Book Title: Bhisshaka Karma Siddhi
Author(s): Ramnath Dwivedi
Publisher: Ramnath Dwivedi
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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE VIDYABHAWAN AYURVED GRANTHAMALA 42 THE BHISAKKARMASIDDHI 27. [ A TREATISE ON SUCCESSFUL AYURVEDIC TREATMENT S'rī Ramānātă Dwivedi MA, A M S., DSc (A) Lecturer and Medical Officer ( Ayurveda ), BHU Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका समारसिन्धुमतिदुस्तरमुत्तितीर्पोर्नान्य. प्लवो भगवत पुरुषोत्तमस्य । लीलाकथारसनिपेवणमन्तरेण पुसो भवेद्विविधदुखदवार्दितस्य ।। ( श्रीमद्भागवत १२/४ ) आयुर्वेद परिभाषा - आयुर्वेद या वैद्यक की व्याख्या बहुत से विचारकों ने एकदैशिक लक्षणों के आधार पर भिन्न भिन्न की है । कुछ लोगों के विचार से चरक-सुश्रुत-वाग्भट प्रभृति प्राचीन संहिताओं मे लिखित और सीमित अंश ही आयुर्वेद है । दूसरे लोगों की राय मे पश्चात्कालीन संग्रह ग्रंथों मे वर्णित रसयोगो की चिकित्सा ही वैद्यक है । कुछ पर्यवेक्षकों की दृष्टि मे चिकित्सा - विज्ञान की प्रगति जहाँ पर स्थगित हो गई है, वहाँ तक आयुर्वेद है शेष या आगे का अन्य कुछ | इन व्याख्याओं में सत्यांश जरूर है परन्तु परिभाषा एकदैशिक है, समग्र की बोध कराने वाली नही । इस प्रकार अत्यन्त प्रत्यक्ष के आधार पर की गई व्याख्या से पृथक् स्वरूप की परिभाषा वैद्यक के मर्मज्ञ लोग करते है । उपर्युक्त व्याख्याकारों की उपमा गोली के शब्द मात्र से चक्कर मारते हुए बगले के समुदाय से दी गई है क्योंकि तंत्र के एक देश के शब्द मात्र से ही पूरे तंत्र की परिभाषा करना तत्सदृश ही व्यापार हैशब्दमात्रेण तन्त्रस्य केवलस्यैकदेशिका | भ्रमन्त्यल्पबलास्तन्त्रे ज्याशब्देनैव वर्त्तकाः ॥ ( च० सू० १३०) आज से सहस्रो वर्ष पूर्व भी आयुर्वेद क्या है ? इस समस्या का समाधान अपेक्षित रहा । फलतः परिभाषा तद्विद्य आचार्यों को करनी पडी थी । सर्वप्रथम उसी आख्यान का साराश ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होना चाहिए । वेद तो चार है ऋक्, यजु, साम और अथर्व, तो पडा ? इस प्रश्न के उत्तर में वेद का स्वरूप–यदि कोई प्रष्टा होकर पूछे कि फिर आयुर्वेद कौन-सा वेट है यह कहाँ से टपक उत्तर - दाता को चाहिए कि अथर्ववेद मे अपनी भक्ति दिखलावे | क्योंकि चिकित्सक को अथर्ववेद की ही सेवा वांछित है । अथर्ववेद और आयुर्वेद मे अभेद समझना चाहिए । अथर्ववेद दान स्वस्त्ययनवलि - मंगल - होम - नियम- प्रायश्चित्त- - उपवास तथा मन्त्रादि के परिग्रह के द्वारा चिकित्सा का ही कथन करता है । चिकित्सा का परम उद्देश्य भी आयु के हित या लाभार्थ ही - प्रवर्तित होता है । अत. अथर्ववेद हो आयुर्वेद है । ' १ ऋग्वेदस्यायुर्वेद उपवेद । व्यासकृत चरणव्यूह मे ऋग्वेद का उपवेद आयुर्वेद को माना गया है । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन दोनों में अभेद संबंध है। यह दुशा वेट का विशेषार्थ, परन्न सामान्यार्थ में वेद का विचार करें, तो वेद शब्द विद धान से बना है। विद धान का प्रयोग निम्नलिखित अयों में होता है : मत्ताया विद्यते, नाने वत्ति. विन्त विचारणे । विन्दते विन्दति प्रामौ श्वन-लुक-नाम-शप्पिद क्रमात् ।। (लि. कीमुदी) इस हरिकारिका के आधार पर आयुर्वेद पद मे वाच्य समय गट अर्थ होगा ऐसा तंत्र जिसमें आयु हो, या आयु का ज्ञान कराया जाने, या आय का विचार हो, या जिसमे आयु की प्राप्ति हो सके उसे आयुट करेगे। परन्तु शास्त्रकार ने उसे एक ही विपार्य में सोमायद कर ग्या है अर्थात जिस तंत्र में आयु का ज्ञान कराया जाय । आयु का स्वरूप-वंद शब्दजी राजा के माधान के अनन्नर दृमरी शका आयु गढ के सम्बन्ध में न्बत' उत्पन्न होनी है। आयु क्या वन्तु है आयु शब्द की निरुक्ति शान्त्रकारों ने पर्याय कथनों से की है : शरीरन्द्रियसत्त्वात्मसंयोगो धारि जीवितम् । नित्यगश्चानुवन्धश्च पर्यायैरायुच्यते ।। (च० मू: १) १. गरीरेन्द्रियसत्त्वात्मन्मयोग-शरीर-इन्द्रिय-सत्त्व और आत्मा की सयुकावस्था को आयु कहते है। २. धारि-रम-रक्त सवहनादि क्रियाओं के द्वारा शरीर को धारण करनेवाली और शरीर को विशीर्ण न होने देने वाली शक्ति को आयु कहते है। ३. जीविन-वलन कर्म के द्वारा प्राण को धारण करते हुए गरीर को बनाए रखता है । इसीलिए जीवन या जीवित पर्याय भी आयु का कहा गया है। ४. नित्य-गति ( Movement ) एक भायु का प्रमुख लक्षण है । एतदर्थ आयु के पर्याय में नित्यग गब्द का प्रयोग किया गया है। प्रतिक्षण उममें गति होती है, एक लनण के लिए भी जो नही रुकता अर्थात् सदैव गतिगील है । जीव में गति का होना या क्रिया का होना स्वाभाविक है न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते यवश. कर्म सर्वः प्रकृतिजैगुणैः ।। (गीता अ० ३) ५ चेतनानुवृत्ति-चेतना का सतत बना रहना आयु है। गर्भावस्था से मरणपर्यन्त यह चेतना या संवेदन का गुण बना रहता है। चेतन एवं अचेतन, सजीव और निर्जीव, ऐन्द्रिय या निरीन्द्रिय तथा जीवित और मृत का भेदक यह एक प्रमुख लक्षण है। इसीलिए आयु के पर्याय में चेतनानुवृत्ति का पर्याय दिया गया है। ६. जन्मानुबंध-इसके दो अर्थ हैं। एक तो लौकिक दूसरा Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुग्मिक । लौकिक अर्थ में संतानोत्पादन की क्रिया द्वारा अनुबंध या सातत्य ( Continuity of species ) का बना रहना समझना चाहिए। दूसरे अर्थात् अलौकिक अर्थ मे पूर्व-जन्म और पर-जन्म का परस्पर में अनुबंध बना रहना समझना चाहिए । इसी अधिार पर आयु का यह पर्याय जन्मानुबंध है। __ इन पर्यायों को यदि आयु का पृथक-पृथक लक्षण माना जाय तो इन पंचलक्षणों से युक्त अवस्था जोव की होगी। इसके विपरीत मृत या निर्जीव की। जीव-विद्या ( Biology ) के सिद्धान्तों के आधार पर इस सिद्धान्त की तुलना नीचे की जा रही है। आधुनिक शब्दों में आयु की व्याख्या करनी हो तो उसे जीवन या Life कह सकते है। उससे युक्त द्रव्य को जीवित या Living कहते हैं। जीवविद्या विशेषज्ञ जीवित पदार्थ मे निम्नलिखित भावों की उपस्थिति आवश्यक मानते है १ वृद्धि ( Growth )-परन्तु वृद्धि का गुण निर्जीव कंकड और पत्थरों मे भी मिल सकता है अत. जीव का यह कोई विशिष्ट चिह्न नही है। २. गति ( Movement )-प्रायः सजीव पदार्थों में ही पाया जाता है। इसी गति के आधार पर जीवित चर या चल की संज्ञा दी जाती है। कुछ सीमित स्वरूप की गति अचर सृष्टि के वृक्ष आदिकों में भी मिलती है । तथापि नित्य गतिशील होना एक जीव का आत्मलिङ्ग है अतएव ऊपर लिखे आपवचनों में नित्यग का पर्याय कथन आयु के अर्थ में प्रतीत होता है। -.-३. चैतसतत्त्व या आयुमूल ( Protoplasm.)-सजीव और निर्जीव सबसे बडा भेद करने वाला यह तत्व है। यह जब तक सक्रिय है-आयु है। उसके निष्क्रिय होते ही मृत्यु हो जाती है। प्राचीनों का शरीर सत्वात्म संयोग आयु है' का कथन बहुत कुछ इसी विशिष्ट 'तत्त्व की ओर इंगित करता है। चेतनातत्व के अभाव मे मनुष्य या जीवों के शरीर और इंद्रिय प्रभृति सभी द्रव्यों के यथापूर्व रहते हुए भी वह मृत और निश्चेष्ट हो जाता है। पंचभूतावशेपेषु पंचत्वं गतमुच्यते । यही कारण है कि ऊपर लिखे आर्पवचन मे आयु के पर्याय मे 'सत्वात्मसंयोग' शब्द का कथन हुआ है। यह चैतसतत्त्व स्थावर तथा जंगम दोनों सृष्टि में समान भाव से पाया जाता है। शरीर असंख्य कोपाणुओं से निर्मित है । कोषाणुओं के भीतर चैतसतत्व भरा रहता है । अंतर इतना ही होता है कि स्थावर सृष्टि में कोपाणुओं के चारों ओर एक भित्ति (Cellular wall ) होती है, परन्तु चर-सृष्टि में ये भित्तियों या आवरण नहीं रहते।। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ? ) माणु से लेक सेवी श्रेणी के जीनी ४. उत्पादन, संतानता या प्रजनन (Reproduction ) - एक से दो दो से चार, चार से आठ आदि बनने के प्रवृत्ति से बडे जीव में होती है । 'एकोहं बहुस्याम प्रजाय में यह क्रिया विभजन अमेथुनीय परन्तु घंटे जीवों में मेथुनीय होती है। उतना ही नहीं निर्जीव पदार्थो से भी संख्या वृद्धि भंजन या विभाजन के द्वारा होती है अर्थात् निजीवों में भी किसी न किसी प्रकार का पुनरुत्पादन पाया जाता है । इस चिह्न की ओर sfगित करता हुआ प्राचीन आर्यवचन अनुबंध आयु के पर्याय में व्यवहृत हुआ है । जैसा कि ऊपर आये है एक तो लौकि अर्थ में वह जन्मानुवध संतानोत्पादन का बोधक है और विशिष्टा में यह पर्व जन्म का बोधक है । पूर्वापर जन्म सबन्ध का द्योतक है । इसी प्रजनन के आधार पर जातियों का सातत्य ( Continuity of Species) निर्भर करता है । यह जीवन या जीवित का एक प्रमुख लक्षण है । ५. रस संवहन ( Circulaton ) - जीवन का यह भी एक ल लिन है । ६. श्वसन ( Respiration ) -- जीवित द्रव्यों में किसी न किसी प्रकार का श्वसन कर्म तथा रस या रक्त का संवहन पाया जाता है। यह क्रिया स्थावर, जीव, वृक्षादि से लेकर पशु और मनुष्यों से भी समान भाव से चलती रहती है । इस क्रिया का द्योतन आयु के पर्याय रूप में प्राचीनोक्त शब्द 'धारि' से किया मिलता है । जिसका अर्थ होता है- श्वसन एवं रक्तसंवहनादि क्रियाओं के द्वारा प्राण का धारण करना यह आयु का या जीवित पदार्थ का लक्षण है । चेतनानुवृत्ति क्षोभ, या संवेदन ( Irritability ) आयु (Life) के पर्याय में चेतनानुवृत्ति शब्द का प्रयोग हुआ है । इसका अर्थ होता है चेतना या संवेदन की उपस्थिति । जोवित पदार्थ का यह सबसे प्रमुख लक्षण है— किसी बाह्य उत्तेजना की प्रतिक्रिया । उष्ण, शीत, रुक्ष, तीक्ष्ण द्रव्यों के सम्पर्क में आने से जीवित शरीर जब तक उसमें आयु है, उन द्रव्यों के अनुकूल या प्रतिकूल कार्य करेगा । इस चेतना के गुण के फलस्वरूप होनेवाली प्रतिक्रिया में किसी द्रव्य के त्वचा के सम्पर्क में आने पर ही प्रतिक्रिया हो, ऐसी बात नहीं है । क्वचित् दूर से या देखने मात्र से ही प्रतिक्रिया होने लगती है— जैसे कि प्रहारक के द्वारा दण्ड के उठाये जाने मात्र से ही किसी व्यक्ति के कॉप जाने, भागने या उससे, Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बचने की प्रतिक्रिया ( Contact Irritability )। यह चेतना या संवेदन वृक्षों की अपेक्षा पशुओं मे, पशुओं की अपेक्षा क्रमश मनुष्यों में अधिकाधिक पाया जाता है। उच्च मस्तिष्क क्रिया, सनोभाव, चिन्तन और विचार आदि भी इसी गुण के द्योतक है। शाश्वत-यह आयु शाश्वत है अर्थात् मनुष्यकृत नहीं है अर्थात् अनादि है। जिस तन्त्र में इसके सम्बन्ध से विचार किया जाता है वह तन्त्र भी फलस्वरूप अनादि और शाश्वत है। आयु की परम्परा, बुद्धि की परम्परा, सुखदुख, द्रव्यों के गुण, गुरु-लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रुक्ष तथा सामान्य और विशेप के द्वारा वृद्धि तथा हास का होना प्रभृति वाते भी अनादि और शाश्वत है-अर्थात् अनादि काल से है और सदा रहनेवाली है। . आयुर्वेद मे जितने पदाथी (भावों) की व्याख्या आती है, वे कभी नही रहे हो और उनका नये सिरे से प्रवेश कराया गया हो ऐसा नहीं है क्योंकि स्वभाव से ही वे नित्य और शाश्वत है। आयुर्वेद में किये गये या बनाये गये लक्षण भी शाश्वत है। जैसे अग्नि का उष्ण होना, जल मे द्रवत्व का पाया जाना प्राकृतिक या रवाभाविक है। वह मनुप्यकृत नही अकृतक है। भारी चीजों के सेवन से भारी चीजे बढेगी-हल्की चीजे कम होंगी यह पदाथो के स्वभाव से नित्य है। __ अतएव आयु के सम्बन्ध मे ज्ञान कराने वाला यह शास्त्र चिरन्तन और शाश्वत है। इसका आदि और अन्त नहीं है। अनादि काल से आ रहा है और अनन्त काल तक चलेगा। इसका आदि अव्यक्त है-अन्त अव्यक्त है, केवल मध्य व्यक्त है। अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत | ___ अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना । (गीता अ० २) सोयमायुर्वेद' शाश्वतो निर्दिश्यते, अनादित्वात् , स्वभावसंसिद्धलक्षणत्वात् , भावस्वभावनित्यत्वाच्च । (चर० सू० ३०)। आयुर्वेद का सामान्य स्वरूप-वेट और आयु शब्दों की पृथक्-पृथक् व्याख्या करने के बाद समूह में अर्थ करना अभिलषित है। क्योंकि आयुर्वेद पदवाच्य पद में दो ही शब्द है और मूल अभिप्राय भी इसी पद की व्याख्या मे निहित है। अतएव आयुर्वेद-पद की शास्त्रीय निरुक्ति की जा रही है. आयु का ज्ञान कगने वाले शास्त्र को आयुर्वेद कहते है। इसके पर्यायकथन के रूप मे कई शब्दों का व्यवहार किया जा सकता है जैसे आयु-शाखा, आयु-विद्या, आयुसूत्र, आयु-ज्ञान, आयु-शास्त्र, आयु-लक्षण तथा आयु-तन्त्र । आयु के स्वरूप की व्याख्या ऊपर में हो चुकी है । अतएव फलितार्थ होगा जिस Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्या के द्वारा आयु के सम्बन्ध में सर्व प्रकार के ज्ञानव्य तथ्यों का ज्ञान हो सके अथवा जिसका अनुसरण करते हुए दीर्घ आयुष्य की प्राप्ति हो सके उस तन्त्र को आयुर्वेद कहते है। ___आयुर्वेद में आयु के स्वरूप के अतिरिक्त आयु के सम्बन्ध में चार दृष्टिकोणों से विचार किया जाता है। --मुरवायु (स्वस्यायु), तथा दुग्गा (अस्वस्थायु)२-हितायु तथा अहितायु । ३-आयु के हितकर (लाभप्रद) तथा अहितकर (हानिप्रद) द्रव्य-गुण एवं कर्म । ४-आयु का प्रमाण । दृसरे गब्दों में आयु के स्वस्थ्य क्रिया शरीर ( Physiological Phenonicna ) तथा विकृत्त क्रिया-शारीर ( Pathological Phenomena ) दीर्घ आयुधवी प्राप्ति के निमित्त जीवन के हितकर तथा हानिप्रद पथ्यापथ्य का निदेग ( Usefull and harmful medication, Hygeine & Sanitation. environments, Ditetics etc ), साथ ही आयु का प्रमाण ( Longivity ) का यथा तथ्य कथन प्रभृति उपदेशों का संग्रह आयुर्वेद तन्त्रों का लक्ष्य है। उपर्युक्त दृष्टिकोणों से द्रव्य ( Substance ), गुण ( Properties ) तथा कनों (Actions ) की विवेचना सम्पूर्णतया इस शास्त्र का विवेच्य विषय है। इस व्यापक अर्थ मे ( Science of life ) आयुर्वेद केवल मानवष्टि तक ही सीमित नहीं रहता है। उसमें चर और अवर उभय विधि जीवधारियों के सम्बन्ध में 'हिताहितं सुखं दुःखं आयुत्तस्य हिताहिनं, मानञ्च तच यत्रोक्तं आयुर्वेद स उच्यते ।' उनके हिताहित का ज्ञान, उनके स्वस्थ रखने के उपाय. उनके विकारों की दूरीकरण के उपाय तथा उनकी आयु-मयांदा के बतलाने के साधन प्रभृति यावतीय ज्ञातव्य बाते इस आयुर्वेद के द्वारा जानी जा सकती है । फलत. सम्पूर्ण जीव विद्या ( Boilogy ), पशु चिकित्सा ( Veterinary Treatment), अश्व काप्य (Diseases and treatment of Horses), पाल काप्य ( Diseases and treatment of Elephants) तथा वृक्षायुर्वेद ( Plant Pathology and treatment ) प्रभृति सभी विषयों का समावेश आयुर्वेद में हो जाता है। व्याधयो हि समुत्पन्नाः सर्वप्राणिभयङ्कराः । तद् ब्रूहि मे शमोपायं यथावटमरप्रभो।। (च० सू० १) विशिष्ट स्वरूप-तथापि आयुर्वेद का व्यवहार, विशेषार्थ में मानवीय आयुर्वेद के लिये ही किया गया है। क्योंकि स्वर्गीय विद्या आयुर्वेद का आनयन इहलोक के संतप्त और आर्त्तजन मानवों के कल्याणार्थ ही ऋपियों ने किया था. प्रादुर्भूतो मनुष्याणामन्तरायो महानयम् । कस्मात्तेपां शमोपाय इत्युक्त्वा ध्यानमास्थित.॥ - - - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) ऋषयश्च भरद्वाजाजगृहुस्तं प्रजाहितम् । दीर्घमायुश्चिकीर्पन्तो वेदं वर्धनमायुष ।। तस्यायुप पुण्यतम वेदो वेदविदां मत । वच्यते यन्मनुष्याणा लोकयोरुभयोर्हितम् ।। (च० सू० १) इस विशिष्ट आयुवेद के स्वरूप ज्ञान के लिये कुछ विशद वर्णन अपेक्षित है। अन चतुर्विध आयु तथा उससे युक्त मनुष्यों की पुनःविवेचना प्रस्तुत की जा रही है। ___ सुखायु-दुःखायु युवावस्था, गारीरिक एवं मानसिक व्याधियों से मुक्त, बल-वीर्य-यश-पौरुषपराक्रम, ज्ञान-विज्ञान इंद्विय तथा इन्द्रियाथो से सक्षम, विविध प्रकार के सुन्दर सुहावने उपभोगों के भोगों में समर्थ मनुष्य को आयु सुखायु है। यह व्यक्ति सुखी और स्वस्थ कहलाता है । इसके विपरीत व्यक्तियों को अस्वस्थ, दुःखयुक्त और उसकी आयु को दु.खायु कहते है । (Healthy and unhealthy life) । सुवायु वाले व्यक्ति के द्वारा किया हुआ कोई भी आरभ ठीक तरह से पूरा होता है और वह सुखपूर्वक विचरता है। इसके विपरीत दुःखयुक्त व्यक्ति की दशा रहती है। हितायु-अहितायु सुखायु को सतत बनाये रखने के लिये आयु के हितावह द्रव्य, गुण तथा कमी की जानकारी आवश्यक है। हितैपी व्यक्ति को परोपकारी, सत्यवादी, शान्ति-प्रिग, परीक्ष्यकारी एव अप्रमत्त होना चाहिये। धर्म-अर्थ-काम प्रकृति त्रिवों का सम्यक्-संचय, पूज्यों का पूजन, वृद्धों का अनुसरण, राग-रोप इर्ष्यामद-मान प्रभृति वेगों को धारण करना चाहिये। ऐसे व्यक्तियों को तपस्वी, दानी, ज्ञानी, अध्यात्म-शास्त्र का अभ्यासी तथा स्मृतिमान् होना आवश्क है। ये सभी कर्म आयु के लिये लाभप्रद होते है। इनके विपरीत कर्म आयु के लिए अहित होते है । ( Any thing usefull or harmful to life ) इसका उपदेश भी आयुर्वेद का कर्तव्य है। आयु-प्रमाण. देह के प्राकृतिक लक्षगों के आधार पर आयु का प्रमाण आयुर्वेद के ग्रथों मे बतलाया जाता है । जैसे लम्बी आयु वाले व्यक्तियों का परिचय निम्नलिखित सूत्रों के आधार पर होता है : 'सभी सारों से युक्त पुरुप, अति बलवान् , परम-सुख युक्त, क्लेश-सह, सभी कमी का आरम्भ करके पूर्ण करने के विश्वास से युक्त, कल्याण की भावना Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से प्रेरित, स्थिर और पूर्ण शरीर वाले समाहित गति से युक्त, स्निग्ध-गम्भीरअनुनादित-उच्चस्वर ले बोलने वाले, मुख-ऐश्वर्य वित्त के उपभोग करने वाले तथा प्रायः अपने सहम गुणों वाले बहुत से सन्तानों के उत्पादक मनुष्य विरजीवी होते हैं।' ___श्लैष्मिक प्रकृति वाले, बलवान् , धनवान् , विद्यावान् , ओजस्वी तथा शान्त व्यक्ति दीर्घायु होते है ।' इन लक्षगों से विपरीत व्यक्ति अल्पायु होते है। ____ इसके अतिरिक्त कुछ आकस्मिक परिवर्तनों के आधार पर भी आयुमर्यादा बताने का उपदेश भी आयुर्वेद में पाया जाना है। इन्द्रिय, इन्द्रियार्य, मन, बुद्धि और चेष्टाओं में आकस्मिक परिवर्तनों के कारण अरिष्ट स्वरूप के लक्षण पैदा हो जाते है। इनको अनिमित्त या अरिष्ट लनग कहते है। इन अनिमित्त लनगों के आधार पर आयु की मर्यादा क्षण, मुहूर्त, दिन तीन पाँच सात दस-बारह, पन, माल, हेमान और वपो में बतायी जा सकती है । ( देन चरक इन्द्रिय स्थान)। इस प्रकार भायु की काल मर्यादा ( Logivity) का भी उपदेश आयुवेंट करता है। आयु तीन प्रकार की दीर्व, मध्य और अल्प होती है । आयुर्वेद के द्वारा विविध आयु का निर्णय सम्भव है। सर्वभौम ( Universal ) प्रयोजन उद्देश्य किसी तन्त्र के परिचय में उसके चार अङ्गों की जानकारी आवश्यक होती है। अधिकारी-सम्बन्ध विषय तथा प्रयोजन । यहाँ पर आयुर्वेद की इतनी लम्बी व्याख्या के अनन्तर स्वाभाविक उत्सुकता पैदा होती है कि आयुर्वेद का प्रयोजन क्या है । आयुर्वेद के दो ही प्रयोजन हैं स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा तथा रोगी हो जाने पर उसके विकार का प्रशमन । 'प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणमातुरस्य विकारप्रशमनञ्च ।' (चर० सू० ३०) आरोग्य को बनाये रखना तथा रोगों से मुक्ति करना इन दो उद्देश्यों से प्रेरित होकर ही ऋपियों ने आयुर्वेद का उपदेश किया है। धर्म, अर्थ, काममोक्षों के साधन के लिये नीरोग रहना परमावश्यक है। यदि क्वचित् रोग हो जाय तो उम रोग का दूरीकरण भी एकान्तत लक्ष्य चिकित्सा विज्ञान का है : धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मृलमुत्तमम् । रोगास्तस्यापहार. श्रेयसो जीवितस्य च ।। (च० सू० १) यह प्रयोजन किसी एक वर्गवाद के भीतर सीमित चिकित्सा-गास्त्र का नहीं है, बल्कि एक सार्वभौम सिद्धान्त है। विश्व की जितनी भी ज्ञान या अज्ञात चिकित्सा पद्धतियाँ प्रचलित हैं सबका अन्तिम लक्ष्य या सभी का अवसान उप Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्त दो सूत्रों मे ही है । इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। आधुनिक शब्दों मे कहना हो तो स्वास्थ्यरक्षण के उद्देश्य को Profilaxis और आतुर विकार प्रशमन को Curative कह सकते है। प्रथम के लिये Public Health and Hygiene का विभाग और दूसरे के लिये Curative teatment, Hospi tals and Dispensaries का विभाग आज भी सभ्य देशों को सरकारे कायम कर रही है। आयुर्वेदावतरण में क्रम तथा अश्विनीकुमार दिव्य विद्या आयुर्वेद का पृथ्वी पर लोक-कल्याण की भावना से अवतरण हुआ है। सर्वप्रथम ब्रह्मा विद्या के आदि ज्ञाता है, उनसे प्रजापति को विद्या मिली, पश्चात् अश्विनीकुमारों को, ततः इन्द्र को; तदनन्तर विभिन्न ऋपियों में विद्या का आविर्भाव हुआ तदनन्तर इह लोक के चरक सुश्रुत-प्रभृति ऋपियों को विद्या मिली । पुन. इहलोक में आयुर्विद्या का प्रचार हुआ। अश्विनीकुसार युग्म (दो) माने गये है। ये चिकित्सा के मूलभूत दो लक्ष्यों के स्वस्थवृत्त ( Profilaxis ) तथा चिकित्सा ( Cnre ) के प्रतीक है । चिकित्सा-विज्ञान ही दो लक्ष्यों को सामने रख कर वढता है। अतएव स्वयं यमल स्वरूप ( Twin ) काहै। जैसे यदि आयुर्वेद का पर्याय Med1cine करे तो उसके दो बडे वर्ग प्रेफिलेक्सिस एवं क्यिोरेटिव हो जाते है । पुनः प्रेफिलेक्सिस के दो विभाजन हों तो दो वर्ग स्वस्थ रखना मात्र (Hygiene) तथा स्वस्थ को उर्जस्कर बनाना-वल्य, वाजीकरण एवं रसायनों (Tonics and Geriatrics ) के प्रयोग से होते है । इसी प्रकार विशुद्ध तथा केवल 'क्योरेटिव ग्रूप' का ही विभाजन करे तो उसमे पुन दो खण्ड शल्य-चिकित्सा ( Surgery ) तथा कायचिकित्सा (Inner Ceneral Medicine) करके पुन दो वर्ग हो जाते है। कहने का तात्पर्य यह है कि चिकित्सा-विज्ञान सदैव यमलस्वरूप का होता है, सम्भवत' अश्विनीकुमारों का प्रतीक इसी आधार पर ग्रहण किया गया हो। " आयुर्वेद का वैशिष्ट्य 'स्वस्थातुरपरायणम्'-आयुर्वेद का संवन्ध स्वस्थ एवं रोगी दोनों ही प्रकार के मनुष्यों से है। पूरे आयुर्वेद को त्रिसूत्र कहते है क्योंकि इसमें हेतु ( Etiology ), लिङ्ग (Signs and Symptoms ) तथा औपध ( Proper Medicaments ) का वर्णन किया जाता है । यह त्रिसूत्र स्वस्थ के स्वास्थ्य के वनाये रखने में उतना ही उपयोगी है जितना रोगी के रोग-प्रगमन में। उदाहरण के लिए स्वस्थ के पक्ष में उनकी स्वस्थता मे हेतु, स्वस्थ के लक्षण तथा स्वस्थ रखने की औपधियाँ बतलाई जायेगी। रोग की अवस्था में रोग का Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) उत्पादक कारण, उसके लक्षण समुदाय और चिकित्या में व्यवहत होनेवाली औपधियों का उल्लेख आता है। हेतुलिगोपधज्ञान रवस्थातुरपरायणम । त्रिसूत्र शाश्वत पुण्य बुबुधे य पितामहः। (चलू१) आधुनिक चिकित्साविज्ञान से इतनी समता होते हुए भी प्राचीन आयुट की कुछ अपनी विशेपताये है। १. यह विशुद्ध जदबाद ( Materialism ) का समर्थन नहीं है। इसम आध्यात्मिक तत्वों जने मन एव आत्मा का जो स्वय दृष्ट नहीं है, दृष्ट या प्रत्यक्ष गरीर से अधिक मह्य दिया जाता है। स्थल गरीर और इन्द्रियों को जो प्रत्यक्ष है, अपेक्षा सूक्ष्म अर्थात् सन्य एवं चेतनात्मक शरीर की विवेचना को बडा स्थान दिया जाता है 'प्रन्यन हि अल्पं अनल्प अप्रत्यक्षम्' प्रत्यक्ष जिनका सानात हो सके ऐसी बात कम है और अप्रत्यक्ष ज्ञान जिनका साक्षात् न हो सके बहुत अधिक और विस्तृत हैं। अत बहुत अशों मे अनुमान की सहायता लेनी पड़ती है। अनुमान की भी सीमा होती है अत. प्रत्यक्ष के ऊपर किया गया अनुमान कचित गलत भी हो सकता है अत' आप्तोपदेश या शास्त्रप्रमाण्य की सर्वोपरि विगेपता दी गयी है। आप्तोपढेश या शास्त्र निहित ज्ञान की उपज केवल प्रत्यक्ष और अनुमान के आधार पर आश्रित न होकर ऋपियों की दिव्य-दृष्टि या अंतर्दृष्टि की विवेचना मानी जाती है । आज के वैज्ञानिकों में इस भातर्दृष्टि का सर्वथा अभाव है। वे केवल प्रत्यक्ष तथा अनुमान के आधार अथवा अपनी प्रत्यक्ष शक्ति को विविध यत्रों की सहायता से कई गुना बढाकर मनन करने हुए अपने सिद्धान्तों की स्थापना करते हैं। जिससे ये मुनि कोटि के विचारको में 'मननान्मुनयः' कहे जा सकते है । इनके भी विचार या सिद्धातपक्ष किसी कदर कम नहीं है और न इनकी महत्ता ही कम है। इनकी विचारणाएँ अर्हणीय, सर्वमान्य और ग्राह्य हैं । यदि क्वचित् इन मुनि और ऋपि वचनों में परस्पर विरोध हो, तो ऋपि वचनों का अधिक महत्व देना चाहिये। क्योंकि 'साक्षात् कृत धर्माणः ऋपयः भवन्ति ।' ये वचन आप्त शिष्ट, विबुद्ध ऐसे व्यक्तियों के हैं जो रज और तमोगुण से निर्मुक्त है जिनका तपरया के द्वारा ज्ञान का बल बढा हुआ है-जिससे भूत, भविष्य, वर्तमान त्रिकाल के ज्ञान मे जिनकी बुद्धि की शक्ति अव्याहत (कही न रुक सकनेवाली) है। इनके वाक्य संशय से हीन और सत्य होते हैं - रजस्तमोभ्या निर्मुक्तास्तपोजानवलेन ये। येपा त्रिकालममलं ज्ञानमव्याहत सदा ।। आप्ता शिष्टा विबुद्धास्ते तेषां वाक्यमसंशयम् । सत्य वक्ष्यन्ति ते कस्मादसत्य नीरजस्तमाः।। (च० सू०) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) यदि कदाचित् मुनिकोटि के विचारकों तथा ऋषि-कोटि के सिद्धांतों मे विरोध दिखलाई पडे तो ऋपियों से उनके पूर्व वाले आचायों का मत अधिकाधिक प्रामाण्य ( Oldest Version) होता है । परन्तु सुनियों मे परवर्ती आनेवाले सुनियो का वचन अधिकाधिक प्रामाण्य ( Latest Version ) होता है । अर्थात् ऋषिवाक्य जितने ही अधिक प्राचीन हों उतने ही अधिक प्रामाणिक माने जाते है, परन्तु सुनियों या आधुनिक विचारकों के सम्बन्ध मे वे जितने ही नवीन हों उतना ही उनका अधिक मूल्य है' - श्रुतिस्मृतिपुराणाना विरोधो यत्र दृश्यते । पूर्व पूर्व बलीयस्त्व तत्र ज्ञेय मनीपिभि ॥ ( स्मृतिसमुच्चय ) x x X यथोत्तरं मुनीना प्रामाण्यम् । आयुर्वेदीय स्वस्थवृत्त की विशेषता आधुनिक स्वास्थ्य या चिकित्साविज्ञान का स्वरूप उन्नीसवी शताब्दी के औद्योगिक क्रान्ति के नव जागरण का परिणामी है । जिससे यह एक कुटी व्यवसाय के स्वरूप का न होकर औद्योगिक रूप का है । इसमे जो कुछ भी गुण हो एक दोष तो अवश्य है कि वह एक ईकाई ( यूनिट ) का ध्यान न रखते हुए समग्र की चिन्ता करता है । इसमें व्यक्ति का विशेष मूल्य न ढेकर पूरे समाज के ही कल्याण की भावना निहित है । व्यक्तियों के समुदाय का ही नाम समाज है । यदि पूरे समाज की सेवा की जाय तो सभी व्यक्तियों की सेवा रवयमेव हो जायेगी । इसके विपरीत व्यक्ति विशेष की सेवा की जाय तो स के वृहत्तर आयोजन से समग्र समाज का भी कल्याण स्वयमेव हो सकता है । ढोनों मतों में आपातत' कोई विरोध नही होते हुए भी दोनों का लक्ष्य समान होते हुए भी साधन की सामग्री मे विभेट प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है । t उदाहरण के लिये एक कपडे का व्यवसाय ले । कपडे दो प्रकार के मिलते है, एक छोटे-छोटे चरखे करघे के बुने खादी के कपड़े, दूसरे बडे-बडे औद्योगिक पुतली घरों से निर्मित, दोनों का अंतिम उद्देश्य एक ही है — पूरे जन-समुदाय को वस्त्रों से पूर्ण करना । बडे उद्योगों की दृष्टि, समूह की ओर होती है वह एक बढे समुदाय के लिये वस्त्र बनाता है किसी व्यक्ति विशेष का ध्यान उसके निर्माण में नही रहता, तथापि एक इकाई की आवश्यकताये पूरी हो जाती है । कुटी व्यवसाय का बना वस्त्र एक-एक इकाई का ध्यान रखता हुआ सम्पूर्ण इकाई की आवश्यकताओं का पूरण करते हुए अपने महत्तर लक्ष्य समग्र समाज की सेवा की ओर अग्रसर होता है । इनमें कौन-सा अच्छा है और कौन-सा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युरा ? इस ग्रन्न का उतर गठिन माप :मनोरम प्रतीत होता यपि उन मानी . .... विपोपमही होते हैं। यही कारण; fit IIT .. कर्णधार टि-व्यवसायों को साजभा प्रय: केन्द्रों में बने चगों के पाननः मनाम : : राजवंग का प्रतीक बन रहा जब हम चितिरमा-विज्ञान के पत्र में न को :: ओर जटिल तो जाना। मनुरी अन्य य म : अद्योगीरण कुछ विरार सामाजिक विमा यो रिक्त कोई विशेप मूल्य नही ग्यता, पनि नाना : शक्तियों का वन्द्र उस सम्बन्ध में विचार र ५ मा . .:: रचना पटता है। जया कि पूर्व में बनाया जाना । 3 ... विज्ञान के दृष्टिकोण से विचार अबा विशु चिरिया टीम वह समाज की प्रत्यक इकाई के माधम धागाच्या प्राधिकर, मंहनन, प्रमाण, सात्म्य, मध, आहार-ति, गावामशनि, , का ध्यान रमते हुए अपना विचार देता है। ममिवाना मामा , नियम या एक ही औपधि समाज के सभी न्यनितों के अनुर नाम 11, उदाहरण के लिए विचिका के प्रनिगार में व्यवान छान TT Tri. भेक्सीन' अधिकाशत' राभप्रद हो जाता है परन्तु सब पिसानि और अनुकूल नहीं हो सस्ता, इसी प्रकार निश्मिा च्यवान ने कारन से योग विभिन्न रोगों में लाभप्रद होते हुए भी विभिन्न व्यनियों में प्रनिटर लक्षणों को पैदा कर सकते हैं जया कि आधुनिक शब्द अमायना, अनदाता ( Allergy and Idiocyncracy ) शब्दों के प्रचलन से ज्ञात होता है। आ निक चिकित्सा विज्ञान जिसका दृष्टिकोण एक न होर सार्वजनिा या सामूहिक रहता है, इन इकाइयों की चिन्ता न करते हुए समा गनिनोलो। __भारतीय ज्ञान और विज्ञान की परम्परा एकेक साधना में निहित है पि, वाणिज्य, रक्षा शासन, शिक्षा, धर्म एवं उपासना आदि क्मों में वह पत.एक इकाई के विचार से उपदेश देता है, जिससे वृहत्तर रूप में सम्पूर्ण समाज का कल्याण होता चलता है। . आयुर्वेद के स्वास्थ विज्ञान का भी दृष्टिकोण एक साधना में ही केन्द्रित है । वह वैयक्तिक स्वास्थ या व्यक्तिगत स्वस्थ वृत ( Personal Hygicnc ) में ही विश्वास रखता है। आयुर्वेद के दृष्टिकोण से यदि समाज की एक-एक इकाई को स्वस्थ बना दिया जाय तो सम्पूर्ण समाज स्वस्थ हो सकता है। इसीलिये वह एक मनुष्य को प्रतिदिन समय-विभाग के अनुसार आचरणो का Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) उपदेश देता है। दिनचर्या, रात्रिचर्या, ऋतुचर्या के रूप मे उठना, बैठना, खाना, पीना, स्नान, भोजन, शयन, ब्रह्मचर्य, विवाह, गृहस्थजीवन आदि के सम्बन्ध में विशद रूप से संग्रह किया हुआ आयुर्वेद के ग्रन्थों मे उपलब्ध होता है, जिसके अनुष्ठान और पालन का नियम बडा ही सरल सुवोध और सर्वजनगन्य है । स्वस्थवृत सम्बन्धी इन नियमों का प्रचार इस देश के समाज में ऐसा घर कर लिया है कि कुछ वृद्धों के उपदेश और उनके अनुभवों का आश्रय मात्र लेने से ही विषय का बहुत कुछ ज्ञान हो जाता है। आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान वैयक्तिक स्वस्थवृत की दृष्टि से उतना चढा-बढा नहीं है प्रत्युत वह इस अङ्ग से अपूर्ण है। वह सामूहिक दृष्टि से एक जनपद या समाज के स्वास्थ का विचार करता है। आयुर्वेद का स्वस्थवृत आज भी एक स्वतन्त्र या विशिष्ट स्थान रखता है। राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक यदि व्यक्तिगत चर्याओं या आचार का पालन करे तो समग्र राष्ट्र सुखी और समृद्धवान् हो सकता है। इन दोनों प्राचीन और आर्वाचीन स्वास्थ्य के उपदेशों की तुलना की जाय तो आधुनिक वर्णन अधिक विज्ञान-सम्मत प्रतीत होते है परन्तु इसमे भी दोपों का अभाव नहीं है, ऐसा नहीं कह सकते । केवल सामूहिक दृष्टि से स्वस्थ वृतों का विचार एकाङ्गी है और तब तक पूर्ण नही हो सकता जब तक कि व्यक्तिवादी आयुर्वेदीय स्वास्थ-सद्वृत्त से उसको पूर्ण न बनाया जाय । यद्यपि वाद्यदृष्टि से इस प्रकार का कथन सुहावना प्रतीत नहीं होता है तथापि परिणाम की दृष्टि से विचार करते हुये यह मत अमृत सदृश है। जिस प्रकार औद्योगिक धन्धों के साथ ही कुटी-व्यवसायों का भी समर्थन किया जाता है उसी प्रकार Hygiene. anp Publie Health के आधुनिक विषय के साथ आयुर्वेदीय स्वस्थवृत्तों का ( Personal Hygiene ) का उपदेश भी जनता के कल्याणार्थ हितावह है। यत्तदने विपमिव परिणामेऽमृतोपमम् | तत्सुख सात्त्विकं विद्धि आत्मबुद्धिप्रसादजम् ॥ (गीता) आयुर्वेद का स्वस्थवृत केवल वैयक्तिक स्वास्थरक्षण के उपायों तक ही सीमित नहीं है बल्कि वह देश, जनपद, मेला और महामारी प्रभृति बडे-बडे जन-समाजों की रक्षा मे भी समर्थ है। कई वार अत्यावश्यक अवस्थाओं मे जहाँ पूरा जनपद किसी बडे विकार से ग्रस्त हो जाय तो उसको सम्भालने का भी उपदेश वैद्यक ग्रन्थों में मिलता है। विभिन्न प्रकृति, आहार, देह, बल, सात्म्य तथा आयु वाले मनुष्यों के रहने पर भी एक ही समय मे जनपद का नाश हो सकता है।' इसे जनपदोध्वंस (Epidemics ) कहते है। इसके Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४ ) कारण रूप में अधर्म, और तजन्य वायु, जल, देश और काल का विकृत होना बतलाया गया है। विभिन्न प्रकृति सत्व आदि मनुष्यों के पृथक-पृथक होते हुये भी चार चीजे सबके लिये समान होती हैं। इसलिये इनकी विकृति से सम्पूर्ण देश का देश और जनसमुदाय विकारग्रन्त हो सकता है । अतः इनके प्रतिकार का उपदेश भी आचायों ने किया है। फिर भी आयुर्वेद की सर्वाधिक विगेपना उसके व्यक्तिगत स्वास्थ्य, संरक्षक उपायों ( Personal Hygiene ) में है। वह आज भी अभिनव सामाजिक स्वास्थ्य विज्ञान के लिये अनय ज्ञान के भांडार के रूप में है। वैद्य को सर्वदा यत्नपूर्वक स्वस्थ पुरुप की रक्षा करनी चाहिये । इसीलिये आयुर्वेद में वर्णित स्वास्थ्य के आचरणों का उपदेश दिया गया है। चूंकि स्वास्थ्य सर्वदा इच्छिन है, इसलिये जिम उपाय से मनुष्य सदा स्वस्थ रहे वैद्य को वही उपाय करना चाहिये । ____ आयुर्वेदोक्त दिनचर्या, रात्रिचर्या और ऋतुचर्या का आचरण करता हुआ ही मनुष्य मर्वदा स्वस्थ रह सकता है। इसके विपरीत उपायों से नहीं । स्वस्थस्य रक्षणं कायें भिपजा यनत. लदा । आयुर्वेदोदित तस्मान्स्वस्थवृत्तं प्रचच्यते ।। मानवो येन विधिना स्वस्थस्तिष्टति सर्वदा । तमेव कारयेद्वैद्यो यत' स्वास्थ्य सदेप्सितम् ।। दिनचर्या निशाचर्यामृतुचर्या यथोदिताम् । आचरन् पुरुप. स्वस्थः सदा तिष्ठति नान्यथा ।। (भा. प्र.) केवल रोगरहित शरीर होने से एक व्यक्ति को स्वस्थ नहीं न्हा जा सकता । स्वस्थ पुरुप एक पारिभापिक अर्थ में व्यवहत होता है। उसका माप दण्ड ( Strandard ) आयुर्वेद के गलों मे ही देखे - 'जिसके वात, पित्त और कफ समान रूप से कार्य कर रहे हों; पाचनगक्ति ठीक हो , रस रक्तादि धातु और मलों की क्रिया ( Metabolism ) समान हो अर्थात् रस-रक्तादि स्वाभाविक रूप से बन रहे हों और मल निधि निकल जाता हो , साथ ही उसके आत्मा, इन्द्रियाँ तथा मन प्रसन्न हो , उसी को स्वस्थ कहते हैं : समदोपः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः । प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते ।। (सुश्रुत) . रसायन ( Ceriatrics ) संसार की सभी वस्तुएँ नश्वर हैं । ये क्रमशः जीर्ण होते हुए नष्ट हो जाती हैं । यह एक प्रकार का स्वभाव है अर्थात् स्वभाव से ही नई चीजे पुरानी Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) होती हुई काल ले वे लय को भी प्राप्त होती हैं। इसी विधि-विधान के अनुसार मनुष्य तथा जीवधारियों में भी विकार (रोग) उत्पन्न होता है, उनमे क्रमशः जरावस्था की प्राप्ति होती और मृत्यु के द्वारा उनका निधन होता है। देव-योनि में ये परिवर्तन जो समय से उत्पन्न होते रहते है नही पाये जाते । मनुष्य और देवता तथा मर्त्यलोक और स्वर्गलोक मे यही महान् अन्तर है। देव लोग इन तीन अवस्थाओं से परे अर्थात् जरा, मृत्यु और रोग पर विजय प्राप्त किये है । मनुष्य अनेक युगों से देवत्व की प्राप्ति के लिये प्रयास करता आ रहा है। फलतः मानवों का जरा, मृत्यु और रोग को जीत लेना या इनके ऊपर विजय प्राप्त करने का प्रयास भी चिरन्तन है। आधुनिक युग के वैज्ञानिक भी रोगों पर विजय प्राप्त करने के लिये सतत प्रयत्नशील है, इसी प्रयास के फलस्वरूप उन्होंने 'प्रोफिलैक्सिस' के बडे-बडे साधनों का ईजाद किया है और क्रमश. आगे करते जा रहे है। जरावस्था पर भी विजय प्राप्त करने का दुंदुभि-घोप कर दिया है-युवक को वृद्धावस्था से परिणत करनेवाले कारणभूत विभिन्न हार्मोन्स, विटामिन्स की कमियों की खोज पुन उनकी पूर्ति के द्वारा जरावस्था को रोकने का प्रयास Geriatrics ग्रूप की चिकित्साओं की व्यवस्था के द्वारा चल रहा है। यद्यपि इनमे सफलता अभी तक पूरी नहीं मिल पाई है, सम्भव है भविष्य उज्वल हो । मृत्यु पर आधिपत्य कायम करने के लिये भी आज के वैज्ञानिक मनीपी अग्रसर है, परन्तु सफलता अभी भविष्य के अन्तराल में निहित है। दिव्य-आयुर्वेद मे एक स्वतन्त्र अंग ही रसायन नाम का पाया जाता है। उसके अन्य अंग वचित् अपूर्ण भी हों, परन्तु यह आज भी स्वत. पूर्ण है और अनुपम है। आयुर्वेद का द्विविध प्रयोजन ऊपर बताया जा चुका है-स्वस्थ को उर्वस्कर रखना उसका एक अन्यतम प्रयोजन है । इस निमित्त ही रसायन और वाजीवर अधिकारों का वर्णन पाया जाता है। सुन्दर स्वास्थ्य के साथ ही साथ दीर्घायुष्य की प्राप्ति भी आयुर्वेद का प्रयोजन है । इसकी प्राप्ति भी रसायन के द्वारा ही सम्भव है । 'रसायन के द्वारा जरा और रोग की अवस्था को जीता जा सकता है । 'रसायनं तु तज्ज्ञेयं यज्जरा व्याधिनाशनम् ।' मनुज्य रसायन के सेवन से दीर्घायु, स्मृति, मेधा, आरोग्य, यौवन, कान्ति, वर्ण और स्वर की वृद्धि, देव एवं इन्द्रियों का उत्तम वल, वाक्सिद्धि, नम्रता और तेज को प्राप्त करता है। शरीर के लिये लाभप्रद रस-रक्त, मांस-नेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र प्रभृति धातुओं की प्राप्ति रसायनों के सेवन से होती है इसीलिये इन्हे रसायन कहा जाता है। जो व्यक्ति विधिपूर्वक रसायनों का सेवन करता है वह केवल दीर्घायु ही नही प्राप्त करता अपितु देवर्पियों द्वारा प्राप्त गति एवं अक्षर ब्रह्म को भी प्राप्त करता है। . . Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) दीर्घमायुः स्मृति मेधामारोग्यं नमण वय । प्रभावर्ण स्वरोदार्य देहन्द्रियवलं परम || वाक्सिद्धि प्रणति कान्ति लभते ना रनावनात! लाभोपायो हि शन्तानां रमादीना रनायनम् ।। न केवलं दीमिहायुरश्नुते रसायन यो विधिवन्निपचने। गति स देवर्षिनिपेविता शुभा प्रपद्यते ब्रह्म तथेति चाक्षरम् ।। (च.चि०१) रसायन के दो स्वरूप होते है-माध्मामिक या आचार-समन्धी नया आधिभौतिक या विभिन्न औषधियों के योग। इनमें प्रथम को fete physical और दूसरे को Meternalistic कह सकते हैं। इन दोनों में से कौन-सा कम उपयोगी और कौन-सा अधिक है, यह निर्णय देना कठिन है। फिर भी वैर का आचार-रसायन सर्वोपरि है । उसी का पर्याय सदाचार या मदन नाम से स्वतन्त्रतया दिया जा रहा है। यह भी आयुर्वेद का एक विशेष अंग है जो अर्वाचीन जन-स्वास्थ्य-विज्ञान के लिये एक सर्वथा नया अध्याय हो सस्ता । विशुद्ध आधिभौतिक दृष्टि से बहुत से रसायनों को उन गानों में पाया जाता है। ऋतु के अनुसार तथा सम्पूर्ण वर्ष के अनुसार, आयु अनुनार तथा विविध प्रकार के प्रयोजना के अनुसार अनेक प्रकार के रसायन बताये गए है। उदाहरण के लिए यहां पर एक हरीतकी रमायन का उल्लेख क्यिा जा रहा है। ___ हरीतकी मनुप्यों के लिए माता के समान हितकरी है-माता तो भी कुपित हो जाती है पर उदरस्थ हरीतकी कभी बु.पित नहीं होती। ऋतु के अनुसार इसका सेवन ग्रीप्म मे बराबर गुड, वर्षा में सेंधा नमक, शरद् में स्वच्छ शकर, हेमन्त मे सोंठ, शिशिर में पिप्पली एवं वसन्त ऋतु मे मधु के साथ सेवन की गई हरीतकी को प्राप्त कर रोग नष्ट होते है । हरीतकी मनुष्याणां मातेव हितकारिणी। कदाचित् कुप्यते माता नोदरस्था हरीतकी ।। (भा० प्र०) ऋतावृतौ य एतेन विधिना वर्तते नरः। घोरानृतुकृतान् रोगान्नाप्नोति स कदाचन ।। (सु० ३.६४ ) ग्रीष्मे तुल्यगुडा सुसैन्धवयुतां मेघावनद्धाम्बरे साधं शर्करया शरचमलया शुण्ठ्या तुपारागमे । पिप्पल्या शिशिरे वसन्तसमये क्षौद्रेण सयोजितां राजन् प्राप्य हरीतकीमिव रुजो नश्यन्ति ते शत्रवः।। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) सद्वृत्त आयुर्वेद से सदाचार या सद्वृत्तों का बहुत अधिक महत्त्व जनस्वास्थ्यसंरक्षण की दृष्टि से दिया गया है । इनके अनुष्ठान या यथावत् पालन करने से न केवल आरोग्य की प्राप्ति होती है अपरञ्च इन्द्रियों पर आधिपत्य भी प्राप्त होता है जिससे व्यक्ति जितेन्द्रिय हो जाता है । ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य तथा स्त्रियों के ऋतुकालीन मढाचार प्रभृति आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक सद्वृत्त मनुष्य को पूर्ण बनाने का प्रयत्न करते है । आयुर्वेद में कथित सद्वृत्त उसकी एक बहुत बढी आधारशिला या नींव है । इसमें विश्वजनीन, सभी जाति, सम्प्रदाय और धर्मों मे गृहीत सदाचारों का उल्लेख है । संभव है उनमें कुछ ऐसे भी कर्त्तव्याकर्त्तव्यों का प्रसंग आया हो जिनकी औद्योगिक युग के परिवर्तनों के साथ मेल न खाये तथापि उनमे अधिकांश ग्रहण के योग्य ही हैं— 'जैसे सभी जीवों में दयाई मनोवृत्ति, त्याग की भावना, शरीर वाणी एवं मन की चंचलता का दमन तथा परोपकार मे स्वार्थ की कल्पना (परोपकार को स्वार्थ समझना इतना ही पर्याप्त सदाचार है ) ' आर्द्रसतानता त्याग कायवाक् चेतसा दमः । स्वार्थबुद्धि परार्थेषु पर्याप्तमिति सद्व्रतम् ॥ ( अ० हु० ) अन्यान्य सदाचार धर्मनिरपेक्ष, भौगोलिक सीमाओं से परे तथा सार्वभौम यह सिद्धान्त हैं । ऐसे ही ये सदवृत्त समस्त प्राणियों के लिये सुखदाई, व्यक्ति को अनेक गुणों से प्रसिद्ध बनाने वाले, मनुष्यों को सदैव आरोग्य प्रदान करने वाले, उसे दीर्घायु अर्थात् शतजीवी ( सौ वर्ष जीनेवाला बनाने वाले ) तथा मरने के अनंतर उसे सन्तोप और सद्गति देनेवाले बतलाए गये है ' ● इति चरितमुपेतः सर्वजीवोपजीव्यम्, प्रथितगुणगणौघो रक्षितो देवताभि । समधिकशतजीवी निर्वृतः पुण्यकर्मा, व्रजति सुगति निघ्नो देहभेदेऽपि तुष्टिम् II ( वृद्धवाग्भट ) भतएव आत्मकल्याण चाहनेवाले सभी लोगों को सर्वदा स्मृतिपूर्वक सभी सद्वृत्त का पालन करना चाहिये । सद्वृत्त के साधनों से मन- शरीर और इन्द्रियों को प्रकृत ( विकार रहित ) अर्थात् व्यक्ति को स्वस्थ रखा जा सकता है । यही इन उपदेशोंका अन्तिम लक्ष्य भी है - मनुष्य या समाज को स्वस्थ रखना । सक्षेप मे इन सद्व्रतों का वर्णन निम्नलिखित शब्दों मे किया जा सकता है .१ साम्येन्द्रियार्थ संयोग --- विभिन्न कर्मेन्द्रिय तथा ज्ञानेन्द्रियों (motor and २ भि० भू० Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) Sense organs ) का नत्तत कायों में उचित और अनुहल मात्रा में लगाना । २ बुद्धि की सहायता से ठीक-ठीक विचार करते हुए कार्यों का सन्या रुप से प्रतिपादन करना । ३ देश-काल और आत्मगुणों से विपरीत आहार- विरादि का विधिपूर्वक सेवन करना। आधुनिक प्रचलित सामाजिक न्याय-विज्ञान में आयुर्वेटोक दन सम्वृत्ती का भी एक अभूत-पूर्व स्थान है। क्योंकि इस विज्ञान का भी चरम लच्य आरोग्य, दीर्घायुप्य तथा स्वास्थ-संरक्षण ही स्थिर किया गया है। सदन का ही दूसरा नाम सामान्य धर्म है। इस सामान्य धर्म के अनुष्टान में सुख और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। __लभी प्राणियों की सभी प्रवृत्तियाँ सुख के लिए होती हैं और नुन विना धर्म के नहीं होता। इसलिए मनुष्य को धर्मपरायण होना चाहिये । हिमा, चोरी, व्यर्थ कार्य, चुगलन्चोरी, कठोर भाषण, अलका अगदा करना, गुण में टोप का आरोप और यथार्थ का न देखना ये दय प्रकार के पाप कम है। दनको शरीर, मन और वाणी से निकाल देना चाहिये - सुखार्थाः सर्वभूताना मता' ला प्रवृत्तयः । सुख च न विना वर्मात् तस्माद्धर्मपरो भवेत् ।। हिसास्तेयान्यथाकामं पैशुन्य परुपानृते । संभिन्नालापव्यापादमभिध्याग विपर्ययम् ।। पापं कर्मेति दशा कायवाइमानसैस्त्यजेत् ।। (वान्स०३) पंचकर्म ( Five Operations) आयुर्वेद की एक अन्यतम विशेपता उसके पचकों की है। इन पंचक्मों का व्यक्ति या जनता के स्वास्थ्य की रक्षादृष्टि से उतना ही महत्व है जितना कि रोगी व्यक्ति का चिकित्सा में। पचक्रमों की संरया जैसा कि नाम से ही स्पष्ट ह-पाँच हैं । वमन (कै बराना), विरेचन (दस्त कराना), आस्थापन वस्ति (इनेमा के द्वाग आत्रों को स्वच्छ करना), अनुवासन (इनेमा के द्वारा गुदामार्ग से स्निग्ध पोपणों का पहुंचाना) तथा गिगेविरेचन (नस्य के द्वारा गिर और श्वसनमार्ग की शुद्धि करना)। इन पाँचों कमों के द्वारा रोग के उत्पादक दोपों या विपों का दूरीकरण सम्भव है यदि दोप या विप शरीर से दूर हो जाय तोविकार स्वयमेव लुप्त हो जाता है और व्यक्ति और समाज स्वस्थ बनाया जा सकता है । पंचकर्म के पूर्व नेहन और स्वेदन का विधान है इन स्नेहन Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) " और स्वेदन क्रियाओं का अन्तिम लक्ष्य व्यक्ति को कर्म के लिए तैयार करना है इसीलिए इन दो क्रियाओं का समावेश पूर्व कर्म ( Preparation ) मे हो जाता है । इन क्रियाओं से तोतस मे लीन ( चिपके हुए ) दोष ढीले पड जाते हैं और वहिर्मुख हो जाते है फिर पंचकर्मों के द्वारा उनका निर्हरण सुविधापूर्वक किया जा सकता है । यदि दोष श्लेष्म-प्रधान है अर्थात् पचनसंस्थान के ऊपरी भाग मे ( आमाशयादि ) अथवा श्वसनसंस्थान ( फुफ्फुसादि) मे है तो उसका निर्हरण वमन के द्वारा सम्भव है - इस प्रकार का विकार प्रायः शीत ऋतुओं के अनन्तर वसंत ऋतु में पाया जाता है । अतएव वसंत ऋतु मे यदि व्यक्ति और समाज को स्वस्थ रखना है तो उसमे वमननामक-पंचकर्म के द्वारा क्रिया करके उन्हें रोगरहित किया जा सकता है । विरेचन -- पचन संस्थान के अधोभाग का शोधन जिसमे प्राय. ज्वर प्रभृति पित्ताधिक्य के लक्षण उत्पन्न होते हैं । विरेचन क्रिया के द्वारा किया जा सकता है । इस प्रकार के रोगः प्रायः वर्षा ऋतु के अनन्तर शरद ऋतु मे उत्पन्न होते है ( मलेरिया आदि ) । इसलिए व्यक्ति या समाज की रक्षा की दृष्टि से उनमें भविष्य मे ज्वर प्रभृति रोग शरद ऋतु मे न हो शरद ऋतु के प्रारम्भ में ही विरेचन करा देना चाहिए । वस्तियों का प्रयोग वायु के शमन मे सर्वोत्तम माना गया है । प्राय वायु के रोग ग्रीष्म ऋतु के वाद ( गठिया, आमवात, वातरक्त आदि ) वर्षा ऋतु मे होते है । इस ऋतु मे वस्तियों का बहुल प्रयोग से व्यक्ति या समाज को भविष्य मे होने वाले वायु के रोगों से रक्षा की जा सकती है। पंचकर्मो के सम्बन्ध मे सदा एक ही विशेष कर्म करना होगा ऐसा नियम नही है दोपों के निर्हरण के लिए कभी एक कर्म, कभी दो, क्वचित् तीन या पांचों की भी आवश्यकता पड सकती है और वैद्य का कर्तव्य है कि वह व्यक्ति की अवस्था विशेष का विचार करते हुए जितने कर्मों की आवश्यकता प्रतीत हो उनसे शुद्धि करे | कर्मणा कश्चिदेकेन द्वाभ्यां कश्चित् त्रिभिस्तथा । विकार साध्यते कश्चिचतुर्भिरपि कर्मभि ॥ ( सु० ) वर्ष मे तीन वडी ऋतुएँ बीतती है । इनमें हेमन्त ऋतु के दोष सचय को वसंत में, ग्रीष्म ऋतु के दोष-संचय को वर्षा काल मे एव वर्षा के दोप- सचय को शरद् ऋतु मे भलीभाँति निकाल देने से व्यक्ति मे ऋतुजनित विकार ( Seasonal disease ) नही होने पाते । हैमन्तिकं दोपचयं वसन्ते प्रवाहयन् यैष्मिकमभ्रकाले | घनात्यये वार्षिकमाशु सम्यक्प्राप्नोति रोगानृतुजान्न जातु || ( च० ) इस प्रकार यह पंचकर्म का अध्याय भी आधुनिक जनस्वस्थवृत्त के लिए Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) एक अभिनव विषय है, और उसका भी समावेश आधुनिक विषयों में करना वैज्ञानिकों का कर्तव्य है। आयुर्वेद की विशेषताओं के सम्बन्ध मे अन्यान्य कई बाते उपस्थित की जा सकती है । भूमिका का कलेवर बहुत बृहद न हो अतएव सक्षेप में कुछ एक विशेपताओं का उल्लेख विशेषतः स्वस्थवृत्त से सम्बद्ध वैशिष्ट्यों का कयन किया गया है। साथ ही यह भी ध्यान में रखा गया है कि कथन अधिक व्यावहारिक हो और उसका क्रियात्मक ( Practical ) रूप दिया जा सके। ____ आयुर्वेद के दूसरे प्रयोजन चिकित्सा के सम्बन्ध मे भी विविध विगेपतामो का वर्णन स्वतन्त्र या विरतृत रूप में किया जा सकता है। परन्तु इस स्थान पर उसकी कुछ एक विशेषता का प्रतिपादन करते हुए लेख की इति की जा रही है। सिद्धान्तचतुष्टय ( Four Fold theory ) आयुर्वेद मे की जाने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं का सार या चिकित्सा का सारांश चार मौलिक सूत्रों मे और पारिभापिक शब्दों में आचार्य सुश्रुत ने दिया है-१. क्षीण हुए दोपों का बढ़ाना-यदि दोप या धातु क्षीण हो तो उनको वढावे । मनुष्य के शरीर में रस-रक्तादि प्रभृति धातुओं की कमी, खनिज द्रव्यों की कमी, पोपण के अभाव में पोषक द्रव्यों या जीवतिक्तियों की कमी ( Deficiency diseases due to lack of nutrition [ Vitamins, protien, carbohydrates, fats & minerals or hormonal imbalance ) तो उसे पूर्ति करना। २. कुपित दोपों का प्रशमन करना-दोषों के कुपित होने से अथवा विषमयता के कारण लक्षणों का शमन विभिन्न लाक्षणिक तथा विशिष्ट औषधियों के प्रयोग से Sedation or Palliative treatment either symptomatic or by chemo therapy का प्रयत्न करना। इसमे संदेह नही कि आधुनिक चिकित्सा के संभार प्राचीनों की अपेक्षा उस वर्ण में अधिक उन्नत है। ३-बढ़े हुए दोपों का निर्हरण करना-बढ़े हुए विपों का रेचन ( Purging ) या प्रक्षालन ( Flushing of the system ) करना चाहिये। संशोधन का उपक्रम आयुर्वेद में सर्वोपरि है-जिसका प्रसंग पंचकमो में आ चुका है। ४-यदि टोप और धातु समान या स्वस्थ मात्रा में हो तो उनका पालन करे-इमी मिद्धात की रक्षा स्वस्थवृत्त नामक चिकित्सा विज्ञान के अंग से की जाती है । स्वास्थ्य-संरक्षण या स्वस्थ के स्वास्थ्य के पालन हेतु बनाये रखने Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) के दो उपाय है-वैयक्तिक (Peasonal) तथा सामूहिक या सामाजिक (Public) इनमे वैयक्तिक आचारों का सर्वोत्तम उपदेश आयुर्वेद से प्राप्त होता है। दोपा. क्षीणाः वृयितव्या , कुपिताः प्रशमयितव्याः, वृद्धा निहर्तव्या', समाः परिपाल्या इति सिद्धान्त । (सु० चि० ३३) इस सिद्धान्त के अतिरिक्त तो चिकित्सा-जगत् में कुछ शेप रह नहीं जाता। इन सार्वभौम सिद्धान्तों मे सभी तत्व सूत्र रूप में निहित है। तद्पता ( Crudopathy )-आयुवेद मे सौम्य तथा उग्र दोनों प्रकार के योग उपलब्ध होते है । सोम्य काष्ठौपधियों से प्रारम्भ करके, खनिज धातूपधातु, वानस्पतिक विपोपविप तथा विभिन्न जान्तव विप जिनमें साधारण गोरोचन और मत्स्यपित्त से लेकर उग्र से उग्र सर्पविप का भी प्रयोग होता है। फिर भी औपधि की सौम्यता, उसकी सुरुचिपूर्णता और सुस्वादुता के ऊपर वैद्यों का विशेष ध्यान रहता है। आयुर्वेद की औपधियों की सर्वाधिक विशेषता उनका तद्रूप (Crude form ) प्रयोग है ! चीनी, मिश्री प्रभृति संस्कृत ( Refined ) मिठाइयों के रहते भी गुढ की मिठास की भी आवश्यकता पड़ती है। आज के वैज्ञानिक 'क्रूड फार्म' में प्रयुक्त की जाने वाली औपधियों का उपहास करते हैं। उदाहरणार्थ एक सर्पगंधा का प्रयोग ले। सर्पगंधामूल सम्पूर्ण चूर्ण का प्रयोग कई शताब्दियों से वैद्य उन्माद और रक्तवात ( Hypertension ) आदि मे करते चले आ रहे है जब से विश्व के आधुनिक वैज्ञानिकों को इस औषधि का पता चला नित्य नये अनुसंधान चलने लगे। उन्होंने वैज्ञानिक शोधों के आधार पर कई क्षार-तत्वों ( Alkaloids ) का पता लगा लिया। पुनः उसमे उस विशिष्ट तत्त्व का भी पता लगाया जिसका सीधे उच्चरक्त-निपीड पर प्रभाव पडता है। इल तत्व की अल्पतम मात्रा कम से कम समय से निपीड को नीचे कर देती है। इस तत्त्व का नाम है Reserpine 'रिसर्पाइन' । २५ मि० ग्राम की एक गोली वह कार्य कर सकती है जो झूड सर्पगधा का २ माशा चूर्ण भी नहीं कर पाता। गुण का वर्णन तो हो चुका अव जरा दूसरी दृष्टि से विचार करे तो उसमे गुणों की अपेक्षा दुर्गुण कई गुने बढ़े मिलते है। इसकी विषाक्तता बडी तीव्र है। प्रयोग काल में मात्रा निर्धारण ( Dosage) अवधि ( Duration ) रक्तनिपीडलेखन ( Blood Pressure Recording ) की आवश्यकता पदे-पदे पडती है। रोगी मे लम्बे समय तक निरन्तर प्रयोग करने से जीवन से भी रोगी को हाथ धोना पडता है। परन्तु ऋडफार्म मे प्रयोग करने से न प्रयोग काल और न पश्चात् काल मे ही किसी प्रकार की हानि की सम्भावना रहती Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) है। यही कारण है कि वैद्य क्या वैद्येतर वर्ग के लोग भी एक घन्लू औषधि के रूप में इसका प्रयोग सफलतापूर्वक करते हुये आरोग्य लाभ करते देने जाते हैं। काप्टऔपधि के तप के व्यवहार से कई लाभ होते है-औपवि सौम्यस्वरूप की हो जाती है, उसकी विपाक्तता कम हो जाती है, प्रयोग काल में तथा अनन्तर काल मे उपद्रवों की आशंका भी कम रहती है साथ ही औपवियों की आदत डालने वाला टोप ( Habit forming) भी जाता रहता है। औषधि के प्राकृतिक रूप में प्रयोग से सबसे बड़ा लाभ उसकी विषाक्तता की कमी प्रतीत होती है। यदि अफीम के सम्पूर्ण पौदे का सेवन किया जाय तो वह उतना विषाक्त नहीं होता जितना कि उसका वनीकृत रूप से प्राप्त दूध । सम्पूर्ण रूप में लेने से उस विप का प्रतिरोधी दव, जो प्रकृति मे ही उसने पूर्व से ही विद्यमान रहता है, मिल जाता है इसलिये विय-प्रभाव नीवस्वरूप का नहीं होता। इसी प्रकार अन्य विपाक्त वनस्पति-द्रव्यों के सम्बन्ध में भी समझना चाहिये। प्राकृतिक रूप में औषधि के लेने का दूसरा अन्तर स्वाभाविक तथा कृत्रिम (Natural or synthetic ) शब्दों के प्रयोग से स्पष्ट हो जाता है। माधुनिक युग में वैज्ञानिक कृत्रिम चीजों की अपेक्षा प्राकृतिक चीजों के व्यवहार के पन्न में अधिक है-विशेषतः जान्तब और वानस्पतिक द्रव्यों के सम्बन्ध में । प्राकृतिक विटामिन्स, हार्मोन्स, प्रोटीन्स आदि की महत्ता आज भी वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं। इस दृष्टि को स्वीकार किया जाय तो आयुर्वेद की प्राकृतिक वानस्पतिक और जान्तव द्रव्यों से निर्मित योग निश्चित रूप से अधिक लाभप्रद और उपयोगी है । औवले का सेवन करना हो तो प्राकृतिक आँवला या उसका कल्क, स्वरस, फाण्ट, काय, अवलेह आदि सिन्थेटिक विटामिन 'सी' के बने योगों से कई गुने लाभप्रद होंगे। ऋडफार्म में पाया जाने वाला विटामोन्स से भरपूर रहते हुए भोजन का भी प्रतिनिधि ( Substitute ) हो सकता है। सिन्थेटिक ग्टिामिन्स केवल विटामिन्स की कमी को किसी प्रकार पूरा कर सकता है उसका भोजन में कोई मूल्य (Food Value) नहीं अंकित किया जा सकता। जहाँ तक खनिज पढाथो का आयुर्वेदीय औपधियो के रूप में प्रयोग होता है-वे क्रूड है ऐसा नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उनमें तो विभिन्न प्रकार के संस्कारों द्वारा संस्कृत, शोधन, मारण, जारण, निस्त्यीकरण प्रभृति क्रियाओं से शरीर ग्राह्य (Absorbable ) तथा सेन्द्रिय (Organic) स्वरूप में ले आने का भगीरथ प्रयत्न किया जाता है। आयुर्वेद में व्यवहृत होनेवाली रसौपधियाँ संस्कृत और परिष्कृत होती हैं इसके विपरीत आधुनिक चिकित्सा मे Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ )। व्यवहृत होने वाले लौह और उपलौह योग ही असंस्कृत या क्रूड रूप के होते है। यही कारण है कि आधुनिक युग का लौह विबंधकारक होता है, परन्तु आयुर्वेदिक पद्धति से सिद्ध लौह के योग रेचक । ____ गृह-चिकित्सा, गृह शल्यकर्म ( Home Medicine and House Hold Surgery) ऊपर मे बतलाया जा चुका है कि व्यक्तिगत स्वस्थवृत्त के नियम प्रत्येक गृहस्थ के घर से अपना आवास बना लिये है। उसी प्रकार आयुर्वेद की कायचिकित्सा मे भी सब समय किसी विशेषज्ञ की आवश्यकता नहीं रहती । अपने नित्य की भोजन-सामग्री और मसालों के रूप मे, पथ्यापथ्यों के विवेक के रूप में तथा सुने हुए उपदेशों के रूप मे वह घरेलू चिकित्सा का रूप धारण कर चुकी है। न केवल काय-चिकित्सा के क्षेत्र में, शल्य-चिकित्सा के क्षेत्र मे भी लघु-शस्त्र कमों ( House hold surgery ) के रूप मे, वह आज भी व्यवहार में आ रही है। इस प्रकार अति प्रचलित और लोक-ज्ञान का तिरस्कार नही किया जा सकता। आयुर्वेद-शास्त्र की अपेक्षा लोक को भी अपना गुरु मानते हए संकोच नहीं करता। लोक ही सब काों मे बुद्धिमानों का आचार्य है। इसलिए सांसारिक विषयों मे पुरुष लोक-प्रणाली का ही अनुसरण करे । आचार्य. सर्वचेष्टासु लोंक एव हि धीमतः । अनुकुर्यात्तमेवातो लौकिकेर्थे परीक्षकः ।। (वा० सू० ३) पथ्यापथ्य ( Dietetics ) - आयुर्वेद का यह अंग भी बडा ही अद्भुत है। रोगानुसार पथ्य या अपथ्य की विवेचना तो आधुनिक चिकित्सा का भी एक प्रमुख अग बन रहा है। आहार-विहार सम्बन्धी नये विचारों की शोध जारी है। फिर भी एकान्तत. पथ्य, हिताहार, अहिताहार, विरोधी भोजन और विपमाशन आदि का आयुर्वेदीय वर्णन आज भी अपना स्वतन्त्र स्थान रखता है। सहस्रों वर्ष की परम्पराभों के अनुभव के अनन्तर प्रकाशित यह अनुभव सत्य है। मनुष्य शरीर के स्वस्थ रखने के लिए इनका भी ज्ञान परमावश्यक प्रतीत होता है। विरुद्धाशन से विविध प्रकार के रोग पैदा होते है। क्वचित् विरुद्धाशन का साक्षात् कुपरिणाम नहीं दिखायी पडे तो उसमे हेतु व्यक्ति की दीप्ताग्नि, तरुणावस्था, सात्म्य और उसका शारीरिक वल एव परिश्रम होता है जिससे विरोधी अन्न उसके लिए व्यर्थ हो जाते है और अहित नहीं करते। विरोधो अशन के सैकड़ों प्रसग ग्रंथों में सगृहीत है। यहाँ पर एक प्रचलित उदाहरण मछली और दूध का एक ही साथ सेवन Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४ ) का दिया जा रहा है। यह विरुद्धाशन है इससे रोग पैदा होने की संभावना रहती है, परन्तु पाश्चात्य देशों में मछली और दूध के योग से बना जादभोज्य पदार्थ पाये जाते है । उन व्यक्तियों को उसले कोई हानि भी नही होनी । इसका कारण क्या है। उत्तर ऊपर में बताया जा चुका है-पुन यही लोग में उसका उद्धरण दिया जा रहा है . साम्यतोऽल्पतथा वापि दीमाग्नेस्तम्णस्य च । स्नेहव्यायामवलिनो विरुद्ध वितथ भवेत् ।। आयुर्वेद प्रगति का समर्थक (Progressive) आयुर्वेद रूढिवादी नहीं है । उसकी आधार-शिला मान्य, सनानन, विश्वजनीन या सार्वभौम सिद्धान्तों के ऊपर रखी गई है। वह सदा से प्रगति का समर्थक रहा है। उसकी चिकित्सा की स्छ पनिा काल नम अब्सोलीट (Obsolete ) हो गई है, फिर भी वह सम्पूर्णतया असोलीट नहीं है। क्योकि वह अतिप्राचीन काल से अर्थात सभ्यता के आदिन काल से आज के युग तक किसी न किसी रूप में समाज-सेवा करता आ रहा है। इतना ही नहीं उनसे युगानुरूप परिवर्तन भी होते आये हैं । यही कारण है कि अथर्ववेद के काल में जो चिकित्सा की पद्धति रही वह संहिताकाल (चरक-सुश्रुतादि) में नहीं रह पाई उसमे बहुत विकास हुआ, नये-नये रोगों का प्रवेश नई-नई औपधियों का, और निदान-चिकित्सा के नये-नये साधनों का अंतर्भाव किया गया। संहिता-काल में जो चिकित्सा की पद्धति रही परवर्ती युग मे संग्रह-काल में वह नही रह पाई। उसमे निदान और चिकित्सा संबन्धी आमूल परिवर्तन हुए। चिकित्सा के क्षेत्र मे नये-नये योगों की कल्पना हुई। रस-विद्या ने पूरे शास्त्र पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। चिकित्मा केवल आध्यात्मिक योग, वानस्पतिक और जान्तव पदार्थों तक ही सीमित नहीं रह गया वल्कि खनिज पदाथो का रसोपरस, लोहोपलौह, विपोपविषों का बहुलता से प्रयोग होने लगा। रसौपधियों के प्रवेश ने चिकित्सा जगत् में एक नया क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिया। उसने त्रिदोषों के अंशांश क्ल्पना दुरुहता को भी धका दिया, अरुचिकर बडी मात्रा की काष्टोपधियों का या उनसे निर्मित घृत, तैल, आसवारिष्ट, गुटिका आदि का उपहास करते हुए, अल्पतम मात्रा में प्रयुक्त होने वाली और शीघ्र लाभ पहुंचाने वाली रस योगों की व्यवस्था होने लगी. अल्पमात्रोपयोगित्वादरुचेरप्रसंगतः। क्षिप्रं च फलदायित्वादौपधिभ्योऽधिको रसः। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवती वैद्यों को यूनानी चिकित्सा का सामना करना पड़ा। यूनानी चिकित्सा से कई नये-नये तत्वों का सार ग्रहण आयुर्वेदज्ञों ने किया, कई नई-नई औपधियों से जैसे चोपचीनी, पारसीक यवानी आदि के योगों से शास्त्र को अलंकन किया । पुन. वाट के युग मे यूरोपियन संस्कृति के साथ वैद्यों का मुकाविला पड़ा और उन्होंने कई एक नये रोगों, जिनका वर्णन उसके पूर्व के आयुर्वेदीय ग्रंथों में नहीं पाया जाता है, उनका प्रवेश अपने शास्त्रों में किया। जैसे फिरंग रोग ( देखें भाव प्रकाश)। फिरग ( Portugese ) देशविशेपार्थ में पुर्तगाल के लिये आया है क्योंकि सर्वप्रथम यही व्यापारी हिन्दुस्तान में व्यापार करने के निमित्त भाये थे। बाद में फिरंग देश समग्र योरोप का योधक हो गया। उसके देश में बहुलता से मिलने वाला या आधुनिक सभ्यता का रोग फिरंग नामक है जो फिरंगियों के सम्पर्क से अन्य लोगों में भी हो सकता है। फिरगी स्त्रियों के अंग सस्पर्श होने वाले इस रोग का नाम ही फिरंग रोग रख दिया गया जो आज 'सिफलिस्' रोग का पर्यायवाची हो गया है : फिरगसंजके देशे बाहुल्येनैव यद्भवेत् । तस्मात् फिरंग इत्युक्तोः व्याधियाधिविशारदै । गंधरोगः फिरंगोऽय जायते देहिना ध्रुवम् । फिरंगिनोऽङ्गसंस्पर्शात् फिरंगिण्याः प्रसगतः ।। फिरंग रोग की व्याख्या, हेतु, निदान, सम्प्राप्ति के अनन्तर उसके प्रभेद और उपद्रवों का विचार करते हुए चिकित्सा की भी सम्यक व्यवस्था तत्कालीन शास्त्रकार को करनी पडी थी । कहने का तात्पर्य यह है कि आयुर्वेद का शास्त्र एक अत्यन्त व्यावहारिक ( Practical ) विद्या है इसको युगानुरूप शास्त्रकारों के करने की आवश्यकता सदैव पडती रही है। जैसा कि पूर्व की प्रतिज्ञाओं में प्रसंग आ चुका है यह अनादि, अनन्त और सनातन, सदा बने रहने वाले स्वरूप का है-इसलिये यह स्थिरात्मक ( Static ) न होकर गति-शील ( Dynamic ) है अर्थात् प्रगति का समर्थक है । आयु के हिताहित की दृष्टि से आयु के ज्ञान एव प्राणी के नैरोग्य के लिए व्याधि के विचार से, निदान और शमन की दृष्टि से, प्राणिमात्र के दीर्घायुष्य की प्राप्ति की दृष्टि से जो कुछ भी ज्ञान है वह आयुर्वेद ही है : आयुर्हिताहितं व्याधेर्निदानं शमनं तथा । विद्यते यत्र विद्वभिः स आयुर्वेद उच्यते ॥ अनेन पुरुपो यस्मादायुर्विन्दति वेत्ति च | तस्मान्मुनिवरै रेप आयुर्वेद इति स्मृतः॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) आयुर्वेदं पठिष्यामि नैरुज्याय शरीरिणाम् । इति निश्चित्य मतिमानात्रेयस्त्रिदशालयम् ॥ (भैर.) आचार्य चरक ने आयुर्वेद के विशाल और व्यापक क्षेत्र के प्रति अपनी उदारता प्रतिदर्शित करते हुए लिखा है कि आयुर्वेदज्ञ को प्रत्येक औषधि ( Drug ) का मर्मज्ञ होना चाहिये । केवल नाम और रूप-ज्ञान से संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिये । अपितु, उसके सम्बन्ध में यावतीय ज्ञातव्य बातों का गुण, रस, वीर्य, विपाक, देश के शनुसार एवं काल के अनुसार उनके प्रयोग की विधि, प्रति व्यक्ति की अनुकूलता के उपयोग की सभी दृष्टियों से विचार करत हुए प्रयोगज्ञ होना चाहिये । औषधि का ज्ञान यदि जंगली और असभ्य कहे जाने वाले भेड और बकरी चराने वाले आदमियों से भी हो जाय तो उसको ग्रहण करना चाहिये । बगते कि वह उत्तम और उपादेय हो । ज्ञान अनन्त है उसकी सीमा नहीं। अन्ततोगत्वा आयुर्वेद का दो ही लक्ष्य रह जाता है। वढिया औपधि ( Drug) तथा प्राणियों को नीरोग करना ( Cure)। इनमें भेपज ( Drug ) वही उत्तम है जो नरुज्य का सम्पादन कर सके। चिक्सिक (वैद्य) वही उत्तम है जो रोगी जो रोग से मुक्त कर सके तदेव युक्तं भैषज्य यदारोग्याय कल्पते । च एव भिषजा श्रेष्ठो रोगेभ्यो यः प्रमोचयेत् ।। (च. सू.) इस उदार सिद्धांत में संकीर्णता का लेश भी नहीं। जब भेड और बकरी चराने वाले जंगली आदमी औपध के नाम और रूप ज्ञान कराने के लिए आयुर्वेद के गुरु बन सकते है तो क्या तथाकथित वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति या सभ्य कहे जाने वाले देशों से प्रचारित और प्रसारित विज्ञान का आलोक अर्थात् आधुनिक चिकित्सा पद्धति के आचार्य आयुर्वेद के गुरुपद या आचार्यपद को अलंकृत नहीं कर सकते हैं ? जरूर कर सकते हैं। यदि उनमें आचार्यत्व की क्षमता विद्यमान हो। जैसा कि ऊपर में निर्देश किया जा चुका है। आज का विज्ञान औद्योगिक क्रांति ( Industrial Revolution ) का परिणाम है। वह एकक सावना में विश्वास नहीं करता उसके सम्मुख सदैव समूह, समाज, जनपद और देश का विचार है। वह एक विराट प्रकाश के रूप में विद्यमान है। उसकी तुलना में आयुर्वेद का प्रोज्ज्वल दीप कुछ फीका लगता है। आज आयुर्वेद में उसके आचायों में यह क्षमता नहीं कि उसको साहसा आत्मसात् कर सके । परन्तु यह याद रखना चाहिए कि आयुर्वेद वह दीप है जो अपने में आत्मसात् करके ही छोडेगा । उसके लिए काल अपेक्षित है। काल बडा बलवान होता है, परन्तु प्रतीक्षा तो करनी ही पडती है। भारतीय संस्कृति की यही विशेषता है कि Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७ ) वह काल से विभिन्न विपरीत सभ्यता, संस्कृति और परम्पराओं का अपने में आत्मसात् करने में समर्थ रही है। इतिहास इस काल की साक्षी है, भारत की संस्कृति इसका ज्वलन्त प्रमाण है। आयुर्वेद का प्रथम पाठ इन महान् आयुर्वेद का प्रथम पाठ ही आयुर्वेद के विकास की योजनाओं के साथ 'आयुवढोत्पत्ति व्याख्यास्याम" (सुश्रुत ) से शुरू होता है। अथवा यों कहें कि दीर्घ जीवन प्राप्त करने के विचार से प्रारम्भ 'अथातो दीर्घजीवतीयमायायं ब्यारयास्माम.' (चरक) कहते है। इन दोनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ऋपितों को देवलोक तक की यात्रा करनी पड़ी थी-कितना दुष्कर कार्य था कि करोमि क गच्छामि कथ लोका निरामयाः। भवन्ति सामयानेतान्न शक्नोमि निरीक्षितुम् ।। दयालुरहमत्यर्थ स्वभावो दुरतिक्रमः । एतेपां दु.खतो दुःखं ममापि हृदयेऽधिकम् । इति निश्चित्य भगवानात्रेयस्त्रिदशालयम् ।। (भै० र०) आज के युग मे दीर्घ जीवन के विकास की योजनाओं को लेकर देवलोक तक जाने की आवश्यकता नहीं है । इस लोक में आयुर्वेद का आनयन ऋपियों के द्वारा पूरा कर दिया गया है । इसके विकास के लिए भारत में ही क्वचित भारतेतर देशों से बहुत सी सामग्रियाँ उपलब्ध हो जाती हैं। उससे इस आयुर्वेद को विकसित या अधिक समृद्ध कर सकते हैं। वह सामग्री क्या है ? इसका उत्तर एक वाक्य में यही है कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के साधनों को आत्मसात् करना, जो सम्प्रति वडा ही दुःसाध्य और कठिन प्रतीत होता है । दीर्घायुष्य का पाठ-ग्रहण आयुर्वेद का सर्वोपरि लक्ष्य है उसको छोडा नही जा सकता-समस्या जटिल, उसका समाधान और अधिक जटिल। इस जटिल समस्या का सरल समाधान सामञ्जस्य में है। जिस प्रकार कुटी व्यवस्था और औद्योगीकरण दो विपरीत उपक्रमो का समाधान आधुनिक युग में देश के कर्णधार मनीपियों के द्वारा अपनाया जा रहा है। उसी प्रकार आयुर्वेदज्ञ को भी अपने कर्तव्यों का निर्वाह अपेक्षित है। दोनों का प्रश्रय समान रूप से देना-आद्योगीकरण भी चलता रहे और हठपूर्वक कटी-व्यवसायों की भी रक्षा की जाय, आयुर्वेद में नए-नए निदान और चिकित्सा के साधनो को अपनाते हुए हठपूर्वक दिव्य आयुर्वेद की रक्षा मे तत्पर रहना चाहिए । आयुर्वेद, कुटी-व्यवसाय और सनातन धर्म की रक्षा आज तक इसी वल पर हुई है। जे हठि राखे धर्म को तेहि राखे करतार' महामना परम पूज्य स्वर्गीय पडित मदनमोहन मालवीयजी का आदर्श ही इस विभीपिका से रक्षा कर Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता है। 'प्रतीच्य-प्राचीच्य का मेल सुन्दर' यह रहा उनका आदर्श । इसी आदर्श को सामने रखकर आयुर्वेद का उत्थान या विकास संभव है। आज का आयुर्वेद एवं उनके ज्ञाता भी इसी आदर्श के पुजारी हैं। इसके अतिरिक्त कोई दूसरा चारा नहीं। इसी उदार भावना से प्रेरित हो आधुनिक आयुर्वेद में जहाँ भी अपूर्णता प्रतीत हुई उसको आधुनिक चिकित्सा विज्ञान से पूर्ण करके अभिनव आयुर्वेद का जन्म होता है । इन अभिनव आयुर्वेदज्ञों को शास्त्रों के प्राचीन ज्ञान तथा आधुनिक विज्ञान के नवीनतम ज्ञान के सम्मिश्रण से उभयज्ञ बनाया जाता है। आयुर्वेदज्ञ का प्राचीन स्वरूप प्राचीन युग में चिकित्सा का कर्म एक पुण्य कर्म की दृष्टि से किया जाता था 'चिकित्सतात् पुण्यतमं न किंचित् ।' कुछ सीमित क्षेत्रों में ही वह व्यवसाय के रूप में स्वीकृत किया गया है। यद्यपि वैद्यक विद्या की प्रशंसा अर्थकरी विद्या के रूप में पायी जाती है तथापि चिकित्सा का उद्देश्य कथमपि अर्थोपार्जन व्यवसाय के रूप में नहीं रहा जैसा कि निम्नलिखित वैद्य के गुणों से स्पष्ट है। आदर्श भिषक गुरोरधीताखिलवैद्यविद्यः पीयूषपाणिः कुशलः क्रियासु | गतस्पृहो धैर्यधरः कृपालुः शुद्धोऽधिकारी भिषगीशः स्यात् । वैद्य-कुलीन, धार्मिक, कोमल स्वभाव वाला, सुरक्षित, सर्वदा सावधान, निर्लोभ, सजन, भक्त, कृतज्ञ, देखने में सुन्दर (प्रियदर्शन ), क्रोध-रूक्ष-मदईर्ष्या-आलस्य आदि दोपों से रहित, जितेन्द्रिय, क्षमावान, पवित्र, शील और दया से युक्त, मेधावी, न थकने वाला, अनुरक्त, हितैषी, चतुर, समझदार, वैज्ञानिक, छलरहित और होशियार होना चाहिए । कुलीन धार्मिकं निग्धं सुभृतं सततोत्थितम । अलुब्धमशठं भक्तं कृतनं प्रियदर्शनम् ।। क्रोधपारुष्यमात्सर्यामदालस्यविवर्जितम् । जितेन्द्रिय क्षमावन्तं शुचिशीलदयान्वितम् । मेधाविनमसंश्रांतमनुरक्तं हितैपिणम् ।। ये ऊँचे आदर्श हैं, इन आदों का पालन करने वाला वैद्य व्यवसाय-बुद्धि से प्रेरित होकर अपने व्यवसाय में सफल नहीं हो सकता, क्योंकि उसके आदर्श Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) विशुद्ध सेवा की भावना से ओत-प्रोत है। इस प्रकार का वैद्य आर्तजनों की सेवा करता हुआ कृतार्थ हो सकता है। ___ वैद्यों के अन्यान्य आदर्शों का संग्रह विभिन्न आयुर्वेद ग्रंथों में वर्णित वैद्य की परिभाषाओं से किया जा सकता है। यहाँ पर एक और उदाहरण देकर वैद्य की समाजसेवा के उच्च आदशों का उदाहरण दिया जा रहा है । आयुर्वेद मे अभ्यासमाप्त, प्रियदर्शन, युक्ति और कारणों का जानकार वैद्य कहलाता है । व्याधि का पूर्ण रूप से ज्ञाता, वेदना का निग्रह करने वाला, वैद्य ही वैद्य है, वैद्य जोवन का मालिक नहीं है। आयुर्वेदकृताभ्यासः सर्वतः ग्रियदर्शन। युक्तिहेतुसमायुक्त एप वैद्योऽभिधीयते ॥ (क्षे० कु०) व्याधेस्तत्त्वपरिज्ञान वेदनायाश्च निग्रहः । एतद्वैद्यस्य वैद्यत्व न वैद्यः प्रभुरायुप || (यो० रे०) यहाँ पर यह भी स्मरण रखना चाहिये कि चिकित्सा का कर्म निर्लोभ होकर करते हुए भी निष्फल नहीं होता। कही पर मित्रता पैदा हो जाती है, कहीं पर पैसा भी मिल जाता है, कही पर यश और सम्मान मिलता है, कही पर धर्म या पुण्य का कर्म सम्पन्न हो जाता है और कुछ भी न मिले तो कम से कम क्रियाभ्यास ( Practical experience ) तो निश्चित ही मिलता है, चिकित्सा कचिदपि निष्फल नहीं होती क्वचिदर्थ. क्वचिठमैत्री क्वचिद्धर्मो कचिद्यशः । क्रियाभ्यासः क्वचिच्चैव चिकित्सा नास्ति निष्फला । आज का भिपक उपर्युक्त उन आदर्शों को ध्यान में रखते हुए आज का वैद्य अपने कार्यक्षेत्र मे उतरता है। उसको आधुनिक युग के चिकित्सा-व्यवसाय के साथ प्रारम्भ से ही मुकाबला करना पडता है । प्राचीन युग के वैद्यादर्श ( Medical ethics ) जो मैत्री, करुण और आर्तजनों की सेवाभावना से दयाई सिद्धातों पर व्यवस्थित थे, उनको तिलाञ्जलि देनी पडती है और उसे भी आधुनिक चिकित्सा आदशो ( Modern medical Ethics ) को वाध्य होकर अपनाना पडता है । अन्त. के परिवर्तनों के साथ ही उसे बाह्य परिवर्तनों की भी आवश्यता प्रतीत होती है, फलत वह बाह्याडंबरों को भी अपनाना अपना कर्त्तव्य समझता है । यद्यपि उसका आन्तरिक उद्देश्य सदैव पुनीत रहता है फिर भी वाहर से वह एकाकारता को स्वीकार करते हुए वचन, कर्म, संज्ञा और परिधान वही ग्रहण करता है जो आधुनिक चिकित्सा जगत् के नियामक लोग । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) आचार्यः सर्वचेष्टासु लोक एव हि धीमतः । अनुकुर्यात्तमेवातो लौकिकेऽर्थे परीक्षकः ॥ ( वा० सू० २ ) सांसारिक कार्यो में लोक ही सबसे बडा आचार्य होता है। लोक का अनुसरण करते हुए जो भी उत्तम आदर्श प्रतीत हो उसी का ग्रहण करना कल्याणकर होता है । यही लोक की माँग और आग्रह आधुनिकता की ओर हो तो वैद्य का भी कर्तव्य हो जाता है कि वह आधुनिक हो बने, आज का वैद्य उभयज्ञ होता है । उसको सम्पूर्ण प्राचीन शास्त्रों के ज्ञान के साथ ही साथ नवीनतम ज्ञान की शिक्षा भी मिलती रहती है, फलतः वह कुटीव्यवसाय और उद्योगजनित उभयविध ज्ञानों का सामंजस्य स्थापित करने में समर्थ रहता है । वह यथावश्यक प्राचीन विधियों से या अर्वाचीन विधियों से स्वास्थ की रक्षा या रुग्ण मनुष्यों की चिकित्सा करने में समर्थ रहता है । उदाहरण के लिए ओपधि को शरीर के भीतर पहुँचाने के बहुत से नए-नए मार्ग आविष्कृत है। इनमें सूचीवेध के द्वारा ओपधियों का अन्त प्रवेश लोक न बहुत प्रचलित है । जनता की माँग भी इस सम्बन्ध में बहुत है । यदि वैद्य इस सूचीबंध क्रियाओं से अनभिज्ञ रहे तो वह लोकानुरंजन नहीं कर सकता और चिकित्सा के व्यवसाय में भी सफल नहीं हो सकता । अतः वाध्य होकर उसे उस कार्य में प्रवृत होना पडता है | आचार्य वाग्भट ने लिखा है कि अर्थ, धर्म और काम से रहित कोई काम न आरम्भ करे उनका सेवन बिना किसी का विरोध किया करे | सभी धमो से प्रत्येक पद पर मध्यम ( बीचवाले ) नार्ग का अनुसरण करे | त्रिवर्गशून्यं नारम्भं, भजेत्तञ्चाविरोधयन् । अनुयायात्प्रतिपदं सर्वधर्मेषु मध्यमाम् ॥ जैसा कि ऊपर में इंगित किया जा चुका है आधुनिक चिकित्सा एक व्यवसाय के रूप में प्रचलित है यदि चिकित्सा का अयोपार्जन ही एकमात्र लक्ष्य हो तो स्वाभाविक है वैद्य भी अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए व्यावसायिक ओषधियों को ही अपनावे | इन ओपधियों को नशंसा और काष्ठ ओषधियों की निन्द्रापरक बहुत सी परिहासोक्तियाँ पायी जाती हैं, जिनका ऊपर में उल्लेख भी हो चुका है । अब रम ओषधियों की निन्दा करते हुए और इलेक्शन से प्रयुक्त ओषधियों की प्रशसा में अपने एक मित्र की परिहासोक्ति प्रथार्थ प्रतीत होती है । अल्पसात्रोपयोगित्वादरुचेरप्रसंगत | क्षिप्रं च फलदायित्वात् सूचीवोऽधिको मतः ॥ भारतवर्ष एक विशाल देश है, इस देश से नहीं मिलती । आसाम प्रदेश के लिए जो एक वेषभूषा की एक आकारता सौम्यद्वेष है, पंजाब के लिए Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) वह उद्भुत । इस प्रकार हिमालय का जो ग्राम्य वेश है वह मद्रास के लिए विदेशी | इसी तरह के अन्य भी उदाहरण दिए जा सकते है । ऐसी स्थिति मे कौन-सा वेग वैद्यों का गणवेश ( uniform ) हो, यह भी एक समस्या है । आचार्य सुश्रुत ने इसका वटा सुन्दर समाधान किया है । उन्होंने वैद्य के सौग्य और अद्भुत वेश की प्रशंसा की है । जो भी वेश जिस देश में अनुद्धत स्वरूप का हो उसे वैद्य को धारण करना चाहिए । 'छत्रेण, दण्डेन, सोपानत्केन, अनुद्धतवेशेन त्वया विशिखानुप्रवेष्टव्या ।' वैद्य को सम्पूर्ण साधन और सामग्री से सुसज होना गुण माना गया है । आज का वैद्या निदान के कुछ सीमित साधनों तक ही अवरुद्ध नहीं है और उसे होना भी नहीं चाहिए । बल्कि रोग के निदान के साथ ही चिकित्सा के विभिन्न साधन और सामग्री का सम्भार उसके समक्ष रहना चाहिए। जिस प्रकार बाह्य नाधनों में हमें आराम के भिन्न-भिन्न आविष्कृतनये उपायों की आवश्यकता पडती है और स्वीकार करते हुए हिचक्त नही होती उसी प्रकार निदान और चिकित्सा के विभिन्न आविष्कृत साधन-सामग्री से सुसज्ज चिकित्सक का होना भी नितान्त आवश्यक है । यही कारण है कि आज का वैद्य इन नवीन साधनों से सम्पन्न पाया जाता 1 पूर्ण चिकित्सक यदि निष्पक्ष दृष्टि से विचार किया जाय तो आधुनिक युग के निकले हुए आयुर्वेद विद्यालयों के स्नातक चिकित्सक की पूर्ण इकाई है, (Complete unit) क्योंकि आधुनिक विज्ञान का ज्ञांता कितना ही क्यों न हो जब तक उसको प्राचीन संस्कृत साहित्य में निहित ज्ञानराशि का सन्देश प्राप्त नही हो जाता वह अपूर्ण रहता है । प्राचीन और नवीन ज्ञान से युक्त व्यक्ति ही पूर्ण चिकित्सक ( Complete physician ) का गौरव प्राप्त कर सकता है और राष्ट्र के लिए ऐसे ही पूर्ण चिकित्सकों की आवश्यकता है । इन उभयज्ञ चिकित्सकों से जनता की पूरी सेवा सम्भव है । I 'भिपक चिकित्साङ्गानाम् ' - चिकित्सा कर्म में प्रयुक्त होने वाले जितने भी साधनोपसाधन हैं, उनमें सर्वाधिक महत्त्व चिकित्सक का है । शल्य चिकित्सा में सब प्रकार के यत्रोपयंत्र, शस्त्रानुरास्त्र से सुसज्ज चिकित्सालय या आगार के रहने पर भी यदि चिकित्सक की कुशलता नही प्राप्त हो शल्य कर्म मे सफलता नहीं मिलती है । कायचिकित्सा के क्षेत्र मे भी यही स्थिति है । चिकित्सक या भिषक् का सबसे बडा गुण योजक होना माना गया है । 'योगो वैद्यगुणानाम्' सबसे उत्तम भिषक् वह है जो रोग और रोगी की Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) प्रकृत्ति, देश, काल, साम्त्य, ऋतु, बलाबल और मात्रा आदि की सम्यकतया विचार कर चिकित्सा की योजना सम्यक रीति से करता है। ___ 'तिष्ठत्युपरि युक्तिनः' 'युक्तिश्च योजना या तु युज्यते ।' यह युक्ति या हिकमत की दक्षता आप्तोपदेश तथा प्रत्यक्ष कर्माभ्याम से प्राप्त होती है। भिपक कर्म-कर्म का स्वरूप क्रिया है । द्रव्यों की गरीर पर जोत्रमनादिक क्रिया होती है उसे कर्म कहते है। आयुर्वेद मे अदृष्ट के लिये भी कर्म शब्द का प्रयोग हुआ है। इस लिये उसकी व्यावृत्ति के लिये यह लिखा गया है कि चिकित्सा में प्रयुज्यमान क्रिया को ही कर्म कहा जाता है । चेतन प्रयत्न से उत्पन्न चेष्टा व्यापार को भी कर्म कहते हैं। इसी का नाम प्रवृत्ति, क्रिया, कर्म, यत्न तथा कार्य-समारंभ है। वैगेषिक दर्शन से उत्क्षेपण-अपक्षेपण आदि व्यापारों को कर्म कहा गया है। वहाँ पर संयोग, विभाग और वेग कर्मजन्य बताया गया है। द्रव्यगुण शास्त्र में कर्म शब्द से द्रव्यों के वमनादि कर्म अभिप्रेत है। सुश्रुत ने भी वमन, विरेचन, दीपन, संग्रह आदि को औपध कर्म कहा है। ___ आचार्य चरक ने वडी सुन्दर व्याख्या कर्म शब्द की की है। 'जो सयोग और वियोग मे स्वतंत्र (अनपेक्ष) कारण हो और द्रव्य मे समवाय सबन्ध से रहता हो (द्रव्याश्रित ) और फलावाप्ति के द्वारा लक्षित होता हो उसे कर्म कहते है।' 'सयोगे च विभागे च कारणं द्रव्यमाश्रितम | कर्त्तव्यस्य क्रियाकर्म कर्म नान्यदपेक्षते । जिस प्रकार लोक मे कोई सयोग-विभाग विना कर्म के नहीं होता उसी प्रकार शरीर संयोग-विभाग (परिवर्तन) विना कर्म के नहीं होता है। शरीर में इस प्रकार परिवर्तन या परिणाम उत्पन्न करते द्रव्यगत पदार्थ को कर्म कहते हैं । यह कर्म आपाततः अदृष्ट है, यह दिखलाई नहीं पडता केवल फल या परिणाम के द्वारा ही जाना जा सकता है। चरक के इस मत का समर्थन करते हुये पातंजल महाभाष्य की भी उक्ति मिलती है . "क्रिया नामेयमत्या परिदृष्टा न शक्या पिण्डीभूता निदर्शयितुम् ।' कर्म के इन शास्त्रीय लक्षणों के पश्चात् अव चिकित्सा कर्म या भिपक् कर्म के लक्षणों का आख्यान किया जा रहा है। ___ शरीर में धातुवों की स्थिति समान रहे उनमें विषमता न आने पावे, क्वचित् विपमता हो जाये तो पुन उसको समावस्था में लाने की क्रिया ही भिपक कर्म है। दूसरे शब्दों में स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य को ठीक वनाये Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) रखना तथा विकृत हो जाने पर उसको पुन. स्वस्थ कर देना यही चिकित्सक का प्रधान न्यापार है। इस कार्य के सम्पादन मे चिकित्सक को संशोधन, संशमन, आहार, आचारादि उपक्रमों को करना पडता है। तदनन्तर वह मानव को शारीरिक सुख और आयु को देने वाला होता है। ___यद्यपि दोप-दूप्य-संयोग एव दोप के विविध (संसर्ग) प्रकार के मिश्रणों से चिकित्सा कर्म भी अनेकविध होते है, तथापि मूल कर्म छ. ही है-लंघन, बृंहण, रूक्षण, स्नेहन, स्वेदन और स्तभन । इन छः उपक्रमों मे ही सभी को का अन्तर्भाव हो जाता है। जिस प्रकार दोपों की अलख्य कल्पनादि के होते हुए भी उनकी तीन की संख्या नष्ट नहीं होती उसी प्रकार कमों का पटव भी नहीं नष्ट होता है । यदि अधिक संक्षेप किया जाय तो वस्तुतः कर्म दो ही प्रकार के होते है-लंघन तथा बृंहण। इन दोनों से ही सर्व कर्म समाविष्ट हो जाते है । सक्षेप में चिकित्सा करते हुए भिपक को इन्ही कमो का आश्रय लेकर चलना होता है । इसी से वह रोगों के ऊपर विजय और अपने कार्य से सिद्धि प्राप्त करता है और भिपक की सज्ञा से सुशोभित होता है। इति पट सर्वरोगाणां प्रोक्ताः सम्यगुपक्रमाः। साध्यानां साधने सिद्धा मात्राकालानुरोधिनः ।। (च० सू०२२) अभिनव आयुर्वेद साहित्य एव प्रस्तुत रचना-कारण से कार्य का अनुमान लगाया जाता है। उभयज्ञ भिपको की लिखी हुई रचना तथा उनसे निर्मित आयुर्वेद साहित्य भी अपना विशिष्ट स्थान रखता है। अभिनव आयुर्वेदज्ञ एकाङ्गी नही होते । वे प्राचीन ज्ञान को आधुनिक विज्ञान के आलोक मे देखने का प्रयत्न करते है। आधुनिक विषयों को जो प्रायः यरोपीय या अग्रेजी भाषा मे है, प्राचीनोक्त शब्दों मे उसकी व्याख्या करने तथा नवीन एवं प्राचीन में सामञ्जस्य स्थापित करने का स्तुत्य प्रयत्न करते है। इस प्रकार पश्चिमी देशों से प्राप्तज्ञान का स्वदेश मे प्रचलित भापा एव लिपियों में आत्मसात् करने का सतत प्रयत्न अभिनव आयुर्वेद की रचनाओं में पाया जाता है। बहुत से ऐसे साहित्य का निर्माण हिन्दी भाषा मे हो चुका है और भविष्य मे भी होता रहेगा-ऐसा विश्वास है। प्रस्तुत रचना विशुद्ध रूप से आयुर्वेदीय चिकित्सा विपय से सम्बद्ध है। इसमे पूरे विषय को पाँच खण्डों में विभाजित करके लिखने का प्रयत्न किया गया है। प्रथम खण्ड सामान्य रोग निदान के सूत्रों से सम्बद्ध है, दूसरा खण्ड चिकित्सा के वीजभूत सिद्धान्तों पर व्यवस्थित है, तीसरा खण्ड विविध पंचकमी के सामान्य ज्ञान तक सीमित है, चतुर्थ खण्ड रोगानुसार उनके सामान्य लक्षण, साध्यासाध्य-विवेक एवं चिकित्सा पर व्यवस्थित है और रचना ३ भि० भू० Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पाँचो खण्ड परिशिष्टाधिकार का है, नियमें भवशिष्ट गंगनी film का भाख्यान पाया जाता है। रोगों के प्रतिपेध लिखने में हम बात का प्रयास भरमा जिया गया। कि तद् न गंगा की चिकिया . उपनम ( Line o! TECH 17 Therapy ), फिर उन-उन रोगों में प्रलने वाले मजाधियो नया गीत पृथक् पृथक् (Singlc Drugs and Compounds) मुविधानि रंग से प्रार किये जायें। इन विविध औषधियों या योगों में से किसी को मु ना अल्पवीर्य और कुछ को अधिक चीर्यवान नाहीं समझना भाटिये। ये सभी समान भाव से उपयोगी एवं कार्यशम । रोगी नया रोग बरु, र, साम्य, नातुः मात्रादि का विचार करते उप पिसी एक छोटे से योग का प्रयोग अल्प, मध्य या अधिक मात्रा में करते उप पूर्ण काया मागी चिकित्सक बन सकता है। इस ग्रन्थ के सभी प्रयोग गाय माप अधिकतर या तो लेखक के अभ्यास में बरम लाभप्रद अथवा विभिन्न पसा के चिकित्सकों के कर्म में अनुभूत एवं टफल है। रचना में बाली ओपधियो (एक-एक ओपधि ), औषधि (काटीपधि या रम योग) नया भेपजों (आधिदैविक तथा आध्यात्मिक उपनम) आरपान मा है। ये सभी स्वतंत्रतया तथा समरत रूप मे नत्-ता रोगों में समान भाव में उपयोगी है। इस कथन का तात्पर्य यह है कि यह अन्य एक संग्रह ( Collection ) मा. न होकर संचयन ( Selection ) के उपर व्यवस्थित है। इसमें चु प ओपधि योगों का ही चयन किया है। चयन के उपर व्यवस्थित होने के कारण पुस्तक के सिद्ध योगों की चिकित्सा कर्म में उपादेयता यतः सिद्ध है मी उपादेयता के विचार से ही पुस्तक का नामरण 'भिपस्वमिटि' पिया गया है। फलितार्थ यह है कि इस एक पुस्तक का अनुसरण परके चित्रिमा करते हुए भिपक या चिकित्सक को अपने चिकित्सा-कार्य में पूर्ण विधि या सफलता प्राप्त हो सकती है। इसकी रचना में इस बात पर सतत ध्यान रखा गया है कि पुन्तक आयुर्वेद विद्यालयों के छात्रों तक क्रियाभ्यास करने वाले चिकित्सक रिए समान भाव से उपयोगी हो सके । - कृतज्ञता-प्रकाशन इस ग्रंथ के लेखन का विचार बहुत दिनों से कल्पना में था। फलत इसके विविध अध्याय विविध अवसरों पर लिखे गये हैं। उदाहरणार्य प्रथम खण्ड का 'निदान पंचक' वाला अध्याय गवर्नमेण्ट आयुर्वेद कालेज पटना के संयोजित Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यान-माला के अवसर पर भूमिका का प्रारंभिक भाग 'नेशनल मेडिकल कान्फरेन्स' अलीगढ़ के अधिवेशन में विभागीय अध्यक्षीय भाषण के रूप तथा पंचकर्म वाला भाग लेखमाला के रूप में प्रस्तुत हुआ था। शेषाश का पूरण भी आज से दो वर्ष पूर्व ही हो चुका था। पाण्डुलिपि का प्रकाशन होकर आज ग्रंथ सजन पाठकों के अनुरञ्जन के लिये उनकी सेवा मे अर्पित किया जा रहा है। गुरुकृपा तथा भगवान् भूतभावन विश्वनाथ तथा गौरी-केदार की कृपा से भावमय कल्पना का मूर्त स्वरूप इस प्रकाशित रचना के रूप मे देखने का अवसर प्राप्त हुआ है। एतदर्थ अपने इष्टदेवों के प्रति शतशः प्रणाम करते हुए उनसे पुनः याच्जा है कि इस रचना का 'भिपकर्मसिद्धि' नाम यर्थार्थ में सिद्ध करें। ___ग्रंथ के प्रणयन में ऋपि एट मुनि-वचनों का आश्रय लेकर चलना पड़ा है साथ ही विभिन्न आचार्यों, ग्रंथकारों, विविध तद्विद्य विद्वानों, देव और देवियों से प्रत्यक्ष रूप में बहुत प्रकार की सहायता प्राप्त हुई है। इन सवों के प्रति प्राणत तथा आभार प्रदर्शन करना अपना एक पुनीत कर्त्तव्य समझता हूँ। अन्य उन नवीन प्राचीन ग्रंथकारों के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए हर्ष हो रहा है जिनकी कृतियों का उद्धरण इस रचना में प्राप्त हो रहा है। अंत में ग्रन्थ के मुद्रक एवं प्रकाशक के प्रति विशेपत. पं० ब्रह्मशंकर जी मिश्र तथा पं० रामचन्द्र जी झा के प्रति भी अपना हार्दिक उद्गार प्रकट करना उचित समझता हूँ जिन्होंने अपने अथक परिश्रम से ग्रन्थ को शृंखलावद्ध करके सुन्दर रूप देने में स्तुत्य प्रयत्न किया है । औषधञ्चौपधिर्भपज टकितम् , कापि हीन न वा वीर्यतश्चाधिकम् , तत्स्वतन्त्रं समस्तं हित साधने , कालसाऱ्यात्तुवीयैः कृतं योजितम् , आगमैराप्तमभ्यस्य वारान् बहून् , यद् भिपक्कमसिद्धौ मया गुम्फितम् । गुरुपूर्णिमा सं० २०२० वै० विनयावनत श्रीरमानाथ द्विवेदी Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ सर्पप । १२१ ( 75 7% (5 กะ 4s 1 ปี २६४ प्राचीन मानो की मेट्रिक सिस्टम में परिवर्तन-तालिका ___आ पै Kg gr M gr. ६ अणुओ की = १ त्रुटि ६ त्रुटि = १ लिक्षा ६ लिना = १ यूका ६ यूका = १ रज = १ सर्पप = १ यव ६ यव = १ गुजा २ गुजा = १ निपावक = १० ૨૪ર ३ गुना = १ मल्ल = )॥१० ६ गुजा = १ मापा ७२९ २ मापा %D१ धरण १-४५८ २ वरण = १ गाण २-९१६ २ गाण = १ वटक ५-८३२ २ बटक = १ तोला ११-६६४ तोला ___= १ शुक्ति २३-३२८ २ शक्ति = १ पल = ४)) = ४६.६५६ पल = १ प्रनृत ९३-३१२ २ प्रमृत = १ कुडव = १)) = १८६-६२४ २ कुडव -१ मानिका = -२)) = ३७३-२४८ २ मानिका = १ प्रस्य = ४)) ७४६-४९६ २ प्रस्य = १ गुभ = ३१||३)) = १,४९२-९९२ २ शुभ = १ आढक = 530?)) = २, ९८५-९८४ ४ आठक = १ द्रोण = [२||४)) = ११, ९४३-९३६ २ द्रोण = १ मूर्प = ||511-३)) ___ = २३, ८८७-८७२ २ नूपं = १ द्रोणी = १७१०१)) = ४७,७७५-७४४ ४ द्रोणी = १ खारी ____ = ५४|४)) ___ = १९१,१०२-९७६ १०० पल = १ तुला = ५ = ४,६:५-५३९ २००० पट -१ भार 3 २॥5 - ९३३ १०९-८३२ = = Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची प्रथम खण्ड : निदानपंचक प्रथम अध्याय १-१४ निदानपंचक-प्रयोजन, यदृच्छा, नियति, परिणाम, निदान-कथन-प्रयोजन, पूर्वरूपा-भिधान-प्रयोजन, पूर्वरूप ज्ञान का चिकित्सा में प्रयोजन, रूपाभिधान प्रयोजन, साध्यासाध्य विवेक, उपशय कथन का प्रयोजन, सम्प्राप्ति कथन प्रयोजन, अशाश-कल्पना, व्याधि-बल, काल, निदानपचक प्रसंग, निदानपचक में विवेच्य विषय एवं उनका प्रयोजन ।। द्वितीय अध्याय १५-८१ रोग का उत्पत्तिक्रम तथा क्रिया-काल, संचयावस्था या सचयकाल, प्रकोपावस्था, प्रसरावस्था, स्थानसंश्रयावस्था, व्यक्तावस्था, भेदावस्था, पविध परीक्षा, द्विविध या त्रिविध परीक्षा, अष्टविध परीक्षा, पंचविध परीक्षा, निदान निरुक्ति, निदान का निर्दुष्ट लक्षण, सेतिकर्तव्यताकः, हेतु भेद, विप्रकृष्ट, संचयकाल, व्यभिचारी, प्राधानिक, असात्म्येन्द्रियार्थ संयोग, प्रज्ञापराध, परिणाम, दोष हेतु, व्याधि हेतु, पूर्वरूपनिरुक्ति, सामान्य पूर्वरूप, विशिष्ट पूर्वरूप, रूपलक्षण, रूप का निर्दुष्ट लक्षण, लिप्तकुम्भकारन्याय, अनुपशय, सम्प्राप्ति का निर्दुष्ट लक्षण, संख्या-सम्प्राप्ति, विकल्पं सम्प्राप्ति, प्राधान्य, वलसम्प्राप्ति, कालसम्प्राप्ति ! द्वितीय खण्ड : पञ्चकर्म प्रथम अध्याय ८५-१२६ पञ्चकर्म, पञ्चकर्म का निपेध, लिक्विडपैराफीन, वसा, मजा, स्नेह व्यापद, अतियोग, अयोग, सम्यक् योग, प्रतिकार, स्नेह-विभ्रम, अस्नेह्य व्यक्ति, स्वेद. स्वेदन, संकर या पिण्ड स्वेद, नाडी स्वेद, कोष्ठ-स्वेद, उपनाह-स्वेद, प्रस्तर स्वेद, परिपेक-स्वेद, जेन्ताक-स्वेद, अश्मघन स्वेद, कर्पू स्वेद, कुटी-स्वेद, कुम्भी स्वेद, कूप स्वेद, होलाक-स्वेद, अविरेच्य । द्वितीय अध्याय १२४-१५७ वस्ति तथा वस्ति कर्म, वस्ति, नेत्र (नलिका), छिद्र, कर्णिका, वस्ति के दोष, आस्थापन, सिद्ध वस्ति, अनुवासन, यापना वस्ति, पिच्छा वस्ति, नस्य, शिरोविरेचन, प्रति मर्श, नस्य कर्म के भेद । तृतीय खण्ड : चिकित्सा वीज प्रथम अध्याय १६१-१७५ चिकित्सा, शाब्दिक व्युत्पत्ति, कायचिकित्सा, व्याधि का सामान्य हेतु, छ. उपक्रम, आहार, आचार । २ भि०सि० भू० Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) द्वितीय अध्याय १७५-१८६ चिकित्सा के भेद, सत्वावजय, चिकित्सा के चतुष्पाद, साध्यासाध्य विवेक, साध्यासाय के चार भेद, सुखसाध्य, कृच्छसाध्य, याप्यरोग, चिकित्सा की महिमा । तृतीय अध्याय १८६-६२ वायु के गुण, पित्त के गुण, कफ के गुण । चतुर्थ खण्ड : विशिष्ट प्रतिपेध ज्वर प्रतिषेध प्रथम अध्याय १६५-२१८ ज्वर के पूर्वरूप में उपक्रम, लंधन, लंघन के गुण, वमन, स्वेदन, पडङ्गपानीय, ज्वर मे आहार, संतर्पण या फलरस, मांस रस, काल, पाय का निषेध, मृत्युञ्जय रस, हिंगुलेश्वर रस, गोदन्ती भस्म, रसादिवटी, त्रिभुवनकीर्ति रस, संजीवनी योग, अश्वकचुकी रस । द्वितीय अध्याय २१८-२३१ __तन्द्रिक सन्निपात, प्रलापम सन्निपात, रक्तष्टीची सन्निपात, भुननेत्रचिकित्सा, जिह्वक सन्निपात, सधिक सन्निपात, अभिन्याम ज्वर, कंठकुब्ज सन्निपात, कर्णिक सन्निपात, चित्तभ्रम या चित्तविभ्रम सन्निपात, प्रचेतना गुटिका, रुग्दाह सन्निपात, अन्तक सन्निपात । तृतीय अध्याय २३१-२४१ लघन का निषेध, अभिघातज ज्वर, अभिचार या अभिशापज-ज्वर, क्रोधजज्वर, काम-शोक-भय ज्वर, भूतज ज्वर, मानस ज्वर । चतुर्थ अध्याय २४१-२४३ ___ सौभाग्यवटी, कस्तूरी भैरव रस, वृहत् कस्तूरी भैरव रस । पंचम अध्याय २४३-२४६ जर्ण अवर प्रतिपेध जीर्ण ज्वर में व्यवस्था पत्र । पष्ठ अध्याय २४.६-२५१ ____ ज्वरातिमार प्रतिपेव, क्रियाक्रम, रसयोग चिकित्सा । सप्तम अध्याय २५१-२७७ अतिसार प्रतिषेध, सामातिसार, अय-शोकातिसार, अगस्ति सूतराज, ग्रहणीरोग प्रतिपेध, नामावस्था में उपक्रम, पक्कावस्था में क्रियाक्रम, सान्नचिकित्सा, वृद्ध गगाधर चूर्ण, नायिका चूर्ण, ग्रहणी कपाट रस, पर्पटी के योग, Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) पंचामृत पर्पटी, तान्न पर्पटी, निरन्न चिकित्सा-पथ्य, पर्पटी प्रयोग विधि, ससर्जन क्रम। आठवाँ अध्याय २७८-२६१ ___ अर्शोरोग प्रतिपेध, अर्श रोग मे तक्र, शुष्कार्श मे भेपज, बाह्य या स्थानिक प्रयोग, नेक, धूपन, उपनाह, गुदवति, पिचुधारण, जलौका, पिच्छावस्ति, कामायन मोदक, श्री वाहुशाल गुड । नवा अध्याय १६१-३०६ अग्निमान्द्य-प्रतिषेध, भास्कर लवण, अग्निकुमार रस, रामबाण रस, क्रव्याद रस, अत्यग्नि चिकित्सा, भजीर्ण प्रतिपेध, आमाजीर्ण प्रतिपेध, विदग्धाजीर्ण-प्रतिषेध, क्षारराज, कुबेराक्षादि वटी, बिलम्बिका तथा अलसक प्रतिषेधक्रियाक्रम, विसूचीप्रतिपेघ-क्रियाक्रम, अजीर्णकटक रस, सजीवनी वटी, विसूची भजन वटी, विसूची विध्वसन रस, खल्ली, मूत्रावसाद । दसवाँ अध्याय ३०६-३३१ कृमिरोग-प्रतिपेध, मलज, श्लेष्मज, पुरीपज, आमाशयांत्र कृमि, अकुशमुख कृमि, गण्डूपद कृमि, स्फीत कृमि, सूत्रकृमि या तन्तु कृमि, प्रतोद कृमि, श्लीपद कृमि, भद्रसुस्तादि क्पाय, विडङ्गादि चूर्ण, कृमिमुद्गर रस, पाण्ड तथा कामला प्रतिपेध, व्योपादि घृत फल त्रिकादि कपाय मण्डूर वटक, पुनर्नवादि मण्डूर, नवायस लौह, निशालौह, योगराज, कामला प्रतिषेध, सामान्य या कोष्टाश्रया कामला, आरोग्यवर्धिनी वटी, शाखाश्रित कामला प्रतिपेध, कुम्भकामला-प्रतिषेध, हलीम-प्रतिषेध । ग्यारहवाँ अध्याय _३३१-३४३ रक्तपित्त प्रतिपेध, ऊर्ध्वग, अधोग, उभयग, अधोग रक्तपित्त, सशमन, मंशमनोपचार, वासा स्वरम, नासागत रक्तपित्त, उशीरादि चूर्ण, एलादि गुटिका, कुप्माण्ड खण्ड, रक्तपित्त-कुलकण्डनरस, सुधानिधि रस, चन्द्रकला रस । बारहवाँ अध्याय ३४४-३६२ राज यचमा प्रतिषेध, अनुलोम, प्रतिलोम, चतुविध हेतु, त्रिविरूप, शोधन निपेध, राजयक्ष्मा मे पथ्य, अपथ्य, मासाहार, बहिर्मार्जन, जीवन्त्यादि उत्सादन, अजा पंचक घृत, दशमूलादि कपाय, अश्वगन्धादि कपाय, कर्पूराद्य चूर्ण, सितोपलादि चूर्ण, वासावलेह बृहत् , च्यवनप्राश, द्राक्षारिष्ट महामृगाङ्क रस, चन्दनवलालाक्षादि तैल। तेरहवाँ अध्याय ३६२-३७३ ___कास रोग प्रतिपेध, अपराजित लेह, भाङ्गर्यादि लेह, दशमूली घृत, कण्टकार्यवलेह, बलादि क्वाथ, इच्वादिलेह, कटकार्यादिकपाय, समशर्कर चूर्ण, वृहत् Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) लवङ्गादिवटी, अगस्त्यहरीतकी, विभीतकावलेह, करवीर योग, एटादि वटी, भागोत्तर गुटिका, नागवल्लभ रस । चौदहवाँ अध्याय ३७४-३९८ हिका-श्वास-प्रतिषेध, हिकावलेह, शंसचूल रन, हरिद्रादिलेह, सामरेश्वरात्र, महाश्वासारि लौह, श्वास कुठार रम, नागार्जुनान रम, कनकासय, सोम कल्प। पन्द्रहवाँ अध्याय स्वरभेद-प्रतिषेध, निदिग्धिकावलेह, किन्नरकंठ रस । सोलहवाँ अध्याय ३६३-३६६ ___ भरोचक प्रतिषेध, सुधानिधि रस । सत्रहवाँ अध्याय ३६६-४०३ छर्दि-प्रतिषेध, एलादि चूर्ण, रसादि या पारदादिचूर्ण, वामनामृत योग, छर्दिरिपु, लाजमण्ड । अठारहवाँ अध्याय ४०४-४०६ तृष्णारोग प्रतिपेध, अपथ्य, वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक, क्षतोधित, क्षयोस्थित भक्तोद्भव । उन्नीसवाँ अध्याय ४०६-४१४ ___मूर्छा-भ्रम-अनिद्रा-तंद्रा-संन्यास प्रतिषेध, कौम्भ सर्पि, प्रवालपिष्टि योग, मूर्छान्तक रस । बीसवाँ अध्याय ४१४-४१८ __ मदात्यय प्रतिपेध, तीव्र मदात्यय, जीर्ण मदात्यय, ध्वंसक, विक्षेप, वातज, मदात्यय, पित्तज मदात्यय, त्रिदोषज, अष्टाङ्ग लवण, एलादि मोदक । इक्कीसवाँ अध्याय ४१६-४२३ ___दाह प्रतिषेध, मधज, पित्तज, तृष्णानिरोधज, रक्तपूर्ण, कोष्ठज, क्षतज, धातुक्षयज, मर्माभिघातज, प्रदेह या लेप, वाथ पर्पटादि, कपाय धान्यक हिम, कुङ्कुमादि वटी। बाइसवाँ अध्याय ४२३-४४४ भूत विद्या, असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, पितृग्रह, नाग, ग्रह, पिशाच, बालग्रह सख्या, भूतोन्माद की विशेषता, देवजुष्टोन्माद, देवशत्रुजुष्ट, गन्धर्व ग्रह पीडित उन्मत्त, यक्षाविष्ट, पितृजुष्ट, सर्पग्रहजुष्ट, राक्षस-ग्रह जुष्ट, पिशाच ग्रहजुष्ट उन्माद, कृष्णाद्यंजन, मरिचाद्यंजन, महाधूप, महापैशाच-घृत, भूतभैरव रस, ब्राह्म सत्त्व, आर्षसत्व, ऐन्द्रसत्त्व, याम्यसत्व, वारुणसत्व, कौबेरसत्व, गान्धर्वसत्व, Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) राजस अंश के सत्व-भेद, भासुरसत्व, राक्षससत्त्व, पैशाचसत्व, सार्पसत्व या नागसत्व, प्रेतसत्व, शाकुन सत्व तामस सत्व के भेद, पाशव सत्व, मात्स्य सत्व, वानस्पत्य सत्व, एकीयमत । तेइसवाँ अध्याय ४४५-४५२ ___ उन्माद गेग प्रतिषेध, सारस्वत चूर्ण, सर्पगन्धा घनवटी, उन्माद-गजकेशरी रस, चतुर्भुज रस, क्षीरकल्याण घृत, चैतस घृत, शिवा तैल । चौबीसवाँ अध्याय ४५३-४५६ ___ अपस्मार प्रतिषेध, अपस्मार, वातकुलान्तक रस, स्मृतिसागर रस, अतत्वाभिनिवेश । पच्चीसवाँ अध्याय . ४६०-४६१ ___वात-व्याधि प्रतिषेध, शाल्वण स्वेद, वातहापोटली, माषबलादि तैल, सिद्धार्थक तैल, महाराज प्रसारणी तैल, नारायण तैल, विष्णु तैल, विषगर्भ तैल, पचगुण तैल, छागलाद्य घृत, षड्धरण योग, महारास्नादि कषाय, रसोन पिण्ड, त्रयोदशाङ्ग गुग्गुलु, अमृत भल्लातक, नारसिह चूर्ण, पंचामृत लौह गुग्गुलु, वातगजाङ्कुश, बृहद्वातचिन्तामणि रस, रसराज, योगेन्द्र रस, त्रैलोक्य चिन्ता. मणि रस, नवग्रह रस, मल्ल सिन्दुर, गृध्रसी-प्रतिषेध, अर्दित, खानकारि रस, मकरमुष्टि योग, कम्पवात, विजय-भैरव तैल । छब्बीसवाँ अध्याय ४६२-४६८ ___ वातरक्त प्रतिपेध, सिरावेध, लघुमंजिष्ठादि कषाय, निम्बादि चूर्ण, गोक्षुरादि गुग्गुलु, सर्वेश्वर रस । सत्ताइसवॉ अध्याय ४६६-५०२ उरुस्तम्भ-प्रतिषेध, अष्टकटवर तैल, गुजाभद्र रस । अठ्ठाइसवॉ अध्याय ६०२-५१० __ आमवात-प्रतिपेध, पचसम चूर्ण, वैश्वानर चूर्ण, भामवातारि गुग्गुलु, सिहनाद गुग्गुलु, आमवातारि रस, महाविपगर्भ तेल । उन्तीसवाँ अध्याय ५१०-५२४ शूल प्रतिपेध, कुबेराक्षादि वटी, पंचकोलादि चूर्ण, एरण्ड सप्तक कपाय, हिग्वादि चूर्ण, तिलादिगुटिका, नारिकेल लवण, शूलवर्जिनी वटी, त्रिगुणाख्य रस, सप्तामृत लौह, तारा मण्डूर, विद्याधराभ्र रस, नारिकेलखण्ड, क्षारराज, धान्यरिष्ट । तीसवाँ अध्याय ५२४-५३१ उदावर्त तथा आनाह प्रतिपेध, भानाह, आनाह तथा उदावर्त में योग, पुरीपोदावर्त तथा भानाह में योग । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) इकतीसवाँ अध्याय ५.३२-५३६ । गुल्म प्रतिषेध, गुल्म रोग में सामान्य क्रियाक्रम, विशिष्ट क्रियाक्रम, गुल्म में भएन। बत्तीसवाँ अध्याय हृद्रोग प्रतिषेध, सामान्य चिकित्सा । तैतीसवाँ अध्याय ५१७-६० मूत्रकृच्छू, मूत्राघात नथा अश्मरी एवं शर्करा प्रतिषेध, तेरह प्रकार के सूत्राघान, सूत्रकृच्छू-मूत्राघान तथा अश्मरी प्रतिषेध, भेपज, उपयोग, सामान्य योग, अश्मरीहर कपाय, पूय-मेह प्रतिषेध । चौतीसवाँ अध्याय ५६१-५८० प्रमह प्रतिषेध, सामान्य दोष दूप्य तथा मेहों के भेद. असाध्य कुलज रोग, प्रमेह में सामान्य क्रियाक्रम, प्रमहन्न सामान्य औपधियाँ, दोपानुसार नया प्रमेह भेदानुसार विशिष्ट क्रियाक्रम, औषधि कपाय-स्वरस, उपयोग, स्वाप्निक शुक्रक्षय या स्वप्नदोष । पैतीसवाँ अध्याय ५६०-५८४ ___ मेदोरोग प्रतिपेध, मेढोरोग मे क्रिया सूत्र । छत्तीसवाँ अध्याय ५८५-६०१ __उदर रोग प्रतिषेध, जलोदर या ढकोढर, उदर रोग से सामान्य प्रतिषेध, प्लीहोदर में ओपधि, उपयोग, जलोदर प्रतिषेध में सर्पविष का प्रयोग । सैतीसवाँ अध्याय ६०२-६५१ शोथरोग प्रतिपेध, शोफ की सम्प्राप्ति, गोथ रोग में सामान्य लक्षण, शोथ रोग में दोपनिरपेक्ष सामान्य औषधियाँ । अड़तीसवाँ अध्याय ६११-६१४ __स्लीपद प्रतिपेध, लेप एवं स्वेद, रक्तावसेचन या शोणित मोक्षण । उन्तालीसवाँ अध्याय १४-६४१ कुष्टरोग प्रतिषेध, कुष्ठ के प्रकार, सामान्य लक्षण, अन्त.प्रयोज्य रक्त-शोधक या कुष्ट मामा ओपधियाँ, धात्री और खदिर का काथ, गुडची, निम्ब, गोमूत्र, तुबरक, तुवरक तेल का मुन्ब मे प्रयोग की विधि, भल्लातक, सप्तसम योग, मुधोदर, किरात, गोरग्बमुण्डी, पाताल गरुढी, काष्टोदुम्बर,' कुष्टारियोग, कुष्टनामक रन, शुद्ध गधक, सौनधिक चूर्ण, गंधक रसायन-निर्माण विधि, मदयन्यादि चूर्ण, नाग्बिादि हिम, मंजिष्टादि काय (लघु), महा मजिष्ठादि या वृहद् मंजिष्टादि कपाय, पंचनिम्ब चूर्ण, खदिरारिष्ट, कुष्ठ में वृन-प्रयोग, महातित घृत, Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) पंचतिक्त घृत, सोमराजी धृत, पंचतिक्त घृत गुग्गुलु, अमृतभल्लातक, धातवीय योग, तालकेश्वर रस, रसमाणिक्य, ब्रह्मरस, गलत्कुष्ठारिरस, सर्वेश्वर रस, आरोग्यवर्धिनी, कुष्ट मे बाह्म प्रयोग, मनःशिला दिलेप, करमादि लेप, आरग्वधादिलेप, भल्लातकादि लेप, चक्रमर्दादि लेप, दद्रुतवटी, पामा मे लेप, रसादिलेप, सिध्म या सेवा में लेप, कुष्ठ गेग में व्यवहृत होने वाले तैल, अर्क तैल, करवीर तैल, कृष्ण मर्प तैल, मरिचादि तैल, मोमराजी तैल, तुवरकाद्य तैल, श्वेतकुष्ट चिकित्सा, गुजाफलचित्रक लेप, ओष्ठ-श्वित्रहरलेप, पचानन तैल, आरग्वधाघ तैल, श्वित्रकुष्ठ मे अन्त. प्रयोग की औपध, श्वेतारिरस, सर्जरसादिलेप, जीवन्त्यादि लेप, मधूच्छिष्टादि लेप । । चालीसवाँ अध्याय ६४१-६४६ शीतपित्त-प्रतिषेध, रोगपरिचय, अमृतादि कपाय, मधुयष्टयादि कपाय, हरिद्रा खण्ड, विश्वेश्र रस, बाह्य प्रयोग, सिद्धार्थ लेप, दूर्वादि लेप, क्षारजल, दार्वी तैल, कोठ-रोग मे क्रियाक्रम, शीतपित्तादि मे पथ्यापथ्य । इकतालिसवाँ अध्याय ६४६-६५३ अम्लपित्त प्रतिपेध, रोग परिचय, सा-यसाप्तता, क्रियाक्रम, पथ्यापथ्य, वासादशाङ्ग कषाय, द्राक्षादि चूर्ण, अविपत्तिकर चूर्ण, द्राक्षादि गुटिका, नारिकेल खण्ड, वण्डकुष्माण्डावलेह, सौभाग्य शुठी, नारायण घृत, धान्यरिष्ट, सूतशेखर रस, लीलाविलास रस, अम्लपित्तान्तक लौह, सितामण्डूर । बयालिसवाँ अध्याय ६५३-६७६ __ वाजीकरण, निरुक्ति, वाजीकरण के गुण या फल, वाजीकरण के विषय, वाजीकरण के अभाव में दोप, ब्रह्मचर्य तथा वाजीकरण, वाजीकरण तथा सन्तानोत्पत्ति, सामान्य वाजीकर द्रव्य, वाजीकर या वृष्य द्रव्य, नाना वृष्य ओषधियाँ, वृष्य वातावरण, वाजीकर भोपधि की प्रयोग विधि, वाजीकरण में अपथ्य वाजीकरण योग, कामदीपक चाण्डालिनी योग, आभिष प्रयोग, अपत्यकर स्वरम, कमलाक्षादि चूर्ण, वानरी गुटिका, श्री मदनानन्द मोदक, महाचदनादि तैल, भल्लातक तैल, वसायोग, क्रमवारुणी मूल, दशमूलारिष्ट, मृतसंजीवनी सुरा, नारसिह चूर्ण, आम्रपाक या खण्डाम्रक, वीर्यस्तम्भकर योग, कामिनी विद्रावण रम, वीर्य स्तम्भ वटी, वृप्य रसौपधि योग, पुप्पधन्वा रस, कामिनी दर्पन रस, मन्मथाभ्र रस, चन्द्रोदय रस, चन्द्रोदय मकरध्वज (स्वल्प), मकरमुष्टि योग, अश्वगन्धा घृत या कामदेव घृत । तैतालिसवाँ अध्याय ६७६-७०३ रसायन, शाब्दिक-व्युत्पत्ति, परिभापा, भेपजाभेपज, रसायन गुण, दिव्यौपधियों अथवा रसायनों का अवतरण, रसायन का भालोचनात्मक विवेचन, Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) रसायन के प्रकार, कुटी प्रावेशिक विधि, अशुद्ध शरीर में रसायन प्रयोग निष्फल, सौर्यमारुतिक विधि, आचार रमायन, रसायन सेवन की आयु, आमल की रमायन, हरीतकी रसायन, त्रिफला लौह रसायन, रसायन औपधियाँ, सरल रसायन सेवन के योग, मेधावृद्धिकर रसायन, भृङ्गराज रसायन, अश्वगन्धा रसायन, तिल रमायन, नागवला रसायन, पलाशवीज रसायन, पुनर्नवा रसायन, वृद्धदारुक रसायन, वाराहीकंद रसायन, चित्रक रसायन, हरीतकी रसायन, अमृतादि रसायन, गुडूच्यादि रसायन योग, ब्राह्मी रसायन, त्रिफला रसायन, पिप्पली रसायन, शतावरी धृत, वचा रसायन, आमलकी स्वरस, सोमराजी रसायन, रसोन रसायन, विडङ्ग रसायन-विडगावलेह, भल्लातक रसायन, गुग्गुलु रसायन शिलाजतु रसायन, गंधक रसायन, सुवर्ण रसायन, पंचारविन्द रसायन, अन्य रस योग, रसायन पथ्य, मज्जतैल रसायन । पंचम खण्ड : परिशिष्ट परिशिष्टाध्याय ७०७-७२९ वृद्धिरोग प्रतिपेध, वृषण वृद्धि या अण्डकोष शोथ चिकित्सा क्रम, गलगण्ड, अमृताच तैल, गण्डमाला-अपची प्रतिषेध, काचनार गुग्गुलु व्रण-शोथ विधि एव व्रण प्रतिपेध, शिग्रु, दशाङ्ग लेप, व्रणशोधन, अनन्तमूल रोपण, जात्यादि तैल, अधःपुप्पी, सद्योव्रण, नाडीव्रण, उदुम्बर सार, गुण एवं उपयोग, अग्निदग्ध व्रणलेप, भग्न, अस्थिसंहारादि चूर्ण, भगन्दर, नवकार्षिक गुग्गुलु, विसर्प, मसूरिका, निम्बादि कपाय, पटोलादि कषाय, उपदश-फिरग, अकरी, पाददारी, युवानपिडिका-मुखदूषिका, व्यंग (झाई) अरुषिका (रूसी), इन्द्रलुप्त, नापितकण्ड, शय्यामूत्र, लोमशातन (केश गिराने के उपाय ), अलस (अंगुलियों का सडना), मुख-पाक, जात्यादि कपाय, तुण्डिकेरी चलदन्त (दाँतों का हिलना), दाँतों में पानी लगना, दशनसस्कार चूर्ण, वज्रदत मजन, इरिमेदादि तैल, कर्णशूल, कर्णस्राव दुष्ट प्रतिश्याय या जीर्ण नासारोग, या अपीनस, चित्रक हरीतकी, व्याघ्री तैल, नेत्राभिष्यद, फुल्लिका द्रव, नेत्रविन्दु, चन्द्रोदया वत्ति, त्रिफलाद्य घृत, सप्तामृत लौह, त्रिफला चूर्ण, अवर्ण शुक्र, शि रशूल, शिर शूलादि वज्र, पथ्यापडङ्ग कपाय, गोदन्ती भस्म पविन्दु तैल, रज'कृच्छू, रजोल्पता, रजावरोध, रज.