१७॥ वीरे योजनानि द्वादश षष्ठे इते सप्त रत्नयः ॥१७॥8 18/पुश्वभयंत काल ओसपिणि-सप्पिणीसु तित्थगरा। पूर्वमनन्तं कालं अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीषु तीर्थकराः। 8 शित्तुंजगिरिवरम्मि अ समोसरिउं सिवं पत्ता १८ शत्रुजयगिरिवरे च समवसृत्य शिवं प्राप्ताः ॥१८॥ (श्रीपानाभप्रमुखा जिना:-) सिरिपउमनाहप्पमुहा तित्थयरा भाविणो असंखिजा। श्रीपद्मनाभप्रमुखाः तीर्थकरा भाविनोऽसंख्येयाः । सिरिसित्तुंजगिरिम्मि उ विहित्ता निव्वुडिस्संति।१९। श्रीशजयगिरौ तु विहृत्य निर्वतयिष्यन्ति ॥१९॥ ४ २४ (त्रयोविंशतिजिना:-अन्ये राजानश्च-) तेवीसं तित्थयरा समोसढा नेमिवजिया जेण। त्रयोविंशतिस्तीर्थकरा समयमृता नेमिवजिता येन 18 तं विमल गिरीतित्थं सुकयस्था केऽपि पिच्छंति २० तद् विमलगिरितीर्थ सुकृतार्थाः केऽपि प्रेक्षन्ते ।२०। पन्नास कोडिलक्खा अयराई जाव अजियजिणो । पञ्चाशत् कोटिलक्षाणि अर्तराणि यावत् अजितजिनः 8 आइपजसप्पमुहा रायाणो निव्वुइ पत्ता ॥२१॥ आदित्ययशःप्रमुखा राजानो निवृति प्राप्ताः ॥२१॥8 १ षष्ठे अरके इते प्राप्ते-आगते सति । २ रत्नयो हस्ताः । ३ अतराणि-सागरोपमानि-इति जैनानां सांप्रदायिकः कालमानसूचकः संकेतविशेषः । 00000000000oorvoooooooor 200000 . Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। ९७ ।। ४ १२ ( चातुर्मासे श्रीअजित - शान्तिजिनो - ) सिरिअजिय-संतिनाहा चाउम्मासम्मि संठिया जत्थ निम्मलनयवाणीए पडिबोहिस्संति भवियजणं ॥ २२॥ ( नारद प्रमुखाः — ) नारयरिसी अ समणा भद्दयभावा उ जत्थ महरिसिणो । नारदऋषिश्च श्रमणा भद्रकभावास्तु यत्र महर्षयः एगाणउइलक्खा सिवं लहिस्संति तित्थम्मि ॥२३॥ एकनवतिलक्षाणि शिवं लप्स्यन्ते तीर्थे ॥२३॥ [ षाणाम् । साधूनां विंशतिः कोटिः पाण्डवसदृशानां धीरपुरु सिद्धिं सिद्धिगिरौ तु भगीरथे अत्र सिध्यन्ति २४ कोटाकोटीसागर - मध्ये इत्येवमादिका मुनयः । सिद्धिसुखं संप्राप्ताः तिलके अत्र शैले ॥ २५ ॥ श्रीअजित - शान्तिनाथाः चातुर्मासे संस्थिता यत्र । निर्मलनयवाण्या प्रतिबोधयिष्यन्ति भव्यजनम् ॥ २२ ॥ ( पाण्डवा: - ) साहूण वीस कोडी पंडवसरिसाण धीरपुरिसाण । सिद्धिं सिडिगिरिम्मि उ भगीरहे इत्थ सिज्जांति२४ कोडाकोडीसायर - मज्झे इच्चेवमाइया मुणिणो । सिद्धिमुहं संपत्ता तिलयम्मि इत्थ सेलम्मि ॥ २५ ॥ प्रतिदिनं भविनः प्रतिबोधयन् विद्धद्भुतभावविभासनम् । विमलयन् स्वमनो विमनोभवं व्रज मिहाविमलं विमलाचलम् ॥ २६ ॥ इति निदेशमवाप्य जिनेशितुः सुयतिपञ्चशतीसहितस्तदा । अवततार ततः स्फटिकाचलाद् विमलशैलमभि प्रयियासया ॥२२७॥ १ मनोभवः कामः—तद्रहितम् । २ मिहा प्रातः काले पतद् हिम-सीकरम् । ३ प्रयातुम् इच्छया । 0000000 चरित्रसर्ग: ३ ॥ ९७ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-ठविमलभूमिधरं प्रति हर्षतः प्रचलिते प्रथमे गणनायके। हरिणवेषसुरं सह वासवः प्रहितवांस्तदुपासनहेतवे॥२२८॥ चरित्रम् वातव्याधूतनूतध्वजभुजनिवहैरात्तवृत्तेव हृष्ट-स्वर्गस्त्रीवर्गगीतैरिव विहितमहामाङ्गलिक्योच्चरावा । सर्ग:-2 नव्या दिव्या विमानावलिरिह विमलाद्रिं प्रति प्रस्थितस्य रेजे श्रीपुण्डरीकप्रथमगणधरस्यानुगा हर्षितेव ॥२९॥ जय स्वामिन् ! स्वामिन्निति हरिणवेषप्रभृतिभिः सुरैः स्तोत्रव्यग्रैरनुगतपदोऽयं गणधरः। 8 चचाल श्रीशचुंजयगिरिवरं प्रत्यथ मुदा, चतुर्तानी सर्वागमवचनकर्पूरकलशः ॥ २३०॥ श्रीरत्नप्रभसूरिसूरकरतो दोषानुषङ्गं त्यजन् यो जाड्यस्थितिरप्यभूत् प्रतिदिनं प्राप्याद्भुतप्रातिभः। 8 तेन श्रीकमलप्रभेण रचिते श्रीपुण्डरीकप्रभोः श्रीशQजयदीपकस्य चरिते सर्गः तृतीयोऽभवत् ॥३१॥ इति श्रीबाहुबलिकेवलज्ञान-भरतसाधर्मिकवात्सल्य-पुण्डरीकयात्राप्रचलनो नाम तृतीयः सर्गः । चतुर्थः सर्गः। (विहरन्-धीपुण्डरीक:-) श्रीपुण्डरीकः सॅमितोऽप्रतिमप्रतिभप्रभुः । बहूनदीक्षयद् भव्यान् विबोध्य विहरन भुवि ॥१॥ (पोतनं पुरम्-) धनुःपञ्चशतीदेहस्ततः साधुशतैर्वृतः । प्राप पारिपुः पुण्योद्योतनं पोतनं पुरम् ॥ २ ॥ तस्योद्याने शुकैर्हसैमङ्गलालापिभिर्वृते । मुनिप्रभावात् सर्वर्तुरमणीयतरूच्चये ॥ ३ ॥ वातनिर्धूतपुष्पौषकृतचन्द्रोदयंभ्रमे । यतिस्थितिकृते चक्रुस्ते देवा रत्नशालिकम् ॥ ४॥(युग्मम् ) १ हरिणवेषो नाम 'हरिणेगमेषी'नामा देवः प्रतीयते, स च जैनसंप्रदाये प्रसिद्धः । २ आत्तं नृत्तं यया सा-ईदृशी विमानावलिः। ३ रावो-ध्वनिः । ४ पूर्वगतश्लोकव्याख्यावद् अस्याऽपि व्याख्या आख्येया। ५ पञ्चभिः समितिभिः समितः । ६ अप्रतिमा-अनुपमेया । ७ पापशत्रुः। ८ सर्व-ऋतु-रमणीयः तरूणाम् उच्चयो यत्र । ९ चन्द्रोदयः-भाषायाम् चन्दरवो-इति ख्यातः। . Coo00000 000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥ ९९ ॥ ४ ८ 0000000000 ( देवता आगता - ) ders fraष्टस्य काचिदभ्येत्य देवता । नत्वांsहियुगलं यावत् तस्थौ सुस्थमनाः पुरः ॥ ५ ॥ ( श्री रत्नचूडो राजा - ) तावत् कृतारिदैन्येनं सैन्येन परितो वृतः । अङ्गरक्षैर्महादक्षैः सुभटैरुद्भटैस्तथा ॥ ६ ॥ मन्त्रिणा मतिचन्द्रेण राजहंसेन सूनुना । युक्तः श्रीरत्नचूडाख्योऽभ्येत्य राजाऽनमद् मुनिम् ॥ ७ ॥ ( सचिवप्रश्नः - ) स ततः सचिवः प्रोचे भगवन् ! अस्य भूपतेः । देवः कोऽपि पुरा वैराद् जिह्वास्तम्भं चकार किम् ? ॥ ८ ॥ कस्माद् वा भक्षणादेष जोदोषं पुपोष किम् । यौवराज्येऽवद् वाक्यं नो राज्यप्रापणात् कथम् १ ॥ ९ ॥ ( ऊचे मुनिः - ) मुनिचे पुराऽनेन कर्मबन्धकरं वचः । उक्त्वा ज्ञातमिदं पश्चात् क्षामितं विनयात् पुनः ॥ १० ॥ ततः पूर्वभवं स्मृत्वा विभ्यत् वाक्-कर्मबन्धतः । नासौ वदति तद् नाऽन्यद् नृपमौनेऽस्ति कारणम् ॥ ११ ॥ ( जगाद पुनर्मन्त्री - ) स जगाद पुनर्मन्त्री कोऽस्य पूर्वभवः प्रभो ! । किं वा तद्वचनं चेति ? कथ्यतां संसदि द्रुतम् ॥ ( स्वामिदेशना - रत्नचूडनृपपूर्वभवश्च - ) १२ ॥ तेति पृष्टे 'तेनेऽथ स्वामिना देशनाऽमुना । संमोहगेहसंदेह-व्यपोहार्यं सुमन्त्रिणः ॥ १३ ॥ (विदेहे क्षेत्रे रत्नपुरम् ) क्षेत्रे महाविदेहाख्ये विजयो मङ्गलावती । तत्र रत्नपुरं नाम नगरं पुण्यनागरंम् ॥ १४ ॥ (वैरसिंहो राजा -- ) १ कृतम् अरिषु दैन्यं येन । २ मूकतादेोषम् । ३ वाचा जन्यः कर्म-बन्धः -- ततः । ४ सभायाम् । ५ ' तन्' धातोः परोक्षकालरूपम् - विस्तारं कृतवान् इत्यर्थः । ६ व्यपोहो- दूरीकरणम् । ७ पुण्याः नागरा नगरवासिनो यत्र तत् । ∞∞∞ 0000000000000000000000∞∞∞∞∞∞ चरित्रम्सर्गः -४ ॥ ९९॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक- वैरसिंहोऽत्र राजाऽपि नैव यः कुवलप्रियः। जगन्मित्रोऽपि सूरोऽपि नैव यः विश्वतापनः ॥ १५ ॥ (लीलावती राज्ञी-) शीललीलावती तस्य नाम्ना लीलावती प्रिया । अक्षीणसत्यपीयूषा यस्या आस्यामृतद्युतिः ॥ १६ ॥ 188 (पुत्रो मेघनादः-) पूर्वपुण्यैस्तयोर्दत्तः पुत्रः सुत्रामविक्रमः। मेघनाद इति ख्यात्या ख्यातो ध्यातो जगजनैः ॥ १७ ॥ बाल्यं क्रमेण तत्याज मौग्ध्यं सर्वत एव यः। यौवनं यः क्रमात् प्राप कलाः कीर्ति च सर्वतः १८॥ (मेघनाददानन्यसनम्-) साक्षिणं शुद्धपुण्यं यः कृत्वा दत्त्वा निजं करम् । मैत्र्यं दानाख्यमित्रेण स्थिरं जग्राह साग्रहः॥ १९ ॥ दत्त्वार्थिभ्यः सुवर्ण यः सुवर्ण वादमग्रहीत् । विधाप्य पुण्यप्रासादान प्रसादं पुण्यतोऽनयत् ॥ २० ॥ स दानं च सदानन्दकरं धीमान् सदा ददौ । यथा यथा तथाऽभ्येयुः कलापात्राण्यनन्तशः ॥ २१ ॥ महादानं ददानोऽयं वर्धमानमथो दिने। अष्टादश स्वर्णकोटीकोटीर: प्रदत्तवान् ॥ २२ ॥ (दानव्यसनभीतो राजा जगौ-) दानव्यसनतो भीतो राजा रहसि तं जंगौ। वत्स! स्वच्छतया भोगः कार्यों नौदार्यमद्भुतम् ॥ २३ ॥ (मेघनादप्रवास:-) निशम्येति महादानी महामानी महानिशि । निस्ससार सदाचारसारः सारभृतो भृशम् ॥ २४ ॥ (प्रीष्मः-) १ राजा चन्द्रो हि कुवलं कुवलयम्-चन्द्रविकासि पद्मम्-तस्य प्रियः । अयं वैरसिंहो राजा-नृपः सन्नपि नैव कुबलानां निन्दितबलानां प्रियः-तेषां नाशकत्वात् । पुनश्च अयं वैरसिंहो नृपः जगन्मित्रः, सूरोऽपि सन् नैव विश्वतापनः, जगन्मित्रः-सूरः-भानुर्हि विश्वतापनः प्रतीतः इति विरोध-परिहारौ । २ अक्षीणं सत्यं पीयूषम्-अमृतं यस्यां सा । ३ यः शुबपुण्यं साक्षि विधाय, निजं हस्तं दत्त्वा दाननाम्ना मित्रेण स्थिर मित्रत्वं संपादितवान् दानशूर आसीद-इति तत्त्वम् । ४ शोभना वर्णा यस्मिन्-यशोवादम्-इत्यर्थः । ५ पुण्यमहालयान् । ६ कलापात्राणि-कलानिपुणाः । ७ कोटीरो-मुकुटः । ८ कथयामास । 200000000000000000000000000000000000000000 30000000000000000000000000000000000000000000 A Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -IXE अमरीक- भीष्मे ग्रीष्मेऽन्यदा गच्छन् वकुलस्य तरोस्तले । परिश्रान्तः सुविश्रान्तः शान्तस्वेदस्तु वायुना ॥ २५॥ परिसर.. (दान्तिकं हरिणी-) तत्राऽकस्माद् भयत्रस्ता संजला लोललोचना। हरिणी गर्भखिन्नाङ्गी वेगादागात तदन्तिकम् ॥ २३॥ सगे:-४ मनुष्यवाचं जल्पन्ती रक्ष रक्षेति सोत्सुकाम् । स्वहस्तेन ततस्तेनाऽऽस्पृष्टा.हृष्टा स्थिताऽथ सा ॥२७॥ 8मा भैर्मा भैरिति स्पष्टं कृपापुष्टं वदन वचः । स्वात्सङ्गे रङ्गतो नी वा स ददायभयं तदा ॥ २८ ॥ (आजगाम सिंहः-) 8 तदैव दैवयोगेन प्रस्ताऽऽस्यः क्रुधा क्षुधा । आजगाम हरिः काममप्रेक्ष्यः कातराङ्गिनाम् ॥ २९ ॥ (सिंह-मेघनादयोः संल.प:-) ४ मृगीं वीक्ष्य मैहानादो मेघनादाङ्कसंगताम् । स्थित्वा सुखं च संमील्याऽऽश्वस्य नागेंगदद् गिरम् ॥३०॥ त्रिलड्डन्याऽद्य देवेन दत्तवा यद् गता मृगी। कवलः किल वक्त्रस्थ इव त्रस्तस्तता मम ॥ ३१ ॥ जन्मसब्रह्मचारिण्या ह हा क्रूरतया तया । भवन्तं पुण्यवन्तं तु दृष्ट्वा मुक्तः करोमि किम् ॥३२॥ अहं क्रूरोऽपि शूरोऽपि पशुरज्ञानवानपि । भूकल्पनूरहं नत्वा हन्तुं कुर्वे मनोऽपि नो ॥ ३३ ॥ सदाकार! सदाचार! सदोपकृतिकारक! ॥ कुमाराऽपय मे भक्ष्यं धर्म संख्यं तवाऽस्ति चेत् ॥ ३४॥ स.कारमन्मथो वाचमथोवाच : नृपाङ्गभूः। अहो! सिंह ! महोयुक्त! शृणु संवृणु मानसम् ॥ ३५ ॥ (क्षत्रियस्यार्थ:-) क्षत्रियाः सर्वतेजांसि समुच्छित्य,भुवस्तले । परमाणपरित्राणकृते सृष्टिकृता कृताः ॥ ३६ ॥ १ददी अभयम् । २ क.तम्मनुष्यैः अप्रेक्ष्यः । ३ महानादोऽत्र सिंहः । ४ साग-झटिति । ५ त्रयाणां लॉनानां समाहारः-उपवासत्रयी इत्यर्थः। 18 ६ जन्मसहचारिण्या । ७ पृथिव्यां कल्पवृक्षरूपम् । ८ सखीत्वम् । ९ मूर्तिमान् अनमः । १. तेजस्विन् ! । ११ रुखं कुरु । १२ सर्वतेजांसि संगृह्य । 00000000000000000000000000000 aanMOOMGooooooo 0 000 . Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DO6600000 पुण्डरीक-ततस्ते प्राज्यसाम्राज्य! देहगेहतनूभवान् । दानेनाऽपि सदा दगुर्नत्वहो! शरणागतम् ॥ ३७ ॥ ॥१०२॥ प्रसन्नेनाद्य दैवेन पुण्यदेहस्य पोषदम् । भीतत्राणं महाभोज्यं दत्तं तत् किमहं त्यजे ॥ ३८ ॥ सर्गः-४ (सिंहाय मृगीस्थाने स्वदेहदानम्-). मम भक्ष्यान्तरायेण सर्वमेतत् प्रैलेष्यते । इति चेद् वदसि तद्देहं ममाऽऽस्वादय सत्वरम् ॥ ३९ ॥ . इत्युक्त्वा पतितेऽग्रेऽस्मिन् सिंहोऽवाचन्नरोत्तम । मानुषं जन्म दुष्प्रापं मोक्षदं किं परित्यज ॥ ४० ॥ 81 मृगकान्त कृते प्राणान् यच्छतस्तुच्छधीजुवः । भोक्ष्याम्यहं न मांसं ते गच्छ स्वच्छ ! विचारय ॥४१॥ है स ऊचे जगृहे मोक्षो मया श्रेयाश्रियाऽनया। मृग्या जीवस्थापनिको मोक्षं कुर्यानपापदम् ॥ ४२ ॥ 18 प्रसादं कुरु पारीन्द्र ! शरीरं मे कृतार्थय । वदन्निति पुनर्यावत् पपाताऽग्रेऽतिसाहसी ॥ ४३ ॥ (मृगी-सिंहौ अन्तर्हितौ-) तावदग्रे मृगी सिंहं नोऽपश्यद् विस्मितस्ततः । पित्तेन दूनचित्तेन ददृशे किमिदं मया ॥४४॥ इति विस्मित्य विस्मित्य स्वेन चित्तेन तच्चिरम् । वकुलादचलद् मेघ-जादो नाऽदो धिया त्यजन् ॥ ४॥ पुण्येऽरण्येऽन्यदाऽनेन गच्छता स्वच्छतान्विता । फल-द्रमालिकलिता नदी काचिददृश्यत ॥ ४६ ॥ हेलया संचरंस्तत्र पुंलिने विपुले.ऽमले । मेघनादः फलान्यादै पपी नीरं च निर्मलम् ॥ ४७ ॥ (मेघनादो दार्श प्रासादम्-) पुरस्तदा स्फुरनानारत्नराशिप्रभाभरैः । पवित्रताम्बरतलं प्रासादं प्रददर्श सः ॥ ४८ ॥ 12 १ पुत्रान् । २ प्रलयं यास्यति " लीड्च क्षेषणे" धातुः । ३ आत्मनेपदमनित्यम् । अत एव भोक्ष्यामि-भोजनं करिष्यामि । ४ जीवरक्षा । ५ अपापदम् ।४। २६ सिंह ! । ७ पित्तेन शरीरस्थेन तन्नाम्ना धातुना-पित्तन हि भ्रमो जायते इति प्रसिद्धः । ८ न अदः एतत् पूर्वोक्तं वैचित्र्यम् । ९ पुलिनः तटः । १. आद भक्षयामास । OoMOOOOO00000000000000000000000 Do00000000000OOLoooooळ00000000स 8॥१०२॥ . Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक॥१०॥ चरित्रम्. सर्गः-४ 000000000000000 200000000000000000000000000 (प्रासादस्था देवी-) कुतूहलरसावेशस्फीतप्रीतविलोचनः । तद्वारे सुप्रभाधारे गत्वा मध्यं व्यलोकयत् ॥ ४९॥ एकया सुप्रतीहार्या छत्रधारिकयैकया । द्वाभ्यां चामरभृद्भ्यां च नारीभ्यां सेविता मुदा ॥ ५० ॥ आनन्दामृतकुल्येव कल्पवल्लीव जङ्गमा । सीमा सुदर्शनीयानां रेखा रूपभृतां भुवि ।। ५१ ॥ अतीव दिव्यदेहाभिः देवीभिः परितेो वृता । रत्नसिंहासनासीर्ने। दुःखदीनानना भृशम् ॥ ५२॥ सर्वदेवीश्वरी काचिद् विदुषा स्मितचक्षुषा । नुसारेण कुमारेण ददृशे हर्षदा दृशोः ॥५३ ॥ -कलापकम् । (देव्या विषाद:-) दृष्ट्वा दुःखमुखीश्याममुखीमेनां सुमानसः । कामेकां सुमुखीमस्या दुःखहेतुं स पृष्टवान् ॥ ५४ ॥ मजुवाचमथोवाच सा तदा कर्णसाताम् । शृणु वृत्तं निजं चित्तं स्थिरीकृत्य सुकृत्यवित् ॥ ५५ ॥ स्वामिन्याः कुलवृत्तान्तं स्वामिनी ज्ञापयिष्यति । दुःखहेतुं मया कथ्यमानमाकर्णयाऽद्भुतम् ॥ ५६ ॥ (विषादकारणम्-) अत्र यक्षवने हर्षात् क्रीडन्त्या पुष्पकन्दुकः। सखी प्रति स्वहस्तेन स्वामिन्या प्रेरितो यदा ॥ ५७॥ तदाऽङ्गलीयोऽप्यङ्गल्याश्चिन्तामणिविभूषितः । पार्श्वे दिव्याग्निसंपूर्णकुण्डे स सहसाऽविशत् ॥ ५८॥ तस्य दिव्यस्य कुण्डस्य वहिज्वाला कुलोच्चयः । न शाम्यति विना सत्वं सात्त्विकानां महात्मनाम् ॥ ५९॥ मनःपुराद् विनिर्वास्य हर्षराज म(हा)या हठात् । विषादो(त्थ)ल्लनिषादोऽस्याः तदा प्रभृति तस्थिवान् ॥२०॥ १ समस्तमेतत् । २ सुदर्शनीयानां सीमा-नातः परा सुदर्शनीया । ३ नातः परा रूपवती । ४ आसीना-स्थिता । ५ कर्णसुखदाम् । ६ कन्दुको हि भाषायाम् 'दडो' इति । ७ अगलीपरिधेयः-चिन्तामाणः ८( ) एतचिहगतः पाठः कल्पितः शोधकेन । 000000000000000000000000000000000000000000000 Jain Education national Siw.jainelibrary.org Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक॥१०४॥ १२ ( तद्विषादनाशाय मेघनादपौरुषम् - ) इति मौनावलम्बिन्यां कामिन्यां स व्यचिन्तयत् । निशम्याऽपि महादुःखं चेन हन्मि ततः पशुः ॥ ३१ ॥ विश्वेऽस्मिन् दीनता भीतो न दुःखं कथयेज्जनः । कथयेचेत् तदा दुःखनाशमाशास्यं चेतसा ॥ ६२ ॥ अस्मात् कायव्ययादेष स्थिरां पुण्यतनूं लभे । अथवा मन्दभाग्यत्वं पुरा म.दुरभूद् मम ॥ ६३ ॥ न मां वदति जिह्वाऽस्या यावद् दुःखापनीतये । तावत् करोमि मे वाच्छा पुण्यैर्भूयात् फलेग्रहिः ||३४|| सतां मान्यः सतां देवीमवदत् तदनु स्फुटम् । वह्निकुण्डस्थितं शीघ्रमङ्गुलीयं प्रदर्शय ॥ ६५ ॥ साssक्रम्य भूमिकां स्तोकां तर्जन्या तद्वचोऽकरोत् । मुमुदेऽथ स तं दृष्ट्वा मुनिवद् वह्निः पनम् ॥६६॥ परदुःखविनाशाय कार्यं कुर्यात् पुनर्विधिः । इत्युदित्वा ददौ झम्पां निष्कम्पःङ्ग-मनस्थितिः ॥ ६७ ॥ ( वदेर्जलीभावः - ) तस्मिन् सत्त्वसुधाकुण्डे संगते कुण्डमण्डनम् । वह्निः स जलतां भेजे कीर्तिबीजलतां तदा ॥ ६८ ॥ ( मेघनादस्य स. फल्यम् - ) जयनादेन देवीनां स्फीतेन यशसा समम् । मूर्ती मुदभिवैतस्य मुद्रां नीत्वा स निर्ययौ ॥ ६९ ॥ ( देवीप्रसन्नता - ) सत्त्वेन तुष्टाऽतुष्टाऽहं वत्स ! स्वच्छ ! वरं वृणु । देव्या एवं वदन्त्यास्तं पुरो मुक्त्वा ननाम सः ॥ ७० ॥ तस्याः प्रसन्नचित्ताया आलोक्याऽऽलोकनिर्मलम् । मुखचन्द्रमदुःखी भ्रमथाऽवादीत् कृताञ्जलिः ॥ ७१ ॥ यद्वरं दर्शनं स्वीयं दत्तं सोऽभूद् महावरः । पूर्ववृत्ते तु संदेहमन्देहं मतिरस्ति मे ॥ ७२ ॥ १ आशां कृत्वा । २ फलवान् । ३ आतापनासेवनं यथा मुनिः करोति । ४ मेघनादे । ५ एतस्याः पूर्वोक्काया देव्याः । ६ दुःख-अअद्दीनम् । ७ इह संदेहमन्दा । co noonooooon∞∞∞∞∞∞∞ चरित्रम् सर्ग :-४ ॥१०४॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम्. | सर्गः-४ देव्यूचे मवचःपूरं कर्णपूरं कुरु स्थिरम् । कुमार! सद्गुणाधार ! मन्मनःप्रमदप्रद ! ॥ ७३ ॥ सर्वराज्याधिदेवी मां विद्धि सिद्धिप्रदां सदा । एताश्चतस्रः सैनस्य चतुरङ्गस्य देवताः ॥ ७४ ॥ (मेघनादसत्त्वपरीक्षार्थमेव एतत् देवीकृतम्-) ममात्मस्थानमासीन-देवीजिह्वाभिरागता । त्वद्दानसंभवा कीर्तिः कर्णाकर्ष चंकर्ष सा ॥७५ ॥ 18 सदैन्या-ऽदैन्यरूंपाभ्यां मृगनारी-मृगेन्द्रयोः। अयि क्षत्त्रं च सत्त्वं च वीक्षितं च परीक्षितम् ॥ ७ ॥ तव मार्गविषण्णस्य निषण्णस्य तरोस्तले । देहाद् दात्यमहं प्रापं सुदुष्प्रापं तदा यतः ॥ ७७ ॥ जना ज्ञातमहत्त्वाय प्रायः स्वमुपकुर्वते । त्वं तु मामप्यविज्ञायो-पचक्रे तद् भृशार्यते ॥ ७८ ॥ (मेघनादं सार्वभौभं करोमि-) योग्याः स्वल्पस्य राज्यस्य सेवका बहवोऽपि मे । अत्यद्भुतगुणं त्वां तु सार्वभौम करोम्यहम् ॥ ७९ ॥ इत्यूचाना प्रसन्नास्या पृष्ठेऽस्य करपङ्कजम् । निवेश्योत्थापयांचवे राज्यदेवी कुमारकम् ॥ ८० ॥ माणिक्यमणिरत्नाव्यशिरःकोटीरमध्यतः। मन्दारपुष्पं हस्तेन नीत्वा तस्मै ददौ सुरी ॥ ८१ ॥ राजसूनो ! प्रसूनेनाऽनेनाऽवश्यं वशंवदाः। भविष्यन्ति नृपाः सर्वे तमित्यूचेऽथ देवता ॥ ८२॥ (मेघनादप्रवास:--) राज्यदेवी तिरोभूता सा प्रभूताऽमरीवृता । सोऽप्यचालीदिलीऽऽलोककुतुहलरसाकुलः ॥ ८३ ॥ १ कृष्टवान् । २ मृगी सदैन्या, सिंहः-अदैन्यः । ३ तव देहाद् अहं एतादृशं दाढूध प्रापम्-अर्थात् तव देहे अहम् एतादृशं दाढ्य निरीक्षितवती-यद अन्यत्र सदर्लभम् । ४ प्रभूतीभवति । ५ सर्वभूमीश्वरम्-सर्वमुख्यम् । ६ उक्तवती । ७ अस्य मेघनादस्य पृष्ठ । ८ मन्दार:-कल्पतरूः। ९ प्रसून पुष्पम् । १. इला-भूमिः। 0000000000000000000000000000000000oodboo0000 5003000wooooooodawww000000000000000 ॥१०५॥ Jain Education national gww.jainelibrary.org 1511 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥१०६॥ ४ ८ १२ 00000000000 2040 (. विशाला नगरी - ) भूपभूर्भूतलं भ्राम्यन्-अन्यदा दानिनां नृणाम् । कुञ्जराणां च शालायां विशालायां ययौ पुरि ॥ ८४ सहेलाभिर्महेलाभिः पुरुषैः धनपूरुषैः । कन्याभिर्गुणधन्याभिः पण्डितैश्चातिमण्डितैः ॥ ८२ ॥ सशृङ्गारैर्मुदागारैर्जनैः सुकृतसज्जनैः अवेरनिःश्वैर्महसा वारणैर रिवारणैः ॥ ८६ ॥ - युग्मम् । सकौतुकां पुरीं प्रेक्ष्य किञ्चित् पप्रच्छ पौरुषम् । उत्सवैरुत्सवो लोको भद्रेह किमु दृश्यते ! ॥ ८७ ॥ ( र राजेन्द्रो राजशेखरः - ) सोऽवदत् कोर्यवानस्मि तथाऽपि शृणु कारणम् । यशोगङ्गागिरीन्द्रोऽस्ति राजेन्द्रो राजशेखरः ॥ ८८ ॥ ( हेमवती राशी, तत्पुत्री त्रैलोक्यसुन्दरी च - ) तस्य हेमवतीभार्या -कुक्षिभूताऽद्भुता सुता । त्रैलोक्यसुन्दरी नाम कामधाम महोज्ज्वलम् ॥ ८९ ॥ कैलालीको किलोद्यानं गुणहंसालिमानसम् । युर्वन्मयूरजीमूतं लज्जामृतमिति ॥ ९० ॥ राजधाम सुकामस्य सदाचारस्य वासभूः । प्रापाऽतीव निष्पापा यौवनं रूपपावनम् ॥ ९१ ॥ ( यशोमती गणिनी - तद्दत्तो महालक्ष्मीमन्त्रः - ) मातृष्वस्रा यशोमत्या गणिन्या हर्षतोऽर्पितम् । सा सस्मार महालक्ष्मीमन्त्रं स्थिरमना भृशम् ॥९२॥ प्रत्यक्षीभूय सा लक्ष्मी देवी प्राह कुमारिकाम् । मम हंसेन निर्दिष्टं वृणीष्व मण्डपे नरम् ॥ ९३ ॥ इत्युक्त्वाऽथ कुमारीं सा महालक्ष्मीस्तिरोदधे । इतश्वेमां सुतां राजा यौवनस्थां व्यलोकयत् ॥९४॥ रोधकः । १ दानिनाम्- दानरसिकानाम्, मवतां च । २ निःस्वो निर्धनः- अनिः स्वो धनाढ्यः -- अनि:श्वाः भूषणादिसहिता अश्वाः । अत्र स-शयरैक्यम् । ३ वारणो ४ पुरुष एवं पौरुषम् - पुरुषम् इत्यर्थः । ५ कार्यव्यग्रः ६ कामगृहम् । ७ समस्तम् । ८ मानसं मानससरोवरम् । ९' युवमयूर' इति भवेत् । १० हिमच तिचन्द्रः । ११ राजधानी । १२ भाषायां ' माशी 'मातुर्भगिनी-तया । १३ गणिनी - साध्वी गणस्वामिनी । 0000000002x∞∞∞∞∞∞∞∞0 चरित्रम् सर्ग :-४ ॥१०६॥ . Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक(त्रैलोक्यसुन्दरीपितुश्चिन्ता, स्वयंवरार्थ च भूपाह्वानम्-) चरित्रम्. IS चिन्ताकूपमयो भूपचित्तं तद्रूपदर्शनात् । पपात स तदाकृष्टिहेतो पानजूहवत् ॥ ९५॥ पुरीपूर्वदिशो भागे स्वयंवरणमण्डपे। समेष्यन्त्यद्य सर्वेऽपि निमन्त्रितमहीभृतः ॥ ९६ ॥ सर्गः-४ कुमारी सुप्रतीहारी मुखाद् ज्ञात्वा नवं वरम् । सप्रेममालया पुष्पमालया केलयिष्यति ॥ ९७ ॥ नवग्रहभिरत्नोद्यत्सकणे करकङ्कणे । इमे नीत्वाऽस्मि याम्यऽस्या भूषायै सिद्धिरस्तु ते ॥ ९८॥ इत्युदित्वोत्सुके याते तस्मिन् सोऽथ व्यचिन्तयत् । संमुखे करणे श्रेष्ठं शकुनं समभूद् मम ॥ ९९ ॥ (मेघनादः स्वयंवरणमण्डपं चचाल-) 8 माङ्गल्ये वचनं चैतत् भूषायै सिद्धिरस्त्विति । ततो यामीति निश्चित्य चचाल किल तद्दिशि ॥१०॥ (स्वयंवरमण्डप:-) 8 विस्फुरत्स्वर्णकलसं रणत्किङ्किणितोरणम् । मुक्तावचूलमालाभिर्मालितं शालितं ध्वजैः ॥१॥ कर्पूरपूरकस्तुरीमण्डलीमण्डितक्षितिम् । मौक्तिकस्वस्तिकाकीर्ण विस्तीर्ण तीर्णखार्णवम् ॥२॥ रमणीरमणीयं तमनणीयःश्रिया श्रितम् । मुमुदे मण्डपं दृष्ट्वा मण्डितं नरमण्डनः ॥ ३ ॥ (विशेषकम् ) (स्वयंवरागतनरपतिवर्णना-) . 8| येषां घनेषु सैन्येषु स्फूर्जदुर्जायितं रवेः। ज्वालाभिः खञ्जमालानामुद्यविद्युच्छायितम् ॥ ४॥ येषां सहीरैः कोटीरैः स्फुरत्सूर्यशतायितम् निर्मलैश्चात पत्रैश्च व्योश्नि सोमशतायितम् ॥५॥ यान सुवर्णसवर्णाङ्गान् रत्नालंकृत्यलंकृतान । राजन्यान् रोहणालीनान् चलान् स्वर्णाचला निव ॥६॥ १ चित्ताकृष्टिः-चिन्ताकूपपतितचित्तस्य आकर्षणम् । २ सूर्याद्या नव ग्रहाः । ३ अनणीयो महत् । ४ विद्युच्छतमिव आचरितम् । ५ कोटीरा मुकुटाः । ६ चन्द्रशतवद् आचरितम्। ७ रोहणाख्ये पर्वते आलीनान् । ६ ॥१०७१ 0000గారంగా OMXOLORoooomnude Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रम् 8 सर्ग:-४ पुणरीक- कुञ्जरेन्द्रसमारूढान् सिंहान् शृङ्गगतानिय । वर्षतश्च सुवर्गानि जलानि जलदानिव ॥७॥ ॥१०८॥ 8 दिशो दिशः सशतशः-तान् समेतान् नृपोतमान् । दृष्ट्वा व्यचिन्तयदहो ! स्त्रीनामाऽप्यतिमोहनम् ॥ ८॥ अत्युच्चचारुमञ्चस्था रत्नसिंहासनावलिः। तैनरेन्द्ररलंचक्रे मित्र-मन्त्रिवरावृतः ॥९॥ (मेघनादकुमारम् काऽपि देवी अवदत्-) अथो कुमारमागत्य देवी काऽप्यवद् वचः। लक्ष्म्या दत्तममुं हंसं पुग्याश्रय ! समाश्रय ॥१०॥ नृराज राजहंसस्थं कृत्वा देवी दिवं ययौ। स ध्यौ मयि साम्राज्यदेवता ममतायुता ॥ ११॥ दृष्ट्वा व्योम्नि मरालस्थं भूपा विस्मयमित्यधुः। सभालोकसमालोकपरः किं कोऽप्ययं सुरः ॥ १२ ॥ (कन्या त्रैलोक्यसुन्दरी-) ततः श्रीचन्दनालेपा सुधांशुविमलांशुका । सरत्नकोटीकोटीरप्रमुखाभरणभारिणी ॥ १३ ॥ नरयानसमारूढा शतसंख्यसखीवृता। बुद्धिपोरीप्रतीहारीनीतमालास्थलोचना ॥ १४ ॥ श्रीः पुण्याद् दानतः कीर्तिः सिद्धिर्ज्ञानाद् मतिःश्रुतात् । प्रादुरासीत् तथा सौधात् कन्या त्रैलोक्यसुन्दरी॥8 शङ्गाराम्भोधनालीव नृपचित्तसरस्ततिम् । सा तत्रोत्तरेलीचक्रे न तु तं सत्त्वसागरम् ॥ १६ ॥ कमरी सन्मुखं पाणिमुध्धृत्य वचनोद्वरी । प्रतिहारी समारेभे सुरूपं भूपवर्णनम् ॥ १७ ॥ ( काश्चनपुरीपतिनृपः अमरचन्द्रः-- ) अयि कुवलयनेत्रे! काञ्चनाया नगर्याः नृपतिरमरचन्द्रः कीर्ति-चन्द्रातपाढयः । अनुमितिविमलाङ्ग लोचनाभ्यां निपीय । त्वमसि रसचकोरि!प्राप्नुहि प्रौढहर्षम् ॥ १८ ॥ १ मेघानिव । २ मरालो-हंसः । ३ अंशुक-पच्चम् । ४ पारी पात्रविशेषः । ५ चञ्चलीचक्रे । ३ तं मेघनादम् । ७ वरवचना । 20000000000000000000 000000000000000 anmooooooooooxo00000000000000000000001 ॥१०८॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक 99999999999996 ततेन महोदधेरपि महागम्भीरमत्यदभुतं । प्रौढरष्टशतैस्तथाऽष्टसहित रम्यैश्चतुद्ध द्विारिभिः। श्रीजनप्रतिमाऽऽलिमालितमहाप्रासादराजैवृतं । पीयूषोज्ज्वलनीरपूरभरितं सारं सर: कारितम् ॥ १९॥ सर्गःद्वात्रिंशत् शतान्येव द्वात्रिंशदधिकाम्यसौ । अमबिम्बानि मिमीय निर्मायः समपूपुजत् ॥ २० ॥ (गौडभूमीमहेन्द्रः) . कवित्वस्य व्याख्यां नृपविगणना मस्तकधुतेः। अयि । कनकरथोऽयं गौडभूमीमहेन्द्रः स्ववितरणेयशोभिर्यन धूतो महेन्द्रः। गुणिगणगुणविज्ञे! ते वृणु त्वं प्रमोदात् शृणु च सुकृतगीतान्यस्य कर्णामृतानि ॥ २१ ॥ आवास्यात् शिक्षितानां सुविमलकरिणां विंशतेः पृष्ठभागे यश्च श्रीखण्डपीरतिढरचन पीठबन्धं निधाय 18 सौवण्य जैनहयं तदुपरि च चतुररम्यं सुनाव्यं । गर्जन्निस्वाननादैरखिलदलवृतो योऽकरोत् तीर्थयात्राम॥४ ( कान्तीनगरीशः पद्मः-) . [* प्रदेशन्यङ्गल्या अपि विचलनाद् वाक्यविरतौ ।। कान्तीनगयो नृप एष पन्नः साम्राज्यपद्मा स्थिरवासपद्मः ।। यः कीर्तिपत्र वनं सरोवत् व्यापत् पुनः कण्टकसंगहीनः ॥ २३ ॥ सम्यक्त्वस्य परीक्षणात् प्रमुदितेन्द्रेण दत्ताद् वराद् विश्वाजेयो विजित्य प्रतिनृपतिवरान यश्चतुष्पष्टिसंख्यान्। चक्र तेषां करस्थैः शुचिजलकलसैः स्नात्रपूर्व महात्मा ब्रह्मण्यास्थाप्य चित्तं शशिमणिविहितश्रीजिनस्य 8| प्रतिष्ठा-राजसूयाख्यमुत्सवं प्रविधाय सःसम्राट् संस्थापयामास स्वस्वराज्येषु भूपतीन॥२५॥ [प्रतिष्ठाम्॥२४॥ (प्रतिष्ठानपुरनाथो हेमचूड:--) __ [* मुखें हस्तादानात् । ऐन प्रतिष्ठानपुरस्य नार्थ श्रीहमचूड प्रथितं पृथिव्याम् शृङ्गारपूरीमृतवल्लिविश्वकल्पद्रुमालिङ्गाय कोमलाङ्गि॥२६॥४॥ * एतचिहितानि बाक्यानि त्रैलोक्यासुन्दर्यो अस्वीकारसूचकाने । १ वितरणं दानम् । २ पद्यमिदं विचित्रम् । 0500000000000000000000000 २ Oct . Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥११०॥ ४ १२ यः पूर्वं रचितस्य पत्रनिचये सौवर्ण्यवणालिभिः संलेख्य श्रुतपुस्तकान् सुयतिनां प्रादात् पितृश्रेयसे । श्रीतीशपद प्रणामकृतये देवेश्वरैरागतैः दृष्ट्वा तानतिपुण्यहृष्टहृदयैर्धूतं शिरो विस्मयात् ॥ २७ ॥ ( अन्ये नृपाः - ) [ *त्वमतिनिपुणा - इति प्रवचनात् । हेमाङ्गद-श्रीधर- पुष्पचूल वज्रायुध-स्वर्णभुजादयोऽमी । महीमहेन्द्रान् मनसा परीक्ष्य पुण्यानुमानेन लभस्व तन्वि ॥ * कुमारी न त्वेवम् - पुनरपि पुनः प्रेरयदिमाम् । इति प्रतीहारिकया प्रधानपृथ्वीभुजां वर्णनसिन्धुमध्ये । तथा कथंचिद् निहितं यथाऽस्या मनोऽतिमूढं न विवेद कन्याकर ग्रहावेश-रज्जुविश्लेषतस्तदा । नृपचित्तमहाकुम्भाः पेतुर्दुःखमहाऽवटे' ॥ ३० ॥ [ कार्यम् ॥ २९ ॥ बुडेषु बुद्धा बद्धेषु विमुखीषु सखीषु च । पुण्याद् वर इति स्वस्थे राजशेखरभूपतौ ॥ ३१ ॥ ( हंसो मेघनादमवर्णयत्- ) स्वःसुवर्णबिसाहारात् किं सुवर्ण सुकोमलम् । हंसो वाणीमतोऽभाणीत् कुमारं पृष्ठतो वहन् ॥ ३२ ॥ चक्रेशो जयदेवनामनृपतिः षट्खण्डपृथ्वीजयात् भुञ्जानो विषयान् मुदा प्रतिदिनं लक्षद्रयीसंख्यया । दत्त्वा हेम ददौ पदं स्वशयनात् भूमौ प्रियाभिर्मितान् प्रासादान् स कृती चकार सुकृती दानैकवीरस्तु यः ॥ पुत्रस्तदीयो नृपवैरसिंहो जीयाचिरं निर्मलधर्मधीरः । तदङ्गजोऽयं विजयी जगत्यां श्रीमेघनादः स्फुटकीर्तिवादः॥ विततसुकृततस्त्वयि प्रसन्ना समजनि राज्यसुरी ततस्तयाऽयम् । सकलनृपगुणैः परीक्ष्य दत्तो वृणु तदमुं मम [ पृष्ठगं कुमारम् ॥ ३५ ॥ * त्रैलोक्यसुन्दर्याः अस्वीकारसूचकीन वा यानि । १ अवटे-कूपे । चरित्रम् सर्गः -४ ॥१२०॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ অৰিম सर्गः-४ तदति परिहर प्रवृद्धचिन्तां स्वजनविषादविनाशहेतवे त्वम् । भज सुखमखसंमदं हृदन्तः कुरु मुखचन्द्ररुचा शुभां सभां त्वम् ॥ ३६ ॥ ॥११॥ तदनु तदनुरागपत्रपात्रात् नृपतनयाहृदयाम्बुजाद् विनिद्रात् । अरुणवदनहंसवामभाभिर्भमर इवाऽपगतोऽभितो विषादः ॥३७॥ अवहृषिततनूरुहा नताङ्गी स्फुरदुरुवेपथुवेपमानवस्त्रा । तरलतरुकटाक्षलोलनेत्रा नृपदुहिता सहिता (मेघनादस्य मालारोपणम्-) [ह्यनेकभावः ॥ ३८ ॥ परिमलमुदितालिगीयमाना स्वकरसराजयुगेन संगमय्य । विधिविलसितविस्मितस्य कण्ठे नृपतिसुतस्य मुदा न्यधत्त मालाम् ॥ ३९॥ तदा चहसास्यद्वारनिर्यातसौभाग्याकृष्टया तया। समं गत्वा नृपदृशः कुमारे विस्मयात् स्थिताः ॥ ४० ॥ देवीदत्तप्रसूनेऽथ भ्रामिते तद्दृशां पुरः । नीतास्तेन विशामीशास्ते विश्वेऽपि स्ववश्यताम् ॥ ४१ ॥ (लक्ष्मीदेवी अब्रवीत्-) सुप्रकाशे तदाकाशे सिंहासनसमाश्रिता । देवताभिर्युता ताभिलक्ष्मीदृष्टा ततोऽब्रवीत् ॥ ४२ ॥ 18 'हही निरहोमनसः श्रूयतां वचनं नृपाः ! । त्रिखण्डानामखण्डानामथो नाथो भवत्यसौ ॥ ४३ ॥ यतः शुचिर्दानरूचिः सुकृती च कलाकृती । तात्त्विकः सात्विकश्चैष गुणज्ञो गुणिनां गणे ॥ ४४ ॥ 18-पुरा परीक्ष्य वीक्षायां बद्धमस्य गुणद्वैः । मन्मनोऽन्यं मनोझं नो मन्यते भुवने नृपम् ॥ ४२ ॥ 18 आज्ञा मान्या ततोऽस्यैव मान्याः कुरुत. कल्पनाः। स्वामिनं स्वसमानं तन्नमतनं गतसं ॥ ४६॥ 18 -१ अखं मन-इति गम्यते । १ अंहां-पापम् । ३ पु. मनोऽन्यम् । ४-एन:-पापम् । 00000000000000000000000000000000000000000000 ए0000000000000000000OOODowcooooooooor 8॥१११॥ . Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्र ॥११ ॥ सर्गः एवमुक्त्वाऽऽसन मुक्त्वा श्रीरेत्याऽम्बरतः पुरः । नमत्सु तेषु भूते(प)षु पुण्डू चक्रे च चान्दनम् ॥ ४७॥ चतुरङ्गचमूचक्रस्वामिनीभिर्मुदा महत् । वर्धापन प्रवर्धिष्णु दिव्याक्षतभरैः कृतम् ॥ ४८ ॥ दिवि दुन्दुभयो मेदुः प्रसेदुः सकला दिशः । रसस्फीतं जगुर्गीतं देव्यो दिव्याङ्गकान्तयः ॥ ४९ ॥ अङ्गमांगानपीयूष-धाराभियोमपल्वलम् । भृतं ततोऽनृणीभूता भूमघोपैकृतेस्तदा ॥ ५० ॥ त्मिभावनया धर्मो न्यायो बुद्धया यथा तथा । स तया सप्रभो रेजे पद्मया पद्मनाभवत् ॥ ११ ॥ (कृतत्रैलोक्य-सुन्दरीपाणिग्रहणो मेघनादः प्रासादं समासदत् ) . ततश्च पञ्चशब्देषु वाद्यमानेषु निर्भरम् । स्तुवत्सु कविवृन्देषु जयवादिषु वन्दिषु ॥५॥ ददामा स्वर्णदानानि राजहंसासनोऽम्बरे । सकलः कलभारूढः प्रौढभूपतिशोभितः ॥ ५३ ॥ अंहपूविकया लोकनेत्रैः पीतप्रभामृतः । राजशेखरराजस्य प्रासादं स समासदत् ॥ ५४ ॥ मिष्टान्नैः प्राज्यपक्वान्नैः सारैः सरसभोजनैः । सुवर्ण-वज्राभरणैर्दुकूलैर्मृदुलैस्तथा ॥ ५५ ॥ महोत्सवे महीनाथान् राजा श्रीराजशेखरः । सच्चकार चमत्कारयुतचित्तोऽतिचित्रितः ॥५६॥ (यु-वि०) (मेघनादो भूमि विजेतुं चचाल-) चचाल सोऽचलां जेतुमथो राजकराजिकः । अग्रे तथा प्रतापोऽपि ग्रहरीजकराजितः ॥ १७ ॥ निस्वानैर्घननिस्वानरूजितैर्मर्जुसेंजितः । ढक्काभिर्भटहकाभिः शब्दाबैतं तदाऽभवत् ॥५८॥ 8 व्यवजहुर्जनाः कार्य हृदिस्थं हस्तसंज्ञया । तदा बाधियतोऽद्यापि ददते नोत्तरं दिशः ॥ ९ ॥ इभकुम्भस्थलस्थानि सिन्दूरपटलान्यभुः । सूरेणाऽनेन विहिता किं संध्याऽरिग्रहापहा ॥ ६० ॥ भाषायाम-वधामध्। २ मेघः, मेघनायोऽपि । ३ प्रहराजस्य करैः किरणै:-अजिसः-सतोऽपि विशिष्ट इति । ४ मर्जुः-चाटुवादी चारणः । ५ भीनां हफाररूपाभिः । 0000000000000000000000000000 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्टरोग सर्ग: यौष्माकं सुदशाचक्रं भ्रान्तमास्माकचक्रवत् । तद् यातेति रथाः शत्रून् प्रेरयन्ति स्म किं ध्वजैः ॥३१॥ सहेतयश्च सस्नेहा दुर्जया मरुता अपि । चेलुः शस्त्रपतंगानां सद्दीपा इव पत्तयः ॥ ६२ ॥ ॥११३॥ दान्ताः कृत्वाऽथ दुर्दान्तानीन्द्रियाणि सुसाधुवत् । ज्ञानीव क्रूरकर्माणि विनाश्य क्रूरचेतसः ॥ ६३ ॥ संस्थाप्य धर्मिणो राज्यप्रासादान् भूतले यथा । नीत्वा सार्थ च सद्बुद्धान् चण्डो दण्ड-धनानि च ॥६४॥ ( मेघनादः सर्व जित्वा प्रतिनिवृत्त:-) इति जित्वा दिशः सर्वाः सर्वोर्वीशसमन्वितः । प्रार्थितः स्वसुरेणाथ विशाल प्रति सोऽचलत् ॥६॥ (सरोवरम्-) इतश्च पञ्चगव्यूतिशेषे पुरपथि स्थितम् । सरोवरं नरोत्तंसः प्रेक्ष्याऽस्थात् सपरिच्छदः ॥ ६६ ॥ 18 केऽपि छायासु विश्रान्ताः प्रेन्तरश्रमपीडिताः । भव्या इव भवं भ्रान्त्वा धर्मस्थानेषु धर्मिणः॥ ६७॥ तृषातुराः पपुर्नीरं शास्त्रं प्रज्ञापरा इव । मनसीव महाज्ञानाः स्नानं तत्र व्यधुर्जनाः ॥ ६८ ॥ मन्त्रिभिः कारितं तत्र मेघनादो महत्तरम् । राजराजेश्वरो इर्षात् राजावासं समाश्रयत् ॥ ६९॥ भूमीकहारिशीर्षाणि संचूर्य यशसः कणाः । राशीकृता इवाऽनेन राज्ञा तस्थुर्गुरुदराः ॥ ७० ॥ ( वनपालविहित-उपायनवर्णना-) सिंहासने निविष्टस्य सेवितस्य नरेश्वरैः । तस्य पद्मचयश्चक्रे वनपालैरुपायनम् ॥ ७१ ।। तत्र पत्रशताकीर्णमेकं स्वर्णसरोरुहम् । स इशः स्वर्शये निन्ये नासा-नेत्रमदप्रदम् ॥ ७२ ॥ तद्घाणप्राणपीयूष गन्धं जिघ्रन्नरानमून् । व्यलोकयदिलापालो लीलाललितलोचनः ॥ ७३ ॥ १ प्रान्त दूरस्थो मार्गः । २ भूमीरुहारि:-अग्निः । ३ शया हस्तः PRODOW0000000000000000000000QecomeRCOOOOOOOO OSMOOC0000000006OOCOCOOOOOOOOOOOOOOOOOOMD689601 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक॥११॥ चरित्र 50000MON00000000000000000000000Wooo - इदं सर: केन कारितम् ?-) सरः साररसाऽऽपूर्ण किमेतत् केन कारितम् ? । अप्राक्षीद् धनपालान् सोऽवनिपालावलीवृतः ॥ ७४ ॥ सर्गः-४ ( सरोवरस्य प्रणेता-) ऊचुस्ते देवराजोऽस्य स्वसुरस्य पुरा तव । पितामहो महोयुक्तोऽभूद् मनोरथसंज्ञकः ॥ ७५ ॥ वृतं भूतचतुःशत्या द्वारैरष्टभिरेव च । सव्याऽपसव्यपक्षस्थसत्रप्रासादशोभितः ॥ ७६ ॥ धर्मकर्ममहोत्कण्ठामकुण्ठां वहता हृदि । कारितं तेन तत् ख्यातं मनोरथसरो ह्यदः ॥ ७७ ॥ सूपकारैः सुपक्वानि सत्रेवन्नानि भावतः । स सदाऽदापयद् धर्मी धर्माधिकृतमन्त्रिभिः ॥ ७८ ॥ पूर्णिमास्याममावास्यां चतुर्दश्या(म)टमीदिने । पष्ठाख्यं च चतुर्थाख्यं तपः कृत्वाऽभ्यगादिह ॥ ७९ ॥ अष्टासु जैनगेहेयु पूजामष्टविधां स्वयम् । कृत्वाऽष्टमु च सत्रषु दृष्ट। पान्थानभोजयत् ॥ ८० ॥ पारणस्य दिने स्वर्णदानं दानेश्वरो मुदा । यावद्वेदं सुपान्थेभ्यो यावजीवं स्वयं ददौ ॥ ८१ ॥ कालं कृत्वा शुभध्यानादिन्द्रसामानिकः सुरः । ईशानदेवलोकेऽभूत् स राजर्षिर्महद्धिमान् ॥ ८२ ॥ यदा नन्दीश्वरे याति ससुरस्तीर्थयात्रया। सरोवरे तदाऽत्रापि समायाति कदाचन ॥ ८३ ॥ वयं तेन सर:-सत्र-प्रासाद-तरुपालने । नियुक्ता धर्मिणो नित्यं ततो रक्षां विद्ध्महे ॥ ८४ ।। इत्युक्त्वा सरसो वृत्तं सारसान् स रसाधिपः । जगन्मान्यः स संमान्यः तुष्ट्वा दानाद् ध्यसर्जयत्॥ ८५ ॥ ततः सोऽचिन्तयच्चित्ते चित्रः पद्मे गुणोच्चयः । सौरभ्यं सौकमार्य च साधुवत् सुकुलीनता ॥ ८६ ॥ अहो! घ्राणं विनिद्राणं प्राणितोऽकारि येन मे । क्वाऽपि पत्रे स पद्मस्य गन्धो मूतोऽपि वीक्ष्यते॥८७॥ १ सव्य-अपसव्यी-दक्षिण-वामी । २ पद्मपक्ष मुकु:-मुभूमिः, तत्र लीनता । 18॥११॥ OOOOOOOAdacooMOOOOOOOOOOOOOOMNow Jain Education alational Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्दरी 0000cror00000 तेनेति पत्र विततिवितेने वितना यदा । तदा मुदाऽत्र मुद्राङ्कमेकं लेखमलोकत ॥८८॥ चरित्रम् ॥११५॥8 __(मुर्छ मेघनादः- ) 'श्रीवैरसिंहराजेन मेघनादप्रसादतः' । इति प्रेक्ष्याऽक्षरश्रेणि रसनिश्रेणिमारुहत् ॥८९॥ पितृनामावलोकेन हर्ष दुःखं वियोगतः। आत्मनिन्दामविनयात् विपापःप्राप भूमिकाम् ॥९०॥ तथाहि (मेघनादपित्रा प्रहितो लेख:-) स्वस्तिश्रीरत्नपुर्याः सुकृतकृतमतिर्भूपतिरसिंहः । क्वाऽपि स्थाने स्वपुत्रं दिशति गुणशतालंकृतं मेघनादम् ।। 8 वत्साऽनिच्छासुखं मां तव विरहभराद् राज्यभाराच खिन्नं । तर्ण भो ! भक्तिपूरामृतकलसनिभात् मोदय ? उत्कण्ठातस्ततावेशस्तातादेशस्य पत्रिकम् । इति प्रवाच्याऽनिर्वाच्यसंमदं स दधौ हृदि ॥९२॥ [स्वाङ्गसंगात् ॥४ ततो विचार-वित्तेशः स्वचित्ते स व्यचिन्तयत् । अहो! पितृगिरोऽतुच्छसवात्सल्यगिरो भृशम् ॥९३॥ यतः-8 (मेघनादगतं पितृवात्सल्यम्-).. ७ पितुर्मनोरोहणभूमिकाया अपूर्वमेतत् किल भेदकत्वम् । यत्र स्थितापुत्रकुदोषलिभजेदवश्यं गुणरत्नभावम्॥ जनकस्य तनूजा न मान्यतार्जेनकस्य च । प्राप्य शिक्षावचोऽप्येक कुप्यन्ते ते कुपुत्रकाः ॥ ९५ ॥ 18 निजभाग्यलतोद्भूतं प्रभूतापुष्पमद्भुतम् । प्राप्य यः पूजयेत् पित्रोचरणौ स नरोत्तमः ॥ ९६ ॥ ६ करकोमलितभोज्यैर्भाजने येन भोजितः । तं तातं विस्मृतं मोहाद् हा! हाऽहं स्मारितोऽक्षरैः ॥९७॥४ लोभाद् धर्म स्मराच्छीलं प्रतिपन्नमर्सत्वतः । स्नेहं च विस्मरेद् वृद्धयः स जीवेत् पुमान् कथम् ॥ ९८॥ (पुनरपि मेघनादमूर्छा-) इति दुःखभराक्रातः सोऽपतद् मूर्छया भुवि । विनयस्य मनस्थस्य गुरोः शिक्षाहतेरिव ॥ १ऐच्छिकमुखहीनम् । १ ततो विस्तारयुतः-आवेशो यस्य । ३ गिरन्ति इति-गिरः । ४ मान्यतया जनकस्य गुरोः । ५ ये तनूजा जनकस्य ४ | मान्यताजनकविशेषणवि शिष्टम्य शिक्षाववः प्राप्य कुप्यन्ते ते न तनूजाः, किन्तु कुपुत्रका एव-इति ज्ञायते । ६ असत्वतो निर्बलत्वेन, प्रतिपन्नं शरणागतम् । ७ वृद्धेः-धन-धान्य राज्य-सुखादिवृद्धः । ८ विनयरूपोऽत्र गुरुः । 8 ॥११॥ 000000000000000000ORococcor -O0 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥११६॥ 200000000000000000000000000000000000050000WOOOr ( तदुपचार:-) बस्किए. श्रीमेघनादं राजेन्द्र स राजा राजशेखरः। समुपाचीचरञ्चारुविधेः स सविधस्थितः ॥ २०० ॥ ततश्चसिञ्चन्ति स्म जलं केचित् मुश्चन्ति स्माऽम्वुजानि के। समीरमीरयन्ति स्म केऽस्मिन् विस्मितदुःखिताः ॥१॥ ४ सर्गः-४ मसृणैघुसणैश्चारु चन्दनैरङ्गवन्दनः। तस्याऽवशा विवशता लेपितैर्न व्यलोपि तैः ॥ २ ॥ उपचाराः कृताः सर्वे तस्मिन्न परिचक्रमुः । पटूनि वाऽथ चाटूनि हितान्यज्ञे जने यथा ॥ ३ ॥ विद्यावैशद्यहृद्यैस्तैवैद्यैर्देहेऽस्य वीक्षिते । नात्मा लक्षयते लक्ष्यं तदक्षाः प्रवदन्ति तम् ॥ ४ ॥ ( मूर्छानाशे वैद्यानामपि वैफल्यम्-) तस्याङ्गारोग्यसाध्यं ते मत्वाऽसाध्यं विचक्षणाः । क्षणाद् वैद्या ययुटुःखात् श्राद्धहीना इव द्विजाः ॥५॥ ( शोकक्षण:-) एवं जाते महोत्पाते ह्यापाते दुःखवैरिणः । लुलुठः केऽपि भूपीठे त प्रहारहता इव ॥६॥ कस्मादकस्मादस्माकं पश्यतां नय दुर्नय!। राजेन्द्रं यमराजेति महीशा मुमुहुर्मुहुः ॥७॥ आजन्माराधिते! बुद्ध! सा काऽपि प्रकटा भव । जयी त्वयाऽयं जायेत सचिवा इत्यचिन्तयन् ॥ ८॥ गरीयसां गुणानां क्व स्थानमेनं विना भुवि । शात्रवैरपि तत्थं दुःखांचक्रे चिरं चरैः ॥९॥ __(त्रैलोक्यसुन्दरीशोकः-) अथाऽग्रमहिषी तस्य देवी त्रैलोक्यसुन्दरी । बहशोकमलं गाढं तुमलं बहुशोऽशृणोत् ॥ विदुषी सा सखीमेवमवादीत् तां प्रियंवदाम् । दुःखगुरुचीरोहान्दः कः शब्दः श्रूयते सखि! ॥ ११ ॥ अनाकर्येव तत् सोचे तदीयं वलयद्वयम् । स्पृशम्ती निजहस्तेन स्फारयन्ती स्वलोचने ॥ १२॥ प्राप्याऽपि पाणिकमलं तव स्थानमदोऽद्भुतम् । किं कङ्कले गतच्छाये इव त्रैलोक्यसुन्दरि! १३ ॥ १ तैस्तलेपितः तस्य मेवनादस्य विवशता न न्यलोपि । २ द्विजानां श्राद्धं हि प्रियम्-यतो मोदकप्राप्तिः । ३ कोलाहलम् । ४ गुरूची-भाषायाम्-' गळो' ११॥ OOOOOLondoouraoooooooooooooooo0OOOOOVook SO00000 w.jainelibrary.org Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम् । ॥११७॥ OoOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO सोचे भवा नवैः स्वर्णरित्यक्ते विवादिनी । ध्यौ भाव्यऽशुभं किञ्चित् नववाक्याद् विलस्यते ॥१४॥ हा! हित्वाऽस्मान् कथं स्वामिन् ! यासि लोकान्तरं स्वयम् । इत्युच्चै रुदितं श्रुत्वा दध्यौ त्रैलोक्यसुन्दरी॥१५॥ स्वामिचामरधारिण्यौ विमला-कमलाभिधौ । कथं चक्रन्दतुः सेति समुत्तस्थौ समुत्सुका ॥ १६ ॥ संभ्रान्ता सा तता यान्ती त्रुटितात् सारहारतः । चिक्षेप मौक्तिकश्रेणीं पुण्यवीजमिव क्षितौ ॥ १७ ॥ 'प्रियंवदादयः सख्यश्चेलुरलक्त-काङ्कण(न)म् (१) । कुर्वन्त्य इवाऽसौख्यस्याऽऽग व्छतोऽनुपदं मुदे ॥१८॥ (त्रैलोक्यसुन्दरी-मूर्छा-विलापौ) ततः प्रेक्ष्याऽतिदुष्प्रैश्यामवस्थां भर्तुरात्मनः । वियोगोष्णतुसंतप्ता पद्मिनी साऽपतद् भुवि ॥ १९ ॥ सखीशीतापचारः साग मूर्छाऽगच्छत् तदङ्गतः । ज्वलहियोगज्वलनज्वलज्जालभयादिव ॥ २० ॥ यद्वियोगव्यथामन्था ममाथाऽत्या मनोऽम्बुधिम् । दुःखक्षाराम्बुयुग्वाणीमणीश्रेणी तदुद्ययौ ॥ २१ ॥ आश्वस्य स्वामिनः स्वस्योन्नमय्यास्यमथाऽब्रवीत् । ब्रूहि नाथ ! यतो नाऽथ करिष्ये विप्रियं प्रिय ! ॥२२॥ वाक्यं देहि दृशं देहि स्मितं वा देहि वल्लभ । एकेनाऽप्येषु दत्तेन जीवाम्येषाऽन्यथा कथम् ? ॥२३ ॥ श्यामास्यताऽक्षिसंकोचो मानाद् मौनं चिरं कृतम् । स्नेहं हन्ति त्वयेत्युक्तं मयि स्मर भृतास्मर ! ॥२४॥ शत्रणामपि नम्राणां त्वं प्रसादपरः सदा । मयि नाऽसि कथं मानादपनानमनुस्मरन् ॥ २५ ॥ यावदेवमपि प्रोक्ते न रेजे च ततस्तया । व्यचिन्ति स्वगतं धर्मवाक्यादेष वदिष्यति ॥ २६ ॥ प्रोचे प्राणेश! मध्याह्नस्वपनं न वरं बहु । उत्तिष्ठाऽमी निविष्टा हि विद्वांसो वचनेच्छवः ॥ २७ ॥ स्वहानयशसाऽऽनीता द्वारे सन्त्यर्थिनोऽर्थिनः । दान प्रिय ! प्रियं दानं तेभ्यो देहि मुदे हि मे ॥ २४ ॥ - १ न गम्यतेऽस्य भावः । २ स्मृति. नय. । Jain Education Leational w niainelibrary.org Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्या-8 सायंतनी जिमे पूजा भूजाने! क्रियतां त्वया । त्वं पूजापुण्यतः कालं. त्रिकालमपि वनसे. ॥ २९ ॥.. तदचोऽनाप्य साऽमूर्छन् मूर्छयन्ती सभासदः। सखीभिः शिक्षिताऽरोदी रोदयन्तीय रोदसी ॥ (त्रैलोक्यसुन्दरी परकोकायाणाय प्रोत्तस्थौ-) परासुतं परिज्ञाय प्राणनाथं महासती । परलोकप्रयाणाय प्रोत्तस्थी सुस्थिरा तदा ॥ ३१ ॥ (तदकरणाय अन्येषाम् उपरोध:-) सतां सद्वाक्यसंबोधम्-उपरोधं महीभृताम् । नाऽमस्त शस्तशास्त्रार्थानुक्त्वा विनयवाक्यतः ॥ ३२ 8) विश्वानिःस्वामिकाच्छ्न्याद् बिभ्यती वाऽमुना समम् । निजालीषु नृपालीषु साऽचालीद् दुःखितास्वथ ॥३३॥ 8 (प्रयंवदा प्रोचे-) तदा प्रियंवदा प्रोचे पृथ्विपत्नीयुतः पतिः। याति ते किं ततोऽस्वस्था ज्ञातं वाऽसि रजोमयी.18 लोकाः कुलबलं भूपाः हदलं मुनयस्तदा । सुस्नेहबलमित्याह र्वक्ष सर्व तु साहसे ॥ ३५ ॥ (सर्वेषां विस्मयः-) प्रजापाश्च जापाश्च प्रजाः सर्वाश्च विस्मिताः। भवामोहेन सत्त्वेन तस्या रूपेण च क्रमात् ॥ (चिता-) रचित्तायां चितायां सा दध्यौ-श्रीचन्दनादयः । स्पर्शस्नेहात् समं तस्थुर्भूभुजाऽन्न हविर्भुजि ॥8 (त्रैलोक्यसुन्दरीजननी दुःखिनी--) सिनी जननी सोचे किं दुःखायस्व मानसे । विवाह इच मन्येऽग्निमद्याऽम्ब! पतिपार्थमा ॥ ३ ( जीवन्ती दम्पती--) इत्युक्त्वा ल्यक्तहत्करपा यावज्झम्पामदासो। जीवन्ती दम्पती तावद् ष्टो सिंहासने जनैः ॥ ३९॥ एष धन्यः पितुर्भक्तो धन्यैषाऽतिपतिव्रता । स्तुवन्तो दहशुश्चैवं सुरं लोकाः पुरस्सरम् ॥ ४०॥ मीपते ! । २ परामुख-गतप्राणम् । ३ प्रकर्षण जायसाहिता इति । ఉంటుందియుండలేదయం Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ET ॥१९॥ सर्ग:-४ जनास्यानि तदा रेजुरश्रुभिश्च स्मितांशुभिः । चन्द्राश्ममण्डलानीव पूर्णिमा स्यानिशात्यये ॥१॥ रजा दध्यो स लेखः क्व किं देवीह ममासने । जातपोषितशोकः किं दृश्यते हर्षितो जनः॥४२॥ सलो व्यचिन्तयद्देवी क्वेदमीहक कुतूहलम् । क्व सा विलोपवैभागादहो। चित्रीयते भवः । ४३ ॥ (चिद् देकर) तं देवं नरदेवोऽथ सस्मितं विस्मितस्तदा। दिव्य सिंहासनं त्यक्त्वा नत्वाऽपृछत् कुतूहलम् ॥ देखो वाचमुवाच द्राग चरित्रं शृणु भूपते! । ईशानस्वगिणं विद्धि मां मनोरथभूमिपम् ॥ ४॥ (मेघनादजवक-देवयोः संगमः, संल पश्च-) आगरखन् स्वर्गतोऽद्राक्षमहं रत्नपुरेश्वरम् । गवाक्षे दुःखिनं लेखलेखिनं भूविलेखिनेम् ॥ ४३ ॥ हो परोक्कृतिलोभेन दुःखक्षाभेण तस्य च । प्रेरितः पार्श्वमेत्याऽहमपृच्छमसुखं नृपम् ॥ ४७ ॥ वैरसिंहनृपः प्रोचे प्रमृज्य निजलोचने । गीर्वाण ! शृणु मे वाणीमन्तर्वाणिगणाग्रणीः ॥ ४०॥ सुमो गुणयुतो देव ! भूविभूषणमद्भुतः। ययौ देशान्तरे क्वाऽपि मया प्रापि पुनः स न ॥४९॥ अध द्वादश वर्षाणि पश्यतः स्वस्त्यशैः (१) सुतम् । जग्मुर्वातास्तु नाऽऽजग्मुस्तस्य प्रीतिपदा मम ॥ यतःभृशायतेऽन्वहं धर्मः स्वजनश्च सुखायते । वंशः शस्तायते येन को वाञ्छति न तं सुतम् ॥२१॥ देवीदत्तमसादोऽयं खण्डत्रितयनायकः। यः श्रूयते स मे पुत्रो नामसाम्येन भूतले ॥२२॥ व्यामोहमेघसंपूर्ण प्रावड़वद् यौवनं ययौ। शरद्वद् वार्धके हंसकाशं संस्मराम्यहम् ॥५३॥ सुरमचर! चेल्लेखममुमाप्य ममैति सः। तस्य न्यस्य महीमसे' मुनीन् सेवे स्वमुक्तये ॥५४॥ १ भुवं विलिखति-इति । २ अन्तर्वाणिः-पण्डितः । ३ न अवगतम् । ४ हंसतुल्यं पुत्रम् । ५ तस्य अंसे स्कन्धे महीं भूमिमू-राज्यं न्यस्य मुनीन् 0 00000ठन्टर688600000000000 Jain Education n ational ainelibrary.org Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रहरी ॥१२॥ -४ प्रोच्येति स शुचिर्वाचं तस्थौ प्रोचे मया ततः। लेखं 'स्थापय मत्पाणी हर्षे स्वं मानसं नृप ! ॥ ५५ ॥ त्वत्पुत्रं मेलयिष्यामि खेलयिष्यामि ते मनः । तत्रेत्युक्त्वा गृहीत्वाऽहमागच्छं स्वसरोवरे ॥ ५६ ॥ (देवकृता मेघनाद-परीक्षा-) सैन्यावासांस्तव प्रेक्ष्य चित्तेऽचिन्ति मया ततः। परीक्षेऽहं पितुर्भक्तिमस्मिन् विश्वेश्वर स्थिराम् ॥ ५७॥ 18 एष लेखस्ततोऽक्षेपि छद्मना पद्मनाल के । ततो मूर्छा मया प्रेक्ष्य विस्मृतं विनयात् तव ॥ ५८ ॥ मम पौत्रस्य पुत्रीति ज्ञात्वा त्वन्मूर्छया ततः। पतिव्रताव्रतस्थैर्य प्रस्याः सत्या मयेक्षितम् ॥ ५९॥ यतः दानवान् धनवान् श्रेयान् विद्यावान् बलवान् पुमान् । पितृ-प्रातृ-गुरुम्वेषु विनयेनैव राजते ॥३०॥ ४ चातुर्यमार्जवं रूपं कलासु किल कौशलम् । पतिव्रताव्रतेनैव कुलवध्वाः सुशोभते ॥३१॥ अत: (दवस्तुटः-) तुष्टस्त्वयि पितुर्भक्त्या हृष्टोऽस्या भर्तृभक्तितः। आचष्व तद् वरं राजन् ! पुत्रि! त्वमपि सत्वरम् ॥४ अमरो विररामैवमुक्त्वा तावूचतुस्ततः । नास्ति वाञ्छ। तवाऽऽलोकादावयोस्तुष्टभावयोः ॥३३॥ ( देवदत्ता विद्या, प्रतिमा च-) श्रीमेघनादराजस्थाऽनिच्छतोऽप्यमरोत्तमः। आकाशयानविद्यायाः कर्णे मन्त्रमदात् तदा ॥ ६४॥ विद्ययं विद्यमाना न प्रकाश्या कस्यचित् पुरः । सुरः शिक्षा प्रदायेति प्रोचे त्रैलोक्यसुन्दरीम् ॥६५॥ देवाधिदेवप्रतिमा गुणैरप्रतिमा त्वया । इयं सति ! सुते! पूज्या भक्त्या चित्तस्य नित्यशः ॥ ६६ ॥ वत्से ! चित्तेऽथ किंचित् तेऽसाध्यं साध्यं भवेत् तदा । स्मर्तव्य एव देवोऽहं समेष्यामि क्षणादिह ॥६७॥ । (देवो गतः-) अहो! महाप्रसादोऽयं तयेत्युक्ते कृतेऽञ्जलौ। दिवं विद्योतयन् देवो महेसा सहसाऽगमत् ॥६॥ १ तेजसा । SOOROOOOOOOOKKORo00000000000000000000 MAar AMOSANNONO3 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक 2200000 ॥१२॥ BoooooooooAS 000000000000000000000000000 देवाधिदेवस्य तदा स्वर्णसमुद्गके । संस्थाप्याऽऽरोहयत् पढगज भूपो निजं मुदा ॥ ६९॥ (तातदर्शनाय अचलद् मेघनादः-). द्विविधात्मबले नैष द्विधा भूमिधरो धरीन् । चालयनचलापालोऽचलन्निश्चलमानसः ॥ ७० ॥ तातदर्शनपीयूषभोज्यं द्वादशवार्षिकम् । बुभुक्षुभ्यां स्वचक्षुभ्या दृष्टं तेन रजः पुरः ॥ ७१ ॥ प्रेक्ष्यान्तरिक्षे तडूलीमण्डलं मण्डलाधिपान् । निजान प्रेषीत् परिज्ञानहेतवे वेगतो नृपः ॥ ७२ । गत्वा ज्ञात्वा समाग य तं प्रणत्य प्रहर्षिताः । याचमानास्तुष्टिदानं तेऽय भूपं व्यजिज्ञपन् ॥ ७३ ॥ (मेघनादपिता रसिंहो मेघनादं समभ्यति--) श्रीवैरसिंहभूपस्य स सुरस्त्वरिपतुः पुरः । स्वरूपं सकलं स्व भिन् हर्षतोऽकथयत् पुरा ॥ ७४ ॥ ततस्त्वन्मिलनोत्कण्ठामकुण्ठा मनसा वहन् । देव! तातस्तवाऽभ्येति देवतांतः कृतागमः ॥ ७ ॥ इति वाक्यसुध प्रीतो कौँ तस्याऽवगम्य च । संरम्भाल्लोचने मोढे तृप्तयेऽथ प्रसस्रतुः ॥ ७ ॥ (मेघनादो तातं ददर्श, प्रणनाम च--). मेघनादोऽथ सानन्दः प्रकुल्लाक्षो विलोकते । यावत् तावत् पुरस्तात् तं हर्षात् लातं ददर्श सः ॥ ७७ ॥8 तदा सर्व सहायं स विहाय सहसा हयम् । प्रलुठन् प्रणनामैष पदपङ्केरुहे पितुः ॥ ७८ ॥ अकस्मात् पुत्रसंस्पर्शात् पित्रा प्रीतेन मुक्तयोः । हर्षाऽश्रुकणयोः पृष्टे हृष्टे (1) पर्यस्तयोस्तयोः ॥७९॥ (प्रीतः पिता-) पिताऽपि तापितःस्वङ्गे स्वङ्गजं संगमय्य सः।प्र.प प्रीतिं परां काञ्चित् वेत्तियां तन्मनोमनाक॥ (मेघनादनगरप्रवेश:-) स्वाङ्गजं गजमारोप्य जनको जनकोटिभिः ।परीतः स्वपुरीमध्ये शुभे प्रावीविशद दिने ॥८॥ सहाऽस्माभिः कृता क्रीडाऽनेन ब्रीडाऽपि ना कृता । तत्र क्षत्रियपुत्राः के व.वैदूकास्तदाऽवदन ॥ ८२ ॥ समुदगको मन्जूषाविशेषः-भाषायां । डाबडो ' इति । २ विद्याबलेन, सैन्यबलेन च । ३ धरान् महीधरान् नृपान् अथवा अकारसंश्लेषे अपरान् अन्यान् सर्वान् । ४ देवसहायतः। ५ संदिग्धमेतत् । ६ वाचालाः । Jain Education In tional urw.sanelibrary.org Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥१२२॥ ४ ८ १२ Convok लक्ष्मीलthorita स्वर्णपिण्डानदा दसौ । मेघनादः स एवेति जगदुर्मागधा गिरम् ॥ ८३ ॥ उत्सङ्गेऽस्माकमेतेन बालेन क्रीडितं चिरम् । वृद्धा धात्र्य इति प्रोच्य स्वचित्तेऽन्वभवन् मुदम् ॥ ८४ ॥ मङ्गानि वृन्दाद् आशीर्वादान् गुस्वजत् । उपायनान्यभीष्टेभ्यो गृह्णन् प्रीतिवचो जनात् ॥ ८५ ॥ ईक्षणे प्रेक्षष्वर्थिजने जाम्बुनदोच्चयम् । ग्रामग्रामं कवीन्द्रेभ्योऽगच्छद् यच्छन् पुरान्तरम् ॥८६॥ ( युग्मम्) ( मेघनादपितृभक्ति:-) सौधान्तर्वैर सिंहोऽय स्वासने संनिवेशयन् । जगदे मेघनादेन नत्वा कृत्वाऽञ्जलिं पुरः ॥ ८७ ॥ तात ! सर्वाणि सौख्यानि विना त्वत्पादसेवनम् । न रोचन्ते यथा प्रौढमोदका हीनशर्कराः ॥ ८८ ॥ यतः - पितस्तवः पत्यमाधिपत्यं यदाऽऽप्नुवम् । हेतुस्त्वं तत्र पुण्यस्य गन्धे मूलं यथा तरोः ॥ ८९ ॥ एवं विनयतः पाद- पीठेऽथ निविशन् पितुः । स चमत्कारयांचक्रे सद्भक्तीनपि भूपतीन् ॥ ९० ॥ ( प्रसन्नः पिता - ) अथ द्वादशवर्षेभ्यः स्वसुतस्य समागमात्। प्रीतः स्वजनवर्गेभ्यो राजा भोज्यमदाद् मुदा ॥९१॥ ( मेघनादे राज्यभारः, वैरसिंहतग्रहणं च - ) ततोsवादीत् सुतं पुत्र ! नय राज्यं नयस्थिरः । भोगेषु गतनिर्बन्धोऽनिर्बन्धो यास्य (म्य) तः शिवम् ॥ ९२ ॥ अनिच्छतोऽपि पुत्रस्य दत्त्वा राज्यं नरोत्तमः । चक्रेश्वरगुरोः पार्श्वे साग्रहः सोऽग्रहीद् व्रतम् ॥ ९३ ॥ वैरसिंहं विनेशं हि कथं स्यामिति दुःखिनीम् । गोत्रवृद्धां भुवं भूपः सहसा स शशास तत् ॥ ९४ ॥ (मेघनादप्रवृत्तिः ) प्रातर्मध्यंदिने सायं पूजयित्वा जिनेश्वरम् | अदात् सदा स दानेशः स्वर्णकोटित्रिकं मुदा ॥ ९५ ॥ ( मेघनादो नन्दीश्वरद्वीपं ययौ -- ) देव्या त्रैलोक्यसुन्दर्या युतः शय्यागतोऽन्यदा । जागरूकोऽम्बरे रात्रौ किञ्चित् तेजो ददर्श सः ॥ ९३ ॥ १ सुवर्णोच्चयम् । २ ग्रामसमूहम् । ३ शर्करा - भाषायाम् ' साकर' इति । ४ हे पितः ! अहं तव अपत्यं यद् आधिपत्यं प्राप्नुवम् इति । ५ अत्र निविशमानः इति युक्तम्- निपूर्वस्य विश: आत्मनेपदित्वात् । .000000 चरित्रम्. सर्गः - ४ ॥१२२॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम् ॥१२३॥ 1000wooooooooo000000000000 तदालोकविलोकाय प्रोत्थितोऽपि व्यलोकयत् । प्रधानानि विमानानि वृन्दारकभृतानि च ॥ ९७ ॥ स देवविद्ययाऽचालीदम्बरे संवृताम्बरः। मिलित्वा सह तैरेकमप्राक्षीत् क्व प्रयास्यथ ॥ ९८ ॥ ४ सर्गः-४ वाणीमवाणीद् गीर्वाणः शृणु नन्दीश्वरे वरे । सुराः शाश्वततीर्थेश-प्रणामाय प्रयान्त्यहो!॥ ९९ ॥ कुतुकिन् ! कौतुकाचेत्थं समायासि मया सह । सुप्रतिष्ठस्ततस्तिष्ठ विमाने मन्मनोमुदे ॥३०॥ देवसन्माननादेवमासीनः स तदासने । ययौ नन्दीश्वरद्वीपसमीपममरेः समम् ॥ १ ॥ ( नन्दीश्वरगतो जिनदेवप्रासाद:-) सुध सधर्मसंगीतं कुर्वतीचमरीष्वथ । खे विमुच्य विमानानि देवाः प्रासादमासदन ॥२॥ ( देवकृता जिनपूजा-) तीर्थाम्भाकलसैः स्नानं दिव्यपुष्पैश्च पूजनम् । धनुःपञ्चशतोन्मान मूर्तीनां विदधुः सुराः॥३॥ अथो इन्द्राश्चतुष्षष्टिस्तुष्टियुक्ता विवेकतः । जिनस्याऽऽरात्रिकं कर्तुमस्मै राज्ञे तदा ददुः ॥ ४ ॥ (हेमशेखरः केवली-) जिनमूर्तीनमस्कृत्य पुरस्कृत्य नृपं सुरः। हेमशेखरनामानं नेमुः केवलिनं जिनम् ॥ ५॥ श्रोतुं चित्तप्रविष्टेषु निविष्टेषु च तेव्वय । दिदेश देशनां साधुः कृतधर्मनिवेशनम् ॥ ६॥ तथाहि ( केवलिकृता यात्रादेशना-) सकलसुमनसा या पावनी भावनीरः प्रभवति सुकृताः सद्विवेकाब्जयुक्ता। भवमपि तमतीत्य प्रक्रमेत् स्वर्नदीव सुकृतिभिरिति साऽत्राऽऽरभ्यतां तीर्थयात्रा ॥ ७ ॥ भवभिः पूर्णिमा-चैत्रीमहापर्व सुपर्वभिः । विहाय विषयासंगं वर्त यं सकलं सदा ॥ ८ ॥ एवं सुधर्मवचनैः प्रस्तावौचित्यसंयुतः । देवान् प्रमुदितान् श्रुत्वा मौनमाप महामुनिः ॥ ९ ॥ ( केवलिने इन्द्रप्रश्न:-) १ वृन्दारका देवाः । २ सुमनसो देवाः, सुपुरुषाश्च । Gooooooooooooo०००० . Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीका ॥१२४॥ सौधर्मेन्द्रो वचोऽवोचत् भगवन् ! भरतनामनि । मम क्षेत्रे महातीर्थ किञ्चिद भावि कदापि किम् ? ॥ १० । (केवलिप्रतिवच:-) आविरासीद् मुनेरास्यात् सोत्सुकेव सरस्वती।मा कार्कीर्मानसं स्वीयं दुःखावासं हि वासवः ॥ सर्ग:-१ यतः-(शत्रुजयगिरिः, तद्वर्णना च) पश्चाशत्योजनी मूले तुङ्गवे चाटयोजनी । यस्याऽस्ति शिखरावासो दशयोजनसंमितः ॥ १२ ॥ शत्रुजयगिरिः सोऽयं प्रसिद्धः सिद्धिदायकः । सिद्धान्तेऽनन्ततीर्थशैव्याख्यातः श्रूयते पुरा ॥ १३ ॥ यद् ब्रह्मचर्येग तपोयुतेन धनेन कालेन किलाऽन्यतीर्थे । एकोपवासेन तन्त्र जीवा शत्रुजये सिद्धगिरी लभन्ते। राजानश्चक्रिणश्चाथ मुनिराजा अनन्तशः। सिद्धाः सिद्धिं गमिष्यन्ति पुरा पश्च दपि ध्रुवम् ॥ १५ ॥ श्रीमद्युगादितीर्थेशतीर्थे सिद्ध गिरे भृशम् । आविर्भावी प्रभावोऽस्य सुखितो भव वासव! ॥ १६ ॥ ( सुराः, मेघनादश्च ययुः--) इति श्रुत्वा मुनिं नत्वा कृत्वा चित्तं निजं स्थिरम् । सौधर्मेन्द्रस्तथाऽन्येऽपि स्वस्वस्वर्ग सुरा ययुः ॥१७॥8| ( केवली ययौ ) देवयुक्तोऽथ राजाऽयमगमत् स्वपुराय च । विद्याधरमुनिश्चैष केवली खेऽन्यतो ययौ ॥१८॥8 १२ स्थाने तस्मिन् नृपं मुक्त्वा स्वर्ग सोऽगात् सुरोत्तमः । सन्तो यतो दृढस्नेहात् कार्यदीपप्रवृद्धिदाः ॥ १९॥४॥ नृपः प्राणप्रियाः प्रोचे दयिते ! किं नु रोदिषि?। ममीक्ष्य स्वामिन सेत्थमुगिरति स्म मुगिरम् ॥२०॥ (त्रैलोक्यसुन्दर्या 'त्र गतं भवता ' इति पृष्टम्--) विहाय मामिह स्वामिन् ! रजनार्वजनावनौ । केन किं संगतं क्वाऽपि गतं युष्माभिरुत्सुकैः ॥ २१ ॥8 ( तदनुत्तरम्, गमनापलापश्च--) १ सौराष्ट्र वर्तमान प्रसिद्ध तीर्थम् । २ इन्द्र ! । ३ अजनावनौ-जनरहित भूमी-एकान्ते इति । १७॥ 0000000000000000000ळmoolor ONOMDOOOOOOOOOOOOOC00000000000000000MONOR 00000000000000 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमने गमनं देव-शिक्षातः स्थगयनिजम् । सस्नेहोऽपि स दक्षोऽपि स्वकर्मप्रेरितोऽवदत् ॥ २२ ॥ ॥१२५॥ लोकेऽस्मिन् लोलचित्तानां लोलाक्षीणा पुरो नर: । गुह्यवार्तास्तु नैवाऽऽतों अपि प्रकटयन्ति ते॥२३॥ लीलया निर्विचाराऽसावित्युक्त्वा कठिनं वचः । सभामभासयद् गत्वा राजा राजासनश्रितः॥ १४ ॥ (अत एव स्नेहभान त्रैलोक्यसुन्दर्या वैराग्यम् - ) मियाऽऽस्यादप्यदः श्रुत्वा सादध्यौ भुवि नाऽङ्गिनाम् । स्नेहो देहोऽथ नाऽहोऽपि-कल्पनातो ध्रुवोचवमा 8 भासिनीत्युन्मनीभूय जातभूयस्तराऽतिः । विश्वं विनश्वरं विश्वमवश्यं सा व्यभावयत् ॥ २६ ॥ (देवसांनिध्यम्-) पितुः पितामहं देवं तं मनोरथसंज्ञकम् । सस्मार हतशं-सारं संसारं हातुमुत्सुका ॥२७॥ सुरः प्रादुरभूत् भूतप्रभूतप्रमदस्ततः । उवाच वत्से ! किं धत्से कार्य कर्तु सुचेतसा ॥ २८ ॥ तं निजं पूर्वज प्रेस सा जगाद सगद्गदम् । समीरे सुगुरोर्मी (वं गृहाण सुर! सत्वरम् ॥ २९ ॥ कर्मणो हि प्रधानत्वम्-इति विद्वेववर्जिता। अनित्यः सर्वसंसारः स्नेहहीनाऽहमस्मि तत् ॥३०॥ समग्रस्वजनस्नेह-बन्धनिर्मुक्तमानसाम् । कृस्वा प्रसादं मां तात! गृहाण गुरुसंनिधौ ॥ ३१ ॥ भव्य भावं विभाव्याऽस्या ज्ञानादथ सुरोतमः। प्रीतः पुत्रीचरित्रेण सोऽवदद् वदतां वरः ॥ ३२ ॥ (मेघनादपिता केवली, तत्समीपे गता त्रैलोक्यसुन्दरी-) 2 वत्से ! श्रीवैरसिंहस्य राजर्षेः सुतपस्यतः । अद्यैव केवलज्ञानम्-अपुनर्भूत्वभूरभूत् ॥ ३३ ॥ ( काश्चनपर्वते केवली-) १ अपलपन् । २ दुःखिता आपि। ३ कल्पनातो धुवः स्नेहः, देहोऽपि अहरपि दिवसमपि न ध्रुवो ध्रुवम् । पुस्तके तु ' नेहोऽपि स्वल्पानतो' इति पाठः । ४ जाता भूयस्तरा अरतिर्यस्याः सा । ५ विश्वं समग्रम् । ६ शं सुखम, सारस्तु प्रतीतः-तौ हतौ यस्मिन्-तं हतश-स रम्-संसारम् । SOOOOOOOOOOOODooooooooo Conmooooooooooo oroinwRORNA For Private & Personal use only . Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक॥१२६॥ 0000000 Sr.c00000000000000000000 कमलासनमासीनः सोऽस्ति काश्चनपर्वते । प्रयान्तः सन्ति देवेन्द्राः सुते! तस्य महेऽद्भुते ॥ ३४ ॥ यद्यस्ति परलोकेच्छा मुक्तच्छायाः सुतेऽय ते । गेहान्निसर तत् पाप-पयोधि प्रतर त्वर ॥ ३२ ॥ : ( तत्र गता त्रैलोक सुन्दरी-) इत्युक्त्वा च ततो नीत्वा देवीं त्रैलोक्यसुन्दरीम् । ययौ काश्चनशैले.ऽथ तया सह ननाम तम् ॥३६॥ (वैरसिंहकेवलि-देशना-) निविष्टेषु सुरेष्वग्रे वैरसिंहो महामुनिः । सदुःखां स्वस्नुषां वीक्ष्य सवैराग्यं वचोऽब्रवीत् ॥३७ ॥४ ( त्रैलोक्यसुन्दर्या वतयाचना-तस्या दीक्षा च-) निशम्य शमसंपूर्ण शमिनोऽस्य मुनेवचः । चतुर्गतिभवोच्छित्त्यै ययाचे चतुरा व्रतम् ॥ ३८ ॥ मा कार्षीभवनिबन्धसेवमुक्त्वा मुनीश्वरः । दीक्षां ददौ स दक्षायाः समक्ष सर्वसंसदः ॥ ३९ ॥ प्रवज्यां प्राप्य संतुष्टा मनःसंवेगवेगतः । सा समादाय संन्यासं वारिताऽपि सुपर्वभिः ॥ ४० ॥ (प्रियां बिना दुःखितो मेघनादः -) राजा श्रीमेघनादोऽथ प्रियामेप्रक्ष्य दुःखितः । केनाऽप्यऽपहृतामिति राज्यदेवीमतोऽस्मरत् ॥ ४१ ॥ (गज्यदेवीसांनिध्यम्--) उपवासत्रयप्रान्ते साऽऽविर्भूताऽवदद् वचः । निस्नेहवचसा ते सा साते सानुशयाऽभवत् ॥ ४२ ॥ ततः स्मृतेन देवेन नीता सदगुरुसंनिधौ । दीक्षां नीत्वाऽद्य संन्यासं सा जग्राह महाग्रहा ॥ ४३ ॥ ( मेघनादो यया के अनपर्वते-) निशम्येति नृपो राज्ये निवेश्य निजगोत्रिणम् । सह राज्यसुरी नीत्वा ययौ काश्चनपर्वते ॥४४॥ १ महः-उत्सवः । २ मुक्ता इच्छा यया-तस्याः। ३ त्वरां कुरु । ४ देवैः। ५ सा ते तब, साते सुखे सानुशया सपश्चात्तापा। ॥१२॥ SaroCooooooo00000 For Private & Personal use only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ peoppoorn000000000000000000000000000ww 30 (मेषनावप्रश्न:-) वैरसिंहमुनि नत्वा सुरसंसदि सोऽवदत् । पतिभक्तिपरित्यागात् कथं पुण्यं प्रशस्यते ॥ चरित्रम् यतो युष्मदः सर्वम्-अवधूय गृहक्रमम् । स्वयं संन्यासविन्यासं चक्रे वक्रेतरान्तेरा ॥ ४३ ॥ । सर्ग:-४ | मुनिराह महाराज! भर्तृभक्तिर्भवे वरा । प्रधानं मुक्तिमार्गस्य साधने तु व्रतं महत् ॥ ४७ ॥ यतः (भर्ता न मुक्तिदः-) 8 भर्ता मेऽयमिति स्नेहः स तु मोहमयो भृशम् । महामोहान्न मुक्तिः स्याद्-अतो भर्ता न मुक्तिदः ॥४८॥ (भार्या न मोक्षदा-) भार्या ममेति च स्नेहः स तु मोहमयः सदा । महामोहान्न मुक्तिः स्याद्-अतो भार्या न मोक्षदा ॥४९॥ नारी नरस्य मोहेन नरो नारीविमोहतः। यदि व्रते न वर्तेत तदाऽनन्तो भवेद् भवः ॥५०॥ भार्या भवे भवेऽपि स्युः पतयश्च पुनः पुनः । एवं बद्धो भवेत् किं तत् मुक्तिजन्तुबजो व्रजेत् ॥११॥ (केवलिदर्शितं मेघन दस्य अल्पम् आयु:-) तथा त्रैलोक्यसुन्दर्यास्तवाऽपि नृप! संपति। विद्यतेऽनित्यताग्रस्तमायुः सप्त दिनावधिः ॥२२॥ त्यज तस्मान् महामोहं भज स्थैर्य भुवो विभो!। स्मर स्मरस्य प.पित्वं भव मा भवदुःख. ॥२३॥ (मेघनादो वाणीमवाणीत्-) श्रुत्वेति यतितो राजा शमसाम्यसमाकुलः। वाणीमवाणीत् संयोज्य पाणी प्रा.श्वरी प्रति ॥५४। मया देवनिषिद्धेन प्रिये ! न कथिता तव । नन्दीश्वरस्य यात्रा यत् न्यूनं तद् मान्यतां मम ॥२५॥ साऽऽह नाऽहमिति क्रोधाद् दान्तमादां तपो नृप। मोहव्यपोहतः किन्तु विश्वं वीक्ष्य विनश्वरम् ॥५६॥४॥ १ सरला इति । २ भुवः विभो ।-नृप।। ३ यतिजनात् । ४ भवदुःखभाग मा भव । ह॥१२॥ 50000 womanoran . Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१२ ४ सर्गः क्षान्तं क्षान्तं महाराज! स्वान्तं शान्तं यतो मम । यतस्व त्वं ततः स्वार्थ संकल्पं द्रुतमल्पय ॥२७॥ (मेघनादसंन्यास:-) ततो नृपोऽपि विज्ञाय जिजायायचञ्चलम् । मनो निजं नियम्याऽसौ संन्यासे संन्यवेशयत् ॥ (सिवागरेः कीर्तिः-) केवली वैरसिंहोऽथ तयोः संन्यस्तचित्तयोः।पुरः पुरा श्रुतां सिद्धगिरेः कीर्तिमकीर्तयत् ॥2 एवं ततः श्रवणतः शुद्धध्यानस्थयोस्तयोः । देही देहान्तरं गन्तुम्-ईहांच के नैवं पुनः ॥३०॥ (त्रैलोक्यसुन्दरी सौधर्मस्वर्गे-) जीवः त्रैलोक्यसुन्दर्याः स्वर्ग सौधर्मनामनि । सौधर्मेन्द्रस्य भार्याऽभूद् नाम्ना सेयं मनोरमा ॥३१॥ (मेघनादो रत्नचूडो नृपः-) ३ श्रीमेघनादजीवस्तु ज.तस्वल्पभवस्थितिः। चन्द्रचूडस्य पुत्रोऽयं रत्नचूडनृपोऽभवत् ॥ ६॥ ( देवी अगता-) पितर्युपगते प्राप्ते राज्ये रात्रौ च सोऽन्यदा । देवीं ददर्श शय्यास्थो विस्मितस्तां ततोऽवदत् ॥४ का त्वं सुन्दरि ! कस्याऽसि कामिनी किमिहाऽऽगता। इदं निवेद्यतां सर्व मदीयमनसो मुदे ६४॥ हसित्वा सहसा साऽऽह राजन् ! जानासि किन माम् । तव पूर्वभवस्याऽस्मि भार्या त्रैलोक्यसुन्दरी ॥६५॥ । 18 (पूर्वभववेदी रत्नचूडो विरक्त:-) इति श्रुत्वा निजं पूर्व-भवं स्मृत्वा नृपोत्तमः । मुश्चन्नश्रूणि सोऽवोचत् संसारोद्विग्नमानसः ॥६६॥ पूर्वाम्नातेन नाम्ना ते जातिं स्मृत्वा पुरातनीम् । राज्यं रजस्समं मन्ये विषवद् विषयानपि ॥३७॥ मया त्वयि पुरा प्रोक्तं स्नेहहीनं हि यद् वचः। तद् मे स्मरति हृहहि येनाऽदाहि मनस्तव ॥६८॥ 8 तदा त्वां गुरुपादान्ते नाऽहं दान्तेन चेतसा। क्षामये यदि तद् मे स्यादनन्तं भ्रमणं भवे ॥३९॥ १ अल्पं कुरु । २ नवं देहान्तरम् । ३ हृदयं दहति इति । १९॥ 000ORGOOc00000000000Crewooo Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्र पुण्डरीक११२९॥ सर्गः-४ U 2000000000000000000000000000000000000 भवे भवेऽपि भविनो मनो-वाकू-कायसंभवा । व्यापारीऽपारता नित्यं भवेत् पापं ततो हहा ! ॥७॥ भवं विहातुकामो रत्नचूड:-) भवं विहातुकामोऽस्मि तत् त्वं कथय सत्वरम् । गुरोर्गुणगुरोः कस्य पार्श्व गृहाम्यहं व्रतम् ॥ ७१ ॥ (देवीदर्शितो गुरुः पुण्डरीक:-) अवादीत् साऽऽदिदेवस्य पुण्डरीको गणेश्वरः । शत्रुजयगिरौ गच्छन् समेष्यत्यत्र निश्चितम् ॥७२॥ समागत्य तदैव त्वां ज्ञापयिष्यामि भूमिप !। तं गणाधीश्वरं नत्वा स्वार्थ कुर्याद् यथोचितम् ॥७३॥ (गता देवी--) एवमुक्त्वा तिरोभूता सा देवी स्नेहवत्सला। राजा श्रीरत्नचूडोऽपि स्वचित्तेऽथ व्यचिन्तयत् ॥ ४ मिथ्यादुष्कृतदानेन उक्तपूर्व कुवाक्यतः। अहं तु सांप्रतं हन्त पापी स्यां निश्चितं वदन् ॥७२॥ (मोमवान् रत्नचूड:-) एवं कुवाक्यतः पाप-तापतोऽद्भुतभीतिभाक् । मन्त्रि ! श्रीरत्नचूडोऽयं तदा प्रभृति मौनवान् ॥७॥ अस्मानत्राऽऽगतान् ज्ञात्वा सेयं देवी मनोरमा । श्रीरत्नचूडराजानं प्रमोदादानयत् पुरः ॥७७॥ मतिचन्द्रमहामात्य-पृष्टमुक्त्वा गणेश्वरः। मोनावलम्बिनं भूपं प्रत्यालोक्य ततोऽब्रवीत् ॥७८॥ श्रीरत्नचूडराजेन्द्र ! मा भैषीर्वचनं वद । सत्यां धौँ यतो वाचं वदन्ति यतयोऽपि हि ॥७९॥ (इति रत्नचूडपूर्वभवः-) . इत्थं पूर्वभवं राज्ञो मन्त्रिणोऽग्रे मुनीश्वरः। गदित्वा स्वाऽऽस्यकोशान्तर्वाक्यरत्नान्यगोपयत् ॥८॥ (रत्नचूडकृता पुण्डरीकस्तुति:-) रत्नचूडस्ततः प्राश्चद्रोमाञ्चनिचयाञ्चितः । पुण्डरीकगणाधीशं नत्वा स्तोतुं प्रचक्रमे ॥८॥ व्यापाराणाम् अपारता । हळ000000000000000000050 ॥१२॥ Jain Education Seational ainelibrary.org Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-8 पूज्यादिदेवकुलपल्वलपुण्डरीके ! श्रीपुण्डरीकगणनाथ ! बहुक्षुधार्ताम् । चरित्रम्॥१३०॥ त्यक्तान्यकवचनधान्यरसां रसज्ञों खां भोजये ननु तव स्तवनामृतान्नैः ॥८२॥ सर्गः-४ स्वामिन् ! भवोदधिममुं जिनधर्मयानप्राप्तेस्तरन्तमपि तत्र स कामचौरः । नारीविलोचनतरीयुगलाधिनाथस्तीक्ष्णैः कटाक्षविशिखैर्निरपातयद् माम् ॥८३॥ यद् राग-रोषरजसा कलुषं किलाऽऽसीत् ज्ञानोदकं मम तवोदयतस्तदैव । पीतागमामृतसमुद्र! मुनीन्द्र ! पूतं भूतं विवेककमलालयहंसशोभि ॥ ८४ ॥ पूर्वानुभूतमखिलं नरकस्य दुःखं मंमन्यते मम मनोऽतिमनोहरं तत् । स्यां तद् विनाऽतिविमलः किमहं ततः स्यात् किं दर्शनं तव शिवद्रुमशुद्धबीजम् ॥ ८५ ॥ त्वं विश्ववन्द्य ! यदि सर्वसमोऽस्ति तत् किमहांसि हंसि मम मोदयसे मनः किम् । मोक्षं समीपयसि दूरयसीह जातिं तुभ्यं नमोऽनवगताय ततो यतीश ! ॥ ८६ ॥ ध्यानाद् मनो नयनयुग्ममिदं विलोकात् कणौं वचःश्रवणतश्च शिरः प्रणामात् । स्वामिन् ! कृतार्थमधुनाऽजनि सर्वमेतत् जन्माऽस्ति मेऽद्य सफलं तव सेवया तु ॥ ८७ ॥ (रत्नचूडकृतो राज्यत्यागः-) यतिस्तुतिमिति प्रोच्य ययौ पोतनपत्तने । राज्यं निजं ददौ राजा राजहंसाय सूनवे ॥४ (श्रीपुण्डरीकगुरुसमीपे रत्नचूडो गतः सपरिवार:-) ततश्च-स्नातदेहस्तुटन्मोहस्त्यक्तगेहावरागिभिः। गजारूढः वयाप्रौढेः प्रबुद्धेहबुद्धिभिः ॥८९॥ श्वेतवस्त्रैर्धतच्छत्रैः संगीताकष्टदृष्टिभिः । मण्डलेशसहस्रस्तु पञ्चभिः सहितस्तदा ॥ ९० ॥ १ कमलरूप ।। २ रसज्ञा जिह्वा । ३ मन्यतर्यडन्तं रूपम् । ४ अंहांसि पापानि । ॥१३०॥ 0000000000000000000000000000000000000000000000000 500000000000000000000000000000000000000000000000 Jain Education national For Private & Personal use only w.jainelibrary.org Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरोक-8 ॥१३॥ 9xxx रत्नचूलोऽचलद् दानं ददनचलचेतसा । अतुच्छरुत्सवैर्विश्वत्रयमुत्सुकयन्नसौ ॥ ९१ ॥ चरित्रम्, देवदूष्यरितो देवा विधुर्देवमण्डपम् । पञ्चयोजनविस्तारं गव्यूतित्रितयोच्छुितम् ॥ ९२ ॥ सर्गः-४ श्रीमद्-युगादिदेवस्य तत्र मूर्तिचतुटयम् । जगच्चित्रकरं चक्रुश्वारुचामीकरप्रभम् ॥ ९३ ॥ (सिंहासने श्रीपुण्डरीक -) दिव्यमूर्तिभृतः स्थालमक्षयं विदधुः सुराः। श्रीपुण्डरीका पूर्वस्यामासीनः सिंहविष्टरे॥ आतपत्रं गजं खङ्ग मुक्त्वा मुकुटमप्यसौ । तैर्युतो रत्नचूडोऽथ प्रविश्य प्राणमन्जिनम् ॥ ९५ ॥ (रत्नचूडगृहीता दीक्षा--) ततः श्रीपुण्डरीकोऽस्य मूनि मन्त्रं समुच्चरन् । हस्तं न्यवेशयज्जन-वतन्यासं च तत्तनौ। 8 नाभेयमूर्ति परितस्ततो भ्रामति भूपती । दिव्यचूर्णभरोऽक्षेपि सुरा-ऽसुर-नरेश्वरैः ॥ ९७ ॥ तत्र मङ्गलगीतानि गायन्तीषु सुरीष्यसौ । प्रदक्षिणात्रयं दत्त्वा मुनि नत्वा निविष्टवान् ॥ ९८ ॥ (श्रीपुण्डरीकदेशना--) ततः पञ्चसहस्राणां शिष्याणां गोचरे मुनिः। निजां प्रचारयामास गावं पीयूषवर्षिणीम् ॥ ९९ ॥ तथाहि18| जैनव्रतं येन गृहीतमेतत् तेनेह पापं निगृहीतमेव। यः पालयेन्निर्मलमानसस्तत् तं लालयेन् मुक्तिरियं निजा विशेषतोऽपि धन्यास्ते ये मोहं राज्यसंभवम् । सुदुस्त्यजं परित्यज्य प्रपन्ना मुक्तिवीथिकोम् ॥ [॥४००॥ ४ श्रीज्ञानपयोधिसंभववचोरत्नोच्चयै राजितां स्फूर्जद्बोधगुणोत्कॅरेण सहितां तत्वोपदेशसृजम् । सभ्येभ्यः परमात्मभूषणकृते दत्त्वोज्ज्वलां चाऽक्षयं साधुर्कोमसौ पुपोष विगलदोषस्तपस्तीव्ररुक ॥२॥ (देशनासमाप्तिः-) ततोऽन्ये भूमीशा गणधरवरं गच्छसहितं प्रणम्योर्वीपीठे प्रलुठितशिरोहीरनिकराः । १ सिंहविष्टरं सिंहासनम् । २ मुक्तिमार्गम् । ३ श्रुतेः आगतम्-श्रीतम्-श्रुतज्ञानम् । ४ गुणाः सूत्राणि अपि । ५ जोषं मौनम् । ॥१३१॥ 00000000000000000000000000000000000000000000000 x xM NONONOKONO Jain Education remational For Private & Personal use only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक निजस्थानं जग्मुर्विगतगृहमोहं व्रतयुतं स्तुवन्तो राजानं शुचिसुकृतकपूरकलसम् ॥ ३ ॥ ॥१३२॥18॥ (४ सर्गः पूर्ण:--) श्रीरत्नप्रभसरिसूरकरतो दोषानुषङ्गं त्यजन् यो जाड्यस्थितिरप्यभूत् प्रतिदिनं प्रासाद्भु सर्गः-५ तेन श्रीकमलप्रभेण रचिते श्रीपुण्डरीकप्रभोः श्रीशनंजयदीपकस्य चरिते सर्गश्चतुर्थोऽजनि ॥४॥तिमा इति श्रीरत्नप्रभसूरिशिष्य-आचार्यश्रीकमलप्रभ-विरचिते श्रीपुण्डरीकचरिते महाकाव्ये श्रीरत्नचूडपूर्वभव-वर्णनो नाम चतुर्थः सर्गः । पञ्चमः सर्गः (श्रीपुण्डरीकः प्रतस्थे-) श्रीपुण्डरीकोऽथ गणाधिनाथो भुवं दिवं तैर्मुनिभिः सुरैश्च । पवित्रयन् विश्वविबोधहेतुं स्वैर्भानुभिर्भानुरिव प्रतस्थे ॥१॥ (चम्पापुरी प्राप-) अथो यथोक्तक्रमतो धरित्रीं क्रामन् मुनीशः स मैन:स्थितिज्ञः । स्वशोभया दत्तदिवप्रकम्पां चम्पापुरीं प्राप विपावृत्तिः ॥२॥ ( चम्पकद्रुः जगाद-) तस्याः समीपोपवनेऽस्ति शस्तः प्रौढः प्ररूढः किल चम्पद्रुः। स शाखया संनतयाऽवगम्य जगाद तं दिव्यगिरा गणेशम् ॥३॥ ( लक्ष्मीधरो राजा तदागमनं च-) कृत्वा प्रसादं भगवन् ! इहाऽद्य गृहाण वासं निगृहाण खेदम् । लक्ष्मीधराख्यं नृपतिं वयस्यं मम प्रशस्यं कुरु बोधदानात् ॥४॥ १ किरणैः, शोभाभिश्च। २ मनसां स्थिति जानाति इति-मनोवित् । ३ यया चम्पया दिवस्य स्वर्गस्य-अपि, प्रकम्पो दत्तः । ४ निष्पापः । ५:वृक्षः । ६ मार्गजन्यखेदं दूरीकुरु-इति। 18R३३॥ Jain Education ational Pricainelibrary.org 0000000000000000000000000000000 2005000000000 000000000000000000000000000000000000000 200000000000 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक॥१३३॥ चरित्र सनः-५ ROOMOOORDN0000000000000000000000000000ods वृक्षाद् वचश्चित्रकरं निशम्य ज्ञानोपयोगादवगम्य किञ्चित् । तस्थौ सुरैनिमितरम्यरत्न-सिंहासने तत्र मुनिः स यावत् ॥६॥ तावच्च कर्पूरपरागपूरप्रभापुर-क्षीरभृताऽभ्रशोभा । देहाद हरन्ती तपनस्य तापं ज्योत्स्ना शनैश्च प्रससार तत्र ॥६॥ दिनेऽपि चन्द्रातप एष किं स्यात्-इत्युत्थिता ये मुनयः सुराश्च । __ आगच्छतः श्रीधरभूमिपस्य छत्रस्वरूपं ददृशुः शशाङ्कम् ॥७॥ अहो महोष्णांशुमहोऽप्यनेन स्थिरौजसा चन्द्रमसा निरस्तम् । इत्थं सुरेषु प्रवदत्सु राजा सैन्यैर्युतोऽभ्येत्य यति ननाम ॥८॥ (मृगवेषो देवः, तत्प्रश्नश्च-) प्रणम्य संस्तुत्य गिरं प्रतस्थे भूपोऽथ देवो मृगवेष एषः। . खं पञ्चषक्रोशभित तदिन्दुप्रकाशितं प्रेक्ष्य विभु बभाषे ॥९॥ प्रभो! नृपस्याऽस्य घनप्रभोऽयं करोति किं श्वेतकरोऽतिसेवाम् । चक्रं यथा पूर्वभवोद्भवेन पुण्यप्रभावेण तु चक्रनेतुः ॥१०॥ उग्रं समग्रं विहितं तपः किं दानं प्रधानं किमु वा प्रदत्तम् । पुरा भवेऽनेन सदा कृतेन:पराभवेनेति विभो! वदाऽऽश ॥१२॥ स्पृष्ट्वाऽस्य पादौ वचनं तु पृष्ट्वा गुरोः पुरोऽभूत् स सुरोऽथ मौनी। लक्ष्मीधरः पूर्वभवं स्वकीयं शुश्रूषुरस्थाद् विहितावधानः ॥१२॥ . सूर्यस्य । २ चन्द्रप्रकाशः । ३ महाष्णांशुः-सूर्यः, तस्य महः तेजः । ४ पु० तु 'पुरेषु' इति पाठः । ५ पञ्चभिः, षभिः वा क्रोशैर्मितम् । ६चनः । ७ पतियः। ८ एनः पापम् । १ मोतुमिच्छुः । 1. सावधानः । 000000000000000000000000000 wO0000000000deos 8॥१३३० Jain Education national Aaw.jainelibrary.org Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ चरित्रम्. ROOOOOOOOOC0000000000MMOMMON00000 ( उवाच श्रीपुण्डरीक:-) उवाच वाचंयम एष वाचं दन्तांशुभिश्चन्द्ररुचिं प्रपुष्णन् । प्रोद्यत्मभायां श्रवणे सभायां पतत्रिवर्गष्वपि मौनवत्सु ॥१३॥ ( आचाम्लचन्द्रतपः-) हो! महीपस्य यदस्य जातं शशाङ्करत्नं किल नित्यसेवि । आचाम्लचन्द्राख्यतपस्तरोस्तत् फलं स्फुटं चाऽत्र पुराकृतस्य ॥१४॥ यतोऽत्र जीवाः कृतपूर्वकर्मदत्तं सुखं वाऽप्यऽसुखं लभन्ते । ततस्तपोऽनेन कृतं यथैतत् शृण्वन्तु पूर्वोऽस्य भवश्च भव्याः ॥१५॥ तथाहि( लक्ष्मीधरनूपपूर्वभवः, लक्ष्मीपुर नगरम्-) द्वीपेऽत्र जम्बूपपदे विदेह-क्षेत्रे पवित्रैः सुकृताम्बपष्टैः । प्रासादपद्मः सहितं सरोवल्लक्ष्मीपुरं नाम पुरं पुराऽऽसीत् ॥१६॥ ( राजा सुरेन्द्रदत्त:-) सदाऽपि यो निर्मलधर्मकर्मकर्ताऽपहर्ता भुवनस्य भीतिम् । सुरेन्द्रदत्तोऽर्थिजने सुरद्रुर्बभूव भूवल्लभ एष तत्र ॥१७॥ सौर्याग्निरस्मिन्निहितो विधात्रा दाहं समूहस्तु द्यनारिवंशाः। __ यशोऽस्य शश्वच चचार विश्वं तेषां मनो दिग्विजये तु खिन्नम् ॥१८॥ (राशी चन्द्रलेखा-) भूमीपतेरस्य महाय॑सोख्यरत्नोच्चयानामिह सारकोशः। चातुर्य-सौन्दर्यविलासवासो भार्या सदाऽऽर्याऽजनि चन्द्रलेखा ॥१९॥ सदा सदाचारसरिद्वरायां मनो मनोभूसहितं यदीयम् । १ पक्षिवर्गेषु । २ तडागमिव । ३ अत्रैवं चित्रम्-सौर्याग्निर्नृपे, दाहस्तु अरिवंशे यशस्तु चचार, अरिवंशानां मनः खिन्नम् । वस्तुतस्तु यत्र अग्निःतत्रैव दाहः उचितः, एवं यो गतिकर्ता स एव खिन्नो भवति-अत्र तु नैवम् । Sorowroomoooo0000000000000000000000 ॥१३४॥ Jain Education international Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥१३५॥ ४ १२ 200000000 सस्नौ तयोश्चञ्चलता ततोऽगात् हत्येव दूरं विमलात्मिकाया ॥२०॥ न्यायेन युक्तो मृदुलैः करायैः स्वैः पालयंस्तत्र निजां प्रजां ताम् । मेने सुतत्वेन सुतेन हीनो महीनंमुख्योऽयमहीन धैर्यः ॥२१॥ ( अम्बरतोऽवतीर्णो नरः— ) शस्त्रेर्शे - शास्त्रेश - धनेश - धीशैः सद्भिः शुभायां पुरतः सभायाम् । दिव्याम्बरं सोऽम्बरतोऽवतीर्ण नृपो नरं कान्तिधरं ददर्श ॥ २२ ॥ ( आह राजा - ) संभ्रान्तनेत्रस्तमवेक्ष्य राजा हास्यस्मितास्यैः सहसा स आह । आगम्यतामत्र सुभित्र ! शीघ्रमालिङ्गनं देहि च पद्मभूषः ॥ २३ ॥ (पद्मभूप:-) आलिङ्गय पार्श्वे स निवेश्य पद्मं प्रोचे बहुभ्यः किमहो ! दिनेभ्यः । त्वमागतः किं च मदीयमित्र धूमध्वजो भोः ! कुशली वदेति ॥ २४ ॥ ( जगाद पद्मः- धूमध्वजो नृपः, तत्कृता चक्रेश्वरीसेवा, प्रसन्ना देवी - ) जगाद पद्मः शृणु सावधान ! वैताढ्यशैले शिवमन्दिरेशः । धूमध्वजः संसदिनीमुपोष्य चक्रेश्वरीमेष नृपः भूत्वाऽथ देवी प्रकटा तदा सा धूमध्वजं भूमिपतिं बभाषे । | सिषेवे ॥ २५ ॥ तिष्ठामि तुष्टा तव सत्त्वतस्तद् वरं वृणु त्वं ननु धर्मवीर ! ॥ २६ ॥ श्रीधूमकेतुः स उवाच चेत् त्वं देवि ! प्रसन्नाऽसि मयि प्रकामम् । १ राजप्राह्यभागैः । २ महीना: महीस्वामिनः । ३ अहीनं धैर्य यस्य अथवा अहीनवत् सर्पराजवत् धैर्य यस्य । ५ पण्डिताः । ६ श्रेष्ठिनः । ७ घीप्रधानाः तार्किकाः । ८ दिव्यवस्वधरम् । ९ गगनतः । १० हास्येन स्मितम् आस्यं उपवासान् कृत्वा । ४ शस्त्रेशाः युद्धविद्याविचक्षणाः । यस्य । ११ सप्त दिनानि यावद् 0000x चरित्रम्सर्ग: ५ ॥१३५॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥१३६॥४॥ SSOORD0000000000000000000000000000000KOOOOOOOOOON (सुरेन्द्रदत्तार्थ वरयाचा-) सुरेन्द्रदत्तस्य ततो नृपस्य मदीयमित्रस्य सुतं प्रयच्छ ॥२७॥ चक्रेश्वरी साऽऽह सुरी नरेशं राजन् ! हरिद्वर्णतुरंगिकायाः। सोऽयं किसोरो भविता तवाऽद्य तमर्पयेस्त्वं नु निजस्य सख्युः ॥२८॥ ( देवीदर्शितः पुत्रोपाय:-) सुरेन्द्रदत्तस्य हयं तमेवाऽऽरूढस्य भावी तनयाऽभ्युपायः । धन्यः पुनस्त्वं तु नृप! स्वमित्रे प्रीतिं सदा स्फीतमतिं बिभर्षि ॥२९॥ ( आशीर्वचनमुक्त्वा देवी तिरोबभूव-) यन्मित्रदुःखेन तु दु:खितोऽसि ददासि तत् ते वरमद्य तुष्टा। वैताट्यशैलेऽत्र तयोत्तरस्यां विद्याधरेशत्वमखण्डमस्तु ॥३०॥ देवीत्युदित्वाऽथ तिरोबभूव भूवल्लभोऽप्याप फलं वरस्य । सायं दिने तत्र हयं तु जातं वर्षत्रयं पालितवान्नरैः स्वैः ॥३१॥ ( पवनंजयो हयः-) तेन त्वयि प्रीतिभृता नृपेण विमानमारोप्य हयः स एव । प्रस्थापितोऽयं पवनंजयाख्यो विद्याभृतां पञ्चशतैर्मया च ॥३२॥ अतो बहुभ्यो नृप ! वासरेभ्यो ममाऽऽगमोऽभूदिति सर्वमुक्त्वा । जगाद पद्मः करमुन्नमय्य भो ! भोः ! कुरुध्वं तुरगं नृपाने ॥३३॥ विद्याधरास्तेऽथ विधाय ननं विमानमेकं पवनंजयाख्यम् । उत्तारयामासुरमुं तुरंग सुरेन्द्रदत्तस्य नृपस्य दृष्टी सुरेन्द्रदत्तः सहितः प्रधानैः स्फुरत्मभं प्रेक्ष्य पुरस्तुरंगम् । १ हरिद्वर्णा नीला । २ अश्वपोतः । 000000000000000000000000000000000000000000 Jain Education national Salww.jainelibrary.org Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१३७॥ DOOOOOOOOOOOO000000000000000000000000 इष्टः समुत्थाय सुकोमलेन पपेशं तं पागिसरोको॥ स्कन्धोद्ध से मध्यमितं सरोषं संकीर्णकर्ण लघुवक्रवक्त्रम् सर्गः-५ वलस्पदं लोमसुतेजसाऽऽयं स्थूलं च पश्चात् तुरगं दुदर्श ॥३६॥8 तदा मुदा मन्त्रिमुखानि वीक्ष्य हृष्टो यभाषेऽथ सुरेन्द्रदत्तः । स्नेहः सतां मेरुरिवाऽक्षयोऽयं घनेवि काले विमलोऽचलश्च ॥३७॥ तथा च-सदाऽपि सौजन्यसुधाभृतेषु महीयसां निर्मलमानसेषु न क्रोधवहिर्भवतीति युक्तो यत्प्रीतिरेखाऽविचले.ति चिम् ॥३८॥ एवं स्तुवन्तं नृपति सुरेन्द्र-दत्तं प्रणम्याऽथ जगाद पद्मः । राजा ततोऽश्वं पवनंजयाख्यं तं पालयामास सुभक्षलः ॥३९॥ पwooooooooooooooooooo०००000000000oooocd स्पर्श चकार । २ स्कन्धेन उद्धतं समुत्रतम् । ३ लघुकर्णम् । ४ रोमतेजस्सहितम्-तथा च अश्वलक्षणम्" दीर्घग्रीवाऽक्षिकूटखिकहृदयपृथुस्ताम्रताल्वोष्ठजिह्वः सूक्ष्मत्वकेशवाल: सुशफगतिमुखा इस्तकणे ठपुच्छः ।। जङ्घाजानूरुवृत्तः समसितदशनश्चारुसंस्थानरूपो वाजी सर्वाङ्गशुद्धो भवति नरपतेः शत्रुनाशाय नित्यम्" ||१|-वराहमिहिरो निजायां बहत्संहितायाम्-अध्याय ६५॥ अर्थात्-प्रीवया, अक्षिकूटेन दीर्घः; कटिभारेण, हृदयेन च पृथुः; ऑष्ठेन, तालुना, जिह्नया च रक्तः; शरीरचर्म, मूर्धजाः, पुच्छवाल:-एते यस्य 18 सूक्ष्माः; शर, गत्या, मुखेन च सुप्रमितः; कणा, उत्तरोष्ठः, पुच्छमूलं च-एतानि यस्य इस्वानि; जङ्ख्या, जानुना, उहणा च पत्तः; दन्तैः समः, तथा संस्थानेन, कोण च चारः; एवंविधो वाजी-अश्वः सर्वाशशुबो शेयः । ४ ५ लोके हि विना तापं मानससरास न कदाऽपि रेखा भवति, अत्र व क्रोधवनि विनैव अचला प्रीतिरेचा भषिचना-ति चित्रम् । भोज्पEIMROM For Private & Personal use only . Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरोक ॥१३८॥ १२ (सुरेन्द्रदत्तस्य बाह्यालिकेलि:-) अन्येद्युरुवपतिरेष सर्वसैन्यैरचालीत् तुरमाचिरुदः । वाह्यालिकेलीषु कुतूहलेन कुर्वन्निलागोलेमलं विलोलम् ॥४०॥ ततश्च - शरासनं कोऽपि शरासनेन प्रासैः प्रयासं नृपतेः पुरः कः । गदाभृतः केऽप्यर्ग - दारणं च स्वं दर्शयामासुरितश्च वीरः ॥४१॥ राजा निजं चारुतरं तुरंगं गतीश्वतस्रश्चतुरो विधाय । स तं ततं कारथितुं तु वेगं दृढासनोऽभूद् दृढधैर्यधुर्यः ॥४२॥ ( राजानं गृहीत्वा उच्चचाल पवनंजयः सार्धंशतयेोजनम् ) विशामधीशेन कशाहतोऽथ विहाय भूमिं स विहायसेव । क्षणं खगान् व्याकुलयन् पुरोगान् हयो रयोचकममुचचाल ॥४३॥ अरे ! हरे ! भूमिविभुं गृहीत्वा मा याहि धूलीति पदेऽग्रहीत् तम् । विन्यस्यतामन्यतुरंगमाणां शिरस्सु सोऽगान्दृशं विलङ्घन्त्य ॥४४॥ यथा यथा तं नृपतिश्चकर्ष तथा तथा स प्रचकर्ष भूपम् । तद् योजनानां शतमेकमेवं सार्धं ययौ गन्र्धवहेन सार्धम् ॥४२॥ ( राजा सरे। वरं प्राप - ) करेऽथ दूनो नृपतिर्मुमोच वलूगां तुरंगश्च दिवं तदेव । तूर्ण ततः प्राप पयः प्रपूर्ण सरोवरं चित्तहरं हरीन्द्रः ॥४३॥ १ भूगोलम् - सकम्पं कुर्वन् । २ प्रासः - अस्खविशेषः कुन्तास्त्रम् । ३ अगाः पर्वताः, तेषां दारणम् । ४ रयेण वेगेन, उच्चो क्रमो पादौ यथा स्यात् तथा । ५ वेगपूर्वकगमनात् जाते धूलीप्रचारे कविरेतत् उत्प्रेक्षते । ६ वायुना । Koooooc परि सर्ग: ५ ॥३ ainelibrary.org Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BR9OOOONORMOOMOOOOOKID000000000000000000000000 पीत्वा समीर लघुरोमरन्धैः प्रीतः स तस्थौ तरूमलमेत्य । राजाऽवतीर्याऽथ हयं स्वयं तं पानीयपानाच ततो निनाय ॥४७॥ सर्ग:-५ संस्नाप्य सस्नौ च पपौ निपाय तुरंगराज स नराधिराजः। प्रीतः प्रमोदात् प्रशशंस विश्वमूलं जलं निर्मलतानुकूलम् ॥४८॥ ( मृपो ललनां ददर्श-) तीरस्थितो नीरविलोकनाय प्रसारयामास नृपोऽथ मेरे। ___स निस्सरन्तीं सरसोऽपि रक्तां कयाऽपि युक्तां ललनां ददर्श ॥४९॥ संकेतयन्तीव रणाय कामं वित्रासयन्तीव कुलस्य लज्जाम् । संतर्जयन्तीव तुलस्य सत्वं सा वामनेत्रा विकटैः कटाक्षः ॥५०॥ पीनस्तनाभ्यामतिमोदकाभ्यां प्रलोभयन्तीव युवन्मनांसि । - तस्योपकार्य कतिचित् पदानि गत्वा समालिङ्गय तरं पुरोऽस्थात् ॥ ५१ ॥ (युग्मम् ) निरीहचित्तं नृपति समेतं पालीवनालीषु हयं च बद्धवा । स्थितं समीरः शिशिरो:मुदेव सहागतः स्नेहत आलिलिङ्ग ॥५२॥ ( तया ललनया प्रहितो दूतीमुखेन संदेश:-) तत्रैत्य दूती नृपति प्रणत्य प्रोवाच संयोज्य करी पुरस्था। । । प्रसादमाधाय मथि क्षितीश ! वाक्यं समाकर्णय सावधानः ॥५३॥ १ लधुभी रोमच्छिदैः, समीरो-वायु पीयते । २ मर्यादाम् । ३ वर्तुलाकृत्या, पुष्ट्या च मोदकम् आतक्रान्ताभ्याम्-अथवा अतिहर्षप्रदाभ्याम् । 81 ४"युषमनांसि' भवेत् । ५ कायसमीपम् । ६. अप्रस्थिता। 00000000000000000000OODOOOOOOOOOO0000 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOGood कामेन कामं स्वशरैनिषिक्तः संप्रापितां विह्वलता लतान्तः ।। ___ सदोषधीसंनिभदेहयष्टिस्पर्शात् विशल्यां कुरु मे सखी त्वम् ॥५४॥ ( ललनायाः कामपारतन्यम् -) तस्यां वदन्त्यामिति तत्र सख्या मदालसाक्षी लुलदङ्गयष्टिः। राज्ञः समीपं समुपेत्य हाव-भावैर्युता स्वामवदत् सखी सा ॥२९॥ प्रतीच्यामम्भोधौ प्रसेमरकर श्रेणिकलितं रवेबिम्बं रक्तोत्पलमिव पुरः प्रेश्य सहसा। तमस्तोमोऽप्युच्चैः सखि ! स विदलत्कश्मलेरुचिश्चचाल प्रोल्लोलालिकुलवदलं चन्द्रवदने! ॥५३॥ प्रशान्तनेत्रो नरनायकोऽयं तां नायिका कोमलवागुवाच । ( राशः एकपत्नीव्रतदृढता, ललनायै उपदेशश्च-) अधि प्रसता भव चारुरूप-प्रज्ञापितप्रौढकुले ! मृगाक्षि! ॥२७॥ भद्रे ! सुखं वैषयिक क्षणं स्यादनन्तपापं त्वतिदुःखदायि । धीरीकुरु त्वं तु मनो निजं तत् वीरीभवाऽस्मिन् स्मरयोधयुद्धे ॥२८॥ यतः-रूपं सशीलं नययुग् नृपत्वं धनं सदानं वचनं तु सत्यम् । परोपकारे बहुबुद्धिमत्त्वं तत् पायसं शरयेव सारम् ॥१९॥ अन्यच-विश्वत्रये सन्ति परस्त्रियो यास्ता मे स्वसारो नियमोऽस्ति सारः । विधाय चित्तं विमलं स्वकीयं यथ.ऽऽगतं सुन्दरि ! तत् प्रयाहि ॥३०॥ १ लताकुजमध्ये । २ शल्यरहिताम् । ३ मदेन अनसे नेत्रे यस्याः सा । ४. प्रसरणशीलाः । ५. कश्मलम् - मलिनम् । ६ भ्रमरकुलवत्-श्यामत्वेन । नारा 'शरा भव । ८ नीतियुक्तम् । CONOMo oooo Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O चरिण ॥१४॥ सर्गः-५ Deeopowrooccoco0000000000000000000000000000000000000 MANNA NO (राश उपरि तस्याः कामयशाया आक्रमणम्-) अस्मिन् क्षितीशे वदतीति सख्या सत्योद्यत्तस्याधि तनुः प्रमुक्ता। - आलिङ्गयन्ती तरसा रसाख्या राज्ञाऽपहस्तेन ततो निरस्ता ॥३१॥ तस्थौ ततश्चन्द्रमुखी विषादमषीकृतश्याममुखी नितान्तम् । सा सन्मुखीभूय सखी तु तस्याः साटोपकोपात् प्रकटं जगाद् ॥६२॥ जडेन राजन् ! भवताऽनुरक्ता विमाननात् कोपयुता क्षता या । साऽपत्यभावेन तव प्रियाया भवं समग्रं समलंकरोतु ॥६३॥ (ललना-दूत्यो अबश्यतां जग्मतुः-) अदृश्यतां जग्मतुरेवमुक्त्वा स्वान्ते वहन्त्यो बहरोषपोषम् । तं शाकुनं ग्रन्थिमसौ तु बड्वा विचारयामास वचस्तदीयम् ॥६४॥ उक्ता क्रुधा दुष्टतरात् कुवाक्यात् दृष्टो यदर्थः स सुतप्रसृतेः। आभ्यां कृताद् मे महतोऽपि विघ्नात् संभाव्यते मङ्गलमेव पश्चात् ॥३॥ (भरण्य रात्रि:-) एते तु देव्यो कुपिते मयि स्तः करिष्यतस्तद्विघ्नं कदाऽपि रात्रिस्तथाऽपि प्रसरत्पिशाची तच्छोधाम्यात्म-मनः सुवाक्यैः ॥६६॥ आलोचनायाऽऽत्मकुकर्मणोऽसाबुत्तार्य मोलेमणिमेकमेषः । ___ मन्त्रं स्मरन् मण्डितवान् पुरस्तं विचिन्तयन् सद्गुरुमेव मूर्तम् ॥६७॥ १ तस्य सत्यपरायणस्य अधि-उपरि, तया कामिन्या निजं शरीरं प्रमुक्तम् । २ अनुरक्ता या स्त्री विमाननात् कोपयुता क्षता च जाता । त्रुटति छन्दः । ४ शुद्धं करोमि । ५ नमस्कारमन्नम्। NANO Jain Education In t ional wellinelibrary.org Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ edhoododdoct000000 ONONONOKO हरीक-8 (नृपेण त प्रतिक्रमणम्-) नृपस्तदेोपथिकी भणित्वा क्रामन् प्रतीपं मनसैव पापात् । ॥१४२॥ संक्षेपतो वन्दनक विधाय चित्तोद्भवं भावमुवाच वाचा ॥६८॥ तथाहि-- निरीहचित्तस्य ममैव देहं विलोक्य ताभ्यां विधृतः स्वचित्ते । कामो निकामं च कुकृत्यहेतुर्मिथ्याऽस्तु तद्दष्कृतमेव मेऽद्य ॥१९॥8 प्रयरछतो बोधमनिच्छतोऽपि संगं ममाऽऽत्र तयाऽप्यनङ्गात्। कृतोऽभिषङ्गः शुचिशीलभङ्ग-कर्ता विदं दुष्कृतमस्तु मिथ्या ॥७०॥ यत् तामधिक्षिप्य करेण सख्याश्चित्तेऽतिकोपो विहितो मया सः। येनाऽन्तवाक्यं मयि वादिता सा मिथ्याऽस्तु तत् केवलिनां समक्षम् ॥७१॥ (सुरः समागतः-) मा चेत् सदाचारपवित्रगानं पात्रं प्रशान्ते रहिते समेत्य । इत्यर्धवाक्ये विनिवारयन्तं पुरस्सरं सोऽथ सुरं ददर्श जगाद देवो नृप! यत् त्वदीये चित्तेऽस्ति तत् ते रिपवो लभन्ताम् । राज्यं कुरु त्वं सुचिरं शुचित्वं चन्द्रस्य मुष्णन् विमलैश्चरित्रः ॥७३॥ (सुरं प्रति राशः प्रश्नः-) मया त्वयि द्रोहमतिः कृताऽऽसीत् तत् क्षम्यतामक्षतपुण्यभूमे। भूयोऽवदत् कोऽसि कथं सकोपो मयि प्रसन्नोऽसि कथं पुनस्त्वम् ॥७४।। | गुरुवन्दनम् । २ प्रशान्तः पात्रम् । ३. रहिते-एकान्ते । ४ चन्द्रस्य शुचित्वं मुष्णन्-लुण्टयन् । or 0 0000000000000000 NONOKONOOOO Jain Education Interiore For Private & Personal use only www.jabibrary.org Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम्. 00000000000000000 परीक- (भूतानन्दो भवनाधिनाथः- ) स्मितस्मितास्यो द्रुतमुजगार सुधाकिरं सोऽथ गिरं सुरेन्द्रः । ॥१४३॥8 जानीहि भूमीतलनाथ ! भूतानन्दाऽभिधं मां भवनाधिनाथम् ।।७५॥ सगः-५ प्राणप्रिया मे सुरसुन्दरीति सरोवरे कौतुकतः समेता। कामाकुला संगमपीहमाना तवाऽपमानात् सविधं ममाऽगात् ॥७६॥ त्वयि क्रोधयुतः कृतोऽहं विनाशबुद्धया समुपागतोऽत्र । वाक्यानि ते चित्तविशोधकानि श्रुत्वा प्रशान्तः प्रकटश्च जातः ॥७७॥ अहो नारीनेत्रयोः पापित्वम्- आभ्यां कृतस्नेह इह प्रवृद्धः कलङ्कितोऽन्ते भवितेति दत्तं। धाता मषी नेत्रयुगे तु नार्याः संकेतयन् दक्षजनान् समग्रान् ॥७८॥ धनं घनश्वर्ययुतं सुरूपं सयौवनं ते किल वर्ततेऽपि। एतानि पापाय नयन्नतोऽहं जाने गुणायैव सतां हि संगः ॥७९॥ (सुरकृता राजप्रशंसा-) धन्या त्रिलोक्यां तव वंशभूर्भूद्वयं त्वयेदं नृपते ! ततस्त्वम् । सुरा-ऽसुराश्चर्यकृतान्यनारी-सहोदरत्वेन महाव्रतेन ॥८॥ 8 समग्रसौख्यप्रद्धर्मभूमे मीश! तेऽत्राऽप्रियमीशते के ? । 18 १ संगम् अपि ईहमाना । २ अत्र श्योके नारीनेत्रयोः पापित्वमेव दर्शयति-आभ्यां नारीनेत्राभ्यां कृतः स्नेहः-प्रवृद्धः सन् अन्ते इह कलहितो भविता४॥ इति हेतुना विधाता सममान् दक्षजनान् संसूचयन नार्याः नेत्रयुगे मर्षी दयामतां दत्ते । लोकेऽपि कलादूतो जनः श्यामतामेव प्राप्नोति । ३ के तव अप्रियं कर्तुं समर्याः । 8॥१४॥ video-boboxbox 30cm Jain Educati emational Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१४च्या सर्गः-५ 20000000000000000000000 दातुं सुतेच्छाद्रुम एष योऽस्ति फलेग्रहिस्त्वीदृशपुण्यतोऽस्ति ॥८१॥ देवः स एवं वचनं सहर्ष संभाष्य तथ्यं मनसश्च पथ्यम् । भूत्वा समीरेऽय नृपत्य कर्णे प्रच्छन्नदाक्यं च जगाद किंचित् ॥८२॥ ( देव्य अभयं दापितं राज्ञः-) विस्मारणीयं वचनं नहीदं त्वयेत्युदित्वा स जगाम देवः महाग्रहाद् भूपतिना प्रणम्य प्रयादितः सन्नभयं तु देव्याः ॥८३॥ गतेऽथ देवे नरदेव एष पूर्वी दिशं रक्ततराम्बरान्ताम् । मार्तण्डकोटीरयतां सहर्ष जारीमिव प्रेक्ष्य मुदा जगाद ॥८४॥ ( सूर्योदयः-) महामार्गक्लान्त्याऽत्यरुणवदनो विष्टरंनि स्थितः प्राचीशैले पृथुगगनपात्रे विनिहितम् कैरैस्ताराभोज्यं त्वरितमशनीकृत्य पपिवान् प्रगे पान्थः पूषा शशधरसुधाघोलममलम् ॥८५। ( नृपसेवकाः समागताः-) तुङ्गास्तुरंगा दृढवेगरङ्गाः मनोरथाऽतीतपथा रथाश्च ।। दृष्टयाऽथ दृष्टा निजसेवकाः साग बिलोकयन्तः परितो नृपेण ॥८६॥ चमचरास्ते नृपतिं विलोक्य हृष्टा निविष्टाश्चरणौ प्रणम्य । राजा तुरंगाहरणं तु रङ्गाद् जगाद तेषां पुरतो न चाऽन्यत् ॥८॥ ( अश्ववेद्या:-) मल्लैः कृतं मर्दनमस्य देहे खेदापनोदाय मुदा तदाऽथ । संवाहयामासुरमुं व हिं हस्तेन ते वाहसमूहवैद्याः ॥८८॥ १ आसनसमाने प्राचीशैले । १ किरणः । सति सूर्योदये तारकाणाम् अभावः, चन्द्रस्य च हीनकान्तिता भवति-अत एवं कविना एवमुदप्रोक्ष । ३ सैनिकाः । अश्वम् । VIRONMANMOMoreowww १२ CONOMAR ॥१४॥ Jain Education remational ww.jainelibrary.org Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परित्रम् सर्गः-५ ॥१४५॥ पुण्डरीक- (चचाल सुरेन्द्रदत्तो नृपः-) महीमहेन्द्रः स सुरेन्द्रदत्तश्चतुश्चमूसंवलितश्चचाल । अनेकरूपैः शुचिसाम-दानादिभिर्युतो न्याय इवैष मूर्तः ॥ ८९॥ 8 पुरं प्रविश्य प्रकृतिस्थितिज्ञः शशास नित्यं करणानि सोऽथ । विवेक-विज्ञानविकाशहेतुरात्मेव लोकस्य ततः प्रियोऽभूत् ॥ ९॥ (चन्द्रलेखा बभार गर्भम्-) सदा भुवं भुक्तवताऽपि देहरतेः कृते तेन रेते कृतेऽथ । ___ सा चन्द्रलेखाऽमलशीललेखा यभार गर्भ बहुसौख्यगर्भम् ॥ ९१ ॥ भूवल्लभस्याऽथ सुवल्लभायाः कपोलपालीष्वथ निर्मलत्वम्।। रराज गर्भे वसतो नरेन्दोविश्वप्रकाशोदयिनः प्रभेव ॥ ९२॥ रोजाऽन्यदाऽनेन मनोरमाङ्गी प्राणप्रिया सा ददृशे कृशाङ्गी। तनूतनुत्वं वचनैः प्रसन्नैः हृष्टा हिया नाख्यदसौ प्रियाय ॥ ९३ ॥ विचिन्त्य किंचिनिजचेतसैव समुत्थितः प्रौढमुदाऽन्यदाऽयम् । दिने चतुर्थे जगदे च तेनाऽप्यसंभवद्दोहददुर्बलाङ्गी ॥ ९४ ॥ (राज्ञीदोहदः-) स्वच्छा निजेच्छा सुकृतैरतुच्छा संपूर्यतामेवमसौ निगद्य । प्रैषीत् समारोप्य सुखासने तां सखीसमेतां जिनमन्दिरेषु ॥ ९५ ॥ प्रासादाताऽखिलजैनमूर्ति-शीर्षेषु, हेम्नो मुकुटान् नवीनान् । १ सुरते। २ पु. अन्यपाऽयम् । ३ तृतीयान्तमेतत् । ४ प्रासादस्थिताः- मूर्तयः । 18॥१४५॥ 