प्रवत्तिनी वटी, कुमार्यासव, रक्तप्रदर तथा योनिव्यापद, सिद्धामृत योग, दाादि कषाय, पुण्यानुग चूर्ण, अशोकारिष्ट, फल घृत द्रव्य तथा निर्माण विधि, सूतिका रोग, दशमूल क्वाथ, सूतिका दशमूल काथ, दशमूलारिष्ट, बाल रोग, बालचातुर्भद्रिका, लाक्षादि तैल, दाडिमचतुःसम, महागन्धक, अष्टमगल घृत बालशोष, दृश्चिक दश, सपेदश, विषों में प्रतिविप, अपस्मार, सूर्छा, भामवात, मापादि मोदक, अधोग रक्तपित्त, रक्तशोधक कपाय, औषध सेवन काल, आचार्य परम्परा प्रशस्ति । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + 11 : 11 भिपकर्म - सिद्धि प्रथम खण्ड: निदानपंचक * प्रथम अध्याय निदान पंचक प्रयोजन 'निदानपचक' का विपय वडा ही गहन है । इसके भीतर जिज्ञासु जितना प्रविष्ट होता है, उतना ही उलझता जाता है । कई नामो से इस विपय की वैद्य - परम्परा मे प्रसिद्धि है, जैसे- 'निदानपचक', 'पचनिदान', 'पचलक्षण' 'पचलक्षणी' आदि । माधवनिदान के पाठ मे यह वेद्यपरम्पराओ मे एक कठिन स्थल माना जाता है । इसकी कठिनता का अनुमान निम्नलिखित कहानी से लगाया जा सकता है । पुराने जमाने मे वैद्यक के विद्यालय नही होते थे । अधिकाश छात्र गुरुओ के घर पर ही रहकर विद्याभ्यास किया करते थे । ढाका के कविराज का एक प्रसिद्ध गुरुपीठ था । बहुत से छात्र वहाँ विद्याभ्यास करते और विद्यासमाप्ति के अनन्तर देश के विभिन्न स्थानो मे जाकर अपनी वृत्ति या चिकित्माव्यवसाय किया करते थे । एक वार गुरु जी अपनी वृद्धावस्था मे तीर्थ-यात्रा को निकले । कलकत्ते मे काली-दर्शन करते जाते समय उनकी दृष्टि एक वडे 'साइन बोर्ड' पर पडी जिसमे उनका नाम अकित था । उन्होने अनुमान लगाया कि यहाँ अपना कोई शिष्य कविराज होगा । दर्शन करके जब लौटे तो उम कविराज के स्थान पर गये । गुरुजी ने शिष्य को नही पहचाना, परन्तु शिष्य ने उन्हे तत्काल पहचान लिया । उनका वडा आदर किया, सत्कारपूर्वक अपने आसन पर बैठाया और उस दिन की सम्पूर्ण आय गुरु की सेवा मे अर्पित की। गुरुजी के अनेक शिष्य थे तुमको पहचाना नही, तुम रहे ।' शिष्य ने उत्तर दिया उन्होने इस शिष्य से पूछा 'भाई मैने कब और कितनी अवधि तक मेरी पाठशाला मे कि गुरुजी मने कुल पाँच ही दिनो तक आप के Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि २ पास रह कर विद्या पाई है। निदान-पत्रक के कुल पांच दिनों के पाठ से हो हो गया और विषय की दुस्हता के भय से मैं तृप्त छोड़कर चला आया था शिष्य के पाण्डित्य की ' देखि सरासन गवहि सिधारे ।' गुरु ने इस कथन से थाह ले ली, समझा यह पूर्ण कार्य - कुगल हे, क्रियाभ्यास में, चतुर होने से उस चिकित्सानेपुण्य और यश इतना व्यापक है, परन्तु जान्न जान अनूरा है | इसके अधूरे ज्ञान को आज पूरा कर दूँ । अन्त मे गुरु ने अपनी प्रगन्न मुद्रा व्यक्त करते हुए कहा कि 'शिष्य में आज तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हैं यदि तुम्हे कही शास्त्र मे शका हो तो पूछो आज में तुम्हारी सभी मकाओ को निवृत्त कर दूंगा ।' शिष्य ने कहा- 'गुरुजी मुझे केवल आपका प्रसाद एव आशीर्वाद चाहिये मुझे केवल आपके पांच दिनो के पटाये पाठ में ही का है -- उसके अतिरिक्त या शेप में मुझे कही भी शका नही है---और नि समय हूँ ।' इस कहानी से 'पचनिदान' विषय को दुम्हता स्पष्ट हो जाती है । विषय को दुरवगम्यता के अतिरिक्त इस कथन का एक दूसरा कारण यह भी है, कि यह विपय अधिक शास्त्रीय एवं कम व्यावहारिक है । 'प्रैक्टिस' के 'फील्ड' मे पत्र निदान का स्थूल ज्ञान जैसे, निदान के माने कारण ( Etiology ), पूर्वरूप का अर्थ अव्यक्त लक्षण, जो भावी रोग का सूचक हो ( Premonitory signs or Prodiomata ), स्प का अर्थ रोग का व्यक्त लक्षग ( Sympto matology), सम्प्राप्ति का मतलब रोगोत्पत्ति की विधि (Pathogenesis ) और उपशय का भाव उपायात्मक निदान ( Theraputic test ) जान लेना ही पर्याप्त है । चिकित्सिक को व्यावहारिक क्षेत्र मे इससे अधिक जानने को आवश्यकता नही रहती, वह अपना कार्य सुचारु रूप से कर लेता है । ठीक भी है--'आम खाने से काम गुलठी गिनने से क्या फायदा ।' फिर भी इस विषय का विमर्श आयुर्वेद शास्त्र मे अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है । जैसे सम्पूर्ण उपनिपदो का नवनीत 'श्रीमद्भगवद्गीता' मानी जाती है उसी प्रकार 'निदानपचक' को आयुर्वेद शास्त्र का नवनीत कहे तो अत्युक्ति नही होगी । इसमे 'गागर मे सागर' भरी उक्ति चरितार्थ होती है । कुछ सीमित पृष्ठो मे आचार्य तथा टीकाकारो ने मिलकर गूढ तत्त्वो का सन्निवेश एक स्थान पर पचनिदान नामक व्याख्या के रूप मे कर रखा है । आयुर्वेद के रोग, निदान तथा चिकित्सा सम्वन्धी वहुविध सिद्धान्तो का प्रतिपादन एव विवेचना इस पचनिदान में पाई जाती है । एतदर्थ ही श्री माधवकर ने स्पष्ट शब्दो मे कहा है 'सङ्घ' द्यो को अपनी चिकित्सा मे उत्तम सिद्धि प्राप्त करने के लिये यत्नपूर्वक इम पचनिदान विषय को जानना चाहिये भै • Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय तस्माद्यत्नेन सद्वैद्यैरिच्छद्भिः सिद्धिमुत्तमाम् । ज्ञातव्य वक्ष्यते योऽयं ज्वरादीनां विनिश्चयः ॥ (मा नि. १) वह तो रही पचनिदान विपय की सरल या सामान्य ढग से की गई व्याख्या की दुरवगम्यता। यह दुरूहता आज के युग मे और भी जटिल हो जाती है। आज युग बदल गया है, प्रत्येक विपर को तर्क एव वितर्क के आधार पर प्रमाणित करने की आवश्यकता प्रतीत होती है। प्राचीन पाठशालाक्रम के अनुसार शिक्षण या पाठनविधि के द्वारा जिज्ञासु विद्यार्थियो का सतोप नही कराया जा सकता। जिज्ञासुओ मे श्रद्धा या एकनिष्ठता का भाव प्राचीनो की अपेक्षा कम होता जा रहा है । शिक्षण की आधार-शिला प्राचीन युग मे आचार-शिला थी। आज आचारशिला की दृढता न गुरु मे रह गई है और न शिष्य मे ही। आप्त प्रामाण्य का भी इस युग मे कोई महत्त्व नही रह गया है। अब तो केवल प्रत्यक्ष प्रमाण एव तर्क के आधार पर ( Reasoning ) ही सारी व्यवस्था निर्भर है-कब, क्यो और कैसे ? का युग है। अब ग्रथप्रधान पाठन-शैली को श्रद्धापूर्वक स्वीकार करना न अध्यापक के ही पक्ष मे श्रेयस्कर है और न छात्र को हो सतोपप्रद रहता है । ऐसी परिस्थिति मे 'निदानपचक' विपय की व्याख्या अधिक विपम हो जाती है । उदाहरण के लिये निम्नलिखित श्लोक को ले हितं हयानां लवणं प्रशस्तं जलं गजानां ज्वलनं गवाञ्च । हरीतकी श्रेष्ठतमा नराणा चिकित्तिते पंकजयोनिराह ॥ (हारीत सहिता') यह एक आर्प वाक्य है। इसको स्वीकार करके आगे बढा जावे, इसका भापान्तर या शाब्दिक व्याख्या कर दी जावे और छात्र का परितोप हो जावे ऐसी अवस्था आज नही है। अब तो चाहिये इस सूत्र की तात्त्विक व्याख्या अथवा आधुनिक विज्ञान के आलोक मे इसका पर्यवेक्षण, जिसके आधार पर छात्रो या जिज्ञासुओ को सतोप कराया जा सके। वैज्ञानिक युग के नव जागरण का स्वाभाविक लक्ष्य भी यही होना चाहिये। प्राचीन मनीपी भी इस बात को स्वीकार करते थे कि दूसरे शास्त्र जिनमे अमूर्ततत्त्वो की विवेचना शास्त्रीय तर्को के आधार पर की जाती है वे बुद्धि के विलास मात्र है, परन्तु ज्योतिष, आयुर्वेद तथा तत्रशास्त्र ये अत्यन्त व्यावहारिक ज्ञान है, इनमे पद-पद पर ज्ञाता की बुद्धि की परीक्षा होती है और पद-पद पर शास्त्र के प्रत्यय या विश्वास का भरोसा रखना पडता है अन्यानि शास्त्राणि विनोदमानं प्रत्यक्षमात्रेऽभिनिवेशभाजाम्। चिकित्सितज्योतिमतन्त्रवादा पदे पदे प्रत्ययमाव: न्ति ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि तथापि वैद्यक ग्रंथों में गूट तत्त्वों की आस मे पदृच्छा, बुद्रिवाद या विद्यु तर्क का बल नही चलता है तब तत्रकार स्वभाव, रिवर, काल, नियति अथवा परिणाम की दुहाई देता हुआ अग्रसर होना है। स्थूलवृद्धि छात्र की जिनामा तो इमसे नृप्त हो जाती है, परन्तु सूः मग्राही को वितृष्णा का शमन नही होता । वह क्या और दने ? वाले प्रश्नो की लगा देता है। व्यापार को भी प्राय झुजलाहट हो जाती है । स्वभावमीश्वर कालं यच्छा नियनिं तथा । परिणामञ्च मन्यन्ते प्रकृति प्रदर्शिनः ॥ उदाहरणार्थ कुछ एक सूत्रो का उरण नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है । सुश्रुताचार्य ने जारीरस्थान को प्रथम अध्याय में प्रकृति ने सृष्टि और उप में लय का वर्णन करते हुए स्वभाव को हेतु एक उद्घाटन किया है का ४ सन्निवेशः शरीराणां दन्नाना पतनं तथा । तलेप्यसभवो यच रोम्णामेतत् स्वभावतः | धातुपु श्रीयमाणेषु वर्षे द्वाविमौ सदा । स्वभावं प्रकृति कृत्वा नखके पाविति स्थितिः ॥ निद्राहेतुः तमः सत्त्वं बोधने हेतुरुच्यते । स्वभाव एव वा हेतुर्गरीयान परिकीर्त्यते || स्वभावाल्लवको मुद्दास्तथा लम्पकविज्जलाः । स्वभावाद् गुरवो मापा वाराहमहिपान्यः ॥ बुद्धचरित मे कवि अश्वघोष ने भी स्वभाव से प्रवृत्ति का वर्णन किया हैकः कंटकस्य प्रकरोति तैच्ण्यं विचित्रभाव मृगपक्षिणा वा । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामकारोऽस्य कुतः प्रयत्नः ॥ ( स्वभाव के स्थान पर ईश्वर का भी व्यवहार पाया जाता है। जिस रहस्य की व्याख्या मभव नही रहती, ईश्वर के सिर मढ़ कर तत्रकार को मतोप करना पडता है | श्रुति का भी वचन है कि सम्पूर्ण जगत की जनयित्री प्रकृति का अविष्ठान कर ईव्वर ही मम्पूर्ण जगत की सृष्टि करता है अस्मान् सायी सृजते विश्वमेतन् । सायां तु प्रकृति विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् ॥ अस्यावयवभूतेषु व्याप्त सर्वमिदं जगत् । कुतः केशान् कुतः स्रावः कुतः अस्थीत्यारभत् ॥ अङ्गपर्वाणि मज्जानं को मासं कुत आरभन् । जाठरो भगवानग्निः ईश्वरोऽन्नस्य पाचकः ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय वहुत से रहस्यो का उद्घाटन न होने पर ईश्वर के स्थान पर काल का ग्रहण शास्त्र कारो ने किया है 'कालो हि भगवान् स्वयभू' 'कालो हि सर्वभताना विपरिणामहेतु' 'कालयतीति सर्वेपा परिणाम नयतीति काल ।' . 'ससक्ष्मामपि कला न लीयत इति काल ।' 'कलनात् सर्वभूतानामिति काल ।' इत्यादि काल शब्द की व्याख्याये पाई जाती है। काल की महत्ता बतलाते हुए आचार्यों ने लिखा है कि यह काल सम्पूर्ण जगत का जन्य एव जनक कारण है कालः सृजति भूतानि कालः सहरते प्रजाः। कालः सुप्तेषु जागर्ति तस्मात् कालस्तु कारणम् ।। न सोरित प्रत्ययो लोके यत्र कालो न भासते । कलनः सर्वभूताना स कालः परिकीर्तितः ।। जन्याना जनक काल । (श्रुति ) कालकारित परिमाणो को लक्ष्य करके महाभारत मे कहा गया है : न कर्मणा लभ्यते चेज्यया च नाप्यस्ति दाता पुरुपस्य कश्चित् । पर्याययोगाद् विहितं विधात्रा कालेन सर्व लभते मनुष्यः॥ न बुद्धिशास्त्राध्ययनेन शक्य प्राप्तं विशेपं मनुजैरकालम् । मूोपि चाप्नोति कदाचिदर्थान् कालो हि कार्य प्रति निर्विशेपः ।। नाभूतिकालेषु फलं ददान्ति शिल्पानि मंत्राश्च तथौपधानि । तान्येव काले तु समाहितानि सिद्धयन्ति वर्धन्ति च भूतिकाले । कालेन शीताः प्रवहन्ति वाताः कालेन वृष्टिर्जलदानुमैति । कालेन पद्मोत्पलक्जलञ्च कालेन पुष्पन्ति वनेषु वृक्षाः॥ कालेन कृष्णाश्च सिताश्च रात्र्यः कालेन चन्द्रः परिपूर्णविम्बः । नाकालतः पुष्पफलं द्रमाणां नाकालवेगा सरितो वहन्ति । नाकालमत्ताः खगपन्नगाश्च मृगद्विपाः शैलमृगाश्च लोके । नाकालतः स्त्रीषु भवन्ति गर्भा नायान्त्यकाले शिशिरोष्णवः।। नाकालतो म्रियते जायते वा नाकालता व्याहरते च वालः । नाकालतो यौवनमभ्युपैति नाकालतो रोहति वीजगुप्तम् ।। नाकालतो भानुरुपैति योगं नाकालतोऽस्तङ्गिरिमभ्युपैति । नाकालतो वर्धते हीयते च चन्द्रः समुद्रोऽपि महोर्मिशाली ।। अशनं शयन यानमुत्थान पानभोजनम् । नियत सर्वभूताना कालेन हि भवन्त्युत ।। वैद्याश्चाप्यातुराः सन्ति बलवन्तश्च दुवेला । श्रीमन्तश्चापरे पण्डा विचित्रा कालपर्यया ॥ (महाभारत राजधर्म २५ ) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिपकर्म-सिद्धि यहच्छा -(Occasional or Accidental ) अलक्षित या आकस्मिक ढग से किसी वस्तु का आविर्भाव या तिरोनाव होना यह छा जलानों है। इसमे ईश्वर न कर्ता है, न अकर्ता, किन्तु अपनी गत्ता मात्र में महाहद के तरगो की भांति अवतिप्टित है। यद्यपि टम जगत का व्यापार विना किती प्रयत्न के ही निप्पन्न होता रहता है तथापि अगत् के माय या अगम्बद्ध रे नाथ यदृच्छा का कोई सम्बन्ध नहीं रहता, मत् की ही उत्पनि यदृच्छा में होती है असत्त्वे नास्ति सम्बन्ध कारणं सत्त्वद्भिभि । असम्बद्धम्य चोत्पत्तिमिच्छता न व्यवस्थिति || नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत ।। नियति-अब रही नियति, वह कौन मी वस्तु है । उल्हण के निब धमग्रह नामक सुश्रुत की टीका मे लिखा है-'नियतिस्तु धर्माधी' इति । तत्तिरीयोपनिषद् ( २।१ ) मे लिखा है-'प्रलय के अनन्तर प्राणियो के कल्याण चाहने वाले परमेश्वर ने सर्वलोक पितामह को प्रजा की सृष्टि के लिये नियुक्त किया । उनको मृष्टि करने के हेतु सर्वप्रयम आकाग उत्पन्न हुआ, आकाग मे वायु, फिर अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी, पश्चात् भोपधियाँ और अन्त में पुरुप की मष्टि हुई ।' ब्रह्मा ने उन पुरुपो के कर्म-विपाक का ज्ञा,कर अपने-अपने वामना स्प धर्माधर्म के माय उन्हें सयक्त किया। यही विधि निबंध या नियति कही जाती है। मस्तु, नियतिका अर्थ होता है अविषम पाप-पुण्य के फल की प्राप्ति-नियतिविपमपापपुण्यफलमिति । परिणाम-रूपान्तरप्राप्ति । यह कालवग प्रकृति का अन्यया होना ही है। चरक ने लिखा है-'काल पुन परिणाम इति, स च परिणामस्त्रिविध धमपरिणाम, लक्षणपरिणाम , अवस्थापरिणामश्चेति ।' धर्मपरिणाम में पूर्व धर्म की पूर्ण निवृत्ति होकर दूसरे धर्म की उत्पत्ति हो जाती है, जैसे-मिट्टी स्प धर्म का घट रूप में परिवर्तन । लक्षण परिणाम का अर्थ होता है-कार्य रूप धर्म की विभिन्न अवस्यायें ( Stages ।। घट का अनागत रहना प्रथमावस्या, वर्तमान रहना द्वितीयावस्था तथा अतीत होना तृतीयावस्था लक्षणपरिणाम की होती है। फिर इसी घट का क्षण-क्षण मे नयेपन का पुरानेपन मे बदलना अवस्थापरिणाम कहलाता है । वैद्यक प्रथा ने स्यूल दृष्टि से प्रकृति मे ही परिणाम बतलाया है, परन्तु वस्तुत साख्याचार्यों के अनुसार परिणाम प्रकृति में नही, प्रत्युक्त प्रकृति के गुणो में होता है। इम प्रकार गूढ तत्त्वो की व्याख्या प्रचीनो ने 'स्वभावमीश्वर काल यदृच्छा नियतिम्' आदि गन्दो में की है। याधुनिक युग के विज्ञानवत्ता इस रहस्या के Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय उद्घाटन मे सतत प्रयत्नशील है। बहुत स्थलो का रहस्योद्घाटन एक सीमा तक हो भी गया है-अब भी बहुत से रहस्य शेप है । तथापि विज्ञान के आलोक मे प्रत्येक वस्तु का दिग्दर्शन कराना, अध्यात्म एव आधिदैविक तत्त्वो का आधिभौतिक रूप देना आज के युग मे अध्यापको का कर्तव्य है । जिज्ञासु छात्रो का परितोप करना भी तभी सभव हो सकता है । 'आपरितोप विदुपा न साधु मन्ये प्रयोगविज्ञानम् ।' आज के युग मे बहुत से रहस्यो की गुत्थियो का सुलझाना, उनका आधिभोतिक रूप देना तथा उनको भौतिक विज्ञान, रसायन और गणित सिद्धान्तो में खरा उतारना हमलोगो का लक्ष्य हो गया है। यह वैद्यक सिद्धान्त के अनुकूल भी है । क्योकि चिकित्सा-विद्या की नितान्त व्यावहारिक कला है-चिकित्सा शास्त्र के सम्पूर्ण ज्ञातव्य का उपयोग एकमात्र चिकित्सा कर्म के लिये ही है-फलत आधिभौतिक तत्त्वो से आगे की चिकित्सा शास्त्र मे अपेक्षा नही है, जैसा कि सुश्रुत ने लिखा है तस्योपयोगोऽभिहित चिकित्सा प्रति सर्वदा। भूतेभ्यो हि पर यस्मान्नास्ति चिन्ता चिकित्सिते ॥ गीता मे लिखा है कि किसी भी विषय के सम्यक्तया ज्ञान प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम श्रद्धा उत्पन्न होनी चाहिये । श्रद्धा के अनन्तर दूसरी आवश्यकता इन्द्रिय-सयम की पड़ती है। इस क्रिया के द्वारा जब मनुष्य अपने सम्पूर्ण मन को अन्य विपयो से हटाकर एकाग्र चित्त होकर विशिष्ट विषय के ज्ञान सावन मे एकनिष्ठ हो जाता है, तभी वस्तुत ज्ञान की प्राप्ति सभव रहती है। इस प्राकार के ज्ञान हो जाने के अनन्तर व्यक्ति को परम शान्ति या सतोप का अनुभव होता है श्रद्धावॉल्लभते ज्ञानं तत्पर संयतेन्द्रिय । ज्ञानं लब्ध्वा पर शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।। 'निदानपचक' नामक विषय के सम्यक् ज्ञान के लिए भी उन आधारशिलाओ की अपेक्षा रहती है। इस विषय का इम अध्याय मे एक समास मे दिग्दर्शन कराने का प्रयत्न किया जा रहा है। निदानपंचक कथन प्रयोजन-रोगो के वातादिदोप-भेद से एव साध्यासाव्य-भेद से सम्यक् रीति से रोग का विनिश्चय करने मे निदानपचक की उपयोगिता है। व्याधि का यथावत् ज्ञान करने के लिये निदान, पूर्वरूप, रूप, उपशय तथा सम्प्राप्ति इन पॉचो सावनो की सहायता अपेक्षित है। ये निदानादि पाँचो तत्त्व निदानपचक कहलाते है। इनके द्वारा पृथक पृथक् तथा Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि मिलाकर रोग का ज्ञान किया जाता है। जिस रोग मे केवल निदान की उपलब्धि होती है अन्यो की नही, वहाँ पर केवल निदान ही व्याधि का बोधक होता है । इसी प्रकार उपलब्धि के कही पूर्वरूप, कही रूप, कही उपाय और कही सम्प्राप्ति से एकैकग व्याधि का वोधक होता है। कई बार दो, कहीं तीन, चार या पांचो की सहायता से भी व्याधि का ज्ञान किया जाता है। कतिपय विद्वानो का कथन है कि यदि एक उपाय से ही व्याधि का ज्ञान सभव हो तो दूसरे उपायो मे भी उसी का जान करने मे पिटपेपण मात्र होगा फलन कृतकरणन्व दोप ( किये हुए का पुन करना) की सभावना रहती है। परन्तु वात एमी नहीं है क्योकि एक प्रमाण से किसी वस्तु का ज्ञान होने पर भी वह जान भ्रमात्मक हो सकता है, निश्चयात्मक नही । अस्तु, निश्चयात्मक ज्ञान के लिये एक प्रमाणसिद्ध पदार्य का दूसरे प्रमाणो की सहायता से (प्रमाण-समूह से ) निश्चयात्मक ज्ञान होता है। और इस प्रकार से प्राप्त ज्ञान कभी मिथ्या नही हो सकता-अत आचार्यों ने व्याधि के निश्चयात्मक जान प्राप्त कराने के लिये ही 'पचनिदान' के साधनो ( पच प्रमाण समूहो) का उपदेश किया है। न्याय या तर्कशास्त्र में किसी सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिये 'पचावयव वाक्य' को महत्ता बतलाई गई है। चरक मे भी इस विषय का प्रतिपादन पाया जाता है। प्रतिना, हेतु, दृष्टान्त, उपनय, निगमन इन पाँच साधनो से किसी सिद्धान्त या निश्चित मत का प्रतिपादन किया जाता है। जैसे स्थापना करनी है कि 'पुरुप नित्य है' यह प्रतिना हुई, इसमे हेतु दिया गया 'अकृतकत्वात्' ( कारण वह स्वय अकृत है ), अव दृष्टान्त देना होगा 'यथा माकाशम्', उपनय में यह कहना होगा 'यथा अकृत आकाग है वह नित्य है उसी प्रकार परप भी।' अत में निगमन या फल निकला कि 'मत पुरुप नित्य है।' इसी के विपरीत मत की स्थापना की जा सकती है, उसे प्रतिष्ठापना कहते हैं। लोक मे भी देखा जाता है कि धुआँ से अनुमानित अग्नि का निश्चयात्मक जान प्रत्यक्ष, अनुमान तया आप्तोपदेश की सहायता से ही सभव होता है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार अनुमान मे प्रतीत अग्नि का ज्ञान प्रत्यक्ष द्रष्टा माप्तवाक्य ने किया जाता है, उसी प्रकार निदानादि पाँचो साधनो में मे पिनी एक के द्वाग व्याधि का मामान्य ज्ञान होने के अनन्तर भी रोग का निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त करने के लिये निदानादि पाँचो साधनो की अपेक्षा रहती है। वस्तुत तक्मम्मत रोगविनिश्चय की यही गास्त्रीय विधि (Class1cal method) है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय निदानपनक की उपादेयता या प्रयोजनसूचक. अन्य भी चर्चा शास्त्र मे पाई जाती है जैमा कि निम्नलिखित कोष्ठक से स्पष्ट है निदान-पचक हेत पूर्वरूप रूप उपशय सम्प्राप्ति (१ रोग विनिश्चय , , , १ अशाश २ माध्यामाध्य विवेक ,, , , कल्पना प्रयोजन1 ३ मापेक्ष्यनिश्चिति , २ व्याधिवल [४ चिकित्सा , ३ काव्यता निदान-कथन-प्रयोजन- 'निदान त्वादिकारणम्' (चरक)। 'सक्षेपतः क्रियायोगो निदानपरिवर्जनम्' (सुश्रुत ) । 'हतोरसेवा विविधा' ( चरक )। इन मंत्रों के अनुसार हेतु या निदान का परित्याग ही रोग की सामान्य चिकित्सा है। अस्तु, यदि रोगो मे निदान या कारण का कथन किया जावे तो इस ज्ञान के अभाव में चिकित्सा करना ही सभव नहीं रहेगा । अत , प्रत्येक रोग मे उत्पादक कारणो की विवेचना करना आवश्यक है। पर्वरूपाभिधान-प्रयोजन-केवल निदान मात्र के कथन से रोग विनिश्चय मभव नहीं रहता क्योकि कई वार एक ही या समान हेतु के अनेक रोग हो सकते हैं, और कई वार एक हेतु से एक ही रोग उत्पन्न होता है। इस प्रकार एक व्याधि के अनेक हेतु और बहुत सी व्याधियो मे वहुत से हेतु भी हो सकते है ‘एको हेतुरनेकस्य तथैकस्यैक एव हि । व्याधेरेकस्य बहवो वहूना वहवस्तथा ।।' (चरक) उदाहरणार्य समान हतु से ज्वर एव गुल्म की उत्पत्ति हो सकती है । जैसे मिथ्याहारविहाराभ्या दोपा ह्यामाशयाश्रयाः। वहिनिरस्य कोष्ठाग्नि ज्वरदा स्यू रसानुगा.॥ . दुष्टा वातादयोऽत्यर्थ मिथ्याहारविहारतः। कुर्वन्ति पञ्चधा गुल्म कोष्ठान्तर्ग्रन्थिरूपिणम् ।। १ एक हेतु से एक रोग की उत्पत्ति जसे-'मृद्भक्षणात् पाण्डुरोग ' 'मक्षिकाभक्षणाच्छदि ' । फलत केवल निदान या हेतु के कथन मात्र से रोग का विनिश्चय सभव नही रहता है । इसलिए पूर्वरूप आदि का भी कथन करना अपेक्षित है। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि २ निदान दो प्रकार का हो सकता है। १ सन्निकृष्ट ( समीप का ) तथा २ विप्रकृष्ट ( दूर का)। इसमे इनके बलावल के अनुसार व्याधि में भेद पाया जाता है। कई वार सन्निकृष्ट का निदान विप्रकृष्ट निदान से भिन्न स्वरूप का रोग पैदा करता है। इसमे सन्निकृष्ट और विप्रकृष्ट कारणो के वल का भेद होता है। यदि सन्निकृष्ट निदान विप्रकृष्ट से बलवान् हुआ तो व्याधि सन्निकृष्ट निदान के अनुसार होगी, परतु कही विप्रकृष्ट निदान सन्निकृष्ट से प्रवल हुआ तो रोग विप्रकृष्ट कारण के अनुसार होगा। जैसे निकटवर्ती निदान ज्वर का है और दूरवर्ती निदान ऊरुस्तभ का । ऐसी अवस्था मे यदि विप्रकृष्ट निदान सन्निकृष्ट से प्रबल हुआ तो रोगो मे ज्वर न पैदा होकर अरुस्तंभ होगा । उदाहरण 'हेमन्ते निचित. श्लेष्मा वसन्ते कफरोगकृत' इस सूत्र मे हेमन्त ऋतु मे कफ का सचय होना विप्रकृष्ट हेतु (दूर का कारण ) और वसन्त ऋतु तथा प्रात काल या शीत का लगना सन्निकृष्ट हेतु कहलाता है इनमे दोनो के बलावल के अनुसार विविध रोगो का होना सभव है। कई एक दूसरे सूत्र का उदाहरण ले-'हेमन्ते निचित श्लेष्मा वसन्तेऽर्कतापित कफरोगकृत्' । इस मूत्र मे कफ का रोग पैदा करनेवाले दो कारण दिये गये है। १ हेमन्त ऋतु का सचित कफ यह विप्रकृष्ट हेतु है और २ अर्कताप या सूर्यताप यह दूसरा सन्निकृष्ट हेतु है। यद्यपि सन्निकृष्ट हेतु सूर्यसताप से पित्त का कोप होना चाहिये परन्तु विप्रकृष्ट हेतु की प्रबलता समीपस्थ हेतु को दबाकर कफ की उत्पत्ति करती है जिससे वसन्त ऋतु मे कफज रोग होते है। यहाँ पर चिकित्सा भी कफ की करनी होती है, पित्त की नही । यहाँ वास्तविक निदान प्रत्यक्ष न होने से पूर्वरूप, रूपादि के अभाव मे व्याधि का मिथ्या ज्ञान होने की सम्भावना रहती है। अत , व्याधि के यथावत् ज्ञान के लिये केवल निदान मात्र का ज्ञान होना ही पर्याप्त नही है। उसके लिये पूर्वरूप-रूपादि का भी जानना आवश्यक होता है। इसीलिये वाप्यचद्र का कथन है कि 'तस्मात्केवलान्निदानादपि न व्याविज्ञान भवतीतिपूर्वस्पादीनामुपादानम् ।' पूर्वरूप ज्ञान का चिकित्सा मे प्रयोजन-'सचयेऽपहृता दोपा लभन्ते नोत्तरा गती । ते तूत्तरासु गतिपु भवन्ति बलवत्तरा ।' (सुश्रुत ) । यदि पूर्वरूप का कथन रोगो के सम्बन्ध मे न किया जावे तो पूर्वरूप की अवस्था मे वणित किये गये उपचार भी सभव न हो सकेगे। आचार्य सुश्रुत ने बतलाया है कि सचयकाल में ही दोपो के निकाल देन से विकार आगे को नही वढता और न रोग Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याये ११ ही बलवान् हो सकता है । अत पूर्वरूप की अवस्था में ही रोग का ज्ञान हो जाने र उपचार प्रारम्भ कर देना चाहिये । जैसे --- 'ज्वरस्य पूर्वरूपे लघ्वशनमपतर्पणं वा । ' ( चरक ) 'वातिकज्वरपूर्वरूपे घृतपानम् ।' (सुश्रुत ) साध्यासाध्यविवेक का अभाव - पूर्वरूप के कथन के अभाव में कई रोग में माध्यासाध्य का विचार भी सभव नही रहता । अत पूर्वरूप के वर्णनो की अपेक्षा दोनो मे अवश्य रहती है । उदाहरणार्थ पूर्वरूपाणि सर्वाणि ज्वरोक्तान्यतिमात्रया | यं विशन्ति विशन्त्येन मृत्युर्ज्वरपुरःसरम् ॥ अन्यस्यापि च रोगस्य पूर्वरूपाणि यं नरम् । विशन्त्यनेन कल्पेन तस्यापि मरण ध्रुवम् ॥ ( चरक ) सापेक्ष्य निश्चिति मे पूर्वरूप की उपादेयता - जो मनुष्य प्रमेहोक्त पूर्वरूप के बिना ही हारिद्रवर्ण या रक्त वर्णका मूत्र त्याग करता है, उसे प्रमेह न समझ कर रक्तपित्त का ही विकार समझना चाहिये । इस प्रकार पूर्वरूप ज्ञान के अभाव मे रक्तपित्त एव प्रमेह रोग का विनिश्चय करना सभव नही हो सकेगा । जहाँ दो व्याथियो के लक्षण समान हो वहाँ पर विभेद करने से पूर्वरूप सहायक होता है । इस प्रकार पूर्वरूप कथन की उपादेयता स्पष्ट हो जाती है । रूपाभिधान प्रयोजन — निदान एव रूप का वर्णन न किया जावे तो रोग के होता, क्योकि व्याधि का वास्तविक स्वरूप व्याधि का यथार्थ ज्ञान होता है- - रोग मे पाये होने वाले लक्षणो को ही रूप कहा जाता है । न तो रोग का रूप ही स्पष्ट हो सकता उपयोग करना ही सभव रहता है । रूपज्ञान का है आवश्यक है । पूर्वरूप के रहते हुए भी यदि स्वरूप का ज्ञान हो सभव नही रूप ही है । रूप कथन से जाने वाले स्पष्टतया प्रतीत फलत रूप का कथन न होने से , और न चिकित्सा - विशेष का वर्णन रोग मे करना नितान्त - साध्यासाध्य विवेक — रोगो मे स्वरूप या रूप का कथन न हो तो रोग की साध्यासाध्यता का ज्ञान करना भी कठिन होता है । जैसे—सुखसाध्य रोगो के प्रसग मे वचन मिलता है - १ हेतव पूर्वरूपाणि रूपाण्यल्पानि यस्य - वै ।' २ 'नच तुल्यगुणो दृष्यो न दोप प्रकृतिर्भवेत् । ' रोग की कप्टसाध्यता-सूचक उक्तियाँ १ 'निमित्त पूर्वरूपाणा रूपाणा मध्यमे वलम् । कालप्रकृतिदूष्याणा सामान्येऽन्यतमस्य च ।' रोग के असाध्यता सूचक कथनो मे भी रूप का अभिधान पाया जाता ह २ ' सर्वसम्पूर्णलक्षण सन्निपातज्वरोऽसाध्य. ।' Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि उपशय कथन का प्रयोजन-'गृढलिङ्ग व्याविमुपगयानपशयाभ्या परीक्षेत ।' गूढ लक्षण वाली व्याधियो का ज्ञान कराने अथवा मदृश लक्षणो से युक्त दो या अनेक व्याधियो मे एक के निर्णय के लिये अथवा अस्पष्ट लक्षणो से युक्त किसी एक ही व्याधि के यथावत् ज्ञान के लिये उपशय का आश्रय लेना अनिवार्य हो जाता है । उपगय कयन से तद्विपरीत अनुप य का भी ग्रहण स्वत हो जाता है। वातव्याधि एव ऊरुस्तभ मे, मधिवात एव आमवात मे तैलाभ्यग के द्वारा, अन्य ज्वरो तथा विपम ज्वरो मे क्विनीन के उपयोग से, विपम ज्वर एव काल ज्वर मे अजन के योगो के उपयोग से कई वार उपशयानुपशय विधि ( Therapeutic methods) से रोग की परीना रोग के यथावत् ज्ञान के लिये आवश्यक हो जाती है। अत रोगो के उपशयानुपशय का कथन करना भी व्याधि विनिश्चय के लिये वाछित है। सम्प्राप्तिकथन प्रयोजन-निदानादि चारो साधनो के कथन के अनन्तर भी चिकित्सा मे सफलता प्राप्त करने के लिये सम्प्राप्ति का कथन अनिवार्य है। क्योकि सम्प्राप्ति कथन के विना १ दोपो की अशारा कल्पना २ व्याधिवल ३ काल का व्याधि के साथ सम्वन्ध का ज्ञान सम्यक् रीति से न होने से विशिष्ट चिकित्सा कर्म का अनुष्ठान सभव न हो सकेगा। १. अशाश-कल्पना-वातादि दोपगत रूक्षता आदि प्रत्येक गुण अश कहे जाते है। दोप के प्रकोपक अशो के निर्धारण को अशाश कल्पना-कहते है । 'तरेकद्विव्यादिभि समस्तेर्वा वातादिकोपावधारणा विकल्पना।' २. व्याधि-बल-रोग की तीव्रता, मध्यबलता या मृदुता का ज्ञान सम्प्राप्ति के द्वारा ही किया जाता है । सकल हेतु, पूर्वरूप, रूपादि की विद्यमानता से व्याधि बलवान्, इनकी मध्य या अल्पवलता से व्याधि का मध्यम या अल्पवल होना पाया जाता है। ३. काल-आवस्थिक काल ( जरा-मध्यमायु-बाल्यावस्था) पऋतु के अनमार, दिन, रात, प्रभात, सध्या आदि के अनुसार व्याधि का बटना-घटना प्रभृति कार्य । उपर्युक। उपपत्तियों के आगर पर रोगविज्ञानोपाय मे वणित हेतु, पूर्वरूप, रूप, उपगय तथा सम्प्राप्ति नामक पाँचो साधनो का कथन व्याधि के सम्यक् रीति से ज्ञान कराने के लिये नितान्त आवश्यक प्रतीत होता है। अत रोगविनिश्चय मे 'निदानपचक' का महत्त्व और उनकी उपादेयता स्पष्ट हो जाती है। निदानपचक प्रसग-निदानपचक विपय का मूल वर्णन चरकमहिता में ज्वरनिदान नामक अध्याय में मिलता है। फिर उसकी व्याख्या कई टीका Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय कारो ने बृहद् एव विगद स्वरूप में की है। जैसे श्री चक्रपाणि ने आयुर्वेद दीपिका मे, श्री गगाधर ने जल्पकल्पतरु टोका मे, वाग्भट कृत अष्टाङ्गहृदय मे चरकोक्त गद्य रूप मे वणित पचनिदानसूत्रो का पद्य रूप मे वर्णन पाया जाता है। माधवनिदानकार ने अपने 'माधवनिदान' नामक संग्रह मे वाग्भट के सूत्रो का ही मग्रह पचनिदान की व्याख्या रूप मे किया है। इसके ऊपर अष्टाङ्गहृदय के टीकाकार अरुणदत्त की भी व्याख्या पाई जाती है। इसके अतिरिक्त अष्टाङ्गसग्रह नामक वाग्भट कृत ग्रथ के ऊपर टोका करते हुए शगिलेग्वा टीका मै 'इन्दु' नामक टीकाकार ने भी इस विपय की व्याख्या की है। इसके अलावे शेपाद्रि ने आयुर्वेदरसायन मे तथा विजयरक्षित ने 'मधुकोप' नामक माधवनिदान की टीका मे पत्रनिदान विषय की मागोपाङ्ग विवेचना की है। प्रस्तुत लेख का आधार मूलत श्री विजयरक्षित को व्याख्या हो है। श्री विजयरक्षित ने अन्यान्य कई व्याख्याकारो का उद्धरण अपनी टोका मे दिया है। जैसे, वाप्यचद्र, भट्टारहरिचद्र, तीसटाचार्य, सुदान्त सेन, जेज्जट, कात्तिककुण्ड, ईश्वररोन, गदाधर, आपाढ तपा वर्मदास प्रभृति के नाम विशेपत उल्लेखनीय है। निदानपंचक में विवेच्य विपय एवं उनका प्रयोजन-निदानपचक मे निदान के सावनभूत हेतु, पूर्वरूप, रूप, उपशय तथा सम्प्राप्ति ओर इसमे सम्बद्ध अवान्तर विपयो, निर्दुष्ट लक्षणो का वर्णन पाया जाता है। निर्दुष्ट लक्षण बनाने का तात्पर्य यह होता है कि किसी भी पदार्थ का ऐसा लक्षण वनाना जो अव्याप्ति, अतिव्याप्नि तथा अमभव इन तीनो दोपो से रहित हो । जेसे कहा जाय कि 'मीग वाले जीव गाये है' (शृङ्गित्व गोत्वम् ) तो यह कथन ठीक नही है क्योकि सीग वाले बहुत से जानवर हो सकते है । अत यह लक्षण अतिव्यापक होकर अतिव्याप्ति दोप से युक्त हआ। यदि ऐसे लक्षण करें कि 'काले रग की गाये होती है' ( कृष्णत्व गोत्वम् ), तो यह अपनी जाति मे भी पूरा नहीं हो पाता क्योकि गाये भूरी, सफेद प्रभृति कई रगो की होती है । अत यह अति सकुचित होने से अव्याप्ति दोप से युक्त होगा। फिर गाय का लक्षण बनाते हुए यह कहा जाय कि "एकशफत्व गोत्वम्' ( एक खुर का जानवर गाय है ) सो यह लक्षण पूर्णतया मिथ्या है क्योकि गायो के खुर फटे हुए होते और वे दो खुरो वाली होती है। फलत यह लक्षण असभव दोप से युक्त होगा । अव इन तीनो दोपो से रहित निर्दष्ट लक्षण बनाना हो तो कहेगे 'सास्नादिमत्त्व गोत्वम्' ( गले की लोरको वाले जानवर गायें होती है )। गायो की ग्रीवा से लटकने वाला भाग केवल गायो मे ही पाया जाता और किसी जानवर मे नही, अत यह लक्षण निर्दुष्ट होगा। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के भिपकर्म-सिद्धि वस्तुत लक्षण दो प्रकार के होते है । एक व्यवहार के दिये या काम चलाऊ जैसे कोई पूछे कि 'देवदत्त का घर कौन सा है ?" तो कोई बताने कि वह सामने वाला जिस पर कोवा बैठा है । वही देवदत्त का घर है ( काकवत् देवदत्तम् गृहम् ) । यह लक्षण काम चलाऊ है— उस समय के लिये तो ठीक है, परन्तु कौवा वहाँ से उड जावे और दूसरे मकान के ऊपर बैठ जावे तो लक्षण गलन हो जावेगा । इस प्रकार के लक्षणो को व्यावहारिक लक्षण कहते है । शास्त्रीय लक्षण इस प्रकार के नहीं होते । उन्हें व्यावृत्ति के लिये प्रयोग करना होता और वे स्थायो एव निर्दष्ट ( दोपरहित ) बनाये जाते है । जैसे कि ऊपर वर्णित गाय के लक्षणो से स्पष्ट हो रहा है । अनुमिति नामक न्याय शास्त्र के ग्रथ मे लिखा है कि लक्षण के दो प्रयोजन है -१ व्यावृत्ति और २ व्यवहार । 'व्यावृत्तिर्व्यवहारश्च लक्षणस्य प्रयोजनम् ।' १४ इस प्रकार लक्षणवाद के आधार पर ' पचनिदानो' में लक्षण या परिभाषा 'निदानपचक' नामक विषय मे वैद्य जाता है । फलत प्रस्तुत विषय का सम्बन्ध उनके निर्दुष्ट लक्षणो से ही है । इस प्रकार लक्षणो का प्रयोजन बतलाते हुए शावर भाष्य में एक उक्ति पाई जाती है कि 'पृथक् पृथक् पदार्थो का कथन करते हुए ऋषि लोग भी पदार्थो का अंत नही प्राप्त कर सकते, अत पदार्थो का लक्षण बनाया गया और उसके द्वारा पदार्थसमुदाय को पार करने का प्रयत्न किया गया है ।' ऋपयोऽपि पदार्थानामन्तं यान्ति न पृथक्कश. । लक्षणेन तु सिद्धानामन्तं यान्ति विपश्चितः ॥ * प्रोक्त सजाओ का शास्त्र मे पाया Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय रोग का उत्पत्तिक्रम तथा क्रिया- काल रोग या व्याधि - 'सुखसंज्ञकमारोग्य विकारो दुखमेव च ' 'तदुखसयोगा व्याधय 1 'विविध दुसमादधातीति व्याधयः । किसी प्रकार का शारीरिक या मानसिक सुख या दुख देने वाले हेतु को व्याधि कहते है । इसके पर्याय रूप मे आमय, गद, आतंक, यक्ष्मा, ज्वर, विकार अथवा रोग शब्द का व्यवहार पाया जाता है - जिसकी विस्तृत व्याख्या आगे की जावेगी । सक्षेप मे स्वास्थ्य जीवन को एक अस्त्यात्मक या सत्तात्मकदगा (Positive phase ) है, इसके विपरीत अवस्था या नास्त्यात्मक दशा को ( Negative phase ) विकार या रोग कहते है । स्वास्थ्य की व्याख्या करते हुए प्राचीन शास्त्रकारो ने लिखा है समदोपः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः । प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते ॥ ( सुश्रुत ) स्वास्थ्य को परिभाषा आधुनिक युग मे विविध प्रकार की पाई जाती है । आयुर्वेद शास्त्र की उपर्युक्त स्वास्थ्य की परिभाषा वडी व्यापक एव उत्तम कोटि की है । इसमे शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक सुख की प्राप्ति कराने वाली अवस्था को सुख माना गया है, केवल नैरुज्य या रोगाभाव को ही स्वास्थ्य नही कहा जा सकता। इसी भाव का द्योतक एक आधुनिकतम व्यापक परिभाषा या लक्षण स्वास्थ्य का पाया जाता है । इस परिभाषा को विश्व स्वास्थ्य सघ (WHO) ने स्वीकार किया है (Health is state of Complete Physical, mental and Social wellbeing and not merely absence of disease or infirmity) व्याभ्युत्पत्तिक्रम एव क्रियाकाल - ज्यावि कोई स्थिर दशा नहीं है, बल्कि विकारगत विविध परिवर्तनो की एक शृङ्खला है जो कई अवस्थाओ ( Steps and stages ) से आगत एक परिणाम है । रोग मे उसके विकास की विभिन्न अवस्थाये पाई जाती है । रोग को चिकित्सा मे चिकित्सक का यह कर्त्तव्य होता है कि उसके उत्पत्तिक्रम या विकास की विभिन्न अवस्थाओ का ज्ञान करके उसकी रोकथाम, निरोध, विलम्वन या प्रतिकार का प्रयत्न Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपक्रम-सिद्धि करता रहे। प्राचीन आयुर्वेद अन्यों में यह गिदाल पूर्णतया प्रतिपादित। आचार्य मुश्रुत ने बडे विग्तार के गाय ज्या उतात्ति-कार तबा लन्नर अवस्याओ मे किये जाने वाले प्रनिका का गागोपान न गृप्रधान के उक्कासवे अध्याय में क्रियाकाल शब्द में किया है। आधुनिक युग के नाम का विचार भी बहुत कुछ प्राचीन मिटान्त मे मिला हुआ है, जगा कि 'यार' नामक ग्रंथकार की भूमिका में निम्नलिमित वचनो गे स्पष्ट सेता है Disease is not a state, it is iathcr a process of ever changing its manisestations, il process which may end in recovery or in death, which may be acute oi fulminating in its manifestations or which may appear such a slow ageing of the 11syucs, brought about by sharp tootli of time सुश्रुत ने छ क्रिया-कालो मे गेगोत्पत्तिक्रम का वर्णन किया है। १. मचर, २ प्रकोप, ३ प्रसर ४ म्यान मथय, व्यक्ति तया ६. भेद । 'मवत्र च मोप च प्रसर स्थानमययम् । व्यक्तिभेद च यो वेत्ति दोपाणा म भवेद भित्र ।' चरक एव वाग्मटने व्यावि को उत्तनि मे तीन हो क्रमिक अवस्थाजो का वर्णन किया है-चय, प्रकोप तथा प्रगम । यह भेद मप्रदायभेद के कारण ही है। चरक और वाग्भट आत्रेयमप्रदाय या कायचिकित्मा-गम्प्रदाय ( Atreya school or physician school ) के रहे, परन्तु मुश्रुत धान्वन्तर या गत्यचिकित्सक मम्प्रदाय ( Dhanavantari school or surgeon's school ) के थे। कायचिकित्सको का कार्य चय-प्रकोप-प्रगम नामक तीन अवस्थामओ के वर्णन से पूरा हो जाता था, परन्तु सुश्रुताचार्य को व्रण तया रक्तदोप मे उत्पन्न व्यावियो का वर्णन करना अपेक्षित था। अत उन्होने छ अवस्थाओ मे रोगोत्पत्तिक्रम का वर्णन किया है। ___सुश्रुत ने इन छ अवस्थामओ का छ क्रिया-काल नाम मे जो विशद वर्णन दिया है वह अविक विज्ञानमम्मत प्रतीत होता है, अत उसका विगेप वर्णन 'निदानपवक' विषय को समझाने के लिये प्रस्तुत किया जा रहा है। इन क्रिया-कालो का सम्यक् ज्ञान रोग के प्रारम्भ में ही विनिश्चयार्य ( Early Diagnosis), साध्यासाव्य विवेक ( Prognosis ), अनागत वाधा प्रतिपेच ( Profilactic treatment ) तया आगत बावा प्रतिपेय ( Curative treatment ) के लिये भी महत्त्व का है। इस क्रिया-कालो के ज्ञान की महत्ता बतलाते हुए आचार्य ने लिखा है कि यदि रोग को प्रारभिक अवस्था Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय १७ मे ही बोध हो जाय तो दोपो का निर्हरण हो जाने से रोग अग्रसर नही होता और यदि विनिश्चय में विलम्ब हो जावे तो दोप क्रमश आगे की गतियो को प्राप्त करके रोग को अधिक बलवान् बना देते है सञ्चयेऽपहृता दोपा लभन्ते नोत्तरा गतीः । ते तूत्तरासु गतिषु भवन्ति बलवत्तरा ॥ क्रिया-काल शब्द का प्रयोग ही चिकित्सा के उपलक्षण से हुआ है । क्रिया का अर्थ प्रतीकार या चिकित्सा है और काल का अर्थ समय या अवधि है । अत क्रिया- काल का समूह मे अर्थ होगा ' समयानुकूल चिकित्सा' ( Timely Action ) । क्रिया से औषध, अन्न तथा विहार तीनो का ग्रहण करना चाहिये । संचयावस्था या संचयकाल ( 1st stage of the Disease or Ist stage of treatment ) — इसमे दोपो की चयवास्था या सचय होना पाया जाता है । अग्रेजी मे इसे Inceptive stage or stage of Cumulation or Incubation period कह सकते है । विभिन्न हेतु या निदान से विभिन्न दोपस्थानो मे दोषो का सचय होने लगता है । हेतु - विभिन्न काल या ऋतुओ का परिणाम । लक्षण - दोपो की स्तब्धता, कोष्टक पूर्ण होना ( वात के सचय में ), वर्ण एव त्वचा का पीलापन, उष्णता की मदता ( पित्त के सचय मे ), गुरुता ( भारीपन ) तथा आलस्य का अनुभव ( कफ के सचय मे ) होता है । यह प्रथम क्रियाकाल है । सभव रहे और रोग का बोध हो जाय तो यही प्रतीकार कर देने से रोग आगे नही वढ पाता है । इस प्रकार निदानज्ञान की 'तत्र प्रथम क्रियाकाल ' | प्रकोपावस्था (II stage of Disease or treatment ) — यदि दोपो का निर्हरण सचय की दशा मे नही हुआ तो रोग अग्रसर होगा और प्रकोपावस्था प्राप्त हो जायेगी । उसमे दोपो का विविध प्रकार के आहार, विहार, आचार तथा काल के प्रभाव से प्रकोप होता है । इसको Provocative stage of the Disease कहा जा सकता है । यह चिकित्सा करने के लिये द्वितीय काल या अवसर है 'तत्र द्वितीय क्रियाकाल ।' २ भि० सि० उपादेयता सिद्ध है । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि, TEATTEETT (III stage of the Discase or Trcatment) यदि कुपित दोपो का गमन नहीं हुआ तो गेग अग्रसर होता है। दोपो का विमार्ग-गमन होना प्रारंभ हो जाता है ( Overflowing or Spread of the Doshas )। इसी को ( stage of Extension ) पहा जा सपना है । दोपो के प्रसार मे रजोभूयिष्ठ वायु ही प्रवर्तक होता है उनी गी सहायता से प्रकुपित दोप शरीर के विभिन्न अवयवों में जाते हैं। उनकी उपमा महान् उदक सचय से दी गई है। जैसे कि जल का मचय बट पर बांध को तोडकर बाहर निकलकर दूसरे वाहरी जल ने मिलकर चारो ओर दीरता है उसी प्रकार दोपो का प्रसार भी सम्पूर्ण शरीर मे होता है। दोप एकाग , दोदो, तीन-तीन या रक्त के साथ मिलकर बहुत प्रकार ने फैलने है जिनमे निम्निलिखित पद्रह प्रकार महत्त्व के होते हैं वात, पित्त, कफ, रक्त, वातपित्त, वातन्लेप्म, वात रक्त, पित्त रक्त, श्लेष्मरक्त, वातपित्त रक्त, वातश्लेष्म रक्त, पित्तश्लेष्म रक्त, वातपित्तपफ तथा वात पित्त कफ शोणित से उत्पन्न व्याधियां पाई जाती है । दोपो के प्रसर की उपमा मेघ एव तज्जन्य वर्षा से दी गई है - कृत्स्नेऽवयवे वापि यत्राओं कुपितो भृशम् । दोपो विकार नभसि मेघवत्तत्र वर्पति ।। प्रकोप एवं प्रसर मे भेद-भेद बतलाते हुए डल्हण ने लिखा है। जमे घृत को अग्नि पर चढावे, उसके पिघलने की अवस्था प्रकोप की होगी। फिर आंच लगते रहने पर खोलेगा और खीलकर वर्तन से वाहर निकलने लगेगा, यह प्रसर कहलायेगा । इसी प्रकार की अवस्था दोपो के सम्बन्ध मे भी समझनी चाहिये। प्रसर की अवस्था मे लक्षणपित्त मे-ओप ( एकदैशिक दाह ), चोप ( सर्वाङ्ग में चूपण के समान दाह ) तथा धूमायन । बात मे-आटोप ( रुजापूर्वक उदर का क्षोभ )। श्लेष्मा मे-अरोचक, अविपाक, अग्निमाद्य, वमन । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय यदि प्रसर की अवस्था मे ही रोग का ज्ञान सम्भव हो सके तो प्रतिकार प्रारम्भ करना चाहिये । यह तृतीय क्रिया काल है । 'तत्र तृतीयः क्रियाकाल ।' FATTEETPITTEETT (IV Stage of Disease or Treatment )- यदि विकार का प्रशम नही हो सका तो अब चतुर्थावस्था रोग की प्राप्त हो जाती है । प्रसृत हुए दोप फैलते हुए स्रोतो की विगुणता पैदा करके जिस स्थान पर रुक जाते है वहाँ पर स्थानसश्रय होता है। अब विकार एक स्थान पर सीमित हो जाता है- ( Stage of .limitation )। इसी को स्थानसश्रय कहते है । चक्रपाणि ने लिखा है-'पूर्वरूपमेव स्थानसश्रयम्' अर्थात् स्थानसश्रय की अवस्था ही पूर्वरूप कहलाती है। अग्रेजी मे इसे Prodromal Phase of the Disease कहते है। दोप प्रसरित होकर जिन-जिन स्थानो मे सश्रय करता है उन उन स्थानो पर निम्नलिखित रोगो को पैदा करता है। १ उदर मे मन्निवेश होने पर --गुल्म-विद्रधि-उदर-अग्निमाद्य-आनाह, विपूचिकातिसार प्रभृति रोग । २ वृपण , वृद्धि प्रभृति रोग। ३ मेढ़ निरुद्धप्रकश, उपदश, शूकदोप आदि रोग। ४. वस्ति प्रमेह, मूत्राघात, अश्मरी, मूत्रदोष __ आदि रोग। ५ गुदा भगदरार्श प्रभृति रोग। ६ ऊर्ध्वजत्रु , ऊर्ध्वजत्रुगत रोग। ७ त्वक्-मास , क्षुद्ररोग, कुष्ठ, विसर्प प्रभृति व्याधियां । ८. मेद , ग्रन्थि, अपची, गलगण्ड, गण्डमाला आदि रोग। ९ अस्थि विद्रधि, उपशयी प्रभृति रोग। । १० पाद , श्लीपद, वातशोणित, पादकटक ११. सर्वाङ्ग ज्वर, सर्वाङ्गरोग। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि कुपितानां हि दोपाणां शरीरे परिधावताम् । यत्र संगः खवैगुण्याद् व्याधिस्तत्रोपजायते ।। अव यहाँ पूर्वरूप का प्रादुर्भाव होता है, जो रोगभेद से प्रत्येक रोग में भिन्न-भिन्न हो सकता है। अब इस पूर्वरूपावस्था में व्याधि का ज्ञान हो जाने पर चतुर्थ क्रियाकाल का समय रहता है और उपचार या प्रतीकार प्रारम्भ किया जा सकता है । एतदर्थ ही सुश्रुत ने लिखा है-'तत्र पूर्वत्पगतेपु चतुर्थ. क्रियाकाल ।' TOTTESTT ( V Stage of Disease or Treatment ) व्याधि का स्पष्ट रूप से व्यक्त हो जाना रोग की अभिव्यक्ति है। इस अवस्था मे रोग के सभी लक्षण पूर्णतया व्यक्त हो जाते हैं । इसी को व्याधिदर्शन या स्प भी कहते है। जैसे-गोफ, अर्बुद, यि, विसर्प, ज्वर, अतीसार प्रभृति रोगो के लक्षण पूर्णतया प्रकट हो जाते है । ( Stage of manifestation or Fully developed disease ) अब यहाँ पर व्याविप्रत्यनीक चिकित्सा करने की आवश्यकता होती है। इस प्रकार यह उपचार का पचम क्रियाकाल है। 'तत्र पचम क्रिया काल ।' भेदावस्था ( VI Stage of Disease or Treatment or stage of Variation )-दोप दूष्यो की सम्मुर्छनावस्थाजन्य ही व्याधियाँ होती है। अब इस अवस्था मे सम्प्राप्ति के भेदो के अनुसार-- 'संख्याविकल्पप्राधान्यवलकालविभेदत' रोग का विभेद किया जा सकता है। इसके अलावे रोग की साध्यता याप्यता या, असाध्यता का ज्ञान करना भी संभव रहता है। ( The disease either may subside wholly or may take shape of chronic, sub-acute or acute or it may produce other disease or may become complicated or may result in to death of the patient ) इस प्रकार का ज्ञान भेदावस्था मे होता है। इसको Stage of variation कहते है । ( Introduction to 'Kayachikitsa' by C Dwarkanath) यह उपचार का अन्तिम या छठवा काल है। 'तत्र पष्ठ क्रियाकाल.।' कई ग्रन्यो के माधार पर क्रियाकाल तथा रोगभेदो का दो स्वतन्त्र कोएको मे नीचे वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० of सुश्रुतानुसार छै क्रियाकाल ( Evolution Stage of the Diseases) Exciting Potential Formative or Preprodromal Phases) Factors Factors Charactarised by vague clinical Phase Symptomatology The stage | The stage. The stage आधिभौतिक चय or the, प्रकोप or प्रसर Over or variation or Prod Characte आधिदैविक Cumulation Excitation flowing or ristic if may either roma or l feature subside whoआध्यात्मिक $10 of the ata of the ato spread of lly or may TO ET ATTENTTT! 69 or become Chro Symptom सश्रेय Complex nic or serve अपने तथा अन्य as निदान of Other Disease स्थानो मे or result in death of the patient द्वितीय अध्याय दोप Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जातज प्रभावज सहज गर्भज Congenital | Post Natal Acquired | Mystic ori|Heriditary | congenital | स्वीय अपचार or माता पिता के शुक्र शोणित defects कुञ्जता - पगुता किलासादि । जन्य सतर्पण या अपतर्पण जन्य रोग | दोप से कुटअर्श - फिरगादि सुश्रुत के अनुसार आदिवल प्रवृत्त आक्रमण प्रकार से According to mode of on get साध्यासाध्यता की दृष्टि से Prognostic अष्टाङ्गसंग्रह के अनुसार उत्पत्तिभेद से अविष्ठान भेद से | Seat of Disease मृदु (अल्प लक्षण ) Chronic form सुखसाध्य Mild रोग भेद ( Classification of Diseases ) पीडाज Accidental शारीरिक ( निज ) जन्मल प्रवत्त सघात बल प्रवृत्त मध्य ( मध्यम लक्षण ) (Subacute or moderate ) कृच्छ्रसाध्य या कष्टसाध्य ( Serious ) मानसिक ( निज ) or देवता गुरु | Traumatic | gin के अभिशाप क्षत-भग-प्रहार अथवा भूत-प्रेत | से शारीरिक या पिशाचादि से । शोक-क्रोधादि से मानस रोग । याप्य स्वभावज | Natural भूखप्यास-निद्रा बुढापा एव मृत्यु | इसके भी कालज या अकालज भेद से दो प्रकार हो जाते हे | काल वल प्रवृत्त | स्वभाव-वल-प्रवृत्त कालज | Climatic or seasonal शीत - उष्ण वर्षा अतियोगायोग से उत्पन्न रोग तीव्र ( सम्पूर्ण लक्षण ) ( Acute or Fulminating ) आगन्तुक असाध्य Incurable or Dangerous or Grave २२ भिपक्कर्म-सिद्धि Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक या। मानस (Psychic)/ दुःख भेद से आधिभोतिक (Somatic) आधिदैविक Mystic मिश्रित (Psyco-Somatic) राजग तामस दोपभेद मे वातज (वायव्य) पित्तज (आग्नेय) कफज (सौम्य) सन्निपातज (मिश्रित) दुष्य भेद से Systemic रमज रक्तज मासज मेदोज अस्थिज मज्जाज शुक्रज सामान्य हेतु भेद मे असात्म्येन्द्रियार्थ मयोगज द्वितीय अध्याय प्रज्ञापराधज परिणामज - - मार्ग वाघमार्गाधित त्वचा रक्तादि-शामा आदि में आश्रिा चमकील अर्बु दादि मध्यमार्गाधित मर्या-हृदय-वस्ति-अस्थि-सधि-कण्डरा मिरा मे आश्रित रोग जैसेअपतानक, अदित गुदभ्रशादि आभ्यतर मार्गाश्रित कोठाश्रित विकार जन्य रोग ज्वरातिसार प्रभृति । माना प्रशान स्वतंत्र या अनुवध्य या प्रवान (Main) परतंत्र या अनुबंध या अप्रधान ( Secondary ) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ भिपकर्म-सिद्धि रोग-विज्ञानोपाय (Methods of Investigation of a Disease) रोग की शास्त्रीय विवेचना के अनन्तर अव रोग के सम्यक् रीति से पहचानने का प्रश्न सम्मुख आता है । रोग के विज्ञानोपाय, विनिश्चय या निर्णय करने को कई पद्धतियो का उल्लेख तत्र में पाया जाता है। उदाहरणार्थ -- षड्विध परीक्षा-- ( सुश्रुत) १. संचयं च प्रकोपं च प्रसरं स्थानसंश्रयम् । व्यक्ति भेदं च योवेत्ति रोगाणां स भवेद् भिपक् ।। (सु० सू० २१) २ पड्विधा हि रोगाणां विज्ञानोपायाः-पंचभि श्रोत्रादिभिः प्रश्नेन चेति । (सु० सू० १०) द्विविध या त्रिविध परीक्षा १. दर्शनस्पर्शनप्रश्नः परीक्षेताथ रोगिणम् । २ त्रिविधं खलु रोगविशेषविज्ञानं भवति । ३ द्विविधा खलु परीक्षा प्रत्यक्षमनुमानञ्च । त्रिविधा वा सहोपदेशेन । (च० वि० ८) प्रत्यक्ष खलु तद् यद् इन्द्रियैः मनसा चोपलभ्यते । ( वा० ) अष्टविध परीक्षा-- रोगाक्रान्तशरीरस्य स्थानान्यष्टौ परीक्षयेत् । नाडी मूत्रं मलं जिह्वां शब्द स्पर्श हगाकृतिः ।। ( यो र०) पचविध परीक्षा १ तस्योपलब्धिः निदानपूर्वरूपलिङ्गोपशयसम्प्राप्तिभिः । (च०नि० १) २ निदान पूर्वरूपाणि रूपाण्युपशयस्तथा । सम्प्राप्तिश्चेति विज्ञान रोगाणां पचधा स्मृतम् ।। ( वा० सू० ) वाग्भट का समाधान दर्शनस्पर्शनप्रश्नः परीक्षेताथ रोगिणम् । रोग निदानप्राररूपलक्षणोपशयाप्तिभिः ॥ इसी विषय को पुन कोष्ठक रूप मे दर्शाया जा रहा है - Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय सामान्य तथा विशेष परीक्षा-विधियाँ रोगी तथा रोग परीक्षा-विधियाँ [चरक एव वाग्भट] १ आप्तोपदेश १ दर्शन १ निदान ४ उपशय २ प्रत्यक्ष २ स्पर्शन २ पूर्वरूप ५ सम्प्राप्ति ३ अनुमान ३ रूप ३ प्रश्न १ प्रश्न [सुश्रुत ] १ सचय २ प्रकोप २ श्रोत्रेन्द्रियविज्ञेय ३ प्रसर ३ नेत्रेन्द्रियविज्ञेय ४ स्थानसश्रय ४ घ्राणेन्द्रियविज्ञेय ५ व्यक्ति ५ स्पर्शनेन्द्रियविज्ञेय ६ भेद ६ रसनेन्द्रियविनेय । योगरत्नाकर ] [ आधुनिक ] आत्मसदृश या १ नाडी १ प्रश्न Interogation स्त्रप्रत्ययज्ञेय २ मूत्र २ दर्शन Inspection or Subjective ३ मल ३ स्पर्शन Palpation ४ जिह्वा ४ अगुलिताडन Purcussion ५ शब्द ५ श्रवण Auscultation ६ स्पर्श ६ नैदानिक विधियॉ-भौतिक, रामायनिक Physical or chemical Pathological tests 'परसदृश या पर ७ दृक् ७ अणुवीक्षणात्मक परीक्षा-Microsप्रत्ययनेय or copical objective आकृति ८ रोगदर्शन Scopes and Speculum ९ क्षकिरण X, Ray रोग-विनिश्चय करने की वस्तुत दो विधियाँ है १ मामान्य २ विशिष्ट । सामान्य विधियो मे रोगी से पूछकर ( प्रश्न ), रोगी को देखकर ( दर्शन ), छूकर Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ भिषकर्म-सिद्धि ( स्पर्शन या अंगुलिताडन ), कान से सुनकर सीधे या यन्त्र के साहाय्य से (श्रवण Auscultation), नाक से सूचकर (Smell ), अर्थात् Inspecti on, Palpation, Purcussion & Auscultation सक्षेपत. इन प्रकारो से रोगी की परीक्षा करके रोग पहचानने की कोशिश की जाती है। विशिष्ट विधियो का सम्बन्ध, सामान्य विधियो से प्राप्त फलो के ऊपर अर्थात् जो कुछ भी हेतु, लक्षण, चिह्न, उपशय, दोप-दूण्य-सम्मूर्छन आदि प्राप्त हो उनके साथ ग्रन्थोक्त लक्षणो का साधर्म्य देखकर (निदानपचक विधि से ) रोग के विनिश्च से है। इसी भाव का द्योतन वाग्भट की समाधान-सूचक उक्ति से हो रहा है। उनका कथन है कि 'दर्शन, स्पर्शन एव प्रश्न के द्वारा रोगी की परीक्षा की जाती है तथा निदान-पूर्वरूप-रूप-उपशय एव सम्प्राप्ति के द्वारा रोग का विनिश्चय करना होता है।' सक्षेप मे रोगी की परीक्षा ( Examination of the Patient or case-taking ) के लिये पड्विध, त्रिविध या अष्टविध साधन वतलाये गये है जिनमे रोगी को देखकर, छूकर, या प्रश्नो के द्वारा उसकी व्यथाओ का ज्ञान कर परीक्षा की जाती है। इसमे स्वसदृश अपने देख कर या परसहश दूसरे के द्वारा दिखलाकर (जैसे स्त्रीगुह्याङ्गो की परीक्षा किसी अन्य स्त्री के द्वारा करा कर ) दोनो प्रकार से ज्ञातव्य विषयो की जानकारी करनी होती है । 'निदानपचक' नामक पाँच साधनो से केवल रोग का निर्णय ( Diagnosis ) किया जाता है। इस प्रकार रोग-विज्ञानोपाय मे रोगी तथा रोग दोनो के जानने का विमर्श पाया जाता है। रोगी की परीक्षा करने की जो ऊपर विविध प्रकार की अष्ट विध या त्रिविध विधियाँ बतलाई गईं उन सवो का समावेश सुश्रुतोक्त पड्विध साधनो मे ही हो जाता है-'षड्विधो हि रोगाणा विज्ञानोपाय , पञ्चभि श्रोत्रादिभि प्रश्नेन चेति ।' आधुनिक ग्रन्थो मे दर्शन, स्पर्शन एवं प्रश्न के अतिरिक्त ताडन एव श्रवण परीक्षा विशेप महत्त्व की है। श्रवण-परीक्षा द्वारा कान को परीक्ष्य स्थान पर लगाकर सुनना अथवा श्रवणयन्त्र (Stethescope ) के द्वारा सुनना व्यवहृत होता है। इस यन्त्र का उपयोग फुफ्फुस एव हृद्रोगो के निदान मे विशेप महत्त्व का सावन है। बद्धगुदोदर मे उदर की परीक्षा में भी इसका महत्त्व है। गन्ध के द्वारा परीक्षा कई रोगो मे विशेप महत्त्व की होती है जैसे-मलमूत्र की परीक्षा, अहिफेनविप, मदात्यय, मधुमेह की मूर्छा। रस की परीक्षा मधुमेह एव रक्तपित्त के विनिर्णय मे की जाती है। यह मक्षिकोपसर्पण, पिपीलिकोपमर्पण, वायस या श्वान को खिलाकर प्राचीन काल मे परप्रत्ययनेय यो । आजकल मूत्र के माधुर्य की परीक्षा के लिपे रासायनिक द्रव्यो से परीक्षा करके Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय २७ निश्चय किया जा सकता है । इन विधियो के अतिरिक्त कई अन्य यंत्र, क्ष किरण आदि भी (scopes and Speculum, Microscopes and X, ray) रोग-सदर्शन मे व्यवहृत होते है। आज के युग मे नैदानिक प्रयोगशालाये ( Clinical pathology ) काफी उन्नत दगा मे है। प्राचीन काल मे इन्द्रियो की शक्ति पर ही चिकित्सक को अधिक निर्भर रहना पड़ता था। आज भी रोग-विनिश्चय मे ये सर्वाधिक विश्वसनीय साधन है । रोगि-रोग-परीक्षा का उद्देश्य-जिस रोगी की सामान्य तथा विशेष विधियो के आश्रित रह कर यथाशास्त्र परीक्षा नहीं की गई अथवा जिसके सम्बन्ध मे ठीक से नही बतलाया गया है अथवा जिसके ऊपर चिकित्सक ने ठीक से विचार नहीं किया है, चिकित्सा मे ऐसे रोग वेद्य को मोह में डाल देते है और गलती की सभावना रहती है। परन्तु उपर्युक्त निदानपद्धति के द्वारा विचार कर चिकित्सा की जाय तो गलती को कोई सम्भावना नहीं रहती है मिथ्यादृष्टा विकारा हि दुराख्यातास्तथैव च । तथा दुष्परिमृष्टाश्च मोहयेयुः चिकित्सकम् ॥ (सु० सू० १०) महर्षि चरक ने भी कहा है रोगमादौ परीक्षेत ततोऽनन्तरमौपधम् । ततः कर्म भिपक् पश्चात् ज्ञानपूर्व समाचरेत् ॥ (च० सू० २० निदान-लक्षणम् [ Defination cf Etiology ] अब हम अपने प्रकृत-विषय निदानपचक पर पुन दृष्टिपात करते है । निदानपचक-कथन का प्रयोजन बतलाते हुए सक्षेप मे इन सज्ञाओ की व्याख्या ऊपर हो चुकी है । अब विस्तार के साथ निदान-पूर्वरूप-रूप-उपशय एव सम्प्राप्ति की एकेकश व्याख्या करना प्रासगिक है। सर्वप्रथम निदान को लेते है । निदान-निरुक्ति-१ नि + दिश । पृपोदरादित्वात् साधु । नि निश्चय निपेधयो । प्रकृत मे नि शब्द निश्चयार्थक ही व्यवहृत हुआ है । दिश धातु मे, करण मे ल्युट् प्रत्यय होकर दान शब्द की निष्पत्ति होती है। समूह मे शब्द बना निदान, जिसका अर्थ होता है -- जिसके द्वारा व्याधि का निर्देश अथवा व्याधि का निश्चित रूप से प्रतिपादन हो सके अथवा जिसके द्वारा व्याधि के हेतु ( कारण ) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ भिपकर्म-सिद्धि तथा लिङ्ग का निर्देश हो सके अथवा निदान का अर्थ बन्धन हो सकता हैअर्थात् जिसके द्वारा हेत्वादि सम्बन्ध रोग मे बाँधा जा सके । मभी अर्थों की मान्यता मधुकोपकार ने दी है-परन्तु वन्धनार्थ मे निदान गन्द के प्रयोग का, जो भट्टार हरिचन्द्र नामक विद्वान् वैद्य का मत है, मधकोपकार श्री विजयरक्षित ने खण्डन किया है । भट्टार हरिचन्द्र का तात्पर्य यह है कि जिसके द्वारा हेतु, पूर्वरूप, उपशय, सम्प्राप्ति से युक्त व्याधियो का निवन्धन हो उसको निदान कहते है । वन्धनार्थक निदान शब्द का प्रयोग अन्यत्र भी पाया जाता है जैसे 'या गौ मुदोहा भवति न ता निदनीत' अर्थात् जो गाय आसानी से दुही जा सके उमको वाँधना नही चाहिये । विजय रिक्षित का कथन है कि यद्यपि निदान गब्द का व्यवहार वन्धनार्थ होता है, परन्तु वह निदान के लनण रूप में नहीं घट सकता, क्योकि हेत्वादि पाँचो का समुदाय रूप निदान व्याधि का ज्ञापक होते हुए भी, फिर वही हेत्वादि का प्रतिपादक नही हो सकता। तात्पर्य यह है कि कोई भी वस्तु अपने लिये ज्ञापक नहीं हो सकती, उसके लिये दूसरे जापक की आवश्यकता रहती है । जैसे, दीपक अपने प्रकाग से सम्पूर्ण वस्तुओ का जापक होता है, परन्तु दीपक का ही जानना आवश्यक हो तो उसके लिये दूसरे ज्ञापक चक्ष आदि इन्द्रियो को आवश्यकता रहती है । इस मे अपने मे क्रिया विरोध होने मे 'स्वात्मनि क्रियाविरोध' दोप, निदान गब्द के वन्धनार्थ प्रयोग होने मे आता है अत यह ठीक नहीं है । बन्धनार्थ ही यदि निदान गब्द का व्यवहार अपेक्षित हो तो वह 'निदानस्थान' नामक अध्याय का वोधक हो सकता है क्योकि वहाँ पर हेत्वादि पाँचो का बन्धन पाया जाता है। परन्तु स्वय निदान निदान का वोधक नही हो सकता। २ हेतुलक्षणनिर्देशान्निदानानि । ( सु० ) ३ निर्दिश्यते व्याधिरनेनेति निदानम् । ( सु०) ४ निश्चित्य दीयते प्रतिपाद्यते व्याधिरनेनेति निदानम् । ( जेज्जट) ५ निदीयते निवध्यते हेत्वादिसम्बन्धो व्याधिरनेनेति निदानम् । ( भट्टार हरिचन्द्र ) ६ व्याधिनिश्चयकरणं निदानम् । ( मधुकोप) ७ तत्र निदान त्वादिकारणम् । (चरक, निदान १ ) ८. सेतिकर्त्तव्यताकः रोगोत्पादकहेतुर्निदानम् । ( मधुकोप ) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय व्यवहार मे निदान शब्द का प्रयोग व्यावि-विनिश्चय ( Diagnosis ) के अर्थ में ही होता है। जैसे यदि कोई प्रश्न करे कि क्या आपके रोग का निदान हो गया तो उसका एक हो अर्थ होता है कि क्या आपके रोग का ठीक-ठीक निर्धारण हो गया । ऐसी दशा मे निदान गब्द से यहाँ पर सम्पूर्ण निदानपचक का ग्रहण हो जाता है जिनके आधार पर रोग का ज्ञान करना सभव रहता है। इस प्रकार निदान शब्द का सामान्यार्थ मे प्रयोग Diagnosis के अर्थ में होता है। विशिष्टार्थ मे निदान शब्द का प्रयोग रोगोत्पादक हेतु या कारण ( Etiology ) के रूप में होता है जैसा कि चरक की उक्ति 'निदान त्वादिकारणम्' से स्पष्ट हो रहा है। ऊपर की दी गई निरुक्तियो पर ध्यान दे तो निदान शब्द उभयार्थ १ व्याधि विनिश्चय तथा २ कारण के रूप में प्रयुक्त मिलता है। दूसरे शब्दो में इस प्रकार कह सकते है कि निदान शब्द उभयार्थी है । इससे व्यक्ति एव जाति दोनो का बोध होता है। व्यक्ति अर्थ मे यह उत्पादक निदान या हेतु का बोधक और जाति के अर्थ मे यह पूरे निदानपचक का बोधक होकर रोग के Diagosis का बोधक होता है, क्योकि निदान-पूर्वरूप-रूप उपशय-सम्प्राप्ति इन पांचो का अतिम उद्देश्य रोग का निदान ही करना है । रोग का निदान कही कारण से, कही पूर्वरूप से, कही रूप से कही उपशय और सम्प्राप्ति से पृथक्-पृथक् , दो, तीन, चार या पाँचो के द्वारा मिलाकर किया जाता है। सूक्ष्म दृष्टि से विचारे तो दोनो अर्थो मे कोई विशेप अन्तर नहीं है और दोनो हेतु के ही प्रतिपादक होते है । हेतु या कारण के दो प्रकार हो सकते है उत्पादक तथा व्यजक। निदानपचक के पॉचो पदार्थो मे से निदान कारण रूप में उत्पादक हेतु का वोधक और शेप चार पूर्वरूप-रूपादि ज्ञापक या व्यजक हेतु का बोध कराते है । इस प्रकार दोनो अर्थ हेतु के ही बोधक होते है । पर्याय-शास्त्र मे निदान शब्द का प्रयोग अधिकतर विशिष्टार्थ मे अर्थात् रोगोत्पादक कारण या हेतु के रूप में ही हुआ है, रोग विनिश्चय के अर्थ मे नही। इसकी पुष्टि करते हुए एकार्थवाची पर्याय शब्दो का व्यवहार शास्त्र मे पाया जाता है जिसके आधार पर निदान को कारण मानना ही न्यायोचित है। यथा-'निमित्तहेत्वायतन प्रत्योत्थान कारण' 'निदातमाहु पर्यायै ।' ये शब्द पृथक्पृथक् निदान के अर्थ मे व्यवहृत होते है । इनसे निदान का विशिष्टार्य मे हेतु या कारण का ही बोध होता है। अग्रेजी मे इसका पर्याय Casuative Factors or Etiology होगा। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० भिपकर्म-सिद्धि निदान का निर्दुष्ट लक्षण–'हेतुः निदानम्' यदि ऐमा लक्षण किया जाय तो यह ठीक नहीं क्योकि हेतु कई प्रकार के होते है जैसा कि ऊपर उत्पादक और व्यजक अथवा कुछ ऐसे भी कारण हो सकते है जिन्हे अन्यथासिद्ध कारण कहते है-जैसे कि घट के निर्माण मे गदहा और उसके ऊपर लादी जानेवाली मिट्टी, वस्ता आदि । फलत लक्षण की अतिव्याप्ति हो जावेगी और ऐसे भी कारणो का इस लक्षण मे समावेश हो जावेगा जिनका रोगोत्पादन मे कोई भी भाग नही है । अस्तु, ऐसा लक्षण करना दोपयुक्त होगा। अव दूसरा लक्षण वनावे 'व्याधयुत्पत्तिहेतुनिदानम्' या 'रोगोत्पादकहेतुनिदानम्' अर्थात् रोगोत्पादक हेतु को निदान कहते है। तो विजयरक्षित जी कहते हैं कि यह भी ठीक नहीं है क्योकि इस लक्षण की सम्प्राप्ति के लक्षणो मे अतिव्याप्ति हो जावेगी, क्योकि कुछ विद्वान प्रकुपित दोपो के व्यापार को सम्प्राप्ति मानते है-- 'प्रकुपितदोपाणा व्यापारत्वं रोगोत्पत्तित्वं सम्प्राप्तित्वं वा ।' ऐसी अवस्था मे रोगोत्पादक हेतुत्व और प्रकुपित दोपो के व्यापार मे कोई अन्तर नही रह जावेगा । अस्तु, सम्प्राप्ति के लक्षणो से बचाने के लिये कुछ और विशेषण जोडने की आवश्यकता है। सम्प्राप्ति मे अतिव्याप्ति वचाने के लिये लक्षण किया गया- 'सेतिकर्त्तव्यता को रोगोत्पादकहेतु निदानम् ।' अर्थात् 'दोपप्रकोपणपूर्वक रोगोत्पादकत्व निदानत्वम्' । इसका सरल अर्थ होता है दोष एव दुष्ट दोषजन्य विकृति के सहित रोगोत्पादक हेतु का नाम ही निदान है। सेतिकर्तव्यताकः-कर्त्तव्यस्य इति प्रकारः इतिकर्तव्यं, तस्य भाव इतिकर्त्तव्यता, तया सहित सेतिकर्तव्यताक , व्यापारवैविध्य युक्तो हेतुनिदानम् । एव मति रुक्षादीना भावाना वातादिप्रकोपण दूष्याणाञ्चामाशयादीना दूपणादिरूपा च इतिकर्तव्यता । वातादीनाञ्च चय-प्रकोप-प्रसर-स्थानसंश्रयदूष्यादिदूपणरूपा. तस्माद् रूक्षादीना वातादीनाञ्च निदानत्वम् । ___ तात्पर्य यह है कि निदान अकुपित दोपो को कुपित करता है, फिर दोष, दूष्य आमाशयादि को दूपित कर रोग को उत्पन्न करता है यही इति कर्त्तव्यता या व्यापार है--इस व्यापार के साथ जो रोगोत्पादक हेतु है उसको निदान Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय कहते है । जव कि मम्प्राप्ति मे केवल कुपित दोषो का व्यापार ही रहता है। अस्तु, निदान का निर्दुष्ट ( दोपरहित ) लक्षण 'सेतिकर्तव्यताको रोगोत्पादकहेतुर्निदानम्' यही होगा। ___ कुछ विद्वानो ने व्याधिजन्म को सम्प्राप्ति माना है 'व्याधिजन्मेव सम्प्राप्ति'। यही यदि सम्मत हो तो 'व्याध्युत्पत्तिहेतुर्निदानम्' इतना ही लक्षण हेतु का बनाया 'जावे, यह पर्याप्त एव निर्दष्ट होगा। इस लक्षण को सम्प्राप्ति मे अतिव्याप्ति नही होगी, साथ ही उत्पादक शब्द देने से ज्ञापक कारणो जैसे, पूर्वरूपरूप-उपशय से भी लक्षण की निवृत्ति हो जावेगी क्योकि ये तीनो रोग के उत्पादक न होकर ज्ञापक या व्यजक मात्र होते है ।। उपर्युक्त लक्षण के आधार सकल कारण-समूह अर्थात् बाह्य--मिथ्याहारविहार, अभिघात एव अणु जीवो के उपसर्ग तथा आभ्यन्तर कारण-दोपवैपम्य एव दूव्य-दोप-सयोग का भी निदान शब्द से रोग जनक निमित्त-समवायि तथा असमवायि तीनो कारणो का ग्रहण हो जाता है। परन्तु स्व० गणनाथ सेन सरस्वती जी ने केवल वाह्य कारण को ही निदान माना है, जैसा कि निम्नलिखित वचन से स्पष्ट हो रहा है वाह्यं निमित्तं रोगाणां निदानमिति कीर्तितम् । विधाय दोपवैषम्यं साक्षाद् वा रोगकारि तत् ॥ निमित्तं पद समवायिकारणाना दोपदूष्याणाम् , असमवायिकारणस्य दोपदूष्यसंयोगस्य वारणार्थम् । ( सिद्धान्तनिदानम् ) स्व० गणनाथ सेन जी का सिद्धान्त जिसमे बाह्य निमित्तो को ही रोगोत्पादक हेतु माना गया है, समुचित प्रतीत होता है, क्योकि रोगोत्पादक अन्य कारणो का समवायी एव असमवायी कारणो का तो सम्प्राप्ति मे भी अन्तर्भाव हो जाता है। वस्तुत. प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति के लिये समवायी, असमवायी एव निमित्त विविध कारणो की आवश्यकता पड़ती है। रोग भी एक कार्य है, उसकी उत्पत्ति मे दोप-वैपम्य समवायिकारण, दोप-दूष्य-सयोग असमवायिकारण तथा वाह्य आहार, आचार, अभिघात, जीवाणु आदि निमित्तकारण रूप मे पाये Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ भिपकर्म-सिद्धि जाते है । इस प्रकार रोग मे इन तीनो की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है । तीनो की स्वतन्त्र सत्ता है, तीनो अन्योन्य प्रेरित भी है । ये परस्पर अनुस्यूत है, विरोधी नही है अत तोनो की रोगोत्पत्ति मे कारणता मानी जाती है । रोगविशेप के अनुसार इन कारणो मे प्रधानता या अप्रधानता पाई जाती है । इनकी प्रधानता या अप्रधानता के आधार पर चिकित्मा मे भी वैशिष्टच करना होता है । उपर्युक्त कथन पूर्ण शास्त्रसम्मत है । तथापि मूल के मूल कारण का विचार किया जावे तो इन त्रिविध कारणो मे बाह्य निमित्त को महत्त्व देना होगा क्योकि सर्वप्रथम वाह्य निमित्त ही रोगोत्पादन मे हेतु वनते है । वे दोप- वैपम्य तथा दोप- दूष्य-सयोग नामक समवायी तथा असमवायिकारण के मूल मे पाये जाते है । अस्तु, वाह्य निमित्तो को ही कारण मानना युक्तिसंगत प्रतीत होता है क्योकि वे दोप-वैपम्य पैदा करके अथवा आगन्तुक कारण बिना दोप- वैषम्य पहले पैदा किये ही रोग पैदा कर देते है पश्चात् दोप-दुष्टि होती है, फलतः श्रीगणनाथ सेन जी का मत अधिक विज्ञानसम्मत प्रतीत होता है । रोगोत्पादक हेतुओ का वर्णन करते हुए श्री तीसटाचार्य ने चिकित्सा - कलिका मे जो हेतु गिनाये हे वे प्रायः बाह्य निमित्तो के ही सूचक है । फलत वाह्य निमित्तो को रोगोत्पादक हेतु रूप मे मान्यता दी है । जैसे— व्यायामादपतर्पणात् प्रपतनाद् भंगात् क्षयाज्जागरात् वेगानां च विधारणादतिशुचः शैत्यादतित्रासतः । रूक्षक्षोभकपायतिक्तकटुभिरेभिः प्रकोपं व्रजेत् वायुर्वारिधरागमे परिणते चाह्नेऽपराह्णेऽपि च ॥ कटूवम्लोष्णविदाहितीक्ष्णलवगक्रोधोपवासातप'ःस्त्रीसम्पर्कतिलातसीदधिसुराशुक्तारनालादिभिः । भुक्ते जीर्यति भोजने च शरदि ग्रीष्मे सति प्राणिना मध्याह्न च तथार्धरात्रिसमये पित्त प्रकोपं वजेत् ॥ गुरुमधुररसाति स्निग्धदुग्वेक्षुभक्ष्यद्रवदधिनिद्रापूपसर्पिः प्रपूरैः । तुहिनपतनकाले श्लेष्मणः सम्प्रकोपः प्रभवति दिवसादौ मुक्तमात्रे वसन्ते ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ भि० सि० निदान जाति (सामान्य) व्यक्ति (विशिष्ट ) उत्पादकहेतु कारण का ( रोगविनिश्चय) ( Diagnosis ) व्यंजक या ख्यापक हेतु के रूप में सामान्यार्थ मे पाँचो का बोधक१ निदान २ पूर्व रूप ३ रूप ४ उपशय ५ सम्प्राप्ति बोधक । निमित्त हेतु समवायि दोप वैपम्य ( Etiology) । आयतन प्रत्यय उत्थान कारण-पर्याय असमवायि सूचक दो कोष्ठक यहाँ पर प्रस्तुत किये जा रहे है। विषय के समझने मे सरलता लाने के लिये हेतु लक्षण सूचक तथा हेतु प्रभेद द्वितीय अध्याय निमित्त-भेद (विकृत दोष दूष्य सयोग) मिथ्याहार विहाराभिघातादि . आभ्यतर वाह्य [ स्व० गणनाथ सेन इसी को वास्तविक कारण मानते है।] "सेतिकर्तव्याक' रोगोत्पत्तिहेतुनिंदानम् ।" इस परिभाषा मे त्रिविधकारणो का समावेश है। "बाह्यनिमित्तं रोगाणा निदानमिति कीर्तितम् ।" इसमे केवल निमित्त कारण का ग्रहण किया गया है। ३३ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेतु-प्रभेद ( ८ ) ( Types of Causes) य प्रज्ञापराध परिणाम सन्निकृष्ट (Direct causes) असात्म्येन्द्रियार्थसयोग विप्रकृष्ट (Remotecauses) ( Misuse, Disuse or व्यभिचारी (रोगोत्पादन मे असमर्थ overtaxing the system) | । । दुर्बल कारण (Weakcauses) अयोग, मिथ्या योग या अति- वाचिक शारीरिक मानमिक प्रधानिक (Poisoning) योग कर्मों का (Injudicious use of Senses ) [ Seasonal, Periodic, Endemic or Climatic Causes ] भिपकर्म-सिद्धि व दोष हेतु-दोष के चय व्याधि हेतु (Causative दोपव्याध्युभय हेतु प्रकोप प्रशमन मे हेतुभूत factors) जैसे मुद् (Metabolic Diso- मधुरादि रस (Pre-dis भक्षण से पाण्ड्डरोग 1der producing posing factors ) factors) जैसे वात रक्त मे। उत्पादक Predisposing factors व्यजक Exciting factors Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श बाह्य (Extrinsic) उदाहरण में तीसटाचार्य के श्लोक I वृद्ध (Excess ) आभ्यतर ( Intrinsic ) प्राकृत (Common) वसन्त मे कफ शरद मे पित्त वर्षा मे कफ स दोषो की गति भेद से क्षय ( Deficiency ) or शाखा ( Superficial Cutaneous manifestatione. Newgrowths lupus e t c. वैकृत ( Rare ) एतद् विपरीत ¦ आशयापकष ऊर्ध्व अधो तिर्यक् कोष्ठ Visceral like Ileocaecal TB अनुवन्ध्य ( प्रधान ) ( स्वतन्त्र ) ( Main or Principal) आम Toxaemic अनुवन्ध ( अप्रधान ) ( परतन्त्र ) ( Secondary ) T निराम Non toxaemic मर्मास्थिसधि Brain, Bones Joints like T B of the Bones and Joints, TB Meningitis TB Peri carditis e.t.c. द्वितीय अध्याय ३५ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ भिपकर्म-सिद्धि हेतु भेद - सर्व प्रथम हेतु के चार भेद होते है मन्निकृष्ट, विप्रकृष्ट, व्यभिचारी S तथा प्राधानिक । सन्निकृष्ट-रात, दिन एवं भोजन के तीन विभाग निये गये है, उन विभागो मे कुछ दोपो का स्वभाव से कोप होकर रोगोत्पत्ति होती है, उनमे सचय की अपेक्षा नही रहती है-जैसे दिन के प्रात काल (प्रभात मे) से कफ का, दिन के मध्य ( दोपहर मे ) पित्त का और सायाह्न ( शाम को ) मे वायु का कोप होता है । इसे Exposure कह सकते है जो रोगोत्पादन में सन्निकृष्ट हेतु बनता है । 1 विप्रकृष्ट - हेमन्त ऋतु मे सचित हुआ कफ वसन्त ऋतु में कफज रोग पैदा करता है । यह दूरस्य या विप्रकृष्ट हेतु है । ज्वर मे सन्निकृष्ट हेतु मिथ्याहार विहार है, परन्तु विप्रकृष्ट हेतु रुद्र कोप है । इसे अग्रेजी में Remote cause कह सकते है । जैमे उपसर्गजन्य ज्वरो मे एव कालाजार में मत्मचिका दंग यह Remote cause और Leishmen Don bodies का उपसर्ग मन्निकृष्ट हेतु है इनमे जो प्रवल होता है सर्व प्रथम उनका उपचार अपेक्षित रहता है परन्तु यदि विप्रकृष्ट हेतु ही प्रवल हो जाय तो प्रथम उनी का उपचार करना न्यायोचित रहता है। वलावल का विचार करते हुए मन्निकृष्ट तथा विप्रकृष्ट हेतुओ का परिवर्जन पूर्वापर भेद से कहना आवश्यक होता है । विप्रकृष्ट कारणो के शरीर मे प्रवेश से लेकर रोगोत्पत्ति होने तक का काल संचय काल ( Incubation period) कहलाता है । व्यभिचारी- जो हेतु दुर्बल होने से व्याधि को उत्पन्न करने में असमर्थ होता है उसे व्यभिचारी कहते है । "अवलीयासोव्ननुवन्ति न तदा विकाराभिनिवृत्ति, ।” चरक । प्रतिदिन बहुत प्रकार असात्म्य द्रव्यों का सम्पर्क, रोगोत्पादक जीवाणुओ का सन्निवेश या मिथ्या आहार, विहार, आचार, खाद्य, पेयादि का संबंध शरीर के साथ होता रहता है यदि रोगोत्पादक हेतु कमजोर हुए अथवा शरीर को रोग निरोधी क्षमता ( Immunity ) प्रवल हुई तो रोग नही पैदा होते हैं । इस प्रकार के रोगोत्पादक हेतु व्यभिचारी स्वरूप के होते हैं । रोगोत्पादन मो इनका महत्त्व न होने से इनका व्याधि के निदान मे कोई प्रमुख स्थान नही दिय जा सकता । ( Natural Immunity, Body resistance ) प्राधानिक- - प्रवल - प्रधान या उग्र स्वरूप के हेतु जो शरीर गत दोपो को कुपित करके ( Metabolic Disturbances पैदा करके ) सद्य रोगो - त्पादक होता है उसे प्राधानिक हेतु कहते हैं । विविध प्रकार के मारक विषो का सेवन इस वर्ग मे आता है ।" रुक्षमुष्णं तथा तीक्ष्ण सूक्ष्म मागुव्यवायि चाविकागि विशदञ्चैव लव्वपाकि च तत्स्मृतम् ॥" ( सु० ) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय संहिताओ मे हेतुओ के सम्बन्ध मे एक दूसरा वर्गीकरण भी पाया जाता है । इसमें रोगोत्पादन मे तीन कारणो की महत्ता दी जाती है। यह भी एक सामान्य वर्णन है । रोगविशेष के साथ इनका विशिष्ट रूप भी मिलता है । सभी रोगो की उत्पत्ति मे इनकी उपस्थिति अवश्यभावी है। कही एक, क्वचित् दो और कही तीनो मिल कर रोगोत्पादन करते है। इनके नाम १ असात्म्येन्द्रियार्थसयोग २ प्रज्ञापराध तथा ३ परिणाम है। इनको एकैकश. व्याख्या नीचे प्रस्तुत की जा रही है। __ असात्म्येन्द्रियार्थ संयोग-पचकर्मेन्द्रिय तथा उभयात्मक मन का उनके ग्रहण करने योग्य विषयो मे अतियोग, अयोग या मिथ्यायोग का होना रोगोत्पादक होता है। उदाहरण के लिये चक्षुरीन्द्रिय को ले-अति भास्वर वस्तु का अधिक देखना अतियोग, विल्कुल आँखो को बन्द किये रहना और न देखना अयोग और अति सूक्ष्म, भयकर, वीभत्स, अतिदूरस्थ वस्तुओ का देखना मिथ्या योग है। इससे नेत्र के रोग उत्पन्न होते है। वैसे ही कर्मेन्द्रिय पैर को ले-अतिमात्रा मे चलना अति योग, विल्कुल पैरो से न चलना अयोग या विषम, मृदु या कर्कश भूमि पर चलना मिथ्या योग है-इससे पैरो के रोग पैदा हो सकते है। इसी तरह अन्यान्य इन्द्रियो के सम्बन्ध में भी समझ सकते है। फलतः इन्द्रियोका इन्द्रियार्थ के साथ अति योग, अयोग एव मिथ्या योग रोगोत्पत्ति का एक प्रमुख हेतु हुआ । प्रज्ञापराध-बुद्धि, स्मृति तथा धैर्य के नष्ट हो जाने पर मनुष्य जो भी कार्य करता है वह अयथार्थ ज्ञान या मिथ्या ज्ञान से प्रेरित होकर करता हैयह बुद्धि या प्रज्ञा का अपराध कहलाता है। यह प्रज्ञापराध सर्वदा रोग का उत्पादक होता है। मिथ्याहार-विहार के सेवन से रोगोत्पत्ति प्रज्ञापरावजन्य ही होती है, ससार के समस्त सक्रामक रोगो का हेतु भी प्रज्ञापराध ही है। विविध यौन रोगो ( Vinereal Diseases ) मे भी कामुकताजन्य प्रज्ञापराध ही हेतु बनता है। विविध प्रकार के आघातज रोगो ( Accidental Injuries) मे भी प्रज्ञापराध ही हेतु रहता है। यह प्रज्ञापराध चरक के मत से तीन प्रकार का होता है-शारीरिक, वाचिक,तथा मानसिक । धीधृतिस्मृतिविभ्रष्टः कर्म यत् कुरुतेऽशुभम् । प्रज्ञापराधं तं विद्यात्सर्वदोषप्रकोपणम् ॥ त्रिविधं वाड्मनःशारीरम् कर्म प्रज्ञापराध इति व्यवस्येत् । (च० सू० ११) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि परिणाम-यह पारिभाषिक अर्थ में व्यवहुत होता है । इसका अर्थ काल है । काल का अर्थ होता है-दिन, रात, आयु, विविध ऋतु आदि । उदाहरणार्य शिशिर ऋतु को 'ले' इस ऋतु मे शीत का अत्यधिक होना अतियोग, गीत का न होना अयोग और क्वचित् उष्ण हो जाना मिथ्या योग कहलाता है। इसी तरह अन्य ऋतुओ के मबन्ध में भी समझना चाहिए। ऐसे जलवायु में प्राय जो रोग होते है, वे परिणामज या कालज कहलाते है । उस प्रकार काल या परिणाम रोगोत्पादक हेतु बनता है-मक्षेप में कालार्थकर्मणां योगो हीनमिथ्यातिमात्रकः । सम्यग् योगश्च विज्ञयो रोगारोग्यककारणम् ।। हेतु का एक दूसरा वर्गीकरण भी किया जा सकता है। जैसे १ दोप हेतु २ व्याधि हेतु तथा ३ उभय हेतु । दोप हेतु-दोपप्रकोपक या दोपोत्पादक हेतु दोपहेतु कहलाते है । ये उत्पादक और व्यजक भेद से दो प्रकार के होते है । हेमन्त में मधुर रस कफ का उत्पादक होता है-(Exciting factor)। हेमन्त ऋतु मे सूर्य के मताप से द्रुत होकर कफज रोगो को पैदा करता है-यहाँ पर सूर्यसताप व्यजक हेतु हुआ । इसी प्रकार अन्य ऋतुओ के सचय, प्रकोप एव प्रशम के सम्बन्ध में भी जाना जा सकता है। हेमन्ते निचित. श्लेष्मा दिनकृभाभिरीरितः। कायाग्निं वाधते रोगांस्ततः प्रकुरुते वहून् । इस प्रकार दोप हेतु मे Metabolic Disturbances पहले होता है पश्चात् रोग पैदा होना है। व्याधि हेतु-इसमे हेतु सीधे व्याधि पैदा करता है । पश्चात् दोपो के वैषम्य होते है। इसमे अधिकतर आगन्तुक व्यधियो का समावेश हो जाता है । उपसर्गज व्यधियाँ, अभिघातज व्याधियाँ तथा अन्य बहु विध रोग जो आधुनिक युग के ग्रंथो मे पाये जाते है इसी वर्ग मे समाविष्ट है । पुराने उदाहरणो मे 'मृद्भक्षणात् पाण्डुरोग ।' 'मक्षिकाभक्षणात् छदि ।' आदि उदाहरण पाये जाते है। दोष व्याध्युभय हेतु-विशिष्ट प्रकार के दोष प्रकोपण पूर्वक विशिष्ट व्याधि का होना इस वर्ग मे समझना चाहिए। इस की पुष्टि मे वातरक्त रोग का उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है। जिसमे हाथी, ऊँट और घोडा जैसे यान पर चलने से वात की, विदाही अन्न के सेवन से रक्त की तथा पैर लटके रहने वाली सवारियो की व्याधिकारिता दोष-हेतु, और व्याधि हेतु उभय हेतु प्रतिपादक होते है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ द्वितीय अध्याय हस्त्यश्वोप्ट्रैगच्छतश्चाश्नतश्च विदाह्यन्नं स विदाहाशनस्य । । कृत्स्नं रक्तं विदहत्याशु तच्च स्त्रस्तं दुष्टं पादयोश्चीयते तु ।। तत्संपृक्तं वायुना दूषितेन तत्प्राबल्यादुच्यते वातरक्तम् । इसमे दो प्रकोपक विदाही अन्नादि तथा रोगात्पादक हस्त्यश्वोष्ट्र यान दोनों हेतु दर्शाये गये है । यहाँ पर उपचार मे वात एव रक्त दोषो का शमन तथा ऐसे यान या ऐसे व्यवसाय जिसमे पैर का लटकाना आवश्यक हो, निषिद्ध है । फलतः यहां पर दोष व्याधि उभय प्रत्यनीक चिकित्सा करनी चाहिये । यहाँ पर शका होती है कि "कारणनाशात्कार्यनाश" ( कारण के नाश से कार्य का नाश होना ) प्रसिद्ध है तो दोष वैषम्य जो रोग का कारण है उसको दूर कर देने से रोग दूर हो जावेगा । अर्थात् दोषो के उपशम होने से अन्य उपचार के बिना ही व्याधि का स्वयमेव शमन हो जावेगा। ठीक है, परन्तु जहाँ पर दोष और व्याधि दोनो के उत्पादक कारण मौजूद है और प्रत्येक औषध द्रव्य को शक्ति सीमित है, एक ही औषधि व्याधि एव दोप दोनो का उन्मूलन नही कर सकती। उदाहरण के लिये श्लैष्मिक तिमिर रोग को ले यहाँ पर श्लेष्महर वमन करा देने से रोग का शमन हो जाना चाहिये, परन्तु होता नही प्रत्युत वमन का निषेध पाया जाता है। "न वामयेत् तैमिरिक न गुल्मिन न चापि पाण्डूदररोगपीडितम्" (चरक) । इस से स्पष्ट है कि औपच द्रव्यो की शक्ति नियत या सीमित है । अस्तु, दोष और रोग उभय प्रत्यनीकचिकित्सा की आवश्यकता पडती है । इसी प्रयोजन से वातज शोथ रोग मे वातनाशक एव शोथनाशक दशमूल कषाय का प्रयोग पाया जाता है। उभय प्रत्यनीक चिकित्सा विधियो मे 'सर्जिकल रोगो' का उदाहरण देना अधिक युक्तियुक्त प्रतीत होता है। जैसे श्लीपद, गलगण्ड, आदि व्यधियो मे दोप प्रत्यनीक आभ्यतर प्रयोगो के साथ साथ स्थानिक उपचार लेप, रक्त विस्रावण, दाह कर्म.प्रभृति स्थानिक व्याधि प्रत्यनीक उपचार भी आवश्यक हो जाते है। इसी प्रकार वातरक्त मे रक्तविस्रावण कर्म व्याधि प्रत्यनीक होता है। वाह्य तथा आभ्यतर भेद से भी हेतुओ के दो प्रकार पाये जाते है । रोगोत्पत्ति मे वाह्य हेतुओ का बडा वर्ग तीसटाचार्य के चिकित्साकलिका मे पाया जाता है। इस वर्ग मे आहार, विहार, ऋतु, काल, जीवाणु, आघात, दश, विद्युत्, रासायिनिक क्षोभक द्रव्य तथा विपो का ग्रहण किया जा सकता है। ये सद्यो घातक या दोषप्रकोपण पूर्वक रोगोत्पादन करके कालान्तर मे घातक हो सकते है। आभ्यतर हेतुओ मे दोप दृष्य सयोग माना जाता है । यह प्राकृत एवं वैकृत Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० भिषकर्म-सिद्धि भेद से दो प्रकार का हो सकता है । प्राकृत दोपो मे वसन्त मे कफ, गरद मे पित्त और वर्षा मे वात का कोप होता है । वैकृत में इसके विपरीत अर्थात् वमन्त में पित्त या वायु का, शरद् मे वात एवं कफ का तथा वर्षी मे पित्तऔर कफ का होना वैकृत दोष कहलाता है । इनके ज्ञान से रोग की सुखसाव्यता या कृच्छ नाव्यता का अनुमान रोगो के बारे मे होता है । जैसे वसन्त एवं शरद ऋतु मे प्राकृत दोषजन्य रोग सुखसाध्य होता है, इन ऋतुओ मे वैकृत दोपजन्य रोग कृच्छ्रमाध्य होता है । वर्षा ऋतु मे होने वाला प्राकृत वातिक ज्वर भी कृच्छ्रसाध्य होता है प्राकृतः सुखसाध्यस्तु वसन्तशरदुभवः।। वैकृतोऽन्यः स दुःसाध्यः प्राकृतश्चानिलोद्भवः॥ (चरक ) ससर्गज, ससृष्ट या उपद्रवयुक्त व्याधियो मे अनुवध्य और अनुवध के भेद से हेतुओ का दो भेद करना होता है, अनुवघ्य का अर्थ प्रधान या स्वतन्त्र हेतु और अनुवध का गौण या परतन्त्र हेतु है । रोग तथा दोप दोनो का सम्बन्ध विचारणीय होता है । रोग के सम्बन्ध मे विचारें तो प्रधान व्याधि अनुवंध्य कहलायेगी और उसमे होने वाल उपद्रव अनुवध । चिकित्सा मे अनुवध्य या प्रधान हेतु के निवारण से अप्रधान का भी निवारण हो जाता है।। इसकी पुष्टि मे चरक का वचन है "तत्रोपद्रवस्य प्राय प्रधानप्रशमात् प्रशम ।" कामला रोग दो प्रकार से होता है-१ पाण्डु रोग में अतिपित्तवर्षक द्रव्यो के सेवन से अनुबंध या परतन्त्र रूप मे अथवा २ स्वतन्त्र या अनुवध्य रूप मे । उपचार मे भेद करना होता है जहां पाण्डु अनुवध रूप में हुआ है, पाण्डु रोग की चिकित्सा से ही ठीक हो जाता है, परन्तु जहां वह स्वतन्त्र अनुवव्य रूप मे हुआ उसकी अपनी विशिष्ट चिकित्सा करनी होती है। वातकफज व्याधियो मे यदि कफ अनुवंध्य या प्रधान के रूप मे है वहाँ स्निग्ध उष्णोपचार लाभप्रद न रह कर रूक्षोष्ण उपचार लाभप्रद होता है। अस्तु, अनुवध्यानुवध भेद से भी हेतुओ का विचार करना समीचीन रहता है। - रोगी की प्रकृति, दृष्य एव दोष की प्रकृति का विचार भी हेतओ मे विशेपतः साध्यासाध्य विवेक के लिये करना अपेक्षित रहता है । यदि रोगो की प्रकृति, दूष्य की प्रकृति और दोष की प्रकृति तीनो समान हो जाय तो रोग असाध्य हो जाता है। “न च तुल्यगुणो दृष्यो न दोषः प्रकृतिभवेत् ।” वाग्भट ने विप चिकित्सा मे भी विष प्रकृति (पित्त), विपकाल (वर्षा ), विष वर्धक अन्न (तिल, कुल्थी ), दोप (पित्त ), दूष्य ( रक्त ) " देश, सात्म्यादि, इनके एक साथ मिलने पर विष सकट बतलाया है । इस दशा में सैकडो मे कोई एक जीवित रहता है । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय विषप्रकृतिकालान्नदोषदूष्यादिसंगमे । विषसंकटमुदिष्टं शतस्यैकोत्र जीवति ॥ (अ हृ उ०३५ ) दोषो की गति भेद से हेतु तीन प्रकार के पुन हो जाते है । 'क्षय. स्थान च वृद्धिश्च दोषाना त्रिविधा गति । ऊर्वश्वाधश्च तिर्यक् च विज्ञेया त्रिविधा परा। त्रिविधा चापरा कोष्ठशाखामर्मास्थि सधिपु। दोषा प्रवृद्धा. स्व लिङ्ग दर्शयन्ति यथावलम् । क्षीणा जहति स्व लिङ्ग समा स्व कर्म कुर्वते । च सू १५ । चिकित्सा मे इन हेतुओ का ज्ञान अपेक्षित है-जिससे सुश्रुत के अनुसार'क्षीणा वर्धयितव्या, समा पालयितव्या वृद्धा ह्रासयितव्या" अर्थात् क्षीण दोपो को बढावे, वढे दोपो को कम करे और समान दोषो का पालन करे । गति मे ऊर्ध्वग या अधोग आदि का विचार उपचार मे अपेक्षित रहता है । उदाहरणार्थ रक्त पित्त मे प्रतिमार्ग से दोपहरण का विधान है-अर्थात् विपरीत मार्गों से दोषो को निकालना चाहिये । यदि रक्त पित्त ऊर्ध्वग है तो उसका रेचन के द्वारा और यदि अधोग है तो वमन करा के दोपो को निकालने का विधान है "प्रतिमार्ग च हरण रक्तपित्ते विधीयते ।" "विरेक पित्तहराणा" इतने सूत्र से कार्य नही चलता जब तक कि रक्तपित्त रोग मे ऊवधि गति का ज्ञान न हो। निर्यग् गतियुक्त दोपो से उत्पन्न ज्वर सदृश रोगो मे शास्त्र मतानुकूल चिकित्सा करनी चाहिये । चरक ने दोपो के विविध प्रकार की गतियो को दुर्विज्ञेय कहा है । दोषो की शरीर मे इतनी प्रकार की गतियाँ हो सकती है कि उनका ठीक ठीक ज्ञान करना कठिन है तथापि कुछ प्रधान गतियो के अनुसार हेतु तथा व्याधि का भेद किया जा सकता है अन्यथा जैसे "ससार मे वायु, अग्नि तथा चन्द्र की गतियां दुविज्ञेय है उसी प्रकार वात, पित्त और कफ दोषो की भी शरीर मे होने वाली गतियो की ठीक ठीक जानकारी कठिन होती है।" लोके वायवर्कसोमानां दुर्विज्ञेया यथा गतिः। तथा शरीरे वातस्य पित्तस्य च कफस्य च ॥ (च० चि० २९) दोपों की गति का ही एक और भेद-आशयापकर्प भेद से भी गति भेद होता है "क्षय स्थान च वृद्धिश्च दोपाणा त्रिविधा गति ।" यहा स्थान से स्थानापकर्प या आशयापकर्ष समझना चाहिए । सर्व शरीर व्यापक होते हुए भी प्रत्येक दोप का स्थान या श्राशय नियत रहता है । "ते व्यापिनोपि हृन्नाम्योरवोमध्योर्ध्वसश्रया." ( वाग्भट ) । आशय आठ होते है-वाताशय, पित्ताशय, श्लेष्माशय रक्ताशय, आमाशय, पक्वाशय, मूत्राशय और स्त्रियो में गर्भाशय,(सु०) आम तौर से दोष प्रकुपित होकर ही विमार्ग गमन या स्थानान्तरण करते हैं, Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि परन्तु कई वार दोप अपने नियत आशय स्थान मे स्वय प्रकुपित न होते हुए भी अन्यत्र जा सकते है-इसे आशयापकर्प कहा जाता है । रोगोत्पादन में दोष यहाँ पर भी कारण होता है-इस दोप को आगयापकृष्ट दोप कहते है । मधुकोप में विजयरक्षित ने कहा है "जब वायु उचित मान एव स्थान में स्थित किमी दोप को लेकर अन्यत्र जाता है तो शरीर मे उचित मान में होते हुए भी वह दोप उस स्थान पर विकारोत्पत्ति करता है।" इस कथन की पुष्टि मे उन्होने चरक का निम्न वचन उद्धृत किया है। 'प्रकृतिस्थं यदा पित्तं मास्तः श्लेष्मणः क्षये । स्थानादादायगापु यत्र यत्र प्रसर्पति ।। तदा भेदश्च दाहश्च तत्र तत्रानवस्थितः । गात्रंदेशे भवत्यस्य श्रमो दौवल्यमेव च । (च० मू० १७) इस अवस्था में चिकित्सा मे विगुण वात का गमन तथा स्थानान्तरित दोप का स्वरथान में लाना ही युक्तियुक्त एव गास्त्रसम्मत चिकित्सा है। जिन चिकित्सा को दोपो के स्थानापकर्प नामक सिद्धान्त का ज्ञान नहीं है वह ऐनी अवस्था मे दाहादि लक्षणो को देखकर रोग में पित्त की वृद्धि समझ कर पित्त का ह्रासन करते हुए रोग मै अन्य रोग पैदा कर रोगी का अनिष्ट कर सकती है। ऐसा भट्टार हरिचन्द्र का मत है। इस विपय में विपरीत पक्ष के कुछ आचार्यों का कथन है कि सर्व शरीरव्यापी पित्त जब वायु के द्वारा सिंचें जाकर अन्य अवयवो के पित्त के साथ मिलता है तो उन अवयवो मे पूर्व से विद्यमान पित्त इम स्यानाकृष्ट पित्त के साथ मिलकर अधिक हो जाता है । फलत स्थानापकर्पजन्य दुष्टि भी पित्तवृद्धिजन्य ही होती है वातजन्य नहो । क्योकि पित्तज दुष्टि के न होने पर पित्तजन्य होने वाले लक्षण दाह, पाक, मूर्छा, भ्रम आदि की उपलब्धि असभव है, क्योकि कारण के अभाव में कार्य का अभाव होता है। यह भी सत्य है कि उचित मात्रा में स्थित दोप विकारकारी नही हो सकता । अत दाहादि मे पित्तवृद्धि की कल्पना करना स्वाभाविक है। भट्टार हरिचन्द्र ने इस पक्ष का खण्डन और पूर्वपक्ष का मण्डन करते हुए लिखा है कि, यद्यपि यह कयन ठीक है, परन्तु यह कथन भी ठीक है कि रोगोत्पत्ति दोपो की स्यानच्युति से भी होती है । परन्तु अज्ञानवश ही ऐमा कथन किया गया है-ऐसी अवस्था में 'विरेकः पित्तहराणा' इस सिद्धान्त के आधार पर इस अवस्था में रेचन कराना हानिप्रद होने से सवया अनुपयुक्त एव निपिद्ध है। ऐसे रोगो मे स्थानान्तरित पित्त का स्वस्थानानयन ही उपयुक्त चिकित्सा है। स्थानान्तरित पित्त और वृद्धपित्त की चिकित्सा मे परस्पर यही भेद भी है । इसी Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय भेद के प्रतिपादन के लिये आशयापकर्प का अतिरिक्त वर्णन करना अनिवार्य है। आगयापकर्पजन्य दाह के रोगी आज कल बहुत मिलते है। इन्हे Peripheral Neuritis से पीडित कहा जा सकता है। हस्तपाद दाह Burning Feet Syndrome बहुत से धातुक्षय जन्य रोगो मे यह लक्षण पाया जाता है। यहा पर चिकित्सा मे धातुओ के पूरण के निमित्त वृहण या वायु गामक उपचार ही प्रगस्त रहते है। गीतल या पित्त शामक उपचार उपयोगी नही रहते है। आज के चिकित्सक भी जीवतिक्ति युक्त आहारविहार या औपधि की व्यवस्था करते है। अस्तु, स्थानापर्पज दाह मे वातघ्न चिकित्सा ही करनी चाहिये । वस्तुत वात दोप को परम योगवाहो माना गया है। वह पित्त या कफ से संयुक्त होकर उभय विध लक्षणो को पैदा कर सकता है। जव पित्त से सयुक्त होता है तो दाहादि लक्षणो को और श्लेष्म से सयुक्त होता है तो शैत्यादि लक्षणो को भी रोग मे पैदा कर सकता है योगवाहः परं वायुः संयोगादुभयाथकृत् । दाहकृत्तेजसा युक्तः शीतकृत् सोमसंश्रयात् ।। दाहसंतापमूर्छाः स्युायौ पित्तसमन्विते । शैत्यशोफगुरुत्वानि तस्मिन्नेव कफावृते । दोपों की मार्गानुसार गति-बढे हुए दोष कभी कोष्ठ मे कभी शाखाओ मे और कभी मर्मस्थित सधियो मे अर्थात् कभी वाह्य, कभी मध्य और कभी अत मार्गानुसारी होकर पीडा पहुंचाते है । रोग की साध्यासाध्यता एव चिकित्सा ज्ञान की दृष्टि से रोगोत्पादन प्रक्रिया विविध मार्गों के अनुसार कैसी होती है यह भी जानना आवश्यक है । भिन्न भिन्न कोष्ठ या धातुओ मे दोष की उपस्थिति मे चिकित्सा भिन्न भिन्न होती है । यथा आमाशय कफ का स्थान है । यहाँ पर यदि पित्त या वात दोप विगुण होकर पहुँच जावे और विकार पैदा करे तो उनमे कफ का अनुवध अनिवार्य है । एक वायु दोप का उदाहरण ले यदि आमाशय मे वात दोप पहुँचा है तो चिकित्सा में स्थानस्थ दोप कफ का ध्यान रखते हुए भी स्नेहन कफ का वर्धक होने से अनुचित रहेगा। अस्तु, यहाँ पर कफ के नाशन के लिए रुक्षता एव वात के नाश के लिए स्वेदन करना उत्तम रहेगा । फलितार्थ यह है कि रूप स्वेद करना चाहिए। इसी प्रकार पक्वाशय वात का स्थान है। तद्गत कफ के दोप की शान्ति के लिए वात शामक स्नेहन करके कफ शामक स्वदेन का प्रयोग करना चाहिए । अर्थात् स्निग्ध स्वेद करना चाहिए। आमाशय गते वाते कफे पक्वाशयास्थिते रुक्षपूर्वो हित स्वेद स्नेहपूर्वस्तथैव च । क्योकि स्थान जयेद्धि पूर्व तु स्थानस्थस्याविरोधत ।" Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ भिपकम-सिद्धि इसी प्रकार दोप के साथ साथ धातु का भी जान करने की आवश्यकता चिकित्सा मे सुकरता लाने के लिए पडती है। जैसे सभी विषम ज्वर विदोप होते है । उनके आश्रय गत धातु का भी ज्ञान हो जाये तो दोनो पर क्रिया करने वाली ओपधि का उपयोग किया जा सकता है। जैसे 'मन्ततोरम रक्तस्थ मोन्येयुः पिगिताश्रित.' इत्यादि । इसी प्रकार स्नायुमर्मास्थि मधियो में भी दोप की गति के ज्ञान की अपेक्षा रहती है । इसमे भी चिकित्सा में मौकर्य आता है। जैसे कि सुश्रुत ने लिखा है । स्नायु एवं मर्म स्थानो के व्रणो में अग्नि कर्म न करे । नाग्निकर्मोपदेष्टव्यं स्नायुममंत्रणेपु च । आम एवं निराम भेद ने भी हेतु के दो प्रकार किये गये है । बाम-जाठराग्नि या पाचकाग्नि की दुर्वलता से, आदि धातु रम का परिपाक उत्तम नही होता । यह अपक्व रस आमाशय मे रहता है और 'आम' कहलाता है । इस नाम से वातपित्त एव कफ त्रिदोप तथा रक्तादिदूप्य दूपित हो कर 'माम' कहलाते है । परिणामस्वरूप दोप दूप्य मम्मूर्च्छना जन्य' होने वाली व्याधियाँ भी इनमे संयुक्त होकर आम कहलाती है। साम रोगो में निम्नलिखित लक्षण मिलते है-त्रोतसावरोध ( मलमूत्र मंग स्वेदावरोध), बल हानि, गौरव, वायु की मूटता (रुकावट या अप्रवृत्ति), आलस्य, भोजन का परिपाक न होना, लालास्राव, मल की अति प्रवृत्ति, अरुचि, क्लम ( थकावट)। इसके विपरीत लक्षण निराम व्याधियो मे पाये जाते है । ऊष्मणोऽल्पवलत्वेन धातुमाद्यमपाचितम् । दुष्टमामाशयगतं रसमामं प्रचक्षते ।। आमेन तेन संयुक्ता दोपा दूष्याश्च दूपिताः। सामा इत्युपदिश्यन्ते ये च रोगास्तदुद्भवाः॥ स्रोतोरोधवलभ्रंशगौरवानिलमूढताः। आलस्यापक्तिनिष्टीवमलमेदारुचिलमाः ।। लिगं मलानां सामानां निरामाणां विपर्ययः । (वा० सू० १३) यह आम जिस स्थान पर रहता है, गरीर मे स्वकारण कुपित जिस दोप से दूपित रहता है उस दोप के तोद, दाह, गौरव आदि लक्षणो के साथ आम जनित स्रोतोवरोधादि लक्षणो से कप्ट उत्पन्न करता है यत्रस्थमाम विरुजेत्तमेव देशं विशेषेण विकारजातैः । दोपेण येनावततं शरीरं तल्लक्षणैरामसमुद्वैश्च ।। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय मामवायु लक्षण वायुः सामो विवन्धाग्निसाढतन्द्रान्त्रकूजनैः । वेदनाशोथनिस्तोदैः क्रमशोङ्गानि पीडयेत् ।। विचरेद्युगपच्चापि गृह्णाति कुपितो भृशम् । स्नेहाथै वृद्धिमाप्नोति सूर्यमेघोटये निशि ।। निराम वायु लक्षण निरामो विशदो रूक्षो निर्विवन्धोल्पवेदनः । विपरीतगुणैः शान्तिं स्निग्धैर्याति विशेषतः ।। सामपित्त लक्षण दुर्गन्धं हरितं श्यावं पित्तमम्लं स्थिरं गुरु । अम्लिकाकण्ठहृद्दाहकरं सामं विनिर्दिशेत् ।। निरामपित्त लक्षण आतानं पीतमत्युप्णं रसे कटुकमस्थिरम् । पक्वं विगन्ध विज्ञेयं रुचिपक्तृवलप्रदम् ।। साम कफ लक्षण आविलस्तन्तुलः स्त्यानः कण्ठदेशे तु तिष्ठति । सामो बलासो दुर्गन्धः क्षुदुद्गारविघातकृत् ।। फेनवान् पिण्डितः पाण्डुनिःसारो गन्ध एव च। निराम कफ लक्षण पक्वः स एव विज्ञेयश्च्छेदवान वक्त्रशुद्धिकृत् । माम निराम इस परिज्ञान का उद्देश्य चिकित्सा मे सामावस्था मे पाचन तथा निरामावस्था मे शमन उपचार करना है। परस्पर सम्बद्ध होकर तरतमादि भेद से दोप भेद वासठ प्रकार के होते है। इसका विशद वर्णन सुश्रुत के दोप विकल्पाध्याय तथा चरक सूत्र १७ वे अध्याय मे मिलता है। पूर्वरूप लक्षण ( Definition of prodromata ) पूर्वरूपनिरुक्ति-रोग के जानने का दूसरा साधन पूर्वरूप है। रोग की उत्पत्ति के पूर्व जो भावी व्याधि का लक्षण मिलता है उसे पूर्वरूप कहते है। इसकी निम्नलिखित निरुक्तियाँ शास्त्र में पाई जाती है। १. पूर्व + रूप या प्राक् + रूप अर्थात् यथार्थ रूप के पैदा होने के पूर्व के चिह्न या वह चिह्न जिससे भावी व्याधि का अनुमान हो सके। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि २ अव्यक्तं लक्षणं तस्य पूर्वरूपमिति स्मृतम् । (३० चि० ११) ३ पूर्वरूपं प्रागुत्पत्तिलक्षणं व्याघेः । ( च०चि० १) ४ तेन अव्यक्तान्येव लिङ्गानि पूर्वरूपम् । ( चक्रपाणि) ५ प्राग्रूपं येन लक्ष्यते। ६ स्थानसंश्रयिणः क्रुद्धा भावि-व्याधिप्रबोधकम् । लिङ्गं कुर्वन्ति यहोपाः पूर्वस्पं तदुच्यते ।। ( नुश्रुत ) ७ उत्पिसुरामयो दोपविशेपेणानधिष्टितः। __ लिगमव्यक्तमल्पत्वाद् व्याधीना तद्यथायथम् ॥ (गग्मट) ८ यतो मेघादपि भाविनी वृष्टिरनुमीयते, यथा वा रोहिणी वटा कृत्तिकोढ़योऽनुमीयते तथा पूर्वल्पमिति । ( चक्रपाणि) ६ "भविष्यद्व्याधिबोधकं लिङ्गं पूवरूपम्" या "भाविव्याधि बोधकमेव लिङ्गं पूर्वरूपम्” । ( मधुकोष) १० तच्च द्विविधम् १. सामान्यम् २ विशिष्टञ्च । प्रथमं तावत्-अव्यक्तं लक्षणं तस्य पूर्वरूपमिति स्मृतम् ।। (च० चि० १०) लिङ्गमव्यक्तमल्पत्वाद् व्याधीना तद्यथायथम् । (वान्भट) द्वितीयं तावत्-दोषदृष्य सम्मूर्च्छनावस्थाजन्यमव्यक्तलिङ्गादन्यदेव। यथा ज्वर वालप्रद्वपरोमहर्यादि। ११ व्याधेर्जातिव॒भूषा च पूर्वरूपेण लच्यते । भावः किमात्मकत्वञ्च लक्ष्यते लक्षणेन हि ॥ १२ पूर्वरूपं नाम येन भाविव्याधिविशेषो लक्ष्यते न तु दोषविशेषः । (पराशर) १३ तच्च त्रिविधं शरीरं, मानसं, शारीरमानसन्च। (अरुणदत्त) मेरे विचार से एक आगन्तुक भी मान लिया जावे तो चतुर्विध कहना अधिक उत्तम होगा। पूर्वरूप का निर्दष्ट लक्षण-उपर्युक्त निरुक्तियो में दो तरह के प्रधान विचार पूर्वरूप की व्याख्या में पाये जाते है १. कुपित होकर स्थानसंश्रय को प्राप्त हुए दोप भावि व्यावि के ज्ञापन कराने वाले जिन लक्षणो को पैदा करते है उन लक्षणो को पूर्वरूप कहते हैं (मु०)। इस प्रकार दोषकृत लक्षणो को ही पूर्वरूप कहा गया है। रोगोत्पत्ति एवं क्रियाकाल के सम्बन्ध में सुश्रुतोक्त बचनो का ऊपर में विस्तृत वर्णन हो चुका है-किस प्रकार दोपो के संचय प्रकोप, प्रसर एवं स्थान संश्रय से रोग या व्याधि उत्पन्न होती है। इसमें दोपो के Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिषक्कर्म-सिद्धि इसमे एव या ही शब्द के कथन से निदान सम्प्राप्ति तथा उपशय तीनो से लक्षण की अतिव्याप्ति दूर हो जाती है । क्यो कि निदानादि तीनो भावी तथा वर्तमान दोनो प्रकार के व्याधियो के बोधक होते है, परन्तु पूर्वरूप केवल भावी व्याधिका ही बोधक होता है । यहाँ पर कुछ उदाहरण देना अपेक्षित है कि किस प्रकार से निदान उपशय एवं वर्त्तमान दोनो प्रकार की व्याधिका का बोध कराते है ( मृद् भक्षणभाविपाण्डुरोग का बोधक | वर्त्तमान् पाण्डु रोग का बोधक | भावि वातिक ज्वर का बोधक | -- निदान २ मृद्भक्षण से रोगवृद्धि ४८ ( - जृम्भायुक्त ज्वर मे घृतपान - ( संधिवात एव आमवात मे उपशय / तैलाभ्यग— (विषम ज्वर मे क्विनीन वर्त्तमान् आमवात का वोधक विषम ज्वर का बोधक | " [ वसन्तऋतु तथा प्रात काल - कफजरोगकी उत्पत्ति अथवा प्रकोप या वृद्धि | शरदऋतु तथा मध्याह्न–पित्तज रोग की उत्पत्ति अथवा प्रकोप या वृद्धि | वर्षाऋतु तथा सायाह्न - वातिक रोग की उत्पत्ति अथवा प्रकोप या वृद्धि सम्प्राप्ति २ भावी एवं वर्त्तमान व्याधि का ज्ञान संभव रहता है । इन सम्प्राप्तियो से | रोग का भविष्य मे होने का अनुमान तथा वर्त्तमान मे होने पर ज्ञान | सभव रहता है । अत सम्प्राप्ति भी भावी एव वर्त्तमान दोनो प्रकार ( के व्याधि का बोधक होता है । ( केवल वर्त्तमान व्याधि का बोधक होता है । इस प्रकार रूप से भी रूप २ पार्थक्य पूर्वरूप के लक्षणो मे एव शब्द जोड़ने से हो जावेगा । क्योकि ( केवल भावि व्याधि बोधक लिङ्ग को ही पूर्वरूप कहेंगे । अव पुनः शका होती है कि कई बार पूर्वरूप का स्मरण वर्त्तमान् व्याधि का निश्चय कराने मे सहायक होता है तो फिर पूर्वरूप भी इस प्रकार वर्तमान व्याधि का बोधक हो जावेगा ? तव तो उपर्युक्त पूर्वरूप का लक्षण निर्दुष्ट नही हो सकेगा ? रक्तपित्त तथा प्रमेह का सापेक्ष्य निश्चय ( Differential Diagnosis ) वतलाते हुए चरक की उक्ति हैहारिद्रवर्णं रुधिरं च मूत्रं विना प्रमेहस्य हि पूर्वरूपम् । यो मूत्रयेत्तं न वदेत् प्रमेहं रक्तस्य पित्तस्य हि स प्रकोपः ॥ अर्थात् प्रमेह के पूर्वरूपो के अभाव मे यथा “ दन्तादीना मलाढ्यत्व प्राग्रूपं पाणिपादयो, दाहरिचकण्णता देहे तृट् स्वाद्वास्य च जायते ।' हल्दी के रंग के पीले या सरक्त मूत्र को देखकर रक्त पित्त रोग का प्रकोप समझना चाहिए । इस सूत्र Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय सचय से लेकर स्वानस्श्रय तक की अवस्था को पूर्वरूपो के भीतर ही समाविष्ट माना जाता है। २ चरक ने पूर्वरूप मे विशेपत. राजयक्ष्मा के पूर्वरूप मे कुछ ऐसे अदृष्टजन्य अशुभ लक्षणों का भी समावेश पूर्वरूप मे किया है जिनमे दोप' का कोई भो कर्तुत्व नहीं है। यया रोगी के अन्नपान मे तृण, केश, घुन तथा मक्षिका आदि का गिरना। __ यक्ष्मिणां घुणकेशाना तृणाना पतनानि च। । प्रायोऽन्नपाने केशाना नखाना चातिवर्धनम् ॥ अब ये लक्षण अदृष्टजन्य भले ही हो, परन्तु दोपकृत नहीं है। अस्तु, दोपकृत लक्षणो को ही केवल पूर्वरूप मे नही लिया जा सकता क्योकि लक्षण अव्याप्ति दोप से युक्त हो जावेगा। फलत पूर्वरूप का ऐसा लक्षण बनाना चाहिए जो व्याप्ति एव अतिव्याप्ति दोष से रहित हो तथा जिसमे अदृष्टज तथा दोपज सब प्रकार के लक्षणो का समावेश हो जावे । एतदर्थ परम निषणात वाग्भटाचार्यकृत लक्षण अधिक उत्तम प्रतीत होता है, जिसमे उन्होने बतलाया है "दोपविशेष के ज्ञान के विना ही केवल उत्पद्यमान रोग जिन लक्षणो से जाना जा सके उन लक्षणो को सामान्यतया पूर्वरूप कहते है।" इसी भाव का द्योतन करते हुए अन्य परिभाषायें भी पूर्वरूप की पाई जाती हैं। चरक ने लक्षण किया है व्याधि के उत्पत्ति के पूर्व के लक्षण पूर्वरूप कहलाते है। यह पूर्वरूप की दूसरी व्याख्या है जिसमे अदृष्ट तथा दोपकर्तृक सभी लक्षणो का समावेश इस परिभाषा मे हो जाता है। ' ____ अब यहाँ पुन एक शका उत्पन्न होती है कि यदि दोषो की ही कारणता दी जाय और अदृष्ट लक्षणो को भी दोपजन्य मान लें तब तो प्रथम परिभाषा से ही काम चल जावेगा और दूसरी परिभाषा करने की आवश्यकता नही पडेगी? इसका उत्तर यह है कि तृण-केश-घुण-मक्षिका का भोजन मे गिरना प्रभृति क्रियाओ को दोषजन्य मानना ठीक नहीं है क्योकि उनका दोषो के साथ कोई भी सम्बन्ध नहीं है । अगर ऐसा माना जावे तो कारण कार्य सिद्धान्त मे अनवस्था आ जावेगी। सभी वस्तु सवका कारण बन जावेगी, कार्यकारणभाव की सम्पूर्ण व्यवस्था नष्ट हो जावेगी। अस्तु, चरकोक्त पूर्वरूपो का अदृष्ट कारणजन्य (आगन्तुक ) और दोपो से अनधिष्ठित मानना ही उचित है। अस्तु, नि?