00000000000000000000000000WOOOOOOOOOOOOOOOO00000 10000000000000000000000000000000000000000000000000कल Jain Education national For Private & Personal use only /w.jainelibrary.org Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१४॥ सर्गः-५ అంతకం 200 समयमध्यमददोऽयं ज्ञातो मनःस्थोऽपि कथं प्रियेण ॥ ९६ ॥ (लेहदभूरणम्-) जैनेन्द्रविम्बेषु विधाय पूजां स्वर्णा-बदान्यति मुदा प्रदाय । स्वं दोहदं सर्वमिति प्रर्य समेत्य पप्रच्छ नृपं नतास्या ॥ ९७ ॥ ज्ञातः कथं मानसदोहदोऽयं निगद्यतां चित्रमिदं ममाऽय। राजाऽप्यहंकारविषेण मुक्तं युक्तं प्रशान्त्या वचनं बभाषे ॥९८॥ पुण्येन केनाऽपि हि पूर्वजानां सुरः स तुष्टः सरसस्तटे का। जिनेन्द्रकोटीरकरश्च कर्णे त्वबोहदस्तेन पुरा ममोचे ॥ ९९ ॥ सा यौरिव च्छन्नशशाङ्कबिम्बा सद्बुद्धिवद् गूढपरोपकारा । . संगुप्तपद्मा सरसीव राज-राजप्रिया गर्भयुता रराज ॥ १०॥ (राज्ञी असूत सूनुम्-) प्राचीव सूर्य द्वितीयेव चन्द्रं चिन्तामणिं रोहणभूरिवैषा। तेजोद्भुतं लोचनसेवनाऽऽभं संपूरिताशंसमसूत सूनुम् ॥ १०१ ॥ (दानादिविधानम्-) तदा सदाऽऽनन्दकरं स दानं ददावदारिद्रयकर जनेभ्यः। मुमोच गुप्तिं बहुदीनतृप्तिं चकार भूपस्त्वनकौरवाक्यः ॥ १०२॥ ( सूनोनाम अमरशेखरः- ) अस्मिन् सुते गर्भगतेऽस्य मातुर्वाञ्छा बभूवाऽमरशेखंराणाम् । ततः कुमारोऽमरशेखरोऽयं पित्रा पवित्राख्य इति व्यधायि ॥ १.३॥ (जटादशलिप्यादिकला:-) नवादभेदाद द्विगुणों लिपीस्तद् द्वैगुण्यतोऽप्यायुधयुद्धभावान् । 'जिनेन्द्रकोटीरकरश्च त्वदोहदः' इत्यन्वेयम्। २ क्यापि बाथ नकारं न वक्ति। ३ अमरमुकुटाना दोहदः पूर्वोक्तः । ४ पवित्रनामयः, पवित्रकीतिर्वा । ५ अष्टादश लिपयः, ताबमा: उठाठ3300000000000000000000000000000000 दा सदाऽऽनन्दकरं स दानबहदीनतृप्तिं चकार शराणाम् । 888600 . Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१४७॥ कलास्ततोऽपि द्विगुणाः कुमारो बुबोध मारोदररूप एषः ॥ १०४॥ "१ हंसलिपि २ भूतलिपि ३ यक्षी तथा ४ राक्षसी च बोदव्या, ५ उडी ६ यवनी ७ तुरुष्की ८ कीरी ९ द्राविडी च १० सिन्धविका। 8 ११ मालविनी १२ नटी १३ नागरी १४ लाटलिपिः १५ पारसी च बोबव्या, तथा १६ अनिमित्तिका लिपि १७ थाणक्या १८ मौलदेवी च ॥-80 (प्राकृतमेतत् प्रथमकर्मप्रन्थे पृ० ११-१२ टी०) समवाय-अङ्ग- प्रज्ञापनाप्रभृतिग्रन्थान्तरेषु अन्यप्रकारेणाऽपि लिपेरष्टादशभेदा भाविताः, ते च 8 तत्तत्प्रन्येभ्य एव अवसेयाः, ललितविस्तरादिवौद्धप्रन्येषु तु लिपेर्भेदानां चतुष्पष्टिः संख्याता। आयुधविषयान्-षटत्रिंशद् युद्धभावान् । कलाच द्वासप्तति,ता बैलाः- १ लेखम, २ गणितम्, ३ रूपम, ४ नाट्यम्, ५ गीतम्, ६ वादितम, ७ स्वरगतम, ८ पुष्करगतम्, समतालम, १९ चूतम, ११ जनवादम, १२ पारकाव्यम, १३ अष्टापदम, १४ दकमृत्तिकम्, १५ अन्नविधिः, १६ पानविधिः, १७ वसविधिः, १८ शयनविधिः, १९ आर्या(छन्दः ), २० प्रहेलिका, २१ मागधिका, २२ गाथा, २३ श्लोकः, २४ गन्धयुक्तिः, २५ मधुसिक्थम, २६ आभरणविधिः, २७ तरुणीप्रतिकर्म २८ सीलक्षणम्, २९ पुरुषलक्षणम्, ३० हयलक्षणम्, ३१ गजलक्षणम्, ३२ गोलक्षणम्, ३३ कुक्कुटलक्षणम, ३४ मिन्टकलक्षणम्, ३५ चकलक्षणम्, ३६ छत्रलक्षणम्, ३७ दण्डलक्षणम्, ३८ असिलक्षणम, ३९ मणिलक्षणम्, ४० काकणीलक्षणम, ४१ च. मलक्षणम्, ४२ चन्द्रलक्षणम, ४३ सूर्यचरितम्, ४४ राहुचरितम, ४५ ग्रहचरितम्, ४६ सौभाग्यकरम, ४७ दौर्भाग्यकरम, ४८ विद्यागतम्, ४९ मन्त्रगतम्, ५० रहस्यगतम, ५१ सभास (प)म, ५२ चारम, ५३ प्रतिचारम, ५४ व्यूहम, ५५ प्रतिव्यूहम, ५६ स्कन्धावारमानम्, ५७ नगरमानम्, ५८ वस्तुमानम्. ५९ स्कन्धावारनिवेशः. ६० वस्तुनिवेशः, ६१ नगरनिवेशः, ६२ इषु-अस्त्रम, ६३ सरूपवाद (त) म्, ६४ अश्वशिक्षा, ६५ हस्तिशिक्षा, ६६ धनुर्वेद, हिरण्यपाकः ६. सुवर्ण-मणि-वातुपाकः ६८ बाहुयुद्धम् दण्ड-मुष्टि-आस्थि-युद्धम्.-युद्धम, नियुद्धम्, युद्धातियुद्धम्, ६९ सूत्रखेटम्, नालिकावृत्त-धर्म-चर्मखेटम्. ७० पत्रच्छेद्यम, कटकच्छेद्यम्, ७१ सजीवम् निर्जीवम्, ७२ शकुनरूतम् "-(एतच्च समवाय-अगसूत्रमूलादा ( समिति पृष्ट ८३) अनुवादितम्, भासामजिज्ञासुना समवायत्र-जम्बुद्वीपप्रजाप्ति- राजप्रश्नीयादिटीकाः एव संविलोकनीयाः । ||8994 000000000000000000000000000000000000000000000 For Private & Personal use only . Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 ॥१४८॥ सगे:-५ 000000000000000000000000000000000000000- ( वसन्तसेनो मित्रम्-) इत्थं शिशुत्वे सकलाः कलास्ता अधीयुषो भूमिभुजः सुतस्य । श्रीकान्तमन्त्रिप्रवराङ्गाजेन वसन्तसेनेन बभूव सख्यम् ॥१०५॥ ( योवनम्-) तथाऽस्य देहे प्रससार सार-शास्त्राम्बुयुग यौवनसिन्धुिरुच्चैः। मौख्य-यथा तत् तृणवद् जगाम बाल्यं ममजाऽमलवालुकेव ॥ १०६ ॥ ( वसन्तक्रीडा-) वसन्तसेनेन युतोऽथः सख्या सख्याद् वसन्ते स वनाऽवनीयु । पुष्पोचयं भूपसुतश्चिकीर्षुर्जगाम कामाधिकधार्मधामी॥ १०७॥ ( वृक्षाः सशोभाः- ) ततोऽवनीजानिसुतो नीजानितो विलोक्येति समृद्धशोभान् । आस्यं वयस्यस्य स जातहास्यं सलीलमूचे सहसोनमय्य ॥१०८॥ त्वं नेत्रमित्रीकुरु मित्र! चित्र-प्रदान् विशेषान् मधुनाऽधुनाऽत्र। तरून गुरून पल्लवपुष्पलक्षम्या मनो जनानां हरतो रयेण ॥१०९॥ तथा चैतत् प्रतिपन्नम् । नाऽम्भोभोज्यभरंददाति दमयेद्-अश्यानशत्रु दवं नो तिष्ठेद् मितकालतोऽथ दिवसं पार्श्व वसन्तः कदा। हर्षे हेतुमकुर्वति दुमततिश्चास्मिन् समेते सदासोल्लासा किल सा तत्र जयति प्रीतिनिराशाश्रया ।।११०॥ छायाद्यायासशान्त्यै कुसुमपरिमल: कायसौरभ्यकर्ता [अन्यच्चनिष्णातान्येव तृष्णा-क्षुदुपशमविधावस्य नानाफलानि । धन्यो वन्योऽपि भूमीरुहनिवह इहाऽनेकलोकोपकारी । १ यत्र सिन्धुः प्रसरति तत्र तृणानि, वालुकाश्च न स्थातुं शक्नुवन्ति-अत्राऽपि यौवनसिन्धी प्रसरति तृणरूपं मौय॑म् , वालुकारूपं च बाल्यं दूरापगतमेव । २ कामाधिकतेजोयुतः। ३ वनीजान-वन्यां जातान्-वृक्षान् । ४ पश्य । ५ वसन्तेन । ६ न श्यानो घनः । ७ तृषा । 5000000000000000000000000000000000 ॥१४८.॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक-8 रिश्रम 000000000000 सग:- 'विद्वानप्येष नैवाऽहितनिहितमना यो मनामप्यधात् स्यात् (१) ॥१११॥ 18 त्वं पश्य कर्परतरी वयस्य! कोदण्डदण्डं पुरतः प्रचण्डम् । चलेंचरस्तन्निजहस्तवाच्छां संपूरयाम्येनमहं विमृध ॥११२॥ ( टङ्कारो धनुषः-) एवं गदित्वा मुदितोऽथ गत्वा नत्वा धनुः सोऽतनुवीर्ययुक्तः। प्रमृज्य हस्तेन तु कौन्तकान्तिं चकार दिव्यायुधमेतदूर्ध्वम् ॥११३॥ 18 वामस्य हस्तस्य समर्प्य मेंध्यं सुदक्षिणत्वादपरस्य कोटिम्। 'दत्त्वा वरेऽस्मिन् धनुषि प्रणेने गुणं समारोपयदेष विज्ञः ॥११४॥ [ ततश्चनेः पर्वतकन्दरा द्रुतपदं नेशुश्च सिंहा अपि, पेतुः कुम्भिघटा नदीषु च तटाद् यान्त्यो जवेनोत्कटाः ।। 8 चक्रुः शब्दममूर्मियश्च मिलितस्त्रीवत् तथाऽष्टौ दिशा-टङ्काराद् धनुषो मुखायितमतस्तैर्विश्वकर्णैरपि ॥११॥8 18 स ज्यां समुत्तार्य ततः प्रसह्य सहेलमालोक्य वसन्तसेनम्। जगाद यद्यस्य शरासनस्य योग्याः शराः स्युस्तदहो! सुयोगः ॥११६॥ 81 ( कुमारी तिरो, भूव-) यावत् तदुक्तस्य सुमन्त्रिपुत्रः प्रत्युत्तरं किचिदपि प्रदत्ते। तावत् कुमारोऽमरशेखरोऽथ स चापहस्तोऽपि तिरोबभूव ॥११७॥ ( तद्वेषणाय मित्रप्रयासः-) निमेषमात्रात् क्व ययो कुमारो विचारयन् मन्त्रिसुतोऽतिवेगात् । शब्दायमानः प्रतिवृक्षमेष बभ्राम कुत्राऽपि न तं ददर्श ॥१ १ पु. अस्फुटम् ।२' चल त्वरातो निज'-इत्यपि पठितुं शक्यते । ३ 'कान्तकान्ति' उचितम् । ४ धनुषो मध्यम् । ५अत्यतं वलिने धनुष । नादं चक्रुः। ७ शब्दं कुर्वाण:-आकारयन् । 00000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000 १८॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१५०॥ 2000000000000000000000000000000000000000000000 मियालोकेन किमाऽस्य दुःखदोषाकुलं लोचनपद्मयुग्मम् । অনিষ __ संकोचमानं च तथाऽङ्गयष्टिस्तन्नालवद् नम्रतरा लुलोल ॥११९॥ 8 सर्गः-५ पूर्वप्रशंसामुदिता इवैते द्रुतं द्रुमाश्चारुचिरोपचर्याम् ।। चक्रुः प्रसूनैः शिशिरैः समीरैभूमीशपुत्रस्य वयस्यदेहे ॥१२०॥ विना सखायं किल तस्य कायं मूर्छा पिशाचीव वने ग्रसन्ती। समीरहक्काभिरनुप्रसूनचाणावलीभिस्तरुभिनिरासे ॥१२१ (मित्रतः प्रविलापः-) संप्राप्य संज्ञा सचिवस्य पुत्रो नाऽऽलोक्य मित्रं यहदुःखतापात् । स्फूर्जबहुस्नेहभवा हि धीरों इवोजगार प्रविलापवाचः॥१२२॥ संघकसंमोदकरस्य दृष्टः दोषापहस्य प्रतिभाप्रकाशात् । सूरस्थ मित्रस्य वियोगतस्ते विलोकितुं विश्वमहं क्षमो न ॥१२३॥ [ यतःन भास्करो भास्करतां प्रयाति चन्द्रत्वमप्यश्चति नैष चन्द्रः। दुःखाऽवनं नैव वनं करोति वियोगधाविपरीतसृष्टः ॥१२४॥ (मित्रवियोगतः तपसोऽभिलाषः) तस्माद् जगद् दुःखमयं समग्रं हा! मित्रहीनं त्वरितं विहाय । चरामि किश्चित् तप एव गत्वा तपोधनान्ते स्वर्तमोऽभिदाहम् ॥११॥ १.भित्रकोना। २ कमवसालबत् । ३ निरस्ता । ४ धीराः प्रविलापवाचः । ५ सूरपक्षे सच्चक्रवक्रवाकः, दोषा रात्री । मित्रपक्षे सच्चकं सज्जनसंघः, दोषाः दुगुणाः । दुःखाद् रक्षणम् । . वियोगरूपस्य विधातुः । ८ तपक्किनो निकटे । निजतमाशाहकम् (तमा-पापम् ) 81444444. PooooooOOOOOOOC Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम् ॥१५१॥ DONoooo क000000000000000000000000000000000000 (अरण्ये यति-) एवं बिचार्य स्वमनो निवार्य मोहाद महादाखभराच भोगात् । गच्छन्नरण्येऽथ यतिं विलोक्य नत्वाऽऽर्थयन्निर्मलजैनदीक्षाम् ॥१२॥ सर्ग:-५ ( यतेः उपदेशः-) दीक्षोन्मुखं वीक्ष्य सुदुःखितं तं द्राग् मौनमुद्रां स मुनिविमुच्य । ज्ञानांशुयुक्तोऽमलवाक्यरत्नोचय स्वयं तस्य ददौ विहस्य ॥१२७॥ ! विशुद्धात्मक! पूर्वकर्म प्रवर्तते भोगकृते गरीयः। भुक्तेऽथ तस्मिन् व्रतभावमुक्तेर्जीवो भवेऽस्मिन् भवितैव भव्यः ॥१२८॥ ( वयस्यसंगमो भावी-) किं प्रष्टुकामः स्ववयस्यसंगं त्वं विद्यसे तत् शृणु मन्त्रिपुत्र ।। दिने तृतीये कुशलस्वरूपं वेत्तासि तस्येति विलम्ब्यता तत् ॥१२९॥ किन्तु, ( यतिनिकटे द्वादशवतस्वीकारः-) सम्यक्त्वशैलाभ्युदितं प्रभाढ्यं तीव्रव्रतं द्वादशमतिमुच्चैः । श्रीजैनधर्मे भवदुःखसृष्टिकल्पान्तदं भानुनिभं गृहाण ॥१३०॥ ( महामन्त्रः-) तस्या महामन्त्रममुं महाधिव्याधिप्रणाशाय परात्मनोश्च । बीजाक्षरैश्चारुभिरष्टषष्टिमितैर्युतं नित्यमतः स्मर त्वम् ॥१३१॥ ( वसन्तसेनस्य अरण्ये प्रवास:-) वसन्तसेनस्य तदोपकर्ण भूत्वा मुनिस्तं निभृतं जगाद । अथो गुरोरंदिरजः स्वमौलो न्यस्याऽचलन्निश्चलचित्तवृत्तिः ॥१३२॥ ( कश्चित् कीलितः- ! पुरुषः मूच्छितः-) ततः फलैवृत्तिकरो विहारपरो ब्रजन्नेष पुरोऽद्रिशृङ्गे । १ प्रार्थयत् । २ योग्यः । ३ जैनसंप्रदाये आवकाणां द्वादश व्रतानि, काव्यसंसारे सूर्या अपि द्वादश-अत एव तयोर्द्वयोरपि अत्र श्लोके साम्यम्। अत्र व्रतस्य नपुंसकत्वेन 'द्वादशमूर्ति' स्यात्। ४ स्व-परयोः । ५ जैनसंप्रदायप्रसिद्धो नमस्कारमन्त्रः-अष्टषष्टि-अक्षरमित एव । ६ संधार्य। 8॥१५॥ For Private & Personal use only 0000000000 . Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S पुण्डरा सर्ग:-५ ooOooooooooooo)3c03CoooooooooooooooooooooOopsg सुप्तं शिलायो बहुलोहकीलैः संकीलितं सत्पुरुषं ददर्श ॥१३३॥8 चरित्रम्तं मूर्छितं वीक्ष्य कृपाभृतोऽयं गिरेझरात् साष्टशतं चलूनाम् । तेनैव मन्त्रेण ततोऽभिमन्य चिक्षेप साक्षेपमनास्तदङ्गे ॥१३४॥ ( मन्त्रप्रभावात् तस्य पुरुषस्य मूपिगमः-) तन्मन्त्रपूतोदकसेकतोऽथ तूष्णींबभूवुः किल लोहकीलाः। नरोऽपि चैतन्यधरःक्षणेन प्रोत्तस्थिवानुन्मिषिताक्षिपद्मः ॥१३५॥ ( वरयाचनाय प्रार्थनम्-) कृतं विशल्यं करणं मनस्तु प्रयाच्य किंचित कुरु मे महात्मन् ।। वसन्तसेनं विहितोपकारं वीक्ष्याऽवदत् सोऽथ कृतज्ञधुर्यः ॥१३६॥ (तद्वत्तम्-) ऊचे वसन्तो नहि देव ! याचे परं वद त्वं कथमेक एव । संपीडितः केन च कान्तकान्तिकायेन संसूचितभूपभावः ? ॥१३७॥ (वैतात्ये जयन्ती-) असौ बभाषे बहुधीरवीर! हीराख्यवैतादयगिरौ समस्ति । वरीयसी निर्मलरत्नहम्यैगरीयसी भो! नगरी जयन्ती ॥१३८॥ (रिपुमलो नृपः, रत्नमाला राशी-) तस्या नरेन्द्रो रिपुमल्लनामा कामाधिको जेतृतयाऽऽभया च । सदा मनोनर्तनरङ्गशाला भार्या तदीयाऽजनि रत्नमाला ॥१३९॥ (तत्पुत्रः-चन्द्रावतंसोऽहम-लीलावती मम भगिनी-) अनेकसंग्रामजयोजितौजाश्चन्द्रावतंसोऽस्मि सतस्तयोस्त । १चलुः-जलालिः । भाषायाम्-' चळू' । २ करणं शरीरम् । किंचित् प्रयाच्य मे मनो विशल्यं कुरु । ३ कात्या । 18 ॥१५२॥ Sooxxxxxxxxxxxxxoso. Jain Educati emational Hi Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डराक ॥१५॥ OoooOOOOOOOOOOOooooOOoooooooc प्रादुर्भवन्निमेलशीललीला लीलावती तदुहिता स्वसा मे ॥१४०॥ ४ चरित्रम्. सुवर्णलावण्यगुणौघरत्ननिधिं शरीरं किल वीक्ष्य तस्याः। सर्गः-५ प्राकारवद् यौवनमेष कृत्वा वेधाः स्मरं यामिकवद् मुमोच ॥१४' ( विशालकीर्ति ज्योतिर्वित्-) भूपः सुतां रूपयुतां विलोक्य ज्योतिविदं तत्र विशलकीतिम। पप्रच्छ स स्वच्छमना वरोऽस्याः कः स्यादतोऽसाववद् विचार्य ॥१४२॥8 ( कनकान्तरीपे द्वीपे पद्मावती-) राजन् ! समुद्रे कनकान्तरीपे पद्मावती तिष्ठति तत्र देवी। तद्गेह मध्येऽस्ति धनु: प्रचण्डमदृश्यरूपं धरणेन्द्रमुक्तम् ॥१४३॥ (दिव्यं धनुः-) तत्रोपवासत्रय-भूमिशय्या-ब्रह्मव्रतस्थस्य नरस्य दृश्यम् । भवेद विगृह्याऽथ धनुस्तु दिव्यं तन्मण्डेनीयं वरमण्डपेऽत्र ॥१४४॥ (पुत्रीवरयोग्यता-) कोदण्डदण्डं किल यो व्युदस्य कोटौ गुणं स्थापयिता बलेन । ___ धन्यः स कन्यां तव भूमिभर्तीलावतीं स्वीयकरे ग्रहीता ॥१४॥ 8| ( मणिचलो वीर:-) ज्योतिविदो वाक्यमिदं निशम्य दिदेश राजा मणिचलवीरम ।। स तत्र'गत्वा विधिवद् धनुस्तद् नीत्वा चचालाथ विमानरूढः ॥१४६॥ ( लक्ष्मीपुरम-) आयार्नेसौ दिव्यधनुस्तदेव लक्ष्मीपुरस्योपवनान्तराले। कर्पूरवृक्षस्य तले विमुच्य वाप्यां स्वयं स्नानकृते जगाम ॥१४७॥ १ यामिकः-प्रहरी-भाषायाम-पहेरो देनार । २ पु. 'तन्मण्डलीय ' इति। ३ 'वनस्य इति' पु०।४ भागच्छन । 18||१५३॥ 20000000000000000000000000000000000000000000000 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१५४॥ ४ १२ ( चापधरो मरो घृतः ) स्नायं चितन्वन् धनुषो गुणोत्थं टङ्कारमाकर्ण्य जवाकुलोऽसौ । तत्रागतश्चापधरं नरं तं विलोक्य धृत्वा स्वपुरी निनाय ॥ १४८ ॥ तं राजपुत्रं स्वगृहे विमुच्य चापं गृहीत्वा मणिचूलवीरः । गत्वा सभायां रिपुमल्लवीरं नत्वा सहर्षः समुपाविवेश ॥ १४९ ॥ (राज्ञाश्चिन्ता, तन्निरासश्च—) राजा धनुः प्रौढधनुःप्रभाढ्यं वीक्ष्याऽवदत् कोऽपि बली न तादृक् ॥ कोट समारोप्य गुणं हि योऽस्य करोति मे कोटिगुणं प्रमोदम् ॥ १५०॥ उक्त्वेति मौनस्थममुं सचिन्तं दृष्ट्वा बभाषे मणिचूलवीरः । भूत्वोपकर्ण नृपतिस्तदैव हृष्टो नेरन्द्रान् सहसाऽऽजुहावे ॥ १५१ ॥ ( विवाहयोग्या सामग्री — ) उपस्करं तत्र विवाहयोग्यं भूभीपतौ कारयति प्रकामम् । रात्रौ स्वसौधाग्रगचन्द्रशालां संश्रित्य चन्द्रेऽभ्युदितेऽस्मि सुतः ॥ १५२ ॥ ( राजपुत्रहरणम् - ) केनाऽपि विद्याधरपशनेन विहायसैव व्रजताऽस्मि दृष्टः । हृत्वाऽग्रवैरादिह शैलशृङ्गे संकीलितो विस्मृतसर्वविद्यः ॥१५३॥ ततोऽतिपीडाभरतो न वैरी सम्यग् मयाऽलक्ष्यत यद्यपीह । संजीवितोऽहं त्वयका तथाऽपि ज्ञात्वा करिष्यामि रिपुं प्रशान्तम् ॥१५४॥ स्पृहाविहीनस्य च जीवदातुस्तवोपकारादन्नृणो न हि स्याम् । कृत्वा कृपां धन्य ! तथाऽपि किञ्चित् याचस्व मां पुण्यनिधिं कुरुष्व ॥ १५५ ॥ [ यतः १ धनुषः अप्रभागे । २ आकारयामास । ३ पांशनो नीचः । चरित्रेम् सर्ग: ५ ।। १५४ ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OOOOOoooo पुण्डरीक-8 स कल्पवृक्षः स तु कामधेनुश्चिन्तामणिः सैष सुधा स एव । 8 चरित्रम् ॥१५५॥ योऽनेकदुःखाकुलजन्तुजातोपकारकारी दृढधर्मधारी ॥१५६॥ सर्गः-५ (वसन्तसेनो जगाद-) वसन्तसेनो हृदयप्रमोदसुधागिरं साधुगिरं जगाद। नरेशसूनो! बहुदुःखदीनोऽप्यहं त्वयैवोपकृतोऽग्रतोऽपि ॥१५७॥ यथा नरः कोमलकल्पवृक्षच्छायासु तृप्तश्च गतश्रमः स्यात् ।। ____ अहं तथा तद्वचनैः सुशीतैर्मन्मित्रवार्तासहितैः प्रहृष्टः ॥१५८॥ प्राणाधिकं यद् भवता वयस्यं प्रकाश्य दत्तं मम जीवितव्यम्। महोपकारो विहितः स एव परात्मवद् दर्शयता तमेवम् ॥१५९॥ (योम्नि विमानम्-) इत्यासमोनेऽथ वसन्तसेने व्योमाङ्गणे निर्मलकान्तकान्ति ।। प्रादुर्बभूवाद्भुतमेकमुच्चैविमानमाश्चर्यकर पुरस्तात् ॥१६०॥ नरो विनिर्गत्य विमानमध्यात्-चन्द्रावतंसं प्रणनाम भक्त्या । क्षेमोऽस्ति भो! भो! मणिचूलवीर ! तदा मुदा तं सहसा स आह ॥१६॥ चन्द्रावतंसो मणिचूल पृष्टो वृत्तं समाख्याय निजं समग्रम् । वसन्तसेनं कृतजीवदानं निर्दिश्य स स्वेन समं निनाय ॥१६२॥ बसन्तसेनं स्वकरे गृहीत्वा विमानमारूरुहदादितोऽथ । स्वयं समारुह्य ततश्चचाल कुमारराजो मणिचूलयुक्तः ॥१६॥ १ या सुधां गिरति ताम् । २ आरोहणं कारयामास । ॥१५५ 000000000000000000000000000000000000000000000-R oooooooooo Jain Education Instamational Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम् 000000000000000000000000000000000000000000000000 (मणिचूलवीरो बभाषे-.) विहायसा गच्छति सद्विमाने वीरो बभाषे रिपुमल्लपुत्रम् । स्वयंवरायातनृपाय॑हेतोय॑लोकयत् त्वां स यदा पिता ते ॥१६४॥ स्वदकरः शयनीयमग्रेभूयेक्षितं तत् त्वयका नु हीनम् । हृतो हृतो राजसुतो हि केने त्यारावमुच्चैर्विदधुस्ततस्ते ॥१६॥ त्वदिप्रयोगाच विराहंकृत्याद् व्यग्रं नृपं वीक्ष्य मया बभाषे। ___ स्वामिन् ! अहं ते तनयं निरीक्ष्याऽऽनेष्यामि तत् त्वं भव सुप्रसन्नः ॥१६६॥ (धूमध्वजो नृपः सपरिवार:-) एवं निगद्य प्रचचाल सद्यस्ततोऽहमद्राक्षमितः प्रयान्तम् । धूमध्वजं पद्म-महेन्द्र-सूर-भीमयुतं स्वामिनमुत्तरस्याः ॥१६७॥ एनं प्रणम्याऽथ मयेति पृष्ट किं कुत्र दृष्टो रिपुमल्लपुत्रः। - पद्मोऽवदत् तत्सदृशोऽस्ति शूलिशैलस्य शृङ्गे मृतवद् वराकः ॥१६८॥ हतः कुमारः कथमेभिरेवं विचारयन् वेगभरादिहाऽऽगाम् । वसन्तसेनेन तु सेवितं त्वां दृष्ट्वाऽस्मि हृष्टः परिपूर्णभावः ॥१९॥ ( धूमध्वजो वैरी-) चन्द्रावतंसोऽवददुत्सुकोऽहं ज्ञातं हि धूमध्वजभूप एषः । पूर्व रिपुस्तन्मम देहपीडा कृतेदमुप्तं हि विरोधबीजम् ॥१७॥ एवं तदालापपरायणस्य चन्द्रावतंसस्य विलोचनाये। पुरी परीता फल-पुष्प-वृक्षबभूव भूवल्लभनन्दनस्य ॥१७१॥ १ आरावः कलकल:। २ विरहकृत्यात् । 00000000000000000000000000000000000000000000000000 ॥१५६॥ Jain Education E ational ainelibrary.org Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D एण्टीक चरित्रम् सर्गः-५ १५७॥ 0000000000000000000000000000000000000000 (स्वीया नगरी- ) समीपमेत नगरी समेतां विज्ञाय साश्चर्यमना वतंसः। उत्थाय विस्तार्य विलोचने स्वे जगाद सौत्सुक्यवचांसि हर्षात् ॥१७२॥ [तथाहि*रिरिदेवगृहध्वजमाला भान्ति विनिर्मलकान्तिविशाला। धर्मनृपस्य भटैरिव सारा धूता अभ्यासिभिरसिधारा ॥१७३॥ [अतःप्रासादाः स्फुरदुरुकान्तिहेमकुम्भैः शोभन्ते मरुजस्वैर्मदप्रदैश्च । * पापारिप्रहतमुदा प्रहस्तला ले कि योधाः सुकृतमहीभुजो हसन्तः ॥१७४॥ अहो ! अग्रतो दृश्यते राजधाम ममदमार्गगच्छत्सुवर्णौघधाम । हिमाद्रिं प्रति स्पर्धया पिङ्गगाङ्ग-प्रवाहस्य कीत्येव मेरुदृढाङ्गः ॥१७॥ गजगजिततजितसिन्धुपति भटशस्त्रततिस्खलदगतिम् । ननु राजगृहाजिरमत्र वरं प्रविभाति जगज्जनचित्रकरम् ॥१७६॥ ( राजपर्षत -.) वसन्तसेने वदतीत्थमेतद् विमानमागादपराजपर्षत। शीघ्रं समुत्तीर्य ततस्त्रयोऽपि नेमुपं विस्मयसस्मितास्यम् ॥१७७॥ ( नृपचिन्ता-) कुमारवृत्ते मणिचूलवीर-प्रज्ञापितेऽसौ रिपुमल्लराजः। व्यचिन्तयच्छविनाशविद्या-पूजाकृतेऽनेन सुतो गृहीतः ॥१७८॥ मंत्तोऽधिकोऽयं भुजवीयमत्तो रिपविजेयः कथमेष एव । चिन्ताऽथवा काऽत्र सदैव दैवमेव प्रमाणं हि भवे भवेऽस्मिन् ॥१७९॥ १चन्द्रावतंसः। २ रिरि:-धातुविशेषः । ३ अलमर्थे 'लम्' इति ज्ञायते । ४ अत्र श्लोके राजधाम-मेरुपर्वतयोः साम्यम् । ५ सूर्यगतिम् । 81 राजपर्षत्समीपम् । विशेषणम्, क्रियाविशेषणं वा- मम सकाशात् । ooooooooooooOOOOOOOOOOOooooooOOOOOO Jain Education Intentional Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १५८॥ ४ १२ (स्वयंवरातनृपाणां सरकार:-) ततोऽपचार्य स्वभाजनेभ्यो वसन्तसेनस्य सभाजनाय । स प्रेरयद् भ्रभ्रमसंभ्रमेण महीमहेन्द्रो मणिचूलवीरम् ॥ १८० ॥ नरेशनिर्देशमथो विचिन्त्य तदा मुदा पाणितले विलम्ब्य । वसन्तसेनं मणिचूलवीरो गृहेऽर्घ्यदानाय निनाय शीघ्रम् ॥ १८९ ॥ ( वसन्तसेनमित्रप्राप्तिः— ) ततः कुमारोऽमरशेख (प) रोऽपि प्राणप्रियं लोचनगोचरस्थम् । हसन्तमालोक्य वसन्तसेनं मुदोत्थितोऽयं सहसाऽऽलिलिङ्ग ॥ १८२॥ [ तदा चकुमारचित्तेन वसन्तचित्ते वसन्तचित्तेन कुमारचिते । स्वयं त्वमुक्तं चिरचितं स्राक् संदौकितं शैत्यमपूर्व भोज्यम् ॥ १८३॥ ( मित्रयोः संभाषणम् — ) मित्रेण पृष्टोऽथ वसन्तसेनो वृत्तं निजं ह्याविरहात् समग्रम् । मन्त्रासि - राजाङ्गजजीवदानप्रभृत्यवादीत् प्रमदप्रदायि ॥ १८४ ॥ ततो वसन्तेन युतं कुमारमसिस्नपेद् मङ्गल-गानपूर्वम् । कोटीर-हारा - ऽङ्गद-हीरमुद्रादिभिः स वीरस्तमलंचकार ॥ १८५ ॥ ( प्रतीहारो नृसिंहः - ) ततः प्रतीहारवरो नृसिंहः पट्टाश्वमानीय जगाद वीरम् । विधाय माङ्गल्यविधीन् समग्रानारोप्यतामत्र कुमारराजः ॥ १८६॥ ( विस्मितं चेत:- ) वसन्तसेनादिभिरन्वितोऽयं तुरंगमारुह्य तदा चचाल । क्वाऽहं क्व वैताढ्यनगः क्व चेदं विचिन्तयन् विस्मितचेतसैवम् ॥ १८७॥ [ इतश्च १ सभाजनं पूजनम् । २ रूपयामास ३ भूषयामास । ∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞0 चरित्र सर्ग: ५ ॥१५८॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक परित्रम् । Booooocesses 5600000000000000000000000000000dod (सवपरम ) चंद्रोदये शीततरं दिनेऽपि मुक्तादितं मोहकरं भवेऽपि चित्रप्रदं चातिविचित्ररूपं नेत्रातिथिं मण्डपमेष चक्रे ॥१८७॥8 सर्गः-५ (विद्याधरेन्द्रा:-) यावत् कुमारः स तु मण्डपान्तर्वभूर्ववीक्षां ललितोत्पलाक्षः। दृष्टान् निविष्ठान कनकासनेषु विद्याधरेन्द्रान मुदितो ददर्श ॥१८८॥ (वसन्तसेनमित्रम् ) पुरः परिक्रम्य स वेत्रिधाचा निर्दिष्टपूर्वे गुरुविष्टैरेऽथ । स्पष्टप्रभो राजसुतो निविष्टः स्वकीयमित्रेण सशोभपृष्ठः ॥१९॥ शृङ्गारपीयूषपयोमुचोऽस्य प्राम्भसा श्रीरिपुमल्लहर्षः। कल्पवद् वृद्धिमगात् तथाऽन्यराज्ञां प्रतापोऽग्निरिवोपशान्तः ॥१९१॥ ( संगीतम्-) इतो मृदङ्गध्वनिमन्द्रसान्द्रमुन्निद्रनीरन्ध्रपुरन्ध्रिगीतम् । आकर्ण्य कर्णप्रमदमदं द्रागुत्कर्णितैर्भूपतिभिर्बभूवे ॥१९२॥ [ तावच्च(धनु:-)महोऽधिकं तत्र महोत्सवेन महाधनुः प्रौढविमानरूढम्। आनीय चोत्तार्य ततो भटास्यैस्तदु मण्डितं मण्डपमध्यभागे ॥१९॥ (राजपरी लीलावती---) ततो द्वितीयाद् महतो विमानात् सौख्यात् सखीभिर्विहिताऽवलम्बा।। लीलाललन्नीलपयोजनेत्रा लीलावती राजसुतोत्ततार ॥१९४॥8 १ दिनेऽपि चन्द्रोदयः, मुक्ताड़ितत्वेऽपि भवे मोहकरत्वम्-एतदेव मण्डपस्य चित्रप्रदत्वम् । चन्द्रोदय:-चन्द्रस्य उदयः, भाषायाम्--चदरवा वा, मुक्ताः--मौक्तिकानि, मुक्तात्मानो वा ।२ वीक्षांबभूव-कवेः स्वातन्त्र्यमेतत् । ३ प्रतीहारवाचा। ४ महति आसने। ५ शोभासहितं पृष्टं यस्य सः । ६ अम्भो हिनि मनमति, मानपक्षमयति-पत्राऽपि प्रमाम्भसा एवमेव मनुकृतम् । 0000000000000000000ROOOOOOOOOOOOK For Private & Personal use only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रण्टरी | झल्लत्कृति निर्मलमौलिरत्नैः स्खलत्कृतिं हार-मणीगणैश्च । , चरित्रम्. झमत्कृति नूपुरसिञ्जितः साग वितन्वती चापसमीपमाप॥१९५॥ ॥१६॥ तद् दिव्यचापं बहुभक्तियुक्ता संपूज्य पुष्पहरिचन्दनैश्च ।। सर्ग:-५ ___संवर्ध्य साऽवाप्य मुदं च तस्थौ नीरनिकाच्छन्नमुखी सखीयुक् ॥१९६॥ (प्रतीहारी कन्याग्रहणपणं प्रोवाच-) अस्यां सभायां प्रसरत्प्रभायां प्रौढप्रतीहारिकयैकयाऽथ । विस्तार्य हस्तं चतुरं प्रशस्तं प्रोचे वचः प्रोच्चमनुचताख्यं ॥ १९७ ॥ तथाहि- हो। भूमीमहेन्द्रा अतनुनिजतनुज्योतिषा निजितेन्द्रा हंहो ! धीराश्च वीराः समधिगतरणाम्भोधितीरा भवत्सु। यः कोऽपि क्षत्रियोऽस्ति स्वभुजबलकलाखर्वगर्वस्थवित्तः चापं प्रारोप्य कन्यां परिणयतु जनि स्वां स धन्यां करोतु (पणपूरणे नृपाणाम् असामर्थ्यम्-) श्रुत्वैवमुत्तस्थुरनेकवीराः स्वश्मश्रुमोहायितशस्तहस्ताः। एकेऽवलोकेऽपि न तस्य धृष्टास्तत्स्पर्शतः के भुवि संनिघृष्टाः॥ ( उत्थितो रत्नध्वजः, विफलक्ष-) अथोत्तरश्रेणिपधुमकेतु-पुत्रोऽत्र रत्नध्वजसंज्ञकोऽस्ति सूरेण पद्मन युतस्तु वीर-मानी स मानी बलवानुदस्थात् ॥ २० ॥ तो धनुः सोऽतनुवीर्ययुक्तो यावत् समुत्पाटयति प्रसथ । तावद् विचेताश्लर्थसन्धिबन्धः पपात घाताहतवत् पृथिव्याम् ॥ २०१॥ भाषायाम्-मलकार-चळकाट । २ भा० खलकार-खणक र । ३ झमकार । ४ जन्म, जननी वा। ५ एके केचन नृपाः तस्य धनुषः अवलोके 8 दर्शने अपि न पृष्टाः समर्थाः। ६ शिथिलं अयम् । 18॥१६॥ Ooooooooooooo0ooooooooooooooooooooooOOOốc. 0000000000000000000000000000000000000000000000000 Jain Education Inter n al jainelibrary.org Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः-५ इबरीक- ( रत्नध्वजमौलिपात:-) तदैव देवस्य विपकतोऽस्य मोलेरिलायो विलुलन् स मोलिः । . लीलावतीपादतलान्तमेत्य तस्थो मणीभिः प्रहसन्निवोः ॥२०२॥ ॥१६१॥ कन्यां सखी प्रीतिमती वभाषे लीलावति ! त्वत्पदयोनिपत्य। . कृत्वा प्रसादं कृणु मेऽधिपं त्वं वदनिवेदं मुकुटः पुरोऽस्ति ॥२०॥ ह चातुर्यशालाऽथ विचार्य वाला पदेन चिक्षेप किरीटमेनम् । तदेव काक्षेण निरीक्ष्य पञ्चके मनः स्वं दृढकोपर्सेन ॥२०४॥ रत्नध्वजं तं रिपुमल्लराजो दयामयश्चन्दनसेचनायेः । विधाप्य चैतन्ययुतं सुवाक्यैः संमान्य चाऽस्थापयदासने तम् ॥२०५॥ ( अमरशेखरसाफल्यम्--) कुमारराजोऽमरशेखरोऽयमक्रौर्यवृत्तिर्दढशौर्यपत्तिः । उत्थाय नीत्वा च धनुस्तदाऽनीनमत् तदानीमचलाबलाङ्गः ॥२०६॥ (चालया पुष्पमालाऽऽरोपणम्-) गुणाधिरोपं गुरुदति च कृत्वा स्थितस्याऽस्य मुकर्टकम्बो। बाला विशालामिह पुष्पमालामारोपयत् कामगजेन्द्रशाला ॥२०८॥ (कुमारी पपात-) यावत् कुमारी वरणस्य मालामारोप्य दूरेऽजनि तावदेव । पपात चैतन्यविहीनदेहा कल्लोललोलाम्बुजवल्लरीव ॥२०९॥ आकस्मिकी ग्लानिमवेक्ष्य राजा राजाङ्गजायाः प्रलुठभुजायाः । १मस्तकात् । २ इला भूमिः। ३ वक्रदृष्ट्या । ४ स्वकोपगृहं स्वं मन:-चके। ५ नवं चकार । ६ अचलावद बलम् भो यस्य । गुणोऽत्र धनरज्जुः। मुकुटचूडायाम। 000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000 Jain Education national aw.jainelibrary.org Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-8 ॥१६२॥ good000000000000000000000000000000000RROdioas अचीकरन म्लानमना नितान्तं शीतोपचारान् प्रचुरान् जवेन ॥२१॥ ( सभाजनो भाविहीनः) मुग्धविदग्धैर्विहितैरुपायैर्न नाशमतिः समियति यावत। ४ सर्गः-५ तदा भृशं म्लानिमवाप भूपः सभाजनोऽभूच्च स भाविहीनः ॥२११॥ ( वसन्तसेनदर्शितो मन्त्रप्रभाव:-) इतो वसन्तो मुनिदत्तमन्त्रं त्रिः सप्तकृत्वों मनसा विचिन्त्य। आनीनयन्नीरभरं तदङ्गाभिषेककृत्यै करसंज्ञयैव ॥२१२॥ 8 पानीयमानीय तदीयहस्ते यावन्नरो निक्षिपतीह कोऽपि। सौगन्ध्यसाराऽद्भुतकान्तिभारा तदाऽम्वुधारा गगनात् पपात ॥२१३॥ ( उत्थिता कुमारी-) सा नीरधाराऽम्बरतो वसन्त-हस्ते ततो भूपसुता शरीरे। संगं करोति स्म तदैव मूळ प्रक्षालितेव प्रययौ जवेन ॥२१४॥ वसन्तसेनश्च सभाजनश्च दिव्योदकस्पर्शत एव कन्याम् । मूर्छामपाकृत्य ससौष्ठवाङ्गीं वीक्ष्येत्यऽचित्रीयत चित्तमध्ये ॥२१५॥ अहेतुवैक्लव्यमिदं किमस्याः कः स स्मरन् मन्त्रमसौ वसन्तः । करेऽम्बरस्थोऽस्य ददौ जलं को नैवं जनैनिश्चलताऽऽपि काऽपि ॥२१६॥ तदा पुनर्मङ्गलशब्दवृन्दं निमिष्य किंचिद् विगुणत्वमाप। . पवित्रचारित्ररतस्य साधोरिवाऽपवादादनु शुद्धभावः ॥२१७॥ (सत्कार:-) अथ प्रमोदाद् रिपुमल्लराजस्ताम्बूल-वस्त्रा-भरणैः प्रधानः। १ अर्तिः नाशं न समियति । ३ निष्प्रमः । ३ प्रापि । ॥१६॥ Oooooooo0oooooooooooooooooooooooooooo मापा Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्र ॥१६३॥ ४ सर्गः-५ पुण्डरीक स्वयंवराऽऽयातमहीमहेन्द्रान् सत्कर्ममारम्भयदुचचित्तः ॥२१८॥ (धूमध्वजसुतस्य द्वेषः-) धूमध्वजस्याऽथ सुतोऽद्भुतीजाः पराभवोद्भूतविषादनुन्नः। देहाऽपटुत्वं व्यपदिश्य वेगावगाम सक्रोधविरोधधाम ॥२१९॥ बुद्धिं विपर्यास्य निजेश्वरस्य पुनः पुनविग्रहमूलहेतू। तो द्वेष-रागाविव पन-सूरौ प्रचेलतुस्तेन समं ससैन्यौ ॥२२०॥ अथोत्तरश्रेणिपतिः स धूमध्वजोऽङ्गजं वीक्ष्य निजं सचिन्तम् । पप्रच्छ पद्मं नृपमेष वत्सः किं स्वस्थचित्तो न तथाविधोऽय ॥२२॥ ४ श्रीपद्मराजस्य मुखेन सर्व पुत्रापमानं स निशम्य सम्यक ।। उवाच धीमान सुत ! मा स्म कार्षीविषांऽदनोग्रं हि विषादमन्तः ॥२२२॥ यतः- यथा ते कोटीरप्रकटमणिकोटीरिततमाः परिक्षिप्तः पादेन तु नृपकुमार्या मदवशात । तथाऽहं खण्डाग्रत्रुटितरिपुमूर्धाधंगलित-स्फुटद्दन्तश्रेणिं रणभुवि निधास्येऽश्वचरणैः ॥२२३॥ निख्रिशवाचा सभयमिव भवत्कम्पनिस्त्रिंशदण्डं नीत्वा विद्याधरेन्द्रोऽतुलवलकलितो विद्ययोन्मेषमात्रा 18. विसामोदामचक्रर्यततनुरतनुक्रोधतः षष्टिसंख्ये-रुद्दण्डैर्बाहृदण्डैरदिशरिपरिबासनाय प्रयाणम् ॥२२४॥ (पुष्पावचूलः सचिव:-) पुष्पावचूलः सचिवस्तदैवाऽवद् ददन्नीतिमती मर्ति च । समील्य भूपान् प्रथम स्वसैन्ये दूतस्ततः प्रेष्यत एव राजन् ! ॥२२॥ (मित्रपाहानम्-) तथा महाराज! निज वयस्यं लक्ष्मीपुरेशं हि मुरेन्द्रदत्तम । १ अकारान्तोऽपि कर्मशब्दो ज्ञायते । २ निषभक्षणादपि उपम् । ३ ‘भवत् '-शतृप्रत्ययान्तं भू-भातोः । 20.0000000000000000000000000000000 20000000000000000000000000000 000000000000000000 Jain Education In tional XMjainelibrary.org. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरीक baoooooooooooooooooooooooooooOooooooooooo भूपं त्वमाकारय यत् स्वमित्र-वर्ग सुपृच्छन्च क्रियते हि कार्यम् ॥२२६॥ || 18 वाक्यं प्रभो! ते प्रहितेऽथ दते दतियक्तं यदि वक्ति वैरी । ___ स्वामिन् । तदाऽमुं त्वभिषेणयेस्त्वं तदूर्ध्वकिपाकर्फलं हि तस्य ॥२२॥ ( दूतं विससर्ज-) नीतिमणीतं सचिवस्य वाक्यं श्रुत्वाऽऽजुहावाऽथ सुरेन्द्रदत्तम् । कन्या प्रयाच्येति निसृष्टवाचं दूतं प्राचं विससर्ज तस्मिन् ॥२२८॥ गत्वा स दूतो रिपुमल्लभूपं निबन्धतो बन्धुजनोपकृत्यै । निदेशयन्तं च निजांस्तनूजान सिंहासनस्थं निजगाद गाढम् ॥२२९॥ तथाहि- (दृतवाणी- ) विद्यान्यवैताख्यनरेन्द्रनाथः श्रीधूमकेतू रिपुधूमकेतुः। वितन्य सौजन्यभरं स्वचित्ते स्वां वक्ति मद्वक्त्रवचोभिरेवम् ॥२३०॥ रत्नध्वजाय प्रथमाङ्गजाय निजाय वजार्यतसभुजाय । हर्षात् कुमारी स.तु याचते ते स्वाजन्यतः प्रीतिरुपैतु वृद्धिम् ॥२३१॥ धनुःप्रतिज्ञा ननु का ध्येयं भञ्जन्ति लोका हि वनेऽपि वंशान् । एतत्सुताय स्वसुतां प्रदाय सहायमेनं तु पहाण धीमान् ॥२३२॥ तपेच्छसि त्वं यदि राज्यमार्य ! विचार्य तत् कार्यमिदं कुरुष्व । ___ यतो महभिः सह कोपरोपः सोपप्लवं जीवितमातनोति ॥२३॥ सेनाम् अभिमुखं नय-आक्रमणं कुरु। २ पवात-तस्य पुनस्य किंपाकफलबत फलम् । ३ वाचाटम्। ४ बज्रवत् रही भायतो च मुजी यस्य । ५ स्वजनभावतः। भाषायाम-बांसडा । 00000000000000000000000000000000000000000000 . Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः-५ पुण्डरीक-दृते गदित्वा विरतेऽथ राजा कालुष्ययुक्तोऽप्यवदत् प्रयत्नम् । ॥१६५|| तारोधिराजोऽपि सुलक्ष्यलक्ष्मा चन्द्रातपं मुञ्चति निर्मलं हि ॥२३॥ (राज्ञः प्रतिवचः-) हे दूत ! वाक्यं शृणु यत् स धूम-ध्वजः पुरा मैत्र्यवशात् सुतां मे । प्रयाचते तद् घटते सतां हि याचाऽपि नो बन्धुषु लाघवाय ॥२३५॥ किन्तु, दिव्यप्रभं चानवलोक्यमन्यैश्चापं समारोप्य मुदं ददौ यः। वृतो बरोऽयं सुतयेति कीर्ति श्रुत्वाऽपि मामर्थयतीत्ययुक्तम् ॥२३६॥ एवं स भूपः कपटस्य कूपः समीहते यत् तदसौ करोतु । अहं स्थितोऽस्मि प्रतिकर्तुमेनं रोगं रडं वैद्य इव प्रविद्यः ॥२३७॥ इत्थं मृदस्पष्टगिराऽतियुष्टा धैर्याद् विसृष्टः स ययौ च शिष्टः । ज्ञात्वा रिपुं तं रिपुमल्लराज आजूहवत् स्वमणिचूलवीरम् ॥२३८॥ (सेनासंनाहः, अभिप्रयाणं च-) तत्राऽऽगतं प्राञ्जलिमयसंस्थं जगाद राजा मणिचूलवीरम् । अक्षौहिणीसप्तकसंख्यसैन्ययुक्तोऽरिमार्गार्धमभिप्रयाहि ॥२३९॥ ने दिने त्वं कुशल! स्वरूपं प्रस्थापयेथा इति राजवाक्यात् । प्रमाणमादेश इति प्रणत्य जगाम सैन्यैः सहितः स तत्र ॥२४॥ (विचाहमहः-) प्रमोदपीयूषपयोधिमग्ने जने समग्रेऽप्यथ रम्यलग्ने। व्यवाहयद् भाग्यवरैरहीमः सता कुमारेण स महीने ॥२४॥ ः। मित्रतावशात् ।। न गम्बते। इनः स्वामी-महीन:-महिपतिः । బంగార0000000acccccc00000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000 . Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-2 उलूलुकल्लोलकलेषु तत्र चतुर्षु जातेषु च मङ्गलेषु । चरिणम्. १६६॥ प्रयाच्य किश्चित् मम पुत्रिकायाः करं विमुश्चेति नृपस्तमूचे ॥२४२॥ सर्गः-५ (धनुस्तूणस्य याचनम्- ) ऊचे विहस्याऽमरशेखरोऽपि धनुःसमं दिव्यशरमपूर्णम् । तूणं प्रतूर्ण वसुधाधिनाथ ! यच्छ प्रयच्छ त्वमतो मतं मे ॥२४३॥ राजाऽवद् देव ! गुणस्त्वदीयैस्तनूभुवं स्वाङ्गसुवं ददामि। पुत्र्यास्तु भाग्येन धनुर्मयाऽऽप्तं तूणं त्वसाध्यं कथमर्पयामि? ॥२४४॥ (चिन्तामणि:-) तस्मादिहाऽऽस्माककुलेऽस्ति पूज्यश्चिन्तामणिश्चिन्तितवस्तुदाता। एनं गृहाणेति निशम्य हर्षान्नीत्वा मुमोचाऽथ कर प्रियायाः ॥२४॥ (प्रतिज्ञा-) इत्थं विवाहस्य महोत्सवेषु कृतेषु राजाऽथ कुमारराजः। संस्थाप्य चापं कनकासनेऽसौ संपूज्य संयोज्य करौ जगाद ॥२४६॥ त्वां चाप ! यद्यामहं सुभाग्यान्न तत् कथं त्वत्सदृशं निषङ्गम्। पूर्णा यदेषोऽत्र मनोरथः स्याद् यास्यामि भोक्ष्यामि तदाऽन्यथा न ॥२४७॥ (नमस्कारो मन्त्रः-) इति प्रतिज्ञाय गिरं स्थिरं तं वीक्ष्य स्थितं भूपसुतं वसन्तः । अरं स्मरन् पञ्चनमस्कृतिं सोऽप्यस्थाद् महास्थामनिकामधाम ॥२४८॥ इत्थं स्थितौ तौ नृपतिश्च मत्वा परिच्छदेनाऽल्पतरेण गत्वा । प्रमोदतो विस्मयतोऽप्युपासामास त्रिरात्रं स विवेकपात्रम् ॥२४९॥ १ स्त्रीजनकृतो विवाहगीतध्वनिः । २ प्रापम् । 8/॥१६॥ sooooOOOOOOOOOOOOooooooooooooo0ooooooo0 0000000000000000000000000000000000000000000 Jain Education Inte Www.jainelibrary.org. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥१६७॥ सर्गः-५ ४ 500000000000000000000000000000000000000000000000 ___ (वरुणः---) दिने चतुर्थेऽभ्युदिते दिनेश-निमदीपप्रतिदीसदेहः । फणीभिरोजस्विमणीगणाभिरुयोतयन् सप्तभिरम्बरान्तः ॥२४९॥ (वरं तृणु- ) महोज्ज्वलाभ्यां चलकुण्डलाभ्यां मेरुं जयन् निर्मलपुष्पदन्तम् । . वरं वृणु त्वं नृपनन्दनेति वदन पुरोऽभूद् वरुणोऽरुणेन्द्रः ॥२५॥ देवेश्वरं सोऽमरशेखरोऽथ निरीक्ष्य नत्वाऽऽह सह स्मितेन । ज्ञानेन जानन् अपि पन्नगेन्द्र ! मां पृच्छसि त्वं हृदयस्य तत्त्वम् ।।२५१॥४ (दत्तो निषङ्गः-) क्षणं स्थिरीभूय भुजंगमेन्द्रः प्रदर्शयामाम निषङ्गयुग्मम् । एकस्तयोः कृष्णतः शरैस्तु पूर्णी द्वितीयश्च सुवर्णवणः ॥२५२॥ तं श्यामबाणं किल वामहस्ते द्वितीयमेतस्य करे द्वितीये । समय॑ हर्षाद् उपकर्णमेत्य प्रभावमाह स्म मुदे तदीयम् ॥२३॥ (रिपुमहो देवं पप्रच्छ-) वतंसयित्वा स्वकरी सुरेन्द्र पप्रच्छ नत्वा रिपुमल्लराजः। मृच्छा किमेषा मम पुत्रिकायाः केनाम्बु दत्तं च वसन्तहस्ते ॥२५४॥ कृत्वा प्रसादं सुरराज! सर्व संदेहमुच्छिन्धि मदीयमेनम् । सूर्योदये यस्य विलोचनान्ध्यं नो याति तद् यातु कथं हि तस्य ॥२५॥ (सुरः प्रतिवक्ति-) स स्पष्टमाचष्ट सुरोऽथ तुष्टः राजन् ! समाकर्णय दत्तकर्णः। ___आनायितं चापमिदं यदाऽत्र तदागतः कौतुकतस्ततोऽहम् ॥२५६॥ १ दिनेशः सूर्यः । २ पुष्पदन्तो दिग्गजविशेषः । ॥१६॥ 00000000000000000000000000000OOOcto000000000000 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१६॥ यस: saasoooooBOOOOOOOO660000000000000 अपेक्षमाणे मथि मण्डपं ते माला यदा भूपतिपुत्रकण्ठे। चिक्षेप साक्षेपकटाक्षवीक्ष्या मन्दाक्षक्षाक्षियुगा कुमारी ॥२५७॥ तदा च- स्वस्वामिकोटीरपदप्रहारात् साटोपकोपात् स तु पद्मभूपः । प्रायुङ कन्यामरणाय विद्या भूता विचित्ता नु तथाऽभिभूता ॥२५८॥ क्रोधः प्रबोधतरणेरुरुराहुकल्पः कल्पद्रुमप्रतिर्मधर्मविनाशवहिनः । स्नेहामृतद्युतितनुक्षयपक्ष एष वयः सतां हि महिमाम्बुरुहे हिमानी ॥२५९॥ तथाचसर्वाचारविचारज्ञः सर्वशास्त्रविशारदः । सर्वधर्मानुरक्तोऽपि कोपात् पापं करोत्यहो! ॥२६॥ वसन्तसेनस्य तु हस्तपद्मे तुष्टेन मन्त्रस्मरणाद् मयैव । _ न्यधायि नीरं हि सुताङ्गपुष्टिविधायि बन्धुभमदादायि ॥२६१॥ भाग्यात् कुमारस्य वसन्तसेनस्यैकाग्रमन्त्रस्मरणाच तुष्टः । पुराऽन्यपुण्यादमुतोऽथ मन्त्रात् सुखं भवेत्र भवेऽन्यथा न ॥२६२॥ (परमेष्ठिमन्त्रप्रभावमहिमा-) कल्याणसंततिवनीनवनीरवाहं सोभाग्यवल्लिघनपल्लवपुष्पकालम् । आलानमाश्रयकृते जलघेः सुतायाः भव्या मुवि स्मरत भोः ! परमेष्टिमन्त्रम् ॥२६३॥ (सुरो गतः-) एवं वचस्तस्य नरेश्वराद्याः श्रुत्वा मनोहत्य पपुः प्रमोदम् । १ उरुराहुः-महाराहुः । २ कल्पद्रुमसमानधर्मविनाशने अग्निः । ३ अमृतधुतिश्चन्दः। क्षपक्षः कृष्णपक्षः। ४ कमलनाशने हिमरूपः कोमः । | ५ वनी मरण्यम । ६ जलधेः सुखाया सक्म्याः आकानस्तम्भरूपः । ७ आकण्ठम् । రాంచింగార00000రమయు 2000000000000000000 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम् ॥१६९॥ सर्गः-५ 900.000 Occong-sooooooooooooooooooooooooộc यावत् प्रणेमुविनयात् ततोऽमुं तावत् तिरोऽभूदुरगाधिराजः ॥ २६४ ॥ (एको नरः-) एको नरोऽथो मणिचूलवीरसैन्यात् समभ्येत्य तदैव तत्र । कृत्वा प्रणामं नृपपादमूले कृताञ्जलिःप्राञ्जलिवागुवाच ॥२६॥ धमध्वजोऽसौ शिवमन्दिरेशः संमील्य भूपान् भविताऽस्त्यऽमित्रः। एतत्स्वरूपं कथितं प्रवीर ! प्रस्थापितैयूँढनरैर्नरेन्द्रैः ॥२६६॥ (युद्धाय त्वरा-) तस्येति वाक्यात् स्मृतिमान् नृपेशः कोटीरयन् स भृकुटी ललाटे। हृत्क्रोधधूमध्वजधूमवल्ली इवोर्वरीन्द्रो द्रुतवाचमूचे ॥२६७॥ पर्याण्यन्तां महाश्वा निजजवभरतः क्रान्तविश्वा क्षणेन सज्यन्तां सद्गजेन्द्रा मिलदलिपटलैर्दानतः सेव्यमानाः। योधाः! संनद्यतां भो! रणसलिलनिधेर्मन्थने मन्थशैलाः भूपाः ! संभूयतां च प्रबलरिपुकुलप्रत्यनीकैरनीकैः ॥२६८॥ उदित्वैवं राजा स तु निजसमाजाच तरसा रयादुत्थायाऽथ द्विरदर्नवरं लक्षणधरम् । प्रसह्य प्रारुह्य प्रतिनृपंगणासह्यमहिमा-हिमांशुः पूर्वस्या नगमिव पुरा प्रोद्गत इतः ॥२६९॥ (अमरशेखरकुमारोऽपि समित्रो युद्धे चचाल-) ततः कुमारोऽमरशेखरोऽपि मित्रेण चापेन च चारुमतिः॥ चन्द्रावतंसः स्वसहोदराणां शतत्रयेणाऽनुगतोऽभ्युपेतः ॥२७॥ ( अक्षौहिणीनवकम्-) एवं तदा तस्थुषि तत्र राज्ञि भूपाः समीपं समुपेयुरन्ये । १ कोटीरं कुर्वन् । २ भृकुटीविशेषणम्। ३ मदभरतः। ४ प्रवरं हस्तिनम् । ५ प्रतिनृपः-शत्रुः । 30000000000000000000000000000000000000000000000 8॥१९॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-8 अक्षौहिणीभिर्नवनिर्मितं तद् बभूव सैन्यं रिपुदैन्यदायि ॥२७१॥ चरित्रम्. भेरीभा ङ्कारभारैः सुरपतिसदने गायतस्तुम्बरोस्तु स्थानं यच्छन् हयानां स्थपुटखुरपुटस्फोटनस्तालदानम्। ॥१७॥ सर्गः-५ कुर्वन् पातालमूले भुजगपतिपुरो नाटके जायमाने सोऽचालीद् दिग्गजेन्द्रानपि हि बधिरयन् प्रौढढक्कादिनादैः॥ 8 ( स्थावर्ती गिरि:-) ततो रथावर्तगिरी ससैन्यं स्थितं नृपस्तं मणिचलवीरम् ।। जगाद शीघ्रं चल भो! यथाऽथ छिनद्मि तं छद्मपरं स्वशत्रुम् ॥२७३॥ ( र राजमृगाको मन्त्री-) मन्त्री ततो राजमृगाङ्कनामा राजानमानम्य तदा जगाद। स्वामिन् ! समाकर्णय नीतियुक्त विज्ञप्तिमेकां सचिवैकचित्तः॥२७४॥ ( नीतिशास्त्रम्-) रागस्थिती तीव्रतरं व्रतं यन्मार्गश्रमे यद् बहुनीरपानम् । यत्कोपतः प्रोद्धतशत्रुयुद्धं तन्नायतावायतसौख्यहेतुः॥२७॥ तथाचरात्रौ स्वनेने विनिमील्य यांनं सिद्धान्तमप्रेक्ष्य तपोविधानम् । शत्रोरनालोक्य बलप्रयाणं नैतत् प्रभो!चारुविचारचारि ॥२७६॥ अन्यच्च(अभ्रगेहम्-) यथाऽभ्रगेहोगतः प्रदीपो वातोपघातेन विनाशमेति। तेजस्वितेजोऽपि तथा प्रशान्तेमध्यस्थितं कोऽपि विहन्ति नैव ॥२७७॥ प्रौढप्रवीरक्षयहेतुयुद्धं नीतो निषिद्ध नृप ! सर्वथैव । तच्चेत् समानादिभिरेति सेवां रम्यं तदा नेत्थमतो रणं स्यात् ॥२७८॥ १ तुम्बरः-देवगायको गन्धर्वः । २ आयतौ भविष्यति । ३ गमनम्। ४ अभ्रगेहम्-अत्रेण रचितं दीपरक्षागेहम्-भाषायाम्-'अबरखनुं फानस'। ५ सामादिभावैः । 0000000000000000000000000000000000 50.0000000000000000000000000000000000000000000 द 18 ॥१७॥ Jain EducatioYlemational Www.jainelibrary.org Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रहरी ॥१७॥ म 99 SooooooooooooOoooooooooooooooo (दूतस्य शिक्षा-) श्रुत्वेत्यमात्यस्य वचः स्वसैन्यं संस्थाप्य दूतस्य ददो स शिक्षाम् । भोः ! प्रोद्धतैरेव वचोभिरेनं युद्धोद्यतं त्वं कुरु न प्रशान्तैः ॥२७९॥ (दूतवाणी-) ततः स दूतो जवतोऽभ्युपेत्य धूमध्वजं वाचमुवाच वाग्मी। हितं सुनीत्या सहितं मितं मे वचः शृणु त्वं नृप ! सावधानः ॥२८०॥ यद् भूपविद्यावलये त्वयाऽस्य सुतो हृतो यच्च विवाहमध्ये । पद्मः कुमायौं विचकार विघ्नं तेन प्रकोपाकुलितोऽरिमल्लः ॥२८॥ सर्वाभिसारेण रसाधिपस्त्वां सरेन्नरं सारभृतः प्रधानैः । क्रुद्धोऽपि रुद्धोऽस्ति तव प्रबोध-हेतोस्ततोऽस्मि प्रहितो हिताय ॥२८२॥ ( राज बभाषे-) विचार्य तत् त्वं निजसौख्यतत्त्वं संधानमाधाय समाधिनैधि । श्रुत्वेति दूतस्य वचः स राजा भुजं निजं प्रेक्ष्य बलाद् बभाषे ॥२८३॥ (कनकस्य जिहवा-) कण्डूलदोर्मूलभुजानुकूलं वाक्यं प्रवक्तुः कनकस्य जिह्वा । एतस्य दूतस्य तु मन्त्रिराजः! प्रदीयतां मत्पमदेन दानम् ॥२८४|| (दूतसंमुखं वश्यि-) बल्लाच वियोवलये यथाऽस्य सुतो गृहीतोऽद्य तथाऽरिशीर्षः। स्वशौर्यदेवीपुरतस्तु नालि-केरीफलस्फोटनिकां करिष्ये ॥२८॥ 0000000000conoonmooc00000000000000000000000000 १ अर शीघ्रं सरन् । २ समाधिना समाहितो भव । ३ प्रवक्तु तस्य। ४ विद्यामण्डले। ५ देवीपुरतो हि नालिकेरस्फोटो विश्रुतः, अापि स्वशीर्यदेवी पुरतःशत्रुशीर्षनालिकेरस्फोटः । ६ नालिकेरम् । national 8॥१७॥ Jain Education Qaw.jainelibrary.org Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम् सर्गः-५ पुण्डरीक-8 संधानसंधी न हि मेऽस्ति चित्ते चित् तेऽस्ति तन्मेऽहियुगं नम त्वम् । रे दूत ! गत्वा कथयेति तस्य पुर: पुरं प्रेतवतेथियासोः ॥२८॥ ॥१७२॥ ( दूतविसर्जनम्- ) प्रसह्य दूतं स नृपोऽसह्य-शौर्यो विसृज्य स्वमहीमहेन्द्रैः ।। युक्तोऽचलच्चारुचमूसमूह-श्चमूरवरतरं स शूरः ॥२८७॥ एवं भुवं कांचिदपि व्यतीत्य धूमध्वजेन क्षितिपेन सर्वा। सेना रसेनाऽर्गलितेनं तेन चक्रेऽथ चक्रेणं समानरूपा ॥२८८॥ तथाहि(सेनां चक्राकारी विधाय चचाल धूमकेतुः-) अष्टाभिरक्षौहिणिकाभिरष्टावरानरित्रासकृते चकार । मुखेषु तेषां परितस्तथाऽष्टौ स्पष्टौजसो भूमिपतीन् मुमोच ॥२८९॥ अक्षौहिणीदश नेमिरूपा धूमध्वजस्तत् परितो न्यधत्त । अक्षौहिणीभिः स्वयमष्टभिश्च युक्तस्ततो नाभिमभिस्थितोऽसौ ॥२९॥ समग्रसैन्यस्य पुरः प्रयाणे न्यवीविशत् पद्मनृपं महेन्द्रम् ।। रत्नध्वजं स्वाङ्गजपञ्चशत्या वामेऽमुचद् दक्षिणतोऽथ शूरम् ॥२९१॥ | सहोदरं स्वं शिबिरस्य पाष्णौँ भूपोऽमुचद् मेघरथाऽभिधानम् । इत्थं समग्रं स विधाय सैन्यं चचाल शत्रूनभि धूमकेतुः ॥२९२॥ १ संधिकरणप्रतिज्ञा। २ 'चेत्' अर्थे ' चित् । ३ प्रेतपतिपुरं-यमपुरम् । ४ अध्यशौर्यः । ५ चमूरवेण क्रूरतरम् (रवः शब्दः) ६ शत्रुरोधाय अर्गल इव जातेन-भाषायाम्-आगळियो-अर्गलः । ७ चक्रेण समानरूपा-चक्राकारा । ८ अष्टौ अरान्-सैन्यस्य चक्रव्यूहरचने अराणामाकारेण सैन्ययोजना जायते । ९ पाणि:-भाषायाम-पानी (पगनी) SONAXON XXOO OOOOOOOẢNG ONONONOKONONOKONO 8॥१७२॥ . Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुण्डरीक परिक्ष संगः-५ १७३॥ 500000000000000000000000000000000 (सेनां गरुडाकारां विधाय आभिययो रिपुमालराज:-) दूतस्य वाक्येन किलोऽष्टविंश-अक्षौहिणीभिः सहितं रि स्वम् । घूमध्वजं तं रिपुमल्लराजोऽभ्यायान्तमाकर्ण्य बभूव सजः ॥२९३।। स्थानेऽथ चञ्चोमणिचूलवीरं स्वकं सुतं कालमुखाभिधं च । - अक्षौहिणीपञ्चकयुक्तमेष मुमोच संकोचकृते रिपूणाम् ॥२९४॥ चन्द्रावतंसं किल दक्षिणाले द्वितीयपक्षेऽमरशेखर च। अक्षौहिणीनां सहितं चतुष्केणैकैकशोऽस्थापयदेष राजा ॥२९५॥ संमितः पञ्चसहस्रहस्तिस्थितै टैर्विशतिभूमिपैश्च । युक्तः स्वयं पक्षयुगान्तराले तस्थौ सुसज्जो विधृतातपत्रः ॥२९६॥ अक्षौहिणीभिस्तिमृभिः समेतं वज्रायुधाख्यं मणिचूलपुत्रम् । जिनार्चनातुष्ठसुरेन्द्रदत्त-शक्त्यायुधं सोऽथ मुमोच पुच्छे ॥२९७॥ विरूथिनीमेष रिपुप्रमाथी विधाय सी गरुडस्य मृा। चचाल मन्दं रिपुवंशकन्दं प्रोन्मूलनेच्छुपियन्नृपः सः ॥२९८॥ अनीकयोोजनपञ्चकेन तयोस्ततः संस्थितयोर्नपो तौ। संशोधयामासतुरुत्सुको तत् क्षेत्रं रणायोत्कटधैर्यधुयौं ॥३९९॥ ( सुभटानां सत्कार:-) दिनत्रयं सन्ययुगेऽपि सर्व-पोधा-ऽऽयुधानां पुरतः प्रमोदात। महोत्सवं भोजनिकां विधाय सच्चक्रतुस्तौ सुभटानरेन्द्रौ ॥३०॥ १ चम्चुः-भाषायाम-चाच । २ कवचितः । ३ सेनाम् । ४ मिन्यं गरव्यूहे योजितम्-गुरुहाकारेण प्रथितम् । ५ द्विपो-हस्ती । ६ सैन्ययोः । ७ युगं द्वयम् 2000000000000000000000000000000 00000 ॥१७॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक OpOO0000000000000000000000000000000000OMMOOR क्षत्रियाः श्रीजिनमर्चयित्वा ययाचिरे प्राञ्जलयः प्रणम्य । al चरित्र अनं व्रतं क्षत्रमखण्डमस्तु परत्र भक्तिस्त्वयि वीतराग ! ॥३०१॥ 8. सर्गः-५ ( भार्या-भगिनी-जननीभिः कृतमाङ्गलिक्या भटा:-) भार्याभिरेके भगिनीभिरेके वृद्धाभिरेके जननीभिरेके। वीराः प्रचेलुः कृतमाङ्गलिक्या हर्षप्रकर्षादति दुष्पवर्षात् ॥३०२॥ ( युद्धसमारम्भः-) षष्ठ्यो तिथौ मङ्गलवासरेऽथ रणार्थवाद्येषु घनं रणत्सु। त्रुटत्सु लोहेष्वपि कण्टकेषु नत्वा नृपं तेऽभिरिपु प्रचेलुः ॥३०३॥ रथी रथेशं हर्यिन हयेशः पत्तिः पदातिं सगजं गजस्थः। धन्वी धनुष्मन्तमथो जगाम स्पर्धाप्रवृडे प्रबलेऽत्र युद्धे इत्थं रणेऽस्मिन् रिपुमल्लयोधैः क्रोधोद्धतैरिगणोऽगॅणोऽपि। व्यावर्तितः शैवलिनीजलौघो वृद्धोपि वार्धरिव दुस्तरङ्गः ॥३०५॥ सैन्यं सदैन्यं स निजं निरीक्ष्य महेन्द्रराजोऽभिरिपूनियाय । __ मत्वा तमप्युत्थितमत्र कालवक्त्रस्तमागाद् रिपुमल्लपुत्रः॥३०६॥ शरान् दक्षतया क्षिपन्तो खड्गेन खड्गं परिखण्डयन्तौ। परस्परं युद्धमरं चिरं तौ प्रचक्रतुर्विश्वमनो हरन्तौ ॥३०७॥ ( हतो महेन्द्रराजः- ) स मल्लवत्फुल्लभुजोऽतिधैर्याद् महेन्द्रराजं च रणे गृहीत्वा । कूष्माण्डवनिष्ठुरभूमिपीठे प्रास्फोटयत्कालमुखोऽतिकालः ॥३०८॥ १ रथारोही । २ अश्वारोहिणम् । ३ गजारो.हणम् । ४ धनुर्धरः । ५ गणनं गणः-संख्या-असंख्यः-अगणः । ६ इयाय । ७ कूष्माण्डम्-कोळं। 0000000000000000000000000000000 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रहरीका चरित्र. ॥१७५|| सर्ग:-५ 000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000 महेन्द्रराजं निहतं निशम्य स पद्मभूपोऽथ मुमोच बाणम् । काण्डेन विद्धः किल तेन कालोऽकाण्डेऽपि जातः सकलोऽपि नीलः॥३०॥ (कालं गतः कालमुख:-) विषेण विद्धं तमवेक्ष्य कोलमुखं गतं कालमुखं जवेन । क्रुद्धो दधावे मणिचूलवीरः शस्त्रैस्तथाऽस्त्रैः सहितोऽहितं तम् ॥३१०॥ स पद्मभूपोऽथ मुमोच बाणं तमोभृतं विश्वमतो बभूव । शरं स वीरस्तु विमुच्य भानु-शतैररेः सैन्यमतापयच्च ॥३११॥ (पद्मराजो हतः-) मुक्त्वा शरं पद्मनृपो हिमेन प्रकम्पयामास तनूं रिपूणाम् । वीरस्तदैवाऽग्निशरेण भस्मीचकार पनं सविकारचित्तम् ॥३१२॥ निहत्य पद्मं मणिचूलवीरश्चचाल यावद् विकरालमूर्तिः ।। रत्नध्वजेनाऽऽशु शरेण तावत् त्रिंशद्गजेन्द्रैः सहितो हतोऽयम् ॥३१॥ (हतो मणिचूलधी:-) चन्द्रावतंसो मणिचूलवीरं हतं विलोक्याऽनवलोक्यरूपः।। - रत्नध्वजं तत्र महाभुजं तं योधः स्फुरत्क्रोधयुतो रुरोध ॥३१॥ चन्द्रावतंसोऽथ शरद्वयेन चिच्छेद कणौँ युगपत् तदीयौ।। उवाच रत्नध्वजमेष गच्छ जीव स्वकीत्य हि मयाऽसि मुक्तः ॥३१५॥ सटोपकोपः स्फुटखेटकेन खड्गेन युक्तः स हयं विमुच्य । यावद् दधावेऽथ तदाऽसिमस्य चन्द्रावतंसः शकलीचकोर ॥३१६॥ १ असमयेऽपि । २ नील:-रक्तराहितः-मृतः। ३ कालमुखं मरणम् । ४ अहितः शत्रुः । ५ किरणशतैः । एतत् शरं तापकरम् । ६ एतद् अब हिमकरम् । ७ एतत् शरं दाहकम्-अयन्ते हि महाभारते अग्न्यस्त्रादीनि शस्त्राणि । ८ दुर्घष्यत्वेन न द्रष्टुं शक्यं रूपं यस्य । ९ खण्डं चकार । For Private & Personal use only . Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरीक १७६॥ 00000000000000000000000000000000000000000000 नध्वजोऽसौ तरवारिहीन-हस्तोऽप्युपान्ते समुपेत्य तत्र । चन्द्रावतंसं गगनेऽतिदूरं चिक्षेप साक्षेपभुजो जवेन ॥३१७॥ रत्नध्वजभ्रातृभिरुन्निषक्तैः क्षणं पृषक्तः स तु लेखितः खे । आविष्टचित्तो मणिचूलपुत्रोऽधाविष्ट तं शत्रुमथो निहन्तुम् ॥६१८॥ (निहतो रत्नध्वजः-) रत्नध्वजं तं च निहत्य शक्या सोऽघातयत् तत्सहजान् स्ववीरैः । रणं जगाहे रिपुमल्लपुत्रैर्वज्रायुधस्तैः सुभटैर्युतोऽयम् ॥३१९॥ ततः सुतं स्वाङ्गजपञ्चशत्या युतं हतं धूमनृपो निशम्य । सुरेन्द्रदत्तादिनरेन्द्रयुक्तश्चचाल कालप्रतिमो रिपूणाम् ॥३२०।। ततश्चचलत चलत सर्वे सत्वरं भो नरेन्द्राः ! ष्टलंत ष्टलत मा मा भो भटाः ! शुद्धवंशाः!। हत हतमरिन्दं सर्वमेवाऽधुनेति प्रवदति चलितेऽस्मिन् चुक्षुभे शत्रुपक्षः ॥३२१॥ गजै रथास्तैस्तुरगा अमीभिः पदातयो व्याकुलिता निपेतुः ।, अतश्च धूमध्वजपार्श्ववर्ति-वीरैः शरान्धं तमसं वितेने ॥३२२॥ प्रभज्यमानं रिपुभिः स्वसैन्यं सर्व विलोक्याऽमरशेखरोऽसौ । उत्तालफालप्रवणाश्वसंस्थश्चचाल सुलाध्यभटान् समग्रान् ॥३२३॥ अनेकवीरैः सहित तमेक-चित्तं विलोक्याऽमरशेखरं ते। तस्थुन युध्धे रिपयो मनस्थे श्रीवीतरामे. हि यथा तमांसि ॥२४॥ FE 1000000000000000000000000000000000000000000000 १ बाणः । २ भाषायामा टळो न टळो। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १७७॥ ४ V १२ 00000 00000000000 धूमध्वजोऽथामरशेखरं तं गजस्थितो वीक्ष्य तुरंगमस्थम् । स्वयं स शिश्राय हयं यतोऽत्र क्षत्रव्रतान्नैव चलन्ति धीरः || ३२५ ॥ भटेषु तत्राऽमरशेखरस्य पुरोऽप्यऽतिष्ठत्सु स धूमकेतुः । ससंर्गरः संगरहेतवेऽगान्न स्थातुमिष्टे हि तदा बलिष्ठः ॥ ३२६ ॥ अत्राणि शस्त्राणि समागतानि स्वहेलया ताववहेलयन्तौ । न प्रापतुः पारमरं सतृष्णावभव्य भव्याविव संभवस्यै ॥ ३२७॥ ( ममज्ज भूम्याम् अमरशेखर:- ) उद्विग्नचित्तोऽथ स धूमकेतुर्मुक्त्वा हयं तं गदया जघान । तुरंगयुक्तोऽमरशेखर स्तद् ममज्ज भूभ्यामिह जानुमानः ॥ ३२८ ॥ ततोऽनुभूय क्षणमेष मूर्छा पादौ समाकृष्य पुनः सचित्तः । तदा गदामात्मकरे : गृहीत्वाऽवचूर्णयामास शिरांसि शत्रोः ॥ ३२९ ॥ यावन्ति खण्डानि कुमारराजश्वकार शत्रोः शिरसां रयेण । तावन्ति वर्षन्ति शरावलीभिजतानि रूपाणि तु धूमकेतोः ॥ ३३० ॥ तदा कुमारोऽपि वसन्तसेनस्तृणं गृहीत्वा धरणेन्द्रदत्तम् । शत्रोः शरीराणि शरैविनीले विव्याध स व्याधवदेवृन्दम् ॥३३१॥ अवान्तरे दूरगतः सुरेन्द्र- दत्तस्त्वजानंस्तनयं स्वकीयम् । १ संगरसहितः । २ युद्धहेतवे । ३ संसारस्य । ४ हरिणवृन्दम् । 000000000 चरित् सर्ग: ५ HRAH Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POPS 3 परिणम्सर्गः-५ ॥१७८॥ 62590xO धूमध्बजे प्रीतियुतोऽष्टषष्टि-बाणैर्जघानाऽमरशेखरं तम् ॥३३२॥ ( स एव च मुमूर्छ- ) अचिन्तिताऽऽयातशरमहारैर्मुमूर्छ तत्रामरशेखरोऽथ । कुमारमुक्तैर्धरणेन्द्रबाणैधूंमध्वजश्चकतनुर्ममार ॥३३३॥ | संमूछितं वीक्ष्य निजं वयस्य वसन्तसेनः परमेष्ठिमन्त्रम्। स्मृत्वाऽष्टषष्टिमसतिप्रमाण-नीरेण तत्राऽभिषिषेच शीघ्रम् ॥३३४॥ ( गतमूर्छ:-प्रसन्नोऽमरशेखरः- ) तेनाऽभिषेकेण कुमारदेहात्-शल्यानि निश्चक्रमरक्रमेण । ततः प्रसन्नोऽमरशेखरोऽयं क्षेत्रं निरीक्ष्येति दयाद्रमूचे हाहास्तिकं तारतरोग्ररावं हुई हया हुंकृतिकण्ठकण्ठाः। हाहाहहा वीरवरा वरे(ही)ही नाथहीना विलपन्ति वध्यः ॥३३६॥ है है रणोऽयं सकलोऽपि निन्द्यो धिग् धिग् यतो जीवगणो हतोऽद्य ।। अहो महाद्वेषविशेष एष नरस्तु गच्छेन्नरकं हि येन ॥३३७॥ यतःजं न लहइ संमत्तं लडूण वि (०) यन्न लभते सम्यक्त्वं लब्ध्वाऽपि नवितं कुणइ अमित्तो। नाऽपि तत् करोति अमित्रः। सुरवि सुविराहिउ समत्थो वि (0) सुष्टु अपि सुविराधयितम (१) समर्थोऽपि तो बहुगुणनासाणं (०)"॥ ततो बहुगुणनाशानाम् ॥ १ प्रसूतिः-भाषायां प्रसली-खोबो । २ युगपत् शीघ्रम् । ३ रणे जायमानानां शब्दानां सूचनम् । 50000000000000000000000000000000000 50000000000 ooooooOOOo69 Jain Education national For Private & Personal use only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम्. ॥१७॥ 0909999999999999999999c999999999999999 वसन्तसेनोऽथ जगाद देव! वाक्यैः सशोकैर्जनमानसानि। भिनत्सि, किंचित् तव काऽपि शक्तिः समस्ति तज्जीवय सर्वमेतत् ॥३३८॥ 8 सहर साक्षेपमुक्त्वाऽन्यतुरंगमं स्वं पीतेन बाणेन घनं जघान।। नीत्वा निषङ्गं सह पीतबाणं सजीवमेतं नृपसू रुरोह ॥३३९॥ (धूमनज-पद्मवर्ज सर्वेऽपि मृता जीविता:-) सुवर्णवर्णैरमृताठ्यबाणैः प्रविध्य हस्त्य-श्व-पदातिसैन्यम् । तज्जीवयामास दयाचित्तः क्षेत्रेऽत्र धृमध्वज-पद्मवर्जम् ॥३४०॥ धमध्वजासितबाणविड़े न पीतवाणा विदधुः प्रवेशम् । स पद्मदेहस्य तु भस्मपुञ्जः कणं कणेनैव गतोऽग्रतोऽपि ॥३४१॥ ( शेषमृतजीविताय धरणेन्द्राराधना कृता अमरशेखरेण-) आश्चर्ययुक्ते स्तुवति प्रकामं नरेन्द्रवर्गेऽमरशेखरोऽथ । आराधयामास धरे(रणे)न्द्रदेवं कृत्वोपवासत्रयमेकचित्तः ॥३४२॥ (भागतो धरणेन्द्रः-) अथाऽम्बरे तं धरणेन्द्रदेवं विलोक्य भूमीशसुतो बभाषे। कृत्वा प्रसादं सुरराज ! धूमध्वजं तथोज्जीवय पद्मभूपम् ॥३४३॥ जगाद देवो ननु विस्मृतं किं मया तदाऽवादि तवाऽग्रतोऽपि । ___ यद् भस्मरूपं मम बाणविद्धं विमुच्य जीविष्यति सर्व एव ॥३४४॥ तवोपवासादिकसत्त्वतोऽहं तथाऽपि हृष्टोऽस्मि कृमार! गाढम् । १ जीवा गुण:-दोरी-भाषायाम । २ नृपपुत्रः । 18| ॥१७॥ LAOOOOooooooooooooooo . Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१८॥ 00000000000000000000000000000000000 धर्मेऽप्रकम्पोऽङ्गिषु मानुकम्पो यः स्यात् स धन्यो हि नरो धरायाम् ॥३४॥ (धूमध्वज-पद्मयोः उत्तरकृत्यम्--) एवं गदित्वा धरणेन्द्रदेवे स्वस्थानयातेऽमरशेखरोऽयम् । सर्गः-५ ततस्तयोरुत्तरकृत्यकृत्यं प्रकारयामास विधेनिवासः ॥३४६॥ (सुरेन्द्रदत्तस्य स्वपुत्रेण समागमः-) स्फुरत्मभावं सविवेकभावं निशम्य धूमध्वजशत्रमेनम् । आश्चर्यतोऽभ्येत्य सुरेन्द्रदत्तो यावच्च तावत् स्वसुतं ददर्श ३४७॥ सुरेन्द्रदत्तोऽपि सुतं समीक्ष्य विषादतः साश्रु जगाद पाणिम् । पूर्व त्वया यः परिलालितोऽसौ सुतो हतो हन्त हताश! हस्त! ॥३४८॥ (सुरेन्द्रदत्तस्य मूर्छा-) यावत् कुमारो जनकं निरीक्ष्य सोत्कण्ठमुत्तिष्ठति तत्पणत्यै । सुरेन्द्रदत्तो नृपतिः स तावत् लुलोठ भूपीठमकुण्ठमूर्छः ॥३४९॥ कथं कथं मूर्छति मे पिताऽयमित्युचवाचं नृपजं निरीक्ष्य । हृष्टः सुरेन्द्र रिपुमल्लभूपोऽप्यचीकरत् सज्जमथोपचारैः ॥३५०॥ शीतोपचारात् सुतदेहसंगानिजापराधस्मरणात् सुरेन्द्रम् । . यथाक्रमं स्वल्पगतोग्रमूर्च दृष्ट्वा जनोऽस्थात् सकला सदुःखः ॥३५१॥ मोहमरोहः कथमस्य राज्ञो निवार्यतां चेति (चैत ? ) मथो निगद्य । चिन्ताञ्चिताश्चेतसि यावदस्थुस्तावन्नृपाः खे ददृशुर्मुनीन्द्रम् ॥३५२॥ १ विधिनिवासः-विधिवद् अनुष्ठाता । २ अमरशेखरम् । ३ हस्तम् । 18 ॥१०॥ 1000000000000000000000000000000000000000000000 For Private & Personal use only . Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम् सर्गः-५ ॥१८॥ (श्रीकीर्तिचन्द्रः साधु:-) ऊवं नरेन्द्रेषु विलोकयत्सु रत्नध्वजोऽत्युत्सुकवाचमूचे । __ अहो मदीयोऽत्र पितृव्य एष श्रीकीर्तिचन्द्रः समुपैति भाग्यात् ॥३५३॥ संयोज्य हस्तौ बहुहर्षतोऽथ सर्वेषु भूपेषु समुत्थितेषु । यतिश्चतुनिधरो धरायामवातरत् तत्र तप:पवित्रः ॥३५४॥ क्षणात् कृते विस्तृतमण्डपेऽत्र सिंहासनेऽसौ निषसाद साधुः । अथो यथोक्तेन गुरुक्रमेण नेमुनरेन्द्रा मुनिराजमेनम् ॥३५॥ इतः कुमारो जनकं स्वकीयं सुरेन्द्रदत्तं नृपमाह हर्षात् । तात! त्वमुत्थाय जवेन साधु-पादाम्बुजे किं न नमस्करोषि ॥३५६॥ इदं वचस्तस्य सुवासंधर्म श्रुत्वा सधर्मः स सुरेन्द्र दत्तः। __ हित्वा रयाद् दुःखविषं मुनीन्द्रं नत्वा नरेशः समुपाविवेश ॥३५७॥ 18 एवं समग्रेऽपि नरेन्द्रवर्ग साम्यप्रविष्ट पुरतो निविष्टे । मृत्वोत्थिताः किं वयमत्र यूयं वेत्थं प्रवीरेषु मिथो वदत्सु । (कीर्तिचन्द्रदत्ता देशना-) वैराग्यधौतेषु सभा-जनस्य साधुस्तदा मानस-भाजनेषु । परात्मनः पुष्टिकृतेऽथ ताप-शान्त्यै न्यधाच्छीतलगोरसे सः ॥३५९॥ तथाहि18 आयुः सदा वायुचल नराणां वातोद्धताम्भोजवदङ्गमङ्ग।। १ सुभासदृशम् । २ धर्मसहितः। ३ समता प्राप्ते । ४ वाणीरसोऽपि गोरसः । OoooOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO, oOooooooooooooooooooooo 8-॥१८॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गण्डरीक॥१८२॥ ite सर्गः-५ PRODOO0BOORossacc0000000000000000 पञ्चस्थिताम्म कणवत्वनित्या रामाभिषङ्गाश्चरमाः प्रसङ्गाः ॥३६०॥ दुष्णाप्यमामुष्यतरीमवाप्य रजोभरैजमस्तु दक्षः। सद्धर्मरत्नैर्भरतीह येभ्यो भङ्गेऽपि तस्या लभते महद्धि ॥३६॥ ऊर्य गते पुंसि रजःसमूहो यथाम्बुपूरात् प्रलयं प्रयाति । . अनेहसा सा (सं) हियते तथाशु स्थितेऽपि जीधे कणशः शरीरम् ॥३६२॥ चिन्वं विचार्य त्वनिरर्थनाशं भो! पापकार्य न ततोऽत्र कार्यम् । कृत्यं पुनर्निर्मलपुण्यकृत्वं यशो यतः स्याच वशोऽपि मोक्षः ॥३६३॥ बि थिम् भवं यत्र हि मान-लोभ-व्यामोहतो निर्मलबुद्धिलुप्तः । सुतेन तातो जनकेन पुत्रः महण्यतेऽन्योऽन्यविवेकनाशात् ॥३६४॥ अन्यचअपार्मराट् कोध-मदाश्चयुक्ते स्थितो जवाद् मोहरथेऽत्र यस्य ।। विशेत् पुरे तजसा भरेण सोऽन्धो हि पश्येन गुरून देवान् ॥३६५३ तस्माद् महापापमयं विहाय संसारवासं ननु भव्यजीवाः ।। श्रीजैनधर्म सततं यतध्वं यतः स्फुरत्केवलमङ्गलं स्यात् ॥३६६॥ एवं मुनिज्ञानघनः पवित्र-वाक्यामृतैर्भव्यमनःसरांसि । भृत्वा स यावद् विरराम तावदृचेऽथ तैरतल्लहरीव वाणी ॥३६७॥ १ रामा-श्री। २ तरी:-नाः। ३ रत्नभृताचास्तर्या भनेऽपि महाचलभ्यते । ४ अवश्यं नाशो यस्य तत् । ५ शरीरे नगरे वा । ६ मेहरथरजसाम् । 2000000000దరంగనంతరం Peop Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 - साधोऽहसाऽधोगतिसंगतं यद् विधातुकामा वयमद्य सद्यः । থ্রি বিগ बोधप्रदीपेन निवतितास्तद् विद्मो महद्भयो हि भवेद् महत्त्वम् ॥३६८॥ 1१८॥ युद्धे प्रभो! जीवनिकायकाय-व्यपायतो दुष्कृतपङ्कमग्नान् । सर्गः-५ ___ समुद्धर त्वं चरणप्रहीणान् परोपकाराय सतां हि शक्तिः ॥३६९॥ सभावमुक्त्वेति सभाजनेऽस्मिन् मौनं श्रिते साधुरसौ बभाषे । याचध्वमेवात्मसमाधिना भोः श्रीजैनधर्म विविधिप्रकारम् ॥३७०॥ ( सुरेन्द्रदत्तो दीक्षित:-) मुश्चन्नथाऽभूणि सुरेन्द्रदत्तो जगाद नत्वा मुनिपादप । दीक्षाप्रदानेन सुतप्रहारपदं विशुद्धं कुरु माँ यतीन्द्र ! ॥३७१॥ असारसंसारभवोनपाप-विपाकवरूप्यमिति प्रणिन्ध। . श्रीजैनदीक्षां विनयावनम्रो जग्राह कुग्राहविमुक्तचित्तः ॥३७२॥ (धूमध्वजस्त्रियः प्रत्रजिता:- ) इतश्च-धूमध्वजराजदारा वैराग्यतः पञ्चशतीमितास्ते । वैधव्यवैधुर्यभरप्रणुन्ना विमुच्य गेहं जगृहव्रतानि ॥३७३॥ वसन्तसेनेन युतः कुमारः सिषेविषुः स्वस्य पितुः पदाजे । व्रतं ययाचे व्रतिनं प्रणम्य पुत्रा न कष्टं गणयन्ति भक्तः ॥३७४॥ (अमरशेखरः प्रेरितः कीर्तिचन्द्रेण आचाम्लचन्द्राचरणे तपसि, दत्तं च तद्विधियुतं पुस्तकम्-) अंहः पापम् । २ व्यपायो नाशः । ३ भावसहितम् । ४ माम् । ५ सेवितुमिच्छुः । 8000000000000000000000000000000000000000 Jain Education international Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क ॥ १८४ ॥ ४ १२ DODOCO साधु भाषेमरशेखरं तं त्वद्भोगकमस्त्यति भो ! गरीयः । यदा भवेऽस्मि भवेविरक्तः आचाम्लचन्द्रं तु तदाऽऽचरेस्त्वम् ॥ ३७५ ॥ 'आदिश्यतां तस्य विधिस्ततो मे' प्रोक्तेऽमुना साधुरवगं विचार्य । आचाम्लचन्द्राचरणेन युक्तामेनां गृहाणाद्य सुपुस्तिकां तत् ॥ ३७६ ॥ तां पुस्तिकां सोऽमरशेखरस्य समर्प्य पाणी मुनिकीर्तिचन्द्रः । जगाद भोस्तावदिमां मदीयां शिक्षां समाकर्णय सावधानः ॥ ३७७ ॥ तथाहि( कीर्तिचन्द्रता शिक्षा ) भक्ति जिनेन्द्रे सुद्धां दधीयाः सदा दयां जन्तुषु संदधीधाः । दीनेषु दानं दमवान् ददीयाः सद्भयो महद्भथो मतिमाददीथाः ॥ ३७८ ॥ १ यथा प्रसीदन्ति सुराः समग्राः यथा विषीदन्ति न बन्धुवर्गाः । किं बहुना - यथा न सीदन्ति गुरूपदेशा यथा निषीदन्ति तनौ गुणौघाः ॥ ३७९॥ यथा च न म्लायति कीर्तिवल्ली वृद्धो यथा ग्लायति नैष धर्मः । राज्यं प्रकुर्वन्नपि खैर्वगर्वस्तथाऽऽयतेथाः सततं कुमार ! ॥ ३८० ॥ ततश्च— ( रिपुमहराजादन् श्रावकान् कृत्वा जगाम कीर्तिचन्द्र:-) मुनौ समौने रिपुमल्लराजश्चन्द्रावतंसो मणिचूलवीरः । रत्नध्वजः कालमुखस्तथाऽन्ये ययाचिरे वीरवराः सुधर्मम् ॥ ३८१ ॥ (नगरी जयन्ती — ) गार्हस्थ्यधर्मं स निधाय तेषु साधुर्जगामाथ ततोऽन्यदेशे । १ त्वं भवे । २ उवाच । ३ खर्वम्- अल्पम् । 0000000∞∞∞∞∞ Xxxxxxxxxxx 8∞∞∞∞ चरित्रम. सर्ग: ५ ॥१८४॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१८५॥ 000000000000000000000000000000000000000000000 विद्याधरेन्द्रास्तु मिथः स्ववैरं विमुच्य जग्मुर्नगरी जयन्तीम् ॥३८२। चरित्रम्. विद्याधराणां समरोहतानां स्यात प्राणविश्राण नतोऽधिपोऽयम् । सर्गः-५ इत्थं मिथः प्रोच्य नृपाः समग्र-विद्याधरेशं विदधुः कुमारम् ॥३८३॥ ( विद्याधरपतित्वेऽभिषिक्त:-अमरशेखरो लक्ष्मीपुर प्रयाति-) विद्याधरेन्द्रा रिपुमल्लमुख्या रत्नध्वजाद्यास्तु सुभक्तचित्ताः। चक्रुर्नमोऽस्मै हि परोपकारः समृद्धिदश्चात्र परत्र लोके ॥३८४॥ वैतात्यशैले सकले तदैव श्रेणिद्वयस्याऽपि पुरेषु वेगात् । आज्ञाऽथ राज्ञोऽमरशेखरस्य प्रघोषयामासुरिति क्षितीशाः ॥३८५॥ स राजराजोऽमरशेखरोऽथ दिदेश तान् श्रीरिपुमल्लमुख्यान् । रत्नध्वजं श्रीनृपधूमकेतोः पट्टेऽभिषिञ्चन्तु नरेश्वरा भोः! ॥३८६॥ प्रमाणमादेश इतीरयित्वा रत्नध्वजस्याऽथ महोत्सवान्ते । राज्याभिषेकं विदधुहि सन्तः कुर्वन्ति शत्रौ विजेते हितानि ॥३८७॥ स्मितोज्ज्वलां सोऽमरशेखरोऽथ स्नेहप्लुतां वाचमुवाच वाग्मी। लक्ष्मीपुरं प्रत्यधुना प्रयाणं ममानुमन्यध्वमतो नरेन्द्राः! ॥३८८॥ ततश्च-प्रयाणढकास्वथ वादितासु माङ्गल्यतौर्येषु घनं नदत्सु । विमानरूढेषु च खेचरेषु गायत्सु तारं वरकिन्नरेषु ॥३८॥ १ समरे-युद्धे-आहतानाम् । २ विश्राणनं-दानम् । ३ अमरशेखरः। ४ नने । ५ वक्ता । 18॥१८५॥ &0000000CONORMOMO000000000000000 000000000 Jain Education 1921 national For Private & Personal use only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्र ॥१८६॥ 8 सर्गः-५ पुण्डरीक- चक्रेश्वरीदेवतया प्रदत्तं श्रीधूमकेतो रुचिरं विमानम् । पुष्पावतंसाभिधमानिनाय रत्नध्वजोऽस्य त्वधिरोहणाय ॥३९०॥ इतः प्रमोदाद् रिपुमल्लराजो रत्नावतंसाभिधमुत्पताकम् । वैरोट्यया दत्तमतिप्रधानं संढोकयामास निजं विमानम् ॥३९१॥ प्रभावुभौ यक्षनिभी समान-प्रभौ स्फुरनिर्मलभक्तियुक्तौ । कृताग्रही वीक्ष्य स निर्विवादमुवाद भूपोऽमरशेखरोऽथ ॥३९२॥ आकर्ण्यतां श्रीरिपुमल्लभूप ! रत्नध्वजं मत्पितृमित्रपुत्रम् । संमानयिष्यामि बुधा हि मैन्यं स्वाजन्यतः कोटिगुणं भणन्ति ॥३९३॥ यतः(प्रेम जयति-) पयोधेनों पुत्रं त्रिदिवतर-लक्ष्मी-सुरगजा-ऽमृतादीनां नो वा सहभवमिहैनं बुधजने । निशानाथं दूरस्थितजलभवानां हि कुमुव्रजानां यद् बन्धुं वदति तदिदं प्रेम जयति ॥३९४॥ इत्यौचितीचारुतरं विचारप्रोच्चं वचः प्रोच्य स धूमकेतोः। १२ विमानमध्यास्त समस्तविद्या-धराधिराजेषु भृशं स्तुवत्सु ॥३९५ युक्ता सखीनां किल सप्तशत्या वृता तथा कञ्चुकिभिः प्रधानः । लीलावती स्वस्य पितुर्विमानं तदाऽऽस्रोह प्रियवाक्यमाप्य ॥३९६॥ इतश्च- वसन्तसेनो मणिचूलवीरो विमानमङ्गन हृदा तु हर्षम् । १ प्रभौ-सप्तम्यन्तम् । २ सि. हे. “ अधेः शीट-स्था-ऽऽस आधारः" इत्यनेन आधारेऽपि द्वितीया । toooOOoooooooooooooooooooo POoooooooo sless ॥१८६॥ Jain Education initional nelibrary.org Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम्. सर्गः-५ आरुह्य वेगेन विहायसा तो लक्ष्मीपुरं जग्मतुरग्रतोऽपि ॥३९७॥ ततश्च(विवेश लक्ष्मीपुरम् अमरशेखर:-) विस्मापयन्नेष पवित्रयंश्च जगन्त्युदात्तैविमलैश्चरित्रैः। ॥१८७॥ खपुष्पंतां निश्चलयन् विमानरयान्नरेन्द्रः स रयात् पुरं स्वम् । समृद्धितः प्रोन्मुखयन् विमुग्धान् दक्षत्वतः संमदयन् विदग्धान् । समुत्कयन् प्रीतिभराद् वयस्यानानन्दयन्नागमतः स्वबन्धून ॥३९९॥ 1 सोपायनद्रागभिगम्यमानः सुवन्दिवृन्दैरभिनन्धमानः। विलासिनीलास्यविलास्यमान-विलोचनो दानभरं ददानः ॥४००॥ प्रवीज्यमानो वरचामराभ्यां संन्युञ्छयमानो विधिना वधूभिः । संसेव्यमानः सकलैनरेन्द्रवर्धाप्यमॉनश्च पुरोहितौधः ॥४०१॥ ग्रामान प्रयच्छन् जिनमन्दिरेभ्यस्तदा त्यजन् राजकरान् जनेभ्यः । लक्ष्मीयुतः स्वर्गपुरं विवेश लक्ष्मीपुरं सोऽमरशेखरेशः ॥४०२॥ (चतुभिःकलापकम् ) (पिशः प्रणामाः-) पूर्वोदितैस्तत्र वसन्तसेन-वाक्यः प्रहृष्टां किल चन्द्रले.खाम् । ननाम गत्वा जननी जनेशो लीलावतीशोभितपृष्ठभागः ॥४०३॥ 8 श्वश्रू स्वकीयामथ चन्द्रलेखां देवीं विवेकाद् रिपुमल्लपुत्री । १ खे उट्टीयमानानि विमानानि खपुष्पसदृशानि भान्ति इति एषा कल्पना । २ उत्सुकयन् । ३ न्युञ्छनं भाषायाम्-ओवारj-दुखणां लेवो । ४ भाषायाम-वधावातो। 50300OOLOoooooo000000000000000000000000 Councooooooooo0000000COMOOLORSo00000000000000 ॥१८७॥ Jain Education national Hainelibrary.org Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ।। १८८ ।। ४ १२ लीलावती सा सुर्विधूत-मदा मुदा तत्र तदा ननाम ॥ ४०४॥ पुत्रस्य नम्रस्य वधूयुतस्य तुष्टान्तर ऽऽशीर्वचनं प्रदाय । सा चन्द्रलेखा, गुरु राजगेहं ददौ तदौन्नत्यकृते स्नुषायै ॥४०५॥ सखेचरैः भूमिचरैः समग्रैर्नतांहिपद्मः सुकृतैकसद्म । चकार राज्यं सुचिरं सुनीतिप्राज्यं नरेन्द्रोऽमरशेखरोऽथ ॥ ४०६ ॥ अथान्यदा पुत्रमुखेन पत्युश्चरित्रमाकर्ण्य तपः पवित्रम् । er चन्द्रलेखा वरपुस्तिकां तां संपूजयामास सुगन्धपुष्पैः ॥ ४०७ः ( त्रिदशप्रभा गुरव:-) राज्ञी ततः श्री त्रिदशप्रभाख्यान् गुरून् प्रणन्तुं सहिता सखीभिः । तां पुस्तिकामात्मकरे गृहीत्वा तपोविधिं ज्ञातुमना जगाम ॥ ४०८ ॥ ( गुरुनिरमरशेखरजनन्यै चन्द्रख ये आचाम्लचन्द्रस्य विधिर्दर्शितः). प्रणम्य तस्यां पुरतः स्थितायत पुस्तिकां ते गुरवो गृहीत्वा । आचाम्लचन्द्रस्य विधिं समग्रां प्रवाचयांचकुरवक्रचित्ताः ॥ ४०९ ॥ तथाहि" प्रकामं कार्तिके मासि शुक्लायां प्रतिपतिथौ । आचामाम्लं तपः कुर्यात् स्मरस्मैरविवर्जितः ॥ ४१० ॥ एवं चतुर्दशीं यावदाचामाम्लानि नित्यशः । उपवासं पूर्णिमास्यां कुर्यात् पूजां त्रिधा सदा ॥ ४११॥ दिनेष्वेवं तपः कुर्यात् कायोत्सर्ग तु रात्रिषु । चन्द्रोदयास्तमानं हि चन्द्रसन्मुखलोचनः ||४१२॥ कायोत्सर्गे प्रतिनिशं वर्धमाने घटद्वये । स्मरन् पञ्चनमस्कारं जिनं चन्द्रे निवेशयेत् ॥ ४१३॥ १ स्नुषा-पुत्रवधूः । २ स्मरस्य स्मरणं स्मरस्मरः । चरित्रम्सर्गः -५ ॥१८८॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ĐOOôóOooooooooooooooOOOOOOOOOOOOOO द्वादशस्वपि पक्षेषु शुक्लेष्वेवं तपश्चरेत् । प्रतिपत्सु तु कृष्णासु विधिवत् पारणानि च ॥४१४॥ चरित्रम्. विधिश्वायम्- पारणे मुनये शुद्धमन्नं पात्रं विशुद्धिमत् । दत्त्वैकैकः यथाशक्त्या ततो भुञ्जीत भावनात् ॥४ आवश्यकं च पूजां च कृष्णपक्षेषु नित्यशः । कुर्वन् सरसमश्नीयात् यथेष्टं दुष्टतोज्झितः ॥४१६॥ अथाऽस्योद्यापनविधिः-श्रीवीतरागमूर्तीनां शतं सततिसंयुतम् । विधाय विधिना रम्यं प्रतिष्ठाप्यं शुभे दिने पुरस्तासां तु मूर्तीनां तत्संख्यैर्मोदकैर्भूतम् । स्थालं संदौकयेदेतत्संख्यानि तिलकानि च ॥४१८॥ उद्यापन विधिरेवमश्विनीपूर्णिमादिने । प्रतिपत्तिथौ च कृष्णे पारणं विधिना चरेत् ॥४१९॥ विधिश्वाथ- श्रावका: श्राविकाश्चैव जिनधर्मपरायणाः। भोजनीया महाभक्त्या सप्तविंशतिसंमिताः ॥ सप्ततिशतसंख्याश्च जैनसिद्धान्तपुस्तिकाः । गुरुभ्यो हि प्रदातव्या ज्ञानस्याऽवासिहेतवे ॥४२१॥ इदमाचाम्लचन्द्राख्यमित्युद्यापनभूषितम् । यः कुर्यात् स भवेद् मुक्तस्तृतीयेऽत्र भवेऽथवा ॥४२२॥ एवमाचाम्लचन्द्रस्य विधिस्तीर्थकरोदितः । उधृतः कीर्तिचन्द्रेण धर्मिणामुपकारकः" ॥४२३॥ ।इत्याचाम्लचन्द्रतपोविधि संपूर्णः । ते वाचयित्वेति सुपुस्तिका तां संमीलयामासुरथाऽऽशुराज्ञी। प्रोचे प्रभो! मेऽद्य कुरु प्रसादमाचाम्लचन्द्रस्य समर्पणेन ॥४२४॥ ( चन्द्रलेखया आरब्धं तत् तपः-) विज्ञाय हर्ष त्रिद(दि)शप्रभाख्यैः सूरीश्वरैदिव्यसुगन्धचूर्णः। निचिक्षिपेऽस्याः शिरसि प्रहृष्टैराचाम्लचन्द्रस्य विधानहेतोः ॥४२५॥ सा चन्द्रलेखा स्वगुरून् प्रणम्य गत्वा निजं राजगृहं प्रमोदात् । 8 ॥१८९॥ 000000000000000000000000000000300 SOO000000000000ळ Jain Education wrolainelibrary.org Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्हरीक-8 परिचय सर्गः-५ १९०॥ जनस्यां सुकृतैकवीरः। पारम्भयामास पो जिने 5000000680680%D880883 (वैशाखे प्रतिष्ठा, आश्विने च निवेच पुत्रामरशेखराग्रे क्रमात् तपस्तद्विधिवञ्चकार ॥४२६॥ ( अमरशेखरो जिनेन्द्रगृहाणि प्रारम्भयामास-) स्वां मातरं कीक्ष्य तपास्नी भक्तो जनच्या सुकृतकवीरः। प्रारम्भयामास नृपो जिनेन्द्र-हाणि समत्यधिकं शतं सः ॥४२७॥ (वैशाखे प्रतिष्ठा, आश्विने च तपउद्यापनम्-) वैशाखमासे विधिना सुलग्ने ततः प्रतिष्ठाप्य जिनेन्द्रमूर्तीः। उद्यापनं चाश्विन पूर्णिमास्यामढौकयत् तत्तपसि प्रपूर्ण ॥४२८॥ ( कार्तिचन्द्रगवेषणा-) तदा नरेन्द्रो मणिचूलवीरं पप्रच्छ किं क्वापिस कीर्तिचन्द्रः। नमस्कृतोऽभूद् भवता मुनीन्द्रः प्रवृत्तिमेनां कथय द्रुतं मे ॥४२९॥ (बप्रभायां पुरि कीर्तिचन्द्रः श्रीअभिनन्दाजिनपा-) वीरोऽवदद् देव ! मया नतोऽभूत् श्रीकीर्तिचन्द्रः स सुरेन्द्रदत्तः चन्द्रप्रभायां पुरि संस्थितस्य जिनस्य पार्श्व ह्यभिनन्दनस्य ॥४३०॥ अम्बेलि राजा परपुस्तकानि विलेखितानि स्वयमेव नीत्वा । विमानरूढः सहितो जनन्या चचाल विद्याधरनाथयुक्तः॥४३१॥ (सानि बतिमा श्रुतपुस्तू काति-) चन्द्रममा सोऽथ पुरीसुपेत्य नत्वा जिनं दागू-अभिनन्दनेशम् । सुभकचित्तो विनयावनम्रो ददौ यांतभ्यः श्रुतपुस्तकानि ॥४३२॥ पुत्रं विजं देव-नरेन्द्रवृन्द्रः संस्तुयमानं पुरतो निरीक्ष्य । सा चन्द्रलेखा जिनमेनमक्षि-युगेन पीत्था नितरां निदध्यौ ॥४३३॥ नमाहि-नसाता भीअभिनन्दनो यद् दत्तो यतिभ्योऽत्रच पुस्तकौघः। Dowowoodoowoooooooooooooooootone s alaNERISTIBIOTE | ॥१९॥ . Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरीक १९१॥ ४ १२ उद्यापनं यद् रुचिरं प्रपूर्ण फलं तपः कल्पतरोस्तदेतत् ॥४३४॥ ( चन्द्रलेखा केवलज्ञानं प्राप - ) इत्यद्भुतं निर्मलधर्मभावाद् महासती त्रस्तसमस्तपापा । आलोकलोकप्रविलोकदीम - दीपप्रभं प्राप महो महोच्चम् ॥ ४३५॥ ततो गतां केवलिसदोऽन्तविलोक्य राजा जननीं स्वकीयाम् । तीर्थंकरं श्रीअभिनन्दनाख्यं पप्रच्छ माता किमिह स्थितेति ? ॥४३६ ॥ ततञ्च-- ( अमरशेखरो विस्त:-) जिनस्य वाक्यादभिनन्दनस्य तां केवलज्ञानयुतामवेत्य । स राजराजोऽमरशेखरोऽथ भवे विरक्तः सचिवानुवाच ॥४३७॥ हंहो ! अमास्या! मन राज्यमेतत् सोमस्य पुत्रस्य समर्पणीयम् । अन्यस्य वा व्यायतोऽपि कस्य, नेष्यामि यस्मादथ जैन दीक्षाम् ॥४३८|| (कीर्तिचन्द्रेण प्रेक्षितः) आदेशतः श्रीअभिनन्दनस्य श्रीकीर्तिचन्द्रोऽथ गणाधिनाथः । वसन्तसेनेन युतं तदैव तं दीक्षयामास नराधिराजम् ॥ ४३९ ॥ राजोऽधर्मतच विगाल सिद्धान्त पयोधिमध्यम् । आचाम्लचन्द्रं व्रतरत्नमुच्चैश्वकार मोक्षश्रियिं संगमेच्छुः ॥४४० (नोऽपि श्रम) आचाम्लचन्द्रं चरतस्ततोऽस्य वसन्तसेनो विदधेऽथ सेवाम् । यतोऽन्तरङ्गं चिनयाख्यमेव व्रतं हि सिद्धान्तविदो वदन्ति ॥ ४४१ ॥ ( अमरशेखरभ्यानम्— ) साधुस्ततोऽसौ निशि पूर्णिमायाम् ध्यायन् शशाङ्के जिन मूर्ध्वनेत्रः । १ केवलज्ञानम् । २ सप्तम्यन्तमेतत् । चरित्रम्सर्ग: ५ ।। १९१ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-8 चरित्रम् सर्गः-५ -COOOOOOOOOOOOOOmcocore 000000000000000000000000000000000000000000000000000 तस्थावतिस्वच्छमनाः स्वकायो-त्सर्गेण मायोज्झित एव रात्रौ ॥४४२॥ इतश्व- (अमरशेखरं नन्तुमाजगाम चन्द्रदेवः-) चन्द्रावतंसाख्यविमानसंस्थश्चन्द्राभिधानो ग्रहमण्डलेन्द्रः। निजावधिज्ञानमथो पृथिव्यां प्रयोजयामास तदैव रात्री ॥४४३॥ स चन्द्रदेवोऽमरशेखराख्यं ध्यानस्थितं राजमुनिं निरीक्ष्य । विहाय वेगेन निजं विमान-मेनं नमस्कर्तुमिहाऽजगाम ॥४४४॥ जाते प्रभातेऽथ महामुनीन्द्रो ध्यानं स संपूर्य चचाल यावत् । चन्द्राख्यदेवो मुनिमेनमेन:-प्रगाशहेतोः प्रणनाम तावत् ॥४४॥ नत्वा स चन्द्रो मुनिराजमूचे प्रभो! कृतार्थोऽस्मि तवाऽद्य दृष्टया । ततः प्रसादं कुरु मे निजेन केनाऽपि धर्मण सुवाचिकेन ॥४४६॥ ऊचे मुनीन्द्रोऽमरशेखरोऽथ कार्येण केनापि मया न दृष्टिः। क्षिप्ता सुरेन्द्र ! त्वयि किंतु कायोत्सर्ग विधिोष जिनोपदिष्टः ॥४४७॥ तथापि- जिनेश्वरं श्रीअभिनन्दनाख्यं नमस्कुरु स्वं कुरु भोः! कृतार्थम् ।। एवं गदित्वा चलिते मुनीन्द्रे स चन्द्रदेवोऽप्यचलत् सहैव ॥४४८॥ तं वीतरागं स मुनिः प्रणम्य पप्रच्छ चन्द्रेऽत्र तदा निविष्टे । भवत्प्रसादेन विभो! ममाद्य पभूव पूर्ण व्रतरत्नमेतत् ॥४४९॥ १ मालादिग्रहाः । २ एन:-पापम् cood ॥१९२॥ Jain Education national Rijainelibrary.org Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ चरित्र पुण्डरीक-18 (अभिनन्दन प्रति अमरशेखरस्य प्रश्न:-) ममायुरद्यापि कियत् समस्ति भव्योऽस्म्यऽभव्योऽप्यथ दूरभव्यः निगद्यतामद्य मयि प्रसद्य सद्यश्च संदेहगणं विभिन्द्धि ॥४५०॥ ( जिनस्य उत्तरम्-) जिनोऽवदत् भो ! दिवसान् दशैवा-ऽवशिष्यते ते खलु जीवितव्यम् । 8. सर्गः-५ भवे द्वितीये भरतस्य मध्ये शत्रुञ्जयाद्रौ भवितैव मोक्षः ॥४५॥ (अमरशेखरेण गृहीतमनशनम् - ) इत्थं निशम्याऽमरशेखरोऽयं जिनेन्द्रपादी प्रणयात् प्रणम्य । जग्राह तत्राऽनशन मुनीशोऽनीशो भवे स्थातुमघौघघोरे ॥४५२॥ विनश्वरं विश्वमथो निरीक्ष्य विलोक्य मित्रं च तथा स्वभावम् । वसन्तसेनोऽपि जिनं प्रणम्य संन्यासविन्यासमसौ ययाचे ॥४५॥ स्वामी पभाषेऽथ वसन्तसेनं महामुने! द्वादश वत्सराणि । व्रतं प्रपाल्य प्रथमे च कल्पे गन्तासि तद् माऽनशनं ग्रहीस्त्वम् ॥ ४५४॥ (श्रीअभिनन्दनजिनानुमत्या चन्द्रविमाने चन्द्रेण सह आरुह्य अमरशेखर-वसन्तसेनी श्रमणी तीर्थानि वन्दितुं जग्मतुः-) प्रभु प्रणम्याऽथ स चन्द्रदेवो व्यजिज्ञपन्नाथ! मुनी इमो तत। प्रस्थाप्यतां शाश्वततीर्थनाथमूर्तीः प्रणन्तुं हि मया सहाऽद्य ॥४५॥ चन्द्रोऽध लब्ध्वाऽनुमतं जिनस्य विक्रत्य शीघ्रं रुचिरं विमानम् । वसन्तसेना-ऽमरशेखराख्यौ विगृह्य स व्योम्नि ययौ जवेन ॥४५६॥ 'मनशनम्' इति प्रकरणतो गम्यते । 11॥१९३ 20000000000000000000000000000000000000 20000000000000000000000000000000000000000000000 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रहरीक-8 ( ज्योतिष्क-चन्द्र-लोकगतजिनबिम्बवन्दनम्-) ज्योतिष्कलोके निखिलेऽपि नित्य-मूनिमस्कार्य मुनीश्वरी तौ। चरित्रम्. ॥१९॥ ततो विमाने स तु शाश्वते स्वे प्रवेशयामास शशाङ्कदेवः ॥४५७॥ निजे विमानेऽथ जिनेन्द्रमूर्तीः संवन्दयामास सुरो मुनीशौ। सर्गः-५ सिंहासने स्वे विनिविश्य चैतौ नत्वा पुरस्ताद् निषसाद हर्षात् ॥४५८॥ पुरो निविष्टेऽथ सुरोत्तमेऽस्मिन् वाचंयमेन्द्रोऽमरशेखरोऽयम् । ददी तदौचित्ययुतं नितान्तं धर्मोपदेशं शुभभाववृद्धथै ॥४५९॥ 8 तथाहि- (मुनिभ्यां मत आभारः सुरराजस्य -) साहाय्यतस्ते सुरराज ! जैन-तीर्थानि नित्यानि नमस्कृतानि। ततोऽस्मदीये हृदये समाधिर्वभूव पुण्यकनिधिर्भवांश्च ॥४६०॥ यतः- सहाय्याद् यस्य सर्वो गुरुजनक-जनन्यादिवोऽतिपूज्यो। नत्वा तीर्थानि हर्षांदुरुसुकृतसुधास्वादतृप्तान्तरात्मा। प्रक्षीणानन्तपापः सविधशिवसुखो जायते विष्टपेऽस्मिन् । धन्योऽसौ पुण्यभागं बहुमिह लभते सर्वसंघस्य तस्य ॥४६१॥ तथाच- अनया यात्रया जातः-संन्यासो निर्मलो मम। देहकष्टं यतः शुद्ध-भावतः स्यात् फलेग्रहि ॥४६२॥ अन्यच- (श्रमणयोश्चन्द्रेण सह सलाप:-) तथा कथय भो! देव! विमानं ते महाप्रभम् । उदिते च दिनाधीशे दृश्यते निष्प्रभ कथम् ? ॥४६३॥ जगाद देवो मुनिचक्रवर्तिन् ! स्यान्निष्प्रभ मे न विमानमेतत् । 18 ॥१९॥ Jain Education 18ational ww8lelibrary.org OOOOOOOOOOOO D.000000000000000000000000000000000000000000000000 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्डरीक चरित्र सर्ग:-५ तेजोऽस्य शीतं रवितीव्र भासा विहन्यते हि प्रशमः क्रुधेव ॥४६४॥ यौष्माकमूनि स्थितमेतदस्ति छत्रं मदीयं सितशीतकान्ति। ॥१९५॥ अस्य प्रभा सूर्यरुचाऽपि नैव प्रहन्यते साधुहदि क्षमेव ॥४६॥ छत्रं तदेतच्च ममाऽभियोगिदेवा भवन्मूनि विभो ! धरन्तु । सर्वेषु वस्तुष्वपि निस्पृहाणां युष्माकमेषा मम भक्तिरस्तु ॥४६६॥ ऊचे मुनिर्देव ! मुनीश्वराणां सितातपत्रेण भवेन्न कार्यम् । वाण्याऽनया त्वं गुरुभक्तिभाजा पुण्याधिकोऽभूरधुना सुरेन्द्रः ॥४६७॥ चन्द्रो वभाषे भगवन् ! द्वितीयभवेऽहमेतद् विमलातपत्रम् । प्रस्थापयिष्यामि भवच्छरीर-छायाकृते कौतुकहेतवे च ॥४६८॥ (विमानेन वन्दित्वा तीर्थानि आगती मुनी-) इत्थं गदित्वाऽथ मुनी प्रणम्य विमानमारोप्य स चन्द्रदेवः। गत्वा मुदा श्रीअभिनन्दनस्य पार्श्वे विमुच्याशु पुनर्जगाम ॥४६९॥ ( अमरशेखरजीवः अयं लक्ष्मीधरः-) ततो निजायुः परिपाल्य शेषं समाधिना मृत्युमवाप साधुः। बभूव चम्पेशमहेन्द्रपुत्रो लक्ष्मीधरोऽयं हि स एव जीवः ॥४७०॥ महेन्द्रभूपेऽथ दिवं प्रयाते लक्ष्मीधरःप्राप यदेष राज्यम् । पूर्वप्रपन्नं तु तदा स चन्द्रः प्रस्थापयामास तदातपत्रम् ॥४७१॥ 18| इतश्च-(वसन्तसेनो देवो जातो मुचकुन्द-नाम्ना-) पवित्रचारित्ररतः क्रमेण संपूरितायुः स वसन्तसेनः । विपद्य सौधर्मसुरेन्द्रलोके बभूव देवो मुचकुन्दनामा ॥४७२॥ 00000000000000000000000000000000000000000000000 50000000000000000000000000000000000000000000000 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक॥१९६॥ 0000000000 S2OcOoOooooooooooOOOOOOOOOOOO (आगतो लक्ष्मीधरप्रबोधाय पूर्वमित्ररूपो मुचकुन्दः-)अथाऽन्यदाऽसौ मुचकुन्देवो ज्ञानादवेत्य स्वभवं पुरात्यम्। मित्रं निजं चामरशेखराख्यं बुबोध लक्ष्मीधरसंज्ञमेव ॥४७॥ स पूर्वमैत्रीवशतोऽतिमोहं बिभ्रंश्च लक्ष्मीधरभूमिनाथे । समेत्य चायं नृपवासमध्ये देवो निशान्ते प्रकटो बभूव ॥४७॥ जाते निशान्ते परमेष्ठिमन्त्रं स्मरन् जजागार नृपः स यावत् । तावत् पुरस्थं मुचकुन्ददेवं विलोक्य नत्वाऽऽह विकस्वरास्यः ॥४७॥ ( लक्ष्मीधर-मुचकुन्दयोर्वार्तालाप:-) स्वर्गात् कुतस्त्वं ननु कोऽसि देवः कस्मादकस्मात् प्रकटो बभूव । निगद्यतामद्य मयि प्रसद्य सद्यः प्रमोदाय समग्रमेतत् ॥४७६॥ देवः स ऊचेऽस्मि वसन्तसेनस्तवाऽभवं पूर्वभवे वयस्यः। ततो ममत्वेन पुरातनेन सौधर्मकल्पाद जर्वेतः समेतः॥४७७॥ राजाऽवद् देव ! वसन्तसेन-नाम्नैव हर्षाकुलितोऽस्मि गाढम् । _ अहो ! अहं मोहसमूहमूढ ऊहे भवं न स्वमपीह पूर्वम् ॥४७८॥ तथाऽपि कृत्वाऽद्य मयि प्रसादं निवेद्यतां पूर्वभवप्रवृत्तम् । भवादृशां दर्शनमत्र लोके मोघं नहि स्यादमरोत्तमानाम् ॥४७९॥ अथो बभाषे मुचकुन्ददेवो राजन् ! यदा श्रीमुनिपुण्डरीकः । १ पुरातनम्-पुराभव वा । २ गृहे । ३ निशाया अन्ते-प्रभाते । ४ वेगतः । ५ विचारयामासे । 000000000000000 . Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E अष्टापदाविमलाचलेन्द्र गन्ता तदा ते नगरीमुपेता ॥४८॥ ॥१९७॥ । ततश्च- श्रीपुण्डरीकं प्रणमस्यतस्ते नरेन्द्र ! बोधावरणीयमेतत् । क्षयं गमिष्यत्यखिलं समस्त-पापेन साधं हि भवोद्भवेन ॥४८॥ सर्गः-५ झामान्तरय प्रलय प्रयात मुखेन तस्य स्वभवं नरेन्द्र! लक्ष्मीधर ! त्वं शृणुया यतोऽत्र तिष्ठन्त्यपापे सुगुरूपदेशाः ॥४८२ इतीरयित्वा विरतेऽथ देवे जगाद लक्ष्मीधरभूष एषः । श्रीपुण्डरीकागमन सुरेन्द्र ! कृत्वा प्रसादं कथयेममाग्रे ॥४८३।। तथेति संचा प्रतिपद्य वाक्य तिरोबभूवाऽथ तदा स देवा। लक्ष्मीधरौ भावधरो नितान्त श्रुत्वति नित्यं यतते स्म धर्म ॥४८४॥ तता सुरोऽवं मुचकुन्दनामा भवान् पयस्य निजमुदिधी। विचिन्तयामास यदि प्रयामि स्वर्ग तदा विस्मरतीति कार्यम् ॥४८५॥ श्रीपुण्डरीकस्तु दिने चतुर्थे भूभीमिमामेष्यति साधुयुक्तः । __ स्थास्यामि तस्मानगरीधनान्तवारी तरी चम्पकनामनीह ॥४८६॥ इत्थं स्वचित्तेम विचिन्त्य देवस्तस्थापंधो चम्पकशाखिशाखाम् । परोपकाराय पत्तो महान्ती दत्ताषधामा सततं भवन्ति ॥४८७॥ शीनावरणीयम् । ३ उद्धारं कर्तुमिच्छुः । है ॥१९॥ EDMOOG000coondor 000000000000000000000 000 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक॥१९८॥ ४ ८ १२ 0000000 000000000 ( लक्ष्मीधर-श्रीपुण्डरीकयोः समागमः - ) अथो पथोऽनेन दिने चतुर्थे वयं समेता मृगवेष ! देव ! । अस्मत्प्रणामं मुचकुन्ददेवश्चक्रे तदा संनतचम्पकेन ॥ ४८८ ॥ कृत्वाऽऽग्रहं गाढतरं ततोऽस्मानस्थापयद् मित्रविबोधहेताः । स्थितेष्विहास्मासु स एव देवः संप्रेर्य लक्ष्मीधरमानिनाय ॥४८९ ॥ भो मृगवेष ! तत्त्वं श्रृणु - आचाम्लचन्द्राद् मुदितः स चन्द्रञ्चन्द्रातपत्रं प्रददौ तदाऽऽस्ये, किं बहुना ? पृष्टं त्वया यद् मृगवेष ! देव ! सर्व तदस्माभिरिदं न्यवेदि ॥ ४९०॥ राजानं विलोक्य - भो ! भूप ! लक्ष्मीधर ! पूर्वजन्म विचिन्तय त्वं सकलं स्वकीयम् । इत्थं गदित्वा विरराम साधुः श्रीपुण्डरीकोऽत्यभिरामवाक्यः ॥ ४९१ ॥ ( लक्ष्मीधरस्य जातिस्मरणम् — ) लक्ष्मीधरः साधुवचः समग्रं विचिन्तयन्नेकमना बभूव । देहेऽथ मूर्छाकुलिते स्वजातिं सस्मार स स्माररसेन हीनः ॥ ४९२ ॥ इतश्च - शीघ्रं मुचकुन्ददेवो भूत्वाऽथ दृश्यः किल चम्पकः । शीतोपचारैः प्रचुरैर्नरेन्द्र चकार चैतन्ययुतं तदैव ॥ ४९३ ॥ अथो मुनीन्द्रं मृगवेषदेवो नत्वा बभाषे भगवन् ! जवेन । तं चन्द्रमाहातुमहं व्रजामि भूमीभुजे छत्रमिदं ददौ यः ॥ ४९४ ॥ १ पुस्तके तु 'वबोध' इति, स च पाठः अवतंस - वतंसवत् समुचितोऽपि भवेन् । २ स्मरस्य अयं स्मारो रसः तेन हीन इति । 5000000 चरित्रम् सर्ग:-: ॥१९८॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १९९॥ ४ १२ 000000000000000 इत्थं गदित्वा मृगवेष एष तं चन्द्रमाकारयितुं जगाम । साधर्मिकं धर्मरता महान्तः प्रवर्तयन्त्येव हि धर्ममार्गे ॥४९५ ॥ अथाऽनन्तरम् - ( लक्ष्मीधरप्रबोध: - ) मूर्छाप्रणाशात् सर्कलः स भूत्वा श्रीपुण्डरीकं यतिनं प्रणम्य । संसारवैराग्यतरङ्गितात्मा लक्ष्मीधरो भूमिपतिर्वभाषे ||४९६ ॥ sarsarक्यैर्हि विभो ! पवित्रैज्ञनोज्ज्वलैर्मेऽद्य तमो निरस्तम् । भवं ततोऽद्राक्षमहं च सम्यग् दृष्टित्वयुक्तो मुनिराज ! जातः ॥४९७॥ किं बहुना ! - श्रीजैन धर्मोचयशर्कराद्यं पीतं त्वदीयं वचनाऽमृतं यत् । उन्मत्तभावं परिहाय विश्वं पश्यामि विश्वं च यथास्थितं तत् ॥ ४९८ ॥ तवोपदेशामृत कुण्डमध्ये स्नात्वा मनो मे विमलं बभूव । भूयो रजःस्पर्शनिषेवणाय दीक्षाङ्गिकाङ्गीकरणात् प्रभो ! ते ॥ ४९९॥ एवं वचस्तस्य मुनिर्निशम्य ज्ञात्वाऽवबोधावरणस्य शान्तिम् । जगाद राजन् ! विनयस्थचित्तो दीक्षां नय त्वं विनय खपापम् ॥ ५०० ॥ शत्रुंजयं सिद्धगिरिं युगादि - देवस्य वाक्यादधुना व्रजाम | श्री केवलज्ञानमहोऽपि तत्र संभावनीयं शुभभावतस्ते ॥ ५०१ ॥ अनन्तसिद्धैः परिशुद्धमेनं गिरिं गिरा स्तोतुमलं न कोऽपि । तथापि सिद्धान्तवचोभिरेतत् - प्रभावमाकर्णय दत्तकर्णः ॥५०२ ॥ १. सचेतनः । २ दूरीकुरु । ३ अस्मत्पुरुष पञ्चमीबहुवचनम् । चरित्रम्सर्गः - ५ ॥ १९९॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥२००॥ ४ १२ तथाहि ( शत्रुंजयमीइम्यिम् — ) जाइस्सं सित्तुंजे चत्थं चिंतणाईए आसि । ओवगरणकर गुज्ज मेण पावेह छटफलं ॥ ५०३ || पंथे वचतो वि हु तिगरणसुद्धो अ अट्ठर्म भत्तं मग्गै जिणबिंबाई वदती पावए दसमं ॥ ५०४ ॥ । यास्यामि शत्रुंजय चतुर्थ चिन्तनादिके आसीत् । पूजोपकरणकरणोद्यमेन प्राप्नोति षष्ठफलम् ॥ ५०३ ॥ पथि व्रजन् अपि खलु त्रिकरणशुडिश्च अष्टमं भक्तम् । मार्गे जिनबिम्बानि वन्दमानः प्राप्नोति दशर्मेम् ||५०४ || भव्वयं धरंतो एगासी विविहभावणमईओ । ब्रह्मव्रतं वरन् एकैाशी विविधभावनामयः । कमस दुवासं पक्खक्खमणमेगग्गचित्तोय ॥ ५०५ ॥ क्रमशो द्वादशं पक्षक्षमणमेकाग्रचित्तश्च ॥ ५०५ ॥ पव्यय दंसणपूयणकरणे य मासियं हरिसवसओ । पर्वतदर्शनपूजनकरणे च मासिकं हर्षवशतः । तलजागरणे पामइ छम्मासियं चाउजामेण ॥ ५०६ ॥ तलजागरणे प्राप्नोति षण्मासिकंचतुर्यामेन ॥ ५०६ ॥ जो दिइ सत्तुं पन्नरसि-टूठमि चउद्दसीसुं च । यो वन्दते शत्रुंजयं पञ्चदेशी अष्टमी - चतुर्दशीषु च । दुन्नि वि पक्खाण फलं सो होइ परत्तसंसारी ॥ ५०७ ॥ द्वयोरपि पक्षयोः फलं स भवति परीत्तसंसारी ||५०७ दारि दोहग्गं कुमरणदासत्त-मरण- रोगाई । दारिद्र्यं दौर्भाग्यं कुमरणदा - सत्व- मरण - रोगाः । सितुंजरायरस बिंबाण ठावणे पूयणेन हु हवंति ॥ ५०८ ॥ शत्रुंजयराजस्य बिम्बानां स्थापने पूजने न खलु भवन्ति सठाणे वि विदेसे सित्तुजे वंदिए पसमरसमाए । स्वस्थानेऽपि विदेशे शत्रुंजय वन्दिते प्रशमरसमये । १ एकमुपवासम् । २ उपवासद्वयम् । ३ उपवासत्रयम् । ४ उपवासचतुष्टयम् । ५ एकवारं भोजनकारकः । ६ उपवासपञ्चकम् । ७ पूर्णिमा-पुस्तके तु 'इति' प्राप्नोति' इि *** चरित्रम् सर्ग: -५ ॥२००॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण्डरीक-8 सो वि हु जन्ताइफलं दिट्ठे य अदिए लहइ ॥ २०९ ॥ सोऽपि खलु यानादिफलं दृष्टे च लभते ॥ २०९ ॥ संसारवासं परिहृत्य तस्माद् गृहाण दीक्षां कुरु मोक्षवीक्षांम् । ॥२०१॥ निधेहि तत्वे हृदयं स्वकीयं भो ! दुर्गतिद्वारमथो पिधेहि ॥ ५१०॥ साधुर्गदित्वा विरराम यावत् । तावत् स देवा मृगवेष एव चन्द्रेण तेनैव सहाऽऽजगाम ॥ १११ ॥ यतिनं प्रणम्य चन्द्रो बभाषे बहुभक्तियुक्तः । ४ माहात्म्यमित्थं विमलाचलस्य ( चन्द्रो देव:-) श्रीपुण्डरीकं यतः- हृदा तदा चञ्चुरितं सुमार्गे पुण्यद्रुमैः पम्फुलितं तदाऽऽट्यैः । १२ Jain Education 000000000 तवां हियुग्मं प्रणतं मया यत् ततो मदीयं महदय भाग्यम् ॥ ११२ ॥ भवेत् तदाssसादितैव मुक्तिर्यदा मुदा नंनमितेः सुसाधुः ॥ ५१३॥ तथाच - अद्य प्रभो ! जागरितं हि भाग्यैरचैव नृत्तं सकलैर्गुणौघैः । अद्यैव देहं समभूत् सवर्गं ममात्मनस्त्वीदृशपुण्यदानात् ॥ २१४॥ अत्र प्रस्तावे – (लक्ष्मीधरप्रत्रज्या - ) लक्ष्मीधरः सोऽथ मुनिं बभाषे प्रभो ! व्यवस्थाप्य समग्रराज्यम् । दीक्षां ग्रहीतुं पुनरागमिष्ये विलम्ब्यतां तावदिहैव पूज्यैः || ५१५॥ national उक्त्वेति वाक्यं नृपतिः स चम्पां गतोऽप्रकम्पान्तरवृत्तिरेव । व्रतोत्सवं चास्य विधातुकामी सहेतुस्तौ मुकुन्द - चन्द्रौ ॥५१६ ॥ मोक्षदर्शिनीम् । २-३-४-५ चर-फल-सदनमधातूनां यङन्तानां रूपाणि । ५ ईयतुः । 'चरित्रम् सर्ग: ५ ॥२०१॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्ग: पुण्डरीक- लक्ष्मीधरोऽनृपति : स्वराज्ये सहस्रमल्लं सुतमभ्यषिश्चत् । ततो व्रतस्नानकृतेऽधितष्ठौ स मण्डपान्तः शुचिहेमपद्यम् ॥५१७५ १२०२॥ अशीतिलक्षाः प्रमिताः प्रवृद्धाः स्थानेषु संस्थाप्य निजेषु पुत्रान् । वैराग्यवन्तो वरमण्डलेशाः स्नानाय पट्टेष्वथ तत्र तस्थुः ॥१८॥ क्षीराम्बुधेरम्बुभिरात्मदेव-देवीयतो तो मुचकुन्द-चन्द्रौ। लक्ष्मीधरस्याऽखिलमण्डपेशैः सहाऽभिषेकं विधिना व्यधत्ताम् ॥५१९॥ स राजा गजराजरूढः प्रौढाश्वसंस्थैरितरैस्तु सर्वैः। वृतो व्रताय प्रचचाल दिव्यैर्वस्त्रैः सुवर्णाभरणमनोज्ञः ॥२०॥ देवो तदा तो मुचकुन्द-चन्द्रौ लक्ष्मीधरे प्रीतिभरं धरन्तौ। दिव्यानि रूपाणि बहनि कृत्वा विचक्रतुः प्रक्षणकानि तत्र ॥२१॥ इतश्च-प्रभावनार्थ मृगवेषदेवश्चकार चारुं गुरुमण्डपं सः। ___ मध्येऽस्य च श्रीऋषभस्य मूर्ति- चतुष्टयं पुष्टमनाः सुवर्णैः ॥५२२॥ सिंहासनं पूर्वदिशो विभागे स्थालं प्रपूर्ण च सुगन्धचूर्णैः । तदा प्रचक्रे मृगवेषदेवः श्रीपुण्डरीको निषसाद तत्र ॥२२॥ अथ-लक्ष्मीधरोऽशीतिसुलक्षसंख्यैस्तैमण्डलेशैः सह मण्डपाये। 000000000000000000000000005005000000000 WORDPOOOOOOOOOO00000000000000000000000000000000000 नाटकानि । 8॥२०॥ For Private & Personal use only . Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200000 सर्ग:-५ C समेत्य हर्षादथ चन्द्रदेवं जगाद भोः! छत्रमिदं नय स्वम् ॥५२४ ॥8 गजादयोत्तीर्य स मण्डलेशैयुतः प्रणम्य प्रणयेण सम्यक् । ॥२०३॥ - प्रयच्छ दीक्षां भगवन् ! ममेति व्यजिज्ञपत् तं मुनिपुण्डरीकम् ॥५२५॥ ततश्च- युगादितीर्थकरनाममिनं गीतं भणन्तीषु वरामरीषु । श्रीजैनदीक्षां विधिना नृपस्य देहे सुमात्रैनिदधे मुनीन्द्रः ॥५२६॥ 8 लक्ष्मीधरे राजमुनो पुरस्थे हृष्टे निविष्टे च सभाजनेऽस्मिन् । सद्देशनां धर्मनिवेशनाय प्रोवाच वाचंयमराजराजः ॥५२७॥ तथाहिजातस्तोत्रमिदं हि गोत्रमखिलं धन्या जनिस्तेऽजनि बुद्धिः शुद्धिमियाय पारपटलं प्र.प क्षयं तेऽखिलम् । संसारोऽपससार सारसुकृताऽऽसारेण संप्रेरितो हे साराधिक! यजिनेन्द्रदुहिता दीक्षा भवन्तं श्रिता ॥२८॥ यतः- (प्रव्रज्यामाहात्म्यम्-) उक्कोसं व्वत्थयं आराहइ जाव अच्चुयं कप्पं । उत्कृष्टं द्रव्यरतवमाराधयति यावदच्युतं कल्पम् । भावस्थएण पामइ अंतमुहत्तेण निव्वाणं ॥५२९ भावरतवेन प्राप्नोति अन्तर्मुहर्तन निर्वाणम् ॥५२९०४ एगदिवसं पि जीवो परवजमुवागओ अनन्नमणो । एकदिवसमपि जीवः प्रव्रज्यामुपागतोऽनयमनाः। जइविन पामइ मोक्खं अवस्सवेमाणिओ होई ॥५३०. यद्यपि न प्राप्नोति मोक्षमवश्यवैमानिको भवति॥५३०४ विशेषलोऽपि ते धन्याः भोगान् भूयोऽनुभूय ये । अन्तेऽपि तोषितारमानस यजन्ति क्रुद्धभोगिवत् ।। 000000000000000 DOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOM 300000000 For Private & Personal use only . Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥२०४॥ ४ १२ ( किं पुनस्तेषां ये बाल्येऽपि त्यजन्ति इति भावः ) उक्त्वेति वाक्यं विरते मुनीन्द्रे स चन्द्रदेवो न्यगदत् प्रणम्य | प्रभो ! भवन्मूर्ध्नि सितातपत्रं विधृत्य तापं पथि वारयामि ॥ २३२ ॥ मुनिर्बभाषे शृणु चन्द्रदेव ! छत्रेण कार्यं नहि किञ्चिदस्ति । Marati मतीनां छाया -ऽऽतपौ नो सुख - दुखः हेतु ॥ २३३॥ इत्थं प्रभुश्रीगुरुपुण्डरीकः श्रीचन्द्रदेवेन महार्हभक्त्या | ( अन्यदेशे प्रविचचार पुण्डरीकः -- ) साधुनाम्बुसेकप्रसृतिमतिलता सुतिवाक्यप्रसूनैः संवास्याऽशेषवास्या न मर - नरवरान् प्रस्फुरद्बोधगन्धैः । वाञ्छन्नन्यत्र देशे प्रविचरणमसौ पुण्डरीको गणेशो भूमावालोक्य वामे - तर चरणमथो सिंहपीठाश्यधत्त ॥ २३५॥ गणाधीशं तत्र स्वगुरुमुरुबोधप्रदममुं विहाराय प्रोग्रन्मनसमवगम्य द्रुतमतः । बभूव श्रीशत्रुंजयविमलय । त्रोद्यतमना विनेयानां वर्गों विनय गुणकर्पूरकलशः ।। २३६ ( पञ्चमः सर्गः - ) श्रीरत्नप्रभसूरिसूरकरतो दोषानुषङ्गं त्यजत्यो जाड्यस्थितिरप्य नूत् प्रतिदिनं प्रासाद्भुतप्रातिभः। तेन श्रीकमलप्रभेण रचिते श्रीपुण्डरीकम भोः श्रीशत्रुंजयदीपकस्य चरिते सर्गोऽभवत् पञ्चमः ॥ २३७ ॥ ॥ इति श्रीरत्नप्रभसूरिशिष्याचार्यश्री कमलप्रभविरचिते पुण्डरीकच रिते श्रीलक्ष्मी वरप्रति बोधवर्णनो नाम पञ्चमः सर्गः ॥ Jain Education national छतदा मूर्धनि धार्यमाणं निषेधयामास विवेकविज्ञः ॥ ५३४॥ १ उर्विशालः । चरित्रंसर्ग: ५ ॥२०॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Peoporpooc000000000000OOOOOOOOOOOOOOOOOO षष्ठः सर्गः। सर्गः-६ ( श्रीपुण्डरीको गजपुरं ययो-) श्रीपुण्डरीको राजर्षिहर्षितैस्तैमहर्षिभिः। समन्विनसुरैस्तैश्च विजहार विभुर्भुवम् ॥१॥ श्रुतक्रमेण संक्रामन् क्रमाभ्यां क्रमतो मुनिः । ययो:गजपुरं देवैः सहितः सहितोऽङ्गिबु ॥२॥ इतश्च (सोमयशा नृपः-) श्रीबाहुबलिनः पुत्रस्तत्र सोमयशा नृपः।ससैन्योऽत्र तदाराज-पाटीमाटीकते स्म सः॥8 पश्चलक्षमितैर्देव-विमानैः व्योमनि स्थितैः । मुनिमायान्तमज्ञासीत् पुण्डरीके स भूपतिः ॥ ४ ॥ ततः सोमयशा भूपश्चित्ते चिन्तितवानिति । अहो! अंहोऽखिलं क्षीणमहो! मेऽद्य महोदयः ॥५॥ यतः- पभिन्यो राजहंसाश्च जीमूताः सुतपस्विनः। ये देशमनुगच्छन्ति स देशः श्रियमश्नुते ॥६॥ पुत्रं श्रीभरतेशस्य गणेशमृषभेशितुः। यान्तं सिद्धगिरि श्रीमत्पुण्डरीकं नमामि यत् ॥७॥ (प्रतीहारः सत्यसार:-) इत्थं सोमयशा राजा हृदा ध्यात्वा मुदा तदा । सत्यसारं प्रतिहारं प्रोचे पोत्सुकया गिरा॥81 (विजयसेनो मण्डलेशः, गुणारामः श्वा-) हंहो विजयसेनाख्यं मण्डलेशं ममाऽधुना । गुणारामाभिधश्चान-युक्तमाकारय द्रुतम् ॥९॥ तथाऽयं सत्यसारोऽपि नीत्वा देशं नृपस्य तम् । गत्वा विजयसेनाख्यं मण्डलेश्वरमाहत ॥१०॥ ततो विजयसेनोऽयं स्वेन श्वानेन संयुतः। समागत्य ननामाऽऽशु श्रीसोमयशसं नृपम् ॥११॥ नृपो विजयसेनं तं प्रोचे भोः! त्वरितं चल। यथा श्रीपुण्डरीकाग्रे स्वरूपं कथ्यते शुनः॥१२॥ अंहः पापम् । १ मेघाः । ३ गणधरम् । २०५॥ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 १२ Jain Education pleational Plinelibrary.org Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥२०६ ॥ ४ १२ इत्युक्त्वा स नृपः सर्व-सैन्ययुक्तोऽचलत् ततः । मार्गे यान्तं तदा श्रीमत्पुण्डरीकमथानमत् ॥१३॥ तदाच --- किङ्किणीकलकण्ठः सोऽकुण्ठनूपुरयुक्पदः । सारमेयो' गुण:रामोऽप्यमेयविनवोनमा ॥ १४॥ ततश्च - सुराश्च साधवः सर्वे तिर्यञ्च विनयाश्चितम् । सारमेयं समालोक्य चमचकुचिरं हृदि ॥ १५ ॥ अहो विनयस्य महिमा - नीरं निर्मलशीतलं कटुतरं स्यादेव निम्बादिषु दुग्धं सर्पमुखादिषु स्थितमहो जायेत लीव्रं विषम् । दुश्शीलादिषु संगतं श्रुतमपि प्राप्नोत्य कीर्ति परां धन्योऽयं विनयं कुपात्रमपि यः संभूषयेन्नित्यशः ॥ १६ ॥ तथाच - विणओ आवहइ सिरिं विनय आवहति श्रियम् लभते विनीतो यशश्व कीर्ति च । न कदाचिद् दुर्विनीतः स्वकार्यसिद्धिं समापयति ॥ १७ ॥ लहर विणीओ जसं च कित्तिं च । न कमाइ दुव्विणीओ सकसिद्धिं समाणे ॥ १७ ॥ ततः सोमयशाः साधुं नत्वोवाच कृताञ्जलिः । सगुरो ! गुरुसंदेहभिदे तिष्ठ मुदेऽत्र मे ॥ १८ ॥ निबन्धोऽपि मुनिर्भक्त निबन्ध प्रेक्ष्य भूपतेः । किञ्चिद् ज्ञानेन च ज्ञात्वा तत्र स्थातुं मनोऽकरोत् ॥१९॥ मुनेर्मनोऽथ विज्ञाय भक्तिसंमृतमानसः । चक्रे हरिणवेवोऽयं रत्नशालां सविष्टैराम् ॥ २० ॥ (अभाषिष्ट पुण्डरीकः — ) ततः श्रीपुण्डरीकोऽसौ निषसाद प्रसादवान् । ततोऽभाषिष्ट राजानं श्रीसोमयशनं सुनिः भोः ! श्री सोमयशोराजन् ! संशयो यस्तवाऽऽशये । तं निवेदय वेगेन यथाऽऽशु कथयाम्यथ ॥ २२ ॥ १ सारमेयः शुनकः । २ रन्धरहितः - केनचिद् रोढुम् अशक्यः । ३ आग्रहम् । ४ आसनसहिताम् । Jain Education Inmational 1 सर्ग: - ६ nelibrary.org Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥२०७॥ ROO0000000000000000000MASOONOMONSORSE ततो विजयसेनं तं श्वानवृत्तविशारदम् । राजा संकेतयामास मुनिविज्ञप्तिकाकृते ॥२३॥ अथो विजयसेनोऽयं मुनि नत्वाऽवदद् वचः। प्रभो! प्रथममस्यैव स्वरूपं श्रूयतां शनः ॥२४ा समाथि 8 सर्गः-६ (गुणारामशुनकवृत्तान्तम्-) 8 श्रीसोमयशसो राज्ञः सेवायै गच्छतः पथि । सारमेयममुं दृष्ट्वा मनो मोहमुवाह मे ॥२५॥ ततो मया ममत्वेन श्वानोऽयं जगृहे गृहे । भोजितो भोजनैः सारभूषितो भूषणैस्तथा ॥२६॥ किं बहुना? क्षणं स्थातुं न शक्नोमि श्वानमेनं विना विभो !। तदाप्रभृत्यतोऽनेन सार्ध तिष्ठामियाभिच॥ अहं युगादिदेवस्य प्रासादेऽगममन्यदा । तदा स्वामिन् ! अयं श्वानोऽप्याजगाम समं मया ॥२८॥ अहं गर्भगृहे यावदादिदेवस्य पूजनम् । अकार्ष हर्षतस्तावत् श्वानोऽयं तस्थिवान् बहिः ॥२९॥ 18 ततः पौषधशालायां गुरून यावन्नमाम्यहम् । तावत् प्रथममेव श्वा नमश्चक्रे तथाविधिः ॥३०॥ ईदग्विनयतुष्टेन हर्षोत्कर्षवशाद् मया । गुणाराम इति ख्यातिः श्वानस्यास्य तदा ददे ॥३॥ 8. किंबहुना?-सद्धर्मकर्ममर्माणि जानाति सकलान्यसौ। तिर्यग्योनिस्थितो ज्ञानी त्वयं मे विस्मयो हदि । 18 अतः- (गुणारामशुनक.वषये प्रश्न:-) 18 कथं मेऽस्योपरि स्नेहो ज्ञानी श्वानोऽप्यसौ कथम् । कारणं कथ्यतामेतत् संदेहाम्भोधितारणम् ॥३३॥ ततो विजयसेनस्य पृच्छामाकर्ण्य सुनिर्मलाम् । प्रभुः श्रीपुण्डरीकोऽयं जगाद गर्दतां वरः ॥३४॥ ४ हंहो विजयसेन ! त्वं स्वकीयाशयसंशयम् । पृष्टवानसि तद्युक्तं गुरूणां लाभ एष हि ॥३५॥ १ भाषायाम्-गभारो २ ववतृणाम् । SoCOURecoupodcoo000000ळवलक Jain Education national N ainelibrary.org Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम्. पुण्डरीक-8 कुजातिं च सुजातिं च ज्ञाना-ज्ञाने सुखा-ऽसुखे। जन्तुर्लभेत भोः ! पूर्व-भवसंभवकर्मणा ॥३६॥ ॥२०८॥ (विजयसेन-गुणारामयोः पूर्वभवः सर्गः-३ ततोऽद्य सर्वसंदेह-संमोहापोहहेतवे । आत्मीयं शौवनं चैव शृणु पूर्वममुं भवम् ॥३७॥ तथाहि- (काञ्चनपुरम्-) जम्बूद्वीपाभिधीरे विदेहक्षेत्रमध्यतः। श्रीकाश्चनपुरं नाम विद्यते स्वःपुरोपमम् ॥ (भीमसिंहो नृपः- ) भीमा सिंह इव प्रोद्यदरिव.रेणदारणे । भीमसिंहाभिवस्तत्र पाति भूमिपतिः प्रजाः ॥३९॥ ( पद्मा राज्ञी- ) सदा स्मितेन वक्त्रेग चरित्रेणाऽवलेन च । द्विवाऽपि जितमऽस्ति पत्नी पमाभिव.ऽस्य तु॥ अन्यदा सा निशाशेषेऽपश्यत् पल्यङ्कसंगता। स्वप्नान्तःप्रसरदान भानुं भुवनभासितम् ॥४१॥ शीघ्रं स्वप्नममुं लब्ध्वा बुड्वा बुद्धावय स्थिरम् । संस्थाप्य पद्म.राज्ञीयं राज्ञे तस्मै व्यजिज्ञपत् ॥४२॥ राजा देवीमथाऽवादीद् देवीकस्वप्नतस्तव । सुतोऽद्भुतौजसा युक्तो भविता भूरिभाग्यभाक् ॥४३॥ इति स्वप्नफलं श्रुत्वा निजभर्तमुखादसौ। पद्मा प्रमोदसम्राऽथ ययौ राजगृहं रयात् ॥४४।। (असूत पद्मा सुतम्--) कतिचिद् दिवसान् हर्षादतिवाह्य महासती । संपूर्णसमयेऽसूत तनुं साऽनूनतेजसम्॥ (भुवनभानु:-) पूर्वस्वप्नानुसारेण तस्य पुत्रस्य भूपतिः । भुवनभानुरिति ख्यातिमाख्याति स्म सविस्मयः ॥ इतश्च- यथा सुवाचिनि स्नेहः संतोषिणि यथा सुखम् । यथा स्वाचारिणि तेजस्तत्राऽसौ वधे तथा॥ ४ ( उपाध्यायो ज्ञानानन्दः- ) सुतं भुवनभानु तं भीमसिंहोऽध भूमिपः । ज्ञानानन्दाख्यविदुषः पार्थे पाठकृतेऽमुचत् ॥४ । अपोहो-दूरीकरणम् । २ शुन: संबन्धि । ३ स्वः स्वर्गः । ४ वारणो-हस्ती । ५ पद्मम्-पद्मा । ६ भानु:-किरणः । ७ हे देवि!। ८ भविष्य ते । ॥२०८ 5000000000000000000000000000000000000000 20000000000000000000000000000000000000000000000000 Jain Education n ational Ishelibrary.org Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक ॥१०९॥ ४ १२ ततःथ- साहित्येषु स सोहित्यं वैचक्षण्यं च लक्षणे । गेयेऽमेयमतिं प्राप लोस्येऽनालस्यतां क्रमात् ॥ इत--सारसारं कलालोकोकिलं वनम् । सुतं नृपः स तं प्रेक्ष्य ज्ञानानन्दमथाऽवदत् ॥ २०॥ भोः कलाचार्य ! पुत्रोऽयं सकलासु कलास्वपि । त्वया विशारदश्चक्रेऽधुना युद्धे कुरु हुतम् ॥ ५१ ॥ विनयो हि विनेयानां त्रपा स्त्रीणां शमो मुनेः । युद्धं क्षत्रियपुत्राणां विभूषणमसंभृतम् ॥ १२ ॥ उक्त्वेति नृपतिज्ञाना-नन्दारूपं तं कलागुरुम् । वस्त्राऽलंकृतिदानेन संमान्याऽथ विसृष्टवान् ॥ २३ ॥ ज्ञानानन्दकलाचार्यो नृपोक्तं मनसा स्मरन् । छात्रं भुवनभानुं तं शस्त्रश्रममचीकरत् ॥२४॥ शब्दवेधी सूक्ष्मवेधी शीघ्रसंधानवानसी । दृढप्रहारी वैयक्यिो धनुर्युचे क्रमादभूत् ॥ ६५ ॥ ( सङ्गादियुद्दानि - ) खड्गयुद्ध - गदायुद्ध - मल्लयुद्धादिकान्यसौ । ज्ञात्वा भुवनभानुस्तं गुरुं नत्वा व्यजिज्ञपत् ॥ (राधावेधाभ्यासः - ) भवत्प्रसादादासादि सादियुद्धादिकक्रमः । राधावेधभ्रमज्ञाने संभ्रमो मे गुरो ! महान् ॥ ज्ञानानन्दस्ततः क्षत्र-पुत्रपश्चशतीवृतः । पयो पुरबहिर्भूमिं युक्तो भुवनभानुना ॥ ५८॥ क्षत्रपुत्रान् ततः सर्वान् श्रेण्या संस्थाप्य सोऽब्रवीत् । हो ! राजसुताः सर्वे शृण्वन्तु वचनं मम ॥ ५९ ॥ अग्रतः - चारो चूततरो वामपक्षशाखामवस्थितः । चावपक्षी दृशोर्लक्षी-क्रियतां भूपसुनवः ! ॥३०॥ तथा, पक्षिणोऽस्यैव भो ! दक्षा ! दक्षिणेतरचक्षुषि । समाश्रित्यैकतानत्वं लक्षं बध्नीत निश्चलम् ॥ ६१ ॥ इत्याकर्ण्य वचचारु ज्ञानानन्दकलागुरोः । प्रमाणं युष्मदादेश एव ते क्षत्रिया जगुः ॥ ६२ ॥ ज्ञानानन्दः पुनः प्रोचे भो ! भोः ! क्षत्रियसूनवः । चूतं शाखां खगं चापं चक्षुरस्य च पश्यत ॥ ६३ ॥ १२ Jain Educatic temnational भासादि प्राप्तः । ५ साड़ी-अधारोडी । 'QQ0ODUÕQU2000x 000000000 चरित्रसर्गः - ६ ॥१०९॥ w.jainelibrary.org Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डीकर ॥२१०॥ BAR com-00000000000000000000000000000000 अथैते प्रोचिरे स्वामिन् ! सचिरेणाऽखिलं वयम् । पश्यामो व्यक्तिसंयुक्तमेतत् युष्मत्प्रभावतः ॥३॥ अथो भुवनभान सोऽपृच्छत् किं.वं च पृच्छ(पश्य)सि। ऊचेऽयं चाषचक्षुः तत् पश्याम्यन्यन्न किंचन ॥३५॥ ज्ञानानन्दः कुमारस्य पृष्ठौ दावा.करं जगी। सिडो भुवनभानो ! भो! राधावेधविधिस्तव ॥३६॥ वृक्षाघालम्बनैरन्यैः स्खलितं नो मनो मनाक । सेधति स्म ततो राधावेधः सन्मेधसस्तव ॥३७॥ यतः-धर्म दया दानविधौ च धैर्य सृष्टौ जलं लोभभरस्त्वपाये। शास्त्रेषु मूलं भुवि मातृका स्यादेकाग्रतवाऽखिलकार्यसिद्धेः ॥६८॥ जानीत क्षत्रियास्तस्माद् भवेऽमुत्र परत्र वा । सर्वदा सर्वदामेनां स्थिरामेकमनरकताम् ॥३९॥ ज्ञानानन्दरततोऽशेषक्षत्रपुत्र युतस्तदा । श्रीभीमसिंहभूपस्य हर्षदः पर्षदं ययौ ॥७०। तत्र च-सन्मान्याऽऽसनदानेन भूपः प्राह कलागुरुम् । हहो! प्रबुडवुद्धिः किं युद्धे जातः सुतो मम ॥७१॥? ज्ञानानन्दोऽथ सानन्दो जगाद जगतीपतिम् । राजन्नजनि दक्षस्ते तनयो विनयोच्चयात् ॥७२॥ किंबहना? सकलकलापरिकलितोलावण्यपुण्यलीलाभिः। गुणगणमणिनिधिरेष प्रसन्नवेषः सुतो जातः ॥ ४ (ज्ञानानन्द गुरुसत्कार:--) अथोचे पृथिवीनाथो ज्ञानानन्द कलागुरुम् । दानं त्वदानन्दकरं मुदाऽनन्तं ददेऽद्य किम् । ४ यतः- जन्मप्रदात्रे शरणप्रदात्रे कलाप्रदात्रेऽतिधनं वितीर्य । नरोऽनृणीयन्नुपयाति हास्यं तुषान् प्रदार व गृहीतरत्नः ॥७॥ तथापि, कृतोपकाराय नराय लोकः स्वस्यानुमानेन सदोपकार्यम् । १..भाषायाम-पीठ । २ सर्वदात्रम् । ३ ऋणरहितो भवन ArdoodonwondaONOOOOOOOCOWoron २१॥ Jain Education Bernational Yaw.jainelibrary.org Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ accog 300000000000000 06ocrachaasau saas संप्रीणतः किं वसुधां सुधाभिन मुच्यतेऽग्रे शशिनो दृशोऽन्तः॥७३॥ चरित्रम. हतो ममः हृदानन्दकृते वद विदां वर ! । मत्पुत्रशास्त्रदात्रे किं ददे तुभ्यं मनीषितम् ॥७७॥ . सर्गः-६ अथ प्राह विहस्यैष गुरुहर्षात् कलागुरुः । भूमीश ! तव सन्मानमेव लब्धं मनीषितम् ॥७८॥ किन्तु, छात्रं भुवनभानु रवं पात्रं सद्गुणसंपदः । प्रार्थयिष्येऽधुनाभीष्टं न तु त्वां पृथिवीपते ! ॥७९॥ रसनाथसुतो भक्तिरसेनाऽथ कलागुरुम् । प्रणभ्य प्राञ्जलि: प्रोचे हर्षोत्फुल्लमुखाम्बुजः ॥८॥ अप्राप्यं स्वर्ण-रत्नाद्य-रर्थमर्पयतां भुवि । भवादृशां पुरः किं किं दानं संढौकयेजनः ॥८॥ (ज्ञानानंन्द-दत्ता शिक्षा-) तथापि प्रार्थ्यतां किञ्चिद् मम जन्म कृतार्थ्यताम् । अथ प्रोचे कलाचार्यों राजपुत्र ! वचः शृणु ॥८२॥ नैपुण्यं पुण्यतः प्राप्यं सकलासु कलास्वपि । अतः सुकृतिना भाव्यं कृतिनाऽपि सदा रवया ॥८३॥ यतः- चन्दनं हि घनसारपरागात् स्यात् सुगन्धकलितं लशुनान्न । इत्थमत्र सुकृतादभिनन्द्या प.पतो न तु कला विमलाऽपि ॥८४॥ अन्यच्च-यः कला लिकलितः सफलोऽपि स्यात् कलङ्ककलुषः किल चित्ते ।। तस्य शीतलकचेरपि तेजो हीयते हि शशिवद् भुवने ही ॥८५॥ यतः- धर्मिणं जनक स्वीयं गुरुं संस्मरता च माम् । इच्छता चाऽऽत्मनः कीर्ति धर्म कार्यसवयोद्यमः ॥ श्रीसर्वस वया पूजयः त्रिकालं च त्रिशद्धितः । परोपकारे पुपये च तित,यह तिम् ॥८७॥ चामेतत् प्रार्थये धीमन् ! नान्यत् किश्चित् पुनः पुनः। इत्थमेव भवेत् कीर्तिः कलायारतव मेऽपि हि ॥ १ षष्टयन्तम्-शशिविशेषणम् । ४॥२१॥ worrowdoल Poinw.jainelibrary.org Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यकलापार्यायसुचि श्रुत्वा वृपाङ्गजः। नत्वा जगार सुगुरो! करियेऽहमिदं ध्रुवम् ॥८९॥ भव- अनुकूनो सुकूलानि भूपस्तस्मै कलाविदे। ददौ तदौचित्ययुतो गुणिगौरवहेतुवित् ॥९॥ एवं भीभीमसेनेन भूभुजा सत्कृतः कृती । ज्ञानानन्दः कलाचार्यों निजं धाम जगाम सः ॥९॥ भथाऽन्यदातस्नामः संवीतशुचिचीवरः। गृहदेवगृहे देव-पूजायै नृपसूर्ययो॥९२॥ (दिव्या पत्रिका-) उत्तारयन् स निर्माल्यं कुमारो निजपाणिना। जिनेन्द्रमूर्तिहस्तस्यामपश्यन् दिव्यपत्रिकाम् । स्पर्मपर्णावलीरम्या पत्रिका सृजनन्दनः। नीत्वेत्थं पाचयामास विस्मयावाममानसः ॥९४। तथाहि- योऽत्र दुःख-सुखपूरगतोऽपि स्वीयसवतरणी न विमुञ्चेत् । गर्च-दैन्यजलधिव्यमध्ये नो पतेत् स गतपातकभार:॥१५॥ अन्यच्च- पूर्वकर्मवशतः सुखिनः स्युःखिनच भुवने भविनोऽमी। धीरधीभिरिति तत्वमवेत्य सत्त्वमेव सततं करणीयम् ॥१३॥ इस दिन्यमिदं पत्रं वाचं वाचं स भूपभूः। स स्वान्तं स्नपयामास प्रमोदक्षीरनीरधौ ॥१७॥ सास: श्रीवीतरागस्य पूजा कृत्वा नृपाङ्गजः । काव्यद्वयं स्मरनेव चक्रे तद्दिननिर्गमम् ॥९८॥ विशाय सायमम्येष कुमारो जिनपूजनम् । पाते यामेङ्गसौख्येन शय्यायो स्वापमाप सः॥२९॥ । (भुवनभाबुर्विरूपां नारीमैक्षत-) सो पापबाजामार मार: फारसत्त्ववान् । तावत् पुरो विरूपाक्षीमेकां नारीमवैक्षत ॥१०॥ , परिहितम् । ३ चित्तम्। 000000000000000000000000000000000000000 सौरपकतरनीरौलायम ९३ ॥२.२॥ ainelibrary.org Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्र सर्गः-६ पुण्डरीक- अनेकां च वृक्रास्यां रौद्राक्षी भीषणोदरीम् । लम्बोष्ठी लम्बदन्ती तां स विलोक्य विसिमिये॥ ॥२१३॥ अथ प्रोचे कुमारं सा घोरघर्घरनिःस्वना । भो! जातेऽपि निशाशेषे सखे !'जागषि वा कथम् ॥१०२॥ कुमारः प्राह निद्रा नो विशेषात् तव दर्शने । किन्तु मे कथ्यतां का त्वं मूढेऽप्यत्र किमार्गमः ॥१.३॥ सह सा प्राह हास्येन सहसा भूपतेः सुतम् । अलक्ष्मी नाम: देवी मां विद्धि लक्ष्म्या हि वैरिणीम् ॥१०४॥ पुण्यं पापं च बन्धाय भवेऽस्मिन् भविनां भवेत् । अथो तद्वन्धविच्छित्त्यै लक्ष्म्य- लक्ष्म्यो विधियधात् ॥१०॥ अहं पुनरधिका । यतःउपार्जयन्ति यत् पापं लक्ष्मीसंगेन ये नराः। तस्य प्रक्षालनायाऽहं तान् सेने कृपयाऽन्विता ॥१०॥ अधुना तु- तय देहेऽवताराय समायाताऽस्मि सांप्रतम् । यदि त्वं वद तयामि समेष्यामि तुपाधके । तस्यां जोषमुपेयुष्यामेवं प्राह नृपाङ्गजः । इदानीमेव हे देवि ! देहे मेऽवतर स्वर ॥१०८॥ उक्त्वा यावदिदं वाक्यं कुमारो विरराम सः। छायावत् तावदस्याने दृढावेशा विवेश सा ॥१०९॥ (भुवनभ नुर्दुःस्थः । तदा विचिन्तयामास नृपजो निजचेतसा । वेदनीयोदयादद्य मामलक्ष्मीः समाश्रयत् ॥११॥ (भुवनभानो: प्रवास:-) तस्या उपभोगाय यामि देशान्तरं ततः। कुटुम्बं मदभाग्येन दुःखं मा लभतां परम् ॥१॥ 18 यतः- बन्धुभिः सह सुखं परिभोग्यं नैव दुःखमिति सज्जनमार्गः। स्यानिशि ग्रहपतिर्ग्रहयुक्तो नाऽतेजसि न बजानु ॥११२॥ चिन्तयित्वेति जैनेन्द्रमूर्ति नीत्वाऽऽत्मना समम् । सत्वरं सत्वरङ्गेण निस्ससार स सारवान् ॥११॥ १. नकं-नासा । २ जोष-मौनम् । 3000000000000 ८ 0 000000000000000000 महाडकर IRAR Jain Education r ational wwwjainelibrary.org Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥२१४॥ 80500000000000000000000000000000000000000000003 (सर:-) गच्छन्नथ पथि प्रौढवृक्षश्रेणिविराजितम् । सर: सरसमम्भोधि-सदृशं स हशा पपौ ॥ ११४॥ ततश्च- प्रक्षाल्य चरणौ जैनमूर्ति नीत्वा नृपाङ्गजः। पपावपापः पानीयं पूत्वा पूतेन वाससा ॥११५॥ समेत (प्रादुर्बभूव राक्षसी-). पीत्वा नीरं सुतृप्तोऽन्तर्यावद् व्यावर्तते ततः। तावत् प्रादुर्बभूवाऽग्रे राक्षसी भीषणक्षणा ॥११६॥ निजगाद कुमारं सा रौद्ररावाऽथ राक्षसी। भो! युद्धं कुरु शीघ्रं वा मुश्च शस्त्रं ममाग्रतः ॥११७॥ इति श्रुत्वा रणायैष यावदुत्तिष्ठते हठात् । तावत् तस्य करात् खड्गं हत्वा खे राक्षसी ययौ ॥११८॥18| हस्तं वीक्ष्य विशस्त्रं स्वं विहरतोऽन्तर्यचिन्तयत् । अहो ! अलक्ष्म्या देव्याऽयं प्रभावो दर्शितो निजः ॥११९४) लक्ष्म्या वासो हि स्वगः स्यात् गतः सोऽद्य कराद् मम । अथवा बाह्यभावैः किं यातैः सत्त्वं प्रयातु मा॥४ निश्चित्येति कुमारोऽयं धीरधीरद्भुतप्रभः। अचलाया विलोकाय सहेलमचलत् ततः ॥१२१॥ (वसन्तपुरम्---) अथाऽसौ भूयसी भूमि भ्रान्तः श्रान्ततनुभृशम् । वसन्तपुरपार्श्वस्थमश्वत्थतरुमाश्रितः॥१२२॥ (दावानल:-) छायायां चलपत्रस्य स्थितो यावत् स निश्चलः । तावत् तत्र पुरे वहनिप्रदीपनमभूद् बहु ॥१२३॥ दिवा तारकितं व्योम स्फुलिङ्गैः स्फुटितैस्तदा । श्रुटितवालजालश्च चक्रे सूर्यशतान्वितम् ॥१२४॥ ( श्यामाको नरः-) अस्मिन्नवसरे कोऽपि स्थूलः श्यामाङ्गकुत्सितः। नरो नगरतोऽभ्येत्येत्याऽऽतुरः प्राह भूभुजम् ॥१२५॥ कोऽपि सत्पुरुषोऽसीति वेभि सुन्दरदेहतः। स्वर्णपञ्चशतीग्रन्थिममुं पार्श्व गृहाण तत् ॥१२॥ कुमारो न्यगदद् भद्र। स्यादर्थोऽनर्थदो ध्रुवम् । ममाऽधुना विशेषेण दैवं हि विमुख यतः ॥१२७॥ 8 पुरुषः सोऽवदद् विश्व-रन्धो ! बन्धोऽयमस्ति मे । चेत् त्वं गृहाण तद् वने रक्षामि स्वकुटुम्बकम् ॥ 5600-30000000000000000000000000009 निधिसो हि खहरतोऽति Jain Education Rational wwantainelibrary.org Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दयान्तर्दयां धृत्वा दाक्षिण्यामृतवारिधिः। कुमारस्तस्य तं ग्रन्थि जग्राह निजपाणिना ॥१२९॥ चरित्र गतेऽथ पुरुषे तस्मिन् कुमारे च निषेदुषि । तरौ तत्र विरौति स्म काकः क्रूररवो रयात् ॥१३०॥ 8. सर्गः-६ कुमारश्चिन्तयामास कुरुतं कुरुते ह्यसौ । कष्टं तिष्ठति मे पुष्टं कथमस्मादपीह किम् ? ॥१३१॥ 18 ( काकहृतं स्वर्णम्-) इत्थं गूढविचारेण गूढचित्तो नृपाङ्गजः। शीघ्रं वायसवित्रास-कृते तं ग्रन्थिमक्षिपत्॥१३२॥ तदैव स्मृतिभाग याव-दुत्थायाऽऽशु विलोकते । तावत् कुत्रापि न प्राप सम्यक्त्वं पापवानिव ॥१३३॥ 8 अलब्ध्वा तदसौ स्वर्ण राजसूनुर्व्य चिन्तयत् । सूचित काकशब्देन यत् कष्टं तदुपस्थितम् ॥१३४॥ कुमारे चिन्तयत्येवं पुरुषः स पुरात् पुरः। समागत्य प्रमोदेन व वदूकोऽवदद् वचः ॥१३॥ देव! त्वदीयसाहाय्यात् कुटुम्ब सकलं.निजम् । गृहं च ज्वलनादस्मादक्षतं रक्षितं मया ॥१३६॥ (भुवनभानोश्चिन्ता-) विजयस्व चिरं तत् त्वं सर्वोरकृतिकारकः । समर्पय मदीयं च स्वर्ण स्थपंनिकाऽऽहितम् ॥8 18 उक्ते व्यक्तेऽथ तेनेति चिन्ताभूर्भूपभूरभूत् । याचतोऽस्याऽधुना किं किं वचो वच्मि वचस्यपि ॥१३८॥8 काकस्य संमुखो ग्रन्थिः क्षिप्तः प्रत्येति को वचः । पचपीथमसंभाव्यं सत्यं वक्ष्ये तथाऽपि तु ॥१३९॥४ यतः- ऊचुषो वचनं सत्यं तस्थुषो धर्मिणां पथि । यद् भाव्यं तद् भवत्वेवं सुखं चाऽप्यसुखं मम ॥१४०॥४ 8 एवं सुचिन्त्य चित्तेन त्रपापूरप्लुताक्षरम् । स्वर्णवृत्तं यथावृत्तं जगाद स विषादभाक् ॥१४॥ अथ, रुक्षाक्षरं बभाषेऽसौ पुरुषः परुषाकृतिः। भो ! भोः ! स्थपनिकामोषस्त्वयाऽपि विहितः कथम् ॥ स्वादशा अपि चेद् द्रव्यं मादृशानां हि गृह पाते । ततो जगति कः कस्य विश्वेऽस्मिन् विश्वसिष्यति ॥१४३॥8 १. अपशब्दम् । २ भाषायाम्-थापण । ३ चिन्तास्थानम् । ॥२१५॥ SCOOOOOOOOOOOOOOOL00000000000000000OMococcool BOOL-000000000000000000000000000000000 00000000 Jain Education de mational ainelibrary.org Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥२१६॥ ४ १२ 000000000 ततोऽयं याभि मे स्वर्णं ददीया अन्यजन्मनि । इत्युक्त्वा स नरः कोपाटोपाद् गन्तुं प्रचक्रमे || १४४ ॥ रिष तं यान्तं नृपजो रुड्वा बभाषे व्याकुलाक्षरम् । मया प्रमादमुग्धेन स्वर्ण निर्गमितं तव ॥ १४२ ॥ तथापि कथमप्यस्मिन् भवे मामनृणी कुरु । ऋणरज्जुनिबद्धस्याऽन्यभवे न भवेद् गतिः ॥१४६॥ धर्मिणोऽपि कृतिनोऽपि कदाऽपि स्याद् ऋणं किमपि कस्यचिदेव | सर्ग: - ६ तस्य तत्र सकलेऽपि तु दत्ते संभवन्ति हि मुखानि परत्र ॥ १४७॥ अन्यच - केऽप्युपायं धनमात्मकलाभिर्जीवियन्ति जलदा इव जीवान् । छद्मनाऽन्यधनमत्र नयन्ति स्वोदराय वडव। ग्निवदेके ॥ १४८ ॥ किं बहुना ? सतां मोक्षे वाञ्छा स तु सुकृततस्तच सुमते-र्गुरोरेवैषा स्यात् स्ववशमनुजत्वे च स गुरुः ॥ ऋणान्न स्वातन्त्र्यं परभवगतानामपि ततो ऽधमर्णत्वं मा भूत् इति मतिमता संमतमा ॥ १४९ ॥ ऋणाद् महाभयं कुर्वन्नङ्गेनैवाऽमुनाऽधुना । अनुणीभूयमिच्छामि भूत्वा कर्मकरोऽप्यहम् ॥ १५०॥ बभाषे पुरुषः सोऽथ हंहो ! क्षत्रियपांसन ! । तव कर्मकरस्याऽपि योग्यं भौज्यं न मे गृहे ॥ १५१ ॥ पुनः प्राह कुमारोऽसौ तव स्वर्णाधमर्णताम् । विहातुमीहेऽहमहो ! भोज्यं भुञ्ज ततः कथम् ॥ १५२ ॥ किन्तु, सप्त प्रहरान् यावत् कृत्वा कर्माऽखिलं तव । पाश्चात्ये दिनयामे तु वने भोक्ष्ये फलान्यहम् ॥ १५३॥ स नरः प्राह किं कर्म समग्रं त्वं करिष्यसि । कुमारः प्रोचिवान् कस्त्वं कर्तव्यं कि किमस्ति त ॥ १५४ ॥ ( स श्यामो नरः चण्डमुण्डखण्डालः -- ) सगर्व स नरः प्राह विश्वे को नाम वेत्ति न । चण्डमुण्डाभिधं सर्वचण्डालाधिपतिं हि माम् ॥ १५५ ॥ Jain Education national ॥२१६४ ainelibrary.org Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक मारश्चिन्तयामास हुँ मातदेही देहेन चेत् स्यादमुना १२१७॥ निमृगेन्द्रनाशे । 000000000000000000000000000000000000000000000 तथाच, श्मशानं रक्षणीयं हि नेतव्यं मृतकाऽम्बरम् । एतत् कर्म त्वया पश्च मासान् कार्यमहनिशम् ॥ चरित्रम्कुमारश्चिन्तयामास हुँ मातङ्गगृहे मया । भाव्यं कर्मकरेणेति हीनं हा! पाप्मनः फलम् ॥१५७॥ सर्गः-६ अथवा- हितेऽहिते वा विहिते हि देही देहेन चेत् स्यादमुनाऽनृणोऽयम् । लाभो महीयानिति रेणुमुष्टि-क्षेपादिवोनिद्रमृगेन्द्रनाशे ॥१५८॥ ( चण्डालगृहे किंकरो भुवनभानु:-) एवमार्यों विचार्योंचे जातोऽहं किंकरस्तव । इमां मूर्ति पवित्रे तु क्वाऽपि मुश्चामि चेद् भण ॥१५९॥ उवाच श्वपचः सोऽथ को देवोऽस्ति तवाऽपि रे!। पावित्र्यं किं परद्रव्यचौरगौरवदरग! ॥१६॥ अथवा गच्छ कुत्राऽपि मुक्त्वा गच्छ श्मशानके । एवं प्राप्य वचो भूप-पुत्रोऽचालिद् द्रुतक्रमम् ॥१६॥ गच्छन्नने ददर्शाथ वर शाखाभिरुत्कटम् । एक विलोकयामास विकटं तत्र कोटरम् ॥१६२॥ (भुवनभानुना निजपावस्था जिनमूर्तिर्वटे मुक्तास्वर्णसमुद्गकाऽन्तस्थां जलकान्तमणीमयीम् । नृपजो जिनमूर्ति तां मुमोच वटकोटरे ॥१६॥ श्रीवीतरागमुद्दिश्य भूरिभावनया भृतः । स्थूलस्थूलानि चाऽश्रूणि मुश्चन्नूचे नृपाङ्गजः ॥१६४॥ पुराभवांहसा तां कां सातकां कुदशां गतः । ययाऽहं मोचितः स्वामिन् ! त्वां देहात् तु न चेतसः॥१६॥8 इतः श्मशानभूमिस्थो रे कर्मकृदिति ब्रुवन् । शब्दायते स्म मातङ्गस्तं भूपतिसुतं प्रति ॥१६६॥ श्रुत्वा भुवनभानुश्च वेगादागात्तदन्तिकम् । उवाच श्वपचः किं रे ! सत्वरं नागमिष्यसि ॥१६७॥ कुमारः प्राह मां स्वामिन् ! आदेशेन प्रसादय । तुङ्गगर्वः स मातङ्गस्ततो वक्तुं प्रचक्रमे ॥१६८॥ रात्रावत्र त्वया स्थेयं मृतकाऽम्बरनीतये । चितादग्धानि काष्ठानि मीलयाऽऽनीय सर्वतः ॥१६॥ 8॥२.१७॥ व शाखावट मुक्तातीम् । अपजान चाऽभूणिमन ! त्यात प्रति ॥ 50000000000 దర Jain Education national wecainelibrary.org Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक चरित्रम्.. सर्ग:-६ 000000000000000000000 नीत्वेति श्वपचवचस्तस्थौ स जगतीशजः। श्रीवीतरागं सर्वज्ञं मनसा संस्मरन्नरम् ॥१७०॥ ॥२१८॥ ४ (कश्चिद् योगी-) अथाऽस्मिन् समये कोऽपि योगी कम्प्रतनुभृशम् । कुमारपार्श्वमायासीद् रक्षेति वचनं वदन ॥ कुमार: प्राह मा भैषीभौं योगिन् ! वद किं भयम् । बभाषे प्रस्खलद्वर्ण वर्णी स पृथुवेपथुः ॥१७२॥ सुदुस्तपं तपस्तेपे षण्मासान् मन्त्रसिद्धये । किन्तु ब्रह्मवतं प्रान्ते मया खण्डितमेकदा ॥१७३॥ सिद्धिलोभादहं कृत्वा सत्त्वमत्र समागतः। आहूतावाहितायां कोऽप्याविरासीच राक्षसः ॥१७४॥ पुष्टा गुरूपदिष्टाश्च मन्त्रास्तत्वासहेतवे । स्मृता अप्यफला जाताः खण्डितब्रह्मणो' हि मे ॥१७॥ यतः- (ब्रह्मचर्यवर्णना-) मन्त्र-तन्त्र-वरयन्त्रसमूहा औषधानि च यतः सुतपांसि । वाञ्छितानि ददतेऽत्र परत्र ब्रह्म तद् विजयतां व्रतराजः ॥१७६।। तथाच, कीर्तियतः स्फतिमियति विश्वे यतः शुचिः स्यादिह देहमेतत् । यतश्च मोक्षः स भवेत् परत्र तद् ब्रह्म जीयादखिलव्रतेन्द्रः ॥१७७॥ अथ, राक्षसो भुजमेक मे बुभुजेऽहं च पीडितः। नंष्ट्वा त्वदीयं शरणं स्वरक्षायै समागमम् ॥१७८॥ कुमार: मोचिवान् शीघ्र स्वां कन्था मे समर्पय । यथा विधाय त्वद्रूपं राक्षसं प्रीणयामि तम् ॥१७९॥ योगी प्रोचे कथं चारुवपुस्तस्मै प्रदास्यते। धर्मा-ऽर्थ-काम-मोक्षा हि संभवन्ति यतः स्फुटाः॥१८०॥ ऊचे कुमारो भो योगिन् ! परार्थे प्राणदानतः। धर्मा-ऽर्थ-काम-मोक्षास्ते साधिता एव सर्वथा ॥१८॥ किंच, नि:श्वासेन महोद्भूत-ज्वालया लक्षितो मया। पश्याऽयं राक्षसोऽभ्येति तद् योगीन्द्र! द्रतं द्रव । 3000000000 2000000000000000000000000000000000000000 १ खण्डितब्रह्मचर्यस्य । 18 ॥२१॥ Jain Education A ational For Private & Personal use only ainelibrary.org Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार एव्हरीक कृत्वा प्रसादं कन्यां तु निजां मम समय । यथा विधाय त्वद्वेषं राक्षसं प्रीणयामि तम् ॥ १८३ ॥ योगी प्रोचे ममैकोऽस्ति हस्तो दैतीयिको न तु । तदुत्तारयितुं कन्यां न शक्तोऽस्मि शरीरतः ॥१८४॥ ४ सर्गः-६ कुमारोऽथ स्वहस्तेन कन्थामुत्तार्य नत् तनोः । पर्यधादथ तस्यैकं भुजं भक्षितमैक्षत ॥१८॥ 8 याते योगिनि चित्तान्तश्चिन्तां चक्रे स भूपभूः। अहहाऽस्य वराकस्य हस्तहीनस्य का दशा ? ॥१८६॥ 18 अथो कुमारमभ्येत्य राक्षसो रूक्षवीक्षणः । स मष्टः स्पष्टमाचष्ट दृष्टौष्ठो दौष्ट्यपुष्टितः ॥१८७॥ रे! रे ! योगीन्द्र ! मद्दन्त-मध्याचणकवजवात् । निर्गत्य नष्टः पापिष्ठः तत् किं जीवसि मेऽग्रतः ॥१८८ (भुवनभानु भक्षयाति राक्षस:-) 8 इत्युक्त्वा राक्षसो भूप-पुत्रदेहस्य भक्षणम् । पारेभे भूरिसंरंभाद् रभसादुष्ट्रदंष्ट्रया ॥ १८९ ॥ रक्षसा भक्ष्यमाणोऽयं कुमार: सारसारवान् । हर्षादचिन्तयच्चित्ते कृतार्थ देहमद्य मे ॥१९०॥ यतः( भुवनभानोः सद्भावना-) यद् व्यधायि यह दुःखविधायि पापमङ्गनिचयेन मयाऽग्रे। चेत् तदेकतनुकव्ययतोऽत्र क्षीयते मम ततः किम-8 अन्यच्च, रे शरीर ! तव नाथ ! इहात्मा दत्तवान् विविधभोगभरान् यः। [पूर्णम् ॥ स्वव्ययात् पतिममुं दुरितारेर्मोचयनसि कृतज्ञधुरीण! ॥ १९२ ।। ४ इत्थं कुमारो धर्मेण संवर्मितमना मनाक् । न वेद खेदमङ्गस्य भक्ष्यमाणस्य रक्षसा ॥१९३॥ राक्षसः प्राह भो ! योगिन् ! क्षत्रब्रह्मव्रतस्य ते । मन्त्रं साधयितुश्चैष दण्डो योग्योऽथवा न किम् ॥१९४॥ कुमार: प्राह दण्डोऽयं योग्य एव कृतस्त्वया। ममोर्वोमौसमद्यापि विद्यते तत् तु भक्षय ॥१९॥ ॥२१९॥ 200000000000000000000000000000 cososossO9OoOoOOOOO 200000000 Jain Education remational jainelibrary.org Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डराक इत्युक्ते भूपपुत्रेण निष्ठुरस्याऽपि रक्षसः । ऊविभूवुलौमानि तं द्रष्टुमिव सात्विकम् ॥१९६॥ ॥२२०॥ | राक्षसो विस्मयाद् दध्यौ नाऽयं योगी भवेद् ध्रुवम् । व्रते वा चलिचित्तो यो दुःखे न स हि सासहिः।। निश्चित्येति समुत्थाय कुमारवदनाऽम्बुजम् । उन्नम्य निजहस्तेन राक्षम्रोऽथ व्यलोकयत् ॥१९८॥ 8 पूर्णेन्दु हृच्चकोराणां राजाऽजं लोचनालीनाम् । तन्मुखं प्रेक्ष्य दुःखाश्रुपूर्णाख्यो राक्षसोऽवदत् ॥१९९॥ हा हा नरोत्तमस्याऽस्य जगत्कल्पतरोर्मया। सत्वपीयूषकुण्डस्य विहितं यहितं महत् ॥२०॥ (प्रसन्नो राक्षसो भुवनभानु जीवितं ददौ ) ... योगिनं यः परित्राय निजं देहं ददौ मम । परोपकारिणं तं हा! मारयामि नरं कथम् ? ॥२०१॥ रक्षोराजो विचिन्त्यैवमौषधीं व्रणरोहिणीम् । सुकुमारे कुमारस्य मूछितेऽङ्गे व्यलेपयत् ॥२०२॥ रूढवणस्तयोषध्या कुमारी लब्धचेतनः । उत्तस्थौ मम देहं भो! भक्षयेति पुनर्वदन ॥२०॥ ततश्च, सर्वसत्वहितं सत्त्वसहितं नृपनन्दनम् । पलदो विपुलानन्दो नत्वा स्तुत्वा तिरोऽभवत् ॥२०४॥ (भुवनभानोः श्मशान काष्ठप्रहणम्-) अथाऽत्राऽभ्येति मातङ्ग उच्चैर्वाचमुवाच सः। रेऽर्धदग्धानि दारूणि मीलितानि त्वया न किम् ? ॥२०५॥ अधुना तानि वक्ष्यामीत्युदित्वा स नृपात्मजः । काष्ठानि मीलयामास चित्ते स्तुवति भाऽन्त्यजे ॥२०६॥ ४ इतश्च- अन्धकाररजापुञ्जमरुणो गगनाङ्गणात् । प्रमाष्टिं स्म दिनाधीशे तत्राऽऽजिगमिषौ द्रुतम् ॥२०७॥ दोषाकरं कलङ्काख्यं सेवमाना निशाचर । गृहाद् द्वीपान्तरं जग्मुरागते चण्डरोचिपि ॥२०८॥ 200000000000000 SO9Oo oOoooooooooooooooooooo 000000000000000000000 १ लोचनभ्रमराणाम् । २ राक्षसः। ३ " वहीं प्रापणे" धातोः । ४ अ गन्तुमिच्छौ । ५ रोचीषि-किरणाः । 18/२२०॥ Jain Education national jainelibrary.org Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 ॥२२॥ सर्ग:-६ ८ COOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOoOop अस्मिन्नवसरे मन्दा-ऽऽनन्दकन्दनिकन्दनम् । 'शुश्राव दुग्धवं क्वापि क्रन्दनं नृपनन्दनः ॥२०९॥ चण्डालश्चण्डतुण्डोऽथ जगादाऽऽनन्दतुन्दिलः। अहो! अद्य महालाभो रे ! रेऽस्माकं भविष्यतिना२१० (घनदत्तः श्रेष्ठी, तत्पुत्रो वसन्तो मृत:-) 'यतोऽत्र धनदत्तस्य श्रेष्ठिनस्तनयो नयी। विनयी सुभगस्त्यागी वसन्ताख्यो मृतोऽधुना ॥२१॥ चारूणि चीवराण्यस्य गत्वा याचस्व सत्वरम् । मत्पत्न्याः परिधानाय यथा तानि भवन्ति भोः ॥२१२॥8 (भुवनभानोश्चिन्तनम्-) स्वीकृत्येति वचस्तस्य कुमारचलितस्ततः। चिन्तयामास संसार-वैराग्यकलितो भृशम् ॥२१३॥ यो नरः स्वजनहर्षतरूणां वृद्धयेऽभिनवनीरदतुल्यः तस्य संहरणमाशुविधत्तेऽनित्यतोग्रपवनोत्कलिकेव॥ तथा च;- संसारोद्यानमध्ये किल विविधकुलानोकुहालीप्रसूतान् ।। .. देवो यारामिकोऽयं विकसितकुसुमानीव मत्ान् विगृय । श्रेयःसौरभ्ययुक्तान् शुचिमुखवचनै छादयेत् स्वःकरण्डे । तेभ्यो जीवानथाऽन्यानवकरदहो! निक्षिपेनारकान् वा ॥२१५॥ विश्वं विश्व नश्वरं संनिरीक्ष्य कुर्याद्धर्भ निर्मलं धीरधीयः। स्वीयां मूर्ति कीर्तिमेवाऽत्र मुक्त्वा सोऽयं सारं स्वर्गसौख्यं मुमक्ति ॥२१॥ अतः सत्पुरुषस्याऽस्य मृतस्याऽपि तनौ स्थितम् । सतां वस्त्रप्रदाताऽहं याचिष्ये चीवरं कथम् ॥२१७॥ अभ्यच्च चौरैर्विगृह्यमाणानि रक्षामि वसनानि यः। वस्त्रं नेतुं कथं सोऽहं करोमि स्वकर पुन: ॥२१८॥ १ अनोकुहो द्रुमः । 0000000000000000000000000000009002 Jain Education Rational walplainelibrary.org Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम् तापनं पिशुनता शिशुहिंसनं युवा 00000cw मृतवत्रा पुण्डरीक-8 इतोऽवदत् स मातङ्गः किं रे शीघ्र न यास्यसि । तस्मादप्यतिमीतोऽयं जगाम नृपजो जवात् ॥२१९॥ ||२२२॥ पुनविचिन्तयामास स गत्वा मृतकाऽन्तिकम् । धर्मशास्त्ररसज्ञा मे रसज्ञा याचा कथम् ? ॥२२०॥ सत्पात्राणां करेभ्योऽपि यः शिश्रायोचतां पुरा । सोऽद्य मे दक्षिणः पाणिः किं याचेत मृताम्बरम् ॥२२१४ अथवा, येन हस्तेन मातङ्गेऽजिता स्वर्णाधमर्णता । अधमो याचतां युग्रं फलत्यत्रैव पातकम् ॥२२२॥ यतः- स्वशरणस्य वधो गुरुतापनं पिशुनता शमिनों पितृवचनम् । स्थपनिकाहरणं शिशुहिंसनं ध्रुवमिहाऽन्यभवेऽपि फलन्त्यहो ! ॥२२॥ अतो हे हस्त! पापद्रोश्चिारूपं फलं स्फुटम् । आत्मनोपार्जितं शुक्ष्व मृतवस्त्रायाऽग्रतो भव ॥२२४॥ कुमारश्चिन्तयित्वैवं स्वकरं स पुरोऽकरोत् । हर्षगौराऽथ गौराविरासीत् पौराऽऽस्यतस्तदा ॥ अहो भाग्यं वसन्तस्य मृते यस्मिन्नसी पुमान् । आचारसारस्वाकार किञ्चित् प्रार्थयतेऽद्य यत् ॥२२६॥ 8 इत्युक्त्वा रोदनं मुक्त्वा नागरा रागसागराः । रत्नान्यारेभिरे दातुं उल्लोलैनिज़पाणिभिः ॥२२७॥ 18 (मृतस्य वस्खं याचितं भुवनभानुना-) राजसूनुः स दूनोऽन्तर्विधूयाऽऽत्मकरं रयात् । प्रोचे भोश्चण्डतुण्डस्य मातङ्गस्याऽस्मि किंकरः ॥२२८॥ गृणामि दानं नो कस्य किन्तु वस्त्रमिदं जवात् । इत्योक्ते दशावस्य पूर्ण हृदुःखवारिभिः ॥२२९॥ ईदृशोऽप्यन्तजस्यैष कर्मकृद् धिग् जगस्थितिः। इत्युक्त्वा मृतदेहस्थं वस्त्रं तेऽस्मै समापयन् ॥२३०॥ (भुवनभानुर्मुमूर्च्छ-) मुक्तं तन्मृतवस्त्रं तैः स्वपाणी प्रेक्ष्य भूपभूः । धिर धिग में जन्म भूलोके वदन्निति मुमर्छ सः ॥२३॥ १ गी:-वाणी । ३ पौराणां-नागरिकाणाम्-आस्यतः-भुखात् । 18॥२२॥ 000000000000000000 COCOOOOOOO OOO 00000000000 1000 200000 For Private & Personal use only jainelibrary.org Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ण्डरीक २२३॥ ४ ८ १२ देहं विहाय हंसोऽस्य यास्यत्युड्डीय दुःखतः । इतीव स्वपटीतुल्य-मूर्छया छन्नवान् विधिः ॥२३२॥ अन्ते या घटीयुग्मं तस्थौ सुबहमोहतः । बन्धुवच्छीतले व तिरा लिङ्गयो त्थापितस्ततः ॥२३३॥ ( इन्द्रजालम् - ) यावदुत्थाय नेत्रे स्वे निमृज्याऽग्रे विलोकते । तावत् कुमारो मृतकं वस्त्रं पौरांच नैक्षत ॥ २३४ tarsi चिन्तयामास किमिदं महदद्भुतम् । मातङ्गस्य निजेशस्य किं किं दास्यामि चोत्तरम् ॥ २३५॥ चिन्तयन्निति वेगेन व्यावृत्तस्तत्र चागतः । न च श्वपचमैक्षिष्ट सर्वत्रऽऽलोकयन्नपि ॥ २३६ ॥ प्रहरत्रितयं तत्र निविष्टः पृष्टवान् जनम् । परं नाऽकथयत्- कोऽपि चण्डतुण्डं तमन्त्यजम् ॥ २३७॥ इन्द्रजालमुत स्वप्न- मतमोहोऽथ मे कुतः । ध्यायं ध्यायमिदं तुर्येऽहमेऽसौ समुत्थितः ॥ २३८ ॥ ( नदी - ) नदीं स चन्द्रशिशिरां शिशिराम्भो भरैभृताम् । स्नानाय नृपजोडहूनाय शिश्राय श्रेयसायतिः ॥ raise areaf गत्वा दत्वा स्वाँ स्वर्णमुद्रिकाम् । नीत्वा सुमनसः सारान् स और सुमना वटे ॥ ( वटगता जिनमूर्तिर्गृहीता - ) कोटरान्तः समुद्गत्वा समुद्गकमसौ नतः । नीत्वाऽथ चन्द्रशिशिरां सरितं त्वरितं ययौ ॥ २४९ ॥ नद्यास्तटेऽथ विकटे निर्मलं स शिलातलम् । हेलया क्षालयामास सनमस्कारं स्मरन्नरम् ॥ २४२ ॥ पेटकां तां स्वर्णकान्तां संस्थाप्य स्थाप्यमन्त्रवत् । धीरः स नीरमानैषीत् पद्मपत्रपुटैः स्फुटैः ॥ २४३ ॥ ( जिनपूजा - ) मन्त्रपात्रं मुदा स्नात्रं कृत्वा हित्वाऽन्यचित्तताम् । पूजां भूजानिजंश्चक्रे विधिवद् विधिवत् ततः यो जिताभ्यां स्वहस्ताभ्यां परमेष्ठयाख्यमुद्रया । संसारार्तिहरं चारा - त्रिकं चक्रे जिनेशितुः ॥ २४५ ॥ १ पृथिव्याः । २ अर जगाम । ३ भूजानिजः भूपतिपुत्रः । Jain Educationternational ∞∞∞∞∞∞∞∞ चरित्रसर्गः ६ ॥२२३॥ jainelibrary.org Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इण्डरीक ॥२२४॥ ४ १२ स्ना मेरुस्थितं बालं पूजा-ऽऽरात्रिकयोर्नृपम् । ध्यात्वाऽथ स्तोतुमारेभे स्मरन् केवलिनं जिनम् ॥ २४३ ॥ वीतराग । तव वीतरागता रागवन्ति नमयेत् त्रिजगन्ति । निस्पृहं स्फुटफलं सहकारं किं श्रयन्ति न नराः स्वसुखाय ॥ २४७॥ श्रीजिनेन्द्र ! गुणिनोऽपि जनास्त्वां न क्षमाः स्तुतिविधौ कथमन्ये । यद् गुणत्रयमयं त्वमतीत्य वर्तसे किल जगत्त्रयमेतत् ॥ २४८ ॥ शक्रस्तवं भणित्वाऽथ कुमारः स कुमारराट् । मुक्ताशुक्त्यभिधां मुद्रां कृत्वाऽर्हन्तमथाऽवदत् ॥२४९॥ (जिनस्तुतिः - ) जय वीतराग ! भगवन् ! भवतु मम त्वत्प्रभावतः स्वामिन् । भवनिर्वेदो मार्गानुसारता चेष्टफलसिद्धिः ॥ २५० ॥ लोकविरुद्धत्यागी गुरुजनपूजा परार्थकरणं च । शुभगुरुयोगस्त्वद्वचनसेवना त्वाभवमखण्डा ॥२५१॥ अथ, कारं कारं नमस्कारं भूपभूर्भूरि भाग्यभाक् । पुनर्दिदृक्षाव्यात्ताक्षी यावदग्रे व्यलोकयत् ॥ २२२ ॥ ( केनचिद् जिनमूर्तिर्हता - ) तावत् समुहको नास्ति न च मूर्तिर्जिनेशितुः । अत उन्मनायमानो मानी मौनी तदोत्थितः ॥ २५३ ॥ नाभेरूर्ध्व नराकारः सर्परूपतनुस्त्वधः । कणाभिः पञ्चभिर्दीप्रमणीभिर्दीपयन्नतः ॥ २५४ ॥ ( उरग:-) हस्ताभ्यां मस्तके जैनमूर्तियुक्तं समुद्रकम् । दृढं धृत्वोरगो गच्छन् ददृशे भूपसूनुना ॥ २५५ ॥ हत्वा मूर्ति प्रसर्पन्तं सर्प तं वीक्ष्य सोऽग्रतः । दिनत्रयं लङ्कितोऽपि कुमारस्तमथाऽन्वगात् ॥ २५६॥ १ सहकार आम्रः । २ एतच्च संप्रत्यपि चैत्यवन्दनविश्व प्रसिद्धम्' जय वीयराय ! जगगुरो ! इत्यादिस्तवनम् । Jain Education ntnational 0000000000000000000 20000030091 सर्गः - ६ धार।। jainelibrary.org Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥२२५॥ ४ १२ ( भुवनभानुना उरगो गृहीतः - ) सहसा साहसाश्लिष्टो रंहसा स महीयसा । धावित्वा स्वच्छ चित्तस्तं छेकः पुच्छे गृहीतवान् ॥ २५७ ॥ कुमारं पुच्छसंश्लिष्टमत्याविष्टः स सर्पराट् । प्रससर्प प्रवाहेऽथ नद्यास्तस्या हि संमुखे ॥ २५८ ॥ जलकान्तमणी मय्यास्तस्था मूतैः प्रभावतः । संमुखोऽप्यम्भसां भारी द्विधारूपो जवादभूत् ॥ २५९ ॥ सर्पस्य घृतदर्पस्य लाङ्गूलमवलम्ब्य सः । अस्पृष्टनीरो धीरोऽयमतीयार्थं रयान्नदीम् ॥ २३० ॥ यतः - सा चन्द्रशिशिरा नदी तिष्ठति निर्मला । तस्मिन् विवेश सावेशः प्रवरे विवरे विषी ॥२३१॥ ( धृतसर्पों भुवनभानुः पातालं प्रविवेश -- ) कुमरोऽपि समं तेन यावत् पातालमाविशत् । तावद् ददर्श रत्नौघ - रम्यहम्यै पुरं पुरः ॥२६२॥ कन्दर्पजववारीभिर्नारीभिः पूर्णवीथिकम् । स्फीतैर्गीतैः संशृङ्गारशृङ्गाटकमितस्ततः ॥२३३॥ ( नागनगरम् - ) कर्णपीयूषकवलैर्धवेलैः पूर्णमन्दिरम् । स नागनगरं प्रेक्ष्य यावज्जातोऽन्यमानसः ॥ २६४ ॥ तावत् स भुजगो दिव्यशक्त्याऽस्य भुजगोचरम् । प्रविहाय विहायस्थो भूत्वाऽदृश्यत्वमीयिर्वान् || २६५ ॥ मूर्ति श्रीवीतरागस्य गते हृत्वा भुजंगमे । मुद्गराहतवत् स्थित्वा क्षणं सोऽथ व्यचिन्तयत् ॥ २६६ ॥ अहो ! ममात्मना पूर्व कोहरा दुष्कर्म निर्ममे । येन श्रीवीतरागस्य मूर्योऽप्यऽस्मि वियोजितः ॥ २६७॥ येनाsहिना हि मेsनाँयि नायकः श्रीजिनेश्वरः । तेन बन्धुत्वमाश्रित्य कथं नीतं न जीवितम् १ ॥ २६८ ॥ देवतावसरं स्वं यो रक्षितुं न क्षमः क्षितौ । तस्य मे धिग् धीरत्वं क्षत्रव्रतकलङ्किनः ॥ २६९ ॥ १ पुच्छम् । २ जगाम । ३ सर्पः । ४ कन्दर्पस्य जवं वारयित्रीभिः । ५ भाषायाम्-धोळ ६ जगाम । ७ नीतः। Jain Education national 00000000000 परिश्रम्: सर्गः - ६ ॥२१५।। jainelibrary.org Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२२६॥8 acc00000000000000000000000000000000030030050000000 बीडितः पीडितश्चेत् खचित्ते स नृपाङ्गजा। तावदेको नागनारी पावं यान्तीं व्यलोकत ॥२७॥ (नागनगरे महोत्सवः-) ४ सर्गः-६ अथो वेगेन धावित्वा तत्पार्श्व पृष्टवानिति । अम्ब! कि नगरेऽमुख्मिन् स्युः सदेग्महोत्सवाः ॥२७१॥ मा प्राह स्वच्छ! हे वत्स! यन्महोत्सवकारणम् । सकर्ण! दत्तकर्णस्तत् सर्वमाकर्णय द्रुतम् ॥२७२॥ (वासुकिः-) अत्र पातालपाताऽस्ति शेषाख्यो धरणेश्वरः। तस्य राज्ये प्रधानश्च राजा श्रीवासुकिर्वरः॥ ( महापद्मो नाग:-) स वासुकिःपुरेऽमुग्मिन् पतिःपातितरां प्रजाः। तेन मित्रं महापद्मो नागोऽस्ति प्रेषितो भुवि॥8 कंचिद् भुवनभान्वाख्यं नरं केनापि हेतुना। आनेष्यति तथा पनः प्रपञ्चेन गरीयसा ॥२७॥ वसुधावासिनस्तस्य पुरस्याऽस्य समागमे । सप्ताहमुत्सवान् कर्तुमाज्ञा राज्ञा मुदा ददे ॥२७॥ नरोत्तमस्य तस्याऽय समालोकाय कौतुकी। पौरलोकः समस्तोऽपि समस्त्युच्चप्रदेशगः ॥२७७॥ अतो गत्वात्मनो गेहं श्रित्वोचो चन्द्रशालिकाम् । अहमालोकयिष्यामि तं कीयालोकनिर्मलम् ॥२७८॥ इत्युक्त्वा सा ययौ नारी स्फारीकृतपदास्पदा । दध्यो कुमारः केनाऽहं कार्येणाऽऽनायितो बलात् ।।२७९ इतश्च- कर्पूरपूरगौराज शशाकांशुसितांशुकम् । राजहंससमारूढं फणाभिर्दशभिर्युतम् ॥ २८० ॥ सव्यहस्तसुविन्यस्त-पीयूषकलसं पुरः। श्रीवासुकि ददाऽसावायान्तं वन्दिभिः स्तुतम् ॥२८॥ तत्समीपे च-राजपप्रभं सप्त-फणं पीताम्बरावृतम् । जपमाला-शङ्ख-कुम्भ-मुद्राख्यं चतुर्भुजम् ॥२८२॥ ( नागराज:-) नागराजमनन्ताख्यं गरुत्पतिसमाश्रितम् । वीक्षामास समायान्तं कुमारो विस्मयाकुलः ।। (तक्षकः-) दक्षिणांसे न्यस्तदण्डं वामे च स्थितकुम्भकम् । शोणाङ्गवस्त्रं सोऽपश्यत् तक्षकं वृषवाहनम् ॥ ॥२२६॥ CONNOOOOOOO Jain Education est national ww.jainelibrary.org. Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७॥ ण्डरीक-18 (कर्कोटक:-) कृष्णं कर्कोटकं पीतवस्त्रं भुजयुगान्वितम् । सर्प-दण्ड-शङ्ख-कुम्भयुक्तं हस्तिस्थमैक्षत ॥२८॥ एनं सप्तफणं श्वेतवस्त्राङ्गं हयवाहनम् । कुम्भाम्बुजयुतपाणि स आयान्तमलोकयत् ॥२८॥ श्वेतवस्त्र-धनुःपश्चफणः कलश-शङ्खयुक । महापद्मो मयूरस्थो नृपजेन तदैक्ष्यत ॥२८७॥ चरित्रम्. पुलिकः कृष्णवस्त्राङ्गः सप्तफणो हि दण्डवान् । पद्मारूढः प्रौढमना तदाऽनेन विलोकितः ॥२८८॥ 8 शङ्कास्यश्वेतवस्त्राङ्गः फणाभिर्दशभिर्युतः। रथस्थितः शङ्ख-कुम्भकरो दृष्टोऽथ तेन सः ॥२८९॥ सर्गः-६ इत्थं तस्य कुमारस्य पश्यतो मूर्धनि द्रुतम् । नागेन्द्रास्ते स्वकुम्भेभ्यः क्षिप्रं पीयूषमक्षिपन् २९०॥ (नागलोककृता भुवनभानुस्तुति:-) ततश्च- जय त्वं सास्विकाधीश! जय त्वं करुणाकर ! जय त्वं दानिना धुर्य! जय त्वं क्षत्रियोत्तम!॥ इत्थं वदन्तस्ते नागाः श्रित्वा व्योम प्रमोदतः। तस्योत्तमस्योत्तमाङ्गे पुष्पवृष्टिं व्यधुस्तदा ॥२९२॥ 8 अथाऽलंकृत्य नेपथ्यैर्नागेन्द्रास्तं नृपाङ्गजम् । पुरं प्रवेशयांचक्रुनिमितानेकनाटकम् ॥२१॥ स्तूयमानं बन्दिवृन्दरन्वितं नागनागरैः। श्रीवासुकिः स्वयं धाम नीतवान् नीतिवानमुम् ॥२९॥ रत्नस्तम्भः शुभा मध्यसभां पय्य वासुकिः। प्रोचे भुवनभानो! भोः ! सिंहासनमिदं श्रय ॥२९५॥ 8 कुमारः प्राह नागेन्द्र ! यस्य मे पाणितो जिनः । गतोऽशक्तरभाग्याच्च तं मां गरसीह किम् ? ॥२९६॥ इत्युक्त्वा तं वसुधायामासमानं भुजंगराट् । भद्रासनं समानाय्य तमुपावीविशत् पुरः॥२०७। सुविष्टरनिविष्टेषु प्रधानेषु स वासुकिः । तुष्टदृष्टिः स आचष्ट नृपपुत्रं पवित्रवाक् ॥२९८॥ भोः कुमार!- यो नरो जिनवरं वरभक्त्या पूजयेदपि समीपगतं नो। 18॥२२७॥ 00000000000000 00000000000000000000000000000000000003 300000000000000 00000000ww 200000 Jain Educatio Clemational Rw.jainelibrary.org Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥२२८॥ ४ १२ दूर- एव स तु तस्य विमोहात् रत्नपुञ्ज इव दृग्विकलस्य ॥ १९९॥ यो जिनं शिवपदस्थितमात्मोत्सङ्गगं शुचिमनः कुसुमेन । पूजयेदिह स केवलतेजाः स्याद् रवेरिव करे रविकान्तः ॥ ३००॥ किं बहुना ? देवो गुरु भक्तस्य दूरस्थावपि पार्श्वगौ । अभक्तस्य तमोऽन्धस्य दवीयांसौ सदाऽपि तौ ॥ ३०१ ॥ ( भुवनभानोः पातालानयने कारणम् - ) यतः - महतां वदतां धर्म-महनीयोऽसि सात्विकः । ईदृग् क्षत्रव्रतं यस्मिन् जैनी भक्तिस्तथेदृशी ॥ ३०२ ॥ हेतुना येन पाताले त्वमानीतो भुवस्तलात् । तं सर्व शृणु वृत्तान्तं नितान्तं स्थिरमानसः ॥ ३०३ ॥ चतुश्चत्वारिंशत्संख्य- सहस्रभुवनप्रभुः । चतुर्विंशत्यङ्गरक्ष-सहस्रैः कृतसेवनः ॥ ३०४|| पद्मावत्यादिभिः षभिर्महिषीभिर्निषेवितः । त्रयस्त्रिंशैश्च त्रिंशद्भिः सप्तानीकाधिपैर्युतः ॥ ३०५ ॥ अन्यैरनेकैafter शेखरितांहिनीरंजः । सभानिविष्टो धरण इन्द्रः पृष्टो मयैकदा ॥ ३०३ ॥ ( विशेषकम् ) पाताल - स्वर्गयोग - देवेन्द्रः परिपूर्णयोः । कुत्समर्त्याकुलो मर्त्य-लोको मध्ये कथं प्रभो ? ॥ ३०७ ॥ अथ श्रीधरणः प्राह शृणु भो ! वासुके ! सखे ! । मानुष्याजितपुण्येन जीवा इन्द्रत्वमाप्नुयुः ॥ ३०८ ॥ भूलोके केsपि विद्यन्ते सात्त्विका धर्मिणो नरः । सुरासुरैः समग्रैर्ये चाल्यन्ते नैव सत्त्वतः ॥ ३०९ ॥ तथाचः पृथिव्यामधुनाऽप्यस्ति भीमसिंहनृपाङ्गजः । नरो भुवनभान्वाख्यः क्षत्रियः सात्त्विकाग्रणीः ॥ अथाऽवोचमहं स्वामिन् ! मनुष्ये चर्मचक्षुषि । किमनकीटके सत्त्वं संभाव्यं स्वल्पमेधसि ॥ ३११॥ १ नीरज कमलम् । Jain Education national 500-00000000 चरित्रम् सर्गः ६ ॥२२८॥ ainelibrary.org Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 2000wood व्याख्यातो योऽद्य युष्माभिः सत्त्वं सत्त्वस्य तस्य हि । कषित्वेक्षामि दुःखाख्य-कषपट्टे सुवर्णवत् ॥३१२॥ इत्युक्त्वा धरणेन्द्रस्य सभाया अस्मि निर्गतः । अथो परीक्षा प्रारम्भि मया ते दुर्दशोदयात् ॥३१३॥ सगे-६ तथाहि- अलक्ष्मीरूपाद् भो! रजनिचरवध्वायुधकृते ऋणात मातङ्गे तनुवितरणाद् योगिकृपया। मृतस्याऽङ्गाद् वस्त्रार्थनजनितमूर्योऽपि च यतः परीक्ष्यान्ते वीक्ष्य द्रुतमहमिहाऽऽगां नृपसुत ! ॥३१४॥ ततो नागो महापद्मो मया पुण्यात्मनस्तव । आकारणाय प्रहितः स्वं कृतार्थयितुं पुरम् ॥३१॥ आदितः स निवेद्येति तस्मै भुवनभानवे । मौनमुद्रामथाऽऽलम्ब्य यावदस्थाच्च वासुकिः ॥३१६॥ (धरण-इन्द्रः-) प्रभुः श्रीधरणस्तावद् बन्दिवृन्दाभिनन्दितः। दृविमानं समारूढः प्रौढह दुपागमत् ॥३१७॥ वासुकिममुखाः सर्वे सम्मुखा विकसन्मुखाः। विवेकिनोऽतिवेगेनो-स्थाय नेमुरमी अमुम् ॥३१८॥ .. तदा भुवनभानुश्चाऽभ्युत्थाय प्रणमन् जवात् । आलिङ्गय धरणेनोचे वत्स ! तुष्टोऽस्मि सत्त्वतः ॥३१९॥8॥ . (भुवनभानु-धरणयोः संलाप:-) अथ, सिंहासनसमासीनं घरणेन्द्रं नृपाङ्गजः। प्रणम्य प्राञ्जलि प्रोचे हरैकं संशयं मम ॥३२०॥ यदा स्वनगरस्थेन नागराज! मया पुरा । उत्तारिता जिनेन्द्रस्य मूर्तेः पूजा पुरातनी ॥३२॥ 18 पवित्रा पत्रिका तत्र सत्त्वतत्वविवेचिनी। सुवर्णवर्णश्रेणीभिदिव्यकाव्यद्वयान्विता ॥३२२॥ ददृशे स्वदृशे हर्ष ददती या तदा मया। किमर्थ केन सा मुक्ता तथ्यमेतत् प्रकथ्यताम् ॥३२॥ (युग्मम) स्मित्वा श्रीधरणेन्द्रोऽथ वचस्वी वाचमूचिवान्। त्वबोधाय मया मुक्ता काव्ययुक्ता सुपत्रिका ॥३२४॥ Sep OoOoOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOooooh 000000000000000000000000000000000000000 606 १ विकस्वरमुखाः । 18 HERBI Jain Education national For Private & Personal use only jainelibrary.org Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53030 ॥२३०॥ ROOOOOOOOO OOOOOOOOOOOOOOOOa यता-देवा यदि प्रचुरधर्मसुधान्धुतुल्यान् रक्षन्ति नो नरवरान् बहुदानकुल्यान् । चरिणाम तेषां प्रभावतरवोऽपि हि पापतापात् शुष्यन्त एव सकला जगतीतले तत् ॥३२॥ ४ सर्गः-६ अतः, यो द्रव्यतश्चरिततः श्रुततस्तपस्तः श्रीजैनशासनविभासनमातनोति । सः सर्वदैवतगणोऽस्य हि सर्वदैव रक्षां करोति दुरितं च तिरस्करोति ॥३२६॥ ( तुष्टो धरण:-) अतस्तुष्टोऽस्मि किं तुभ्यं ददामि पुरुषोत्तम !। भूपभूरब्रवीजन-ध्यानमस्तु मयि स्थिरम् ॥ (भुवनभानोः सप्तनरकदिदृक्षा-) तथाऽपि यदि तुष्टोऽसि नागराज ! ततोऽधुना। दर्शय श्रुतिनिर्दिष्टान् नरकान् सप्त सांप्रतम् ॥३२८॥ धरणः प्राह हे वत्स! किमर्थं तान् दिदृक्षसि । कुमारो न्यगदत् पाप-फलजिज्ञासया प्रभो! ॥ बभाषे धरणस्तावद् वाक्यैस्तान् प्रथमं शृणु । दुःखितैर्जन्तुभिः पूर्णान् शक्नोषि हि न वीक्षितुम् ॥३३०॥ तथाहि- ( नरकवर्णना-) रत्नप्रभाख्ये त्रिंशल्लक्षास्तिष्ठन्ति नरकावासाः। पञ्चविंशतयो लक्षा नृपसूनो! शर्करम नरके ॥३३१॥ पञ्चदशलक्षयुक्तस्तार्तीयो वालुकमभो नरकः । पङ्कप्रभश्चतुर्थों दशभिलक्षयुतो नरकगेहै: ॥३३२॥ धूमप्रभस्त्रिलक्ष्या तमप्रभः पञ्चहीनलक्षेण । पञ्चभिरेव तु गेहैर्युक्तोऽस्ति महातम प्रभो नरकः ॥३३३॥ 8 एवं च चतुरशीतिषु संस्थिता नरकवासलक्षेषु । सततं विततं दुःखं दुष्कृतिनो जन्तवो ह्यनुभवन्ति ॥ है तथाहि-भायो-पत्योरनुजीवि-स्वामिनोर्गुरु-शिष्ययोः। श्वश्रू-वध्वोर्मित्रयोश्च ये विभेदं हि चक्रिरे । तबियोगक्षणमितान् वारांस्तेषां नृणां तनुः। बड्दा शिरः कवृक्षे क्रकचैः प्रविदार्यते ॥३३६॥ ॥२३०॥ 0000000000000000000000000 onlod Jain Education de rational For Private & Personal use only Mainelibrary.org Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ येऽलीकेन कलङ्कन साधु नरमदूषयन् । सतां शून्यं च पैशुन्यं ये चक्रुर्वक्रचेतसः ॥३३७॥ चरित्रम् ॥२३॥ उपहासवचोभियधभिणोऽधः कृता भुवि । यैर्वाग्भिः पिता माता गुरुर्नेताऽप्यतप्यत ॥३३८॥ . सर्गः-६ तद्वचोऽक्षरसंख्यानि संवत्सरशतान्यहो!। तेषां जिवाः छिन्नरूढाश्छिद्यन्ते वज्रतुण्डिकैः॥३३९॥ परस्त्री वीक्षिता दुष्टैर्वीक्ष्य यैर्भुजिता पुरः । यैश्वालोक्य स्वयं सार्थश्चौराणामपितोऽधमैः ॥३४०॥ तन्निमेषमितान् वर्षलक्षानेषां हि वीक्षणे । वज्रतुण्डाः खगा नित्यं खनन्ति खरचञ्चुभिः ॥३४१॥ एकावासस्थिते सर्वकुटुम्बे निर्दया भृशम् । द्रव्यं हृत्वा कलिं कृत्वा भुञ्जन्त्येकाकिनो हि ये ॥३४२॥ एकसाथै समायान्तं बुभुक्षु परिहाय ये। भुञ्जते ये च धनिनो निस्वबन्धोमपेक्षकाः ॥३४३॥ यावन्तः कवला एक-भोज्ये स्युविहिताः पुरा । तत्संख्यलहानप्रान्ते विष्टा तेषां प्रदीयते ॥३४४॥ यावन्ति द्रोहभोज्यानि स्युः कृतानि पुराभवे । तावद्वारं कदर्थ्यन्ते जीवा एवं नरोत्तम ! ॥३४॥ जन्तुनमन्तून् यो हत्वा भुक्ततद्रोमसंमितान् । वर्षसहस्रान् स तप्त-ताम्रखण्डानि भोज्यते ॥३४॥ रात्रौ सुते जने ग्रामा यैः पूर्व परिदीपिताः। तेषां देहो लोहमृषैः क्षिमं प्रक्षाल्यतेऽनिशम् ॥३४७॥ अन्यासक्तो निजा भार्यां त्यजेत् संतापयेच यः। तसतैलेन तद्देहः सिच्यते भो नरोत्तम ! ॥३४८॥ 18 इत्याद्यनेकोत्पन्नाः कथिताः स्वल्पवेदनाः । अन्येषां बहुदुःखानि व्याहतु पारयामि न ॥३४९॥ यतः18"नरएसु जाई अइकक्खडाई दुक्खाई परमतिकवाई। नरके यानि अतिकर्कशानि दुःखानि परमतोगानि । 18 को वन्नेही ताई जीवन्तो वासकोडीहिं ॥३२०॥ को वर्णयिष्यति तानि जीवन वर्षकोटिभिः ॥३५०॥ ४ 18 नेरईआणुप्पाओ उक्कोसं पंचजोयणसयाई। नैरयिकाणामुत्पाद उत्कृष्टं पश्चयाजनशतानि । १॥२३॥ ..200000000000000OROORNORMOORO0300000000000 coOOOOOOOOOO0000000000000000NRNATRO Jain Educatiolo ternational jainelibrary.org Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक 200000000 ॥२३२॥ ३ -1 0000000000000000 000000000000000000000000000000000000 दुक्खे निवडियाणं वेयणसयसंपगाढाणं ॥३५१॥ दुःखे निपतितानां वेदनाशतसंप्रगाढानाम् ॥३५१५ बिहुना ? अच्छिनिमीलणमित्तं नस्थि सुहं दुक्खमेव अणवश्यं । अक्षिनिमीलनमात्रं नास्ति सुखं दुःखमेव अनवरतम्। नरए नेरईयाणं अहोनिसं पचमाणाणं ॥३५२॥ नरके नैरपिकाणाम् अहर्निशं पच्यमानानाम् ॥३५२॥8 इत्युक्त्वा धरणेन्द्रस्तं पाणी प्रारोप्य भूपजम् । व्यक्तितो नरकावासाम् दर्शयामास कत्यपि ॥३५३॥ (नरकदर्शनेन भुवनभानुर्मुमूर्छ-) धरणेन्द्रकराजस्थो जीवानां वीक्ष्य वेदनाम् । कुमारो दुःखपूरेण क्लान्तकायो मुमूर्छ सः ॥३५४॥ पुनस्तत्र समानीय दिव्यपानीयसेचनैः। धरणेन्द्रः कुमारं तं चकार स्पष्टचेतनम् ॥३५॥ व्यचिन्तयत् कुमारोऽथ देहसौख्याय धिगू जनाः। देहं धर्मकल्प, प्रापुः किं पापपोषिणः ॥३५६॥ ऊचेऽथ धरणो वत्स! जाताऽद्य सप्तलहनी । अझंकृशं भृशं तेऽभूत् कुमार ! सुकुमारबत् ॥३५७॥ भो! जनाधिपपुत्राऽद्य भोजनाय मया समम् । पुण्यपुष्ट ! तदुत्तिष्ठ सत्वरत्नकरोहण ! ॥३५८॥ कुमारः प्रोचिवन्नाग! मयाऽद्य जिनपूजनम् । न कृतं तत् कृतं देव ! भोजनैर्लोल्ययोजनैः ॥३५९॥ श्रुत्वेति वासुकिः प्रोचे देवतावसरे मम । सा मूर्तिर्वीतरामस्य विद्यते सर्वविद्य! ते ॥३३०॥ अभ्युत्थाय ततः शीघ्रमन्त्रैव जिनपूजनम् । विधेहि विधिना धीमन् ! निधेहि प्रमदं मयि ॥३६१॥ इत्युक्त्वा वासुकिर्भूपपुत्रमाकृष्य बाहना । लपयित्वा सुधाकुण्डे कारयामास पूजनम् ॥३६२॥ (धरणेन सह भुवनभानोः भाजनम्-) धरणोऽत्यर्थमभ्यर्थ्य कुमारं दिव्यभोजनः। अभोजयत् प्रीतिवल्ले: फलं पक्वं हि गौरवम् ॥३६३३ 200000000002 Jain Education ina tional Chinelibrary.org Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मती परित्रम् सर्गः-६ 0000000000OOOOOOOdcom (धरणेन भुवनभानवे दत्तानि चमत्कारकवस्तूनि-) ततोऽशुकयुगं स्वर्ण-पादुकायुगलं तथा । धरणेन्द्रः कुमाराय दत्वाऽवादीत् प्रमोदवान् ॥३६४॥ ॥२३३॥ अनेन वस्त्रयुग्मेन संवीतेन तनी तव । शीता-ऽऽतप-रजो-वातभवं दुःखं न भावि भोः ! ॥३६॥ पादुकायुगलस्याऽस्य प्रभावो व्योमगामिता । परोपकारे त्वं भूया धीरधीरनिशं भुवि ॥३६॥ इत्युक्त्वा पेटिका जैन-मृतियुक्तां स्वपाणिना । आर्पयन्नृपपुत्राय मणि चैकं महौजसम् ॥३६७॥ 8 भूत्वाऽथ निकषा कर्ण कुमारस्य मुदा तदा । महिमानं मणेस्तस्याऽऽचख्यौ छन्नं स नागरात् ॥३६८॥ (भुवनभानु: पातालात पृथ्ख्यामागतः-) ८४ अथो मुमोच हुंकारं स्फारं स धरणेश्वरः। तदैवाऽथ कुमारोऽयं पृथ्व्यामात्मानमैक्षत ॥३६९।। (रङ्गशाला नगरी-) अहो! अहं भुवं प्राप्तश्चिन्तयन्निति विस्मयात्। जगाम रङ्गशालाख्या नगरी श्रीगरीयसीम् ॥ तस्याः पुरप्रवेशेऽसौ चारुपाकारवेष्टितम् । प्रासादं विस्मितोऽपश्यत् पिशङ्गध्वजयाऽन्वितम् ॥३७॥ प्रासादोऽयं श्रियो देव्या अये! पीतध्वजान्वितः । विचिन्त्येति कुमारस्तत्माकारान्तविवेश सः॥३७२॥ ( लक्ष्मीमूर्तिः-) चारुचामीकरमयीमयं तत्र प्रमोददाम् । लक्ष्मीदेव्या ददर्शाऽथ मूर्ति चम्पकपूजिताम् ॥३७३॥ उपसृत्य कुमारोऽथ निजगाद श्रियं प्रति । देवि! लक्ष्मि! त्वमेवाऽसि सतां पुण्यनिबन्धनम् ॥३७४॥ 8 यतः- नृपस्य मानं गुरु-देवपूजा सत्तीर्थयात्रा निजबन्धुपोषः। संसेव्यतां शेषकलाविदां च स्याल्लक्ष्मि ! सर्व त्वयि तोषवत्याम् । ॥३७५॥ सन्तः सुतीर्थे कृपणा रजोऽन्तस्त्वां स्थापयन्ति व्यसनेषु पापाः । १ भयम् । २ धूल्याम् । 0000000000000000000000000000 Q9OooooooooooooooooooooooOOOOOOOOOOOOOOOOốc ॥२३शा Jain Education national w ainelibrary.org Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50000.00ROOOOOOOx मत्वेति हे धर्मसुते ! सुलक्ष्मि ! कथं सतामेव गृहेषु नैषि? ॥३७६॥ चरित्र ॥२३४॥ स कुमारः सुकुमारमिति यावद् वचोऽब्रवीत् । श्रीदेवता तावदेव प्रोवाचाऽनाहतं वचः ॥३७७॥ तथाहिपुण्यरज्जुभिरहं दृढबद्धा निविवेकि-मुविवेकिगृहेषु । संस्थिताऽत्र कुवचः सुवचश्च वत्स! हे ननु सहेऽधनिनां हि ॥३७८॥ 18 श्रुत्वेत्यसौ श्रियो वाक्यं दध्यौ प्रागजन्मधर्मतः। श्रीः स्यात् कृपण-व्यसनिनराणां नान्यतो गुणात् ॥ 18 (द्वी विप्रौ) इतो गर्भगृहान्तस्थौ विप्रो श्रीदेवदताऽर्चको। हुंचिह्नमेकं संजातमित्युक्त्वा जग्मतु तम् एताभ्यां किमभिज्ञानं दृष्टं विप्राविमौ च को। चिन्तयन्निति बभ्राम प्रासादं परि भूपभूः ॥३८१॥ तत्र च-8 (पञ्च आम्राः-) स्फाटिकनिर्मलजल-कलितैरालवालकैः । विपुलान् पत्रलान् पश्च कम्रानाऽऽम्रानुदैक्षत ॥३८२॥४] उपसृत्य कुमारोऽथ यावदालोकते स्थिरः । तावत् तान्निष्फलान् वीक्ष्य सव्यथं ध्यातवानिति ॥३८३॥ प्रसृतेऽपि वसन्ततौं ब्रुमाणां परमद्धिदे। आः ! आनन्दप्रदा अक्ष्णोरप्येते निष्फलाः किमु ॥३८४ किन्तु, 8 दानेशा धनसंयुता भुवि सदाचारा परश्लाघिनो वैद्या लोभविवजिता यदि सुविद्वांसोऽप्यगर्वा हृदि। नित्यं स्वाम्पि सरांसि मृत्युरहिता माः फलाठ्या द्रुमाःजायन्तेतदहो! धरा वरतरा स्यात् स्वर्ग-पातालयोः तथाऽपि धरणेन्द्रेण प्रदत्तस्य सुधामणेः । प्रभावेण करिष्यामि चूतानेतान् फलान्वितान् ॥३८६॥ ध्यात्वेति तं मणिं नीव्या कृष्दैषां स्थानपाऽम्बुभिः। प्रक्षाल्याऽभिषिषेचैष चूतान् पश्चाऽपि यावता ॥३८७ तावता स्वर्णवर्णानि कपूरसुरभीणि च । आविरासुः फलान्याशु सुधास्वादूनि तेष्वथ ॥३८८॥ इतश्च- विौ क्षिप्रौ तौ तत्राऽऽयातौ फलाकुलान् । तान् (तांश्च) वृक्षान् समालोक्य मुदितावूचतुर्मियः ॥8 मुजलानि । ॥२३॥ 20000000000000000000000000000000000000000000000000 GOOOOccoooo000000000000000000000000 Jain Education national www-linelibrary.org Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहो! कर्पूरमार्या अपूरिष्ट मनोरथः। अवकेशिनोऽपि वृक्षा यजाताः सफला अमी ॥३९०॥ 8 चरित्रम् तयोरेको लघुविप्रोऽवचित्य सुफलोच्चयम् । शीघ्रं ययौ द्वितीयस्तु तत्राऽस्थान्नृपजान्तिके ॥३९१॥ अथाऽवदत् कुमारस्तं हे विप्राविह को युवाम् ? । कारितं श्रीगृहं केन किं नीत्वाऽगात् फलान्यसौ ॥ अथो स विप्रः प्रोवाच गिरा प्रेमपवित्रया । जानीहि प्रथम देव ! रङ्गशाला पुरीमिमाम् ॥३९३॥ 8(विक्रमो नृपः-) विक्रमोऽत्र पतिः पाति पातितारिपतङ्गकः । भयान्धतमसाल्लोकं नीतिमार्गप्रदीपकः ॥३९४॥ (प्रीतिमती राज्ञी-) तस्य प्रीतिमती नाम पत्नी दृढपतिव्रता । सुप्ताऽन्यदा निश्यऽपश्यत् कर्पूरतरुमञ्जरीम् ।। ( कर्पूरमञ्जरी पुत्री-) संपूर्णसमये साऽथ समस्त सुतां सती। पिताऽपि तामतो नाम्ना चक्रे कर्पूरमञ्जरीम् ॥ ( सामदेवो दैवज्ञः-) सुतायां सप्तवार्षिक्यां तस्यां श्रीविक्रमो नृ । दैवज्ञं सामदेवाख्यं पप्रच्छे तद्वरं नरम् ॥ कन्याङ्गलक्षणान्येष वीक्ष्य मौहतिकोऽवदत् । वर्षेऽस्याः षोडशे भावी राधावेधकरो वरः ॥३९८॥ राजा श्रीविक्रमोऽवोचत् राधावेधस्य योग्यता । केन चिहुनेन विज्ञेया पुंसस्तस्येति भो! वद ॥३९९। सोऽवादीद् देव ! वाग्देवीमुपोष्याऽऽराध्य सत्वरम् । सर्व निवेदयिष्यामि तृतीये दिवसे तव ॥४०॥ १२४ सोमदेवस्तृतीयेऽहनि सभामभ्येत्य भूपतेः। पाणौ चूतफलान्युच्चैस्तदा पञ्च समापयत् ॥४०१॥ राजोचे किं फलैरेतैः कर्तव्यमथ सोऽब्रवीत्। अपितानि सरस्वत्या ममैतानि प्रसन्नया ॥४०२॥ गदितं च सरस्वत्या महालक्ष्मीगृहं महत् । कारितं विद्यतेऽग्रे यत् स्वर्णमूर्तिविभूषितम् ॥४०३॥ तत्र कर्पूरमञ्जर्या कन्यया निजपाणिना । प्रसादस्याऽस्य पाश्चात्य-भागे वाप्यान्यमून्यहो! ॥४०४॥ दिव्यस्वरूपा पञ्चाम्री ततस्तत्र परोक्ष्यति । साऽनिशं निर्मलैः सिंचनीया च कन्यया ॥४०॥ 00000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000 Jain Education national womainelibrary.org Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥२३६॥ 999999999999999oooooooooooooooo001 सा च हिरण्मयी लक्ष्मी स्मेरचम्पकपुष्पकैः । कन्यया पूजनीया हि लातया शुचिवस्त्रया ॥४०६॥ पुंसा संभाषिता येन लक्ष्मीमूतिर्वदिष्यति । वरः कर्पूरमार्या नरः स भविता ध्रुवम् ॥४०७॥ सदाऽपि निष्फलान् दिव्यान् तानाम्रान् पञ्च यो नरः। करिष्यति फलैनंम्रान् वरिष्यति स ते सुताम् ॥81 राजन्! देव्या सरस्वत्या ममेति कथितं स्फुटम् । सोमदेवः स दैवज्ञ इत्युक्त्वाऽऽत्मगृहं ययौ ॥४०९॥ अमुं प्रासादमुर्वीशो हेमश्रीमूत्तिसंयुतम् । अचीकरत् ततः सा च कन्याऽऽम्रानुप्तवत्यभूत् ॥४१०॥ - (दिवाकर-गुणाकरौ विप्रौ-) तदा नियुक्तावावां च दिवाकर-गुणाकरौ । श्रीपूजायै तस्य पुंसः परीक्षायै च भूभुजा ॥४११॥ (राधावेधस्तम्भ:-) कन्याषोडशवर्षेऽस्मिन् राज्ञा वीवाहमिच्छता।अष्टोत्तरशतहस्तः स्तम्भोऽस्त्युत्तम्भितो बहिः॥४ दक्षिणान्यष्ट चक्राणि चाऽष्टौ वामभ्रमीणि च । तत्राऽन्तरे चारुतरां नृपो राधामकारयत् ॥४१३॥ राधावेधकरो यः स्यात् स नरो मे सुतावरः । इत्युद्घोष्याऽशेषराज्ञो दूतैरामन्त्रयन्नृपः॥४१४॥ (कर्पूरमन्जरीतपः- निमन्त्रणानि भूपानां स्वस्वयंवरहेतवे । कपूरमञ्जरी श्रुत्वोपवासं विदधे तदा ॥४१॥ ४ राजाऽपृच्छत् कथं वत्से ! विद्धासि न भोजनम् । भासयन्त्याऽऽस्यभासाऽग्रेऽसावभाषत भामिनी ॥ येषां बीजानि वाग्देव्याऽपितान्येते द्वमा यदा । फलिष्यन्ति तदा तेषां फलैमोक्ष्येऽन्यथा तु न ॥४१७॥ उपवासत्रये जाते क्लान्तकाया कुमारिका । बभूव राजवर्गोऽपि चित्ते दुःखाकुलो भृशम् ॥४१८॥ चतुर्थेऽद्य दिने राजा नत्वा लक्ष्मी व्यजिज्ञपत् । देवि ! यद्येकचित्ता मे पुत्री तल्लभतां वरम् ॥४१९॥ इत्युक्त्वाऽर्चा श्रियः कृत्वा यावद् राजा विनिर्ययौ । तावत् त्वया कुमारैत्य लक्ष्मीः संभाषिताऽवदत् ॥ पूर्णमेकमभिज्ञानमिति प्रमुदितौ भृशम् । गत्वा व्यजिज्ञपावाऽऽशु कन्यां कर्पूरमञ्जरीम् ॥४२१॥ 8॥२३६ ational Soooooooooooooooooooooooooooo 000000000000000000 १२ Jain Education f wwsanelibrary.org Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-8 सा प्रोचे प्रोच्चरोमाश्चा सत्यं चेद् युवयोर्वचः । वृक्षाणां तदहो! तेषां फलान्यानयत द्रुतम् ॥४२२॥ चरित्रम्-- ॥२३७॥ इति प्रोक्तो कन्ययाऽऽवां संशयानो फलेवलम् । आगतौ फलितानेतान् वृक्षान् वीक्ष्याऽतिविस्मिती॥४: (कर्पूरमञ्जरीपारणम्-) एषां फलानि नीत्वाऽसौ मम भ्राता गुणाकरः । प्रयातोऽस्त्यधुना कन्या-पारणाकारणाय भोः!॥४२४॥ कन्यायाः पारणायां च कृतायां विक्रमो नृपः। अत्रैष्यति भवन्तं तु प्रविवेशयिषुः पुरीम् ॥४२५॥ यावदक्त्वेति विप्रोऽयं विरराम दिवाकरः । तावच्छ्रीविक्रमो राजा तत्रागात् सपरिच्छदः ॥४२६॥ गुणाकरेण विप्रेणाऽऽदिश्यमानपथो नृपः। आगत्याऽभ्युत्थितं हर्षात् कुमारं श्लिष्यति स्म सः॥४२७॥ राजा दध्यावहो रूपं कुमारस्याऽस्य वीक्ष्य हि । स कन्दर्पः स्वकं दर्पमद्य तत्याज निश्चितम् ॥४२८॥ (भुवनभानोः पुरप्रवेशमहोत्सवः-) राजाऽऽरुह्य गज स्वारे प्रारोप्यैनं कुमारकम् । पुरेप्रावेशयत् प्रौढ-प्रमोदभरमेदुरः ॥४२९॥ सपो भवनभानुं तमुत्सवेन महीयसा। चित्रशाले विशालेऽथ सप्तभूमे मुदाऽमुचत् ॥४३०॥ कमारपरिचर्यायै दिवाकर-गुणाकरो। तत्राऽन्यांश्च नरान् मुक्त्वा राजा स्वावासमासदत् ॥४३१ जात्यं सुरभिद्रव्यैः संलाप्य विमलैर्जलैः। विलेप्य यक्षप.श्वाऽलंकृत्य वर्णभूषणः ॥४३२॥ पाय जिनपूजां च भोज्यनीनारसैस्तदा । तावभोजयतां विप्रो कुमारं भक्तिनिर्भरी ४३३॥ अत्रान्तरे सहस्रोधानाशुनिचयोऽजनि । वारुणीमीहमानस्य कस्य कान्तिन हीयते ॥४३॥ 290295296299999999998699999999999 3000000000000000000 00000 wimilainelibrary.org Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥२३८॥ ४ ८ १२ 0000000000GʊDD. 3. कुमारः प्रोचिवान सूर्यः संपूर्य वसुभिर्भुवम् । व्रजत्यस्तं हहा दैवं सदसत्स्वपि दुःखदम् ||४३५ || अहो ! लब्ध्वा पूर्व किल विबुधनाथस्य ककुभं जगत्युचैर्भूतो दिशमभिलषन् यज्जडपतेः । मरुन्मार्गात् सूरोऽप्यथ पतति तन्निर्मलकुलां स्त्रियं हातुः पातो ध्रुव इति वदन् विश्वमिव भोः ! ॥ ४३६ ॥ विश्वे पश्यति विश्वेऽस्मिन् स सहस्रकरोऽपि हि । ममज्ज पश्चिमाम्भोधौ दिनान्ते केन किं भवेत् ॥४३७॥ पाशपाणिदिशाऽम्भोधौ पात्यमाने खगे खगाः । शब्दायन्ते स्म वृक्षेषु मिलित्वा दुःखिता इव ॥ ४३८ ॥ अस्तंगते दिवाना काष्टास्वन्धमुखीषु च । पक्षिणोऽमी अभुञ्जाना धन्या अज्ञानिनोऽपि हि ॥ ४३९ ॥ राक्षसाः प्रेत-भूताया म्लेच्छाश्चाश्नन्ति निश्यऽपि । स्वर्गिणः पितरश्चैव धर्मिणो मनुजास्तु न ॥ ४४० ॥ दूरमेष यथा सूरस्तमः पूरस्तथा तथा । श्रियं हरति पद्मानां निनथः स्यात् सुखी हि कः ? ॥ ४४१ ॥ रत्नैः प्रदीपै रविणेन्दुना च क्षतं तमः स्यात् पुनरक्षितं हि । यथा जिनेन्द्रेर्मथिता मदाद्या अपि त्रिलोकीं तु पराभवेयुः ॥ ४४२॥ अथो दिवाकरोऽवोचद् विधायोद्धव स्वतर्जनीम् । कुमार ! पुरतः पश्य प्राच्यां चन्द्रोऽभ्युदेत्यसौ ॥ ४४३|| प्रभालोकं कुर्वन् रविरवनितापं यदतनोत् तमिस्रा शीताऽपि प्रचुरतिमिरं यच कुरुते । द्वयोर्दोषावेतावमृतरुचिरंषोऽप्यपहरत् कलङ्कं स्वं हर्तुं प्रभवति न तत् क्षीयत इव ॥ ४४४॥ अथो गुणाकरोsवोचच्छ्यनीये नृपाङ्गज ! । सत्वरं कुरु विश्रामं यथा याति तव श्रमः ॥ ४४५ ॥ तथाऽकरोत् कुमारोऽपि स्मृत्वा पञ्चनमस्कृतिम् । संवाहयांचक्रतुश्च नावथो तं यथासुखम् ॥४४६॥ १ काष्ठादिक । 06088 ∞∞∞∞∞∞∞∞∞ 'चस्त्रिम्सर्गः ६ ॥ २३८ ॥ inelibrary.org Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम् पुण्डरीक२३९॥ सर्ग:-६ इति विक्रमराजस्य निर्देशात् तलरक्षकाः। नगरी मण्डयामासुराशु चन्द्रोदयादिभिः ॥४४७॥ विभातायां विभावाँ वर्याङ्गैजितमन्मथाः। पृथ्वीनाथा अथाऽभ्येयुः सर्वे पूर्वनिमन्त्रिताः॥४४८॥ ततः श्रीविक्रमो राजा नृपानेतान् ससंभ्रमम् । सर्वान् संमानयामास रम्यावासप्रदानतः ॥४४९॥ 8 इतो भुवनभानु तमुपेत्य नृपनन्दिनः। इत्युपश्लोकयन्ति स्त्र प्रभाते सौप्रभातिकाः ॥४५०॥ जय जय नृपपुत्र ! सचरित्रैः पवित्रः परिहर बहुनिद्रां मोहराजेन्द्रमुद्राम् । वितनु तनुविशुद्धि निर्मला स्वां च बुद्धि स्मर जिनवरमन्तः पुण्यकृत्यैरनन्तः॥४१॥ 8 इत्थं जागरितः प्रातःकृत्यं कृत्वा नृपाङ्गजः । राज्ञोऽमात्यैर्मुदा निन्ये स्वयंवरणमण्डपम् ॥४२२॥ गरिष्ठेषु निविष्टेषु तत्र भूपेषु भूरिषु । आसांचके कुमारोऽपि चारुचामीकरासने ॥४२३॥ ललनाभिः कृतोलूलुलालनाभिर्वताऽथ सा। हंसीव कलकण्ठीभिरागात् कर्पूरमञ्जरी ॥४५४॥ राधास्तम्भमथोपेत्य पूजयित्वा प्रमोदतः । तस्थौ सुस्थमनास्तत्र बालिका धृतमालिका ॥४५॥ दिवाकराभिधो विप्रः प्राह भूमीपतीनथ। विधाय राधावेधं भोः! कन्येयं परिणीयताम् ॥४५६॥ 18 एवं दिवाकरेणोक्ते शक्तिमन्तोऽपि केचन । राधावेधाय नोत्तस्थुविलीनविषयस्पृहाः ॥४५७॥ तत्र केचिदनात्मज्ञा उत्थायोर्वीशसूनवः । अपरोद्धेषुतां प्राप्य जग्मुस्ते हास्यपात्रताम् ॥४२८॥ श्रीविक्रमस्य संकेताद् विप्रः सोऽथ दिवाकरः। वीरं भुवनभान्वाख्यं तमुदस्थापयजवात् ॥४५९४ मण्डलायितकोदण्ड-मण्डितायतसायकः। राधालीढमनाः प्रत्या-लीढस्थानं स तस्थिवान् ॥४६०॥ POOOOO00000000000000000000000000000 sooooooooo ooooooooo. अपराबवाणताम्। IRKSO Jain Educatiemational ainelibrary.org Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (भुवनभानुना राधावेधः कृतः-) 18 युवचितैश्च चक्रैश्च विभ्रमद्भिर्वतामपि । कन्यां राधां च विव्याध सौभाग्येन शरेण च ॥४६॥ वरमालां वरस्याऽस्य कण्ठे क्षिप्त्वा पर्तिवरा । यावद् दूरतरौ चक्रे करौ वेपथुमन्थरी ॥४३२॥ तावच, (कश्चिद् देवः--) विनापराधं मे पुत्रो वत्से! बद्धः कथं त्वया । वदन्निति दिवः कोऽपि देवः प्रादुरभूत् पुरः ॥ देववाणीमिति श्रुत्वा पाणी संयोज्य विक्रमः। नृपः प्रोवाच गीर्वाण! किमेष तनयस्तव ॥४६४॥ 8 जगाद निर्जरः सोऽथ स्वरूपं मम भूपतेः। शृणु त्वं निश्चलीभूय भूयसः किल कौतुकात् ॥४६॥ 8 ( काश्चनपुरम्-) अहं भीमनृपोऽभूवं श्रीकाञ्चनपुरे पुरा । अयं भुवनभान्वाख्यस्तनयः सनयो मम ॥४६६॥ ४ कारणेनैष केनाऽपि सुतो देशान्तरं ययौ। अहं तु हन्तुमारेभे दुःखादात्मानमुत्सुकः ॥४६७॥ 18 (चित्रादः साधुः- नृसिंहो नृपः-) तदा चित्राङ्गदः साधुर्मामेत्य प्रत्यबोधयत् । नृसिंह स्वं सुतं राज्येऽभिषिच्याऽग्रहिषं व्रतम् ॥४६८॥ भावना द्वादश श्रुत्वा व्याख्यानेऽहं गुरोर्मुखात् । मत्वाऽसारं च संसारं विगृह्याऽनशनं मृतः ॥४६९॥ सौधादथ सौधर्म कल्पेऽहमभवं सुरः। दृष्ट्वाऽमुं सात्त्विक पुत्रं ज्ञानेनाऽत्र समागतः ॥४७॥ आगतोऽत्र सुतं माला-बद्ध कन्यकयाऽनया। प्रेक्ष्याऽहं सहसा राजनिषेधं कृतवानिह ॥४७१।। यतालब्धेऽपि मानुष्ये संप्राप्ते पाप-पुण्यनैपुण्ये । यो यतते न यतित्वे तिर्यक्त्वादौ स किं कर्ता ॥४७२॥ अन्यच्च, 8 दानं नाऽभयदानतस्त्रिभुवने शीलवतान्न व्रतं संतोषान्न सुखं न मर्मवचनादन्यच्च तीव्र विषम् । तृष्णाया अपरं लघुत्वमपि नो धर्मानिधि परः स्त्रीपाशान्न परोऽस्ति पाश इह भोः! कारा भवान्नापरा ततो भो! विक्रमोर्वीश! पुत्रमेनं सुधार्मिकम् । चारित्रं ग्राहयिष्यामि त्याजयिष्यामि संसृतिम् ॥४७४॥ 29ed9ocosp900000000000005 000000000000000000000000000 00000000000000 ॥२४॥ Jain Education national ainelibrary.org Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ coooooooooooooo000000000000000Eoo FESSOOOOOOOOOOOO इत्युक्त्वा विरतस्याऽस्य देवस्य स्वपितुः पदे । नत्वा भुवनभानुः स प्रोवाच स्वाधीवकः ॥४७॥ महीयसाऽत्र मोहेन मुह्यमानं मनो मम । त्वया तात! परित्रातमहो! वात्सल्य नद्भुतम् ॥४७३॥ (देव-विक्रमयोः संलाप:-) अथ श्रीविक्रमो राजाऽभ्युत्थाय निजविष्टरात् । शेखरीकृत्य हस्तौ च निजगाद सगद्गदम् ॥४७७॥ रति जयन्ती रूपेण वैजयन्ती कुलोकसः। सुतेयं मम सुतस्तेऽयं पुण्येन प्रवरो वरः॥४७८॥ बरे वरवधूकेऽस्मिन् लावण्यामृतवारिधौ। निश्चलीभूय देवेन्द्रोऽनिभिवत्वं कृतार्थय ॥४७९॥ मत्पक्षिभिर्वाञ्छयमानः कन्योद्वाहसुरद्रुमः। सुमनस्त्वयि दृष्टेऽपि फलत्यद्यापि किं न भो! ? ॥४८॥ इत्युदित्वा नृपं पाद-प्रणतं प्रेक्ष्य सोऽमरः। उत्थाप्य निजपाणिभ्यामालिङ्गय 'माह साञ्जसम् ॥४८॥ तव संश्लेषवाक्येन परितुष्टोऽस्मि भूपते !। यत् त्वं कथय तच्छीघ्रं करोम्येव नरोत्तम! ॥४८२॥ राजा प्रोवाच देवेन्द्र ! तव वाक्येन धर्मिणा । संसारमोहसुसोऽद्य ममाऽऽत्मा प्रतियोधितः ॥४८३॥ किन्तु पुत्रस्तवैवाऽयं यदि राज्यमिदं मम । त्वद्वाक्येन वधूयुक्तः पाति द्वादशवत्सरीम् ॥४८४॥ तदादाय व्रतं पोतं निस्तराभि भवाम्बुधिम् । मध्येभूय विवाहं तत् कारयाऽऽशु सुरोत्तम ! ॥४८॥ इस्थमन्यर्थितो राज्ञा तयेति प्रतिपद्य सः। देवः कुमारीवीवाहं कारयामास हर्षितः ॥४८६॥ अथो विवाहे निवृत्ते भीमदेवे च तस्थुषि । वरं कपूरमञ्जयों राजा राज्ये न्यवेशयत् ॥४८७॥ ततश्च, विक्रमो राजर्षिः-) गुरोधर्मप्रभाख्यस्य पादान्ते दान्तचेतसा । व्रतं जग्राह कुग्राहरहितोऽरिहितो नृपः ॥४८८ अधो विक्रमराजर्षि नीत्वा भीमसुरोत्तमः । रङ्गशालापुरीमध्यमागाद् भुवनभानुना ॥४८९॥ हे देवेन्द्र !। २ पक्षिण:-स्वजनाः, खगाच OOOOOOOOOOOOOODCOPE Jain Educationernational w.jainelibrary.org Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ण्डरीक ॥२४२॥ ४ १२ | देवो भुवनभानुं तमथाऽऽह स्मेरलोचनः । वत्स ! द्वादशवर्षेभ्यस्त्याज्यं राज्यं त्वया ध्रुवम् ॥४९० ॥ तयेत्यय कुमारेण प्रोक्ते भुवनभानुना । दिवं विद्योतयन् देवो महसा सहसाऽगमत् ४९१ ।। ( भीमविहार. - ) पितुः पुण्याय वैडूर्य-मयीं मूर्ति जिनेशितुः । नत्र्ये भीमविहारेऽसौ न्यधाद् भुवनभानुरा दू मित्रं दिवाकरविप्रमसौ भुवनभानुराट् । पूजाधिकारिणं तत्र चक्रे वक्रेतराशयः ॥४२३॥ अथो वसुमतीं शासनसौ वसुमतीपतिः । आत्मानं सुमतीकुर्वश्चक्रे वसुमंतीः प्रजाः ॥४९४॥ ( कर्पूरमञ्जरीगर्भधारणम् — ) अथ स्वल्परजोभावा राजयोग्यमुपेयुषी । कर्पूरमञ्जरी गर्भ सत्त्वं प्रकृतिवद् दधौ । राज्ञी सेवा यदा राज्ञा सोधमूर्ध्नि निषेदुषी । दर्श दर्श रविविम्बं रुदन्ती दहशे भृशम् ॥४९६॥ ( कर्पूरमार्या दोहद: - ) पार्थिवोऽपि पुरोभूय प्रोचे प्रेमपरः प्रियाम् । अयि ! ते दयिते ! चित्ते विद्यते दुःखमय किम् १ ||४९७ ॥ अथाऽसौ प्राह मन्दाक्षं मन्दाक्षरमदो वचः । जिनं भानुविमानस्थं नन्तुं मोहो हृदः प्रियः ॥ ४९८ ॥ राजा भुवनभानुः स स्पष्टमाचष्ट तुष्टहृत् । रम्यामेनां स्पृहां देवि ! पूरयिष्यामि ते ध्रुवम् ॥४९९॥ मा ताम्य भामिनि ! तत इत्युदित्वा धराधवः । स्वदुकूलाञ्चकेनैव निर्ममार्ज प्रियामुखम् ॥ २०० ॥ प्रियां प्रेमामृतप्रीतामेवं कृत्वा नरेश्वरः । धरणेन्द्रदत्ते पदयोः पादुके अथ पर्यघात् ॥ २०१ ॥ धरणेन्द्रप्रदत्तं च शीतः -ऽऽतपनिवारणम् । परिधाय वस्त्रयुग्मं हुंकारमकरोन्नृपः ॥ २०२॥ ( भुवनभानुर्भानुविमानं प्रविवेश - ) अक्लान्तरताप-वाताभ्यां सब आस्कन्द्य रोदसीम् । पादुका भावतो भानु - विमानदारमीथिवान् ॥ २०३ ॥ 9. धनयुताः । Jain Educationemational loadedodoo 0000000000000007 सर्ग: - ६. ॥२४२॥ ainelibrary.org Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ets | २४३॥ ४ १२ आयान्तं दूरतो दृष्टं भूपं भुवनभानुकम् । अभ्युत्तस्थौ रविर्देवः कस्य मान्यो हि नाऽतिथिः १ ॥२०४॥ ( भानु-भुवनभान्वोः संलाप :- ) पदप्रणनं पृथ्वीशमुत्थाप्याऽऽश्लिष्य हर्षतः । दिव्यासने निविश्याऽग्रे रविः कोमलमालपत् ॥२०५॥ आगमोपक्रमेणैवं सहसा साहसिन्नहो ! । यथा त्वया मोदितोऽहं तथा कार्येण मोदय ॥२०३॥ राजा प्रोवाच देवेन्द्र ! ज्ञानात् कार्य ममाऽखिलम् । जानन्नपि कथं मर्त्य - व्यवहाराय पृच्छति ॥२०७॥ सूर्यदेवः क्षणं मौनमालम्ब्य प्रोचिवान् पुनः । अत्र श्रीजैनमूर्ति किं विवन्दयिषसि प्रियाम् ॥ २०८ ॥ ( कर्पूरमजरी अपि भानुविमाने गता - ) आनेष्यामि ततोऽत्रैव वधूं कर्पूरमञ्जरीम् । इत्युदित्वा दिव्यशक्त्या तत्र तां रविरानयत् ||५०९ ॥ अकस्मादागतां प्रेक्ष्य प्रियां कर्पूरमञ्जरीम् । अहो ! शक्तिरहो ! शक्तिरिति भूपो विसिष्मिये ॥ ११० ॥ इतो भर्तारमालोक्य हृष्टा कर्पूरमञ्जरी । ततो विनयतः सूर्यमिन्द्रं यावन्ननाम सा ॥ ५११ ॥ ( सूर्यपत्नी रत्ना— ) सूर्याग्रमहिषी तावद् रत्ना देवी ससंभ्रमा । आलिलिङ्ग समागत्य राज्ञीं कर्पूरमञ्जरीम् || भूपं भुवनभानुं तमथो भूयः सुरेश्वरः । विधृत्य पाणौ प्रासादे जैने प्रावेशयद् मुदा ॥ २९३ ॥ देवीचतुःसहस्रैः सा वृता रत्नाभिधाऽमरी । कर्पूरमञ्जरीं जैने मन्दिरेऽस्मिन् निनाय ताम् ॥ २१४॥ द्वारे द्वारेऽथ चत्वारि मध्ये चाष्टोत्तरं शतम् । इत्यानचऽर्हतो मूर्तीः स विंशतिशतं नृपः ॥ २१५ ॥ अथो सभासु त्रिद्वारभूषितास्वपि पञ्चसु । षष्टिसंख्याः स आमचे जिनमूर्तीर्मणीमयीः ॥५१६ ॥ एवं जिनेन्द्रबिम्बानि विमाने शाश्वतान्यसौ । आमचं सूर्यसौहार्दात् तत्राऽशीतिशतं नृपः ॥११७॥ इत्थं कर्पूरम अर्याः संपूर्ण दोहदे नृपः । नत्वा स्तुत्वा रविं देवं नगरीमाययौ निजाम् ॥२१८॥ Jain EducatInternational चरित्रम्. सर्गः ६ ॥२४३॥ ww.jainelibrary.org Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IRBY ( कर्पूरमजरी सुरवल्लभं सुतमसूत) चरिक कपुरमञ्जरी साऽथ प्रमोदामृतपूरिता । संपूर्णसमयेऽसूत सुतमद्भुनतेजसम् ॥२१९। सुरवल्लभ इत्याख्यां सत्यां तस्य ददौ नृपः । उपाध्यायादवीतश्च जज्ञे स दशवार्षिक: ॥५२०॥ सर्गः-६ 8 ( भुवनभानुर्मुनिः-) देववल्लभनामानं निजे राज्येऽथ तं सुतम् । निधाय भूपतिः पन्या सहितो व्रतमग्रहीत् ॥५२१॥४ 8 तदा गुणाकरो विप्रः पात्राजीत् स्वामिना समम् । मुनिर्भुवनभानुश्च प्राप मूरिपदं कत्रात् ॥५२२। ४ (मुक्तिं गतौ कर्पू मन्जरी- गुणाकरौ-) गुरी भुवनभान्वाख्ये भवव्याख्यां वितन्वति। ते गुणाकर-कपूरमञ्जौं ज्ञानमापतुः ॥२२३॥ तयोः संप्राप्तयोर्मोक्षे सूरिभवविरागतः । संलेख्याऽनशनं कृत्वा द्वादशस्वर्गमीयिवान् ॥२४॥ (गजपुरं पुरम-) भोगान् भुक्त्वा ततश्चत्वाऽमुदिमन् गजपुरे पुरे । महासेनस्य पुत्रोऽभूदयं विजयसेनराद। ।इति विजयसेनमण्डलेशस्य पूर्वभवः। इतो दिवाकरो विप्रो भीमविहारसंस्थितः । अभुञ्जन् दैवतद्रव्यं चिरं चक्रे जिनार्चनम् ॥२२॥ विवर्धमानभावोऽयं जिनपूजां दिने दिने । चारु चारुतरां चक्र तत्र विप्रो दिवाकरः ॥२७॥ 18| षण्मासशेषे संजाते तस्य विप्राय जीविते । प्रकृतेश्च विपर्यासाद् धर्मभावः क्षयं ययौ ॥५२८॥ (देवपूजाकारी दिवाकरो देवद्रव्यभोजी-) 18 ततो निर्डमभावत्वाद् देवद्रव्यं बुभोज सः । पूर्ण च जीविते मृत्वा बभ्रामाऽसंख्यशो भवान् ॥५२९॥ (स च दिवाकरो मृत्वा गुणाराम: श्वा जात:-) 18 भ्रान्त्वेत्थं विप्रजीवोऽत्र श्वानो गजपुरेऽजनि । देवद्रव्योपभोगो हि दुरन्तो निश्चितं भवेत् ॥५३०॥ तथाह्यागमः-(संबोधप्रकरणगत गाथाकदम्बकम्-) !eopootoCo00000ccornooooook00000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000 ॥२४ Jain Education national MOffainelibrary.org Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8"भक्खेइ जो उविक्खेइ जिणव्वं च सावओ। भक्षयति य उपेक्षते जिनद्रव्यं च श्रावकः । IR४५|| पुण्णहीणो भवे जो उ लिप्पए पावकम्मणा ॥ पुण्यहीनो भवे (भवेद् ) यस्तु लिप्यते पापकर्मणा ॥ आयदाणं जो भंजइ पडिवन्नधणं न देइ देवस्स। आयदानं यो भनक्ति प्रतिपन्नधनं न ददाति देवस्य । नस्संतं समुचिक्खइ सो वि हु परिभमइ संसारे। नश्यत् समुरेक्षते सोऽपि खनु परिभ्रमति संसारे ॥ चेईयदव्वं साहारणं च जो दुहइ मोहियमईओ। चैत्यद्रव्यं साधारणं च यो द्रुह्यति मोहितमतिकः। धम्म च सो न याइ अहवा बद्धाऊओ नरए॥ धर्म च स न जानाति अथवा बद्धायुष्को नरके ।। चेईयव्वविणासे तद्दव्वविणास दुविहभेए । चैत्यद्रव्यविनाशे तद्रव्यविनाशने द्विविधभेदे। साह उविक्खमाणो अणंतसंसारिओ होइ ॥ साधुमपेक्षमाण:-अनन्तसंसारिको भवति ॥ जिणप्पवयणवुद्धिकरं पभावगं नाण-दसणगुणाणं । जिनप्रवचनवृद्धिकरं प्रभावकं ज्ञान-दर्शनगुणानाम् । रक्खंतो जिणदव्वं परित्तसंसारिओ होइ ॥५३५॥ रक्षन् जिनद्रव्यं परीतसंसारिको भवति ॥२३५॥ ४ जिणप्पवयणबुद्धिकरं पभावगं नाण-दसणगुणाणं । जिनप्रवचनवृद्धिकरं प्रभावकं ज्ञान-दर्शनगुणानाम् । वढंतो जिणदव्वं तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥" वर्धयन् जिनद्रव्यं तीर्थकरत्वं लभते जीवः ॥३६॥४ इत्थं ज्ञात्वा जिनेन्द्रस्य द्रव्यं धर्मधनैर्जनः। येन केनाऽप्युपायेन वर्धनीयं सदैव हि ॥५३७॥ (विजयसेन-गुणारामयोः स्नेहकारणम्-) देवद्रव्योपभोगोत्थ-कर्मणा श्वानजन्मनि । जीवो दिवाकरस्यैषोऽवततार नरेश्वर ! ॥२३८॥ . 18 तथा विजयसेनस्य चित्ते स्नेहभरो महान् । पूर्वजन्मनि संभूत-बहुसंगतितो ध्रुवम् ॥५३९॥ हहो! विजयसेन ! त्वं यदा जिनमपूपुजः। तदा पूर्वभवाऽभ्यस्तः श्वानोऽसौ भृशमैक्षत ॥५४० 6॥२४॥ 2OOOOOOcroc0000000000000000000000ळivoroor 0000000000000000000000000000000000000000000000000 Jain Education into fational wwwsanelibrary.org Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ông भृशं ध्यायन्नसौ श्वानस्तदा श्रीजिनपूजनम् । पूर्वजन्म च सस्मार ध्रुवमासन्नसिद्धिभाग् ॥२४॥ एवं विजयसेनस्य श्वानस्य च पुराभवी । हही! सोमयशोराजन् ! अस्माभिः कथिताविह ॥५४२॥ ॥२४६॥ ४ सर्ग:-६ इत्युक्त्वा विरतस्याऽस्य पुण्डरीकगणेशितुः । प्रणनाम पुरोभूय श्वानः संविग्नमानसः ॥५४३॥ (गुणारामः उत्पुच्छयते-) अत्युत्पुच्छयमानेऽस्मिन् नताऽऽस्ये शुनके चिरम् । ऊचे विजयसेनोऽथ प्रभो ! किं कथयत्ययम् ? ॥५४४॥ पुण्डरीकः प्रभुः प्राह भषणो ह्येष भूपते । देवस्वस्वादजं पापं निन्दन्नस्तीति मानसे ॥५४॥ अन्योपायैरपि प्राप्ये हा! धने दुधिया मया। देवद्रव्यं समास्वाद्य स्वात्मा दुःखे निपातितः ॥२४॥ प्राप्त नरत्वे दुष्पापे हा! प्रोपे न मया शिवम् । दान-पूजाद्ययोग्योऽहं पशुरत्र करोमि किम् ? ॥५४७॥ (गृहीतमनानं गुणारामेण शुना-) 18 भवे पूर्वत्र भावेन प्रथमं यज्जिनोऽचितः। तेन मे पुण्यभावेन गुरुयोग्योऽधुनाऽजनि ॥५४८॥ गृहीत्वाऽनशनं तस्मात् संतोषामृतवारिधी । आत्मानं स्नपयिष्यामि पूर्व तृष्णाऽऽतपादितम् ॥५४९॥ 8 एवं विचिन्त्य श्वानोऽयं पार्थिवेवितिवादिषु (१)। श्रीपुण्डरीको राजर्षिर्ददावनशन शुनः ॥५५॥ मनसाऽनशनं नीत्वा सभायाः शनकोत्तमः। दरं गत्वा स्मरन्नस्थाद् मन्त्रं श्रीपारमेष्ठिकम् ॥५५१॥ 18 अथो विजयसेनोऽपि जाति स्मृत्वा पुरातनीम् । पार्श्वे श्रीपुण्डरीकस्य ययाचे व्रतमादरात् ॥५५२॥ भगवान् पुण्डरीकोऽथ प्रोचे विजसेन! भोः!। गच्छन्ति(च्छामः) स्मो वयं सिद्ध-पर्वतं प्रति संप्रति ॥४॥ (तीर्थानि- ) “अठ्ठावय-संमेए पावा-चंपाए उज्जलि नगे य। अष्टापद-संमेतेऽपापा-चम्पायाम् उज्ज्वले नगे च ।। १ आप धातोः कर्मणि रूपम्। NOVO NOOOOOOOOOO 000000000000000 GoomOOOOOOOOOOOOOO Jain Education Hernational wwtinelibrary.org Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७n 50000000000000000000000000000000000000000000000000 वंदित्ता पुत्रफलं सयगुणियं तं पि पुंडरीए ॥६५४३ वन्दित्वा पुण्यफलं शतगुणितं तदाऽपि पुण्डरीके ॥५५४॥ केवलनाणुप्पत्ती निव्वाणं जत्थ आसि साधणं । केवलज्ञानोत्पत्तिनिर्वाणं यत्र आसीत् साधूनाम् । सर्गः-६ पुंडरियं वंदित्ता सब्वे ते वंदिया तित्था ॥५५५॥ पुण्डरीकं वन्दित्वा सर्वाणि तानि वन्दितानि तीर्थानि॥8| पडिमं चेइयहरं वा सित्तंजगिरिस्स मत्थए कुणइ। प्रतिमा चैत्यगृहं वा शत्रुजयगिरेमस्तके करोति । मुत्तूण भरहवासं वसई सग्गे निरुवसग्गे ॥५५६॥ मुक्त्वा भरतवर्ष वसति स्वर्ग निरुपमर्गे ॥५५६॥ पूयाकरणे पुन्नं एकगुणं सयगुणं च पडिमाए । पूजाकरणे पुण्यमेकगुणं शतगुणं च प्रतिमायाम् । जिणभुवणेण सहस्सं अणंतगुणं पालणे होइ ॥ जिनभुवनेन सहस्रम् अनन्तगुणं पालने भवति । किंबहुना ? जं किंचि नाम तित्थं सग्गे पायाल-माणुसे लोए । यत् किश्चिद् नाम तीर्थ स्वर्ग पाताल-मानुष्यके लोके। तं सव्वमेव दिट पुंडरीए वंदिए संते ॥५५८॥ तत् सर्वमेव दृष्टं पुण्डरीके वन्दिते सति ॥५५८॥ अन्यच्च, पूर्व भुवनभानुस्त्वं मातङ्गप्रेष्यतादिभिः । दुःखात् क्षोणिपते: क्षीणकलुषः खलु तिष्ठसि ॥५५९॥ मन्दिरं मोहमदिरा-पूरितं परिहाय तत् । सुमनः! कुरु चारित्र-गङ्गायां स्नानमातरम् ॥५६०॥ (विजयसेनो मुनि:-) इत्यादेशं गुरोर्लब्ध्वाऽलुब्धबुद्धिर्भवे भृशम् । त्रिकोट्या सहितो निन्ये व्रतं विजयसेनरा॥ (गुणारामस्य मरणम्-) अथैकतानः स श्वानः स्मरन् पश्चनमस्कृतिम् । प्रथमानयशाः पृथ्व्यां प्रथमं कल्पमीयिवान् ॥५६२। गुणारामस्य श्वानस्य देहं सोमयशा नृपः। आशु संस्कारयामास चन्दनाऽगुरुवहुनिना ॥४६३॥ १ प्रतौ तु हे सुमनः । 1॥२४॥ 000000000000000000000000000000 Jain Educatiotternational Khainelibrary.org Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिका सर्ग: (गुणारामस्मृतये ससत्रो विहार:-) श्रीमान् सोमयशा नृपोऽस्य सुगुणैस्तुष्टः शुनः श्रेयसे श्रीनामेजिनेशविम्यसकलं श्रीपुण्डरीकस्य च । १२४८॥ मूर्त्या भूषितमुज्ज्वलं वरतरं प्रामादमुच्चस्तरं सत्रागार चतुष्टयेन च वृतं हर्षेण सोऽचीकरत् ॥५६४॥ 8 प्रासादे नृपतिविनिर्मितेऽथ तत्र संतोषात्किल मृगवेषः एष देवः ।। जैनेन्द्रार्चनममरा-ऽमरीपरीतः संगीतप्रभृतिभिरुत्सवं च च ॥५३५॥ (सिद्धाचलं जिगमीषुः पुण्डरीकः-) अहो ! अंहोहीनाश्चलत जवतः साधव इति स्व शिष्यानादिश्यामलविमलशैलेश्वरमभि । युगादीशस्याऽऽद्यो गणधरवरोऽभूजिगमिषु-जगदृष्टयुन्मेपोचतवचनकर्पूरकलसः॥५३६॥ (षष्ठः सर्गः-) श्रीरत्नप्रभसूरिसूरकरता दोषाभिषङ्गं त्यजन् यो ज जयस्थितिरप्य भूतप्रतिदिनंप्रासाद्भुतप्रातिभः तेन श्रीकमलप्रमेण रचिते श्रीपुण्डरीकप्रभोः श्रीशजयदीपकस्य चरिते षष्टोऽथ सर्गोऽभवत् ॥५६७॥ ॥ इति श्रीपुण्डरीकपुराणे श्रीविजयसेन-गुणारा प्रश्चानपूर्वभर वर्णनः षष्टः सर्गः ॥ -1000000000000000000000 30000000000000000000000000000000000000000000000000000 । सप्तमः सर्गः। ( श्रीपुण्डरीको मथुरा अगाम-) श्रीयुगादिजिनराज गुणेन्द्रः पुण्डरीकऋषिरेष महोजाः। साधुसंघसहितोऽवहितोऽन्त-राजगाम मथुरापुरपाश्चम् ॥१॥ 00000000000000000 १ अन्तःसावधानः । 1128C# Jain Education national Mininelibrary.org Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ సంరంతరం गुण्डरीक- ( भनः श्रेष्ट्री-) तत्र तिति धन्नो व्यवहाही दानवान् दम-दयाऽव्यभिचारी। २४९॥ नियम-प्रबहोरपीस माधुवन्दनको स. पुरीकः ॥ २ ॥ 18] ( देवदत्तः पुत्रः- ) देवदत्तमथ स. स्वतनज रूप-यौवनकलाकलिना। पुण्डरीकपदयो मनाय श्रेष्ठिराट् सह वदैव. निनाय ॥ ३ ॥ 18 स्वगि-साधुसमायसमेतं तं यति विमलशैलपथिम्नम्। भक्तितोऽथ स धनः प्रणिपन्य कुड्मलीकृतकरो निजगाद ॥ ४॥ ३ सद्गुरोऽत्र नगरेऽद्य गरेणोन्मूढमङ्गिनिचयं निजवाचा। चेतनान्वितमहो! सुधयेव त्वं जवात् समवसत्य विधेहि ॥५॥ 1 इत्यसो वचनमस्य मिशस्य यावदेव मनसा मुनिरस्थात् । तावदेव मणिपीठमकुण्ठो निर्ममौ हरिवेषसुरोऽपि॥8| (धनः पुण्डरीक पृष्टवान्-) निमितेऽमरवरैर्मणिसौधे संस्थिते सकलसाधुसमूहे । तं प्रभुं विमलपीठनिविष्टं पृष्टवानिति धनो व्यवहारी। (भूतिपुत्री विमला-) देवदत्त इति मे तनयोऽयं श्रेविनोऽन्न वसुभूत्यभिधस्य। पुत्रिकामुदवहद् विमलाख्यां कोमलां लवणिमाऽमलमूनिम् ॥ ८॥ (विमलायाः दुरभिगन्धत्वम्-) सद्विवाहविधितोऽध चतुर्थे वत्सरे मम वधरमैलाभा। - सर्वरोगरहिताऽपि नितान्तं साऽभवद् दुरभिगन्धशरीरा ॥९॥ १.रेरितः। निणो देवाः समः। ४. मोनिषेण । ५ निर्मल कान्तिः । 0000000000000000000000000000000000000 00000000000000000 రెండు Jain Education national womainelibrary.org Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक॥२५०॥ DooGORS000000000000000000000000000000000doa औषधेषु विविधेषु तदङ्गे लेपितेषु यहुशोऽपि सुवैद्यः ।वृद्धिमेव तद्गाद् दुरभित्वं पापिनीव नृपतावपकीतिः॥ चरित्रम् विस्तृतेऽखिलपुरेऽथ कुगन्धे तां नरेन्द्रवचनेन वधूटीम् ।मुक्तवान् द्रुतमरण्यकृतेऽहं धामनि प्रचुररक्षकयुक्तम्॥ तदिनाद् मम सुतोऽद्भुतदुःखात् त्यक्तचारुशयना-ऽऽसन-भोज्यः। वत्सराष्टकमसाविति यावन्मलानघूर्णनयनोऽतिनिनाय ॥१२॥ किं बहना? सा कुगन्धतनुरस्ति वधूः किं स्नेहवान् मम सुतश्च किमस्याम् । त्वं प्रसद्य मनसि स्थितमद्य संशयं हर तमोहरमूर्ते ! (अवदत् पुण्डरीकः ) सोऽवदन्निजकृतश्रवणाय तामिहाऽऽनय वधू व्यवहारिन् । ऊचिवानयमथाऽतिकुगन्धामानयामि कथमत्र सभायाम् ॥१४॥ श्रेष्ठिना निगदिते वच एतद्धषितो हरिणवेषसुरोऽसौ । पुण्डरीकचरणौ स्नपयित्वा दिव्यनीरभरमार्पयदाशु॥४ स्वां स्नुषां मुनिपदस्नपनेनाऽनेन सिश्च दुरभित्वविभित्यै । सोऽमरस्तमनुशिष्य मुदैवं श्रेष्ठिनं परिषदो विससर्ज ॥१६॥ (दुरभिगन्धशरीरा विमला श्रीपुण्डरीकपदस्नपनेन सुगन्धशरीरा सती तत्सदसि आगता-) पुण्डरीकपदनीरनिषेकात् स्वां स्नुषां शुचिसुगन्धशरीराम्। आनयत् सदसि तत्र धनोऽसौ पूर्वजन्मकृतसंश्रवणाय ॥१७॥ (आललाप पुण्डरीकः- ) दु:खितां कृतनमस्कृतिमेतां कोरकीकृतकरां विनिविष्टाम् । संनिरीक्ष्य विशेषदयालुराललाप कलंगीमुनिराजः ॥१८॥ १ सप्तम्यन्तम् । २ क्रियाविशेषणम् । ३ मधुरभाषायुतः। ॥२५॥ OOOOOOOXOoOooooooOOO Jain Education national For Private & Personal use only www.tainelibrary.org Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ला DO NOOoOOOOOOOOOOOO जन्म विमलाभिधवध्वा देवदत्ततनयस्य च सर्वम् । चरित्रम् त्वं शृणु स्थिरमना व्यवहारिन् ! पाप-पुण्यफलनिश्चयनाय ॥१९॥ ४ सर्गः-७ (प्रखपुरम, महसेनः, वसुमित्रः, कीर्तिमती-) भो! विदेहभुवि शङ्खपुरे प्राग भूपतिः समभवद् महसेनः। निर्धनो वणिगभूद् वसुमित्रः कीर्तिमत्यजनि तस्य कलत्रम् ॥२०॥ (विमलबुद्धि-सुबुद्धी पुत्री- तत्सुतौ विमलवुद्धि-सुवुद्धी तिष्ठतो निजवधूद्धययुक्तौ । निर्धनावतिधनाध्यवसायं सर्वदा विद्धतावपि गाढम् ॥२१॥ (कीर्तिमतःस्वप्न:-) अन्यदाऽस्य वणिजोऽथ दरिद्रस्याऽपि धर्मनिरतस्य तु भार्या । हरितराजमधिरूपमपश्यद् वीतरागममलं निशि सुप्ता ॥२२॥ प्रातरुत्थितवती निजभर्तुः पार्श्वमेत्य किल कीर्तिमती सा। वक्ति यावदतिफुल्लविनेत्रा तावदाश्वजनि तु क्षुतमग्रे (स्वप्नपाठकः-) तन्निशम्य पुरतः क्षुतमेषा स्वप्नमेनमनिगद्य तदने। चारपुष्पफलपूरितपाणिः स्वप्नपाठकसमीपमियाय ॥२४॥ स्वप्नमेनमनया अभिहितं स स्वप्नविद् निगदति स्म विचार्य अङ्गजस्तव भविष्यति भूपःसर्वलोचनमदादरूपः४ स्वप्नपाठकममुं पुनरेषा श्रेष्ठिनी प्रमुदिताऽथ बभाषे । किं प्रियस्य पुरतो निगदन्त्या मे क्षुतं कथमभूत् कथयति॥ २६ ॥ BOOPOONOMOOOOOOOOOOOOOOOOOOO05000000000000000 OOOOOOOOo9 धुतम्-छी-छिंक। ॥२५॥ Jain Educati e mational ainelibrary.org Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२५॥ सर्ग: pawoooooooooooooncCOOOOO000000000000000000daee सोऽप्युवाच शृणु सुन्दरि! शीघ्रं यत् क्षुतं तव पुरो हि तदाऽभूत् । पुत्रराजसमये पितृमृत्युं सूचयत्यहह ! तद् दुरुदफैम् ॥२७॥ स्वप्नपाठकवचस्त्विति सर्व संनिशम्य धृतहर्ष-विषादा। मन्दिरं स्वामियमेत्य सुखेनाऽपूरयत् सकलगर्भदिनानि ॥ २८ ॥ । कीर्तिमती सपवे सतम्- साऽथ पूर्णसमये परिपूर्ण सोमसौम्यसुभगं सुभगाङ्गम् । नन्दनं प्रसुषुवे जननेत्राऽऽनन्दनं प्रमुदितोच्चमुहूर्ते॥ बालनालमथ तत्र निधातुं धान्य उल्लिलिखुराशु सुधांत्रीम् । स्वर्णपूर्णकलशः किल तूर्णमुन्ममन च तदा प्रमदाय ॥३०॥ (गज इति नाम पुत्रस्य-) हैमकुम्भमथ तं समवाप्य वर्धमानधन-धान्यसमूहः। श्रेष्ठिराट् स बिधे विधिनाऽस्य स्वाङ्गजस्य गज इत्यभिधानम् ॥