ष्ट लक्षण "भाविव्याधिवोधकमेव लिङ्ग पूर्वरूपम्' अर्थात् "भावी व्याधि के लिङ्ग को ही पूर्वरूप कहते है" ऐसा बनाना श्रेयस्कर है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय मे वर्तमान व्याधि का निर्णय करने के लिए पूर्वरूपो का स्मरण व्याधि के बोध मे कारण हो रहा है । अत पूर्वरूप केवल भावि व्याधि का ही नहीं अपितु वर्तमान व्याधि का भी ज्ञापक हुआ? इम गका के निवारणार्थ इतना ही जानना पर्याप्त है-कि वर्तमान व्यावि के जन्म से पूर्व पूर्वत्प की उत्पत्ति हुई या नहीं? यदि हुई तो व्याधि के जन्म के पूर्व काल में ही ज्ञान होने की वजह से पूर्वस्प भविष्यत्-कालीन व्याधि का ही वोधक होगा । यदि व्याधि की उत्पत्ति से पूर्व, पूर्वरूप की उत्पत्ति नही हुई है तो अनुभव के अभाव में उसका स्मरण ही नही हो सकता । योग दर्शन में भी लिखा है कि 'अनुभूतविपयामम्प्रमोपः स्मृति' अर्थात् अनुभूत विषय का मस्तिष्क मे यथास्थिति रहना ही स्मरण मे हेतु है। जिस वस्तु की उत्पत्ति नही या जिनका अनुभव ही नहीं उसका स्मरण या स्मृति भी सभव नही है । सभव है प्रारभ में दांतो का मैलापन आदि उत्पन्न हुए हो और उस समय प्रमादवग उनको प्रमेह का पूर्वस्प न समझा गया अब व्याधि उत्पन्न हो जाने पर उनका स्मरण करते है और वह प्रमेह विशेप का ज्ञान करा सकता है। अत. पूर्वत्प भावी व्यावि का बोधक होता है । वस्तुत यहाँ पर पूर्वरूप का स्मरण व्याधि के ज्ञान मे कारण है पूर्वरूप नही, उसकी तो रूपावस्था मे सत्ता हो नही रहती। चूंकि स्मरण मिथ्या भी हो सकता है इसलिए स्मरण को प्रमाण मानना ठीक नही । शका तो ठीक है परन्तु व्यावि जन्म के पूर्व उत्पन्न पूर्वरुप जिसका अब स्मरण किया जाता है, वही भावी व्याधि का बोधक होता है न कि केवल स्मरण । क्योकि अनुभव से सस्कार, सस्कार से स्मृति और स्मृति को महायता से पूर्वरूप ही वर्तमान व्याधि का बोधक होता है। केवल स्मरण नही, स्मरण तो सहायक मात्र होता है । आप्तोपदेश को भी स्मरण के सदृश ही समझना चाहिए । अर्थात् आप्तोपदेश से भी रोग के पूर्वरूप एव रूप का ज्ञान होता है । इस प्रकार आप्तोपदेश को भी पूर्वस्पत्व प्रसग होगा क्योकि वह भी स्मरण की भांति ही रूप या पूर्वरूप के ज्ञान मे सहायक होता है । अस्तु उसमे पूर्वरूप के लक्षणो की अतिव्याप्ति न हो इसीलिये लिङ्ग पद से पूर्वरूप का वर्णन किया गया है 'लिङ्गमव्यक्तमल्पत्वाद् व्याधोना तद्ययायथम्' । विशिष्ट व्याधि के विशिष्ट लक्षणो को ही लिङ्ग कहते है, आप्तोपदेश व्याधि का सामान्य ज्ञापक होता है अत उसे लिङ्ग नही कह सकते। इस प्रकार पूर्वरूप अविद्यमान व्याधि का असाधारण लक्षण ( लिङ्ग) होता है। इसकी उपमा विशिष्ट मेघ से दी गई है। जिससे विशिष्ट वर्षा की उत्पत्ति ४ भि०सि० Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० भिपकम-सिद्धि होती है । अथवा विशिष्ट लक्षण रोहिणी के उदय हो जाने के अनन्तर विशिष्ट नक्षत्र कृत्तिका का उदय होना । यहाँ पर मेघ एव रोहिणी का उदय वा एव कृत्तिकोदय के पूर्वस्प मे आते है । सामान्य पूर्वरूप-यह पूर्वरूप दो प्रकार का होता है १ मामान्य २ विशिष्ट । दोषदृष्य-सयोग से जव विकारोत्पत्ति होती है तो उस समय जिन साधारण लक्षणो के द्वारा ज्वर आदि व्याधि-मात्र के भविष्य मे होने का जो सामान्य ज्ञान होता है उसको सामान्य पूर्वरूप कहते है। इन लक्षणो के द्वारा भावी व्याधि का ही ज्ञान हो सकता है उसके वातादि दोपजन्य भेदो का नहीं, इसीलिए कथन है 'पूर्वरूप नाम येन भाविव्याधिविशेपो लक्ष्यते न तु दोपविशेप.।' श्रमोऽरतिविवर्णत्वं वैरस्यं नयनलवः । इच्छाद्वषो मुहुश्चापि शीतवातातपादिपु ।। जृम्भाजमर्दो गुरुता रोमहर्षोऽरुचिस्तमः । अप्रहर्षश्च शीतञ्च भवत्युत्पस्यति ज्वरे ॥ इन लक्षणो से ज्वर मात्र के होने का ही जान सभव रहता है, किन्तु यह जान नही हो सकता कि ज्वर वात-प्रधान होगा या पित्त-प्रधान । इसकी पुष्टि मे तत्रान्तरो के वचन भी प्रमाण है व्याधे॥तिर्वभूपा च पूर्वरूपेण लक्ष्यते। भावः किमात्मकत्वं च लक्ष्यते लक्षणेन हि ।। अथवा व्याधि की जाति या उसका भविष्य में होना सामान्य पूर्वत्प के द्वारा जाना जाता है, परन्तु उसकी दोपोल्वणता का विस्तार से ज्ञान तो लक्षणो के द्वारा हो होता है । वाग्भट ने स्पष्ट लिखा है 'दोपविगेप से अनधिष्ठित' अर्थात् दोष विशेप के ज्ञान से रहित भावि व्याधि जिस लक्षण समूह से प्रतीत हो उसे सामान्य पूर्वरूप कहते है । विशिष्ट पूर्वरूप-पूर्वरूपो मे कुछ रोगो मे वातादि दोपो से उत्पन्न होने वाले अव्यक्त लक्षण भी पैदा होते है-इन्हे विशिष्ट पूर्वरूप की मजा है, इन रोगो मे सामान्य पूर्वरूप नहीं होते। इन अव्यक्त लक्षणो से बड़े रोगो मे विशेपत उर क्षत की वातजन्यता या पित्तजन्यता का स्पष्ट बोध हो जाता है । अत इन्हे विशिष्ट पूर्वरुप कहते है । विशिष्ट पूर्वरूप को स्वीकार करते हुए उसका प्रतिपादन सुश्रुत ने लिखा है-भावी वातज ज्वर मे अधिक जॅभाई का आना, पित्त ज्वर मे नेत्रो मे जलन का होना तथा कफज ज्वरो मे अन्न के प्रति विशेष द्वेष होना पाया जाता है । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय 'विशेषात्तु जृम्भात्यर्थं समीरणात् । पितान्नयनयोर्दाह कफादन्नारुचिर्भवेत्' हारीत महिता मे भी आठ प्रकार के ज्वरो के कहने के पश्चात् वातिक ज्वर के लक्षणों का वर्णन करते हुए जृम्भा, अगमर्द एव हृदयोद्वेग प्रभृति लक्षणो का पूर्वरूप नाम ने प्रतिपादन मिलता है। इति पूर्वमष्टानां ज्वराणां सामान्यतः । विशेषतस्तु जृम्भाद्गमर्दभूयिष्ठं हृदयोद्वेगि वातजम् ॥ ५१ नवीन गयो में भी पूर्वरूप प्रसग बहुविध रोगो के सम्बन्ध मे पाया जाता है अगेजी मे उन्हे ( Prodromata or Prominatory Signs कहा जाता है । जैसे - अपस्मार मे पूर्वग्रह ( Auar ) - दृष्टि का धुंधलापन, ( Dimness of Vision ), श्रवणविभ्रम विशिष्ट गन्ध या स्वाद, अनैमित्तिक मिथ्या ज्ञान, नर्वाङ्ग शरीर मे वेवनवत् पीडा ( तोद ), उदर एव हृत्प्रदेश मे विचित्र अनुभूति । अन्य भी रोगी मे दौरे की सूचना देने वाले विनिष्ट पूर्व पाये जाते है । अपस्मार के कुछ दिन या कुछ घंटे पूर्व शिरो-वेदना, दुर्बलता, तन्द्रा, क्षुन्नान, व्याकुलता आदि पूर्वकालिक चिह्न भी रोगी मे मिलते है । कुष्ट के पूर्व रूप मे – ज्वर, स्वेदाधिक्य, दौर्बल्य, अतिसार, नाना का सूखना, नासागत रक्न साव, गथिक कुष्ठ के पूर्वरूप मे मिलते है । इम तरह मस्तिष्कावसाद ( Mental Deperssion), शीतानुभूति, अरुचि, वातनाडी पीडा ( Neuralgic Pain ), स्पर्शवैपरीत्य ( Parasthesia ), आदि पूर्वरूपो का वर्णन वातिक कुष्ठ ( Nerveleprosy ) मे मिलता है | उपसंहार - दूसरे शब्दो मे कहना हो तो ऐसा कहे कि व्याधिबोधक लक्षण रोगो मे दो प्रकार के पाये जाते है - १ सर्वाङ्ग वोधक २ एकाज-बोधक | सर्वाङ्ग वोक्क वे लक्षण हैं जिनसे व्याधि की जाति, विशिष्टता, निदान आदि का सम्यक् ज्ञान हो सके इसी को रूप नाम से आगे कहा जायेगा । एकाङ्गवोधक लक्षणो के दो भेद हो जाते हैं सामान्य एव विशिष्ट । यही वर्णन अब तक होता आया है । जिसे केवल व्याधि के श्रेणी का ज्ञान हो उसे सामान्य और जिससे व्याधि-जनक दोष का भी ज्ञान हो, साथ ही व्याध्युत्पादक निदान का Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि परिज्ञान हो, उसे विशिष्ट कहते है। जैसा कि सामान्य एव विशिष्ट पूर्वरूपो के प्रसग मे देख चुके है। विशिष्ट पूर्वरूप एवं रूप में भेद-वास्तव मे विशिष्ट पूर्व स्प के अर्थ में सज्ञा की रूढि हो गई है अन्यथा वहुत से इसमे लक्षण व्यक्त स्वरूप के होते है । फिर भी व्यक्तस्वरूप से उसका अतर शास्त्र में किया गया है। फलतः यह भेद ( रूप एव विशिष्ट पूर्वरुप ) का व्यवहार प्राचुर्य ( Majority ) पर आधारित है । जैसे मापराशि कहने से उडद की ढेर का अर्थ होता है उसमे कुछ मूंग के भी दाने हो तो भी मापराशि मे ही प्राचुर्य से उनका ग्रहण हो जाता है । उसी प्रकार 'छत्रिणो गच्छन्ति' छाते वाले जा रहे है, उनमें एकाध विना छाते के भी हो तो उनका एक ही सज्ञा से व्यवहार किया जाता है । यद्यपि ज्वर के विशिष्ट पूर्वरूप मे जृम्भादि को रूप कह सकते हैं तथापि जृम्भा की व्यक्तता होने पर भी अनेक लक्षणो की अव्यक्तता के कारण केवल जृम्भा को स्प नही कह सकते अपितु जृम्भा अन्य लक्षणो के साहचर्य से पूर्वस्प हो कहना उचित है । 'व्यपदेशस्त, भूयसा' व्यवहार प्राचुर्य पर आधारित है। दूसरा भी एक अतर पूर्वरूप का रूप से है। पूर्वरूप भावी व्याधि का वोधक होता है और अनुमानगम्य रहता है, परन्तु रूप वर्तमान व्याधि का बोधक होता है और प्रत्यक्ष गम्य होता है। विशिष्ट पूर्वरूप तो स्पावस्था में प्रकट होता ही है और उसी का व्यक्त होना रूप कहा गया है परन्तु पूर्वरूप के सभी लक्षण व्यक्तावस्था रूप मे व्यक्त नही होते, अन्यथा सभी ज्वर असाध्य हो जावेगे-चरक मे लिखा है पूर्वस्प मे कहे गये सभी लक्षण अति मात्रा मे जिस रोगी को आक्रमण करते है उस रोगी की मृत्यु निश्चित है "पूर्वरूपाणि सर्वाणि ज्वरोक्तान्यतिमात्रया। यं विशन्ति विशत्येनं मृत्युवरपुरःसरम् ।। अन्यस्यापि च रोगस्य पूर्वरूपाणि यं नरम् । विशन्त्यनेन कल्पेन तस्यापि मरणं ध्रुवम् ।। रूपलक्षणम् ( Definition of Syndrome or Symptomatology ) यद्यपि पूर्वरूप के कथन के अनन्तर रोग की सम्प्राप्ति का प्रसंग आता है, तथापि व्याधि के स्वरूप ज्ञान के लिए और रूप के विपय को स्पष्ट करने के लिये पूर्वरूप से सम्बद्ध रूप की ही व्याख्या प्रथम की जा रही है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुप निरुक्ति द्वितीय अध्याय रूपमित्यभिधीयते । १ तदेव व्यक्ततां यातं संस्थानं व्यञ्जनं चिह्नं लक्षणं चिह्नमाकृतिः ॥ अर्थात् व्यान हुआ पूर्वम्प ही रूप कहलाता है । पूर्वरूपावस्था में प्रतीयमान अव्यक्त लक्षण ही जब व्यक्त होकर व्याधि का निश्चित रूप से निदर्शक हो जाता है तो उसे स्प कहा जाता है । संस्थान, व्यजन, चिह्न और आकृति ये शब्द रूप के पर्याय रूप में व्यवहृत होते है | २ प्रादुर्भूतलक्षण पुनर्लिङ्गम् । तत्र लिङ्गमाकृतिर्लक्षणं चिह्नं सस्थानं व्यञ्जनं रूपमित्यनर्थान्तरम् ॥ ४. उत्पन्नव्याधिबोधकमेव लिङ्ग ं रूपम् । ( व्यक्त होने का अर्थ—उपर्युक्त दोनो परिभाषाओ मे ५३ ( वा नि १ ) ( च नि १ ) ३ व्याधे. स्वरूपम् अव्यक्तं पूर्वरूपम् यद्व्यक्तं तद् रूपमिति । ( ईश्वरसेन ) । होना और उत्पन्न होना रोग की स्पावस्था मानी गयी है मधुकोष ) । लक्षणो का स्पष्ट । अव विचारणीय 1 है कि क्या पूर्वरूप के सभी लक्षण रोग को रूपावस्था मे व्यक्त होते है या थोडे । यदि पूर्वरूप के सभी लक्षणो की व्यक्ति मान लो जावे तो सभी रोग अमाध्य हो जायेगे । जैसा कि चरक मे कहा गया है कि 'ज्वर के या अन्य रोग की पूर्वरूपावस्था के सभी लक्षण रोगी मे उत्पन्न हो जायें तो समझना चाहिये ।' यदि पूर्वरूपावस्था के कुछ ही लक्षणो की को रूप माना जाय तो 'जृम्भा, नयन- दाह, अन्नविद्वेष, हृदयोद्वेग' सदृश विशिष्ट पूर्वरूपो को जो पहले से ही व्यक्त रहते हैं, भी रूप के वर्ग मे ही रखना होगा । इस प्रकार उभय पक्ष मे दोप की सम्भावना है। शास्त्रकारो ने इस सम्बन्ध मे बतलाया है कि इस प्रकार की विवेचना की कोई आवश्यकता नही है - इसका कोई नियम नही है - एक लक्षण (एकदेशीय) या अनेक लक्षण (सम्पूर्ण) की अपेक्षा न करते हुए पूर्वरूप मात्र की अभिव्यक्ति को ही रूप कहा जाता है । तात्पर्य यह है कि रोग तथा रोगी के अनुसार किसी मे कुछ और किसी मे सम्पूर्ण लक्षण भी रूपावस्था मे व्यक्त हो सकते है और ये व्यक्त हुए कतिपय या सम्पूर्ण उभयविवलक्षण ही रूप कहलायेगे । इसकी उपमा धूम ( धुएँ ) से दी गई है -- धूम को देखकर अग्नि का वोध किया जा सकता है, परन्तु वह तृण की अग्नि रोगी को मुमूर्षु ही अभिव्यक्ति Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ भिपकर्म-सिद्धि है या पत्र की यह जानना आवश्यक नहीं है। जिस प्रकार धूम सामान्य अग्नि का वोधक है उसी प्रकार पूर्वरूप मात्र की अभिव्यक्ति रूप कहलाता है जिससे रोग का ठीक ज्ञान होता है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण लक्षणो की अभिव्यक्ति से रोग असाध्य एव अल्प लक्षणो की व्यक्ति से साध्य होता है। स्वरूप शब्द का विग्रह-ईश्वरसेन ने व्याधि का अपना व्यक्तरूप ( स्वरूप व्यक्तम् ) को रूप बतलाया है। स्वरूप शब्द से क्या अर्य ग्रहण किया जावे ? विजयरक्षित ने इसकी तर्क-हीनता इस प्रकार सिद्ध की है । आपका कथन है कि स्वरूप शब्द के दो विग्रह हो नकते है-स्व उप स्वत्पम् अर्थात् व्याधि का अपना रूप या स्वभाव ही व्याधि का रूप है-तो यह ठीक नही है क्योकि इसमे 'स्वात्मनि क्रियाविरोध' दोप आता है । अर्थात् अपने मे ही क्रिया का विरोध यानी ज्ञेय या प्रमेय वस्तु का अपने लिये ज्ञापक या प्रमाण होना ही स्वात्मनि क्रियाविरोध है। कोई सासारिक वस्तु अपने लिये स्वतः प्रमाण नहीं है उसके ज्ञापन के लिये ज्ञापकान्तर की आवश्यकता होती हैं। दीपक सम्पूर्ण वस्तुओ का दर्शन या ज्ञापन कराने वाला होते हुए भी अपने ज्ञापन के लिये चक्षु रूप ज्ञापकान्तर की अपेक्षा रखता है। यहाँ पर व्याधि का स्वभाव ही ज्ञेय विषय है उसी को व्याधि स्वभाव का ज्ञापक मानना असंगत है। इसी को शास्त्र मे स्वात्मनि क्रियाविरोध कहा जाता है । अस्तु स्वरूप शब्द का उक्त विग्रह करना उचित नही है। 'स्वीय रूप स्वरूपम्' यदि ऐसी व्याख्या की जावे अर्थात् रोग का रूप ही व्याधि का रूप है तो यह विग्रह भी ठीक नही प्रतीत होता । स्वीय रूप के दो अर्थ होते है--स्वीय धर्म ( व्याधि का अपना धर्म ) या स्वीय कार्य ( व्याधि का अपना कर्म )। स्वीय धर्म माने तो शास्त्र मे कहे गये त्वचा, नख, मल, मूत्र तथा दांत का कालापन आदि अर्श के लक्षणो का रूप नही कह सकते 'श्यावारुणपरुपनखनयनवदनत्वड मूत्रपुरीपस्य वातोल्वणान्यशीसीति विद्यात्' 'कृष्ण त्वड्नखनयनवदनदशनमूत्रपुरीपश्च पुरुपो भवति वातार्शसि क्योकि धर्म धर्मो मे रहता है अन्य मे नही । अर्ग एक शरीर मे दृश्यमान मस्से के रूप की व्याधि है यही इस व्याधि का धर्म है-अस्तु नखादि का कालापन अर्श का धर्म नही है, प्रत्युत वह वात दोप का ही धर्म है। धर्म न होने पर नखादि का कालापन अर्श का रूप भी नहीं माना जा सकता । अस्तु यह विग्रह विलष्ट कल्पना है फलत अनुचित है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय 'स्त्रीयकर्म' स्वकीय कार्य यह विग्रह भी उचित नही प्रतीत होता क्योकि ऐसा करने से उपद्रव एवं अरिष्टो को भी व्याधि के रूप मे स्वीकार करना होगा। उपद्रव एव अरिष्ट व्याधि के उत्तर काल मे होने के कारण व्याधि के कार्य कहे जा सकते है । यदि उपद्रव एवं अरिट को भी व्याधि की कृच्छ्रसाध्यता या असाध्यता का निदर्शक मानकर तत्कालीन व्याधि का रूप स्वीकार किया जावे तो वह भी ठीक नही क्योकि उपद्रवारिष्ट व्याधि के कृच्छ्रसाध्यता एव असाध्यता के ही ज्ञापक होते है व्याधि के नहो । व्यावि का ज्ञान तो उपद्रव उत्पन्न होने से पहले ही हो जाता है इसके लिये माधवादि ने उपद्रव, अरिष्ट आदि का कथन रूप से पृथक् ही किया है। 'सोपवारिष्टनिदानलिङ्गो निबध्यते रोगविनिश्चयोयम् ।' इस प्रकार स्वरूप शब्द का विग्रह स्वकीय कार्य भी नही किया जा सकता। इन तर्कों के आधार पर ईश्वरसेन जी द्वारा प्रतिपादित लक्षण दूपित एव अमान्य है । कुछ विद्वानो के मत से ईश्वरसेन की व्याख्या उपयुक्त है । कही पर 'स्वरूप स्वरूपम्' और कही पर 'स्वीय रूपम् स्वरूपम्' का विग्रह भी व्याधि के स्वरूप ज्ञान कराने में समर्थ होता है। अब प्रश्न उठता है कि उपद्रव व्याधि का कार्य है कि व्याधिजनक दोष का। इसके सम्बन्ध मे सुश्रुत का वचन है कि उपद्रव व्याधि का कार्य नहीं है बल्कि रोगोत्पादक दोष का ही कार्य है 'स तन्मूलमूल एव उपद्रवसज्ञक । 'किन्तु यह ठीक नही है। क्योकि व्याधिजनक दोष की वृद्धि के कारण वढी हुई व्याधि ही उपद्रव को उत्पन्न करती है। इसी का प्रतिपादन 'तन्मूलमूल' शब्द के द्वारा हुआ है। इस प्रकार उपद्रव के प्रति दोप को परम्परया कारणता है । साक्षात् कारणता तो बढी हुई व्याधि को ही है। उसी आशय से चरक का भी वचन है कश्चिद्धि रोगो रोगस्य हेतुभूत्वा प्रशाम्यति । न प्रशाम्यति चाप्यन्यो हेतुत्वं कुरुतेऽपि च ॥ __ इस प्रकार रोग रोगान्तर का या उपद्रव का जनक होता है। तात्पर्य यह है-ईश्वरसेनजी का स्वरूप लक्षण पूर्गाश मे रूप को व्यक्त नही करता। इसके अतिरिक्त निश्चित लक्षण के अभाव मे उपद्रव मे भी व्याधिस्वरूप प्रतिभासित होता है अस्तु, लक्षण यहाँ पर अतिव्याप्त और ऊपर मे अव्याप्ति दोप युक्त हो जाता है। रूप का निर्दष्ट लक्षण--अस्तु 'उत्पन्नव्याधिवोधकमेव लिङ्ग रूपमिति' अर्थात उत्पन्न व्याधि का ज्ञान कराने वाला लिन ही रूप Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ भिपकर्म-सिद्धि है । इस प्रकार का निर्दोष लक्षण बनाना ही है। এप का लक्षण करने ने पूर्वरूप के लक्षणो से निवृत्ति 'उप' जाती है, क्योकि पूर्वम्प व्याचि का वीचक होता है। निशन नम् उपशय के लक्षणों में पार्थक्य दर्शनार्थ 'एव' शब्द का परिभाषा में प्रयोग हे । क्योकि ये तीनो भावी एव वर्त्तमान दोनों प्रकार की व्याधि के नि होते है । व्याधि के ज्ञापन में व्यवहृत होने वाले चक्षुजाद्रियता रोग के विनिश्चिय के अन्य साधन उर श्रवण, अणुवीक्षण, तरिरण आदि अन्य साधन सामान्य ज्ञापक होते है--उनका निरसन करने के लिये '' का प्रयोग हुआ है । इन साधनो ने प्राप्त ज्ञान को '' नहीं वह नाते क्योकि वस्तु विशेष के ज्ञापन कराने वाले अगाधारण लक्षण या वस्तु को ही लिङ्ग कहते है । साधारण ज्ञान को नहीं । कुछ विद्वानों के मन में व्याधि जन्म को ही सम्प्राप्ति मानते है--इन नम्प्राप्ति लक्षण को भी निवृत्ति 'लिङ्ग' पद से ही हो जाती है । क्योकि सम्प्राप्ति व्याधि के ज्ञान में कारण मात्र ही होती है लिङ्ग नही । फलत रूप का निर्युष्ट लक्षण 'उत्पन्नव्याधिबोधकमेव लिङ्ग रूपम्' यही होगा । रूप तथा व्याधि में भेद एवं पर्याय कथन - यान्य में व्यवहार तथा लक्षण के लिये पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया जाता है । इसी अभिप्राय से रूप के पर्याय रूप मे लिङ्ग, आकृति, लक्षण, चिह्न, मस्थान कोर व्यजन का व्यवहार हुआ है । यद्यपि पद अनेकार्यवाची होते है परन्तु यहाँ पर एकार्य में व्यवहृत हुए है । कई विद्वानो का मत है कि चूंकि व्याधि का ज्ञान रूप एव लक्षणो के द्वारा ही होता है, रूप मे भिन्न व्याधि की सत्ता भी नही है -- क्योकि अरुचि, स्वेदावरोध एवं संताप आदि लक्षणो के समुदाय को ही शास्त्र मे जर कहा गया है । इसी प्रकार ज्वर, कास एव रक्तष्टीवन आदि ग्यारह लक्षणों के समुदाय को ही राजयक्ष्मा कहा गया है । अस्तु रूप और व्याधि मे कोई अन्तर नही है | यह एक विवादास्पद विषय है । चरक मे लिखा है 'सुखसंज्ञकमारोग्य विकारो दुखमेव च ।' फिर इसके कई पर्याय दिये गये है जैसे -- ' तत्र व्याधिरामयो गद आतको यक्ष्मा, ज्वरो, विकारो रोग इत्यनर्थान्तरम्' प्रत्येक की व्युत्पत्ति वतलाते हुए श्री चक्रपाणि ने लिखा है -- आतङ्क से भय, विकार शब्द से पोडश विकारो का भी ग्रहण हो सकता है परन्तु प्रकृत मे व्याधि के ही बोधक है । व्याधि-- "विविध दुखमादवातीति व्याधि. ' विविध प्रकार दुःख Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय देने वाली व्याधि है। आतङ्क का अर्थ कष्ट का जीवन, यक्ष्मा शब्द से रोग युक्त विकार, ज्वर शब्द से मन -शरीरसतापकरत्व, विकार से शरीर एव मन का अन्यथाकरण, रोग शब्द से रुजाकतृत्व तथा गद से सामान्य असुख का बोध होता है। अग्रेजी भापा मे रोग को ( Disease ) कहते है--यह भी सक्षेप मे एक असुख का ही वोधक है। शरीर मे या मन मे यह असुख का भाव जिस शारीरिक या मानसिक विकृति के कारण होता है उसको रोग कहते है। इस प्रकार रोग और उसमे पैदा होने वाले असुख मे भेद हो जाता है। असुख का अनुभव रोग का परिणाम है रोग नही । फलत रोग उससे भिन्न वस्तु है । लक्षण या रूप स्वयं रोग न होकर विकार या रोग के निदर्शक है । ___ इसीलिये विजयरक्षित ने विशिष्ट प्रकार से दूषित दोष एव दूष्य के विशिष्ट सयोग को ही व्याधि माना है, लक्षण-समूह को नही । अरुचि आदि लक्षण व्याधि के कार्य है, व्याधि का स्वरूप नही 'तथापि दोषदृष्यसम्र्मूर्च्छनाविशेषो ज्वरादिरूपो व्याधि तस्य कार्याण्यरुच्यादय ।' वस्तुत रोग एव लक्षण मे इतना ही अन्तर है-कि लक्षण एक होता है और रोग लक्षणो का समुदाय । यदि लक्षण-समूह को ही व्याधि मान लिया जावे तो भी कोई दोष नही आता। लक्षण-समूह और व्याधि की उपमा समुदाय एव समुदायी, जाति एव व्यक्ति, अवयव एव अयवयी के अन्तर से दी जा सकती है, जैसे कहा जाय 'खदिर वृक्षो का वन' राहु का शिर या शिला-पुत्र का शरीर । यद्यपि इनमे कोई बडा अन्तर नही है फिर भी व्यवहार में इनमे पष्ठी कारक के चिह्न 'का' द्वारा भेद माना जाता है । अत समुदाय से समुदायी को पृथक् मानकर लक्षणो से व्याधि को पृथक् मानना भी उचित है। न्याय दर्शनकार ने अवयवो से पृथक् अवयवी को सिद्ध किया है। और समुदाय तथा समुदायी मे वास्तविक भेद बतलाया है केवल भेद की विवक्षा मात्र नही । सर्वाग्रहणमवयवसिद्धे न्याय दर्शन धारणा कर्पणोपपत्तेश्च । २।१ । ३४, ३५ चरक मे भी उक्ति मिलती हैजिन लक्षणो का उल्लेख किसी विशिष्ट रोग के ज्ञापनार्थ होता है उन्ह उस अवस्था मे लक्षण ही मानना चाहिये जैसे ज्वर रोग भी है, परन्तु कास एव रक्तपित्त आदि के साथ संयुक्त होकर राजयक्ष्मा का एक लक्षण है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ भिपाम-सिद्धि जानार्थ यानि चौतानि व्याधिलिलानि संत्र। व्याधयन्ते तदात्वे तु लिमानोष्टानि नामयाः ।। वस्तुत रोग और लक्षण में बहुत बोटा मानन रोग में ना लक्षण हुआ करते है अर्गत् प्रत्येक रोग अनेक लोमा नारा उस नमूह में 0-2क लक्षण बनेक रोगो में मिल पाता लनणों का नमूर अन्य रोगो में नहीं मिल नाना । आ पसमा मे बहुत-मी व्याधिया है जिनमें एकही क्षण ताकि व्याधियां मानी जाती है। लिङ्गं चैकमनेकस्य नर्थवजन्य लश्यते । बहन्यक्रम्य च व्याधेवेदनात वहनि च।। विपमारम्भ मूलाना लिङ्गक ज्वरी मनः ।। (च) भेद-तप के दो भेद होते हैं-गण (Symptoms ) नित (Signs), लक्षणो को रोगी ने पसर जाना जाता है अन्येि पर प्रत्ययनेय (Subjective) कर्तृत्व-बोयर यहा जाता है। चितों को रोगी के देखने, पर्श करने मादि क्रियाओं में प्रत्यक्ष देगा जाना है। अम्नु उन्हें स्वप्रत्ययजेय ( Objective ) फर्मत्व-बोधक कहा जाता है। रोगी से पूछकर नातव्य लक्षण-भूष, प्यान, वात-मूत्र मल, प्रवृत्ति, श्वास को तथा निन्द्रा की स्थिति आदि । रोगी को देखकर जानने योग्य चिह्न-वस की गति, गोय, वर्णवैपरीत्य, अप्राकृत गति, मल-बाटि का वर्ण, गठन, मृदुत, कांगता, ताप नाडी, गति, हृदय एव फुफ्कुल ध्वनि प्रभृति । उपशय-लक्षण ( Definition of Therapeutic Test or Therapy ) निरुक्ति हेतुव्याधिविपर्यस्तविपर्यस्तार्यकारिणाम् । १ औपधाविहाराणामुपयोग सुखावहम् ।। विद्यादुपशयं व्याधेः। (वा ति १) २ उपशयः पुनः हेतुव्याधिविपरीताना विपरीतार्थकारिणां चौपधाहारविहाराणामुपयोग सुखानुबन्धः इति । (चक्र ) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय ३ साल्यार्थो हपशयः। (चरक नि १) ४. सुखानुवन्धो यो हेतुाधि विपरीतकः । देशादिकञ्चोपशयो योनुपशयोध्यादिन्यथा ॥ (सुदान्त सेन ) ५ तस्मात् 'सम्यक् व्याविजदुःखोपशमहेतुरपशया' 'सात्म्यमुपशयः' 'औषधज नितः सुखानुवन्ध उपशय.' वा इति । (विजयरक्षित) ६ विपर्यस्तोर्थः विपर्यस्तार्थः विपर्यस्तार्थ-कत्त शीलं येपां ते विपर्यस्तार्थकारिणः विपर्यस्ताश्च विपर्यस्तार्थकारिणश्च विपर्यस्त विपर्यस्तार्थकारिणः। हेतुश्च व्याधिश्चहेतुव्याधी। हेतुव्याधिभ्यां विपर्यस्त विपर्यस्तार्थकारिण तेपामुपयोगः सुखावहः । उपगय का निर्दुष्ट लक्षण 'औषधजनितः सुखानुबन्धः उपशयःसक्षेप मे औपव, अन्न, विहार, देश तथा काल आदि से उत्पन्न सुखपरम्परा को उपगय कहते है। परिणाम मे सुखकारक वस्तुओ को ही सुखावह कहा जाता है। तुष्णा एव दाहयुक्त नव-ज्वर के रोगी मे शीतल जल का प्रयोग तत्काल सुखावह प्रतीत होते हुए भी परिणाम मे सुखावह नही होता क्योकि उससे ज्वर का वेग तेज हो जाता है और अन्य उपद्रवो के होने की माशंका रहती है-अस्तु परिणाम मे सम्बकारक न होने से उसको उपशय नही कहेंगे। 'तद्यदने विपमिव परिणामेऽमृतोपमम्' अस्तु, तत्काल मे अप्रिय होने पर भी परिणाम मे अर्थात आगे चलकर जो अमृतवत् सुखकर हो वास्तविक सुखावह उसी को कहते है, उपशय भी यही है। कभी-कभी अपथ्य सेवन से क्षणिक सुख की प्राप्ति होती है । जैसे-दधि का सेवन अम्ल सम, परन्तु सुखकर अनुवन्ध या परम्परा स्थायी नहीं रहती। परिभाषा म अनुवन्ध पद देने का तात्पर्य यह होता है कि जो परिणाम मे सुखदायी हो अपथ्य-सेवन परिणाम मे सुखदायी नही होता है । अस्तु वह उपशय की श्रेणी मे नही आ सकते। वास्तव मे 'विकारो दु खमेव च' दुख या कष्ट ही रोग है उसकी निवृत्ति हा सुख है। लोक मे भी कहा जाता है 'भारापगमे सुखिन सवृत्ता स्म' Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि अर्थात् मिर का भार उतर जाने पर मनुष्य अपने को नुग मानता है । भन्नु दुख निवृत्ति ही सुख का मूल है और इन प्रकार व्याधि-जनित दुपये उचित प्रकार से मान्त करने वाले पदार्यों को ही उपाय कहते है 'सम्यए व्याधिजदु.खोपगमहेतु उपगय ' यह लक्षण भी ठीक है। अथवा चरकोक्त नंक्षिप्त लक्षण 'मात्म्यमुपगय' अर्थात् अनुकूल पदार्थ उपाय है। यह भी कथन ठीक है। अथवा पूर्वोक्त लक्षग 'ओपय जनित सुखानुबन्ध ही उपगय है।' यह कथन भी ठीक है । क्योकि चरक ने बाहार, विहार, आचार, देश, काल, लंघन आदि द्रव्य या अन्धभूत नमन्त पदार्थों को जो रोग के गमन में प्रयुक्त होते है सभी को श्रीपर माना है और इन विविध पदार्थों के उपयोग सुखावह होते है अन्तु, यथा-स्थान ये ननो उपाय की परिभाषा मे आ जाते है। महर्षि चरक के उपगय का वृहद् लक्षण इस प्रकार का है 'उपमयः पुन. हेतुाविधिविपरीताना विपरीतार्यकारिणाम् औपचाहारविहाराणामुपयोग. मुखानुबन्ध ।' इनी सूत्र को वाग्मट जी ने श्लोकबद्ध किया है, जिनका माधव निदान में संग्रह पाया जाता है और उपगर की निरक्ति में व्यवहत होता है । उपाय का व्यवहार दो अर्थो मे पाया जाता है-१ व्याध्युपगम ( Rsoultion of the Disease ) विविध औषधि अन्न-आचार से रोग का उपशम करना, २ तथा उपगयानुपगय परीक्षा ( Theraputic Test) से विशिष्ट रोग का निदान करना । निदानार्थ उपगय का क्षेत्र सीमित है-जैसे आमवात एवं मविवात का विवेक, वातरोग एवं ऊरुस्तम्भ का विभेद, साम एव निरामावस्या का पार्थक्य आदि। परन्तु चिकित्सा के अर्थ मे व्यवहृत होने वाले उपशय का क्षेत्र वहुत वृहत् है । उसके भावान्तर भेदो के हित १८ प्रकार बतलाये गये है। बहुत-से विद्वानो का अभिप्राय यह है कि ये १८ प्रकार की चिकित्सा पद्धतियाँ वतलाई गई है। आयुर्वेद में इन सभी चिकित्सा पद्धतियो का समावेश है और उनके आधार पर की गई चिकित्मा मूत्र के सैकड़ो उदाहरण विद्यमान है। आधुनिक एवं प्राचीन सभी चिकित्सा पद्धतियो का समावेश इन अठारह भेदो मे सहज ही हो जाता है। इनके विविध भेदो का वर्णन नीचे क्रमग मोबाहरण किया जा रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि उपशय का प्रयोग कार्य एव काल भेद से निदानार्थ एव चिकित्सार्थ उभयविध होता है । अज्ञात व्याधि में उपाय व्यावि-जापक तथा व्याधि ज्ञान होने के पश्चात् चिकित्सार्थ प्रयुक्त होता है । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय even - - - विधि मोर अन्न विहार हतु विपरात । सीतज कफज | श्रम तथा वातज दिवास्वाप से उत्पन्न | ज्वर मे मासरस | कफाधिक्य मे ज्वर मे गुठी Chemo. भात रात्रिजागरण Therapy व्याधि विपरीत अतिसार मे स्तंभनार्य मसूर उदावत मे प्रवाहण Symptoma tic Treatment विरुद्ध लक्षण अतिसार के स्तभन के लिये पाठ कुटज, कुष्ठ मे सादेर, प्रमेह मे हरिद्रा उभय विपरीत (३) Radical Treatment स्निग्ध पदार्थों के वातिक शोथ मे / वात कफज ग्रहणी मे तक्र तथा पित्तज | सेवन और दिवा वात एव शोयहर | मे दूध । गीतजन्य स्वाप से उत्पन्न दशमूल वात से उत्पन्न | तन्द्रा में रूक्षरात्रि ज्वर मे पेया जागरण । १५ हेतु विपरीतार्थकारी " पित्तप्रधान प्रतिक फोडे में | वातज उन्माद में फोडे पर उष्ण भय दिखलाना विदाही अन्न उपनाह १३ छदि मे वमन व्याधिविपरीतार्थ | छदि रोग म वमन | अतिसार मे विरे कराने के लिये कागे कारक मदन चनायं क्षीर प्रवाहण फल का प्रयोग १४ PLE १८ मदात्यय में मद | व्यायाम से उत्पन्न उभयविपरीतार्थकारी | अग्नि से जल जाने | कारक मद्य का । पर अगुरुसग । मेवन, परिणाम ऊरु स्तभ मे जल (६) उष्ण पदार्थों का लेप गल मे मटर के में सतरण रूप Homeopathic/ विपजन्य रोग । सत्तू का सेवन । व्यायाम मे जगम । अवरोध जन्य । वात Vaccine & | मोल विप में । कर भुने चने का Iserum therapy जगम विप सेवन Treatment or विप में मील एक - Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ भिपकर्स-सिद्धि यहाँ पर हेतु-व्याधि-विपरीत अन्न एवं विहार जिने स्वभावोपरम भी कहते है-इस प्रकार की चिकित्मा-पद्धति का सिद्धान्त है । आज प्राकृतिक fafficht ( Nature Cure or Naturopathy ) H qrar FIAT है। वैद्यक ग्रन्थो मे पथ्य का अर्थात् आहार-विहार का बहुत वडा महत्त्व है। लोलिम्बराज वैच ने वैद्यजीवन नामक पुस्तक में पथ्य की प्रगंमा करते हुए लिखा है-यदि रोगी केवल पथ्य से रहे तो लोपथि की आवश्यकता नही उसी से अच्छा हो जावेगा। इसके विपरीत यदि अपथ्य से रहे तो भी औषधि की आवश्यकता नहीं क्योकि उसका रोग अच्छा नहीं होगा। इस प्रकार आहार-विहार का ही सबसे अधिक महत्त्व दिया गया है औपधि को अकिचित् कर माना गया है । यही सिद्धान्त आधुनिक प्राकृतिक चिकित्सा का है 'पथ्ये सति गदातस्य किमीपधनिपेवणैः । पथ्येऽसति गदात्तस्य किमीपनिपेवणैः ।।' विपरीतार्थकारी चिकित्सा का सिद्धान्त होमियोपैथी चिकित्सा पद्धति के सिद्धान्तो से समता रखते हैं-जने, 'ममान समान का गामक होता है।' 'विप ही विप का औपव है' ( Semelia Semilliasan curentum) यह सिद्वान्त होमियोपैथी चिकित्मा विद्या का है जो अधिकाग मे विपरीतार्थकारी चिकित्सा का प्रतिपादक है। इस प्रकार आयुर्वेद एक जान है जिसमें वहुविध चिकित्सा पद्धतियाँ मूत्र रूप में वर्णित है। त्रिविध उपशय की कल्पना का प्रयोजन तथा हेतु-विपरीत एवं व्याधि-विपरीत उपक्रमो के भेद हेतु-विपरीत उपक्रमो को दोप-विपरीत या दोपप्रत्यनीक भी कहा जाता है। जैसा कि ऊपर में कहा जा चुका है कि व्याधि एक कार्य है जिसमे हेतु या कारण रूप में, समवायिकारण दोप-प्रकोप, असमवायिकारण दोप-दूज्य सयोग एवं निमित्त कारण के रूप मे मिथ्याहार-विहार हेतु रूप मे आते हैं। अस्तु, हेतुविपरीत चिक्त्सिा का दोप विपरीत चिकित्सा गव्द से प्रयोग होता है। ___ वाप्यचन्द्र का कथन है--ज्वर आदि व्याधियो के दूर करने वाले सम्पूर्ण द्रव्य दोपप्रत्यनीक होते हैं किन्तु दोपत्रत्यनीक बौपधान्नविहार नियमितः व्याम्प्रित्यनीक नहीं होते दोपप्रत्यनीक और व्याधिप्रत्यनीक उपायों में मुख्य वही भेद है। उदाहरणार्थ-वमन एव लंघन कफ दोप का शामक होते हुए भी क्फजगुल्म को नष्ट नहीं करते, प्रत्युत इनका निपेव भी पाया जाता है . कफे लंघनसाध्ये तु कत्तरि ज्वरगुल्मयोः । तुल्येऽपि देशकालादो लंघनं न च सम्मतम् ।। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय न वामयेमिरिकं न गुल्मिनं नचापि पाण्डुदररोगपीडितम् । ( चरक ) ६३ वस्तु, दोपप्रत्यनीक कर्म नियमत व्याविप्रत्यनीक नही होते । परन्तु व्याधिप्रत्यनीक या व्याधिहर औषधान्नविहार नियमतः दोषप्रत्यनीक या दोपहर होते है । ऐसे द्रव्य व्याधि-हर होते हुए व्याधि-जनक दोप का भी शमन करते है । जन्यथा दोप रूप कारण के नाग न होने पर व्याधि रूप कार्य का नाम नही सभव है । यह श्री वाप्यचन्द्र का मत है । अन्य आचार्यों ने इस नत का खण्डन करते हुए कहा है कि रोगोत्पादक हेतु या कारण तीन प्रकार के होते है--१ समवायि, २ असमवायि ३ तथा निमित्त | इनमे केवल समवायि या निमित्त कारण के नाश से ही कार्य के नाश का निर्देश करना ठीक नही है, क्योकि असमवायि कारण के नाश से भी कार्य का नाग होता है । उदाहरण के लिये-घट को ले । इसके असमवायिकारण कपालद्वय सयोग है इसके नाम से घट का नाश हो जाता है । दूसरा उदाहरण पट या वस्त्र का लें इससे अनमवायि कारण तन्तुसयोग होता है--इस सयोग के नाश से पट का नाश मभव रहता है । उसी प्रकार रोगोत्पत्ति मे दोप- दूष्यसयोग अनमवायि कारण है-- इस असमवायि कारण के नाग से रोग का नाश भी मभव है। दोप दृष्य विशेष सयोग को सम्प्राप्ति ( Pathogenesis ) कहते है इसके नष्ट होने से रोग दूर हो जाता है । रहे दोप तो वे रवत या निदानादि के परिवर्जन से दूर हो जाते हैं । 'दोपास्तु स्वतः क्रियान्तरेण वा निवर्त्तते' (मधु ) तात्पर्य यह है कि सम्प्राप्ति की निवृत्ति से रोग की निवृत्ति हो जाती है । अव यहाँ पुन शका होती है कि इस प्रकार के सयोग के विनाश होने पर भी दोप-दुष्टि बनी रहने पर व्याधि की शान्ति कैसे स्थिर रह सकती है ? एतदर्थ चरक की उक्ति प्रमाण रूप में दी जाती है कि 'किसी वस्तु की उत्पत्ति मे कारण की अपेक्षा रहती है विनाश मे नही । फिर भी कुछ विद्वानो के मत से उत्पादक कारणो की निवृत्ति को ही कार्य के नाश का हेतु माना जा सकता है ।" प्रवृत्तिहेतुर्भूताना न निरोधेऽस्ति केचित्त्वत्रापि मन्यन्ते हेतु कारणम् । हेतोरवर्त्तनम् ॥ इसी आधार पर विजयरक्षित जी ने स्पष्ट कहा है 'दोपस्तु स्वत क्रियान्तरेण निवर्त्तते' अर्थात् दोपदृष्टि स्वयमेव या अन्य उपचारो से दूर हो जाती है । इस कथन के अनुसार व्याधि- प्रत्यनीक उपचार दोष - प्रत्यनीक नही होते | और यदि व्यावि-प्रत्यनीक को हो दोप-निवर्तक स्वीकार किया जावे तो Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि हेतु-व्याधि-उभयप्रत्यनीक का पृथक् प्रतिपादन करना दुष्कर हो जायगा । अस्तु, हेतुप्रत्यनीक, व्याधिप्रत्यनीक तथा उभयप्रत्यनोक विविध उपशयो को कल्पना करना आवश्यक हो जाता है । अस्तु समवायि कारण की प्रधानता मे हेतुप्रत्यनोक, असमवायि कारण की प्रधानता मे व्याधिप्रत्यनीक तथा निमित्त कारण की प्रधानता में उभयप्रत्यनीक उपशय की आवश्यकता होती है। यहाँ पर क्षेत्र और वीज ( खेत और वीज ) का उदाहरण देना विपय को अधिक स्पष्ट कर देता है। उदाहरण के लिये क्षय रोग को लें। क्षय ( Tuberculosis ) मे हेतु रूप मे (T B_bascilus) आता हैइसके सक्रमण से क्षय रोग की उत्पत्ति प्राणी मे होती है । कुछ औपधियाँ ऐसी मानी जाती है जिसका असर सीधे क्षय दण्डाणुवो (T B_bascil ) पर होती है जैसे, 'स्ट्रेप्टोमाइसिन, (I N Hएव Pas) इन की बहुलता से प्रयोग हेतुभूत क्षयदण्डाणुवो को नष्ट करता है। कुछ ऐसी भी औपधियाँ क्षयरोग मे व्यवहृत होती है जो शरीर (क्षेत्र ) को सशक्त बनाती है जैसे, पौष्टिक आहार, विश्राम तथा खदिर, स्वर्ण काड लिवर आयल प्रभृति, जीवतिक्ति ए डी युक्त आहार इनके द्वारा शरीर रोगप्रतिरोधक क्षमता ( Bodi resistence ) इतनी वढ जाती है कि वीज या हेतुभूत क्षयदण्डाणु वृद्धि नहीं करते और स्वयमेव नष्ट हो जाते है। इस प्रकार प्रथम वर्ग की चिकित्सा हेतुविपरीत, द्वितीयवर्ग की चिकित्सा व्याधिविपरीत होती है। कई बार इन औषधियो का साथ-साथ उपयोग अधिक लाभप्रद होता है एतदर्थ शरीर की क्षमता बढाने के लिये 'सेनेटोरियम ट्रीटमेण्ट' पौष्टिक, आहार तथा बहुविध विटामिन युक्त औपधियो के साथ-ही-साथ क्षयदण्डाणुनाशक औषधियो की भी व्यवस्था करने का विधान है। इस वर्ग की चिकित्सा पद्धति को हेतु-व्याधि उभयप्रत्यनीक चिकित्सा-विधि कहेगे। इस तरह कही हेतु भी विपरीत, कभी व्याधिपिपरीत और कभी उभयविपरीत चिकित्सा की आवश्यकता पड़ती है। इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन उपर्युक्त सूत्रो मे आचार्यों ने किया है। विपरीतार्थकारी उपशय-कथन-प्रयोजन-अव प्रश्न उठता है कि हेतुप्रत्यनीक चिकित्सा के भीतर विपरीतार्थकारी उपक्रमो का जव समावेश हो जाता है तो उसके पृथक् पाठ करने की क्या आवश्यकता ? जैसे १ श्लेष्मवहुल छर्दि मे वमन का उपयोग । छदिपु वहुदोषासु वमनं हितमुच्यते । वस्तुत हेतुप्रत्यनीक ही चिकित्सा हुई । तो हेतु विपरीतार्थकारी कहना निष्प्रयोजन हुआ। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! 1 द्वितीय अध्याय २. 'प्लुष्टेऽग्निप्रतपनम्, उष्णो गुर्वादिलेपश्च (सु ) अग्निना कोपितं रक्तं भृशं जन्तोः प्रकुप्यति । ततस्तेनैव वेगेन पित्तमस्याप्युदीर्यते ॥ ६५ अर्थात् अग्निदग्ध व्रण मे रक्तसंचार के वढ जाने से पित्तकोप या पाक नही होता अस्तु, अग्निदग्ध मे शीत क्रिया का निषेध और उष्णोपचार को लाभप्रद बतलाया गया है - ---- प्रकृत्या ह्युदकं शीतं स्कन्दयत्याशु शोणितम् । तस्मात् सुखयति ह्युष्णं न तु शीतं कथञ्चन ॥ ( सु ) अस्तु, यहाँ पर भी हेतु व्याधि-विपरीत हो चिकित्सा हुई । फिर विपरीतार्थकारी कहने का क्या प्रयोजन | ३ इसी प्रकार ऊर्ध्वगामी जगम विप मे अधोगामी स्थावरविप का प्रयोग भी हेतुप्रत्यनीक ही होता है । विपं विषन्नमुक्तं यत् प्रभावस्तत्र कारणम् । ऊर्ध्वानुलोमिकं यच्च तत्प्रभाव प्रभावितम् || ४ इसी प्रकार मदात्यय की चिकित्सा मद्यप्रयोग । प्रयुक्त होने वाला मद्य शुद्ध मद्य से नितान्त भिन्न होकर हेतुविपरीत ही होता है । इस मद्य मे नीबू का रस एव चुक्र आदि मिलाकर देने का विधान है - जैसे मद्य १ तोला, नोवू का रस १ तोला और जल १ छटाँक । यदि क्वचित् शुद्ध मद्य का भी मदात्यय में प्रयोग किया जाता है तो वह भी पूर्व पीतमद्य से पूर्णतया विपरीत गुण वाला होता है । जैसे रूक्ष गुण युक्त माध्वीकादि से उत्पन्न मदात्यय मे पिष्ट आदि स्निग्ध द्रव्यो से निर्मित मद्य । यह भी यथार्थ मे हेतु - विपरीत ही होता है । मदात्यय मे मद्य के द्वारा चिकित्सा करने का विधान करते हुए सुश्रुत ने कहा भी है ' जैसे राजाज्ञा से दण्डित व्यक्ति की पुन राजाज्ञा से ही मुक्ति हो सकती है अन्य से नही उसी प्रकार मद्यपान जनित मदात्यय से भी छुटकारा मद्यपान से हो हो सकता है' ? - यथा नरेन्द्रोपहतस्य कस्यचिद् भवेत् प्रसादस्तत एव नान्यतः । ध्रुवं तथा मद्यहतस्य देहिनो भवेत्प्रसादस्तत एव नान्यतः ॥ ५ इसी प्रकार ऊरुस्तंभ चिकित्सा मे जल - प्रतरण भी हेतुप्रत्यनीक ही उपशय है । इसमे 'लिप्त कुम्भकार न्याय' क्रिया होकर जल की शीतता के कारण शरीराग्नि किंचिन्मात्र भी बाहर नही निकलने पाती और अत स्थित देहाग्नि से तप्त होकर पिण्डित कफ और मेद पिघल जाता है-और तैरने का व्यायाम उसको सुखा देता है तथा वायु आवरणरहित हो स्वमार्गगामी हो ५ भि० सि० Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिषम-सिद्धि - - बारी विमाता दूर होकर गेग का दूर होना भी 7 माटरग हा तो विपरीतार्यकारी परे का और वरमे न या प्रयोजन ? लियममार न्याय-मगर अग्नि की लपटी को आवे के अन्दर 7 निमिन बारकपन कर देता है। जिनमे भाण्डFor 7 में बाहर निच जाता है और अत स्थित अग्नि है। जिसम्ममार न्या' कहलाता है। जल मतरण : : 7ग होता है। -- न बीमागत है नचापि इन दोनो बगों में कुछ - प्रमित के लिये ही मास्तकारो ने तदर्थवारी - पाटन-मानिचरा ने भी विपरीतार्यपारी उपाय का 1 1TH मान परम्मत के निर्वाहा भी विपरीतार्यकारी irf Tra,। बात कह है विपरीत नित्मिा 3 निशान दिनी गा-धर्म एव कार्य के होते है, i. शर्म आपतन. कमान प्रतीत होते है जान । मानन्द दोनो पर ही प्रतीत होते हैfreration : । हेपनीने या नमाना प्टि.....: विमान में वही वैषम्य है। बन्नु F में भाग में बरगे चरने वाले . . ' ' गरिमा । उदाहरण के iry in ChutnTAL Cine होने, अनमे पिन . से " . .:: : :ने में लगातानी गगन - ..... :: ने वाले गरे । प्रार vi-si ---- * * *:: * :* :* :* :G+ : roi t. (1), Antants.int tillaps ) मान्यांनि गतः । • " -- For : Aye rur - 7 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय अनुपशय कहलाते है अथवा जिन औषधादि के उपयोग से रोग की वृद्धि हो उनको अनुपराय कहते है। अनुपशय दोप एव रोग दोनो का वर्धक होता है। अनुपशय व्याधि का बोधक होता है या नही ? यदि वह व्याधि विशेप का बोध नहीं कराता तो निदानपंचक मे उसका नामग्रहण निरर्थक है और यदि वोधक हो तो निदान-पचक के पांच की सख्या से अतिरेक हो जाता है अर्थात् निदान के साधन पांच न होकर छ. हो जावेगा। इसका समाधान यह है कि यह रोगनिश्चय का छठां हेतु नही है बल्कि निदान का ही एक भेद है जैसा कि निदान में कहा गया है 'निदानोक्तानुपशय' अर्थात् निदान रूप से कहे गये माहाराचार तथा कालादि द्वारा ही अनुपशय या दु ख होता है। निदानोक्तेन ये उक्ता आहाराचारादयस्तैरनुपशयो दुःखं निदानोक्तानुपशयः। निदान से माम्य होने के कारण उपशय का अन्तर्भाव निदान मे हो हो जाता है। अत अनुपशय को पप्ठ रोगविज्ञानोपाय नही कह सकते । चरक मे भी लिया है 'गूटलिगव्याधिम्पगयानुपशयाच्या परीक्षेत' .गूढलिङ्ग वाले व्याधि की उपगयानुपशय से परीक्षा करे। निदान का भी यही कार्य है। अस्तु अनुपशय का निदान मे हो अन्तर्भाव समझना चाहिये ।। वस्तुन अनुपगय का स्वतन्त्र अस्तित्व नही, उपशय कहने से ही तद् विपरीत अनुपगय शब्द का भी ग्रहण हो जाता है। ये दोनो साथ प्रयोग मे आने वाले शब्द है। जैसे, आमवात रोग के विनिश्चय मे यदि 'सैलिसिलेट' के उपयोग से शमन हुआ तो वह उपशय कहलायेगा, परन्तु यदि विपरीत क्रिया हुई तो वह अनुपशय कहा जावेगा। सम्प्राप्ति-लक्षण ( Desirati on of Pathogeuesis ) निरुक्ति १ यथा दुष्टेन दोपेण यथा चानुविसर्पता। निर्वृत्तिरामयस्यासौ सम्प्राप्तिर्जातिरागति.। (वा नि १) २ सम्प्राप्तिर्जातिरागतिरित्यनर्थान्तरम् । (चर नि १) ३ जन्मापि जानकारणम् अजातस्य ज्ञानाभावात् । । नहि निदानादिबोधकत्वेन ज्ञानकारणत्वं कि बोधविषयत्वेन । (भट्टारहरिचन्द्र ) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपक्कम-सिद्धि ४ जात्यादिभिः शब्देर्या अभिधीयते सा सम्प्राप्तिः । ५. न चास्ति नियमो जातमात्रमेव विज्ञायते अजातस्य व्याधेनिदानपूर्वरूपाभ्यां वृष्ट्यादेरिव मेधादिना जायमानत्वात् । अथ जातमिति जन्मावच्छिन्नमुच्यते । वृष्ट्यादिकं तु भविष्यजन्मावच्छिन्नमेव । यस्य तु कालत्रयेऽपि जन्म नास्ति तन्न बायत एव तथापि न व्याधिजन्मसम्प्राप्तिः । जन्मवदालोकचक्षुरादेरपि वाच्यत्वापत्तेः, तैरपि विना नानाभावात् । ६ तस्मादोपेतिकर्तव्यतोपलक्षितं व्याधिजन्म सम्प्राप्तिः न तु केवलं जन्मेति । ७ दुष्टेन दोपेण आमयस्य रोगन्य निवृत्तिरुत्पत्तिः सा सम्प्राप्तिः । ( मधुकोप } ८ सं+प्राप्तिः सम्यक् प्राप्तिः । (उत्पत्तिक्रम) ९ रोगोत्पादक कुपित दोप की दुष्टि से लेकर रोगोत्पत्ति होने तक गरीर में जितने परिवर्तन होते है वे सब सम्प्राप्ति है । १० शृङ्खलामढग गरीगन्तर्गत वैकारिक परिवर्तन, जिसमे संचय मे लेकर भेद पयन्त रोगजन्म का वर्णन हो, उसे सम्प्राप्ति कहते है। अग्रेजी में इसे ( Pathogenesis ) कहते हैं। उदाहरण जैसे-ज्वर का चरकोक्त निदान। सम्प्राप्ति का निदुष्ट लक्षण-रोग की सम्यक् प्राप्ति ही सम्प्राप्ति है । निदान सेवन के अनन्तर रोगोत्पत्ति होने तक शरीरान्तर्गत जितने परिवर्तन होते है वे सम्प्राप्ति नाम से शास्त्र मे अभिहित है। इसी निमित्त वाग्भट ने इसकी परिभापा या लक्षण इस प्रकार दिया है । 'दोप जिस प्रकार के निदानो से दूपित होकर विसर्पण करता हुआ गरीरगत घातुओ को दूपित कर रोग को उत्पन्न करता है उसे सम्प्राप्ति कहते है। जाति, आगति इसके पर्याय है।' इस प्रकार सुश्रुतोक्त 'संचयं च प्रकोपं च प्रसरं स्थानराश्रयं व्यक्तिभेदच' मे सम्पूर्ण विकार-परम्परा का समावेश सम्प्राप्ति में हो जाती है। अर्थात् निदान सेवन के अनन्तर जिन शृंखला सदृश परिवर्तनो के फलस्वरूप रोग की उत्पत्ति होती है उम सम्पूर्ण परम्परा का वर्णन सम्प्राप्ति में पाया जाता है। इस विषय का ज्ञान रोगविनिश्चय तथा चिक्त्सिा में सहायक होता है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय ८६६ आधुनिक युग की वैज्ञानिक भाषा मे शरीरान्तर्गत वैकारिक परिवर्तन (Pathogenesis) को सम्प्राप्ति कहते है । सम्प्राप्ति-विमर्श का ज्ञान आज के युग मे बहुत विकसित रूप मे प्राप्त होता है । चिकित्सा मे यह एक स्वतत्र विपय के रूप में प्राप्त होता है। इस विषय पर ( Bookson Pathology ) अर्थात् वैकारिकी या विकृति विज्ञान के ऊपर बडी बडी पुस्तको की रचना हो गई है। इसके सामान्य, विशिष्ट नैदानिक, तृणाणवीय, पाराश्रयिक प्रभृति कई भेदो के ऊपर स्वतंत्र पुस्तके पाई जाती है। फलतः यह विकृतिविज्ञान का विपय बहुत बृहत् हो गया है। रोग के प्रधान या सहायभूत प्रधान या सहायक पूर्वरोग, लिङ्ग, आयु, देश काल, जीवाणु या आहारविहार एव तज्जन्य शरीरान्तर्गत परिवर्तनो की सम्पूर्ण परम्परा का सम्प्राप्ति नाम से उल्लेख इस विषय के अतर्गत होता है। आयुर्वेद के ग्रन्थो मे सूत्ररूप मे इस विषय का वर्णन पाया जाता है। इस का लक्षण करते हुए विजयरक्षित जी ने मधुवोष टीका मे लिखा है. दोपो की दुष्टि प्राकृत, वैकृत, अनुवन्ध्य ( प्रधान ) रूप या अनुबधरूप (गीण ), एकदोपदुष्टि, द्विदोपदुष्टि या समस्तदोषदुष्टि भेद से नाना प्रकार की होती है। यह दोपदुष्टि दोपप्रकोपक समस्त या अल्प कारणो से हो सकती है। इस प्रकार प्रवल या स्वल्पवल दूपित दोष के द्वारा रोग की उत्पत्ति होने को सम्प्राप्ति कहते है। ऊर्ध्व-अध -तिर्यक् भेद से दोपो को गति अनेक प्रकार की हो सकती है-दोष शरीर के विभिन्न धातुओ को दूपित करके किसी विशिष्ट धातु या अवयव मे सश्रित होकर रूक्षता, क्षोभ, विलन्नता, मृदुता, सकोच, शोथ आदि एक या अनेक विकारो को पैदा कर सकता है। इन विकारो के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले लक्षण ( Symp Toms ) या लक्षण-समूह (Syndroone ) को रोग कहते है और दोष को दुष्टि से लेकर रोगोत्पत्ति पर्यन्त होने वाले सम्पूर्ण परिवर्तनो को सम्प्राप्ति कहते है । 'दुष्टेन दोपेण या आमयस्य रोगस्य निवृत्तिरुत्पत्तिः सा सम्प्राप्तिः।' पर्यायकथन--शास्त्र मे लक्षण तथा व्यवहार के लिये सम्प्राप्ति के जाति तथा आगति पर्याय पाया जाता है। जाति का अर्थ जन्म और आगति का अर्थ आगमन होता है । 'जनी प्रादुर्भाव' धातु से जाति शब्द बनता है। इसका अर्थ होता है व्याधिजन्म । किसी वस्तु का जन्म उसके ज्ञान मे कारण होता है उसी प्रकार व्याधि का जन्म भी व्याधि के ज्ञान मे कारण होता है। अर्थात Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि व्याधि उसके जन्म के द्वारा जानी जाती है। निदान-पूर्वरूप-स्प-उपगय भी व्याधि का वोव कराते हैं परन्तु सम्प्राप्ति मे भी उनसे भेद है। निदानादि व्याधि के ज्ञापक होते है, परन्तु सम्प्राप्ति ज्ञाप्य अर्थात् ज्ञान का विपय है । जिस प्रकार किसी वस्तु की सत्ता उसके ज्ञान मे कारण है उसी प्रकार व्याधिजन्म अर्थात् रोग की सत्ता उसके ज्ञान में कारण है सत्ता सम्प्राप्ति ही है। बस्तु यह कहें कि व्याधिजन्म ही सम्प्राप्ति है तो कथन ठीक मालूम होता है। __ कुछ आचार्यों का मत इसके विरुद्ध है। उनके क्थनानुसार 'व्याधिजन्म को ही सम्प्राप्ति नही कह सकते' क्योकि ऐसा कहने से सम्प्राप्ति, फिर प्रकाग एव चक्षुरिन्द्रिय के समान ही रोग ज्ञान में सामान्य ज्ञान के रूप मे हो जावेगी। अर्थात् रोग के जानने मे प्रकाश, चक्षु नादि इन्द्रियो का होना परमावश्यक है इसके अतिरिक्त रोगदर्शन के निमित्त व्यवहृत होने वाले विविध साधनो की भी आवश्यकता पड़ती है इन साधनो के समान ही उपाय एक नम्प्राप्ति का भी होगा जिस के द्वारा गेग को जाना जावे । परन्तु चिकित्सा मे प्रकाश, चक्षु तथा रोगदर्शन के साधनो का कोई भी महत्त्व नहीं है, उसी प्रकार सम्प्राप्ति का रोग भी चिकित्मा की दृष्टि से कोई महत्त्व नही रह जावेगा। परिणामस्वरूप सम्प्राप्ति का वर्णन भी अनावश्यक हो जावेगा। क्योकि पच निदान मे तो उन्ही उपागे का कथन अपेक्षित है जिनकी चिकित्सा में उपादेयता हो, निदान-पूर्वरूप-त्पादि अन्य रोग विनानोपायो का रोगनापक होने के माथ-साथ मतिम एव परम प्रयोजन चिकित्सा विगेपही स्वीकार किया गया है । इसके अतिरिक्त यह भी कोई नियम नहीं कि उत्पन्न वस्तु का ही ज्ञान हो क्योकि मेवदर्शन से भावी वर्षा का ज्ञान के समान अनुत्पन्न व्याधि का निदान, पूर्वत्प आदि के द्वारा, जैसा कि ऊपर सिद्ध किया जा चुका है, व्याधि का ज्ञान सभव रहता है। जात का अर्थ जन्मयुक्त मानते हैं, वर्पा भावी होते हुए भी जन्मावच्छिन्न ही है अर्थात् भावी जन्मयुक्त है। इसो निमित्त उसका पूर्वरूपो से ज्ञान करना सभव भी रहता है । जिस वस्तु का त्रिकाल में ( भूत-भविष्य या वर्तमान मे ) जन्म नही होता उसका जानना भी संभव नहीं रहता। इसलिये जन्म भी ज्ञान मे कारण होता है। तव भी व्याविजन्म को सम्प्राप्ति मानना ठीक नही है अन्यथा जन्म के समान चक्षु आदि को भी कारण स्वीकार करना पड़ेगा क्योकि उनके विना भी व्यावि का पूर्ण ज्ञान नही होता है। बस्तु सम्प्राप्ति का लक्षण केवल 'व्याधिजन्म एवं सम्प्राप्ति' इतना ही करना पर्याप्त नहीं होगा प्रत्युत सम्प्राप्ति का निर्दृष्ट लक्षण इस प्रकार करना होगा-'तस्माद् व्याविजनकदोपव्यापारविओपयुक्तव्याधिजन्मेह सम्प्राप्तिरिति Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय ७१ चक्रपाणि - ऐसा मानना न्यायोचित है । अर्थात् व्याधि उत्पादक दोष के विविधव्यापारयुक्त (परिणाम युक्त ) व्याधिजन्म ही सम्प्राप्ति है - ऐसा कहना चाहिये । केवल व्याधिजन्म नही । इसी लिये वाग्भट ने दोपदृष्टि एव उनके परिणामो से युक्त व्याधिजन्म को सम्प्राप्ति वतलाई है जैसा कि निरुक्त के प्रथम श्लोक से स्पष्ट हैं । फलत विशिष्ट प्रकार के व्याधिजन्म को सम्प्राप्ति कहते है - सामान्य व्याधिजन्म की ( नही ) इस प्रकार की सम्प्राप्ति व्याधि की यथार्थ ज्ञापिका होती है उसका व्याधि के रामनार्थ चिकित्सा मे भी वैशिष्ट्य आता है जैसा कि ज्वर की सम्प्राप्ति से आमाशयदृष्टि एव अग्निनाश का ज्ञान होने पर लघन, पाचन, स्वेदन प्रभृति उपचारो की उपयोगिता स्वयम् प्रकट हो जाती है | अव शका होती है कि इस प्रकार की सम्प्राप्ति तो दोषो का अवान्तर व्यापार ही हुई अत दोपो के दुष्टिकथन से ही काम चल सकता है तो फिर अलग से इसके वर्णन का क्या प्रयोजन ? इसका उत्तर यह है कि चिकित्सा विशेष के लिये इसका पृथक् वर्णन अपेक्षित है । जिस प्रकार पूर्वरूप और रूप दोनो मे व्याविज्ञापन में समानता होते हुए भी चिकित्साविशेष के लिये पृथक्-पृथक् पाठ किया गया है । पूर्वरूपावस्था या रूपावस्था की चिकित्सा मे परस्पर भेद होता है | एक ही रोग की पूर्वावस्था मे दी गई चिकित्सा रूपावस्था मे अनुपयुक्त हो सक्ती है उसी प्रकार रूपावस्था की चिकित्सा पूर्वरूपावस्था मे अनुपयोज्य है, इसी प्रकार सम्प्राप्ति का भी चिकित्सा मे अपना वैशिष्ट्य है । ● प्रतिश्याय के पूर्वरूप में अनूर्जताहर औषधियां ( Anti bristamin drugs) उत्तम कार्य करती है - जैसे हरिद्रा और गुड । परन्तु प्रतिश्याय हो जाने पर अर्थात् रूपावस्था मे इनका कोई विशेष महत्त्व नही रहता । इसी प्रकार अन्यत्र भी समझना चाहिये । ज्वरसम्प्राप्ति उदाहरण -- स यदा प्रकुपितः प्रविश्यामाशयमूष्मण: स्थानमूष्मणा सह मिश्रीभूतमाद्यमाहार परिणामधातुं रसनामानमवेत्य रसस्वेदवहानि स्रोतांसि पिधायाग्निमुपहत्य पक्तिस्थानादूष्माणं बहिर्निरस्य केवलशरीरमनुप्रपद्यते तदा ज्वरमभिनिर्वर्त्तयति । ( च नि १ ) यह वातिकज्वर की सभ्प्राप्ति का कथन है, इसी प्रकार पैत्तिकादि ज्वरो की सम्प्राप्ति का भी वर्णन पाया जाता है । आमाशय कफ का स्थान है ज्वरितावस्था मे दोष भी इसमे आश्रित रहते हैं । परिणामस्वरूप पाचक रसो की हानि तथा Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि रस और स्वंदवह स्रोतो में अवरोध उत्पन्न होता है। अतण्य चिरिया में सर्वप्रथम 'म्यानं जयेद्धि पूर्वन्तु नगनन्यस्याविगेरत' इन वचन के अनुसार लंकन कराकर पाचन, एव नोतोवरोध दूर करने के उिये ज्वेदन माति का प्रयोग कराया जाता है। सम्प्राप्तिभेद ( Variaties of pathogenesis ) नंख्याविकल्पप्राधान्यवलकालविणेपन । मा भिद्यते यथात्रंब वन्यतेऽटी ज्वग इनि । दोपाणां समवेनानां विकल्पोऽशांशकल्पना। स्वातन्त्र्यपारन्च्याभ्यां व्याः प्राधान्यमादिशेन। हेत्वादिकाल्यावयववेलाबलविशेषणम् । नक्तंदिनर्तुं मुक्ताशेाधिकालो यथामलम । (वा नि ?) सरवा, विकल्प, प्राधान्य, वर तण काल भेद ने नन्प्राप्ति के पांच वर्ग होते है। उनके क्रमग लक्षण तथा उपभेद नीचे दिये जा रहे है। संख्या-सम्प्राप्ति-रोगो का भेद करके गणना करने के मापन को मस्या कहते है-जैसे 'बष्टी प्वरा पद अनिमारा पञ्च काना. पञ्चम्बामा पञ्च कि विगतिमहा. विगति कृमिजातय.' इत्यादि । इन नल्याओ का तान्त्रिक माहात्म्य है। और सत्याये भी निश्चित रहती है। वेन्ठानुमार इनके उपभेदो की ग्लना नही की जा सकती है। परन्तु आदि नल्या या शास्त्रीय गत्या एक ही रहती है। यह मीमित, निश्चित एव गान्त्र के द्वारा निर्धारित होती है। विकल्प सम्प्राप्ति-व्याधि में मिले हुए दोपो की मगागल्पना । 'समवेताना पुनःपाणामंशाशवलविकल्पोऽस्मिन्नर्थे ।' (च नि १) यटि व्याधि एक्दोपज हो तब तो उस भेदरल्पना की भावग्यकता नहीं रहती, परन्तु व्याधि के ममृष्ट (द्विदोपज या विदोपज ) होने पर दोर के मशागल्पना की मावश्यक्ता उत्पन्न होती है। प्राधान्य-प्रवान या अप्रधान या स्वतत्र या परतत्र भेद से सम्माप्ति भी दो प्रकार की होती है। गेग में रोगोत्पादक दोप की प्रधानता के उपर अथवा न्वतत्रता या परतत्रता के आधार नर-तम भेद मे प्राधान्य या अप्राधान्य सम्प्राप्ति का निर्णय करना होता है। इसी मागय का भाव निम्नलिखित उक्तियो से प्राप्त होता है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय प्राधान्यं पुनर्दोषाणां तरतमाभ्यामुपलभ्यते तत्र द्वयोस्तरस्त्रिषु तम इति । (च नि१ स्वतन्त्रो व्यक्तलिङ्गो यथोक्तसमुत्थानोपशमो भवत्यनुबन्ध्यः, तद् विपरीतलक्षणस्त्वनुवन्धः। ( चरक) अनुवन्ध्यःप्रधानम् अनुवन्धोऽप्रधानम् । ( विजयरक्षित.) इस तरह ज्वर, अतिमार, पाण्डु आदि द्वन्द्वज या त्रिदोषज रोगो मे जिस दोप की प्रधानता होगी, प्राधान्य सम्प्राप्ति भी उसी के नाम से व्यवहृत होगी। चिकित्ला मे उपक्रम का निर्धारण भी उसी के आधार पर किया जावेगा। प्राधान्य के विपरीत अप्राधान्य सम्प्राप्ति होती है। वलसम्प्राप्ति-निदान, पूर्वरुप ओर रूपो की सम्पूर्णता या अल्पता के आधार पर वलावल का ज्ञान जिससे होता है उसे बलरूप सम्प्राप्ति कहते है । अर्थात् हेतु, पूर्वस्प और रूप की अधिकता वाली व्याधि को सवल तथा हेत्वादि की अल्पता रहने से व्याधि को निर्वल समझना चाहिये। कालसम्प्राप्ति-जिस सम्प्राप्ति के द्वारा दोपानुसार रात्रि, दिन, ऋतु एवं भोजन के पाक के साथ ज्याधि को वृद्धि या ह्रास निर्धारण होता है उसे फाल सम्प्राप्ति कहते है। वलकालविशेषःपुनाधीनामृत्वहोरात्रकालविधिविनियतोभवति । (च नि १) अव सम्प्राप्ति के पाँच प्रकारो का विशद वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है संख्यासम्प्राप्ति-विविध दोप एव आगन्तुक कारणो से ज्वर आठ प्रकार का होता है। वात-पित्त-कफ से स्वतत्र तीन, वातपित्त, पित्तकफ एव कफवात से द्वन्द्वज तीन, तीनो से मिश्रित सन्निपातज एक तथा आगन्तुक एक कुल मिलाकर आठ होते है । सन्निपातज ज्वर एक होते हुए वृद्ध दोपो के विचार से सन्निपात के १३ भेद हो जाते है द्वयुल्वणकोल्बणैः पट् स्युहीनमध्यादिकैश्च पट् । समश्चैको विकारास्ते सन्निपातास्त्रयोदश ।। (च सू १७) वात वृद्ध पित्त-कफ वृद्धतर । द्वयुल्वण-र पित्त वृद्ध कफ-वात वृद्धतर। { कफ वृद्ध वात-पित्त वृद्धतर । (वात-पित्त वृद्ध कफ वृद्धतर । एकोल्बण-पित्त-कफ वृद्ध वात वृद्धतर। (कफ-वात वृद्ध पित्त वृद्धतर । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कफ वात वात कफ - - ७४ भिपकर्म-सिद्धि हीन मध्य अधिक वृद्ध वृद्धतर वृद्धतम वात पित्त वात कफ पित्त पित्त कफ पित्त कफ वात पित्त कफ पित्त वात वात पित्त कफ ममवद्ध व कुल इसी प्रकार काम, गोक, भय, नाघात भादि विविध कारणो मे उत्पन्न होने पर भी आगन्तुकता की सामान्यता के कारण भवो का एक ही आगन्तुक के भीतर समावेश हो जाता है । इस प्रकार भेदोपभेद होते हुए भी ज्वर को सख्या एक ही स्थिर अर्थात् आठ ही रहो । संख्या-सम्प्राप्ति कथन का यही प्रयोजन है। विकल्प-संप्राप्ति-समवेत दोपो की अशाग कल्पना को विकल्प कहते है । इम अंगाग कल्पना को समझने के लिये दोप-गुणो का समझना आवश्यक है क्योकि गुणो के ऊपर अगागकल्पना की जाती है । रूमः शीतो लघुः सूक्ष्मश्चलोऽथ विशदः खरः। (वातगुणा ) सस्नेहमुष्णं तीक्ष्णं च द्रवमम्लं सरं कटु । (पित्तगुणा.) गुरुशीनमृदुस्निग्धमधुरस्थिरपिच्छिलाः। (श्लेष्मगुणाः) इन गुणसमूहो के एक, दो, तीन या ममस्त अगो से वातादि के प्रकोप का निश्चय करना ही अगाग-कल्पना है। कितने प्रकोपक गुणो से दोप के कितने अग का कोप हुआ है-इस प्रकार का विकल्प, अगागकल्पना है । द्रव्य एवं उनके रस्मो में दोपो के ही समान गुण रहते है। बत प्रकोपक द्रव्य में जितने प्रकोपक अंग रहते हैं उनसे ही दोप का प्रकोप होता है। कपायरस एवं कलाय-रीक्ष्य, शैत्य, वैशद्य एवं लाघवादि गुणो से वात को सव अंशो में वढाता है। अति या वृद्धतम । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय तण्डुलीयक-रूक्ष, शीत एवं लघु होने से वात का वर्धक है । इक्षु रूक्षता एव शीत गुणो से वात को बढाता है (मध्य ) । सीधु केवल रूक्षता गुण से वात को वटाना है ( होन)। ___कटुरस एवं मद्य मे पित्तवर्धक सभी अश विद्यमान है अत वह पित्त का सर्वाश मे वर्धक है (अति)। हिंगु-कटु तीक्ष्ण एव उष्ण इन तीन गुणो से पित्त का वर्षक होता है (मध्य) । अर्जवायन-उष्णता एवं तीक्ष्णता के गुण से तिल केवल उष्णता के कारण पित्त का वर्धक है ( हीन)। मधुररस एवं माहिपक्षीर सर्वाश मे कफवर्धक होते है ( अति ) । स्नेह, गुरु एव मृदु होने से खिरनी कफप्रकोपक है ( मध्य ) । कसेरु शीत एव गुरु के कारण एव केवल शीत गुण के कारण क्षीरीवृक्षो के फल कफवर्धक होते है (हीन)। काल-वय या आयु-अन्तिम भाग वृद्धावस्था मे वात, मध्यायु मे पित्त एवं आदि बाल्यावस्था मे कफ, दिन के अन्त मे वायु, मध्य मे पित्त एवं प्रारम्भ या प्रात काल मे कफ, रात्रि के अन्त मे वात, मध्य मे पित्त एव प्रारम्भ भाग मे वात, भोजन की परिपक्वावस्था मे वात, पच्यमानावस्था मे पित्त एव साने के साथ कफ की वृद्धि, वसन्त, शरद् और वर्षा ऋतुवो मे क्रमश कफ, पित्त एव वायु का कोप तथा ऋतुसन्धियो मे दोपप्रकोप शास्त्र प्रसिद्ध है ते व्यापिनोऽपि हृन्नाभ्योरधोमध्यो संश्रयाः । वयोऽहोरात्रिभुक्ताना तेऽन्तमध्यादिगाः क्रमात् ।। ऋत्वोरन्त्यादिसप्ताहातुसन्धिरिति स्मृतः। (वाग्भट) संख्याभेद या विधि--'विधिर्नाम द्विविधा व्याधय निजागन्तुभेदेन, विविधास्त्रिदोषभेदेन चतुर्विधा साध्यासाध्यमृदुदारुणभेदेन ।' वाग्भट ने इस विधि का उल्लेख पृथक् नहीं किया है । उन्होने सख्या मे ही विधि का ग्रहण कर लिया है । अस्तु विधि और सख्या मे कोई पार्थक्य नहीं है । शास्त्र मे व्यवहार भी पर्याय नाम से इन दोनो का हुआ है। परन्तु वाप्यचन्द्र जी का कथन है कि नहीं इनमे भेद है 'विधिसख्ययोश्चाय भेद ।' विवि का अर्थ प्रकारभेद या उपभेद है और सख्या का बडे वर्गो या भेदो मे व्यवहार पाया जाता है-जैसे दोषभेद से रक्तपित्त का वातिक; पैत्तिक, श्लैष्मिक, ससर्गज एव त्रिदोप भेद-भेद के वर्गों मे आता है और' विविध रक्तपित्तम् तिर्यगूधिोभेदात्, 'यह अवान्तर भेद विधि के वर्ग मे। सख्याभेद सीमित, निश्चित एव शास्त्र से निर्धारित रहती है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि विधिभेद प्रकारभेद है और भेदविवक्षा के ऊपर आवृत है। रोग में चिकित्मा की दृष्टि से दोनो का कथन अपेक्षित रहता है । ___चक्रपाणि का भी वचन है 'संत्याद्यगृहीते व्याधिप्रकारोऽय विधिगदो वर्तनीयः ।' अर्थात् सख्या आदि मे अन्तर्भाव न होने योग्य व्याधि के विगिष्ट भेदो का नित्पण करने के लिये विधि शब्द का प्रयोग अवश्य करना चाहिये । इस प्रकार वारमट तथा उनके अनुयायी माधवकरने जो संख्या में ही विधि का अन्तर्भाव कर लिया है वह भ्रमपूर्ण है। ऐमा विजयरक्षित को भी अभिमत है क्योकि नैयायिको का भी सिद्धान्त है कि 'मामान्यन धर्मेण परिग्रहो भेनाना यत्र क्रियते स विधि सत्या तु भेदमात्रम् 'अर्थात् जहाँ विभिन्न भेदो का निर्णय समान धर्म से किया जाता है वहाँ विधि गन्द का प्रयोग करना चाहिये । केवल भेद प्रदर्शित करने के लिये मत्या गन्द का प्रयोग करना चाहिये । वैयाकरण लोग भी नत्या और विधि में भेद मानते है । ___'अन्वयवान् प्रकारो निरन्वनो भेद ।' अर्थात् ममान जाति में ही अवान्तर धर्म के सम्बन्ध से भेद का विधि (प्रकार ) एव ममान और मसनान जाति में भेदमात्रमूचक मस्या का प्रयोग होता है। उदाहरणार्थ चार पगु कहने से गाय भैस, वकरी, आदि सब का बोध हो सकता है। अत यहाँ विजातीय होने के कारण, भेदमात्र का ही वोध होता है जिससे केवल सख्या का प्रयोग होता है। परन्तु जहाँ काली एवं श्वेत दो प्रकार की गायें है वहां पर श्वेतत्व और कृष्णत्व भेद ममान जाति में ही किया गया है अत प्रकार या विधि शब्द का प्रयोग होगा। विधि एवं सख्या का भेद नित्पण करते हुए आचार्य श्री गगाधर जी कविराज ने भी लिखा है 'अत्र विविस्तु प्रकार सत्वा तु भेदमात्रम् सजातीयेषु पञ्च ब्राह्मणक्षत्रिया । प्रकारस्तु नजानीयेपु भिन्नेषु धर्मान्तरेण उपपत्ति । तात्पर्य यह है कि विशेषण या धर्मविशिष्ट के आधार पर भेद करने के लिये विधि गन्द का प्रयोग किया जाता है यथा 'निजागन्तुविभागेन रोगास्तु द्विविधा स्मृता ।' यहाँ पर रोग विशेष्य और निजागन्तु विगेपण । यहाँ पर इन दो विगेपणो को ही आधार मानकर रोग का पार्थक्य किया गया है । यहाँ पर विवि गब्द का प्रयोग है । इसी प्रकार यह विधि का ही उदाहरण है। मन्दस्तीक्ष्णोऽथ विपमः समश्चेति चतुर्विधः। कफपित्तानिलाधिक्यात् तत्साम्याजाठरोऽनलः ।। परन्तु जहाँ भेदमात्र बभीष्ट है वहाँ केवल संख्या का ही प्रयोग करते है-जैसे 'पञ्च गुल्मा., सप्त कुणानि' आदि । जहाँ ज्वर आदि को विरोप्य Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय मानकर विशेषणो के द्वारा पृथक्करण किया जाता है वहाँ विवि या प्रकार शब्द का प्रयोग होता है । अत मख्या तथा प्रकार दोनो का उल्लेख करना न्यायोचित है, विधि एव सख्या दोनो को भिन्न मानना ठीक है । यदि दोनो को एक ही मान ले तो व्यवहार मे भी ज्वर के द्विविध, त्रिविध एव अष्टविध का साथ हो उल्लेख करना होगा जो असगत प्रतीत होता है। इसके अतिरिक्त विधिरूप सम्प्राप्ति के परिणाम तथा संख्यारूप सम्प्राप्ति के परिणाम मे भी भेद होता है । जैसे ऊर्ध्वगरक्तपित्त मे अधोमार्ग से दोप के हरण करने से शान्ति मिलती है ऊर्ध्व हरण से नही, उसी प्रकार अधोग रक्तपित्त मे ऊर्ध्व मार्ग से दोपहरण प्रशस्त अधोमार्ग से नही । यह ज्ञान सख्या एव विकल्प सम्प्राप्ति के पृथक्-पृथक् निर्देश करने से ही सम्भव रहता है । ७७ विकल्प या अशाश कल्पना से हो यदि व्याधिभेद करना सम्भव रहता तो फिर सख्यामम्प्राप्ति से पृथक् करण की क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर यह है—कि संख्यासम्प्राप्ति से स्थूल विभेद दोपों का हो जाता है, परन्तु उनके सूक्ष्म अंशाशो का भेद विकल्प से ही करना सम्भव है । अत. मख्या तथा विकल्प दोनो चिकित्सा के उपक्रमो मे अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं । अस्तु दोनो का वर्णन अपेक्षित है । आधुनिक परिभाषाओ की दृष्टि से विचार किया जावे तो सख्या से Main classification of the Diseases tppes or subclassification of the Diseases, Main changs, अप्राधान्य से Secondry changes ( Main or secondary defects ), बल एवं विकल्प से Mode of on sef of the disease o Intesity of Disease or pathogenesis, age Timefactor in diseases आदि का बोध होता है । इस तरह से विचार करने का उद्देश्य ( Exlent of damage in a particular disease ) रोग मे किस सीमा तक किसी विकार मे क्षति हुई है, इस बात की जानकारी हासिल करना होता है । फिर तदनुकूल उपचार की व्यवस्था करना चिकित्सक का अन्तिम लक्ष्य माना जाता है । इस प्रकार सम्प्राप्ति भेदो का कथन निदान एव चिकित्सा की दृष्टि से बडा उपयोगी होता है । उपसंहार रोगोत्पत्ति मे दोष को कारणता १ सर्वेषामेव रोगाणां निदानं कुपिता मलाः । तत्प्रकोपस्य तु प्रोक्तं विविधाहितसेवनम् ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि ७८ २ नास्ति रोगो विना दोपर्यम्मात्तस्माद् विचक्षणः । अनुक्तमपि दोपाणां लिङ्गव्याधिमुपाचरेत् ।। ३. विकारनामाङ्कुशलोन जिहीयात् कदाचन । नहि सर्वविकाराणां नामतोऽस्ति ध्रुवास्थितिः ।। ४. आगन्तुर्हि व्यथापूर्वसमुत्पन्नो जघन्यं वातपित्तश्रेष्मणां वयम्य ___ मापादयति । मभी रोगो का मूल कारण प्रकुपित दोष है। उम दोपप्रकोपक का भी कारण अनेक प्रकार के अहित पदार्थों का सेवन (असाम्येन्द्रियार्थमयोग, प्रजापराध और परिणाम । ही है। अभिवातज भणुजीवो के उपमर्ग ने होने वाले रोग आगन्तुक है-उनमें उत्पत्ति काल में दोपप्रकार यद्यपि कारण नही होता तथापि आगन्तुक कारणो का उपस्थिति के पश्चात् दोपप्रकोप होकर व्याधि की उत्पत्ति होती है लिखा है 'उत्पन्नद्रव्य गुणयोगवन्' अर्थात् मन्त्र उत्पन्न द्रव्य एक क्षण के लिये निगुण एवं क्रिवारहित रहता है तथापि भावी गुण एवं क्रिया की कल्पना से उत्पन्न द्रव्य को भी क्रिया मोर गण मे युक्त मान लिया जाता है। फलत भागन्तुक रोगो में उत्पत्ति के पश्चात दोपसम्बन्ध होता है और वे भी दोपजात हो रोग हो जाते है । इस मसार के यावत् गारीरिक रोगो के मूल टोप ही है। अत मर्वप्रथम उनकी परिभाषा एवं संख्या का ज्ञान कर लेना परमावश्यक है। वातः पित्तं कफयेति त्रयो दोपाः समासनः। विकृताऽविकृता देहं नन्ति ते तपर्यन्ति च ।। (वा० )। दोप-~१ मलिनीकरणान्सलाः । शरीर को मलिन करने के कारण दोपो को मल कहते है।। २ दूपणादोपाः। क्रिया की दृष्टि से शरीर का दूपण ३ देहधारणात् धातवः। करने से दोष और देह का घारण ) करने से ये धातु कहलाते है। लक्षण-'दूपकत्व दोपत्वम्'-गरीर के वातुबो को दूपित करने वाले तत्त्वो को दाप कहा जाता है । यदि ऐसी परिभाषा की जावे तो फिर रस-रक्तादि धातु भी स्वयं दूपित होकर एक दूसरे को दूपित करते हैं, वे भी दोपो की श्रेणी में ही आ जायेंगे-अतः इनकी निवृत्ति के लिये पूर्व परिभापा में कुछ विगेपण जोड़ना आवश्यक है-एतदर्थ 'स्वातन्त्र्येण दूपकत्व दोपत्वम्' इस प्रकार का कथन अधिक समोचीन है अर्थात् जो तत्त्र स्वतंत्रतया शरीरधातुओ के दूपक होवे वे दोप है । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय ७९ कुछ आचार्यों ने पुन इस लक्षण की विप्रतिपत्ति की है। उन्होने कहा कि 'स्वातन्त्र्य' शब्द का क्या तात्पर्य है दोषान्तरनिरपेक्ष ( अन्य दोपो की अपेक्षा न करना ) या हेत्वन्तरनिरपेक्ष ( अन्य कारणो की अपेक्षा न रखते हुए दुष्टि) यदि प्रथम अर्थ लिया जावे तो दोप की कोटि मे केवल वायु ही आवेगा पित्त तथा कफ नहीं क्योकि शास्त्र में उल्लेख मिलता है कि पित्त और कफ पग है केवल वायु ही गतिशील है वही खीचकर कफ एव पित्त को ले जाता और उन से रोगोत्पत्ति कराता है -'पित्त पगु कफ पगु पगवो मलधातवः । वायुना यत्र नीयन्ते तत्र गच्छन्ति मेघवत् ॥' इस प्रकार पित्त एव कफ दोप का वातसापेक्ष्य सिद्ध है। यदि द्वितीय अर्थ लिया जावे अर्थात् हेत्वन्तरनिरपेक्ष दूषकत्व माना जावे तो फिर स्वय वात भी दोपकोटि मे नही आ सकता क्योकि वह भी वातप्रकोपक निदान की अपेक्षा रसता है । अत हेत्वन्तरनिरपेक्ष भी दोष का दूपकत्व नही हो सकता है। अस्तु, अतिव्याप्ति, अव्याप्ति एव असम्भव दोषो से विरहित दोप का लक्षण इस प्रकार से करना होगा 'प्रकृत्यारम्भकत्वे सति दुष्टिकत्तु त्वं दोपत्वम् ।' अर्थात् 'जो तत्त्व प्रकृति के आरभक होते हुए दूष्यो की दुष्टि करते है दे दोप कहलाते है ।' प्रकृत्यारभक दोप ही होते है-चरक का वचन है- दोषो के अनुकूल ही शरीर की प्रकृति का निर्माण होता है। वाग्भट ने भी कहा है कि जन्म के आदि या गर्भ मे शुक्र-गोणित मे प्रकृति का भी समावेश होता है-जैसा कि विपकृमियो का जन्म से विष मे उद्भव होता है । दोषानुशायिता ह्येपादेहप्रकृतिरुच्यते । ( चर) शुक्रावस्थैर्जन्मादौ विषणेव विपक्रिमेः ।। ( वा ) ___ततः सा दोषप्रकृतिरुच्यते मनुष्याणां गर्भादिप्रवृत्ता। तस्माच्छ्लेष्मलाः प्रकृत्या केचित् , पित्तलाः केचित्, वातलाः केचित् , संसृष्टाः केचित्, समधातवः प्रकृत्या केचिद् भवन्ति । (चरक वि ८) इस प्रकार दोपो से पृथक्-पृथक् , द्वन्द्वज तथा सन्निपातज भेद से सप्त प्रकृतियो का उल्लेख शास्त्र में पाया जाता है। दोप एवं प्रकृति में भेद-प्रकृति एव रोग दोनो ही दोपज है। किन्तु दोनो मे अन्तर है। अपथ्य सेवन पर अधिक कष्ट नही पहुँचाती, परन्तु रोग मे अपथ्य सेवन अत्यधिक हानिप्रद होता है। प्रकृति स्वभाव है उससे कोई शरीर को बाधा नही परन्तु रोग विकृति या विकार है उनसे शरीर को कष्ट पहुँचता है । प्रकृति मनुष्य के Temperament बोध होता है Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भियधर्म-सिद्धि वियजातो यथा कीटः सरिपेण विपद्यते । नहन प्रकृतिभिर्दहन्तानलान्न वायते ॥ उन दोर या दृश्य-सुश्रुत ने रक्त को भी दोर माना है-टमका य, नो, ना, जानतगेमोत्ति और निहरण यदि का भी नागिन ही किया है। बावाट, धर्मदा जादि टीकाकारों ने नी कोर किया है। ऐसी मान्या में 'प्रत्यारम्भमन्य' ला के द्वारा रचारन्हो पिया जाता है। चरक तथा वाग्भट ने केवल यानि कथा कही दोष माना है। अब जंग होती है कि रक्त दोष है पाहता मुक्तीन वचन रस का दोषत्व स्वीकार करते हुए पाये जाते . नर्ने देहः कमादति न पित्तान्न च मान्नात् । शोणितादपि वा नित्यं देह एतैस्तु धार्यते ।। अफ बाते जितत्राय पिन शाणिनमेव वा। यदि गति वातस्य क्रियनाणे चिकिलिते ।। यदोन्ट गन्य दोपन्य नत्र कार्य भिपन्जिनम् । व्यांच्यागिनगंगर रक्तपित्तदरी क्रियम् ।। म", निमायान पांचवें साय में नी रन केन्येि दोष गन्द । न नीर जाकर पर रखनी दोर माना जाय :... - उन पर है कि दोरल मुदत यो अभिप्रेत नहीं rrr - प्र में उन्होंने लिखा है-'गतपित्तम्नेमाग माधीमयोनिवि गर्गरमिद घायने - मिरवाच प्रियामाहा।' यहां पर रेवल बात, F., मा गई या नहीं। व्ययामी प्रमा गिमगाटानविनयः मोममर्यानिला यथा। भारमन्नि जगाई कपापिनानिलालथा ।। मेरा नानदानाहान्य मिलता है। *: १६ गती। यदि में गत शनियों का .. .. for: - नतिर उन्ले नही मिन्ना mपोटि में दगा मंगा • E 773, माना जी मना Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय ८१ अपेक्षा इसमे विशेषता यह है कि यह कई वार दोप स्वरूप का भी हो सकता है । अस्तु, इसका अपना विशिष्ट स्थान है। यूनानी वैद्यक में भी रक्त को दोष माना गया है । फिर भी वैद्यक शास्त्र में दोप तीन है— रक्त दोष नही दृष्य ही है । व्रणो मे प्राय शोणितदुष्टि होती है । अस्तु, सुश्रुत ने व्यवहार मात्र के लिये दोपसदृश माना है - सिद्धान्तत दोष नही माना है जैसा कि इस वचन से स्पष्ट है - ' वातपित्तश्लेष्माण एव देहसम्भवहेतव ।' ये दोष कारणापेक्षी है, अहित सेवन से कुपित होकर रोगोत्पत्ति करते है । रोगोत्पत्ति में रोग की कारणता - चरक ने सम्पूर्ण रोगोत्पादक निदान को असात्म्येन्द्रियार्थसयोग, प्रज्ञापराध तथा परिणाम इन तीन विभागो मे बाँटा है । परन्तु रोग भी रोगोत्पादक होते हैं -यथा--- निदानार्थकरो रोगो रोगस्याप्युपजायते । तद्यथा ज्वरसंतापाद्रक्तपित्तमुदीयते ॥ तो क्या रोग को भी निदान मानकर चार वर्ग निदान का करना उचित है ? इसका नकारात्मक उत्तर शास्त्रकारो ने दिया है । शास्त्रकारो का कथन है कि चरकोक्त त्रिविध निदान का विषय सम्पूर्ण रोगसमूह के साथ सम्बद्ध है, परन्तु रोग रूप निदान का विषय विशिष्ट रोग है । सभी रोग से रोग उत्पन्न नही होते । अत चतुर्थ निदान नही मानना चाहिये । इसे अपवाद रूप मे स्वीकार करना चाहिये अथवा रोग से रोगोत्पत्ति का होना भी त्रिविध से अतिरिक्त वस्तु है, ऐसा नही समझना चाहिये क्योकि जब ज्वर आदि व्याधि मे त्रिविध कारणो की अत्यधिकता नही होती तब तक वे रक्तपित्त- सहश रोगो को उत्पन्न नही कर सकते । अत साक्षात् या परम्परया त्रिविध हेतु ही व्याधि की उत्पत्ति में कारण होता है । ये रोगोत्पादक रोग दो प्रकार के होते हैं । कुछ दूसरे रोग को पैदा करके स्वय शान्त हो जाते है उन्हे एकार्थकारी किन्तु कुछ रोगान्तर उत्पन्न करके भी बने रहते है उन्हें उभयार्थकारी कहते है । उदाहरणार्थ यदि प्रतिश्याय कास उत्पन्न करके स्वय शान्त हो जाता है तो वह एकार्थकारी हुआ, परन्तु यदि कास उत्पन्न कर के बना रहता है तो उभयार्यकारी कहेंगे । उभयार्थकारी रोग अत्यन्त कष्टप्रद एव विरुद्धोपक्रम होने से कष्टसाध्य होते है । इनको Sympathetic Diseases के वर्ग मे समझना चाहिये । जैसे श्वास और विचचिका | ६ भि० सि० Page #130 --------------------------------------------------------------------------  Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड प्रथम अध्याय Page #132 --------------------------------------------------------------------------  Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच कर्म आयुर्वेद की चिकित्सा मे पचकर्म का सम्यक् ज्ञान परमावश्यक है । चिकित्सा कर्म मे व्यवहृत होने वाली प्राय सभी उपकर्मों का अंतर्भाव - इन मौलिक पांच कर्मों मे ही हो जाता है । चिकित्सा मे मिलने वाला ऐसा कोई रोग नही है जिनमे किसी न किसी प्रकार चिकित्सा सूत्रो मे इनकी महत्ता न बतलाई गई हो । कायचिकित्सा मे अधिकतर पांच कर्मो का शल्यतत्रीय चिकित्सा मे अष्टविध शस्त्रकर्मो का निश्चित रूप से प्रयोग किया मिलता है । आधुनिक शब्दो मे अग्रेजी शब्द Main Operation के पर्यायवाची रूप मे ही कर्मो की गणना समझनी चाहिए | इनमे पचकर्म [ Five fold main operations in the field of medicin ] का नाम कायचिकित्सा मे तथा अष्टविध शस्त्रकर्म ( Eight fold main operations in the field of surgery ) का भूरिश वर्णन आयुर्वेद की प्राचीन सहिताओ मे पाया जाता है । यह आवश्यक नही है कि प्रत्येक व्याधि मे सभी कर्मो की चिकित्सा करते समय उपयोग करना ही पडे । क्योकि बहुत सी ऐसी व्याधियाँ है जो एक ही कर्म ( विद्रधि मे भेदनमात्र से और आमाजीर्ण में वमनमात्र ) से, कुछ दो कर्मो ( उभयगत रक्तपित्त मे वमन एव विरेचन, तथा अगच्छेदन मे छेदन और सीवन ) से और कई विकारो मे तीन कर्मो [ मूत्रवृद्धि के शस्त्र कर्म मे भेदन, विस्रावण और सीवन से तथा शिरोरोगो मे वमन विरेचन एवं नस्य कर्म ) से, क्वचित् इनसे अधिक कर्मो से साध्य है । अर्थात् चिकित्सा मे कही एक या क्वचित् अनेक कर्मों की अपेक्षा रहती है । 'कर्मणा कचिदेकेन द्वाभ्यां कश्चित् त्रिभिस्तथा । विकारः साध्यते कश्चिच्चतुर्भिरपि कर्मभिः ॥ ( सु सू ) पचकर्मो मे ( १ ) वमन ( Emesis or emetics ) ( २ ) विरेचन [ Purgation or purgatives ] ( ३ ) आस्थापन ( Enemata or clyster ) ( ४ ) अनुवासन ( Nutrient enemata ) तथा ( ५ ) शिरोविरेचन ( Insufflation through nose ) प्रभृति पाच कर्मो का समावेश हो जाता है | अष्टविध शस्त्रकर्मो में ( १ ) छेद (Excision) (२) भेदन ( Incision ) ( ३ ) लेखन (Currattage) ( ४ ) एषण ( Exploration ) ( ५ ) आहरण (Extretion ) ( ६ ) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ भिपकर्म-सिद्धि वेधन ( Puncturing ) (७) विस्रावण ( Blood letting ) तवा (८) सीवन (Suturing ) इन आठ कर्मों का समावेश हो जाता है। इनके अतिरिक्त शल्यचिकित्सा मे और भी चोवीन प्रकार के यन्त्रो के कर्मा का उल्लेख हुया है जिसका विस्तारभय मे उरलेस नहीं दिया जा रहा है। कभी-कभी कायचिकित्सा के क्षेत्र में भी रक्तवित्रावण या गिरावेव कर्म की आवश्यक्ता पड़ती है। जैसे श्लोपद मे, सर्पविप में, नया उच्च रक्तनिपीड मे। ___इन कर्मों का ज्ञात या अज्ञात रूप में नभी चिकित्सक प्रयोग करते है। परन्तु ज्ञात के स्थान पर अनात रूप से ही अधिक त में प्रयोग चलता है। कारण यह है कि रोगी को चिकित्सा करने में दो ही मूलभूत सिद्धान्तो का आश्रय लेना पडता है । (१) संशोवन तथा ( २ ) वगमन । नगोवन कारों मे पचकर्मों के अतिरिक्त कोई दूसरा चारा नहीं है । परन्तु सगमन के विविध साधन है। यदि संगमन क्रिया से ही लाभ हो जाय तो मगोधन के प्रपचो से रक्षा हो जाती है। रोगो से उत्पन्न विषमयता मे सिद्धान्तत विपो के निकालने का उपाय सगोधन द्वारा तथा मनिर्गत शेप विपी की चिकित्सा नंगमन क्रियायो द्वारा करनी चाहिए । सर्वोत्तम चिकित्मा वही है जो दोनो का आश्रय करके चले । आज के युग में मंगोधन का कार्य नाममात्र ही अवशिष्ट है जैसे-प्रकृति से ही स्वत रोगी को वमन या रेचन होने लगे अथवा कुछ साधारण एनीमा दे दी जावे या कुछ रेचक योपवियो का प्रयोग रोगी में कर दिया जावे । वस्तुत. यह इस तरह के कर्म सगोधन न होकर एक प्रकार के संगमन ही होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि आज की वैद्यपरम्परा में एकमात्र संगमन चिकित्सा ही प्रधान अस्त्र शेप रह गया है। आज की चिकित्सकपरम्परा में अधिकतर संशमन के द्वारा ही चिक्त्मिा कर्म प्रचलित है। उदाहरणार्थ मधुमेह के रोगी मे चन्द्रप्रभावटी का प्रारंभ से ही प्रयोग । इसका परिणाम यह हो रहा है कि चिकित्मा पूर्ण नहीं हो पाती है और रोग का मूलोच्छेद भी नहीं हो पाता । प्राचीन युग मे आचार्य मगोधन एव मगमन उभयविध कर्मों के द्वारा चिकित्सा का समर्थन करते थे। जैसा कि निम्निलिखित उक्ति से स्पष्ट है : लघन और पाचन के द्वारा कुपित दोपो का शमन करने से यह संभव है कि वे समय पाकर पुन कुपित हो जावे, परन्तु सगोवन के द्वारा दोपो को निकाल कर जिस रोग का गमन किया जाता है, उनसे दोपो के पुन उभडने की संभावना नही रह जाती है। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय दोपाः कदाचित् कुप्यन्ति जिता लङ्घनपाचनैः। ये तु संशोधनैः शुद्धा न तेपां पुनरुद्भवः॥ जहाँ पर रसायन और वाजीकरण औपधियो के द्वारा शरीर का नवी-करण सभव रहता है वहां पर भी शोधन की आवश्यकता रहती है । जैसे मैले कपडे के रँगने से रग नही चढता किन्तु साफ कपडा शीघ्रता से रग ग्रहण कर लेता है। इसी तरह अविशुद्ध शरीर मे औपवियो का गुण भी प्रकट नही होता, उसके लिए शुद्ध शरीर की अपेक्षा होती है। अविशुद्धे शरीरे हि युक्तो रासायनो विधिः। । वाजीकरो वा मलिने वस्त्रे रङ्ग इवाफल.॥ इन पचकर्मों का उपयोग केवल चिकित्सा के क्षेत्र तक ही सीमित नही है । रोगो के निवारण ( Profilaxis ) मे भी इसका मूल्य कम नही हैं । विभिन्न ऋतुओ मे होने वाली व्याधियो के प्रतिकार मे भी इस शोधन कर्म का मूल्य अक्षुण्ण है । हेमन्त ऋतु के दोषसचय को वसन्त के प्रारम्भ से शोधन के द्वारा निकाल देने से वसन्त ऋतु मे होने वाली श्लेष्मपत्तिक व्याधियाँ जैसी ( Small-Pox Pneumnonia. Bronchitis etc ) facu À नही होती । ग्रीष्म ऋतु के सचित हुए दोपो को वर्षों के आरम्भ मे पचकर्मो के शोधन द्वारा निकाल देने पर वातिक रोग जैसे ( Gout Goity Arthritis Rheumatism etc. ) जो प्राय वर्षा ऋतु मे देखे जाते है, भविष्य मे प्राय नही होते। इसी प्रकार वर्षा ऋतु के सचित दोपो को जो भविष्य मे शरद् ऋतु मे पैत्तिक रोगो को जैसे ( Malaria Hyper pyreyio etc ) पैदा करते है। वर्षा के बाद शरद् ऋतु प्रारभ मे शोधन के द्वारा निकाल दिए जाने पर समाज को उस रोग से मुक्त किया जा सकता है । 'हैमन्तिक दोपचय वसन्ते प्रवाहयन प्रैष्मिकमभ्रकाले । घनात्यये वार्षिकमाशु सम्यक् प्राप्नोति रोगानृतुजान्न जातु ।' चरक शास्त्र इतना ही नही कई बार धातुओ के दूपित होने पर सशमन औपधियो के विधिवत् उपयोग के भी वावजूद रोग नही पिण्ड छोडता। वहाँ पर एकमात्र शोधन कर्म ही उपचार रूप मे शेप रहता है । ___उपर्युक्त विचार को समक्ष रखते हुए शोधन कर्म की उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है। चिकित्सा की दृष्टि से ( Curative ) अथवा अनागतवाधाप्रतिपेध ( Profilaxis) की दृष्टि से दोनो तरह से इसकी उपादेयता स्वत सिद्ध है। सशोवन से पचकर्म के ही ५ विविध अगो का ग्रहण काय Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Co गिना चाहिए। न मे यह गोधन या पंचकर्म उतना होते हुए भी आज की वैवपरम्परा में सुप्तप्राय है । चरक महिना में गए उपदान ही मिट्टिस्थान नामक पाया जाता है। निस्याना उद्देश्य हो 'वमन विरेचन प्रभृति पचवर्मा के सम्पर् प्रवेग का ज्ञान था न कर्मों से उत्पन्न व्यापदी ( Compl1cation) मुनि उपचारका वताना ही है । उस स्थान के जान व्यक्ति में दल बन जाता है । अगर दूसरी दृष्टि ने यह एरिया है। चिकित्सा प्रभृति अन्य मेनिया में प्राप्त करने के जोवध कर्म बतलाए गए सेक्स पर कार ने करने से हो मिद्धि भव है। इन लिये कम नहेतुको सफल बनाने के हेतु निहि या गया है। थियाय पठन-पाठन के अतिरिक्त और प्रयाग - चिमणीय है। बहुत कुछ उनकी औपनियाँ ( Diugs), गीत/ Administrations ), मानाएँ ( Dosage ), *न ( Iut:mentations ) प्रभृति बाने अतीत के गर्न मे f:--- ( Obolte ) हो गई है। प्रान स्मरणीय पूज्य स्वर्गीय श्री बार श्री शनाया हिन्दू विश्व नायने एवं विपिन मेन ***** $5 * **** • भिपक्रम-सिद्धि मीनार भाग से प्रतियाओं से कोठी है, परंतु प्रताप Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय : - जाएगी। इस स्थान पर नामोल्लेख मात्र ही पर्याप्त है। स्नेहन और स्वेदन प्रत्येक पचकर्म के पूर्व मे आवश्यक होता है। जैसे - स्नेहन स्वेदन तत वमन प्रथम कर्म पुन , , विरेचन द्वितीय कर्म अनुवासन तृतीय कर्म आस्थापन चतुर्थ कर्म , शिरोविरेचन पचम कर्म वमन-विरेचन--विधिपूर्वक स्निग्ये और स्विन्न रोगी के वमन या विरेचन के द्वारा शोधन करे । वमन और विरेचन कर्म के द्वारा की गई शुद्धि तीन प्रकार की हो सकती है । हीन शोधन, मध्यम शोधन तथा श्रेष्ठ या उत्तम गोधन। इन शोधनो का मापन चार प्रकार से किया जाता है--आन्तिकी (अन्त का विचार करते हुए), वेगिकी (कै और दस्त की संख्या के आधार पर), मानिकी ( परिमाण-तौल के अनुसार ) तथा लैडिकी ( लक्षणो के आधार पर)। जमा कि नीचे के कोष्ठक मे स्पष्ट किया जा रहा है। परिमाण के मापने मे यह ध्यान मे रखे कि वमन मे मिलाई गई औपधि की मात्रा को छोडकर तथा विरेचन में दो तीन वेगो की मात्रा को छोडकर शेष निकले द्रव्य का मापन करे। जघन्य (हीन) प्रवर या उत्तम वमन वेगो की सख्य २० विरेचन २ प्रस्थ परिणाम से ४ प्रस्थ विरेचन पित्तान्तमिष्ट । कफान्तञ्च वमन वमनम् विरेकमाहु अन्त के विचार पित्त मे निर्गम की कफ के निर्गम की विरेचन मात्रा के ऊपर मात्रा के ऊपर लक्षणो के | अतियोग, हीनयोग के लक्षणो को आगे देखे । आधार पर । मध्य ८ १ प्रस्थ प्रस्य वमन २ प्रस्थ ३प्रस्थ १ तान्युपस्थितदोषाणा स्नेहस्वेदोपपादनै । पञ्चकर्माणि कुर्वीत मात्रा कालौ विचारयन् ॥' (च सू २) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकम-सिद्धि संसर्जन क्रम वमन या विरेचन करने के अनन्नार गेगी 1 पग-पानी एक वटा धका लगता है जिससे उसकी अग्नि गन्न हो जाती है, गर्म पचाने की गति पूर्ववत् नती रह जाती है। सतावममा पचनार मना रोगी को उसके प्रकृत माहार ( Narmal diet ) पानी देना नारि। वरिक धीरे-धीरे पेया, विलेपी मादि हरके गुणान्य और मद्रव मागे द्वारा क्रमश रोगी के अग्नि को जागृत करते हए भोग पदाको सामान अधिक-अधिका द्रव के स्थान पर ठोस करते हए युट तो मे गेगी डिग प्राकृतिक आहार एप माना पर ले आना चाहिए। नमामिला जााचन और अन्तराग्नि के परिपालन को ध्यान में रखते ऋमित नियुक्त अन्न के क्रम या पथ्यसेवन की विधि को नगर्जन क्रम करते हैं। दमन या विरेचन कर्म के अनन्तर इस क्रम का निश्चित रूप में अनुष्ठान करना चाहिए। पेया-विलेपी-अकृत्यूप-कृतयूप-मकृतमानरम तथा पृतमार, 7 रह छ प्रकार के क्रमश दिए जाने वाले पयो का निर्देश है। उनमें अदित की शोधन की कोटि के ऊपर तीन, दो या एक अन्नकाल ( Diet ) तब एक एक पय्य की व्यवस्था करते हुए क्रमश पेया (मण्डयुक्त चावल का गीला भात) तत विलेपी ( मण्डरहित चावल का भात) पश्चात् अकृत-यूप (बिना घीनमक-कटुपदार्य के बनाए किसी तरकारी के यूप या दाल ) तदनन्तर कृत-यूप (घी-नमक और कटुपदार्थो से युक्त तरकारी के या दाल के यूए) अथवा मानरसो का यूप ( अकृत ) पुन कृत (घी नमक एव कटु रस द्रवयुक्त मागरम ) रूप का तीन, दो या एक काल तक देते हुए रोगी को प्रकृत आहार या पय्य पर ले भाना चाहिए। यदि गोधन उत्तम हुआ है तो तीन-तीन अन्नकाल तक, यदि मध्यम हुआ है तो दो-दो अन्न काल तक और यदि मामूली या हीन हुआ हो तो एक-एक अन्नकाल तक इन पथ्यो पर एकैकश रखते हुए रोगी को प्रकृत आहार | Normal diet ) पर ले आने का विधान है। इसी को ससर्जन क्रम कहा जाता है। इस प्रकार लगभग एक सप्ताह या बारह अन्नकाल के बाद रोगी अपने स्वाभाविक आहार पर आता है । पेया विलेपीमकृतं कृतञ्च यूप रमं विद्विरथंकशश्च । क्रमेण सेवेत विशुद्धकायः प्रधानमध्यावरशुद्धिशुद्धः।। (च सि ) सिक्थकै रहिता मण्डः पेया सिक्थसमन्विता । यवागूर्वहुसिक्था स्याद् विलेपी विरलद्रवा ।। (परिभापा) Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय अस्नेहलवणं सर्वमकृतं कटुकैविना । विजेयं लवणस्नेहकटुकैः संस्कृत कृतम् ।। (सूद शास्त्र चक्रपाणि की टीका मे ) पञ्चकर्मों का अवान्तर काल-पचकर्मों का कितने कितने दिनो के अन्तर से प्रयोग किया जाय यह एक ज्ञातन्य विपय है। शोधन की कोटि के अनुमार उममै विभिन्नता होती है। फिर भी एक उत्तम कोटि के शोवन का दृष्टान्त देते हुए उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है। १ स्नेहन-तीन-~पाँच-सात दिनो तक करे। २ स्वेदन-दिनो मे उमको मख्या नहीं दी जा सकती। केवल लक्षणो के आधार पर जब शीत और शूल शान्त हो जावे, स्तम्भ और गुरुता जाती रहे और मृदुता उत्पन्न हो जाय तो स्वेदन से विश्राम करे। ३ वमन के लगभग आठ दिनो के अनन्तर नवे दिन-विरेचन के लगभग ८ दिनो के बाद अर्थात अनुवासन को नवे दिन दे । पश्चात अनुवासन के तीसरे दिन आस्थापन के अनन्तर पुन उसी दिन शाम को रात मे या दूसरे दिन पुनः अनुवासन । तदनन्तर विशुद्ध देह का शिरोविरेचन करे । ४ वमन या विरेचन के अनन्तर सात दिनो तक ससर्जन क्रम का आहार चलता रहे, आँठवे दिन उसे प्रकृत आहार दे। फिर नवें दिन एक नए कर्म आस्थापन का प्रारम्भ करे। इस प्रकार वमन कराने के नवे दिन स्नेहन करने के पश्चात् विरेचन करावे । पुन विरेचर कर्म के द्वारा शोधित होने पर सात दिनो तक ससर्जन, आंठवे दिन प्रकृत आहार और नवे दिन अनुवासन कराना चाहिये। 'शोधनानन्तरं नवमेऽह्नि स्नेहपानम् अनुवासनं वा।' 'विरेचनात् सप्तराने गते जातबलाय वै। कृतान्नायानुवास्याय सम्यग् देयोऽनुवासनः।' (सु चि ३७) विरेचन के अनन्तर कम से कम एक सप्ताह तक रोगी की आस्थापन नही कराना चाहिए । क्योकि इससे रोग वल की हानि होती है अत अनुवासन दे । अनुवासन के अनन्तर अब ससर्जनादि क्रमो की आवश्यकता नही रहती है। अत नातिबुभुक्षित ( जो अत्यधिक क्षुधित न हो) रोगी को तैल का अभ्यग करा के उसे तीसरे दिन आस्थापन देना चाहिए। पुन आस्थापन द्रव्य के निकल आने पर रोगी को जागल मासरस के साथ भोजन देना चाहिए। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि रोगी के दोप और बल मादि का विचार करते हुए इन भोजन की व्यवस्था करनी चाहिए। मास्थापन के मनन्तर पुन अनुवामन देने की विधि है। जिस दिन अनुवामन दिया गया है उनी दिन शाम को या गत में या बयाबल का नान करते हुए दूसरे दिन मनुवामन दें। पूर्वोक्त प्रकार से जुद्ध गरीर वाले व्यक्ति को एक सप्ताह के अनन्तर गिरो. विरेचन कराना चाहिए। इसमे भी रोगी के सिर पर प्रचुर नल का अन्धग करा के हाथ के तलवे मेंक कर (नल स्बेद ) पश्चात् मल की तीन प्रकार की अवस्थामओ का विचार करते हुए तीन, दो या एक दिन तक निगेविरेचन देना चाहिए । पश्चात् पञ्च का प्रबन्ध वन्ति मे बनलाई विधि के अनुसार द्विगुण काल तक रखना चाहिए। आचार्य मुगुन ने एक अपना स्वतन्त्र ही मत अवान्तर काल (gap) के सम्बन्ध में दिया है। उनके मतानुसार भली प्रकार में वमन देने के पन्द्रह दिन पीछे विरेचन देना चाहिए । विरेचन के सात दिनों के बाद निरहण देना चाहिए बीर निम्हण के तुरन्त पीछे अनुवासन देना चाहिए। पक्षाद्विरेको बातम्य ततश्चापि निरहणम् । लद्यो निरूढोऽनुवास्य सप्तरात्राहिरेचितः।। (मु चि ३६) पंचकर्म का निपेध-प्रचण्ड, माहमिक, कृतघ्न, भीर, व्यग्र, नवंद्यपी, राज पो, मवैद्यहिष्ट, राजटिष्ट, गोकपीडित, नास्तिक, ममूर्प (मरने की इच्छा वाला ), माधनहीन, व्यक्ति, शत्रुवैद्यविदग्ध, श्रद्धाहीन, शकावान् व्यक्ति, वैद्य के वश में न रहने वाले, इन व्यक्तियों में पचकर्म का अनुष्ठान नही करना चाहिए। गेप अन्य व्यक्तियों में उनकी अवस्था आदि का विचार करके पचकर्म करना चाहिए। उष्ण जल-उप्ण जल-स्नेह और अजीर्ण का पाचन करता है, क्फ का भेदन करता है और वायु का अनुलोमन करता है। इसीलिए वमन, विरेचन, निल्ह और मनुवामन मे बात और कफ की गान्ति के लिए सदैव उण जल ही पिलाना चाहिए। स्नेह ( oils & fats )-पुरुप के लिये स्नेह एक नितान्त उपयोगी द्रव्य है। इमीलिये पुन्प को स्नेह-सार कहा गया है। पुरुपो की प्राण-रक्षा का मुख्य माघार ( in order to maintain the vitality ) है । उनको बहुत मी व्याधियाँ केवल स्नेह के उपयोग मे साध्य है। स्नेह माधारणतया गुरु, शीत, मर, स्निग्ध, मन्द, सूक्ष्म, मृदु, एवं द्रव गुण वाले होते है । स्नेह एक Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय ह३ सामान्य सज्ञा है जिसके भीतर सभी प्रकार की वतुओ का अन्तर्भाव ( oils, fate, lubricants ) हो जाता है । स्नेहमे कई महत्त्व के गुण है - १ भोजन सामग्री ( rich & concentrated food value ), २ जीवतिक्ति ए डी की प्राप्ति ( admin - istration of vlt A D ) ३ शरीर का बृहण ( strenSth, vigourtonic ) ४ औपसर्गिक व्याधियो से शारीरिक क्षमता बढाकर शरीर की रक्षा ( to & promote boflily resistance ) ५ प्राण रक्षा का आधार ( vitafity ) १ इन्ही गुणो के कारण पुरुप को स्नेह-सार कहा गया है । प्रकार-स्नेह उद्भवभेद से दो प्रकार के होते है । ( क ) जगम ( चर ), (ख) स्थावर ( अचर ) | जंगम ( animal source ) श्रेणी के स्नेहो मे घृत ( clarified butter ), वसा ( fat ), मज्जा ( अस्थियो के अन्तस्थ भेद-dhne marrow ) प्रभृति का समावेश है । इसी वर्ग मे आधुनिक अतिप्रचलित स्नेह जैसे ( Ccd, Halibut and Shark livei oils ) जो मत्स्यो के यकृत् की वसा से प्राप्त होते है इनका भी - अन्तर्भाव हो सकता है । आचार्य सुश्रुत ने भी लिखा है 'जगम प्राणियो जैसे मत्स्य - पशु-पक्षियो से उत्पन्न दधि, क्षीर, घृत, मास, वसा और मज्जा भी ' स्नेहो मे आती है । ये स्नेह आज कल बहुत प्रचलित है । उन्हे प्राचीन पारिभाषिक शब्दो मे अच्छ-स्नेह की सजा दी जा सकती है । 1 घृत (Ghee) - प्राचीनो के अनुसार जगम सृष्टि से उत्पन्न स्नेहो मे सर्वोपरि घृत माना जाता है, घृतो मे भी गोघृत । घृत को सर्वोत्तम स्नेह मानने मे कई उपपत्तियाँ दी जाती है -- १ यह गुण मे अन्य स्नेहो की अपेक्षा अधिक मधुर और अविदाही होता है । २ पित्त का शामक होता है । ३ संस्कार का प्रभाव जैसा घृत के ऊपर पडता है ऊपर नही पडता । यह सस्कारानुवर्त्तन अर्थात् सस्कारो के गुण सबसे अधिक घृत मे पाया जाता है । अत घृत सर्वोत्तम स्नेह है । * वैसा अन्य स्नेहो के अङ्गीकार करने का १ 'स्नेहसारोऽय पुरुप, प्राणाश्च स्नेहभूयिष्ठा स्नेहसाध्याश्च भवन्ति ।' 'दीप्तान्तराग्नि परिशुद्धकोष्ट प्रत्यग्रधातु बलवर्णयुक्त । दृढेन्द्रियो मन्दजर शतायु स्नेहोपसेवी पुरुपो भवेत्तु ॥' ( सुचि ३१ ) * घृत का यह गुण उसमे अधिक मात्राओ मे असतृप्त ( unsaturated fatty acid ) के कारण होता है जिससे वह अधिक से अधिक मात्रा मे औषधि के तत्त्वो का शोषण करने में समर्थ रहता है । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि ४ यह अन्य स्नेहो की अपेक्षा हल्का या लघु होता है। घृत से गुरु ( भारी ) तैल, तैल से गुरु वसा, वसा से गुरु मज्जा होती है। इस वर्ग के स्नेहो का वाह्य तथा आभ्यतर दोनो प्रकार के उपयोग होते है । घृत के साथ ही साथ नवनीत ( दूध या दही के विलोने से उत्पन्न मवचन । का विचार कर लेना आवश्यक है। वास्तव मे इन्ही का त्पान्तर घृत है। इसी घृत का ओपधि-प्रयोग अधिक होता है। घृत का मंरक्षण अधिक काल तक हो सकता है मक्खन का उतने काल तक नही । अस्तु घ त ही प्रधान है। तैल-स्थावर सृष्टि से उत्पन्न स्नेहो ( vegetable source ) मे तैल आते हैं। तैल गब्द की व्युत्पत्ति है 'तिलोद्भव तैलम्' तिल से उत्पन्न वस्तु । यही कारण है कि तिल-तैल को ही सर्वोत्तम तेल माना गया है । इतना ही नही, प्राचीन ग्रन्थो में प्राय जितने सस्कारित तैलो ( medicated oils ) के पाठ मिलते है (कुछ इने गिने तैलो को छोड कर ) उनके निर्माण में तिल तेल का ही प्रयोग हुआ है। जैने नारायण तेल, मापतैल, वला तेल आदि । इसी प्रकार किमी तेल के पाठ मे यदि किसी विशेष तैल का कथन न हुआ हो तो तिल-तैल का ही व्यवहार अपेक्षित रहता है । बलवर्द्धन और स्नेहन की दृष्टि से सर्वदा तिल तेल का व्यवहार करें। इस वलवर्धन का हेतु आधुनिक विज्ञान के गब्दो में विटामिन ए और डी की विगेपता के कारण है। अन्य तैलो की अपेक्षा ये विटामिन्स इसमे अधिक मात्रा मे रहते हैं। ___ तैल द्रव्यभेद से अनेक प्रकार के हो सकते हैं। जैसे एरण्ड तल, मर्पप तेल, वरें का तेल और महुए का तैल आदि । इस प्रकार वानस्पतिक द्रव्यो के भेद से सत्तर प्रकार के विभिन्न तैलो का उदाहरण सुश्रुत सहिता मे पाया जाता है । और भी अनेक प्रकार के हो सकते है। इनमे अधिकतर तैल फल या वीजो की मज्जा से तैयार होते है । कुछ सीधे पौधे की छाल या लकडी से भी निकाले जाते है जैसे चीर, देवदारु, अगुरु, चदन, गीगम आदि । इन्हे essential oils कहते है। इनके अतिरिक्त एक चौथा वर्ग मोम ( vax ) का है ये monohydric alcohol के easters होते है । स्थावर मृष्टि से निकले तैलो मे कुछ का वाह्य उपयोग, कुछ का बाह्य तथा आभ्यन्तर दोनो प्रकार से उपयोग होता है। फिर भी तैलो का मुख से न प्रयोग करके बाहरी अभ्यङ्ग के रूप में ही उपयोग अधिक लाभप्रद माना गया है। उक्ति भी मिलती है 'घृत से तैल दसगुने लाभप्रद है खाने से नही, मालिश से।' Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय ६५ विशुद्ध रासायनिक दृष्टि से विचार-जितने भी स्नेह है चाहे वे वानस्पतिक हो या जान्तव, वे सभी उच्च कोटि के वसाम्ल के माधुरी है (glycerides of high fatty acids ) इनमे प्राङ्गार के अणु ( carbon atoms ) पाये जाते है । वानस्पतिक स्नेहो मे निम्न प्रकार के माधरी (glycerides ) पाये जाते है परन्तु जान्तव स्नेहो मे घत, वसा, मज्जा मे सामान्य माधुरी ( simple glycerides ) प्रधानतया या प्रधान रूप से मिलते है । वसा तथा तैल मे कोई विशेष अन्तर नही है वसा अपेक्षाकृत कडी होती है और २०° पर आमतौर से पिघलती है। तैलो मे २०°c से नीचे तापक्रम मे हो पिघलने का गुण होता है। इस आधार पर भारतीय नारिकेल तेल ग्रीष्म ऋतु मे तो तैल रहता है परन्तु शीतऋतु मे वसा का रूप धारण कर लेता है। महास्नेह-स्थावर और जगम सृष्टि ( animal, vegetabel kingdom) से उत्पन्न तैल और घृत, वसा और मज्जा के मिश्रणो के मुख से प्रयोग की भी परिपाटी है। इन मिश्रणो की कई सज्ञाये प्रचलित है। जैसे दो स्नेहो के मिलने से यमक, तीन स्नेहो के मिलने से त्रिवृत तथा चार स्नेहो के मिश्रण से महास्नेह कहा जाता है। वनस्पति घत-स्थावर सृष्टि के तैलो से आज के वैज्ञानिक युग मे एक प्रकार का कृत्रिम घृत वहुत प्रचलित हो रहा है, जिसे वनस्पति घृत कहते है। इनके कई नामो ( जैसे दालदा, वनसदा, कोटोजम आदि ) से विज्ञापन और प्रचार वटता जा रहा है। ये देखने मे तो घृतसदृश परन्तु सेवन के अनन्तर तैलसदृश गुण के होते है। प्राचीन परिभापा के अनुसार इनको तैल के वर्ग में रखा जाय या घृत के, यह एक समस्या है। लोकव्यवहार मे तो यह घृत का स्थानापन्न पदार्थ ही माना जाता है। वास्तव मे इन कृत्रिम घृतो का आरभक द्रव्य वानस्पतिक तैल है अस्तु ये एक प्रकार से विशोधित और जमाये हए तैल ही है। धृत की समानता गुणो के विचार से ये नही प्राप्त कर सकते है। कारण यह है कि १ प्राचीन ग्रन्थो के आधार पर घृत को सर्वोत्तम स्नेह माना गया है, परन्तु यह हीन है क्योकि कृत्रिम घृतो से श्रेष्ठ भी घृत मिल सकते है, २ अन्य स्नेहो की अपेक्षा अधिक मधुर और अविदाही होना घृत का विशेष गुण है, परन्तु वनस्पति घृत विदाही होते है, ३ सस्कारनुवर्त्तन मे अर्थात् औषवियो को डालकर पकाने से उन औषधियो के गुणो का ग्रहण करना भी इन कृत्रिम घृतो मे शुद्ध घृत के सदृश नही होता, ४ शुद्ध घृत पित्त का शमन करता है, परन्तु कृत्रिम घृतो से इसके विपरीत पित्त की वृद्धि होती है, Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि ५ शुद्ध घृत अन्य स्नेहो को अपेत्रा हल्का होता है; परन्तु यह भारी। अतएव वृतपाकक्रिया के लिए घृत के अभाव में इन घृतो ( वनस्पति ) का ग्रहण सर्वथा हेय है। वनस्पति घृत, तैल और घृत के मध्य का द्रव्य है। रासायनिक क्रियाओं के द्वारा इनके मेद ( fat ) तत्त्व को इस रूप में परिवत्तित कर देते हैं कि वह घृत का स्वरूप धारण कर सके । प्राकृतिक घृत मे मेद असतृप्त (unsatuoated ) दशा मे रहता है। शुद्ध घृत मे कुछ जीवतिक्ति (vft A) पाया जाता है जिनका कृत्रिम घृतो में अभाव रहता है, उसकी पूर्ति भी कृत्रिम घृतो मे उसका सयोजन करके जैसा कि दालदा के विज्ञापनो से ज्ञात है, पूरा कर दिया जाता है। तथापि वह औपविसिद्ध घृत के कामो मे व्यवहृत नही हो सकता है। ____ वनस्पति घृत या कृत्रिम घृत मू गफली के तैल से बनाये जाते हैं। इन तेलो की रासायनिक विधियो से 'हाइड्रोजेनेशन' क्रिया के द्वारा जमा दिया जाता है जिससे तैल की वसा पूर्णतया सतृप्त ( saturaticd ) हो जाती है। जिस स्नेह मे जितनी ही असतृप्त वसा (unsaturatedfat) होगी वह उतना ही औषधि को छोडकर पकाते समय औपधियो के स्नेह में घुलनशीलतत्त्वो के शोपण (absorption) मे समर्थ होगा । यही कारण है कि गुद्व वृत जिसमे तैलो की अपेक्षा अधिक मात्रा में असंतप्त वसा (unsaturated fat) तथा हीन कोटि के वसाम्ल ( lower fattyache ) होते हैं औपधियो के साथ पकाये जाने पर अधिक मात्रा मे औपविगुणो के गोपण में समर्थ होते है। इसी गुण को सस्कारानुवर्तन शब्द से प्राचीनो ने व्याख्या को है। अर्थात् औपधि के संस्कार का सबसे अधिक प्रभाव घृत पर पडता है। इसके वाद दूसरा नम्बर तैलो का आता है। तैलो में असंतृप्त और संतृप्त दोनो प्रकार की वसाये रहती है। घृत की अपेक्षा इसमें सतृप्तवसा (saturated) अधिक रहती है अस्तु सस्कार-ग्रहण में इसका दूसरा नम्बर आता है। तैलो मे तिल के तेल की अपनी विशेपता जीवतिक्ति ए डी की अधिकता के कारण है। परन्तु वनस्पति घृत एक निष्क्रिय (neutral most ) पदार्थ है जिसके ऊपर औपषियो के सस्कार का प्रभाव नहीं पडता क्योकि वह गुणो के गोपण में असमर्थ है । भक्ष्य की दृष्टि से विचार करे या भोजन की दृष्टि से, वनस्पति धृतो का मूल्याङ्कन करें तो घृत और तैलो का भोजन-मूल्य ( foodvalue ) उनमें पाये जाने वाले unsaturated fatty acids के कारण होता है। क्योकि ये भाग टूट कर शरीर में उष्णता या शक्ति मे रूपान्तरित Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय ६७ होते है। वनस्पति घृत पूर्णतया शत-प्रतिशत संतृप्त saturated होता है उममे अमतृप्त वसा का भाग होता ही नहीं इस लिये भी वहण के कार्यों मे व्यवहुत नहीं हो सकता है, जो प्राकृतिक स्नेहो का एक प्रधान कार्य है। अतएव वैद्यकीय विधि से सिद्ध स्नेहो मे अर्थात् किसी तैल या घृत के निर्माण में वनस्पति घृतो को अनुपयोगिता स्वसिद्ध है। खनिजतेल-स्थावर स्नेहो मे कुछ ऐसे भी तेल है जिनकी उत्पत्ति पेडपांधी से न होकर सदानो से होती है जैसे-किरोसिन, पेट्रोल आदि । पुन इन मेलो ने रामायनिक विधियो के द्वारा विभिन्न प्रकार के स्नेह बनते है जैसे वेमेलीन, लेनोलिन, तारपीन का तेल, लिक्विडपैराफीन आदि। इन तेलो को खनिज तेल नाम से एक स्वन यसज्ञा देना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। इनके प्रयोग बाह्य ( external ) और मीमित स्थानो (hmated spaces) पर ही होता है। लिक्विउपराफोन कान और नाक मे लगाने और मुस से मेवन मे भी व्यवहत होता है । लिकिडपेराफीन--यह ऐमा विचित्र स्नेह है जिसका सेवन करने से मुख से लेकर गुदा पर्यन्त सम्पूर्ण अन्नवह स्रोत का स्नेहन हो जाता है । इस स्नेहन की उपमा मगीन की आयलिङ्ग से दी जा सकती है। साथ ही इस स्नेह का गोपण अप माना में भी आयो से नहीं होता, न किसी पाचक रस का ही प्रभाव इसके ऊपर पटता है और न स्वय ही किसी पाचन रस को विकत करता है. फलत अविकृत भाव से गुदा से बाहर निकल जाता है । अन्य तैल या घ नो मे यह विशेषता नही पाई जाती । इन सभी द्रव्यो का ग्रहण तैल के वर्ग मे करने का उद्देश्य प्राचीन आचार्यों के शब्दो मे तद गणता अर्थात् निष्पत्ति और साम्य ही है। स्नेहन क्रिया के वास्तविक उद्देश्यो को ध्यान में रखते हुए खनिज तैलो का अतर्भाव स्नेहन वर्ग मे संभव नहीं है, जैसा कि आगे के वर्णनो से स्पष्ट होगा। अच्छ स्नेह-सस्कार के विना भी घ त या तैल का पान कराया जा मकता है । विशुद्ध तथा विना किसी आपधि के योग से पाक किये ही जो स्नेह पिलाया जाता है उसे अच्छ स्नेह कहते हैं। जैसे घृत को दूध मे डालकर या काड लिवर आयल को दूध में डालकर पिलाना । इसका प्रयोग व्यक्ति की सहनशक्ति और सात्म्य और असात्म्य का विचार करते हुए कराना चाहिये । स्नेह जिन्हे सात्म्य हो ऐसे व्यक्तियो मे तथा जो क्लेश-सह ( कष्ट को बर्दाश्त कर सकने वाले ) व्यक्ति हो, इसका प्रयोग करना चाहिये। अग्नि, शीत, अति उष्ण ७ भि० सि० Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हद भिपकर्म-सिद्धि ऋतुओ मे भी अच्छ स्नेह का प्रयोग नही करना चाहिये । नाति शीतोष्ण नु या काल मे इस विधि से स्नेहपान कराना उत्तम है | 'केवल शुद्ध रूप में किसी स्नेह द्रव्य का पान अन्यता है किसी प्रकार की विचारणा ( परहेज ) की आवश्यकता नहीं रहती है। की कल्पना वटी ही श्रेष्ठ है- क्योकि इसके द्वारा स्नेहन गली नीति हो जाना है | अच्छ स्नेह अद्भुत शक्तिवाला और प्रभूतवीर्यणाली होता है । फर उस असंस्कृत स्नेह का प्रयोग शास्त्र सम्मत है । यदि शुद्ध घृत ही पिलाना लक्ष्य हो तो दोपानुसार पित्तज विकारों में केवल, वातिक विकारों में मेंधानमक के साथ ओर श्लैष्मिक विकारो में व्योप और बार मिलाकर पिलाना चाहिये ।' शोप की चिकित्सा में अधुना प्रचलित मत्स्ययकृत-वगाय का प्रयोग वृण के लिये किया जाता है यह अच्छ स्नेहपान का ही एक उदाहरण है। स्नेही के द्वारा विटामिन ए, डी तथा डी २, को पूर्ति होती है और शरीर की रक्षण शक्ति चढती है | संस्कारित स्नेह ( medicated ) -- नेहन को विधियों में बरते जर्ने वाले धी एव तैलो का याविधि विभिन्न औषधियो और वों के संयोग में अग्नि पर पका कर ( देने वैद्यक - परिभाषा प्रदीप ) संस्कृत-स्नेह बनाये जाते है । इनका व्यक्ति और उसके रोग की अवस्था के अनुसार प्रयोग किया जाता है । पाक विधि से तैयार तेल तीन प्रकार के होते है-मृदु, मध्य तथा सर-पाक । इनमे मृदुपाक स्नेहो का प्रयोग पीने और साने में, मध्य-पाक स्नेहो वा उपयोग नस्य तथा अभ्यग में तथा खरपाक स्नेहो का उपयोग वस्ति एव कर्णपूरण के लिये होता है । स्नेहन-स्नेहन की विधियाँ ( modes of administration of lubrications ) भक्ष्यादि अन्न के साथ, वस्ति से, नस्य से, अभ्यग (मालिग) से, अजन से, गण्डूप (कुल्ली भरना) के रूप में, अथवा सिर-कान और आँसो के तर्पण के द्वारा विविध भाँति से ( चौबीस प्रकार के विभिन्न मार्गों से ) गरीर का एकदैशिक या सार्वत्रिक ( local or general ) स्नेहन किया जाता है । सक्षेप मे स्नेहन का अर्थ oral administration, अनुवासन से rectal administration, उत्तर वस्ति यानी urethral or vaginal administration, गिरोवस्ति एव अभ्यग से cutaneous administration, नस्य से nasal administration तथा कर्णपूरण से aural administrations प्रभृति मार्ग स्नेहो के अदर मे पहुँचाने के विधान से है । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय उद्देश्य या प्रयोजन-स्नेहो के उपर्युक्त मार्गों से उपयोग की क्रिया को स्नेहन कहा जाता है। इसका अन्तिम उद्देश्य ( ultimate aim) विशुद्ध रीति से अतृप्त धातुओ को तृप्त करना अर्थात् सतर्पण करना होता है। इसकी उपमा सूखते हुए वृक्ष की जड मे सिचाई करने की क्रिया से दी गई है। इससे तीन कार्य होते है-१ वायु का नाश, २ मृदुता का आना, ३ मलो की रुकावट दूर होना । स्नेहो के उपयोग से अतराग्नि दीप्त होती है, कोष्ठ शुद्ध होता है, धातु, वल एवं वर्ण की वृद्धि होती है। शरीर की इन्द्रियाँ दृढ होती है जरावस्था देर से आती है और मनुष्य सौ वर्ष तक जीवित रहता है। स्नेह कल्पना ( preparations)-स्नेहो की बहुत सी कल्पनाये ( कुल चौसठ प्रकार की) है । परन्नु सभी समय उनके चक्कर में पड़ने की आवश्यकता नहीं रहती है । रोगी के अभ्यास, ऋतु, व्याधि एव उसके व्यक्तित्त्व के ऊपर विचार करते हुए यथा समय इनका उपयोग करना होता है । स्नेह प्रयोग के सामान्य नियस-पचकर्मो के पूर्व कर्म के रूप मे स्नेहन कराना हो तो इन नियमो का अनुसरण करे । सूर्य के पूर्ण रूप से प्रकाशित होने पर दिन मे घृत या तैल यथोचित मात्रा मे पिलाना। पीने के पश्चात् व्यक्ति को गर्म जल से कुल्ला करना और जूता पहन कर सुख-पूर्वक टहलना चाहिये। स्नेह के पीने के पश्चात घन पिये रोगी को गर्म जल, तेल पिये रोगी को यष तथा वसा और मज्जा पिये रोगी को मण्ड पिलाना चाहिये । यहि यह सम्भव न हो तो सभी प्रकार के स्नेह-पान के अनन्तर केवल उष्ण जल (गर्म पानी ) ही देना चाहिये । स्नेह पिये रोगी को प्यास लगने पर उस दिन उष्ण जल ही पीने को देना चाहिये। विविध स्नेह के योग्य रोगी ( Indications)-घत-पित्त ओर वायु का शामक, रस-शुक्र-ओज और नेत्र के लिये लाभप्रद, दाह शामक, मृदुता उत्पन्न करने वाला, मुकुमारता एव सन्तान देने वाला और स्वर तथा वर्ण को चमकाने वाला, होता है अत इसका प्रयोग रुक्ष, क्षत, अग्नि-शस्त्र-विप पीडित रोगियो मे, वायु एव पित्त दोप के विकारो में तथा हीन मेधा और स्मृति शक्तिवाले व्यक्तियो मे प्रशस्त है। तैल-वायुशामक, कफनाशक, बलवर्द्धक, त्वचा को चमकदार करनेवाला, उष्ण वीर्य, शरीर को दृढ करने वाला तथा योनि का विशोधन करने वाला होता है । अतएव इसका उपयोग कृमिकोष्ठ, क्रूरकोष्ठ, नाडी से पीडित, वाताविष्ट, वढे हए कफ और मेदस्वी रोगियो मे विशेपत. जिन्हे तैल अनुकूल पडता हो, करना चाहिये। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० भिपकर्म-सिद्धि वमा-अधिक स्निग्ध होती है । अत. इसका उपयोग विद्ध, भन्न और न व्यक्तियो मे, गर्भाशयदंग से पीडित स्त्रियो मे, कान एवं मिर को पीटानी में शुक्र-क्षय मे, अधिक परिश्रम मे कृम हुए व्यक्तियों में, दीर्घ कालीन वातव्याधि से पीडित हुए रोगियो मे, दीप्न अग्नि वाले व्यक्तियों में तथा जो मान्त-प्राण हो गये हो अर्थात् वायु के कारण ही बचते ना रहे हो ऐगे व्यक्यिो में करना चाहिये। मज्जा-बहुत हो वलबर्द्धक होती है-गुरु, रन, म, मेट और मना को वढाने वाली होती है । अत इसका प्रयोः नहीं पर अग्थियो की वृद्धि अपेक्षित हो जैसे अस्थिक्षय ( bone T B ) में पीडित रोगियों में कराना चाहिये । साथ ही जिन व्यक्तियों का कोष्ट क्रूर हो, जो क्लेन-मह हो, जो वातपीडित हो, जिनकी अग्नि दीप्त हो उनमें मज्जा का स्नेह लाभप्रद होता है। ऋतु के अनुसार स्नेहन मे विचारमन्द्र तु मे स्नेहन प्राय घृत से, वमन्त मे वमा एव मज्जा से, प्रावृट् (वर्षा के पूर्व) मे तेल में करना चाहिये । साथ ही यह ध्यान में रखना चाहिये कि स्नेहन का उपयोग नातिगीतोष्ण काल में करना होता है। अत अति गीत या अति उष्ण काल में न करे। जैने काल अर्थात् ग्रीष्म काल मे, शीतकाल अर्थात् हेमन्त या मिगिर मे नया वर्षा की वजह से उत्पन्न गीत में नही करना चाहिये । परन्तु यदि वरना नात्यधिक या अत्यन्त आवश्यक ( emergent ) हो तो इन निषिद्ध कालो में भी रिया जा सकता है। मामान्य विधान माधारण ऋतुमओ मे ही करने का है। स्नेहन में दिन एवं रात्रि की विचारणा-दिन में जब गर्मी अधिक हो तो स्नेहपान से मूी, पिपामा, उन्माद, कामला आदि की संभावना रहती है । इसी तरह रात्रि मे गीत की अविकता में स्नेह-पान से मानाह, मरचि, गृल, पाण्डुता आदि होने लगते है । अतएव वहुत गीत या बहुत उष्ण काल में स्नेहपान का निपेष क्यिा मिलता है। शीत ऋतुओ में स्नेह-पान कराना हो तो दिन में पिलावे और उष्ण कालो में रात्रि में पिलावे। इसी प्रकार वायु और पित्त की अधिक्ता में रात्रि में तथा वात और कफ की अधिकता में दिन में पिलाने का विधान है। मात्रा के अनुसार विचार-हस्व, मध्य और उत्तम भेद से स्नेहो की मात्रा तीन प्रकार की होती है। मात्रा का निर्धारण व्यक्ति के दोष-भेपज-कालवल-गरीर-आहार-सत्त्व-मात्म्य-प्रकृति तथा स्नेह के पचन के ऊपर निर्भर करती है। स्नेह की जो मात्रा दो याम अर्थात ६ घण्टे में पच जाय वह ह्रस्व, जो मात्रा चार याम यानी १२ घण्टे में पच जाय वह मध्यम, जो आठ याम २४ घण्टे में Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय १०१ पचे वह उत्तम होती है । स्नेह के पाचन काल के ऊपर आधृत यह मात्राओ का निर्देश है । इन मानाओ का उपयोग रोग या दोपो की ( toxemia ) की अल्पता, मध्यता एव तीव्रता के अनुसार यथाक्रम हस्व, मध्य एव उत्तम क्रम से किया जाता है । साथ ही व्यक्ति के अनुसार भी मात्रा का विचार अपेक्षित है । उदाहरणार्थ जो व्यक्ति नित्य प्रचुर स्नेह लेता है, भूख और प्यास को वर्दाश्त कर सकता है तथा जिसकी अग्नि दीप्त है, उसके स्नेहन के लिये उत्तम मात्रा में स्नेह का प्रयोग करना चाहिये । रोग की दृष्टि से विचारें तो गुल्मी, सर्पदष्ट, निसर्प पीडित, अपस्मारी, उन्मत्त, मूत्रकृच्छ्र और पाखाने की गाँठ वने व्यक्तियो में उत्तम मात्रा में स्नेह का उपयोग करना चाहिये । जो व्यक्ति अधिक खाने वाला न हो, जिसका कोष्ठ मृदु हो, जिसका बल मध्यम कोटि का हो उसे मध्यम माना मे स्नेहपान कराना चाहिये । मध्यम मात्रा का स्नेह-पान अधिकतर शोधन कार्यों के लिये कराया जाता है । इम मात्रा मे व्यक्ति का सुखपूर्वक स्नेहन हो जाता है । रोगो की दृष्टि से विचारें तो अरूपिका, स्फोट, पिडिका, कण्डु, पामा, कुष्ट, प्रमेह और वातरक्त प्रभृति रोगियो मे इस मात्रा ( मध्यम ) का स्नेह-पान कराना चाहिये । बालक, वृद्ध, सुकुमार और आराम का जीवन विताने वाले व्यक्ति, जो साली पेट न रह सकते हो अथवा अल्पवल व्यक्ति हो, उनमे हीन या अवर या ह्रस्व मात्रा मे स्नेह-पान कराना चाहिये । तो होन मात्रा मे स्नेहपान निम्नलिखित रोगियो मे कराना चाहिये – ज्वर, अतिसार, कास, चिरकालीन दुर्बल रोगी, मदाग्नि से पीडित रोगियो मे । अज्ञात कोष्ट वाले व्यक्तियों में भी स्नेह की छोटी से छोटी मात्रा मे ( हसीयसी ) स्नेहन करना चाहिये । रोग की दृष्टि से विचारे प्रयोजन की दृष्टि से विचार-व्यावहारिक दृष्टि से स्नेहन का प्रयोग तीन प्रधान उद्देश्यो को ध्यान मे रखते हुए किया जाता है – १ सशोधन (purging) > सगमन ( sedation ) तथा ३ वृहण ( tonic actions ) । जहाँ पर पचकर्मो के पूर्व कर्म ( preparation ) के रूप मे शुद्ध गोवन ही लक्ष्य है, उपर्युक्त नियमो के सम्बन्ध मे प्रचुर विचारणा की आवश्यकता पडती है, परन्तु जहाँ पर बढे हुए दोपो का सशमन अथवा वृहण करना ही लक्ष्य हो जैसे ( avitaminosis or deficiency diseases ) इनमें अधिक विचार की आवश्यकता नही रहती । सशमन के लिये आम तौर से भूख लगने पर या विना भोजन किये खाली पेट पर मध्यम मात्रा मे स्नेह पिलाना चाहिये । वृहण के लिये अर्थात कृश, दुर्बल, ( T B ) प्रभृति मे व्यक्तियो की Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ भिपकर्म-सिद्धि घातुओ के वढाने के लिये स्नेह पिलाना हो तो भोजन के साथ, मद्य से या मासरम के साथ पिलाना चाहिये। यदि रोग के चिकित्सा-काल मे वढे हुए दोप ( वात या पित्त ) के गमन के लिये ( मशमन क्रिया मे ) यदि स्नेह पिलाना हो तो गरीर के अधोभाग के रोगो जैसे hip joint disease मे भोजन के पूर्व, मध्य भाग के शरीर के रोगो मे जैसे T B. of cecum and colon भोजन के साथ और उर्च भाग के रोगो जैसे T. B of lung मे भोजन के उपरान्त पिलाना चाहिये। __ रोग के मगमन और वृहण कार्यों मे आजकल बच्छ स्नेह का विधान बहुत प्रचलित हो गया है । प्रयोजन समान होते हुए भी आधुनिक शब्दो मे उसकी व्याख्या दूसरे ढग से की जाती है। उदाहरणार्थ-गरीर के वल और भार-क्षय पैदा करनेवाले रोग ( wasting diseases ), क्षय ( tuberculosis), जीवनिक्ति हीनता विगेपत. ए, डी एवं डी २ ( avitaminosis ) असह्यता या अनूर्जता ( allergic state ), दुर्बलता (ill-health & debility), उपसर्गज व्याधियो से रक्षण की शक्ति बढ़ाने के लिये ( to combat the infectious diseases ), अभोजन या हीनभोजन ( dietetic deficiency ) तथा वालको के अङ्गवर्धन, गर्भिणीके पोपण आदि बातो का ध्यान रखते हुए स्नेह-पान अर्थात् ( fat or water soluble vitamins A D ) का प्रयोग करने का निर्देग किया जाता है। जीवतिक्ति ए० और टी० प्रचुर मात्रा मे जान्तववसा, घी, दूध, मक्खन, मलाई तथा मत्स्य यकृत में प्राकृतिक रूप में पाया जाता है। इन प्राकृतिक द्रव्यो के उपयोग से उनकी पूर्ति भी संभव है। आजकल कई वने वनाये योग केपलर फुड, स्काट्स एमल्गन, गार्कोफेराल, पल्मोकाड आदि सुलभ है। इन स्नेहो का उपयोग उपर्युक्त आयुर्वेदीय दृष्टि से स्नेह-पान के अतिरिक्त कुछ नहीं ! प्रयोजन रोग का संगमन और गरीर का वृहण दो ही है। स्नेहन का पाश्चात्कर्म आहार एवं पान-यदि स्नेहपान के पश्चात् स्नेह का पाक न हो पाया हो या उसके पाक मे का हो तो उस व्यक्ति को उष्ण जल पिलाना चाहिए । स्नेह के जीर्ण होने के बाद उस मनुष्य को गर्म जल से स्नान करावे । थोडे ने चावल के कणो को खूब गलाकर बनाई हुई यवागू को यथेच्छ पिलावे। सुगन्ध और स्नेह से रहित यूप और मामरस पिलावे । विलेपी भी किंचित् घी डालकर पिलाई जा सकती है । कहने का तात्पर्य यह है कि स्नेहपायित व्यक्ति को स्नेहकाल मे Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय द्रव, उष्ण, अभिष्यंदी, नातिस्निग्ध एव विना मिलावट ( कई अन्नो के मिश्रण ) का भोजन देना चाहिए। यह भोजनक्रम जितने दिनो तक स्नेह पिया हो या पीना हो उतने दिनो तक रखना चाहिये । आचार-आचार सम्बन्धी भी कई नियमो का पालन स्नेहकाल मे अपेक्षित है। जैसे स्नान और पान मे उष्ण जल का उपयोग, ब्रह्मचर्य, केवल रात्रि मे गयन, उपस्थित वेगो का न रोकना, व्यायाम-क्रोध-शोक-शीत और धूप, वा के झोके से वचना, सवारी या अधिक पैदल चलना, बहुत बोलना, बहुत देर तक बैठना या पडा होना, सिर को तकिये के बहुत ऊपर या नीचे रखना तथा धुआं-धूलि आदि मे बचकर रहना उत्तम है। जितने दिनो तक स्नेहपान किया हो उतने दिन और अधिक काल तक इन परहेजो से रहना चाहिये । आचार सवधी इन नियमो का पालन न केवल स्नेहनकर्म मे अपितु सभी पचकर्मो मे करना होता है। काल-मर्यादा-पचकर्म या गोधन कर्मो मे व्यवहृत होने वाले स्नेहनकाल की मर्यादा तीन से मात दिनो की मानी गई है। मृदु कोष्ठ वाले व्यक्ति को तीन दिनो तक, मध्यम कोटवालो मे चार से पांच दिनो तक और कर कोष्ठ के व्यक्तियो में छ से मात दिनो तक स्नेह-पान कराना चाहिये। यह काल-मर्यादा चिकित्मा मे व्यवहृत होने वाले स्नेहो की नहीं है क्योकि वहाँ पर तो रोग का सशमन या व्यक्ति का वृहण करना लक्ष्य रहता है अतएव वहां पर कालमर्यादा लम्बी हो सकती है। जैसे "मासमेरण्ड तैल पिवेन्मत्रेण मयतम् ।" गृध्रसी-चिकित्सा मे अथवा शोप की चिकित्सा मे बृहद् छागलाद्य घृत या मत्स्य यकृतवमा का प्रयोग । ये प्रयोग लम्बी अवधि तक या दीर्घकालीन हो सकते है । शोधन के कार्यों में जहाँ पर स्नेहो का लक्ष्य स्रोतस मे लीन हुए दोपो को टीला करना पश्चात् वमनादि कर्मों से उसका निहरण करना होता है कुल एक सप्ताह से अधिक स्नेहपान नहीं करना चाहिए क्योकि वह सात्म्य हो जाता है। फलत लाभ-प्रद भी उस दशा मे नही हो पाता। सद्यः स्नेहन-वलहीन, कृश तथा श्रान्त व्यक्तियो मे cachexia, marasmuss syndrome etc कई बार तुरन्त स्नेहन करने वाली वस्तुओ की आवश्यकता पड़ती है। इस क्रिया को सद्य. स्नेहन कहा जाता है। निम्नलिखित द्रव्य इस कार्य मे व्यवहृत होते है - १ पिप्पली चूर्ण, सैन्धवलवण, घी, तैल, वसा, मज्जा और दधि-मस्तु को एक मे मिलाकर पिलाना। २ कम चावल और अधिक दूध से बनी खीर मे घो मिलाकर गर्म गर्म पीना। ३ पिप्पली, घी, सेंधा नमक, तिल को पिष्टी और Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि १०४ सूअर की वसा को एक मे मिलाकर पिलाना । ४ दूध दुहने वाले वर्त्तन मे पहले से ही घी और चीनी छोडकर ऊपर दूब दुहे और धारोष्ण पिये । ५. जो, वेर, कुल्थी इनके क्वाथ मे पिप्पली, दूध, दही, सुरा और आठवां भाग वी मिलाकर पीना । ६. दही को मलाई को गुड के साथ खाना । ७ स्नेहो में के मानलवण मिलाकर सेवन । ८ तैल और मुरा मण्ड का सेवन । ९ मूअर रम मे घृत और लवण मिलाकर सेवन । स्नेह व्यापद - ( Complications ) अतियोग - ( Overdosage ) अतिमात्रा मे स्नेह के प्रयुक्त होने से निम्नलिखित बाधायें उत्पन्न होती है । जैसे भोजन में द्वेप, मुख मे स्राव, अरुचि, तन्द्रा, प्रवाहिका, गुदा मे दाह, गुरुता, मल की अप्रवृत्ति और पाण्डुता प्रभृति लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं । अयोग - ( Underdosage ) हीन या अल्प मात्रा में प्रयुक्त होने मे निम्नलिखित दोप उत्पन्न हो जाते हैं । जैसे पुरीप का गाठदार होना, अन्न का कठिनाई से पाक, छाती मे जलन, दुर्बलता, दुर्वर्णता, रूक्षता और डकारो का आना प्रभृति लक्षण अस्निग्ध व्यक्ति मे पैदा होते है । --- सम्यक योग - ( Required dosage ) ठीक मात्रा में प्रयुक्त होने से व्यक्ति में सुस्निग्धता आ जाती है, त्वचा और मेद गिथिल हो जाता है, अग्नि दीप्त हो जाती हैं, गात्र मृदु हो जाते हैं, अग हल्के हो जाते है, तथा गुदा से चिकनी चीज का निकलना प्रभृति लक्षण सम्यक् मात्रा में प्रयुक्त हुए स्नेह से होते है । प्रतिकार ( Treatment ) -- योग और अयोग का विचार करते हुए, अतिस्निग्ध व्यक्ति का रूक्षण, साँवा, कोदो, तक्र, पिण्याक, सत्तू, तक्रारिष्ट, त्रिफला और गोमूत्र के द्वारा करना चाहिए । यदि व्यक्ति अस्निग्ध हो तो उसमे पुन स्नेह का प्रयोग करके उसका स्नेहन करना चाहिये । स्नेह - विभ्रम-- ( Allergy due to protien content in crude fat ) कई वार स्नेह के विभ्रम से अति तृपा अधिक प्यास लगना शुरू हो जाता है | स्नेह के पीने के पश्चात् यदि उसे अधिक प्यास लगे तो गर्म जल पिलाना चाहिये । फिर भी शान्ति न मिले तो गर्म जल पिलाकर चमन करा दे । शीत द्रव्यों का सिर के ऊपर लेप करे । जल मे अवगाहन करावे । अस्ने व्यक्ति - (contra indication of fats | बहुत से ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनमें मेद का पाचन ( digestion of fat ) हो ही नही पाता । बहुत से ऐसे स्थूल व्यक्ति मिलते है जिनमे वसा या स्नेह उनकी स्थूलता ( obesity ) को बढाता है जिससे उन्हें लाभ के स्थान पर हानि होती है । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय १०५ वहुत ऐ सेसे ग्लेष्मबहुल रोग है जिनमे मेद के प्रयोग से उसकी वृद्धि होने लगती है। इन व्यक्तियो मे स्नेह का निषेध है। क्योकि इन व्यक्तियो के रोगो मे चिकित्सा का लक्ष्य वृहण न होकर कर्षण रहता है। इन कफ और मेदोबहुल व्यक्तियो मे रूक्षण करना ही अधिक प्रशस्त है। जिन व्यक्तियो का मुख और गुदा अभिष्यन्न है, मदाग्नि से नित्य पीडित व्यक्ति, मद-तृष्णा और मूर्छा मे पडा व्यक्ति, तालु शोप से पीडित व्यक्ति, अजीर्णी ( dyspeptic ), तरुण ज्वरी (acute fever ) जिनको वस्ति एव विरेचन दिया हो ऐमा व्यक्ति, वमनयुक्त व्यक्ति, अकाल मे प्रसूता स्त्री, अकाल मे, दुर्दिन मे, उदर और गर रोग से पीडितो मे महादोष युक्त व्याधियो मे, मर्म के रोगो में तथा उरुस्तभ प्रभृति रोगो मे भी स्नेहन नही करे। स्नेहन से व्याधि बढ जाती है। __ बहुत से एमे रोग है जैसे। कुष्ठ, शोथ, प्रमेह आदि जिनमे स्नेहन की आवश्यकता नहीं रहती। यदि स्नेहन करना भी हो तो विशिष्ट औपधियो से सस्कार किये गये स्नेहो के द्वारा ही करना चाहिए। आयुर्वेद के ग्रन्यो मे रोगानुसार बहुत से स्नेहो के अनेक योग मिलते है । संस्कृत या सिद्ध स्नेह-औषधियो के योग से पके हए ये स्नेह दो प्रकार के है-१ आमिष जिनमे औपधियो के साथ-साथ मास भी पडा हो जैसे छागलाद्य घृत या मयूराद्य घृत या कुरङ्ग घृत आदि, २ निरामिप जिसमे केवल विशद्ध काष्ठीचियाँ ही पडी हो, जान्तव मेद का भाग न हो जैसे कल्याण घृत, चैतस घृत आदि । रोगानुसार कथित स्नेह पुन. दो प्रकार के है-घृत के योग विभिन्न घृतो के नाम से तथा तैल के योग विभिन्न सिद्ध तैलो के नाम से । इनमे घृत का प्रयोग प्राय मुख से सेवन करने के रूप मे और तैलो का प्रयोग वाह्य अभ्यग के रूप मे अधिकतर होता है। जैसा कि पूर्व मे हो कथन हो चुका है, जीवतिक्ति ए ओर डी की पूर्ति इन विभिन्न घृत और तैलो से होती है जिससे शरीर को सरक्षण शक्ति ( promotion of resistance ) बढती है । वैज्ञानिको के अन्वेपणो से यह सिद्ध है कि कई अवस्थाओ मे (जैसे बाल-शोप मे ) मुख द्वारा सेवन किया विटामिन ए और डो लाभप्रद नही होता। उस अवस्था मे त्वचा के द्वारा अभ्यग करते हुए सूर्य प्रकाश की सहायता से वह कार्यकर होता है। प्राचीन आचार्यों ने भी त्वचा से अभ्यग के रूप में इन जीवतिक्तियो के शोपण के विचार से विभिन्न तैलो का निर्माण और उपयोग बतलाया है । ये तेल वडे वृष्य, वाजीकर और बल्य है। उनके अभ्यग और पान से विविध प्रकार की व्याधियाँ दूर होती है । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ भिपकर्म-सिद्धि तैलो पर विचार किया जाय तो तेल भी दो प्रकार के है वेदनाहर या कण्डूहर ( analgesic, antipruritic iniments) के रूप में जिनका प्रयोग केवल बाह्य उपयोग के रूप में होता है और बहुत प्रकार के विपी के योग से बने रहते है, गोफ एवं पीडायुक्त स्थलो पर मालिश के रूप में व्यवहत होकर पीडा का गमन करते है जैसे विप तैल, विपगर्भ तेल, सैन्धवादि तेल और पंचगुण तेल आदि । कुछ खुजली आदि की गान्ति के लिए ( antipruntic ) व्यवहृत होते है जैसे, मरिचादि तैल, अर्क तेल आदि । वल्य एव वृहण ( tonics ) के रूप में पाये जाने वाले तैल इनमे शतावरी, असगंध, वला चतुष्टय, दूध, घृत आदि वल्य और रमायन ओपधियो के योग से पक्व होकर बने है। ये त्वचा से शोपित होकर गरीर का बल बढाते है । वास्तविक स्नेह के लक्ष्य को पूरा करने वाले यही तैल है। इनका मुख से और वाह्य त्वचा से भी उपयोग होता है। जैसे नारायण तैल, विष्णु तैल एवं वला तैल आदि । तेल और घृतो पर ध्यान दिया जाय, तो उनके भेद क्रमग. तैल ( Vegetable source ), घृत ( animal source ) है । औपधियो के योग और यग्निपाक से वे कई गुना अधिक गुण के हो जाते हैं। सीपवियो के पाक से उन-उन विभिन्न औपवियो की वसा में घुलनगीलता ( fat soluble properties ) मा जाती है। इसीलिये रोगानुसार विभिन्न समुदाय की योपवियो के नमुदाय से पाक भी बतलाया गया है। थोडा और विचार करे तो वह भी स्पष्ट हो जाता है कि तैलो का निर्माण सर्वोत्तम तैल-तिल के तैल से और वृतो का निर्माण सर्वोत्तम घृत-गोघृत से होता है। इस विशेषता की वजह से भी साधारण वना के योगो से शास्त्रोक्त ये घृत अधिक लाभप्रद व्हरते है। कालक्रम २इन घृतो का प्रचलन अव कम होता जा रहा है। चरक को चिकित्ला देगें तो कोई रोग का अधिकार नहीं जिसमे दो चार वृतो का उल्लेख न माया हो, परन्तु आजके कृत्रिम युग मे शुद्ध घृत ही दुर्लभ होता जा रहा है तो मिद्धघृतो का पूछना ही क्या है, परन्तु इस चिकित्सा को पुन जागृत करना मावश्यक है। नवघृत और पुराणवृत-वृत दो प्रकार के पाये जाते है । नवघृत जो घी ताजा या अधिक से अधिक एक वर्ष के भीतर का हो। दूसरा पुराण अर्थात् एक वर्ष से अधिक पुराना । वास्तव में इस वर्ष का पुराना घी ही पुराणघृत है। उससे कम पुराने गे में पुराण वृत का गुण नही पाया जाता । सौ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय १०७ वर्ष तक के पुराने या उससे अधिक पुराने घृत को कुम्भसपि या कुम्भघृत कहा जाता है। घृत जितना ही नया होता है उतना ही वह अधिक बल्य, पौष्टिक धातुओ का पोपण करने वाला होता है । स्नेहन के कार्यो मे इसीलिये नवघृतो का ही प्रयोग होता है, चाहे उसका अच्छ प्रयोग हो अथवा सस्कारित । घृत जितना पुराण होता है उतना ही वह शरीर को कृश करने वाला या कर्पक हो जाता है। साथ ही वह कई अन्य गुण वाला जैसे नेत्र के लिये हितकर, बुद्धिवर्द्धक तथा मेध्य होता है। अतएव वृहण या स्नेहन के लिये सदैव नवघतो का ही प्रयोग करना चाहिए। नवघृतो का मुख से सेवन का प्राय. विधान है, परन्तु पुराणघृतो का अधिकतर बाह्य प्रयोग, लेप और अभ्यग के रूप मे कफ का सक्षय करने के लिये । पुराघृत का रासायनिक दृष्टि से विवेचना करने पर उसमे कई परिवर्तन होते है। घृत या तैलो को प्रकाश मे रखने से या आर्द्रता को उपस्थिति से इनमे मन्द स्वरूप की विकृति ( slow decomposition ) होकर वह (ransid ) का रूप धारण कर लेता है। इसमे ( hydrolysis ) की प्रक्रिया से तृणाणु ( bacteria.), मधुरी (glycerine ) तथा वास्तविक वसाम्ल ( true fatty acids ) पृथक् हो जाते है और घृत सतृप्त वसा ( saturated ) के रूप मे परिणत हो जाता है । कुपिताः प्रशमयितव्याः स्वेद-स्वेदन स्वेद का शाब्दिक अर्थ है पसीना । किसी अग विशेप का या सर्वाङ्ग का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रीति से अग्नि-सम्पर्क कराके पसीना लाने की क्रिया को स्वेदन कहते है । 'सूक्ष्म मार्गो मे पडे हुए (लीन दोष ) स्वेदन-क्रिया से पिघल कर द्रव रूप मे बाहर निकल जाते है ।' रोगी के स्नेहन के बाद दूसरा ( अन्यतम ) कर्म स्वेदन का होता है। नाना प्रकार के कृत्रिम उपायो से जबर्दस्ती पसीना लाना ही इस कर्म का प्रयोजन है। उक्ति भी मिलती है । 'विभिन्न धातुओ, सस्थानो तथा मार्गो (कोष्ठ-शाखा-सधि-अस्थि प्रभृति स्रोतसो) मे लीन हुए दोष स्वेदन से क्लिन्न होकर पश्चात् स्वेदन से द्रवीभूत होकर कोष्ठ मे आकर शोधन के उपक्रमो से पूर्णतया शरीर के बाहर निकल जाते है ।' इनमे वहिर्गिगत दोपो का निष्क्रमण तो स्वेदन के द्वारा और आभ्यतर या कोष्टगत दोपो का शोवन वमन, विरेचन, वस्ति तथा नस्य क्रियाओ से हो जाता है । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ भिपकर्म-सिद्धि प्रकार: स्वेदन-क्रिया के द्वारा जहाँ पर किमी देग स्थान विगेप का म्वेदन अपेक्षित हो जैसे गोययुक्त सन्धि या व्रण-गोफ युक्त स्थान वहाँ पर स्वेदन का उन म्यान का रक्त-मचार वढाना मात्र लक्ष्य होता है, जिससे उम म्यान के दोष नार्वदैहिक रक्त सवहन मे आ जाय और उनका निहरण हो जाय और उन स्थान का गोथ गान्त हो जाय । इन प्रकार एकदैगिक माफ को ( Fomentation) कहा जाता है । यह एक प्रकार का मामूली नेक है। स्वेदन क्रिया के द्वारा जहाँ पर सम्पूर्ण शरीर का वंदन अभिप्रेत है यहां पर सम्पूर्ण शरीर का त्वचागत रक्त मवह्न (Cutaneus Circulation) का वढाना रक्त वाहिनियो के मवृत मुसो को विवृत करना तथ त्वचा में जलाश का स्वेद के रूप में दूरी-करण लक्ष्य रहता है। इस प्रकार के मानिक स्वेदन की प्रक्रिया को ( Induction of sweating ) कहते है। यह एक प्रकार की विशेष प्रक्रिया है जो सम्प्राप्ति नए विमान के लिए एक आयुर्वेद को नई देन हो सकती है। ____ इस प्रकार स्वेदन एकाङ्ग एव माङ्ग भेद से दो प्रकार का होता है। सम्पूर्ण गरीर का स्वेदन सर्वाङ्ग स्वेदन तथा किनी एक अवयव का स्वेदन एकाङ्ग स्वेदन कहलाता है। उदाहरणार्थ एकाङ्ग स्वेदनो में मागय में वायु के होने पर उस स्थान का रूक्ष स्वेदन, पक्वागय में कफ होने पर भी प्रारम्भ मे स्निग्ध स्वेदन हितकर होता है। कई अङ्ग ऐसे हैं जिनका स्वेदन नहीं करना चाहिए, वंक्षण, नेत्र, हृदय और अण्डकोग । यदि अङ्गो का म्वेदन आवश्यक हो तो इन सुकुमार अङ्गो पर मृदु स्वेदन ही करना चाहिए । अन्य अङ्गो का यथेच्छ स्वेदन किया जा सकता है। स्वेदन का कर्म मूलतः दो प्रकार का है-(१) जिममे अग्नि के सीधे सम्पर्क ( Direct ) से स्वेद हो। (२) जिसमें माक्षान् अग्नि का सम्पर्क न हो, अयत्र व्यक्ति का स्वेदन हो जाय । प्रथम वर्ग को अग्नि स्वेद और दूसरे को अनग्नि स्वेद ( Indirect ) कहते है । अनग्नि स्वेद के उदाहरणो मे व्यायाम ( कसरत ), उष्णगृह, मोटा और भारी आवरण ( नोटना), क्षुधा, बहुत मात्रा मे मद्यपान, भय, क्रोध, उपनाह ( पुल्टीस), उष्ण वायु प्रभृति दम विधियो में विना माक्षात् अग्नि सम्पर्क के ही स्वेदन हो जाता है। अनग्नि-स्वेद के ही उदाहरणो मे अधुना प्रचलित विद्युत्-स्वेदन का भी ग्रहण Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय १०६ हो सकता है जैसे-विद्युत प्रकाश में स्वेदन अल्ट्रा वायलेट, इन्फ्रारेड का सेवन यादि । शेप अन्य विविध प्रकार के स्वेदन अग्निस्वेद के उदाहरण है। इनी प्रकार रूक्ष और स्निग्ध भेद से भी स्वेदन के दो प्रकार हो जाते है। जमे वालुका, वेली, वस्त्र, मेधा नमक, और पत्थर आदि को गर्म करके सेकना स ( Diy fomentation ) स्वेदन तथा खोवे ( किलाट ), मातादिलो की पोटली बनाकर उससे सेंकना स्निग्ध स्वेद (Wet-fomentation ) कहा जाता है। इमो वर्ग मे तेल या घृत को मालिश करके सेकना तथा उष्ण जल आदि से सेकना भी आ जाता है। विधि भेद से पुन स्वेदन के चार वर्ग हो जाते है-ताप स्वेद-( Dry fonmentation ), ऊष्म स्वेद (Vapour fomentation ), उपनाह स्वेद ( Poultice ) तथा द्रव स्वेद (Wet fomentation )। आज कल की चिकित्सा में कई प्रकार के उष्ण-स्नान (Hot-rarm bath) तया वाप्प स्नान (Vapour bath) प्रचलित है । उनका उद्देश्य प्राचीनोक्त स्वेदन के अतिरिक्त और कुछ नही है। ये स्नान स्थानिक या मार्वदैहिक तथा सीपध अथवा निरोपध हो सकते है। इन स्नानो के द्वारा निम्नलिखित लाभ होते है। - (१) त्वचा को मृदु करते हुए मेद के त्रावो को द्रवीभूत कर देते है फरत कई प्रकार के त्वचा के रोगो मे व्यवहृत होते है । ( २ ) स्थानिक रक्ताभिसरण को बढा कर कोष्ठगत् रक्ताभिसरण को कम कर देते है जिससे आन्त्रगत, पिनाशयगत तथा वृक्गत शूल प्रभृति शूल कम हो जाते है । ( ३ ) धातुओ को शिथिल कर देते है जिससे पेशीगत आकुचन दूर हो जाते है, फलत तीन उदर शूल, प्रसेक सकोच, आन्त्र वृद्धि, शैशवीय आक्षेप तथा स्वर यन्त्र का आकुचन प्रभृति आकृवन जन्य पीडाओ के उपचार मे व्यवहृत होतेहै । ( ४ ) स्वेद ग्रथियो ( Suderiferrous glands ) से स्रावो को वढा देते है जिससे वृक्क रोगो मे लाभ होता है और मूत्र-विपमयता मे भी आराम मिलता है। ___इन स्नानो के पूर्व और पश्चात् रोगी की तत्परता से रक्षा करनी चाहिए। स्नान के पश्चात् उसके शरीर को सुखा कर गर्म विस्तर पर लेटा देना चाहिए । उष्ण पेय-चाय-दूध आदि देना चाहिए। आधुनिक युग मे कई प्रकार के स्नान प्रचलित है । जैसे (१) दुष्ण स्नान ( Tepid bath )-किंचित् उष्ण जल से ८५° से Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० भिपकर्म-सिद्धि ९५° के तापक्रम के जल से स्नान कराना। यह स्नान ज्वर, जोर्णज्वर तथा वेचैनी मे लाभप्रद होता है। (२) उष्ण स्नान (Warm bath ) ९५०-१००° के तापक्रम के जल ने स्नान कराना श्वसनिका गोथ और फुफ्फुस पाक मे लाभप्रद है। (३) अत्युप्ण स्नान (Hot bath)-जल का तापक्रम १००-१०६० तक ! कार्य उपर्युक्त की भाँति । अधिक शक्तिशाली । (४) अत्युषण पाद स्नान ( Hot foot bath ) प्रतिश्याय, नासागत रक्तन्त्राव, गीत के कारण के रज त्राव के चालू करने के लिए अत्युष्ण जल से पैरो का घोना। (५ ) अति उष्ण कटि-स्नान ( Hot sitze bath ) आर्तवादर्शन, कृच्छानव, गीतजन्य बार्तवरोध और मूत्राशय गोथ में निर्दिष्ट है। थोडा सर्पप डालकर खौलाया जल अधिक लाभप्रद होता है। (६) बत्युष्ण जल प्रोक्षण-( Hot water sponging ) मिर, गंख प्रदेश और गर्दन को जल से सेक करना प्रतिश्याय में होने वाले गिर गूल का गमन करता है। (ख) वाष्प तान ( Vapour bath)-उत की दिनी कुर्सी पर रोगी को वैठाकर ऊपर से कम्बल बोवाकर रोगी को पूर्णतया ढक दे। मिर का भाग खुला रखें। कुर्सी के नीचे एक स्प्रिट लैम्प जला कर उस पर पानी से भरा वर्तन रख कर खोलावे । उसके वाष्प मे रोगी का स्वेदन होने लगेगा। यह वाप्प-औपषियों को वौला कर मीपव (Medicated ) या निरीपर (Non medicated) भी हो सकता है। इस स्वेद का उद्देश्य और परिणाम उप्ण जल स्नान सदृश ही है। इसके पुनः दो प्रकार होते है। हनी स्लान ( Russian bath) जिनमें विभिन्न तापक्रम के वाप्प ने स्वेदन और तुर्क स्नान (Turkish bath ) जिसमे गुप्क वायु से स्वेदन किया जाता है। आमवात, वातरक्त, सन्धिवात, त्वचा एवं वृक्क रोगो में लाभप्रद । प्राचीन नाडी स्वेद ( Medicated Vapour bath ) का ही प्रतीक है। (ग) उष्ण वायु स्नान :-रोगी को कम्बल से भावृत करके उसके भीतर गर्म हवा को प्रवेग कराया जाय या एक लकड़ी के बने फ्रेम में कई विद्युत के वल्व लगा कर उनके विस्तर पर रख दिया जाय तो स्थानिक वायु उष्ण होकर स्वेदन में समर्थ होगी। इस प्रकार की स्वेदन-विधि के विभिन्न प्रकारो के साधनो का उल्लेख मायुर्वेद के ग्रन्थो में पाया जाता है जिनका एकैका वर्णन आगे प्रस्तुत किया जा रहा है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय १११ इन चार वडे वर्गों के भीतर ही चरकोक्त तेरह प्रकार के सामान्य तथा विशिष्ट स्वेदनो के उल्लेख आ जाते है । (१) संकर या पिण्ड स्वेद :-(१) तिल, उडद, कुल्थी-अम्ल-घृत, तेल, मास, चावल का भात, कृगरा, या खीर का पिण्ड बनाकर सेकना। (२) गाय, गदहा, सूअर या घोडे को लीद, जी की भूसो आदि का पिण्ड गोला जैसा बना कर उसे आग पर गर्म करके सेंकना पिण्ड स्वेद कहलाता है। रूप के अनसार ही स्वेद का नामकरण किया गया है। यदि बालू, धूल, पत्थर, रास आदि को कपडे मे बांध कर पोटली बना कर उसे गर्म करके स्वेदन किया जाय तो यह पोटली स्वेद या पुटक स्वेद कहलाता है। इमे भो पिण्ड स्वेद के वर्ग मे ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार कपडे के भीतर लपेट कर पोटली जैसे बनाकर या वैसे ही लोष्ठ बनाकर जो स्वेदन को क्रिया की जाती है उसे मकर स्वेद कहते हैं । सकर स्वेद का पर्याय पिण्ड स्वेद है। नाडी स्वेद-ग्राम्य (पालतू सूअर आदि), अनूपदेशज (उ.गली सूअर, गैण्डा आदि ) तथा औदक मान ( जल में पाए जाने वाली मछली आदि के मास ) दूध के सोवे, बकरे के मस्तिष्क, सूअर के मध्य भाग और रक्त, स्निग्ध तिल, तण्डल को किसी वर्तन मे रख कर आग पर चढाकर उससे एक नाडी (Tube) लगाकर उनके भाप मे स्वेदन क्रिया को नाडी स्वेद कहा जाता है। इससे देश, काल और युक्ति का विचार करते हुए प्रयोग करना चाहिए । इन द्रव्यो का नाडी स्वेदन विशेषत वायु के दोषो ( Nuralgia ) मे भी लाभ-प्रद होता है । ये सभी द्रव्य प्रोटीन तत्त्वयुक्त होते है । वरुण गुडूची, एरण्ड, सहिजन, मूली, सरसो, अडूसा, वाँस, करज, अर्क पत्र, अमातक, शोभाञ्जन, झिण्टी, मालती, तुलसी, सज प्रभृति वनस्पति उपयुक्त विधि से सीला कर उसके वाष्प से नाडी द्वारा स्वेदन करना भी सभव है। इनका प्रयोग कफपित्ताधिक्य मे जैसे Respiratory diseases, Mariasis आदि मे किया जाता है । इसी तरह मूली, पचमूल, सुरा, दधिमस्तु, मन अम्ल द्रव्य, और स्नेहो के द्वारा भी नाडी स्वेद का प्रयोग वातश्लेष्मिक विकारो मे किया जा सकता है । कोप स्वेद-ऊपर कही गई औपधियो का जल मे क्वाथ बनाकर या केवल खौला कर या दूध में पकाकर, तेल में पकाकर या घृत मे पकाकर एक बडे वर्तन मे उसमे तेल या घी को भर दिया जाय और उसमे रोगी को खूब तेल लगा कर नहाने या बैठने की व्यवस्था की जाय तो इस क्रिया को अवगाहन या Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ भिपकम-सिद्धि कोष्ठ स्वेद पाहते है। उनके लिए एक सोज, की या वाट्यगना न ष्ट चार प्रकार के हो गकते है.---जल कोर, और गोट, नौर । व्यक्ति की व्याधि और मागित बगा के अनमार नगा ना माति, इमी का दूगरा नाम अवगाहन स्वर भी है। यह प्रसारमा Tuy thatly है। कोष्ट में उष्ण गवाथ, क्षीर, नेल गा पा नगर उ गेगी। कागाना स्नान कराया जाता है। ४ उपनाह-स्वेट:- यह एक प्रकार आणि जो या गेहूँ ती दलिया या आटा लेकार, अन्नवो मिटर बोज, मेन्धानमक और कोई म्नेर मिलार या जीवनी, मातीमोगली. कुष्ठ, गव द्रव्यो के तेल में मिलाकर उब बन्छी र गे पागनि गर्म करते विकार-युत गल पर लेप करके अपर बिना नार, ति लोग चर्म ने ऊपर में वाय देना चाहिए। यदि ऐगा न मिल पा भी गर्मा मूलभ न हो तो वोपेय वाया कम्बला मेवापना मागितामनिया अण्डी या मित्क के वस्त्र को कहते है। उपनाह स्वेद के सम्बन्ध में या ध्यान रखना चाहिए काना हुमा उपनाह दिन में गोल दे और दिन के बाधे उपनाह ले गति में गोर। क्यो कि इससे अधिक काल तक बधन के पटे रहने से विदाह या गंन्याभन रहता है जिसमे रोगी के मनिष्ट की गभावना बनी रहती। ५ प्रस्तर-स्वेद .-'प्रस्तीर्यते ति अन्तर.' वंदन गोकानुगे या आरती के लोने लायक प्रमाण में फैला कर ( विस्तीर्ण कर) पुन उन पर व्यक्ति का स्वेदन करना प्रस्तरम्वेद कहलाता है। रा पार्य मे एक और गिम्बी धान्य के पत्तो के फैलाए हुए स्थान पर अण्डी और भेट कम्बल विम्नीणं प्रच्छद पर अथवा एरण्ड और अर्क पत्र के प्रन्छद पर खूब अच्छी तन्ह में व्यक्ति के शरीर पर तेल की मालीश कराके उमी पर मुला कर स्वेदन परना प्रारम्वेद कहलोता है। इसके लिये आदमी के कद की एक गिला बनाकर उनको तप्त करके फिर उसके ऊपर पत्तियो को विछा कर युक्ति पूर्वक लेटा कर न्येदन करना होता है। ६ परिपेक-स्वेद :-बातोत्तर श्लेमिक रोगों में या बाय के रोगो मे मूलकादि जो वातघ्न द्रव्य ऊपर में बतलाए जा चुके है उनको पानी में उवाल ले। पुन इस उवाले जल जो किंचित् उप्ण हो अर्थात् बग्दाश्त के योग्य उम तापक्रम में लेकर किसी सहस्रवार वाले घटे में या अनेक छिद्र नाडी युक्त वर्तन मे ( हजारा में) भर कर रोगी को वरम से अच्छादित कर उस जल को Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय ११३ धारा या फवारे से स्नान करावे। इस क्रिया को परिपेक स्वेद कहते है। इस विधि मे क्वथित जल के लिए चरक ने तीन प्रकार के वर्तनो का नामोल्लेख किया है। कुम्भी (घडा ), वर्पणिका ( छोटा घडा या सहस्र धारा-सहस्र छोटे छिद्रो से युक्त घट) तथा प्रनाडिका ( ऐसी नलिका जिसमे अनेक मुख से जल का परिपेक हो सके )। यह भी आधुनिक दृष्टि मे एक प्रकार को Warm spunging है। ७ जेन्ताक-स्वेट :-यह एक स्वेदन के लिये विशेप प्रकार का वृहद् आयोजन युक्त स्वेदन विवि है। इसमे वस्ती के पूर्व या उत्तर भग्ग मे प्रशस्त एव समान भूमि-भाग मे जहाँ कि मिट्टी कालो, मधुर या सोने के रङ्ग की हो, जहाँ पर कोई दोधिका-पुष्करिणी ( छोटा पोखरा या जलाशय ) हो उसके पश्चिम या दक्षिण के किनारे पर एक गोल आकार का कमरा ( कूटागार ) बनाया जाता है। इसके विपरीत दिशा मे अर्थात् पूर्व या उत्तर दिशा में सुन्दर उपतीर्थ अर्थात् घाट बने हो। यह कमरा पानी की सतह से सात या आठ हाथ की ऊंचाई पर होना चाहिए। कमरे को लम्बाई और चौडाई को उसका व्यास समझना चाहिए। कमरा मिट्टी का और बहुत सी खिडकियो से युक्त होना चाहिए। कमरे की लम्बाई और चौडाई सोलह-सोलह हाथ की होनी चाहिये यह चूंकि गोलाकार बनेगा, अस्तु इस लम्बाई-चौडाई को उसका व्यास समझना चाहिए । इस कमरे के अन्दर की ओर चारो ओर की गोलाई मे एक हाथ ऊँची एक पिण्डिका (कमरे की दीवाल से लगा चबूतरा) बनाना चाहिए । जो दरवाजे तक आवे । यह व्यवस्था ऐमी होनी चाहिए कि कोई व्यक्ति दरवाजे से प्रवेश करके उस पिण्डिका के ऊपर चढ कर घूमता हुआ पूरे कमरे की गोलाई मे परिक्रमा करता हुआ पुन उसी दरवाजे से निकल कर आ सके । __इन कमरे के मध्य मे चार हाथ लम्बी अर्थात् आदमी के माप की एक मिट्टी की बनी भट्टी ( कन्दुक के आकार को ) होनी चाहिए। इस भट्टी में बहुत-से छोटे-छोटे छिद्र होने चाहिए, उसके मध्य मे अंगार-कोष्ठ ( लकडी जलाने का स्थान ) होना चाहिए। साथ ही एक पिधान ( ढक्कन ) की व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे आवश्यक्ता के अनुसार उसका द्वार वद किया जा सके । इस अगार-कोष्ठ मे या खण्ड मे खदिर और अश्वकर्ण की लकडी जला देनी चाहिए। जब लकडी अच्छी तरह से जल जाय वह धूवें से रहित और अगार के रूप में हो जाय और पूरा कमरा उस अग्नि के ताप से तप्त हो जाय तो रोगी व्यक्ति के स्वेदन की व्यवस्था करे। दभि० सि० Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ भियकर्म-सिद्धि जिस व्यक्ति का स्वेदन करना हो उसका वातघ्न तेलो से अभ्यंग करा के कपड़े में पूरे गरीर को आच्छादित करके प्रवेश करावे । उसे इस बात से पूरी तरह से मागाह कर दे कि वह इस स्वेदन-गृह में अपने कल्याण और आरोग्य लाभ के लिए जा रहा है। पिण्डिका पर चढ कर मुखपूर्वक स्वेदन करे। मुखपूर्वक पिण्डिका पर विवरे और लेटे। लेट कर सुखपूर्वक एक करवट या दूसरी करवट से अपने को मेंके। परन्तु पिण्डिका का परित्याग न करे। स्वेद और मूी से बेचैन होने पर भी जब तक प्राण हो पिण्डिका के नीचे नहीं उतरे पिण्डिका के ऊपर ही रहे। पिण्डिका के छोड़ देने पर या नीचे ना जाने पर दरवाजे तक नहीं जा सकेगा और मूटित हो जावेगा और जीवन से भी हाथ धोना पडेगा । इस लिए पिण्डिका को नहीं छोड़े। जब उसे यह प्रतीत होने लगे कि उसका अभियन्द्र या भारीपन (Congesthon ) दूर हो गया, मभी त्रोत खुल गए, सम्यक् प्रकार से स्वेद-विन्दुओ ना त्राव हो गया, उसका गरीर हका हो गया, उसके गरीर का विवन्ध, स्तम्भ ( जकडाहट), सुन्नता, वेदना मोर भारीपन दूर हो गया तो वह पिण्डिका का ही अनुसरण करते हुए दरवाजे से गहर निकले । वहाँ से बाहर आकर नेत्रो की रक्षा के लिए सहसा पीतल जल का स्पर्श न करे। थोडी देर तक या जब तक उसका ताप, थकावट बार पसीना गान्त न हो जाय विश्राम करे । पश्चात् मुखोष्ण ( गुनगुने पानी से स्नान करे तदनन्तर भोजन करे। ८ अश्मयन स्वेद :-पुरुप के प्रमाण की एक लम्बी, मोटी और चौडी गिला, (पत्यर को गिला) को वातघ्न लक्रडियो को जला कर उसके भीतर छोड कर, अंगारो से तप्त करके, पुन अगारो को पृथक् करके गिला को निकाले । फिर इस गिला का गर्म जल से प्रोक्षण करके अर्थात् गिला पर गर्म जल डाल कर उसके ऊपर मण्डी की चादर या कम्बल विठा कर उसके ऊपर अच्छी प्रकार से अन्यंग किये व्यक्ति को लेटा कर स्वेदन करावे । इस स्वेदन वाले व्यक्ति का भी गरीर मूती, ऊनी या रेगमी वस्त्र से ढका होना चाहिए । इस स्वेदन विधि को नरमपन स्वेदन कहते है । इसको गिलास्वेद भी कह सक्ते है । ६ कर्प स्वेद : मोने के लिए बनो चारपाई के नीचे एक गड्ढा खोदे, जिनका मुख छोटा किन्तु अन्दर का पेट बड़ा हो, उसमें निम अङ्गारो को डाल कर उसे भर दे, पुनः व्यक्ति को चारपाई के ऊपर सुला कर उसका सुख पूर्वक स्वेदन करावे। १० कुटी-स्वेद:-अल्प प्रमाण की ऊंचाई, वहुत मोटी दीवाल की जिसमें खिडकियाँ न हो तथा जिसका विस्तार, लम्बाई, चौड़ाई सो अधिक न Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय ११५ हो, ऐसी एक गोलाकार कुटो वनावे | इसके दीवाल की अगर प्रभृति सुगन्धित और उष्ण द्रव्यो से पुताई करा दे । कुटी के बीच मे एक स्वास्तीर्ण बिस्तर जिसमे सुखपूर्वक सोया जा सके ऐसा बिस्तर लगावे । इस शय्या के बिस्तर के ऊपर मृगचर्म, कम्वल, कुशा की चटाई, अण्डी के वस्त्र प्रभृति उष्ण कपडे होने चाहिए | कुटी के चारो ओर दीवाल के सम्पर्क मे निर्धूम जलते अंगारो की कई अगोठियाँ रख दी जाती है । अभ्यक्त शरीर हो, स्वेदन के योग्य व्यक्ति का प्रवेश करा के उस गय्या पर लेटा कर सुखपूर्वक स्वेदन कराना चाहिए । इस स्वेद-कुटी का प्रवन्ध प्रगस्त, निवात और सममूमि मे करना चाहिए । --- ११ कुम्भी स्वेद - वातघ्न क्वाथो से भरे हुए घट को जमीन मे गड्ढा करके स्थिर कर दे । उसके ऊपर चारपाई लगा दे । चारपाई इस प्रकार लगावे कि घडे के टूटने का भय न हो । उसके ऊपर चारपाई का आधा या तिहाई भाग रहे । चारपाई के ऊपर एक हलका या पतला विस्तर होना चाहिए। इसके ऊपर स्वेदन वाला व्यक्ति सकुचित अंग होकर तेल का अभ्यग करके लेट जाये । अब इस घड़े मे तप्त किए लोहे के टुकडे या पत्थर के टुकडे छोडे । इसके वाप से व्यक्ति का भले प्रकार से स्वेदन हो जाता है । १२ कूप स्वेद : -- कूप या कुवे के आकार का कुछ गहराई का एक गड्ढा बनावे जिसका विस्तार सामान्य कुओ से द्विगुण हो या जिसकी लम्बाई, चौडाई इतनी हो कि उसके ऊपर सोने का आसन लगाया जा सके । इस कुएँ का निर्माण प्रशस्त भूमि मे और निर्वात स्थान पर कराना चाहिए । इसके अन्दर का भाग साफ और चिकना होना चाहिए। इसके भीतर हाथी, घोडे, गाय, गधे, और ऊँट की लीद भर कर जला दे । इसके उपर अभ्यक्तशरीर व्यक्ति अपने शरीर को कपड़े से ढक कर लेट जावे और सुखपूर्वक स्वेदन करावे । १३ होलाक- स्वेद - गोहरे या उपले के चूर्ण को जला दे । जब यह निर्धूम और लाल हो तो उसके उपर शय्या विछावे । स्वेदन वाला व्यक्ति अपने शरीर मे तेल का अभ्यंग कराके वस्त्र से आच्छादित होकर इस विस्तर पर लेट कर सुखपूर्वक स्वेदन करावे । इस प्रकार अग्नि स्वेद के तेरह विधानो का वर्णन चरकसंहिता सूत्रस्थान के चौदहवे अध्याय में पाया जाता है । इसके अलावे अनग्नि स्वेद के भी दस प्रकार है, जिनका उल्लेख ऊपर मे हो चुका है । इनके नाम ये है -१ व्यायाम, २ उष्ण गृह, ३ गुरु प्रावरण, ४ क्षुधा, ५ बहुत मद्यपान, ६ भय, ७ क्रोध, ८ उपनाह । अनग्नि उपनाह - उष्ण द्रव्यो का मोटा लेप करने से ही स्वेदन हो Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ मिपकम-सिद्धि जाना, १ बातप (धूप ), १०. उष्णबात । * कुल मिलाकर तेईस प्रकार की स्वेदकी विधियाँ हैं । स्वेद का विधान-इन विभिन्न प्रकार के स्वेदन विधियों का प्रयोग देव, दोप, दूाय, वल, प्रकृति, सात्म्य, विकार यादि का विचार करते हुए करना त्राहिए। संक्षेप में कुछ तो मृदु स्वल्प के सेंक ( fomentation) के लिए और कुछ विधिगं मध्यम और महा स्वरूप के स्वेदन ( Inudction of sweating ) के लिए बताई गई है। इनमें ऋतु गीत हो, व्याधि महाबलवान हो, रोगी भी बलवान हो तो महास्वेद का विधान मध्यम बल हो तो मध्यम स्वरूप का स्वेद और दुर्बल हो तो मदु स्वरूप का स्वेदन करे । आमतौर से वायु और कफ के विकारो में स्वेदन लाभप्रद होता है। ___ स्वेदन का प्रयोग कदापि शरीर का अभ्यंग या गरीर का स्नेह्न किए बिना नही कराना चाहिए क्योकि व्यवहार में देखा जाता है कि बिना तेल लगाए लकढी का वेदन करने से वह टूट जाती है। इसके विपरीत तेल लगा कर स्वेदन करने से मूबी हुई लकड़ी भी झुकाई या मोडी जा सकती है। इसीलिए स्वेदन के पूर्व स्नेहन का विधान ग्रंथों में बतलाया जाता है । जीवित गरीर का सुदैव स्नेहन के अनन्तर स्वेदन करना चाहिए-स्नेह के प्रयोग में मृथ्म रोमक्रोपो मे पढे दोष गिथिल हो जाते है, पुन. स्वेदन से पिघल कर बाहर निकल आते हैं, उन सूटम बोतमो के मुख 'बुल जाते हैं। गरीर के अन्दर पड़े विपा का वाग स्वेदन के जरिए हो जाता है। रोगी रोग से मुक्त हो जाता है। स्वेदन के पूर्व स्नेह्न का एक दूसरा भी लक्ष्य है-तेल या घृतो की सहायता से उष्णता अपेक्षाकृत अधिक गहराई तक पहुँचाई जा सकती है। जिनसे गहराई में स्थित दीपो का गमन रक्ताभिसरण की वृद्धि के द्वारा शीव्रता से होता है। स्वेद-साध्य रोगी ( Indication of sweating) 5579 (Asthma), sory Cough due to inflamation of the Respiratory and Extra respiratory passages ___ + व्यायाम उष्णसदनं गुरुप्रावरणं क्षुधा वहुपान भयक्रोधावपनाहाहवातपा. दि स्वेदयन्ति दशैतानि नरमग्निगुणादृते । (चरक मू १४) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय ११७ producing symptions of Cough, प्रतिश्याय (Rhinitis+ Coryza), हिक्का (Hiccough), विवध (Constipated bowels), स्वरभेद (Soar throat), वात व्याधि जैसे, अदित, पक्षाघात, कर्णमन्याशिर - शूल ( Diseases of Nervoussystem like Facial paralysis Paraplagia, Earache Headache etc), amara ( Rheumatism) (Spasm) भारीपन (Heavyness), कटिग्रह (Lumbago), पृष्ठग्रह (Bachache) पार्श्वग्रह ( Stiffness of the chest ) कुक्षिग्रह (stiffness of the abdomen ) हनुग्रह ( Lock jaw ) वृषण वृद्धि (Orchitis) खल्ली ( Tetany) अपतानक ( Tetanus) वातकटक (Glossitis) मूत्रकृच्छ ( Painful Micturations ) अर्बुद ( New growth) ग्रन्थी (Cyst) शुक्राघात (Inflamation of the Serminal vessicle) प्रभृति रोगो मे चतुर्विध स्वेदो मे या तेईस प्रकार के स्वेदनो मे जहाँ जो उचित जान पडे उसका प्रयोग करना चाहिए। STEET TM --Contra idcication of sweating __ अतिस्यूल (obesity), अतिकृश ( Very weak ), अतिरूक्ष ( Starvad) मूच्छित (Syncopric and fainted), स्तभन के योग्य (Where astringets are required), क्षत-क्षीण (T B Hemoptysis), मद्य के विकार वाले (chronic Alcoholism), तिमिर (Progressive catract or gradual Loss of Vision), उदर रोग (Ascitis) गोप (Consumption ', आढयवात, दूध, दही और मधु दिए रोगी, विरेचित रोगी (जिनका Purging हुआ हो), गुदभ्र श (Anal Prolapse) ग्लानि-शोक-क्रोध-भय से पीडित (Worried), कामला (Jaundice), पाण्डुरोग (Anaemia), क्षुधित-तृषित-रक्तपित्त (Haemorrhagic Diseases), faagaa thuit (Poisoning), förut (Preganancy), gfoqat स्त्री (During Menstruation ), सद्य प्रसूता ( Peurapereum ) तथा अतिसार पीडित (Diarrhea) मे स्वेदन न करे । इन अवस्थाओ मे स्वेदन करने से विकार का शमन नही होता, प्रत्युत-रोग के बढने और व्यक्ति के शरीर-नाश का भय रहता है । स्वेद का योगायोग-- सम्यक-स्वेद-भले प्रकार से स्वेदन हो जाने पर अग्नि की दीप्ति. मदता त्वचा की प्रसन्नता, भोजन मे रुचि, स्रोतसो का निर्मल होना, निद्रा एव तद्रा का नाश, स्तब्ध सन्धियो का चेष्टायुक्त होना, स्वेद का स्राव, रोगहीनता, लघुता, Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ भिपकर्म-सिद्धि शीतल वस्तुओ के प्रति इच्छा प्रभृति लक्षण होते है। जब ये लक्षण उत्पन्न हो जाय तो स्वेदन बन्द कर देना चाहिए । अयोग-मिथ्या या असम्यक् स्वेद में उनके विपरीत लक्षण पाये जाते है। अतियोग-(Heat Exhaustion or Heat stroke) अत्यधिक मात्रा मे स्वेदन होने से सघि गूल-विदाह (Nulitis) म्फोटोत्पत्ति (Rashes), पित्तरक्तकोप ( Haemorrhage ), मू» ( sycope), भ्रान्ति (Giddiness ), gre ( Burning ), 199791 (Thirst ), 48.19€ ( Exhaustion ), प्रभृति लक्षण उत्पन्न हो जाते है । पश्चात् कर्म-After Treatment स्वेदन के अनन्तर मगो का मर्दन करके उष्ण जल से स्नान करे। स्नेहन विधि में कथित नियमो का पालन करे । स्वेदन काल मे पद्म उत्पन्न ओर पलाग पत्र के द्वारा या गीतल जल के द्वारा पात्र से अथवा कमल या मुक्ता की माला से हृदय और नेत्रो की हिफाजत करनी चाहिए । वमन विरेचन ( Emesis and Purgation) प्रयोजन :-कोष्ठगत ( Thorar and Abdoman ) दोपो को निकालने मे मुत्यत. वमन और विरेचनो का प्रयोग होता है। इसलिए ऊर्व भाग के टोप हरण को वमन और अधोभाग के दोप हरण को विरेचन कहते है । अथवा दोनो उपक्रम को हो गरीर के मलो के विरेचन करने के कारण विरेचन कह सकते है । सस्थान का प्रक्षालन (Flushing of system ) इसका प्रधान उद्देश्य है। वमन आमागय प्रभृति पचन संस्थान के ऊपरी नाग (Upper digestive tract) तथा श्वसन मार्ग तथा हृदयादि अगो (Respiratory and cordial ) की शुद्धि (Thoracis organs) करता है तथा विरेचन, पाचन-संस्थान, यकृत प्लीहा (Reticulo Endothelial System ) तथा स्त्रियो मे गर्भाशयादि की भी शुद्धि करता है। __द्रव्य-गुण ( Properties ) वमन करने वाले द्रव्य प्राय वायु एवं अग्नि गुण भूयिष्ठ अर्थात् तीक्ष्ण, सूक्ष्म, व्यवायि, विकामी गुण होने वाले एवं सम्पूर्ण शरीर के दोपो के मंधात को विलीन (उष्ण होने से पिघला कर) करके, छिन्न करके (तीक्ष्ण होने की वजह से) कही पर बिना रुके इधर-उधर वहता हुया (स्नेह के पूर्व प्रयोग से चिक्ने कोष्ट मे ) संकीर्ण मार्गों से गुजरते हुए ( अणु या सूक्ष्मता के कारण ) आमाशय में दोपो को लाकर उदान वायु से प्रेरित होकर, प्रभाव से दोपो को निकाल देते है । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय ११६ मत इसको वमन कहते है। इसके विपरीत जल और पृथ्वीतत्व की अधिकता से तथा अधोभाग पर प्रभाव करने के कारण जो द्रव्य अधोभाग से पसाने के रास्ते मलो को निकालते है, इसको विरेचन कहते हैं। कई वार दोनो गणो से सम्पन्न औषधियां वमन और विरेचन भी कराने में समर्थ होती है। द्रव्य ( Drugs Emetics and Purgativies) वमन के लिए प्रयुक्त होने वाली बहुत-सी काठोपवियाँ है, उनमे प्रमुखतया मदन फल, जीमूतक ( पीली तरोई ), इक्ष्वाकु (कडवीलोकी), धामार्गव ( कडुवी तरोई ), कुटज, कृतवेधन प्रभृति ओपधियो का उपयोग पाया जाता है । मदनफल को नर्वश्रेष्ठ वामक माना जाता है क्योकि इससे हानि ( Side effects) को सभावना अल्पतम रहती है। विरेचन के द्रव्य में श्यामा, विवृत (निशोथ), आरग्वध, तिल्वक (लोध्र ), सुधा ( मेंहुड), सप्तला, गखिनी, दन्ती और द्रवन्ती प्रभृति औपधियो प्रमुखतया व्यवहृत होती है। विवृन्मल को श्रेष्ठ विरेचन बतलाया गया है क्योकि यह त्रिदोपघ्न और मभी रोगो का शामक होता है। सुधा ( सेंहुड) को तीक्ष्णतम विरेचन बतलाया गया है। वमन-क्रिया-वमन एक ऐसा जटिल कर्म ( Complex Phenamena. ) है कि जिमके उत्पादन मे शरीर के विभिन्न अगो को एक साथ कार्य करना पड़ता है। सर्वप्रधान भाग मस्तिष्क-सेतु मे स्थिति केन्द्र- वमन केन्द्र (vomiting centie) करता है, जो विविध कारणो से उत्पन्न सवेदनाओ को सावेदनिक नाडी सूत्रो से ग्रहण करके एव उत्तेजित होकर कार्य करने लगता है। मस्तिष्क सेतु स्थित यह वमन केन्द्र कई प्रकार से उत्तेजित हो सकता है, जैसे (१) साक्षात् ( Direct) (क) मस्तिष्कगत, रक्त सचार मे रक्ताल्पता प्रभृति कारणो से वाधा उत्पन्न होने से (ख ) यान्त्रिक या रासायनिक पदार्थों की उत्तेजनाओ से जैसे-मस्तिष्कगत को अर्बुद-वृद्धि या उभार का (Pressure), मस्तिष्क सुपुम्ना शोथ, मूत्र-विपमयता आदि विकारो मे।। २ अप्रत्यक्ष-( Indirect ) शरीर की वाह्य उत्तेजनाओ से केन्द्र का उत्तेजित होना जैसे-विकृत स्वाद का द्रव्य, घृणा उत्पादक, द्रव्य या दृश्य, दुर्गन्ध, तीव्र पीडा (जैसे वृक्क शूल), कर्णान्त भाग की बाधाएं, समुद्र या आकाशमार्ग की यात्रायें कुछ विप तथा औपधियां। ___ वमन को उत्तेजित करने वाले द्रव्यो को वामक ( Emetics ) कहते है। वमन के साथ मिचली, लाला साव, पसीना, श्वसन मार्ग से स्रावो का निकलना, अन्न-नलिका से पानी का स्राव, तेजनाडी तथा अनियमित श्वसन प्रभृति Page #168 --------------------------------------------------------------------------  Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय १२१ . मायुर्वेद में कधित औषधियां जो विरेचन के नाम से व्यवहृत होती है उनमे कुछ तो अपने अगोपण के गुण के कारण, कुछ जल के शोपण को रोक कर, और कुछ आन्मो में क्षोभ पैदा करके तथा आन्न गति को बढा कर रेचन के कार्य में सफल होती है। उपयोग-विधि या कल्प :-( Administration) इन द्रव्यो को देह, दोप, दूज्य, प्रकृति, वय, वल, अग्नि, भक्ति, सात्म्य और रोग की अवस्ण प्रभृति वातो को ध्यान में रखते हुए इनके गन्ध, वर्ण, रन-आस्वाद को मेवन को अनुकूल बनाते हुए अथवा विविध तद्गुण औपधियो के सयोग करते हुए-विविध कल्पो कल्पना या बनावटो ( Preparations) में स्वरन, कल, कपाय, फाण्ट, चूर्ण जैसे बदर, पाडव, राग, लेह ( चटनी ), लड्डू उत्कारिका, तर्पण, पानक, पेय, शर्वत, मासरस (शोरवा), यूप आदि के रूप मे प्रयोग करना चाहिए । दोपानुसार कई अनुपानो के साथ या स्वतन्त्रतया भी उनका उपयोग सम्भव है जैसे वात विकारो मे तुपोदक-मैरेय-मेदक-धान्याम्ल ( काजी), फलाम्ल (फलरस ), दधि के अम्लो के साथ, पैत्तिक विकारो मे मुनक्का, आंवला, मधु, मुलेठी, परूपक (फरहद), फाणित ( राव ) और दूध आदि के साथ श्लैष्मिक विकारो मे मधु, गोमूत्र, कपाय प्रभृति द्रव्यो से प्रधान औपवि के ये सहायक मात्र होते है। इन उपायो से औषधि द्रव्य हृद्य और मनोन हो जाते है साथ ही अधिक गुणवान बन जाते है ।* (१) सयोग ( ममान वीर्य द्रव्यो के मिलने से अथवा विपरीत-गुणधर्म की - - * यद्धि येन प्रधानेन द्रव्य समुपसृज्यते, । तत्सज्ञक म योगो वै भवतीति विनिश्चय । फलादीना प्रधानाना गुणभूता सुरादय । ते हितान्यनुवर्त्तन्ते मनुजेन्द्रमिवेतरे । विरुद्धवीर्यमप्येपा प्रधानानामवाधकम् । अधिक तुल्यवीर्ये हि क्रियासामर्थ्य मिष्यते । भूयश्च पा वलाधान कार्य स्वरसभावनै । सुभावित ह्यल्पमपि द्रव्यं स्याद्वहकर्मकृत् । म्वरसैस्तुल्यवीर्यं तस्माद्रव्याणि भावयेत् । अल्पस्यापि महार्थत्वं प्रभूतस्याल्पकर्मतम् । कुर्यात् सयोगविश्लेपकालसस्कारयुक्तिभिः । (च. क १२) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि लक्षण भी होते है । वमन की क्रिया में सामागय का दृश्य द्वार खुल जाता है और ग्रहणो द्वार उदर को पेशियो तथा महा प्राचीरा के दवाव से मंकुचित हो जाता है। इस प्रकार की गति का नामजस्य मस्तिष्क मतुगत वामक केन्द्र के नियन्त्रण द्वारा होता है । वामक योग तीन बडे वेगो में बांटे जा सकते है। (१) आमागय के लोभक तथा स्थानिक अथवा परावर्तित क्रिया से उत्पन्न वमन-आमाशय में स्थित प्राणदा नाड़ी ( vagus nerve ending) के अन्त पर क्षोभ पैदा करने वाले द्रव्यो ने उस प्रकार का वमन होता है । ये द्रव्य आमाशय के ग्रहणी हार पर पहुँचने के अनन्तर वमन का कार्य प्रारम्भ करते है अत इनकी क्रिया उत्तम तभी होती है जव इनके साथ बहुत बड़ी मात्रा में जल दिया जाय साथ ही आमागय का पीडन भी इन मोपधियो के साथ मावश्यक होता है । इस प्रकार की क्रिया से युक्त वमन द्रव्यो को आमागयिक वामक (Gastric Emetics) कहते है । इस प्रकार के क्षोभक द्रव्यो मे यगद के लवण ( Zinc sulphate), फिटकिरी, इपिकेकुवाना, नौसादर, तूतिया, इमली का अम्ल ( Tartaric acid ), सरसो, गरम जल, सेंधा नमक, नीम की पत्ती तथा विविध प्रकार के मामागय क्षोभक विपो का समावेश है। (२) केन्द्रीय वामक :-कुछ ऐसी भी मोपधियां है जिनका गोषण होने के अनन्तर वमन का प्रभाव देखा जाता है जैसे हृत्पत्री ( Digitalis ), अहिफेन, लोवेलिया ये द्रव्य केन्द्र को उत्तेजित करके वमन के लक्षण उत्पन्न करते हैं। आयुर्वेद ग्रंथो मे व्यवहृत होने वाले वामक द्रव्य अधिकतर आमागय मे लोभ पैदा करके अथवा परावर्तित क्रिया के द्वारा वमन पैदा करने वाले है। रेचन-क्रिया-आधुनिक दृष्टि से रेचन का कार्य बोपधियो के द्वारा चार प्रकार से होता है । अग्नेजी के रेचन गन्द के लिए कई पर्यायी शब्द व्यवहृत होते है। जैसे (Purgatives, Cathartics, Evacuants or Apirients) इनके कार्य निम्नलिखित प्रकार से होते है (१) न गोपण होने योग्य द्रव्यो का परिमाण वढा कर (२) जल का गोपण रोक कर (३) क्षुद्र और वृहद् अन्त्रो को क्षुभित करके यान्त्र गति को वढा कर (४) तथा मीचे नाडी मस्थान पर क्रिया करके । आन्त्र की गति वढ जाने से पानी मे पतले दस्त वैग से होने लगते है और पानी के गोपण कराने का मौका नहीं मिलता। वहुत-से चूर्ण केवल आन्त्र में अपने परिमाण के कारण आध्मान करके दस्त ले आते है। विरेचन के पूर्व आन्त्री का स्नेहन (Lubrication ) करने से रेचन बढिया होता है इसीलिए प्राचीनो ने रेचन के पूर्व स्वेदन का विधान किया है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय १२१ आयुर्वेद मे कथित औपधियाँ जो विरेचन के नाम से व्यवहृत होती है उनमे कुछ तो अपने अशोषण के गुण के कारण, कुछ जल के शोपण को रोक कर, और कुछ आन्यो मे क्षोभ पैदा करके तथा आन्त्र गति को बढा कर रेचन के कार्य में सफल होती है। उपयोग-विधि या कल्प :-( Administration) इन द्रव्यो को देह, दोप, दूप्य, प्रकृति, वय, वल, अग्नि, भक्ति, सात्म्य और रोग की अवस्था प्रभृति वातो को ध्यान में रखते हुए इनके गन्ध, वर्ण, रम-आस्वाद को नेवन को अनुकूल बनाते हुए अथवा विविध तद्गुण औपधियो के सयोग करते हुए-विविध कल्पो कल्पना या बनावटो ( Preparations) मे स्वरम, कल्क, कपाय, फाण्ट, चूर्ण जैसे वदर, षाडव, राग, लेह (चटनी ), लड् उत्कारिका, तर्पण, पानक, पेय, शर्वत, मासरस (शोरवा), यूप आदि के रूप में प्रयोग करना चाहिए । दोपानुसार कई अनुपानो के साथ या स्वतन्त्रतया भी इनका उपयोग सम्भव है जैसे वात विकारो मे तुषोदक-मैरेय-मेदक-धान्याम्ल (काजी), फलाम्ल ( फलरस ), दधि के अम्लो के साथ, पैत्तिक विकारो मे मुनक्का, आँवला, मधु, मुलेठी, परूपक (फरहद), फाणित ( राब) और दूध आदि के साथ श्लैष्मिक विकारो मे मधु, गोमूत्र, कपाय प्रभृति द्रव्यो से प्रधान औषधि के ये सहायक मात्र होते है। इन उपायो से औषधि द्रव्य हृद्य और मनोज हो जाते है साथ ही अधिक गुणवान बन जाते है ।* (१) सयोग (ममान वीर्य द्रव्यो के मिलने से अथवा विपरीत-गुणधर्म की * यद्धि येन प्रधानेन द्रव्य समुपसृज्यते, । तत्सज्ञक स योगो वै भवतीति विनिश्चय । फलादीना प्रधानाना गुणभूता सुरादय । ते हितान्यनुवर्तन्ते मनुजेन्द्र मिवेतरे । विरुद्धवीर्यमप्येपा प्रधानानामवाधकम् । अविक तुल्यवीर्ये हि क्रियासामर्थ्य मिष्यते । भूयश्च पा वलाधान कार्य स्वरसभावनै । सुभावित ह्यल्पमपि द्रव्य स्याद्वहुकर्मकृत् । स्वरसंस्तुल्यवीर्यैर्वा तस्माद्रव्याणि भावयेत्। अल्पस्यापि महार्थत्वं प्रभूतस्याल्पकर्मतम् । कुर्यात् सयोगविश्लेपकालसस्कारयुक्तिभि । ( च क १२) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म - सिद्धि १२२ औपत्रियो के सयोग मे ), विश्लेप ( विरुद्ध वीर्य द्रव्यों को निकाल देने से अथवा समान वीर्य द्रव्यों के निकाल देने से ), काल ( समान या अनमान होने से ), मस्कार ( समान या असमान गुण धर्म वाले सस्कारो मे ) तथा युक्ति ( प्रयोग की चातुरी के ऊपर अल्प गुण की औपधियो से बडा काम और वडी गुण वाली औपधियो से भी छोटा काम लिया जा सकता है । उदाहरण के लिए सम्यक् प्रकार मे स्निग्ध रोगी मे अल्प वीर्य वाली ओपधि से भी किया गया गोधन बहुत मात्रा में दोपो को निकाल सकता है । इसके विपरीत अस्निग्ध व्यक्तियो मे तीव्र वीर्य की सोपधि के उपयोग से भी अल्प कार्य का या सर्वथा कार्य-हीनता देखी जाती है । मक्षेप मे (१) मयोग ( Addition ) (२) त्रिश्लेप ( Substraction) (३) काल (Time) (४) संस्कार ( Reactions ) तथा ( ५ ) युक्ति ( gudicial use) के ऊपर शोधन के लिए प्रयुक्त औपवियो के कार्य ( Action ) भिन्न-भिन्न स्वरूप के हो सकते हैं । ( २ ) जिस प्रधान द्रव्य ( Main Ingradients ) के साथ दूसरे द्रव्य मिलते है, वे प्रधान के अनुमार ही कार्य करते हैं । उम योग का नाम भी उम प्रधान औषधि द्रव्य के अनुरूप ही होना चाहिए। जैमे लगुनादि वटी, कृष्णबीजादि चूर्ण आदि । प्रवान द्रव्य की उपमा राजा से दो सकती हैं जैसे, किसी राज्य मे राजा प्रवान होता है राजा का अनुसरण उसकी प्रजा करती है । उसी प्रकार प्रधान द्रव्य योग मे राजा का स्थान प्राप्त किए रहता है । उसके साथ कुछ विरुद्ध वीर्य की भी औषधियाँ मिल जायें तो वे भी प्रधान की क्रिया में वाधा नही पहुँचाती तथापि समान या तुल्य वीर्य औपवियो ने बना योग श्रेष्ठ होता है और उसमें कार्य करने की क्षमता भी अत्यधिक होती है । और ( ३ ) तुल्य वीर्य ( Equal Properties) के द्रव्यों के योग तथा तुल्य वीर्य स्वरसो की भावना से योग अधिक वलवान हो जाता है । किसी विशेष औपवि का गुण बढाना हो तो उसी ओपवि के स्वरस से भावना दे दी जाय तो वह अधिक क्तिगाली और कार्यकर हो जाती है । उदाहरण के लिए आँवले या लोध्र के चूर्ण में यदि आंवले या लोध्र के स्वरस को भावना दे दी जाय तो वह अधिक वीर्यवान ( Increased properties and Potency ) का हो जाता है | थोडी मात्रा मे इसका प्रयोग अधिक कार्यकर हो जाता है । इसलिए सदैव तुल्यवीर्य स्वरसों की ही भावना देनी चाहिए। जैसे लोन जो स्वयं रेचक है, उनमें स्तुही क्षीर की भावना । ( ४ ) ऊपर लिखे वमन एवं विरेचन के कल्प तीन प्रकार के हो सकते Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय १२३ है । तीक्ष्ण, मध्य और मृदु । रोगी तथा रोग के तीन प्रकार के उत्तम, मध्यम, हीनादि का विचार करते हुए यथाक्रम इन योगो का इस्तेमाल करना चाहिए ।* तीक्ष्ण ( Drastic)-स्निग्ध और स्विन्त (स्वेदन किए ) व्यक्तियो मे सूखपूर्वक वेग के साथ शीघ्रता से जो वेगो को निकाले, साथ ही गुदा और हृदय मे वेदना न पैदा करे तथा अन्त्रो मे किसी प्रकार की हानि न पैदा करे तो उसे तीक्ष्ण वीर्य का विरेचन कहते है । इनसे कुछ हीन गुण का विरेचन मध्यम (Mild ) कहलाता है। इसके द्वारा विशोधन न बहुत तेज और न बहुत हल्का, मध्यम दर्जे का होता है । यदि औपधि का वीर्य मन्द हो (Low Potency) असमान वीर्य औपधियो के सयोग से बनी हो, कम मात्रा मे दी गई हो अथवा रोगी का स्नेहन-स्वेदन भी न हो सका हो तो वह मृदु प्रकार ( Laxative) का गोधन होता है । इनके द्वारा मद वेग का शोवन होता है। चमन विधि (Method of induction of Emesis ) तीष्ण अग्नि वाले, बलवान, बहुत दोप युक्त, महान रोग से पीडित तथा वमन जिसे सात्म्य हो, इस प्रकार के रोगी को लेना चाहिए। उसका स्नेहन तथा स्वेदन करावे। इन क्रियाओ से दोपो के शिथिल हो जाने पर उसे कफवर्धक अभिष्यदी भोजन दे । जैसे ग्राम्य, औदक तथा आनूप मासरस या दूध । इससे रोगी का कफ बढ़ जाता है। उसे उत्क्लेश होने लगता है। जिससे वामक औपधियो के पीने से वमन सुखपूर्वक होने लगता है।। दूसरे दिन प्रात काल ( पूर्वाह्न) मे साधारण काल मे जव न अधिक ठण्डा हो न गर्म हो, रोगी के कोष्ठ विचार करते हुए, जो ठीक हो उस मात्रा मे वामक द्रव्य का प्रयोग कपाय, कल्क, चूर्ण अथवा स्नेह के किसी एक रूप मे * बलविध्यमालक्ष्य दोपाणामातुरस्य च । पुन प्रदद्याद् भैपज्य सर्वशो वा विवर्जयेत् । तीक्ष्णो मध्यो मृदुर्व्याधि सर्वमध्याल्पलक्षण । तीक्ष्णादीनि बलावेक्षो भेषजान्येपु योजयेत् ॥ सुख क्षिप्र महावेगमसक्त यत् प्रवर्तते। नातिग्लानिकर पायो हृदये न च रुक्करम् । अन्तराशयमक्षिण्वन् कृत्स्न दोप निरस्यति । विरेचन निरूहो वा तत्तीक्ष्णमिति निदिशेत् ।। किंचिदेभिर्गणीन पूर्वोक्तमत्रिया तथा । स्निग्धस्विन्नस्य वा सम्यमव्य भवति भेषजम् । मन्दवीयं विरुक्षस्य हीनमात्र तु भेपजम् । अतुल्यवीय सयुक्त मृदु स्यान्मन्दवेगवत् ॥ (च क १२) Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ भिपकम-सिद्धि पिलावे । वमन के लिए व्यवहृत होने वाले रोगो मे यह ध्यान रखना चाहिए वह अप्रिय, घृणोत्पादक, वीभत्स और दुर्गन्ध वाले हो । विरेचन द्रव्य ठीक उसके विपरीत प्रिय, सुन्दर और सुगन्ध वाले होने चाहिए। वमन से ठीक होने वाले व्यक्तियो मे औपधि को अतिमाना मे पिलाना चाहिए । अर्थात् कठ पर्यन्त पिलाना चाहिए। यदि रोगो व्यक्ति सुकुमार, कृम, वालक, वृद्ध या डरपोक हो तो उसके लिए दूध, दही, तक्र, यवागू पहले पेट भर कठ पर्यन्त पिला देना चाहिए। रोगानुसार भी वामक द्रव्य वदले जाते है जैसे कई बार गर्म जल मे नमक छोडकर आकठ पिलाना, कई वार नरसो और नीम की पत्ती खोला कर आकठ पिलाना भी वमन को उत्तेजित करता है। इस प्रकार के वामक द्रव्यो को कोमल अथवा सुकुमार रोगियो को पहले दूध, दही, तक्र आदि को आकठ पिला कर वमन कराना चाहिए। औपधियो के पी चुकने के बाद आग के सामने बैठाकर अग्नि को तापते हुए कुछ देर तक दो घडी या एक मुहूर्त तक प्रतीक्षा करे । अग्नि मंताप से क्षोम वढता है, पसीना उत्पन्न होता है । दोप ढीले हो जाते है और अपने स्थान से चलायमान हो कर आमागय की ओर आ जाते है । जी मचलाना प्रारम्भ हो जाता है। मिचली के कारण रोगी को घुटने के बल बैठा कर रखे। विश्वस्त परिचारको से उसका माथा, पीठ, पाव और गले को स्थिर कराले । पश्चात् अगु लि से, कमल नाल से या एरण्ड की नली से गले के भीतर ले जाकर स्पर्श करते हुए वमन करावे । वमन तब तक करावे जब तक पूर्ण वमन के लक्षण न उत्पन्न हो जावें। ____ वमन मे सर्वप्रथम प्रसेक, पश्चात् औपधि, तदनन्तर कफ पुन पित्त और अन्त में वायु क्रमशः एक के बाद एक निकलता है। यह वमन की प्रक्रिया आज के युग मे विप की चिकित्सा मे व्यवहृत होने वाले आमाशय-प्रक्षालन (Stomach-Wash ) से बहुत सादृश्य रखता है । इसमे एक रबर की नलिका को मुखमार्ग से गले के द्वारा आमाशय में प्रवेश कराके उसी मे लगे चोगे से यथावश्यक जल या औपवि द्रव्यका द्रवभर दिया जाता है और चोगे को पुन उलट कर उसके द्वारा आमाशय का प्रक्षालन किया जाता है। आवश्यकतानुसार जितनी मात्रा मे या जितनी बार चाहे आमाशय का प्रक्षालन किया जा सकता है। वमन के कार्यों में इसका प्रयोग भी विचार्य है। पश्चात् कर्म - जब सम्यक् वमन हो जाय तो रोगी को धूम पान कराना चाहिए। ये धूम तीन प्रकार के होते है ( १ ) शमन (२) विरेचन (३) स्नेहन । इनमे से किसी Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय १२५ एक तो नामर्दी के अनुसार पिलाना चाहिए । पश्चात् रोगी को आचार सम्बन्धी नियमो के मादेन कराके निवाम देना चाहिए । Fara falar ( Vethod of Induction of Purgations )गोपन कार्यों ( Flushing of the system ) में स्नेहन, स्वेदन और वमन से मनानर ही विरेचन देना चाहिए। विना वमन कराए पुरुप मे सम्यक विरेचन होने पर भी नीने को प्रेरित हुआ कफ राहणी को टक लेता है। जिससे उदर के अधो भाग में गाता या क्वचित् प्रवाहिका उत्पन्न हो जाती है। यदि काल विरेचन कराना हो तो पूर्वाह मे लधु भोजन करा दे, फल रस और उण उल पीने को दे, भोजन में जागल, मामरस, स्निग्ध यूप, जिससे कफ अधित न होने पाये। दूसरे दिन कफ धातु के नष्ट हो जाने पर रोगी की परीक्षा गरसे मोट के अनुगार उने विरेचन की औपधियां माना से पीने को दे। फोट तीन प्रकार के मृदु, मध्य एव तीन होते है । अधिक पित्त वाला कोष्ठ मृत्र होता है उनमे दूध से विरेचन होता है । वात और कफ की अधिकता से कोष्ठ बहोता है, इन प्रसार के कोष्ठो मे विरेचन कठिनाई से होता है। दोनो के मध्य की अवस्थ्या मध्यम कोष्ठ की होती है। इसी को साधारण प्रकार का कोप्टरले है। मृदु कोष्ट में मृदु, मध्य मे मध्य और क्रूर मे तीष्ण विरेचन दे । विरेचन वर्म मे क्रमग मत्र, पुरीप, पित्त, औपधि, एव कफ एकैकश निर्गत होता है। विरेचन औषधियो के चयन में यह ध्यान में रखना चाहिए कि स्निग्ध शरीर मेनन विरेचन और मक्ष मे स्निग्ध विरेचन देना उचित रहता है। पश्चात् कर्म विरेचन औषधि के पीने के बाद भीपधि मे मन लगा कर विस्तर के समीप ही बैठे। वेग को न रोके। वायु रहित स्थान मे रहे। ठण्डे पानी का स्पर्श न करे । जबर्दस्ती प्रवाहण भी न करे । शोधन की मात्रा वमन, विरेचन प्रभृति कार्यो से तीन प्रकार का शोधन होता है। हीन, मध्य, एव प्रवर। इसका विचार चार दृष्टिकोण से किया जाता है (१) आन्तिकी- अन्तकी दृष्टि से )। (२) वैगिकी-(वेग की मख्या की दृष्टि से)। (३) मानिकी-(परिमाण की दृष्टि से)। (४) लैङ्गिकी-(लक्षणो की दृष्टि से)। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - १२६ भिपकर्म-सिद्धि जैमा कि नीचे के कोटक में पाट किया गया है :कर्म | आतिकी वैगिकी मानिकी लैनिकी जवन्य ४ जघन्य १ प्रस्थाहदय, पार्च, मर्धा, न्द्रिय वमन पित्तान्त मध्य ६ मध्य १: प्रस्थ और त्रोतो की शुद्धि और प्रवर ८ प्रवर प्रस्थ । गरीर की उपना । नोतसो को विद्धि सन्द्रियों जघन्य १० जघन्य २ प्राय ी प्रमन्नता, हल्कापन विरेचन कफान्त । मध्य २० । मध्य प्रस्थ इन्द्रियो की प्रसन्नता, प्रवर ३० प्रवर ४ प्रस्य | स्वास्थ्य अनुभव करना । नोट-वमन, विरेचन तथा शोणित मोक्षण कर्म में प्रस्थका ___ १३॥ पल का होता है । उक्ति भी मिलती है वमने च विरेके च तथा शोणित मोक्षणे । सार्द्धत्रयोदशपलं प्रथमाहुर्मनोपिणः । योगायोग के लक्षण : सम्यक् योग--ऊपर के कोष्टक में लैङ्गिको शुद्धि के कोष्ट में कथित लक्षण वमन लयवा विरेचन के ठीक प्रयोग होने पर मिलते हैं। दुश्चर्दित के लक्षण (Low dosage of Emetics):-- हृदय और बोतसो की विगुद्धि नहीं हो पाती, शरीर मे गुन्ता आ जाती है स्फोट, कोप्ठ, गीत-पिन आदि गरीर पर निकलने लगते है। गरीर मे खुजली होने लगती है। दुर्विरिक्त के लक्षण (Low dosage of Purgation):-- त्रिदोपो का कुपित होना, अग्निमान्छ, गौरव (भारीपन), प्रतिश्याय, तन्द्रा, वमन, अरुचि तथा वायु का अनुलोमन न होना प्रभृति चिह्न मिलते है । अतिवमित के लक्षण (Over dosage of Vomiting): तपा, मोह, मूर्छा, वायुकोप, निद्रा, वल को हानि । इस अवस्था मे स्तम्भन को देकर वमन बंद कराना चाहिए। पित्तघ्न स्वादु एव शीत वीर्यओपधियो का प्रयोग करना चाहिए। अतिविरिक्त के लक्षण (Over dosage of Purgatives):-- कफ, रक्त, पित्त, क्षय, वायु के रोग, संगमर्द, अगो की सुप्ति (सुन्नता), थकावट, वेदना, कम्प, निद्रा की अधिकता, बेहोशी, उन्माद, गुदभ्रश और हिवका आदि लक्षण मिलते है । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय व्यापद चिकित्सा ( Complications and Treatment ): अयोग:--यदि ठीक प्रकार का शोधन (.वचन, विरेचन ) न हो पाया हो, तो रोग और नेगी के तीन प्रकार के बलो का विचार करते हुए पुनः औपधि की माया पिलायें । यदि विशोधन के लिए दी गई दवा निकल आई हो, न पच पाई हो या पच गई हो और दोपो का निर्हरण करना आवश्यक हो तो पुन. वही या गरी दवा को पिलाना चाहिए । यदि वमन, विरेचन के द्वारा शोधन सतोषजनक नहीं हुना हो तो शेप दोपो का गमन विविध भोजन और पेय द्रव्यो के द्वारा परना चाहिए । यदि रोगी दुर्बल हो या उसके दोष दुर्वल हो या पूर्व मे शोधन हो चुका हो और जिसका कोष्ठ ज्ञात न हो ऐसे व्यक्ति को मृदु औपधि ही पिलानी चाहिए। यदि रोगो दुबल परन्तु उसके दोप अति बलवान हो तो उसमे भीमा ओपचियो पा वार-बार प्रयोग करके गोवन कराना चाहिए। क्योकि तीक्ष्ण गोधन से प्राण जाने का भय रहता है। यदि ओपधि दोपो से रुद्ध हो जाय न ऊपर से निकले न नीचे से. साथ ही रोगी मे अगमर्द और टकारे आने लगे तो गर्म जल पीने को दे और स्वेदन करे। कई वार प्रात:काल मे पिलाई दवा श्लेष्मा से रद्ध होकर उर स्थल पर पड़ी रहती है और उस समय शोधन नहीं हो पाता पुन कफ के क्षीण होने पर सायकाल मे रात्रि मे शोधन होता है। अत इस बात का ध्यान रखते हुए प्रतीक्षा करनी चाहिए । विरेचन के लिए दी हुई मोपधि का ऊर्ध्वगमन हो या जीर्ण हो गयो हो तो लवणयुक्त स्नेह देकर वातानुलोमन करे । यदि किसी शोधन के प्रयोग से लालास्राव, हृल्लास, विष्टम्भ, लोमहर्प होने लगे तो ओपवि कफ से आवृत हो गई है ऐमा समझ कर उसके लिए तीक्ष्ण, उष्ण, कटु प्रभृति, कफन्न उपचार करना चाहिए। यदि क्रूर कोष्ठ रोगी हो और उसका स्नेदन भलीभांति हो गया हो तो विना विरेचन औषधि के प्रयोग के ही उसे लघन करा देना चाहिए। इससे उसके स्नेहसमुत्थ श्लेष्मा का नाश हो जाता है। जो व्यक्ति रूक्ष शरीर वाले बहुत वायु युक्त, क्रूर कोष्ठ (Contispated Bowels) दोप्ताग्नि वाले होते है । उनमे रेचक औपधियां विना किसी प्रकार की क्रिया के ही पच जाया करती है । इसमे यदि विरेचन कराना हो तो प्रथम वस्ति देकर पश्चात् विरेचन देना चाहिए । वस्ति से प्रवर्तित दोषो को विरेचन के द्वारी शीघ्र हरण करना सभव रहता है। रूक्ष भोजन करने वाले, नित्य परिश्रम करने वाले एव दीप्त अग्नि वाले अक्तियो के दोप अपने आप ही प्राकृतिक-कर्म, वात, आतप, अग्नि से नष्ट हो Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ भिपकर्म-सिद्धि जाया करते है । ऐसे व्यक्तियों में विरोधी भोजन, अध्ययन एव वजीजन्य उत्पन्न दोपो के महन की शक्ति आ जाती है । परन इनमें तज्जन्य रोग नहीं होते । इनको स्वस्थ अवस्था में विशोधन की कभी आवश्यकता नहीं। उनका सदैव स्नेहन करना चाहिए एवं वायु ने रक्षा करनी चाहिए। विना व्यापि के उनका विद्योधन न करे । अर्थात् रोग की अवस्था में यदि उनके विधान हो तभी करना चाहिए अन्यथा नही | देश, काल का ध्यान रखते हुए उपर्युक्त विधियों का अनुसरण करते हुए यन्नपूर्वक विरेचनो का प्रयोग करने में कोई दोष नहीं होता । परन्तु विपरीत क्रमी पर चलने से रोगी के ऊपर विपवत् प्रभाव होता है । अवाम्य रोगी (Contraindicatious of Emesis) - , 1 क्षतक्षीण, अतिस्थूल, वतिकृम, बाल, वृद्ध, दुर्बल, श्रान्त, पिपासित, क्षुक्ति कर्मभाराध्यवन कपित, उपवास, मैथुन, अध्ययन, व्यायाम, चिन्ता प्रभक्त, म युक्त गर्भ, सुकुमार, सवृत्तकोष्टदुरय, रक्त पित्त प्रक्त छर्दि कान स्थापित, अनुवासित, हृद्रोग, उदावर्त, मूना घात, प्लीह, गुरम, उदर रोग, अष्टीला, स्वरोपघात, तिमिर, गिर, वर्ण, नेत्र एवं पाण्डु रोग से पीडित व्यक्ति मे वमन न करावे | 1 वमन के योग्य रोगी ( Indication of Emesis ) :- नेप रोगियों में वमन करावे | जैसे विशेषत पोनम, कुष्ट, नवज्वर, राजयक्ष्मा, काम, श्वास, गलग्रह, गलगण्ड, ब्लीपद, मेह, मन्दाग्नि, निरद्वान्त्र, अजीर्ण, विसूचिका, अलसक, विपपीत, गरपीत, विपदष्ट, विपविद्ध, विपदिग्ध, अयोग रक्तपित्त, प्रनेक, अर्श, हल्लास, अरोचक, अविपाक, अपची, अपस्मार, उन्माद, अतिनार, गोफ, पाण्ड रोग, मुखपाक, दुष्ट स्तन्य, कफजरोग । इन रोगो में वमन एक प्रधान और उत्तम कार्य है । जैसे कि क्यारी के वध के टूट जाने पर धान्य में अत्यधिक पडा हुआ जल निकल कर अन्त को मुखा देता है । इसी प्रकार इन रोगियों में वमन गरीर के टोपो को निकाल कर रोग को मुखा देता है | विरेच्य रोगी - ( Indication of Purgations ) कुट, मेह, ज्वर, ऊर्ध्वग - रक्त-पित्त, भगंदर, उदर रोग, अर्श, ब्रध्न, प्लीह, गुल्म, अर्बुद, गलगण्ड, ग्रन्थि, विसूचिका, अलसक, मूत्राबात, कृमि कोट, विनर्प, पाण्डुरोग, गिर गूल, पार्श्वशूल, उदावर्त्त, नेत्रदाह, आस्यदाह, हृद्रोग, व्यग, नीलिका, नेत्र रोग, नासारोग, मुखरोग, कर्णरोग, हलीमक, श्वाम, कास, कामला अपची, अपस्मार, उन्माद, वातरक्त, योनिदोष, रेतोदोप, तिमिर, अरोचक, अविपाक, छर्दि, गोथोदर, विस्फोट, आदि पित्त दोष समुत्य रोग । अग्नि के Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय १२६ बुझाने से जैसे अग्निगृह शीतल हो जाता है। उसी प्रकार पित्त के विरेचन से पुरुप-गरीर को शान्ति का अनुभव होता है । अविरेच्य (Contra-indication of Purgation) - सुमार, गुदक्षत, मुक्तनाल, अधोग रक्तपित्त, दुर्बलेन्द्रिय, अल्पाग्नि, निरूढ ( जिनका आस्थापन हो चुका है ), श्रमादि से व्यग्न, अजीर्ण, नवज्वर, मदात्यय, अति आध्मान, गल्य से पोडित, अभिहत, अतिस्निग्ध, अतिरूक्ष, क्रूरकोष्ठ, क्षतादि तथा गर्भिणी मे विरेचन नही करना चाहिए । __वमन कर्म में प्रयुक्त होने वाले प्रधान भेपज-मदनफल, मधुयष्टि, नीम की पत्ती, जीमूत, पटोल, कृतवेवन ( कडवी तरोई की जातिया ), पिप्पली, कुटज, इक्ष्वाकु, एला, धामार्गव ।' __ विरेचन कर्म में प्रयुक्त होने वाले प्रधान भेषज-त्रिवृत--( काली निशोथ ), त्रिफला, दन्ती, नीलिनी, सप्तला ( सेहुड की जाति का क्षीर), वचा, काम्पिल्लक ( कवीला ), गवाक्षी, क्षीरिणी ( दूधिया ), निचुल ( हिज्जल ), उदकीर्या पील आरग्वध ( अमलताश ), द्राक्षा, द्रवन्ति ( दन्तीभेद २ ( इन वामक एव विरेचक औपधियो के विस्तार के लिये चरक विमानस्थान का आठवां अध्याय द्रष्टव्य है।) द्वितीय अध्याय वरित तथा वस्ति कर्स ( Clysters or Enema & its Application ) निरुक्ति: पंच कर्मो मे एक अन्यतम महत्त्व का कर्म वस्ति कर्म है। वस्ति के द्वारा अनेक कार्यों का सम्पादन होता है । आयुर्वेद ग्रथो मे वस्ति कर्म को बहुत प्रशसा पाई जाती है । "वस्ति कर्म में प्रयुक्त होने वाले द्रव का निर्माण नाना प्रकार के औपवि-द्रव्यो के सयोग से किया जाता है फलत. उन उन औपधियो के प्रभाव से वस्ति के द्वारा सशोधन, संशमन तथा सग्रहण यथोचित मात्रा में करना सम्भव रहता है। __वस्ति क्षीणशुक्र को शुक्रवान बनाती है। दुर्बल को बलवान करती है, स्थूल को कृश करती है। आँखो को तेजस्वी करतो है, झुर्रियो का पडना, पलित (केशो १ उपस्थिते श्लेष्मपित्ते व्याधावामाशयाश्रये । वमनाथं प्रयुजीत भिषग्देहमदूपयन् ॥ २ पक्वाशयगते दोपे विरेकार्थं प्रयोजयेत् । ( चरक सूत्र २ ) हभि०सि० Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० भिपकर्म-मिद्धि, मा पकना) को दूर करती है । बायु को रियर करती है। भली प्रकार उपयोग में लाई गई वस्ति शरीर की पुष्टि, बल, वर्ण और आर को बढाती है। बस्ति या उपयोग वात में, पित्त में, कफ में, कमें, दोपो देगा में नय दोपो के मन्निपात में मदेव हितावह होता है। महर्षि चरक ने लिग है "गाकोष्टगत, मर्मगत, ऊर्वजत्रुगत, एकाग गत, अदिगत, अथवा नमाजगत जो भी कोई रोग उत्पन्न होता है उसकी उत्पत्ति में वायु के सिवा और कोई दूसरा मुख्य कारण नहीं है । यह वायु ही कफ-पित्त-पुरीप-मन-बैट बादि मलो का मचय नाग एव वाहर फेरने वाली है। उन बाय की बलि के अतिरिक्त कोई दूसरी दवा नहीं है। अत चिकित्मा का आधा भाग वस्ति ही है। भोर कई व्यक्तियों के विचार मे तो बस्ति ही सम्पूर्ण चिकित्मा है।" रोगोत्पादन तथा शरीर के धारण दोनो ही कार्यों में वायु की मन्यता है। रोगोत्पत्ति में वायु दोप को प्रधानता प्रसिद्ध है ही। __ "पित्त पगु कफ. पगु पगवो मलघानब , बायना यत्र नीयन्ते तत्र गच्छन्ति मेघवत् ॥" अर्थत् पित्त और कफ दोष तो पगु है अर्थात् स्वयं गमनगोल नहीं है उनमें चलने को गक्ति तो वाच की महानता मेही माती है। पित्त योर फकी उपमा बादलो मे दी गई है और वायु की हवा मे। हवा जहाँ चाहे ले जाकर पानी बरमा दे । वायु, कफ और पित्त की वृद्धि और स्थाननश्रय कराके जहाँ चाहे रोग पैदा करदे । स्त्रम्य गरीर में भी वायु को "यन्त्रतंत्रवर" मम्पूर्ण गरीर और मन न अधिपति और मचालन के रूप में स्वीकार किया गया है । वह गरीर का धारक है। इसके विकृत होने पर गरीर का बारण मभव नहीं रहता है । इस वायु का १ वस्तिर्वय स्थापयिता मुन्वायुर्वलाग्निमेधास्वरवर्णकन्न । मर्यिकारी गिगुवृद्धयूना निरत्यय सर्वगदापहन्त्र ।। गाखागता कोष्ठगताञ्च रोगा मर्मोनर्वावरबाङ्गजाश्च । ये मन्ति तेपा नहि कञ्चिदन्यो वायो परं जन्मनि हेतुरनि । विण्मूत्रपित्तादिमलाशयाना विक्षेपमवातकरच रस्मात् ॥ तम्यानिवृद्धस्य गमाय नान्यद् वस्ति विना भेपजमस्ति किचित् । तस्माच्चिक्त्मिार्वमिति त्रुवन्ति मळ चिक्त्मिामपि वस्तिमेके ।। मूलं गुदं गरीरस्य सिरान्तत्र प्रतिष्टिता । (च सि १) म गरीर पृष्णन्ति मूर्वानं यावदायिता ।। परागरे-चक्रपाणि टीका । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय १३१ प्रकृतिस्थ रखना भी वस्ति मे सभव है । अत स्वस्थ वृत्त की दृष्टि से भी वस्ति का महत्त्व कम नही है । शल्य तन्त्र में रक्तविस्रावण या शिरावेध का जो महत्त्व है काय-चिकित्सा मे उसी तरह का स्थान इन वस्तियो का हे । शल्य तन्त्र मे भी सिरा वेध आदि का विधान है " रक्त के निकल जाने से सम्पूर्ण विष का निर्हरण हो जाता है" विप की निवृत्ति में जितने भी कर्म बतलाए गए है, वे सभी एक तरफ एव रक्तमोक्षण अकेले ही दूसरी तरफ खड़ा हो सकता 1 " शिराव्यधश्चिकित्सा र्द्धगल्यतन्त्रे प्रकीर्तितम् । यथा प्रणिहित सम्यक् वस्तिकायचिकित्सिते । ( सु ) प्रयोजन : वस्ति का उपयोग तीन प्रकार के कार्यो मे होता है : (१) पच कर्म मे ( शोधन मे ) । (२) अनागत रोगो के प्रतिपेध ( स्वास्थ्य रक्षण या रोग निवारण Profilaxis) (3) रोगो की चिकित्सा मे ( Curative ) । वय ( Age ) वालक तथा वृद्ध मे वस्ति को सर्वरोग सभी उम्र के रोगियो मे वस्ति का उपयोग पथ्य है । इसका प्रयोग शिशु, वृद्ध, युवक मे किया जा सकता है । वमन तथा विरेचन का निपेध है वहां पर भी वस्ति का प्रयोग लाभप्रद होता है । हर कहा है । वस्ति को सर्वरोगहर कहने का तात्पर्य यह है दोपो का सगोवन हो जाता है और वह सशोधन के द्वारा सभी रोगो मे लाभ पहुचाती है । ठीक ढंग से प्रयोग में लाई गई वस्ति के द्वारा कोई भी हानि नही होती । वस्ति आयु को स्वस्थ करती है तथा सुख, आयु, बल, अग्नि, मेधा, स्वर और वर्ण को बढाती है । वस्ति के दो प्रधान भेद होते है । यथा १ रूक्ष वस्ति कि वस्ति के द्वारा तथा २ स्निग्ध वस्ति । रूक्ष वस्तियो के द्वारा दोषो का सशोधन तथा सशमन और स्निग्ध या तैल वस्तियो के द्वारा स्नेहन, वीर्य तथा बल की पुष्टि होती है । वायु का कोप दो ही प्रकार से हो सकता है । "वायोर्धातो क्षयात्कोपो मागस्यावरणेनवा" इनमे मार्गावरण का दूरीकरण रूक्ष वस्तियो से और धातु क्षय का पूरण स्निग्ध वस्तियो के द्वारा होता है । इसलिए वस्ति को परम वायुशामक माना गया है स्निग्ध वस्तियो का वर्णन करते हुए आचार्यो ने लिखा है जैसे कि पेड़ की जडमे जल डालने से जिस प्रकार वह पुष्पित - Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ भिपकर्म-सिद्धि और पल्लवित हो जाता है उसी प्रकार से ठीक समय से गुदा के दारा दी गई अनुवासन बस्ति के द्वारा भी शरीर बलवान् बनता है इतना ही नहीं, वायु के कारण स्तब्ध ( सकुचित) हुये अगो मे, भग्न मे पीडित रोगियों में, गाखागत वात रोगो मे, आध्मान प्रभृति उदर रोगो मे, वार-बार होने वाले गर्भ त्रावो मे मीण इन्द्रिय के पुरुपो मे कृग तया दुर्वलो मे भी वस्ति कर्म प्रगस्त रहता है। ___ वस्ति का प्रयोग आवश्यकतानुमार रोगी की दगा, देश और काल का विचार करते हए करना चाहिए। यदि रोगी उष्णता ने पीडित हो तो उनमे गीतल वस्तियो का प्रयोग उचित होता है । यदि रोगी मे गोवन अपक्षिन हो ता रुक्ष या निरूह वस्तियो का उपयोग करे तथा वृहण की आवश्यकता होने पर स्निग्ध वस्तियो का उपयोग उचित है । इस नियम के विपरीत गोधन के योच रोगी में वहण या वृहण के योग्य रोगी मे गोधन कदापि नहीं करना चाहिए। यदि रोगी क्षत-मीण से युक्त अर्थात् क्षयी या गोपी (T B ) हो उसमे विगोधन न करे। ठीक इसके विपरीत कुष्ठ प्रमेह, प्रभृति अन्य गोधनीय रोगो से पीडित मनुष्यो मे वृहण न करे क्योकि ये रोगी सदा ही संगोधन के लिए माने जाते है।' afea FT HETT ( Importance of Enemata ) - काय-चिकित्मा में वस्ति का वडा महत्व दिया गया है। गल्य-चिकित्सा में भी इसकी महत्ता क्म नही समझनी चाहिए । शल्य-चिकित्सा मे रक्तावसेचन क्रिया को जो स्थान प्राप्त है वही स्थान काय-चिकित्सा में वस्ति को दिया गया है। वस्तिका प्रयोग दोप, औपधि, देश, काल, सात्म्य, सत्त्व, वय, वलादि का विचार करते हुए करना होता है। वस्ति की बनावट तथा उसका प्रतिनिधि (Structure of the old Clyster, its modern substi tute ) प्राचीन ग्रथो में एक सामान्य वस्ति को रचना इस प्रकार की बतलाई गई है। वस्ति के चार भाग वतलाए गए है। (१) बस्ति ( Bladder ) (२) नेत्र (नलिका Tube) (३) छिद्र (opening)(४) कणिका (Ampula) . (१) वस्ति:-यह वस्ति पुराने शरीर के गाय, भैन, हरिण, सूअर, और वकरी के मूत्राशय से बनाई जाती है। इन जानवरो में से किसी एक के मूत्राशय १ उष्णा भिभूतेषुवदन्ति गीताञ्छीताभिभूतेषु तथा सुखोष्णान् तत्प्रत्यनोकोपन्च मंप्रयुक्तान् सर्वत्र वस्तीन् प्रविभज्य युङ्ग्यात् । न वृहणीयान् विदधीत वस्तीन विरोधनीयेपु गदेपु विद्वान् कुष्ठ प्रमेहादिपुमेदुरेपु नरेपु ये चापि विशोधनीयाः । (च सि १) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय १३३ को निकाल कर उसमे भी शिरा जाल को पृथक कर, गंधहीन करके और लाल रंग से रंग करके शुद्ध, करके रख लेना चाहिए । यदि जानवरो के मूत्राशय उपलब्ध न हो तो चमडे के टुकडे प्लव नाम के पक्षि के गले या कपडे का इस्तेमाल वस्ति बनाने के लिए करें । इमो वस्ति के द्वारा बने थैले के कारण हो, पूरे यन्त्र का नाम वस्ति यन्त्र पड गया । (२) नेत्र ( नलिका) : - वस्ति को नलिका सुवर्ण, रजत, वग, ताम्र, पित्तल, कास्य, लकडी, लोह, अस्थि या हाथी के दात अथवा छिद्रयुक्त सीग के बनाए जाते है । (३) छिद्र :- नेत्र के द्वार को छिद्र कहते है । इस छिद्र का परिमाण आयु के अनुसार रखने की विधि बतलाई गई है। काम करते समय वर्ति को निकाल ले पुन कार्य के समाप्त हो जाने पर उसके छिद्रो को रुई को वत्ति से बन्द करके रखे । (४) कर्णिका : हुक्के को नली मे जेसे बीच मे उभार मिलते है, उसो प्रकार के उभार नलिका में भी वोच-बीच में बनाये जाते हैं । इन उभारो को कणिका कहते हैं । इनमे दो कणिकाएँ, जिनमे एक तो वस्ति वाले भाग के पास मे वस्ति को उसमे लगा कर सूत्रो मे स्थिरीकरण के लिए बनाई जाती है और दूरी कणिका वस्ति के अनके समीप चतुर्थाश पर पहले की अपेक्षा छोटे परिमाण की बनाई जाती है जिससे वस्ति का प्रवेश गुदा आदि में करके वहाँ तक पहुँचा कर उसका स्थिरीकरण किया जा सके । इन उभारो के स्थान पर नलिका छिद्र भी अपेक्षाकृत अधिक चौडा हो जाता है जिससे औषधि द्रव के प्रवेश मे उसका वेग शिथिल हो सके । नेत्र की लम्बाई : - नेत्र की लम्बाई आयु के अनुसार अर्थात् ६-८० और १२ वर्ष की आयु में क्रमश ६-१२-१८ अगुलो की होनी चाहिए । नली की मोटाई मूल की ओर अधिक, परन्तु अग्र को ओर क्रमश कम होनी चाहिए । मूल की तरफ नलिका अगुष्ठ परिणाह की ओर क्रमश अग्र की ओर कनिष्ठिका ( छोटो अगुली ) के परिमाण की होनी चाहिए । नलिका सीधी होनी चाहिए । उसकी समता गो-पुच्छ मे दी जाती हैं जैसे गाय का पुच्छ ऊपर में मोटा क्रमश नीचे की ओर पतला होता है उसी के सदृश वस्ति का नेत्र भी होना चाहिए । नलिका खुरदरी न हो चिकनी हो और उसका - मुख गुटिका मुख बडी गोलो जैसे गोल होना चाहिए । नेत्र के दोप -- छोटापन, पतला पन, मोटापन, जीर्णता, नली का वस्ति भाग के साथ ठीक बन्धन का न होना, छिद्र का वोच मे न हो कर किनारे पर होना, टेढा होना, ये सात दोप नेत्र के माने गए है । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ भिपार्म-सिद्धि इन दोपो के कारण प्रयोग में कठिनाई होती और क रो है । जैरो (१) अप्राप्त (औषध-द्रव्य गा टीक तरह में प्रवेशान रोना ।) (२) का मात्रा मे न पहुंचना ( ३ ) क्षोग ( गट ) () ग ( f r) (': } क्षणन ( बाट जाना या क्षन होना) (8) नार (m) (७) गुरा में पालामा होना तथा (८) गतिका वक्र होना। वस्ति के दोप:-मामान न सोना, मागाना, होला, टा होना, जालीदार होना, वातदुष्ट दा होना नि नया ना ना मार दोष वस्ति में हो सकते है। इन प्रारम्तिमोगा में मारनी करना चाहिए । इन दोपो के कारण निम्नलिपि परिणाम होने की विषमता, सट्टी दुर्गन्ध फा निकलना, बनिया होना, अनि का टोय नमः पकड मे न आना, फेनयुक्त होना, भावयुक्त रोना, साथ में बिना , अनि आठ दोष इनके अन्दर आते है। वस्ति यन्त्र की प्रयोगविधि :-चम्नि को नंग के माय भली प्रकार बाघ कर उसे दवा कर, हवा को निकाल कर, उसको मिटनो को टीफ पर रखे, उसके मुख को अगुठे मे दवा कर बोर नेत्र के अग्रभाग में पड़ी हुई भी वत्ति को पृथक कर ले । तदनन्तर जिस रोगी में वस्ति का प्रयोग करना होगा तैल का अभ्यग कराके और गुदा को स्निग्ध करके उनके मन और मल मा त्याग कराके, ऐसे समय में जब कि उमको तेज भूख न लगी हो नय नि यात्रा प्रयोग करना चाहिए । रोगी को उनके वाम पार्च पर नुनपूर्वक लिटा कर, बार पैर को पूरी तरह से फैला कर और दाहिने पैर को मोड कर, बाएं पैर के ऊपर रखकर, इस आसन में वस्ति का प्रयोग करे। रोगी को ममान गमन पर या सिर को किंचित् झुका कर, या अपने हाथो को तकिया बनाकर (सिर को बाएं हाथ पर रस कर) सीवे शरीर लेटना चाहिए । रोगी की गुदा का स्नेहन करके नेत्र के नतुर्थीग भाग को पृष्ट बग की रेखा में प्रविष्ट करे, प्रविष्ट करते समय नेत्र का कम्पन नही होना चाहिए, साय ही कार्य मे शीघ्रता भी करनी चाहिए। वन्ति में एक ही पीडन ( दवाव ) से पूरे औपच द्रव्य को भीतर में पहुँना देना चाहिए, क्योकि उससे वायु प्रदेश (Air Bubbles) का भय लगा रहता है। वस्ति यन्त्र के अन्यथा प्रयोग के दोप यदि नेत्र का तिरछा प्रोग किया जाय तो औषधि धार से नहीं जा पाती, यदि नेत्र के प्रवेश काल में कम्पन हो तो उससे गुदा में व्रण होने की सम्भावना रहती है। यदि धीरे-धीरे प्रयोग किया जाय तो औपधि आशय तक पहुँच ही नहीं पाती, यदि बहुत जोर से Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय १३५ दवाकर गोपधि द्रव का प्रवेश कराया जाय तो द्रव के कण्ठ तक पहुँचने का भय रहता है। यदि मोपधि द्रव बहुत ठण्डा हुआ तो उससे जकडाहट और विदाह को बागका रहती है । यदि बहुत उष्ण हुमा तो उससे रोगो मूच्छित हो जाता है । यदि ओपधि द्रव बहुत स्निग्ध हुआ तो उनमे शरीर मे जकडाहट आ जाती है। यदि बहन रूम हुग तो उससे वायु की वृद्धि होती है । यदि द्रव बहुत पतला हुआ या उनमे लवण (नमक) की मात्रा कम हुई तो उससे औपधि हीन मात्रा (under dose) हो जाती है । यदि बहुत सान्द्र (Concentrated ) हुआ तो उसमें ओपथि के अतियोग (Orver dose) होने का भय रहता है, साथ ही इससे रोगी नाम ( Depressed ) हो जाता है और गुदा मे अन्त.प्रविष्ट द्रव्य भी देर में निकलता है। यदि द्रव मे अधिक मात्रा मे नमक छोडकर उसे साद्र कर दिया गया हो तो रोगी में जलन और पतले दस्त प्रभृति उपद्रव हो जाते है । अत एव इन बातो का विचार करते हुए युक्तियुक्त मात्रा मे वस्ति का प्रयोग करना चाहिए। सम्यक् प्रकार का वस्ति प्रयोग : उपर्युक्त प्रसङ्गो का ध्यान रखते हुए यथाविधि वस्ति का प्रयोग करना चाहिये। वस्ति का प्रयोग अधोवस्ति (गुदा मार्ग से), उत्तरवस्ति (मूत्र या योनि मार्ग) से कई बार इन मार्गों के प्रक्षालन की दृष्टि से ( Douche) अथवा पोषण के विचार से ( Nutrient Enemata) के रूप में किया जाता है। वस्ति के देने के पूर्व या पश्चात् वायु से बुलबुलो का प्रवेश (Air Bubbles) न हो नके इस बात का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए । क्योकि वायु के आशय मे प्रविष्ट होने से तीव्र उदरशूल होने लगता है । वस्ति देते समय पूरा द्रव का प्रवेश न करा के किंचित् शेप रख लेना चाहिए-'सावशेष च कुर्वीत अन्ते वायुर्हि तिष्ठति ।' वस्ति द्रव बनाने की एक सामान्य विधि पहले यथावत् मात्रा मे मधु, सेंधा नमक और स्नेह को छोड कर मथे । पश्चात औपवि का कल्क डाले और मथे। पश्चात् जल छोडकर मथे। इस प्रकार से मथ के द्वारा मथित घोल (Emulsion ) को वस्ति की विधि से उपयोग मे लावे। एक सामान्य वस्तियोग में सैधव नमक ३ माशे और मधु ६ माशे लेकर खरल करे पुन. उसमे नारायण या माष तैल ४ तोले मिलाकर घोटे फिर दशमल क्वाथ १ पाव मिलाकर घोल बनाकर गुदा मार्ग से वस्ति देनी चाहिये । प्राचीनकालीन वस्ति यन्त्र का आधुनिक प्रतिनिधि : __ आज के युग मे वस्ति कर्म के लिए कई प्रकार के यन्त्र व्यवहृत होते है । जिनमे अधिक प्रचलित निम्नलिखित तीन है। Page #186 --------------------------------------------------------------------------  Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय है तो अपधि की मात्रा अस्प २ से ४ औंस की रखी जाती है। ( In retention eacnma) यदि बहुत अधिक मात्रा मे द्रव पहुंचाना आवश्यक हो और उसके शोषण कराने की आवश्यकता हो जैसे, ६ पिण्ट द्रव को डालना हआ तो रोगी को वाये करवट पर लेटा कर उसको प्रविष्ट करके पुन उसे दाहिनी करवट पर लेटाते है, उसके श्रोणि या नितम्ब भाग को ऊँचा उठा देते है-आवश्यकता हुई नो रोगी को घुटने और केहुनी के बल करके औषधि द्रव को भर दिया जाता है। द्रव के निकलने के आक्षेप आने पर वार-बार रोगी की गदा के भाग पर एक तौलिए के परिये दवा दिया जाता है। यह कार्य एक चोगे ( funnel ) और रबर की नलिका तथा गोद जैसे नमनशील मत्र नाडी ( Gum Elasticcatheter) की सहायता से और आसानी से किया जा सकता है। इसमे ध्यान रखना चाहिए कि भरना धीरे-धीरे और वीच-बीच मे रुक कर होना चाहिए। माथ ही द्रव किंचित् उष्ण ९८° फ० ताप का होना चाहिए अन्यथा रोगी उसको वाहर कर देगा और औपधि द्रव अन्दर मे रुक नही सकेगा, इस विशेष प्रकार के ( Rectal Injection ) को अग्रेजी मे ( Entro clysis ) कहा जाता है। प्राचीन वस्ति कार्यों में विशोधन के अनन्तर अनुवासन वस्ति का माम्य इमी क्रिया से है। आधुनिक युग मे निम्नलिखित प्रकार के एनोमा व्यवहृत होते है (१) कृमिघ्न वस्ति ( Anthelmentic Enema ) सूत्र-कृमि ( Thread worms ) को दूर करने के लिए। (२) आकुचनहर वस्ति ( Anti spasmodic Enema) हीग आदि का द्रव । आन्त्र के आमजन्य शूल मे । (३) ग्राही वस्ति ( Astringent Enema)-गुदामार्ग के स्राव तथा अतिमार में। (४) सूदन वस्ति ( Emollient Enema) मलाशय और स्थूलान्त्र वी श्लेष्मल कला क्षुब्धता मे व्यवहृत होनेवाली-अतमी,जौ, और स्टार्च का काढा। (५ ) सशामक वस्ति ( Sedative Enemata)-स्टार्च, मुसिलेज और अहिफैन आदि का वस्ति । (६ ) रेचक वस्ति ( Pugative Enema)-ग्लिसरीन, एरण्डतैल, ओलिव आयल या केवल लवणजल, साबुन का पानी सीरिज के द्वारा देना चाहिए या एनिमा के द्वारा देना चाहिए। (७) पोषक वस्ति (Nutrient Enema.) जव मुख से अन्न का शोपण सम्भव नही रहता तो ग्लुकोज, डेक्स्ट्रोज १०% तथा सामान्य लवण विलयन एक वार मे ४ औस दिया जाता है। इसको अन्दर पहुँचाने के पूर्व एक गोवन एनीमा देकर कोष्ठ की शुद्धि कर लेनी होती है । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / अधो वस्ति LOGOT JELLED "PATTY BLDC... नैरूहिक- शोधन - लेखन I आस्थापन I निरूह- माधुतैलिक यापन युक्ारथ सिद्धवस्ति - पिच्छवस्ति प्रभृति आवस्थिक वस्तिर्या वस्ति मूत्रमार्ग उत्तर वस्ति उत्तम स्नैहिक - स्नेहन-वृंहण T अनुवासन स्निग्ग वस्ति 1 1 स्नेहवस्ति मानावस्ति अनुवासन ( स्नेह ) ( 2 तेल ) मानाय - होन योनिमार्ग - MADE L मध्यम १३८ भिपकर्म-सिद्धि Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय वस्ति के भेद या प्रकार : वस्ति के प्रधानतया दो भेद मार्ग भेद से किये जा सकते है। अधोवस्ति-जिसमे गुदा के मार्ग से औपधि प्रविष्ट की जाय तथा उत्तरवस्ति-जिसमे मूत्र या योनि मार्ग से औपधि द्रव्य प्रविष्ट किया जावे। पुन औषधि की कल्पना तथा उद्देश्य या प्रभाव या गुण भेद से वस्ति के दो प्रकार हो जाते है। नैरूहिक और स्नैहिक । नरूहिक को निरूह और आस्थापन भी कहते है । आस्थापन एव निरूह ये दोनो पर्यावाची शब्द है। दोपो के निकलने से अथवा शरीर का रोहण करने से निह कहलाती है। आयु का स्थापन--स्थिरोकरण इसके द्वारा होता है, इमलिए आस्थापन कहलाती है। आस्थापन का ही एक भेद माधुतैलिक है, माधुतैलिक वस्तियो के पर्याय रूप में यापना, युक्तरथ तथा सिद्ध वस्ति के नाम भाते हैं । इनमे मधु एव तेलका योग रहता है मत माधुतैलिक कही जाती है । इनमे यापन का अर्थ होता है आयु का दीर्घ काल तक रहना, युक्तरथ - जिनमें रथ में घोडे जतने पर जब चाहे उसको दौडा सकते है ठीक इसी प्रकार इस वस्ति का भी उपयोग बिना किसी प्रकार की पूर्व की तैयारी किये विना किसी परहेज के जव चाहे कर सकते है इसलिए यह युक्तरथ कहलाती है। सिद्ध वस्ति: यह एक प्रकार की बहुत मृदु वस्ति है और इसका अधिकतर चिकित्सा कर्म में प्रयोग होता है। इसमे वमन आदि सम्पूर्ण विधियो के उपयोग की आवश्यकता नही रहती, एक ही वस्ति दी जाती है तथा किसी प्रकार के परहेज की आवश्यकता नही रहती और इनमे कोई कप्ट नही होता और चिकित्सा मे विभिन्न रोगो के अनुसार जैसे कृमि रोग मे पलाश के बीजादिक्वाथ से, अतिसार पिच्छा वस्ति के रूप में अवस्थानुसार दी जाती है। निरूह के अनन्तर रोगी के शोधन हो जाने के बाद स्निग्ध या वृहण वस्तियो का प्रयोग किया जाता है। इन्ही स्निग्ध वस्तियो को ही अनुवासन कहते है। स्नेह की मात्रा के भेद से यह तीन प्रकार की होती है, यदि स्नेह की मात्रा पूरी दी जाय तो ६ पल ( पट्पली मात्रा) श्रेष्ठ हैं। उसको स्नेह वस्ति कहते है । यदि उसमे चौथाई स्नेह कम कर दिया जाय तो उसे अनुवासन (पादावकृष्ट) कहते है। इसको अनुवासन इसलिए कहते है कि शरीर के भीतर रहने पर भी • दुपित नही होती तथा दूसरे दिन भी दी जाती है इसलिए अनुवासन कहते हैं । इसी का एक भेद मात्रा वस्ति नाम से होता है, जिसमे स्नेह की मात्रा चतुर्याश रह जाती है। दूसरे शब्दो मे इसको इस प्रकार कह सकते है कि यदि स्नेह की मात्रा ३ पल हुई तो वह मध्य या अनुवासन वस्ति होगी। यदि स्नेह की मात्रा १॥ पल हुई तो निकृष्ट या हीन होगी। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म - सिद्धि वस्ति मुख्यतया दो प्रकार की होती है | अनुवासन और निरहण | उनमे विरेचन वर्ग के अनन्तर यदि वस्ति कर्म करना हो तो सर्वप्रथम अनुवासन का ही उपयोग करना चाहिए। रोगी के विरेचन के बाद उनका मगर्जन करते हुए उसको प्रकृत आहार पर आठवें दिन आ जाने के बाद नीचे दिन से अग करा के अनुवासन देना चाहिए | तद्नन्तर आग्यापन वस्ति या निम्हण करे । आस्थापन और अनुवासन संबन्धी कतिपय नियम १४० क- अनुवासन : (२) नाति वुभुलित ( जब रोगी को भूल तेज न लगी हो तब ) वस्तियों में निरूह का प्रयोग करे 1 FA (२) नात्यगित ( अल्प भोजन किए ) रोगी में अनुवासन करना चाहिए । (३) वस्तियो के अनन्तर समर्जन क्रमने पथ्य व्यवस्था की आवश्यकता नही रहती । वस्ति द्रव्य निकल जाने वाद उम रोगी को मातरम ( जागल ) के नाथ भोजन देना चाहिए । (४) स्नेहपान के सम्बन्ध में जिन पथ्य एवं परिहारों की आवश्यक्ता होती है उनी प्रकार का पथ्य एवं परिहार अनुवामन कर्मों मे भी रखना चाहिए । गीत तथा वमन्त ऋतुओं में दिन में अनुवासन करे । नरद्, ग्रीष्म और वर्षा ऋतुओ में रात्रि में यदि रोगी वायु से अतिपीडित हो तो और यह वायु का कोप धातुक्षयजन्य हो तो पूर्वार्द्ध मे दिन में या रात मे सत्र समय वस्ति दी जा सकती हैं । (५) अनुवासन द्रव्य के बाहर निकल आने पर मे अनुवासित व्यक्ति को प्रात काल और दिन में मै भोजन देना चाहिए । भोजन देना चाहिए । रात अनुवामित को साथ काल (६) यदि व्यक्ति बहुत रुक्ष और उनको वायु बहुत वटी हुई हो तो प्रतिदिन अनुवासन किया जा सकता है, अन्यथा तीनरे दिन, पांचवें दिन अनुवासन देना चाहिए | क्यो कि अधिक अनुदामन में अग्नि के मन्द होने का भय रहता है । (७) अनुवासन वस्तियो की मरुना विपम ( अयुग्म या ताक) होनी चाहिए । कफज विकारों में एक या तीन, पैत्तिक विकारों मे पाच या नात और वायु के रोगो में नौ या ग्यारह की मख्या में वस्तियो को दे । इस प्रकार ययावश्यक ३,४,६ या ७,८, ६ या ११ वस्तियाँ भी दी जा सकती है । (८) उष्णाभिभूत व्यक्तियो मे शीतल वस्ति ( Icewater ) और गीताभिभूत रोगियों में सुखोष्ण वम्ति दे । इसी तरह स्ति में प्रयुक्त औषधियाँ भी व्याधि के गुणो से विपरीत गुणधर्म की हो होनी चाहिए । अर्थात् स्निग्ध, गुरु, Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय १४१ लघु आदि गुणो की अनु वामन वस्ति मे व्यवहत होने वाली औपधियाँ भी होनी चाहिए। (९) विगोधन के योग्य रोगियो मे वृहण वस्तियो को न दे । जैसे कुष्ठ, प्रमेह और मेदस्थी रोगियो में मदैव मगोधन हो दे। इसके विपरीत क्षीण-क्षत, शोष और दुर्बल रोगियो मे सदैव वस्ति द्वारा वृहण ही कर्तव्य है, विशोधन नहीं । (१०) अनुवासन वस्ति के लिए आवश्यक है कि वह मलाशय या स्थूलान्त्र के अधोभाग मे तीन प्रहर तक ( ९ घण्टे तक ) पडी रहे उसके बाद निकले । उन लिए मलागर आदि के भले प्रकार से सशोधन के अनन्तर ही देना चाहिए ताकि उनका गोपण हो सके। यदि विना वहाँ देर तक रुके ही वस्ति द्रव्य निकल आवे तो पुन नई वस्ति देनी चाहिए । (११) अनवामन के कार्यों में व्यवहत होने वाली वस्ति सिद्ध तैलो की होती है और विविध औपधियो के पाक से मिद्ध तेल वस्ति की विधि से दिए जाते है। (१२) अनुवासन का प्रयोग रोगी का हाय धुला कर भोजन करा के, कगना चाहिए । अन्न की विद्ग्वावम्या में दिया गया स्नेह ज्वर पैदा कर देता है। अति स्निग्ध भोजन कराके या स्नेह पिला कर अनुवासन न देवे । दोनो मार्ग से दिया हआ स्नेह मद और मी उत्पन्न करता है। रूक्ष अन्न खाने पर दिया गया अनुवासन बल और वर्ण को घटाता है। इसलिए थोडे परिमाण ( मात्रा) मे स्नेह को भोजन मे देकर पश्चात् अनुवासन करे। मूंग आदि का यूष, दूध या मासरस, जो रोगी को अनुकूल और सात्म्य हो उसकी रोज की खुराक की चौथाई कम करके सिलावे । पश्चात् अनुवासन करे। (१३) रोगी को भली प्रकार स्नेह से अभ्यग और उष्ण जल से स्वेदित करके कुछ खिला कर, टहला कर, मल-मूत्र के त्याग के बाद उसे स्नेह वस्ति दे। (१४) स्नेह-वस्ति के ले चुकने के बाद पीठ के बल लेट कर एक सौ मात्रा तक प्रतीक्षा करे। हाथ, पैर आदि पूरे अग को फैलाये । इससे स्नेह का बल सारे शरीर मे फैल जाता है। हाथ-पैर के तलवो पर तीन तीन वार थपथपाए । नितम्बो को भी थपथपाये। शय्या के पैताने को भी तीन बार ऊंचा उठाए। इस प्रकार वस्ति के देने के पश्चात् रोगी अल्प परिश्रम करे, बोलना कम करे या मद आवाज से बोले तथा पूर्ण विश्राम करे, साथ ही अन्य आचार सम्बन्धी नियमो का पालन करे। (१५) प्रात काल धनियाँ और सोठ से सिद्ध गर्म जल देना चाहिए । इससे - अग्नि पर्याप्त होती है और भोजन मे रुचि होती है। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ भिपकर्म-सिद्धि, (१६) एकान्तत केवल स्नेह बस्ति का अथवा केवल निम्हण का प्रयोग नही करना चाहिए। क्योकि ऐकान्तिक स्नेहन से अग्नि के नाम और उत्तंग होने का तथा ऐकान्तिक निम्हण से वायु के उपद्रवो का भय रहता है। इस लिए निन्ह के पश्चात् अनुवासन और अनुवान के पश्चात्. निम्हण करते रहना चाहिए । यदि लगातार अनुवामन देना हो तब वीच बीच में निम्हण करने रहना चाहिए। (१७) आम स्नेह ( कच्चे तेल ) का अनुवासन नहीं देना चाहिए। उसमें गुदा अभिष्यद युक्त ( Congested ) हो जाती है । (१८) मात्रा-वय के अनुपात से निस्हो की जो मात्रा आगे बतलाई जायगी उसको चौथाई मात्रा मनुष्यो के लिए स्नेह वस्ति के अनुवापन में बरतनी चाहिए अर्थात् थेष्ट मात्रा ६ पल ( २४ तोले), मध्यम मात्रा (१२ तोल) नया होन मात्रा १ पल ( ६ तो० ) की होती है। पट्पटी तु भवेज्ज्येष्टा मध्यमा विपलो भवेत् । क्नीयसी मार्द्धपला त्रिधा मात्राऽनुवामने ॥ ख-आस्थापन या निरूह : (१) कोमल प्रकृति के पुरपो मे निरूह बस्ति कम मात्रा में दे । यह ध्यान रखे कि मात्रा भले ही ऐसे व्यक्तियों में कम हो जावे, परन्तु अधिक मागा कभी न पहुंचे। (२) जिसमे वस्ति की मात्रा कम हो, वेग अल्प हो, मल और वायु कम हो, अाच, मूत्र-त्याग में कठिनाई और जडता उत्पन्न हो गई हो, उसे हीन निरूढ दुनिस्ट, नमझना चाहिए। यदि अति विरचित ( Dehydration ) के लक्षण पैदा होने लगे तो उसे नित्ढ समझे। जिम गेगी में माम्यापन देने पर क्रमग मल, पित्त, कफ भीर अन्त में वायु निकले, अन्न में रुचि बढे, कोष्ठ हलके प्रतीत हो, शरीर का भारीपन दूर हो जाय तथा अग्नि बढे, उमको सम्यक् निरूढ अर्थात् भली प्रकार से निस्ट हुमा समझे । (३) भली प्रकार से निम्हण के पश्चात् रोगो को स्नान करा के भोजन दे। पित्त वालो को दूध में, कफ वालो को यूप से, और वानु वालों को मामरस के माथ भोजन देना चाहिए । अथवा सभी को विकार न करने वाले जागल मानरस के साथ भोजन दे। भोजन की मात्रा प्रतिदिन के भोजन से ३ या भाग कम या इससे भी कम व्यक्ति को अग्नि एवं दोप के अनुसार होनी चाहिए । तदनन्तर स्नेह बस्ति देनी चाहिए। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय (८) निम्ह देने के बाद वायु के कोप का भय रहता है । अत मासरस के ना भात दे और उसी दिन रोगी को अनुवासन दे । अनुवासन देने के अनन्तर गेगी की बुद्धि-निर्मल, मन का सन्तोप, स्निग्धता और रोगी की शान्ति बढती है। (५) निम्ह वस्ति का उद्देश्य गोधन होता है मत उसके प्रयोग के बाद मत, कफ आदि पदार्थ स्वभावतया निकल आने चाहिए। यदि एक महत तक प्रतीक्षा करने प, वह वापस न आवे, अर्थात् वाहर न निकले तो त्रिवृतादि शोधन अथवा तीक्ष्ण निम्हो में यवक्षार, गो-सत्र और काजी मिलाकर पुन वस्ति दे जिसमे प्रथम दिया गया स्थापन द्रव्य वाहर निकल जाए । (E) वायु के अवरोध से रुका हुआ, विपरीत गति-युक्त निरूह अगो मे देर तक रुक कर शल, मानाह, वेचैनी, ज्वर आदि लक्षणो को पैदा कर मृत्यु का भी कारण हो सकता है। (७) भोजन करने पर आस्थापन नहीं देना चाहिए, यह सिद्धान्त है। ऐसा न करने से या तो विमूचिका होती है या भयकर वमन होता है । अथवा सभी दोप दूपित हो जाते है अत भोजन न किए हुए व्यक्ति को ही निरूह दे । अर्थात् नित्ह का प्रयोग निराहारावस्था मे ही करना चाहिए। (८) रोगी और रोग की अवस्था का विचार करते हुए निरूह देना चाहिए । क्योकि मल के निकल जाने पर दोपो का वल भी जाता रहता है। (E) निरुहण में प्रयुक्त होने वाले द्रव्य-दूध, अम्ल, मूत्र, स्नेह, क्वाथ, मासरस, लवण, त्रिफला, मधु, सोफ, सरसो, वच, इलायची, सोठ, पिप्पली, रास्ना चोट, देवदार हल्दी, मुलहठी, हीग, कूठ और त्रिवृत, आदि सशोधन, कुटकी, शर्करा मुम्ता, खन, अजवाइन, प्रियगु, इन्द्र जी, काकोली, खीर काकोली, ऋपभक, जीवक, मेदा, महामेदा, ऋद्धि, वृद्धि, मधूलिका इनमे से जो मिल सके उनका निव्हो मे उपयोग करे । १०) निरुह मे स्नेह को मात्रा के अनुसार कल्पना स्वस्थ अवस्थ मे यदि निस्हण देना हो तो सामान्यतया क्वाथ का ६ भाग स्नेह मिला कर दिया जाता है । दोपानुसार वायु के कोप मे स्नेह है भाग, पित्त मे भाग और कफ विकारो मे भाग क्वाथ मे स्नेह का होना चाहिए। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि मभी प्रकार के निरूहो मे कल्क का ? भाग स्नेह अवश्य हो । आस्थापन वस्ति कल्पना - प्रथम सैन्धव एक कर्प ( १ तोला) मात्रा मे डाले, मधु दो प्रसूति मिला कर पात्र में इसको हाथ से खूब मथे, मथने पर तैल धीरे धीरे मिलता जाय। भली प्रकार मथे जाने पर मैनफल का कल्क इसमे मिलाए, फिर पीछे कहे हए दूसरे Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ भिपक्रम-सिद्धि कल्को को बारीक पीस कर मिलाए। इन नबको एक वडे गहरे पात्र में दाल कर मन्थन दण्ड से मथे मयवा जैसे ठीक समझे, वैसे मथे । यह न तो गाढा होना चाहिए और न पतला अपितु समान रहना चाहिए, दोपा की अवस्था देख कर मामरन, दूध, काजी, मत्र मिलाए । इसमे भली प्रकार छाना हुआ कपाय पच प्रसृति मिलाए । मात्रा:-बारह प्रमृति को बेष्ट मात्रा आम्यापन की होती है। उसमे आयु के अनुसार एक-एक प्रसूति घटाते हुए यया योन्च मात्रा की कल्पना करनी चाहिए। उदाहरणार्थ एक श्रेष्ट मात्रा वतलाई जा रही है, इसमें नैन्धव से लेकर कपाय पर्यन्त सभी द्रव्यो में अनुपात से कमी करते हुए छोटी मात्रा का विवान करना चाहिए। प्रथम मैन्धव एक कप, मधु दो प्रगति दनको मिला कर स्नेह तीन प्रमृति मिलावे, जन स्नेह मिल कर एक हो जाय तो उसमें करक एक प्रमति मिलावे, जब वे मिलकर एक हो जावें तो कपाय ४ प्रमृति मिलादे फिर प्रक्षेप २ प्रसृति मिलावे----इम प्रकार के मिलाने मे मात्रा वारह प्रसृति की बनती है । यही आस्थापन की श्रेष्ठ या उत्तम मात्रा है। आयु के अनुसार चरक ने इम मात्रा का निर्धारण निम्नलिखित भांति से किया है। एक वर्ष की आयु तक निरह की मात्रा आधी प्रसूति होनी चाहिए । पश्चात् आधी प्रसृति यायु के अनुसार वढनी चाहिए जब तक कि मायु बारह वर्ष की न हो जाय । फिर बारह से मठारह की आयु तक प्रतिवर्ष । के हिमाय मे एक-एक प्रसृति वढाना चाहिए । इस प्रकार पूर्ण मात्रा १२ प्रमृति की-आस्यापन में मानी जाती है। अठारह से लेकर ७० वर्ष की आयु तक इसी मात्रा में आस्थापन देना होता है। सत्तर वर्ष के बाद की आयु मे सोलह वर्प को भायु की मात्रा मे ही आस्थापन देना चाहिए। सामान्यतया बालक और वृद्ध में मृदु निरहण करना चाहिए। प्रचलित मान के अनुसार ८ तोले की एक प्रसूति होती है। प्रथम वर्ष की आयु मे माधा प्रसूति ४ तोले की निरह की मात्रा हुई, प्रति वर्ष आधी प्रसूति वढाते हुए वारह को आयु तक पूरी मात्रा ६ प्रमृति ४८ तोले अर्थात् ९॥ छटाँक की मात्रा निस्ह की हो जाती हूँ। १२ वर्ष की आयु से एक-एक प्रसृति क्रमश वढाते हुए १८ वर्ष की आयु मे निरूह को पूर्ण मात्रा १२ प्रसृति या ९६ तोले अर्थात् १ सेर की हो जाती है। यह कुल माना है। इसी मे सैघव, स्नेह, कल्क, कपाय आदि सभी का ग्रहण समझना चाहिए । वस्ति की संख्या - कर्म, काल और योग के विचार से तीन प्रकार की वस्तिया होती है । कर्म, काल और योग इन गब्दो की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं पाई जाती है । सभवत. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय १४५ कर्म से पच कर्म मे, काल से ऋतु काल के शोवन मे तथा योग अर्थात् रोग के चिकित्सा काल मे इन तीन प्रयोजनो को लेकर विभिन्न संख्या की वस्तियो का निर्देश किया गया है । कर्म मे कुल तीस वस्तियाँ अपेक्षित है - इनमे प्रारम्भ मे एक स्नेह वरित देकर बारह निरूह और बारह अनुवासन एकान्तर से तथा अन्त मे पाच स्नेह वस्तियाँ सब मिला कर तीस हो जाती है । काल में १६ वस्तियाँ अपेक्षित है— निनमे प्रारम्भ में एक स्नेह देकर ६ निरूह और ६ अनुवासन मध्य मे एकान्तर-क्रम से तथा अन्त मे तीन स्नेह वस्ति देकर पूरी संख्या १६ की पहुँचाई जाती है । योग मे कुल आठ वस्तिया अपेक्षित है । इनमे प्रारम्भ मे एक स्नेहवस्ति दे | इस प्रकार कुल तीन निरूह और पाच अनुवासन कुल मिला कर आठ हो जाते है । 1 योगायोग के लक्षण - सामान्यतया वस्ति प्रदेश, कटि, पार्श्व और कुक्षि मे जाकर पाखाने आदि दोपो की मथ कर शरोर का स्नेहन करती हुई पाखाने और दोषो के साथ शरीर के बाहर निकल आती है । इसीको वस्ति कहते हैं | सम्यक् निरुढ के लक्षण - मल, मूत्र और वायु का खुलना, अन्न मे रुचि, अग्नि को वृद्धि, आशयो की लघुता, रोग की शान्ति ओर रोगी का अपने को पूर्ववत् स्वस्थ अनुभव करना ये सुनिरूढ व्यक्ति के लक्षण है । असम्यक् निरूढ के लक्षण - यदि व्यक्ति का आस्थापन ठीक न हो पाया हो तो सिर, हृदय, गुदा और वस्ति मे पीडा, शोफ, प्रतिश्याय, तीव्र गुदा मे काटे जाने सी वेदना, हृल्लास, मूत्र और वायु का अवरोध तथा ठीक प्रकार से श्वासो का न आना प्रभृति लक्षण उत्पन्न होते हे । अतिनिरूढ का लक्षण - अति विरेचित मे जो लक्षण वतलाया गया है वही अति निरूढ मे पाया जाता है । सम्यक् अनुवासित के चिह्न - बिना किसी प्रकार की रुकावट के तैल और पुरीप का आना, रक्तादि धातु-वृद्धि, बुद्धि और इन्द्रियो की प्रसन्नता, सोने की इच्छा, लघुता और बल का अनुभव तथा वेगो की सुखपूर्वक प्रवृत्ति का होना ये लक्षण सम्यक् अनुवासित के होते है । असम्यक् अनुवासित के चिह्न - ऊर्ध्व शरीर, उदर, बाहु, पृष्ठ, पार्श्व की रुकावट और वायु आदि मे पीडा, गात्र का रूक्ष और खर होना, मल, प्रभृति चिह्न असम्यक निरूढ के मिलते है | मूत्र अति अनुवासित के चिह्न – हुल्लास, मोह, थकावट, साद, प्रभृति चिह्न अत्यनुवासन में पाए जाते है । १० भि० सि० मूर्च्छा, Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ भिपकर्म-सिद्धि अनस्थाप्य :-अजीर्ण, अति निय, स्नेहपीत, उलिस्ट दोष, न्याग्नि, यानालान्त, अति दुर्बल, मूक, तृष्णा थमात, अतिकृय, भुत्तभरत, पीनीवर (पानी पिये) वमित विरिक्त, जिनका नाम कर्म दिया गया हो, जुद्ध, भीन, मत्त, मूच्छित, प्रभक्तच्छदि, निष्ठीविका, म्वाग, काम, दिवा, बद्धोदर, उगेटर, माध्मान, अलसक, विमूचिका, अप्रजाता, अतिमागे, मधुभेद मोर कुष्ट रोग में आस्थापन नहीं कराना चाहिये। आस्थाप्य :-टोप बाम्थाप्य है । विगेपन नवीन या एकाङ्गपात, क्षि रोग, वायु-परीप-मूत्र-गुक्र यादि की रुकावट, बल, वर्ण, माम मोर गुम-क्षय, आध्मान, जगमुप्ति क्रिमिकोप्ट, उदावन, शुद्ध, अतिनार, पर्वभेद, अमिताप, जोह गुल्म, गृल, हृद्रोग, पार्व-पृष्ठ-कटिग्रह, वेपन, मालेप, गुल्ला, अति लापव, रज अय, विपमाग्नि, स्फिक् जनु-जघा-ऊर गुल्फ-पाणि-प्रपद-योनि-बाहु-अगुली, सनान्त-दन्त-नस-पर्व-अस्थि-प्रभृति अगो के गूल, गोप वा स्तम्भ, मान्न पूजन, परिकतिका, उन गन्ध प्रभृति पारणो से उत्पन्न वात व्याधियो मे जिनका महारोगाध्याय (चरक) में वर्णन हुआ है, स्थापन प्रधान रूम में करना चाहिये। अननुवास्य -जिन रोगियों में स्थापन निपिख है, उनमें अनुवानन भी नही करे । विशेषत अमुक्त (विना साए), नव ज्वर, पाण्डुरोग, कामना, प्रमेह, वर्ग, प्रतिन्याय, मरोचक, मदाग्नि, दुर्वल, प्लीह, ककोदर, रस्तम्भ, पोंभेद ( अतिमार ) विपपीत, पीतगर, पित्त और कफामिप्यंद, गुरु कोष्ट, ग्लीपद, गलगण्ड, अपची, कृमिकोष्ठ । अनुवास्य :-जो स्थाप्य है वही मनुवास्य । विशेषत रूम और तीक्ष्ण अग्नि वाले केवल वात रोग से पीटित, उनमें अनुवासन प्रधान कर्म है। विभिन्न प्रकार की अन्य वस्तियाँ मात्रा वस्ति:-अनुवामन बस्ति का ही एक भेद विरोष है। हब माना के अनुवासन ही का नाम मात्रा वस्ति है। उसमें स्नेह की मात्रा | पल (६ तोले ) होती है, उसे मात्रा वस्ति कहते हैं। इसका प्रयोग कर्म व्यायाम-भारअव्वयान-स्त्री आदि के अति सेवन ने कृग व्यक्तिो में तथा दुर्बल और वात पोडित रोगियो में सदैव करना चाहिए । रोगी के लिये किमी प्रकार के पथ्य से रहें की यावश्यकता नहीं रहती। वह इच्छानुरूप भोजन, चेष्टा आदि कर सकता है और सव समय में इस वस्ति का प्रयोग भी किया जा सकता है। यह वस्ति बत्य, मुखवर्षक, मल आदि का गोवक, वहण, वातरोग नागक यादि गुणो से युक्त होती है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय १४७ सिद्ध-वस्ति:-ऐसी वस्तियो का प्रयोग सदा किया जाता है । ये वस्तियां व्यापद्-रहित, बहुत फल देने वाली, बल एव पुष्टि करने वाली और सुखदाई होती है। इन वस्तियो का उपयोग विभिन्न रोगो की चिकित्सा मे तथा बल-वर्ण की वृद्धि के लिए होता है । इनसे नाना प्रकार के रोगो मे चिकित्सा करते हुए सफलता मिलती है, अतएव इन वस्तियो को सिद्ध वस्ति कहते है । अरुण दत्त ने एक वृद्ध सुश्रुत के श्लोक का उद्धरण देते हुए बतलाया है कि "सिद्ध वस्ति उन वस्तियो को कहते है जिनका बिना किसी प्रकार के पथ्य के प्रयोग करने से भी सफलता निश्चित मिलती है।" जैसे, पचमूल क्वाथ, तिल तैल, पिप्पली, मधु, सैन्धव और मधुयष्टि को एक मे मिला कर वस्ति देना। ___ माधुतैलिक वस्ति ----यह एक प्रकार की निरूह वस्ति ही है। इसमे मधु एव तेल की विगेपता रहती है । अत माधुतैलिक वस्ति कहलाती है। मधु-तैल समान, संधव एक कर्ष, सौफ २ कर्ष, इनको एरण्डमूल क्वाथ के साथ दिया जाय तो यह निरूह रसायन, प्रमेह, अर्श, कृमि, गुल्म और आन्त्रवृद्धि का नाशक होता है । "यस्मान्मधु च तेल च प्राधान्येनात्र वर्तते । माधुतैलिक इत्येप विज्ञेयो वस्तिचिन्तक "। युक्तरथ वस्ति ---एरण्डमूल के क्वाथ मे मधुतल-सैन्धव-वच-पिप्पली और मैन फल को मिलाकर दी गई वस्ति युक्तरथ कहलाती है। जिस प्रकार वृपभ, ऊँट एव घोडे से जुते हुए रथ को जब चाहे चालू करदे, उसी प्रकार इन वस्तियो का भी प्रयोग सब समय किया जा सकता है, इनमे किसी प्रकार निपेध नही है। इसी लिए इन्हे युक्तरथ कहते है। दोपनाशक वस्ति :-दोपो के अनुसार वातघ्न, पित्तघ्न और श्लेष्मघ्न कई प्रकार की वस्तियाँ भी बनाई जाती है जिनका दोषानुसार प्रयोग अपेक्षित रहता है । जैसे एरण्डमूल के क्वाथ मे मधु, वच, सौफ, हिंगु, सेंधानमक, देवदारु और रास्ना मिला कर दी गई वस्ति मूत्राशयगत दोषो को दूर करती है। ___ यापना वस्ति :--मधु, घृत, वसा, तैल एक-एक प्रसृत-सैन्धव १ कर्प, हाऊवेर आधा पल इनके मिश्रण से यापना वस्ति बनती है। इन वस्तियो के द्वारा आयु का दीर्घ काल तक अनुवर्तन होता रहता है । अतः ये यापना वस्तियाँ कहलाती है। शुक्रकरण वस्ति, शुक्रवर्धक वस्ति, वाजीकरण वस्ति । तित्तिरादि मास रस की वस्ति, गोवादि मासरसो की वस्ति प्रभृति कई विशिष्ट वस्तियो का उल्लेख भी शास्त्रो मे पाया जाता है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ भिषकर्म-सिद्धि स्नेहवस्ति-अनुवासन वस्ति तथा मात्रावस्ति : स्निग्ध वस्ति के तीन भेद है। वास्तव में माया भेद मे ही ये तीन भेद होते है। श्री गयी नामक आचार्य ने स्पष्टतया कहा है कि जिन वम्नि में ६ पर ( २४ तोले ) स्नेह का गुदा मार्गसे प्रवेग कराया जाय वह स्नेह वस्मि कहलाती है। यदि उसकी मामा ३ पल (१२ तोले) की कर दी जाय तो उसे तो अनुवामन वस्ति कहते है और यदि प्रवेश्य द्रव्य की माता कुछ कम यर्थात् १।। पल (६ तोले ) भी कर दी जाय तो उसको मात्रावस्ति कहते है। पिच्छा वस्ति:-कई प्रकार की आवम्यिक वस्थियों का उल्लेख भी ग्रयों मे पाया जाता है। रोग की विभिन्न अवस्थामो मे चिकित्सा में उसका प्रयोग होता है। अतिसार की कई यवम्यामो मे पिच्छा वस्ति का प्रयोग पाया जाता है। अतिसार या प्रवाहिका मे जब वायु का विवन्ध हो और योडो-योटी मात्रा में रक्तमिश्रित शूल के साथ बहुत बार गौच इत्यादि हो उम अवस्था मे पिच्छा वस्ति का उपयोग किया जाता है। इसी प्रकार चिरकालिक अतिमार में भी अनुवामन वस्ति का प्रयोग बतलाया गया है। ___सुश्रुत ने पिच्छा वस्ति का प्रयोग अनेक अवस्थाओ मे किया है, उदाहरणार्य वस्ति के उपद्रव रूप में होने वाले परिकर्तिका नामक रोग मे जिममे नाभि, वस्ति, गुदा, रोगी को कटते हुए प्रतीत होते है। दुर्बलता, अगो का टूटना, पित्त का गुदा से त्राव तथा गुदा के दाह मे भी पिच्छा वस्ति दी जाती है। यह दूब और घी के योग से बनाई जाती है। मलागय मे या स्थलान्त्र में दाह और शल हो और कठिनाई से कफ मिथित रक्त का आम युक्त मल त्याग हो तो उस अवस्था में भी पिच्छा वस्ति का निर्देश है । अति उप्ण, अति तीक्ष्ण, अतिशय मात्रा हो, अतिशय स्वेद दिए हए पुरुप को अतियोग के लक्षण उत्पन्न होते है। इसमे भी पिच्छा वस्ति का प्रयोग सुखदायक होता है । उत्तर वस्ति ( Urethral or Vaginal douche) - पुरुपो के मूत्र मार्ग और स्त्रियो के गर्भाशय तथा योनिसम्बन्धी रोगो मे जो वस्ति (पिचकारी) दी जाती है उसे उत्तर वस्ति कहते है। __ यन्त्र:-चरक ने उत्तर वस्ति देने में प्रयुक्त होने वाले यन्त्र का नाम पुप्प नेत्र कहा है। इसका मग्र भाग चमेली के फूल के वृन्तनहश या गोपुच्छाकार और सिरे मे गोल-पतली होती है । पहले जो यन्त्र बनता था उसमे चमडे के पास और बीच में एक चकती बैठाई रहती थी और अन भाग नरम सुवर्ण, चांदी आदि धातु का रहता था । अग्र भाग कुंद, कनेर, चमेली आदि के फूल के डण्ठल के समान किन्तु दृढ होता था और सिरे पर जो नली का मुख-छिद्र होता Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय १४६ था वह सरसो का दाना जाने योग्य रहता था। इसके मूल भाग मे चमडे की थैली लगी रहती थी, जिसमे चार तोले द्रव आ सकता था। स्त्रियो मे उत्तर वस्ति की नली १० अगल लम्बी होती थी और उस नली का मुख ऐसा होता था जिसमे मूंग की दाल जा सकती थी। __ आज कल ऐसी पिचकारी काँच, प्लास्टिक या धातु की बनी आती है जिसको (Urethral syringe) कहते है । यह बीच मे पोली होती है, अग्न भाग मे एक फूल के वृन्त के आकार का एक नौजल लगा रहता है, जिसका प्रवेश मूत्र या योनि मार्ग मे कराया जाता है । मूल भाग मे एक पिस्टन लगा रहता है जिमको दवा कर पिचकारी के अन्दर के द्रव का प्रवेश कराया जाता है । प्राचीन वस्ति यन्त्र का प्रतिनिधि आज कल का 'हुस्टन वाल्भ सिरिज' है, जिससे यथावश्यक मूत्रमार्ग या योनिमार्ग से औषधि का प्रवेश कराया जा सकता है। स्त्रियो के योनि-प्रक्षालन का कार्य तो साधारण वस्ति यन्त्र द्वारा भी हो सकता है परन्तु पुरुपो मे मूत्र मार्ग के प्रक्षालन के लिए धातु की बनी पिचकारी ही है। पुरुषो मे उत्तर वस्ति देने की विधि रोगी को स्नेहन तथा स्वेदन देकर वायु-मूत्र-मल का त्याग करके आशय के ढीला होने पर घृत और दूध मिलित यवागू को यथाशक्ति पिला कर, घुटनो के वरावर ऊंची चौकी पर सहारा ( तकिया) लगाकर विठाए। गरम तैल से वस्ति शिर को भली प्रकार मल कर इसको मूत्रनाली को प्रहर्षित ( उत्तेजित ) करके समान रूप मे रखकर-प्रथम शलाका से मार्ग की परीक्षा करके, पीछे से घी से स्निग्ध किए नेत्र को धीरे-धीरे ६ अंगुल प्रविष्ट करे। कई आचार्य मेहन के वरावर प्रविष्ट करने के लिए कहते है । फिर वस्ति को दवाए और धीरे से नेत्र को निकाल ले। फिर स्नेह के वापिस आने पर सायकाल मे बुद्धिमान वैद्य दूध, यप या मासरस से मात्रा मे रोगीको भोजन करावे। इस विधि से तीन या चार वस्ति देवे। स्त्रियो मे उत्तर वस्ति देने की विधि ___अशुद्ध रक्तस्राव के पश्चात् अर्थात् चौथे दिन से प्रारम्भ कर सोलहवे दिन तक शुद्ध ऋतु काल कहलाता है। इस काल मे योनि और गर्भाशय का मख खुला रहता है जिससे वस्ति द्वारा औपधियो के प्रयोग किए जाने पर उनके गणो का ग्रहण सम्भव रहता है अतएव सदैव ऋतु काल मे ही वस्ति देने का विधान स्त्रियो मे है । आत्ययिक अवस्था मे जैसे योनिभ्रश, शूल या योनिरोगो मे या रक्त प्रदर मे विना ऋतु काल के भी उत्तर वस्तियां दी जा सकती है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिप-सिद्धि उत्तान टाटा को भी प्रकार सकुचित करके नितीन चार स्नेहवन्ति देवे। फिर तीन शिप की। नेह की मात्रा में बनते जाना चाहिए । फिर दिन चति देव | [ अनुवासन मे २४ घण्टे मे है, या अनुमति तीन या पांचवे दिन दी - अपने वरिवार तथा दिन लगातार देवर १५० है । ] की मात्रा- (Introduction of nozzle) विषय में गोनिमार्ग में नेत्र से ना करें। मूत्र मार्ग में दो अंगुल । साडे सतारी के एल प्रष्टि परे । यह अगुवा प्रमाण रोगी की नए । मात्रा (Dosage ) -यों में उत्तर वस्ति मे मध्यम मात्रा एक प्रच (ए) वरतनी चाहिए और बारिकाओं में दो कर्प ( आधा पानी चाहिए। पुरुष में मुत्रमार्ग से स्नेह देना हो तो उसकी यानी चाहिए। कई बार १ प्रकुंच या ४ तोले तक भी दिया है। पोपट व नदिन वस्तिके नेत्र मी में से प्रभार से कम स्वादको माके { ****** के यतिका निर्देश ( Indications ). - मूत्रमार्ग तथा मून यो योनि और गर्भाशय के रोगों में लियो उत्तर न देना de niet af ander Urethral irrigation ar को या तीन व्यापारी anarhe मे ही है। के 1 ** * * * 1** 4 - *** होया करती नाहिए | * 1 प्रशन उद्देश्य हो और उनमे क्वाथ वा की मात्रा एक प्रमुत बड़ी आयु की स्त्रियो की स्त्रियों में पुरुष के बराबर अर्थात् लिए लेनी चाहिए । ३-४ उत्तर पनि कुदेनी चाहिए। अनुवासन ● *ney, toilet, *****, ***, die 27192. ***** ****, mind, यू 5 बहन से P F वीरपु * I L + ffere Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय १५१ योगायोग :-उत्तर वस्ति के सम्यक् योग के लक्षण, हानियां और उपद्रवो को चिकित्सा स्नेह वस्ति या अनुवासन के समान ही है । वस्ति कर्म में प्रयुक्त होने वाले प्रधान भेषज दशमूल को ओपधियां, एरण्डमूल, पुनर्नवा, यव, कोल, कुलत्य, गुडूची, मदन फल, पलाश, कत्तृण, स्नेह (घृत, तैल, वसा, मज्जा), पच लवण ।' ( विस्तार में ज्ञान के लिए इन औषधियों का संग्रह चरक विमान स्थान आठवें अध्याय मे द्रष्टव्य है। नस्य कर्म ( Insufflation or Inhalation through Nose ) निरुक्ति तथा भेट :-औपधि से सिद्ध स्नेह नासिकाओ से दिया जाने के कारण नस्य कहलाता है । यह नस्य दो प्रकार का है, (१) शिरोविरेचन (२) स्नेहन । यह दो प्रकार का नस्य भी पांच प्रकार का है यथा, नन्य, शिरोविरेचन, प्रतिमर्श, अवपीड और प्रधमन । इनमे नस्य और शिरोविरेचन मुख्य है। नस्य का ही भेद प्रतिमर्श है। शिरोविरेचन के भेद:-अवपीडन और प्रधमन है। नस्य शब्द इन पाचो के लिए होता है। नस्य :-इसमें जो स्नेह शून्य शिर वालो ( खाली सिर की प्रतीति ) मे स्नेहन के लिए, ग्रीवा और स्कन्ध मे बल लाने के लिए अथवा दृष्टि की निर्मलता के लिए दिया जाता है, उस स्नेह में खासकर नस्य शब्द बरता जाता है। यह नस्य ( स्नेह ) वात से पीडित सिर में, दात, केश, श्मश्रु के गिरने मे, भयानक कर्णशूल में, कर्ण क्ष्वेड मे, तिमिर, स्वरभेद, नासा रोग, मुख शोष, अववाहुक, असमय में झरियो मे, या बाल श्वेत हो जाने पर, वात-पित्तजन्य कष्टदायक मखरोगो मे या दूसरे रोगो मे वात-पित्त नाशक द्रव्यो से सिद्ध घी, तेल, वसा या मज्जा स्नेह से नस्य देना चाहिए। शिरोविरेचन :-कफ से भरे तालु, कठ और सिर मे, अरोचक और सिर के भारीपन मे, शूल मे, पोनस मे, अर्धावभेदक मे, कृमि, प्रतिश्याय और १ उदावर्तविवन्धेषु युज्यादास्थापनेषुञ्च । अतएवौषधगणात् सकल्प्यमनुवासनम् । मारुतघ्नमिति प्रोक्त संग्रह पाचकार्मिक ॥ ( च सू २) २ गौरवे शिरस. शूले पीर्धावसेऽद्धविभेदके । क्रिमिव्याधावपस्मारे घ्राणनाशे प्रमोह के । (च सू २) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ भिपकर्म-सिद्धि अपस्मार मे, गंध ज्ञान के नाश मे, मन्य अर्व जत्रुगत कफ जन्य रोगो मे । शिरोविरेचन के द्रव्यो से या उनसे सिद्ध किसी स्नेह से नस्य देना चाहिए । नस्य तथा शिरोविरेचन की विधि :-इन दोनो प्रकार के नस्यो को विना भोजन कराए, भोजन के समय ( अन्न काल ) मे नही देना चाहिए । कफ रोगियो को पूर्वाह्न मे पित्तरोगियो को मध्याह्न मे तथा वातरोगियो को अपराह्न मे भोजन काल मे देना चाहिए। गिरोविरेचन के योग्य व्यक्ति का, मल-मूत्र का त्याग कराके, अल्प भोजन कराके, आकाश मे वादल न होने पर, दातुन और धूमपान से मुख के स्रोतो का शोधन कराके, हाथो को अग्नि पर गर्म करके उससे गला, कपोल, माथा इनकी मालिश और सेक करके वायु-धूप और धूल से रहित स्थान मे रोगी को पीठ पर चित लेटा कर हाथ और पैर को सीधा फैला कर सिर को कुछ नीचे की ओर लटका कर आँखो को कपड़े से ढाप कर वाएँ हाथ की प्रदेशिनी अगुली (Index Finger ) से नासा को उठाकर स्रोत के सीधा हो जाने पर गर्म पानी से गर्म किए स्नेह को दाहिने हाथ से सुवर्ण, चांदी, ताम्र मिट्टी के पात्र या शुक्ति के पात्र मे रखे स्नेह को शुक्ति (सीप-सितुही) के द्वारा या रूई के फोये से सुहाता हुमा गरम स्नेह को नासिका रन्ध्र मे इस प्रकार छोडे कि उसकी एक समान धारा जाय। साथ ही जल्दीवाजी न करे। यह भी ध्यान रखे कि स्नेह नेत्रो मे न जाये। नेह को डालते समय रोगी सिर को न हिलाए, क्रोध न करे और न छीके और न हँसे । ऐसा करने से स्नेह ठीक प्रकार से नहीं पहुँचता और बाद मे उपद्रव रूप मे उसे कास, प्रतिश्याय, शिरोरोग और नेत्र रोग उत्पन्न हो जाते है। बुद्धिमान मनुष्य स्नेह नस्य को किसी प्रकार भी न पिये । यह स्नेह नस्य शृङ्गाटक मर्म तक फैल कर मुख से निकल कर आता है। कफ के उत्क्लेशित होने के भय से इसको वाम-दक्षिण पार्श्व मे विना रोके थूक देवे। काल -जब किमी विशेप रोग मे नस्य देकर स्वस्थ व्यक्ति में नस्य कर्म करना हो तो शरद् और वसन्त ऋतु मे पूर्वाह्न मे, शरद् ऋतु मे मध्याह्न मे, ग्रीष्म ऋतु मे, अपराह्न मे और वर्षा ऋतु में सूर्य के दिखलाई पडने पर प्राय सभी पचकर्मों को विशेपत नस्य कर्म को करना चाहिए । आचार्य चरक ने कहा है कि नस्य कर्म सूर्य के निकलने पर प्रात काल मे या मध्याह्न मे करे । आचार्य वाग्भट ने कफरोगो में प्रात , पित्त रोगो मे मध्याह्न मे और वायु के रोगो मे सायकाल या रात्रि मे नस्य देने का विधान किया है । वात से आक्रान्त शिरोरोग मे, हिक्का, अपतानक, मन्यास्तम्भ तथा स्वरभेद मे प्रतिदिन प्रात और सायं Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय १५३ दो बार नस्य देना चाहिए । अन्य अवस्थाओ मे एक दिन छोड कर नस्य देना चाहिए । नस्य का कर्म सात दिनो तक चलाना चाहिए । पश्चात कर्म :-नस्य देने के उपरान्त फिर गले, कपोल आदि का स्वेद करके रोगी को धूमपान कराना चाहिए । पश्चात् नियमो का पालन करना चाहिए । धूल, धूप, धूम (धूवाँ ) स्नेह, मद्य, द्रवपान, शिर से स्नान, बहुत सवारी करना, और क्रोध आदि का त्याग करना चाहिए । मात्रा :-विरेचन मे स्नेह की मात्रा चार, छ या आठ वूद (प्रति नासापुट के लिए) की है। इनको बल के अनुसार वरतना चाहिए। प्रदेशिनी अङ्गलि ( Index finger ) को दो पोरवे ( पर्व ) तक स्नेह मे डुबो कर उनसे निकली एक बूंद प्रथम मात्रा है। इसी प्रकार की ४-६ या ८ 'दो (drops ) को रोगी के वलावल का विचार करते हुए वरतना चाहिए। __स्नेह की मात्रा के भेद से इसकी तीन मात्राएँ उत्तम, मध्यम, और हीन की जाती है। प्रथम मात्रा या हीन मात्रा १६ बूदो की, मध्यम मात्रा ३२ बूंदो और उत्तम मात्रा ६४ बूंदो को होती है। अवपीडन:-अवपीडनस्य शिरोविरेचन की भांति अभिपण्ण ( मेद-कफ से भरे शिर वाले ), सर्पदष्ट, मूच्छित पुरुषो को देना चाहिए। इसके लिए पिप्पली, विडग आदि शिरोविरेचन द्रव्यो मे से किसी एक को पीस कर शर्करा, इक्षुरस, दूध, घी, मासरस मे से किसी एक के साथ मिलाकर क्षीण हुए एव रक्तपित्त के रोगियो मे देना चाहिए। ___ कृग, दुर्बल, भीरु तथा कोमल प्रकृति वाले पुरुष एव स्त्रियो मे शिर के शोधन के लिए सिद्ध किए स्नेह तथा अन्य द्रव्यो का कल्क हितकारी है। __ अवपीडन जैसे नाम से ही ज्ञात हो रहा है कि इसमे मरिच, शुठी आदि तीक्ष्ण द्रव्यो का कल्क बना कर निचोड कर उसका नस्य दिया जाता है इसीलिए अवपीडन कहलाता है। प्रधमन ( Insufflation of Powder through Nose ) - मानसिक विकार, कृमि और विप से पीडित व्यक्तियो मे नासामार्ग से फूक मार कर चूर्ण को अन्दर मे प्रविष्ट करते है । इसके लिए ६ अङ्गल लम्बी दोनो ओर मुख वाली नाडो बना कर उसमे औपधि भर कर फूंक से नासा मे देते है । यह बड़ा तीन प्रकार का नस्य है और दोपो को अधिक मात्रा मे खीचता है, इसमे चूर्ण की मात्रा मुच्चटी (चूटकी भर ) रखते है । प्रतिमर्श :-इसके दो प्रकार होते है । मर्श तथा प्रतिमर्श । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि प्रतिमर्श -- नस्य जन्म मे लेकर मृत्यु पर्यन्त उत्तम है, क्योंकि यह प्रतिम नित्य सेवन करने ने मर्ग नस्य की भांति गुणकारी है, उसमें न तो किसी प्रकार के पथ्य की आवश्यकता है और न मरी के समान अक्षिस्तम्भता यदि किसी प्रकार के उपद्रव का भय है । प्रतिमन की विधि यह है कि प्रदेशिनी अली के दो पर्दो को तैल ने डुबो कर निकाल लेने में जो बूंदे गिरती है उसका नाम बिन्दु है । मर्श नस्य की दम बिन्दु उत्कृष्ट मात्रा, बाठ विन्दु, उत्तम मात्रा ६ बिन्दु मध्यम मात्रा, और चार विन्दु ह्रस्व मात्रा है | आचार्य सुश्रुत ने प्रतिमर्श को मात्रा इन प्रकार की बतलाई है - नाक मे नन्य रूप से डाला स्नेह छोकने पर मुज पर आ जाय वही प्रतिमर्श का प्रमाण है । इसी को प्रतिमर्ग की मात्रा समझे । १५४ नित्य प्रति वरतने के लिए नम्य मे तैल ही उत्तम है । स्वस्य पुन्य का सिर ही कफ का स्थान होता है । दूसरे स्नेह इतने गुणकारी नहीं है जितने गुणकारी तैल है | यदि मर्ग और प्रतिमर्श में कोई भेद न हो तो कोई मनुष्य पथ्य वाले एवं आपत्तियुक्त मर्श नस्य का सेवन न करे । क्योकि मर्श नस्य शीघ्रकारी एवं गुणो में उत्कृष्ट है । प्रतिमर्श देर में काम करने वाला और गुणो में हीन है । जिस प्रकार कि अच्छ स्नेह के सम्वन्ध में कुटी प्रवेश स्थिति और वातातपरिस्थिति अथवा अनुवासन वस्ति में शीघ्रकारित्व और चिरकारित्व, गुणों को श्रेष्ठता और होनता रहती है । इमी प्रकार मर्श एव प्रतिमर्ग में भी भेद रहता है । प्रतिमर्श का काल :- प्रतिमर्श नस्य का उपयोग चौदह समय में करना चाहिए यथा- - प्रातः विस्तर से उठने पर, दातो को साफ करके, घर से बाहर निकलते समय, व्यायाम, मैथुन, मुसाफिरी से थका होने पर, मूत्र - मल-कवल और वजन के पीछे, भोजन करके, वमन करके, दिन में सोकर उठने पर और सायं काल प्रतिमर्श नस्य लेना चाहिए । इसमें प्रातःकाल विस्तर से उठकर सेवन किया प्रतिमर्श नस्य रात्रि में एकत्रित हुए, नासानोत में आए हुए मल को नष्ट करता है और मन को प्रसन्नता देता है | दांतो को साफ करके लिया प्रतिमर्श नस्य दाँतो को दृढ एवं मुख में सुगन्ध उत्पन्न करता है। घर से बाहर जाते समय सेवन किया प्रतिम नासा स्रोतो को क्लिन्न रखने से धूल या धुएँ का प्रभाव नही होने देता । व्यायाम, मैथुन या मुसाफिरी से थके हुए होने पर सेवन किया नस्य थकान को मिटाता है । मल-मूत्र त्याग के पीछे सेवन किया दृष्टि के भारीपन को दूर करता है । क्वल के पीछे लिया दृष्टि को निर्मल करता है। भोजन करके सेवन किया स्रोतो Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय १५५ की निर्मलता और हल्कापन उत्पन्न करता है। वमन के पीछे सेवन किया प्रतिमर्श नस्य स्रोतो मे लगे कफ को हटा कर भोजन मे रूचि उत्पन्न करता है। दिन मे सोकर उठने पर लिया नस्य निद्राशेपजन्य भारीपन और मल को दूर कर चित्त की एकाग्रता उत्पन्न करता है। साय काल लिया नस्य सुख-पूर्वक नीद लाता है। दोपानुसार स्नेह की भिन्नता:-वायुयुक्त कफ मे तैल का प्रयोग शुद्ध वायु मे वसा का प्रयोग, पित्त मे घी का और वायुमिश्रित पित्त मे मज्जा का नस्य देना चाहिए । इन चारो मे तैल का ही उपयोग विशेपत कफविरोधी होने से होता है। नस्य कर्म के भेद:-ऊपर मे विधिभेद से पाँच प्रकार के नस्य बतलाए जा चुके है। गुणो की दृष्टि से विवेचना की जाय तो वे मूलत तीन प्रकार के ही होते है। (१) विरेचन ( २ ) वृहण ( ३ ) शमन । इनमे विरेचन नस्यो का प्रयोग गिर गूल, सिर की जडता, नेत्र के अभिष्यन्द रोग, गले के रोग, शोथ, गण्डमाला, कृमि, ग्रन्थि, कुष्ठ, अपस्मार और पीनस मे करना चाहिए। बृहण नस्य का प्रयोग वातजन्य शिर शूल मे, सूर्यावर्त मे, स्वरक्षय मे, नासागोप-आस्य शोष मे, वाणी की जडता होने पर कठिनाई से बोलने मे तथा अववाहुक रोग में होता है। शमन नस्य :-नीलिका, व्यग, केश रोग, अक्षि रोगो में अथवा आखो में रेसा होने पर वरतना चाहिए। संक्षेप मे तीव्र सोठ, मिर्च, पिप्पली आदि से संस्कृत या बना हुआ, मधु या सैन्धव का यौगिक विरेचन नस्यो की कोटि में आते हैं और जागल मासरस से बनाए या रक या गोद मिश्रित नस्य वृहण होते है और अत्युषण घी और तेल, दूध या पानी से युक्त नस्य समान गुण के होते है । नस्य कर्म के गुण -नस्यो से मनुष्य के जत्रु से ऊपर के रोग शान्त हो जाते है, इन्द्रियो मे निर्मलता तथा मुख मे सुगन्ध पैदा होती है । हनु, दात, शिर ग्रीवा, त्रिक, बाह मोर छाती मे बल आता है, वलि, झुर्रियो का पडना, पलित ( केशो का पडना), खालित्य ( सिर गजा होना ), व्यग (झाई ) भी उत्पन्न नहीं होते। वास्तव मे जत्रु से ऊपर के रोगो मे नस्य वरता जाता है। शिरोरोग मे इसका विशेष उपयोग होता है क्योकि शिर का द्वार नाक है और इस नाक के मार्ग मे नस्य सिर मे फैलकर उन रोगो को नष्ट करता है। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि १५६ जो मनुष्य यथासमय एव नास्त्रोक्त विधान के अनुसार नस्य कर्म का सेवन करता है उनकी स, नाक और कान नही मारे जाते । उसके बाल और दाढी कबाल सफेद और कपिल ( कुछ पीले ) नही होते, उनके बाल झरते नहीं, बल्कि विशेष वढते है । मन्यास्तम्भ, गिर की पीटा, अदित, जबडो का जकड जाना, पीनस अवकपारी और गिर का कापना शान्त हो जाता है । नस्य द्वारा तृप्त सिर की मिराएं, मन्वियाँ, स्नायु और कण्डराए अधिक बल प्राप्त करती हैं । मूस प्रमन्न तथा पुष्ट, स्वर स्निग्ध महान और स्थिर, सभी इन्द्रियों में स्वच्छता एव अधिक बल होता है । उसकी हँसलियो ( अक्षक ) के ऊपर के भाग में उत्पन्न होने वाले रोग एकाएक नही होते । वृद्ध होने पर भी उत्तमाग ( ग्रीवा के ऊपर ) में वुढापा वल नही प्राप्त करता है । शिरोविरेचन के अयोग्य रोगी ( Contra Indications ):(१) अजीर्ण - पीडित, भोजन किए, स्नेह-मद्य, अधिक जल पिए, या तृपायुक्त ( पीने की इच्छा वाले व्यक्ति ), मिर से स्नान किए व्यक्ति, स्नान के लिए इच्छुक मार्त्त व्यक्ति, भूख-प्यास और थकावट से दुखी, मद से मत्त, मूच्छित, शस्त्र या उडे से चोट खाए व्यक्ति, मैथुन व्यायाम और मद्यपान से क्लान्त व्यक्ति शोक से मतष्ठ, विरिक्त, अनुवासित, गर्भिणी, नव प्रतिव्याय से पीडित व्यक्ति में, विपरीत ऋतु तथा दुर्दिनो में शिरोविरेचन नही करना चाहिए । यदि अत्यावश्यक अवस्था ( Emergency ) हो तो इनमे गिरोविरेचन करावे अन्यथा नही | शिरोविरेचन के योग्य ( Indications ) — उपर्युक्त अवस्थाओं के अतिरिक्त व्यक्तियो मे शिरोविरेचन करे । विशेषतः शिरोरोग, दन्तरोग, मन्यास्तम्भ, गलग्रह, हनुग्रह, पीनस, गलशुण्डिका, कण्ठशालूक, शुक्र (Corneal opacity. ), तिमिर ( Progressive cataract ), वर्त्मरोग (Diseases of Eyelds ), व्यंग (झाई) ( Black Pigmintations ), हिक्का, अर्धावभेदक ( Migrain ), ग्रीवा, स्कन्ध-अस आस्य, नासिका, कर्ण, अक्षि -- ऊ कपाल तथा सिर के रोगो में, अदित ( Facial Paralysis ), अपतन्त्रक ( Hysteria ), अपतानक ( Tetanus ) गलगण्ड ( Goiter ), दन्तशूल - दन्तहर्प ( Odontitis ), चलदन्त ( दाँतो का हिल जाना ( Pyorrhoea ), अक्षिराग, अर्बुद, स्वरभेद, वाग्ग्रह (Aphasia ) गद्गदकथन ( Stammering ) तथा ऊर्ध्वजत्रु के परिपक्व वातिक विकार । इन अवस्थाओं में गिरोविरेचन एक प्रधान कार्य है । गिरोविरेचन के द्वारा इस दशा मे जिस प्रकार मूज से सीकेँ निकाल ली जाती है और Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय १५७ भूज की कोई भी हानि नही होती है । उसी प्रकार केवल शिरोगत दोपो को नस्य निकाल लेता है । वहाँ की धातुओ को कोई भी हानि नही होती है। योगायोग तथा सम्यक् योग के लक्षण.--नस्य के सम्यक् योग से सिर मे लघुता, सुखपूर्वक निद्रा का आना, रोगो को शान्ति, इन्द्रियो की निर्मलता और मन की प्रसन्नता प्रभृति लक्षण दिखलाई पडते है। ___अतियोग से कफ का गिरना, सिर मे भारीपन इन्द्रियो का विभ्रम आदि पाया जाता है। यदि अतिस्निग्ध नस्य के कारण ये लक्षण उत्पन्न हो तो उनमे , रुक्षण करना चाहिए। अयोग मे वायु की विपरीत गति, इन्द्रियो की स्क्षता, और रोग का शान्त होना पाया जाता है। इसमे पुन नस्य देना चाहिये ।। गिरोविरेचन की औपधियां-अपामार्ग के बीज, छोटी पीपल, मरिच, वायविडङ्ग, शिग्रुवीज, सर्पप, तुम्बुरु ( नेपाली धनिया ), जीरा, अजवायन, अजमोदा पोलु, इलायची, रेणुका बीज, वडी इलायची, तुलसी, वन तुलसी, श्वेता, कुठेरक फणिज्झक, शिरीपवीज, हरिद्रा, सेवा नमक, काला नमक, ज्योतिष्मतो, शुठी। (चर-सूत्र २) । इनके अलावे कटुतुम्बी, कडवी तोरई, प्याज, वन्दाक, कायफर का चूर्ण भी तीन शिरोरेचक है। Page #208 --------------------------------------------------------------------------  Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड चिकित्सा बीज Page #210 --------------------------------------------------------------------------  Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय शाब्दिक व्युत्पत्ति - 'कित रोगापनयने' व्याकरण के ग्रंथो मे 'किंत्' धातु का प्रयोग रोग के दूर करने के अर्थ मे होता है । इसी 'कित्' धातु से चिकित्सा शब्द की निष्पत्ति होती है । कित् + कित् + सन् + अ केतितुमिच्छा चिकित्सा | इस शब्द का समष्टि मे अर्थ होता है रोग का दूरीकरण । वार्तिककार ने लिखा है कि 'कित्' धातु का प्रयोग व्याधि के प्रतिकार, निग्रह, अपनयन तथा नाशन मे होता है । फलत इस धातु से बने शब्द चिकित्मा का भी इन्ही अर्थों मे व्यवहार होता है । " या क्रिया व्याधिहरणी सा चिकित्सा निगद्यते । " ( वैद्यकशब्द सिन्धु ) पर्याय-चिकित्मा के पर्याय रूप मे कई शब्दो का व्यवहार प्राचीन ग्रंथो मे पाया जाता है । उदाहरणाथ क्रिया, कर्म, प्रतिकर्म, वैद्यकर्म, भिषक्कर्म, भिपग्जित, प्रतिपेध, प्रतीकार, प्रशमन, शमन, रोगापनयन, व्याधिहर, प्रायश्चित्त, चिकित्सित, पथ्य, साधन, औपव, प्रकृतिस्थापन, रोगोन्मूलन, निग्रह, उपक्रम, उपचार तथा उल्लाघन । चिकित्सितं व्याधिहर पथ्यं साधनमौपधम् । प्रायश्चित्तं प्रशमनम् प्रकृतिस्थापनं हितम् ॥ चिकित्सितं हितं पथ्यं प्रायश्चित्त भिपग्जितम् | भेपजं शमनं शस्तं पर्यायैरुक्तमौषधम ॥ तद्विद्यव्याख्या - १. वैद्य, ओपध, परिचारक और रोगी आवश्यक अगो के प्रशस्त रहने पर, धातुवो के विकृत हो जाने पर, लिये जो प्रवृत्ति होती है उस को चिकित्सा कहते है . चतुर्णा भिपगादीनां शस्तानां धातुवैकृते । प्रवृत्तिर्धातुसाम्यार्थी चिकित्सेत्यभिधीयते ॥ ( चर ) प्रभृति चारो धातुसाम्य के २ जिस क्रिया के द्वारा शरीर के विपम हुए दोष एवं धातु समता को प्राप्त करते है उसे चिकित्सा कहते है और वहो वेद्य का कर्म कहलाता है । 'याभिः क्रियाभिर्जायन्ते शरीरे धातवः समाः । सा चिकित्सा विकाराणा कर्म तद् भिपजां स्मृतम् ॥ क्योकि दोपो या धातुवो का वैपम्य ही रोग कहलाता है—और उसका समान रहना ही आरोग्य है । रोग की अवस्था मे विषमता को प्राप्त हुए दोप ११ भि० सि० Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ भिपक्कम-सिद्धि एवं धातुवो को साम्यावस्था में लाने के लिये की जाने वाली क्रिया चिकित्सा कहलाती है । 'रोगस्तु दोषवैपम्यं दोपसाम्यमरोगता ।' ३. व्याधि या रोग का सम्यक्तया ज्ञान करके, वेदना या तकलीफ को दूर करना ही वैद्य का वैद्यत्व, वैद्य कर्म या चिकित्मा है । वैद्य आयु का मालिक नही है । अर्थात् रोगी का जीवन या मरण ईव्वराधीन रहता है, वैद्य के अधीन नहीं रहता है । केवल रोगजन्य वेदना को ठीक करना ही उसके अधीन है | व्याधेस्तत्त्व परिज्ञानं वेदनायाश्च निग्रहः । एतद् वैद्यस्य वैद्यत्वं न वैद्यः प्रभुरायुपः ॥ (ब्रह्मवैवर्त पुराण ) यथानिदानं निर्दिष्टमतिसम्यक् चिकित्सितम् । आयुर्वेद फलं स्थानमेतत्सद्योऽर्तिनाशनम् ॥ (अ. हृ चि. २२ ) इस संसार में कोई भी प्राणी अमर नही है, इसलिये मृत्यु का कोई भी निवारण नही कर सकता; किन्तु आयु के शेष रहने पर उत्पन्न हुए रोग चिकित्सा द्वारा अवग्य हटाये जा सकते है । इमलिये जव तक रोगो के कंठ में प्राण रहे रोग की चिकित्सा करते रहना चाहिए । न जन्तुः कश्चिदमरः पृथिव्यामेव जायते । अतो मृत्युरवार्यः स्यात् किन्तु रोगो निवार्यते । यावत् कण्ठगताः प्राणास्तावत् कार्य चिकित्सितम् ॥ रोग तथा सर्पादि के दंश मे पीड़ित मनुष्य यदि कालप्राप्त ( आयु पूरी ) हो तो उसको स्वयं धन्वन्तरि भगवान् भी स्वस्थ नहीं कर सकते है । कालप्राप्त मनुष्य को औषधि, मंत्र, होम तथा जप इनमें से कोई भी नही बचा सकते है | आयुष्ये कर्मणि क्षीणे लोकोऽयं दूयते यदा । नौपधानि न मन्त्राश्च न होमा न पुनर्तपाः । त्रायन्ते मृत्युनोपेतं जरया चापि मानवम् । कायचिकित्सा - स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य का मरक्षण तथा उसके रोगी हो जाने पर उसके रोग का प्रशमन, यही दो मुख्य प्रयोजन आयुर्वेद या चिकित्सा शास्त्र के है, तथा यही चिकित्सक का परम लक्ष्य है । इन दो उद्देश्यो को सम्मुख रखकर आयुर्वेद की सम्पूर्ण चिकित्सा कई विभागो में विभाजित हो जाती हैं । जिन्हें वायुर्वेद के अंग की सजा दी जाती है । ये अंग आठ है, फलत चिकित्सा भी या अगो मे विभाजित हो जाती है । जैसे १. चीर-फाड या ढाह के जरिये Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड : प्रथम अध्याय १६३ ( यत्रोपयंत्र तथा शस्त्रानुशस्त्रो के द्वारा), जत्रु के नीचे के शरीरावयवो में होने वाले रोगो का उपचार करना ( शल्यतत्र ), २ जत्रु के ऊपर के शरीर के अवयवो की शलाका आदि के द्वारा चिकित्सा करना ( शालाक्यतत्र ), ३ देव, असुर, गधर्व, राक्षस, पित, पिशाच एवं नागग्रह आदि से उपसृष्ट व्यक्कियो मे अर्थात् आधि या मानसिक रोगो से पोडित होने पर शान्तिकर्म-वलि-मंगल-होमजप प्रभृति आधिदैविक उपचारो से रोगापनयन की क्रिया ( भूत विद्या ), ४ गर्भिणी परिचर्या, स्त्री रोग तथा बाल रोगो के उपचार ( कौमार भृत्य ) ५ सर्प-कीट-लूता एव मूपक प्रभृति जगम तथा विविध प्रकार के वानस्पतिक एव पार्थिव विपोपविप प्रभृति स्थावर प्रभावो से पीडित व्यक्तियो का उपचार ( अगदतत्र ), ६ स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य को स्थिर रखना या वय स्थापन, मेधा एव वल का वढाना, रोग, वार्धक्य और मृत्यु पर विजय पाने का उपक्रम ( रसायन तत्र), ७ अल्प शुक्र वाले पुरुषो मे वीर्य का वढाना, दूषित शुक्र वाले व्यक्तियो के शुक्र का सशोधन करना, क्षीण शुक्र वाले शरीरो को स्त्रीसग के लिये सक्षम करने का कर्म ( वाजीकरण ) तथा ८ सम्पूर्ण शरीर को प्रभावित करने वाले रोगो की अर्थात् ज्वर, रक्तपित्त, शोष, उन्माद, अपस्मार, कुष्ठ, प्रमेह तथा अतिसार आदि रोगो के उपचारार्य ( कायचिकित्सा ) है । प्रस्तुत विपय का सम्बन्ध प्रधानतः इसी अतिम अग कायचिकित्सा से ही है । भिपक् कर्म-सिद्धि नामक इस पुस्तक की रचना भी एतदर्थ ही है। परन्तु व्यवहार मे व्यपदेश से अन्य अंगो का जैसे कायचिकित्सा के अतर्गत रसायन एव वाजी-करण तथा भूतविद्या नामक अतिरिक्त अगो या तत्रो का भी समावेश इसमें हो जाता है। अथास्य प्रत्यगलक्षणानि समासत:१. रसायनतन्त्रं नाम वय स्थापनमायुर्मेधावलकरंरोगापहरणशमार्थं च । २ वाजीकरणतन्त्रं नामाल्पदुष्टक्षीणशुष्करेतसामाप्यायनप्रसादोपचय जनननिमित्तम् । ३ कायचिकित्सा नाम सर्वाङ्गसंश्रितानां व्याधीना ज्वररक्तपित्त शोषोन्मादापस्मारकुष्ठमेहातिसारादीनामुपशमनार्थम् । ४ भूतविद्या नाम देवासुरगन्धर्वयक्षरक्ष पितृपिशाचनागग्रहाद्युपसृष्ट चेतसा शान्तिकमालहरणादिग्रहोपशमनार्थम् । (सु सू १ ) कायचिकित्सा की शाब्दिक व्युत्पत्ति-काय का अर्थ है सम्पूर्ण शरीरइसकी चिकित्सा करना कायचिकित्सा है । काय की अन्य व्युत्पत्ति 'कायतीति काय' भी है । कायति का अर्थ धुक् धुक शब्द करना है। कान को अगुलि से वद करने Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ भिषकर्म-सिद्धि पर एक नाद या शब्द सुनाई देता है। वह जीवित गरीर का वोवक है । इस जीवित गरीर की चिकित्सा करना ही वैद्य का प्रयोजन है। इस अर्थ मे भी कायचिकित्सा, इस शब्द का प्रयोग हुआ है। काय का एक और अर्थ है जाठराग्नि । जव तक जाठराग्नि है तभी तक शरीर जीवित है-धुक बुक् शब्द की उत्पत्ति भी इस जाठराग्नि (पेट की अग्नि ) के प्रज्वलित रहने पर ही संभव रहती है । अस्तु काय शब्द से जाठराग्नि का बोध होता है । ___ "कायो जाठराग्निः अनलिपिहिते कणयुगले धुक् इति शब्दश्रवणात् तात्स्थ्याद् वा कायशब्देन अग्निरुच्यते । उक्तं च भोजेन जाठरः प्राणिनामग्निः काय इत्यभिधीयते । यस्तं चिकित्सेत्सीदन्तं स वै कायचिकित्सकः ।। ( भोज) कायस्यान्तराग्नेश्चिकित्सा कायाचकित्सा' अर्थात् जीवित प्राणियो की जाठराग्नि को काय कहते है । उस अग्नि के विकृत हो जाने पर जो उपचार उसके सुधारने के लिये किया जाता है उसको कायचिकित्सा कहते हैं और उपचार करने वाले व्यक्ति को कायचिकित्सक कहते है। चिकित्सा गब्द की एक सामान्य व्याख्या प्रस्तुत करते हुए चरक ने लिखा है-'धातुओ की विषमता होने पर, वैद्य-रोगी-ओपध-परिचारक प्रभृति चारो अङ्गो से सुनज्ज होकर, धातुओ की साम्यावस्था में लाने वाली प्रवृत्ति को चिकित्मा शब्द से अभिहित किया जाता है । चतुर्णा भिपगादीनां शस्तानां धातुवैकृते । प्रवृत्तिर्धातुसाम्यार्था चिकित्सेत्यभिधीयते ।। (च सू ९) वैद्यक ग्रंथो मे जाठराग्नि का बहुत महत्त्व दिया गया है । गीता में भी इसे वैश्वानर कहा गया है-भगवान् ने अपने को इमी का रूप बतलाया है। यह अग्नि जब तक दीप्त रहती है कोई भी रोग नही होता और इसके विकृत होने पर ज्वर, अतिसार प्रभृति रोग हो जाया करते है । अस्तु कायचिकित्सक को उपचारकाल में सर्वोपरि ध्यान इस जाठराग्नि के ऊपर ही केन्द्रित करना होता है। चरक में लिखा है "अग्नि के गान्त हो जाने पर प्राणी मर जाता है, ठीक रहने पर नीरोग हो कर जोता है, विकृत होने पर रोगी हो जाता है अतः सब के मूल मे अग्नि है।" इस अग्नि के पर्याय रूप में 'काय' शब्द का प्रयोग होता है। इसलिये अग्नि के विचार की प्रधानता होने से इस अग का नाम ही कायचिकित्सा तत्र पड गया। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड प्रथम अध्याय अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित । प्राणपानसमायुक्त पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥ (गीता) आयुर्वेण वलं स्वास्थ्यमुत्साहोपचयौ प्रभा । ओजस्तेजोऽग्नय प्राणाश्चोक्ता देहाग्निहेतुका ॥ शान्तेऽग्नौ म्रियते युक्ते चिरं जीवत्यनामयः। रोगी स्याद्विकृते मूलमग्निस्तस्मान्निरुच्यते ।। (च चि १५) 'शमप्रकोपौ सर्वेषां दोपाणामग्निसंश्रितौ । रोगाः सर्वेऽपि मन्देऽग्नौ ।' व्याधि या रोग–'विविध दुखमादधतीति व्याधय' पुरुप को जिमके सयोग से दुख होता है उसे व्याधि कहते है। तीनो दोषो ( वात-पित्त-कफ) की साम्यावस्था आरोग्य और विषमावस्था रोग है। तत्प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम् । (पा योग दर्शन) तदुःखसंयोगा व्याधय उच्यन्ते । ( सु सू १) रोगस्तु दोपवैपम्यं दोषसाम्यमरोगता। ( वा ) विकारो धातुवैपम्यं साम्यं प्रकृतिरुच्यते । सुखसंज्ञकमारोग्यं विकारो दुःखमेव च। (च) दोषाणा साम्यमारोग्यं वैषम्यं व्याधिरुच्यते । सुखसंज्ञकमारोग्यं विकारो दुखमेव च ॥ (भै र.) व्याधियाँ चार प्रकार की होती है । १ आगन्तुक, २ शारीरिक, ३ मानसिक ४ स्वाभाविक । इनमे आगन्तुक रोग अभिघातज (आकस्मिक कारणो से), तथा शारीरिक आहार-विहार के असयम से अथवा वात-पित्त-कफ-रक्तादि की विषमता से होते है । मानसिक रोग क्रोध, शोक, भय, ईर्ष्या, असूया, दोनता, मात्सर्य, काम, क्रोध और लोभादि के मनोवेगो के सयम न होने अथवा इच्छा एव द्वष के विविध भेदो से होते है। इनके अलावे स्वाभाविक रोग क्षुधा, तुषा, निद्रा, वार्द्धक्य और मृत्यु आदि है। कालस्य परिणामेन जरामृत्युनिमित्तजाः। रोगाः स्वाभाविका दृष्टाः स्वभावो निष्प्रतिक्रियः ।। चरक ऋपि ने रोगो के तीन प्रकार बतलाये है 'निजागन्तुमानसा ।' इनमे निज-शरीरदोपसमुत्थ, आगन्तुक-विप-वायु-अग्नि-सम्प्रहारजन्य तथा मानस रोग-इप्ट की सम्प्राप्ति न होने और अनिष्ट की प्राप्ति होने से उत्पन्न होते है। ये सभी प्रकार के रोग मन एवं शरीर दोनो का आश्रय कर उत्पन्न होते है । “विविधमाधि दुखमादधाति शरीरे मनसि चेति व्याधि ।" Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ भिषक्कम-सिद्धि आगन्तुक रोग दो प्रकार के होते है-एक मन के दूसरे गरीर के । इन दोनो की चिकित्सा भी दो प्रकार की होती है। गारीरिक रोगी में शरीर का उपचार तथा मानस रोगो मे मन सम्बन्धी उपचार जैसे गन्द-स्पर्श-रूप-रस-ांव का सुखप्रद उपयोग हितकर होता है। 'आगन्तवस्तु ये रोगास्ते द्विधा निपतन्ति हि । मनस्यन्ये शरीरेऽन्ये तेपान्तु द्विविधा क्रिया ।। शरीरपतितानां तु शारीरवद्रुपक्रमः । मानसानां तु शब्दादिरिष्टो वगे. सुखावहः ।। (सु सू १) उत्पत्ति के भेद से व्याधि के दो भेद होते है। पापज और कर्मज । पापज व्यघि वह है जो इस जन्म में किये गये मिथ्या आहार-विहारादि रूप पाप से उत्पन्न होती है। इसी को अन्य स्थानो पर दोपजन्य ( वात-पित्त एवं कफजन्य ) भी कहा गया है ।' पापज व्यावियाँ औपध-सेवन तथा उत्रित पथ्याचरण से निवृत्त हो जाती है । कर्मज व्याधि वह है जो निदान-पूर्वरूप-रूप बादि से निर्णय करके उचित चिकित्सा करने पर भी विनष्ट नहीं होती। तत्रैकः पापजो व्याधिरपरः कर्मजो मतः। पापजाः प्रशमं यान्ति भैषज्यसेवनादिना ।। यथाशास्त्रविनिर्णीतो यथाव्याधिचिकित्सिताः। न शमं याति यो व्याधिः स बेयः कमजो बुधैः ।। (भै र ) रोग प्राणियो के गरीर को कृश करने वाले, बल का तय करने वाले, क्रियाशक्ति को कम करने वाले, इन्द्रियो की शक्ति को जो करने वाले, सर्वाङ्ग में पीड़ा पैदा करने वाले, सभी पुत्पार्थो-धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, के वावक तथा प्राण को नष्ट करने वाले होते हैं। इनकी उपस्थिति में प्राणियो को सुख नहीं मिलता है। आयुर्वेद इन अपकारी रोगो से प्राणियो को मुक्ति दिलाता है। रोगाः काश्यंकरा बलक्षयकरा देहस्य चेष्टाहरा वटा इन्द्रियशक्तिसंक्षयकराः सर्वाङ्गपीडाकराः॥ धर्मार्थाखिलकाममुक्तिपु महाविन्नस्वरूपा बलान् प्राणानाशु हरन्ति सन्ति यदि ते क्षेमं कुतःप्राणिनाम् ।। व्याधि का सामान्य हेतु-काल (ऋतु, अवस्था आदि परिणाम), अर्थ (पंच ज्ञानेन्द्रियों के शब्द, स्पर्श, रूप, रम और गंव प्रभृति व्यापार) तथा कर्म ( कर्मेन्द्रियो के कर्म उत्क्षेपण-अपक्षेपग-आकुंचन-प्रसारण-गमनाटि Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड प्रथम अध्याय १६७ व्यापार ) का अतियोग, हीन योग या मिथ्या योग रोग पैदा करने का मूल कारण है तथा इनका सम्यक योग आरोग्य का प्रधान कारण है। "कालार्थकर्मणां योगो हीनमिथ्यातिमात्रकः । सम्यग् योगश्च विज्ञेयो रोगारोग्यैककारणम् ॥" अथवा इस प्रकार भी कहा जा सकता है काल (शीत, उष्ण एव वर्षा प्रभृति ऋतु), बुद्धि (प्रज्ञा का अपराध या दोष अधर्म आदि) तथा इन्द्रियार्थों ( कर्मेन्द्रिय तथा ज्ञानेन्द्रियो के कर्म) का अति योग, अयोग एव मिथ्या योग ये तीन प्रकार के कारण विविध प्रकार के मानस एव शरीर गत रोगो के उत्पादक होते है। कालबुद्धीन्द्रियार्थानां योगो मिथ्या न चाति च । द्वयाश्रयाणां व्याधीनां त्रिविधो हेतुसंग्रह ॥ (च सू १) दूसरे शब्दो मे धो-धृति एव स्मृति का भ्रश (बुद्धि या प्रज्ञा का अपराध या दोष ), काल तथा कर्म की सम्प्राप्ति ( ऋतु, अवस्था तथा अधर्म या पूर्व जन्म कृत कर्म का समय से प्रकट या व्यक्त होना) तथा असात्म्यागम (असात्म्य अर्थों-इन्द्रिय-व्यापारो का अनुष्ठान ) ये दु.ख या रोग के सामान्य कारण है। धीधृतिस्मृतिविभ्रंशः सम्प्राप्ति. कालकर्मणाम् । असात्म्यार्थागमाश्चेति ज्ञातव्या दुःखहेतवः ॥ (च शा. १ ) दसरे शब्दो मे इन विविध कारणो को इस प्रकार भी कहा जा सकता है १. असात्म्येन्द्रियार्थ सयोग ( इन्द्रियो का अपने विपयो के साथ अनुचित उपयोग ), प्रज्ञापराध (बुद्धि, धैर्य एव स्मृति के अनुसार कार्य न करना) तथा परिणाम ( काल अधर्म तथा देव का विपरीत होना)। वाय-पित्त तथा कफ ये तीन शरीरगत व्याधियो के पैदा करनेवाले दोष है एव मानसिक व्याधियो के पैदा करने मे दो ही दोष रज और तम भाग लेते है। वायुः पित्तं कफश्चेति शारीरो दोषसग्रह.। मानसः पुनरुद्दिष्टो रजश्च तम एव च ॥ ( च सू १) व्याधि का पर्याय-व्याधि, आमय, गद, भातक, यक्ष्मा, ज्वर, विकार, रोग, पाप्मा, आबाध, तम तथा दु ख । ये रोग के नामान्तर है। इन शब्दो मे आमय सज्ञा सुप्रसिद्ध है। चक्रपाणि ने आमय शब्द की व्युत्पत्ति दिखलाते हए कहा है कि प्राय रोग आम दोष से ही उत्पन्न होते है अत आमय कहलाते हैं - Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ भिपकर्म-सिद्धि "प्रायेणामसमुत्थत्वेनामय इत्युच्यते ।” (चक्र ) "तत्र व्याधिरामयो गद आतङ्को यक्ष्मा ज्वरो विकारो रोग इत्यनर्थान्तरम् । (च नि १) रोगः पाप्मा ज्वरो व्याधिर्विकारो दुःखमामय । यक्ष्मातङ्कगदावाधा. शब्दा पर्यायवाचिनः ॥ २ ॥ (अ ह नि) चिकित्सा का सामान्य उपक्रम-जिन कारणो से रोग उत्पन्न हुआ है उन कारणो का परित्याग करना ही सामान्य चिकित्सा है । उष्णता के कारण उत्पन्न हुए रोगो मे शीतोपचार एव गैत्य के कारण उत्पन्न व्याधियो मे उप्णोपचार करना युक्तिसंगत है । सामान्यतः क्रियायोगो निदानपरिवर्जनम् । (सू ) हेतोरसेवा विहिता यथैव जातस्य रोगस्य भवेचिकित्सा । (च) शीतेनोष्णकृतान् रोगान् शमयन्ति भिपग्विदः। ये च शीतकृता रोगास्तेषां चोष्णं भिपग्जितम्।। (च) क्षीण हुए दोपो का वढाना, बढे हुए दोपो को घटाना, और सम दोपो को समान बनाये रखना चिकित्सा का उपक्रम है। "क्षीणा पद्धयितव्याः, वृद्धा ह्रासयितव्याः, समाः परिपाल्याश्च ।" रोगहर औषधियो से रोगी की चिकित्सा करनी चाहिये । जैसे थके हुए का थकावट दूर करने वाली बऔषधियो से उपचार करे । कृश एव दुर्वल व्यक्ति का आप्यायन--संतर्पण करे, स्थल और मेदस्वी व्यक्तियो का अपतर्पण करे, उष्णाभिभूत व्यक्ति का शीत से उपचार करे, शीताभिभूत का उष्ण क्रिया से उपचार करे, न्यून घातु वाले व्यक्तियो में परण ( भरण) क्रिया से उपचार करे, वढे हए दोपो मे हासन ( कम करना ) क्रिया उपयुक्त होती है, रोग के मूल कारण के विपरीत प्रयोग से उपचार करे, ठीक ढग से स्वाभाविक या प्राकृत यवस्था में शरीर को लाने का प्रयत्न करना चाहिये। इस प्रकार यथा उपयुक्त कर्म करते हुए ओपधि के योग से चिकित्सा सुन्दरतम बन जाती है। इदं च नः प्रत्यक्षं यदनातुरेण भेपजनातुरं चिकित्स्याम , क्षाममक्षामेण, कृशञ्च दुर्वलमायाययाम , रथूल मेदस्विनमपतर्पयाम , शीतेनोप्णाभिभूतमुपचरास , शीताभिभूतमुप्णेन, न्यूनान् धातून्पूरयाम , व्यतिरिक्तान् हासयाम,, व्याधीन मूलविपर्ययेण उपचरन्तः सम्यक् प्रकृती स्थापयाम , तेपां नस्तथा कुर्वतामयं भेपजसमुदाय कान्ततमो भवति। (चर सू १०) दोप अथवा तज्जन्य व्याधियो के गमन के लिये शारीरिक रोगो मे देवव्यपाश्रय तथा युक्तिव्ययाश्रय चिकित्सा करनी चाहिये और मानसिक रोगो में Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड प्रथम अध्याय १६६ ज्ञान, विज्ञान, धैर्य, स्मृति एव समाधि प्रभृति क्रियाओ द्वारा चिकित्सा करनी चाहिए । देवव्यपाश्रयकर्म-बलि-मगल-होम प्रभृति है, युक्तिव्यपाश्रय कर्मो मे गरीर एवं औपधि का विचार करते हुए यथायोग्य भेपज का प्रयोग आ जाता है। ज्ञान-विज्ञान-धैर्य-स्मृति और समाधि से क्रमश अध्यात्मज्ञान, शास्त्रज्ञान, धैर्य धारण, अनुभूत विषयो का स्मरण तथा विपयो से मन को रोककर आत्म मे नियमन करना आता है। प्रशाम्यत्यौपधैः पूर्वो देवयुक्तिव्यपाश्रयैः । मानसो ज्ञानविज्ञानधैयस्मृतिसमाधिभिः ।। (च सू १) उपक्रम भेद से चिकित्सा के दो प्रकार हो जाते है । १ सतर्पण २ अपतपण । दूसरे शब्दो में संतर्पण को वृहण और अपतर्पण को लघन कहा जाता है। शरीर मे रस-रक्तादि धातुओ की क्रिया को जो वढावे वह सतर्पण और जो कम करे या धातुओ को हल्का करे वह अपतर्पण या लघन कहलाता है। लघन कर्म के पुन दो भेद हो जाते है १ शोधन या सशोधन २ शमन या मंशमन । जिस क्रिया के द्वारा दोप या मल बाहर निकल जाते है वह कर्म शोधन कहलाता है। यह कर्म पुन. पाँच प्रकार का होता है (क) निरूह वस्ति (ख) वमन (ग) विरेचन (घ) शिरोविरेचन (ड) रक्तावसेचन ( रक्त का वहाना)। __शमन उस कर्म को कहते है--जो मल को बाहर नहीं निकालता, समदोपो को प्रकुपित नहीं करता, अपितु विपम धातु एव दोपो को समान करता है। इसके भीतर सात उपक्रमो का समावेश हो जाता है । (क) पाचन, (ख) दीपन ( जाठराग्नि को दीप्त करना), (ग) क्षुधानिग्रह, (भूख का रोकना), (घ ) तृपानिग्रह (प्यास को रोकना ), (ड) व्यायाम ( परिश्रम करना ), ( च ) आतप ( धूप का सेवन कराना ), (छ ) वायु के सेवन, ये शमन के सात प्रकार है। वहण कर्म भी शमन का कार्य करता है। प्राय गुरु, शीत, मदु, स्थूल, घन, पिच्छिल, मद, स्थिर एव श्लक्ष्ण द्रव्य बृण होते है । वृहण क्रिया के द्वारा वल, पुष्टि एव स्थिरता वढती है, कृशता दूर होती है। अधिक वृहण होने से स्यूलता आ जाती है। उपक्रमस्य द्वित्वाद्धि द्विधैवोपक्रमो मत । एकः संतपणस्तत्र द्वितीयश्चापतर्पणः॥ बृंहणो लङ्घनश्चेति तत्पर्यायावुदाहृतौ । बृंहणं यत् बृहत्त्वाय लञ्चनं लाघवाय यत् ॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि शोधनं शमनचेति द्विधा तत्रापि लखनम् । यदीरयेद् बहिर्दोपान् पञ्चधा शोधनं हि तत् ।। निरूहो वमनं कायशिरोरेकोऽस्त्रविस्रुतिः । न शोधयति यहोपान् समान्नोदीरयत्यपि ॥ समीकरोति विपमाञ् शमनं तच्च सप्तधा। पाचनं दीपनं शुत्तड्व्यायामातपमारुताः ।। वृंहणं शमनं त्वेव वायोः पित्तानिलस्य च । (अ ह सू १४) गुरुशीतमृदुनिन्धं वहलं सूक्ष्मपिच्छिलम् ।। पायो मन्दं स्थिरं नणं दन्यं वृंहणमुच्यते । चतुष्प्रकारा संशुद्धिः पिपासा मारतातपा ।। पाचनान्युपवासश्च न्यायामश्चेति लञ्चनम् । (च.सू २२) चरक ऋषि ने सर्व रोगो की सामान्य चिकित्मा में छ उपक्रमो का उल्लेख किया है। इनका सम्यक् रूप से प्रयोग होने पर सभी साध्य रोग अच्छे हो जाते हैं। ये सिद्ध उपक्रम माने गये है और इनका मात्रा और काल के अनुसार प्रयोग करने का उपदेन है। इन छ. उपक्रमो का सम्यक ज्ञान वैद्य के लिये आवश्यक माना गया है। साथ ही यह भी कहा गया है कि दोषो के विविध प्रकार के मसर्ग ने भांति-भांति के रोग होते है, परन्तु उनके उत्पादन में तीन दोपो के अतिरिक्त कोई दोष नही भाग लेता, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार के रोगो की चिकित्मा में इन छ उपक्रमो के अतिरिक्त क्सिी अन्य उपक्रम की आवश्यकता नहीं रहती, इन छ. उपक्रमो में ही सभी चिक्त्सिा मे व्यवहृत होने वाले उपक्रमों का समावेग हो जाता है। इति पट् सर्वरोगाणां प्रोक्ताः सम्यगुपक्रमा.। साध्यानां साधने सिद्धा मात्राकालानुरोधिन । दोपाणां बहु संसगात् संकीर्यन्ते उपक्रमा.। पटलं तु नातिवतन्ते त्रित्वं वातादयो यथा ।। (च, मू २२) ये छ उपक्रम कौन-कौन से है जिनके केवल एक या दो तीन या अधिक के मिश्रण ने सम्पूर्ण चिकित्सा सम्भव रहती है। ये उपक्रम निम्नलिखित है-- १. लंघन २ वृण ३. रुक्षण ४ स्नेहन ५. स्वेदन तथा ६ स्तंभन । इन कमों का सम्यक् रीति से जानने वाला ही वैद्य है। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ तृतीय खण्ड : प्रथम अध्याय शरीर को जो कुछ भी लघु करे लघन कहलाता है, जिसमे रूक्षता, खरता, विशदता हो और शरीर को रूखा करता हो रूक्षण कहलाता है, स्निग्ध, विलयनशील, मृदु एव क्लेद कारक द्रव्य शरीर के स्नेहन मे आते है, स्तभ ( जकडाहट), गुरुता और शीत को दूर करने वाला एव स्वेद लानेवाला कर्म स्वेदन कहा जाता है, शरीर की गतिमान् एवं चल वस्तुओ को रोकनेवाली क्रिया जो निश्चित रूप से रोकने में समर्थ होती है स्तंभन कहलाती है। लखनं बृंहणं काले रूक्षणं स्नेहनं तथा। स्वेदनं स्तम्भनञ्चैव जानीते य स वै भिषक् ।। यत्किंचिल्लाघवकरं देहे तल्लङ्घनं स्मृतम् । बृहत्त्वं यच्छरीरस्य जनयेत्तञ्च बृहणम् ।। रौक्ष्यं खरत्वं वैशद्यं यत् कुर्यात्तद्धि रूक्षणम् । म्नेहनं स्नेहविष्यन्दमार्दवक्लेदकारकम् ।। स्तम्भगौरवशीतनं स्वेदनं स्वेदकारकम् । (च सू २२) आचार्य सुश्रुत ने लिखा है--सम्यक् प्रकार से प्रयुक्त किये गये सशोधन, सशमन, आहार एव विहार रोगो का निग्रह करते है । "तेषां संशोधन-संशमनाहाराचारा सम्यक् प्रयुक्ता निग्रहहेतव भवन्ति ।" (सु सू १ ) चरकाचार्य ने लिखा है कि सशोधन, सशमन और निदान का परिवर्जन ( कारण का दूर करना ) यही तीन कर्म प्राय रोग को चिकित्सा मे बरते जाते है। रोगानुसार प्रत्येक मे इन उपक्रमो का यथाविधि उपयोग करना चिकित्सक का कत्तव्य है। संशोधनं संशमनं निदानस्य च वर्जनम् । एतावद् भिपजा कार्य रोगे रोगे यथाविधि ॥ (च वि ८) सशोधन की व्याख्या ऊपर हो चुकी है। सशमन के बारे मे इस आचार्य के मत से दो भेद होते है। १ वाह्य तथा २ आभ्यतर । वाह्य सशमन मे आलेप, परिषेक, कवल और गण्डूप आदि का ग्रहण हो जाता है । आभ्यतर सशमन द वाचन, लेखन, बृहण एव विपप्रशमन आदि कर्मों का समावेश है। ' आहार चार प्रकार के होते है १ पेय २ भक्ष्य ३ लेह्य और ४ चोष्य । क्रिया या गुण की दृष्टि से विचार किया जावे तो आहार तीन प्रकार के होते है-१ दोषप्रशमन २ व्याधिप्रशमन ३ स्वास्थ्यकर । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ भिपकर्म-सिद्धि आचार तीन प्रकार के होते हैं--(क) शारीरिक (ख) वाचिक (ग) मानसिक । इनमें उत्क्षेपण, अवक्षेपण प्रभृति कर्म शारीरिक आचार, स्वाध्याय वाचिक एवं संकल्प, चिन्तन आदि व्यापार मानसिक माचार है। __ आहार :-पथ्य की वडी महिमा मास्त्र मे वतलाई गई है। लोलिम्बराज कृत वैद्यजीवन में तो यहां तक लिखा है कि यदि रोगी पथ्य का विधिवत् सेवन करे तो उमको औषध के सेवन की कोई आवश्यकता नहीं है । अर्थात् वह पथ्य से ही अच्छा हो जायेगा। इसके विपरीत यदि वह पथ्य से न रहे, तब भी उसको औषधि सेवन की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योकि अपथ्य से वह अपना रोग उढा लेगा । फलत. बोषधि सेवन का कोई भी फल नहीं होगा। पथ्ये सति गदातस्य किमोषधनिपेवणैः । पथ्येऽसति गदातस्य किमीपधनिपेवणे ।। आहार प्राणियो के वल, वर्ण और ओज का मूल है । आहार के सेवन से ही प्राणी जोवित रहता है, उसका बल बढता है, शरीर का वर्ण और तेज अक्षुण्ण बना रहता है। हिताहार और विहार पर ही उसकी कार्यक्षमता निर्भर रहती है । बाहार के अभाव में इन सभी सद्गुणो का ह्रास पाया जाता है । अस्तु बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिये कि चाहे रोग मानसिक हो या शारीरिक सत् वृद्धि से विचार कर हित और अहित (पथ्य और अपथ्य ) का ध्यान रखते हुए, धर्म-अर्थ और काम दृष्टि से जो लाभप्रद हो उस प्रकार के आहार-विहार का सेवन करे तथा जो अहित करने वाले हानि-प्रद हो उनका परित्याग करने का प्रयत्न करे । तद्विद्य मानस एव शारीर व्याधि के ज्ञाता अर्थात् वैद्यक शास्त्र अथवा उसके माता की सलाह लेकर उसके अनुसार आहार-विहार के अनुष्ठान का प्रयत्न करे । इस तरह बात्मा, देग, कुल, काल, वल तथा गक्ति का सम्यक् जान करके तदनुकूल आहार-विहार रखने का प्रयत्न करना चाहिये। तत्र बुद्धिमता मानसव्याधिपरीतेनापि सता वुद्धया हिताहितमवेक्ष्यावेख्य धर्मार्थकामानामहितानामनुपसेवने हितानां चोपसेवने प्रयतितव्यम् । न हयन्तरेण लोके त्रयमेतन्मानसं किचिन्निप्पद्यते सुखं बा दुखं वा तस्मादेतच अनुष्टेयम् । तद्विद्यानां चोपसेवने प्रयतितव्यम्, आत्मदेशकुलकालवलशक्तित्राने यथावञ्चेति । (च सू ११) हित लाहार विहार करने वाला, मोच विचार कर काम करने वाला, विण्य वामनाओ में नासक्त न रहने वाला, दाता, सत्यवादी, जमावान्, वृद्ध और शास्त्रो का वचन मानने वाला तथा सबको समान भाव से देखने वाला मनुष्य नीरोग रहता है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड प्रथम अध्याय हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी १७३ नरो विपयेष्वसक्तः । दाता समः सत्यपरः क्षमावान् आप्तोपसेवी च आहार-स्वप्नन्न्रह्मचर्य-आहार, निद्रा तथा सयम युक्त आचरण का बहुत भवत्यरोगः ॥ उपस्तभ के रूप मे वर्णन दी गई है जिनके आधार महत्त्व शास्त्रों में वतलाया गया है । इन तीनो का किया गया है । इनकी उपमा मकान के उपस्तभो से पर मकान सडा रहता है । इन तीनो का युक्तियुक्त प्रयोग स्वस्थ शरीर को अपेक्षित रहता है । रोगी मनुष्य को तो बहुत ही आवश्यक हो जाता है | "त्रय उपस्तभा आहार, स्वप्नो, ब्रह्मचर्यमिति । एभिस्त्रिभिर्युक्तयुक्तैरुपस्तब्धमुपस्तम्भैः शरीरं वलवर्णोपचयोपचितमनुवर्तते यावदायुः सस्कारात् संस्कारमहितमुपसेवमानस्य य इहैवोपदेक्ष्यते ।” ( च सू ११ ) । यह रस द्रव्यो आहार तथा औषधि : - आहार पड़सो के अधीन है मे आश्रित रहता है एव द्रव्य ही औषधि है । आहार प्राय ये गुणो की दृष्टि से मृदु, सशामक हो जाती है । औषधियाँ दो प्रकार स्थावर के पुन दो भेद हो जाते है औद्भिद रसप्रधान होते है मध्य और तीक्ष्ण और ओपघियां वीर्यप्रधान । पुन तथा कार्य भेद से सशोधक एव की होती है स्थावर तथा उगम तथा पार्थिव । । जगम औषधियो मे चार प्रकार के जीव आते हैं । जैसे ९ जरायुज २ अण्डज ३ स्वेदज तथा ४ उद्भिद् । इनमे मनुष्य - पशु आदि जरायुज, पक्षि, सर्प अजगर प्रभृति अण्डज, कृमि, कीट आदि जीव स्वेदज तथा वीरबहूटी, मेढक आदि जीव उद्भिद् जाति के होते है । स्थावर द्रव्य चार प्रकार के होते है : फूल -१ वनस्पति, जिनमे विना आये ही फल आता है । २ वृक्ष, जिनमे फूल और फल दोनो लगते हैं । ३ वीरुधू, जो फैलने वाली लता-प्रतान या गुल्म का रूप लेते है तथा ४ ओषधि, इस वर्ग मे दूर्वा प्रभृति जो फल के पकने तक ही अपना अस्तित्व रखते है । द्रव्यों का भी ग्रहण कर लेना चाहिये जिनमे विना फल प्रवृत्ति पाई जाती है | लगे पकने या सूखने की इन स्थावर औपधियो के त्वक् पत्र, पुष्प, फल, मूल, कद, गोद, स्वरस, दूध, तेल, क्षार, कांटे प्रभृति अग चिकित्सा मे व्यवहृत होते है । स्थावरो का एक दूसरा भेद पार्थिव या खनिज द्रव्यो का है जिनमे सुवर्ण, रजत, लौह, मणि, मन शिला, मृत्तिका आदि द्रव्य चिकित्सा के व्यवहार मे आते है । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ भिपकर्म - सिद्धि जंगम औषधियों के चर्म, नख, वाल, रक्त, मास, मूत्र, पुरोप आदि का उपयोग रोग की चिकित्स । मे होता है । औद्भिदं तु चतुर्विधम् । फलैर्वनस्पतिः पुष्पैर्वानस्पत्यः फलैरपि । ओषध्यः फलपाकान्ताः प्रतनिर्वीरुधः स्मृताः ॥ मूलत्वक्सारनिर्यासनालस्वरसपल्लवाः । वायु, अवायु, धूप, छाया, ज्योत्स्ना, रात, पक्ष, माम, ऋतु, अयन तथा सुतमे दी गई है । ये स्वभाव प्रतीकार में कारण और चिकित्सा में द्वारा औरं फलं पुष्पं भस्म तैलानि कण्टकाः ॥ पत्राणि शुना कन्द्राच प्ररोहाचौदिदो गणः । (च. सू १ ) इन द्रव्यों के अतिरिक्त कालकृत भी ओपधियां बतलाई गई है । जैमे अति अन्धकार, प्रकाश, शीत, उष्ण, वर्षा, दिन, संवत्सर इसको कालकृत ओपधि की संज्ञा से ही दोपो के सचय, प्रकोप, प्रशमन एवं उपयोगी है | आहार एव औषधि में कोई विशेष भेद नही है । जो सामान्य आहार है, वही अवस्था भेद से ओपधि के रूप में प्रयुक्त हो सकता है । आहार या औपवि के चार वर्ग सुश्रुत में बताये गये है । १. स्थावर २. जंगम २. पार्थिव ४ कालकृत । तंत्र में इस चार प्रकार के वर्ग को शारीरिक रोगो के प्रकोप तथा शमन में कारण वताया गया है । शरीराणा विकाराणामेप वर्गश्चतुर्विधः । प्रकोपे प्रशमे चैव हेतुरुक्तश्चिकित्सकैः ॥ ( सु सू. १ ) पुरुष - कर्म पुरुष या मानव शरीर पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, आकाश तथा आत्मा के संयोग से बना है । यह चिकित्सा का अधिष्ठान है | सम्पूर्ण चिकित्सा का कर्म इसी के लिये होता है । यह प्रधान है, शेष अन्य वस्तुएं इसके उपकरण रूप में हैं । पशु-चिकित्सा में जहां हाथी, घोड़े, कुत्ते, गाय, भैंस प्रभृति बड़े और उपयोगी पशुओ की चिकित्सा की जाती है उस स्थान पर पशु प्रधान हो जाता है और शेष अन्य द्रव्य उसके उपकरण रूप में आते है । लोक-सृष्टि दो प्रकार की है स्थावर एवं जंगम । गुणो या क्रिया की दृष्टि से विचार करें तो सम्पूर्ण स्थावर तथा जंगम सृष्टि सौम्य तथा आग्नेय भेद से दो प्रकार की होती है । दोनो प्रकार की सृष्टि पंचभूतात्मक है । प्राणवारी चार प्रकार के जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उद्भिज्ज होते हैं । इनमें प्रधानता पुरुष की दो गई है प अन्य द्रव्य पुरुष के उपकरण रूप में माने जाते है । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ तृतीय खण्ड · द्वितीय अध्याय इस प्रकार पुरुप व्याधि, औषध एवं क्रियाकाल की सक्षिप्त व्याख्या समाप्त हुई । आचार्य सुश्रुत ने इस पाठ की चिकित्सा वीज नाम से व्याख्या की है। वीजं चिकित्सितस्यैतत् समासेन प्रकीर्तितम् । सविशमध्यायशतमस्य व्याख्या भविष्यति ॥ (सु सू १) द्वितीय अध्याय चिकित्सा के भेद-चिकित्सा तोन प्रकार की होती है १ आसुरी २ मानुषी ३. देवी । शल्यकर्म के द्वारा यत्र-शस्त्र-क्षार-अग्नि के द्वारा जो चिकित्सा की जाती है उसे आसुरी चिकित्सा कहते है। काढा-चूर्ण-गुटिका प्रभृति काष्ठौपधियो के द्वारा जो चिकित्सा की जाती है उमे मानुपी चिकित्सा कहते हैं तथा धातूपधातु की भस्म, खनिज द्रव्य, रसोपरसो से जो चिकित्सा की जाती है वह दैवी चिकित्सा कहलाती है । उनको क्रमश एक दूसरे से श्रेष्ठ माना गया है । तात्पर्य यह है कि आसुरी से मानुपी और मानुषी से देवो चिकित्सा श्रेष्ठ मानी जाती है । आसुरी मानुपी देवी चिकित्सा त्रिविधा मता। शस्त्रः कपायैर्लोहाद्यैः क्रमेणान्त्या सुपूजिता॥ अधम शस्त्रदाहाभ्या मध्यमो मूलकादिभिः । उत्तमो रसवैद्यस्तु सिद्धवेद्यस्तु मान्त्रिकः ।। महपि आग्रेय ने चिकित्सा के तीन भेद बतलाये हैं। १ दैवव्यापाश्रय, २ युक्तिव्यपाश्रय, ३ सत्त्वावजय । इनमे देवव्यपाश्रय उपक्रमो मे मंत्र, औषधि, मणिधारण, मगलकर्म, बलि कर्म, उपहार, होम, नियम, प्रायश्चित्त, उपवास, स्वस्त्ययन, प्रणिपात तथा गमनादिक कर्मों का ग्रहण हो जाता है। यक्ति व्यपाश्रय चिकित्सा मे आहार-विहार-औषधि द्रव्यो की विविध योजनायें जैसे क्वाथ-चूर्ण-गुटिका-अवलेह, रस-भस्म, संशोधन तथा सशमन प्रभृति विविध आधिभौतिक उपायो का समावेश हो जाता है। सत्त्वावजय-इस चिकित्सा मे विशुद्ध आध्यात्मिक तत्त्वो का उपयोग आ जाता है जिस मे अहित विषयो से मन का रोकना प्रधान उपक्रम होता है । इन तीनी उपक्रमो मे अधिक व्यावहारिक प्रथम तथा द्वितीय उपक्रम नाम से देव तथा यक्ति व्यमाश्रय ही होते हैं । जिसमे प्रथम आधिदैविक ( Metaphysical & Psycological ) तथा द्वितीय आधिभौतिक ( Materialistic ) कहे जा सकते है । इसी अर्थ से लिखा मिलता है - Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपक्कर्म-सिद्धि चरके तु द्विधा प्रोक्ता दैवयुक्तियपाश्रयात् । शरीर के दोषो के प्रकोप से होने वाली शरीर गत व्यावियों में शरीर के आश्रय के आधिभौतिक उपचारो के प्रायः तीन प्रकार हो जाते है १ अन्त परिमार्जन, २ वहि परिमार्जन तथा ३ शस्त्रप्रणिधान । अन्त परिमार्जन का अर्थ होता है, ओषधि का शरीर के भीतर प्रवेश कराके मिथ्याहार विहार ने उत्पन्न दोपो का प्रमार्जन करना । वहि: परिमार्जन का अर्थ होता है ओपधि के वाह्य प्रयोग के द्वारा त्वचादि पर अभ्यंग, स्वेद, लेप, परिपेक आदि के द्वारा दोपो का प्रमार्जन या रोग का दूर करना । शस्त्रप्रणिवान का अर्थ होता है गल्यकर्मीय चिकित्सा जिसमे छेदन, भेदन, व्यवन, दारण, लेखन, उत्पाटन, प्रच्छान, सीवन, एपण, क्षार, अग्नि तथा जलीका प्रभृति यत्रोपयंत्र तथा शस्त्रास्त्रो के द्वारा दोपो का प्रमार्जन या रोग की चिकित्सा करना । १७६ प्रायगस्त्रिविधमीपवमिच्छन्ति "शरीर दोपप्रकोपे खलु गरीरमेवाश्रित्य अन्त परिमार्जन वहि परिमार्जनं शस्त्रप्रणिधानञ्चेति । तदन्त परिमार्जन यदन्तःशरीरमनुप्रवेयपथमाहारजातन्यावीन् प्रमाष्टि, यत्पुनर्वहि स्पर्शमाश्रित्याभ्यङ्गस्वेटप्रदेहपरिपेकोन्मर्दनाद्यं रामयान् प्रमाष्टि तद्बहिः परिमार्जन, वस्त्रप्रणिधानं पुनश्छेदनभेदनव्यधनदारणलेखनोत्पाटनप्रच्छन सी वनैपणक्षारजलौकसरचेति ।" (च. सू ११ ) चिकित्सा के चतुष्पाद: - चिकित्सा के चार पैर वतलाये गये हैं, वैद्य, परिचारक, ओपधि तथा रोगी इनमें प्रत्येक पैर के चार गुण गिनाये है । भिपग् द्रव्याण्युपस्थाता रोगी पादचतुष्टयम् । चिकित्सितस्य निर्दिष्टं प्रत्येकं तच्चतुर्गुणम् ॥ वैद्य या भिषक् — गुरु के मुख से सुनकर वैद्यक शास्त्र पढा हुआ, चतुर, प्रत्यक्षक्रियात्मक ज्ञान प्राप्त किया हुआ तथा स्वच्छता पूर्वक रहने वाला होना चाहिये । दक्षस्तीर्थात्तशास्त्रार्थो दृष्टकर्मा शुचिर्भिषक् । ( च ) वैद्य के गुणो का वर्णन करते हुए कई ग्रथकारो ने निम्न लिखित की भाँति वर्णन किया है । गुरु के सन्निधान मे रहकर कुशल हुआ पीयूपपाणि ( जिस के हाथ मे अमृत का वाम हो ), पवित्र, दक्ष, रोग मे काल-वय-वलके अनुसान ओषधयोजना में कुगल, शास्त्र का ज्ञाता, अन्तकरण मे धैर्य वाला, क्रियाकुल, करुणापूर्ण स्पहावाला यंत्र, तंत्र और मंत्र में कुशल, चतुर, वाग्मी, प्रगल्भ ओर नीरोग वैद्य को होना चाहिये । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड . द्वितीय अध्याय १७७ वैद्यः स्याद् गुरुसन्निधानकुशलः पीयूपपाणिः शुचिः प्रज्ञः कालवयोवलौपधमढज्ञानोदितः शास्त्रवित् । धीरान्तःकरणः क्रियासु कुशलः कारुण्यपूर्णः स्पृहायुक्तो " " यन्त्रमन्त्रचतुरो वाग्मी प्रगल्भः शुचिः। गुरोरधीताखिलवैद्यविद्यः पीयूपपाणि कुशल क्रियासु । गतस्पृहो धैर्यधरः कृपालुः शुद्धोऽधिकारी भिपगोदृशः स्यात् । (वै जी.) चरक सहिता मे तीन प्रकार के वैद्यो का प्रसग आता है। १ छद्मचर २ सिद्धमाधित ३ वैद्य के गुणो से युक्त प्राणाभिमर या जीविताभिसर । इन मे प्रथम वर्ग तो उन वैद्यो का है, जो वैद्य के भाण्ड (वर्तन), औषध, पुस्तक या पल्लव आदि का अवलोकन ( देखने ) मात्र से अपने को वैद्य मान लिये है । ये वैद्य नही वैद्यो की छायामात्र ( प्रतिरूपक ) है। दूसरावर्ग उन वैद्यो का है जो किसी श्रीमान् , यशोमान् एव ज्ञानवान् वैद्य की सेवा मे रह कर उनकी कृपा से वैद्य नामधारी बन गये है-अस्तु इन को सिद्धसाधित की सज्ञा दी गई है। तीसरा वर्ग उन वैद्यो का है जो प्रयोग, ज्ञान, विज्ञान और सिद्धि से सम्पन्न है और दूमरे को सुख देने वाले है-और रोगी के प्राण की रक्षा करते हुए रोग को दूर करने में समर्थ होते है । वास्तव में यही श्रेष्ठ वैद्य है तथा पूर्वोक्त दोनो वर्ग तो केवल वैद्यनामधारी मात्र है। भिपक्छनचराः सन्ति सन्त्येके सिद्धसाधिताः। सन्ति वैद्यगुणयुक्तास्त्रिविधा भिपजो भुवि ।। वैद्यभाण्डौपधै पुस्तैः पल्लवैरवलोकनैः। लभन्ते ये भिषकशब्दमज्ञास्ते प्रतिरूपकाः।। श्रीयशोज्ञानसिद्धानां व्यपदेशादतद्विधाः। वैद्यशब्दं लभन्ते ये ज्ञेयास्ते सिद्धसाधिताः ॥ प्रयोगज्ञानविज्ञानसिद्धिसिद्धाः सुखप्रदाः। जीविताभिसरास्ते स्युर्वेद्यत्वं तेष्ववस्थितम् ।। इति ॥ (च सू११) महर्षि चरक ने लिखा है-न अपने लिये, न अपनी इच्छावो की पूर्ति के लिये, अपित प्राणियो पर दया की दृष्टि से जो वैद्य चिकित्सा करता है वह सर्वोत्तम है। होनहार वैद्य को चाहिये कि वह गुणो को प्राप्त करने के लिये सतत उद्योगशील रहे ताकि प्राणियो के दुखो को दूर कर उन्हे स्वस्थ बना सके । वैद्य को चाहिये कि पहले वह रोग की ठीक-ठीक परीक्षा करे पश्चात् विचारपूर्वक १२ भि० सि० Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपक्कम-सिद्धि औपधि की योजना करे। विद्या-तर्क-बुद्धि-विज्ञान-स्मरणगक्ति-तत्परता-क्रियागीलता ये छ गुण जिस वैद्य में होते है उनके लिये जगत् मे कुछ भी अमाध्य नहीं है। विद्या, बुद्धि, कर्म-दृष्टि, सन्यास, सिद्धि और माश्रय देना प्रभृति गुणो में से एक भी हो तो वैद्य के लिये पर्याप्त होता है । यदि सभी हो तो फिर उनका क्या पूछना । वह सर्वश्रेष्ठ वैद्य है और नर्व जीवो को मुख पहुँचाने वाला होता है । वैद्य की वृत्ति चार प्रकार को मानी जाती है लोक में भी, जीवदया ( रोगी के ऊपर दया का भाव ), शक्य या अपनी चिकित्मा द्वारा माध्य रोगो में प्रीति ( Interest) तथा मरे हुए व्यक्तियो में उपेक्षा का भाव ये चार वैद्य की वृत्तियाँ है। नात्मार्थ नारि कामार्थमथ भूतदयां प्रति । वर्तते यश्चिकित्सायां स सबमतिवर्तते ॥ भिपग्वुभूपुमतिमानतः स्वगुणसम्पदि । पर प्रयत्नमातिप्टेत् प्राणदः स्याद्यथा नृगाम् ।। रोगमादी परीक्षेत ननोऽनन्तग्मौपधम् । ततःकर्म भिषक् पश्चाज ज्ञानपूर्व समाचरेत् ॥ विद्या वितर्का विज्ञानं स्मृतिस्तत्परता क्रिया । यस्यते पड्गुणास्तस्य न साध्यमतिवत्तते ।। विद्या मतिः कमष्टिरभ्यासः सिद्धिराश्रयः । वैद्यशब्दाभिनिष्पात्तावलमेकैक्रमप्यतः ॥ अस्य त्वेते गुगाः सर्वे सन्ति विद्यादयः शुभाः। स बंद्यशब्द सद्भूतमहन् प्राणिमुखप्रदः ।। मंत्री कारुण्यमार्तेषु शक्ये प्रीतिरुपेक्षणम् । प्रकृतिस्थेषु भूतेषु वैद्यवृत्तिश्चतुर्विधा ।। (च.) मुश्रुत में वैद्य के लिये लिखा है कि उसे “कटे हुए, छोटे-छोटे नख-केश वाला और माफ सुथरा होना चाहिये, सफेद कपड़े के परिवान वारण करना चाहिये, वैग अनुद्धत होना चाह्येि, प्रसन्न मन ने दूसरे का कल्याण चाहने वाला, किसी को निन्दा न करते हुए सभी के प्रति मंत्री भाव से रहना चाहिये ।" (7) द्रव्य या ऑपधि के बारे में ऊपर मे पर्याप्त कहा जा चुका है। यहाँ पर सभेपत. उसके चार गणो का उल्लेख मात्र करना ही लक्ष्य है। श्रेष्ट मोपवि वह है जिसको बहुत प्रकार की कल्पनायें (बनावट ) वनाई जा सकें, जो अच्छे परिणामो से युक्त हो तया जिमका रोग के अनुसार प्रयोग उचित हो। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड : द्वितीय अध्याय चहुकल्पं बहुगुणं सम्पन्नं योग्यमौषधम् । प्रशस्तदेशसम्भूतं प्रशस्तेऽहनि चोद्धृतम् । युक्तमात्रं महावीर्यं गन्धवर्णरसान्वितम् ॥ कीटाद्यभक्षितं शुद्धं मृतं लौहादिकन्तथा । ' समीक्ष्य काले दत्तञ्च भेपनं परमं स्मृतम् ॥ ( सु ) बहुता तत्र योग्यत्वमनेकविध कल्पना । १७६ सम्पच्चेति चतुष्कोऽयं द्रव्याणां गुण उच्यते ॥ प्रशस्त देश सम्भूतं प्रशस्तेऽहनि चोद्धृतम् । युक्तमात्रं मनस्कान्तं गन्धवर्णरसान्वितम् ॥ दोपन्नमग्लानिकरमविकारि विपर्यये । समीक्ष्य दत्त कालञ्च भेपजं पाद उच्यते ॥ उपस्थाता परिचारक -- इन मे चार गुण अवश्य रहे । जैसे रोगी मे अनुराग रखने वाला, स्वच्छता से रहने वाला, काम मे भी होशियार एवं बुद्धिमान् परिचारक को होना चाहिये । अनुरक्त शुचिर्दक्ष बुद्धिमान् परिचारक । उपचारजता दाक्ष्य मनुरागञ्च भर्त्तरि । शोचं चेति चतुष्कोऽयं गुण परिचरे जने ॥ ( च सू ६) स्निग्धोऽजुगु सुर्बलवान् युक्तो व्याधितरक्षणे । वैद्यवाक्यकृदश्रान्त पाद परिचर स्मृत । (सु ) रोगीनी (पैने वाला ), चिकित्सक की आज्ञा मान कर उसके अनुसार चलने वाला, अपने कष्ट को स्पष्टतया बतलाने वाला तथा हिम्मती या धैर्यवान् होना रोगी का श्रेष्ठ गुण है । आयुष्मान् सत्त्ववान् साध्यो द्रव्यवानात्मवानपि । आस्तिको वैद्यवाक्यस्थो व्याधित पाद उच्यते ॥ (सु) स्मृतिर्निर्देशकारित्वमभीरुत्वमथापि च । ज्ञापकत्वञ्च रोगाणामातुरस्य गुणाः स्मृताः ॥ ( च ) यो रोगी भिपग्वश्यो ज्ञापकः सत्त्ववानपि ॥ त्याज्य रोगी - निम्न लिखित लोगो की चिकित्मा नही करनी चाहिये । जिस पर राजा या शासन को रोष हो अथवा राजद्रोही या शासनतंत्र के विपरीत आवाज उठाने वाले या कार्य करने वाले व्यक्ति को, अपने शरीर से ही जिसको द्वेष हो ऐसे आदमी की, सहायक सामग्री से हीन रोगी की, घबडाने वाले स्वभाव के मनुष्यो को, आज्ञा न मानने वाले व्याक्ति को, कृतघ्न, मुमूर्षु, क्रोधी, शोकाकुल, Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० . भिषकर्म-सिद्धि डरपोक, कृतघ्न तथा स्वय योग्य न होते हुए अपने को उत्तम वैद्य मानने वाले रोगी की चिकित्सा नही करनी चाहिये। ऐसे लोगो को चिकित्सा करने से अपयश ही मिलता है। त्यजेदात भिपरभूपैद्विष्टं तेपां द्विपम् द्विपम् । हीनोपकरणं व्यग्रमविधेयं गतायुपम् । चण्डं शोकातुरं भीरुं कृतन्नं वैद्यमानिनम् ॥ साध्यासाध्य विवेक-चिकित्सा कर्म मे चिकित्सक के लिये यशस्वी होना तथा रोगी को स्वस्थ करने का उद्देश्य प्रमुख रहता है। चिकित्सा मे प्रवृत्त होने के पूर्व वैद्य को यह देखना पडता है कि यह रोग साध्य है या असाध्य । क्योकि असाध्य रोग की चिकित्सा करने से अर्थ, विद्या एवं यशकी हानि होती है, निन्दा तथा कुछ संचय भी नही हो पाता है। अस्तु असाध्य रोगो को हाथ में न लेना ही श्रेयस्कर होता है। अर्थविद्यायशोहानिमुपक्रोशमसंग्रहम् । प्राप्नुयान्नियतं वैद्यो योऽसाध्यं समुपाचरेत् ॥ वैद्य को साध्यासाध्य का जानने वाला एव विवेकपूर्वक चिकित्सा करने वाला होना चाहिये। इस तरह समय से चिकित्सा करता हुआ चिकित्सक अपने कर्म मे निश्चित रूप से सफलता प्राप्त करता है। साध्यासाध्यविभागनो ज्ञानपूर्व चिकित्सक । काले चारभते कर्म यत्तत् साधयति ध्रुवम् ।। (च सू १०) साध्यासाध्य का विचार करते हुए रोगो के चार भेद हो जाते है१ सुखसाध्य, २ कृच्छ्रसाध्य, ३ याप्य तथा ४ अनुपक्रम्य। साध्यो मे पुन अल्प, मध्यम एवं उत्कृष्ट भेद से तीन प्रकार हो जाते है। अमाध्य व्याधियो मे इस प्रकार के विकल्प नहीं होते हैं क्योकि विकल्प तो केवल नियत वस्तुओ मे ही होता है फिर कृच्छ्रसाध्य ( याप्य ) तथा अनुपक्रम्य (जिसको चिकित्सा की आवश्यकता ही नही है ) विकल्प किये जाते है । सुखसाध्य-सुखपूर्वक, सरलता से थोडे समय मे जो अच्छा हो सके ऐसा रोग सुखसाध्य कहलाता है । रोगी का शरीर सब प्रकार की ओपधियो का सहन कर सके, रोगी युवा हो, पुल्लिङ्ग हो, संयमो हो, रोग मर्म स्थान मे न गया हो, थोडे कारणो से पैदा हुआ हो, रोग के पूर्वरूप एवं लक्षण कम हो, रोग मे किसी प्रकार का उपद्रव न हो, दूण्य-देश-ऋतु एव प्रकृति ये चारों पृथक्-पृथक् रूप के हो अर्थात् असमान हो, चिकित्सा के चारो पाद गुणवान् हो, सूर्य आदि ग्रह अनुकूल हो, रोग एक दोप की विकृति से उत्पन्न हो, एक मार्ग वाला हो और रोग नया उत्पन्न हुआ हो तो सुखसाध्य होता है । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड द्वितीय अध्याय सुखसाध्यः सुखोपायः कालेनाल्पेन 'साध्यते । सुखसाध्यं मतं साध्यं कृच्छ्रसाध्यमथापि च ॥ द्विविधं चाप्यसाध्यं स्याद्याप्य यच्चानुपक्रमम् । साध्याना त्रिविधाश्चाल्पमध्यमोत्कृष्टतां प्रति । विकल्पो न त्वसाध्यानां नियताना विकल्पना ॥ আম नव (च. सू १० ) साध्योऽसान्य इति व्याधिद्विधा तौ तु पुनर्द्विधा । सुसाध्य कृच्छ्रसाध्यञ्च याप्यो यश्चानुपक्रम ॥ सर्वोषधक्षमे देहे यूनः पुंसो जितात्मन । अमर्मगोऽल्पहेत्वग्र रूपरूपोऽनुपद्रवः अतुल्यदूष्यदेशत्तु प्रकृतिः ग्रहेष्वनुगुणेष्वेकदोषमार्गो 11 पादसम्पदि । सुखः ॥ ( अ हृ सू ) हेतव पूर्वरूपाणि रूपाण्य ल्पानि यस्य च । न च तुल्यगुणो दूष्यो न दोषः प्रकृतिर्भवेत् ॥ न च कालगुणस्तुल्यो न देशो दुरुपक्रमः । गतिरेका नवत्वञ्च रोगस्योपद्रवो न च ॥ दोपश्चैकः समुत्पत्तौ देहः सर्वौषधक्षमः । चतुष्पादोपपत्तिश्च सुखसाध्यस्य लक्षणम् ॥ ( चर. सू १० ) और देर मे अच्छा कृच्छ्रसाध्य - जो रोग कठिनाई से बहुत उपायो से होता है, वह कृच्छ्रसाध्य या कष्टसाध्य कहा जाता है । जिसमे निमित्त पूर्वरूप और रूप मध्यम वल के हो, काल-प्रकृति- दृष्य मे से किसी एक की समानता दोप के साथ हो, गर्भिणी-वृद्ध या बालक रोगी हो, अधिक उपद्रवो से युक्त रोग न हो, शस्त्र, क्षार या अग्नि कर्म के द्वारा साध्य रोग हो, पुराना रोग हो, देश की कृच्छ्रता हो ( अर्थात् देश एव रोग की अनुकूलता न हो ), रोग दो मार्गानुसारी हो, सभी चतुष्पादो की सम्पन्नता न हो, रोग बहुत पुराना न हो तथा रोग दो दोषो से उत्पन्न हुआ हो ऐसे रोग कृच्छ्रसाध्य होते हैं । निमित्त पूर्वरूपाणां रूपाणा मध्यमे' बले । कालप्रकृतिदूष्याणा सामान्येऽन्यतमस्य च ॥ गर्भिणीवृद्धबालाना शस्त्रक्षाराग्निकृत्यानामनव नात्युपद्रवपीडितम् । कृच्छ्रदेशजम् ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ भिपक्कर्म-सिद्धि रोगं नातिपूर्णचतुष्पथम् । विद्यादेकपथं द्विपथं नातिकालं वा कृच्छ्रसाध्यं द्विदोषजम् । कृच्चैरुपायैः कृच्छ्रस्तु महद्भिश्च चिरेण च ॥ आहार-विहार वह याप्य है । शस्त्रादि साधने कृच्छ सङ्करे च ततो गदः । ( वा सू १ ) याप्यरोग - सुखसाध्य लक्षणो के विपरीत होने पर, पथ्य के अभ्यास से, आयु के शेष रहने पर जो रोग साध्य होता है यापनीय उस व्याधि को कहते है जिस मे रोगी उपचार के आश्रित होकर जीवित रहे और उपचार के बंद होने के साथ ही रोगी मर जावे । जिस प्रकार कोई मकान की छत गिर रही हो तो उसमे ठोक प्रकार से विष्कंभ (स्तंभ ) लगाकर स्थिर कर लिया जाता है, परन्तु खम्भे के हटाते ही छत गिर जाती है, मकान नष्ट हो जाता है । यही स्थिति यापन कर्म तथा याप्य व्याधियो की रहती है । ( चमू १० ) शेषत्वादायुपो याप्यः पथ्याभ्यासाद् विपर्यये । 1 शेपत्वादायुपो याप्यमसाव्यं लब्धाल्पसुखमल्पेन हेतुनाशु यापनीयं विजानीयात् क्रिया धारयते तु यम् । क्रियायां तु निवृत्तायां सद्य एव विनश्यति ॥ प्राप्तक्रिया धारयति याप्यव्याधितमातुरम् | प्रपतिष्यदिवागारं विष्कम्भः साधुयोजित ॥ ( वा सू १ ) गंभीरं बहुधातुस्थं मर्मसन्धिसमाश्रितम् । नित्यानुशायिनं रोगं दीर्घकालमवस्थितम् ॥ ( सु सू. २२ ) पथ्यसेवया । प्रवत्तेकम् ॥ ( च सू. १० ) प्राय इस प्रकार के रोग गहराई में, बहुत से धातुवो मे, मर्माङ्गो में स्थित दीर्घकालीन एव नित्य वढने वाले होते है । अनुपक्रम्य, अचिकित्स्य या असाव्य-जो रोग सुखसाव्य व्याधि के लक्षणो से पूर्ण तथा विपरीत लक्षणो का हो, जिसमे विपयोत्कठा, चित्तनाश, बेचैनी, मृत्युसूचक चिह्न स्पष्ट हो, चक्षु आदि इन्द्रिया जिसमें नष्ट हो जायें वह रोग असाध्य होता है । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड : द्वितीय अध्याय १८३ अनुपक्रम एव स्यास्थितोऽत्यन्तविपर्यये । ओत्सुक्यमोहारतिकृद् दृष्टारिष्टोऽक्षिनाशनः ।। अमाध्य के लिये चरक मे लिखा है" त्रिदोपज व्याधियो के बारे मे प्रत्याख्यान करके ( रोगी के संरक्षक से उसकी असाध्यता के बारे में स्पष्टतया कहकर) चिकित्मा करनी चाहिये । जो रोग चिकित्सा के परे हो जाये, सभी मार्गों पर जिनका प्रभाव हो जाय, जिनमे विषयोत्कंठा, बेचनी, चित्तनाश और इन्द्रियो का नाश हो रहा हो, मरिष्ट लक्षणो से सयुक्त हो, रोगी दुर्बल और उसका रोग बहुत बढा हुना हो, ऐसे रोग असाध्य हो जाते है । ......तद्वत् प्रत्याख्येयं त्रिदोषजम् । क्रियापथमतिक्रान्तं सर्वमार्गानुसारिणम् ।। औत्सुक्यारतिसम्मोहकरमिन्द्रियनाशम् । दुर्वलस्य सुसंवृद्धं व्याधि सारिष्टमेव च ॥ (च सू ११) मस्तु वैद्य को इस प्रकार व्याधि के सम्बन्ध मे सर्वप्रथम साध्यासाध्य की विवेचना करके चिकित्सा का आरभ करना चाहिये अन्यथा स्वार्थ, विद्या एवं यश की हानि होती है। व्याधि पुरा परीक्ष्यैवारभेतं हि ततः क्रियाम् । स्वार्थविद्यायशोहानिमन्यथा ध्रुवमाप्नुयात् ।। चिकित्सा की कालमर्यादा-आचार्य सुश्रुत ने बताया है कि साध्य गेगो की चिकित्सा करे, याप्य रोगो का यापन करे तथा असाध्य अथवा एक वर्ष से अधिक पुराने रोगो को प्राय यश के इच्छुक चिकित्सको को छोड देना चाहिये। साध्यान् साधयेद् याप्यान् यापयेद् असाध्यान्नोपक्रमेत् । परिसंवत्सरोत्थिताश्च विकारान् प्रायशः परिवर्जयेत् ।। व्यवहार मे "जव तक सास तव तक आश" का ही सिद्धान्त चलता है। जब तक कठ मे प्राण है, जब तक इन्द्रियाँ निष्क्रिय नही हुई है तब तक निराश न होते हए चिकित्सा करते रहना चाहिये । कालकी गति बडी विचित्र है कुछ कहा नहीं जा सकता, क्या पता रोगी बच ही जावे । कई बार देवकृपा से अरिष्ट ( सद्योमारक) लक्षणो से युक्त रोगी भी बच जाते है। अस्तु जब तक रोगी का प्राण रहे, सांस चलता रहे तव तक चिकित्सा को चालू रखना श्रेयस्कर है। अरिष्ट लक्षणो के प्रकट होने पर मृत्यु ध्रुव सी हो जाती है, तथापि रसायन, तप, योग और सिद्धि के बल पर काल मृत्यु का भी क्वचित निवारण Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ भिपक्कर्म-सिद्धि किया जा सकता है । इस विचार को रखकर अन्तिम सांस तक रोगो की सेवा शुश्रूपा तथा चिकित्सा से विरत न होना ही उत्तम है | यावत्कण्ठगताः प्राणा यावन्नास्ति निरिन्द्रियः । तावच्चिकित्सा कर्त्तव्या कालस्य कुटिला गतिः ॥ तावच्चिकित्सा कर्त्तव्या यावच्छ्वसिति मानवः । कदाचिद्दैवयोगेन दृष्टारिष्टोऽपि जीवति ॥ ( भै र ) ध्रुवं त्वरिष्टे मरणं ब्राह्मणैस्तत् किलामलैः । रसायनतपोजप्यतत्परैर्वा रसायनतपोजप्ययोगसिद्धैर्महात्मभिः १ निवार्यते ॥ 1 नालसैर्नरैः || (अगस्त्य ) कालमृत्युरपि प्राज्ञैर्जयेत वास्तव में रोग के उत्पन्न होते ही उस को चिकित्सा प्रारम्भ कर देनी चाहिये । रोग को छोटा समझ कर उसकी उपेक्षा नही करनी चाहिये । अग्नि, विष और शत्रु छोटे होते हुए भी कालान्तर मे वृहद् रूप धारण करके मृत्यु का कारण वन सकता है । अस्तु आरम्भ से ही रोग का उपचार करना चाहिये । अन्यथा उपेक्षा या लापरवाही से साध्य व्याधियाँ याप्य एवं याप्य व्याधियाँ असाध्य तथा असाध्य व्याधियां रोगी के लिये प्राण का नाशक हो जाती है । जातमात्रश्चिकित्स्यस्तु नोपेक्ष्योऽल्पतया गदः । अभिशत्रुविषैस्तुल्यः स्वल्पोऽपि विकरोत्यसौ || साच्यो याप्यत्वमायान्ति याप्या. सान्या भवन्ति हि । चिकित्सा का प्रयोजन ( चिकित्सा फल ) - चिकित्सा का कर्म कभी निष्फल नही जाता है | कही इससे धर्म - कार्य हो जाता है, कही पैसा मिल जाता है, कही पर मैत्री पैदा हो जाती है और कही पर यश की प्राप्ति हो जाती है । इनमें से कुछ भी नही मिला तो कम से कम क्रियाभ्यास ( Practical experience ) तो अवश्य ही प्राप्त हो जाता है । अर्थात् किस ओपघि विशेष से, किस व्याधि में, किस अवस्था में, लाभ या हानि हो सकती है इसका ज्ञान अवश्य ही हो जाता है । सर्वोपरि जीवन-दान से बढकर कोई भी दान नही है । चिकित्सा करते हुए रोगी को लाभ होने पर, इस दान का फल सरलता से प्राप्त किया जा सकता है । आयुर्वेद शास्त्र के पठन पाठन, श्रवण तथा क्रियाभ्यास का फल-समुच्चय बतलाते हुए सुश्रुत में लिखा है- " कि वह मनुष्य पुण्यकर्मी है जो इस शास्त्र १ 'जातारिष्टोऽपि जीवति' इति पाठान्तरम् । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड . द्वितीय अध्याय को पटता, पढाता या प्रयोग में लाता है, उसके जीवन काल में ससार मै उसका या फैलता है और मरने के बाद वह स्वर्ग को प्राप्त करता है।" नन्दि पुराण में यहाँ तक लिखा है कि वैद्य यदि अपनी ओषधि-योजना से एक रोगी को भी नीरोग कर दे तो वह देहावसान के अनन्तर सात पीढियो के सहित ब्रह्म लोक में निवास करता है। ___जो मूर्द रोगी चिकित्सा करा के उसके बदले मे चिकित्सक को कुछ देता नही है वह जो भी पुण्य करता है उसका सम्पूर्ण फल उस चिकित्सक को प्राप्त होता है। सक्षेप में रोग का विधिपूर्वक निदान करके चिकित्सा करते हुए चिकित्सक सो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष (पुरुषार्थ चतुष्टय ) की प्राप्ति होती है । कचिद्धर्म कचिन्मैत्री कचिदर्थः क्वचिद्यशः। कर्माभ्यास. क्वचिञ्चापि चिकित्सानास्ति निष्फला। नहि जीवितदानाद्धि दानमन्यद् विशिष्यते ।। चिकित्सा की महिमा-कुछ लोग ऐसा कहते है कि कई जितेन्द्रिय भी रोगी देखे जाते है। द्रव्य एवं परिचारक से सम्पन्न तथा वृद्ध वैद्यो के अनुसार चलने वाले रोगमुक्त होते हुये और बहुत बार मरते हुए दिखलाई पडते हैं। इसके विपरीत यथेच्छ आचरण करने वाले व्यक्ति भी रोगमुक्त होते और मरते दीख पडते हैं इसलिये हिताहित-सेवन तथा अचिकित्सा दोनो ही ठीक है। इस शका को दूर करते हुए आत्रेय का वचन है कि इस प्रकार की नास्तिक्यबुद्धि का परित्याग करना चाहिये, चिकित्सा तथा अचिकित्सा दोनो बराबर कदापि नही हो सकती हैं । जहाँ पर विना भिपक्, द्रव्य, एव उपस्थाता के रोगी अच्छा हमा अर्थात् अचिकित्सा से स्वयमेव काल से ठीक हुआ है, वहां पर चिकित्सा हुई होती तो रोग मे शीघ्र ही लाभ हुआ होता । चिकित्मा-साध्य रोहिणी आदि रोगो मे विना चिकित्सा के शान्ति नहीं मिलती। अस्तु चिकित्सा के समान अचिकित्सा नही हो सकती। रोगरूपी पक में फंसे हुए मानव के लिये चिकित्मा या आयुर्वेद शास्त्र एक अवलम्बन (सहारा) होता है। मरने वाले मभी असाध्य रोगियो को ओपघि से जीवन नही दिया जा सकता है। तथापि रोग को दूर करने के लिये चिकित्सा की उपादेयता सिद्ध है। चिकित्सा शास्त्र के द्वारा अकाल मृत्यु हटाई जा सकती है। अस्तु रोगो मे चिकित्सा की रोग नाशकता के बारे में सशय नही करना चाहिये। ___ अकाल मृत्युकारक ज्वर आदि जो मृत्युपाश है, उनको नष्ट करने के लिये यह चिकित्सा शास्त्र दृढ हैं। उत्पन्न हुए रोगो से भयभीत मनुष्यो के लिये पूनरहित यह चिकित्सा शास्त्र रक्षा-सूत्र है । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ भिषकर्म-सिद्धि न चिकित्साशाचिकित्सा च तुल्या भवितुमर्हति । विनापि क्रियया स्वास्थ्यं गच्छतां पोडशाशया ।। आतङ्कपङ्कमन्नानां हस्तालम्बो भिपग्जितम् । जीवतं म्रियमाणानां सर्वेपामेव नौपधात् ।। एतद्वि मृत्युपाशानामकाण्डे छेदनं दृढम् । रोगात् त्रासितभीतानां रक्षासूत्रमसूत्रकम् ॥ (वा ३ ४०) तृतीय अध्याय सामान्योपक्रम-जैसा कि ऊपर मे बतलाया जा चुका है कि दोपो की विपमता से रोग होते है । दोषो की विषमता तीन प्रकार की होती है क्षयः स्थानञ्च वृद्धिश्च दोपाणां त्रिविधा गतिः दोपो के क्षीण होने, बढने या स्थानान्तर-मन से भिन्न-भिन्न रोग उत्पन्न होते है । एतदर्थही आचार्य ने उपदेश किया है कि क्षीण हुए दोषो को वढावे, बढ़े हुए दोपो का ह्रास न करे, स्थानान्तर मे गये दोपो को अपने स्थान पर ले आवे और समान दोपो का पालन करते हुए चिकित्सा करनी चाहिये। दोपानुसार एकैकश इनके उपचार विधियो का वर्णन समासत किया जा रहा है। वातस्कन्ध वायु के गुण-रूक्ष, शीत, लघु, सूक्ष्म, चल, विशद और खर इन गुणो से वायु युवत रहता है । इनके विपरीत अर्थात् स्निग्व, उष्ण, गुरु, स्थूल, स्थिर, पिच्छिल और श्लक्ष्ण गुण वाले द्रव्यो के उपयोग से शान्त होता है । रूक्षः शीतो लघु. सूक्ष्मश्चलोऽथ विशद. खर । विपरीतगुणैव्यैर्मारुतः संप्रशाम्यति ॥ वायु के प्रकोप के कारण व्यायाम, अपतर्पण, गिरना, टूटना, धातुक्षय, अधिक जागरण, मूत्र-पुरीपादि वेगो का रोकना, अतिशोक, ठड, वहुत डरना, रुक्ष और क्षोभकारक द्रव्य, कपाय, कटु एवं तिक्त द्रव्य प्रभृति कारणो से तथा वर्षाऋतु, भोजन के पचने के वाद तथा अपराहुकाल मे वायु कुपित होती है। व्यायामादपतपणान् प्रपतनाद् भगात.क्षयाज्जागराद् वेगानाञ्च विधारणादतिशुचः शैत्यादतित्रासतः । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड : तृतीय अध्याय १८७ रूक्षक्षोभकपायतिक्तकटुकैरेभिः प्रकोपं व्रजेद् वायुारिधरागमे परिणते चान्नेऽपराहेऽपि च ॥ वायुवृद्धि में होने वाले लक्षण-पेट का फूलना, जकडाहट, रूक्षता, फूटना, मयने के ममान प्रतीत होना, हलचल, कांपना, सूई चुभोने के समान प्रतीत होना, गले में ठनका लगना, गले का बैठना, थकावट, विलाप करना, सरकना, पोडा होना, विदीर्ण होना, कठोरता, कान मे शब्द का होना, भोजन का विषम पाक होना, गिरना, दृष्टि का विनम, फरकना, इधर उधर पलटना, मुरझा जाना, अनिद्रा, मारने के समान पीडा, दबाने के समान पीडा, नीचे झुकाना, ऊपर उठाना, मन की सिन्नता, चक्कर, जंभाई, रोमाञ्च, विक्षिप्त होना, हाथ-पैर का वार-बार फेका जाना, सूचना, जकडना, पोलापन, काटने के समान पीडा, लपेटने के समान प्रतीत होना, वर्ण का श्याम या लाल होना, तृपा, निद्राभग, निद्रा, तद्रा, मुंह का स्वाद कपाय प्रभृति लक्षण प्रकुपित वात मे होते है । चिकित्सा मे इन कारणो का परिहार करना चाहिये । आध्मानस्तम्भरौक्ष्यं स्फुटनविमथनक्षोभकम्पप्रतोदाः कण्ठध्वंसावसादौ श्रमकविलपनसंसशूलप्रभेदाः । पारुष्यं कर्णनादो विपमपरिणतिभ्रंशदृष्टिप्रमोहाविस्पन्दोद्घट्टनानि ग्लपनमशयनं ताडनं पीडनञ्च ।। नामोन्नामो विपादो भ्रमपरिपतनं जम्भणं रोमहर्पो विक्षेपाक्षेपशोपग्रहणशुपिरताच्छेदनं वेष्टनञ्च । वर्ण श्यावोऽरुणो वा तृडपि च महतीस्वापविश्लेपसना विद्यात् कर्माण्यमूनि प्रकुपितमरुतः स्यात् कपायो रसश्च ॥ उपक्रम-स्नेहन, स्वेदन, हल्का शोधन, मधुराम्ललवणरसमय भोजन, तेल की मालिश, देह का दवाना, वाँधना, सुखाना, वातघ्न औषधियो के पकाये जल से स्नान, पीठी तथा गुड के वने मद्य का सेवन, स्निग्ध तथा उष्ण द्रव्यो से सम्पन्न आस्थापन वस्तियो का उपयोग, वस्ति कर्म मे उक्त नियमो का पालन, आराम करना, दीपन, पाचन द्रव्यो से सिद्ध किये अनेक प्रकार के स्निग्ध द्रव्यो का उपयोग, विशेपत: मेधावर्वक मासरसो का सेवन तथा अनुवासन प्रभृति क्रियायें वातजन्य रोगो को चिकित्सा में व्यवहत होती है। वातस्योपक्रमः स्नेहः स्वरः सशोधन मृदु। स्वादम्ललवणोष्णानि भोज्यमभ्यङ्गमदेनम् ॥ वेष्टनं वासनं सेको मद्यं पैष्टिकगौडिकम् । स्निग्धोष्णा वस्तयो वस्तिनियमाः सुखशीलता ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' भिपकर्म-सिद्धि दीपनः पाचनैः सिद्धाः स्नेहाश्चानेकयोनयः । विशेपान्मेध्यपिशितरसतैलानुवासनम् ॥ पित्तस्कंध-पित्त के गुण-स्निग्ध, उष्ण, तीक्ष्ण, द्रव, मर, अम्ल और कटु इन गुणो से युक्त पित्त होता है । जो रुक्ष, गीत, मृदु, सान्द्र, स्थिर, मधुर, तिक्त और पाय रस वाले द्रव्यो के उपयोग से शान्त होता है। सस्नेहमुप्णं तीक्ष्णश्च द्रवमम्नं सरं कटु । विपरीतगुणः पित्तं दव्यराशु प्रशाम्यति ।। पित्त-प्रकोप के कारण-कटु, अम्ल, उष्ण, विदाही, तीक्ष्ण एवं लवण रस पदार्थों के सेवन, क्रोध, उपवास, वूपका सेवन, स्त्रीसंग, तिल, अतसी, दधि, मत्स्य, मद्य, सुरा, गुक्त (काजी) के अधिक सेवन से तथा भोजन की पच्यमानावस्या, गरद् ऋतु, ग्रीष्म ऋतु, मध्याह्न तथा अर्ध-रात्रि के काल में पित्त का कोप होता है । चिकित्मा में इन कारणो का परिहार करना चाहिये । कटवालोष्णविवाहितीक्ष्णलवणक्रोधोपवासातपसोसम्पर्कतिलातसीदधिसुराशुतारनालादिभिः ... । मुक्त जीर्यति भोजने च शरदि ग्रीष्मे सति प्राणिनां मध्याह्न च तथाऽर्द्धरात्रिसमये पित्तं प्रकोपं ब्रजेत् ।। प्रकुपित पित्त के लक्षण-फोडो का निकलना, मुंह का खट्टापन, बुवाई डकार माना, प्रलाप, पसीने का निकलना, शरीर में दुर्गन्ध का होना, फट जाना, नगा होना, घाव का गीघ्रता से फैलना, पकना, बेचैनी, प्यास का विशेष लगना, चक्कर, गर्मी का अनुभव, तृप्ति का होना, जाठराग्नि का दीप्त होना, आंख के आगे अंधेरा छाना, जलन, क्टु-अम्ल-तिक रसमय मुँह का स्वाद हो जाता है। गरीर के वर्ण का पीला होना, एव खोलने के नमान प्रतीत होता ये पित्त के विस्फोटाम्लकधूमकाः प्रलपनं स्वेदतिर्मुर्छनं दीगन्व्य दरणं मदो विसरणं पाकोऽरतिस्तृभ्रमौ । ऊप्मा तृप्तितमःप्रवेशदहनं कट्वालतिक्ता रसा वर्गः पाण्डुविवर्जितः कथितता कर्माणि पित्तस्य वै ॥ पित्तोपक्रम-वृतपान, मधुर एवं शीतवीर्य की ओपधियाँ, रेचन, मधुर, तिक्त एवं कपाय रमवाला भोजन तया ओपध, मुगंधित, ठडे एवं हृदय को प्रिय लगने वाले इत्रों एवं पुष्पो का धारण, गले में माला (हार) का पहनना, वन स्थल पर मणियो का वारण, वार-बार कपूर, चंदन, खस का अनुलेपन, मायंकाल, चन्द्रमा की चाँदनी का सेवन, चूना से पते हुए स्वच्छ महल की छत पर रहना, Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ तृतीय खण्ड : तृतीय अध्याय मनोहर, गाना, ठडी हवा, भेद-भाव रहित निस्संकोच मिलने वाले मित्र ( जिनमे सुख पहुँचे ऐसे मित्र ), संदिग्व, मोहक वचन बोलने वाला-अल्पवयस्क पुत्र, इच्छानुमार कार्य करने वालो सुशील प्रिय स्त्री, ठंडे जल के फोहारो से युक्त घर, भ्रमण करने योग्य वाटिका, बावली, सुन्दर घाट वाला विस्तृत स्वच्छ तालाव, नदी के तट, जिसमे कमल खिले हो और किनारे-किनारे पेड लगे हो ऐसे स्थल का सेवन तथा शान्त भाव पित्त के शामक उपचार है। इनमे धी तथा दूध का सेवन और विरेचन विशेप उपयोगी है। पितस्य सपिंप: पानं स्वादुशीतैविरेचनम् । म्वादुतिक्तकपायाणि भोजनान्यौपधानि च ।। सुगन्धशीतहृद्यानां गन्धानामुपसेवनम् । कण्ठे गुणाना हाराणां मणीनामुरसा धृतिः ।। कपूरचन्दनोशीरैरनुलेपः क्षणे क्षणे। प्रदोपश्चन्द्रमा सौधं हारि गीतं हिमोऽनिल. ।। अयन्त्रणं सुखं मित्रं पुत्रः सन्दिग्धमुग्धवाक् । छन्दानुवर्त्तिनो दाराः प्रियाः शीलविभूपिताः ॥ शीताम्बुधारागर्भाणि गृहाण्युद्यानदीर्घिका । सुतीयविपुलस्वच्छसलिलाशयसैकते ॥ साम्भोजजलतीरान्ते कायमाने द्रमाकुले । सौम्या भावाः पयः सर्पिविरेकश्च विशेषतः ।। कफस्कंध __ कफ के गुण-गुरु, शीत-मृदु-स्निग्ध-मधुर और स्थिर गुण वाला श्लेष्मा होता है। जो लघु, उष्ण, रुक्ष, कटु, तिक्त, कपाय, चल और विगद गुण वाले द्रव्यो के उपयोग से शान्त होता है। गुरु-शीत-मृदु-स्निध-मधुर-स्थिर-पिच्छिलाः । श्लेष्मणः प्रशमं यान्ति विपरीतगुणैर्गुणाः॥ कफ प्रकोप के कारण-गुरु एव मधुर द्रव्य, दूध एव उससे बने पदार्थ जैसे--खोवा, रवडी, मलाई आदि, गन्नेका रस तथा उसके बने पदार्थ जैसे--- गड, चीनी-मिश्री आदि के बने पदार्थ, द्रवद्रव्य, दधि, दिन का सोना, पूवा-पूडी प्रभति पकवानो का सेवन अर्थात् स्निग्ध एव सतर्पणात्मक वस्तुओ का सेवन तुपार ( पालाहिम ) के गिरने के समय, दिन एवं रात के प्रथम भाग मे, भोजन के तत्काल वाद तथा वसन्त ऋतु कफ के प्रकोप मे हेतु बनते है । चिकित्सा में कारणो का परिहार आवश्यक होता है। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० - भिषक्कम-सिद्धि गुरुमधुररसाति स्निग्धदुग्वेक्षुभक्ष्यवदधिदिननिद्रापूपसर्पिःप्रपूरैः । तुहिनपतनकाले श्लेष्मणः संप्रकोपः - प्रभवति दिवसादी भुक्तमात्रे वसन्ते ।। कफ के कार्य या लक्षण-पेट का सदा भरा हुआ जान पडना, भूख सदा निद्रा के समान मालूम होना, गुरुता, निश्चलता, गीला कपडा ओढे हुए के ममान प्रतीत होना, मला का विशेष वनना, चिकनाहट, अपच, मुंह में जैसे कोई वस्तु लिप्त हो ऐसा जान पडना, ठडक लगना, खुजलाना, मुख या नाक से नाव, किसी कार्य को देर से करना, गोथ का होना, निद्राधिक्य, मुँह का स्वाद मीठा या नमकीन, वर्ण का श्वेत होना, सदा मालस्य का लगा रहना ये लक्षण कफ के प्रकोप मे पाये जाते है। तृप्तिस्तन्द्रा गुरुता स्तमित्यं कठिनता मलाधिक्यम् । स्नेहापक्त्युपलेपा शैत्यं कण्डू: प्रसेकश्च ।। चिरकत त्वं शोथो निद्राधिक्यं रसौ पटुस्वादू । वर्णः श्वेतोऽलसता कर्माणि कफस्य जानीयात् ॥ कफोपक्रम-विधिपूर्वक तीक्ष्ण वमन तया तीक्ष्ण रेचन कराना, स्त-अल्पतीक्ष्ण एव उष्ण वीयवाला तथा कटु-तिक्त-कपाय रम प्रधान भोजन, पुराना मद्य, स्त्रीप्रसग, विशेष जागरण, अनेक प्रकार के व्यायाम, परिश्रम, चिन्तन, रूखा उत्सादन, विना तेल के देह दबवाना, वमन करना, दाल के यूप का सेवन, चर्वी नागक औषधियो का उपयोग, धूमपान, उपवास, गण्टूप और आरामतलबी का परित्याग ये सव कफके उपक्रम है । श्रेष्मणो विधिना युक्तं तीक्ष्णं वमनरेचनम् । अन्नं रूक्षाल्पतीक्ष्णोणं कटुतिक्तकपायकम् ॥ दीर्घकालस्थितं मद्यं रति प्रीतिः प्रजागरः। अनेकरूपो व्यायामश्चिन्ता रूझविमर्दनम् ।। विशेपाद् वमन यूपः क्षौद्रं मेदोनमीपधम् । धूमोपवासगण्डूपनिःसुखत्वं सुखाय च ।। द्विदोप तथा त्रिदोप स्कन्ध-कोपकलक्षण-प्रकुपित द्विदोप या त्रिदोष के प्रकोप के कारण एव लक्षणो के लिये दो या तीन दोपो के संसर्ग होने पर उन दोनो या तीना दोपो के प्रपित होने पर दोनो या तीनो दोपी के अनुसार लक्षण एक साथ मिलते हुए पाये जाते है। द्विदोपलिङ्गसंसर्गः सन्निपानस्त्रिलिङ्गकः। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : तृतीय अध्याय १९१ उपक्रम-द्विदोपज मे दो दोपो के उपक्रमो को मिलाकर और सन्निपातज मे तीनो दोपो के उपक्रमो को मिलाकर चिकित्सा करनी चाहिये। . संसर्गः सन्निपातेपु तं यथास्वं विकल्पयेत् । सर्व रोगों में एक एक औषधि (Specific or drug prescerip tion in differentdiseases)-ज्वर मे पित्तपापडा या नागरमोथा, तृषा मे मिट्टी के ढेले को गर्म करके वुझाया जल, वमन मे लाजा (धान का लावा), मूत्ररोगो में गिलाजीत, प्रमेह में आमलकी या हरिद्रा, पाण्डु रोग मे लौह या मण्डूर, वातकफके विकारो मे हरड, प्लीहा एव यकृत रोग मे पिप्पली, उर.