३१॥ पूर्वशैलशिखरस्थ इवार्कः कल्पवृक्ष इव मेरुशिरस्थः । ज्योतिषा च वपुषा निजवंशेऽनुक्षणं प्रववृधे शिशुरेषः४ (गजो युवा--) सर्वशास्त्रनिचये समधीती सत्कलासु विदिती सकलासु। संगती सरलसाधुसमूहे यौवनं शुचिवयाः स समूहे ॥३३॥8 (गजस्य प्रतापः-) दानतः सुकृततोऽथ यथाऽत्र तत्प्रताप उदयं समवाप । भ्रातरौ सु (स्व) मनसः कुमुदत्वं चक्रतुर्ननु तथा जडतोत्थम् ॥३४॥ . दुष्ट. उदको यस्य तद् दद्रकम्-तत। २ मभूमिम् । ३. सुमुदवहत् । ४ कुत्सितं मुदत्वमपि । ५ जलतोत्थमपि । Bhaan १२ 300000000 Jain Education international www.ainelibrary.org Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दशाध्यममलं कुलदीपं सोदरौ हृदि यथा दधतुस्तम् । एतयोहदि महामलिनत्वं मन्दमन्दमुदियाय तथोग्रम्॥ বসি१२५३॥ ..(गजप्रतापमसहमानौ तस्य ज्येष्ठी प्रातरी-) अन्यदा रहसि तो पितरं स्वमित्थमाहतुरितीव सरोषो। सर्गः-७ अर्जयाव इह सद्धनमायां दुर्व्ययं तु कुरुते लघुरेषः ॥३६॥ अर्णवोत्तरणमीश्वरसेवां दुर्गमार्गगमनं सुधियोऽपि । यत्कृते विद्धते हि धनं तत् दुर्पियो विगमयन्ति मुधा हि ॥३७॥8 येन बन्धु-नृप-मन्त्रिषु मानं यच्च भोग-सुभगत्वनिधानम् । यच्च दुस्समय-दुःखविनाशि तद्धनं न निधनं नयनीयम्॥३८॥ बाल एष तु यथा धनहानि लीलया प्रतिदिनं विदधाति । आवयोमनसि तात! तवैवाऽदीप्यतो यह विषादहताशः ॥३९॥ श्रेष्ठयुवाच तनयो लघुकोऽयं सोदरोऽपि युवयोः शुभदृष्टया । दानतोऽतिमहितो नगरे यत् तद् यशो निजकुलस्य पवित्रम् ॥४०॥ ( सजनको गजो ज्येष्ठभ्रातृभ्यां पृथक्कृतः) चेद् भवेन्न युवयोर्हदि सौख्यं तत् पृथकुरुत तं द्रुतमेतम् । इत्यवाप्य जनकस्य वचस्तो चक्रतुः स्वधनपञ्चविभागान् ॥४१॥ ४ ऊचतुश्च जनक ननु तात! त्वं भविष्यसि तु कस्य गृहान्तः। श्रेष्ठिना निमदित लघुपुत्रस्योकसि स्थितमहं प्रविधास्ये ॥४२॥ 285800COMMOD00000000000000000000000000000000000 SEESHDOO0000000000000000www.000000000000000 पेदि ते गवाक्षे मालिय जामते-भत्तोत्र कुलदीप-दीपयोः साम्यम् । २ अदीपि। ३ गृहे। R५३० Jain Education national jainelibrary.org Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम्. सर्गः-७ ४ अन्डरीक-8 तो गजाय जनकाय जनन्यै त्रीनिति प्रददतुर्धनभागान् । ॥२५४॥ अत्र चाह गज एष कुमारो नात्मभागधनमस्मि नयामि ॥४३॥ पूर्वजन्मनि कृतं सुकृतं स्यात् यद् धनं बहु भवेदधनस्य । अन्यथा निजजनैरपि दत्तं याति पाणितलतश्चपलत्वात् ॥४४॥ सोदरावपि युवा कुरुतश्चेद् दूरगं निरपराधमपीह। श्रीरियं सहजचापलयुक्ता दूरयिष्यति कथं न हि मां तत् ॥४५॥ (गजेन न गृहीतः स्वधनविभाग:-) एवमेव स निगद्य वितीर्य स्वं धनं निजसहोदरयोस्तत्। संयुतोऽथ जनकेन जनन्या तस्थिवान्निजगृहे गज उच्चैः ॥४६॥ स्लान निर्मलतनुः शुचिवासाः प्रातरेव परिपूज्य जिनेन्द्रम् । नित्यशो नवनवैः शुचिकाव्यैः स्तौति शुद्धहृदयो हृदयालुः ॥४७॥ (गजस्य मातापितृसेवा- ) भक्तितः समशृणोद् ममृणोऽन्तः साधुराजवदनाजिनधर्मम् । आरराध पितरौ च विनीतः सोऽनिशं सुभविको भवभीतः॥४८॥ ( गजस्य धनार्जनाय प्रवासेच्छा--) अन्यदा खजनकं स जगाद मां धनार्जनविधौ विसृजाऽऽशु । वुद्धयते पितृधनस्य च भोगो मातुरङ्गशयनं च न यूना ॥४९॥ श्रेष्ट युवाच लघुरेव कुमारो देहि भुक्ष्व च धनं त्वमदोषः। 20000000000000000000000000000000000000000000 2000WOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOwom00000000000000MMON १ अहमर्थे । २ अन्तः कोमलः । ॥२५॥ Polijainelibrary.org Jain Education national Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक त्रम् Oh oh १२५५॥ oooooooooooooooooooo002 सोऽवदत् पितरहं धनहेतोर्याम्यवश्यमुदधौ वहनेने ॥५०॥ गच्छतो मम कदापि समुद्रे दुर्गमे भवति चेदय विघ्नम् । धर्मकृत्यमिह किं विदधामि त्वत्प्रियं तदधुना वद तात! ॥५१॥ (प्रवासमङ्गलाय जीर्णजिनगृहोद्धारः- ) धर्मकृत्यमतुलं तव वाक्याच्चेद् विधाय जलधावपि यामि। ते सुखं मनसि मे व्रजतः स्याच्छम्बलं परभवे च भवेत्ते इत्थमङ्गजवचः स निशम्य श्रेष्ठयुवाच मुदितः शृणु वत्स!। मित्रमत्र मम स व्यवहारी श्रीधरः समजनिष्ट विशिष्टः ॥२३॥ 8 तेन पुत्ररहितेन सुभावात् कारितं जिनगृहं गुरु चारु । दुस्समीरणसमीरणतस्तज्जरं समभवत् समयेन ॥५४॥ वत्स! तन्मम वयस्ययशोवद् जैनगेहमिदमुखर पुण्यम् । स्यां यथाऽहमनृणोऽस्य च सख्यात् त्वं सुपुत्र ! भव पुण्यनिधिश्च ॥५॥ इत्यवाप्य वचनं स्वपितुस्तद् जैनमन्दिरमसौ गजराजः । उद्दधार कनकस्य सुकुम्भैः सस्मिताऽऽननसहस्रमिवोच्चैः ॥ (गजजनकेन कृतं तपः-) वासनाशुचिमना वसुमित्रवेष्टिराद् विहितवानुपवासान् । अष्ट चाष्ट दिवसान् स गजोऽपि निर्ममौ विततमुत्सवमत्र ॥५७१ प्रमहणेन । ३ पायेयम् । ३ ते-तक। 0000000000000000000000000000000000000000000000000 8॥२५ 2w.jainelibrary.org Jain Educatio fernational Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥२५६ ॥ ४ १२ pcooooc 2000000000 ( तपसः पारणे भोजनोत्सव :- ) पारणस्य दिवसेऽथ गजोऽयं धर्मिणो नु विजनानभिमन्त्रय । बन्धुवर्गमखिलं च गृहे स्वेऽभोजयद्- विविधभक्तिभरेण ॥५८॥ (ज्येष्ठभ्रातृभ्यां दत्तं विषं गजस्य - ) पारणेऽथ विहिते निजपित्रा भोजनं विदधतोऽस्य गजस्य । भ्रातरौ गरलमिश्रित घोलं भाजने निदधतुर्हदरोषी ॥ ५९ ॥ गर्वतः श्रुतमहो ! कृपणत्वात् श्रीभरः सुमहिमाऽनृतवाक्यात् दम्भतः सुकृतिता नृपसेवा दृष्यते ननु यथाऽतिजडत्वात् ॥ ६० ॥ ( पीतविषमिश्रघोंलो गजो विचेता:-) दूषितं गरलतः किल घोलं तत् तथैव निपपौ स च यावत् । म्लानघूर्णितमुखा -ऽङ्क्षिपयोजस्तावदेव समभूद् गतचेताः ॥ ६१ ॥ सर्वसाधुहृदयानि गृहीत्वा गच्छति द्रुततरं परलोके । आकुलः कलकलः किल लोकस्याssकुलस्य तदैव प्रससार ॥ ६२ ॥ तत्र जाङ्गुलिक - मान्त्रिकवैद्यान् यावदाह्वयति सज्जनवर्गः । Jain Education national तावदेष विनिमीलितनेत्री नीलमूर्तिरपतद् वसुधायाम् ॥६२॥ बन्धुवर्गसहितो वसुमित्रः श्रेष्ठिराड् विपुलदुःखभृतोऽन्तः । रोदिति स्म किल तद्गुणरत्नश्रेणिमेष गणयन्निव साराम् ॥६४॥ चारुता चतुरता प्रशान्तता धर्मिता प्रणयिता पवित्रता । भोगिता सुभगता गुणज्ञता दानिता भवति गीति याति ही ॥ ६५ ॥ १ निजपित्रा सह । २ अक्षिकमलम् । ३ सप्तम्यन्तम् । चरित्रम्सर्ग: ७ ॥२५६॥ ainelibrary.org Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्ग ( आगतः कश्चिद् दिव्यो मयूर:-)इस्थमत्र विबुरे वसुमित्रवेष्ठिनि प्रलपति स्वजने च । चित्तचित्रजननोऽतिविचित्रो व्योमतोऽवतरति स्म मयूरः ॥१६॥ ॥२५७॥ विस्मयेन नयनानि जनानां निर्मितानि विनतानि तथोच्चैः। निस्ससार सहसैव स शोकः पीबरोऽपि च यथा हृदयेभ्यः ॥३७॥ हेमभूषणविभूषितकण्ठो व्यात्तपक्षनिचयः स मयूरः। मूछितेऽथ गरलेन गबाले दिव्यनीरकणिकाः प्रववर्ष । (मयुरेण गजः सचेताः कृतः-) विस्मितस्तिमितदृष्टिभिरुच्चैर्वीक्षितः सपदि दिव्यमयूरः। तं गजं समभिषिच्य पयोभिनिविषं विहितवान् हितबुद्धिः ॥६९॥ जम्भमाणवदने स्मितनेत्रे प्रोत्थितेऽथ गजनाम्नि कुमारे । उत्सवो रविरिवाऽभ्रषिमुक्तो बन्धुहर्षभरतः प्रदिदीपे ॥७॥ किं गजस्तरलितो गरलेन को मयूर इह किं समुपेतः। किं जहार विषमं विषमित्थं व्योपमाप हदि संशयवल्ली ॥७२॥ इतश्च- (राज्ञा महसेनेन श्रुता दिव्यवाणी-) भूपर्ति सपदि जागरयन्ती निर्मलं नयपथं च दिशन्ती। अन्तरिक्षतलतोऽतुलतोषा गीरभीरसुरभीरतराऽभूत् ॥७२॥ 18"शासति त्वयि भुवं महसेनक्षोणिपाल ! समभून्नयलोपः । ___तद् व्रजामि नगरात् तव शीघ्रं नैव पातकमिहेक्षितुमीशे" ॥७॥ 50000000000000000000000000000000000000000 5000000000000000000000000000000000000000000 १ प्रसारम् । २ अभी:-भयरहिता । ३ असुराणो भियं ईश्यति अतिशयेन सा भसुरभीरत।। २५७० Jain Education kite national Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परित्र सर्ग:-७ पुण्डरीक- ( राज्ञा सर्वे पौरमुख्या आहूताः-) सबसिदिस मिशम्य स्मापतिः पतिलगमलोऽन्तः । ॥२५८॥ ४॥ लानतः सुवसनानि वसानोऽजूहवत् सकलपत्तनमुख्यान् ॥७४॥ सर्वपौरसहितोऽथ गजोऽयं केकिनं च कलयन् करप । द्वारपालविनिवेदितमागोंऽभ्येत्य तं नरपति प्रणनाम ॥ ७ ॥ ( तस्य दिव्यमयूरस्य वृत्तान्तम्-) 'को मयूरः' इति भूपतिपृष्ट तं जगाद स गजो नरराजम् । बन्धुरं गरहरं मम बन्धुरङ्गन्दं ह्यमुमवैमि न चाऽन्यत् ॥७॥ (समहसेनाः सर्वे यक्षमन्दिरे गताः-) इत्युदीरितमथाऽस्य निशम्य नागरान्नरपतिनिजगाद । मत्पुराधिपमहेश्वरयक्षस्याऽर्चनाय चलत स्थिरभक्त्या ॥७७॥ 8 इत्युदीर्य वरपौरपरीतो वाजिनं समधिरुह्य नरेन्द्रः। आययावथ महेश्वरयक्षस्यालये सफलशीलपरीते ॥ 18 तं सुरं नरपतिः परिपूज्य कुड़मलीकृतकरोऽवददुच्चैः।। यक्षराज! मम पत्तननाथ ! ब्रूहि दुर्नय इहाऽस्ति क एषः ॥ ७९ ॥ ततश्च- ( यक्षवाणी-) मौलिमूलविलसन्मणिमूलिश्चण्डकुण्डलविमण्डितगण्डः। हारहारिहृदयोऽथ सुयक्षः प्रादुरास सुविहासविलासः ॥८॥ यक्ष एष वसुधाधिपमूचे त्वं नरेन्द्र ! वचनं शृणु सर्वम् । प्राग् मया रजतशैलगतेन केवली ललितमूर्तिरवन्दि ॥८॥ 000000000000000000000000000 OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO १ विषहरम् । २ बन्धुहर्षदय । SHRA८॥ Jain Education Bernational oojainelibrary.org Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥२५९॥ ४ १२ ( खेचरो रूपचन्द्रः - ) रूपचन्द्र इति खेचरराजोऽभ्येत्य तं यतिवरं प्रणिपत्य | पृष्टवान् मम यतो रजताद्रि-स्वामिताऽजनि कुतोऽद्भुतपुण्यात् ॥ ८२ ॥ ( रूपचन्द्रः श्रीधरजीव:- ) साधुराह भवता जिनगेहं श्रीधराख्यभवमाश्रयताऽग्रे | कारितं सुगुरुशङ्खपुरे यत् तेन तेऽजनि विभुत्वमुग्रम् ॥८३॥ तत् क्रमेण पतयालु च जीर्ण त्वद्वयस्यतनुजेन गजेन । उद्धृतं निजधनव्ययमुग्रं संविधाय विधिना विविधेन ॥ ८४ ॥ हा !! ह ! ! हाय सुकृती स गजोऽपि व्याहतोऽस्ति गुरुणा गरलेन । प्रायशो रुचिरवस्तुषु विघ्नं जायते न हि कुवस्तुषु विश्वे ॥ ८५ ॥ साधुवाक्यमिति सोऽपि निशम्य क्ष्मापतिर्दुलमुवाच वचस्वी | बन्धुरेव मम स व्यवहारी बन्धुरेण सुकृतोद्धरणेन ॥ ८६ ॥ ( विजयादेवदत्तो मयूर:-) तुष्टया विजयया मम देव्याऽस्त्यर्पितो गरहरः सुमयूरः । तं गजस्य विषविघ्नविनाशे प्रेषयामि मुनिराज ! जवेन ॥८७॥ इत्युदीर्य स तु दिव्यमयूरः प्रेरितः खचरभूपतिनाऽत्र । आगतोऽतिजवतो ग (नि) जदेहात् संजहार विषमं विषमान्यम् ॥८८॥ पृष्टमत्र च मया मुनिपार्श्वे केन तस्य गरलं ननु दत्तम् ? । साधुराह तददायि गजस्य प्रौढवान्ववयुगेन तु कोपात् ॥ ८९ ॥ Jain Educationmational 0000000 चरित्रस्सर्गः - ७ ॥२५९॥ jainelibrary.org Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥२६०॥ ४ ८ १२ Jain Education 000000000 ( विषदायकाः वया इति यक्षाचः - ) इत्थमत्र वचनं मुनिनोकं संनिशम्य गुरुरोषधरोऽहम् । पापयोर्विषयोः कदनार्थमागतोऽत्र गजरक्षणहेतोः ॥९०॥ भूमिनाथ ! तदिमावतिपापो सागसौ सुकृतिनि स्वकबन्धौ । भासुराशय ! विनाशय भासुराशयः स्युरमलाश्च यथा ते ॥९१॥ ( गजस्य ओदार्यम् ) इत्युदीर्य विरते सुरराजे रोवरूक्षनयने नरनाथे । साहसी म सहसाऽऽह हसित्वा धर्मवानथ गजो व्यवहारी ॥ ९२ ॥ यक्षराज ! भुवने भविनां या दुःखराजय इह स्युरुदग्राः । पूर्वजन्मकृतदुष्कृतवृक्षस्यैताः फलमहो विजयन्ते ॥ सर्वदायिनि जने सुखदेये सर्वदाऽप्यपुरुषाः पुरुषास्ते । येsपि दुःखजनने कुजने स्युस्ते वहन्ति पुरुषोत्तमतां तु ॥९४॥ चेत् प्रसन्नहृदयोऽसि मयि त्वं सांप्रतं स्वकृपयैव कृपालो ! | सोदरौ सुकृतसादर ! मेsय रक्ष रक्षणविचक्षण ! यक्ष ! ॥ ९५॥ दैवते त्वथि नृपे महासेने भाग्यतो मम च संप्रति तुष्टे । चेत् करोमि न हि बान्धवरक्षां तत् कदा प्रविदधामि सुरेन्द्र ! ॥९६॥ इत्युदीर्य विरतेऽथ गजेऽस्मिन् भूपतिः प्रमुदितोऽन्तरुवाच । सर्वलोकपरितोषविधात्री निर्मला जयति सज्जनवृत्तिः ॥९७॥ emational १ सापराधौ । २ भाः - कान्तिः, तस्याः सुराशयः - समूहाः । 00000000000∞∞∞XX बरिष सर्ग: ७ ॥२६०॥ ainelibrary.org Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥२६१॥ ४ “ १२ (सजनस्वभाव:-) हेमन्ते सलिलं वसन्तसमये दध्यादि दौष्ट्रय भजेत् चञ्चचन्दन - सान्द्रचन्द्रकिरणस्पर्शो वियोगे पुनः। शीतं स्नेहयुतं यशः सुरभितं माधुर्यधुर्य सुखं सन्तः संततमेव हन्त युगपद् यच्छन्ति संगान्निजात् ॥ ९८ ॥ दक्ष ! चित्तकपिबन्धनदाम धर्मबुद्धिललनारतिधाम । सर्वदा सुवचनैरभिरामः सज्जनो जयति पूरितकामः ॥ सज्जनस्य तव वागुपरोधाद् दुर्जनावपि भृशं नहि हन्मि । किन्तु देशमखिलं मम हित्वा गच्छतां द्रुतमिमावतिपापौ ॥ १०० ॥ ( तयोर्विषदायकयोर्देशाद् निर्वासनं कृतम् - ) इत्यवाप्य वचनं वसुधेन्दोस्तौ ततो नगरतस्तलरक्षः । दुर्बलः शबलितौ जनलक्षैर्निन्दितो स निरसारयदाशु || १०१ इतश्च— (खेचररूपचन्द्र-मद्द सेननृपयोः समागमः - ) कर्णतर्णकमदाय सुदु (र्व ) त्वं (?) चित्तषट्पदमुदं परपद्मम् । आविरास सरसं सुरमार्गात् किङ्किणीक्वणितमद्भुतमारात् ॥ १०२॥ कुन किङ्किणिगणक्वण उच्चैर्यावदेवमवदन्नरदेवः । तावदेव गगनेऽत्र विमानान्याविरासुरमलप्रतिभानि ॥ १०३ ॥ एकतोऽतिगुरुतोऽथ विमानाद् रूपचन्द्र इति खेचरराजः । वेगतः क्षितितलं समुपेत्याऽऽलिङ्गति स्म नृपतिं महसेनम् ॥ १०४॥ ( खेचरेण स्वपुत्री प्रियमित्रा दत्ता गजाय - ) जीर्णजैन भुवनोद्धरणेन भूपते ! मदुपकारकरोऽयम् । सोदरी महमतः प्रियमित्रां दातुमागत इहाऽस्मि गजाय ॥ १०५ ॥ एवमस्तु' नृपतेरिति वाक्यं प्राप्य खेबरषतिः प्रमदाढ्यः । Jain Education national निर्ममौ किल तयोः सुविवाहं कान्तिभिः कलितयोर्ललिताभिः ॥ १०६ ॥ परिम् सर्गः - ७ ॥२३१॥ jainelibrary.org Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-8 तद्विवाहनविधावथ पूर्णे तो निवेश्य व सुवर्णनिवासे । |२६२ ॥ ४ ८ १२ 00000000000 खेचरोऽक्षयनिधिं च समर्थ्य पत्तनं निजमगाद् रजताद्रौ ॥ १०७॥ निर्मातुललालिषु केलिं लीलयैव कलयन् गजराजः । कल्मषैरकलुषः कलमूर्तिः कालमाकलयति स्म कियन्तम् ॥ १०८ ॥ ( गजपार्श्वे आगतः कश्चिद् मालाकार:- ) पुष्पकालदिवसेष्वथ पुष्पांजीवकः सुरभिपुष्पसमूहम् । नूतनं गजकुमारवराय प्रौढया निजमुंदोपनिनाय ॥ १०९ ॥ पुष्प संचयभवा गजराजः श्रेष्ठिनः स्वपितुरन्तिकभाजः । Jain Educationmational सोssढौकदमलाः किल मालाकारपाणितलतोऽखिलमालाः ॥ ११०॥ स्वाऽङ्गजेन विनयादथ दत्तां स्वां गजेन कुसुमस्रजमेषः । श्रेष्ठिराद निजकरेण विगृह्य जिघ्रति स्म मुदितः किल यावत् ॥ १११ ॥ (मालाकारदत्तपुष्पात् सपार्नगमनेन गजपिता मृतः - ) तावदेव कुसुमस्रजि लीनो राजिलो गरधरो गरलोग्रः । श्रेष्ठिनं झटिति तं स्थिरनाशादेश एवं दशति स्म स दैवात् ॥ ११२॥ तस्य दंशवशतः पितरं स्वं परोंशुमवगत्य गजोऽयम् । दुःखितो भृशमतर्कि वज्राहतेरिव बभूव हृदन्तः ॥ ११३॥ ( पितृमरणाद् आत्मानं जिघांसुर्गजो हठाद् जीवितः ) हा ! मयैव कुसुमानि समर्प्य द्रोह एष विहितो जनकस्य । १ माली । २ मुदा । ३ मासाभागे ४ परासुमं गतप्राणम् । चरित्रम्. सर्गः - ७ ॥२६२॥ anelibrary.org Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२६॥ सर्गः-७ 050030000000000000XOCOOC2930000000000 इत्युदीयं तनुमेव जिघांसुं श्रेष्ठिनी तमवरुध्य जगाद ॥११४॥ ज्ञानिना मम पुरोऽपि पुरैतत् व्याहृतं तनय! तिष्ठति भाव्यम् । त्वत्पतेश्च मरणात् तव पुत्रस्योदयो ननु भविष्यति वत्स ! ॥११॥ (गजपितुरुत्तरकृत्यम्-) इत्यवाप्य जननीवचनानि चक्रिवान् स्वपितुरुत्तरकृत्यम् । स्यान्नरः सुवचसा हि विशोको वायुनेव शशभृद् विगताभ्रः ॥११६॥ ( स एव मालाकारः राज्ञे पुष्पाणि ढौकते-) अत्र चेव समये किल पुष्पाजीवकोऽभिनवपुष्पसमूहम् । आनिनाय महसेननृपाय ढोकते निजसमाजगताय ॥११७॥ यावदेव गुरुपुष्पकरण्डं भूपपादपुरतः स मुमोच। श्रेष्ठिमृत्युदमहिं किल तावद् मन्त्रिणः कुसुमनिर्गतमूचुः ॥११८॥ ('पुष्पनिर्गतसपेण गजपिता मृतः' इति राज्ञे सभ्यैः कथितम्-)भूपतिस्तत उवाच कथं स श्रेष्ठिराट् गजपिता कुसुमोत्थात् सर्पतो मृतिमवाप ततो ही मृत्युरेव सुलभः खलु लोके ॥११९॥ (गजपितुमरणं श्रुत्वा राजा विचिन्तयति-) जन्मिनो जगति यत् किमपीह विभ्रते सुखकृते स्वशरीरे । धिक तदेव कुरुतेऽकरुणोऽन्तजीवितव्यविधौ विधिरेषः ॥१२०॥ रक्षितुं क्षितिभृतोऽक्षतधैर्याः स्युः क्षमा क्षितिमिमामसुरक्षाम् । एकतोऽपि रिपुतोऽन्तकतस्तु कुर्वतेऽत्र न निजामसुरक्षाम् ॥१२॥ SOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO000000000000000000000000003 १ प्राणरक्षाम् । ॥२६३॥ in Education Kriainelibrary.org Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२६४॥ 8000000000000000000000000000000000000000000000000000 इत्यनेकविधविश्वविरागं चिन्तयन् मनसि तत्र दिनेऽसौ । पूजनादि च जिनस्य विधाय सौख्यतो निशि नृपः स्वपिति स्म ॥१२२॥ कोमले नरपतिः शयनीये सोऽनुभूय शयनोद्भवसौख्यम् । १९१४ सर्गः-७ उत्थितो रजनितुर्यविभागे चिन्तितैरजनि संयुत एवम् ॥१२३॥ ( अपुत्रो राजा गजमेव राज्येऽभिषिञ्चति-) नैव दैववशतोऽस्ति सुतो मे मां च मज्जयति वार्धकवाधिः। गोत्रिणोऽप्यजयिनो निखिलास्ते राज्यमहति न जन्तुरनहः ॥१२४॥ यतः- भूपतावसुकृताश्रितचित्ते मन्त्रितामनयिनि श्रुतहीने। यस्तपस्विगुरुतामनृताये स्थापयेत् स लभतेऽतुलदुःखम् ॥१२॥ यद्गुणो भवति राज्यधरोऽयं तद्गुणं विमलराज्यमपि स्यात् । __यत्र तु स्फुटविभः स्फटिकः स्यात् तन्निभां किमु विभा न विभति ॥१२६॥ धर्मनिर्मलविभं नररत्नं रत्नसूकुलवधूमुकुटेऽस्मिन् । स्वे पदे कमहमद्य विधाय सत्कलाद इति कीतियुतः स्याम् ॥१२७॥ आः स तिष्ठति गजोऽङ्गाजवद् मे राज्यमेतदथ तत्र निधाय । स्वं भवं विमलयामि तमग्नं दीक्षया विमलयाऽमितपुण्यात् ॥१२८॥ चेतसीति सरसे स रसेशो निश्चिकाय शुचिकाय-मनस्कः। १ रत्नसू.-पृथ्वी । २ रसाया-भूमेः ईशः । Blainelibrary.org 0.00000000000000000000000000000000 Jain Education formational Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक॥२६५॥ 00000000000000000000000000000000000000 तावदेष तरणिनिजपादैः प्रेर्य रात्रिमुदियाय दिनाय ॥१२९॥ ( दीक्षा प्राप्तो राजा-)प्रातरेव नृपतिर्महसेनस्तं गर्ज प्रमुदितं निजराज्ये। उत्सवेन स निधाय जिनोक्तं मुक्तिमार्गपथिकत्वमवाप ॥१३०॥ (मृता कीर्तिमती श्रेष्ठिनी ) सर्वदैव दृढदैवविभावं संविभाव्य भवमस्थिरभावम् । श्रेष्ठिनी च किल कीतिमती सा मुक्तिमाप तपसा गतपापा ॥१३॥ ( राज्य पालयीत गजः-) नीतिनिर्मलमना गजभूपो नित्यनूतनविवेचनपूतः। प्राज्यपुण्यविधिपुण्यतरं तद् राज्यमेष परिपालयति स्म ॥१३२॥ (प्रीष्मे गजस्य जलकेलि:-) अन्यदा स तपतु दिनेषु तापनोत्तपनतापितगात्रः । केलिपल्वलगतो जलकेलि कामिनीजनयुतो विततान ॥१३३॥ निर्मले सरसि कोकिलयुग्मं कौतुके स रसिको नरनाथः । पश्यति स्म च पुरः प्रियमित्रां स्वप्रियां प्रमुदितो निजगाद ॥१३४॥ वक्षसि स्थितवतोः कुचयोस्ते हकूपुर सुदृढयोरपि लक्ष्मीम् । हाऽपहृत्य वलितं स्वकराभ्यां धारयामि वद कोकिलयुग्मम् ॥१३५॥ (विभक्त कृतं कोकिलयुग्मं गजेन-) इत्युदीर्य जलमज्जननेत्राऽलक्ष्य एष नृपतिः प्लेवदक्षः। चक्रवाकयुगलं करयुग्मे सोऽग्रहीत् कमलकोमलमध्ये ॥१३६ 00000000000000000000000000000000000000000000000000 १ प्लबमाननेत्रः। Jain Education national Nainelibrary.org Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२६६॥ 30000000000000000000000000000000000 SOOOO0000000000000 चक्रवाकयुगलाद् तृपपत्नी पक्षिणीमधृत पाणिसरोजे । परित्रम्हर्षतोऽतिसरसः सरसस्तु निर्ययौ सपतगः क्षितिपः सः ॥१३७॥ १२७॥ ४ सर्गः-७ चक्रवाकमिथुनं पृथगेतद् विप्रयोगविधुरारवदीनम् । पार्थिवोऽथ पृथुपारयुग्मे दु:खितं स्वसुखतः क्षिपति स्म । इत्थमेष जलकेलिविलासं ग्रीष्मकालललितं कलथित्वा । चारुपुष्पचयसंचयनाय नायकः स चलति स्म वनाय ॥१३९॥ कोमलानि सुरभीणि सुमानि सोऽचिनोद् नरपतिः शिखरिभ्यः । पुण्यकीर्तिकलितानि वचांसि भव्यजीव इव जैनमुनिभ्यः ॥१४०॥ ( आरामे ददर्श मुनि गजः-) पाणिना सुमनसः सुमनोज्ञान् भूपतिः स सुमना: परिचिन्वन् । पश्यति स्म मुनिमेकमुदग्रं ज्ञानगाङ्गजलमुत्थितहंसम् ॥१४१॥ स क्षमापतिरतिस्थिरभावस्तं क्षमापत्तिमनन्तविभावम् । भूतलपविलुलन्मणिमौलिः प्रोज्ज्वलप्रणयवान् प्रणनाम ॥१४२॥ भूपतिर्यतिपतिं प्रणिपत्याऽचिन्तयत् स्वमनसीति निविष्टः । यो भवोदधिममुं प्रतितीर्षः सोऽयमेव सुकृती मुनिराजः ॥१४॥ (गजपत्नी मलिनं मुनि दृष्ट्वा घृणिता-) भूपतिप्रियतमा प्रियमित्रा स्वेदमग्नरजसा शबलाइम । तं मुनीश्वरमथ प्रणमन्ती कुत्सहृद् झटिति थूत्कुरुते स्म ॥१४४॥ । भूपतिः । २ मुनिः। 8 ॥२६६॥ 200000000000000000000000000000000000 १२ 200000 Jain Education In tional wwwjainelibrary.org Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परित्र सर्गः-७ ॥२६७॥ POODOOLOOOOOOOOOOOOOOOD000000000000000000000000000 चक्रवाकमिथुनस्य वियोगाद् दूनदीनदयस्य विरावैः। नष्टनिश्चलसमाधिरनाधिः साधुराह वसुधाधिपमेनम् ॥१४॥ किं विहंगयुगमुञ्चविरावैः रोदितीव नरनाथ ! विनाथम् । ___भाषया च निजया त्वयि कोपाटोपतः प्रकटयेत् कटुराटिम् ॥१४६॥ ( साधुबोधितेन गजेन तत् कोकिलयुग्मं संयुक्तं कृतम्-) आह भूपतिरथो मुनिनाथं चक्रवाकमिथुनं पृथगेतत् । कोतुकात् करतलेऽस्ति गृहीतं मत् करोति विरसं स्वरमित्थम् ॥१४७॥ साधुराह नृप ! कौतुकतोऽपि प्राणिनामसुखमेव न कार्यम् । अज्यते हि दुरितं प्रहसद्भिव्यते न परत्र रुदद्भिः ॥१४८॥ तद् विमुख विहगडयमेतद् वाञ्छया व्रजतु वाञ्छित्तभूमिम् । याम एक इह दुस्तरदुःखादेतयोरजनि वर्षसहस्रम् ॥१५९॥ (मुनिदेशना-) तनिशम्य नृपतिर्मुनिवाक्यं चक्रवाकयुगलं स मुमोच । देशनां तद्नु तत्र निविष्टो निचल: समशृणोद मरणोऽन्तः ॥१५॥ धर्मतत्त्वमवगत्य ततोऽयं भूपतिर्यतिपतिं प्रणिपत्य। उत्थितः स्वनगरं समुपेत्याऽपालयचिरमसो निजराज्यम् ॥१५॥ 18 (वीतरागगृहे नृत्यन्तं गनं हात्वा रजस्वलैब तत्पनी मन्दिरमागता-) वीतरागभुवने गजराज कारयन्तमवगत्य सुवृत्तम् । COD:0000000000000000000000000000000000000000000000000 १ निरोगः । २ प्रहर। 8॥२६७७ Jain Education Stational Rainelibrary.org Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उण्टरांक सा रजोऽशुचिरपि प्रिय मित्राऽभ्याजगाम शुचिवस्त्रसुशोभा ॥१५२॥ चरित्र॥२६८॥ याममेकमपवित्रशरीरा तस्थुषी जिनगृहे नृपपत्नी। सर्गः-७ सा पुनः प्रशमपूरितचित्ता पुण्यतः सपदि चिन्तयति स्म ॥१५३॥ 18 (सा 'रजस्वलया मन्दिरे नागन्तव्यम् ' इति पश्चात्तापेन प्रत्यागता-) हा ममेयमविवेकविचेष्टा हीदृशी जिनगृहे यदपाऽगाम् । इत्थमात्महदि सा प्रविचार्य प्रत्यगाद् निजगृहे सविषादा ॥१५४॥ ( सपत्नीकेन गजेन स्वपुत्रं राज्येऽभिषिच्य गृहीतं व्रतम्- ) श्रीपतिं स्वतनयं प्रियमित्रासंभवं निजपदे त्वभिषिच्य । वर्धमानसुगुरोश्चरणान्ते सोऽग्रहीत् तु चरण सकलनः ॥१५५॥ ( ययौ गजो ध्यानाय प्रेतवने-) अन्यदा निजगुरुं प्रणिपत्य प्रेतवेश्मनि गतो यतिराजः। सत्समाधिमधिकाधिकशुद्धध्यानधौतहृदयः स बभार ॥१५६॥ इतश्च- (ती विषदायको गजभ्रातरी गृधी जाती-) भ्रातरौ विमलबुद्धि-सुबुद्धी यो पुराऽपि महसेननृपेण । त्याजितौ निजपुरं सुरवाक्यात् तौ मृतौ गुरुशुचा वनमध्ये ॥१५७॥ ( ताभ्यां गृधाभ्यां हतो गजो जातो धनपुत्रो देवदत्त:-) गृध्रतामुपगतावतिपापो आगतो मुनिमिमं ससमाधिम् । वीक्ष्य पूर्वधृतवैरभरेण राक्षसाविव रुषाऽजनिषाताम् ॥१५८॥ तो स्वचचुपुटकोटिकठोरी तदूहृदयं च (1) विपाटयतः स्म। साहसाद् मुनिवरः परिषेहे सोऽनपेक्षहृदयो निजदेहे ॥१५९॥ कलत्रेण सहितः, सकलान् त्रायते वा सकलनः । २ पुस्तके नेष पाठः सम्यक् पठितुं शक्यते-- हृदनेनपदु'। 8॥२८॥ 5900000000000000000000000000000001 10000000000000000000000000000000000000000000000000 Jain Education Lerational womainelibrary.org Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक से परीषहमसते परिषद मत्युमाप गतप्रापचिकारः । ॥२६९॥ तस्य जीत इह ते तनयोऽयं देवदन इति योऽस्ति पुरस्तात् ॥१६॥ सर्गः-- 181 (गजपत्नी मृता जाता देवदत्तपत्नी--) सा ततश्च यतिनी प्रिय मित्रा सातवा मुनिमुव्यमवेक्ष्य । वेगतोऽनशन मेव विधायु पश्चतामुपगता मृदुचित्ता ॥१६॥ (मुनिघृणातः तस्या इह भवे विमलाभिधानायाः दुर्गन्धशरीरता-- ) साऽवधूतदुरिता खलु मृत्वा त्वगृहे सुतवधूरजनिष्ट । पूर्वजन्मनि कृताद विचिकित्साकर्मतोऽजनि कुगन्धशरीरा ॥१६२॥ (चक्रवाकवियोगकरणेन तस्या एवं पतिविरहः--) यावदष्टघटिकाविरहो यचक्रवाकयुगले विहितोऽने। - अष्टवार्षिकमभूदिति दुःखं त्वबधू-तनययोस्तु वियोगात् ॥१३॥ (अष्टा घटिका सरजस्कतया जिनमन्दिरे स्थानेन भष्ट वर्षाणि तस्या दुरभित्वम् -) पाबदष्ट्रघटिका जिनगेहे पुष्पवत्यऽशुचिकुत्सशरीरा। तस्थुषी तयिमत्र कुगन्धा प्रत्सराऽष्टकमभूदपवित्रा ॥१६४॥8 सर्वदेव सुपविनितगात्रैरजिभिः सुकृतिभिर्जिनगेहे। चारुपुष्य-फलपूरितहस्तैः पूजनैकहृदयर्गमनीयम् ॥१६५॥ 8 इत्यवाप्य शशिशीतमहांसि पुण्डरीकमुनिराजवनांसि । सर्वसाभाविना सुमनांसि जज्ञिरे गतविमोहतमांसि ॥१६॥ तैचोभिरमलीकृतचित्तः पूर्वजन्म च निजं कलग्नित्वा । धितोय तनुजो वनुशः प्रोत्रिवान गण मणिपस्य ॥१७॥ ॥२९॥ Soapoocc00000000000000000000000000000ccoacc www.tinelibrary.org Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥२७॥ सर्ग: 2000000000000000000000000000000000000000 (स्वपूर्ववृत्तं श्रुत्वा देवदत्तस्य वैराग्यम्-- ) सांप्रत कृतकृपः कथयद्धिपूर्वजन्म मम तत्रभवद्धि। छेदिता सकल एव भवद्रिोह एष सुकृतं प्रथयद्भिः ॥१६८॥ अद्य मातृ-पितृ-बन्धु-कलत्रायेषु नो मम मनो. धृतमोहम् । तत् प्रसथ भगवन् ! जिनदीक्षां देहि देहिषु सदेहितकारिन् ॥१६९॥ पुण्डरीक! ऋषिराज ! सुधीमन् ! संप्रति प्रचलिता वयमग्रे । सिद्धितीर्थमभि सिद्धिनिमित्तं श्रीयुगादिजिनराजनिदेशात् ॥१७॥ तद् विहाय भवसंभववन्धं दीक्षया सपदि निर्मलय स्वम् । सिद्धपर्वतमुपेत्य च पूर्व पापमुग्रमपि भिन्द्वि समग्रम् ॥१७१॥8 अग्रतो ननु वराणसिपुर्या सिद्धशैलशिखरस्य विलोकात्।। भाविना प्रभविता प्रमदस्तत् त्वं समे हि समयेऽत्र समेहि ॥१७२॥ 8 यतः (शत्रुजयवर्णकः--) मित्तंजदसणमीओ पूयाकरणेण मासीयं लहर। शवजयदर्शनमितः पूजा करणेन मासिकं लभते । तलजागरणे पामइ छम्मासियं वाऽत्र (वेत्थ) जामेण १७३॥ तलजागरणे प्रामोति षण्मासिकं वाऽन्त्र यामेन। पञ्चक्खाणं काऊ वंदित्ता सग्गुरुं पडिक्कमिड । प्रत्याल्यानं कृत्वा वन्दित्वा सद्गुरुं प्रतिक्रम्य । थुवंतो झायंतो वदंतो गुणगणकला च ॥१७४॥ स्तुवन् ध्यायन वन्दमानो गुणगणकलाश्च ॥१७४॥ वीसामणं कुणंतो सबालबुद्धस्स समणसंघस्स। विश्राम कर्षन सबालवृद्धस्य श्रमणसंघस्य । 200000000000000000000000000 ॥२७॥ Jain Education literational wwwjainelibrary.org. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम् ॥२७॥ सर्ग: पुण्डरीक-: अभयं वड्ढावितो बहहरिसुभिन्न रोमंचो ॥१७॥ अभयं वर्धापयन् बहुहर्षोद्भिनरोमाञ्चः ॥१७॥ 'जय जय' रवं कुणंतो जिणमुर्ति पासिऊण मग्गेषि। 'जय जय' रवं कुर्वन् जिनमूर्ति दृष्ट्वा मार्गेऽपि। पूयंतो भत्तीए खवेइ संसारमवि णतं ॥१७६॥ पूजयन् भक्त्या क्षपयति संसारमपि अनन्तम् ॥१७६ पंथे वच्चंतस्स वि अ वन्दिए जह हविज पज्जतो। पथि बजतोऽपि च वन्दिते यदि भवेत् पर्यन्तः । उक्कोस-जहन्नेणं वेमाणीय सन्नीय सुरत्तं ॥१७७॥ उत्कृष्ट-जघन्येन वैमानिक-संज्ञिक-सुरत्वम् ॥१७७॥8 अह वंदिऊण कहमवि कालसमत्ती हविज सिजोह। अथ वन्दित्वा कथमपि कालसमाप्तिर्भवेत् सिध्यति। अट्ठभवाणं मज्झे सुद्धं चित्तं जइ हविजा ॥१७८|| अष्टभवानांमध्ये शुद्धं चित्तं यदि भवेत् ॥१७८॥8 दहूँ सित्तुंज दंसित्ता मग्गे पावइ सम्ममचिरेण। शर्बुजयं दृष्ट्वा मार्गे पामोति सम्यगचिरेण । गुरुकुलजम्मो जइ हुज चेयणा मच्चुकाले वि॥१७९॥ गुरुकुलजन्म यदि भवेत्-चेतना मृत्युकालेऽपि॥१७९४ सित्तजं वंदेइ ति३पंच ५ वेला य सत्त७वाराओ। शचुंजयं वन्दते त्रीन् पञ्च वेलाश्च सप्त वारांस्तु । तहयभवे सिझेइ इइ कहियं जिणवरिंदेहिं ॥१८०॥ तृतीयभवे सिध्यति इति कथितं जिनवरेन्द्रैः॥१८० एकाए वेलाए कालेणं अप्पएण बहएणं । एकया वेलया कालेन अल्पकेन बहुकेन । अहवा तिमुहुत्तेणं सिझेइजहन्नमुकिदंठ ॥१८॥ अथवा त्रिमुहूर्तेन सिध्यति जघन्यमुत्कृष्टम् ॥१८१॥ भारतक्षितितले गुरुतीर्थ सिद्धपर्वतममुं सुपवित्रम्। प्राप्य जन्म निखिलापविमुक्तं स्वं विधेहि सुविधे! हितमिच्छन् ॥१८२॥ (देवदत्तो यतिः-) इत्यवाप्य मुनिनाथनिदेशं प्रेष्ठिसहरतिदर्षितचिसः। IR७१ OOOOOOOOOOOOOOOOoooooooo OOOOOOOOOoooooooooooooooooooo Jain Education In tional wwlinelibrary.org Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चहब. POPSOOOOOO सर्गः-७ त्रिंशता सुवणिजा ससहस्रैः संयुतो यतिरजायत तत्र ॥१८३॥ ५२७२॥ ( देवदत्तवपूरपि विरक्ता--) तहधूरपि विधूय विमोहं साधुराजमवनम्य विनीता। प्राह भोगसुभगत्वविकल्पच्छेदनानि वचनानि विवेकात् ॥१८४॥ आत्मदेहपरिपोषनिमित्तं हन्ति हन्त खलु जन्तुरनेकान् । निर्मलानि मलिनानि विधत्तेऽप्यात्मदेहविमलीकरणाय ॥१८५॥ आत्मरूपभृशगवितचित्तोऽन्यान् गुरूनपि हसेत् कुशरीरान् । देहमोहितमहादुरितौधैर्बाध्यते परभवेऽपि हि जीवः ॥१८६॥ तत् प्रभो ! प्रतिभवं तनुबन्धादेव दुष्टदुरितानि भवेयुः। तद् ममाऽनशनमेव भवन्तः संदिशन्तु वितनुत्वविधाने ॥१८७॥ ऊचिवानथ मुनिनु वत्से ! पूर्वलक्षमितमस्ति तवाऽऽयुः नाधुनाऽनशनयोग्यशरीरा त्वं सुदुस्तपतपसुतपस्य ॥१८८॥ ( पुण्डरीकविहारः-- ) एवमेष गणभृत् प्रतिबोध्य सोऽभवनिगमिषुविमलाद्रिम् । तावदेष मृगवेषसुरोऽत्राऽभाषत प्रभुममुं प्रणिपत्य ॥१८९॥ संमतीह भगवन् ! भरतेशेनाऽन्वितसकलसंघयुतेन । श्रीयुगादिजगदीश्वर एना प्रावयिष्यति भुवं स्वविहारात् ॥१९॥ 18 अत्षेत्थं मुदितमना मुनीश्वरोऽयं तस्थौ तैर्यतिभिरभित्रितः सरैश्च । O OOOOOOOOOOOOOOOO 00000000000000000000000000000000000000000000000 IR VORU Jain Education rational wamlainelibrary.org Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्र सगे:-८ मत्वा तं गणभृतमास्थितं नरेन्द्रास्तत्रेयुः सुकृतकृते समस्तदिग्भ्यः ॥१९॥ सम्यक्त्वं परिगृह्य जैनभुवनान्यारीरचन् केचन नीत्वा द्वादशसद्ब्रतानि भुवि केऽप्याऽऽजघुषन् रक्षणम् । ॥२७३॥ त्यक्त्वा काममपीह केऽप्यऽचकमन् ब्रह्म त्वजिम्हप्रभं वाक्यात् तस्य मुनेस्तु केचन नृपाश्चारित्रमाशिभियन्॥ नृपाः सत्कर्माणः प्रगलदघमर्माण इति ते गृहीतब्रह्माणः प्रकटितसुधर्माण इतरत् । परित्यज्य श्रीमद्गणधरवरं पावितधरं तदाऽऽसेवन्ते स्म स्फुटसुकृतकर्पूरकलसम् ॥१९३॥ 1४(सप्तमः सर्गः-) श्रीरत्नप्रभसूरिसूरकरतो दोषानुषङ्गं त्यजन् । : । यो जाज्यस्थितिरप्यभूत् प्रतिदिनं प्रासाद्भुतमातिभः। तेन श्रीकमलप्रमेण रचिते श्रीपुण्डरीकप्रभोः श्रीश→जयदीपकस्य चरिते सगाऽभवत् ससमः ॥१९॥ ॥ इति रत्नप्रभसूरिशिष्यकमलप्रभसूरिविरचिते श्रीपुण्डरीकचरित्रे देवदत्तपूर्वभव वसुधनदीक्षाग्रहणोनाम सप्तमः सर्गः ॥ .. Schooooooooooooooooooooooooooo POOOOOO00000000000000000000000000000000000000 १२ अष्टमः सर्गः (आदिजिनं पृच्छति भरतः-) अथ पुण्यसौरभरतो भरतो नृपतिः सुभक्तिभरतो यतिनः । प्रणमन्नवीक्ष्य गणभृत्-प्रथमं परिपृच्छति स्म स तमादिजिनम् ॥१ भगवन् ! भवद्गणभृता र स्वविहारतः शुचिचरित्ररतः। विमलीकरोति किमलीकपथिच्छिदुरो महीतलमहीनमहाः ॥२॥ १ भहीनमाहाः । 8 IRU Jain Education of national anelibrary.org Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७४॥ POO000000000000000000000000000000000000000000000ठन्य (अवदत् आदिजिन:-) अवदत् ततः प्रथमतीर्थपतिः शृणु चक्रनायक! स साधुवरः। विकलङ्कयत्यनुकलं भविनो विमलाचलं प्रविचलन्नधुना ॥३॥ विमलाचलस्य तलमाप्य मुदा गणभृत् तदाऽस्मदुपदेशवशात् । कलयिष्यति स्फुटकलङ्ककलाविकलः स केवलमहः सकलम् ॥ ४ अत एव संप्रति वयं विमलाचलयात्रया ऋषभसेनमुनेः। नवकेवलोत्सवविधि यतिभिः सुदिक्षुभि शर्महोत्सुकिताः ॥ ५॥ इति पुण्यपोषदमिदं वचनं भरताधिपः प्रथमशम्भुमुखात्। परिपीय पीवरतरप्रमदो वदतां वरः प्रवदति स्म तदा ॥ ६॥ (भरतस्य विमलाचलयात्रा-) भगवन् ! प्रसद्य सुकृतकविधिः प्रविधीयतामथ विहारविधिः। विमलाद्रिमाप्य सुकुटुम्बयुतः स्ववपुः पुनाम्यहमपीह यथा ॥ ७ इति चक्रवतिहदयं वचनैः शचि वीक्ष्य विघ्नहृदयं जिनपः। यहपुण्यलाभमवगत्य नृणां विमलाद्रिसंगममियेष ततः ॥८॥ (यात्राये पहघोषणा-) स्वपुरे समेत्य भरताधिपतिनिजबान्धवांश्च पुरमुख्यजनान् । विमलाचलं जिगमिषुः सुकृती समतत्वरत् पटहघोषणया ॥९॥ दिवसेऽपितेऽथ स बृहस्पतिना लपिताङ्गकोऽम्बरसेरिद्वरया। १ भृशं महे उत्सवे उत्सुकिताः । २ विघ्नं हरति इति विघ्नहृत् । ३ 'स्वर्' धातोः क्रिया । ४ गङ्गादेव्या स्नपिताः। 200000000000000000000000000000000000000000000000000 Jain Education Interational Mainelibrary.org Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक " ॥२७॥ सर्गः-८ FOOOOOOOOOOOOOOO0000000000000000000000000000000RROR इह रोहिणीमभृतिषोडशमिस्त्वमरीभिरेष कृतमाङ्गलिकः ॥१०॥ हरिणा विनिर्मितशिरस्तिलको बहुशः सुरीगणसुगीतगुणः। मघवाऽपितं सुजिनबिम्बमथो तदपूपुजद् भरतचक्रपतिः ॥१२॥ (इन्द्रादिभिः कृतं भरतसाहाय्यम्-) अथ तं मनोरथमवेत्य तदाऽप्यमरेश्वरः स्वरसतः सुकृती। मणिदेवतालययुतं स्वरथं जिनमूर्तिसुस्थितिकृतेऽपितवान् ॥१२॥ ( यात्रामहः-) जिनबिम्बमाशु परिपूज्य स तद् निदधौ रथस्थमणिदेवगृहे। जयतादसौ प्रथमसंघपतिस्त्विति पुष्पवृष्टिरजनिष्ट तदा ॥ १३ ॥ अथ चन्द्रमा उडुगणाधिपतिः स्वतुरंगमान् विततरङ्गभरात् । उपनीय योजितकरो न्यगदद् भरतेश्वरं सुकृतवन्धुतया ॥१४॥ जय चक्रभृत् ! प्रथमसंघपते ! तुरगानमून् मम जिनेन्द्ररथे। विनियोज्य तीर्थपथयुग्यतयाऽनुगृहाण मां प्रियसमिजि(ज)नः ॥१ इति चन्द्रदेवविहिताग्रहतो भरतेश्वरो हरिहरीन् हरितान् । ___ परिहत्य तानथ रथोहहने निदधे हयान् कुमुद-कुन्दरुचः ॥१६॥ यमुनासुरी च सुरसिन्धुसुरी कृतभूषणे विधृतचामरके । रथमेनमाप्य जिनगेहपुरो मुदिते सुतस्थतुरुमप्रतिभे ॥१७॥ १ इन्द्राश्चान् । २ द्विवचनम् । vàoỜsooooooooo Jain Education nationa jainelibrary.org Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गण्डरीक परिणय ॥२७६॥ सर्ग:-८ 00000000000000000000000000000000000000000 गजगोऽथ गोमुखसुरो वरकृजपमालिकाभूदपसव्यकरः। पुरतः स्थितो विपुलसव्यकरद्वयबीजपूरफल-पाशधरः ॥ १८ ॥ गरुडस्थितिः कनकपिङ्गतनुः शर-पाश-चक्रभृदिदंवरदा । इति वामकैरथ सुदक्षिणकैर्धनुरङ्कुशा-शनि-सुचक्रधरा ॥१९॥ सुकृतस्थभव्यजनविघ्नहरा जिनराजशासनविभावकरा। पुरतो रथस्य भविषु प्रचुरीकृतसंमदा स्थितसुचक्रसुरी ॥२०॥ अथ हस्तिमल्लमधिरूढवता त्रिदशेश्वरेण सुरलक्षयुजा। सह चक्रभृन्नृपसहस्रवृतः गजगोऽगमज्जिनरथानुगतः ॥२१॥ अथ पञ्चशब्दमुखरे गगने जयराववादिनि सुबन्दिजने। सुरगीतलास्यसुविलास्यजगज्जनताऽऽस्यहास्यमहसि प्रसते ॥२२॥ धरणीभृतः पविभृतश्च तदा युगपद् महादविणदानभरैः। अदरिद्रतामुपगते जगति प्रचचाल सोऽथ जिननाथरथः ॥२३॥ विनमः सुताप्रभृतयो दयिता भरतेश्वरस्य सुकृतेषु रताः ।। सहिता विमानचयमुच्चशचीप्रमुखाऽमरीभिरिह चारुरुहुः ॥२४॥ भरतेशितुः प्रथमसंघपतेरमरीगणाः शुचिगुणानगणाः। १ प्र० स्थागतः । २ इन्द्रस्य । 0000000000000000000000OMoocomooooooo00000000000 ॥२७१० Jain Education mational Mw.jainelibrary.org Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमदाभिरत्र सह भूमिभुजां प्रमदाद् जगुर्जगति भूरिकरान् ॥२५॥ कनकात्म दिव्यवसनात्म तदा सुरगीतिकात्म सुकृतात्म मुदा । ॥२७७॥ जगतां हितात्म महितात्म भृशं तदयोध्यपत्तनमभूदनिशम् ॥२६॥ इति चत्वर-त्रिक-चतुष्क-महापथकेषु गीतनवनृत्यभरम् । प्रविलोकयन् प्रमदयन् भविकान् समचीचरद् निजरथं भरतः ॥ २७ ॥ 18 (शकटाननम् उद्यानम्-) शकटानने निजपुरोपवनेऽवनिपालन: स रथमेनमथ । सुकृती कृती सपदितं जगतः प्रमदेन निश्चलयति स्म समम् ॥२८॥ ( यत्रायै नृपाणां निमन्त्रणम्- ) विमलाचलं प्रति पियासुरसौ सुरसौहृदाद् भरतसंघपतिः। भरतक्षितिस्थितिभृतः क्षितिपान् समजूहवत् सुकृतलाभकृते ॥२९॥ 18 भरतेशितुः शुभरतेर्वचनं क्षितिपा अवाप्य मुदिताः स्वहृदि । __ इति भावनां विदधिरे रुचिरा परमात्मनः सरसभोज्यनिभाम् ॥३०॥ प्रभवो भवन्ति न भवेऽत्र कति प्रभवेन्न केषु च जयो जगति । नरमाय कंचन रमा श्रयति ननु केषु नो भवति दानमतिः॥३१॥ किन्तु, प्रभुता शमप्रणयिनी नयनी विजयोऽस्य विक्रमशुचिः क्रमवान् । कमला गलन्मदकलङ्कमला सुगतेनिंदानमपि दानमिदम् ॥३२॥ २ सर्वाणि आत्माऽन्तपदानि भयोध्यापत्तनस्य विशेषणानि । 2000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000 00000000000000000 ॥२०॥ Jain Education ational jainelibrary.org Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणम् परमस्मदपपलता िििजला वयं भरतभूभिभुजा। ॥२७८॥ अनुजीविताऽपि वरमस्य विभोः सुकृतोद्यमो भवति यदशतः ॥३३॥ (बानता नृपाः-) इति चेतसा नृपतयो निखिलाः परिभाव्य भूरितरभावभृतः। भरतेशपार्श्वमुपजग्मुरमी विमलाचलं प्रति पियासुहदः ॥३४॥ 18 (मादिजिनोऽपि स्फुटिकावलाद् बकळत-) तदनु ज्यशीतिगणभूत्पवरैः सहितस्तपोधनसहस्रवृतः । कनकाऽम्बुजेषु चरणी नियत् स्फुटिकाचलादचलदादिजिनः ॥३५॥ 18 अतनोस्तनोः परिमलाद् विदधत् सुरभि समग्रतरुपुष्पचयम् । अतिदीपयन्नमलदीप इवाऽखिलरोदसी स्वमहसा सहसा ॥३६॥ मणिरत्नमौक्तिकमयप्रतताऽऽतपवारणत्रितयतो जगताम् । सुविकाशयन्नधिपताममरतचामरैविहितभक्तिभरः ॥३७॥ गगनस्थधर्मकरचक्र-महाध्वज-सिंहपीठ-पदपीठयुतः । नददुच्चदुन्दुभिरतिप्रणमधिटपानुकूलशकुन-वेसनः ॥ प्रसरत्सुगन्धजलसत्कुसुमोषयवृष्टिरीतिकृतभीतिहर। सकलेन्द्रियप्रमददायिऋतु प्रवृतम क्षितितलं रचयन् ॥३९॥ (आदिजिनेन सह नृपसमूहसाहतो भरतः पात्राये प्रस्थितः-) सुरकोटिभिः प्रतिपदं प्रमदात् क्रियमाणपुण्यविजयध्वनितः। विमलाचलं प्रति महातिशयः पविताशयः स चिजहार विभुः ॥४०॥ *SOOOOoooooooooooooOoooooooooooooooo 5000.000000000000000000000000000000000000000000000000 सनो पायुः । २ ईतिकता भीति हरति । ॥२७८॥ Jain Education Leational For Private & Personal use only Idljainelibrary.org Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम् सर्गः-८ ॥२७९॥ 00000000000000000000000000000000000000000 असो सुगादिजगदीशम समुसमतं समवनम्य मुदा । तमचीचलत् तदनुगस्तदनु पृथुनोत्सवेन जिनगथरथम् ॥४१॥ अप भभुजो निजजिनेन्द्ररथान् विकरूपषोडशसहस्रमितान् । ___ अनुचारयन्ति मुदिताः स्म ततो विनयोज्ज्वलं हि सुकृतिनां कृतिनाम् ॥४२॥ अनुकूलशीतलसुगन्धतरैविरजीकते क्षितितले समीरैः। शुभगन्धवारिधरवारिधरैः शिशिरीकृते च मृदुवर्षकरैः ॥४३॥ हिगुणोच षोडशसहससरासरसीकृत सुबहुसत्रगृहः । सहित दिव्यफल-पुष्पयुतोत्तमशाखिभिः परिवृतः सततम् ॥४४॥ (भरतमंदो मामबम-) भदरिद्रयनमलयंश्च सदा भृशदानतः सुकृततश्च जगत् । अनघः स संघ इह संघपतेर्भरतेश्वरस्य मथुरामगमत् ॥४५॥ (पुण्डरीकसमागम:-) मथुरापुरीपरिसरे प्रथमं जिननाथमागतमवेत्य तदा । - अथ पुण्डरीकगणभृत् सगणः समुपेत्य चारु विनयादनमत् ॥४६॥ प्रथममभुप्रणायाकूमभया रुरुचे मुनिः स सविशेषरुचिः । दारितोपशान्तिकृतये जगतः शशिनो रुचेव वचसामधिपः ॥४७॥ अथ पुण्डरीकगणभृत्मवरं विलोक्य शुद्धयतिकोटिवृतम् । १ ३२०.०२ सहस्पतिः। 000000000000000000000000000000000000000000 8॥२७९॥ Jain Education in Wational For Private & Personal use only lainelibrary.org Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ५२८० ॥ ४ १२ प्रणनाम भूतलमिलन्मुकुटः प्रकटप्रमोदभरतो भरतः ||४८ || भरताधिपस्य च तथैव गणाधिपतेः पदद्मणमनात् समभूत् ॥ ४९ ॥ प्रथमाहतः प्रणमनप्रमदात् दुरितव्ययो गणधरस्य यथा । सुकृतोत्तरोत्तरपवित्रतरः सुकृती त्रिलोकजन हर्षकरः । चतुर्विधचतुरनिरः प्रचचाल संघ उदयत्प्रसरः ॥५०॥ ( स संघो वराणसिपुरीमगमत्— ) अथ संघ एवं पृथिवीमखिलामपि पावयन् प्रचुरपुण्यभरैः । अगमद् वराणसिपुरीं तु यतो न गरीयसी दिविषदां नगरी ॥५१॥ ( तेन संषेन अत्र विमलाचलो दृष्ट:-) बहुकालतोऽभिलषितं हृदये लिखितं युगादिजिनवाक्यरसैः । विमलाचलं प्रथितसिद्धगिरिं ददृशुर्भृशं शुचिदृशोऽत्र जनाः ॥५२ || स वराणसीपरिसरं सरसं गतवान् समग्रसुरसंगतवान् । विमलाचलप्रथमवीक्षणतो मुदितोऽजनि प्रथमसंघपतिः ॥५३॥ मणि - हेम-रूप्यमयवप्रवरत्रययुग् युतं च मणिपीठिकया । समशिश्रियद् जिनगृहं जिनपः सुरराज- संघपतिभक्तिभरात् ॥ ५४ ॥ इह सर्वजीवहृदयप्रमदमदमेष योजनविसर्पि तदा । Jain Education national वचनामृतं विमलशैलमहामहिमान्वितं शुचि ववर्ष जिनः ॥५५॥ प्रभुदेशनाश्रवणतो हि तदा हितदा भृशं विगत सर्वमलाः । 1000000∞∞∞∞∞∞∞∞∞xxx000000000 चरित्रम् सर्गः -८ ॥२८०॥ jainelibrary.org Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ecpooco0000000000000pcpoooo00000000000000000000MBER इह केवलप्रतिभया कलिता भविनोऽभवन् दशसहस्रमिताः ॥५६॥ 8 (विमला चलप्रथमवीक्षणमहः--) अथ केवलोत्सवममी त्रिदशा विविधं व्यधुर्विधिविवेकविदः । विमलाचलप्रथमवीक्षणजं विदधे महं च भरताधिपतिः॥१७॥ विमलाद्रिमूर्तिमधिरोप्य पुरः परिपूज्य पूज्यजनपूजनकृत् । समितां घृतेन (?) सितया (?) प्रमितां निदधे मूढकसहस्रमिताम् ॥५८॥ स्वधर्मिणां त्रिदशनाथमथो सहित समग्रविबुधैः स हितम् । प्रचुराग्रहेण सुनिमन्त्रितवान् निजभोजनाय जननाथवरः ॥५९॥ विगतनसा स्वमनसा सुमनःपतिरेष किश्चिद्वगत्य महत् । अनुमन्यते स्म भरतस्य वचो महतां मतिः सुकृतवृद्धिकरी ॥६॥ निखिलानथो सुकृतिनो नृपतीन्-अभिमन्य चक्रधरसंघपतिः । इह लक्ष्यसंख्यमणिरत्नगृहान् समचीकरत् स्थपतिरत्नकरात् ॥११॥ अमरानसौ सुरपतिप्रमुखान् कनकासनेषु विनिवेश्य मुदा । मणिभाजनानि विविधानि पुरो बहुभक्तितः स्म किल मण्डयति ॥१२॥ मणि-हेम-रत्न-रजतान्युषंसि परिपाकपेशलरसानि भृशम् । समभोजयद् मधुसुहृत्समभोऽसमभोगतस्तदनु तोषितवान् ॥६३॥ DOOO000000000000000000000OOOCOOOOOOOOOOOOOOOOOOOSHREE १ प्रातः । २ अनाप्रभः । Jain Education Sternational For Private & Personal use only jainelibrary.org Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम् सर्गः-८ (मनुष्याणाम, देवानां च सह भोजनम्-) अमरेश्वर: स्वपरिवारयुतो विदधेऽशनं निजसधर्मिगृहे। ॥२८२॥ इति लोकरङ्गकरणकबलैर्बुभुजे सुरैरपि तदा कवलैः ॥६४॥ दिवसस्य मध्यसमयेऽथ नृपान् भरतेश्वरः स्वपरिवारवृतान् । स रसाधिपो रसवतीः सरसाः प्रविधाप्य तान् सपदि भोजितवान् ॥३५॥ इति धर्मकर्मनिरतान् भरताधिपतिः सुभोज्यशुचिभोज्यभरैः। वसनैश्च रत्न-कनकाऽऽभरणैः नृ-सुरेश्वरान् परिपूजितवान् (सत्र मुक्ति प्राप्ता मुनयः-) अथ तत्र तेऽभिनवकेवलिनोऽनशनं विगृह्य परिपाल्य शुचि। अजरामरं पदमवापुरथो भरतस्तदुत्तरविधिं विदधे ॥१७॥ 18 (तत्र अतिमुक्तकं तीर्थ प्रथितम्- ) भवसंभवं सुपरिहृत्य तमो भुवि यत्र मुक्तिमगमन् यतिनः। - अतिमुक्तकाभिधसुतीर्थमिह प्रथितं बभूव शुचि तत्र महत् ॥१८॥ ('विश्वनाथ' देवगृहं भरतेन कारितम्-) इह विश्वनाथ इति नाम मणीमयमूतिभूषितमद्धृतरम् । रचयांचकार गुरु देवगृहं सुविवेकिा गुरुरयं नृपतिः ॥६९॥ (दशसहसमितानि पौषधगृहाणि-) परितस्ततो भरतसंघपतिः सुगुरूणि पौषधगृहाणि तदा । समचीकरद् दशसहस्रमितान्यमितप्रभाणि सुकृताय कृती ॥७॥ अथ लक्षमेकमिह धर्मरतान् भविनो जनांस्तु विरताविरतान् । 5800000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000 प्र• मुक्ति गमयन् । ૨૮a, Jain Education National jainelibrary.org Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर सर्ग:-८ OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOoooooooooo समतिष्ठपत् प्रथितकाकणिकामणितस्त्रिरेखितहृदः सुहृदः ॥७१॥ गुरुचारुवप्रवलयेन वृतां धन-धान्यराशिभिरतीव भृताम् । विहितां विलोक्य भरतेन पुरीमितराममन्यत जनो भुवनात् ॥७२।। (संघो विमलशैलमारूढ:-) अथ पुण्डरीकगणभृद्विहिताग्रहतो हतोग्रदुरितो जगताम् । प्रथमप्रभुविमलशैलमभि प्रचचाल संघपतिनाऽनुगतः ॥७३॥ विमलाचलप्रथमवीक्षणतः क्षणतः प्रमोदभरपूर्णहृदो। नृ-सुरेश्वरौ स मृगवेषसुरः परिभाव्य भावसहितं न्यगदत् ॥७॥ तथाहि- (सिनाचलनामपूवर्क स्तुति:-) परागैरुडीनै विहिततिलका स्वमभवैः स्वशृङ्गप्रोद्भूतान् विमलकरणानक्षतविभान् । क्षिपन्नु चैरेष्यद्भविकजनशीर्षेषु पुरतः प्रभुः श्रीसिद्धाद्रिवितरतु सितं मङ्गलशतम् ॥७॥ (त्रिशृजनामा-) महीमहीनप्रतिभो महाभूत् त्रिशृङ्गनामा गुरुनीलशृङ्गः । शृङ्गारयत्यम्बरगमभाभिविलोभयन् सूर्यरथस्य रथ्यान् ॥७३॥ (भूमिगृहाभिधान:-) सिद्धाद्रिशङ्ग सुगिरिगरीयानयं पुरो भूमिगृहाभिधानः । यो वाऽनुशृङ्गररुणस्य चित्तेऽरुणोदयाशङ्कनमादधाति ॥७७॥ (कदम्बः-) किल सकलकलाभूतां निषेव्यः कनकरसाकरपिकौषधीभिः। सहित इह हितो महीतलस्य गुरुगिरिरेष विलोक्यतां कदम्बः ।७८५ ॥२८३॥ Jain Education Optional ainelibrary.org Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -18| (तलवजनामा-) पुरत इतोऽस्ति तलध्वजनामा क्षितिधर एष निर्मलधामा । १२८४॥ ___ यस्य गुहासु समाधिसुधीराः सन्ति सदोषधसिद्धशरीराः ॥७९॥ 8 :(रेवतकपर्वतः-) सरैवतिकपर्वतो विमलशैलराजस्थ यः कुमार इव राजते क्षितिपराज! ते दृकूपुरतः । सुवर्णशिखरद्युता कपिशितांशुभरो यतः सितांशुरपि पद्मिनी निशि धिनोति सिद्धिभ्रमम् (?) ॥८॥ मणिपूतभूतलभूतनूतनचूतरराजिविराजितं शुचिसरससरसीसारसरसिजसुरभिरजसा रञ्जितम्। परिपाकपेशलहाररा(राजी)हारिहर्म्यकसंकुलं परिहरति गिरिवरमेन मनिशं नैव किन्नरवरकुलम् ॥८१॥ विमलस्मिता भृशविस्मिता गिरिशृङ्गसंगमरञ्जिताः। लसदगारगविवर्तनं रचयति निर्मलनर्तनम् ॥८२॥ विमलस्मिता भृशविस्मितस्मितललितनयनसरोरुहाः गिरिशृङ्गसंगमरजितस्थित ननसि सकलकलावहाः । लसदङ्गरविवर्तनालससरसकिन्नरसंगता रचयन्ति निर्मलनर्तनान्यतिमदन मदनरसं गताः ॥८॥ शशिमण्डलाननमण्डलाः श्रवणावतंसितकुण्डलाः। जनयन्ति संततडम्बरं निविडप्रभाभरमम्बरम् ॥८४॥ शशिमण्डलाननमण्डलद्युतिदलितकैरवजालिकाः श्रवणावतंसितकुण्डलक्ष नगण्डदर्पणपालिकाः। जनयन्ति संततडम्बरं धनवारिशीकरतालिकाः निविडप्रभाभरमम्बरं सुरसिडकिन्नरबालिकाः॥८५॥ निर्दम्भा रम्भा हर्षजुषः शृङ्गारागारालापपुषः । संसारं सारं रङ्गकृतं कुर्वन्त्योऽवन्त्यो दुःखभृतम् ॥८६॥ निर्दम्भा रम्भा हर्षजुषः सुखसखमणिभिः (?) सह हास्यश्रुताः शृङ्गारागारालापपुषः कषमुखकषितोत्तमकनकनिभाः। संसारं सारं रङ्गकृतं कृतकृतिजनताविततप्रमदाः कुर्वन्त्योऽवन्त्यो दुःखभृतं भृतधृतिमनसं सुमनःप्रमदम् ॥ 2000000000000000000000000000000000000000 Jain Education national aliainelibrary.org Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म प्रहरीक-8 सा (ता) रम्भा रम्भागर्भरुचः स्वच्छन्दा मन्दामोदमुचः।सबीडं क्रीडन्त्यो गगने शोभन्ते ऽनन्ते सिद्धघने ॥8 सा(ता)रम्भारम्भागर्भरुचः कुचघटघटिताऽतनुहारगणाः स्वच्छन्दामन्दामोदमुचःशुचमपहर्तु जगतःप्रगुणाः। २८५॥ सब्रीड क्रीडन्त्यो गगने गुरुगजगतिगमना लावणिकं शोभन्तेऽनन्ते सिद्धघने घनजनितातपवारणकम् ॥ उपशम्भुरयं गिरिः पुरः परिविभ्रत् सुरनिर्मिताः । पुरविविधैरमरद्रुमैर्नवैरमरीयोंऽरमरीरमत् सदा ॥९०॥8/ 18 ( चतुरशीतिः शृङ्गाणि-) इत्यादिभिश्चतुरशीतिभिरेष शृङ्गैः शृङ्गारितः परित एव भुवस्तलेऽस्मिन् । शत्रुञ्जय-क्षितिधरोऽस्ति युगादिदेववक्ताम्बुजप्रचरितोश्चतरप्रभावः॥११॥ इति वर्णयत्यमलकर्णसुधाश्रवया गिरा हरिणवेषसुरे। विमलाचलं प्रथमतीर्थमथाऽधिरोह स प्रथमतीर्थपतिः ॥१२॥ (आदिजिनदेशना- ) मुदिताश्चतुर्विधसुरा जिनपस्थितये तदैव समवसरणम् । रचयांप्रचक्रुरमलप्रतिभं विवुधत्वमेव सुविवेकनिधिः ॥९३|| 8. इह तीर्थराट् समवसृत्य चतुर्वदनो दिशन् सदुपदेशमसौ। परिपूर्य च प्रथमपौरुषिकामभिरामरुक् स विरराम विभुः ॥१४॥ १२४ अथ पुण्डरीकगणभृत् स विभोः पदपीठमान्य निजदेशनया । भविनो व्यबोधयदसौ सकलान् स्वगुरुक्रमोन्नतिकृते हि शुभाः ॥९॥ अपरां प्रपूर्य किल पौरुषिकाम्-उपदेशतः स्वयमपि व्यरमत् । भवभावभीरुहदयोऽन्यदिने गणभूदरस्तु स चिन्तितवान् ॥१६॥ 000000000000000000000000000000000000000000000 Oooooooooooooooooooooooo0 Jain Education orational For Private & Personal use only ainelibrary.org Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ వ 0000000000 GOOOOOOOOOOOON पुण्डरीक- ( पुण्डरीकगणभृतः संलेखना-) प्रभुरूचिवान् यदनुभाववशाद् मम केवलोद्भवमयं स पिडित! चरित्रम॥२८६॥ - मनसेत्यऽवेत्य यतिकोटिवृतः समलेखयत् स विधिवद् गणभृत् ॥९७8 सर्गः-८ उक्तं च-(संलेखनास्वरूपम् -) "सर्वोन्मादमहारोग-निदानानां समन्ततः । शोषणं सर्वधातूनां द्रव्यसंलेखना मता ॥९८॥ यो राग-द्वेष-मोहानां कषायाणां तु सर्वथा। नैसर्गिकट्विषां छेदो भावसंलेखना तु सा " ॥१९॥ प्रतनूचकार स निजां च तनूमपि रोष-तोष-मदनप्रभृतीन् । अथ साधुकोटिभिरसौ वृतो गणनायकः प्रविदधेऽनशनम् ॥१०॥ अपरेधुराद्यजिनपः स्वगणेश्वरकेवलोदयकृते सदसि । विमलाचलस्य महिमानमिति प्रततान मानवधियोऽप्यतिगम् ॥१०१॥ ( अनशनं कृतवतः पुण्डरीकस्य कैवल्यम्-) भवमोहसंशयतमच्छिदुरात् भृशशुद्धमुक्तिपदवीविदुरात् । प्रभुवाक्यतो गणभृतो निभृतः प्रससार केवलमहो सुभृतम् ॥१०२॥ किल केवलावरणहेतुचयं स जिनस्तथा किल विवेचितवान् । _ यतिपक्षकोटिभिरयं प्रकटः प्रहतोऽवगत्य सकलोऽपि यथा ॥१०॥ यतिपञ्चकोटिभिरमुष्य विभोः शचि सर्वथाऽप्यवगतं वचनम् । कथमन्यथाऽनघमघच्छिदुरं तदमीषु केवलमहोऽभ्युदितम् ॥१०॥ वेदकं विदुरम् । ॥२८६॥ soooooooooo O00000000000200.woCL300000 Jain Education Inter na nelibrary.org Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ चरित्रम. छात्र पूर्णिमायापुण्डरीकः शिवं गतः--) अथ चैत्रमासि शुभभासि तदोत्तमणिमाख्यदिवसें म्ववशाम् । (૨૮ળા જ स्वशिवश्रियं प्रथममाश्रितवान् गाभृत् स ततो मुनयो नययुः ॥१०५॥ सर्गः-८ गणनायके सुयतिवर्गयुतेऽप्यपवर्गमाश्रितवतीह सुराः। भरताधिपप्रभृतयश्च नृपा अभवन् सुदुःखिनहदो निखिलाः १०६॥ अनुलिप्य तं मुनितनुप्रचयं शुचिदुग्धनीरनिधित्तीरभुवि । परिलिप्य चन्दनभरैज्वलनादथ संस्कृति दिविषदो विदधुः ॥१०७॥ भय दिव्यगन्धजलवृष्टिभराद् विमलाचलं विमलयन्त्यमराः । विततं महोत्सवमुदनमुदः प्रथयांबभूवुरचलप्रतिभम् ॥१०८॥ (भातेन मन्दिरं कारितम्--) कृतपीठकं मरकतमेणिभिर्जलकान्तरत्नमयगर्भगृहम् । विविधेन्द्रनीलशिखर विलसन्नवहीर-रूपकलसेन युतम् ॥१०॥ शुचियनिर्मितसुदण्डमहाध्वजराजितं विविधतोरणकम् । द्विकयुक्तविंशतिसुदेवगृहैः परितो विशोभितमुरुमतिभम् ॥११०॥ कनकामवप्रवलयेन वृतं जिनमन्दिरं सुगुरु चारुरुचा । ___ रचयांचकार रचनाचतुरो भरताधिपो रुचिरवासनया ॥१११॥ (त्रिभिविशेषकम् ) इह मूलमन्दिरसुगर्भगृहे प्रथमाऽहंतो विमलमूर्तिमसो । १ प्र. विमलयनमरा. । २ प्र० लसन्नविहीर-। ४॥२८॥ ĐCĐ OoOooooOOOOOOOOOO05 Poooooooooooooxo00000000000000ober For Private & Personal use only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२८॥ -20000000000000000000000000000000000000000000000000001 प्रभुपुण्डरीकगणभृत्पतिमा-सहितां न्यवीविशदिलाधिपतिः ॥११२॥ / पारमार अजितप्रभुप्रभतितीर्थकृतो जिननेमिना विरहितान् भरतः । १४ सर्ग:-८ समतिष्ठपद् वृषभदेवगिरा परितो जिनेन्द्रगृहकेषु तदा ॥११३॥ रवि-चन्द्र-भौम-बुध-वाक्पतयो भृगुपुत्र-राहु-शनि-केतुयुताः। भरतेश्वरं प्रथमसंघपति न्यगद्न् पुरोविरचिताज्जलयः ॥११४॥ विजयख संघपतिषु प्रथमाऽखिलजैनमूर्तिपदपद्मतले। रचयाऽस्मदीयरुचिरपतिमा नव सैर्व (?) जन्मफलमस्त्विति नः ॥११॥ इदमीयमाग्रहमवेक्ष्य नृपः प्रणिपत्य स प्रभुमपृच्छदिति। क्रियते प्रभो! कथमिदं वचनं प्रभुरप्यवकू शृणु संघपते ! ॥११६॥ इह भस्मकग्रहमुखा उडुपा अपि धर्मकर्मविहितैकहृदः । बहुकालराशिपरिभोगकृतो न हि तुच्छजीविनि जने विदिताः ॥११७॥ सर्वदा पुनरमी उडुपा विदिता पुरातनजिनांहितले। अभवन् स्वमूतिभिरतस्त्वमपि कुरु पूर्वरीतिमुचितोपचितम् ॥११८॥ (प्रभुवाक्यतः जिनमूर्तेरधः नवग्रहमूर्तिः--) प्रभुवाक्यतः स्थितिमिमां जगतो भरतोऽवगत्य स तदाग्रहतः। घटयां चकार च नव प्रतिमाः सकलाहतां पदसरोजतले ॥११९॥ १ अत्र मषीयाताद न स्पष्ट गम्यते । 18/R641 00000000000000000000000000000000000000000000000000000 Jain Education national IAlw.jainelibrary.org Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (कपर्दी-) अथ साधसागरमितायुरसावमरो द्वितीयसुरलोकभवः । ॥२८९॥ प्रथमप्रभु स तु कपर्यभिधः प्रणिपत्य हर्षभरतो न्यगदत् ॥१२०॥ भगवनहं सपदि सिद्धगिरि प्रति भक्तयात्रिकजनस्य सदा । __ अतिदुष्टदेवकृतविघ्नभरं निजजीवितावधि विहन्मि भृशम् ॥१२१॥ प्रभुरूचिवानथ कपद्यमर ! त्वदभिग्रहः सुकृतिनां सुखकृत् । चिरमेधितामिह पदे बहवो भवितार एव सुकपदिसुराः ॥१२२॥ अथ:खेचरा अपि सुवासनया जिनपं प्रणम्य दशलक्षमिताः । किल जैनपूजनमिहाऽनुदिनं प्रविध्म आग्रहमिमं जगृहः ॥१२३॥ 18 (जाहूनवी गिरिनामधेयकलितां नदीमुदमजयत्-) अथ जाह्नवी भरतराजकृतं प्रविलोक्य तीर्थभुवि जै गृहम् । गिरिनामधेयकलितां सुनदीमुदमनयन्निजविभावभरात् ॥१२४॥ (सिद्धगिरितः सर्वे उत्तीर्णाः- इति भावतः सुर-नरैः खचरैः परिपूरिते सकलधर्मविधौ । भरतेन देवपतिनाऽनुगतः प्रथमो जिनोऽप्युदतर गिरितः ॥१२॥ (चमचकारपुरम् -) क्षितिभृत्तले चमचकारपुरं निकषा स निष्करुचिराङ्गारुचिः। समवासरद् गणभृतो विरहोद्भवचक्रवर्तिगुरुदुःखभिदे ॥१२६॥ 8 अथ स प्रभुभैरतसंघपतिं निजगाद संसदि सदुःखसुखम् । सुतशोकसंकुलतयाऽऽकुलता कुलतापकृत् किमु धृता भरता? ॥१२७॥ 30000000000000000000000000000000000000000000000000 2000000000000000000000000oCOORDocxc Jain Education In tional For Private & Personal use only w olainelibrary.org Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥२९०॥ ४ १२ गणभृरस्य तनयस्य शिवाध्वनि जग्मुषः परमसौख्यजुषः । विरहाद् बिभर्षि हृदि दुःखमिदं किमु पुण्डरीकयतिनस्त्वमपि ॥१२८॥ विततोग्रपा पनि कुरम्बयुतं सुकरस्थितं विविधदुःखभरैः । अपहाय संभवममी अपुनर्भवमानयन्ति यतिनो हि यदा ॥ १२९ ॥ परमं महः परम एव महः परमं सुखं च तदहः परमम् । यतिनां तदा भवति भव्यजनैः किमु धर्तुमतिरुचिता कृतिभिः ॥ १३० ॥ अपहाय तनिजसुतस्य शुवं कुरु धर्मकर्म भव निर्मलहृत् । स्वजने निजं हृदयरङ्गमहो सुकृतेर्नवैः प्रकटयन्ति शुभाः ॥ १३१ ॥ इति चक्रभृत् प्रथमतीर्थपतेर्वचनं निशम्य शमसौम्यमनाः । Jain Education Iternational इह पश्चकोटिमितरस्य गृहाण्यथ पत्तने व्यरचयन्नृपतिः ॥१३२॥ ( माहना:-) धन-धान्यराशिनिभृतेषु भृशं सकलेषु सद्मसु स तेषु नृपः । शुचिमाहनान् परमधर्मरतान् समतिष्ठपत् परिहृतोद्यमतीन् ॥ १३३ ॥ इह पञ्चविंशतिसुलक्षजिनेश्वरमन्दिराणि भरता विपत्तिः । प्रतिधाम पौषधगृहं च पुरे स्थपतेः करादरचयद् मुदितः ॥१३४ रुचिरं स्वयं विरचितं नगरं भरतो विलोक्य भृशहर्षभृतः । अतनुमहोत्सवमसावतनोद् जिनमन्दिरेषु परिपूज्य जिनान् ।। १३५ ।। -१ परिहता आदी अमसियैस्तान् अथवा ' पहताढ्यमतीन्' इति सुषम् । 90000000000 0800000 परिसर्ग: ८ ॥२९॥ jainelibrary.org Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ অবিক सर्गः-८ POOOOOOOOOOOOMom w (अहंदासनम्, आनन्दपुरम, आदिपुरम, वृहत्पुरम, चमचकारपुरम्--) इदमहदासनमथाऽऽदिपुरं सुवृहत्पुर चमचकारपुरम् । ॥२९॥ इति नामभिः क्षितितले सकले विदितं सुपत्तनमभूदमलम् ॥१३६॥ उक्तंचB शर्बुजयतलवीढे बावीसं जोयणाण विस्थरीयं । शश्रृंजयतलपीठे द्वाविंशतियोजनानां विस्तृतम् । नयरं रयणागारं भरहेसरथप्पीयं आसि ॥१३७॥ नगरं रत्नागारं भरतेश्वरस्थापितमासीत् ॥१३७॥ पणवीस लक्ख जिणहर-पोसहसालाण कोडि पंचेव। पञ्चविंशतिर्लक्षाणि जिनगृह-पौषधशालानां कोव्यः माहण-सावयकोडी पंच उ निवसन्ति तत्थ पुरे ॥१३८ ब्राह्मण-श्रावककोव्यः पञ्चतु विसतितत्र पुरे पश्चैव अरिहंतासण-आणंद-पुरं तह आदिपुरमेयं । अहंदासन-आनन्द-पुरं तथा आदिपुरमेतत् । चोंकारं गरुयर-नयरं एयस्स नामाई ॥१३९॥ चमचकारं गुरुतरनगरमेतस्य नामानि ॥१३९॥ (भरतः स्वपुरी समचरत-) पुरमत्र सत्रगृह-सारसरःप्रमुखैविभूष्य परितो भरतः। समनुव्रजन प्रभुममुं स्वपुरी प्रति सोऽचलत् सकलसंघकृतः ॥१४०॥ गरयन् विवेकिनिवहं लघयन्नविवेकिनो भुवि स संघपतिः । अतिबृहयश्च सुकृतानि भृशं इसयन्नघानि सुधन व्ययतः॥१४॥ जिनधामभिश्च नगरीनिवहं सुहिरण्मयस्तिलकयंस्तु पथि । भरतेशचक्रभूदयोध्यपुरं निकषाऽपहाय कलुषानि ययौ ॥१४२॥ (भातः स्वपुरीमावशत्-) शकटानने स जिनपोऽपि बने समवाऽऽससार सुरसेव्यपदः। । गुरुं कुर्वन् । २ लघून् कुर्वन् । ३ ह्रासं कुर्वन् । ४ प्र० जिनपो विपने । MORPROOrcoocc000000000000000000000000000000000 woooooRNOOOOOOOOOOOD ॥२९॥ Jain Education aterational ainelibrary.org Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९॥ 100000000000000000000000000000000000000000000000000 प्रणिपत्य च प्रभुमिमं प्रमदाद भरतेश्वरोऽविशदयोध्यपुरम् ॥१४३॥ गजराजरूढ इह संघपतिहरिणाऽभ्रमुप्रियजुषा च युतः । प्रययौ महापथमुखं स यदा प्रमदास्तदाऽऽपुरिति सोत्सुकताम् ॥१४४॥ नं धयन्तं ललितं स्तनधयं विहाय वातायनजालकस्था । ववर्ष दुग्धं सुरसृष्टपुष्पवृष्ट्या समं काऽपि सुवासिनीह ॥१४५॥ | हाराधमुक्ताफलपूर्णमुष्टिर्गवाक्षमागत्य नृपं सखीभ्यः। संदर्शयन्ती विरलाङ्गुलीकाः संवर्धन काऽपि चकार तस्मै ॥१४॥ कयाऽपि सख्या जगदे विमुग्धा दूर किमायस्यसि वीक्षणाय । त्वदीयहारस्थितनायकान्तर्भूनायकं पश्यसि किं न सौख्यात् ॥१४७॥ हलात् काश्चन काश्च सर्वसंघागमालोकन पुण्यलोभात् । सौभाग्यतः संघपतेश्च काश्चिद् विभूषयामासुरितो गवाक्षान् ॥१४८॥ ४ आशीभिरुचैः स गुस्वजस्य सन्माङ्गलिक्यैवरवणिनीनाम् । जयारवैर्वन्दिजनस्य साध विवेश सौधं नृपचक्रवर्ती ॥१४९॥ नः समृडः संघाधिपत्वस्य महाभिषेकः । संवत्सराण्यष्ट सुपुष्टहर्षात् चक्रेश्वरस्य प्रथितः प्रचक्रे ॥१५०॥ 50000000000000000000000000000000000000000 अभ्रमुप्रियो-हस्ती । १९२० wlodjainelibrary.org Jain Education E ational Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक- 8 संघाधिपं श्रीभरतं समग्राः सुधाभुजस्ते वसुधामुजश्च । ॥२९३॥ ४ < १२ स्नेहेन सुश्लाघ्य सुभूष्य हर्षाद् यथागतं पुण्यभृतोऽथ जग्मुः ॥ १५१ ॥ ( श्रादिजिमस्य परिवार : - ) युगादिदेवस्य भुवस्तलेऽस्मिन् यथाऽन्यतो बोधयतश्च भव्यान् । चतुर्युताऽशीतिसहस्रसंख्यास्तपोधना धर्मधना अभूवन् ॥ १५२ ॥ श्रीब्राह्मिका-सुन्दरिकादयस्तु लक्षत्रयेण प्रमिताः सुसाध्यः । श्राद्धास्त्रिलक्षाणि सहस्रपञ्चाशताऽधिकानि प्रबभूवुर ॥ १५३ ।। सुश्राविकाणामिह पञ्च लक्षाश्चतुष्कपञ्चाशदथो सहस्राः । चतुःसहस्री सह सप्तशत्या पञ्चाशताऽस्ति श्रुतधारिणां च ॥ १५४ ॥ इहाऽवधिज्ञानियतीश्वराणां जाताः सहस्रा नव संयमा याः ( व्याः ) सुनिर्मलाः केवलिनो मुनीन्द्राः संजज्ञिरे विंशतयः सहस्राः ॥ १५५ ॥ एतन्मिता वैक्रियलब्धिमन्तः षड्भिः शतैस्तेभ्य इहाऽधिकत्वम् । Jain Educationmational सहस्रका द्वादश षट्शतानि पञ्चाशदासीदिति वादिवृन्दम् ॥ १५६ ॥ एतन्मिता एव यतीश्वरास्ते ज्ञानं मनः पर्ययकं वहन्तः । द्वाविंशतिः संयमिनां सहस्राः विमानकान्यापुरनुत्तराणि ॥ १५७॥ श्रीपुण्डरीकप्रमुखा गणेशाश्चतुर्युताऽशीतिमिता बभूवुः । आयातोऽभूत् परिवार एष सुरासुरैर्वन्दितपादपद्मः ॥१५८ ॥ 500000000 सर्गः -८ jainelibrary.org Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिरी 18 (अष्टापदे आदिजिनः-) व्रतं पाल्येति सुपूर्वलक्षं स्वामी ततोऽष्टापदशैलशके। सम सहस्रर्दशभियतीनां सपादपस्योपगम प्रपेये ॥१५९॥ 8 भष्टापदं भरतो गतः- इतः स चक्री गिरिपालमुख्यैविज्ञापितो यावदिदं स्वरूपम् । समाययौ तावदिहाऽऽशु पाद-चारेण दुःखाजनक दिक्षुः ॥१६॥ 8 पर्यनामासनमाश्रितं तं तथास्थित वीक्ष्य स वीक्षणाभ्याम् । स चक्रवर्ती समशोक-हर्षवर्ती क्षणादेव तदा बभूव ॥११॥ निजावधिज्ञानत एव सर्वे सरेश्वराः स्वासनकम्पहेतुम् । जिनेन्द्रनिर्वाणदिनं विबुध्य समुत्सुकीभूय समं समीयुः ॥१६२॥ कालेऽवसपिण्यभिधे तृतीया-ऽरकस्य पक्षेषु ततः स्थितेषु । नवाऽधिकाऽशीतियुतेषु माघाऽसितत्रयोदश्यभिधे तिथौच ॥१३॥ अभीचिनक्षत्रगते शशाङ्के पर्यनामासनसन्निविष्टः । स्थित्वाऽऽदराद् बादरकाययोगे वाक्-चित्तयोगी निररोध सम्यक ॥१३॥ 8 सूक्ष्मेण योगेन शरीरकस्य निरुध्य तं बादरनामधेयम् । वाकू-चित्तयोगावपि सूक्ष्मरूपो निषेध्य सूक्ष्म क्रियमित्यऽवाप ॥१६५॥ ( शिवं प्राप्तः श्रीआदिदेवः-) आसाधयत् सूक्ष्मशरीरयोग छिन्नक्रियं ध्यानमिदं तुरीयम् । अदीर्घपश्चाक्षरवाकूप्रमाणमशिश्रियत् श्रीजिनराज आचः॥१६॥ 00000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000 ॥२९॥ Jain Education national jainelibrary.org Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डरीक ५२९५॥ ८ १२ Jain Education erfoडकावद् गतबन्धनोऽयं शिवं यथाऽगाद् ऋजुना जिनेन्द्रः । इत्थं सहस्रा दश सद्यतीनां निःश्रेयसं शीघ्रमशिश्रियंश्च ॥ १६७॥ सुखं तदेव प्रसार सर्व लोकस्य तेषामपि नारकाणाम् । सर्वास्ववस्थासु सुखाय सन्तः स्युः सर्वविश्वस्य किमत्र चित्रम् ॥ १६८ ॥ (इन्द्रेण भरतस्य रोदनं शिक्षितम्- - ) दुःखेन संपूर्णहृदन्तरालश्चक्रेश्वरः सोऽत्यनरालबुद्धि: ( १ ) । गलावलग्नेन सुरेश्वरेण सुशिक्षितो रोदनमप्यऽपूर्वम् ॥ १६९ ॥ यः सर्वदा निर्मलमाङ्गलिक्यशब्दः परिप्रीतमना बभूव । विडम्य शोकेन विरोद्यतेऽसावहो । भवोऽयं खलु कष्टरूपः ॥ १७० ॥ सुरेश्वरेण प्रतिबोधितोऽथ शुचं मुमोचाऽऽशु स चक्रवर्ती । गोशीर्षकाष्ठानि तदाऽऽभियोगिदेवाः समानिन्युरिन्द्रवाक्यात् ॥ १७१ ॥ वृत्तां चित पूर्वदिशीह पाम्याँ व्यसां तदेक्ष्वाकु महर्षिहेतोः । प्रातीच्यभागे चतुरस्वरूपामन्यविहेतोर्विदधुश्च देवाः ॥ १७२ ॥ संलाप्य दुग्धाब्धिजले जिनेन्द्रदेहं विभूष्योत्तमदेह (व) दृष्यैः । emational शृङ्गारयित्वा मणिभूषणैद्रोग् ननाम तत्पादयुगं सुरेन्द्रः ॥ १७३ ॥ तदेव देहं खयमात्मशीर्षे संस्थाप्य शीघ्रं नृविमानमध्ये | इन्द्रो निचिक्षेप तथाऽन्यदेहानन्ये सुरा अन्यनुयानकेषु ॥ १७४ ॥ चरित्रम्सर्ग: ८ ॥२९५॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्ग: डरीक-मभोविमान खयमिन्द्र एवाऽन्येषां विमामान्यपरे च देवाः। उत्पाटयामासुरिहाऽथ देव्यः संगीतकं चकुरुदामने ॥१७५।। ॥२९६॥ सुतालरासान् देदतीषु सर्व-देवीषु देवेषु च तत्पुरस्तात् । कुर्वत्सु वस्त्रैरहितोरणानि (?) निन्ये विमानान्युपचित्यमिन्द्रः ॥१७॥ सुरेश्वरादेशवशादथाऽग्निकुमारदेवैर्मुमुचेऽत्र वहनिः। वायु ततो वायुकुमारकाच समन्ततश्चकुरिहोचवेगम् ॥१७७॥ कर्पूरपूरं किल भारशोऽत्र मधूनि सीषि च कुम्भशस्ते। चित्यासु देवा ववृषुस्ततोऽन्दाः क्षीराधिनीर शमयांवभूवुः ॥१७८॥ ऊर्वस्थितां दक्षिणदंष्ट्रिकां च जग्राह सौधर्मपतिः प्रमोदात्। . ईशाननाथस्तत ऊर्ध्वसंस्था वामां गृहीत्वा मुमुदे हृदन्तः ॥१७९॥ अधस्तनी दक्षिणदंष्ट्रिको च निनाय हर्षाचमरेन्द्र एषः । वामां बलीन्द्रोऽपरवासवास्तु दन्तान् सुरा अस्थिचयं विनिन्युः ॥१८॥ सुश्रावका अप्यथ याचमाना दत्ताग्निकुण्डत्रितयाः सुरेन्द्रैः। तेनाऽग्निहोत्रेण युताः पृथिव्यां सद्ब्राह्मणाः शुद्धतमा बभूवुः॥१८॥ केचित्त भक्त्या प्रभुदेहभस्म ववन्दिरे निर्मलचित्तरङ्गाः । ते तापसा भूमितले प्रसघुविहाय नीरं कृतभस्मशीचाः ॥१८२॥ दहतीषु प्र.। OOOOOOOooooo6666 sao88966050DOOOOOOOoooh 0000000000000000000WOOOOOOOOOOOOOOD0000 0000000 Jain Education national ainelibrary.org Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रासर्ग: ॥२९७॥ चितात्रयस्थानमुवि प्रचक्रुः स्तूपान् सुरा रत्नमयान महोचान । अष्टाहिका सर्वसुरा विधाय नन्दीश्वरे स्वस्वदिषं समीयुः ॥१८३॥ स्वमाणवस्तम्भगता जिनेन्द्रदंष्ट्रां विधायाऽथ चतुम्सुरेन्द्राः। कल्पद्रुपुष्पैरनिशं सुभक्त्या संपूजयामासुरिहैकचित्ताः ॥१८४॥ 18 (मष्टापदे जिनगेहम्-) अष्टापदेऽचीकरदेष चक्री सुविस्तृतं योजनमेकमत्र । उस्निगन्यूतिमित जिनेन्द्रगेहं तदा वर्धकिरत्नहस्तात् ॥१८५॥ चैत्यं समं सिंहनिषद्ययाऽत्र मध्ये प्रधाना मणिपीठिकाश्च । पहस्तदूर्ध्वं पृथुलोऽस्ति देवच्छन्दाभिधानो मणिरत्नरूपः ॥१८६॥ स्वस्वप्रमाणाऽऽकृतिवर्णयुक्ता युगादिदेवादिजिनेश्वराणाम् । ____ मूर्तीश्चतुर्विंशतिसंमितास्तु सुरत्नरूपा रचयांचकार ॥१८७॥ 8 पुरश्चतुर्विंशतिरत्नदीपास्तथा चतुर्विशतिरत्नघण्टाः। ___ अग्रे चतुर्विंशतिमाङ्गलिक्या-ऽष्टकानि चक्रे सुमणीमयानि ॥१८॥ द्वाराणि चत्वारि समण्डपानि व्यधापयत् षोडश तोरणानि । सस्वर्णकुम्भान्यथ माङ्गलिक्यान्यष्टौ चतुष्कं मुखमण्डपानाम् ॥१८९॥ पुरश्चतुर्णामपि मण्डपानां श्रीवल्लरीमण्डपकास्तदन्तः। प्रेक्षाभिधामण्डपकास्तु तेषां मध्येक्षुवाटाः खलु वजरूपाः ॥१९॥ 00000000000000000000000000000000000000000 25000000000000000000000000000000000000000000000000 ॥२९७० Jain Education In tional wwufnelibrary.org Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रम्सर्गः-८ २२ पुण्डरीक18 (स्तुपा:-) सिंहासनान्येष्वथ मण्डपाग्रे व्यरीरचत संणिपीठिकाश्च । . स्तूपास्तव शुचिरत्नरूपास्ततश्चतुष्कं मणिपीठिकानाम् ॥१९१॥ प्रत्येकमेतासु धनुश्शतोच्चाश्चैत्योन्मुखाः सत्प्रतिमाश्चतस्रः। श्रीवर्धमान-र्षभ-वारिषेण-चन्द्राननान्ताः शशिकान्तरूपाः ॥१९२॥ तासां पुरश्चैत्यनगास्तदने इन्द्रध्वजाः पीठगताः पुरस्तात् । वाप्यस्त्रिसोपानयुता जलाया नन्दाभिधाना रचयांचकार ॥१९३॥ चैत्यो_भागे कलशांस्तु पद्मरागात्मकान् स्वर्णमयांश्च दण्डान् । ध्वजान्वितांश्चन्दनहस्तकांश्च व्यधापयत् तत्परितश्च वप्रम् ॥१९॥ नवाधिकाया नवतेनिजानां सहोदराणां प्रतिमाः प्रधानाः । अकारयद् रत्नमयीस्तद्ने मूर्ति निजां योजितपाणिपद्माम् ॥१९॥ चैत्याद् बहिस्तूपमथो जिनस्य स्ववान्धवानां नवयुग्नवानाम् । . स्तूपैर्वृतं तं चतुरोऽग्रलोहारक्षान् सरक्षश्चतुरो व्यत्तिः ॥१९६॥ गिरि ततोऽसौ निजदण्डरत्नेनोत्कीर्य तं योजनसंमितानि । सोपानकान्यष्ट सुपुष्टबुद्धिर्नृणामलध्यानि चकार चक्री ॥१९७॥ चैत्यं विधाप्येति ततः प्रतिष्ठा विधाय मन्त्रविधिना जिनोक्तैः । 30000000000000000000000OOOOOOOOOOOOOOOOOOree NỘx COOOOOOOooooooooo १ प्र० नवयुग्नव । ॥२९८॥ Jain Education L eational inelibrary.org Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्ग:-८ पुण्डरीक-8 श्वेतांशुकः स्नाततनुस्त्रिधाऽथ परीय पूजां विदघे विवेकी ॥१९८॥ ॥२९९॥ पीयूषपूरैः स्नपांचकार ममार्ज भक्त्योत्तमदेवष्यैः।। ___सच्चन्दनैस्ता विलिलिम्प दिव्यपुष्परिहाऽऽनर्च जिनेन्द्रमूर्तीः ॥१९९॥ विभूषणैश्वोपविभूष्य धूपमुद्ग्राहयामास स सुवासनोऽयम् । आरात्रिकं माङ्गलिकप्रदीपं कर्पूरपूरैरुदतारयच्च ॥२०॥ 8| भूत्वा जिनाग्रे भरताधिपोऽयं तदा चतुर्विंशतितीर्थनाथान् । तुष्टावथाऽऽरोप्य मनः स्वकीयं तुष्टाव साक्षादिव संविभाव्य ॥२०॥ 8 ( अष्टापदाद् अयोध्यायामागाद् भरतः-) प्रासादं प्रौढमेनं रुचिरमणिगणेनिमितं पञ्चवर्णैः कुर्वन्तं कान्तिभारैवियति विततरुक् संततं शक्रचापम् । स श्रीमांश्चक्रवर्ती भरत इह बलग्रीवमालोकमानस्तस्मादष्टापदानेरुदतरदह द्रक्तिसंपूर्णचित्तः ॥२०२॥ विवेकार्कोद्भूतद्युतिविकसिते बीततमसि दधडैमं हंसं स्थितमिव विभुं हृत्सरसिजे।... १२ अयोध्यायामागा भरतनृपतिः कीर्तिनिवहैर्वितन्वन् ब्रह्मा डोदरमतुलकर्पूरकलशम् ॥२०॥ श्रीरत्नप्रभसूरिसूरकरतो दोषानुषङ्गं त्यजन् यो जाड्यस्थितिरप्यभूत् प्रतिदिनं प्रासाद्भुतप्रातिभः । तेन श्रीकमलप्रमेण रचिते श्रीपुण्डरीकमभोः श्रीशत्रुजयदीपकस्य चरिते सोऽजनिष्टाऽष्टमः ॥२०४॥ ॥ इति श्रीभरतसंघपतिपदप्राप्ति-शत्रुजयप्रकाशन-श्रीयुगादिनाथ निर्वाण-अष्टापदप्रासावर्णनो नाम अष्टमः सर्गः॥ 00000000000000000000000000000000000000000000000000 SDOO0000000000000000000MOKOOOOO00000000000000000 ॥२९॥ Jain Education national Kljainelibrary.org Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥३००॥ ४ ८ १२ danbang ( काव्यसमा ( आदिजिनविरहात् सशोको भरतः - ) अथ भरतमहीशः श्रीयुगादीशदेवं त्रिभुवनपतिपूज्यं संस्मरन्नेव नित्यम् । अंकृतन कृतिसंगं नाऽपि नाव्यादिरङ्गं तृणमिव निजम मन्यते स्माऽप्यनङ्गम् ॥ १ ॥ तलिनतलिनलीनोऽप्याप न स्वापमेष सरसमशनमश्नन्नाऽपि सुस्वादसौख्यम् । अरमत न रमाया रामणीयेऽपि मायारहितहृदयसंस्थं स्वामिनं सेवमानः ||२|| विषमिव विषयोधं मन्यमानः समग्रं नरपतिरिह तातस्यादिदेवस्य दुःखात् । सुरपतिरुपगत्य द्यूतभूतप्रभूताभिनवकुलकतोऽमुं शोकहीनं चकार ॥ ३ ॥ सुरगुरुमुखपद्मात् श्रीयुगादीश्वरस्य प्रचुरचरितबन्धान भव्यकाव्यप्रसिद्धान् । सुकृतभर रसायान् भारतेन्द्र महेन्द्रः परिषदि विनिषण्णः श्रावयामास नव्यान् ||१४|| क्षणमपि सुविसूदिव्यगीतै मुंहूर्त प्रतिकलममरीणां नूतनैर्नृत्यकृत्यैः । भरतमुं निविनोissनन्थ वाऽनिन्यभाक् त्रिदिवमथ जगाम स्वं स सौधर्मनाथः ॥ ५ ॥ ( गतशोको भरतः— ) तदनु भरतनाथो मन्त्रिभिर्मन्दमन्दं विहितविमलचित्तः शुद्धसौहार्दशाली ! अभुनगतुलसौख्यं सारशृङ्गाररङ्गोऽखिलवलय मिलायाः पालयंलीलयैव ॥ ३ ॥ अथ शिथिलितशोको मन्दमन्दं महीशः क्वचिदपि दिवसेऽसौ प्रावृतः प्रेयसीभिः । ( भरतस्य जलक्रीडा:-) शुचिसुरभिजलान्तः क्रीडनं कर्तुकामोऽकलयदकलुषोऽयं दीर्घिकां दीर्घकान्तिः ॥७॥ १ अकृति न प्र० । २ भरतम् उ । Jain Education national 00000000000000000000000000000 चरित्रसमाप्तिः ॥ ३००॥ Hainelibrary.org Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक परित्रम् १३०१॥ समाप्ति 000000000000000000000000000000000000000000000000000 अभिनवनलिनालीसनिलीनालिशन्दैः प्रियमिव सुवदन्ती संगम वा चिकीपः । सुललितसलिलौघोत्तुरात्तरबैभरतपतिनेयं वापिकाऽवापि कामात् ॥८॥ उपमुखशशिकान्त्या चक्रवाकमियायाः प्रददारितभयेाऽऽलिङ्गनं सचकोराः। मुदमुपययुरुचैश्चश्वरीकाः स्वलोभात् कुवलयमुपजग्मुः संभ्रमात् त्यक्तपमाः ॥९॥ सरसि विकचपुष्पाकल्पसंभूषिताङ्गं नृपतिमनुसरन्त्यः सुध्रुवो विभ्रमाव्याः। कलितकनकशृङ्गा रम्यशृङ्गारभाजः प्रविविशुरनु धर्म संपदो धामनीव ॥१०॥ सुललितललनाना मजुमजीरनादैः श्रुतिसुखमिह भूयश्चानुभूय प्रभूयः। अभि गगनमरालीभूतकण्ठैमरालैः कुतुकविकसिताक्षः शीघ्रमुडीनमुच्चैः ॥११॥ विरहि विधुतचित्ताद् विप्रयोगाग्नितप्तादिह रति-रतिनाथौ किं शयाते प्रणश्य । कनककममलरेणुर्नील पद्म वीनोत्तरपट इय चित्रो विस्तृतो दृश्यते तत् ॥१२॥ त्रिनयननयनस्थाद् वहुनितो नित्यभीरुवसति मदनवीरो नीरदुर्गे निसर्गात् । तरणि-शशधराभ्यां दीपितं शस्त्रसंघं कमल-कुवलयाख्यं विद्यतेऽहनिशं तत् ॥१३॥ इति धृतधृतिरुचैर्वीरशङ्गारिराजो भरतनृपतिरन्ताशुद्धवेसन्तकस्य ()। अरमत जलपूरे संप्रविश्य प्रशस्यमतिम इह महेलो: खेलयन हेलयैव ॥१४॥ प्रमुदितवनिताभिः प्रेरिताः स्वर्णशङ्ख सरलसलिलधाराश्वक्रिदेहे पतन्स्यः। १ गठभवेन। 00000000000000000000000000000000000 अरमत Jain Education E ational wwwhinelibrary.org Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥३०२|| १२ 00100 सुकनकनलिकाभिः कामधानुष्कमुक्ता इव रजतशराणां राजयो रेजिरे ॥१५॥ युगपदर्भित उद्यद्याणिनीबाहशृङ्गप्रसृत सलिलवेणिश्रेणिगुम्फान्तरस्थो । भरतपति- सुभद्रा दम्पती रेजतुस्तौ किमु रति- रतिनाथौ रूप्य सन्मण्डपाधः ॥ १६॥ विविधकरविभूषाकान्तिजातेन्द्रचापान्तरसमुपगताभ्यः सत्कटाक्षैर्युताभ्यः । विपुलजलततिभ्यः कामबाणावलीभ्यः सभय इव पुरोधाद् वारणं प्रौढपद्मम् ॥ १७॥ अथ भरतनृपोऽपि प्रेयसीचित्तभूमी नवमनसिजवृक्षाङ्कुरराजिप्ररूढाम् । सपदि किल निनीषुर्वृद्धिमम्भोजपत्रप्रकटपटुपुटौधैर्वारिवाहोऽभ्यषिश्वत् ॥१८॥ भरतनृपतिमुक्ता निर्मला नीरधाराम्यकितवलितनारी कुन्तलालीनिलीनाः । किमु गगन गङ्गाः संमिलन्त्यो यमीभिः द्विजमनसिजपुण्यं स्नानतो वर्धयन्त्यः ॥१९॥ क्षितिपतिकरनिर्यनीर पूरस्फुरन्त्योऽङ्कितनयनमाला नाधिकानां विरेजुः । निजनिजहृदयोत्थस्येव मीनध्वजस्य ध्वजशफरगणः किं दृश्यते चञ्चलोऽयम् ॥२०॥ प्रबलन्नृपकराग्रात् पेतुषो वारिराशेढ कुचतटघातात् शीकरैः प्रोच्छलद्भिः । नरपतिवनितानामास्यशीतांशवोऽमी उड्डभिरिव समन्तादावृतास्तत्र रेजुः ॥२१॥ धरणिरमण एवं सर्वतः सर्वरामाश्चिरमिह रमयित्वाऽनङ्गरागाभिरामाः । सकलसलिलकेलो कोमलाऽङ्ग्यः कलाबानतिशिथिलितभावा भावयामास विज्ञः ||२२|| १ यमुनाभिः । चरिभ | समाप्तिः ॥३०२|| jainelibrary.org Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीफ-स चिकरनिकरम्ब काश्चनाऽम्भोजनालैनिजकमिह नियम्य खर्णरुकू कीरसंस्थः । चरित्रम् सुरगिरिरिति नील विद्युता वेष्टिताक्षं दधदिव नवमेघं राजराजो रराज ॥२३॥ ॥३०॥ समाप्ति तदनु सरसरूपाः निस्सरन्त्यः सरस्याः कलितजलजराज्यो राजनार्यों विरेजुः । - मदनमवगणय्याऽनङ्गमस्त्राणि नीत्वा रतिरिव बहुरूपा चेलुषी जेतुमुवीम् ॥२४॥ मलयजघनसारैः स्मेरकाश्मीरपूरैः घनमृगमदसारैः श्वेतशोणासिताभम् । शशभृति पिहिताघे सैहिकेयेन साचं गगनमिव सरोऽभाद् गोपतेनिर्गमेण ॥२५॥ अथ भरतनरेन्द्रः क्लिन्नवासांसि मुक्त्वा गुभवशतदुकूलैभूषितो भाभिराभात् । परिहतभशवर्षत्प्रावृषेण्याऽम्बुवाहः परिवृत इव सूर्यः शारदैारिदौधैः॥२६॥ तदनु भरतनाथे चित्रशालां विशालामुपगतवति सर्वान्तःपुरीभिः परीते। नवनिधिपतिदेवैरपितं भूषणोघं तिलक इह सुवण्ठोऽभ्यानयत् सत्करण्डे ॥२७॥ भरतपतिभक्तस्तैनिधीनामधीशैः सुरभुवनमणीभिनिमिता भूषणालीम् । प्रमुदितवनितानां देहसंभूषणार्थ द्रुततरमुपनिन्युः पेटिकाटिकाभिः ॥ अविशद् भरत भावर्शगेहम-) कृतमलयजलेपोऽलंकृताङ्गो विशेषाद् अचिररुचिरशेषप्रेयसीप्रेमपूर्णः। अविकलनिजरूपं वीक्षितुं स क्षितीशोऽविशदमलतराभाऽऽदर्शगेहं स्वमानम् ॥२९॥ 18(भरतस्य विरक्तविमित्तम्- ) विमलमुकुरभित्तो स्वस्वरूपं सुऽऽरूपं सकलमकलयंस्तत् प्रत्युपा सरतः। भूपतेः सूर्यस्प वा । ३ काचगृहम् । ३ स्वपरिमितम् । 18||३.३n 250000000000000000000000000000000000000000000000000 Ooooooooooooooooooooooooooooooo Jain Education national witmlainelibrary.org Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक ॥३०४॥ समाप्ति 00000000000000000000000000000000000000000 सरलकरकनिष्ठां नष्टकान्ति समग्राङ्गुलिषु कलितदैन्या तामिवेक्षांचकार ॥३०॥ किमियमतिविशोभा दृश्यते मेऽङ्गुलीभिश्चकितविकसिताक्षो वीक्षते यावदेषः । भुवि परिहतमुद्रा भूषणानास्थ एव क्षितिप इह कनिष्ठा लक्षयामास तावत् ॥३१॥ विविधविभविभूषाभूषिताङ्गेभ्य एषा यदित() विगतशोभा दृश्यते मे कनिष्ठा । - अतनुरुचिरताऽसौ तन्न नित्या नितान्तं न तनुरुचिरता च प्रेक्ष्यते चिन्त्यमाना ॥३२॥ इति मनसि विचार्याऽऽश्चर्यतो वयरत्नाभरणयणमहासीद् यद् यदङ्गात् क्रमेण । - अजनि भृशकृशधि स्वीयकान्त्या वियुक्तं कनकनलिनवत् तद् भानुभासा विहीनम् ॥३३॥ जगदधिपतिमोहः स्वीयसंसारगेहे दुरितसलिलपूर्ण राज्यकुम्भं निधातुम् । मम शिरसि किरीटं दासरूपस्य नित्यं स्थिरयति तदपातायैव तद् दूरयामि ॥३४॥ तिलकमपि किमेतत् पूज्यपादप्रणामात् क्षितितलभवरेणुस्पर्शपुण्यान्तरायम् ।। श्रवणयुगविभूषाकुण्डले तत् कुतो नो भवति भवतितीष चेत् ततः शस्त्रमेव ॥३५॥ किल ललितललन्त्याऽलंकृतो नो गलः स्यात् सुकृतमधुरसत्यैर्भाषितैश्चद् विहीनः। मणिगणमयदेवच्छन्दसा नो सशोभं हृदयमर्दयमिन्द्रच्छन्दसाऽप्यन्त्र न स्यात् ॥३६॥ भवतिमिरहरं स्याद् निर्मलं ध्यानतेजो हृदि यदि विजयोख्यच्छन्दसा किं ततः स्यात्। यदि जिनपतिपूजालंकृतिः पाणिपने कनकवलयबन्धे कोऽस्तु निर्बन्धभावः ॥३७॥ , ललन्ती गलालंकारः । २ निर्दयम् । ३ इन्द्रच्छन्दो हृदयभूषणम् । ४ विजयच्छन्दोऽपि तदेव । 0000000000000000000000000000000000000000000000006 याद ॥३०४॥ Jain Education n ational IBanelibrary.org Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xóa so xo इति सकलशरीरालोकरम्पत्वमेतत् निजमनसि विचार्योत्तार्य चातुर्यवयः। अघपुषि बपुषि स्वे धर्मनिःस्वे स विश्वेश्वर इह हदि भावं चिन्तयामास सत्यम् ॥३८॥ जलमलयजवस्त्र-स्वर्णरत्नादिवस्तून्यनिरुचिररुचीनि स्युहि मलाख्यानि यस्मात् । अहमहह!! निजायुमोक्षसौख्यस्य हेतुर्व्यगमयिषमनयं तस्य देहस्य दास्यात् ॥३९॥ यदशुचि यदरम्यं निर्मितं तेन देहं यदतिशुचि मनोझं हाऽन्यथा तत् करोति । लघयति निजधातुमित्रवर्ग महारीन् गरयति विपरीतः कायतोऽन्यत्र नास्ति ॥४॥ असुखदमपि पापं सेवते जन्म दत्त्वा सुखकृदपि न पुण्यं देहवन्धप्रणाशि । अयि शृणु परमात्मन् ! धूर्तमेतच्छरीरं त्वमसि भृशविमुग्धो यः स्वकार्यप्रमादी ॥४१॥ मृपतिभवभवेन स्वेन पापेन गाढं सपरिभवमवेक्ष्य त्वां सुदुःखाकुलेव । किल परिहरति स्माऽलंकृतियोऽत्र देहे तव बहुहितनिष्ठा जीव ! सेयं कनिष्ठा ॥४२॥ वसन-कनकभूषाः सत्कुविन्दाः कलादा मुहुरिह रचयित्वाऽमण्डयन् देहमेतत् । सकलमपि निमेषेणैव सामीप्यमात्रात् परिगलितमलत्वाद् निर्ममे दर्पणोऽयम् ॥४॥ अयमिव परमात्मन् ! निर्मलीभूय भूयः स्मर सुयतिवराणां त्वं तथा सच्चरित्रम् । अयतिरपि तथाऽऽशु स्वाजितं पापसंघं यतिरिव परिपेष्टुं यत्नमुचैविधेहि ॥४४॥ (युग्मम् ) विविध विषयसौख्यैः प्रीतमेतच्छरीरं तदुपचितमघौघं भोक्ष्यसे तु त्वमेव । १ पापपोषके। 00000000000000000000000000000000 sooooOOOOOOOOOo9x9 Jain Education Mational wwwjainelibrary.org Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुजारीक-8 . उकळ000000000000000000000000000000000000000Coor रुचिरमिति विचिन्त्याऽनेन कायेन कार्य कुरु किमपि न येन स्वास्त्वमात्मन् ! शरीरी ॥४५॥ यदि जगदधिपत्वं सारसंसारसौख्यं यदि सुललितनार्यः कामतोऽनायभावाः। यदि विविधविभूषाभूषितं देहमेतत् कथय किमपि साध्यं स्वल्पमप्यत्र सिद्धम् ॥४६॥ विषयविषयसौख्यं भगुरं येऽवगत्य भवभवभयभीताश्चक्रुरुग्रव्रतानि । उपविभु सहजा ये बन्धुनिर्बन्धबन्धं निखिलमवगणय्यतेऽत्र धन्या यतीन्द्राः ॥४६॥ असुर-सुरशरण्या श्रीयुगादीशदेवोऽप्यथ स ऋषभसेनः साधवो बान्धवास्ते । मम बलमदहन्ता बाहुवीरो मुनीन्द्रः सकल इति कुटुम्बे मोक्षगे हा! स्थितोऽहम् ॥४७॥ असुर-सुरनगेन्द्रा पन्नगेन्द्रा जिनेन्द्रा समयति समयेऽस्मिन् संभविष्यन्त्यभूवन् । इति विपुलभवाब्धी मारशा बुदबुदामाः गगनकुसुमतुल्यां नित्यता मानयन्तु ॥४८॥ वचनमनृतसत्याध तथौदारिकाध वपुरपि सुमनोऽत्राऽनन्तवारं सूजस्त्वम् । किल निखिलसुलोकाकाशगान् पुद्गलौघान् इह हि परिचिकाय स्वं च पापंचिकाय ॥४९॥ गरेभगरंभदुःखं भोगरोगप्रयोग जरसमघरसं वा मृत्युतो नारकोत्थम् । सहसि सहसितो वा संरुदन वा त्वमेकस्तदिति वद कुटुम्बे कोऽस्ति तत्रोपकारी ॥५०॥ अमलपरमतेजाः केवलोऽसि त्वमात्मन् ! मलमयमलमेतत् सप्तधातुस्वरूपम् । इति विसहशभावाद् देहमप्यन्यदेव स्वजन-धनभरादिष्वन्यता तन किं स्यात् ॥५१॥ गरभम्-गरसरशम् । २ 'गर्भ' शब्दः अ-मध्योऽपि भवेत् । ३ प्र• गरसमरघरसं । SoOooooooooooooooooooooooOood ॥३०६॥ Jain Education loational plainelibrary.org Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक पारम. SO000000MOM 0000000000000000000000000000000000000000000000 रस-रुधिर-सुमेदो-नांस-मजा-ऽस्थि-वोऽशुचिचयनिचिताङ्ग्यो विधवच्छोत्रविस्राः। विषयविषविमोहात् क्रीडयन् नार्य आर्य ! क्व पतसि नरकान्धावन्धचित्ते त्वमास्मन् ! ॥५२॥ इति भरतनरेन्द्रो निमितात्मप्रबोधः स्मृतजिनपवचोभिस्त्यक्तसंमोहरोधः। क्षपकविमलभावः श्रेणिमार्गे स्ववेगात् सकलदुरितसार्थ घातकं मुश्चति स्म ॥२३॥ (भरतस्य केवलज्ञानम्-) प्रथमजिनवचोभिः संस्मृतीनवन्तं स्थिरशिवपथि सम्यग्भावतो दर्शनाख्यम् । अवगतमुनिकृत्यैः सच्चरित्रेण युक्तं नृपमभजदियं द्राक् केवलज्ञानलक्ष्मीः ॥५४॥ अथ धरणिधरेऽस्मिन् केवलज्ञानभासा समुदयमुदयन्तं वीक्ष्य तस्मिन् मुहूर्ते । समुदयममरेन्द्रोऽभ्यागमत् कः सुधा स्थितह मुदितोऽन्तः स्यान साधर्मिकः। ॥५५॥ त्रिजगदधिपवन्ध ! ज्ञानभानूदयाढ़े ! जय जय बच उच्चैः प्रोचरन् देवराजः। . अमरपरिवृतोऽसावेत्य संयोज्य पाणी भरतवसुमतीशं नीतिविज्ञो जगाद ॥५६॥ प्रकटितपरमौजा भावचारित्रतस्ते समजनि परमात्मा मोक्षमोख्यकभूमिः। अपि वपुषि भज त्वं शुद्धचारित्रवेषं सविधमन (नु) योग्यो व्याहतोऽहंभिरेषः ॥५७।। यतः- प्रथम जिनविभावादेष चारित्रराजः किल भुवि विलसंस्त्वां तत्तनजं निरीक्ष्य । मदन-मद-विमोहाचैनिवड विमुक्तं स्वसखि-भवविरागं प्राहिणोत् त्वत्समीरे ॥५८॥ अथ स भवविरागो भूषणमोहबन्धरिव पिहितशरीरे त्यक्तभूषां कनिष्ठाम् । श्रित इह तय दृष्टिद्धारतोऽन्तः प्रविश्य दृढनृपमिव मोहं भाषखड्गजघान ॥५९।। ooooo000000000000000 ॥३०७ JainEducation Intdational inelibrary.org Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म परिकरमवमोहस्याऽत्र मैत्री-प्रमोदप्रभृतिसुभटराजैव्याहतं संनिशम्य । अविशथ पुरं ते भावचारित्रराजः प्रथमामिह मनस्तन्मन्त्रिण भेदयित्वा ॥६॥ शमरजतघटस्थैाननीरस्तु शुक्लैः सपदि समभिषिच्य ज्ञाननेपथ्यभाजम् । ___ गुरुशिवपुरराज्ये त्वां स चारित्रराजो न्यधित तव पितुः किं तं स्मरंधोपकारम् ॥६१॥ 8| अथ तव परमात्मा केवलज्ञानराज्ये स्थितवति मन उचैरप्रधानं चकार । रिपुगणमिलितं प्राक् सेवक स्वस्य पश्चाद् नहि बहु गुणयेयुः प्रायशो नीतिविज्ञाः ॥३२॥ 8 तव धृतगृहवेषस्याऽपि चारित्रराजो गुरुतरमुपकारं गुप्तमित्थं चकार। प्रकटममलरूपं धारयंस्तस्य वेषं त्वमसि खलु कृतज्ञश्चक्रवतिन् ! महात्मन् ! ॥३३॥ (धूता भरतन जैनी मुद्रा-) इति सुरपतिवाक्यात् केवलज्ञानवानप्यधृत स कृतलोचो जैनमुद्रा सुवन्याम् । व्यवहरणविधि चेद् ज्ञानवन्तो महान्तो न विदधति पृथिव्यां कोऽपि किं क्वाऽपि वेत्ति ? ॥६४॥ 8 सह दश च सहस्राश्चक्रिणा तेन भूपा जगृहुरगृहबन्धाश्चारुचारित्रमत्र। भुवि निजविभुभक्तावेकचित्ता नरा ये विषयजसुखशक्तावप्रसक्तास्तु ते स्युः ॥६५॥ (भरतपुत्र भादित्यकीर्तनृपः-) भरतनृपतिपुत्रं प्रौढमादित्यकीर्ति सुरपतिरिह रम्ये सिंहपीठे निवेश्य कृततिलकविभूषं स्वेन हस्तेन हर्षात् स विविधविधिवेदी विश्वराज्ये व्यपत्त ॥१५॥ (भरतमुनिव्यहरत-) स भरतमुनिराजः साधुभिभ्राजमानः त्रिभुवनभवभावान् भावयन् ज्ञानभावात्। - व्यहरदिह विमोहं संहरन् भब्यवर्गात् सुकृतसदुपदेशनिर्मलनिस्पमेव ॥१७॥ Jain Education intonal 000000000000000oCoMooooooo0000000 00000000000000000000000000000 00000000 witosaainelibrary.org Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३०९॥ 500000000000000000000000000000000000000000000000000089 भरतमुनिवरादिस्पर्शपाविन्यपुण्यं सुकृतशतसुलभ्यं प्राप्य पूर्वाऽनवाप्तम् । __ स्वपतिपरिहताभ्यस्तत्प्रियाभ्योऽखिलाभ्यः समधिकमिव मेने सो धरित्री तदा स्वम् ॥१८॥ अमृतरुचिरसौ सत्तारकेशो विनिद्रं कु-वलयमपि कुर्वन् भग्न-चक्रप्रमोदः। भविकजनचकोरान् श्रीणयन् पूर्वलक्षं महदिह मह उच्चनिर्मलं स्वं ततान ॥३९॥ (भरतमति) भरतमुनिरमीभिः संयुतोऽष्टापदादि सुयतिभिरधिरुह्य स्थानमायेशसिद्धः। परिचरति सुरेन्द्र तत्र मासोपवासादरुजमजर-मृत्यु प्रापिवान् मोक्षसौख्यम् ॥७॥ इति भरतसुचक्री सप्ततिं सप्तयुक्तां सति पितरि जिनेन्द्रे पूर्वलक्षान् कुमारः। नृपतिरथ सहनं वत्सराणां तदूनानथ समजनि चक्री पूर्वलक्षान् परेव ॥७१॥ घृतयतिजनवेषः पूर्वलक्ष तर्थक व्यहरदथ पृथिव्यां केवलज्ञानयुक्तः। इति स चतुरशीतिं पूर्वलक्षान् निजायुः प्रथमंजिनपपुत्रः पालयामास चक्री ॥७२॥ भरतमुनिवरेन्द्रस्योर्ध्वदेह क्रियाय सह रवियशसा तत्प्रौढपुत्रेण युक्तः । व्यरचयदमरेन्द्रस्तत्र चाष्टापदाद्री सुरभिसलिलवृष्टिं नीरदाश्चक्ररुच्चे स भरतपतिपुत्रस्तत्र चादित्यकीतिः कनकमयमनध्य कारयामास धाम । प्रथमजिनपमूर्तर्दक्षिणे चक्रति व्यरचयदथ मध्ये तस्य पुण्यप्रशस्थः ॥७४॥ गतवति सुरराजे सोऽप्ययोध्यां समेतो गुरुभरतविहारं तत्र शत्रुजये च । १. भवतारकाणाम् देशोपि। २ पृथ्वीवलयमपि । ३ चक्रवाकोऽपि । ४ इकारान्तोऽपि भवेदय शब्दः । 00000000000000000000000000000000000000000000 Jain Education in ainelibrary.org Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ oooxxxxxxxxx 0000000000 पुष्परीक व्यरचयदथ राज्यं भारतार्धस्य कुर्वन् कृतसुकृतसमूहः सूर्यवंशादिकन्दः ॥७॥ ॥३१॥ इत्येतजगतोऽभुतोदयकृतः श्रीमयुगादिप्रभोः हस्ताम्भोजभववतेन सुरभीभूतस्य देवेश्वरैः। मान्यस्य प्रभुपुण्डरीकगणभून्मुख्यस्य सिद्धाचले सिद्धि प्राप्तवतो बभूव चरितं पूर्ण सुमाङ्गल्यकृत् ॥७६॥ (पूर्ण श्रीपुण्डरीकचरितम् ) (प्रन्यकारपरंपरावर्णना-)-यो जातकर्म-वसना-ऽशन-सद्विवाह-राज्योपभोगविधि-नीति-सुधर्ममुख्यम् । श्रीमद्युगादिजिनपः प्रथयन् विवेक जज्ञे पितेव सततं स जगन्ति पातु ॥७७॥ समग्रभरतक्षितौ प्रथमतीर्थशनंजयप्रभारपरिदर्शने प्रकटरत्नदीपप्रभः। तमो हरतु योहजिद् बरसमस्तसंघस्य स प्रवर्धयतु च प्रभां सुगुरुपुण्डरीकप्रभुः ॥७८॥ श्रीबाहुवल्यादिरय युगादिदेवस्य गच्छासमतरतुच्छ समग्रसंघस्य पसुविधस्य पुष्णातु पुण्यानि समनलानि भोगान् यः किल भुक्तवान्नर-मुराद जित्या युगादिप्रभोभक्ति निषितवान् सुभोजनभरधर्मी च साधर्मिकान । नित्य पोषितवान् गृहं रचितवान् शनने योऽहतो धर्मा-sी-अद्भुतकाम-मोक्षसुखदः सोऽस्त्वाधषदीवर ( कोटिगण:-) (वशाखा--) (चन्द्रगच्छ:-) श्रीमन्महावीरजिनेन्द्र शासने जीयाचिरं कोटिगणो गुणोसमः । 18 (चन्द्रप्रभगुरु:-) - श्रीवजशाखा विपुलाऽत्र विस्तृता श्रीचन्द्रगच्छो जयतीह निर्मलः ॥८॥ 18 श्रीजैनशासनतुरंगगतस्य धर्मभूपस्य वर्म चरितं समभूच्च येषाम् । छत्रं यशः सदूपदेशवचश्च भल्लिश्चन्द्रप्रभाख्यगुरवो शुवि ते वभूवुः ॥८॥ १ समूहः, नतु संप्रदायः । ॥१०॥ Jain Education Internal xxxxxx 5000000000 D00000000000000000SOOMooooood Shelibrary.org Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरिचर . . पुण्डरीकये कीर्तिसौर-भयुजो न कदाऽपि कोपेनालेन संगतिकराः सुकलाभृतोऽपि । नित्वं कलकरहिता विजितद्विचन्द्राश्चन्द्रप्रसाख्यगुरवः किल ते जयन्तु ॥८३॥ (धर्मपोषप्रभुः- जयसिंहदेवो नृपः-) तत्पद्यलक्ष्मीकमलावतंसा श्रीधर्मघोषनभवो बभूवुः। यत्पादपने कलहंसलीलां दधौ पः श्रीजयरिंदेषः ॥८४॥ धर्मघोषगुरुचौक्योचयो यस्य विराजते धर्मघोषगुरुर्भव्यानव्यादव्याहतोदयात् ॥८५॥ ( चक्रेश्वरसूरि:-) श्रीचक्रेश्वरसां नित्यं ददातु भुवि भाविनाम् । श्रीमचक्रेश्वरः सूरिस्तत्पनभः शशी ॥ 18.ये शुद्धव्रतवटुकनिश्चलहदः षशर्कविद्याविदः कामाद्यान्तरशत्रुषदकजयिनः षड्जीवसंरक्षिणः । ये कूचौलसरस्वतीति विहिताः प्रौढेनूपैर्वन्दिताः तुष्ट्य स्थपितसूरिषदकानुदिताश्चराः पुरयः ॥८७॥ 18 (त्रिदशप्रभगुरु:-) ये चक्रेश्वरसूरिपकमलालंकारहारायिताः ये भव्याम्बुजवोधनाय सुतपायान्त्याएसोयिताः 18 ये जनेश्वरशासनोतमसरोमध्ये सहसयितास्ते श्रीमत्रिदशमभारुपपुरवः पुण्याभावागः ॥८॥ ४ ज्ञानादिनिकसद्धर्मदशकाभ्यां कृतप्रभः। त्रिदशश्रीपदो भूयात् श्रीनिशो 5 ॥८९॥ ( तिलकसरि:- ) वाइपीयूवैर्भवमरुतृषं तुच्छयनच्छचित्तः तेषां पहे सुमुनिधिलक सरिराजो पूद। यो रूपेण व्यक्ति सुब्रह्मचारेण चाऽनतारतं कंद त्रिरत्रपराभावुकं दर्पहीनम् ॥१०॥ 8 शीलाङ्गैरिह नखरैमहायतस्तैः पञ्चास्यो जिनपतिशाशने वने यः। सूरीन्द्रं मुनितिलकं प्रणोमि भक्त्या पारीन्द्रं तमिह भवहिपे स्वशक्त्या ॥११॥ 18 (धर्मप्रभसूरि:-) श्रीधर्मप्रभसूरयस्तदनु तत्पदृश्रियो मौलया सिद्धान्ताम्बुपयोधयः सफलहवाणीतरनाऽऽलयः। Cooooooooooooooodoo ooo POOCONDONDOOOOOOLS00000000000000000000000000000 २ oooooooo in Education int o nal inelibrary.org Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक // 31 सैम्यक्त्व दियस्य (हदयस्थ) भूषणमणि चारित्रलक्ष्मी च वैः / // दत्त्वा के न जनार्दना अपिकृता भव्यास्तमोजिष्णवः। क्रोधे दीवति समुद्रुषु पयोवाहन्ति शान्ता रसात् संसारे गुरुवारिराशयेति सत्पातन्ति चारित्रतः। 8 मोहे यामिनयत्यमी सवितरन्त्यन्तःप्रभाभासनात् यवधाख्यानगुरो गुरुः स जयतु श्रीधर्मसूरीश्वरः ( (मभयप्रभगुरुः-) श्रीअभयमभगुरवो भवभयहरणैकबुद्धयोऽभूवन् / तत्पडमानससरोऽलंकृतये राजहंसशचिचरिताः // 94 // 8 गम्भीरो वाधिः शशधरकरा. नैव शिशिरा: सुधा न स्वादिष्ठा मलयजरसो नैव सुरभिः / / प्रमा नो भानो साऽप्यविकलविलोकाय भविनां सुकर्णाभ्यणे चेद् भवति वचनं तद्वदनतः 195 // (रत्नप्रभमरि:-) निर्मल निश्चलकोमलमहातेजा बभूव नत्रासः। श्रीरत्नप्रभसूरिस्तत्पश्रीशिरोरत्नम् // 9 // 18 शाखाम्भोनिधिकुम्भसंभवमुनिःसंदेहराने रविः शान्तत्वाऽमृतचन्द्रमा मधुसुहृद्भेदे भवानीगुरुः / 8 चारित्रविपशल्लकीनिमगुणप्रोद्भूतविन्ध्याचल: श्रीरत्नप्रभसूरिसद्गुरुरहो! स्तोतुं कथं शक्यते // 97 // 18 (कमलप्रभसूरि:-) श्रीरत्नप्रभशिष्येण कमलप्रभसूरिणा / मन्त्राधिराजरूपश्रीपार्श्वनाथप्रसादतः // 98 // श्रीशत्रुञ्जयसिहाद्रेः शृङ्गारस्य रसास्पदम् / प्रभुश्रीपुण्डरीकस्य चरित्रं पुण्यपुष्टिदम् // 19 // (1372 वर्षे कृतमेतत्--) श्रीविक्रमराज्येन्द्रात् त्रयोदशशतोन्मिते / द्वासप्तस्वधिके वर्षे विहित धवलकके // मा.श्रीकैलाशयापरसूरि ज्ञानमन्दिर..कृष्णाः, जन्माईना अपि / 2 सद्गुणद्रुषु दाव वाचति प्रोमेहात पोवाहा शिधनों कमियी इव संसारे / 5 पोताः प्रवहणानि इव / रात्राविय मोहे। 7 प्रा-स्यम् / 8 सूर्या इयं / कावा (गाधानगर, पि 382009 00000000000000000000000000000000000000000000 2000000000000000000000000000000000000 20000000000000 For Private & Personal use only alainelibrary.org