क्षत ( Haemoptysic ) मे लाक्षा (लाख), विप मे शिरीप, मेदोरोग और वायुरोगो मे गुग्गुलु, रक्तपित्त मे अडूसा, अतिसार मे कुटज, मर्श मे भिलावा, गर विप मे सुवर्णभस्म, कृमियो मे वायविटङ्ग, स्थौल्य मे ताय शोप में सुरा, वकरी का दध एव माम, नेत्ररोग एवं वातरोगो मे त्रिफला, ग्रहणी मे तक्र, कुष्ट मे खर ( खदिरसार ), जीर सव रोगो मे शिलाजीत का सेवन हितकर होता है। उन्माद मे पराना घी, शोक मे मद्य, अपस्मार मे ब्राह्मी, निद्रानाश मे दूध, प्रतिग्याय मे रनाला, कृशता मे मास, वायु मे लहसुन, अगो की जकडाहट या स्तब्धता मे स्वेदन, स्कव-अस एव वाहुं की वेदना (विश्वाची तथा अव बाहुक ) में मुडमजरी (जिगिणी ) का नस्य, अदित मे मक्खन, उदररोगो मे ऊँटनी का दूध या ऊँट का मूत्र, शिरोरोगो मे नस्य, नवीन उत्पन्न विद्रधि मे रक्तविनावण, मुखरोगो मे नस्य एव कवल, नेत्ररोगो मे नस्य-अजन एव तर्पण, वार्द्धक्य मे दूध और घी, मूर्छा मे शोतल जल-वायु-एवं छाया, अग्निमाद्य मे शुक्त (सिरका ) एव अदरक, थकान मे सुरा एव स्नान, दु:ख के सहने योग्य एव शरीर को दृढ बनाने के लिये व्यायाम, मूत्रकृच्छ्र मे गोक्षुर, कास मे कटकारी, पावशल मे पुष्करमूल, वय स्थापन मे आँवला, व्रण मे त्रिफला तथा गुग्गुलु, बातरोगो में वस्ति, पित्तरोगो में विरेचन, कफ मे मधु, पित्त मे घी तथा वायु मे तल परमोत्तम लाभप्रद है। इस प्रकार रोगानुसार श्रेष्ठ औषधियाँ वतलाई गई है। उनकी देश-काल तथा वल के अनुसार यथायोग्य कल्पना करके व्यवहार करना चाहिये। मुस्तापर्पटक ज्वरे तृपि जलं मृद्धृष्टलोप्टोद्भवं लाजाश्चर्दिपु वस्तिजेषु गिरिजं मेहेषु धात्रीनिशे । पाण्डौ श्रेष्ठमयोऽभयाऽनिलकफे लोहामये पिप्पली सन्धाने कृमिजा विषे शुकतरुर्मेदोऽनिले गुग्गुलुः ।। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ भिपकर्म-सिद्धि वृपोऽस्रपित्ते कुटजोऽतिसारे भल्लातकोऽशःसु गरेपु हेम । स्थूलेषु ताक्ष्य कृमिपु क्रिमिघ्नं शोपे सुरा च्छागपयोऽनु मांसम् ।। अक्ष्यामयेषु त्रिफला गुडूची वातासरोगे मथितं ग्रहण्याम् । कुप्टेषु सेव्यः खदिरस्य सारः सर्वेपु रोगेषु शिलाह्वयञ्च ।। उन्मादं घृतमनवं शोकं मद्यं व्ययस्मृति ब्राह्मी । निद्रानाशं क्षीरं जयति रसाला प्रतिश्यायम् ।। मांसं कायं लशुनः प्रभञ्जनं स्तब्धगात्रतां स्वेटः। गुडमञ्जर्याः खपुरो नस्यात् स्कन्धांसवाहुरुजम् ।। नवनीतखण्डमर्दितमौष्ट्र मूत्र पयश्च हन्त्युदरम् । नस्यं मूर्धविकारान् विद्रधिमचिरोत्थमस्रवित्र व ॥ नम्यं कवलो मुखजान नस्यांचनतर्पणानि नेत्ररुजः । वृद्धत्वं क्षीरघृते मूर्छा शीताम्बुमारुतच्छायाः ।। समशुक्ताद्रकमात्रा मन्दे वह्नौ श्रमे सुरा स्नानम् । दुखःसहत्वे स्थैर्य व्यायामो गोक्षुरुर्हितः कृच्छे । कासे निदिग्धिका पार्श्वशूले पुष्करजा जटा। वयस स्थापने धात्री त्रिफला गुग्गुलुर्बणे ।। वस्तिर्वातविकारान् पैत्तान् रेकः कफोद्भवान् वमनम् । क्षीरं जयति वलासं सपिः पित्त समीरणं तेलम् ।। इत्यग्रयं यत्प्रोक्तं रोगाणामौपधं शमायालम् । तदेशकालवलतो विकल्पनीयं यथायोग्यम् ।। (वा उ ४० ) Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड विशिष्ट प्रतिषेध ज्वर प्रतिषेध १३ मि०सि० Page #244 --------------------------------------------------------------------------  Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय बर के पूर्वरूप में उपक्रम-ज्वर में सामान्य तथा विशिष्ट पूर्वरूपो के अनुसार निम्नलिखित उपक्रम करने चाहिये । लंघन या लघु भोजन-यदि कफ-पित्त या प्रतिश्याय आदि का आभास हो तो उपवास तथा वात-पित्त के दोपो का आभास हो तो लघु भोजन ( मण्ड-पेया-विलेपी प्रभृति ) देवे । विशिष्ट पर्वरूपावस्था मे गोघत या वातघ्नोपधि से सिद्ध घृत गर्म कर पतला कर पिलावे । पंत्तिक मे विरेचन देवे तथा श्लैष्मिक मे हल्का वमन करावे । द्वन्द्वज मे दो दो दोपो के अनुमार उपचार तथा त्रिदोपज मे तीनो दोषो का उपचार यघावश्यक करे। ज्वर मे उपक्रम या चिकित्सा-सूत्र-ज्वर की चिकित्सा मे सर्वप्रथम विचार इस बात का करना होता है कि ज्वर नव या तरुण है अथवा पुराण या जीर्ण । ज्वर की अवधि ( Duration ) से इसका निर्णय आसानी से किया जा सकता है। ज्वरोत्पत्ति से लेकर सात दिनो तक ज्वर की तरुणावस्था कहलाती है। फिर सातवें दिन से लेकर वारहवें दिन तक मध्यमावस्था तदनन्तर ज्वर की पराणावस्था मानते है। तत तीन सप्ताह के पश्चात् जब ज्वर का वेग कम हो जाता है, प्लीहा की वृद्धि और अग्निमाद्य पैदा हो जाता है। इस अवस्था को जीणं ज्वर कहते है ।२ ___ज्वर की चिकित्सा में दूसरा विचार आम, पच्यमान तथा निराम प्रभति लक्षणो की तीव्रातीव्रता के ( Intensity or severity of १ पूर्वरूपे प्रयुञ्जीत ज्वरस्य लघु भोजनम् । लखनञ्च यथादोपं विशेपे वातिके पुन ॥ पाययेत्सपिरेवाच्छ पैत्तिके तु विरेचनम् । मृदु प्रच्छर्दन तद्वत् कफजे तु विधीयते । द्वन्द्वजे तु द्वय कुर्याद् बुद्ध्वा सर्वं तु सर्वजे ॥ २ आसप्तरात्रं तरुण ज्वरमाहुर्मनीषिणः । मध्य द्वादशरात्रन्तु पुराणमत उत्तरम् ॥ त्रिसप्ताहे व्यतीते तु ज्वरो यस्तनुता गत । प्लीहाग्निसाद कुरुते स जीर्णज्वर उच्यते ।। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ भिपकम-सिद्धि symptons) सम्बन्ध में करना आवश्यक होता है । ज्वर की आमावस्था मेंस्रोतस रद्ध रहते हैं, गरीर से पसीने का निकलना बंद हो जाता है, क्षुधानाग, अरुचि, अविपाक, उदर का भारीपन, तद्रा, आलस्य, हदय की अविशुद्धि, ज्वर की प्रबलता, ज्वर का न टूटना, मल-मूत्र आदि की सम्यक् प्रवृत्ति न होना, लालानाव, हृल्लास, शरीर का स्तब्ध, गुरु एव भारी होना, पुरीप का पक्व होकर न माना तथा मास का क्षीण न होना प्रभृति लक्षण पाये जाते है। पच्चमानावस्था मेज्वर का वेग अधिक तीव्र हो जाता है, तृष्णा, प्रलाप, श्वास, उत्क्लेग तथा मल का निकलना पाया जाता है । ज्वर की निरामावस्था में क्षुबा को प्रवृत्ति, दुर्वलता का अनुभव, गरीर का हल्कापन, ज्वर का हल्का होना तथा दोपो का निकलना ये लक्षण मिलते है । ज्वर को निरामावस्या सामान्यतया आठवें दिन माती है । परन्तु विशेष प्रकार के ज्वरो में सन्निपातादि में वह अधिक दिनो की भी हो मकती है।' एक तीसरा विचार भी ज्वर को चिकित्सा में आवश्यक हो जाता है वह है दोपों के जनन के क्रम का ! किम दोप की प्रधानता किस ज्वर में है तदनन्तर चिकित्सा क्रम को निर्धारित करना पड़ता है। __ ज्वर की तरण, आम या पन्यमानावस्या मे, तथा पित्त एवं ग्लेज्मा की वहुलना मे निम्नलिखित उपचार करना चाहिये । १ लषन २ वमन ३ स्वेदन ४. काल (एक सप्ताह या आठ दिनो की प्रतीक्षा ), ५ यवागू तथा ६ तिकरस ७ पाचन द्रव्य । इन उपक्रमोका क्रमग विचारपूर्वक प्रयोग करना चाहिये । एक दूसरा मूत्र भी ज्वर की सामान्य चिकित्सा के सम्बन्ध में पाया जाता है -"ज्वर के प्रारंभ में-आम दोपो की प्रबलता में-लघन, ज्वरकी मध्यमा वस्था में पाचन योपधियों का प्रयोग तया निरामावस्थामें गमन औपच की व्यवस्था १ नोतमा सन्निरुद्धत्वात् स्वेदं ना नाधिगच्छति । स्वस्थानात् प्रच्युते चान्नी प्रायगस्तरणे ज्वरे ।। अरुचिश्चाविपाक्श्च गुरुत्वमुटरस्य च । हृदयस्याविशुद्धिश्च तन्द्रा चालस्यमेव च ।। ज्वरोऽविसर्गी बलवान् दोपाणामप्रवर्तनम् । लालाप्रसेको हल्लास सुन्नागो विरस मुखम् ।। स्तव्धसुप्तगुरुत्वञ्च गात्राणा बहुमूत्रता। न विड्जीर्णा न च ग्लानिज्वरस्यामस्य लक्षणम् ॥ स्वरगोऽविस्तृष्णा प्रलाप. श्वसन भ्रम । मलप्रवृत्तिरुत्क्लेन पच्चमानस्य लक्षणम् ॥ सुत्क्षामता लघुत्वञ्च गावाणा ज्वरमार्दवम् । दोपप्रवृत्तिरप्टाहो निरामज्वरलक्षणम् ।। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : प्रथम अध्याय १९७ और ज्वर के निवृत्त हो जाने पर रोगी के वलादिका विचार करके विरेचन औषधि का उपयोग करना चाहिये ।"१ । लंघन-ज्वर मे लघन कराना सर्वप्रथम उपचार है । लघन शब्द का प्रयोग यहाँ पर अनशन या उपवास कराने के अर्थ मे ही सीमित है। जब ज्वर नया हो उसमे आम दोप प्रवल हो, दोपो मे पित्त एव श्लेष्मा की प्रधानता हो, तो अनशन कराना चाहिये । इस क्रिया से दोषो के पाचन मे सहायता मिलती है । और अग्नि दीप्त होता है। परन्तु इसके विपरीत अवस्था के ज्वरो मे जैसे-जीर्ण ज्वर, धातुक्षय के कारण होने वाले ज्वर, राजयक्ष्मा के ज्वर, भय-क्रोध-कामशोक प्रभृति मानसिक क्षोभ से उत्पन्न ज्वर, अधिक परिश्रम या अभिघात से उत्पन्न ज्वर तथा विशुद्ध वायु के कुपित होने से पैदा होने वाले ज्वरो मे उपवास या अनशन नही कराना चाहिये। इस अवस्था मे कर्शन न कराके शमन क्रिया से उपचार करना चाहिये। ज्वर मे उपवास कराने का लक्ष्य बालक, वृद्ध, दुर्बल और गर्मिणी में लंघन नही करावे । वढे हये दोषो का कम करना और अग्नि को प्रज्वलित करना, रहता है इस क्रिया से ज्वर का वेग कम होता है, शरीर मे हल्कापन आता है एवं भूख की इच्छा जागृत होती है । परन्तु लघन या अनशन रोगी के वल के अनुसार कराना चाहिये। यदि रोगो बलवान् हो तो पूर्ण उपवास कराया जा सकता है, किन्तु दुर्बल हो तो अधिक उपवास से उसका बल टूट जाता है। आरोग्य के लिये शारीरिक बल की ही प्रधानता दो गई है । वल के टूट जाने पर. आरोग्य होना सभव नही रहता है। लघन क्रिया का अन्तिम उद्देश्य रोगी को आरोग्य देने के अतिरिक्त और कुछ नही होता है । अस्तु प्राण या वल के अविरोधी लघन से ही उपवास कराना चाहिये।' अर्थात् वल के अनुसार ही रोगो को उपवास कराना चाहिये। लंघन-अवधि-जिस प्रकार राख से ढंकी अग्नि अन्न का पाक नही कर सकती, उसी प्रकार दोपो से ढकी जाठराग्नि ज्वरयुक्त रोगो को दिये गये भोजन का परिपाक नही कर सकती। अस्तु दोपो के परिपाक होने तक बल के अनुसार १ ज्वरे लङ्घनमेवादावुपदिष्टमते ज्वरात् । क्षयानिलभयक्रोधकामशोकश्रमोदभवात || चर चि ३ । लङ्घन स्वेदन कालो यवाग्वस्तिक्तको रस । मलाना पाचनानि स्युर्यथावस्थ क्रमेण वा ॥ ज्वरादी लवन सामे ज्वरमध्ये तु पाचनम् । निरामे शमन कुर्याज्ज्वरान्ते तु विरेचनम् । २ लघनेन क्षय नीते दोपे सधुक्षितेऽनले । विज्वरत्वं लघुत्वञ्च क्षुच्चवास्योपजायते । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ 'ज्वरित को उपवास कराना चाहिये । १ अन्यत्र लिखा है - आँख, पेट के रोग, प्रतिश्याय, व्रण तथा नव ज्वर ये रोग ( Acute Inflamatory state ) प्राय पाँच दिन के उपवास से ही ठीक हो जाते है । भिषक्कर्म - सिद्धि अक्षिकुक्षिभवा रोगाः प्रतिश्यायव्रणज्वराः । पचैते पञ्चरात्रेण रोगा नश्यन्ति लङ्घनात् ॥ 1 हारीत सहिता मे लघन की अवधिसूचक एक बचन पाया जाता है "लघनीय ज्वर मे लधन दोष और बल के अनुरूप कराना चाहिये । कही तो एक दिन के. लघन से ही काम चल जाता है, कही पर दो दिनों के लघन से काम पूरा हो जाता है, क्वचित् तीन या छ' दिनो तक ज्वर में उपवास कराने का विधान है ।" सामान्यतया ज्वरो मे इतना लघन पर्याप्त होता है । उसके बाद लघुभोजन देना आवश्यक हो जाता है । लघन की अधिक अवधि केवल सान्निपातिक ज्वरो मे बतलाई गई है। क्योकि इन ज्वरो मे दोषो की संसक्ति एवं आम दोप ast प्रबल होता है अतएव उनमे " जब तक रोगी आरोग्य लाभ न करले "यावदारोग्यदर्शनात्” तब तक उपवास कराने का 4 विधान है। इस प्रकार T लघन या उपवास का सर्वाधिक महत्त्व सन्निपात ज्वरो मे ही होता है । A + लङ्घनं लङ्घनीयानां कुर्याद्दोपानुरूपतः । त्रिरात्रमेकरात्रं वा षडरात्रमथवा ज्वरे ॥ लंघन के गुण - नव ज्वर मे वात-पित्तादिक दोप तथा शरीर की समस्त पाचक अग्नियो की स्थिति तथा प्रमाण व्यवस्थित नही होता है । लंघन दोषो को पचाकर ठीक-ठीक अपने स्थानो पर व्यवस्थित कर देता है । लघन से ज्वर का वेग कम हो जाता है, अग्नि दीप्त होती है, भोजन करने की इच्छा जागूत होती है, रुचि बढती है और शरीर हल्का हो जाता है । २ - सम्यक् लंघन के लक्षण - अपानवायु-मूत्रपुरीष का ठीक समय से आना, गात्र की लघुता, हृदयका भार एव उपलेप से रहित का अनुभव होना, डकार का आना, कठ एव मुख की शुद्धि, तन्द्रा एव थकावट का न अनुभव - १. प्राणाविरोधिना चैन लंघनेनोपपादयेत् । बलाघिष्ठानमारोग्य यदर्थोऽय क्रियाक्रम ॥ ( चचि ३ ) दोषेण भस्मेनेवाग्नो छन्नेऽन्न न विपच्यते । तस्मादादोपपचनाज्ज्वरितानु- पवासयेत् ॥ ( वा चि १ ) २. लक्षणैः क्षपिते दोपे दीप्नेऽग्नौ लाघवे सति । स्वास्थ्यं क्षुत्तृड् रुचिः पक्तिर्वलमोजश्च जायते ॥ ( अ हृ १ ) Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० चतुर्थ खण्ड : प्रथम अध्याय होना, पसीने का निकलना, रुचि का प्रकट होना, भूख एव प्यास का साथ-सत्य जगना तथा चित्त का प्रसन्न होना । ये लक्षण एव चिह्न 'सम्यक् प्रकार से लघिर रोगी मे पाये जाते है। असम्यक् लंघन या अति लंघन के दोप-पहले वतलाया जा चुका है कि वायु के ज्वर, मुखशोष और भ्रम के रोगो, वालक, वृद्ध, गर्भिणी और दुर्बल रोगियो को उपवास नही कराना चाहिये । उपवास के बारे मे यह भी ध्यान रहे कि उपवास रोगी का बल के अनुसार कम या अधिक दिनो तक कराया जा सकता है । अन्यथा उपवास कराने से रोगी मे निम्न लिखित उपद्रव होने लगते हैजैसे-पर्वभेद, अङ्गमर्द, विषमज्वर, कास, मुखशोप, भूख का नष्ट होना, अरुचि, तृष्णा, कान एव नेत्र की दुर्वलता, मनका सभ्रम, ऊर्ध्वबात, मूर्छा, देह-अग्नि-बल की हानि प्रभूति उपद्रव अति लघन के कारण होते है । होन लंघन के लक्षण-कफ का उत्क्लेश, हल्लास, थूक का बार-बार आना, कंठ-मुख एव हृदय की अशुद्धि प्रभृति लक्षण हीन लघन के कारण होते है । वमन-सद्यो भोजन करनेके पश्चात् उत्पन्न ज्वरो मे अथवा अधिक मधुरगुरु-स्निग्ध-पिच्छिल पदार्थों ( तृप्तिकारक पदार्थो )के सेवन से उत्पन्न ज्वरो मे अथवा वमन के' योग्य ज्वर मे वमन, कराना प्रशस्त है । ऐसा वाग्भटाचार्य का मत है। जिन रोगियो मे कफ-प्रकोप की अधिकता हो, वार-बार उत्क्लेश हो रहा हो, दोषो की स्थिति आमाशय मे हो और वहां से मुख द्वारा वमन के रूप मे निकलने को प्रवृत्ति-युक्त हो, ऐसे दोषा को ज्वरकारक जानकर उचित समय में वमनाह रोगियो को वमन करा के दोषो का निर्हरण किया जा सकता है। कफकी अधिकता या चलायमानता का ज्ञान रोगी के जीमचलाने, लालास्राव, अन्नविदवेष. विसूचिका (पेट में सूई चुभोने जैसा दर्द) और भोजन के पश्चात् तुरन्त ज्वर का होना प्रभृति लक्षणो से होता है । ऐसे रोगियो में वमन उचित रहता है । ___ ज्वर मे वमन कराने के लिये १ मदनफल चूर्ण ६ माशे, पिप्पली चूर्ण ८ रत्ती को फोक कर ऊपर से एक पाव गर्म जल पिलाना । २ अथवा गर्मजल मे थोडा नमक डालकर आकठ पिलाकर वमन कराना चाहिये। ३. कलिड ६ माशे और मधयष्टि ६ माशे का चूर्ण पीकर गर्म पानी पीना या कपाय बनाकर पिलाना । ४ मध का पानी या ईख का रस आकंठ पिला कर वमन कराना। १ सद्योभुक्तस्य वा जाते ज्वरे सतर्पणोत्थिते । वमन वमनार्हस्य शस्तमित्याह वाग्भट. ॥ २ कफप्रधानानुत्क्लिष्टान् दोपानामाशयोत्थितान् । वुवा ज्वरकरान् काले वम्याना वमनहरेत् ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० भिपकर्म-सिद्धि , परन्तु तरुण ज्वर मे हल्लासादि लक्षणो के अभाव मे अचलायमान दोपो का वमन कर्म के द्वारा निर्हरण करने से हृदय के रोग, श्वास, मानाह और मूर्छा प्रभृति उपद्रव होने लगते है। स्वर में वमनकारक द्रव्य-पिप्पली, इन्द्रयव या मुलेठी को मैनफल के साथ खोलाकर उसमें मधु या सेंधा नमक मिलाकर पिलाना । अथवा परवल, नीम, कर्कोट या वेतसपत्र का काथ पिलाना । अथवा पानी में घुले सत्त, ईख के रस, मद्य से या कल्प स्थान में कहे गये-~अन्य योग्य वामक द्रव्यो से वमन कराना चाहिये। वमन के वाद लंघन-ज्वर का रोगी जो वमन के योग्य है, उसको वमन कराके, जो वमन के योग्य नही है उसको वमन विना कराये ही उपवास कराना चाहिये । इस उपवासके द्वारा अपक्व दोषो का पाचन तथा पत्र दोपो का गमन हो जाता।' उष्ण जल-ज्वरित रोगी में हेतु-काल-देश और दोप का विचार करते हुए गर्म जल पिलानेका प्राय विधान पाया जाता है क्योकि ज्वर अधिकतर आमागय के दोषो से उत्पन्न होता है और भामाशयगत विकारो के पाचन के लिये पाचन, वमन और लंघन प्रभृति कर्मों का उपदेश पाया जाता है । अस्तु पाचनार्थ उष्ण जल का ही विधान ज्वरकाल मे रोगी के लिये वैद्य लोग किया करते है। यह उष्ण जल पिये जाने के अनन्तर वायुका अनुलोमन करता है, अग्नि को उदीर्ण करता है, शीघ्रता से स्वयं पच जाता है और कफ को शोपित करना है। सर्वोपरि थोडा भी पीने से तपाको शान्त करता है। ऐसा देखा जाता है कि तृषा की अवस्था में शीतल जल जितना ही पिलाया जाता है उतनी ही प्यास बढ़ती है, परन्तु उष्ण से तृषा शान्त होती है । १. अनुपस्थितदोपाणा वमनं तरुणे ज्वरे । हृद्रोग श्वासमानाह मोहञ्च कुरुते भृशम् ।। (भै र ) तत्रोक्लिष्टे समुत्क्लिष्टे कफप्राये चले मले। सहृल्लासप्रसेकान्नद्वे पकासविमूचिके ॥ सद्योभुक्तस्य सजाते ज्वरे सामे विशेषत ।। वमनं वमनार्हस्य शस्तं कुर्यात् तदन्यथा ॥ वासातीसारसम्मोहहृद्रोगविषमज्वरान् ।। (म. हु चि १) २ कृतेऽकृते वा वमने ज्वरी कुर्वाद्विशोपणम् । दोषाणा समुदीर्णाना पाचनाय शमाय च ॥ , Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : प्रथम अध्याय २०१ अस्तु प्यास लगने पर थोडा-थोडा गर्भ पानी वात-कफ ज्वर के रोगियो को पीने के लिये देना चाहिये । यह गर्म जल कफ का विलयन करके प्यास को शीघ्र नष्ट करता है। अग्नि को प्रवल करता और स्रोतो को मृदु एव विशोधन कर देता है । लीन हुए स्वेद-वायु- मल-मूत्र का अनुलोमन करता है । निद्रा-जडता एव अरुचि को नष्ट करता है, बल को सहारा देता है। इसके विपरीत शीतल जल दोपसमूह को बढाता है। यह उष्ण जल कई प्रकार का बनाया जा सकता है। जैसे, क्वथित जल पानी खौल जाय और उतार कर रखकर ठडा करले और पीने को दे अथवा लवङ्ग, वायविडङ्ग, धान्यक मे किसी एक द्रव्य को तीन से पाँच दाना डालकर चौला ले और टडा होने पर पीने को दे। कई वैद्य-परम्पराओ मे अर्धावशिष्ट चतुर्थाशावशिष्ट, अष्टमाशावशिष्ट या पोडगाशावशिष्ट क्वथित जल देने की भी विधि पाई जाती है। यह जल बहुत हल्का, सुपाच्य एव दोषो का पाचक और मबल हो जाता है। ऐसा जल दीपन, पाचन, ज्वरघ्न, स्रोतसो का शोधक, वत्य, रुचि एव स्वेद का वर्द्धक और ज्वरित को कल्याणप्रद होता है। उष्ण जल मे इतने गुण होने पर भी एकान्तत पित्त ज्वर मे, बढे पित्त मे, दाह, मूर्छा एव अतिसार युक्त ज्वरो मे, विष एव मद्य से उत्पन्न ज्वरो मे, ग्रीष्म ऋतु मे, रक्तपित्त एव उर:क्षत के रोगियो मे उसका निषेध पाया जाता है। इन ज्वर के रोगियो मे शीतल जल देना चाहिये । यदि गर्म जल देना भी हो तो उसको गीतवीर्य औपधियो से जैसे, पित्तपापडा, उशीर, चदन' आदि से सस्कारित वर ठडा करके देना चाहिये। गर्म करके ठडा किये जल को शृत शीत कहते है। इस प्रकार के औषधियो से सस्कारित और ठंडा किये जल को प्यास एव ज्वर को शान्ति के लिये पीने को देना चाहिए। इसके अतिरिक्त ज्वरकालमे मद्य भी पिलाया जा सकता है। जिन देशो में जल पीनेकी प्रथा नहीं है, अथवा उन व्यक्तियो मे जिनमे जल के पीने का अभ्यास नहीं है अर्थात् मद्यसात्म्य देश या व्यक्ति हो तो उनमे दोप और शरीर के वल के अनुरूप मद्य पिलाने की व्यवस्था करनी चाहिये। १ तृष्यते सलिल चोष्ण दद्याद् वातकफे ज्वरे । तत्कफ विलय नीत्वा तृष्णामाशु निवर्तयेत् ॥ उदीर्य चाग्नि स्रोतासि मृदूकृत्य विशोधयेत् । लीनपित्तानिलस्वेदशकृन्मूत्रानुलोमनम् ॥ निद्राजाड्यारुचिहर प्राणानामवलम्बनम् । विपरीतमत शीतं दोपसघातवर्धनम् ।। ( वा. चि १) २ दोपनं, पाचन चैव ज्वरघ्नमुभयञ्च तत् । स्रोतसा शोधन बल्य रुचिस्वेदप्रद शिवम् ।। (भै २ ) Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपक्कर्म-सिद्धि धर्माम्बु चानुपानार्थं तृपिताय प्रदापयेत् । मद्य वा मद्यसात्म्याय यथादोपं यथावलम् || (चरचि ३) स्वेदन - सभी ज्वरो मे विशेषत' सान्निपातिक ज्वर, उदर्द, पोनस, श्वास, जंघा - सधि एव अस्थिवेदना युक्त ज्वरो में, आमवात, वातिक तथा लैष्मिक ज्वरोमे स्वेदन कर्म प्रशस्त है । उष्ण जल का पिलाना, रोगी की शीत से रक्षा करना, उसको वस्त्रादि से आवृत करके रखना, और स्वेदल औपधियो के वाह्य एव आभ्यन्तर प्रयोग से स्वेदन का कार्य हो जाता है । इस क्रिया से स्वेद, मूत्र, मल और बात का निकलना चालू हो जाता है जिससे शरीर का हल्कापन, ज्वर के वेग का कम होना, अग्नि का जागृत होना प्रभृति लाभ होते है । इस काल मे स्वेदन विधि मे कहे गये आहार-विहारो का अनुपालन भी रोगी को करना चाहिये | स्वेदन कर्म का विशेष उपयोग वातश्लेष्मिक ज्वर तथा सान्निपातिक ज्वरो मे होता है— अस्तु उसी प्रमग मे इसका वर्णन विशेष रूप से होगा । पडङ्ग पानीय-ज्वरकाल मे रोगी को प्रचुर मात्रा में जल देना चाहिये । इससे शरीर का विप पर्याप्त मात्रा मे मूत्र के द्वारा निकल जाता है । जल के सम्वन्ध में ऊपर में उष्ण जल, शीतल जल या शृत शोत जलो के पिलाने के बारे में दोषानुसार विवेचन हो गया हैं । अव इस स्थान पर एक ऐसे सामान्य जल का प्रयोग वतलाया जा रहा है जिसका सामान्यतया सभी ज्वरों में उपयोग किया जा सकता है । इस ओपधिसिद्ध जल को पडङ्ग पानीय कहा जाता है । इसके बनाने मे मुस्त, पर्पट, उशीर, चदन, उदीच्य ( सुगधवाला ) और सोठ इन ओपधियो से जल की सिद्ध किया जाता है । इन ओपधियो का मिश्रित १ कर्प (२ तोले ) लेकर १२८ गुने जल में अर्थात् १ प्रस्थ ( २५६ तोला या ३६ सेर ) जल में किसी मिट्टी के वर्त्तन मे खौलाते है । पानी जल कर जब आवा शेष रहता है तो उसे चूल्हे से उतार कर शीतल कर लिया जाता है और एक शुद्ध पात्र में उसे सुरक्षित करके रख लेते है । ज्वर काल में तृपा प्रतीत होने पर रोगो को थोडा-थोडा पिलाते रहते हैं । इस जल को पीने के लिये अथवा पेया नोर यवागू आदि के बनाने में भी व्यवहार किया जा सकता है । इससे तृपा शान्त होती है, रोगी में हल्का स्वेद निकलता रहता है जिससे ज्वर का वेग कम रहता है | इस योग में गुठी के स्थान पर मृहीका ( मुनक्का ) का भी अवस्थानुसार उपयोग हो सकता है । २०२ १ सोदर्द पीनसश्वासे जङ्घापर्वास्थिशूलिनि । वातश्लेष्मात्मके स्वेद प्रशस्त. स प्रवर्त्तयेद् || स्वेदमूत्रशकृद्वातान् कुर्यादग्नेश्च पाटवम् ॥ ( वा चि. १ ) अष्टमेनाशगेपेण चतुर्थेनार्घकेन वा । अथवा ववथनेनैव सिद्धमुष्णोदक वदेत् ॥ 11 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : प्रथम अध्याय २०३ उष्णोदक, शृतगीत जल या पडङ्ग पानीय के सम्बन्ध में यह ध्यान रखना चाहिये कि या ताजे रहे वासी न हो। इसके लिये यह आवश्यक रहता है कि प्रातःकाल का बनाया हुआ जल साय काल तक चलता रहे और साय काल का बनाया जल रात में और प्रातःकाल तक चलाया जाय। ज्वर मे आहार-अव विचारणीय है कि ज्वर काल मे रोगी को क्या आहार देना चाहिये । लघन का विधान होने पर पूर्णतया अनशन कराना अनुचित प्रतीत होता है। क्योकि बलाविष्ठान या प्राण का मूल आहार या भोजन नहीं है । “अन्न वै प्राणाः", "कलावन्नगता प्राणाः" प्रभृति श्रुतियाँ इसकी साक्षा है । एक पौराणिक कथा भी है कि कृतयुग में प्राण का अवस्थान अस्थि मे रहता था-उस युग के मनुष्य ( ऋषिलोग ) अन्न-जल को छोडकर तपस्या करते हुए सम्पूर्ण धातुओ के क्षयित हो जाने पर यदि अस्थिमात्र भी अवशिष्ट हो जाते थे तो अश्विनीकुमार ( देवताओ के चिकित्सक ) उन्हे भेपज-वल से पुनर्जीवित कर सकते थे। त्रेता युग मे प्राण का अवस्थान मास धातु मे हो गया थाजिससे उस युग के मुनि लोग तपस्या करते हुए सभी धातुओ को क्षयित कर लेते थे परन्तु अस्थि एव मांस धातु उनका शेष रह जाता था तो तत्कालीन अश्विनीकुमार उन्हे भेषज के योग से फिर जीवित कर लेते थे। द्वापर युग में प्राण का अवस्थान चर्म में हो गया था यदि उस युग के साधक तपस्वी लोग साधना करते हुए सभी धातुओ को क्षयित कर चुके हो, परन्तु उनके आस्थ, मास और चर्म धातु सुरक्षित हो, तो उनको भेषज आदि से जीवित किया जा सकता था। जब कलियुग आया तो प्राण का अवस्थान अन्न मे। हो गया यदि अन्न या भोजन मनुष्य का अधिक दिनो तक छुडा दिया जाय तो उसका पुनर्जीवनदान वैद्य के वश का नहीं रह जाता है। इस लिये कलियुग में अनशन या उपवास प्रशस्त नही माना गया है। __ ज्वर काल मे ज्वरित को भी' एकान्तत ' उपवास कराना ठीक नही है। "लवन स्वल्पभोजनम्" लघन का अर्थ लघु आहार करना चाहिये । हल्का एव पथ्य भोजन ज्वरित को अवश्य भोजनकाल मे देना चाहिये । फिर भी गुरु, अभिष्यदी भोजन का उपयोग नहीं करना चाहिये तथा अकाल मे भोजन नही देना चाहिये । इसी प्रयोजन से आचार्य सुश्रुत ने लिखा है :- : : "ज्वर से पीडित मनुष्य को अरुचि होने पर भी हित र लघु भोजन देना चाहिये। क्योकि भोजन के समय में भूख प्रतीत होने पर भोजन न करने से रोगी क्षीण हो जाता है या मर जाता है।" ज्वर से पीडित या ज्वर से रहित मनुष्य को अपराह ( सायकाल ) मे लघु भोजन करना चाहिये, क्योकि उस समय श्लेष्मा Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ · भिपक्रम-सिद्धि क्षीण होने से गरीर के भीतर की अग्नि वढ जाने से पाचक्राग्नि प्रवल हो जाती है। ऐसे समय में भोजन नहीं करने से प्रदीप्त अग्नि रस-रक्तादि धातुओ को जलाती है, जिससे वलक्षय होता है ।"१ बस्तु ज्वरित को समय से लघु भोजन देना चाहिये। इस प्रकार के लघु भोजन या हत्के हितप्रद आहार कोने से है इसका एककग विवेचन नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है। पेया-सम्यक् प्रकार के लधन के लक्षण उत्पन्न हो जाने पर रोगी की चिकित्सा पेयादि से करे । इसमे पेया आदि को अपनी-अपनी औपधियो से सिद्ध करके देवे । प्रयम यूप या मण्ड दे, पश्चात् पेया, यवागू मादि दे। ज्वर में प्रथम छै दिनो तक अथवा जब तक ज्वर मृदु न हो जाय पेया का ही प्रयोग करना चाहिये। पेया के बारे में चरक में लिखा है कि ये पेयादि मोपवियो के सयोग से तथा लघु होने ने अग्नि के दीप्त करने वाले होते है। इनके प्रयोग से वात-मूत्र एवं पुरीप का सरण होता रहता है, दोपो का अनुलोमन होता चलता है, इनके द्रव एवं उष्ण होने से रोगी का हल्का स्वेदन होता चलता है, तृपा गान्त हो जाती है । आहार का गुण होने से रोगी का वल नही टूटने पाता है, शरीर हत्का रहता है और ज्वर में सात्म्य होने से ज्वरनागक भी.होते है। अस्तु पेया के द्वारा ज्वर के प्रारंभ में चिकित्सा करनी चाहिये ।२ पेयावो में सबसे प्रथम धान्य लाज (खोलो) को वनी पेया दे। इस पेया में सोंठ, धनिया, पिप्पली और सोठ को प्रक्षेप डालकर देवे। यह लाजपेया जल्दी । १ वरिनो हितमश्नीयाद् यद्यप्यस्यारुचिर्भवेत् ! - - अन्नकाले ह्यभुज्ञान. क्षीयते म्रियतेऽपि वा ॥ - ज्वरित ज्वरमुक्तं वा दिनान्ते भोजयेल्लघु । श्लेष्मक्षये विवृद्धोमा वलवाननलस्तदा ।। ( सु चि.) २. मुस्तपर्पटकोशोरचन्दनोदीच्यनागर । शृतगीत जल देयं पिपासावरगान्तये ।। यदप्मु गृतगीतामु पडङ्गादि प्रयुज्यते । कर्पमात्रं ततो द्रव्यं साधयेत् प्रास्थिकेऽम्भनि । अर्वशृतं प्रयोक्तव्यं पाने पेयादिमविवौ ॥ ३ युक्तं लधित लिङ्गैस्तु त पेयाभित्पाचरेत् । यथास्त्रीपवसिद्धाभिर्मण्डपूर्वाभिरादित. ।। पडहें वा मृदुत्व वा ज्वरो यावदवाप्नुयात् । तस्याग्निर्दीप्यते ताभि समिद्भिरिव पावकः ।। (वा चि १ )। ताश्च भेपजमयोगाल्लघुत्वाच्चाग्निदीपना.। वातमूत्रपुरीपाणा दोपाणा चानुलोमना ॥ स्वेदनाय द्रवोष्णत्वाद् द्रवत्वात् तृटप्रशान्तये । आहारभावात प्राणाय मरत्वाल्लाववाय च । ज्वरत्नो ज्वरसात्म्यत्वात् तस्मात्पेयाभिरादित. ज्वरानुपचरेद्धीमान् । (च चि ३) Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड :प्रथम अध्याय २०५ पच जाती है जिस रोगी को अम्ल लेने की इच्छा हो उसमे अनारदाना या आंवला मिलाकर उसे दे। ऐसे ज्वरी जिनमे दोनो पार्श्व भाग, वस्तिभाग एवं शिरमे शूल चल रहा हो दोनो से पडङ्ग परिभापा विधि से सिद्ध किये हुए जल से लाल साठी के चावलो की पेया बनाकर देना चाहिये। बहुत पित्त वाले या अतिसार वाले ज्वरी मे लाजपेया मे शु ठी और मधु मिलाकर पिलावे । ज्वरातिसार की अवस्था मे लाज-पेया को पृष्ठपर्णी, वला, विल्व, सोठ, नीलोत्पल एव धान्यक से सिद्ध करके देवे । हिक्का, श्वास एव कास होने पर पचमूल से सिद्ध लाजपेया को पिलावे । मलावरोध एव उदरशूल युक्त ज्वरी मे चविका, पिप्पलीमल, द्राक्षा, आंवला और मोठ में सिद्ध पेया पिलावे । ज्वर मे परिकर्तन जैसी पोडा होने पर वेर, वृक्षाम्ल, पश्निपर्णी, शालपर्णी और विल्व से सिद्ध पेया देवे । स्वेद एव निद्रा के न आने पर तृष्णायुक्त ज्वर के रोगी मे शर्करा, आंवला और सोठ से सिद्ध पेया पिलानी चाहिये । शर्करा, बेर, द्राक्षा, सारिवा, मुस्ता और चन्दन से सिद्ध पेया मधु के साथ तृष्णा, वमन, दाह और ज्वर का नाशक होती है। उपर्युक्त औषधियो से सिद्ध मण्ड, यूप, यवागू आदि पथ्य भी दिये जा सकते है। मण्ड, पेया, विलेपी और यवागू मे केवल बनाने का भेद मात्र है। कल्पना के भेट से जिसमे चावल के दाने न हो ऐसे सिद्ध चावल के द्रव भाग को मण्ड कहते है। जिसमे कुछ कुछ चावल के दाने हो उसे पेया कहते है । जिसमे अधिक चावलो के दाने हो उसे यवागू कहते है। जिसमे चावल के दाने अधिक और पानी बहुत कम हो उसे यवागू कहते है तथा जिसमे का जलाश विल्कुल सुखा दिया जाय उसे ओदन ( भात) कहते है। शाङ्गधर के मत से १ भाग चावल को पांच गुने जल मे पका कर ओदन बनाना चाहिये । विलेपी-चार गुने जल मे पका कर, मण्ड-चौदह गुने जल मे पकाकर, यवागू को पड्गुण जल मे पका कर, और अठारह गने जल मे पकाकर यूप बनाना चाहिये। इनमे क्रमशःयूप से मण्ड, मण्ड से पेया, पेया से विलेपी, विलेपी से यवागू और यवागूसे ओदन गुरु होता है। इनका प्रयोग क्रमश एक के बाद दूसरेका व्यवहार करना होता है। जब रोगी को प्रथम दिन यूष दिया पचने लगा तो दूसरे दिन मण्ड देना चाहिये। फिर यह भी पचने लगे तो तीसरे दिन पेया एव यवागू आदि का क्रमशः प्रयोग करना चाहिये । ज्वर के प्रारभिक सप्ताह में अन्नकाल मे यूष, पेया या यवागू का प्रयोग औपधि सिद्ध करके किया जा सकता है। मात्रा--जो मनुष्य जितना चावल खाता है उसका चौथाई परिमाण मे चावल लेकर उसका मण्ड या पेया बनाकर देना चाहिये । मण्ड, पेया, विलेपी. Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ .भिषक्कम-सिद्धि यवाग और मोदन बनाने के लिये पुराने चावल का प्रयोग खाम कर पुराने साठी के चावल या कोई भी लाल रंग के चावल का उपयोग करना चाहिये। मण्ड और पेया के लिये धान्यलाज ( धान के खील ) का ही व्यवहार होना चाहिये । क्योकि ज्वरकाल में इनका प्रयोग ज्वरनागक होता है। ____ मण्ड, पेया, विलेपी, कृशरा ये सभी यवागू कहलाती है। यवागू बनाने के लिये पुराने चावल को क्ट देवे ताकि एक एक मे प्रायः चार टुकडे हो जायें । कृगरा (खिचडो ) बनाने की विधि यह है कि छ. गुने जल में चावल, मूग की दाल या उडद की दाल या तिल छोडकर पकावे । यह न वहुत पतली या न ज्यादा गाटी । यह वलकारक एव वातनाशक होती है। जब रोगी की अग्नि तीव हो, मण्ड, पेया, विलेपी, यवागू, मोदन आदि क्रमश दिया जा चुका हो तो उस रोगी को देना चाहिये। . __भोजन की पेया प्रभृति विविध कल्पनावो के होते हुए भी व्यवहार में मूग की दाल की कृगरा का अधिक प्रयोग होता है । जब रोगी की अग्नि-पाचन शक्ति बहुत क्षीण हो तो उसे जो का यूप ( वाट्यमण्ड) या लाजपेया (धान के खोल का मण्ड ), साबूदाना, हल्के गाको के यूप आदि दिये जाते है । जव ये पचने लगते हैं और रोगी की पाचव गक्ति बढती है तो पतली खिचड़ो और पुन. गाटी खिचडी देने का विधान किया जाता है। अधिक व्यावहारिक पथ्यो का विस्तार के साथ आगे वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है। . संतपण या फलरस-कई प्रकार के ज्वरोमें पेया का निपेत्र शास्त्रो मे पाया जाता है। जैसे मद्य के कारण उत्पन्न ज्वर में, नित्य मद्य पीने वाले मनुष्य में, ग्रीष्मकाल मे, पित्त या कफ की अधिकता होने पर, रोगी को प्यास वमन और दाह अधिक होने पर तथा ऊर्ध्वग रक्तपित्त में पेया नही देनी चाहिये। क्योकि पेयादि उष्ण होते है। इन अवस्था में शीतल पेयो की अपेक्षा रहती है। उस अवस्था में पोपण के लिये ज्वरनागक हल्के, सुपाच्य, पुष्टिकर- फलो के रस' (जैसे अगर, मोसम्मी, मोठा नीबू, अनार, कागजी नीबू, गाम्भारी के फल, शहतूत, फालसा, मिश्री, मधु तथा धान के खील के सत्त-मिश्री यौर मधु से बनाये गर्वत) मिश्री या मधु का जल देना चाहिये। - उचरिताना वाल्या.य. शस्त १ रवतगाल्यादय. गस्ता पुराणा. पष्टिक सह । बवाग्बोदनलाजार्थ ज्वरिताना ज्वरापहा. ॥ २. द्राक्षादाडिमकाश्मर्यपथ्यापीलुपत्पकै । ज्वरघ्ने । (म संग्रह) Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ चतुथ खण्ड : प्रथम अध्याय मासरस-अधिक परिश्रम, उपवास तथा वात इन कारणो से उत्पन्न हुए ज्वर में रोगी के क्षीण होने पर तथा अग्नि के दीप्त रहने पर उसे मासरस और चावल पा भात ( तएड्रलौदन ) खाने को देना चाहिये । आमिपभोजी रोगियो मे लावक ( जगली वटेर), कपिञ्जल ( जंगली तीतर ), हिरण, पृपत (हिरन को कोई जाति ), शरभ, शग ( खरगोश ), कालपुच्छ, कुरंग, मगमातक प्रभृति हल्के मासो का उपयोग करना चाहिये। ज्वरकाल मे कई वार प्रोटीनयुक्त आहार आवश्यक होते है। आज कल कई प्रकार के मासरस ज्वरकाल में व्यवहृत होते है । जमे:-'हाईन्यूट्रान' (हिन्द)। मासरन को रोगी की रुचि के अनुसार, अनारदाना या आँवला डालकर घोटा खड़ा बनाकर या विना खट्टा किये भी दिया जा सकता है। इसके अभाव में चरने वाले बकरे के लघु अवयव के मास का रस भी दिया जा सकता है। वकरा भी जाङ्गलवत् माना गया है और मानव शरीर के लिये सात्म्य है। । दालके यूप-मग, मसूर, चना, कुलत्थ, मकुष्ठ इनमे से किसी एक दाल को अठारह गने जल में सिद्ध करके आहार-काल मे पोपण के लिये रोगी को दे । यह दाल का यूष कहलाता है। शाक-यूप-परवल के पत्ते एव फल, वैगन, करेला, कर्कोट ( ककोडे, खेखसा), पित्तपापडा की पत्ती, गोजिह्वा (गाजवां ), छोटी मूली, गुडूची को पत्ती, चौलाई, वथुवा, तिनपतिया (सुनिषण्ण ), चौपतिया ( चाङ्गरी), नीम का फूल, मारिप ( मरसा), प्रभृति तिक्त रसवाले शाक बिना घी-तेल आदि का छौंक दिये ही यूप के रूप मे बनाकर देना चाहिये । वाट्यमण्ड ( वार्ली वाटर)-जौ को कूटकर भूसी निकाल कर गूढी बनाकर फिर थोडा भूनकर चौदह गुने जल मे उबाले और छान लेवे तो उसे, बाट्यमण्ड कहते है । यह कफ एवं पित्त का शामक होता है। ज्वर के रोगी मे अतिसार भी चल रहा हो तो उस अवस्था मे बडा उत्तम पथ्य रहता है। इसमे थोडा नमक और कागजी नीबू का रस मिलाकर स्वादिष्ट भी किया जा सकता है ।२ आज कल बार्ली पर्याप्त मात्रा में वाजार में मिल जाती है। इसमें खडे दाने वाले वार्ली का प्रयोग करना चाहिये चूर्ण का नही । १ उपवासश्रमकृते क्षीणे वाताधिके ज्वरे । दीप्ताग्नि भोजयेत्प्राज्ञो नर मासरसौदनम || लावान् कपिञ्जलानेणान् पृषताञ्छरभाञ्छशान् । कालपुच्छान् कुरगाश्च तथैव मृगमातृकान् । मासार्थं माससात्म्याना ज्वरिताना प्रदापयेत् । (सु उ ३९) ईपदम्लाननम्लान् वा रसान् काले विचक्षण । प्रदद्यान्माससात्म्याय ज्वरिताय ज्वरापहान॥ २ सुकण्डितैस्तथा भृष्टाट्यमण्डो यवैर्भवेत् । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिषक्कर्म-सिद्धि सावूढाना — इसका वर्णन आयुर्वेदिक प्राचीन ग्रंथो मे नही पाया जाता है । यूनानी चिकित्सको के सम्पर्क से इस का प्रवेश ज्वरकाल के पथ्य के रूप मे लोक में हुआ है | साबूदाना के पेडका फल होता है। यह वडा लघु, सुपाच्य एव पित्तशामक होता है, ज्वरकाल मे इसका भी मण्ड बनाकर दिया जा सकता है । लाजमण्ड या पेया -- इसका वर्णन विस्तार से ऊपर हो चुका है । यहाँ पर एक अधिक व्यावहारिक विधि का उल्लेख मात्र करना ही लक्ष्य है । धान के लावा को या भुने चावल को चौदह गुने जल मे उबाल कर छान लेवे । इसे लाजमण्ड कहते है । यह भी कफपित्तशामक, तृपाशामक और ग्राही होता है । दूध का पानी - दूध को गर्म करके उसमे नीबू का रस या इमली डालकर दूध को फाड देवे, पञ्चात् छेने को पृथक् करके केवल पानी का भाग रखले और रोगी को बीच-बीच में पिलाता चले । यह नित्य ताजा बनाना चाहिये। यह पित्त'शामक हल्का पथ्य है । जव दोप प्रवल हो, रोगी की अग्नि बहुत मद हो, मन्थर ज्वर या सान्निपातिक ज्वर हो तो यह पथ्य उत्तम रहता है । २०८ दूध - प्राचीन ग्रंथकारो ने नव ज्वर में दूध का निपेध किया है। नवज्वरी को पथ्य रूप में दूध नही देना चाहिये । इतना ही नही ओषधि के देने की भी व्यवस्था एक सप्ताह तक ज्वर मे नही की है । परन्तु व्यवहार मे औषधि भी दी जाती है और दूध का पथ्य भी । वास्तव मे औषधि का निपेध काष्ठीपधियो के अर्थ में है । 'आम दोप वाले तरुग ज्वर मे भेषज के प्रयोग से ज्वर और भी वढ जाता है' 'भेषजं ह्यासदोपस्य भूयो ज्वलयति ज्वरम् ।' भेषज का अभिप्राय काष्ठोपधियो से बने, देर में पचने वाले, गुरु द्रव्य जैसे - क्वाथ, चूर्ण, कल्क आदि से हैं क्यो कि ज्वर में अग्नि मद हो जाती है, आमदोप प्रवल रहता है अस्तु इन औपचियो के पचाने की क्षमता ज्वरित की अग्नि मे नही रहती है, परिणाम स्वरूप आमदोप वढ जाता है, ज्वर तेज हो जाता है । अस्तु, उपवास कराना ही उत्तम उपाय रहता है । जवसे चिकित्सा मे रस के योगो का प्रयोग होने लगा है, भेपज निपेव का प्रश्न ही नही उठता । क्योकि ये अल्प मात्रा मे प्रयुक्त होती है । साथ ही तीव्र पाचक होती हैं अस्तु इनका विधान किया जा सकता है। ये ओपधियाँ अधिकतर विपो के सयोग से निर्मित होती है अस्तु विपन पथ्य क्षीर (दूध ) का निषेध भी नव ज्वर मे अनुचित प्रतीत होता है । अस्तु रसौपधियो के प्रयोग काल मे नव ज्वर मे यदि रोगी की अग्नि अनुकूल हो और रोगी को सात्म्य हो तो दूध पथ्य रूप मे दिया जा सकता है । दूध गाय का उत्तम होता है । परन्तु अतिसार हो तो ज्वरित को यजा-क्षीर ( बकरी का दूध ) भी दिया जा सकता है | दूध को गर्म करके ठंडा करके या Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : प्रथम अध्याय २०६ पिप्पली या शुण्ठी शृत करके देना चाहिये। इसके लिये दूध मे आधा पानी मिलाकर खौलाने के लिये आग पर रखे एक कपडे को पोटली मे एक-दो पोपल या १-२ मागे सोठ बांधकर छोड दे। दूध खौल जाने पर एव पानी के थोडा जल जाने पर उतार ले और ठडा करके समय-समय से दे । मिश्री या ग्लुकोज का जल-खौलाये हुए जल मे मिश्री या ग्लुकोज का पानी मिलाकर बीच बीच मे पीने के लिये दे इससे एक उत्तम पोपण होता है। काल-इस प्रकार रोगी के बल और दोप का ध्यान रखते हुए छ दिन व्यतीत कर देना चाहिये । अर्थात् जिस दिन ज्वर हुआ उस दिन आरम्भ करके छः दिनो तक प्रतीक्षा करनी चाहिये । सातवे दिन लघु अन्न का मात्रा से सेवन करावे । पुन आठवें दिन से पाचन या शमन रिया के लिये काढा पिलावे । वास्तव में ज्वर में प्रथम छ. दिनो तक प्रारम्भ में एक-दो दिनो तक लघन पश्चात् मण्ड पेया आदि का प्रयोग करना चाहिये । और आमदोपो के कम हो जाने एवं ज्वर के हल्के होने की प्रतीक्षा करनी चाहिये । सामान्यतया इन उपक्रमो से छ दिनो में आम-दोपो का पर्याप्त पाचन हो गया रहता है। अस्तु सातवे दिन लघु अन्न देने का विधान है। पश्चात् सातवे या आठवें दिन से शेष दोषो के पाचन या शमन के लिये भेषज ( काष्ठौषधियो के क्षाय) का प्रयोग करना चाहिये। ___ चरक चिकित्सा स्थान तीसवें अध्याय मे ज्वरो मे छ दिनो को सख्या का माहात्म्य बतलाते हुए एक वचन पाया जाता है । जो ज्वर मे काल ( समय) की प्रतीक्षा के महत्त्व का दिग्दर्शक है। "ज्वर मे पेया छठे दिन तक, छठे दिन के पश्चात् कपाय, पश्चात् वारहवें दिन से क्षीर, पश्चात् अठारहवें दिन से घी तत्पश्चात् चौबीसवें दिन से विरेचन दोषो के बलाबल का विचार करते हुए देना चाहिये। चरक सहिता मे चिकित्सा के तृतीय अध्याय मे ज्वर के सबन्ध मे लिखा है कि १ एता क्रिया प्रयुञ्जीत षड्रात्र सप्तमेऽहनि । पिबेत् कपायसयोगाज्वरघ्नान् सावु साधितान् ॥ ( हारीत) इति पाड्रात्रिक प्रोक्तो नवज्वरहरो विधि । तत पर पाचनीय शमन वा ज्वरे हितम् ।। (खरनाद)। पाचन शमनीयं वा कपाय पाययेद् भिषक् । ज्वरित षडहेऽतीते लघ्वन्नप्रतिभोजितम् ॥ (च. चि ३) २ ज्वरे पेयाकपायाश्च क्षीर सर्पिविरेचनम् । षडहे षडहे देय वीक्ष्य दोषवलावले ॥ (च चि. ३०) १४ भि० सि० Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपक्कर्म-सिद्धि २१० मण्ड पेया प्रभृति यवागू का काल समाप्त हो जाने पर अर्थात् प्रथम सप्ताह के अनन्तर लघुभोजन दा दिनो तक ज्वर की शान्ति के लिये देना चाहिये । रोगी को अग्नि बलवती हो और कफ की अधिकता हो तो यूप का उपयोग, वात की प्रवलता हो और रोगी दुर्बल हो तो मातरस का उपयोग करना चाहिये । इस प या मासरम को आवश्यकतानुसार अनारदाने के बीजो को डाल कर अम्ल किया जा सकता है । फिर दस दिनो के बाद दोपो के परिपक्त्र हो जाने पर, कफके मद हो जाने पर, ज्वर मे वात-पित्त की अधिकता रहने पर गोघृत या औपधिकृत धी का पिलाना अमृत के समान लाभप्रद होता है । परन्तु इसके विपरीत अवस्था मे अर्थात् दोपो मे कफाधिक्य होने पर, अलंबित रोगी मे तथा दस दिनो के पूर्व घृतपान का निपेध है । इस दशा मे मामरम या यूप के साथ लघु भोजन देना ही प्रशस्त रहता है । यदि ज्वरी मे दाह और तृष्णा को अधिकता, ज्वर निराम हो गया हो, ज्वर का समय भी दो सप्ताह से अधिक हो गया हो तो रोगी को दूध पिलाना चाहिये । यदि विबन्ध रहता हो तो गाय का गर्म कर ठंडा किया दूध और यदि पतले दस्त हो रहे हो तो बकरी का दूध देना चाहिये । निराम ज्वर मे दूधरूपी पथ्य की प्रशंसा करते हुये वाग्भट ने लिखा है कि अग्नि से जले वन को जैसे बरसात का पानी जीवन देता है उसी प्रकार लघन ते उत्तप्त ज्वर के रोगी के शरीर मे दूव जीवन देता ह् ओर उसके ज्वर को नष्ट कर देता है : तद्वदुल्लङ्घनोत्तप्तं प्लुष्टं वनमिवाग्निना । दिव्याम्वु जीवयेत्तस्य ज्वरं चाशु नियच्छति ॥ यदि इन उपचारो के वावजूद भी ज्वर न शान्त हो रहा हो, ओर रोगी का वल-मास और अग्नि क्षीण न हुई हो तो विरेचन के द्वारा उपचार करना चाहिये । साथ ही यह भी ध्यान मे रखना चाहिये कि ज्वर से क्षीण रोगी में वमन करावे और न विरेचन | उसके मल के निर्हरण के लिये पर्याप्त मात्रा मे गाय का दूध पिलावे या निहवस्ति ( Enema ) से कोष्टगुद्धि करनी चाहिये । ज्वर काल मे विवध होने पर अधिकतर वस्ति के द्वारा मल का निर्हरण करना ही उत्तम होता है । वस्ति दो प्रकार की होती है - रूक्ष कोष्ठ शुद्धि के लिये तथा स्निग्ध पोषण तथा ज्वर के नागन के लिये । कई प्रकार की ज्वरध्न अनुवासन वस्तियो का पाठ लष्टाङ्ग हृदय मे पाया जाता है । मद्योत्थज्वर, रक्तपित्त आदि मे जहाँ पर पेया का दिनो तक तर्पण के लिये लाजसत्तू तथा फलरसो का प्रयोग निषेध है - प्रथम छ. करना चाहिये । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : प्रथम अध्याय २११ आचार्य सुश्रुत का अभिमत यही है कि सात रात्रि के अनन्तर औषधि देनी चाहिये।' इस औषधि का लक्ष्य यह होता है-"लघन, उष्णजल, शृत शीत जल, यवागू आदि के उपयोग से यदि दोष का पाचन न हो सका हो और रोगी मे मुसवेरस्य, तृष्णा, अरुचि प्रभृति लक्षण विद्यमान हो तो पाचन, ज्वरघ्न एवं हृद्य कपायो के द्वारा सातवे दिनसे उपचार करे। तरुग ज्वरमे प्रथम सप्ताह तक कषाय का निषेध -आम ज्वरमे कषाय निपिद्ध है । ऐने ज्वरोमे आम दोप बढा रहता है, अत: लघन कराया जाता है, ऐसी स्थितिमे कपाय रस का सेवन कराया जाय तो दोपोका स्तभन हो जाता है वे अधिक कुपित होते है और उनका प्राकृतावस्थामे लाना दुष्कर हो जाता है । विपम स्वरूपका ज्वर पैदा होता है । वस्तुत पचविध कषाय-कल्पनाके विचारसे (स्वरम, कल्क, शत-शीत, फाण्ट एवं कषाय ) सभी कपायोका सेवन निपिद्ध नही है अपितु जो कपाय, कपाय रस वाली ओपधियोसे बनाये गये हैं उनका ही उपयोग निपिद्ध है । कुछ आचार्योका मत है कि यहा पर निषिद्ध कपायसे उस कल्पनाका अर्थ अभिप्रेत है जो कि सोलह गुने जलमे पकाकर चौथाई अवशिष्ट रखकर (क्वाथ ) बनाये जाते है। इस का नवज्वर मे प्रथम छ दिनो तक या एक सप्ताह तक पिलाना निपिद्ध है। क्योकि इस कल्पनामे औषधि का अश अधिक आ जाता है, स्वाद भी अरुचिकर हो जाता है, ये क्वाथ अधिकतर कटुतिक्त रस वाली औपधियाके योग से बनते है, जिन्हे स्वभावत मनुष्य पोना नही चाहता, पीने से रोगो मे घबराहट और वेचैनी होती है-आम 'दोष अधिक तीव्र हो जाता है तथा ज्वर बढ जाता है। उक्त औपवियोके बने स्वरस, शतशोत जल, शीत कषाय या फाण्टका प्रयोग तो कर ही सकते है क्योकि इनमे औपधि का अश कम होता है, जल की मात्रा १ सप्तरात्रात्पर केचिन्मन्यन्ते देयमौषधम् । लङ्घनाम्बुयवागूभिर्यदा दोपो न पच्यते ॥ तदा त मुखवरस्यतृष्णारोचकनाशन । कषाय पाचनह द्यैवरघ्न समुपाचरेत् ।। (सु उ तत्र ३९) २ स्तभ्यते न विपच्यन्ते कुर्वन्ति विषमज्वरम् । दोषा बद्धा कपायेण स्तम्भित्वात्तरुणे ज्वरे। न तु कल्पनमद्दिश्य कषाय प्रतिषिद्धयते। य. कषाय कषाय स्यात्स, वय॑स्तरुणे ज्वरे ॥ च चि ३। न कषाय प्रयुञ्जीत नराणा तरुणे ज्वरे । कषायण कुलीभूता दोप जेतु सुदुष्कर । न तु कल्पनमुद्दिश्य कपाय प्रतिषिद्धयते । य काय कपाय स्यात्स वज्यस्तरुणे ज्वरे ॥चतुर्भागावशिष्टस्तु य पोडशगुणाम्भसा। सपाय कपाय स्यात् स वय॑स्तरुणे ज्वरे ॥ फाण्टादोना प्रयोगस्तु न निपिद्धतीचन । ( शाङ्ग)। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ भिपकर्म-सिद्धि अधिक होती है, जिससे ये रुचिकर, लघु एव गोत्र पचने वाले हो जाते है। चतुर्गण जलमे औपधिको छोडकर कुछ मिनट तक आगपर रख कर मल कर छान लेने को फाण्ट ( जसे चाय बनाई जाती है ) कहते हैं। छ गुने जल मे औपवि को शाम को भिगो कर सुवह छान लो जाती है। उसे गीत कपाय या हिम कहते है । स्वरस की मात्रा अल्प रहती है और रस को ओपधियो के अनुपान रूप में व्यवहृत होते है अस्तु इनका प्रयोग विधेय हो जाता है । शृत-गीत जल की कल्पना का ऊपर में उल्लेख हो चुका है इस मे काष्ठौपधि की मात्रा अधिक गाढी (Concentrated) नही होती प्रत्युत हल्की (Dilute) रहती है और तरुण ज्वर मे उपयोग मे लाये जा सकते है । इस प्रकार कई आचार्य सात दिनोके पश्चात् औपधि देने को कहते है, दूमरे दस दिनोके बाद मीपधि देने का उपदेश देते है। कुछ लघु भोजन देने के अनन्तर भेपजका विधान करते है। वास्तवमें काल की प्रतीक्षा एक उपलक्षण मात्र है आम की अधिकता रहने तक ओपवि नही देनी चाहिये । यह बात सर्वमान्य है। अवस्था भेद से तीनो पक्ष मान्य है।' भेपज तिक्त रस या कपाय:-इसके अनन्तर ज्वरनाशक क्वाथो का उपयोग ज्वर की चिकित्सामे करना चाहिये। क्वाथ या कपाय के बनाने की कई परिभाषायें हैं-जैसे-द्रव्य से चतुर्गुण या अष्टगुण या पोडग गुण जल छोड़ कर, खौला कर चौथाई ( पादावशेप) वचा कर छान कर पिलाना। उनमे तीसरी विधि का जिममें पोडगगुण जल मे औपधि को खौलाया जावे और चतुर्थाश बचा लिया जावे अधिक मान्य है। यही सर्वोत्तम है। क्वाय के निर्माण के लिये मिट्टी के वर्तन होने चाहिये और मध्यम आच पर क्वाथ का पाक होना चाहिये। क्वाथ में अरुचि हो तो ठंडा कर के एक तोला मधु मिला लेना चाहिये । क्वाथ का दिन मे एक वार प्रात काल मे प्रयोग होना चाहिये । आवश्यकताके अनुसार सायं काल में भी उसो क्वाथ्य द्रव्य में पानी डाल कर पुन खोला कर क्वाथविधि से जल को शेप कर पिलाना चाहिये। ज्वरघ्न कपाय अधिकतर तिक्त रस ( Bilter ) होते हे। क्वाथ्य द्रव्यो की जहाँ पर मात्रा नहीं लिखी है-समान मात्रा में लेना चाहिये और उस का जवकुट ( क्रूट ' छोटे छोटे टुकड़े ) कर लेने चाहिये फिर २ से २१ तोला द्रव्य को लेकर उन्ने ३२ तोले जलमे खोला कर ८ तोले शेप कर लेना चाहिये । साफ कपडे सप्ताहादीपवं केचिदाहुरन्ये दगाहत. । चिल्लध्वन्नभुतस्य योज्यमामोल्बणे न तु । ( अ हृ चि १) Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : प्रथम अध्याय २१३ मे छान कर पिलाना चाहिये । कपाय अधिकतर आम दोप के पाचक या सशामक होते है । इसी अर्थ मे क्वाथ का पर्याय वगला भाषा मे पाचन हो जाता है । ज्वर एकदोपज, द्विदोपज ( ससर्गज ) अथवा त्रिदोषज ( सान्निपातिक) हो सकते है । वात, पित्त अथवा कफ शामक तो बहुत सी ओषधियाँ है उनका उपयोग करते हुए एकदोपज व्याधियों का उपचार हो सकता है, परन्तु जब दो दोषो का समर्ग या तोनो दोपो के सन्निपात से रोग उत्पन्न हो जाय तो चिकित्सा में कठिनाई पैदा होती है । इसका विधान यह है कि ससृष्ट दोपो मे दो दो वर्ग की औपनियो का सयोजन करके और सन्निपात मे सम, तर या तम दोपो का विचार करते हुए यथोक्त दोप- शामक औषधियो से उपचार करना चाहिये । क्षीण दोपो के वर्धन करने वाले योग तथा वढे हुए दोपो के ह्रास करने वाले दोनो का प्रयोग करते हुए यथायोग्य औषधियो का योग करना चाहिये । कुछ कपाय रूप मे प्रयोग मे आने वाले योग तथा औषधियो का सग्रह नीचे दिया जा रहा है । " १ सामान्य योग – १ धान्य- पटोल-धान्यक एव पटोल का काढा | २. किराततिक्तादि कपाय - चिरायता, नागरमोथा, गिलोय, सोठ, पाढ, खस तथा सुगंध वाला का कपाय । ३ पथ्यादि कपाय- हरीतकी को अमलताश, आमला और निशोथ का काढा | विशेष योग - वातिक ज्वर में - १ किरातादि क्वाथ - चिरायता, नागरमोथा नीम, गिलोय, छोटी-बडी कटेरी, गोखरू, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी और सोठ का काढा । पित्त ज्वर मे - १ पर्पटादि - पित्तपापडा, लाल चन्दन, खस और सुगंधवाला का कपाय । २ द्राक्षादिकपाय - द्राक्षा, हरीतको, नागरमोथा, कुटकी और अमलताश की मज्जा का काढा | श्लेष्म ज्वर मे - १ निम्वादिकपाय - नीम की छाल, सोठ, गिलोय, देवदारु, कचूर, चिरायता, पुष्करमूल, पीपल, गज-पीपल तथा वडी कटकारी का काढा । २ चतुर्भद्रावलेहिका - कट्फल, पुष्करमूल, काकडा सीगी और पुष्करमूल - समान मात्रा लेकर महीन चूर्ण बनाकर मधु से चाटना | वात-पित्तज्वर - १ पचभद्र क्वाथ -पर्पट, मुस्तक, गुडूची, शुठी और चिरायता का काढा २ मधुकादि शीतकपाय - मुलैठी, श्वेत सारिवा, कृष्ण सारिवा. १ ससृष्टान् सन्निपतितान् बुद्ध वा तरतमै समै । ज्वरान् दोषक्रमापेक्षी यथोक्तैरौषधैर्जयेत् । वर्धनेनैकदोषस्य क्षपणेनोच्छ्रितस्य बा ॥ ( चचि ३) Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ भिपक्कम-सिद्धि मुनक्का, महुवे के फूल, लाल चदन, नीलकमल, गाम्भारी की छाल, पदमकाट, लोध्र, हरे, वहेरा, आंवला, कमल केसर, फालमा, स्वम और धान का लावा इन द्रव्यो को सम भाग मे लेकर, कूट कर शुद्ध जल मे भिगोकर मिट्टी के पात्र में भर कर रात भर रख दे। प्रात.काल में साफ हायो ने मसल कर छान कर उसमे शहद ६ मागे और चीनी ६ माशे मिलाकर ज्वरी को पिलाना चाहिये । प्रात -सायम् दिन में दो बार पिलावे । पित्तश्लेष्म ज्वर-१ पटोलादिकपाय-पटोल पत्र, नीम की छाल, हरे, वहेरा, आंवला, मधुयष्टि और बला में सिद्ध कपाय । २. अमृहताष्टक कपाय-गुडूची नीम की छाल, कुटकी, मोथा, इन्द्र जौ, सोठ, परवल की पत्ती और लाल चंदन इन द्रव्यो से सिद्ध कपाय में पिप्पली का चूर्ण ४ रत्ती की मात्रा में मिलाकर पिलाना । ज्वर, छदि, तृपा और दाह को नष्ट करता है। वातश्लेष्म ज्वर-१ दगमूल क्वाथ में पिप्पली चूर्ण एक माशा का का प्रक्षेप डालकर पीना। २ आरग्वधादि पाय-अमलताग की गुद्दी, पिपरा मूल, मोथा, कुटकी, हरे के टिल्के का काटा। ३ कंटकारी मूल, गुठी, मुची पुटष्कर मूल का काढा । कास, वास तथा पार्श्वगूल में लाभप्रद । त्रिदोषज ज्वर-इम ज्वर का स्वतत्रतया एक अव्याय में उल्लेख किया जायगा । यहाँ पर एक इङ्गित मात्र के लिये इस प्रकार के स्वर में व्यवहृत होने वाले कुछ कपायो का नामोल्लेख किया जा रहा है। १ द्वात्रिशाङ्ग क्वाथ-भारङ्गी, चिरायता, नीम की छाल, नागर मोथा, कुटकी, मीठावच, सोठ, पीपल, मरिच, अडूसे की पत्ती, इन्द्रायण को जड़ को छाल, रास्ना, अनन्तमूल, परवल का पत्राग, देवदार, हल्दी, पाढल, तेदू, ब्राह्मी, दारुहल्दी, गुर्च, अगस्त, चीड, लालकमल, त्रायमाणा, भटकटैया, वनभण्टा, कुडे, की छाल, आँवला, हरे, वहेरा और कचूरको सम भाग लेकर क्वाथ बना कर पीना । २ बृहत्कटफलादि-कायफल, नागरमोथा, वचा, पाठा, पोहकरमूल, काला जोरा, पित्तपापडा, काकडा मिनी, इन्द्रयव, धनिया, कचूर, भृगुराज, पिप्पली, कुटकी, हरड, चिरायता, भारङ्गी, घृतजित होग, वला (वरियारा), दशमूल की योपवियाँ और पिपरामल इन सवको बराबर-बराबर क्वाथ वना कर घृतजित होग ३ रत्ती, आदी का स्वरस १ तोला मिला कर पीना । ३ अष्टादशाङ्ग क्वाथ-चिरापता, देवदार, गालिपर्णी, पृष्ठपर्णी, छोटी कटेरी, वढी कटेरी, गोखरू, वेल की छाल, स्योनाक, गम्भारी की छाल, पाढल, अरणी की छाल, सोठ, मोथा, कुटकी, इन्द्रजी, पुरानी धनिया, गजपिप्पली का काटा बना कर प्रात काल में पीना । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : प्रथम अध्याय २१५ नवज्वर मे वर्जनीय आहार विहार - तरुण ज्वर मे दिन का सोना, स्नान, तेल की मालिश, गुरु अन्न का सेवन, क्रोध, पूर्व दिशा की वायु का सेवन, अनेक प्रकार के व्यायाम और कपाय का प्रयोग करने वाला वैद्य अपने हाथ से सोते हुए कृष्ण सर्प को जागृत करता है । क्योकि कपाय-पान से क्षुभित हुए दोपो का शमन करना कठिन हो जाता है । नवज्वर में दिन में दो वार भोजन नही देना चाहिये । कफवर्धक, भारी एवं रस-वाहक नोतो का अवरोव करने वाले अभिष्यन्दी आहार - जैसे- दही, उडद प्रभृति पदार्थों को नही देना चाहिए। ऐसे ही गुरु पदार्थ घृतपक्व आहार, गोधूम के देर मे पचने वाले भोजन तथा रात मे (खासकर ९ बजे के बाद) भोजन देना निषिद्ध है । 1 शीतल स्त्री इसी प्रकार स्नान, प्रदेह ( अगुरु- चदन आदि का शरीर में लेप ), जल का परिपेक, वमन विरेचन आदि से देह का संशोधन, दिन मे शयन, सग, विविध प्रकार के शरीर के आयासजनक व्यायाम, कच्चे ठडे जल का पीना, हस्त-पादादिका प्रक्षालन, किसी कारणवश क्रोध करना, हवा के झोके मे सोना, बैठना, घूमना आदि का, गरिष्ठ (देर मे पचने वाले ) भोजनो का वर्जन करना चाहिये । जैमे - दूध, घी, दाल, मास, छाछ, मदिरा, मीठे और गुरु पदार्थ । ज्वर से मुक्त होने के अनन्तर भी रोगी को जब तक पूर्ववत् वल का अनुभव न होने लगे, तब तक व्यायाम, मैथुन, स्नान और अधिक टहलना ये चार कर्म नही करने चाहिये । १ १ स्नान विरेक सुरत कपायो व्यायाममभ्यञ्जनमह्नि निद्राम् । दुग्ध घृत वैदलमामिप च तन सुरा स्वादु गुरु द्रवञ्च ॥ अन्न प्रवात भ्रमण रुपाञ्च त्यजेत्प्रयत्नात् तरुणज्वरार्त्त । नवज्वरे दिवास्वप्रस्नानाभ्यङ्गान्नमैथुनम् । क्रोधप्रवातत्र्यायामकपायाश्च विवर्जयेत् ॥ न द्विरद्यान्न पूर्वाहणे नाभिष्यन्दि कदाचन । न नक्त न गुरुप्राय भुञ्जीत तरुणज्वरी ॥ ( भै र ) सज्वरो ज्वरमुक्तश्च विदाहोनि गुरुणि च । असात्म्यान्यन्नपानानि विरुद्धानि विवर्जयेत् ॥ व्यायाममतिचेष्टा च स्नानमत्यशितानि च । तथा ज्वर शम याति प्रशान्तो जायते न च ॥ व्यायाम च व्यवाय च स्नान चक्रमणानि च । ज्वरमुक्तो न सेवेत यावन्न वलवान् भवेत् ॥ चचि ३ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ भिपकर्म-सिद्धि सामान्य ज्वर में रसौषधियॉ-काठीपधियो से चिकित्सा करते हुए उपर्युक्त वहुविध विचारणावो की आवश्यकता रहती है, परन्तु रमोपचियो के प्रयोग में रोगी, रोग, दोप, दूष्य, देश, काल प्रभृति वातो के परिज्ञान की अपेक्षा नही रहती है। क्योकि रस-चिकित्सा अचिन्त्य भक्ति से युक्त होती है। रसचिकित्सा की प्रशंसा मे हम लोग पूर्व में देख चुके है कि १ 'उत्तमो रमवैद्यस्नु २ 'अल्पमात्रोपयोगित्वादरुचेरप्रमगत ! क्षिप्रं च फलदातृत्वादोपविभ्योऽधिको रस ।। अर्थात् रस योगो को मात्रा अल्प होती है, अरुचि का प्रश्न नही उठता और शीघ्रता से रोगी को लाभ पहुचता है, अस्तु, काप्टोधियो से रसीपधियो की श्रेष्ठता स्वत सिद्ध है। फलत कपायादिके प्रयोग में जहां काल का विचार अपेक्षित रहता है जैसे नव ज्वर में 'कपायस्त्वष्टमेऽहनि, वहाँ पर रस योगो का प्रारभ से उपयोग किया जा सकता है। उसी प्रकार नव ज्वर में सामान्यतया दूध का निपेव पाया जाता है, परन्तु रस योगो के उपयोग मे नव ज्वर में दूध का निपेध उचित नही प्रतीत होता है क्योकि रस योगो में अधिकतर विपो का उपयोग पाया जाता है , अस्तु क्षीर विषघ्न हो कर इस काल में अनुकूल या पथ्य के रूप में गृहीत हो सकता है। भैषज्यरत्नावलीमे उक्ति मिलती है न दोषाणां न रोगाणां न पुंसां च परीक्षणम् । न देशस्य न कालस्य काय रसचिकित्सिते ।। फलत. सम्पूर्ण शास्त्र का जानने वाला ही क्यो न हो यदि रसचिकित्सा का जानकार नही है तो वह उसी प्रकार उसहास का पात्र है जिस प्रकार धर्माचरण से होन पण्डित । 'सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञो न जानाति रसं यदा । सर्व तस्योपहासाय धर्महीनो यथा बुध. ।' मग्रह ग्रथो में बहुत सा रस के योगों उल्लेख पाया जाता है, कुछ एक अनुभवसिद्ध योगो का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है । मृत्युंजय रस-गुढ वत्सनाभ चूर्ण १ भाग, मरिच चूर्ण १ भाग, पिप्पली चूर्ण १ भाग, शुद्ध गधक १ भाग, शुद्ध सुहागा १ भाग, शुद्ध हिंगुल २ भाग। आईकस्वरस में घोट कर १-१ रत्ती की गोली बना लें। वात ग्लैष्मिक ज्वर या विदोपज ज्वर में। अदरक के रस एवं मधु से उपयोग करे। एक पाठ कृष्ण मृत्यु जय का भी है जिसमे हिंगुल के स्थान पर कज्जली का प्रयोग किया जाता है। २ हिंगुलश्वर रस-पिप्पली चूर्ण, शुद्ध हिंगुल, शुद्ध वत्सनाभ विप । इन तीनो को खरल में डाल कर महीन पीस कर रख ले। माया रत्ती से, अनुपान आईक स्वरस और मधु । वातिक ज्वरमें लाभप्रद । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : प्रथम अध्याय २१७ ३ गोदन्ती भस्म-गोदन्ती को साफ करके निम्ब पत्र स्वरस, घृत कुमारी स्वरम या करज स्वरस की भावना देकर गजपुट मे भस्म कर ले। फिर पंत्तिक ज्वरो मे पित्त के शमन के लिये, शिर शूल को कम करने के लिये स्वतत्र या उपर्युक्त योगो मे मिला कर प्रयोग करे। मात्रा-१-२ मागा । अनुपान-जल, दूध, मधु, घृत एव शर्करा : ४ रसादिवटी-शुद्ध गधक, कपूर, श्वेत चदन, जटामासी, नेत्रवाला, नागरमोथा, सम, छोटी इलायची, नारियल-प्रत्येक सम भाग । प्रथम पारद गधक को कजली करे फिर अन्य द्रव्यो को मिलावे । गुलाव जल मे खरल कर दो-दो रत्ती को गोली बना ले या छाया में सुखा कर चूर्ण रूप में रख ले । मात्रा-२-४ रत्तो। जल, गुलाब जल या चदनादि अर्क के साथ दाह, नृपा ८ हिक्का एव वमनयुक्त ज्वर में लाभप्रद । ५. त्रिभुवनकीर्ति रस-शुद्ध हिंगुल, शुद्ध वत्सनाभ, सोठ, काली मिच, छोटी पीपल, गुद्ध टकण और पीपरामूल प्रत्येक का सूक्ष्म कपडछन चूर्ण सम भाग लेकर अदरक, तुलसी और धतूरे के रस से प्रत्येक की तीन भावना देवे कागजी नीबू के रस की ३ भावना देकर १-१ रत्ती को गोली बना कर रख ले । माना-१-१ गोली दिन में चार बार-अनुपान-आर्द्रक स्वरस एव मधु । उपयोग-नव ज्वर मे जिसमे प्रतिश्याय नाक से स्राव मिले । (Influenza) इन्फ्लुयेन्जा मे विशेष लाभप्रद यह योग है। ६ सजीवनी योग-सजीवनी ४ वटी, शृग भस्म ४ रत्ती और शुद्ध नरसार १ माशा । मिलाकर ४ मात्रा मे बांट ले। चार-चार घटे के अनन्तर एक-एक मात्रा गर्म पानी के अनुपान से दे। नव प्रतिश्याय, वातश्लेष्मज ज्वर, जुकाम एव इन्फ्लुयेन्जा मे यह एक शतशोनुभूत व्यवस्था है। तीन चार दिनो के उपयोग से रोगी रोगमुक्त हो जाता है। ७ अश्वकञ्चकी रस-जयपाल (ज्मालगोटा) युक्त कुछ योग नव ज्वर में प्रगस्त माने गये है। रोगी के बल एव काल के अनुसार विवन्ध युक्त नव ज्वर मे इनका उपयोग किया जा सकता है। जैसे ज्वरकेशरीरस, विश्वताप- । हरण रस तथा अश्वकचुकी । इनका ज्वरोके अतिरिक्त अन्यत्र उदर विकारो मे भी उपयोग किया जा सकता है। यहां पर अश्वकचुकी रस का एक पाठ दिया जा रहा है। शुद्ध पारद, आगपर फुलाया सुहागा, शुद्ध गधक, शुद्ध वत्सनाभ, सोठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, हरड, बहेरा, आँवला, शुद्ध हरताल या माणिक्यरस और Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ भिपकम - सिद्धि शुत्र नमाल गोटा सम भाग में ले | प्रथम पाद एव गंधक की जली करे | पीछे हरताल मिला कर जब तक उसके सूक्ष्म कण भी न दिखाई दे खरल कर । फिर अन्य द्रव्यों को मिलावे | फिर भागरले के रस मे २१ भावना देकर २- २ रत्ती की गोलियां बना ले | मात्रा -१ गोली दिन मे तीन वार | अनुपान अदरक का रस, मिश्री या जल | * द्वितीय अध्याय त्रिदोषज ज्वर में चिकित्सा का बडी कठिनाई उपस्थित होती है क्योकि विदीप नामक द्रव्य प्राय नही होते । जो उपचार बात के लिये पथ्य होता है वह ब्लेप्मा के लिये अपथ्य हो जाता है, जो जवि पित्त में पथ्य हैं वे प्राय. क्फ के लिये अपथ्य हो जाती है । जो तिक्त और कपाय द्रव्य कफपित्तहर होते हैं वे वात को करने वाले सिद्ध होते हैं । मधुर रस जो वातपित्त का शामक होता है वह कफ का वर्द्धक होता है | जो वास्तव में त्रिदोषशामक यामलको प्रभृति कुछ ओवियाँ है वे बहुत थोडी है । वे भो प्रति रोग के लिये नियत नहीं है और निश्चित रूप से ज्वर के यौगिक रूप में व्यवहृत होने वाली भी नहीं है । तो फिर मन्निपातज ज्वर में चिकित्सा कैसे को जाने ? चिकित्सा सूत्र - सन्निपात से उत्पन्न ज्वरो मे चिकित्सा सूत्रो का उल्लेख करते हुये चरकाचार्य ने दो प्रधान विधियां बतलाई हैं :-- * वर्धनेनैकदोषस्य रूपणेनोच्छ्रितस्य वा । अर्थात् एक हीन दोप के बटाने लथवा एक बड़े दोप के लपण ( ह्रासन ) करने से । स. कफस्थानानुपूर्व्या वा सन्निपातब्बरं जयेत् । अथवा कफ स्थान का सर्वप्रथम उपचार करने के पश्चात् दूसरे दोपी के अनुसार उपक्रम करते हुए सन्निपात जन्य ज्वरो को जीतना चाहिये । मन्निपातज ज्वरो के पच्चीन भेद वतलाये गये है । इन में क्षीण दोष मे उत्पन्न बारह प्रकार के मन्तिपाती में दोपों में ज्वरारम्भक गुण ही नहीं होता है, क्योकि क्षीण हुए दोप अपने लक्षणो के हानिमात्र ( अभाव ) को ही उत्पन्न कर सकते है विना बढे ये ज्वरादि को पैदा नहीं कर सकते हैं । गेप जो तेरह प्रकार के त्रिदोषज स्वर होते हैं उन में त्रिदोपहर ज्वरघ्न द्रव्यों के अभाव मे दोपो Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : द्वितीय अध्याय २१६ के वटाव, घटाव या समता का विचार करते हुए चिकित्सा का निर्धारण करना पडता है । एतदर्थ वृद्धतर और वृद्धतम दापो का क्षपण करते हुए, एक दोप को बटाते हुए चिकित्सा की जाती है । जैसे वढे हुए कफ एव वृद्ध तर वातपित्त मे मधुर रम की ओषधि, यह वृद्धतर वात और पित्त का नाशक होते हुए क्षीण कफ को बढाते हुए भी वलवान् दोष का हन्ता होने के कारण से ज्वर का नाशक होता है । इसी प्रकार बटे कफ एव वृद्धतर पित्त दोष मे भो मधुर रस लाभप्रद होता है । अस्तु 'वर्धनेने कदोपस्य' इस सूत्र से दो उल्वण या तीन उत्वण, होन और मध्य दोषो से उत्पन्न दम सन्निपातो की चिकित्सा बतलाई गई । Sol क्षपणेनैकदोपस्य- - इस भाव का द्योतक दूसरा सूत्रार्द्ध पाया जाता है, इसका उपयोग अवशिष्ट सन्निपात ज्वरो मे किया जाता है। इसका भाव यह है क अत्यन्त साघातिक जो वृद्धतर या वृद्धतम एक दोप सन्निपात की अवस्था मे पाया जा रहा है उनका क्षपण ( ह्रासन ) करते हुए जो भेषज मिले उन से चिकित्मा करे । यद्यपि इस एक दोष के क्षपण का परिणाम यह होगा कि जो दो क्षीण है वे वढ जायेगे तथापि ऐसा ही करना चाहिये क्योकि प्रतिकार न करने से अत्यन्त वृद्धतम दोप ( बढा हुआ दोप ) सद्यो घातक हो जावेगा । अस्तु सर्वप्रथम वृद्धतम दोप का क्षपण करना ही अपेक्षित रहता है । फिर क्षीण दोपो की जो वृद्धि हो गई है वह कम हानिप्रद होगी और उसका क्रमश. उपचार करना भी सभव रहेगा । इम सूत्र से अनेकोल्वण तीन अवशिष्ट सन्निपातो की चिकित्सा बतलाई गई । दूसरे सूत्र का भाव यह है । कफ के स्थान से आमाशय का ऊपरी भाग ग्रहण किया गया है | स्थान ग्रहण से स्थानी कफ का भी ग्रहण हो जाता है | अस्तु मन्निपात से उत्पन्न ज्वरो मे सर्वप्रथम उपचार कफ तथा कफ स्थान का करना होता है । कफस्थान आमाशय है, और सभी ज्वर आमाशय - समुत्य ही होते हैं अस्तु सभी ज्वरो मे कफ स्थान का उपचार लंघन, पाचन आदि, चिकित्सा मे सर्वप्रथम उपक्रम होता है तो फिर सान्निपातिक ज्वर मे इस पर अधिक वल देने की क्या आवश्यकता है ? इस शका का निराकरण यह है कि यद्यपि यह सूत्र सभी ज्वरो मे सामान्य रूप से गृहीत है, परन्तु सन्निपात से उत्पन्न ज्वरो मे इसच अर्थात् कफ स्थान की लवन, स्वेदन और पाचन प्रभृति कर्मों से उपचार का अधिक महत्त्व और उसका विशेषतया ध्यान रखना चाहिये । दूसरी बात यह है कि सभी प्रकार के ज्वर के अतिरिक्त त्रिदोषज या सन्निपात से उत्पन्न रोगो मे सर्वप्रथम वात का उपचार किया जाता है, पश्चात् पित्त और तदनन्तर कफ का । वातस्यानुं जयेत्पित्त पित्तस्यानु जयेत्कम् । परन्तु Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० भिपकर्म-सिद्धि सान्निपातिक ज्वर में यह क्रम पूर्णतया बदल जाता है । यहाँ सर्वप्रथम कफ तथा कफ स्थान का उपचार करना आवश्यक होता है। एनदर्थ नये अभ्यासी को, अन्य सान्निपातिक उपचारो के साथ भ्रम न पैदा हो जाय आचार्य ने कफस्थानानु पूा वा कफस्थानानुपूर्वी उपक्रम पर अधिक जोर दिया है। ___इसके पश्चात् दोप को उल्बणता का ह्रासन या क्षीण दोप का वर्णन करते हुए उपचार का प्रारभ करना चाहिये ।। उपर्युक्त भाव का दूसरे शब्दो मे उल्लेख करते हुए आचार्य भेलने बतलाया है कि सन्निपात ज्वर मे प्रथम लघन, स्वेदन, पाचन प्रभृति कर्मों से थाम और कफ का अपहरण करना चाहिये । पुन कफ के नष्ट हो जाने पर पित्त एवं वायु के प्रगमन का उपाय करना चाहिये । १ चिकित्सा क्रम-वात-पित्त एवं कफ इन तीनो दोपो के प्रकोप से उत्पन्न सन्निपात ज्वरो मे १ लंघन २ वालुका स्वेद ३ नस्य ४ निष्ठीवन ५ अवलेह तथा ६ अजनो का प्रयोग करना चाहिये । २. लंघन एवं उसकी अवधि-नावारण ज्वरोकी अपेक्षा सान्निपातिक ज्वरो में इस उपक्रम का अधिक महत्त्व वतलाया गया है। सन्निपात ज्वरो में दोपो के बलावल का विचार करके वाताधिक्य मे तीन दिन पित्ताधिक्य मे पाँच दिन तथा कफाधिक्य में दस दिनो तक लघन कराना चाहिये। अथवा जब तक आम दोप या आम रसो का परिपाक न हो तब तक लघन या उपवास कराना चाहिये । अथवा जब तक रोगी आरोग्य ( रोगहीन) न हो जाय तब तक लंघन कराना चाहिये क्योकि जब तक मनुष्य लघन सहन करता रहता है तब तक दोषो को प्रबलता समझनी चाहिये। आम दोपो के क्षीण हो जाने पर मनुष्य लंघन को सहन नहीं कर सकता है। इस लिये लघन सहन करने की शक्ति रोगो में जव तक विद्यमान रहे लंघन कराते रहना चाहिये । यही लंधन को वास्तविक कालमर्यादा है । कारण यह है कि जब तक रोगी में आम दोप की प्रबलता रहती है। उसको अन्न में अरुचि, उत्क्लेग, वमन, तृप्ति प्रभृति लक्षण रहते है । वह खाना नही खा सकता है। आमदोप के पच जाने पर स्वतः उसे बुभुक्षा पैदा होती है, अर्थात् भोजन की चाह पैदा होती है । १ सन्निपातज्वरे पूर्व कुर्यादामकफापहम् । पश्चाच्छ्लेष्मणि मंक्षीणे गमयेत्पित्तमारुती भेल । २. लवन वालुकास्त्रेदो नस्य निष्ठोवनन्तथा । अवलेहोs. अनचव प्राक् प्रयोज्य त्रिदोपजे ॥ ३. त्रिरात्रं पञ्चरात्रं वा दगरात्रमथापि वा । लड्डनं सन्निपातेषु कुर्यादारोग्यदर्शनात् । दोषाणामेव सागक्तिलइने या सहिष्णुता । नहि दोपक्षये कश्चित् सहते लवनादिकम् ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : द्वितीय अध्याय २२१ स्वेदन तथा उसका परिहार-स्वेदन कर्म से पसीना निकलता है, कफ क्षीण होता है, आम का पाक होता है तथा शोफ का शमन होता है। साथ ही शरीर के बहुत से अत स्थ विप पसीने से बाहर निकल आते है। शरीर का ताप कम हो जाता है, शरीर भी हल्का हो जाता है । एतदर्थ हो लिखा है कि स्वेदन के बिना सन्निपात ज्वर शान्त नही होता है। इस लिये सन्निपात ज्वरग्रस्त रोगियो को बार बार स्वेदन का कर्म करना चाहिये। सन्निपात ज्वर मे जलीयाश या कफ का अश अधिक हो जाता है इसको कम करने के लिये अग्नि से बढ कर दूसरा कोई उपाय नही है । इस लिये अग्नि का स्वेदन के रूप मे प्रयोग करते रहना चाहिये । यद्यपि सन्निपात ज्वर को नष्ट करने के लिये बहुत से सविप तथा निर्विष उपाय है, परन्तु अग्नि को उष्णता के बिना प्राय उनका प्रभाव नही होता है। इस लिये सन्निपातज ज्वर तन्त्रोक्त रसोपरस निर्मित योगो के साथ स्वेदनादि के रूप मे अथवा साक्षाद अग्निकर्म के द्वारा चिकित्सा करनी चाहिये। पूर्वोक्त स्वेदनादि उपचारो के वावजूद भी सन्निपातग्रस्त रोगो की मूर्छा दूर न होती है तो उसके पादतल या ललाट प्रदेश में अग्नितप्त रक्तवर्ण लौह-शलाका से दहन कर्म करना चाहिये । ___ सन्निपात मे स्वेदन के इतने लाभप्रद होते हुए भी कुछ अवस्थावो मे स्वेदन नही करना चाहिये बल्कि उनमे शीतल उपचार की ही क्रिया प्रशस्त रहती है। जैसे रोगी के नेत्र लाल हो, वमन प्रलाप अधिक हो रहा हो, सिर को इधर-उधर पटक रहा हो। ऐसी अवस्थायें अधिकतर अत्युच्च ताप ( Hyper pyraxia) अथवा मस्तिष्कगत रक्तस्राव (Cerebral haemorrhage) को अवस्थावो मे पाई जाती है । इनमे उष्णोपचार न करके शीतोपचार ही करना चाहिये ।। स्वेदन का विधान ज्वरो मे वात-श्लेष्मा को अधिकता मे, आमवात मे तथा सन्निपात ज्वर मे पाया जाता है । स्वेदन के बहुत से प्रकार है । विस्तार के लिये चरक सूत्र स्वेदाध्याय देखना चाहिये। यहां पर कुछ प्रचलित स्वेद-विधियो का, जिनका व्यवहार आज कल होता है, सक्षेप मे दिग्दर्शन कराया जा रहा है। १ न स्वेदव्यतिरेकेण सन्निपात प्रशाम्यति । तस्मान्मुहर्मुह कार्य स्वेदन सन्निपातिनाम् ।। सन्निपाते जलमयो नराणा विग्रहो भवेत् । विना वह्नयुपचारेण कस्त शोर्षायत्त क्षम ॥ प्रयोगा बहव. सन्ति सविपा निविपा अपित वह्नयमाण विना प्रायो न वीर्य दर्शयन्ति ते । प्रतिक्रियाविधावेव यस्य संज्ञा न जायते । पादतले लाटे वा दहेल्लोहशलाकया । २ लौहित्ये नेत्रयोन्तिौ प्रलापे मूर्धचालने । न स्वेद शुभदो यस्तत्र शीतक्रिया हिता ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ भिपकर्म-सिद्धि वालुका स्वेदन-भूने हुए वालू को कपड़े में बांधकर पोटली बनाकर कांजी में डुबोकर तवे पर गर्म करके उस से सेके । २ सैन्धव पोट्टली स्वेद-नववनमक को चूर्ण करके उसको कपडे मे बाँध कर पोट्टली बनाकर तवे पर गर्म करके उससे सेवना। किलाट स्वेद-वक्षस्तोद या पार्श्वनूल मे खोवा को कपड़े में बांधकर उसको पोट्टली बनाकर तवे पर गर्म करके उससे मेंकना । ४ वेशवार स्वेद-मास के टुकडे को कपड़े मे रख पोटली बनाकर गर्म करके सेंकना। ५ घृत का अभ्यंग-पुराने घृत में सेंधा नमक और कर्पूर मिलाकर छाती और पमुलियो में मालिश करना। ६.लेष-भुना हुआ चावल, बकरी की मीगी, कूठ, मोठ को एक में मिलाकर गोमूत्र में पोमकर लेप करना ( मजाविडादिलेप)। ७ सेहुण्डको पत्तो का रस और पलाण्डुस्वरस में मृगशृंग (वारह सिंगा ) को घिस कर लेप करना । ( मृगशृंगवृष्ट लेप) ८ एण्टी फ्लोजिस्टोन-( Anti plangistin ) का वाँधना । आमज ज्वर, वातिक-श्लैष्मिक या वातश्लैष्मिक ज्वरो में, त्रिदोपज ( वात ग्लेमोल्वण ) ज्वरोमे स्तब्धता और नूल (संगमर्द की अधिकता) में स्वेदन की क्रिया प्रशस्त है। नस्य-वेहोगी, तन्द्रा, प्रलाप एवं शिरोगौरव की स्थिति मे नस्यो का नाक से प्रयोग करना लाभप्रद पाया गया है । जैसे सन्धवादि नस्य-धानमक, सहिजन के वीज ( या श्वेतमरिच ), सरसो के वीज और कुष्ठ । इनका महीन कपडटन चूर्ण बनाकर बकरी के मूत्र में पीसकर नास देना। मधूकसारादि नस्य-महुए के फल की गूढी, सैंधव, वच, पिप्पली, काली मिर्च सब समान मात्रा में लेकर चौगुने जल में पोम कर छान कर नाके मे छोड़ना। कुलवधूरस-(० २० ) को जल में पीस कर नस्य देना । मातुलुजादिनस्य विजीरा नीबू और अदरक के रस को गुन गना गरम करके उसमें त्रिलवण (नेवानमक, काला नमक और सोचल नमक ) मिलाकर नस्य देना। त्रिकटु प्रधमन-त्रिकटु का महीन चूर्ण बनाकर, कागज या नरकट को नली के जरिये एक सिरे पर चूर्ण रखकर नाक के छिद्र में लगाकर दूसरे सिरे से फूक दे ताकि अन्दर चला जाय । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : द्वितीय अध्याय २२३ निष्ठीवन-मोठ, मरिच, पिप्पली और सैधवलवण बराबर मात्रा मे लेकर महीन चूर्ण करके अदरक के रस मे मिलाकर मुख मे कण्ठ पर्यन्त भरकर रखे । जो कफ निकले उमको वार वार थूक कर निकाल दिया करे । इस प्रकार दिन मे कई बार करे । इस प्रयोग से गले में, पारवे मे और सिर मे कफ भरा हो और न निकलता हो, कास- श्वास हो, गला बैठा हो, नेत्र मे भारीपन हो, उल्लेश और स्तब्धता हो तो लाभ होता है । अंजन - तद्रा एव मूर्च्छा की स्थिति मे उसके निवारणार्थ शिरीषाद्यञ्जनशिरीपवीज, पिप्पली, काली मिर्च, मेंधा नमक, लहसुन ( छिल्का रहित ), शुद्ध मन गिला और वच इनको बराबर मात्रा मे लेकर गो-मूत्र मे पीस कर बत्ती बनावे | उस बत्ती को पानी मे पीस कर घिसकर अजन नेत्र मे लगावे । अजन भैरव रस ( रा सग्रह ) का अजन भी लाभप्रद होता है । अवलेह -- अष्टाङ्गावलेहिका - कट्फल, पुष्करमूल, सोठ, मरिच, पीपरि, काकडासीगी, जवासा, कालाजोरा सम भाग मे लेकर उसमे चतुर्गुण मधु मिलाकर रख ले | इस को थोडा-थोडा कर के बीच-बीच मे चाटने से कास, श्वास, कण्ठावरोध, गले की घुरघुराहट ठीक होता है । शिरोऽभ्यंग - १ पुराण घृत ( दस वर्ष का पुराना घी ) का मस्तक और मिर पर लगाना । इस मे थोडा कपूर मिलाकर लगाना और अधिक लाभप्रद होता है । इस प्रयोग से ज्वर का वेग कुछ कम होता है शिरोगौरव, प्रलापादि भी शान्त होता है । २ पुराण घृत सिर के ऊपर लगा करके काले उर्द ( माष ) के क्ल्क की मोटी टिकिया बना कर थोडा सेंक कर रख कर ऊपर से एरण्डपत्र रख कर बाँध देना चाहिये । ३ हिमाशु तैल का सिर के ऊपर तथा हाथ-पैर के तलवे मे मालिश करनी चाहिये । ४ अडे ( मुर्गी ) की जरदी का लेप सिर के ऊपर करना प्रलाप को कम करता है | ५ काली मुर्गी के अण्डे के पान, नस्य तथा अजन से अत्यन्त प्रवृद्ध कृच्छ्र सन्निपातमे अच्छा लाभ होता है । १ सन्निपात मे बृहण तथा शीतल जल का निषेध - सन्निपात ज्वर मे काँपते और प्रलाप करते हुए रोगी को घृत-क्षीर मासादि प्रभृति द्रव्य नही देना १ शितिकुक्कु टिकाजाण्डजजलपानान्नस्यादप्यञ्जनाच्च । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपक्कर्म-सिद्धि २२४ चाहिये । तथा तूपा और दाह से युक्त रोगी को शीतल जल भी नही पिलाना चाहिये । सदैव उष्ण जल का ही प्रयोग पीने मे करना चाहिये । त्रयोदश (१३) प्रकार के सन्निपात ज्वर में क्रिया क्रम तथा भेपज · द्वात्रिंशदङ्ग, अष्टादशाङ्ग तथा बृहत् कट्फलादि कपायो का उल्लेख पूर्व मे हो चुका है । ये तीनो बडे लाभप्रद प्रसिद्ध कपाय है जिनका सामान्यतया त्रिदोपज ज्वरो में प्रयाग होता है । अब सन्निपात के तेरह भेदो के अनुसार चिकित्सा का उल्लेख किया जा रहा है। सन्निपातज ज्वर मे तीव्र विपमयता होती है उस विष का विविध मस्तिष्क के केन्द्रो पर प्रभाव होकर कही वाधिर्य, कही स्वर का लोप, कही मूकता प्रभृति प्रमुख चिह्न मिलते है जो प्रवल उपद्रव के रूप में सन्निपात ज्वरो मे पैदा हो जाते है । उस एक प्रधान उपद्रव को आधार मानकर विविध प्रकार के सन्निपातो के नाम पाये जाते है । इन नामो के अनुसार ही यहाँ पर शास्त्रसम्मत चिकित्सा का वर्णन किया जा रहा है । इस पाठको सान्निपातिक ज्वर के उपद्रवो की चिकित्सा कहा जाय तो अधिक युक्तियुक्त प्रतीत होता है | १. शीताङ्ग सन्निपात - इस अवस्था मे शरीर से अतिमात्रा मे स्वेद निकलकर शरीर का तापक्रम प्राकृत से बहुत कम हो जाता है । इस उपद्रव से सम्यक् रीति से सावधानी न रखने पर रोगी की मृत्यु हो जाती है । अस्तु कई प्रकार के उद्वर्त्तन तथा उष्ण द्रव्यों के योग से वने कपायो का उपयोग आवश्यक होता है । एतदर्थ- भास्वनमूलादि क्वाथ --मदार की जड, त्रिकटु, जीरा, भारङ्गो, कंटकारी, पुष्करमूल इन सव द्रव्यो को समान मात्रा में लेकर क्वाथ बनाकर गोमूत्र मिलाकर पिलाना चाहिये । इस प्रयोग से अंग का ठंडा होना, कफ की वृद्धि, मूर्च्छा प्रभृति उपद्रव ठोक हो जाते है । शीताङ्गहर उद्वर्त्तन - खेखसा को जड का चूर्ण, कुल्थी, पिप्पली, वच, कट्फल, काला जीरा, चिरायता, चीता, सुगववाला और हरीतकी इनके चूर्ण का शरीर पर मलना लाभप्रद होता है । P स्वेद्गमोपचार - यदि सन्निपात की इस अवस्था में स्वेद बहुत निकलने लगे तो ऐसी स्थिति मे अजवायन, वच, सोठ, पिप्पली और मगरैल ( कृष्ण दुसाधन. सन्निपात प्रवलोsप्याग्वेव वातपित्तोल्वणे चैव वृतं योज्यं पुरातनम् । अभ्यङ्गाच्छमयत्याशु सन्निपातं सुदारुणम् | ममेति । ( भै द ) Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : द्वितीय अध्याय २२५ जीरक ) का कपडछन महीन चूर्ण बनाकर उसका उद्धूलन (चूर्ण का रगडना -Dusting) करना चाहिये । अथवा भुनी हुई कुलथी या रहर के चूर्ण ( सत्त ) का गरीर मे मालिश करनी चाहिये अथवा कट्फल के चूर्ण की हाथ, पैर और तलवे मे हल्के हाथो से मालिश करनी चाहिये । इससे स्वेद का शोपण होता है और शरीर गर्म हो जाता है, शीताङ्ग कम हो जाता है। तन्द्रिक सन्निपात-विषमयता के कारण यह भी उपद्रव होता है, जिसमे रोगी अर्द्धनिद्रित अवस्था में पड़ा रहता है । अस्तु इस अवस्था मे अन्य उपचारो के साथ उसकी तद्रा को दूर करने के लिये कई प्रकार के नस्यो और अजनो का प्रयोग शास्त्र में पाया जाता है। उदाहरणार्थ क गुण्ठी, पिप्पली, काली मिर्च इन द्रव्यो को सम मात्रा मे लेकर महीन चूर्ण करके अगस्त्य के फूल के रस मे पीसकर उसका रस नाक मे टपकाने से या चूर्ण का नस्य देने से कार्य होता है। ____ख घोडे की लार, सेधा नमक, कपूर, मैनसिल, पिप्पली और मधु का अजन लगाने से सन्निपातज तन्द्रा एव निद्रा दूर होती है। ३ प्रलापक सन्निपात-सन्निपात या तीव्र ज्वरो मे यह एक प्रधान उपद्रव पाया जाता है। विषमयता की अधिकता की वजह से रोगी असम्बद्ध वातें करता है, अटपट बकता है, चिल्लाता है और शय्या से उठता और भागता है। प्रलाप मद या तीव्र स्वरूप भेद से कई प्रकार का हो सकता है । इस अवस्था मे मस्तिष्क पर सशामक प्रभाव दिखलाने वाले योगो का उपयोग लाभप्रद होता है। अस्तु, तगरादिकषाय-तगर, पित्तपापडा, अमलताश, नागरमोथा, कुटकी, लामज्जक, असगध, ब्राह्मी, द्राक्षा, श्वेत चदन, दशमूल की औपधियां तथा शखपुष्पी इन द्रव्यो का क्वाथ बना कर देना शीघ्र लाभप्रद होता है। ४ रक्तप्टीवी सन्निपात-इस अवस्था मे रकष्ठीवन (Rusty sputum) पाया जाता है, कई बार तीन श्वसनक ज्वर (Acute pneumonia) यह लक्षण प्रमुखतया मिलता है। चिकित्सा मे १ रोहिषादि कषायरोहिसघास, अडूसा, पित्तपापडा, फूल प्रियङ्ग तथा कुटकी इन सब द्रव्यो को सममात्रा में लेकर क्वाथ विधि से क्वाथ बनाकर मिश्री डाल कर पीना।। पद्मकादि कपाय-पद्मकाष्ठ, लाल चदन, पित्तपापडा, नागरमोथा, जाति ( चमेली का फूल), जीवक, सफेद चदन, सुगंधवाला, मुलेठी और नीम की पत्ती के कषाय का उपयोग। ५ भग्ननेत्रचिकित्सा-सन्निपात की इस अवस्था में विपमयता की अधिकता से रोगी निद्रित सदृश अधखुले नेत्र से स्तब्ध पड़ा रहता है। होग में १५ भि० सि० Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ भिपकर्म-सिद्धि लाने के लिये नस्य का प्रयोग उत्तम रहता है। जैसे-असगंध, मेंधा नमक, वच, महुए का सार, काली मिर्च, पिप्मली, शुठी, लहसुन इन द्रव्यो को गोमूत्र मे पीस कर छान कर नाक मे टपकाना। ६ जिह्वक सन्निपात-विपमयता के कारण इस सन्निपात मे जिह्वा की पेशियो का घात हो जाता है ( Glaso pharyngeal paralysis) जिमसे जिह्वा स्तव्ध हो जाती है। रोगी जीभ को वाहर नहीं निकाल सकता है और न कुछ निगल ही पाता है। अस्तु इस अवस्था मे अन्य उपचारो के साथ कवल धारण कराना (Gargle ) चाहिये। १ किरातादि कवल-चिरायता, अकरकरा, कुलिजन, कचूर, पिप्पली का चूर्ण करके उसमे सरसो का तेल तथा विजौरा नीवू, कागजी नीवू प्रभृति अम्ल द्रव्यो का रस डाल कर कल्क बना कर या काढा बनाकर मुँह मे भरने के लिये देना हितकर होता है। जिह्वा के फट जाने पर उस पर मुनक्का को पीस कर उसमे थोडा मधु और घृत मिलाकर लेप करना चाहिये । ७ संधिक सन्निपात-इस मे विपमयता के कारण सधियो मे तीव्र पीडा, जाँघो मे जडता, मन्यास्तभ, अत्यधिक क्लान्ति, क्वचित् पक्षाघात प्रभृति उपद्रव हो जाते है । एतद् दूरीकरणार्थ इसमे वचादि क्वाथ का अन्त प्रयोग विशेपतया लाभप्रद होता है। वचादि कपाय-वच, पित्तपापडा, जवासा, सैरेयक, गिलोय, अतीस, देवदार, नागरमोथा, सोठ, विधारा, रास्ना, गुग्गुलु, वडी दन्ती, एरण्ड और शतावरी का क्वाथ । ८ अभिन्यास ज्वर-सन्निपात मे एक तीव्र विपमयता ( Severe toxaemia) की अवस्था है। इसमे कारव्यादिकपाय, मातुलुङ्गादि कपायअथवा शृद्धयादि कपाय (भै र ) का प्रयोग उत्तम माना गया है । कारव्यादि कपाय-कलोजी, पुष्करमूल, एरण्ड की जड, त्रायमाण, सोठ, गुडूची, दशमूल, कचूर, काकडासीगी, दुरालभा, भारङ्गी और पुनर्नवा । सम मात्रा में लेकर २ तोले द्रव्य का ३२ तोले गोमूत्र मे क्वाथ बनाकर चतुर्थाश शेप रहने पर उतार कर पिलावे। इससे स्रोतसो का सवरोव दूर होकर तन्द्रा, प्रलाप, भ्रम आदि मे लाभ होता है। ६ कंठकुन्ज सन्निपात-इस प्रकार मे विपमयता की वजह से मूकता आ जाती है । चिकित्सा में फलत्रिकादि कपाय का प्रयोग उत्तम रहता है। जैसे, त्रिफला, त्रिकटु, नागरमोथा कुटकी, इंद्रजी, वासा और हल्दी का कपाय । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ चतुर्थ खण्ड : द्वितीय अध्याय १० कर्णिक सन्निपात-इस प्रकार मे कान के मूल के पास मे एक गाँठ या सूजन पैदा होती है। इसलिये कर्णमूल सन्निपात भी कहा जाता है। यह अवस्था मुस की सफाई (गर्मजल या लवण विलयन या 'डेटाल' या 'सेवलान' के पानी से ) न रखने की वजह से उत्पन्न होती है जिससे कर्णमूल ग्रथि ( Parotid Gland ) मे व्रण शोफ पैदा हो जाता है। यह एक मन्निपात ज्वर का आम उपद्रव है जो ज्वर के आदि मे, मध्य मे या अन्त मे रोगी की जीवनीय शक्ति ( Vitality) के ऊपर पैदा हो सकता है। प्रारम्भ मे रोगी की जीवनीय शक्ति या बल अधिक होता है अस्तु शोथ साध्य रहता है । मध्य में मध्यम वल रहता हे अस्तु रोग कृच्छ्र साध्य होता है । और अन्त में जव वल, जीवनीय शक्ति या रोग की प्रतिकारक शक्ति बहुत कम हो जाती है तो शोथ का उपशम कठिन होकर रोग असाध्य हो जाता है। जीवनीय शक्ति के अनुसार प्रारभ का साध्य, मध्य का कृच्छ साध्य तथा ज्वर के अत मे होने पर असाध्य माना जाता है। यदि ज्वर के अतमे कर्णमल शोथ हो तो कोई रोगी कभी कभी वच जाता है । प्रारभ मे रोगी की जीवनीय शक्ति या वल अधिक होता है अस्तु गोथ साध्य रहता है । मध्य में मध्यम वल रहता है अस्तु रोग कृच्छ्रसाव्य होता है। और अत मे जव वल, जीवनीय शक्ति या रोग की प्रतिकारक शक्ति बहुत कम हो जाती है तो शोथ का उपशम कठिन होकर रोग असाध्य हो जाता है। ज्वरादि मे होने वाले कर्णमूल शोथ को सज्वर पापाण गर्दभ रोग या Mumps कहा जा सकता है। जो एक मुखमाध्य मर्यादित रोग है और एक सप्ताह या दस दिनो मे अच्छा हो जाता है। उपचार-सन्निपात ज्वर के अन्य उपचारो के साथ साथ निम्नलिखित विशिष्ट उपचारो को वरतना चाहिए । रोगी को मुख सफाई (Mouth hygeine ) पर पर्याप्त ध्यान देना चाहिये। गर्म जल, नमक मिश्रित गर्म जल, 'डेटाल' या 'सेवलान' के पानी से' या कषायो का कवल ( कुल्ली ) बीच वीच में ज्वर काल मे कराते रहना चाहिये। यदि शोफ सामान्य हो तो प्रारभिक उपचार में कई प्रकार के लेप है उन्हे पानी मे पीसकर गुनगुना करके लेप करना चाहिये। जोक लगा कर रक्तावसेचन करना चाहिये। यदि शोफ का शमन इन उपायो मे न हो और उसमे पाक या पूयोत्पत्ति न हो जावे तो शस्त्र क्रिया से चीर लगा कर मवाद (पूय ) को निकालना चाहिये । पश्चात् पूय के निर्हरण १ सन्निपातज्वरस्यान्ते कर्णमूले सुदारुण ।शोफ सजायते तेन कश्चिदेव प्रमुच्यते । ज्वरादितो वा ज्वरमध्यतो वा ज्वरान्ततो वा श्रुतिमूलशोथ । क्रमेण साध्य खलु कृच्छ्रसाध्यस्ततस्त्वसाध्य कथितो भिपग्भि ॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ भिपकर्म -सिद्धि हो जाने पर उसका वोवन एव रोपण का व्रणवत् उपचार करना चाहिये । निम्नलिखित उपक्रमो को क्रमगः बरतना चाहिये। १ घृतपान-पचतिक्त सिद्ध गोघृत का पिलाना । २ कवल ग्रह-भारगी, जयन्ती, पुष्करमूल, कटकारी, विक्टु, बच, नागर मोथा, काकडासीगी, कुटकी और रास्ना (भारङ्गवादि कपाय) से कुरली कराना और पिलाना लाभप्रद होता है। __३. लेप या प्रदेह-कुलत्थ, कट्फल, गुठो, कारवी ( कलोजी) इन द्रव्यो की बरावर मात्रा में लेकर पानी से पीस कर गरम करके वार बार ( दिन मे दो-तीन बार ) लेप करना चाहिये । दशाङ्ग लेप ( च द ) हिंग्वादि लेप- हीग, हल्दी, दारुहल्दी, इन्द्रायणकी जड, सेधा नमक, देवदारु, कूठ और मदार का दूध इन को एकत्र पीस कर गर्म करके शोथ पर लेप करना । अर्कादि लेप-मदार का दूध, भिलावा, चित्रक की जड, गुड, दन्ती की जड, कूठ, हीराकासीस इन द्रव्यो को पीस कर लेप करना । ४ नस्य--सेंधा नमक और पिप्पली को चतुर्गण जल मे पीस कर गर्म फरके छान कर नाक मे छोडना । ५ रक्तावसेचन--कर्णमूल गोथ पर जोक लगाकर रक्त का निकालना प्रशस्त है। ६ वमन--मैनफल का चूर्ण ६ मागे पिप्पली चूर्ण ८ रत्ती को फांककर एक पाव गर्म जल पिलाकर वमन कराना अथवा गर्म जल में थोडा सेंधा नमक मिलाकर आकठ पिलाकर वमन करा देना भी उत्तम होता है । १ ११. चित्तभ्रम या चित्तविभ्रम सन्निपात-सन्निपात की .विषमयता के कारण इस अवस्था मे रोगी मे चित्तविभ्रम पैदा हो जाता है, स्मरणशक्ति का अभाव, परिचितो को न पहचानना, भूतदोप, सिर और नेत्रसम्बन्धी पीडा, होगी और चक्कर आदि प्रमख उपद्रव रहते है। इस अवस्था मे रोगी को चेतना में लाने के लिये प्रचेतना गटिका का अजन और विशिष्ट प्रकार के कपायो का विधान पाया जाता है। जैसे-प्रचेतना गुटिका-पिप्पली, काली मिर्च, वच, सेंधा नमक, करज के वीज, धतूरा के फल, त्रिफला, सरसो, होग और १ रक्तावसेचन पूर्व सर्पिष्पानश्च त जयेत् । प्रदेह ककवातघ्नैर्वमनै कवलग्रहै. ॥ प्रलेपस्ततस्त नयत्यल्पमेक समुद्रिक्तशोथञ्च रक्तावसेक । सुपक्वे च शस्त्रक्रिया पूयजित्सा व्रणत्व गते चोचिता तच्चिकित्सा ॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ चतुर्थ खण्ड : द्वितीय अध्याय सोठ । इन द्रव्यो को वकरी के मूत्र मे पीसकर गोली बनाकर रख लेना चाहिये । इसे प्रचेतना गुटिका कहते है। इसके अजन से अचेत रोगी मे चेतना जाग्रत होती है। मृट्ठीकादि कपाय-मुनक्का, देवदारु, कुटकी, नागरमोथा, आमलकी, हरीतकी, गुडूची, अमल ताश, चिरायता, पित्तपापडा और पटोल पत्र का क्वाथ अथवा ब्राह्मी, पाढल, पटोल पत्र, सुगधवाला, पर्पट, हरीतकी, अमल्ताश, कुटकी और गखपुष्पी ( ददुरदलादि कपाय) का पिलाना उत्तम होता है। १२ रुग्दाह सन्निपात-इस प्रकार मे सन्निपातज विपमयता के कारण ज्वर का वेग अधिक होता है, दाह, तृपा की अधिकता होती है। अस्तु उपचार में वात-पित्त गामक उपाय करना पडता है। एतदर्थ निम्नलिखित क्रियाक्रम उत्तम पाये जाते है। १ पडङ्ग पानीय-खस, रक्तचदन, सुगधवाला, द्राक्षा (मुनक्का), आंवला और पित्तपापडा इन सब द्रव्यो का पानीय विधि से पानीय बनाकर पीने के लिये देना चाहिये। २ लेप-वर की पत्तियो को दही के साथ पीसकर अथवा कपूर, सफेद चदन तथा नीम के पत्रो को तक के साथ पीसकर लेप करने से दाह शान्त होता है। अथवा नीम की पत्तियो को पीसकर एक हडिका मे रख कर पानी मिलाकर मथन करने से जो फेन उठता है उस फेन का लेप भी दाह का शामक होता है। ३ अवगाहन-शीतल जल मे सौ वार धुले हुए गाय के घी मे, सफेद मलय गिरी चदन को घिसकर मिलाकर पूरे बदन मे लेप कर, पश्चात कमल और कुमुदिनी के पुष्प को माला धारण कर के ठडे जल से पूर्ण पात्र मे बिठाना और डुवको लगाकर स्नान करने से शरीर का दाह शीघ्र शान्त होता है। ४ अवगुण्ठन-रुग्दाह ज्वर वाले रोगी को काजी से भीगे हए वस्त्र के अथवा गाय के तक्र मे भिगोये हुए वस्त्र के उढाने से दाह दूर होता है और ज्वर का वेग हल्का हो जाता है। अत्युच्च तापक्रमो ( Hyperpyrexia ) मे ठडे जल मे या वरफ के पानी मे तौलिया भिगोकर निचोडकर पूरे शरीर का परिमार्जन ( Cold sponging ) भी इसी प्रकार की क्रिया है। ५ हिमपुटक ( Ice-cap )-सिर के ऊपर वरफ से भरी थैली का रखना भी दाह और ज्वर को कम करता है। ६ आहार-विहार-दाह और वमन से पीडित दुर्वल और निराहार रहने वाले रोगी को भोजन मे धान के खील का सत्तू, मिश्री और पानी मिलाकर पीने के लिये देना चाहिये। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० भिपकर्म-सिद्धि खिले हुए कमलो से युक्त वावलियो मे नाव पर रखना या छूटते हुए फुहारो से युक्त सुन्दर गृह मे। शरीर मे सफेद चदन का लेप किये हुए स्त्री का सम्पर्ण, मुक्ता की माला का धारण प्रभृति विहार दाह के शामक रूप मे कहे गये है। १३ अन्तक सन्निपात-सन्निपात की साघातिक अवस्था-जिसमे कोई उपचार लाभप्रद न सिद्ध हो तो अतक या नागक सन्निपात कहलाता है। इसमे युक्तिव्यपाश्रय चिकित्सा का आश्रय पूर्णतया निष्फल रहता है। ऐसी अवस्था में दैवव्यपाश्रय उपायो का अवलम्बन ही एकमात्र साधन शेप रह जाता है। ऐसी अवस्था में उपवास, उष्णोदक यूपादि का प्रयोग किचित्कर होता है। केवल एक मात्र भगवान् का भरोसा रह जाता है । अस्तु भगवदाराधना करनी चाहिये। क्योकि वही मृत्यु को जीत सकते है, उन्ही का नाम मृत्युंजय है । ( मृत्युजय अथवा महा मृत्युजय का जप प्रभृति उपायो का आश्रय लेना उचित रहता है ।) सन्निपात ज्वरी मे-सामान्य-पथ्य-पंचमुष्टिक यूप-जौ, वैर, कुलस्य, मूग और आँवला इनमे से प्रत्येक को एक एक ताला लेकर अष्टगुण जल (४० तोले ) में पाक करे और आधा गेप रहने पर उतार ले। यह पंचमुष्टिक यूप कहलाता है । यह त्रिदोपज ज्वरो मे लाभप्रद और हल्का पोपण के रूप में दिया जा सकता है। कुछ लोग मुद्गपर्णी, बालमूली या शुठी के योग से भी इस यूप को बनाते है । १ सान्निपातिक ज्वर में रस के योग श्वसनक ज्वर (न्युमोनिया तथा प्लुरिसी) में १ ज्वरायभ्र-शुद्ध पारद, शुद्ध गवक, अभ्रभस्म, तान्नभस्म, गुद्ध वत्सनाभचूर्ण प्रत्येक एक तोला, शुद्ध धतूरे का वीज २ तोला और त्रिकटुचूर्ण ५ तोला। प्रथम पारद एव गंधक की कज्जली बनाकर शेप द्रव्यो का कपडछान चूर्ण मिलाकर जल मे घोटकर २-२ रत्ती की गोलियां बना ले। मात्रा १-२ गोली प्रति चार घटे पर दिन मे कई वार । अनुपान-अदरक, तुलसी का रस एव मधु । इस योग मे कफनि सारण के विचार से प्रतिमात्रा मे यवक्षार २ रत्ती और शुद्ध टकण या शुद्ध नरसार भी २ रत्ती मिलाकर दिया जा सकता है। जैसे ज्वरार्यभ्र २ रत्ती, शुद्ध टकण २ रत्तो, यवक्षार २ रत्ती मिश्रित १ मात्रा । हिगुकपूरवटी-वी मे भुनी होग १ भाग, कपूर १ भाग और कस्तूरी १ यवकोलकुलत्थाना मुद्गामलकशुण्ठयो । एकैकं मुष्टिमाहृत्य पचेदष्टगुणे जले। पञ्चमुष्टिक इत्येप वातपित्तकफापहः । शस्यते गुल्मगले च श्वासेका से च शस्यते ।। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तृतीय अध्याय २३१ दे भाग सब को एकन घोटकर गोलियां बना ले। कपूर और होग को एक मे घोटने से गोली बनने लायक हो जाता है । यदि आवश्यकता हो तो थोडी मधु मिला ले | अनुपान - पानी से यो अदरक के रस और मधु मे घोल कर दे । इसके उपयोग से नाडी एव श्वास की गति सुधरती है, छाती का दर्द ( उर शूल एव वक्षस्तोद ) कम होता है, कफ पतला होकर निकलने लगता है । रोगी के हाथ-पैर का फेकना, कपडा फेकना, उठना-बैठना, वकना कम होता है । बालश्वसनक (त्रांकोन्यूमोनिया मे ) - शृंग सिन्दूर - रस सिन्दूर या स्वर्ण सिन्दूर रत्तो तथा गभस्म १ रत्ती, शुद्ध टकण १ रत्ती की मात्रा मे मिलाकर, ऐमी एक मात्रा बनावे । दिन मे चार, चार घटे के अन्त पर गुडची के स्वरस और मधु के अनुपान मे । बच्चो के श्वसनक ज्वर मे इससे उत्तम लाभ होता है । छाती पर लेप - उपर्युक्त अतः उपचारो के साथ ही श्वसनक ज्वरो से युक्त रोगियो मे सीने पर कई प्रकार के लेप भी वडे उत्तम होते हैं । जैसे - वारह सिंगे को सीग को प्याज के रस मे घिसकर लेप करना, पुराने घृत मे संधानमक और कपूर मिलाकर सीने पर आगे-पीछे और पार्श्व मे लेप करना । केवल पंच-गुण तैल मे थोडा ऊपर से कपूर मिलाकर छाती पर मालिश करना । अजाविडादि लेप - चावल को भूनकर, वकरी की मोगी, कूठ को गोमूत्र में पीसकर आग पर गर्म करके सीने पर लेप करना । तृतीय अध्याय आगन्तुक ज्वरोपचार क्रियाक्रम - लंघन का निषेध - आगन्तुक कारणो से उत्पन्न ज्वरो मे रोगी को लघन नही कराना चाहिये । आगन्तुक ज्वर का अर्थ होता हैचिन्ता, शोक, क्रोध, प्रहार, भय, भूत-प्रेत, श्रम अथवा औपधि के (वनस्पतियो के पराग की ) गंध से होने वाले ज्वर । इन ज्वरो मे उपवास न कराके मासरस के साथ चावल का भात खाने को देना चाहिये । १ १ आगन्तुजे ज्वरे नैव नर कुर्वीत लड्घनम् । ( भै र ) Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि २३२ १ अभिघातज ज्वर - चोट लगजाने, गिर जाने या किसी अभिघात से उत्पन्न ज्वरो में घृत और तैल का अभ्यंग तथा मासरस और तण्डुलोदन देना चाहिये । यदि कोई व्रण हो गया हो तो व्रणवत् उपचार करना चाहिये । २ अभिचार या अभिशापज ज्वर - ब्राह्मण, गुरु, वृद्ध, सिद्ध और पतिव्रता स्त्री का अपमान करना, अभिचार और उनके शाप से उत्पन्न ज्वर अभिगापज कहलाते है । इस अवस्था में देव व्यपाश्रय चिकित्मा का आश्रय लेने से ज्वर ठीक होता है । अस्तु, होम, प्रायश्चित्त, स्वस्त्ययन तथा अन्य मागलिक कर्म द्वारा उपचार करना चाहिये । उत्पात तथा ग्रह पीडा जन्य व्यावियो मे भी यही उपक्रम लाभप्रद सिद्ध होता है । --- ३ क्रोधज - स्वर - क्रोध ने उत्पन्न ज्वरो की शान्ति के लिये पित्त शामक क्रियाये करनी चाहिये । रोगी के इच्छित पदार्थों की पूर्ति करना, आश्वासन देना तथा अच्छे एव अनुकूल वचनो से रोगी की तसल्ली करना, उपचारों मे समाविष्ट है । ४ काम-शोक-भय ज्वर- -इन कारणो से उत्पन्न ज्वरो मे वातशामक ओपधियों के प्रयोग तथा मन को हर्पित करने वाली क्रियाओ का प्रयोग करना चाहिये | अभिमत पदार्थ या इष्ट पदार्थ की प्राप्ति से क्रोध ज्वर नष्ट होता है । और क्रोधजनक कारणो से कामवासनाजन्य ज्वरो का शमन होता है । काम और क्रोध इन दोनो भावो से भय और शोक जन्य ज्वर शान्त होता है । पवि के रूप में पित्तशामक भेपज जैसे सुगंधवाला, कमल, श्वेतचंदन, खस, दालचीनी, धनिया, जटामासी का क्वाथ काम ज्वर में लाभप्रद होता है । F ५ भूतज ब्वर -भूत विद्या का विषय है । तदनुसार वधन, ताडन, नावेश प्रभृति कर्मों द्वारा उपचार करना उत्तम रहता है | ६ मानस ज्वर-मानस ज्वर में ज्ञान, विज्ञान, धैर्य, वृति और समाधि ( चित्त की एकग्रता ) द्वारा उपचार करना चाहिये । विधिपूर्वक सहदेवो मूल को कठ में बाँधकर रखने से तीन या चार दिनो में भूत-प्रेत प्रभृति कारणो से उत्पन्न ज्वर शान्त होते है | शापाभिचाराद् भूतानामभिपङ्गाच्च यो ज्वरः । दैवव्यपाश्रयं सर्व सौपधनिष्यते ॥ तत्र ( चरक चि ३ ) विषमज्वरोपचार क्रियाक्रमः – १ विषमज्वर प्राय. त्रिदोषज हुआ करते हैं अस्तु इन ज्वरो में दोपकीउल्वणता ( विशेपता या अविकता ) का विचार करते हुए तदनुकूल Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड · तृतीय अध्याय २३३ चिकित्सा की व्यवस्था करनी चाहिये । वात की प्रधानता होने पर घृतपान और अनुवासन वस्ति का प्रयोग, पित्त की प्रधानता होने पर औपधिसिद्ध दूध या घी का प्रयोग तिक्त और शीत गुण भूयिष्ठ औपधियो का प्रयोग तथा कफ की प्रधानता होने पर वमन, लघन, पाचन एव उष्णवीर्य भेपज का प्रयोग करना चाहिये। २ विषम ज्वर मे ऊर्ध्व तथा अधोमार्ग से शोधन प्रशस्त है अर्थात् रोगी को वमन तथा विरेचन करावे । ३ स्निग्ध एव उष्ण भोजन तथा आहार-विहार की व्यवस्था करनी चाहिये । मधुकादि कपाय-मधुयष्टि, लाल चदन, मुस्तक, आमलकी, धान्यक, सस, गुडूची और पटोल का पाय मधु और चीनी मिलाकर पीना। शिशिरादिकपाय. (वैद्यजीवन)। सशिशिरः सघनः समहौपधः सनलदः सकणः सपयोधरः। समघुशकर एप कपायको जयति बालमृगाक्षि तृतीयकम् ॥ संततादि विपम ज्वरो मे पच कपाय-१ इन्द्र जौ, पटोल, कुटकी, तीनो का सममात्रा में सम्मिलित कषाय सतत ज्वर मे लाभप्रद । २ पटोलपत्र, अनन्त मूल, मुस्तक, कुटकी और पाठा इनका सममात्रा में सम्मिलित प्रयोग सततक ज्वर मे ३ नीम की छाल, पटोल पत्र, मुनक्का, हरीतकी, विभीतक, आँवला, मोथा तथा इन्द्र जी इनका सम्मिलित सममात्रा में प्रयोग अन्येद्य ष्क ज्वर मे लाभप्रद ४ चिरायता, गुडूची, लाल चदन और सोठ इन चारो का सममात्रा मे ग्रहण कर सम्मिलित प्रयोग तृतीयक ज्वर मे ! ५ गुडूची, आंवला और मोथा इन तीनो का सममात्रा मे गृहीत प्रयोग चातुर्थक ज्वर मे लाभप्रद होता है। क्वाथ के लिये औपधिद्रव्य २ नोले लेकर ३२ तोले जल मे पकाकर ८ तोले शेष रहने पर उतारे और मध मिला कर पिलाना चाहिये । विषम ज्वर मे प्रयुक्त होने वाले ये पच कपाय है जो बडे प्रसिद्ध और प्राय सभी वैद्यक ग्रथो मे इनका पाठ पाया जाता है । १. विपमेष्वपि कर्त्तव्यमूवं चाधश्च शोधनम् । स्निग्योष्णरन्नपानश्च शमये द्विषमज्वरम । वातप्रधान सपिभि वेस्तिभि सानुवान । विरेचन च पयसा सपिपा सकृतेन च ॥ विपम च तिक्तशीतज्वर पित्तोत्तर जयेत् । वमन पाचन रूक्षमन्नपानञ्च लवनम् । कपायोष्णञ्च विपमे ज्वरे शस्त कफोत्तरे । २ कालिद्धक पटोलस्य पत्र कटुकरोहिणी । पटोल शारिवा मुस्त पाठा कटुकरोहिणी । निम्ब पटोल मृट्टीका त्रिफला मुस्तवत्सकी। किराततिक्तममता चन्दन विश्वभेषजम् ॥ गुडूच्यामलक मुस्तमर्धश्लोकसमापना ॥ कपाया शमयन्त्याश पञ्च पञ्चविधान् ज्वरान् ॥ सततं सततान्येा स्तृतीयकचतुर्थकान् ॥ (च. चि ३) Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ भिपकर्म-सिद्धि विषमज्वर से एकोपधिप्रयोग:-१. कालाजीरा और गुडका मेवन । २ लहसुन की चटनी बनाकर उसको तिल तेल पकाकर सेवन, दीर्घकालीन वात रोग तथा विषम ज्वर में मेवन । ३. त्रिफला कपाय और गुड़की चागनी बनाकर सेवन या केवल त्रिफला चूर्ण और गुड का सेवन । ४. हरीतकी चूर्ण और मधु का सेवन । ५ लहसुन की चटनी एव घी का सेवन । ६ वर्धमान पिप्पली का सेवन विगेपत जीर्ण विषम ज्वर मे जब यकृत् और प्लीहा की वृद्धि हो। इसमे एक, दो या तीन पिप्पली को दूध के साथ पीस कर सेवन प्रारंभ करना होता है, फिर उसी क्रम से प्रति एक, दो या तीन की वृद्धि करते हुए ग्यारह या इक्कीस दिन तक चलाकर फिर क्रमश उसी क्रम से कम करते हुए प्रारम्भिक मात्रा पर रोक देना चाहिये । रोगी के वल और काल का विचार करके मात्रा का प्रारभ एक, दो या तीन से करना चाहिये। ७ पटपल सपि का सेवन । ८ उष्ण दूध में तिल तेल, घी, विदारीक्द तथा गन्ने का रस मिलाकर सेवन ! ९ छोटीपीपल, मिश्री, घी, मधुको गर्म करके ठंडा किये दूध में मिलाकर मथकर (पंचसार ) का सेवन । १० शेफाली स्वरस और मधु का सेवन । ११ नाई वनस्पति का कपाय सेवन । १२ निम्ब पत्र ५ पीसकर नित्य लेना या नीम की छाल का कपाय : छटाँक का सेवन । १३ तुलसी का कपाय ! इसमें कृष्ण तुलसी अधिक श्रेष्ठ है। १४ द्रोणपुष्पी का कपाय या स्वरस । १५ चम्पा के फूल का रस । विपम ज्वर के वेग को रोकने की औपधियॉ-विषम ज्वरो में ज्वर के पूर्व में जाडा या हल्की सिहरन होती है-पश्चात् तीव्र ज्वर हो जाता है । वेग या दौरे रोग मे प्रायः पाये जाते है । वेगो का काल भी नियत सा रहता है कभी अनिश्चित भी होता है। ज्वर के दौरा या वेग आने के पूर्व कई औपधियाँ है, जिनका प्रयोग करने से वेग रुक जाता है। दो-तीन बार ऐसे वेगो को रोक देने से प्राय ज्वर मे लाभ भी हो जाता है। कुछ एक ऐसे भेपजो का नाम नीचे दिया जा रहा है. १. शुद्ध स्फटिका-(लाल फिटकिरी हो तो अधिक उत्तम ) कच्ची फिटकिरी को गर्म तवे पर भूनकर खील बना ले पश्चात् उसका महीन चूर्ण कर ले । प्रात काल में ज्वर के वेग के पूर्व १ मागा की मात्रा में बताने मे रखकर रोगी को सिलादे । ज्वर प्राय नही आता है। २ मार्जारविष्टा का दूध के १. भवति विपमहन्त्री चेतकी क्षौद्रयुक्ता । नान्यानि मान्यानि रसौपधानि परन्तु कान्ते न रसोनाल्कात् । तैलेन युक्तो पर प्रयोगो महासमोरे विपमज्वरे च । गुटप्रगाटा त्रिफला पिवेता विपमादित । मधुना सर्वज्वरनुच्छेफालीदलजो रस ॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तृतीय अध्याय २३५ साथ पिलाना इसी प्रकार का कार्य करता है अथवा ३ वैल का गोवर दधिमण्ड के साथ या मद्य के साथ नमक मिलाकर पिलाना भी ज्वर के वेग को रोकता है । ४ धतूर के कोमलपत्र छोटे-छोटे दो या तीन, गुड और मरिच पांच दाने का ज्वर के पूर्व सेवन करना । ५ सुवर्चला (हुरहुर ) स्वरस - ज्वर आने के पूर्व हाथ-पैर नखो मे लगाना ६ कुकुरौधे का स्वरस दस बूंद लगे पान के बीडे मे रख कर चूसना । ७ मदार के पुष्प की एक कलो एक तोले गुड मे रखकर एक-एक घटेके अतर से ज्वर आने के पूर्व तीन बार देना उत्तम रहता है । ऊर्ध्व शोधन ( वमन ) - इन्द्रजौ, मदनफल, मधुयष्टि का कपाय पिलाने से अथवा इन द्रव्यो को सम मात्रा मे लेकर ६ माशे चूर्ण को फेंका कर ऊपर से एक पाव गर्म जल पिलाने से वमन होता है और ज्वर शान्त हो जाता है । विषम ज्वर मे अपने आप वमन होता है, उत्त्केश अधिक हो तो इस वामक योग का प्रयोग करना चाहिये । अध शोधन ( रेचन ) -- रोगी का स्नेहन और स्वेदन करके ज्वर आने वाले दिन को प्रात काल मे कासमर्द, वन जवायन, निशोथ और कुटकी कपाय पिलाने से रेचन हो जाता है और ज्वर का शमन हो जाता है । विवन्ध युक्त विपमज्वर में व्यवहृत होने वाले कई जयपाल के यौगिक है, इनक प्रयोग से यह कार्य सिद्ध होता है, जैसे -- ज्वर केशरीरस, शीतारि रस, अश्वकंचुकी रस, शीतारिरस ( भै र ) दो रत्ती की मात्रा मे दिन मे दो या तीन बार । अंजन- विपमज्वरन अंजन --- सैन्धव, छोटी पिप्पली के दाने, मन गिला इन सबो को तैल मे पीस कर अजन करना ज्वर के वेग को रोकता है। कान की मैल की बत्ती बनाकर तिलतैल से पूर्ण सकोरे मे रख कर दीपक जलाकर इस दीपक को ज्वाला के ऊपर युक्तिपूर्वक एक वर्त्तन औंधाकर रखकर उनके कज्जल का संग्रह करे । इस अजन को तृतीयक ज्वर के रोगी मे उसके दोनो नेत्रो मे रात मे अजन करे । ज्वर दूर होता है । औपधि धारण-कुछ ऐसी दिव्य ओपधियाँ हैं, जिनके मूल को सूत्र मे बांधकर धारण करने मात्र से विषम ज्वर नष्ट होता है । ये औषधियां अपने प्रभाव से कार्य करती है । युक्ति या तर्क से इनकी अचिन्त्य शक्ति का ज्ञान नही होता है । १ पयसा वृपदशस्य शकृद्व गागमे पिवेत् । वृषस्य दधिमण्डेन सुरया वा ससैन्धवम् ॥ ( भैर ) Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ भिपकर्म-सिद्धि उदाहरणार्थ-१ काकजंघा, वला, च्यामा, ब्रह्मदण्डी (भार्गी), लज्जावती, पृश्निपर्णी, अपामार्ग तथा भृगराज । इन आठ औपधियो में से किसी एक को पुष्यनक्षत्र मे उखाडकर उसके मूल को लाल सूत्र से वेष्टित करके पुरुप के दाहिने हाथ अथवा स्त्री के वायें हाथ मे बाँध कर धारण करने से नित्य आने वाला विषम ध्वर दूर होता है । (भै र.) २ उल्लू के दाहिने पाँख को कच्चे श्वेत डोरेमे वाँधकर रोगी के वायें कान मे बाँधने से भी यही फल होता है। ३ कर्कट ( केकडा) के विल की मिट्टी का माथे पर तिलक करने से भी यही फल होता है इसमें तर्क नहीं करना चाहिये और इनके प्रभावो को देखना चाहिये। ४. अपामार्ग को जड को लाल रंग के सात सूत्रो से लपेट कर रविवार के दिन कटि में बाँधने से ऐकाहिक ज्वर में लाभ देखा गया है। ५ सभी प्रकार के विषम ज्वर मे जयन्ती मूल को इसी प्रकार वाँध कर धारण करना भी लाभप्रद होता है। (भै. र ) ६ मकोय की जडका कान में बाँधना भी रात्रि स्वर में लाभप्रद पाया गया है। चातुर्थक ज्वर में विशेष क्रियाक्रम-चातुर्थक ज्वर एक वडा ही हठीला ज्वर होता है । वहुविध उपचारो के वावजूद भी शान्त नही होता है । इस मे रोगी मन से बहुत कमजोर हो गया रहता है। निश्चित समय पर उमको ज्वर का वेग अवश्य सता देता है । अस्तु कुछ विशिष्ट उपक्रमो का आश्रय लेना पडता है। नस्य-१ गिरीप पुष्प के स्वरस में हरिद्रा, दाहरिद्रा इनका चूर्ण और घृत मिला कर खरल में सालोडित करके नस्य देने से लाम होता है । २. अगस्त्य पत्र स्वरस और हीग का नस्य भी ऐसा ही कार्य करता है। ३ अगस्त्यपत्र स्वरस मे हरिद्रा, दारु हरिद्रा तथा घी को मालोडित करके भी नस्य का विधान है। ४ केवल अगस्त्यपत्र स्वरस का नस्य भी लाभप्रद होता है। मुख से प्रयोज्य औपधि--१ रोगी के वलावल के अनुसार शुद्ध मृत हरिताल भस्म 1 से ३ रत्ती की मात्रा में दिन में तीन बार श्वेत वत्स और देत वर्ण की गाय के दूध के साथ रविवार को देने से ज्वर नष्ट होता है । २ महाज्वराङ्कश-शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध वछनाग १ भाग, शुद्ध गंधक १ भाग, शुद्ध धतूरे का वीज ३ भाग, काली मिर्च ४ भाग, सोठ ४ भाग, छोटी पीपल ४ भाग । प्रथम पारद एव गंधक की कज्जली करे पश्चात् अन्य औपधियो Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तृतीय अध्याय २३७ का कपड छान चूर्ण मिलावे। फिर सत्यानाशी के स्वरस को तीन भावना देकर २ रत्ती की गोलियां बना ले । माना १ से २ गोली। अनुपान-कागजी नीबू या जम्बोरी नीबू के रस या अदरक के रस के साथ दे । ( यो र) ३ श्वेत अर्क या करवीर मूल को दो रत्ती की मात्रा मे तण्डुलोदक से देना भी लाभप्रद होता है । इसको जड को अश्विनी नक्षत्र मे उखाडने का विधान है। ४ चातुर्थकारि रस (भै र ) मात्रा २ रत्ती। अनुपान चम्पा के पुष्प का रन ३ माशे या शेफाली का स्वरस ३ माशे और मधु ६ माशे। दिन में दो या तीन वार। ५ पेया-चाङ्गेरी (तिन पतिया ) की एक सहस्र पत्तियो को लेकर कपाय बनावे, फिर इस कपाय मे पेया विधि से चावल के कण डाल कर पेया बनावे । इसमे गोघृत डाल कर पिये तो चातुर्थक ज्वर नष्ट होता है। ६ धतूर के कोमल तीन पत्ते, गुड १ तोला और काली मिर्च ५ दाने मिला कर पीस कर गोली जैसा बना ले । ज्वर के आने से दो घटे पूर्व रोगी को खिला देना चाहिये । पीने के लिये उसे पानी नहीं देना चाहिये। अगर तुपा से अधिक व्याकुल होवे तो उसे दूध दिया जा सकता है। एक दिन के प्रयोग से ज्वर प्राय. ठीक हो जाता है। ७ कुटकी मूल को अर्कतीर मे भावित करके सेवन करना तृतीय और चातुर्थक दोनो मे लाभ करता है । धूप-ज्वर के पारी वाले दिन भृ गराज स्वरस मे काले किये हुए वस्त्र मे गुग्गुल और उलूक पक्षी की पखि को अच्छी तरह से बांधकर नि म अङ्गारे पर रख देना चाहिये। समीप मे रोगी को बैठा कर उसके धुएं से रोगो को धूपित करने से ज्वर का नाश होता है। विपम ज्वर मे देवव्यपाश्रय चिकित्सा का माहात्म्य--सभी विषम ज्वरो मे विशेषत तृतीयक तथा चातुर्थिक ज्वर मे आगन्तुक अर्थात् भूतादि का अनुबध पाया जाता है। अस्तु, केवल युक्तिव्यपाश्रय चिकित्सा से लाभ की परी आशा नही की जा सकती है उसमे दैवव्यपाश्रय अथवा आधिदैविक चिकित्सा का आश्रय लेना भी अवश्यम्भावी हो जाता है। एतदर्थ मत्रधारण, इष्ट देवता की उपासना, जप, होम, मगल कर्म, औषधि धारण, स्तोत्र पाठ प्रभृति कर्मों को करना चाहिये । सोम का पूजन, विष्णु का पूजन, ब्रह्मादि का पूजन लाभप्रद रहता है ।' १ कर्म साधारण जहयात् तृतीयकचतुर्थको। आगन्तुरनुवन्धो हि प्रायशो विपमज्वरे ॥ विष्णु सहस्रमूर्धान चराचरपति विभुम् । स्तुवन्नामसहस्रण ज्वरान् सर्वानू व्यपोहति ।। (चर चि ३) Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ भिपकर्म-सिद्धि जब किसी भी युक्ति से विषम ज्वर का अनुबंध नहीं टूटता तो ये उपाय अवश्य रोग को दूर कर सकते है। विषम ज्वर में प्रयुक्त होने वाले कुछ योग-१. सप्तपर्णसत्त्वादि __ वटी-सप्तपर्ण धन सत्त्व १० तोले, कुपोल घन सत्त्व १० तोले, जेवायन घन सत्त्व १०तोले, करज वीज को गूदी ४० तोले । सबको खरल कर मटर के वरावर की गोली बनाले । मात्रा-१ से २ गोली दिन में तीन बार या चार वार जल से । तुवरीमल्ल योग-सफेद फिटकिरी का चूर्ण ६ तोले, शुद्ध सखिया ११ मागे लेकर, तवे पर फिटकिरीका चूर्ण रख उसके मव्य मे मंखिया रख कर मद आँच देवे । जव फिटकरी का लावा वन जावे तो तवा को आंच से उतार कर रख लेवे । औपध के शीतल हो जाने पर खरल में चोट लेवे । मात्रा १ रत्ती से १ रत्ती तक अनुपात घृत ६ माशे। इसे ज्वर काल मे न देकर निर्विर अवस्था मे देना चाहिये । ज्वर के आने के पूर्व एकमात्रा भी देने से प्राय ज्वर का वेग रुक जाता है। ओपध पकाते समय धुवा वैद्य के मुंह पर नही लगना चाहिये। o हरीतक्यादि वटी-बडी हरउ का दल, शुद्ध मखिया, काली मिर्च तीनो सम . भाग लेकर जल से मर्दन करके सरसो के वरावर की गोलियां बनाले । ज्वर के उतरने के बाद १-२ गोली गाय के दूध से दे । इसके सेवन से पारी वाला ज्वर उतरता है। ३. सुदर्शन चूर्ण-हरड, बहेरा, आँवला, दारु हल्दी, छोटी कटेरी, वडी कटेरी, कचूर, मोठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, पीपरामूल, मूर्वा, गिलोय, धमासा, कुटकी, पित्तपापडा, नागर मोथा, त्रायमाण, नेत्रवाला, अजवायन, इंद्रयव, भारङ्गीमूल, शिग्रुवीज, आग पर फुलाई हुई फिटकरी, वच, दालचीनी, पद्माख, खस, सफेद चदन, अतीस, बलामूल, सरिवन, पिठवन, वायविडङ्ग, तगर, चित्रक, सोमं मानुचर देवं समातृगणमीश्वरम् । पूजयन् प्रयत शीघ्रमुच्यते विपमज्वरात् ।। ब्रह्माणमबिनाविन्द्र हुतभक्ष हिमाचलम् । गङ्गा मरुङ्गणांश्चेष्टान् पूजयञ् जयति ज्वरम्।। भक्त्या मातुः पितुश्चेव गुरुणा पूजनेन च । ब्रह्मचर्येण तपसा पुराणश्रवणेन च ।। जपहोमैश्च दानश्च सत्येन नियमेन च । ज्वराद्विमुच्यते गीव्र साधूना दर्शनेन च ॥ १ हरीतकीगम्बलवेल्लजाना कुर्याद्वटी वारिणि सर्पपाभाम् । वेग रुणद्धि प्रथम प्रदत्ता ज्वरम्य वेलेव महाम्बुराशिम् ।। (सिद्ध भेषजमणिमाला) Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तृतीय अध्याय २३६ देवदारु, चव्य, पटोल पत्र, कालमेघ, करज के फल की मज्जा, लवज, वश लोचन, काकोली, कमल, तेज पत्र, जावित्री और तालीश पत्र । सभी द्रव्यो को सम प्रमाण मे लेकर चूर्ण करे । फिर सव चूर्ण का जितना प्रमाण हो उससे आधा चिरायते ( किरात ) का कपडछान चूर्ण मिलाकर वोतल मे भर ले । मात्रा - ३ से ६ माशे । अनुपान उडा जल । उपयोग - सभी ज्वरो में विशेषत. नये या पुराने विषम ज्वरो मे अधिक लाभप्रद योग है । इसका चूर्ण के रूप मे, फाण्ट के रूप मे या हिम के रूप मे भी प्रयोग किया जा सकता है । ज्वर का वेग कम करने के लिये एक उत्तम योग है । सतत ज्वर के रोगियोमे तीन सप्ताह की मियाद पूरी होने पर भी अगर ज्वर का अनुवध न टूटता हो तो इस फाण्ट के उपयोग से उत्तम लाभ होता है । (शा.ध.) ४ सुदर्शन मिश्रण - सुदर्शन चूर्ण १० तोला, सोडा वायकार्ब २॥ तोला, शुद्ध कुपीलु चूर्ण १ तोला, आग पर फुलाई लाल फिटकिरी १ || तोला ( शुद्ध स्फटिका ) अच्छी तरह एकत्र मिलाकर रखले । मात्रा १- ३ माशे । अनुपान जल । उपयोग—शीत के साथ आने वाले ज्वर । ( सि यो स ) ५ विपमुष्टयादि वटी - शुद्ध कुचला का चूर्ण और काली मिर्च का चूर्ण सम भाग में लेकर इन्द्रायण के फल के रस मे भावना देकर दो-दो रत्ती की गोलियाँ बनावे | मात्रा १-२ गोली । अनुपान शीतल जल । विपम ज्वर, विवध, तथा वात ज्वर में लाभप्रद । १ - विषम ज्वर मे पथ्य - विषम ज्वर मे लघन का कोई विशेष महत्त्व नही है । ज्वर काल मे उपवास कराना चाहिये अन्यथा ज्वरमुक्तावस्था मे सुपाच्य और हल्के अन्न की व्यवस्था करनी चाहिये । विषम ज्वर मे मद्य और मासरसो का प्रयोग विशेषत बतलाया गया है । पथ्य मे अधिक गेहूँ, जो को रोटी, परवल, वास्तूक, करैले, मूँग, चने की दाल, नीबू, मोसम्मी प्रभृति फल, सूखे मेवे देने चाहिये । माससात्म्य व्यक्तियो मे मुर्गा, तीतर और मयूर का मास खाने को देना चाहिये । पुनरावर्त्तक ज्वरप्रतिपेध ( Relapsing fever ) — जिन ज्वरो मे बार बार पुनरावर्त्तन पाया जाता है । उनमे सामान्य विपम ज्वर का उपचार उत्तम रहता है । तिक्त द्रव्यो का उपयोग, गोघृत का उपयोग एव तिक्त द्रव्यो से सिद्ध घृतो का उपयोग करना चाहिये । चरक मे किराततिक्तादि कपाय १ सशोधिताना विपमुष्टिकाना तुल्याशमारीचरजोयुतानाम् । वट्यो विशालाफलवारिवद्धा विबन्धवातज्वरमुद्धरन्ति ॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० भिपकर्म-सिद्धि का सेवन कराने का विधान भी पाया जाता है । यह पुनरावर्तक ज्वर में एक सिद्ध प्रयोग है - किराततिक्तकं तिक्ता मुस्तं पर्पटकोऽमृता । नन्ति पीतानि चाभ्यासात् पुनरावतकं वरः।। अर्थात् चिरायता, कुटकी, नागरमोथा, पित्तपापडा और गुडूची को जोकुट कर के २ तोल लेकर ३२ तोले मे लीलाकर ८ तोले गेप रहने पर उतार कर ठडा कर मधु मिलाकर कुछ दिनो तक पीने मे या कई मासो तक अभ्यास कराने से बार बार प्रावर्तन करने वाला ज्वर दूर होता है। मन्थर ज्वर (Typpoid ) प्रतिरोध-आत्रिक ज्वर, मन्थर ज्वर या सतत ज्वर एक मर्यादित (मियादी ) सन्निपातज ज्वर का ही भेद है। इसमें ज्वर लगातार तीन या चार सप्ताह तक चलकर स्वयं शान्त होता है। इस रोग का विनिश्चय प्राय प्रथम सप्ताह के अनन्तर ही होता है। इस ज्वर में प्राय दो प्रकार के क्रम वाले रोगी मिलते है-एक वे जिन मे (विवध ) या क्वज रहता हो दूसरे वे जिनमें अतिसार चल रहा हो। इन दोनो क्रमो में चिकित्सा एवं पथ्य व्यवस्था का भेद करना होता है। आधुनिक युग मे इस रोग की चिकित्सा मे 'क्लोरेमाईसेटिन' या उस वर्ग की किसी अन्य औषधि का उपयोग होता है-जिस से ज्वर अपेक्षाकृत कुछ शीव्रता से दूर होता है। तथापि इस में कई दोप भी पाये जाते है जैसे ज्वर का पुनरावर्तन ज्वर के छूट जाने पर पुन. आने की संभावना तथा औपधि की विपाक्तता का कुपरिणाम । आयुर्वेद की चिकित्सा में इन दोनो दोपो से रहित एव निरापद है। इस मे समय कुछ अधिक जरूर लगता है, परन्तु रोग का स्थायी एव चिरकालीन प्रतिकार हो जाता है। वस्तुत मन्यर ज्वर की चिकित्सा में तीन ज्वरघ्न उपचार की आवश्यकता नहीं पड़ती है, रोगी की शुश्रूपा एवं पथ्य-व्यवस्था इस स्वरुप की की जाती है जिसमे उसे कोई उपद्रव न हो और ज्वर निरुपद्रव अपने काल पर पहुंचकर छूटे। इस काल में फुफ्फुस, हृदय, मुख, मांत्र तथा मस्तिष्कसम्बन्धी उपद्रवो का भय रहता है एतदर्थ जव रोगी चिकित्सा में आवे उसके रोग का विनिश्चय होजावे तो तत्काल निम्नलिखित क्रम पर रख देना चाहिये। १. पूर्ण विश्राम २. पीने के लिये लवङ्गोदक या पडङ्गपानीय देना चाहिये। ३ सहिजन का कपाय बनाकर रख देना चाहिये उस से वीच-बीच में कुल्ली करते हुए रोगी अपने मुख की मफाई रखे । ४. रोगी को पथ्य मे यदि कब्ज हो तो गाय का दूध, गर्म करके ठंडा होने पर थोड़ा पानी मिलाकर पिलाना चाहिये। थोड़ा मिश्री या ग्लुकोज का Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : चतुर्थ अध्याय २४१ बाले जल में पर्वत बनाकर रस कर बीच बीच मे पिलाना चाहिये । सूखे फलो मे मुनका देना चाहिये | हरे फलो मे सतरा, मोमम्मी और अगूर देना चाहिये । यदि रोगी में अतिसार, पतले दस्त चल रहे हो तो दूध न देकर दूध को फाड कर उनका पानी पीने को देना, लुकोज या मिश्री का पानी भी दिया जा सकता है । वाल वाटर नमकीन बनाकर नीबू का रस डाल कर देना चाहिये । फलो मेहरे के रम - नीबू, मोसम्मी, सतरे का रस - देना चाहिये । बकरी का दूध मिल न तो रोगो को अधिक अनुकूल पडता है । औषधि मे - अभ्रक भस्म २ रत्ती शु टकण २ रत्तो शुक्ति भस्म २ रत्तो या मुक्ता भस्म १ रत्ती मिश्र ४ मात्रा जावकर, जावित्री और लीग के चून प्रत्येक २-२ रत्तो और मधु ६ माशे के साथ | या भुना जीरा के चूर्ण और मधु से प्रति चार-चार घंटे पर । • यदि रोगी दुर्बल हो तो इस योग मे रस सिन्दूर १ रत्ती मिलाकर देना चाहिए | इस योग से रोगो मे ज्वर का क्रम निरुपद्रव चलना रहता है | अपनेअपने मियाद के पूरे होने पर रोगी रोग मुक्त हो जाता है । योग - यदि इसके स्थान पर कोई योग देने का विचार रहे तो अतिसार युक्त सतत जार में सिद्ध प्राणेश्वर रस का उपयोग ४ रत्तो की मात्रा मे प्रति छै घटे पर दिन में तीन बार भूने जोरा के चूर्ण एव मधु के अनुपान से देना उत्तम रहता है । यदि रोगो मे विवध हो तो नोभाग्यवटो उपयाग करना चाहिये । सन्निपाताधिकार का यह उत्तम एव सिद्ध याग है जो मन्थर ज्वर मे अव्यर्थ सिद्ध होता है | सौभाग्यवटी - शुद्ध सुहागा, शुद्ध वत्सनाभ, श्वेत जोरक, सैधव, रुचक, विड, औद्भिद और मामुद्र ( पाँचो लवण ), त्रिकटु, त्रिफला, अभ्रक भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध गधक समभाग । प्रथम पारद एव गधक को कज्जलो बनाकर अन्य द्रव्यो के महीन चूर्णों को मिलाकर निम्नलिखित द्रव्यो के कषाय से सात सात । श्वेतपुष्पा निर्गुण्डी, नीलपुष्पा निर्गुण्डी, भृगराज, अड ूसा, अपाभावना दे मार्ग। फिर २-२ रक्तो की गोलियाँ बनाकर सुखाकर रख ले | अनुपान - - अदरक का रम, तुलपी का रम, जायफल एवं जावित्री के चूर्ण, ७- १ लोग के पानी से दे । कस्तूरी भैरव रस ( लघु ) -- शुद्ध हिंगुल, शुद्ध वच्छनाग, शुद्ध टकण, जायफल, जावित्री, कस्तूरी और कपूर सम भाग १-१ रत्ती की गोलियाँ बनाकर छाया में सुखाकर रख ले पान के रस मे मर्दन कर | १६ भि० सि० Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રકર भिपकर्म-सिद्धि बृहत् कस्तूरीभैरव (स-कस्तूरी, कपर, तानभस्म, धाय के फूल, कॅवाच के बीज, राप्य भस्म, सुवर्ण मम्म, नुकता पिप्टि, प्रवाल भस्म, लौह भस्म, पाठा, वाय विडन, नागर मोग, मोठ, बस, गुढ हाताल, माणिक्य रस, अत्र भन्म एवं गांवला लब द्रव्य सम भाग ले । मबार के पत्र म्वग्न में तीन दिन मर्दन करके २-२रत्ती की गोलियां बना ले । मात्रा-१ गोली दिन में तीन गर । अनुपान पान के रस और मधु से । उपयोग-उपर्युक्त दोनो बोगो का नभी प्रकार के सन्निपात ज्वरो में उपयोग करे। विगेपत. मंथर ज्दर में दूसरे सप्ताह के अंत और तीसरे सप्ताह के प्रारभ ने इसका प्रगेग करे। यह अमृत तुत्य मुगमारो योग है। गरीर का ठडा पडना, नाडी की बीगता, अधिक पनीना आना, प्रलाप, तंत्रा, हृद्दाबल्य, श्वाम कृच्छ आदि उपद्रवो में नद्यो लाभ प्रद रहता है । मनुपान रूप में यथावश्यक बदरक, पान, वाना, लङ्ग, ब्राह्मी, जटा मासी, तगर, गाख पुप्पी इनमें से किसी एक के बनुमान मे दे ! मूनिका गेग मे देवदादि कपाय (नं २ प्रदर रोग ) के अनुपान से इसका उपयोग करे । यदि इस ज्वर के रोगी में प्रलाप बहुत हो अथवा दूसरे सान्निपातिक ज्वर में भी प्रलापाधिक्य पाया जाये तो बृहत् कस्तूरी भैरव रस का प्रयोग करना चाहिये । वात रोगाधिकार में पठित रसराज, योगेन्द्र, वृहात चिन्तामणि रस, कृष्ण चतुर्मुख या चतुर्भुज का भी यथालाम एक या एकाधिक का उपयोग लाभप्रद रहता है । इन योगो के अनुपान रूप में निम्नलिखित कपाय का प्रयोग निश्चित लाभप्रद रहता है - तगरादि क्वाथ-तगर ( नानास्न), पित्तपापडा, अमलताश का गूदा, नागरमोथा, कुटकी, जटामासी (बालछड), असगघ, ब्राह्मी, मुनक्का, लाल चन्दन, दगमूल (सरिवन, पिठवन, गोखरू, भटक्टया, वही कटेरी, बेल, गाम्भारी, बरणी, सानापाठा, पाटलाल ) बार शंखपुष्पी। इन सभी द्रव्यो को मम भाग लेकर जोकुट करे । १ तोले द्रव्य को १६ तोले जल में खोलावे, ४ तोला शेष रहे तो कपडे मे छान कर देवे। यदि रोगी को पतले दस्त आते हो तो इसमें से कुटकी, अमल्ताय नीर मुनक्का निकाल कर इसका प्रयोग करे ।' - १ सतगरवरतिक्ता रेवताम्भोदतिक्ता नलदतुरगगंधाभारतीहारहरा. । मलयजदगमूलीगखपुण्य सुपीताः प्रलपनमपहन्यु. पानतो नातिदूरात् ॥ (त्रिगती) Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड पंचम अध्याय २४३ यदि मियाद पूरी हो जाने के बाद भी मन्थर ज्वर न टूट रहा हो तो उसमे कफ का उपद्रव ( Lung complication ) की सभावना रहती है अस्तु तदनुकूल ज्वरार्यभ्र, रनसिन्दूर, शृग भस्म आदि का योग औपधि एव अनुपान मे करना चाहिये। कई वार विपम ज्वर का अनुवध भो ज्वर को टूटने नहीं देता है। उस अवस्था मे सुदर्शन चूर्ण (विषम ज्वर मे प्रोक्न) का फाण्ट बनाकर औपधि के सहपान रूप मे देना चाहिये । एतदर्थ सुदर्शन चूर्ण ३ माशे लेकर खोलते पानी मे चाय जमे बना लेना चाहिये और छानकर कई बार प्रधान औषधि के अनुपान रूप में देना चाहिये। यदि ज्वर कार में विवव हो तो 'ग्लिसरीन सपाजिटरी' (गुदवत्ति), या ग्लिसरीन मिरिन १ जोम ग्लिसरी गुदा मे चढाकर कोष्ठशुद्धि करनो चाहिये । काई में लवण जल को स्थापन वस्ति ( Enema) देने की भी आवश्यकता पडती है। भरसक कोई रेचक औषधि मुख से न देकर मुनक्का, अजीर, गुलकर, अगूर आदि मिलाकर हो रोगी को कोष्ठशुद्धि कर लेनी चाहिये। यदि रेचक देना ही हो तो अमल्ताग की गुद्दो ओपवि के अनुपान रूप मे देने से कार्य हो जाता है। तीन सप्ताह के अनन्तर रोग का क्रम चलता रहे तो रोगी को हल्का सुपाच्य पथ्य दते हुए जीर्ण ज्वरवत् चिकित्सा करनी चाहिये । पंचम अध्याय जीर्ण ज्वर प्रतिषेध तोन सप्नाह के बाद जो ज्वर गम्भीर धातुओ मे प्रविष्ट होकर मंद हो जाता है और जिसमे प्लीहावृद्वि या यकृत्वृद्धि हो जाती है, अग्नि मद हो जाती है उसे जीर्ण ज्वर कहते है ।' क्रियाक्रम-चिकित्सा सूत्र-क्षीर---जीर्ण ज्वर मे कफ के क्षीण हो जाने पर दूध अमृत के समान विशेप गुणकारी होता है। गोदुग्ध के अतिरिक्त बकरी १ त्रिसप्ताहाद् व्यतीते तु ज्वरो यस्तनुता गत । प्लीहाग्निसाद कुरुते स जीर्णज्वर उच्यते ।। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ?? भिपक्कर्म-सिद्धि के दूध का भी प्रयोग किया जा सकता है । यदि ये दोनो दूध उपलब्ध न हो तो मैन का दूध भी पानी मिलाकर हल्का करके लिया जा सकता है। दूध का प्रयोग गर्म या गर्म करके ठंडा किया हुआ (गत्तगीत ) अथवा धारोष्ण अथवा औपवि से सिद्ध करके किया जा सकता है । क्षीर सर्व प्रकार के जीर्ण ज्वरो का प्रशमन करता है । इस लिये प्रतिदिन मन्दोष्ण, गीत नया औपधि से पकाकर उसके देने की व्यवस्था करनी चाहिये । क्षीर के पाक की विधि यह है कि द्रव्य से बटगुना दूध और दूध से चार चुना पानी छोड कर दूध को पकावे, जब पानी जल जावे, दूध मात्र ही शेष रहे तो उतार ले, और ओपधि को छान करके दूध पीने के लिये रोगी को दे । इस प्रकार पचमूल से, त्रिकंटक बला- क्टकारी- गुड और सोठ से पकावर अथवा पुनर्नवा से पाक करके देना चाहिये । घृत-जव ज्वर लघन, पेया, कपायादि के प्रयोग में शान्त नहीं होता है तब उस न्न रोगी के लिये औपविमिद्ध वृत अथवा केवल गीत का उपयोग पिलाने वाली के लिये करना चाहिये क्योंकि ज्वर को उत्पन्न करने वाली ऊप्मा दक्ष गुण होती है और उम ऊम्प्मा (ताप) के अधिक काल तक रहने से रोगी के शरीर मे रूक्षता जा जाती है जो कफ और रम-रक्तादि के क्षीण होने से वायु की वृद्धि में कारण होती है । अत ज्वर के अनुबंध स्वरूप उस वायु को शान्त करने के लिये स्नेह का प्रयोग यावश्यक हो जाता है । अतएव सुरा ज्वरो वृत का सेवन कराना चाहिये । वाग्भट ने महन्स्रवीत घृत का अभ्यंग जीर्ण ज्वर मे दाह की अवस्था में बताया है "दाहे महस्रवीतेन सर्पिपाऽभ्यङ्गमाचरेत् । " ज्वराधिकार में पठित विविध कपाय एव चूर्ण का प्रयोग घृत मिश्रित करके जीर्ण ज्वर में किया जा सकता है। इनमें ज्वर का शमन होता है, जाठराग्नि दी होती है और बल की वृद्धिहोती है। पिप्पत्यादिवृत - पिप्पली, चंदन, मुस्तक, ग्नम, कुटकी, इन्द्रजी, भूम्यामलकी, अनन्त मूल, अतीस, शालपर्णी, मुनक्का, 1 वला, निम्नपत्र, त्रायमाणा और कंटकारी मे सिद्ध वृत । मात्रा १ तोला दिन मे २. जीर्णज्वरे कफे क्षीणे क्षीर स्यादमृतोपमम् । पेयं तदुष्णशीतं वा यथास्वं भेपजे शृतम् ॥ चतुर्गुणनाम्भसा च शृतं ज्वरहर पयः । धारोष्ण वा पय गीतं पोत जीर्णज्वर जयेत् || जीर्णज्वराणा सर्वेपा पयः प्रशमन परम् । पेनं तदुष्णं श्रीतं वा ययास्त्रमीपर्व. शृतम् ॥ (च ) Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड · पंचम अध्याय २४५ तोनवार जल, दूध या ज्वरनाशक किमी पवाथ से इसी प्रकार गडूच्यादि घृत का प्रयोग परम लाभप्रद होता है ।' अनुवासन-ज्वर की पुराण या जीर्णावस्था मे जव कक एव पित्त क्षीण हो गये हो, अग्नि प्रवल हो, रोगी का पाखाना रूक्ष और बद्ध ( गांठदार ) हो गया हो तो अनुवामन देना चाहिये ।' सिद्धि स्थान मे चरक मे बहुत से अनुवासन बस्नियो पा उल्लेख है उनमें से किसी एक का जो ज्वरघ्न हो उपयोग करना चाहिये । अष्टाङ्ग हृदयकार ने एक ज्वरघ्न अनुवासन वस्ति का सामान्य उपदेश दिया है। वह इस प्रकार का है-जोवन्ती, मनफल, मेदा, पिप्पलो, मधुयष्टि, यच, द्धि, राम्ना, बला, विन्य, शतपुष्पा, गतावरो इन सब द्रव्यो को सम मात्रा में लेकर पोतकर-दूध, जल, तेल और घो मिलाकर सिद्ध करे। इसमे दूध का चार भाग, जल रा चार भाग, घो और तैल का एक-एक भाग होना चाहिये जोर च्या कल्क बाघा भाग होना चाहिये। इस प्रकार सिद्ध किये स्नेह का गदा मार्ग से वस्ति द्वारा प्रवेश कराना चाहिये । ऊर्ध्व विरेचन या शिरोरेचन-जीर्ण ज्वर मे शोधन के लिये विरेचन नम्य देना चाहिये । इससे सिर का दर्द, गुरुता (भारीपन) एव कफ नष्ट होता है, अन्न मे रुचि पैदा होती है, इन्द्रिया चैतन्य युक्त और प्रसन्न होती है। शून्य मिर (पाली निर ) मे स्निग्ध नस्य देना चाहिये । अभ्यग तथा परिपेक-शीत और उष्ण उपचार की विवेचना करते हए औषधि से निद्ध तैलो का मभ्यग, प्रदेह ( लेप), परिषेक (Sponging) तया अवगाहन (जल, दूध या सिद्ध तेल से भरे पान मे डुबकी लगाकर स्नान ) १ ज्वरा कपायर्वमनलवनलघुभोजन । रूक्षस्य ये न शाम्यन्ति सपिस्तेषा भिपग्जितम् ॥ रूक्ष तेजोज्वरकर तेजमा रूक्षितस्य च । य स्यादनुवलो धातु स्नेहमान न चानिल ॥ कपाया सर्व एवैते सर्पिषा सहयोजिता । प्रयोज्या ज्वरशान्त्यर्थमग्निमधुक्षणा शिवा ॥ गुडूच्या क्वाथकल्काभ्या त्रिफलाया वृपस्य च । मृद्वीकाया वलायाश्च मिद्धा स्नेहा ज्वरच्छिद ॥ (भै ) स्वरे पराणे सक्षीणे कफपित्ते दृढाग्नये । रूक्षवद्धपुरीपाय प्रदद्यादनुवासनम् ॥(न) ३ गौरवे शिरस शूले विवद्धेष्विन्द्रियेषु च । जीर्णज्वरे रुचिकर दद्यान्मूर्धविरेचनम् । ( चर ) । गिरोरुग्गौरवश्लेष्महरमिन्द्रियवोधनम् । जीर्णज्वरे रुचिकर दद्यान्नस्य विरेचनम् । स्नैहिक शून्यशिरस ॥ (वा ) Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ भिपकर्म-सिद्धि अवस्थानुमार यथायोग्य जीर्ण ज्वर के रोगियों में कराना चाहिये । इस प्रयोग से तीन लाभ होते है-(क) बहिर्गिगत (त्वचा गत ) ज्वर का गमन होता है। (ख) गरीर के अगा को सुख मिलता है और बल बटता है । त्वचा से इन स्नेही का गोषण होकर कई पोषक तत्वो की प्राप्ति (Vit A D specially) होती है, शरीर पुष्ट होता है । (ग) त्वचा का रक्षण होने में जो वर्ण विकृत हो गया रहता है वह प्राकृतावस्था में या जाता है। वास्तव मे लम्बी अवधि तक उपवामादि के कारण जीर्ण ज्वर में सभी तन्तु बुभुक्षित रहते है-इन क्रियाको से इन बुभुक्षित तन्तुबो का गीता से याप्यायन होता है, जिससे वल वढता है।' जीर्ण ज्वरो मे लाक्षादि तैल, महालालादि तैल, चदनादि तैल, मगुर्वादि तेल अथवा पट्कटवर तेल या चन्दनबला लाक्षादि तेल की मालिया पूरे शरीर भर में हल्के हाथो में करनी चाहिये । इन तैलो के लिये गोपण के पर्याप्त मवमर दो-तीन घण्टे का देना चाहिये। पश्चात् रोगी बहुत क्षीण न हो तो गर्म पानी में तौलिये को भिगो कर निचोट कर पोछ देना चाहिये । इन तैलो के प्रयोग के सम्बन्ध में थोडा विचार अपेक्षित रहता है। जैसे यदि रोगी को जाडा बहुत लगता हो तो उमे उष्ण द्रव्यो से सिद्ध तेल का मभ्यग जैसे मङ्गारक तेल (गा नं.) या मगुर्वादि तैल (चर ) का अभ्यग कराना चाहिये। यदि दाहादि लक्षण मिले तो चंदनादि तैल ( चर ) या लाक्षादि या चंदनबला लाक्षादि तैल (भै. र ) का अन्यग कराना चाहिये। धूपन-नव ज्वर तथा जीर्ण ज्वर इन दोनो अवस्थामो मे वृपन का उपयोग किया जा सकता है। परन्तु जीर्ण ज्वर में यह विगेप लाभप्रद पाया गया है । इस क्रिया के द्वारा त्वचागत ज्वर स्वेद के द्वारा उतर जाता है। यान धूप, अपराजित धूप तथा माहेश्वर वप के नाम मे कई पाठ अपव्यरत्नावली म पाय जाते है । इन में से किसी एक का प्रयोग रोगी के शरीर के वपन के लिये करना चाहिये। धूपन के अनन्तर पमीना बहुत माता है, उमको मूखे वस्त्र स पाठ देना चाहिये फिर उसको ठडा हवा के झोके आदि में रक्षा करनी चाहिये । १ अभ्यङ्गाश्च प्रदेहाश्च परिपकावगाहने । विभज्य गीतोष्णकृत कुर्याजीर्णज्वरे मिपक् ॥ तैराग प्रगम यात्ति बहिर्गिगतो ज्वर । लभन्ते मुखमङ्गानि वल वर्णश्च वर्तते ॥ (च ) २ लाजामधुकमजिष्टामूर्वाचन्दनसारिवा । तैलं पटकटवरं नाम ह्यभ्यङ्गाज्ज्वरनागनम् ।। लानाहरिद्रामजिष्टाकल्केस्तैलं विपाचितम् । पड्गुणेनारनालेन दाह्मीतज्वरापहम् ।। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड पंचम अध्याय २४७ अजन -- यदि क्षोर, घृत, अभ्यगादि विविध प्रयोगो के करने पर भी ज्वर का मन नही हो रहा है तो उसमे आगन्तुक का अनुबंध ( भूतानुबध या प्रेतानुवध ) समझना चाहिये और एतदर्थ उम रोगी में अंजन का प्रयोग करना चाहिये । अजन के कई पाठ सन्निपात ज्वर के प्रसग मे आते हैजैसे अजन भैरव रस | इसका अजन लगाने से ज्वर की शान्ति होती है | " १ वमन विरेचन का निषेध - ज्वर से क्षीण हुए जीर्ण ज्वर के रोगो मे पर्याप्त धातुओ का नाश हो गया रहता है । सर्व धातुक्षय से युक्त रोगी का मल ही वल होता है । अस्तु इस मल को निकालने के लिये कदापि वमन और विरेचन नही देना चाहिये । उसको पर्याप्त मात्रा में गाय का दूध, मुनक्का देना चाहिये, इसी से पेट साफ हो जाता है । यदि बहुत कब्ज हो तो निरूहण क्रिया से अर्थात् ग्लिसरीन की बत्ती ( Glycerine suppositery ), ग्लिसरोन को पिचकारी, (Grlycerine Syringe ) से एक या दो और ग्लिसरीन पाखाने के रास्ते से चढाकर, या सेलाइन या सोप वाटर एनोमा ( नमक या साबुन का पानी गुदा मार्ग से चढा कर ) या दशमूल कपाय की वस्ति देकर कोष्ठ की शुद्धि कर लेनी चाहिये । यदि मृदुरेचन देना हो तो गुलकद, मुनक्का, मुलेठो या अमलताश की गुद्दो मात्रा से खिला कर पेट को साफ करा देना चाहिये । निरूण की क्रिया से ज्वर कम होता है, रोगी के वल एव अग्नि की रक्षा होती है और अन्न मे रुचि जागृत होती है । जीर्ण ज्वर में योग - १ सामनो वटी (गुडूत्री घन वटी) - अगूठे जैसे मोटी गिलोय को लेकर, पानी से धोकर चार-चार अगुल के टुकडे काट ले। फिर एक कलईदार पोतल के कडाहे मे या लोहे के कडाहे मे चतुर्गुण जल मे खोलावे, चौथाई शेष रहने पर उतार कर छान ले। फिर इस द्रव को कलईदार कडा मे डाल कर अग्नि पर चढावे । जब द्रव गाढा हो कर हलवे जैसा हो जावे तो ( च ) सयवा• १ धूपनाञ्जनयोगैश्च यान्ति जीर्णज्वरा शमम् । त्वमात्रशेपा येषाञ्च भवत्यागन्तुरन्वय पलङ्कपा निम्वपत्रं वचा कुठ हरीतकी । सर्पपा सर्विधूंपन ज्वरनाशनम् ॥ ( भै ) २ ज्वरक्षीणस्य न हित वमन न विरेचनम् । काम तु पयसा तस्य निरूहैर्वा हरेन्मलान् ॥ निरुहो बलमग्निञ्च विज्वरत्व मुद रुचिम् । परिपक्वेपु दोषेषु प्रयुक्त शीघ्रमावहेत् ॥ (च ) Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ मियम सिद्धि २-२ रत्ती की गोली बना ले 1 मात्रा एवं अनुपान ' से २० गोली तक । दिन में गरपात्र गर जल के साथ दे। गि भी जीर्ण स्वर में इसका निमंक प्रयोग निया का नन्ना है। गजन्ना के बर में इमुग उपयोग बच्चा होना है। प्रह, जेन दर, मन्त्रान्ति, दीवस्य और पाडु रोग में इसके प्रयोग में अच्छा , लम होता है। यह एक ब्ल्य गट साधन योग है । (मि. गो. मं.) २. मकामृत योग- जनी और गुडची सुन्छ । माया मिथित मात्रा । इस योग जोग अयच्च तापक्रम (Hiperpyrexia) में एक-एक के बंतर ने देने से तापक्रम एक-दो बंध कम हो जाता है। नीती वीवतरे में रक्षा होती है। दृनग प्रयोग इस रोग का जीर्ण सर में उत्तम होता है। बीनालीन र यो विधिोगों के सेवन से मे न होन्हा हो इसके कुछ ही दिनों के उपगंग से उनमे मुगर होता है । अनृपानम्वृ या वृत एवं मित्रो * नाथ । दिन में नेवा तीन मात्रा देनी चाहिये। इस योग में मध्वज के स्थान पर अन्य पीपञ्च रसायन जैसे रस-सिन्दूर या स्वर्ग-सिन्दूर भी मिलाया जा मुत्रता है। ३. वसन्त मालनी-सुवर्ण भस्म या सोने के बरक १ तोला, मोती की पिष्टि २ तोला, युद्ध हिगल : नाला, काली मिर्च का पहछन चूर्ण ४ नाला, गृद्ध दरिग या जन्ट भस्म ८ तोला । गाय के दूध में छाछ से (२ तोले दूब ने निकाले ) एक दिन तक मर्दन करे। निर कागजी नीबू के रस की नवना नब ना दे जब तक उसनी चिनई न दूर हो जावे। नामान्यत. मक्खन की चिदनई दूर करने के लिये लगभग १०० निम्वृनो को मावश्यकता होती है। फिर -२ पत्ती की गोली बना ले। मात्रा १-२ गोली प्रातः माय निप्पली चूर्ण • रती न्ग वृत साथ। यह योग जीर्णचर, राजयमा तथा जर दौर में लान्ड है। ४. पुटपक वियनचरान्तक लौह-प्रयन पारद एवं गंक १.१ तोला लेकर कन्जली का निर इसकी पEठी बनाये। पीछे खरल कर मर्दन करें। जिर टन चूर्ग होने पर उसमें मुर्ग भन्म : नोला, लौह भस्म २ तोला, नान एवं लौह मान लेग २ नोला, मृद्ध नोहागा, गद्ध मोना गेल, ग भन्न, बल समलंक तोला, मुताणिट, गंत मम्म मार गुक्ति मस्न प्रत्येक नोला। वो एकत्र करके सम्मान की पत्ती, चतरे की पत्ती एवं कालमय मी पत्ती के सामने एक-एक दिन तक भावित कर उन्ध को सीपी के दी कुक ने भीतर अन्युट र उसके ऊपर पट्टी कर नि म अङ्गार (निक की बग्नि) पर पक । वे लाल हो जावे तो आग ने Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड पष्ठ अध्याय २४६ निकाल कर ठंडा करे । सम्पुट को खोल कर द्रव्य को पीस कर रख ले | मात्रा १-२ रत्ती अनुपान - भनेजीरे का चूर्ण १ माशा और मधु । जीर्ण ज्वर, पाण्डु रोग, प्रमेह में लाभप्रद । यह वल्य एव रसायन योग है । ५ अपूर्व मालिनी वसन्त - ( प्रमेहाधिकार ) जीर्ण ज्वर मे यह भी एक लाभप्रद योग है । जीर्ण ज्वर में व्यवस्था पत्र – स्वर्ण वसन्त मालती १-२ रत्ती, शिलाजत्वादि या चदनादि या यक्ष्मादि या सर्वज्वरहर लोह ३ रत्ती, त्रिवग भस्म १-२ रत्ती, प्रवाल १-२ रत्तो, शृङ्ग भस्म १-२ स्ती, गुडूची सत्त्व १ - माशा, सितोपलादि चूर्ण ३-४ माशे मिलाकर पीस कर तीन मात्रा बनाले, अनुपान वृत और मधु या केवल मधु, दिन मे तीन वार । द्राक्षारिष्ट, अश्वगंधारिष्ट, बलारिष्ट या दशमूलारिष्ट भोजन के बाद २ चम्मच दवा एव वरावर पानी मिला कर | चन्द्रप्रभावटी ( अर्श या प्रमेहाधिकार ) १ गोली रात मे सोते वक्त दूध से 1 चदनवलालाक्षादि तैल, लाक्षादि तैल या महालाचादि तैल का अम्पग कराना चाहिये । मिर पर हिमाशु तैल का अभ्यंग कराना चाहिये । इस व्यवस्था से सभी जीर्ण ज्वरो मे विशेषत. राजयक्ष्मा के ज्वरो मे सुन्दर लाभ देखने को मिलता है । पूरे शरीर पर पष्ट अध्याय ज्वरातिसार प्रतिषेध "यदि पित्तज ज्वर मे अतिसार हो जाय अथवा अतिसार के रोगी मे ज्वर हो जाय ऐमी अवस्था मे दोप और दूव्य ( पित्त दोष, पित्तरूप अग्नि दृष्य ) इन दोनों के समान होने के कारण आयुर्वेदज्ञो ने इस रोग को ज्वरातिसार को सज्ञा दी है ।"१ ज्वरातिसार मे ज्वर और पुरीप का अतिसरण ये दो ही प्रमुख लक्षण पाये जाते है । इन दोनो की उत्पत्ति मे आम दोष ही कारण के रूप मे होता है । यह आम दोप अग्नि का विनाश करके ज्वरातिसार रोग पैदा करता है । ज्वरातिसार की उत्पत्ति मे पित्त का प्रकोप होना प्रधान कारण माना गया है और उसीसे आम दोप की वृद्धि हो कर रोग पैदा होता है । ऐसी अवस्था मे शका यह होती है कि पित्त साक्षाद् अग्नि स्वरूप हे और आग्नेय गुण से युक्त होना है तो उसका वृद्धि से अग्निनाश क्यो कर होता है तथा आमदोपता रस मे केमे आ सकती है ? इसका का समाधान यह है कि पित्त आग्नेयगुणभूयिष्ठ होते १ पित्तज्वरे पित्तभवेऽतिसारे तथाऽतिसारे यदि वा ज्वर स्यात् । दोपस्य दूण्यस्य च साम्यभावात् ज्वरातिसार कथित भिभि ॥ / Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपर्म-सिद्धि हुए भी द्रव स्वरूप का होता है अस्नु वह अग्नि का नाग कर कर देता है। जैसे व स्वल्प प्रतप्त जल अत्युप्ण होने से अग्नि पर ठोडे जाने पर अग्नि को बुझा देता है। अब इस बंटे पिन से पात्रकाग्नि मद पड़ जाती है या बुझ जाती है। फलन आम टोप बढता है और ज्वरातिमार उत्पन्न हो जाता है । मन्नु चिकित्सा में लंधन-पाचन का कर्म श्रेष्ट रहता है। क्रिया क्रम-१ ज्वरातिसार में प्रारंभ में लंघन और पाचन आम दोपो की प्रबलना को कम करने के लिये करना चाहिये । २ ज्वर और अतिसार की जो मिन्न भिन्न चिकित्सा कही गई है उन्ही दोनो क्रियाक्रमो के मिलित योगो का ज्वगतिसार की चिकित्सा में प्रयोग नहीं करना चाहिये क्योकि मिलित उपक्रम प्राय एक दूसरे के विरुद्ध पडते है बोर रोग को वहा देते है। जैस, प्राय स्वरहर बारधियाँ भेदत होती है फलन वरातिमार के रोगी में प्रयुक्त होकर अतिमार को बढा देंगी और अतिमार रोग में पठित बोपवियाँ प्राय. ग्राही या स्तंभक होती है जो जरातिमार में प्रयुक्त होकर अतिसार का निग्रह करके वर को बढा देगी । अन्तु जगनिमार की बिक्रिमा मे विशिष्ट उपक्रमो को लेकर चलना पड़ता है। जिनमें बर तथा अनिमार दोनो के लक्षणों का ज्ञाय माय गमन होता चले।' मन्चर प्रवाहिका में भी बरातिसारवत् ही क्रियाक्रम रखना चाहिये । : पया-लंघन करने के पश्चात ज्वरातिमार में पेयादि का क्रम हितकारी होता है । मत पृष्टपर्णी, बला, बिन्त्र के फलका गृढा, मोठ, कमल पत्र, धनिया इनकी ममभाग में लेकर एक तोला की मात्रा में लेकर बनीम तोले पानी में पकाकर बावा गेय रहने पर उतार कर छान ले। फिर इस पानी मे बान्य लाज या नण्डल का कण डाल कर पेवा बना कर उनमें थोडा अनार का रस या (अनारदाने का रस ) मिलाकर रोगी को पाने को दे। ८ नागरादि कपाय-नागर ( गुठी ), बतीय, मुस्तक, अमृता, चिगना, कुटज की छाल का कपाय-गवरातिसार का गामक होता है। ८ इन्द्रयव, देवदान, कुटकी और गज-पीपल क्या गोक्षुर, पिप्पली, धान्यक, वेत्र की मज्जा, पाग, तथा बजवायन का क्वाथ-ज्वरानिमार एवं दाह का शामक होता है। १. वरातिमारिणामादी कुर्यात् लवनपाचने । प्रायस्तावामसम्बन्ध विना न भवतो यत ॥ अगतिनारिणा प्रोक्तं भेषज यत् पृथक्-पृथक् । न तन्मिलितयोः कार्यमन्योन्यं वयेद्यत. ॥ प्रायो उबरहरं मेदि स्तम्भनं बतिमारनुत । अतोऽन्योऽन्यविरहत्वाद् वर्धनं तन् परस्परम् ।। ज्वरातिमारे पेवादिक्रम स्वारलविते हित. । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ चतुर्थ खण्ड : सप्तम अध्याय २५१ ६ कलिङ्गादि गुटिका-इन्द्रजव, नीम की छाल, बेल के फल की गूदी, नाम की गुठली, पंथ का गूदा, रसाञ्जन, लाक्षा, हरिद्रा, दारुहरिद्रा, नेत्रवाला, कायफर, नोना पाठा, लोय, मोचरस, शख भस्म, धाय का पुष्प, वटाकर इन द्रव्यों को मम परिमाण में लेकर तण्डुलोदक ने पीस कर ३ माशे को गुटिका बना कर छाया में सुखाकर रख ले। जल से १-१ गोली दिन मे तीन वार या चार बार दे तो ज्वरातिसार तथा रक्तस्राव मे लाभप्रद होता है। रसयोग चिकित्सा-सिद्ध प्राणेश्वर रम -शुद्ध गधक ४ भाग, पारद ४ भाग, अभ्रक भस्म ४ भाग, मजिक्षार १ भाग, शुद्ध टकण १ भाग, यवक्षार, १ भाग, मैन्धव लवण १ भाग, रुचक लवण १ भाग, विड्लवण १ भाग, मौद्भिद लवण १ भाग, सामुद्रलवण १ भाग, हरीतकी, विभीतक, आमलकी, शठो, मरिच, पिप्पली, श्वेत जीरा, स्याह जीरा, चित्रक को जड, यमानी, घृतभजित होग, वायविडङ्ग, विजैसार और सौफ मे से प्रत्येक एक एक भाग। मात्रा४ रत्ती ने १ मागे । अनुपान--पान के रस के साथ ।। कनकसुन्दर रस-हिंगुल, मरिच, गधक, टकण, पिप्पलो, वत्सनाभ । धतुर का वीज-समपरिमाण मे लेकर विजया-स्वरस मे भावित कर २ रत्ती को गोली निर्माण करे । अनुपान-भृष्ट जीरक + मधु । आनन्दभैरव रस-शुद्ध हिंगुल, वत्सनाभ, सोठ, मरिच, पिप्पली, शुद्ध टकण, गवक। इन्हें मम भाग ले । प्रथम हिगुल एव गधक की कज्जलो बनाकर शेप द्रव्यों को मिला दे । जम्बीरी नीबू के रस से भावित कर १-२ रत्ती की गोली बना ले। छाया में सुखाकर शीशी मे रख ले। अनुपान-अदरक के रस और मधु से या भुनाजोरा के चूर्ण और मधु मे। वरातिसार मे उपवास करना अधिक उत्तम रहता है तथापि पाचनार्थ एव पोपणार्थ पथ्य-पूर्वकथित पेया का उपयोग करे। वार्लीवाटर नमकीन बनाकर नीव का रन डाल कर पिलावे । अनार या बेदाने का रस पिलावे । बकरी का दूध पीन को दे। सप्तम अध्याय अतिसार प्रतिषेध अग्निमाद्य होने से बढे हुए द्रव धातु से युक्त मल वायु से प्रेरित होकर जब गदामार्ग से वार वार निकलता है तो उसे अतिसार कहते है। यह कारण Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ भिपकर्म-सिद्धि भेद ने वातिक, पैत्तिक, श्लेष्मज, त्रिोपज, शोकज और आमज छ प्रकार का होता है । क्रियाक्रम - अतिसार को चिकित्सा में सर्वप्रथम विचार यह करना होता है कि इसमें आमदोष युक्त है या पत्र | अस्तु चिकित्सक के लिए दोनो प्रकार के लक्षण एव चिह्नों मे अवगत होना बावश्यक होता है क्योकि दोनो अवस्थाओं में क्रियाक्रम का पर्याप्त भेद करना पड़ता है । उमे, नामातिमार की अवस्था में स्तंभन या ग्राही योगों को नहीं दिया जाता है, केवल लंग्न और पाचन प्रमृति उपचारी से ठीक करना पडता है, परन्तु पक्वातिमार की अवस्था मे रोगों में नग्राही अपवि का योग आवश्यक हो जाता है । अतएव सर्वप्रथम नाम और पत्र की जानकारी यावस्यक हो जाती है | नाम और पत्र शब्द एक पारिभाषिक अर्थ में शास्त्र व्यवहृत होता है | अतिनार में आमावस्था अतस्यविप ( Internal toxins ) के अर्थ में और पावस्या निर्गत तस्य विप के अर्थ में प्रयुक्त होता है । तथापि आम और निराम के विनिश्चय के लिये कुछ लक्षण तथा चिह्न निर्धारित हैं । जैसे— मल का भेद - १ बामटोप युक्त डालने मे डूब जाती हैं तथा पक्त्रातिमार परिपक्व होने की वजह से लघु होने के अतिसार में आम तथा पक्क विष्ठा गुरु होने के कारण जल में या पक्व मल युक्त अतिनार में मल से जल में डालने से उसपर तैरती है । परन्तु कई बार आम दोप युक्त मल में भी जलीयाग अधिक होने से वह जल में मिलकर तैरता है और पत्र मल अधिक कफ युक्त, शीत, और घना होने के कारण पानी में डूब जाता है। इस परीक्षा कर लेनी चाहिये | जैन२ अतिसार की आमावस्या में जो पुरीप निकलता है उसमें अत्यन्त दुर्गन्ध होती है, उदर में आटोप ( गुड गुड शव्द होता है, पेट फूला आध्मान युक्त ) रहता है, पेट में अति (सुई चुभोने जैमी बेदना ), हल्लास और कफ का मुख से नात्र प्रभृति लक्षण मिलते है । इन लक्षणों के अभाव में या विपरीत लक्षणों की उपस्थिति में निरामता या पक्वता समझनी चाहिये ।" लिये लक्षण के अनुसार भी याम-पत्र की १ आमपत्रत्रक्रम हित्वा नातिमा क्रिया यत । यत. सर्वातिसारेषु ज्ञेयं पक्वामलक्षणम् ॥| मज्जत्यामं गुन्वाविट पक्वा तुल्लवते जले । विनातिद्रवसंघानीत्यश्लेश्मप्रदूपणात् ॥ चनुद् दुर्गन्धि माटोपविष्टंभातिप्रमेनि । विपरीतं निरामं तु कफात् पक्वं च मज्जति ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : सप्तम अध्याय २५३ वस्तुन गरीर में किसी भी प्रकार की विपमयता ( toxaemia) के उत्पन्न होने पर उसको दूर करने के लिये अतिसार एक प्राकृतिक साधन है। पतले दस्त होने से शरीर से बहुत प्रकार के विप निकल जाते है, शरीर का शोधन हो जाता है । दमको प्रारम्भ मे ही बद कर देने से या अतिसार के रोकने से शरीर के भीतर आम दोप या अन्तस्य विप अधिक मात्रा मे बढ कर गोथ, पाण्डु, प्लीहा, कुठ, गुल्म ज्वर, दण्डक, अलमक, आध्मान, ग्रणी और अर्श प्रभृति बहुत से रोग या उपद्रव को पैदा करता है, अन्तु प्रारभ मे अर्थात् आमदोष की दशा मे अतिमार का स्तमन नहीं करना चाहिये । परन्तु शरीर के आम या अन्तस्थ विप के निकल जाने के अनन्तर ग्राही औपधियो का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है क्यो कि अतिमार मे मल के निकलने के साथ ही साथ द्रव धातु (जल), लवण और क्षार धातु का भी सरण होता है। जिसके परिणाम स्वरुप जलाल्पता या द्रवधातुक्षय ( Dehydration ) हो कर रोगी की मत्य हो जाती है । अस्तु पक्व अतिसार मे पुरोपसग्रहणीय या स्तभक औपवियो का योग कर यथाशीघ्र पतले दस्त को बद कर देना चाहिये ।। कई वार अतिसार के प्रबल होने पर द्रव-धातु-क्षय से रक्षा करने के निमित्त तथा रोगी के प्राण रक्षार्य आमावस्था में भी अतिसार का स्तभन आवश्यक हो जाता है। अस्तु रोगी की धातु की दशा तथा वल देखते हए यदि अतिसार वडा प्रबल हो तो दो-तीन दस्त के बाद ही उसकी आमावस्था मे भी ग्राही भेपजो का प्रयोग शास्त्र सम्मत है।' अत्यन्त क्षीण धातु और वल वाले रोगियो मे अतिसार के स्तभन के लिये ही औषधि देनी चाहिये, उसके लिये लपन और पाचन आदि क्रमो की प्रतीक्षा नही चाहिये। आमातिसार-१ प्रारभ मे लघन एव पाचन करना, पश्चात् स्तभन करना चाहिये । पथ्य मे प्रद्रव और लघु भोजन देना चाहिये। रोगी बलवान् १ न त सग्रहण दद्यात् पूर्वमामातिसारिणे । दोपा ह्यादी रुद्धयमाना जनयल्यामयान बहून् ॥ शोथपाण्ड्वामयप्लीहकुष्ठगुल्मोदरज्वरान् । दण्डकालसकाध्मानग्रहण्य गदास्तथा । पाकोऽसकृदतीसारो। ग्रहणीमार्दवाद्यथा । प्रवर्तते तदा कार्य क्षिप्रं साग्राहिको विधि ॥ २ क्षीणवातुवलार्तस्य बहुदोपोऽतिनि सृत । आमोऽपि स्तम्भनीयः स्यात पाचनान्मरण भवेत् ॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ भिपक्कर्म-सिद्धि हो तो लघन वडा ही उत्तम होता है । उसी ने उसके वढे हुए दोप का शमन और आम का पाचन भी हो जाता है । १ २ जल प्रयोग - अतिसार मे कच्चा ठंडा जल देना ठीक नही रहता, अस्तु उमको औपवित जल देना चाहिये । यत एव मुगंधवाला तथा शुठी या मुस्तक तथा पर्पट या नागरमोथा तथा सुगध वाला के योग से संस्कृत अर्थात् पानीय विधि से बनाया जल पीने को देना चाहिये । इसके अभाव में सॉफ का अर्क, पुदीने का अर्क या जेवायन का अर्क वोच-बीच मे तृपा की शान्ति के लिये देना चाहिये । " ३ शालपर्ण्यादि पडङ्गपानीय – गालिपर्णी, पृश्निपर्णी, वृहती, कंटकारी, वला, गोक्षुर, विल्व, पाठा और मोठ इन द्रव्यो को समपरिमाण में मिला कर पडङ्गपानीय विधि से कपाय वना कर रख ले। तृपा मे रोगी को पीने को दे । फिर इमी कपाय मे मण्ड, पेया और यत्रागू आदि पथ्य सिद्ध करके रोगी को पथ्य के रूप मे अन्न काल मे देना चाहिये । ४ लघन एक ढो वक्त तक कराके रागी को पीने के लिये उपर्युक्त कपायो मे मित्र मण्ड, पेया, विलेपी, यवागू प्रभृति पथ्य समय से क्षुवा लगने पर भोजन के काल मे देना चाहिये । अतिसार के रोगियो ममूर की दाल (यूप) सर्वोत्तम पथ्य माना गया है । इमी प्रकार धान्य लाज के सत्तू का प्रयोग भी उपर्युक्त कपाय मे घोल कर मिश्री मिलाकर या सेंधा नमक मिला कर अतिसार मे हितकर माना गया है | 3 १ आमे विलघन शस्तमादौ पाचनमेव च । कार्यं चानगनस्यान्ते प्रद्रवं लघु भोजनम् ॥ २ होवेरशृङ्गवेराभ्या मुस्तपर्पटकेन वा । मुस्तोदोच्यवृत तोय देयं वापि पिपासवे ॥ ३ युक्तेऽन्नकाले क्षुत्क्षाम लघून्यन्नानि भोजयेत् । अपaसिद्धा पेया लाजाना शक्तवोऽतिसारहिता | वस्त्रप्रत्र तमण्ट पेया च मसूरयूपश्च । शालपर्णी पृश्निपर्णी वृहती कण्टकारिका । चलाग्वद्रष्ट्रावित्वानि पाठानागारधान्यकम् । एतदाहारसंयोगे हितं सर्वातिसारिणाम् । धान्यक नागर मुस्त वालकं विल्वमेव च ।। आमशूलविबन्धघ्नं पाचन वह्निदीपनम् । इद धान्यचतुष्क स्यात् पैत्ते शुण्ठी विना पुन: । ( भँ. र. ) Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : सप्तम अध्याय २५५ ५ पाचन के लिये कई क्वाथो का प्रयोग उत्तम रहता है-जैसे नागरादि चवाथ-गु ठी, अतीस, मस्तक अथवा धान्यक और सोठ से बने कपाय का योग नये शूल युक्त अतिसार मे लाभप्रद रहता है । धान्यपचक या धान्यचतुष्क-कपायधान्यक, शुण्ठी, मुम्तक, नेत्रवाला, बिल्वमज्जा इन पाव द्रव्यो का क्वाथ वान्यपञ्चक कहलाता है। यह आमातिसार मे आम का पाचक, विवध को नष्ट करने वाला, शल का शामक तथा पाचकाग्नि को दीप्न करने वाला होता है। धान्यपचक मे से शठी को निकाल कर शेप चार द्रव्यो से बने कपाय को धान्य चतुष्क कहते है । इसका प्रयोग पित्तातिसार मे अधिक लाभप्रद होता है। वत्सकादि कपाय-इन्द्रयव, अतिविपा, बिल्व, सुगध वाला, गुण्ठी, मुस्तक का वना कषाय आमयुक्त, शूलयुक्त अतिसार, रक्तातिसार तथा जीर्ण अतिसार या प्रवाहिका मे लाभप्रद होता है। दोपानुसार व्यवस्था-अतिसारा मे स्तभन के लिये कुटजादि कपायइन्द्रयव, दाडिम फल के छिल्के, मोथा, धाय के फूल, बेल की मज्जा, नेत्रबाला, लोध्र, रक्त चंदन एव पाठा का कपाय अतिसार तथा रक्तातिसार को वद करता है। यदि अतिसार मे वायु को अधिकता हो तो वच, अतीस, मुस्तक, इन्द्र जौ और कुटज की छाल का कपाय ( वातातिसार मे वचादि क्वाथ ), यदि पित्त की अधिकता हो तो किरात, इद्रयव और रसाजन का क्वाथ मधु मिला कर अथवा अतीम, कुटज की छाल, इन्द्रयव का समपरिमाण मे चूर्ण बनाकर चावल के पानी और मधु के साथ (पित्तातिसार मे किराततिक्तादि कपाय या अतिविषादि चूर्ण) और श्लेष्मा की अधिकता हो तो घृतभृष्ट हिगु, कालानमक, त्रिकट, अतिविषा और मुस्तक का कषाय बना कर इन्ही द्रव्यो के चूर्ण का उष्ण जल से ( श्लेष्मातिसार मे) हिंग्वादि चूर्ण का प्रयोग करना चाहिये । अतिसार मे यदि दो दो दोपो का मसर्ग पाया जावे तो द्विदोषशामक ओषधियो का योग करके चिकित्सा करनी चाहिये । पत्रपाक प्रयोग-दोषो का भले प्रकार से पाक हो जाने पर, वेदना के कहो जाने पर, दीप्त अग्निवाले मनुष्य के लिये, चिरकालीन अतिसार के रोगो मे पट-पाक सिद्ध ओषधियो का उपयोग करना चाहिये । जमे कुटज पुटपाक या स्योनाक पुटपाक या दाडिम पुटपाक । यहा पर एक कुटज पुटपाक का विधान दिया जा रहा है--'स्निग्ध और स्थूल कृमि आदि से अभक्षित को ताजी और गोली १ सवत्सक सातिविष सविल्व सोदीच्यमुस्तश्च कृत कषाय । सामे सशूले च सशोणिते च चिरप्रवृत्तेऽपि हितोऽतिसारे ॥ ( भै, र.) Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ भिपकर्म-सिद्धि लेकर छोटे-छोटे टुकड़े करके तण्डुलोदक में पीसकर करक (लुगदी ) के रूप में वना ले। पश्चात् इसका गोला कर उसके उपर मे जामुन पत्र या पलाग पत्रों का आवरण लगा कर कुग मे वांव दे। फिर उसके ऊपर चिकनी मिट्टी का पानी में पंक बनाकर, दो अंगुल मोटा लेप करके अग्नि के गारो में रख दे। जव पक्र कर ऊपर की मिट्टी लाल रंग की हो जाय तो बाहर निकाले और ऊपर का वेष्टन हटा कर कल्क का रस निकाल कर इस रस में मधु मिला कर अतिसार मे पीडित रोगी को पिलावे। मात्रा ४ तोले दिन में एक या दो बार । इसी विधि से योनाक या दाडिम के फलो का भी पुटपाक-स्वग्स निकाला जा सकता है । कुटजावलेह या कुटजाष्टक का प्रयोग भी उत्तम रहता है। कुटज की छाल का काडा बनाकर उसमें मोचरम, पाठा, मजीठ या लज्जालु के बीज, अतीम, नागरमोवा, कच्चे विल्वफल की मज्जा, बाय का फूल महीन कर बरावर परिमाण में डालकर मिलाकर गाढा कर लेना चाहिये । इस योग को १ मे २ तोले की मात्रा मे दिन में दो या तीन बार चावल के मण्ड, बकरी के दूध या गीतल जल से पीने से विविध प्रकार का अतिमार अच्छा होता है। छागी दुग्ध-जीर्णातिसार में बकरी का दूध बडा लाभप्रद होता है। दूध का प्रयोग या तो बोपधि से सिद्ध कराकि या केवल तीन गुने जल में उबाल कर दूध मात्र गेप होने पर पिलाना चाहिये । भय-शोकातिसार-भय और गोक के कारण उत्पन्न मतिमार मे बातातिसारवत् चिकित्सा करनी चाहिये । सर्वप्रथम इन रोगियों में हर्पण ( हर्पोत्पादन ) तथा आश्वासन (मान्त्वना देना ) प्रभृनि उपचारो से मन को प्रसन्न करना चाहिये । पश्चात् वातातिसारवत् चिकित्सा करनी चाहिये। पृश्निपण्यादि कपाय-ग्निपर्णी, वला, बिल्व, धान्यक, उत्पल, मोठ, वायविडङ्ग, यतीस, नागरमोथा। देवदारु, पाठा इन्द्रजी-इन द्रव्यो के क्वाध मे मरिच के चूर्ण का प्रक्षेप टालकर पिलाना। रक्तातिसार प्रतिपेष-१ बिल्व-मज्जा ( भाग में भुने वल या उवाले बेल की मज्जा ) मोर पुराने गुढ का मेवन । २ गाल की छाल, बेर की छाल, जामुन की छाल, पियाल की छाल, बाम की छाल या अर्जुन की छाल में से किसी एक का ६ मागे चूर्ण लेकर मधु में मिलाकर दुग्ध के साथ सेवन । 2 लालचंदन का चूर्ण : मागे चीनी और शहद मिलाकर चावल के पानी के माय भवन। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : सप्तम अध्याय २५७ ४ दाडिम के फलका छिल्का तथा कुटजत्वक् का कपाय मधु और चोनी के साथ सेवन । ५ जम्बु, आम्र, आमलकी का स्वरस निकालकर शहद मिलाकर दूध से प्रयोग। ६ बकरी के दूध मे पकाये कच्चे वेल की मज्जा का मोचरस और इन्द्र जौ मिलाकर सेवन । ७ वन तण्डलीयक का चावल के धोवन के साथ प्रयोग। ८ शतावरी का दूध के साथ सेवन । ९ कुटजत्वक् कषाय मे अतीस मिलाकर सेवन । १० कृष्ण तिल के चूर्ण मे चतुर्थाश शर्करा मिलाकर बकरी के दूध के साथ । ११ विल्वादि चूर्ण-बिल्व, मुस्तकी, धाय के फूल, पाठा, शुण्ठी, मोचरसगड और तक के साथ सेवन । दुर्जय अतिसार का भी शमन करता है। १२ वटाङ्कर या बट-प्ररोह का तण्डुलोदक के साथ सेवन । १३ अकोठ मूल (ढेरा) ६ माशे का चावल के धोवन के साथ सेवन । नवीन या पुराने रक्तातिसार मे सद्य. लाभप्रद होता है। __-१४ विशल्यकरणी (अयापान) या कुकुरद्रु (कुकरौधा) का स्वरस या कपाय सद्य रक्तस्तभक होता है । रक्तातिसार रक्त प्रवाहिका, रक्तार्श, रक्त प्रदर रक्त तथा अतिसार मे इसके स्वरस या कषाय का प्रयोग करे। श्वेत कुकरौधा अधिक श्रेष्ठ होता है। १५ नागकेसर या केपर का मक्खन या शहद के साथ सेवन रक्तस्तभक होता है। १६ रसाञ्जनादि चूर्ण, रसाञ्जन, इन्द्रयव, अतीस, कुटज कीछाल, धातकी पुष्प और शुठी का सम परिमाण मे लेकर बनाया चूर्ण । मात्रा, ३ माशे । अनुपान, तण्डुलोदक और मधु । रक्तातिसार तथा अतिसार मे लाभप्रद । उपद्रवो की चिकित्सा-गुददाह-वारवार पुरीष त्याग करने से गुद के श्लेष्मलकला प्रणित या विदार युक्त हो जाती है । जिससे रोगी को शौच-त्याग मे वेदना और दाह होता है। एतदर्थ १ पटोल और मुलैठी का कपाद बनाकर उसमे अजाक्षीर मिलाकर प्रक्षालन तथा २. गुदत्ति धतूरे की जड, इन्द्रजौ और अफीम सम-परिमाण मे लेकर दो रत्ती की मात्रा मे वत्ति बनाकर गुदा मे धारण करना लाभप्रद होता है। गदभंश-चाङ्ग रीघृत ( चर ) तिन पतिया के स्वरस से सिद्ध गोघत का सेवन । मात्रा १ से २ तोले बकरी के दूध मे डालकर । मृषिक तैल (सु) का स्थानिक प्रयोग भी उत्तम होता है। १७ भि० सि० Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ भिषकर्म-सिद्धि, मृर्छा तथा तृपा के उपद्रव में-जामुन, आम के पल्लव या छाल (ऐसे पेड जिनमें फूल और फल न आये हो)। उगीर,वटाङ्कर,प्रियङ्गु, मुस्तक, पटोल पत्र और धान्यक के योग से बने कपाय का मधु के साथ मेवन । अतिसार में नाभि प्रलेप-कई वार उदर मोर नाभि प्रदेश पर लेप करने से अतिसार में शमन होते देखा गया है। अतिसार की तीव्रावस्था में अन्य भेपजो के साथ या स्वतत्रतया भी इन लेपो का प्रयोग किया जा सकता है। ये वडे अद्भुत और इष्ट फल योग है । जैसे १ नाभि के चारो ओर आमकी के कल्क को एक क्यारी बनाकर उसमें अदरक का स्वरस भर देना। २. जायफल को घिसकर लेप करना पूरे उदर विगेपत. नाभि पर। यह प्रयोग वालको में वडा लाभप्रद होता है। ३ आम की छाल को काजी से पीसकर नाभि पर लेप करना । यह अफीम एवं भाग रहित उत्तम पाचक ग्राही योग है। जहाँ पर भांग और अफीम युक्त योगो से लाभ न हो इनका प्रयोग करना चाहिये। कपूरादि वटी-कपूर, शुद्ध अफीम, नागरमोथा, मेंका हुआ इंद्र जी, जायफल, शुद्ध हिंगुल, और शुद्ध टकण । प्रथम हिंगुल, अफीम और कपूर को जल से मर्दन करे। फिर अन्य ओपधियो का सूक्ष्म कपड़छान चूर्ण मिलावे। तीन घटे तक जल से मर्दन करके २-२ रत्ती की गोलियां बना ले। मात्रा-१-२ गोली। अनुपान-जल या चावल के पानी के साथ यह तीन नाही योग है। अतिसार में सद्यः स्तभन के लिये इसका उपयोग करना चाहिये। अगस्ति सूतराज-शुद्ध पारद १ तोला, शुद्ध गंधक १ तोला, शुद्ध हिगुल २ तोला, शुद्ध धतूर का वीज ४ तोला, शुद्ध अफीम ४ तोला । भृगराज स्वरस के साथ भावित कर २-२ रत्ती की गोली बना ले। त्रिकटु चूर्ण ४ रत्ती और मधु मिला कर १-२ गोली का दिन मे दो-तीन वार प्रयोग करे । सव प्रकार के वमन, शूल एव अतिसार में लाभप्रद रहता है। काली मिर्च ४ रत्ती और घी १ तोला के अनुपान से प्रवाहिका मे उत्तम कार्य करता है। इसका स्वतत्र या निम्नलिखित व्यवस्थापत्र के अनुसार मिश्रण बना कर अतिसार तथा प्रवाहिका मे उपयोग करना लाभप्रद पाया जाता है - रामवाण रस ४र० महागंधक ४र० शंखभस्म २र० वराट भस्म २र० अगस्ति सूतराज ४२० Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० चतुर्थ खण्ड : सप्तम अध्याय विश्व ४ माना-मरिच ४ र० और मधु ६ माशे के साथ । जातिफलाद्यावटी-पारद और गधक की कज्जली से रहित, परन्तु धतूर एव अहिफेन युक्त योग है। शूलयुक्त अतिसारप्रवाहिका तथा ग्रहणी मे लाभप्रद रहता है। योग-जायफल, शुद्ध टकण, अभ्रक भस्म, धतूर के बीज सभी द्रव्य समान और धतूर द्विगुण' अहिफेन (शुद्ध) सवको एकत्र महीन पीस कर गधप्रसारणी स्वरस को भावना । मात्रा ३ रत्ती। मधु से। ग्रहणी रोग प्रतिषेध व्याख्या-पचन संस्थान के विकारो मे एक अन्यतम या प्रधान विकार ग्रहणी रोग है। वास्तव मे पचन संस्थान मे दो हो प्रमुख अग पाये जाते है। एक वे जिनका सम्बन्ध खाये हुए अन्न का ठोक प्रकार से पाचन से है, दूसरे वे अग जिनका सम्बन्ध सम्पाचित अन्न रस का सम्यक् रीति से शोषण करना है। इस प्रकार पूरे पाचन सस्थान मे दो ही क्रियाओ का समावेश होता है। १ पाचन ( Digestion ) २ गोषण ( Absorption )। अनुभव बतलाता है कि सर्वप्रथम पचने की क्रिया ही दूपित होती है। इसके दूषित होने से विविध प्रकार के अजीर्ण ( Dyspepsia) अग्निमाद्य प्रवाहिका, आमातिसार, अतिसार प्रभृति रोग होते है। ये रोग यदि अधिक दिनो तक चलते रहे और उनका सम्यक् रीति से उपचार न हो तो ये दूसरे पाचन अवयवो को भी दूपित कर देते है जिसका परिणाम यह होता है कि अन्न रस का शोपण ठोक रीति से नही हो पाता है । इस शोपण के अवयवो मे ग्रहणी एक प्रधान अवयव है जव इस अवयव की दुष्टि हो जाती है तो रोग को ग्रहणी रोग कहते है । ग्रहणी कहने से पक्वाशय ( Duodenum ), लघ्वत्र तथा बृहदत्र का ग्रहण समझना चाहिये । इन अवयवो की दुष्टिसे तद् तद् अगो को क्रिया भी दूषित हो जाती है। इसी लिये शास्त्रकारो ने बताया है कि अतिसार अथवा प्रवाहिका के ठीक हो जाने पर भी रोगी की अग्नि मद हो जाती है-इस मन्दाग्नि के काल मे रोगी को पथ्य और लघु भोजन प्रभृति आहार-विहार के ऊपर रहना चाहिये । अगर अतिसार या प्रवाहिका से निवृत्त रोगी ने अपने पथ्यादि को व्यवस्था ठीक नहीं रखी तो विषमाग्नि पैदा हो जाती है-जिसमे कदाचित् सम्यक् पाक हो जाता है और कई बार ठीक पाक नही होता है पुन इस विपमाग्नि का परिणाम ग्रहणी रोग पैदा होना होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सम्पर्ण प्रकार से पचनसम्बन्धी रोग का अतिम परिणाम ग्रहणी रोग है। इस अवस्था में रोगी के पचन तथा शोपण की दोनो क्रियायें ही विकृत हो जाती है। फलतः Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० भिपकर्म-सिद्धि - रोग कष्टसाध्य हो जाता है । रोग में निवृत्त होने के अनन्तर भी पुनरावृत्ति ( Relapses ) की सभावना रहती है । अस्तु सम्पूर्ण पचन संस्थान का नवीनीकरण (Over Havling) करना ग्रहणी चिकित्सा का लक्ष्य रहता है । ग्रहणी में चिकित्साक्रम भी दो प्रकार का रखा जाता है - एक वातातपिक ( Ambulatory or Outdoor treatment ) और दूसरा कुटी प्रावेगिक ( Indoor Hospital ) | यदि रोग नया हो विकृति बहुत वढ़ी हुई न हो तो सामान्य उपचारो मे प्राय. रोगी ठीक हो जाता है, परन्तु वहुत वढे हुये रोग में विशिष्ट उपक्रमो मे उपचार चिकित्सालय में रख कर कल्प-क्रम से करना होता है । - सामान्य क्रियाक्रम — जैसा कि प्रारंभ में ही बताया जा चुका है कि ग्रहणी वह व्याधि है जिस मे पाचन तथा गोपण नामक उभयविध कार्य दूषित हो जाते हैं (A syndrome of Indigestion and Malabsorption) अस्तु ऐमी चिकित्सा जो अजीर्ण ( Dyspepsia ) को भी ठीक करे साथ ही माथ अतिसार ( Diarrhoea ) को संभाले ऐा उपचार करना अपेक्षित होता है | बस्तु आम तथा निराम दोनो अवस्थावो का विचार करके चिकित्सा का प्रारंभ करना चाहिये । यदि आम रस की प्रबलता हो तो रोगी का स्नेहन और स्वेदन करके वमन और विरेचन देकर शुद्धि करनी चाहिये । पञ्चात् लंघन, दीपन और पाचन प्रभृतिक्रियाओ मे उपचार करना चाहिये | पंचकोल से तया का सेवन भी कराना चाहिये । आमावस्था मे उपक्रम - आहार के विदग्ध होने से आध्मान, लाला प्रमेत्र, उदर शूल, गले मे जलन, अरुचि और गौरवादि लक्षणो की उपस्थिति से ग्रहणी रोग में आम दोप को विद्यमानता समझना । अस्तु इसके निर्हरण के लिये रोगी का स्नेहन, स्वेदन करके वमन करा देना चाहिये | दो चार वमन हो जाने से आमाशय गत आम दोप निकल जाता है । वमन कराने के लिये मदन फलके कपाय में पिप्पली और सर्पप का क्ल्क मिलाकर देना चाहिये अथवा केवल गर्म जल और मेवा नमक मिलाकर पिला कर वमन करा देना चाहिये । यदि आम दोप कोष्ठ में लीन हो ओर पक्वाशय मे स्थित हो तो दीपन औपवियो के साथ कुछ रेचक जोपधियो को मिला कर कोष्ठ की शुद्धि करा देनी चाहिये । यदि आम दोप १ ग्रहणीमाश्रितं दोपमजीर्णवदुपाचरेत् । अतीसारोक्तविधिना तस्यामं च विणचयेत् ॥ शरीरानुगते सामे रसे लङ्घनपाचनम् । विशुद्धामागयायास्मै पंचकोलादिभिर्श्वतम । दद्यात् पेयादि लध्वन्न पुनर्योगाञ्च दीपनान् ॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड सप्तम अध्याय २६१ युक्त रस शरीर में व्याप्त हो तो लवन ओर पाचन औपधियो के द्वारा आम दोप का पाचन करना अपेक्षित रहता है। जब आशय या कोष्ठगत आम दोष निकल जावे तो पचकोल ( पिप्पली, पिप्पली मूल, चव्य, चित्रक, नागर ) प्रभति दीपन एव पाचन औपवियो के क्वाथ, कल्क या प्रक्षेप से सिद्ध पेया, मण्ड, आदि लघु अन्न रोगी को सेवन करना चाहिये ।' पक्वावस्था में क्रियाक्रम-वात ग्रहणो जब दीपन और पाचन औषधियो के प्रयोग से आम का पाचन हो जावे तो वातिक ग्रहणी मे दीपन और पाचन औपधियो से सिद्ध या युक्त गोघृत का प्रयोग करे। जव जाठराग्नि दीप्त हो जावे, तो दो-तीन दिनो तक स्नेहन (घी पिलाकर और तैल का अभ्यग करके) आस्थापन वस्ति, दशमूल कषाय ३२ तोले, सैधव ६ माशे मधु १ तोला और तिल तेल ८ तोले सबको एक मथनी से मथकर और वस्ति यत्र मे भर कर गुदा द्वारा देना चाहिये। इसके बाद वायु के शान्त हो जाने पर, मल के ढीला हो जाने पर एरण्ड तेल या क्षार युक्त तैल्वक घृत (चरक) से विरेचन कराना चाहिये। शोधन के बाद कोष्ट के रूक्ष होने से मल बद्ध होकर गांठदार हो जाता है अस्तु उसके निकालने के लिये दीपन एव अम्ल रस युक्त तथा वात नाशक द्रव्यो से सिद्ध तेल का मात्रा मे (१२ तोले की ह्रस्व मात्रा नारायण तैल की ) अनुवासन वस्ति ( Retention Enema) देना चाहिये । इस प्रकार निरूहण, विरेचन तथा अनुवासन के बाद रोगी को दीपन औपधियो से सस्कृत लघु भोजन तथा सिद्ध घृतो के प्रयोग से रोगी को स्वस्थ करना चाहिये ।। वातिक ग्रहणी के रोगियो मे तीव्र विवन्ध और अतिसार पर्यायक्रम से चलते रहते है। रोगी दिनो-दिन रूक्ष और क्षीण होता चलता है । अतिसार की चिकित्सा १ ग्रहणीमाश्रित दोष विदग्धाहारमूच्छितम् । सविष्टम्भप्रसेकात्तिविदाहारुचिगौरवे । आमलिङ्गान्वित ज्ञात्वा सुखोष्णेनाम्बुना हरेत् । फलाना वा ॥ २ ज्ञात्वा तु परिपक्वाम मारुतग्रहणीगदम् । दीपनीययुत सर्पि 'पाययताल्पशो भिषक् ।। किंचित् सधुक्षिते त्वग्नौ सक्तविण्मूत्रमारुतम् । द्वयह व्यह वा सस्नेहय स्विन्नाभ्यक्त निरूहयेत् ॥ तत एरण्डतैलेन सर्पिषा तैल्वकेन वा । सक्षारेणानले शान्तेस्रस्तदोप विरेचयेत् । शुद्ध रूक्षाशय बद्धवर्चस चानुवासयेत् ।। दोपनीयाजलवातघ्न सिद्धतैलेन मात्रया ॥ निरुढ च विरिक्त च सम्यक् चैवानुवासितम् लवन्न प्रतिसभुक्त सपिरभ्यासयेत् पुनः । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર भिपकर्म-सिद्धि के साथ साथ उनकी कोष्टगत स्क्षता को दूर करने के लिये टीपन तथा पाचन औषधियो ने युक्त वृत का प्रयोग भी आवश्यक रहता है । आन्त्रगत रुक्षता को दूर करने के लिये तथा यत्रो के स्नेहन के लिये सिद्ध वृत, निरूहण एवं अनुवामन प्रभृति उपाय प्राचीनो ने बतलाया है । वातिक ग्रहणी की चिकित्सा करते समय रोगी में गाढपुरीपता की कठिनाई पैदा होती है । गाढविक्ता की वजह से कई वार के छिल जाने से दरारें पड जाती है । गुदा व्रणयुक्त या विदारयुक्त (Fissures ) हो जाती है जिसमे रोगी को न पतले दस्त में ही आराम मिलता है और न गाँठ दार या वँवे मल के निक्लने से ही । दोनो अवस्थाओ में रोगी को पुरीप-त्याग में कठिनाई होती है। इस कठिनाई को दूर करने के लिये एक सरल उपाय 'लिक्विड पैराफीन' का प्रयोग है । यह एक खनिज तैल है जिसका आत्र की ग्लेप्मल कला से गोपण नही होता है और न यह किसी पाचन रस को ही विकृत करता है- किसी औपवि के नाथ इसका विरोध भी ( Incompatibility ) फलत नहीं होता है । अस्तु इनका उपयोग ग्रहणी चिकित्सा-काल में वैद्यक औषधियों के साथ भी किया जा सकता है । इसका सर्वोत्तम काल भोजन के पूर्व मुख मे एक दो चम्मच भर कर पहले लेना पञ्चात् भोजन करना ठीक पडता है । इम से नामागय से लेकर गुद पर्यन्त सम्पूर्ण श्लेष्मल क्ला का स्नेहन (Oiling ) हो जाता है । इम का प्रयोग लगातार एक पक्ष तक करके पश्चात् यथावश्यक कोष्ठ के नियमित हो जाने पर कभी कभी कर लेना चाहिये | वृत और सैन्धव का उष्णोदक से सेवन करना भी एक उत्तम उपाय ग्रहणी को कठिन, शुष्क, रूक्ष या गाठदार मल की अवस्था में पाया गया है । १ पित्त-ग्रहणी में क्रियाक्रम - पित्त ग्रहणी में अग्नि के बुझाने वाले द्रवा शाधिक पित्त को अपने स्थान मे स्थित किन्तु उत्क्लिष्ट जान कर वमन या विरेचन द्वारा निकाले । तथा विदाह न उत्पन्न करने वाले, तिक्त रस युक्त लघु अन्न ( पेया, विलेपी आदि) खाने को दे, रोगी की जाठराग्नि दीप्त करने के लिये तिक्त रस प्रधान चूर्ण अथवा तिक्तरसामक द्रव्यो से सिद्ध वृत खिलावे ।' १ नितान्तदुष्ट मरुतो मलं यदा नरो विमुञ्चेत् कठिनं च रुक्षम् । समैन्ववं सर्पिरिहीपवं तदा प्रयोजयेत् तस्य शुभाय वैद्य । ( भं र ) २ स्वथानागतमृत्क्लिप्टम ग्निनिर्वापक मिपक पित्त ज्ञात्वा विरेकेण निर्हरेद्वमनेनवा । अविदाहिभिरन्तैञ्च लघुभिस्तिक्तमंयुतैः तस्याग्निदीप्तये चूर्णे: सर्पिभिवा सतिक्तकैः ॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : सप्तम अध्याय २६३ कफ ग्रहणी में क्रियाक्रम-कफ से दूषित ग्रहणी मे यथाविधि वमन करा के कटु, अम्ल, लवण क्षार तथा तीक्ष्ण द्रव्यो का सेवन कराके जाठराग्नि दीप्त करे। त्रिदोष-ग्रहणी-में क्रियाक्रम-त्रिदोपो से दूपित ग्रहणी मे विधिपूर्वक पचकर्म कराके दीपन घृत, क्षार, आसव, अरिष्ट का प्रयोग करे । वातादि ग्रहणी की जो चिकित्सा वतलाई गई है उसे पर्याय क्रम से पृथक् पृथक् अथवा तीनो को मिलाकर दोपो की विशेपता के अनुसार उपचार करे । सामान्य औषध योग-ग्रहणी मे प्रारभ मे स्नेह, स्वेदन और लघन कराने के पश्चात् जाठराग्नि को दीप्त करने वाले योगो का प्रयोग लाभ करता है-जैसे-पाचन के लिये चूर्ण, लवण प्रधान ओपधियों ( लवण-भास्कर ), क्षार प्रधानयोग, मधु का उपयोग, अरिष्ट, आसव (कुटजारिष्ट, तक्रारिष्ट, मूलासव आदि ), जाठराग्नि वर्धक घी ( पिप्पल्यादि घृत, पट्पल घृत ) तथा तक्र के विविध प्रकार के योगो का सेवनक दोपानुसार यथावश्यक ग्रहणी रोग मे करना चाहिये। ग्रहणो रोग में तक प्रयोग-ग्रहणी रोग मे तक ( मट्ठा ) ग्राही, दीपन और लघु होने के कारण तथा आन्त्र को शोपण क्रिया को बढाने वाले होने के कारण श्रेष्ठ माना गया है। विपाक मे मधुर होने से यह पित्त को कुपित नही करता अर्थात् पित्त ग्रहणी मे मीठा करके तक का सेवन करे । कषाय रस, उष्ण विकासि और रूक्ष होने की वजह से कफ मे हितकर होता है अस्तु कफज ग्रहणी मे मक्खन निकाला रूखा ही सेवन किया जा सकता है। मधुर, अम्ल और सान्द्र ( गाढा ) होने से तक वातिक ग्रहणी मे भी लाभप्रद रहता है। तक प्रयोग में ताजा का ही उपयोग करना चाहिये क्यो कि यह विदाह नही पैदा करता है। तक मीठा, कुछ खट्टापन लिये हुए ताजा और गाढा प्रयोग मे लाना चाहिये । १ ग्रहण्या श्लेष्मदुष्टाया वमिताय थथाविधि । कट्वाल लवणक्षार स्तीक्ष्णश्चाग्नि विवर्धयेत । २ त्रिदोषे विधिवद् वैद्य पञ्चकर्माणि कारयेत्, घृत क्षारासवारिष्ट्रान् दद्याच्चाग्निविवर्धनान् ।। क्रिया वाचानिलादोना निर्दिष्टा ग्रहणी प्रति, व्यत्यसात्ता समस्ता च कुर्याद् दोषविशेषवित् । ३ तक्रं तु ग्रहणीदोपे दीपन ग्राहि लाघवात् । श्रेष्ठ मधुरपा कित्वान्न च पित्त प्रकोपयेत्, कषायोष्णविकासित्वाद् रौक्ष्याच्च व कफे मतम् । - Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म - सिद्धि वस्तुत वात ग्रहणी में विना मक्खन निकाला (मान्द्र ), पित्त ग्रहणी में कुछ मक्खन निकाला ( अल्पमान्द्र ) और श्लैष्मिक ग्रहणी मे पूरा मक्खन निकाला तक ( सान्द्र) का प्रयोग करना चाहिये, यदि रोगी की पाचन शक्ति अत्यन्त क्षीण हो तो सदैव मक्खन निकाला ही तक्र प्रयोग में लाना चाहिये | तक्र वनाने के लिये ताजे दही में चतुर्थण गर्म कर के ठटा किया जल ( श्रुतशीत जल ) मिलाकर मथकर बनाने का विधान है । यदि अधिक लघु करना हो तो उसमे अधिक जलाग भी आवश्यकतानुसार दिया जा सकता है ।" ૬૪ त्रातिक ग्रहणी में - १ शालपर्णी, वला, वित्व, धान्यक और झूठी का पाय ( शालपर्ण्यादि कपाय । ) हिग्वष्टक चूर्ण ( त्रिकटु, अजमोद, संधव, श्वेत जीरक और कृष्ण जीरक, वृत भजित हिंगु । वृत के साथ मिलाकर भोजन के पूर्व 1 पैत्तिक ग्रहणी में - १. हरीत की, रसाखन, गुठी, धातकीपुष्प, कुटकी, इन्द्रजी, मुस्तक, कुटजकी छाल और अतीस का सेवन | ( हरीतक्यादि कपाय ) २ रसाञ्जनादि चूर्ण - रसाञ्जन, अतीस, इन्द्रयव, क्रुटज की छाल, धाय के फूल, गुठी, समभाग में चूर्ण | मात्रा २ से ४ मागे । अनुपान तण्डुलोदक | श्लैष्मिक ग्रहणी में मैन्धव कचूर, शुठी, मारच, पिप्पली, हरीतकी, सज्जीक्षार, यवचार, पिप्पलीमूल, विजौरा नीबू । मात्रा ३ से ६ मागे । अनुपान-जल । व्यावहारिक चिकित्सा - ग्रहणी जैसा कि प्रारंभ में बतलाया जा चुका है कि अजीर्ण तथा अतिसार की एक बहुत वढी हुई अवस्था है । इसमे योपधोपचार मे लाभ हो जाने पर पुनरावर्तन ( Ralapses ) की सभावना रहती है । अस्तु पथ्य के ऊपर सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता है। रोगी के रोगमुक्त होने के अनन्तर भी उसे पथ्य सेवन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता रहती है । व्यावहारिक क्षेत्र में दो प्रकार के रोगी आम तौर से मिलते है । एक जिनका रोग बहुत बढा हुआ नही है, खाते-पीते और चलते-फिरते रह सकते है । दूसरे जिनमें रोग बहुत बढा हुआ है, उपद्रव तथा दुर्बलसा - बहुत बढी हुई हैं । इनमें चलते-फिरते रोगियो ( Ambnlent type) में तो वातातपिक चिकित्सा ( Outdoor treatment ) आसानी से दी जा सकती है । इनकी चिकित्मा में लघु और मुपाच्य आहार देते हुए चिकित्मा की जाती है । इम क्रियाक्रम को सान्न चिकित्सा क्रम ( भोजन या अन्न देते हुए चिकित्मा करना ) कहते है । १ वाते स्वादृम्य मान्द्रत्वात् सद्यस्कमाविदाहि तत् । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : सप्तम अध्याय २६५ दूसरा वर्ग उपद्रुत गहणी रोगियो का होता है । जिनमे रोगी को चिकित्सालय मे प्रविष्ट करके वैद्य के साक्षात् निरीक्षण मे रहते हुए बिना अन्न के ( निरन्नचिकित्मा ) चिकित्सा करने की आवश्यकता रहती हैं । इन रोगियो को अन्न व्यतिरिक्त दूध, तक्र या दूध और फल के ऊपर रखकर चिकित्सा की जाती है । ग्रहणी की चिकित्सा मे बहुत प्रकार के चूर्ण, कपाय, गुटिका, मोदक, अवलेह, तक्रिया प्रभृति काष्ठोपवियो के योग ( काष्ठौधि पाचन ) तथा पारद-गधक की कज्जली, पर्पटी तथा रसोपधियो के बहुत से योग ( पारद के पाचको ) का व्यवहार पाया जाता है । साधारण रोगियो मे काष्ठौषधियो के पाचको से ही रोग ठोक हो जाता है, परन्तु जब रोग अधिक वढा हुआ रहता है तो काष्ठौषधियो के पाचको से काम नही चलता है । ये स्वय पचन संस्थान के लिये भारभूत हो जाती है । इस अवस्था मे पारद के पाचक योगो को आवश्यकता पडती है । ये पारद के पाचन भी वहुत प्रकार के होते है जैसे- पारा - गधक को कज्जलो के साथ अन्यान्य भस्म तथा काष्ठीपधियो के योग से वने योग तथा पारद-गधक की कज्जली या उससे बने पर्पटी के योग | अस्तु पारद के पाचको मे भी कुछ ऐसे योग है जिनका उपयोग केवल चलते-फिरते रोगियो मे सुपाच्य अन्न या आहार देते चिकित्सा मे किया जाता है । कुछ ऐसे भी योग है जिनका सामान्य प्रयोग न होकर कल्प- चिकित्सा के रूप मे हो प्रयोग किया जाता है । इन औषधियो मे अधिकतर पर्पटी के योग ही व्यवहृत होते है । इसके लिये रोगी को दूध या तक्र पर रखकर रोगी एव रोग केवलावल का विचार करते हुए एक छोटी मात्रा से आरभ करके क्रमश बढाते हुए एक सीमित मात्रा तक ले जाते है, पुन क्रमश घटाते हुए आरभ के मात्रा पर ले आकर दवा देना वद कर देते है । इस विधि को वर्धमान पर्पटी प्रयोग या पपटीकल्प प्रयोग कहा जाता है। इस प्रकार दो प्रकार की चिकित्सा का प्रयोग ग्रहणी रोग विशेषत पर्पटी के सम्बन्ध मे करना होता है । १ सामान्य प्रयोग तथा २ विशेष प्रयोग था पर्पटी कल्प | सामान्य प्रयोग या वातातपिक चिकित्सा - ( Outdoor treatment ) या सान्नचिकित्सा आहार - रोगी को लघु और सुपाच्य आहार देना चाहिये । एतदर्थ सर्व प्रथम रोगी की चिकित्सा मे आने के साथ ही उसे मण्ड पर तीन दोनो तक रख कर औषधि का प्रारंभ करना चाहिये । मण्ड के लिये धान्य लाज या चावल की लाई, पुराना चावल या पुराने साठी के चावल का उपयोग करना चाहिये । फिर उससे गाढा पथ्य कुछ अन्नयुक्त मण्ड जिसे विलेपी कहते है तीन दिनो तक देना Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ भिपकम-सिद्धि चाहिये । इस पथ्य का भी मम्यक् पाक होने लगे तो चावल का गीला मण्डयक्त ओदन (भात) या मयूर या मूंग की दाल युक्त पतली खिचड़ी बनाकर एक दो सप्ताह तक देना चाहिये । रोगी का अग्नि वल अच्छा हो तो चिकित्सा का प्रारभ पतली खिचडी के आहार से भी किया जा सकता है। मण्ड, पेयादि अन्नो को रोगी की रुचि के अनुसार नमकीन ( सेंधा नमक और भुना जीरा से सयुक्त करके ) अथवा मीठा बनाकर मिश्री मिलाकर दिया सकता है । इसके पश्चात् पचन की दगा के सुधरने पर रोगीको चावल-दाल देना चाहिये । जब यह पचने लगे तो उसको एक समय चावल-दाल दूसरे समय रोटी-दाल पथ्य त्पमें देना चाहिये। इस सादे आहार पर बाद मे रोगी को रोगमुक्त होने पर भी रखना चाहिये । अधिक गरिष्ठ भोजन, घी या तेल मे तली पूढी, पृवा, माल पूबा, जलेबी नादि, अधिक मात्रा मे गाक-सब्जी, पत्र-गाक, गर्म मसालेदार भोजन का सदा के लिये परिहार करना आवश्यक होता है। ग्रणी रोगी के आहार को सदैव पचकोल युक्त करके देना चाहिये। इसके लिये विधि यह है कि पचकोल का चूर्ण पर्याप्त मात्रा में बनाकर एक शीशी में भरकर रख लेना चाहिये और एक से मागे की मात्रा में मण्ड, पेया, विलेपी, यवाग, खिचडी, दाल मे छिडक लेनी चाहिये । इम दीपन पाचन योग से संस्कृत पच्य सुपाच्य बोर लघु हो जाता है । अग्नि दीप्त होती चलती है। अस्तु इसका प्रयोग रोगी को पथ्य में करना सदैव लाभप्रद होता है। ऊपर मे ग्रहणी रोग मे तक्र की प्रशसा हो चुकी है। तक इस रोगी को अग्नि वल के अनुसार प्रारभ से ही देना गम्भ कर देना चाहिये । अन्न काल में तथा दिन के अन्य भाग में इसका उपयोग लाभप्रद रहता है। तक को रोगी की रुचि के अनुसार पंचकोलयुक्त या भुनाजीरे का चूर्ण और सेंधा नमक युक्त करके देना चाहिँ । यदि रोगी को नमकीन तक रुचिकर न प्रतीत हो तो मिश्री मिलाकर, या केवल सादा, परन्तु पंचकोल से संयुक्त करके देना चाहिय । ग्रहणी के रोगी में अन्न मे रुचि जागत करने के लिये कागजी नीबू या नीबू का अचार दिया सकता है। इससे अन्त में रुचि पैदा होती है और पेया यदि पथ्य का परिपाक भी उत्तम होता है। पके अनार या वेदाना का रन भी उत्तम पाया गया है-अस्तु अन्नकाल के अतिरिक्त समय में दिन में भूख लगने पर उने वेदाना का रन, मित्री या मधु देना चाहिये। माक-सब्जी का प्राय प्रयोग नही करना चाहिये, विशेषत पत्रगाको का। क्योकि इनके दुर्जर होने से अतिसार में सहायता मिलती है। गूलर या प्याज के गाक भो दिया जा सकता है। परन्तु इसका प्रयोग कुछ विलम्ब से सप्ताह दो Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : सप्तम अध्याय २६७ सप्ताह के अनन्तर किया जा सकता है । ऋतु के अनुसार कच्चे खरबूजे का शाक भी लाभ, प्रद होता है। यदि पर्पटी या कज्जली का योग न चल रहा हो तो केले के शाग का उपयोग किया जा सकता है अन्यथा नही करना ही उत्तम रहता है। शुद्ध देशी घृत का प्रयोग भोजन मे मिलाकर किया जा सकता है क्योकि अल्पमात्रा में दिया गया घी अग्नि का वर्धक होता है। पीने के लिये खोलाकर ठंडा किया हुआ जल, अथवा सौफ का अर्क मिल सके तो देना उत्तम रहता है। नारिकेल जल तृषा मे देना प्रशस्त है। ग्रहणी-चिकित्सा-मे प्रयुक्त होने वाले योग-सामान्यतया अधोलिखित योगो मे से किसी एक का प्रयोग योग्य अनुपान से करने से और ऊपर में कथित पथ्य के सेवन से रोग अच्छा हो जाता है। १. कपित्थाष्टक चूर्ण-यमानी, पिप्पली मूल, दालचीनी, सूक्ष्मैला, तेजपत्र नागकेसर, शु ठी, मरिच, चित्रकमूल, सुगधवाला, धनिया, सौवर्चल, लवण मे से प्रत्येक एक तोला तथा वृक्षाल, धातकी पुष्प, पिप्पली, विल्व फल को मज्जा, अनारदाना और तिन्दुक फल मे से प्रत्येक को तोला, मिश्री ६ तोला और कपित्थफल की मज्जा ८ तोले । मात्रा २ से ४ माशे । अनुपान-म? के साथ । २ वृद्ध गंगाधर चूर्ण-गगाधर चूर्ण नाम से कई पाठ भेपज्यरत्नावली मे सगृहीत है। जैसे स्वल्प गगाधर चूर्ण, मध्यम गगाधर चूर्ण (अहिफेन युक्त), मध्यम गगाधर चूर्ण तथा वृद्ध गगाधर चूर्ण । इनमे वृद्ध गगाधर चूर्ण का प्रयोग अधिकतर प्रचलित है। योग इस प्रकार है-नागरमोथा, सोना पाठा, सोठ, घाय के फल, लोध्र, नेत्रवाला, विल्वमज्जा, मोचरस, पाठा, इन्द्रयव, कुटज की छाल, आम की गुठली, मजिष्ठा और अतीस इन द्रव्यो का समपरिमाण मे बना चूर्ण । मात्रा-१ से ३ माशे, अनुपान-तण्डुलोदक और मधु । लवङ्गाद्य चूर्णम्-लवङ्गाद्य चूर्ण नाम से कई पाठ भैपज्यरत्नावली मे सगृहीत है। जैसे स्वल्प लवड्गाद्य, वृहद् लवङ्गाद्य तथा महत् लवङ्गाद्य ( अभ्रक लोड और कज्जली वुक्त ) इन में स्वल्प लवड्जाद्य विशुद्ध काष्ठीषधि योग उत्तम है । इसमे निम्नलिखित घटक पाये जाते है। इसका दुर्बल रोगियो मे अम्लपित्त एव ग्रहणी उभय प्रकार के रोगियो मे व्यवहार किया जा सकता है। लवङ्ग, अतीस, मुस्तक, वाल विल्व मज्जा, पाठा, मोचरस, श्वेत जीरक, धातकीपुष्प, लोध्र, इ द्रयव, नेत्रवाला, धान्यक, राल, काकडासीगी, छोटी पिप्पली, श ठी, मजिष्ठा, यवक्षार, सैन्धव, रसोत, समपरिमाण मे गृहीत चूर्ण । मात्रा-३मागे। अनुपान-जल। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपक्कम-सिद्धि नायिका चूर्ण - इसी का दूसरा नाम ग्रथान्तरमें लायी चूर्ण आया है । लय 'ग्रहणे' धातु से लायी शब्द की निष्पत्ति होती है इसका अर्थ है अतिसार का ग्रहण करने वाला योग । इस चूर्ण में पारद- गवक की कज्जलो पड़ी हुई हैं साथ ही अन्य काष्ठोपधियो के साथ भांग का चूर्ण भी पड़ा हुआ है । क्षुवानाश युक्त ग्रहणी मे मट्टे के अनुपान से प्रयुक्त होकर लाभप्रद सिद्ध होता है । स्वल्पनायिका चूर्ण और वृहद् नायिका चूर्ण नामक दो पाठ मिलते है | इन में स्वल्प नायिका चूर्ण का व्यवहार अधिकतर होता है । इसके घटक इस प्रकार है । शुद्ध पारद ४ मारो गधक, ८ माझे ले कर कज्जली बनाले | इम कज्जली मे मैधव, सौवर्चल, विड, खनिज और समुद्रलवण में से प्रत्येक एक-एक तोला, शुठी, मरिच ओर पिप्पली का भी एक-एक तोला चूर्ण तथा शुद्ध भाग ( विजया) मात्रा का पांच तोले मिलाकर महीन चूर्ण बनावे | १ मागे से ३ माशे तक अनुपान तक्र या काजी । जातीफलादि चूर्ण-- विजया के योग से निर्मित यह भी योग है, परन्तु इसमें कज्जली नही पडी है । वडा उत्तम योग है । इसके घटक इस प्रकार वे हैजातीफल, वायविडङ्ग, चित्रकमूल, तगर, तालीशपत्र, श्वेत चदन, शु ठी, लवङ्ग, जीरा, कर्पूर, हरड, आंवला, मरिच, पिप्पली, वगलोचन, दालचीनी, छोटी इलायची, तेजपात, नागकेसर प्रत्येक एक-एक तोला और शुद्ध भाग की पत्ती २८ तोले और पूरे चूर्ण के परिमाण अर्थात् ४७ तोले मिश्री या चीनी । मात्रा - ३ से ४ माशे । अनुपान -जल, तक्र 1 इन प्रचलित चूर्णो के अतिरिक्त कुछ अन्य चूर्ण जैसे-ग्रहणी गार्दूल चूर्ण, जोरकाद्य चूर्ण, मार्कण्डेय चूर्ण ( अहिफेन युक्त ) तथा तालीशाद्य चूर्ण भी ग्रहणी अधिकार में पठित है । इन चूर्णों के अतिरिक्त वार्ताकुगुटिका ( वैगन ), मुण्ड यादि गुटिका, कचटावलेह ( जलपिप्पली ), दशमूल गुड, कल्याण गुड, कुष्माण्ड गुड प्रभृति कई उत्तम योगो का पाठ है । मोदक -- ग्रहणी अधिकार मे कई मोदको का पाठ पाया जाता है । ये मोदक अधिकतर ग्रहणी की रोगमुक्तावस्था ( Cenvalescent stage ) में अधिक लाभप्रद होते है । जलपान जैसे सुबह-शाम दूध के साथ लेने का विधान है । ये मोदक रमायन तथा वाजीकरण के गुणो से सम्पन्न होते हैं । ग्रहणी में काम शक्ति की क्षीणता प्राय आती हैं । उस समय इन मोदकों की आवश्यकता प्रतीत होती है | कई वार श्रीमान् व्यक्तियो की चिकित्सा में इस प्रकार की कल्पनावो की आवश्यकता पड़ती है । आवश्यकता के अनुसार इनका ताजा निर्माण करना चाहिये । इनमें ग्राही औपचियां पडी हुई है, साथ ही विजया भी पडी २६८ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : सप्तम अध्याय २६९ है। इनसे अग्नि का दोपन, आम का पाचन तथा द्रवधातु-सरण का ग्रहण तथा वोभन भी एक साथ ही सभव रहता है। मोदको मे श्री कामेश्वरमोदक, मेथी मोदक, बृहद्मेथी मोदक, मदनमोदक, मुस्तादि मोदक, कामेश्वर मोदक, जीर कादि मोदक, ( वग, अभ्र, लोह, युक्त), वृहज्जोर कादि मोदक तथा अग्नि कुमार मोदक । इन मोदको को मात्रा-३ तोले से १ तोले तक । अनुपान-शीतल , जल या बकरी का दूध । रसयोग-हसपोट्टलो रम, ग्रहणीकपाट पोट्टली रस, अग्निकुमार रस । ग्रहणीगजेन्द्ररम । मणीगार्दूल रस । ग्रहणी कनाट रस--इस नाम से कई योग भपज्यरत्नावली मे अभिहित है । जैसे गहणीकपाट रस (स्वल्प अहिफेन युक्त ), ग्रहणीकपाट रस द्वितीय, तृतीय, चतुर्य, पत्रम, ग्रहणीवज्रकपाट रस, ग्रहणीवज्रकपाट रस ( वहद्-रजत, लोह, सुवर्ण और मुक्ता युक्त ) तथा संग्रहग्रहणीकपाट रस (मवता-स्वर्ण-अम्रक-वराट भस्म युक्त-अवक्षय मे विशेप लाभप्रद-जहाँ पर ग्रहणी के नाथ मदज्वर भोचिरकालीन हो।) तथा वज्रकपाट रस (अहिपेन युक्त)। महागधंकम--ममपरिमाण मे शुद्ध पारद तथा शुद्ध गधक की कज्जली बनाकर लौह की कलछी मे डाल कर मद आंच पर गर्म करे। फिर उसे पतला करके उसमे बराबर माना मे जायफल, जावित्री, लवङ्ग, नीम की पत्ती, सिन्दुवार को पत्ती, इलायची के दाने का महीन चूर्ण मिला लेना चाहिये । फिर पानी मिलाकर खरल मे घोट कर एक कर लेना चाहिए। फिर शुद्ध की हुई मोती के सीप के सम्पुट में ( भली प्रकार कपडमिट्टी करके अर्थात् दो सीप के भीतर भर कर उसके ऊपर केले का पत्ता लपेट कर दो अगुल मोटा कपडे और मिट्टी का लेप कर के ) अग्नि मे पाक करना चाहिये। फिर पुटपाक हो जाने पर उसके आवरण को दूर करके शुक्ति समेत औपधि को खरल कर के महीन चूर्ण को शीशी में भर कर रख लेना चाहिये। मात्रा-३ रत्ती से ६ रत्ती तक । बालको के अनेक रोगो से रक्षा करने के लिये एक महौपध है। इस मे शक्ति की राख पर्याप्त मात्रो मे रहती है--जो जीव की हड्डी का राख ( Bone charcol) और आन्त्र गत वायु का शोषण ( Gasabsorbent) होकर अतिसार मे अदभत लाभ दिसलाती है। वडो मे भी इसका प्रयोग हो सकता है, परन्तु वालातिसार यावाल-ग्रहणी मे यह विशेषतया लाभप्रद है। वटिका--वैद्यनाथ वटिका, रसाभ्रवटी, महाभ्रवटी (मन शिला तथा कृष्ण सर्पविषयक्त ), पानीयभक्तवटिका प्रभृति योग उत्तम है। इसी प्रकार शम्बू कवटी. दुग्धवटी, जाती फलाद्य वटी भी अच्छे योग है। शम्बूकादिवटी-शम्बूक Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० भिपकर्म-सिद्धि ( घोघे ) की भस्म और मेंधानमक समान मात्रा में लेकर मत्रु मिलाकर गोली एक मागे की बनावे । वात-ग्रहणी में उत्तम योग है। वालको के गोप रोग (मूखा रोग) में अतिसार या ग्रहणी की स्थिति में स्वतंत्र या महागंधक का योग करके प्रयोग करना बड़ा उत्तम फल देता है । दुग्धवटी-इसके दो पाठ है । प्रथम में हिंगुल और धूतरबीज है, दूसरे में नहीं है। प्रथम में अभ्रक, लौह भस्म नही है। दूसरे में है। प्रथम मे विजया स्त्रन्न की भावना है। दूसरे में केवल क्षीरको। दोनो का प्रयोग शोथ और ग्रणी में बतलाया गया है। भैपज्यरत्नावली में दोनो पाठ मिलते हैं। प्रथम पाठ अधिक श्रेष्ठ अनुभव में पाया गया है। इसके घटक निम्न लिखित है-- शुद्ध हिंगुल १ तोला, लीग, अफीम, वत्सनाभ, जायफल और धूतर के बीज प्रत्येक दो-दो तोले । विजया के स्वरस की भावना । मात्रा-मूग के बराबर की गोली। अनुपान-दूघ । प्रयोग-काल में जल, एव लवण का परिहार । तृपाविक्य नारिकेल जल या गतपुप्पार्क, पुनर्नवार्क या काकमाची अर्क। यह योग गोय रोग में अथवा गोथ से उपद्रुत ग्रहणी मे विशेष लाभदायक है। पीयूपवल्ली रस-शुद्ध समपरिमाण में पारद-धक की कजली, अनकमस्क, लौह भस्म, रजत भस्म, गुद्घ टकण, रसाञ्जन, स्वर्णमाक्षिक भस्म, लड्न, श्वेत चन्दन, पाठा, श्वेत जीरक, घान्यक, वाराहक्रान्ता, अतीत, लोत्र, कुटजत्वक, इन्द्रयव, जायफल, गुठी, विल्वफल मज्जा, बूतर केवीज, दाडिमवीज, मजिष्ठा, घातकी पृष्प और मोठाकूठ सभी द्रव्य समान । मुंगराज स्वरम को मात भावना देकर बकरी के दूध में पीसकर चने के वरावर की गोली । अनुपान-विल्व मज्जा तो+गुड १ तोला । यह वढा ही उत्तम योग है। अनुपान के रूप में ठंडे जल, इसबगोल का लुआब या वेल का शर्वत भी दिया जा सकता है। • श्री नृपतिवल्लभ रस-जातीफल, लवन, मुस्तक, छोटी इलायची, शुद्ध टंकण, वृतजित होग, जीरक तेजपात, मनवायन, सोठ, लौह भस्म, ताम्र भस्म, गद्ध पारद और गंधक प्रत्येक चार-चार तोले और काली मिर्च ८ तोले । प्रथम पारद और गंवक को कज्जली बनाये पश्चात् उसमें अन्य भस्म और वनस्पतियों के सूक्ष्म कपड्छन चूर्ण मिलाकर दामलकी स्वरस को सात भावना देकर तीन-तीन रत्ती की गोली बनावे । मात्रा-१-२ गोली। अनुपान-जल या तक्र । नृपतिवल्लभ रस के अन्य पाठ भी वृद् नपतिवल्लभ रस (राजवल्लभ रस पर्याय नाम ), महाराज नृपतिवल्लभ रस (स्वर्ण, रजत और विजया युक्त), Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : सप्तम अध्याय २७१ तपा महाराज नृपवल्लभ रम ( स्वर्ण एव रजत युक्त) भैपज्यरत्नावली मे पाये जाते है । ऊपर वाला पाठ एक उत्तम अल्पव्यय साध्य योग है। रसेन्द्र चूर्ण-रससिन्दूर, वशलोचन, मुक्ताभस्म, स्वर्णभस्म तथा अहिफेन पा योगिक । मात्रा-४ रत्ती एक वार रात्रि में सोते समय दूध से। अग्निसतुरस-कपर्द भस्म १ तोला, शस भस्म १ तोला सम प्रमाण पारदमांचक ने बनी पज्जली १ तो, मरिच चूर्ण ३ तोले । सवको निम्बू के रस मे परल में रस भावितकर सुखाकर शीशी मे रख ले। मात्रा-१ माशे। अनुपानपिप्पली चूर्ण तया वृत। पर्पटी के योग-रस पर्पटी-द्रव्य ओर निर्माण विधि-हिंगुल से निकाले पारद को कमग. जयन्ती, एरण्ड और मकोय के स्वरस से एक दिन मर्दन करके गर्म पाल ने बोले । गंधक का मोटा चूर्ण करके उसको सात दिनो तक भृगराज फेन्बरन में भिगोकर रखे । फिर उसको सुखाकर, भीतर से घृतलिप्त लाह की उडाही में रख कर भाग पर चढाकर पिघलावे । फिर इस पिघले गधक को छाने । छानने के लिये एक ऐसा घट ले जिसमे भृगराज स्वरस आधा भरा हो और उसके मटके उपर मजवन कपडा बंधा हो । छानने से गवक घडे मे भ गराज मे जाकर बैठ जायेगा फिन इस गधक को निकाल कर गर्म जल से धोकर सुखा ले। इस प्रकार ने गुद्ध किये पारद और गन्धक का सम भाग लेकर खरल में मर्दन करके कज्जली बनावे । कज्जली बनाने में तब तक मर्दन करे जव तक पारद के कण (चन्तिका ) अहश्य न हो जाय। पर्पटी बनाने के लिये इस कज्जलो को अब एक बडे लोहे के कलछी मे लेकर अग्नि पर रख पिघलावे। द्रव्य को लोहे के दंड से चलाता रहे। जब कज्जली द्रव हो जाय तव उसको जमीन पर गोवर बिछाकर उसके ऊपर केले का पत्ता बिछाकर उस पर ढाल दे। ढालने के साथ दी दसरे केले के पत्ते से उसको ढके और दवा दे। जब पर्पटी ठडी हो जाय तो सी में भरकर रख दे। सेवन कराने के समय पर्पटी का महीन चूर्ण बनाकर प्रयोग करना चाहिये। विविध पर्पटिया-इसी विधि से स्वर्णपर्पटी, (सुवर्ण भस्म की अतिरिक्त योग से ), लौह पर्पटी (लोह भस्म का अधिक योग) करके मण्डूर पर्पटी ( मण्डर भस्म के विशेष योग से), गमन पर्पटी (अभ्रक भस्म कज्जली के अतिरिक्त मिलाकर), ताम्र पर्पटी ( ताम्र भस्म का अधिक योग करके), पचामृत पर्पटी (लौह भस्म, अभ्रभस्म, ताम्र भस्मो का फज्जलो के अतिरिक्त योग से), विजय पर्पटी ( रजत. सवर्ण, मुक्तापिष्टि, वैक्रान्त, ताम्र, अभ्र, भस्म-यदि प्राप्य हो तो हीरक भस्म भी इन द्रव्यो के अधिक योग से निर्मित ) नामक विविध पर्पटियां भी बनती है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ भिपकर्म-सिद्धि मात्रा और अनुपान सामान्य प्रयोग में २ से ४ रत्ती तक पर्पटियो की मात्रा प्रतिदिन लगातार डेढ मे दो मास तक करना चाहिये। विशेप प्रयोग मे जब पर्पटी का करप प्रयोग या वर्धमान प्रयोग चल रहा तो मात्रा एक रत्ती से प्रारभ करके, एक-एक रत्तो को मात्रा प्रतिदिन बढाते हुए अथवा दो दिनो के अतर मे प्रतिदिन बढ़ाते हुए दस से बारह रत्ती तक रोगी का बलादि देखकर देने का विधान है। फिर रोगी के अच्छा होने तक वही मात्रा देता रहे। अर्थात् जव दस्त बंद हो जाय, पाचन मुधर जाय, अग्नि दीप्न हो जाय, मात्रकूजन ( वायु के कारण ) शान्त होने लने तो प्रतिदिन या हर तीसरे दिन एक-एक रत्ती की मात्रा घटाकर एक रत्ती की मात्रा पर रोगी को लावै । कुछ दिनो तक यह मात्रा चलती रहे । रोगी स्वस्थ हो जाय तो औपध छुड़ा दे । दिन में एक ही खुराक में अधिक मात्रा की औपधिको (८रत्ती या १० रत्ती) न देकर दिन मे कई वार में विभाजित करके दो रत्ती से तीन रत्ती तक प्रति मात्रा देते हुए तीन या चार वार में देना उत्तम रहता है। सामान्यत वर्षमान पर्पटी कल्प प्रयोग मे ४० से ६० दिन लग जाते है। _ अनुपान-भुना जीरा का चूर्ण १॥ से ३ मागे और घी मे भुनी हीग : रत्ती मिलाकर दे । या भुना जीरे का चूर्ण और शहद के साथ दे। ऊपर से दूध, दादिम, छाछ, मोसम्मी मीठा नीवू या नारिकेल जल दे। उपयोग रसपपटी-सब प्रकार के पचन विकारो ( जाठराग्नि के दोपो) मे रमपर्पटी का उत्तम औपवि है, ग्रहणी, जीर्ण अतिसार, जीर्ण प्रवाहिका मोर अग्रिमाद्य मे इसके प्रयोग से विशेष लाभ होगा है। स्वर्ण पपटी-जाठराग्रि को दीप्त करने वाली, बलकारक और गरीर को पुष्ट करने वाली पर्पटी है ग्रहणी, सर्व प्रकार के क्षय रोग विगेपत. आत्र के क्षय में इससे विगेप लाभ होता है ।। लोह पपेटी-सूतिका रोग, प्लीहा, वृद्धि, यकृढद्वि, अग्निमाद्य, पाण्डु रोग अम्ल वित्त मीर उदरशूल मे विगेप लाभ पद होता है। मण्डूर पपटी-पाण्डु रोग, पीहा के रोग, गोथ, मन्दाग्मिन यकृद्दीवल्य मे विशेष लाभपद रहती है। गगन-पपटी-मदाग्नि, पाण्डु रोग, राजयदमा, खाँसी और श्वास युक्त ग्रहणी रोग में विगेप लाभप्रद होता है। विजय पर्पटी-कृच्छ्र साध्य ग्रहणी रोग, उपद्रव युक्त राज यक्ष्मा, पाण्डु रोग, प्लीहा के रोग, हृद्रोग, अम्लपित्त अथवा जीणं ज्वर युक्त ग्रहणी रोग में विजय पर्पटी एक उत्तम औपधि है। सुलभ हो तो इसी पपंटो का प्रयोग और Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : सप्तम अध्याय २७३ गीता इस औषधि का प्रबंध कर सकता हो, तो कल्प रूप मे करना हा है। पंचामृत पर्पटी --पर्पटी योगों में यह एक अल्पव्ययसाध्य उत्तम योग है। इसी का व्यवहार वल्प योगों मे चिकित्मक करते है । इसमे वन और लौह भस्म का योग हो जाने से औपवि की क्रिया जीर्ण- ग्रहणी रोग उत्तम होती है। जोर्णातिनार, पाण्डु रोग, अरुचि, मंदाग्नि और ग्रहणी रोग प्रयोग करना चाहिये । पचामृत पर्पटी के प्रयोग से भूम वढती है | तात्र पर्पटी - - यकृत के रोग, प्लीहा की वृद्धि और उदर के रोगो मे एक उत्तम औषधि है । शास्त्र में लिखा है कि ताम्र पर्पटी - छोटी इलायची और भुने जीरे के चूर्ण के साथ पुराने ग्रहणी रोग को, त्रिफला चूर्ण और मधु के साथ प्रमेन और पाण्डु रोग को, एरण्ड तेल के साथ सम्पूर्ण प्रकार के उदर शूलो को और बानी के चूर्ण के साथ सेवन करने से दद्रु और चित्र को दूर करती है । निरन्न चिकित्सा पथ्य- वर्धमान पर्पटी प्रयोग में शरीर का एक कल्प ( नवीनीकरण या कायाकल्प ) हो जाता है। रोगी को पूर्ण विश्राम से विस्तर पर रचना होता है । उसके पचन संस्थान को मुख से लेकर गुदा पयन्त आमानवान् प्रभृति अवयवो को पूर्ण विश्राम देने के लक्ष्य लपण, मनाले प्रभृति सामान्य ठोम भोजन को पूर्णतया है | उनको केवल द्रवाहार दूध अथवा तक्रपर रख कर ( Bland diet ) चिकित्सा की जाती है । इस चिकित्मा का लक्ष्य पचन संस्थान की पुरानी श्लेष्मल कला को ज़रा कर उसके स्थान पर नये श्लेष्मल कला का निर्माण तथा गोपणावरो का पुनर्जनन और अधिक कार्यक्षम बनाना रहता है । इस तरह इस कल्प चिकित्सा के परिणाम स्वरूप पचन तथा शोपण की दोनो क्रियायें प्राकृत हो जाती है । से रोगी को अन्न, जल, वद कर दिया जाता सर्वप्रथम यह निर्णय करना चाहिये कि तक्र और दूध इनमें से कौन सा द्रव पदार्थ रोगी के अनुकूल पडता है, तव किसी एक पर रख कर चिकित्सा का प्रारंभ करना चाहिये । जिस रोगी की अग्नि वहुत मद है, पाचन को शक्ति बहुत क्षोण है और जिसके कोष्ठ मे वायु की अधिकता है उसको तक्र विशेष हित करता है । इसके विपरीत जिसके कोष्ठ मे वायु विशेप नही है और अग्नि अधिक मंद न हो उसे गोदुग्ध पर रखना चाहिये । दूध से शक्ति शीघ्र आती है । परन्तु तक्र लघु होने से पचन शीघ्र सुधरता है और मल जल्दी बँध जाता है । प्रकृति तथा प्राप्यता ( Availability ) का भी विचार करना चाहिए | कभी कभी तक्र या दुग्ध मे से किसी एक का प्रारंभ कराने पर रोगी १८ भि० सि० Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ भिपकर्म - सिद्धि के पथ्य की प्रतिकूलता का ज्ञान होता है तो पथ्य का विपर्यय कर देना चाहिये । अर्थात् दूध बंद करके तक्र या तक्र वद करके दूध पिलाना प्रारंभ कर देना चाहिये | स्त्रियो में दूध स्वभावत. क्म रुचिकर होता है उन्हें प्रायः तक्र ही अनुकूल पडता है । पित्त प्रकृति वालो को गाय का दूध या अजादुग्व अधिक हितकर होता है । हृदय की दुर्बलता होने पर नन की अपेक्षा दूध अधिक हितकर होता है | क्रिमियुक्त ग्रहणी रोग में दूध की अपेक्षा तक अधिक लाभप्रद पाया जाता है | विकार युक्त ग्रहणी में भी तक उत्तम पथ्य रहता है । गोथयुक्त ग्रहणी में दूध का पथ्य उत्तम रहता है । तक्र गोदुग्ध से नित्य ताजा बनाना चाहिये । वढिया जमे दही का ही तक्र देना चाहिये | थोडा थोडा करके नियमित समय पर तक्र या दूध पिलाना चाहिये जिनमें रोगी का वल न घटे, शीघ्र पचे और क्षुवा वढनी चले | दूध उवाला हुआ पतलाही पीने को देना चाहिये । वहुत गाढा करके नही देना चाहिये । तन बनाने मे शास्त्रीय विधान दही में चतुर्थांग उबाल कर ठडा किया हुआ जल मिलाकर मथन करके घोल बनाकर देने का है, परन्तु आवश्यकतानुसार उसमें जल कुछ अधिक भी मिलाया जा सकता है । वातिक ग्रहणी में पूर्ण नवनीत युक्त तक्र, पैत्तिक में मध्यम नवनीत युक्त ( अर्थात् कुछ निकाल कर नवनीत ) और इष्मिक ग्रहणी मे पूर्णतया नवनीत हीन तक्र देना चाहिये । दूव या तक्र मे थोडा पंचकोल चूर्ण एक माझे की मात्रा में मिलाकर लेना उत्तम रहता है । यदि दूध या तक्र रुचिकर न प्रतीत हो तो थोडी मिश्री डालकर मीठा करके दिया जा सकता है | तृपा के गमन के लिये प्राय दूध या तक्र का पी लेना ही पर्याप्त रहता है, परन्तु ग्रीष्म ऋतु मे यदि तृपा अधिक लगे तो रोगी को मौफ का अर्क या नारिकेल जल या श्रुत-शीतजल पीने के लिए दिया जा सकता है । फलो मे अनार का रस पीने को दिया सकता है । B पर्पटी प्रयोग विधि-इस निरन्न चिकित्सा में पर्पटी नामक ओपवि का सेवन एक विशेष क्रम से एक विशिष्ट अवधि तक कराया जाता है। कई पर्पटियो के नाम ऊपर में उल्लिखित है । उनमें सर्वोत्तम विजय पर्पटी है, यह यदि सुलभ न हो तो पंचामृत पर्पटी हर हालत में बहुत अच्छी है । यकृद्विकार, रक्ताल्पत्व, गोवादि उपद्रवयुक्त ग्रहणी में इन का प्रयोग विशेष लाभप्रद रहता है । स्वर्णपर्पटी - संग्रहग्रहणी या मदज्वर युक्त ग्रहणी या क्षयज ग्रहणी में यह ओपघ लाभप्रद रहती है | यह हृद्य एव बलवर्धक होती है । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : सप्तम अध्याय २७५ पर्पटी सेवन कराने की शास्त्रीय विधि का ऊपर में उल्लेख हो चुका है। जिसमे १ रत्ती से मात्रा का आरभ करके प्रतिदिन एक ही रत्ती बढाते हुए कुल दन रत्ती तक ले जाते है पुन कुछ दिनो तक इस मात्रा को चालू रख कर क्रमश एक एक रत्ती धटाते हुए एक रत्ती पर लाकर पर्पटी का सेवन बंद कर देते हैं । पश्चात् कुछ चूर्ण, गुटिका, मोदक, आसवारिष्ट का प्रयोग करते हुए रोगी को प्रकृतस्थ कर लिया जाता है। स्वर्गीय वैद्य यादव जी विक्रमजी आचार्य इसी क्रम के पक्षपाती थे। हिन्दू विश्वविद्यालय काशी के आयुर्वेदानुसधान विभाग के सचालक प० राजेश्वर दत्त जी शास्त्री का क्रम किंचित् इससे परिवर्तित है। यही क्रम हम लोगो को भी मान्य है। इसमे पर्पटी सेवन के एक दिन पूर्व रोगी को कृष्ण वीज चूर्ण ६ माशे को मात्रा मे कोष्ण दूध के साथ खिलाकर सचित मल को निकाल देना चाहिये। तत्पश्चात् पर्पटी एक एक रत्ती की दो मात्रा बनाकर भने जीरा का चूर्ण ४ रत्तो से १ मागा और मधु ३ से ६ माशे तक मिलाकर प्रात -सायम् देना चाहिये । इस प्रकार दो दिनो तक देकर तीसरे दिन एक रत्ती और वढाकर ३ रत्ती को तीन मात्रा मे वाँटकर प्रात , मध्याह्न और सायं देना चाहिये। यह क्रम भी दो दिनो तक चले । इस प्रकार हर तीसरे दिन एक एक रत्ती को मात्रा बढाता चले और पर्पटी की मात्रा अधिक होने पर चार वार, पांच वार या छ वार मे समय का विभाग करके दिन मे देवे। जब पर्पटी बारह रत्ती तक पहुँच जावे तब वढाना वद कर देवे। यदि इस मात्रा के पहुँचने पर भी मल वध न रहा हो, दस्त पतले हो हो रहे हो तो यही मात्रा एक सप्ताह तक स्थिर रखे । इसके बाद एक एक रत्ती प्रतिदिन घटाता चले जब तक कि पर्पटी प्रारभिक मात्रा ( २ रत्ती ) तक न पहुँच जावे । इस आरोहावरोह क्रम मे रोगी को कोष्ठबद्वता हो तो हरीतकी चूर्ण ६ माशे देकर कोष्ठशुद्धि कर ले। ___ कई वार रोग के हल्का होने पर वारह रत्ती तक पहुचने के पूर्व ही छ या आठ या दस रत्ती तक पहुँचते ही मल बँध जाता है, भूक वढ जाती है, रोगी अपने को स्वस्थ अनुभव करने लगता है तो उसी मात्रा पर पर्पटी को रोक देना चाहिये । चार, पांच दिनो तक उसी मात्रा पर स्थिर रखकर आगे न बढावे और ह्रासन या घटाने का क्रम चालू कर देना चाहिये । और रोगी को प्रारभिक मात्रा पर ले आना चाहिये। इस वर्धमान तथा ह्रासवान पर्पटी की प्रयोगविधि को पर्पटी कल्प कहा जाता है। पर्पटी की मात्रावृद्धि के साथ साथ, रोगी क्षुधा और अग्निवल का विचार करते हुए एक एक पाव दूध या उतने ही का बना तक भी वढाता चले। दूध या Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૬ भिपकर्म-सिद्धि तक की वृद्धि प्रतिदिन या कुछ कुछ दिन ठहर कर भी की जा सकती है । इस वात का ध्यान रखना चाहिये कि वढाने में इतनी मात्रा न हो कि रोगी को अजीर्ण हो जावे । मात्रा इतनी देनी चाहिये कि कुछ कुछ बुभुक्षा वनी ही रहे। पर्पटी के घटाते समय पुन. दूब या तक्र की मात्रा घटाने की आवश्यकता नहीं रहती है, जितना रोगी पी सकता हो और पचा सकता हो पिलाते रहना चाहिये । दम, वारह सेर दूध या इतने का बना तक पो लेना एक साधारण वात है। कई बार वीस मेर या अधिक दूध पीते भी रोगी देखे गये है। यदि पर्पटी वृद्धि के साथ दूध पीने की क्षमता रोगी को अधिक न वटे तो चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं रहती है । चार सेर या पांच सेर तक दूध पर्याप्त है। ___ संसर्जन क्रम-१ पर्पटी कल्प के समाप्त हो जाने पर सहसा प्राकृत भोजन पर रोगी को नहीं लाना चाहिये । अपितु ससर्जन करते हुए प्राकृत आहार पर लाना चाहिये। जैसे प्रथम दिन लाजमण्ड, दूसरे दिन लाजपेया। तीसरे दिन पुराने गालि या साठी के २॥ तोले चावल को पेया। चौथे दिन ४ तोला चावल । पाँचवे दिन १ छटाँक चावल की पेया। भूख बढती चले तो छठे दिन उतने चावल की विलेपी। यदि अन्न का सम्यक् परिपाक होता चले तो क्रमग चावल की मात्रा वढाता चले, परन्तु एक पाव तक पहुँच जावे तो वढाना बंद कर दे। इन पथ्या को पचकोल युक्त करके लेना उत्तम रहता है। चावल का सेवन दूध या तक्र से यथाक्रम मीठा या नमकीन करके करना चाहिये । तक्र को रुचिकर वनाने के लिये भुने जीरे का चूर्ण और नमक मिलाकर भी लिया जा सकता है। इसके बाद मूग, अरहर या मसूर की पतली टाल विना घी-ममाले से छौके और उसके बाद घी, मसाले युक्त छोक (जीरे की) लगाकर देना चाहिये। गाक-सब्जियो में पलाण्डु, खरबूजे, गूलर आदि देने चाहिये । पत्र शाक, मूल शाक ( जड ) तथा अन्य कई वातो का परहेज पर्पटी कल्प के मनन्तर रोगी को करना चाोि । जैसे-निम्बादि पत्र शाक, अम्ल (खटाई ), काजी, केले का फल, पत्र गाक, जड के गाक, खीरा, ककडी, तरोई, कुप्माण्ड, करेला, तरबूज आदि नही खाने चाहिये । माथ ही रात्रि-जागरण तथा स्त्रीमग का भी निपेव है। मास-सात्म्य व्यक्तियो में मृग, तीतर, लवा, मुर्गा, छोटी मछली, वकरे को सिद्ध करके गोरवा देना चाहिये। जव खिचडी, चावल, दाल आदि रोगी को पचने लगे तो रोटी-दाल भी सेवन को देना चाहिये । पूडी, परावठे, १. पेया विलेपीमकृतं कृतञ्च यूपं रम द्वित्रिरथैकगश्च । __ क्रमेण सेवेत विशुद्वकाय प्रधानमध्यावरशुद्धिशुद्ध ॥ ( च सि १.) Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : सप्तम अध्याय २७७ +( पूवे, घेवर आदि घी या तेल के तले पदार्थों का परहेज हमेशा ही करना चाहिये । अन्य भी इस प्रकार के दुर्जर और गरिष्ठ भोजनो का सेवन ग्रहणी रोग से मुक्त को सदैव नही करना चाहिये । अन्न के प्रारंभ हो जाने पर दूध और तक्र की मात्रा क्रमण कम कर देनी चाहिये । परन्तु एक बारगी नही बन्द करना चाहिये । ग्रहणी के रोगी में रोगमुक्तावस्था के अनन्तर भी दही, तक्र और दूध के सेवन का क्रम सदा बनाये रखना उत्तम है | ग्रहणी रोग में प्रयुक्त सिद्ध घृत - विल्वगर्भ घृत, शुठीघृत, नागरघृत, चित्रक घृत, विल्व घृत, मरिचाद्य घृत, पट्पल घृत, महापट्पल घृत तथा चारी घृत | चाङ्गेरी घृत -- पचकोल, गोक्षुर, धान्यक, विल्वमज्जा, पाठा, अजवायन । इन द्रव्यों का समभाग में लेकर पोस कर कल्क वना ले । फिर इस कल्क से चतुर्गुण वृत, वृत से चतुर्गुण चाङ्गेरी का स्वरस अथवा क्वाथ तथा घृत से चतुर्गुण दही और उतना ही पानी लेकर सबको कलईदार कडाही मे रख घृत को सिद्ध कर ले। यह योग अर्शोरोग, जीर्ण-प्रवाहिका, गुदभ्रंश तथा ग्रहणी मे लाभ करता है । मात्रा १-२ तोले । अनुपान अजाक्षोर या गोदुग्ध के साथ | ग्रहणी रोग में प्रयुक्त होनेवाले तैल - विल्व तैल, ग्रहणीमिहिर तैल, वृहद् ग्रहणीमिहिर तैल, दाडिमाद्य तैल 1 इन तैलो मे से किसी एक का अभ्यंग तथा पान लाभप्रद होता है । ग्रहणी में प्रयुक्त आसवारिष्ट-तक्रारिष्ट, पिप्पल्याद्यासव तथा कुटजारिष्ट । कुटजारिष्ट - कुटज की छाल ५ सेर, मुनक्का २॥ सेर, महुए का फूल आधा सेर, गाम्भारी को छाल आधा सेर, जल १ मन ११ सेर ३ छटांक | क्वाथ वनाकर चतुर्थाश शेप करे । फिर इसे एक घट मे रख कर उसमे धाय का फूल १ सेर, गुड ५ मेर मिलाकर । १ मास तक सधान । मात्रा २ तो० । अनुपान समान जल मिलाकर भोजन के पश्चात् । ग्रहणी मे एक व्यवस्था पत्र - १ पचामृत पर्पटी ३ २०, ३ २०, लाचो चूर्ण २ माशा मिलाकर ३ मात्रा मधु से दिन मे २ कुटजारिष्ट भोजन के वाद २ चम्मच समान जल मिलाकर । अजीर्णकटक तीन बार । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ भिपक्कर्म-सिद्धि आठवाँ अध्याय अर्शोरोग प्रतिषेध क्रियाक्रम - अर्शो रोग को विनष्ट करने के लिये चार प्रकार से चिकित्सा की जाती है । भेपज, शस्त्र, क्षार तथा अग्नि । इनमें आद्य अर्थात् भेपज चिकित्सा ही अपना प्रतिपाद्य विषय है | आचार्य सुश्रुत ने इनकी चतुविध साधनोपाय नाम से व्यास्या की है और वतलाया है कि अचिरकालजात ( जो चिरकाल से न हो ), अल्प दोप, लक्षण एवं उपद्रवो से युक्त तथा अदृश्य अर्शो मे प्राय. भेषज के द्वारा उपचार करना उत्तम रहता है । मृदु अकुर युक्त, फैले हुए ( प्रसृत ), गहराई में पहुचे हुए ( अवगाढ एव उच्छ्रित) अर्श के अकुरो मे अथवा वातश्लेष्मज या रक्त-पित्त दोपयुक्त अवस्था में क्षार कर्म के द्वारा चिकित्सा करनी चाहिये । कर्कश - स्थिर स्थूल और कठिन ( कडे ) अर्गाङ्कुरो मे अथवा वातश्लेष्मज दोपयुक्त अर्ग मे अग्निकर्म के द्वारा उपचार ठीक रहता है तथा तनुमूल ( पतले जड़ वाले ), उठे हुए ( उच्छ्रित ) एवं क्लेदयुक्त सभी प्रकार के दोपोत्पन्न अशङ्कुरो मे शस्त्रकर्म के द्वारा उपचार करना उत्तम रहता है | ( सुचि. ६) १ चरक ने भेपज ( योपधि-योग ) से अर्श की चिकित्सा करने को सर्वोत्तम साधन माना है तथा उसकी अधिकार पूर्ण प्रगमा भी की है । काय-चिकित्सा के समर्थक होने के कारण उन्होने अपने भेपज - साधन को सुखोपाय और अदारुण कर्म नाम से प्रशंसा की है और अर्शोकी समूल निवृत्ति के लिये भेपज-साधन को हेतु भी माना है । दूसरे साधनोपायो को अर्थात् शस्त्र क्षार एव अग्निकर्म को उतना उपयुक्त न मानते हुए इन क्रियावो से चिकित्सा करने की पद्धति की चुटकी भी ली है। उनका कथन है कि कुछ लोगो का कहना है कि अर्श के मस्सो को काटकर निकालना चाहिये । दूसरे क्षार के द्वारा जलाने की सलाह देते हैं और अन्य लोगो ने अग्नि के द्वारा दाह का विधान वतलाया है । इसमें सन्देह नही ये सभी मत वडे आचार्यो के हैं तथा तन्त्रसम्मत है । साथ ही कर्म करने वाले चिकित्सक भी दृष्टकर्मा और प्रत्यक्षाभ्यासी व्यक्ति होते है और तोनो क्रियाये अर्ग के प्रतिकार रूप मे प्रचलित हैं | परन्तु निजी अनुभव में इनकी क्रियावो के द्वारा कई प्रकार के उपद्रव होते देखे गये है । जैसे, दारुण गुदभ्र श ( Prolapse of Rectum) पुस्त्वोपघात ( Impoteny ), गुदपाक १. दुर्नाम्ना साधनोपायञ्चतुर्धा परिकीत्तित । भेपजक्षारगस्त्राग्निकर्म चाद्यन्तु सम्मतम् ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ का उल्लेखहम काम प्रधान कारण मन्दार से सम्बद्ध होतत्पत्ति में चतुर्थ खण्ड : आठवॉ अध्याय ( Proctitis), आध्मान, दारुण शूल, रक्तातिस्राव ( Haemorhgea) तथा अर्गका पुनरुद्भव ( Ralapses ) तथा कई वार इन कर्मों मे असावधानी से मृत्यु तक हो जाती है । अस्तु, जो कर्म सुविधापूर्वक किया जा सके उसी कर्मों का उल्लेखहम करते है जिनसे अर्श जड के साथ नष्ट हो जाते है। मर्श रोगो में प्रधान कारण मन्दाग्नि ( अग्निमदता ) रहती है । अर्श, अतिमार तथा ग्रहणो तोनो रोग एक दूसरे से सम्बद्ध होते हैं और बहुधा एक दूसरे के उत्पादक रूप में पाये जाते है। उन सवो की उत्पत्ति में अग्निमदता ही प्रधान हेतु के रूप में पाई जाती है। अग्नि के मंद होने पर ये उत्पन्न होते है और अग्नि के दीप्त होने पर ये स्वयमेव नष्ट हो जाते है। अस्तु इन रोगो के उपचार में अग्नि को दोप्त करने के लिये जो भी उपचार प्रशसित है उनका उपयोग करना चाहिये ।२ अस्तु अर्ग को चिकित्सा मे १ वातानुलोमक ( वायु के अनुलोमन के लिये ), २ अग्नि के बल को बढाने के लिये ( अग्निवर्धक ) ३ विवधहर (कोष्ठ की बद्धता को दूर करने के लिये) जो अन्न, पेय तथा भेषज द्रव्य है उनका प्रयोग नित्य अर्श मे करना चाहिये । यदि अर्ग रोग का अतिसार (पतले दस्त) मा रहे हो तो वातातिसारवत् चिकित्सा करे और अगर पुरीप बद्ध या गांठदार हो तो उदावत रोग के सदृश उपचार करना चाहिये।४।। अर्ग रोगो के छ प्रकार शास्त्र मे ( वात-पित्त-कफ-रक्त-त्रिदोप और सहज भेद मे ) बतलाये गये है, परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से दो ही भेद कर लेना पर्याप्त होता है कि अर्श शुष्क है या स्रावी? शुष्क अर्श अधिकतर गुदा की वाह्य वलियो १ तबाहरेके शस्त्रेण कर्त्तन हितमर्शसाम् । दाह क्षारेण चाप्येके दाहमेके तथाग्निना ॥ अस्त्येतद् भूरितन्त्रेण धीमता दृष्टकर्मणा । क्रियते विविध कर्म भ्रशस्तन सदारुणम् ॥ पुस्त्वोपघात श्वयथुगुदे वेगविनिग्रह । आध्मान दारुण शल व्यथा रक्तातिवर्तनम् ॥ पुनर्विरोहो रुढाना क्लेदो भ्र शो गुदस्य च । मरण वा भवेच्छीत्र शस्तक्षाराग्निविभ्रमात् ।। यत्तु कर्म सुखोपायमल्पभ्र शमदारुणम् । तदर्शसा प्रवक्ष्यामि समूलाना निवृत्तये ॥ (च चि १४) २ अर्शोऽतिसारा ग्रहणीविकारा प्रायेण चान्योऽन्यनिदानभूता । सन्नेऽनले सन्ति न सन्ति दीप्ते रक्षेदतस्तेपु विशेपतोऽग्निम् ।। ३ यद् वायोरानुलोम्याय यदग्निवलवृद्धये । अन्नपानौषधद्रव्य तत्सेव्य नित्यमशसै ॥ ४ वातातिसारवद् भिन्नवर्चास्यास्युपाचरेत् । उदावतविधानेन गाढविटकानि चासकृत् ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० भिपक्कम-सिद्धि में स्थित होते हैं उनके मस्से ( अकुर ) दृश्य होते हैं नीर उनमे वेदना अधिक होती है (वादी बवासीर)। त्रावी मर्श प्राय. गदा के मध्य या अन्तः वलियो में पैदा होते हैं, उनके अंकुर (मस्से) दिखलाई नही पड़ते ( अदृश्य होते है )इनमें वेदना अल्प या नहीं रहती है, रक्तन्नाव ही एक प्रमुख लक्षण पाया जाता है। शुष्क में वायु और श्लेप्मा दोपो की प्रबलता होती है और नावी अर्गों में रक्त और पित्तदोपो की प्रबलता पाई जाती है। अस्तु दृश्य गुष्कार्गों में तीक्ष्ण द्रव्यो मे निर्मित प्रलेपादि, अभ्यग, स्वेद, सेक, अवगाहन, वूमन, उपनाह, गुदत्ति नया रक्तावसेचन प्रभृति स्थानिक उपचार, तीण पाचन द्रव्यो के बंत. प्रयोग में उपचार करना चाहिो । अदृच वावी सों में रक्तपित्त ( अधोग ) मग मृदु एवं पित्तनामक मान्यंतर प्रयोग से उपचार करना चाहिये।' इममे मदु वमन और रेचन कर्म लाभप्रद रहता है।. कोष्ठद्धि का धान रखना मभी प्रकार के बर्गा की चिकित्सा मे प्रधान लक्ष्य होना चाहिये। दोपभेद से विचार करें तो बातिक में स्नेहन-स्वेदन, पंत्तिक में रेचनादि, ब्लैष्मिक में वमनावि, मिय दोगो से उत्पन्न में मिश्रित तथा पित्तसदन ही क्रिया रक्तज मनों में प्रकीतित है। ___रस्तान में रक्त-पित्तशामक उपचार करे। अर्ग में निकलने वाले रक्त को प्रारम में उपेक्षा करनी चाहिये और उसको निकलने देना चाहिये-क्योकि प्रारम में जो दूपित रक्त निकलता है-उसके रोकने में बहुत तरह के कामलादि उपद्रव होने लगते है-अस्तु प्रारंभ में रक्त के रोकने के लिये स्थानिक या मार्वदेहिक रक्तस्तंभक उपचार नहीं करना चाहिये। परन्तु दुष्ट रक्त के निकल जाने पर रक्त का मग्रहण करना चाहिये । अथवा यदि रक्तस्राव तीव्र हो तो आत्यधिक अवस्था समझ कर उसका मंग्रहण प्रारंभ में भी किया जा सकता है । __ रक्तार्ग की चिकित्मा में जाठराग्नि को उहीप्त करने के लिये, रक्त के सत्रण (स्लमन) के लिये तथा दोपो के लिये तिक्त रसात्मक द्रव्यो का उपयोग करना चाहिये। रक्त के अधिक नु त हो जाने से वायु की वृद्रि अधिक हो जाती है ऐमी स्थिति स्नेहसाध्य रहती है अस्तु-पिलाने, मालिग तथा अनुवासन के लिये स्नेह का प्रयोग करना चाहिये । पित्तोल्वण रक्तन्नाव में, १ गुप्कार्गमा प्रलेपादिक्रिया तीक्ष्णा विधीयते । त्राविणा रक्तमालोक्य क्रिया कार्यात्रवृत्तिकी ॥ स्नेहा. स्वेदादयो वाते पित्ते स्यू रेचनादयः । कफे वान्त्यादयोऽर्श मु मित्र मिया. प्रकीर्तिताः ॥ पित्तवद् रक्तजे कार्य. प्रतिकारोऽसि ध्रुवम् । (च.) Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ चतुर्थ खण्ड : आठवॉ अध्याय दुर्बल रोगी मे जिनमे वात-कफ का अनुबंध नही हो और ग्रीष्मकाल हो तो उनका स्तमन तत्काल करना चाहिये। रक्तजे पित्तवैशेष्याद्रक्तपित्तहरी क्रिया । प्रवृत्तमादावर्शोभ्यो यो निगृह्णात्यबुद्धिमान् । शोणितं दोपमलिनं तद्रोगान् जनयेद्वहून् ।। तस्मात्नुते दुष्टरक्त रक्तसंग्रहणं मतम् । कालं तावदुपेक्षेत यावन्नात्ययमाप्नुयात् ।। अग्निसंदीपनार्थञ्च रक्तसंग्रहणाय च । दोपाणां पाचनार्थञ्च परं तिक्तरुपाचरेत् ।। यत्तु प्रनीणदोपस्य रक्तं वातोल्वणस्य च। , वर्तते स्नेहसाध्यन्तत्पानाभ्यगानुवासनै । यत्तु पित्तोल्बणं रक्त धर्मकाले प्रवर्त्तते । म्तम्भनीयं तदेकान्तान्न चेद्वातकफानुगम् ॥ (चर), अर्श रोग मे तक्र-तक्र का निरन्तर मेवन करने से अर्श रोग नष्ट हो जाता है और नष्ट हो जाने पर पुन नही उत्पन्न होता है। ग्रहणी और अतिमार रोग मे भी तक सेवन की प्रगसा हो चुकी है। अब यहाँ अर्श समान उत्पादक हेतु होने की वजह से पुन उसका विधान किया जा रहा है । चरकने लिसा है कि जब पृथ्वी मे एक बार घास को निकाल कर उसकी जडमे तक छोडने से पुन नही उगता फिर दीप्त जाठराग्नि वाले पुरुपका शुष्क अर्श तक्र के उपयोग से कैसे-शेप रह सकता है ? तक के निरन्तर प्रयोग से भी सभी नोत शुद्ध हो जाते है, पाचन शक्ति तीव्र होती है, अन्न का सम्यक् परिपाक होने से पक्व रम पैदा होता है । उस से रक्त, मामादि धातुओ की यथाक्रम सम्यक् वृद्धि होती है। शरीर पुष्ट होता है। शरीर मे बल-वर्ण-कान्ति का उदय होता है। मन मे प्रसन्नता आती है, वस्तुत वातश्लेष्मोल्वण अर्श के लिये तक से वढ कर कोई औपध नहीं है। अर्श के रोगियो मे जिनकी अग्नि बहुत मद है उनमे कुछ दिनो तक अन्न न देकर तक्र पर ही रखना चाहिये और जब अग्नि दीप्त हो जाय तो तक के साय लधु भोजन रोगो को देना चाहिये। अग्नि के बल तथा दोप का विचार करते हुए तक का भी प्रयोग करना उत्तम रहता है। जैसे, यदि पचन शक्ति पर्याप्त हो तो अनुद्धृत स्नेह तक (बिना मक्खन निकाला), यदि पचन शक्ति मध्यम हो तो अर्घोद्धृत स्नेह ( आधा मक्खन निकाला ) तक्र और अग्नि बहुत मद हो तो रूक्ष (पूरा मक्खन निकाला ) तक पीने को दे। दोपानुसारवात की अधिकता मे अनुद्धृत स्नेह, Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ भिपकर्म-सिद्धि पित्त की अधिकता मे मच्योद्धृत तथा कफ की अविकता में पूर्णोद्धृत या स्क्ष तक पीने को देना चाहिये । ___ तक्र को चित्रकमूल चूर्ण के साथ मिश्रित करके पिलाने का नियम है । इसके लिये एक विधि यह कि चित्रक के जड के कल्क को मिट्टी की हडिया के भीतर लेप कर के मुखालेवे और उसमे तक बालकर पी जावे अथवा उसमें यथाविधि गोदुग्ध छोडकर दही जमा ले, उस दही या तक्र का सेवन करे। यह अर्नाहर प्रयोग होता है । यह संभव न हो तो चित्रकमूल चूर्ण ( एक मागा, तक्र में मिलाकर पी जावे।' अथवा अजवायन ३ माने । विडलवण तोला तक्र में मिलाकर भोजन के बाद सेवन करना कोष्टवद्धता को दूर करता है।' शुष्कार्य में भेषज-आभ्यंतर प्रयोग-- गुडहरीतकी- मागे हरीतकी और एक तोला गुड मिलाकर प्रात: काल लेवन। २ एक द्रोण गोमूत्र में हरीतकी के सौफलो का स्वेदन करके एक एक का मुवह गाम ब्रह्मचर्य रखकर सेवन । ३ सगुड़ कणा अभया-गुड़ ' तोला, पिप्पली ४ रत्ती और हरीतकी ६ मागे मिश्रित सेवन । ४ त्रिवृत् (निगोय) ३ मागे या दन्तीमूल का चूर्ण : मागे तथा गुड़ १ तोला के साथ मेवन । ५ दिल आमकर-तिलका चूर्ण ६ माने और गुद्ध भल्लातक एक मामा मिश्रितकरता या गोदुग्ध या शीतल-जल से सेवन । ६ तिलमल्लातककालो तिल, गृह मत्लातक तथा गुड का समान मात्रा में वना योग दो मागे भर की मात्रा में गोली बनाकर सेवन । ७ चित्रक मूल का मट्ठा या नीयु के माय भवन । ८ तक या मळे के साथ जोके सत्त का नमक मिलाकर सेवन । ९ १ त्वच चित्रवमूलम्य पिटवा कुम्भं प्रलेपयेत् । तक वादवि वा तत्र जातमोहरं पिवेत् ॥ वातश्लेप्मार्गसा तक्रात्पर नास्तीह भेषजम् । तत्प्रयोज्यं ययादोपं सन्नहं समेव वा ॥ स्लमर्वोद्धृत स्नेह यतश्चानुद्या वृतम् । तक दोणग्निवनविन त्रिविध तन्त्रयोजयेत् ॥ भ्रमावपि निपिक्तं तहहेत्तक तृणोलुपम् । कि पुननिकायान्ने गप्पाण्यामि देहिन ॥ त्रोत मु तक्रगदेषु रस साम्यमुपति यः। तेन पुष्टिवल वर्ण. प्रपञ्चोपजायते ॥ नास्ति तकात्परं किंचिदौण्वं कफवातजे । पिवेदहरहस्तक निरन्नो वा प्रकामत. ॥ अव्यर्थ मन्दकायाग्नेस्तक्रमवावचारयेत् । (चर) २ विविवन्वे हित त्क्रं यमानीविडमयुतम् । (भै र ) Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ चतुर्थ खण्ड : आठवॉ अध्याय पंचकोल, विडङ्ग, हरीतकी चूर्ण युक्त तक का एक मास तक निरन्न रहकर सेवन । १० शृङ्गवेर ( अदरक), पुनर्नवा और चित्रक से सिद्ध दूध का सेवन । ११ चित्रक मूल और क्षारोदक से यव के ओदन ( भात ) का सेवन । १२ पुटपक्व शूरण प्रयोग-सूरण के ऊपर मिट्टी का २ अगुल मोटा लेप कर अग्नि में पकाकर भर्ता बनाकर नमक और तेल के साथ सेवन । १३. वैगन ( भण्टा) का भर्ती बनाकर सेवन । भेपज-योग-चिरबिल्वादिकषाय-चिरविल्व ( करजकी गुद्दी ), पुनर्नवा, चित्रक मूल, अभया, छोटो पोपली, सोठ तथा सैधव के सम भाग में सिद्ध कपाय का सेवन ।' लवणोत्तमादिचूर्ण-सैन्धवलवण, चित्रकमूल, इन्द्र जौ, करा बीज को मज्जा, बकायन के बीज को गुद्दी समभाग मे चूर्ण । मात्रा ३ माशे-६ माशे । अनुपान तक ( मठे )। एक सप्ताह के प्रयोग से पर्याप्त लाभप्रद । - समशकरचूर्ण-छोटी इलायची १ तोला, दालचीनी २ तो तेजपत्र ३ तोला, नागकेसर ४ तोला, काली मिर्च ५ तोला, पीपरि ६ तोला, सोठ ७ तोला सब के बरावर मिश्री मिलाकर बनाया चूर्ण । मात्रा ३ माशे से ६ माशे की अनुपान जल । श्वास कास, अर्श तथा अग्निमाद्य मे लाभप्रद । 3 भल्लातक अथवा कुटजत्वक-शुष्काशं मे भल्लातक और रक्तार्श मे कुटजत्वक् का योग सर्वोत्तम है । सभी प्रकार के अर्श मे सभी ऋतुवो मे शक्तिवर्द्धक, अग्निवल कारक और मलशोधक आहार और पथ्य देना चाहिये। उपर्युक्त प्रयोगो द्वारा अग्नि दीप्त होती है और कारण के नाश से कार्य का नाश-इस सिद्धान्त के अनुसार अर्शाङ्कर नष्ट होते हैं । अर्शाङ्करो पर कई प्रकार के अभ्यग, लेप आदि का प्रयोग भी लाभप्रद होता है। ऐसे कुछ योगो का नीचे उल्लेख किया जा रहा है। १ चिरविल्वपुनर्नववह्नयभयाकणनागरसैन्धवसाधितकम् । गुदकोलभगदरगुल्महर जठराग्निविवर्धनमाशु नृणाम् ॥ २ लवणोत्तमवह्निकलिङ्कयवान् चिरविल्वमहापिचुमर्दयुतान् । पिव सप्तदिन मथितालुलितान् यदि मदितुमिच्छसि पायुगदान् । ३ शण्ठीकणामरिचनागदलत्वगेल चूर्णीकृत क्रमविवद्धितमूर्वमन्त्यात् । खादेदिद समसित गुदजाग्निमाद्यकासारुचिश्वसनकण्ठहृदामयेपु । ४ शुष्केपु भल्लातकमग्रयमुक्त भैपज्यमार्टेपु च वत्सकत्वक् । सर्वेषु सर्वत्र्तुषु कालशेयमर्श सु वल्य च मलापहञ्च ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ भिपकर्म-सिद्धि । बाह्य या स्थानिक प्रयोग–अभ्यंग तथा स्वेद-स्तव्यता, शोफ और शूल से युक्त शुष्कार्ग मे 'पचगुण तैल या पिप्पल्यादि तैल ( चित्रक-यवक्षार-बेल से यथाविधि सिद्ध तेल ) का अभ्यग करके सोवा और घोडवच की पोटली या भांग की पत्ती की पोटली बनाकर या सहिजन के छाल को पोट्टली बनाकर आग पर तवा रख कर उस पर गर्म करके सेंक करना । सेक-वासक, अर्क, एरण्ड, विल्व के पत्रो का काढा बना कर गुनगुने ( कोप्ण जल से ) अङ्किरी का धोना। अवगाहन-झरवेर या वित्व के, छाल की काढे को कोष्ठक ( Tub ) में भर कर कुछ समय तक उसमें बैठना मार्गोकुरगत शोथ और वेदना का नामक होता है। धूपन-सम भाग मे गुग्गुलु. भूर्जपत्र, देवदाली (बन्दाक), घी, गर्करा लेकर भाग मे छोडकर गुदागुरो पर धुवा देना अथवा मनुष्य के वाल, माँप को केचुल, विडाल का चमडा, मदार को जड और गमीपत्र, समभाग मे लेकर आग पर छोड कर मस्सो पर धुवाँ देना । लेप-अमीरादि लेप-अर्क क्षीर ( मदार का दूध), स्नुहीमोर ( मेहुडका दूध ),कडुवी लौकी की पत्ती, करने का फल सव समभाग में लेकर बकरी के मूत्र मे पीस कर अकुरो के ऊपर लेप करना। हरिद्रादि लेप-हरिद्राका चूर्ण, कडवी तरोई की पत्ती, वीज या जड का चूर्ण वरावर वरावर लेकर सरसो के तेल में मिलाकर लेप करना। स्नुही क्षीर और हरिद्रा के चूर्ण का लेप अथवा दन्ती वीज, तूतिया या कामीस, कवतर या मुर्गे को विष्ठा और गुड को एक में पीस कर लेप करना। उपनाह-भांग, कुकुरीवा की पत्ती, महुवे का फूल या केवल कुकुरोधा को पानी में पीस कर टिकिया जैसे बनाकर गर्म करके मस्सो पर वाँधना अथवा चक्रमर्द के वीज को पीस कर गर्म करके बांधना। गुदवर्ति-कडवी तुम्बी के बीज, गिरीप के वीज, खारीलवण या माभर लवण, कडुवी तरोई के वीज की गुद्दी और गुड मिलाकर पिघला कर लम्बी वत्ति (Suppository) बनाकर गुदा में धारण करना। पिचुवारणकामीसाद्य तेल (शा स.) या पिप्पल्यादि तेल की रूई में प्लोत बनाकर गुदा मे धारण करना । जलौका-उपयुक्त उपायो से यदि अर्शोङ्कारगत वेदना, गोफ और स्तभ का गमन न हो तो जलौका ( जोक ) लगाकर दूपित रक्त को निकालना चाहिये । अथवा सर्वप्रथम फले हुए अर्गोवरो का दूपित रक्त जोक से निकलवा कर पश्चात् ये लेप, सेक आदि उपचारो को वरतना चाहिये । रक्तस्त्रावी अर्श मे आभ्यंतर भेपज-१. अपामार्ग मूल को मरिच, मिश्री और चावल के पानी के साथ पिलाना। २. दूध के साथ सतावरी का सेवन । ३. कुटज और बदाक मूल का कल्क मट्टे के साथ लेना। ४. काले तिल Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : आठवॉ अध्याय २८५ का ६ माशे प्रतिदिन शीतल जल मे प्रात काल मे सेवन । अथवा कालातिल १ तोला, शक्कर १ तोला बकरी के दूध के साथ सेवन । १४ अभ्यास-नवनीत (माखन) और तिल के अभ्यास मे, केशर, नवनीत और मिश्री के अभ्यास से, सारयुक्त दधि को मथकर सेवन के अभ्यास से अर्थात् नित्य सेवन करने से रक्तार्श रोग दूर होता है । ५ असली नागकेसर या केसर का मक्खन और मिश्री के साथ सेवन । ६ वनतण्डलीयक का तण्डुलोदक से सेवन ( बन चौलाई की जड ६ माशे, मधु ३ माशे, मिश्री ३ माशे, तण्डलोदक एक छटॉक छानकर पिये ) ७ मण्डूकपर्णी का स्वरम मधु के माथ मिलाकर सेवन । ८ कच्ची मूलो का चीनी के साथ सेवन या पलाण्डु का सेवन । ९ कुटज की छाल, बिल्वफल-मज्जा और शुठी का सेवन । अथवा केवल कुटज की छाल को तक्र के साथ पीसकर सेवन । १० गेन्दे के फूल और पत्ती का स्वरस ६ माशे दिन में दो बार रक्तार्श मे लाभप्रद पाया गया है । ११ दाडिम (अनार) फल के छिल्के को पीसकर चीनी के साथ सेवन । १२ असली केसर या नागकेसर ४ रत्ती की मात्रा मिश्री और चावल के पानी के माथ देना भी लाभ-प्रद होता है। १३ कमलिनी का कोमल पत्र पीसकर वकरी के दूध और मिश्री के साथ पीना। भेपज योग १ नागकेशर योग-नागकेशर, सूनखरावो ( दमउल अखबेन ) का सममात्रा मे बना योग । २ माशे। अनुपान शोतल जल, बकरी का दूध या चावल के जल के साथ। २ चंदनकिरातादि कपाय--रक्त चदन, चिरायता, जवासा, सोठ, इन्द्र जी, कुटज की छाल, खस, अनार के फल का छिलका, दारुहल्दी, नीम की छाल, लज्जालु, अतीस और रसोत समभाग मे लेकर यथाविधि क्वाथ । शीतल होने पर मधु मिलाकर एक छटाँक की मात्रा मे दिन में तीन बार सेवन रक्त का सद्यः सग्राहक होता है। ३ समङ्गादि चूर्ण-मजोठ, नील कमल, मोचरस, लोध्र, कालीतिल, श्वेत चदन, लाजवन्ती । समभाग चूर्ण । मात्रा ३ माशे । अनुपान अजाक्षीर । वाह्य धूपन-नृकेशादि धूम ( जिसका उल्लेख ऊपर मे शुष्काश मे हो चुका है । ) अथवा राल-कर्पूर धूम राल एव कपूर को अग्नि मे जलाकर गुदा १. नवनीततिलाभ्यासात केशरनवनीतशर्कराभ्यासात् । दधिसरमथिताम्यासाद् गुदजा शाम्यन्ति रक्तवहाः ॥ (भै र ) Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ भिपकर्म-सिद्धि का धूपन करने से रक्तन्त्राव वद होता है । दाहशामक अभ्यंग-दाह के निवारण के लिये गतवीत अथवा सहस्रवीत घृत का लेप अगुली की सहायता से गुदा मे करना । अवगाहन-यदि अधिक रक्तस्राव हो और गुदा मे दाह हो तो, मधुयष्टि, खम, पद्म काप्ट, रक्त चदन, कुग और कास की जड के उवाले शीतल जल को टब मे भर दे और उसमें रोगी को कुछ देर के लिये वैठावे । पिचुधारण-कई वार रक्तार्ग मे अत्यधिक रक्तस्राव होने लगता है और वह वद नही होता उस अवस्था मे वर्फ मे तर करके कपडे को वत्ति ( Gawge ) या उदुम्बर सार मे भिगोयी वत्ति को गुदा मे भरना लाभप्रद रहता है । रसोत और गोधृत, राल और गोघृत, सफेद चदन का घृष्ट और गोधत अथवा नीलोत्पल चूर्ण और गोघृत का गुद वलियो मे लेप भी लाभप्रद रहता है । पिच्छा वस्ति-जवासा, कुश और कास की जड, मेमर का फूल, बरगद, गूलर और पीपल का गुग प्रत्येक दो-दो पल, जल 3 प्रस्थ, गोदुग्ध १ प्रस्थ सबको एक मे पक्रावे जव दूध मात्र अवशिष्ट रहे तो छान ले । उममे सेमल की गोद, लाजवन्ती, चंदन, नीलोफर, इन्द्रजौ, फूल प्रियगु और कमल की केसर का कल्क छोडकर मथकर वस्ति यंत्र में भरकर वस्ति दे । यह योग मद्य. रक्तस्तभक होता है और रक्तार्ग के अतिरिक्त प्रवाहिका और गुदभ्रश में भी उपयोगी है। अर्ग रोग मे व्यवहत होने वाले प्रसिद्ध एवं दृष्टफल योगमोदक-नागरादि मोदक, अगस्ति मोदक, स्वल्प शूरण मोदक तथा, ' वृहत् सूरण मोदक-सूरणकद (ओल या जमीकद ) १६ भाग, चित्रक की जड ८ भाग, गुठी चूर्ण ४ भाग, कालीमिर्च का चूर्ण २ भाग, त्रिफला चूर्ण ४ भाग, पिप्पली, पिप्पली मूल, तालोग पत्र, गुद्ध भल्लातक, वायविडङ्ग प्रत्येक ४ भाग, मुमलीकद ८ भाग, वद्धदारुक ( विधारे के वीज का चूर्ण) १६ भाग, छोटी एला ४ भाग । इन सभी द्रव्यो की मिश्रित मात्रा के द्विगुण पुराना गुड । मात्रा २ तोले । अनुपान दूध । इस योग के लम्बे समय तक प्रयोग करने से बिना किसी शस्त्र कर्म क ही अर्गोङ्कर नष्ट हो जाते है और अग्नि दीप्त होती है। काङ्कायन मोदक-हरीत की चूर्ण ४ तोले, जीरक, मरिच, पिप्पली प्रत्येक १ तो, पिप्पली मूल दो तोले, चव्य का चूर्ण ३ तोले, चित्रक चूर्ण ४ तोले, गुठी चूर्ण ५ तोले, गुद्ध यवक्षार २ तोले, शुद्ध भल्लातक ८ तोले, सूरण कंद १६ तोले। इस चूर्ण से द्विगुण पुराना गुड ( १ सेर ) लेकर भली प्रकार से आलोडित कर पूरा करे। ४ मागे की मात्रा मे मोदक बना ले । प्रात १ या दो मोदक । गीतल जल या तक्र से । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : आठवॉ अध्याय २८७ कुजट लेह-कुटज का कपाय बनाकर उसमे गुड, घृत मिलाकर गाढा करना उममे निम्नलिखित द्रव्यो का प्रक्षेप-शुद्ध भल्लातक, वायविडङ्ग, त्रिकटु, निफना, रसाञ्जन, चित्रक मूल, इन्द्र जी का चूर्ण, वचा, अतीस तथा विल्व फल मज्जा समभाग में । इस लेह मे घृत और शहद मिलाकर रख ले। मात्रा १ तोला । अनुपान घृत, मधु तक या जल । सभी प्रकार के अर्श मे, ग्रहणी, अम्लपित्त तया अतिसार रोग मे भी लाभप्रद होता है। श्री बाहुशाल गुड-त्रिवृत्, दन्तीमूल, चव्य, गोखरू, चित्रकमूल, कचूर, इन्द्रायण को मूल, नागरमोथा, शुण्ठी, वायविडङ्ग, हरीतकी प्रत्येक एक तोला, गद्ध भल्लातक ८ तोले, वृद्ध दारुक का शुद्ध वीज ६ तोले, शुद्ध शूरण कद १६ पल । इन द्रव्यो का क्वाथ बनाकर उसमे सवा ६ सेर पुराना गुड डालकर अग्नि पर चढाकर गाढा करे । पुन उसमे निम्न लिखित आठ द्रव्यो का प्रक्षेप छोडकर एक में मिलाकर रखे । प्रक्षेप द्रव्य-त्रिवृश्तमूल २ तोले, चव्यचूर्ण २ तोले, सूर णकद चूर्ण २ तोले, चित्रक मूल चूर्ण २ तोले, सूक्ष्मैला, दालचीनी, मरिच और गजपिप्पली चूर्ण प्रत्येक ६ तोले (मात्रा १ तोले) प्रतिदिन शीतल जल से । यह एक मिद्ध योग है। इसके लम्बे समय तक छ. मास या एक वर्ष के प्रयोग से अर्थ रोग अवश्य नष्ट होता है। दन्त्यरिष्ट-दन्ती, चित्रक, लघुपचमूल (शालिपर्णी, पृश्निपर्णी, वृहती, कटकारिका, गोक्षुर ), बृहत् पचमूल ( विल्व, अग्निमथ, सोनापाठा, पाटला, गाम्भारी), इनमे प्रत्येक का चार-चार तोले, तथा त्रिफला १२ तोले । इन द्रव्यो का यवकुट करके क्वाथ्य द्रव्य, जल १२ सेर, १२ छटोक ४ तोले । क्वाय करके चतुर्थाश अवशिष्ट जल मे ५ सेर पुराना गुड मिलाकर घट मे भर आसवारिष्ट विधि से सधान एक मास तक करे। फिर छानकर वोतल मे भर कर प्रयोग करे। मात्रा २॥ तोले। अनुपान समान जल मिलाकर । दोनो समय प्रधान भोजन के बाद । यह तीनवातानुलोमक और विवधहारक ( मलशोधक) होता है। जीर्ण विवध और अर्श के रोगियो मे समान भाव से उपयोगी है। अभयारिष्ट-गुठली रहित हरीतको फल ५ सेर, मुनक्का २३ सेर, वायविडङ्ग और मधूक पुष्प (महुवे का फूल ) प्रत्येक आधासेर । इन द्रव्यो को १२ सेर, १२ छटाँक ४ तोले अर्थात् १ द्रोण जल में अग्नि पर चढाकर चतुर्थाशावशिष्ट क्वाथ बनावे । पश्चात् शीतल होने पर आसव विधि से ५ सेर पुराना गुड मिलाकर निम्नलिखित प्रक्षेप द्रव्यो को डाल कर सधान करे । प्रक्षेप द्रव्यगोक्षरु, निवृतमूल, धान्यक, धातकी पुष्प, इन्द्रवारुणी, चव्य, शतपुष्पा, शुण्ठी, Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपर्म-सिद्धि दन्तीमूल, मोवास प्रत्येक का ८ तोले चूर्ण। एक मान तक मंधान (मंविवधन कर के जमीन में गाड कर रखकर ) करके निकाले और छानकर बोतलो में भर दे। मात्रा २ से ४ नोले । अनुपान नमान जल में भोजन के बनन्तर । यह भी एक सिद्ध योग है, यी रोगियो में प्रयुक्त होकर नन्ति का दर्षन, मल का बोगन और वायु का बनुलोमन करता है। जीर्ण बिंध के रोगियों ( Chronic Constipation ) में बड़ा लाभप्रद रहता है। सुनिषण्ण चाङ्गेरीवृत-शतपुष्पा, दलामूल, दान्हति, पृन्निपर्णी, गोक्षुर, टाकर, उदुम्बर की कोमल पत्तियाँ, अश्वत्य (पीपल ) के कोमल पत्र । इन द्रव्यो का क्यय । इस कवाय में निम्नलिखित बोपवियों के बल्क छोडे-~-जीवंती, कुटकी, पिप्पली, पिप्पलीमूल, काली मिर्च, देवदार, इन्द्रयव, सेमलपुप्पी, नीरता कोली, लालचंदन, श्वेतचदन, रसोत, वायफल, चित्रकमूल, नागरमोथा, फूल प्रियग, तीन, मालपर्णी, लाल कमल का देसर, मंजिष्ठा, छोटी कटेरी, कच्चे बिल्ल फल की मज्जा, मोचरस और पाम समभाग मे लेकर शिला पर पोसकर मिला। पुन इसमें चीपतिया (मुन्निपण्गक ) तय तिनपतिया (बाङ्गेरी) का स्वरस मिलाकर गोघृत को घृतपाक विवि से पकावे । इस योग का प्रयोग गर्ग, प्रणी, जीर्ण प्रवाहिका तथा गुदभ्रंग में बडा उत्तम रहता है। कासीसाब तैर-कामोस, दन्तीमूल, सैन्धव, कनेर की जड़-प्रत्येक १ पाव लेकर पीसकर पल्क बना ले । पुन. इम कल्ल को ४ सेर तिल, तेल काजी १६ सेर, मनीर १ पाव डालकर सिद्ध करे। इसके स्यानिक उपयोग से बर्ग ने मस्से क्टकर गिर जाते हैं । पिप्पल्याच तेल-ठोटी पोपल, मवृष्टि, विल्वफल मज्जा, गतपुप्पा, मदनफल, वच, कूठ, शुण्ठी, पुष्करमूल, चित्रकमूल, देवनार-समभाग में लेकर वल्क। इस बल्ल से चतुर्गुण तिल, तल तिल तैल से द्विगुण गाय का दुग्ध और अनुगण जल डालकर अग्नि पर चढाकर सिद्ध करें। इस तेल का गुदा में पित्रु बारण या गुदान्त. भरण ( Rectal Injection ) अोगत वेदना का गामक होता है। अशविदनान्तक लेप तधौत घृत १ भाग, देगी कपूर भाग, पिपरमेण्ट भाग, थायमाल (यमानीसत्व) १ भाग । इसके लेप से गुदागत दाह मोर वेदना जा शमन होता है। इसमें माजूफल भाग मोर बहिफेन १ भाग मिलाने से वेदना का गमन बौर मीत्र होता है। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : आठवां अध्याय २८६ रस के योग : अर्शकुठार रस- शुद्ध पारद १ तोला, शुद्ध गधक २ तोला, लौहभस्म, ताम्रभम्ग, प्रत्येक दो तोला, दन्तीमूल चूर्ण, त्रिकटु चूर्ण, सूरणकद चूर्ण, चालोचन चूर्ण, सैन्धव लवण, शुद्धटकण, यवक्षार, इनमे प्रत्येक ५ तोले, स्नुही क्षीर ८ तोले | पहले कज्जली बनाकर पश्चात् इन चूर्णों को छोडकर महीन पीसकर - ३२ तोले गोमूत्र मे मिलाकर अग्नि पर चढा दे, समग्र औपवि का पिण्ड रूप आने तक पाक करे । फिर सुखाकर चूर्ण रुप मे पीसकर शीशी मे भर ले | मात्रा १ माशा । अनुपान गुलकद या १० मुनक्के की चटनी से । यह एक सुन्दर योग है - अर्श के प्रकोपकाल मे ( Inflammed piles ) प्रयुक्त होकर तीन दिनो मे पर्याप्त लाभ दिखलाता है । चञ्चत्कुठार रस — शुद्ध पारद २ तोला, शुद्ध गधक २ तोला, लौह भस्म २ तोला, गुण्ठी, मरिच, पिप्पली, दन्तीमूल, मीठा कूठ, प्रत्येक का एक-एक तोला, कलिहारीमूल चूर्ण, यवक्षार, सैन्धव, शुद्ध सुहागा ( टकण ), गोमूत्र ३२ तोले, स्नुही क्षीर ३२ तोले । खरलकर पिण्डीभाव तक पाक । फिर शीतल हो जाने पर मुसा कर चूर्ण रूप या वटी रूप मे बना ले । मात्रा २ रत्ती प्रात. सायम् । गुलकंद या १० मुनक्के की चटनी से । नित्योदित रस ( भल्लातक युक्त) — रस सिन्दूर, अभ्रक भस्म, लोह भस्म, ताम्र भरम, शुद्ध वत्सहाभ विप प्रत्येक १ तोला शुद्ध भल्लातक चूर्ण ६ तोले । सव एकत्र महीन घोट पीस कर सूरणकद और मानकद के स्वरस से तीन दिनो तक भावना दे । सुखा कर शोशी मे भरलं । मात्रा १ माशे । घृतके साथ | चन्द्रप्रभा गुटिका - वायविडङ्ग, त्रिकटु, त्रिफला, देवदारु, चव्य, चिरायता, पिप्पलीमूल, मुस्तक, कचूर, वच सुवर्णमाक्षिक, सैंधव, यवक्षार, हरिद्रा, दारुहरिद्रा, नेपाली धनिया, प्रत्येक एक तोला, शुद्ध शिलाजीत ३२ तोले, शुद्ध गुग्गुल ८ तोले, लौह भस्म ८ तोले लेकर पीस कर वस्त्र से छानी हुए वशलोचन, दन्तीमूल, दालचीनी या त्रिसुगंध ( छोटी इलायची, दालचीनी, तेजपत्र ) सव को अच्छी तरह घोट कर ४ रत्ती की गोलियाँ बना ले । यह एक सिद्ध योग है जिमका प्रयोग बहुत प्रकार के रोगो मे होता है । विशेषतया मधुमेह, बहुमूत्र ( Diabeties ), पोरुपग्रथिवृद्धि ( Enlarged Prostate ), रक्ताल्पता, दोर्वल्य तथा अर्श रोग मे लाभप्रद पाया गया है । मात्रा - १-२ गोली । अनुपान - चीर । -- यष्टयादि चूर्ण या मधुयष्टयादि चूर्ण - मधुयष्टि, सनाय की पत्ती प्रत्येक २ भाग, सौफ, दारुहरिद्रा और शुद्ध गधक प्रत्येक एक भाग, १६ भि० सि० मिश्री Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० भिण्कर्म-सिद्धि ७ भाग, सवो को मिलाकर बना मिश्रित चूर्ण । मात्रा मागे । अनुपान जल या दूध। यह एक मृदु रेवन ( Mild purgative) है। वर्ग के रोगियो को प्रकोपावस्था में एक सप्ताह तक नित्य प्रयोग करने से मल का गोग्न करके वड़ा लाभप्रद होता है। ___अर्शोन्नी वटी-नीमके फल की गुही २ भाग, महानिम्ब (वकायन ) के फल की गुढी २ भाग, खूनखराबा २ भाग, तृणकान्त (कहरवा) की गुलाब जल से घुटी हुई पिष्टि १ भाग, गुद्ध रसीत ६ भाग लेकर महीन पीसकर । तीन-तीन रत्ती की गोलियां बना ले। मात्रा १ से २ गोली तीन बार जल मे । __कुछ व्यवस्थापत्र-गुष्कार्य में बर्ग कुठार रस १ मागे की दो मात्रा मे वांटकर सुबह-गाम गुलकद या मुनक्के की चटनी से। मर्शकुठार के साथ या नित्योदित रस २ रत्ती मुबह-गाम या काड्वायन मोटक या चंचत्कुठार रस ४ रत्ती सुबह धीर गाम भी दिया जा सकता है । अभयारिष्ट या दन्त्यरिष्ट भोजन के बाद दोनो समय दो से चार चाय की चम्मच भर समान जल मिला कर । रात्रि में सोते वक्त यष्टयादि चूर्ण ६ मागे गर्म जल या दूध से लगातार एक सप्ताह तक । सावी अर्श या रक्तार्श में अर्णोध्नी वटी १ से २ गोली दिन में तीन चार ठडे जल से । भोजनोत्तर अभयारिष्ट या दन्त्यरिष्ट । यष्टयादि चूर्ण लगातार चार दिनो तक ६ मागे की मात्रा में दूध या जल में । पञ्चात् चन्द्रप्रभागुटिका का लम्बे समय तक प्रयोग करना चाहिये । २ गोली रात में सोते वक्त दुध से। पथ्य-पृराना चावल, गेहूँ, जो, मूंग की दाल, गाय का दूध, मक्खन, घृत, तक, पत्रगाको मे (वयुवा, पुनर्नवा, पटोलपत्र, चणक ), फल-याको में सभी विशेषतः लौकी, परवल, कच्चा पपीता, वैगन, पका टमाटर (विगेपत. रक्ताम), भण्टा का भर्ती, कंद गाको में गलजम, मूली, मूरण, पलाण्डु, मासो में मुर्गा, वत्तक, लवा, बटेर, तीतर, हिरण और बकरे का मासरस (सामान्यतया मामरस सभी विववकर होते हैं यस्तु उनका प्रयोग कम करना तथापि हल्के और मुपाच्य मास रसो का उपयोग किया जा सकता है।) संघव लवण, धनिया, जीरा, सो०, बजवायन, लहसुन, काली मिर्च, हल्दी, आँवला, कपित्य आदि मसाले व्यवहार में लाने चाहिये। फलो मे पका पपीता, वीज रहित अमरूद, मुनक्का, किनामिग, अजीर, माँवले का प्रयोग पथ्य है। रक्ताह के रोगियों में विशेषतः तिनपतिया, चौपतिया, वरगढका अकुर, कमल को पंखुडी, विस (कमलनाल ), कच्चा केला, फलो में यनार, मोसम्मी, पिण्ड खजूर, किशमिश, पका गूलर मादि विगेप लाभप्रद रहते है। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्या गुरू पदार्थ-शाक, मत्स्य, बाहये । इसके अवि का धार चतुर्थ खण्ड : नवॉ अध्याय २६१ अपथ्य-गर्भ मसाले, मिर्च-राई और सरसो का अधिक सेवन, विवधकर तथा गुरु पदार्थ-पूडी, हलुवा, चना, मसूर, उडद, अचार, सेम, वोडा, अरुई, आलू प्रभृति कदशाक, मत्स्य, शूकर, पालतू जानवर प्रभृति गरिष्ठ मासो का परित्याग अर्श रोग मे करना चाहिये। इसके अतिरिक्त अधिक स्त्रीसग, जानवर के पीठ की सवारी, उत्कटुकासन, मल-मूत्र के वेगो का धारण, आस्थापन वस्ति का बार-बार प्रयोग प्रभृति आचरणो को छोड देना चाहिये ।' नवॉ अध्याय अग्निमान्द्य-प्रतिषेध क्रियाक्रम जाठराग्नि–चार प्रकार की होती है। सम (प्राकृत ), विपम ( कभी पाक हो कभी न हो ), तीक्ष्ण ( अतिमात्रा मे पाचन की शक्ति बढ जाना ) तथा मन्दाग्नि ( जिसमे अन्न का परिपाक न होवे )। इनमे प्राकृत या समाग्नि प्राकृतिक जठराग्नि का वोचक है यह कोई विकार नही है-इसका सम्यक्तया ठीक बनाये रखने का प्रयत्न प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिये। शेष अग्नि के विभेद अर्थात् विपम, तीक्ष्ण या मन्द वैकारिक अवस्थायें है-जिनका सम्यक्तया उपचार करते हुए प्राकृत या समाग्नि के रूप मे लाना चिकित्सक का प्रधान उद्देश्य रहता है । पुन इन तीन वैकारिक अवस्थामओ मे तीक्ष्णाग्नि या भस्मक का उपचार विलकुल पृथक् या स्वतन्त्र रूप का है। अस्तु इसका पृथक् उल्लेख किया जायगा। विपमाग्नि तथा मन्दाग्नि ये वास्तव में दो ही रोग प्रधान है जिनकी चिकित्सा का वर्णन इस अग्निमान्य नामक प्रतिपेध अधिकार मे विधेय है ।२ अग्निभेदो का दोपानुसार विचार किया जावे तो कफदोप की अधिकता से अग्नि मद, पित्त दोप की अधिकता से अग्नि तीक्ष्ण, वातदोप की अधिकता से अग्नि विषम तथा तीनो दोपो के समान रहनेसे अग्नि सम या स्वाभाविक रहती है। अस्तु उपचार काल मे काय-चिकित्सा मे जठराग्नि का सर्वाधिक महत्त्व है। औलो दोपो के कुपित हो जाने तथा अनेक रोगो के उत्पन्न हो जाने पर भी कायानि की रक्षा करते रहने से जीवन की रक्षा हो जाती है । अर्थात् पाचकाग्नि १ वेगावरोधस्त्रीपृष्ठयानान्युत्कटुकासनम । यथास्व दोपल चान्नमर्श सु परिवर्जयेत् ॥ (सु चि २) २ मन्दस्तीक्ष्णोऽथ विपम समश्चेति चतुर्विध । कफपित्तानिलाधिक्यात्तत्साम्याज्जाठरोऽनल. ॥ समस्य रक्षण कार्य विषमे वातनिग्रह । तीक्ष्णे पित्तप्रतीकारो मन्दे श्लेष्मविशोषणम् ॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ भिपकम-सिद्धि के ठीक या स्वस्थ न रहने पर कुपित हुए अनेक दोप अथवा रोग, रोगी का कोई वडा अनिष्ट नहीं कर सकते, परन्तु पाचकाग्नि के विपम होने से वहुविध दोपो का कोप होकर विविध रोग हो जाते है-जो रोगी के लिये प्राणघातक भी सिह हो सकते है। अस्तु कायचिकित्सा तन्त्र में समस्त रोगो की चिकित्सा मे पाचकाग्नि या जाठराग्नि की रक्षा करना मुख्य मन्त्र या सार है। एतदर्थ पाचकाग्नि को साम्यावस्या ( स्वाभाविक अवस्था) मे रखने के लिये पूर्ण प्रयत्न करना चाहिये। अग्निभेदो का दोपानुसार विचार किया जाय तो कफ दोप की अधिकता से अग्नि मद, पित्त दोप की अधिकता से अग्नि तीक्ष्ण, वात दोप की अधिकता से अग्नि विषम तथा तीनो दोषो के समान रहने पर अग्नि सम या स्वाभाविक रहती है । अस्तु उपचार-काल मे इस बात का भी विचार अपेक्षित रहता है । इनमे समाग्नि अर्थात् स्वाभाविक अग्नि की उचित आहार-विहारादि से रक्षा करना, विपम होने पर वायु का निग्रह करना, तीक्ष्णाग्नि मे पित्त का शमन करना त्था मन्द अग्नि होने पर बढे और दूपित कफ का शोपण या शोधन करना चाहिये। मन्दाग्नि या विपमाग्नि की चिकित्सा मे अग्नि को दोप्त करनेवाले योगो को देना चाहिये । मन्द अग्नि को कट-तिक्त और कपाय रसात्मक द्रव्यो का सेवन करके उद्दीप्त करना चाहिये और विपमाग्नि को स्नेहाम्ल-लवणादि द्रव्यो से वात का गमन करते हुए सम या स्वाभाविक अवस्था मे लाना चाहिये ।' ___मन्दाग्नि तथा विपमाग्नि से व्यवहृत होनेवाले एवं अग्नि को दाप्त करनेवाले योग-१ हरीतकी तथा शराठी चूर्ण प्रत्येक ३ मासे का पुराने गुड एक तोला के साथ मिलाकर सेवन अथवा सेन्धा नमक २ मागे के साथ मिलाकर सेवन करना उत्तम रहता है। २ पिप्पली ( १ माशे ) का चर्ण पराने गण्ड (६ माशे) मिलाकर सेवन करना भी अग्नि को दीप्त करता है। अथवा पिप्पली को निम्वुस्वरस मे भिगोवे, उसके तर हो जाने पर उसमें चतुर्थाश काला नमक मिलाकर निम्बू के रस मे घोट कर गोली बना ले । पुन इ- गोली का सेवन करे । ३ यवक्षार २ मागे, शण्ठी चर्ण ४ माशे गोघत मिलाकर प्रात काल मे सेवन अथवा गुएठी चूर्ण घृत के साय । १ सारमेतच्चिाकत्साया परमग्नेच पालनम । तस्माद्यत्नेन कर्त्तव्यं वह्वस्तु प्रतिपालनम् । अस्तु दोपशत ऋद्ध सन्तु व्याधिशतानि च । कायाग्निमेव मतिमान् रक्षन् रक्षति जीवितम् ॥ (भै र ) २ सममग्नि भिपग् रक्षेदन्नपान णा हित । मन्द स वर्धयेदग्नि कतिक्तकषायकै । स्नेहाम्ललवणाद्यैश्च विपमाग्निमुपाचरेत् ।। (च ) Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ चतुर्थ खण्ड नवॉ अध्याय ४ मा म मे घी में भुनी हीग और काला नमक मिलाकर मेवन । ५ जोन के पूर्व लवण और अदरक का सेवन-अग्नि का संदोपन, जिह्वा मा भिगोया नया हा होता है। दिग्वष्टक चूर्ण-शराठी, मरिच, पिप्पली, अजमोदा, सैन्धव, श्वेत जीरा, Tोग और त मे नुनो हिंगु । सब मम भाग मे बना चूर्ण । मात्रा २ मीने मागे । अनुपान घृत में मिलाकर भोजन के साथ प्रथम कवल मे मित नाग है, जाठराग्नि को दीप्त करता है। भास्कर लवण-पिप्पली, पिप्पलीमूल, धान्यफ, काला जीरा, पीमा हुआ * ण, विरवण, तेजपन, तालोश पन, नागकेसर प्रत्येक का चूण ८ कोनोरकर (काला नगर) २० तोले, काली मिर्च, श्वेत जीरा, शुण्ठी प्राचार नोने, दाल चीनी, छोटी इलायची प्रत्येक का चूर्ण २ तोले, म: -वन :२ नोले, जनारमानो का चूर्ण १६ तोले, अम्लवेत ८ तोले । सभी कोला त प्रमाण में बना महीन चूर्ण । मात्रा २ माशे से ४ माशे । अनुपात-हा, मानी, गपत, जंगली पशु-पक्षियो के मारारस अयवा केवल गर्म कनिन योग है इनके सेवन से अग्नि दीप्त होती है फलत मन्दाग्नि र उत्पन्न होनेवाले अर्थ, अतिनार, गहणी, विवध आदि सभी रोगो मे नादान चूर्ण का नाम आविष्कारक के नाम पर आधारित है। भास्कर नामक जाना ने नसार के कल्याणार्थ सर्वप्रथम चिकित्माशास्त्र मे इस योग का प्रोता मागचा । इन योग मे लवणो को निकालकर अलवण-भास्कर चूर्ण बनाया जा सकता है, जिनमे लवण अपथ्य हो विशेषत मधुमेह के रोगियो मे अनिमात रोने पर प्रयोग मे लाना उत्तम रहता है। को नधावटी-गद्ध टकण, गुण्ठी, मरिच, पिप्पली, सज्जीखार, यवाखार, सांवला, हरीतकी, विभीतक का छिल्का, लौंग, चीते की जड, चव्य, पचलवण, तिन्तिटीक, मट्टा अनारदाना, सोठ भुनी, लौह भस्म, भीमसेनी कपूर सम भाग और चर्णबारे पश्चात अम्लवेत के काढे से, अदरक के रस, नीबू के रस से तथा अजवायन के काढे से तीन-तीन वार भावना देकर चना के वरावर की गोली। दिन में तीन-चार गोली जल से । , क्षुधासागर लवण-घी मे तली भूरी सोठ ४ छटॉक, काली मिर्च २ छटाँक, पोपरि ॥ तोला, भुना जीरा २ छटाँक, अजवायन २ छटॉक, बडी इलायची का वीज १॥ छटांक, लीग १॥ छटाँक, सज्जीखार १॥ छटाँक, जवाखार १ छटाँक, सेंधा नमक १॥ छटाँक, काला नमक १॥ छटाँक, घी मे भुनी तलाव हीग १४ माशे । मव का कपडछन चूर्ण । मात्रा ३ माशे । अनुपान उष्णोदक । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ भिपकर्म-सिद्धि जरणादि चूर्ण-मगरैल, कालानमक, गुठी, पिप्पली, कालीमिर्च, सैन्धव, भुनी अजवायन, घी मे भुनी होग, छोटी हरे प्रत्येक एक तोला और निगोध ४ तोले लेकर । कपडछन चूर्ण बनावे । मात्रा १ से ३ माशे । अनुपान उष्ण जल । प्रात -सायम् । जब रोगियो मे कोष्ठबद्धता रहती हो ( sluggish Liver Function ) इस चूर्ण का प्रयोग हितकर है। (चि मा ) शतपत्र्यादि चूर्ण--गुलाब के फूल २० भाग, मोथा, जीरा, श्वेत चन्दन, छोटी इलायची, कवावचीनी, गिलोयका सत्त्व, खसखस, खस, वगलोचन, इसवगोलकी भूसी, गोखरू, दालचीनी, तमालपत्र, नागकेसर, मारिवा, कमलगट्टा, नोलोफर, कमल के फूल मौर तीखुर प्रत्येक एक भाग मऔर मिश्री ४० भाग लेकर कपडछन चूर्ण। यह एक मधुर पाचक है विगेपत विदग्धाजीर्ण, अग्निमाद्य तथा जीर्ण विबंध ( sluggish Liver Function ) मे लाभप्रद होता है । मात्रा १॥ मागा मे ३ मागे । अनुपान जल । (सि यो स ) रस के योग-अग्नितुण्डी वटी-शुद्ध पारद, गुद्ध गधक, वत्सनाभ अजमोद, हरीतकी, विभीतक, आमलकी, सज्जीखार, यवाखार, चित्रकमूल की छाल, मधव, जीरा, सोचल ( काला नमक ), वायविडङ्ग, सामुद्र लवण, शुण्ठी, छोटी पीपल, कालीमिर्च सभी सम भाग मे और सबके बरावर शुद्ध कुपीलु ( कुचिला)। जम्बोरी निम्बुके रस में तीन दिनो तक मर्दन करके तीन-तीन रत्ती की गोलियाँ । भोजन के बाद २ गोली। गर्म जल से । यह एक उत्तम योग है, आत्र की क्रियाको सुधार कर ( Intestinal toner ) विवध को दूर करता है और अग्नि को दीप्त करता है। अग्निकुमार रस-~~शुद्ध, पारद, शुद्ध गंधक ( कज्जली), गुद्ध टकण प्रत्येक की १ भाग, गुद्ध वत्सनाभ का चूर्ण, कपर्द भस्म, शंख भस्म, प्रत्येक ३ तोले तथा काली मिर्चका चर्ण ८ भाग । जम्बीरी नीव के रस मे भावना देकर २ रत्ती की गोलियाँ। अनुपान अदरक का रस या नीबू का रस ३ मागे, मेंधानमक ४ रत्ती मिलाकर एक मे दो गोली प्रात सायम् । श्रा रामवाण रस-शुद्ध पारद मीर गढ़ गंधक की सममात्रा में बनी कज्जला, लवङ्ग चूर्ण, गुद्ध वत्सनाभ विप चूर्ण, प्रत्येक एक एक तोला, कालीमिर्च २ तोले भर, जायफल का चूर्ण आधा तोला । मात्रा ४ रत्ती में १ मागा। अनुपान भृष्टजीरक मोर मधु । कुम्भकर्ण स्पी ग्रहणी रोग, खरदूपण रूपो आमवात तथा रावण रूपी अग्निमाद्य रोग विनष्ट करने के लिये यह राम के वाण सहा प्रत्यात 'रामवाण' रस है। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथ खण्ड : नवॉ अध्याय २६५ क्रव्याद रस-शुद्ध पारद १ तोला, शुद्ध गधक २ तोला, ताम्रभस्म ३ तोला, लौहभस्म आधा तोला। प्रथम पारद और गधक को घोट कर महीन कज्जलो करे फिर उसमे ताम्रभस्म, लौह भस्म को मिश्रित कर खरल करे पश्चात् लोहकी कलछी मे लेकर पिघलावे पिघलनेपर उसकी पर्पटी बनावे । फिर एक कलईदार लौह के वर्तन मे जम्बीरीनीवू का रस ५ सेर लेकर उसमे पर्पटी को चूर्ण करके मिलावे । फिर उसको अग्निपर चढाकर पाक करे जव जम्बीरीनीवू का रस जल जाये । तो उसमे पचकोल अथवा अम्लत का कपाय छोडकर धीरे-धीरे पकावे । फिर इस औपधको कडाही में से निकाल कर खरल मे डाल देवे। फिर उसमे शद्ध टकण १६ तोले, विड लवण ८ नोले, काली मिर्च का चूर्ण ४० तोले डालकर चणकाम्लकी सात भावना देकर ४ रत्ती की गोलियां बनाकर सुखाकर शीशीमे रख ले । मात्रा ४ रत्ती, तक्र और सेधानमक के अनुपान से भोजन के बाद । यह परम अग्निदीपक योग है। इसके सेवन काल में किसी प्रकार के पथ्य का विचार न करते हुए गुरुपाको पदार्थो-मास रवडी, मलाई, पूडी, पराठे, उडद और घृत-तैल के तले भोजन का सेवन किया जा सकता है। तीक्ष्णाग्नि या भस्मक-चिकित्सा क्रियाक्रम-तीक्ष्णाग्नि का उपचार मन्दाग्नि की चिकित्सा के ठीक विपरीत पडता है। अग्नि को प्राकृत या समावस्था मे लाने के लिये अग्नि को मंद करने का उपचार इस अवस्था मे करना पड़ता है। अस्तु, तीक्ष्ण अग्नि को सम करने के लिये दधि, दूध और पायस का अधिक प्रयोग करना चाहिये । गुरु, सान्द्र, मन्द, शीतल अन्न-पान से तीक्ष्णाग्नि को शान्त करना चाहिये। पित्त के सशमन के लिये विरेचन देना चाहिये। जो द्रव्य मधुररस, मेदोवर्द्धक ( चरवीदार ), कफवर्द्धक और देर मे पचने वाला है, वह हितकर होता है। भोजन करके दिन में सोना (दिवास्वाप ) इसमे पथ्य होता है। तीक्ष्णाग्नि का ही पर्याय भस्मक या अत्यग्नि भी है। रोगी जो कुछ खाता है वह शीघ्र पच जाता और भूख शीघ्र ही लग जाती है। अत अजीर्णावस्था मे भी भोजन वार वार खिलाते रहना चाहिये ताकि विना भोजन के यह तीक्ष्णाग्नि रोगी को उपहत न कर दे। १. तीक्ष्णमग्नि दधिक्षीरपायसै समता नयेत् । त भस्मक गुरुस्निग्धसान्द्रमन्दहिमादिभि । अन्नपाननयेच्छान्ति पित्तनैश्च विरेचन । यत्किचिन्मधर मेश श्लेष्मल गरु भोजनम् ।। सर्वं तदत्यग्निहित भुक्त्वा प्रस्वपन दिवा । महर्महरजीर्णेपि भोज्यान्यस्योपचारयेत् ॥ निरिन्धनोऽन्तरं लब्ध्वा यथैन न निपातयेत । (च) Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिषकर्म-सिद्धि __अत्यग्नि चिकित्सा में व्यवहत योग-१ उदुम्बर की छाल २ तो० स्त्रीस्तन्य के साथ पीस कर पिलाना अथवा उदुम्बर को छाल का कल्क, चावल, स्त्रीस्तन्य में खीर बनाकर सेवन । त्रिवृतादिक्षीर-निगोब, बमन्ताम की गुही एक-एक तोला, दूध १६ तोला, जल ६४ तोला। अग्नि पर चढ़ाकर पनवे जब दृवमात्र ( १६ तोले ) नेप रहे तो उतार कर टंवा होने पर पिलावे । अपामार्ग-तण्डुलबीर-अपामार्ग का वीज, भैस के दूध मे पकाकर, शक्कर और घी मिलाकर खीर बनाकर मेवन । इस प्रयोग से गस्वार भूब लगना बन्द हो जाता है। अजीर्ण-प्रतिपेव कियाक्रम-अजीर्ण ६ प्रकार का हो सकता है। १ मामाजीण कफा विश्य से होता है २ बियानीर्ण मे पित्त टोप की प्रबलता होती ३ विष्टब्धा जीर्ण में गत बोप की अधिकता होती है। और ४ सोपाजीर्ण एक विशेष प्रकार का अजीर्ण है जिसमें नाम रन का सवार होकर गरीर में गुन्ता, गोथ प्रभृति लक्षण उत्पन्न होते हैं। इन चारो विभेदो के अतिरिक्त ५. दिनपाकी और ६. प्राकृताजी नामक भी दो अजीर्ण-भेद बतलाये गये है जो प्राय. निर्दोष होते हैं और जिनमें पिसी विगेप निक्लिा की आवश्यकता नहीं पड़ती है। मामान्य पाचन योगो से ठीक हो जाते है। वस्तुत सभी अजीर्णों में मामान्य उपचार नपतपण है। अल्प टोप होने पर (अपचन हल्का) होने पर केवल लंबन ग उपवास करा देना पर्याप्त होता है, मध्यम दोष होने पर लंबन के साथ पाचन के लिये योप-प्रयोग भी अपेक्षित रहता है, परन्तु दोप की प्रबलता होने पर (तीन बजीर्ण मे ) गोधन (वमन नयवा विरेचन या दोना) करना समुचित रहता है जिसमें दोप का पूर्णतया निमलन हो जाय । शास्त्र में इस क्रियाक्रम का विस्तार से उल्लेख इस प्रकार का पाया जाता है। थामाजीण में वमन, विढयाजीण में लवन, विधाजीण में स्वेदन और रनोपाजीण में वृव सोना हितकर होता है। १ । १. शान्तिरामविक्रानणा भवति लपतर्पणात् । त्रिविधं त्रिविवे दोपे तत्समीक्ष्य प्रगेजयेत् ॥ तत्राल्ये लवन गस्त मध्ये लड्डन-पाचनम् । प्रभूते गोधन तद्धि मलादुन्मन्नयेन्मलान् ।। (वा )। तत्रामे वमन कार्य विदग्धे लवनं हित्म् । विष्व्ये स्वेदनं गतं रसगेपे गयीत च ॥ (भा प्र.) लडनं वमन वाम Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : नवॉ अध्याय २९७ अजीर्ण चिकित्सा में एक लोकोक्ति बहत प्रसिद्ध है "अजीर्णस्य किमीपवम् वमन, विरेचन, निद्रा वारि अथवा वमन विरेचन पन्था वारि ।" अर्थात् अजीर्ण की चिकित्सा मे वमन, विरेचन, सोना, रास्ता चलना और शीतल जल का पीना सदा पथ्य है। सोने की क्रिया को सर्वाधिक अजीर्णनाशक और सब प्रकार के अजीणों मे प्रगस्त माना गया है जैसे -'हीग, त्रिकटु और सैन्धव का उदर पर लेप कर के दिन मे सोने से मभी अजीर्ण शान्त होते है ।' आलिप्य जठरं प्राज्ञो हिडव्यपणसैन्धवः। दिवास्वप्नं प्रकुर्वीत सर्वाजीणविनाशनम् ।' अस्तु दिवास्वाप मव अजीर्ण रोग मे एकान्तत पथ्य माना गया है। आमाजीर्ण में लघन कराना चाहिये। यदि दोपाधिक्य हो तो वमन करावे तथा पीने के लिए धनिया-सोठ से पकाया जल देवे । विदग्धाजीर्ण मे वमन करावे यदि दोप उत्कट न हो तो लड्वन मात्र से शान्त करे, पीने के लिये उढा जल देवे। विष्टन्धाजीर्ण मे उदर पर पर्याप्त स्वेदन करे तथा पोने को मेंधा नमक मिला हुआ गर्म जल देवे । रसशेषाजीर्ण में विना कुछ खिलाये ही जहाँ वायु विशेप न हो ऐसे स्थल पर दिन मे सुलावे। इसके बाद भूख लगने पर लघु भोजन दे । अन्य भी वायु-शामक उपचार करे । ____ आमाजीर्ण-प्रतिपेध-आमाजीण में वमन कराने के लिये वचा और लवण जल से वमन कराना चाहिये । अथवा पिप्पली, वच और सैन्धव का चूर्ण शीतल जल में मिलाकर पिलाना चाहिये । धान्यक और शुण्ठी से पकाया जल पीने को देना चाहिये। इस से शूल की शान्ति होती है और वस्ति का शोधन होता है। आचार्य सुश्रुत ने अजीर्ण रोग की सामान्य चिकित्सा बतलाते हुए लिखा है यदि सोकर उठने पर प्रात.काल मे अजीर्ण की शका हो तो दिन मे उपवास करा देना चाहिये, परन्तु यदि रोगी अधिक कामकाजी न्यक्ति हो और उसमे उपवास कठिन हो तो हरीतकी ३ मागे, गुण्ठी २ माशे, और सैन्धव १ माशा मिश्रित चूर्ण की एक मात्रा शीतल जल से सर्वप्रथम पिला देना चाहिये और अन्न-काल मे उसको लघु एव परिमित अन्न नि शक होकर भोजन कर लेना चाहिये ।। धान्यशुण्ठीजल तथा । विष्टब्धे वमनं यद्वा लङ्घन शिशिरोदकम् ॥ विष्टव्धे स्वेदन कार्य पेयञ्च लवणोदकम् । रसशेपे दिवास्वापो लवन वातवर्जनम् । । १ भवेद्यदा प्रातरजीर्णशका तदाभया नागरसैन्धवाभ्याम् । विचूर्णिता शोतजलेन भुक्त्वा भुञ्ज्यादशङ्क मितमन्नकाले ॥ ( भैष ) भवेदजीर्ण प्रति यस्य शका स्निग्धस्य जन्तोर्वलिनोऽन्नकाले । प्रातः स शुठीमभयामशको भुञ्जीत संप्राश्य हितं हितार्थी ॥ (सु) Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ भिपकर्म-सिद्धि __ पाचन चूर्ण-काला नमक १ भाग, काली मिर्च १ भाग, शुद्ध नौसादर १ भाग, शुद्ध हीग १६ भाग । मात्रा-३ माशे । उष्ण जल से। विडलवण वटी-काला नमक, सेधा नमक प्रत्येक २० तोले, अजवायन, काली मिर्च, छोटी पीपल, चित्रकमल, अजमोद, धनिया, डाँसरिया (यूनानी गिर्द समाक), सूखा पुदीना, घृत मे भुनी होग, पीपरामूल, नौसादर प्रत्येक १० तोले । सव द्रव्यो का सूक्ष्म कपडछान चूर्ण कर कागजी नीबू के रस की तीन भावना देकर चने के बराबर की गोलियाँ । ( सि यो सं ) विदग्धाजीण-प्रतिपेध-शीतल जल को थोडी-थोडी मात्रा मे बार-बार पीने से विदग्व अन्नपाक शीघ्र ही हो जाता है क्योकि जल स्वभाव से शीतल होने से प्रकुपित पित्त को नष्ट कर देता है। और जल से अन्न क्लिन्न होकर नीचे की ओर (क्षुद्रात्र एवं वृहदन्त्र ) की ओर चला जाता है पश्चात् मलाशय से बाहर होकर सुखपूर्वक उत्सर्जित हो जाता है । __ भोजनोपरान्त यदि भुक्त द्रव्य से विदाह हो एव तज्जन्य हृदय, कोष्ठ तथा गला जलता हो तो हरीतकी, मुनक्का और मिश्री सम भाग मे मधु के साथ मिलाकर चाटना चाहिये। काजी मे दोलायत्र की विधि से स्विन्न हरीतकी और पिप्पली और सेधा नमक मिलाकर सेवन करने से मुख से धुए युक्त डकारो का निकलना वन्द होता, अजीर्ण शान्त होकर क्षुवा जागृत होती है । शतपत्र्यादि चूर्ण-(पूर्वोक्त) ३ माशे की मात्रा मे अथवा अविपत्तिकर चूर्ण ( अम्लपित्ताधिकार ) ३ माशे की मात्रा मे दिन मे दो-तीन वार । द्राक्षादि योग-मुनक्का ६ माशे, हरीतकी चूर्ण ६ माशे, चीनी ६ माशे, मधु १ तोला । मिला कर चाटना । क्षारराज-ताड के पुष्प की भस्म १ भाग, असली यवक्षार १ भाग, सजिका क्षार १ भाग, वराट भस्म १ भाग, शंख भस्म १ भाग, श्वेत कुष्माण्ड क्षार १ भाग । एक मे बारीक घोट कर चूर्ण रखे । मात्रा-२ माशा, चीनी का शवंत १ छटाक मे मिलाकर ऊपर से नीव का रस डाल कर फेन उठते ही पिये। एक शीशे के बर्तन मे शर्वत को रखे । (चि आ ) विष्टधाजीणं प्रतिपेध-स्वेदन, दिवास्वाप तथा वायुशामक योग । जैसे १. हिंग्वष्टक चूर्ण-३ माशे गर्म जल से । २. हिग्वादिवटी (कुपीलुयुक्त) अजीणे मे सामान्यतया प्रयुक्त होने वाले कुछ योग जम्बोर लवणवटी-जम्वीरी या कागजी नीबू का रस १२० तोल, सेंधा नमक १२ तोले, सोठ २॥ तोले, अजवायन २॥ तोले, सज्जीखार Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : नवॉ अध्याय २६९ २॥ तोले, छोटी पीपल २॥ तोले, घृत भर्जितहीग २॥ तोले, करजवे के बीज को गुद्दी २॥ तोले, काली मिर्च २॥ तोले, छिला हुआ लहशुन २॥ तोले, पुनर्नवा का मूल २॥ तोले, सफेद (पीली ) सरसो २॥ तोले, जरा सेंका हुआ जोरा २॥ तोले, अतीस २॥ तोले, सामुद्र लवण २॥ तोले। (सि यो सं) निर्माणविधि-स्वच्छ कपडे से छने जम्बीरी या कागजी नीबू के रस मे सेधा नमक डाल कर एक कांच के वत्तन मे भर कर चार दिनो तक धूप में रखे । पांचवे दिन उस रस को मिट्टी के बर्तन में रख कर मद आँच पर पकावे और लकडी के हत्थे से हिलाता रहे जब रस गाढा हो जाय तो उसमे अन्य द्रव्यो का सूक्ष्म कपडछन चूर्ण मिलाकर नीचे उतार कर ठडा होने पर, ३-३ रत्ती की गोलियाँ बना कर मुखा ले । मात्रा-अनुपान-२ या तीन गोली यथावश्यक जल से दिन में तीन या चार बार । उपयोग-ये गोलियां उत्तम पाचन और दीपन है। मन्दाग्नि, अरुचि, पेटका दर्द, अजीर्ण के सभी प्रकारो मे और आध्मान मे लाभप्रद पायी गई है। कुबेराक्षादि वटी-बालू मे भुना करज ( कटु ) वीज १ तोला, मट्ठे मे भिगो कर धोकर घी मे भून कर लहशुन १ तोले, सोठ १ तोला, घी मे भुनी होग १ तोला, शुद्ध सुहागा १ तोला। सहिजन के रस या काढे मे खरल करके ४-४ रत्ती की गोली बनाकर । सभी प्रकार के अजीर्ण और उदरशूल मे लाभप्रद । चित्रकादि वटी-चित्रक के मूल की छाल, पिप्पलीमूल, सज्जीखार, यवाखार, सेंधा नमक, काला नमक, सामुद्र लवण, सांभर लवण, नौसादर, शुण्ठी, काली मिर्च, छोटी पीपल, घी मे सेकी होग, अजमोद और चव्य प्रत्येक सम भाग । एकत्र चूर्ण करके कागजी नीबू, विजौरा नीबू, खट्टे अनारदाने के कषाय से ३ दिन तक मर्दन करके १ माशे की गोली। २ से ४ गोली भोजन के बाद जल से। यह एक अच्छा पाचन और दीपन योग है। विषमाग्नि मे विशेष लाभप्रद होती है। महाशंख वटो-सेधा नमक, काला नमक, सामुद्र लवण, माभर लवण, नौसादर, घी में भुनी हीग, शख भस्म, इमली का क्षार ( टार्टरिक एसिड), सोठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, शुद्ध गधक, शुद्ध पारद और शुद्ध वत्सनाभ । सबका सम भाग मे चूर्ण बनाकर विजौरा नीबू, अनारदाने (खट्टे) और कागजी नीवू की सात भावना देकर दो दो रत्ती की गोलिया। भोजनोपरान्त ।१-२ गोली। अजीर्णकण्टक रस-शुद्ध पारद, शुद्ध गधक, शुद्ध वत्सनाभ १-१ तोला, काली मिर्च का चूर्ण ३ तोले । कज्जली बना कर चूर्णो को मिला कर पीस कर कण्टकारी फल स्वरस या कषाय से २१ बार भावित करना चाहिये । २ रत्ती Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૦ भिपकम-सिद्धि की गोली । अनुपान कण्टकारी स्वरस या नीबू के रस के साथ । अजीर्ण या विभूचिका के कारण होने वाले वमन में लाभप्रद । ____ अजीर्णारि रस-शुद्ध पाग्द, गुढ़ गंधक एक-एक तोला, हरीतकी २ तोले, मोठ, पिप्पली, काली मिर्च, संन्धव ३-३ तोले । शुद्ध भाग का चूर्ण ४ तोले । निम्बु स्वरन से ७ भावना । मात्रा २ मे ४ रत्ती । अनुपान कागजी नीबू के रस से । यह योग अग्नि को टोप्त करता है । पचन शक्ति को बढ़ाता है। ___गंधक वटी-शुद्ध पारद, १ तोला, गुद्ध गवक २ तोले, शुठो २ तोले, लवङ्ग और मरिच चार-चार तोले, मेधा नमक और मोचल नमक प्रत्येक १२ नोले, चुक्र जार मूली का क्षार प्रत्येक ८ तोले । नीबू के स्वरम की ७ भावना देकर ४-८ रनी की गोलियाँ बनावे । समस्त अजीर्ण मोर अरुचि में लाभप्रद । रसशेपाजीण-प्रतिषेध-इस अवस्था मे रोगी को पूर्ण विधाम कराना चाहिये । उपवास करावे और दिन में पर्याप्त मोने का उपदेश करना चाहिये। श्रीपधि के बप में मण्दर भम्म और ख भस्म क्रमश १ मागा बीर २-२ रत्ती मिला कर दिन में एक या दो बार त्रिफला चूर्ण २ मागे और मधु देना चाहिये । रोगी को दूब दौर रोटी के पथ्य पर लवणवळ नाहार पर रखना चाहिये। होग, मोठ, मरित्र, ठोटी पीपल और नेवा नमक को पानी से पीस कर उदर पर लेप करके दिन में पर्याप्त रोगी को मुलाये। आमतौर से सभी अजीर्णो मे शूलन्न नीपधियो का निपेव पाया जाता है । अजीर्ण भद-प्रतिषेध बजीर्ण के कई अन्य प्रकार अलमक, विलम्बिका और विमूचिका की अवस्थायें पाई जाती है। इन में भी अजीर्णवत ही उपचार का क्रम रखना चाहिये। दनका विशिष्ट क्रिया-क्रम पृथक-पृथक दिया जा रहा है। विलिम्बका तथा अलसक-प्रतिपेष-क्रियाक्रम-विलम्बिका और अलमक में वमन और विरेचन कारक औषधियों को मिलाकर आस्थापन अथवा गुदत्ति (Suppository ) कराके दोप का गोबन तया वायु का अनुलोमन करना उद्देश्य रहता है। बलमक में फवत्ति, वमन, स्वेदन तथा अपतर्पण चिकित्सा हितकर होती है । १. काम दिवा स्त्रापयेत् । मालिप्य जठर प्रानी हिंगुन्यूपणसबवे. । दिवास्वप्न प्रति नाजीविनागनम् ॥ (मै र.) • तीवात्तिरपि नाजीर्णी पिवेच्छलनमोरयम् । आमनन्नोऽनलो नाल पक्तु दोपोपवागनम् ॥ ( हृ.) ३ विलम्बिकालनकयोचाव गावनं हितम् । नालेन फलवा च तथा शोधनभेपजः ॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथ खण्ड : नवाँ अध्याय ३०१ अलक की भाँति ही विलम्बिका की चिकित्सा की जाती है, परन्तु अलसक को अपेक्षा विलम्बिका अधिक दुःसाध्य और सद्योघातक होती है । अलसक मे न वमन होता है न रेचन । फलत: अंत विपमयता के कारण रोगी तडपता रहता है । अस्तु, सेधानमक मिलाकर आकठ पिलाना चाहिये अथवा शुद्ध ककुष्ठ २ माशा खिलाकर वमन करादे | उसके बाद उदर को खूब सेकना चाहिये | कई बार आस्थापन या गुदवत्ति के जरिये कोष्ठ की शुद्धि करनी चाहिये | कई वार जयपाल अथवा स्नुहीतीर - मिश्रित नाराच रस, इच्छाभेदी या विन्दु घृत ( स्नुहीक्षीर सिद्ध घृत ) के प्रयोग से उत्तम लाभ देखा जाता है । इन औपधियो के सेवन से वमन और विरेचन दोनो शोधन कर्म सम्पन्न हो जाते है। रोगी की विपमयता दूर हो जाती है । योगो के सेवन से जैसे यदि आनाह या आध्मान और उदरशूल अधिक हो तो दारुषट्कलेप (देवदारु, वच, कूठ, सौफ या सोये का वीज, हीग, सेधानमक समभाग ) का काजी या सिरके से पीस कर गर्म करके उदर पर लेप करना उत्तम होता है । जौ के आटे मे यत्राखार मिला कर मठ्ठे से पीस कर लिट्टी जैसे बनाकर एक तरफ से तवे पर सेककर जिधर नही सेका है उस ओर से उदर बाँधना वडा उत्तम उदरशूल और आध्मान का शामक होता है । " उदर के स्वेदन के लिये गर्म पानी का बोतल ( Hot wrter Bag ) भी दिया जा सकता है । विसूचीप्रतिपेध - क्रियाक्रम - ' विसूच्यामतिसारवत्' अर्थात् विसूचिका मे अतिसारवत् चिकित्सा करनी चाहिये । विसूचिका मे वमन भी होता है और अतीसार भी । फलत. शरीर के द्रव धातु का अतिमात्रा मे नि सरण होने लगता है । जिसके फलस्वरूप द्रव-नाश ( Dehydration ) होकर रोगी की मृत्यु हो जाती है । विसूचिका में वमन और अतिसार को शीघ्र बद करने की आवश्यकता नही रहती है बल्कि प्रारभ मे उसकी उपेक्षा करनी चाहिये । क्योकि वमन और रेचन से आमदोप (Toxins ) निकलते रहते है । यदि उनको सहसा बदकर दिया जावे तो आमदोपज बहुविध उपद्रव होने लगते है । अस्तु जब कुछ वमन और विरेचन हो जायें उसके पश्चात् रोगी का दीपन, पाचन एव ग्राही ओपधियो का प्रयोग करते हुए उपचार करना चाहिये । ૨ १ सरुक् चानद्धमुदरमम्लपिप्टें प्रलेपयेत् । दारुहैमवती कुष्ठशता हा हिङ्गु सैन्धवै ॥ तक्रेण पिष्ट यवचूर्णमुष्ण सक्षारमति जठरे निहन्यात् । ( घर ) २ विसूचिकाया वमित विरिक्तं सुलघित वा मनुज विदित्वा । पेयादिभिर्दीपनपाचनैश्च सम्यक क्षुधार्त्त समुपक्रमेत ॥ ( र ) Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ भिपकर्म-सिद्धि सबसे उत्तम यह होता है-वमन एव रेचन मे से किसी एक को पहले वद करे साथ ही द्रव-नाश (Dehydrration ) न पैदा होने पाये इसकी व्यवस्था करनी चाहिये। वमन को वद करने के लिये सर्वप्रथम यह आवश्यक होता है कि रोगी को पूर्ण लंघन कराया जाय । उसको पीने के लिए धान्यपंचक कपाय, या गतपुष्पार्क या जेवायन का अर्क या कपूराम्बु (देगी कपूर ५ तोला, क्वथित जल ३० सेर मे छोडकर रख दे सात दिन के पश्चात् निकाले और छानकर रख ले यह कर्पूराम्बु है) अथवा इमली का पानी (पुरानी इमली ( छटाँक जल ४ मेर खौलाकर आधा शेप रखे गीतल होने पर प्रयोग करे, या निम्ब जल(स्वच्छ जल मे भाग नीम की पत्ती को पीसकर छानकर गीगी में भर कर रखा जल) अथवा नीवू का पानी (१ पोण्ड बोतल जल मे एक कागजी नीबू का रस छोडकर वनाया), अश्वत्थोदक (पीपल की सूखी छाल से धृत या अगारे से बुझा जल) थोडा-थोडा चम्मच से वार वार देना चाहिये । एक बार में अधिक पानी पिलाने से वमन को सहायता मिलती है । अस्तु, चम्मच से थोड़ा थोडा जल पिलावे । ___इस प्रकार के जल-प्रयोग से वमन, तृपा और दाह की शीघ्र शान्ति होती है। कपुरधारा-रोगी को प्रारभ मे अमृत धारा या कपुरधारा ( देशी कपूर पोदिकासत्त्व (पिपरमेण्ट), यमानीसत्त्व (थायमोल) समभाग में मिला कर वना द्रव) वतागे मे रखकर ३ वूद देना चाहिये । एक-दो बार के प्रयोग से वमन बद हो जाय तो ठीक है अन्यथा अधिक प्रयोग नहीं होना चाहिये क्योकि इसके अतियोग से वृक्क की क्रिया मे बाधा होकर मूत्रावसाद का भय रहता है। लशुनादिवटी-छिलका निकाला हुआ लहसुन २ भाग, स्याहजीरा, सफेद जीरा, गुद्व गधक, मेंधानमक, मोठ, कालीमिर्च, छोटी पीपल और घी में भुनी होग १-२ भाग। चूर्ण करके निम्वुरम से मर्दन करके ४ रत्ती की गोलियाँ । मात्रा एव अनुपान १, १, गोली निम्बू के रस के साथ प्रति माथे से एक घंटे पर । प्रारथिक अवस्था मे इस योग से वडा उत्तम कार्य होता है। इससे वमन वद होता है और क्रमश अतिसार का गमन होता है ।' अजीणकटक रस-(पूर्वोक्त ) छदि या वमन के गमन के लिये यह उत्तम योग है इसका सबसे अद्भुत लाभ कटकारी स्वरस से देने पर पाया जाता है। परन्तु कंटकारी स्वरम के अभाव में निम्बू के ( कागजी ) रस से भी दिया १ लशुनगन्धकसैन्धवजीरकत्रिकटुरामठचूर्णमिदं समम् । सपदि निम्बुरसेन विमूचिका हरति भो रतिभोगविचक्षणे ॥ (वै. जी) Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : नबॉ अध्याय ३०३ जा सकता है । जब तक वमन बद न हो जावे जल्दी जल्दी दे । जव वमन बद हो जावे तो ३, ३ घटे के अतर से दे । संजीवनीवटी'-विडङ्ग, शुठी, मरिच, हरीतकी, चित्रक, विभीतक, वचा, गुडूची, भल्लातक (शुद्ध), शुद्ध वत्सनाभ-समभाग मे लेकर गोमूत्र मे पीसकर एक-एक रत्ती की गोलियां बना ले । अनुपान अदरक का रस या केवल जल । मात्रा अजीर्ण युक्त मे एक गोली, विसूचिका मे दो-दो गोली, सर्प काटे गी मे तीन-तीन और सन्निपात के रोगियो मे चार-चार गोलियो को एक साथ देवे । अतिसार एव छदि के अधिकार में पठित योगो का प्रयोग भी वमन की शान्ति के लिये करना चाहिये। भेपज-१ अपामार्ग मूलको जल मे पीसकर उसका स्वरस पिलाना । २ करेले की पत्ती का या फल का रस उसमे तिलतैल मिलाकर पिलाना ३ छोटी मूली का रस और पिप्पली चूर्ण २ रत्ती को मिलाकर पिलाना । ३ पाथरचूर-पापाण भेद-जिसको स्थानिक भाषा मे जेवायन पत्ता कहते है और वगदेशीय भाषा मे पाथरचूर कहते है। इसका पत्र-स्वरस १ चम्मच पन्द्रह-पन्द्रह मिनट के अतर से देने पर वमन रुक जाता है । यह औपाध विसूचिका मे बडी लाभ-प्रद होती है। यह एक सिद्ध भेषज है जिसका प्रयोग दृष्टफल है। ४ पलाण्डु-प्याज को कूचकर स्वरस निकाल कर पिलाने से भी विसूचिका की प्रारभिक अवस्था मे लाभ होता है। ५. आम्रास्थिक्काथ-आमकी गुठली की मज्जा और विल्व फल को मज्जा का काढा मधु-मिश्री मिला कर पीना वड़ा लाभप्रद पाया गया है। इससे वमन एव अतिसार दोनो का शीघ्र शमन होता है। कुछ अन्य सिद्ध फलयोग अकवटी-मदार के जडकी छाल छाया-शुष्क, कालीमिर्च, सेधानमक, समभाग चूर्ण नीबू के रस मे चना के बरावर बनी गोलियाँ । इसको एक-एक घटे पर देने से लाभ होता है । ( चि आ.) विसूचीभञ्जन वटी, (सि भे, म मा )-काली मिर्च, नीबू के वीज, भुनी छोटो हरड, जहरमोहरा खताई, दरियायी नारियल, मदार के जडकी २. एकामजीर्णयुक्तस्य द्व विसूच्या प्रदापयेत् । तिस्रो भुजगदष्टस्य चतस्र सन्निपातिन ॥ सजीवनी वटी ( गुटिका जीवनी) नाम्ना संजीवयति मानवम् ॥ (शा. स.) Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ भिपकर्म-सिद्धि छाल, पियावामा के जड की छाल सव सम भाग में लेकर कपडछन चूर्ण कर अदरक के रस से घोटकर चने के वरावर गोलियाँ बनावे। एक-एक घटे पर इसका प्रयोग विसूचिका मे वडा चमत्कारिक प्रभाव दिखलाता है। अंजन प्रयोग-विसूचिका एक अत्यन्त तीन रोग है---इसमे वमन इतना तीन होता है, कि मीपविका कोई प्रभाव ही नही दिखलाई पडता है । जो औषधि दी जाती है वमन हो जाता है, पानी पिया जाता है वह भी के से निकल जाया करता है। अस्तु, बहुत प्रकार के योगो की कल्पनायें की गई है । औपधि के के द्वारा निकलजाने पर पुन मीपवि को देते रहना चाहिये । एक मोपधि योग अनुकूल नही पड रहा है तो दूसरा योग दिया जा सकता है । कई बार अजन (नत्र मे औपधि) लगाने से अद्भुत लाभ देखा जाता है। वमन और अतिसार की शृखला टूट जाती है । यहाँ पर दो पाठ दिये जा रहे हैं—किमी एक का प्रयोग करे । व्योपादि गुटिकाञ्जन-त्रिकटु, करज के फलकी गुद्दो, हरिद्रा, विजारे नीबू की जड़ को पीस कर गोली बनाकर छाया में शुष्क करके रखे । अंजन गुडिका-महुए का फूल, अपामार्गवीज, अपराजिता के मूल, हल्दी मार त्रिकटु । गोली बनाकर रखले । गोली पत्थर पर पानी से घिस कर नेत्र में लगावे । इस यजन का प्रभाव स्वतत्र नाडी मण्डलपर होकर मामागयात्रकी क्षुब्धता गान्त हो ( Irritation ) जाती है और फलतः वमन तथा अतिसार बद हो जाता है । विसूचिका मे वमन तया अतिसार की अधिकता से द्रवधातु का नाश होता चलता है। द्रवनाग (Dehydration )-परिणामस्वरूप रोगी में उदर मे दाह, तृपाविक्य, खल्लो (हाथ-पैर में टांस या ऐंटन), मूत्रावसाद (Suppression of urine ), नाडी और हृदय की दुर्वलता, त्वचाकी रूक्षता, नेत्रो की भीतर की योर घसकर अन्त. प्रविष्ट हो जाना-ये उपद्रव उत्पन्न हो जाते है । यह अवस्था घातक होती है । इसमें गिरामार्ग द्वारा लवण जल ( Saline Infusion) एक मात्र उपाय गेप रहता है। इसका सिद्धान्त यह है कि शरीर से जिन धातुओ का अत्यधिक सरण हो गया है उनकी पत्ति करना। द्रवनाश मे जल, लवण, क्षार की कमी हो जाती है और इन्ही द्रव्यो के मत भरण शिराद्वारा करने से स्थिति सुधरती है । क्वचित् निम्न लिखित योगो से भी लाभ होता है। विसूचीविध्वंसन रस-शुद्ध टंकण, सुवर्णमाक्षिक भस्म, शुठीचूर्ण, शुद्ध पारद, गुद्ध गधक, शुद्ध कृष्ण सर्पविप तथा हिंगुल सव समभाग । पहले पारद और गधक की कज्जली बनाकर उसमें शेप द्रव्यो के सूदम चूर्णों को मिलाकर जम्बोरीनीबू के रस में घोटकर मर्पप के बरावर की गोलियां वनाले । मृत सजीवनी सुरा या ब्राण्डी के साथ इसकी एक-एक गोली का प्रयोग करे तो यह Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : नवा अध्याय ३०५ सर्वोपद्रव युक्त, निदोपन अतिसार या विसूचिका मे भी लाभ करती है । वस्तुतः वह अतिम उपचार है । सर्पविष के प्रभाव से शिरागत रक्तस्कदन ( Coagulation ) रुक जाता है और रोगी की प्राणरक्षा सम्भव रहती है । । रोग के सुधार होने पर मूत्र मूत्रोत्सर्जन मे शीघ्रता लाने के । 2 खल्ली - दालचानी, तेजपात, अगर, रास्ना, सहिजन की छाल, कूठ, वच और सोवा के बीज समभाग मे लेकर काजी में पीसकर उबटन लगाना । अथवा नारायण तेल, ईस का सिरका समभाग मिलाकर पूरे शरीर मे रगडना । मूत्रावसाठ --- विसूचिका में यह उपद्रव जलाग के अधिक निकल जाने से तथा हृदय की दुर्बलता से उत्पन्न होता है । अस्तु, थोडा २ द्रव देते हुए, हृद्य औषधियो के प्रयोग (स्वर्ण सिन्दूर, रस सिन्दूर अथवा मकरध्वज ) चालू रखना चाहिये और समय की प्रतीक्षा करनी चाहिये का आना प्रारम्भ हो जाता है । मूत्रावसाद में लिये कुछ स्थानिक उपचार भी प्रशस्त रहते हैं जैसे - १ पेड पर गर्म पानी के बोतल ( Hot water Bag ) का सेक कई बार । २ चूहे की लेडी, चूहे के बिल की मिट्टी, केले को जड, कलमीशोरा को ठंडे पानी मे पीस कर उदर के अवो भाग मूत्राशय क्षेत्र के ऊपर ( पेड पर ) लेप करने से भी मूत्र का बनना और उत्सर्जन प्रारम्भ हो जाता है । विसूचिका मे वमन, अतिसार के बन्द हो जाने पर मूत्र का उत्सर्जन न होना एक अरिष्ट लक्षण है । जब मूत्र त्याग प्रारम्भ हो जाय फिर रोगी के स्वस्थ होने मे कोई भी शंका नही रहती है । ३ स्वर्णसिन्दूर रत्ती, संजीवनी ९ वटी मिलाकर प्रति तीन घण्टे पर देते रहना चाहिये । साथ ही गतपुष्पार्क मे मृतसजीवनी सुरा १० बूंद से ३० बूंद तक मिलाकर देना चाहिये । ये औपधियाँ हृदय में वल देती है, पाचन होती है, जलाश की पूर्ति करती है और रोगी मे मूत्र त्याग की प्रवृत्ति को जागृत करती है । सभी उपद्रवो के शान्त होने पर भी जब तक मूत्रावसाद न दूर हो जावे रोगी की ओर से निश्चिन्त चित्त नही होना चाहिये । 2 पथ्य - अजीर्ण और अग्निमाद्य मे पथ्य समान ही रखना पडता है । पुराना चावल, धान्यलाज, मण्ड, पेया, विलेपी, यवागू, ओदन, जो या गेहूँ की दलिया, मूग की दाल, मूग की दाल की कृशरा, लौकी, परवल, करैला, नेनुवा, तरोई, भूली, अदरक, सेंधानमक, काला नमक, तक्र, सिरका, तीतर लवा-वटेर मृग के मासरस प्रभृति यथावश्यक रोगी को पथ्य रूप मे देना चाहिये । लघु एव परिमित आहार देना चाहिये । हल्दी, धनिया, काली मिर्च, हरा मिर्च, जीरा प्रभूति अग्निवर्धक मसालो का व्यवहार भोजन मे लाना चाहिये । पीने के लिये गर्म करके ast किया जल देना चाहिये । २० भि० सि० Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि अपथ्य - विरुद्ध, असात्म्य, विवधकारक, गुरु भोजनो का जैसे -नया अन्न, हलुवा, पूडी, पूआ, उडद और चने की दाल, आलू, अरुई प्रभृति जड़ के शाक, गरिष्ठ मास और मत्स्य, वासी मास आदि दुर्जर पदार्थ अग्नि की मंदता रहने पर अपथ्य होते हैं, परन्तु तीक्ष्णाग्निमे इम प्रकार के पदार्थ पथ्य रूप मे निर्दिष्ट है | 0 दसवाँ अध्याय कृमिरोग-प्रतिपेध विपय प्रवेश - वैकारिक अवस्था में पाई जाने वाली (Pathological ) शरीरगत क्रिमियो की उपजातियो का उल्लेख वैद्यक ग्रंथों में पाया जाता है 'विशति कृमिजातय' । 'ये वीन उपजातियाँ विविध श्लेष्मवर्धक आहार-विहार अथवा अपथ्यो के सेवन मे उत्पन्न (Acqwired) होती है । इनके अलावे बहुत सी कृमियों की उपजातियाँ सहज ( Congenital ) भी पाई जाती है | निदान या कारण की दृष्टि से विचार किया ( Chnicaly ) जाय तो इनको चार प्रकारो में वर्णन करना ही पर्याप्त होता है । १. पुरीपज, २. श्लेष्मज ३ शोणितज ४ मलज | ३०६ मलज - मल के वाह्य तथा आभ्यतर दो भेद से दो प्रकार की कृमियाँ हो जाती है । इन में बाह्य मल में पैदा होने वाली कृमियों को ही मलज कृमि कहा जाता है । वाह्य मल में कृमियों के उत्पन्न होने का मूल हेतु स्वच्छता का अभाव या सफाई का न रखना है। स्वच्छता के अभाव मे केश, दाढी, त्वचा के लोम, ( पथ्म Eyelashes ) तथा वस्त्र में अणु से लेकर तिल के परिमाण तक के बिना पैर के, बहुत पैर के - यूका (जू आ), लिक्षा (लीस), पिपीलिका ( ढोल ), चिल्लर यादि नामो से अभिहित बहुत प्रकार की कृमियाँ पैदा हो सकती है | इनकी वजह से खुजली, द्रु, पामा, गीतपित्त, Patches ), फोडे, फुन्सी आदि उत्पन्न हो जाते हैं उत्पन्न करने वाले कारणो को दूर करना, सफाई के तथा पैदा हुई कृमियों को मारना या पकड़-पकड़ कर उपचार है | मज कृमियों में Pediculosis Ringworm आदि गृहीत हैं । गदगी से पसीने, नख, त्वचा के मैल या मल मे पैदा होने ने मलज कहलाती है । कोठ ( urticarial । इनकी चिकित्सा मे मल शोणितज या रक्तज - रक्तवह संस्थान में गिरा, वमनी तथा रसवाहिनियो ( Iymphatics ) मे पाई जाने वाली अत्यन्त सूक्ष्म, चर्मचक्षु से यदृश्य ( परन्तु अणुवीक्षण दर्शनयत्र से दृश्य ) वृत्ताकार और विना पैर की ये द्वारा मल को दूर करना खीच कर दूर करना हो Acarus Scabies, Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : दसवाँ अध्याय ३०७ कृमियां होती है । इनके नाम क्रमश केशाद ( केशो को खाने वाली ), लोमाद ( लोमो को खाने वाली ), लोमद्वीप ( लोगो के कूपो मे रहने वाली ), सोसुर ( मद्योत्य ) तथा ओडुम्बर उदुम्बर के कीडे जैसे तथा जन्तुमार ( जीव को मारने वाली ) है | इन कृमियों के प्रभाव से केश, दाढी, पक्ष्म के बाल झड जाते है ( Alopecia universalis ), व्रण प्रदेश में कण्डु और हर्प पैदा करती है । यदि अधिक सत्ता वृद्धि हो तो त्वक्, मिरा, स्नायु, मास, तरुणास्थि प्रभूति अतस्थ अवयत्रो को भी प्रभावित करती है । इन अंगो मे शोथ, कोथ और कर्दम (Oedema, Necrosis or Gangrene ) पैदा कर इन अवयवो को खा जाती है । इनका प्रभाव स्थानिक न होकर सार्वदेहिक होता है । अस्तु, इनमे कुष्टवत् रक्तशोधक ( Blood Purifier ) औषधियो की व्यवस्था करनी चाहिये | श्लीपद ( Microfilarae ) तथा कुष्ठ रोग मे इस प्रकार की कृमियाँ बहुलता से मिलती है । श्लेष्मज -मधुर- रसात्मक द्रव्य, मिष्टान्न, क्षीर, गुड, तिल, दधि, मत्स्य, आनूपमाम, पिष्टान्न पायम ( परमान्न), कुसुम्भ स्नेह ( वर्रे का तेल }, अजीर्ण मे भोजन करना, पूतियुक्त ( सटो, गली, वासी अन्न का सेवन ), क्लिन्न या अतिद्रव भोजन ( अधिक जल, गुड आदि के योग से बने अन्न ), सकीर्ण भोजन (मलादि - मिश्रित घृणाजनक अन्न का सेवन ), विरुद्ध अन्न ( कई प्रकार के विरोधी भोजन वतलाये गये है जैसे दूध के साथ मछली का सेवन, दू के साथ नमक का खाना आदि ), असात्म्य अन्न ( जिस प्रकार के भोजन का अभ्यास न हो ऐसे अन्न का सेवन ), बिना उवाले जल का पीना, दिवास्वाप प्रभृति कारणो से लेप्मजात कफज कृमियाँ उत्पन्न होती है । इन का प्रधान आवास आमाशय में होता है । वहाँ से अपने अण्डे बच्चो से बढती है तथा आकार-प्रकार से स्वय बढती हुई ऊपर और नीचे को चलती है । ऊपर की ओर से चल वे मुख और नासाद्वार से नीचे की ओर चलती हुई मलद्वार से निकलती रहती है । ये कई प्रकार की आकार और परिमाण की हो सकती है, कुछ पतली, लम्बी, कुछ मोटी और दीर्घ वृत्ताकार, कुछ केचुवे सदृश ( गण्डूपदाकृतयः ), अणु ओर दीर्घ होती है । इनके वर्ण भी कई प्रकार के सफेद, लाल या ताम्र वर्ण के होते है | प्रभाव तथा आकार के अनुसार इनके नाम भी विविध है । अत्रादा ( आतको खाने वाली ), उदरादा ( उदर को खाने वाली ), हृदयचरा हृदयादा - ( हृदयमे चलने वाली या हृदय को खाने वाली), कई बार कृमियों के अण्डे रक्तवह सस्थान से चक्कर काटते हुए हृदय में पहुँचकर हृद्रोग पैदा करते है । 1 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारणो से ब्लेयाज ऋमियाँ भी प्रति लक्षण या चि ३०८ भिपकर्म-सिद्धि चुरक (चू शब्द करनेवाले या चुरनेवाले), दर्भपुष्पाः (दर्भ के आकार वाली), सौगविका (विम या कमलनाल के समान गंधवाली), महागुदा (वहुत वडे आकार को गुदा मे निकले वाली कृमियाँ (जैसे Tape worm या स्फीत कृमि)। इन कृमियो के कारण ज्वर, मूर्छा, जृम्भा, चवथु (छोको का माना), आनाह (पेट का फूलना), बङ्गमर्द (मग मे पीडा), हृल्लास (मिचली आना), आस्यत्रवण ( मुंह में पानी भरना या लार का अधिक गिरना), अरोचक ( अन्न में जरुचि ), अविपाक (अन्न का पाक न होना), छदि ( वमन ), गरीर की कृगता और त्वचा की पत्पता (हलता या कंगता) प्रभति ल्क्षण या चिह्न पाये जाते है । पुरीपज-पुरोपज कृमियाँ भी प्राय उन्ही कारणो मे उत्पन्न होती है, जिन कारणो से ब्लेष्मज कृमियाँ। ये अधिकतर पक्वागय (क्षुद्रान्त्र, वृहदत्र तथा मलागय) मे पाई जाती है । और वही पर बढती है और वढवर प्राय अवोमार्ग से निकलती है । इनके क्वचित् आमागयाभिमुख होने पर रोगी के नि श्वास तथा उद्गार से पुरीपगधी बदबू आती है । ये कृमियाँ अधिकतर श्वेत, ऊन के वरावर की दीर्घता की होती है। कुछ स्थूल और गोल घेरे की भी हो सकती है। क्वचित् व्याव, नील या हरित वर्ण की भी हो मकती है। इनके नाम विगेप प्रकार की गति करने वाली ककेरुक एवं मकेरुक, चाटने वाली लेलिह, गल पैदा करने वाली सगलक तथा मद्योत्थ सौमुराद । इनके प्रभाव से पुरीपभेद, कार्य, पारुष्प, लोमहर्प, गुदा में कण्डु प्रभृति लक्षण प्रधानत इन कृमियों में युक्त व्यक्तियो मे मिलते हैं। इनके परिणाम से गुदनिष्क्रमण ( गुदभ्रंश) पाया जाता है। आचाय मुथुतने कृमिरोगो के उत्पादक कारणो का वहत सारगभित सक्षिप्त वर्णन दिया है। उन्होने लिखा है-उडद, अम्ल और लवण, गुड मोर शाका (पत्र गाको) के सेवन से परीपज कृमियाँ, मास, मत्स्य, गुड और तीर के अधिक सेवन मे ग्लेप्मज कृमियाँ उत्पन्न होती है। आमाशयात्र कृमि ( Intestinal Parsites ) इस प्रकार चरक के मत से चार प्रकार की कृमियो का मास्यान समाप्त हुआ। यव जरा व्यावहारिक दृष्टि से भेद किया जाय तो कृमियो को दो वर्गों में वॉट मरते हैं। १ बाह्य २ नाभ्यंतर। वाह्य कृमियां वे है जो वाह्य त्वचा पर, कग, नाव, रोग, श्मयु के सन्निधान मे या वस्त्र आदि मे पाई जाती हैं। यह चरकोरत मलज कृमियो का वर्ग है। दूसरा वर्ग आभ्यतर मात्रगत कृमियो का है । वे आमानयान्त्र प्रदेश में पाई जाती है और वहीं रहकर वृद्धि करती तथा विविध लक्षणो को पैदा करती है। उपर्युक्त पुरीप और कफज कृमियो का Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : दसवाँ अध्याय ३०६ समावेश इस आत्र कृमि के वर्ग में ही हो जाता है। आभ्यतर कृमियो का ही एक दूसरा वर्ग रक्तज कृमियो का हो सकता है । जिनसे श्लीपद और कुष्ठ प्रभति रोग होते हैं। आभ्यतर कृमियो मे आमाशयात्रगत कृमियो का Intestinal Parasites नाम से आधुनिक ग्रथो मे वर्णन पाया जाता है। रक्तन कृमियो का वर्णन श्लीपद रोग या कुष्ठ रोग के अधिकार मे आगे किया जायगा । इस अध्याय में अपना प्रतिपाद्य विपय केवल आत्रगत कृमियो तक ही सीमित रखना अपेक्षित है। आनगत कृमि ( Intestinal Worms) की श्रेणी में प्रमुखतया पाई जाने वाली आधुनिक युग के गोधो पर आधारित तथा व्यवहार क्षेत्र मे अविक पाई जाने वाली चार प्रकार की कृमियां प्रमुखतया पाई जाती है । १ अकुशमुख कृमि ( Hook worms ), गण्डूपद कृमि (Round worms), सूत्र कृमि ( Thread worms) तथा स्फीतकृमि ( Tape worms), ये सभी प्राचीनोक्त श्लेष्मज और पुरीपज श्रेणी के भीतर ही समाविष्ट हो जाती है । प्राचीन निदान को समझने के लिये आधुनिक शोधो के आधार पर इनके उपसर्ग-विधि पर एक सक्षिप्त कथन प्रासगिक प्रतीत होता है । एतदर्थ इनके पृथक पृथक् समुत्थान स्थान, संस्थान, वर्ण, नाम, प्रभावादि का उल्लेख किया जा रहा है। - अंकुशमुख कृमि-श्लेष्मज कृमियो के वर्ग मे अन्नाद नाम से सभवत. प्राचीन सहिताओ मे इसो कृमि का उल्लेख आता है। अकुशमुख कृमि से उपसृष्ट व्यक्ति के मल-पुरीप ( पाखाने) मे इनके अण्डो की उपस्थिति पाई जाती है। ये अण्डे गीली भूमि मे पडे रह कर तीन दिनो मे इल्ली (Larval ) का रूप धारण कर लेते है। इसके पश्चात् इनका और भी रूपान्तर होता है। इस अवस्था मे ये तीन-चार मास तक जीवित रह सकती है। यदि कोई व्यक्ति नगे पैर उस स्थान पर जाता है तो इल्लियां उसकी त्वचा के द्वारा प्रविष्ट होकर लसीका-वाहिनियो और सिराओ से होते हुए दक्षिण निलय मे पहुँच जाता है। वहाँ से रक्त द्वारा फुफ्फुस को फिर फुफ्फुस से कंठनाली तक जाती है वहाँ से पुन अन्न-प्रणाली मे फिर वहाँ से चलकर अन्ततो गत्वा अपने स्थायी आवास-स्थान पक्वामाशयान्त्र ( Duodenum and jejunum) मे आकर स्थित हो जाती है। दो सप्ताहो तक इनके आकार में वृद्धि होती है एव लगभग चार सप्ताह मे ये पूर्ण पुष्ट हो जाती है। यहाँ रहते हुए स्त्री कृमि गर्भवती होकर अण्डे देती है जो पुरोप द्वारा निकल कर पूर्वोक्त अवस्थावो को प्राप्त करके उपसर्ग मे सहायता करती है। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० भिपकम-सिद्धि इन क्रिमियो का मन्त्र अकुग ( Hooks) या बटिग के समान होता है पौर इन अगो के द्वारा ये आत्र में चिपकी रहती है और रक्त का पान करती रहती है। परिणामत इन कृमियो मे उपपृष्ट व्यक्ति में रक्तमय या पाण्डुता की उत्पत्ति (Anaemia) होती है । रक्त मे गोणाग ( Haemoglobin) की कमी हो जाती है-रोग के अधिक तीव्र होने पर रक्त के लाल कणो की संन्या भी कम हो जाती है । अस्तु उपचार-काल में रक्तक्षय की चिकित्सा का भी ध्यान रखना पड़ता है। गण्डूपद कृमि (कंचुवे या Round worms )-ये कृमि अधिकतर बालको में पाई जाती है, परन्तु बडी यायु में भी हो सकती है। प्राचीन सहिता में गण्टूपद नाम से ग्लेप्मज वर्ग में इसका प्रमंग पाया जाता है। रोगी व्यक्ति के मल से निकले हुए बगड़ो मे उपनृष्ट खाद्य पदार्थ के सेवन से ये स्वस्थ व्यक्ति के मात्र में पहुँच जाती है। मामागय में अम्ल से उनके ऊपर फा नावरण गल जाना है तब ये स्बतत्र होकर यकृत् में होती हुई मिरा द्वारा हृदय और अंगमुख कृमि की भाति फुफ्फुस में जाकर पुष्ट होते है । वहां से पुन. मामागय में होती हुई मात्र में प्रविष्ट होती है । यहा पर इनकी वृद्धि होती है और परिपश्वावस्था को प्राप्त करती है। ये कृमिया अत्यन्त चंचल बोर गतिगील होती है। प्राय. मात्र में कुण्डलित अवस्था में रहती है और विभेद, अतिमार, उदरशूल, हुलास, वमन, सन्तन स्वरूप का ज्वर आदि पैदा करती है। कई बार वमन के साथ मुवि से और कई बार पान्याने के जरिये मल द्वार से निकलती है। इनके अण्डे प्राय. पाखाने के जरिये बाहर निकलते रहते है जो अत्यन्त मृटम होने से बच रहते है-कच्चे माक-पत्रनाक आदि के जरिये मुग्व मे निगले जाकर स्वस्थ व्यक्ति के यामागय में जाकर उपमष्ट करते रहते है। कभी कभी कई कृमिया एक मे मिल कर कुण्डलित होकर आत्र छिद्र को रद्ध कर यान्त्रावगेय ( Acute Intestinal obstruction ) की अवस्था उत्पन्न कर देती है और कई बार पित्तवाहिनी में अवरोध पैदा करके कामला भी भी उत्पन्न कर देती है। स्फीन कृमि-( Tapeworm ) कई जाति की कृमि होती है। ये फीते के ममान चोटी, चिपटी और बहुत लम्बी (८-२० फीट) होती है। ये अपने गोल सिर में स्थित बदिगो द्वारा मात्र में चिपकी रहती है। इनके शरीर मे अनेक पर्व होते है और प्रत्येक पर्व में अण्डे होते है। परिववव होने पर मंतिम कुछ पर्व (४-६ ) टूट कर गिर जाते है उनके बाकार कह के बीज के समान होते है। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११ चतुर्थं खण्ड : दसवॉ अध्याय इसी लिये इरा कृमि को कद्द दाना भी कहते है। इनकी उपस्थिति से कभी-कभी पेट मे दर्द, वमन, मन्दाग्नि और कई वार भस्मक रोग तथा पाण्डु रोग भी पैदा होता है। ये कृमिया अधिकतर आनूप मास ( गोमास, मूकरमास ) खाने वालो में पाई जाती है। ये कृमिया सहितोक्त श्लेप्मजवर्ग मे आती है। सभवत महागुद नाम से इनका ही वर्णन प्राप्त होता है। सूत्रकृमि या तन्तुकृमि ( Thread worms)—ये बीजाकर या सूत्र की भांति श्वेत वर्ण के बहुत सख्या मे पाये जाने वाली प्रायः आधा जी की लम्बाई की कृमियां है । प्राय वच्चो मे मिलती और गुदामार्ग से रात्रि मे बाहर निकलती है। इनसे गुदकण्टू ( गुदा मे खुजली होना) एक प्रवान लक्षण है । इनमे कई के वजह से प्रवाहिका, गुद-भंग, शय्या-मूत्र और प्रतिश्याय प्रभृति लक्षण भी पैदा हो जाते है। __इन कृमियो का पुरीपज कृमियो के वर्ग मे वर्णन पाया जाता है । इन कृमियो के अतिरिक्त भी कुछ कृमि जैसे-प्रतोद कृमि (Whipworm ) तथा ग्लोपद कृमि (Filarna Nocterna) प्रभृति पाई जाती हैं। कृमि-चिकित्सा मे कथित योग इनमे भी लाभप्रद होते है। क्रिया-क्रम-१ सभी कृमियो मे अपकर्षण प्रथम उपचार है । अपकर्पण शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है, खीच कर निकालना । यह अपकर्षण की क्रिया हाथ की अगुलियो या नख को सहायता से अथवा चिमटी जैसे किसी यत्र की सहायता से सम्पन्न हो सकती है। यह क्रिया वाह्य कृमियो के सम्बन्ध में तथा दिखलाई पडने वाली कृमियो के सम्बन्ध मे समुचित प्रतीत होती है, परन्तु आभ्यतर कृमियो तथा अदृष्ट कृमियो के विपय मे कैसे सभव हो सकता है ? आचार्य ने बतलाया कि इन अदृष्ट या आभ्यतर कृमियो का अपकर्पण भेपज या औपधियो के द्वारा सभव है । भेपज द्वारा अपकर्षण के चार साधन है-१ वमन २ विरेचन ३. शिरोविरेचन तथा ४ आस्थापन वस्ति । २ दूसरा उपक्रम-प्रकृति विघात का होता है--जिसमे कारणो को नष्ट करने के लिये या शरीर का सतुलन ठीक रखने के लिये कृमि रोग मे कटु, तिक्त एव कपाय रस पदार्थों का सेवन तथा क्षारीय एव उष्ण द्रव्यो का उपयोग करना आवश्यक है। इससे मधुर-अम्ल-लवण के अति सेवन से उत्पन्न कृमियो का क्रमश नाश होता चलता है। यह उपक्रम सशमन कहलाता है। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ भिपकर्म-सिद्धि ३ निदानोक्त भावो का परिवजन-कृमि के उत्पन्न करनेवाले कारणो का सर्वथा परिवर्जन करना । क्षीर, दधि, गुड़, तिल, मत्स्य, आनूप माम, पायम, पिष्टान्न, कुसुम्भ स्नेह प्रभृति उत्पादक कारणो को छोड देना चाहिए। यह एक सामान्य उपक्रम है । विशेप उपक्रमो की दृष्टि से विचार किया जावे तो पुरीपज कृमियो मे वस्ति और विरेचन के द्वारा उपचार, कफज कृमियो में गिरोविरेचन ( नस्य ), वमन और शमन की चिकित्सा, रकज कृमियो मे उनके विनाग के लिये कुष्टाधिकार में बतलाये गये उपचार रक्तशोधक योग तथा बाह्य कृमियो में यूका, लिक्षा आदि को नष्ट करने के लिये लेप, प्रक्षालन ( सेक) एव यभ्यंगादि का प्रयोग कुगल चिकित्मक को करना चाहिये ।' सेपज-कृमिघ्न औपवियां सामान्यतया सभी कृमियो पर कार्य करती है परन्तु कुछ विशिष्ट कृमिघ्न भी होती है उनका यथास्थान वर्णन किया जावेगा। कृमिघ्न भेपजोका प्रयोग गुडपूर्वा---गुड के साथ करने का विधान है । इसका उद्देश्य यह होता है कि कृमियों गडप्रिय या मधुरप्रिय होती है। गुड के उदर में पहुचने पर मात्रस्य कृमि मामाशयान्त्र के विविध स्थानो ( आत्र की अत स्थ भित्तियो ) से निकल कर गुडभक्षण की स्पृहा से उस स्थान पर जहाँ गुड पहुचा है, एकत्रित हो जाती है। उसमें तिक्त, उष्ण, क्षारीय और उष्ण गोपवियो के सम्पर्क मे आकर या तो वे मर जाती है अथवा मूच्छित हो जाती है और फिर एक रेचन दे देने से वे आन्त्र से धुलकर बाहर निकल जाती है। अस्तु प्राय गुड के साथ भेपो का प्रयोग करने का उपदेश शास्त्रों में पाया जाता है । १. पारसीकयमानी-क्रिमिकोष्ठ वाले रोगी को प्रात काल मे पहले १ तोला गुड खिलाकर फिर पारसीकयमानी (खुरासानी अजवायन ) का चूर्ण ३ माशे खिलावे । चूर्ण को खिलाकर वासी पानी पीने को दे। तो कृमिया मल के साथ बाहर निकल जाती है। यह योग सभी कृमियो विशेपत अंकुशमुख कृमियो में लाभप्रद रहता है। माधुनिक युग में पारसीकयमानी सत्त्व (थायमाल नाम से Thymol ) पाया जाता है । अकुगमुख कृमि मे यह औपधि विगेप लाभप्रद (Specific) १. 'अपकर्पणमेवादी कृमीणा भेपजं स्मृतम् । ततो विघात. प्रकृतेनिदानस्य च वर्जनम् । ( चर वि ८) २ पुरीपजेपु सुतरा दद्यादस्तिविरेचने । गिरोविरेकं वमन गमनं कफजन्मसु ।। रक्तजाना प्रतीकार कुर्यात् कुष्ठचिकित्सया । वाह्य पु लेपसेकादीन् विदध्यात् कुगलो भिषक् ।। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड: दसवॉ अध्याय ३१३ मानी जाती है। प्रयोग विधि-औपधि प्रयोग के पूर्व रोगी को दो दिनो तक मूग की दाल, खिचडी या अन्य लघु अन्न देना चाहिये । फिर प्रात काल मे दस ग्रेन की मात्रा की तीन पुडिया अथवा कपस्युल मे भर कर दस ग्रेन प्रति कैपस्युल बनाकर एक दो या तीन मात्रा एक-एक घटे के अतर से देना चाहिये। युवक को पूर्ण मात्रा ३० ग्रेन की होती है । इससे अधिक कदापि न दे । आवश्यकतानुसार रोगी और रोग के बल-काल के अनुसार दस, बीस या तीस ग्रेन तक दिया जा सकता है। यथावश्यक औपधि देने के अनन्तर रोगी के मात्र के प्रक्षालन के लिये दो घंटे के बाद तीव्र रेचक ( जलस्रावक ) सामुद्रेचन ( Magsulph ) छ ड्राम से १ ओस तक पानी में घोलकर पिला देना चाहिये । दस्त की दवा देना आवश्यक होता है । सिद्धान्त यह है कि यमानी सत्त्व के सम्पर्क मे आकर कृमि मूच्छित हो जाते है-मूच्छितावस्था मे उनको आत्र से दूर करने के लिये तीव्र रेचन परमोत्तम साधन है। इसके प्रयोग-काल में मद्य, ग्लिसरीन, क्लोरोफार्म, मक्खन, तैल, एरण्डतल वर्ण्य है। २ पारिभद्रक ( पर्वतनिम्ब) पत्र-स्वरस १ तोला मधु मिलाकर सेवन । ३ केवुक ४ पूतीक स्वरस का मधु के साथ सेवन अथवा ५ वायविडङ्ग चूर्ण आर मधु का सेवन । ६ पलाशवीज-पलाशवीज का स्वरस मधु से या पलाशबीज का कल्क का मढ़े से या पलाशवीज चूर्ण का गुड से अथवा पलाशवीज कपाय का गुड से सेवन कृमिघ्न होता है । मात्रा ३ माशे से ६ माशे तक। पलाशवीज (Butea seeds) यह बडा ही उत्तम योग है । गण्डूपद कृमियो में (Round worms) विशेष लाभप्रद पाया गया है । ७ सुपारी-कच्ची सुपारी को जम्बोरी नीबू के रस के साथ पीने से पुरीपज कृमि ( Thread worms) मे विशेष लाभ-प्रद पाया जाता है । ८. तुम्बी वीज-( कडवे कटू का वीज ) ३ माशे मट्ठे के साथ । ९ कुष्माण्ड बीज का प्रयोग भी कृमिघ्न होता है। मात्रा-३ से,६ माशे। १० नारिकेल जल का मधु के साथ सेवन भी कृमियो को निकालता है। ११. जेवायन-( यमानी ) के बीज का चूर्ण ६ माशे सैन्धव लवण के साथ प्रात. काल मे खाली पेट पर लेने से अजीर्ण, आमवात, शीतपित्त तथा कृमिरोग मे लाभप्रद होता है। जेवायन का गुडके साथ भी प्रयोग कृमिनाशक होता है। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ भिपधर्म-सिद्धि १२ काम्पिल्लक चूर्ण-(शुद्ध कवीले का चूर्ण) १ से २ मागे की मात्रा में गुडके माथ मिलाकर सेवन करने से उदरस्थ मभी कृमियो को निकाल देता है। इसका प्रयोग बच्चो के वृमि रोग में विगेपत. पुरीपज कृमि (Thread worms) में लाभप्रद होता है। १३ किरमाणी अजवायन चूर्ण-2 माशे से ३ मागे तक गुड के साथ मेवन गण्डूपद कृमि मे विनेप लाभप्रद होता है। माधुनिक युग में इसका सत्त्व किरमाणी अजवायन मत्त्व ( Santonin ) के नाम से आता है। इसको मात्रा १ से ३ ग्रेन की होती है । गण्डूपद कृमियो मे (Round worms) मे विशिष्ट (Specific ) रूप में प्रयुक्त होता है। प्रयोग विधि-सैण्टोनीन मे कैलोमल तथा सोटादाय कार्य मिलाकर एक मिश्रण (Santonin t to 1 grain, Calomel i to 1 grain, sodi Bicarb 3to 5 grains) वनाकर । सायकाल में रोगी को एक एक घटे के अतर मे तीन पुदिया खिला दे। फिर प्रात. काल मे सामुद्रेचन (Sodi sulph or Magsulph ४ ड्राम से १ मांस तक ) को पानी में घोल कर पिलावे इसमे रेचन होकर उदरस्थ कृमि मूच्छित हो गये रहते है दस्त के साथ वाहर निकल जाते है। __१४ स्वर्णझीरोवीज-स्वर्णक्षीरी की जड़ की छाल का करक ३ माशे मरिच ५ दाने के साथ या वीज का तेल मभी कृमियो विशेपत अकुश मुख कृमियो मे लाभप्रट पाया गया है । आजकल एताहग औपधि का प्रयोग Hexyiresorsinol नाम से बहुतायन मे होता है 1 Crystoids (sharp & Dhome) वना बनाया कैपस्पुल में भरा पाया जाता है। इस सोपवि को कम विपात माना जाता है। पांच कंपस्युल एक ही साथ शीतल जल के माय प्रात. काल में रोगी को निगलवा दिया जाता है। पञ्चात् तीन या चार घटे के अनन्तर उमको मोडा मल्क १ मीम जल में घोल कर पिला दिया जाता है जिसमे रेचन हो जाय । इनो प्रयोग से धीरे धीरे कृमियो का तथा उनके मण्डो का निकलना प्रारभ होता है और दम दिनो तक निकलते रहते है। इसका उपयोग निरापट माना जाता है। १५ आखुपी या मृपाकर्णी-आम्बुपर्णो को जी के आटे में पीसकर पीटी बनाकर नेल मे नलकर भाजी के माथ पीने से कृमि नष्ट होते हैं । १६ मुरमादि गण-कृष्ण तथा श्वेत तुलसी, मम्बक (मख्या), अर्जक, भूस्तृण (रोहिन तृण ), मुगवक (गंवतृण), मुमुख (तुलसी भेद ), कृष्णार्जक (कार माल ), कानमर्द, आवक (नकठिकनी ), खरपुप्पा (बन Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : दसवाँ अध्याय वर्वरिका ) विडङ्ग, कटफल, निर्गुण्डी, मुण्डी, मूपाकर्णी, भारंगी, काकजघा, काकमाची, कुपीलु ( कुचिला ) । इस गण की प्रत्येक औपवि स्वतंत्रतया कृमिघ्न है। इनमे कईयो का उल्लेख ऊपर मे हो चुका है। दवना या मरूवा विशेष उल्लेखनीय है। इनमे से किसी एक का ताजा रस ३ से १ तोला मधु से सेवन कराने से बालको मे गण्डूपद तथा सूत्र कृमियो मे लाभप्रद होता है। १७ दाडिम बीज-अनारदाने का बीज सामान्यतया कृमि रोग मे व्यवहृत होता है । इसका विशेष प्रयोग स्फीत कृमि (Tape worms) मे होता है। Palhtrin Tannet नाम इसका एक विशेप योग आता है जो इस अवस्था मे उत्तम लाभ प्रद पाया जाता है। १८ गंधवास्तूक-बथुवे की एक जाति गधवास्तूक नाम से पाई जाती है । इसके बीज कृमिघ्न होते है। इन वीजो से एक तैल गधवास्तूक तैल ( Oil chenapodium ) बनता है, इसका उपयोग विशेष अकुशमुख कृमियो में लाभप्रद पाया जाता है । मात्रा १० बूद । प्रयोग कैपरयूल मे भर कर दस वू द खिला देना चाहिये । एक घटे के पश्चात् समुद्रेचन ( Mag sulph or sodi sulph ) देकर रेचन करा देना चाहिये। इन वानस्पतिक द्रव्यो के अतिरिक्त अन्य कई रासायनिक द्रव्य भी कृमि चिकित्सा मे व्यवहृत होते है । जैसे-१९ कार्वन टेट्रावलोरायड या कार्बन टेट्रा क्लोरेथीलीन । मात्रा ३० ने Tetra cap नाम से १० ग्रेन को मात्रा के कैपस्युल बने बनाये बाजार में उपलब्ध है। इनका यथावश्यक रोगी के बल के अनुसार दो या तीन कैपस्युल पानी से निगलवा देना चाहिये। फिर दो घटे के वाद सामुद्रेचन देकर रोगी का रेचन करा देना चाहिये। कृमियाँ तथा उनके के अण्डे सभी बाहर निकल जाते है । यह औपवि विशेप कर अकुशमुख कृमि मे लाभप्रद रहती हैं । एक मिश्रण का प्रयोग अकुशमुख कृमि के रोगियो मे वडा लाभप्रद पाया गया है । कृमिन्न मिश्रण-गंधवास्तूक तैल (Oil chenapodium) १० वूद, कार्बन टेट्राक्लोरायड (Carbon tetra chloride XXXms) ३० वूद तथा सामुद्रेचन ( Magsulph) ६ ड्राम तथा जल २ औस । यह एक तीन औषधि प्रयोग है, रोगी को आत्मनिरीक्षण मे रख कर देना चाहिये । रेचन न हो तो पुन समुद्रेच ४ ड्राम पानी में घोल कर देना चाहिये । २० जेन्शियन वायलेट-(Jentian Voilet) इसके भी बने योग बाजार मे मिलते है। यह औपधि गण्डुपद कृमियो मे विशेष रूप से कार्य करती है। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ भिपक्षम-सिद्धि २१ कामेजीनसायट्रेट ( Carbamazine citrate) हेद्राजान (Lederle) के नाम से यह औषधि वाजार में मिलती है । गएटूपट कृमि तथा ब्लीपद कृमि में लाभप्रद है। पिपरा जीन सायट्रेट ( Piprazine Citrate) इसके कई योग कई नामो से वाजारो मे मिलते है । 'एण्टोपार' 'वर्मिजाइन' आदि । एक निरापद औपधि है । गण्ड्रपद कृमि ( Round worm) तथा मूत्रकृमि ( Thread worms) मे विशेष लाभप्रद होती है। प्राचीनोक्त तथा अर्वाचीन कृमिन्नों में अंतर-आधुनिक युग के कृमिन अधिकार वडे तीन एवं विपास्त होते है। इनका अधिक लम्बे समय तक लगातार प्रयोग नही किया जा सकता है क्योकि ये लगातार प्रयोग मे आकर यकृत् को हानि पहुंचाते है। इनके विपरीत प्राचीनोक्त कृमिन औपवियो में विपाक्तता अत्यल्प या नहीं है । मविक दिनो तक प्रयोग में आने पर भी किसी प्रकार से यकृत् की क्रिया को हानि नही पहुँचाते प्रत्युत यकृत् की क्रिया को वल दते है । प्राचीनोक्त बीपधिया मृदु है फलत. इनकी क्रिया (कृमियो के दूर करने की) धोरे धीरे होती है और अधिक काल तक प्रयोग करने की आवश्यकता रहती है । इसके विपरीत माजकल की कृमिन्न मोपधिया तीक्ष्ण होती है। परिणामत इनका कार्य (कृमियो के निकालने का कार्य) भी शीघ्रता से होता है । अब विचारणीय है कि प्राचीनोक्त कृमिन्न मोपधियो का प्रयोग अविक उत्तम है या अवाचीन का। गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो दोनो योगों के मिश्रित उपचार का उपयोग अधिक समीचीन प्रतीत होता है। व्यवहार में ऐसा ही किया भी जाता है । उदाहरणार्य एक यकुगमुख कृमि से पीडित रोगी को ले लें। उसको चिकित्सा मे सर्वप्रथम आवश्यकता होती है कि अर्वाचीन कृमिन्न योग की एक तीव्र मात्रा दी जाय जो शीघ्रता से अधिक से अधिक मात्रा में कृमियो को निकाल दे। फिर उसके बाद आयर्वेदीय किसी कृमिघ्न योग की लगातार सेवन करने की एक मास तक व्यवस्था कर दी जाय । कारण यह है अर्वाचीन औपधियाँ तीन होते हए भी सम्पूर्ण कृमियो को एक ही साथ बाहर नहीं निकाल सक्ती कुछ न कुछ गेप रह जाती है जिनकी पुन' वृद्धि होकर रोगी को हानि पहुँच सकती है। इस बीच यदि आयुर्वेदीय योगो का प्रयोग कर दिया जाय तो गेप रही कृमियो के नष्ट हो जाने को पूरी संभावना रहती है। अर्वाचीन बोपधियो का उपयोग एक वार कर देने के बाद अनन्तर कम से कम तीन सप्ताह का अंतर देना चाहिये यदि आवश्यकता हो तो दो या तीन वार पुन. पुन दी जा सकती है। मध्य के अवान्तर काल में मायुर्वेदीय निरापद Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : दसवाँ अध्याय ३१७ कृमिघ्न योगो का प्रयोग उत्तम रहता है । इस प्रकार उभय विध चिकित्सा करते कृमियों को निर्मूल करना एक उत्तम विधान है । कृमिन्न योग भद्रमुस्तादि कपाय - मुस्तक, नूसाकर्णी, पलाशदोज, वायविडङ्ग, अनार वी छाल ( वृक्षकी ), खुरासानी अजवायन, सुपारी, देवदारु, सहिजन के बीज, हरद, बहेरा, आंवला, खैरमार, नीमको छाल, इन्द्रजी । सब समभाग । इसका २ तोला लेकर आधासेर जल मे सोलावे, दो छटाँक शेप रहे पिलावे | प्रात । सभी कृमियो में लाभप्रद । विडङ्गादि चूर्ण - वायविडङ्ग, सेधव, यवक्षार, कवोला, पलाशवीज, अजवायन, हरीतकी । सब समभाग । मात्रा ६ माशे तक्र से । सर्वकृमियो मे लाभप्रद । अनुपान उष्ण जल या पलाशवी जादि चूर्ण - पलाशके बीज, जेवायन इद्रयव, वायविडङ्ग, नीम की छाल, चिरायता सब सम भाग । मात्रा १ मे ३ माशे । पुराने भुडके साथ । विशेषत गण्डूपद कृमि मे लाभप्रद । १ पारसीयादि चूर्ण - रसीक जेवायन, मोथा, पिप्पली, काकडासीगी वायविङ्ग और अतीस । सवका समभाग मे वना चूर्ण । मात्रा १- ३ माशे । अंत्राद क्रिमियो मे लाभप्रद । जब क्रिमियो के कारण कास श्वास का उपद्रव हो तो इसका उपयोग ठीक रहता है । पारसीकादि वटी - सुरामानी अजवायन, पलाशवीज, वायविडङ्ग, करकी गुद्दी, अनार की छाल, इ द्रजी, क्वीला, नागरमोथा, शुद्ध गधक, अजवायन का सत और भुनी हीग । सव समभाग | कपडछन चूर्ण बना कर । अनन्नास था खजूर के रम मे घोट कर ४ रत्ती की गोलियाँ । मात्रा १ से २ गोली | अनुपान भद्रमुस्तादि कपाय । प्रात काल मे एक बार । १ सप्ताह से तीन सप्ताह तक अत्राद था अकुरा मुख कृमि मे विशेष लाभप्रद । ( Hookwoms ) -- विडङ्गादि वस्ति - वायविडङ्ग, त्रिफला, सहिजन की छाल, मैनफल, मोथा, दन्ती की जड, पलाशवीज, खुरासानी अजवायन, कवीला वततुलमी की पत्ती, दमनक, मरुवक प्रत्येक द्रव्य एक एक तोला लेकर ३ सेर जल मे पकावे जब " १ पलाशवीजेन्द्रविडङ्गनिम्वभूनिम्ब चूर्णं सगुड लिहेद्य । दिनत्रयेण क्रिमय पतन्ति पलाशबीजेन यकानिका वा ॥ (भैर ) Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ भिपकम-सिद्धि चीयाई काढा गेप रहे तो उसमें विडङ्गादि तैल २ तोला मिलाकर । आस्थापन वस्ति के प्रयोग से गुदा से पुरीपज कृमियाँ ( Threadwomrs ) निकल जाती है। क्रिसिकालानल रस-शुद्ध पारद मीर शुद्ध गधक की सममात्रा में बनी कज्जली १ भाग, वायविडङ्ग १ भाग, शुद्ध वत्मनाभ विप भाग । बकरी के दूध मे पीसकर । २ रत्तो की गोली । धनिया और जीरा के अनुपान से सेवन । कृमिमुद्गर रस-शुद्ध पारद १ तोला, शुद्ध गंधक २ तोला, अजमोदा का चूर्ण ३ तोला, वायविडङ्ग चूर्ण ४ तोला, शुद्ध कुपीलु वीज का चूर्ण ५ तोले तथा शुद्ध पलाशवीज चूर्ण ६ तोले । सभी प्रकार की कृमियो मे लाभ-प्रद । मात्रा २ से ४ रत्ती। अनुपान मुस्तक कपाय । विडज लोह --शुद्ध पारद, गवक, मरिच, जायफल, लवङ्ग, पिप्पली, शुद्र हरताल, गुण्ठी, वग भस्म प्रत्येक एक एक तोला, लौह भस्म ९ तोले तथा वायविडङ्ग १८ तोले । अकुग मुख कृमि तथा तज्जन्य पाण्डु में लाभप्रद । मात्रा-१ मागा । अनुपान मधु । बाह्य क्रिमियों में चिकित्सा-स्नानादि के द्वारा तथा वस्त्रादि के प्रक्षालन और सूर्य के धूप में रखने प्रभृति सफाइयो से वाह्य कृमियो में लाभ होता है। माथ ही कई प्रकार के लेप, तेल तथा धूप भी प्रशस्त है। जैसे १. नाडीच (काल शाक ) के बीजो को काजी के साथ पोम कर सिर पर लेप करने से गिरोगत केगो की यूका तथा लिक्षा नष्ट हो जाती है। २ वनूर के या पान के रस मे पारे को खरल कर लेप करने से भी यह लाभ प्राप्त होता है। ३ साने वाली तम्बाकू का शीतल कपाय बालो मे मलना अयवा लाल कनेर की पत्तियों के काढे मे मिर के केगो का धोना भी यूका-लिखा को नष्ट करता है। ४ लाक्षादि धूम-लाम्ब, भिलावा, विरोजा, सफेद अपराजिता, अर्जुन की छाल, फल-फूल, वायविडङ्ग, सफेद, राल, गुग्गुलु । सम भाग मे खरल कर रख ले। इमको आग में जलाकर कमरे को बन्द कर इसका धुवाँ देने से घर, गय्या ओर वस्त्र के कीड़े नष्ट हो जाते है। साँप, चूहे, मच्छर, मकडी, खटमल आदि पराश्रयी नए हो जाते है। र विडङ्ग तल-वायविडङ्ग, गंधक, मन गिला। इनका सम भाग में गृहीत कल्क १ पाव । मूच्छित कटु तैल १ सेर । गोमूत्र ४ सेर। कडाही में Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : दसवाँ अध्याय ३१६ लेकर अग्नि पर चढा कर मंद अग्नि से पाक करे । तेल के लगाने से सिर के केशो के या अन्यत्र सम्पूर्ण त्वचा पर पाये जाने वाली कृमियाँ नष्ट हो जाती है। ६ धुस्तूर तैल-धतूर के पत्र-स्वरस से सिद्ध सर्पप तैल भी ऐसा ही कार्य करता है। अपथ्य-कृमि रोग मे विशेषत श्लेष्मज, पुरीषज तथा रक्तज कृमियो मे कच्चा दूध, आनूप मास, मछलो, दही, अविक स्निग्ध भोजन, गुड, अधिक मधुर ( मिष्ठान्न ) सेवन, पत्र शाक, उडद, अति द्रव अन्न, कच्चा जल ( बिना उवाला), विना उबाला या पकाया शाक-भाजी, तरकारी तथा दिवास्वाप (दिन का सोना) निपिद्ध है। एतद्-विपरीत आहार-विहार पथ्य है। पाण्डु तथा कामला प्रतिषेध प्रावेशिक-रक्तक्षय या किसी कारण से रक्त की कमी हो जाने से जब रोगी को त्वचा, नेत्र, मुख, जिह्वा, नख, मूत्र और मल ईपत् पोत युक्त श्वेत वर्ण के हो जाते है तब उस रोग को पाण्डु रोग कहा जाता है और रोगी को पाण्डुपीडित रोगी। रक्त की मात्रा की कमी के अनुसार रोगी की त्वचा का वर्ण पीत या श्वेत कई प्रकार का हो सकता है। दोपो के अनुसार भी लक्षण तथा त्वचा, नख आदि के वर्ण मे विविधता आ सकती है। अस्तु दोषभेद से वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक सन्निपातज भेद से चार प्रकार का पाण्डु रोग होता है । पाण्डु रोग का एक पाँचवा भेद मृज्ज-पाण्डु का होता है-जिसमे रोगी मे मिट्टी खाने का इतिवृत्त पाया जाता है और अधिक मिट्टो खाने के परिणाम-स्वरूप रक्त क्षय हो पाण्डुता आई हो। इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टि से पाण्डु रोग के पांच प्रकार हो जाते है। नेत्र के अधोवर्म को नीचे की ओर अगुलि से दवा कर अथवा जीभ के वर्ण को देख कर रक्त की कमी या पाण्डु का विनिश्चय सरलता से किया जा सकता है। पाण्डु रोग से हेतु, लक्षण तथा चिकित्सा से साम्य रखने वाला दूसरा रोग कामला है। हेतु, लक्षण एव चिकित्सा मे बहुत कुछ साम्य होने के कारण दोनो रोगो का एक ही अध्याय मे वर्णन प्राय प्राचीन ग्रथो मे पाया जाता है। व्यावहारिक दृष्टि से दोनो की चिकित्सा भी बहुत अशो में समान ही रहती है। पाण्डु तथा कामला मे भेद यह होता है--कामला मे पित्त की बहुलता पाई जाती है। फलत इसमे त्वक, मूत्र, नेत्र का वर्ण अधिक पीला हो जाता है। यह पीतता सर्वाधिक नेत्र के श्वेत भाग ( Conjuctiva. ), जिह्वातल तथा Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० भिपक्रम-सिद्धि मत्र में पाई जाती है। केवल देखने मात्र से ही रोग का विनिश्चय सभव रहता है। कामला के प्रधान दो प्रकार मिलते है । १ कोष्ठाथिय, २. गाखाधित । कामला ही बढा हुमा कुम्भ कामला है। कामला हो कालान्तर (कुछ समय के पश्चात् ) में ममय अधिक बीत जाने पर कुम्मकामला का रूप धारण कर कृच्छयाध्य हो जाता है। इसम गोफ का उपद्रव भी पाया जाता है। हलीमक कुम्भ कामला से परे की अवस्था है जिनमे पागड रोगी का वर्ण हरा या नील पीत हो जाता है। दीर्वत्य, रक्तक्षय, मन्दाग्नि, मृदु ज्वर और उत्माह को कमी रोगी में पाई नाती है।" पाण्डु रोग में क्रियाक्रम-वृत (पचगव्य-महातिक्त अथवा कल्याण वृत) पिलाकर तीटण वमन तथा रेचन कर्म के द्वारा ऊबवि. गोवन करना चाहिये । तदनन्तर निम्नविधि से प्रगमन की क्रिया करे। वानिक पाण्डु रोग में विशेषत. स्निग्ध, पत्तिक मे तिक्त रसात्मक गीत वीर्य द्रव्य तथा ग्लैष्मिक में, कटु तिक्त रसात्मक उष्ण द्रव्यो का प्रयोग करे । त्रिदोपज पाण्डु में विदोप नामक अथवा तीनो दोपो की मिश्रित चिकित्सा करनी चाहिये । मृज्जपाण्डु में विशिष्ट क्रियाक्रम-मृज्जपाण्डु में रोगी के बलावल को देखते हुए युक्तिपूर्वक तादा विरेचन दे देकर खाई हुई मिट्टी को कोष्ट से बाहर निकालना चाहिये । कोष्ट के शुद्ध हो जाने पर वत्य मिद्ध वृतो का मेवन कराना चाहिये। ____ व्योपादि घृत-व्योष (त्रिकटु ), वित्व, हरिद्रा, दारुहरिद्रा, श्वेत एवं रक्त पुनर्नवा, मोथा, मण्डूर, पाठा, विढग, देवदारु, वृश्चिकाली, भार्गी और दूध १ पाण्डत्वदनेत्रविण्मूत्रनमै स्यात्पाण्डुरोगवान् । दोपैभिन्नभिन्नश्च पचमो भक्षणान्मृद. ॥ पीतत्वङ्मूत्रविण्नेत्रा बहुपित्तात्तु कामला कोप्टगाखाश्रया मता ।। कालान्तरवरीभूता कृच्छा स्यात् कुम्भकामला । उपेक्षया च शोफाढ्या सा कृच्छा कुम्भकामला ॥ २ पंचगव्य महातिक्तं कल्याणकमथापि वा । स्नेहनाथ वृतं दद्यात् कामला-पाण्डुरोगिणे ।। ३ तत्र पागवामयी स्निग्धतीदर्णानुलोमिक. । मगोव्य । ततः प्रगमनी कार्या क्रिया वैयेन जानता। वातिके स्नेहभूयिष्ठ पत्तिके तिक्तगीतलम ॥ ग्लैष्मिके कतिक्तोष्ण विमिश्र मान्निपातिकम् । निष्पातयेच्छरीरात्तु मृत्तिका भनिता भिषक् युक्तिन' गोधनस्तीक्ष्ण प्रसमीक्ष्य वलावलम् । शुद्ध कायस्य सोपि वलाघानानि योजयेत् ॥ (च चि १६) मानक कतिक्नोष्ण ना! वातिके नाम Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : दसवाँ अध्याय ३२१ से सिद्ध घृत पिलाना चाहिये। यदि रोगी मिट्टी खाना न छोड 'पाता हो तो तत्तदोपशामक औषधियो से भावित करके मिट्टी खाने का सयोग उपस्थित करना चाहिये ताकि वैसी मिट्टी से उसे द्वप हा जाय और खाना छोडदे । जैसे विडड एला, अतिविपा, निम्बपत्र, पाठा, कुटकी, कुटज, मूर्वा और वैगन प्रभृति द्रव्यो के रसो में भावित करके मिट्टी खाने को देना चाहिये । इन विशिष्ट उपक्रमो के अतिरिक्त गेप चिकित्सा पाण्डुवत् करनी चाहिये । भेपज-स्नेहन और शोवन ( विरेचन ) दो ही उपक्रम पाण्डुचिकित्सा मे वरते जाते है एतदर्थ कई भेपज उपयुक्त रहते है। जैसे १ दन्तीस्वरस २. काश्मरी ( गाम्भारी फल-प्रयोग ), ३ मुनक्के का सेवन ४ गोमूत्र मे भिगोई हरीतकी का प्रयोग ५. त्रिवृत् चूर्ण और मिश्री का सेवन ६ त्रिफला और गोमूत्र का सेवन ७ स्वर्णक्षीरीमूल, देददारु, शुण्ठी अथवा मातुलु ग-मूलका गोमूत्र मे क्वथित करके सेवन । ८ गोमूत्र, गोदुग्ध ओर माहिप घृत का सेवन ९ गुड तथा हरीतकी का सेवन पाण्डु रोग में सदैव लाभप्रद है । १० लौहभस्म का (१-२ रत्ती) हरीतकी चूर्ण ( ६ मा ) घृत और ( ८ मा ) मधु से सेवन ।' ११ लौहपात्र में गर्म किये दूध का सेवन । १२ स्वर्णमाक्षिक का १ रत्ती या २ रत्ती मात्रा में गोमूत्र ने सेवन । भेपज योग-पाण्डुरोग मे घुतो के योग सर्वोत्तम माने गये है-इसके लिये हरिद्रा से सिद्ध घृत, दाडिमवीज से सिद्ध घृत, द्राक्षादिघृत, त्रिफलासिद्ध घृत तथा तेन्दुकमिद्ध घृत मे से किसी एक का प्रयोग करना चाहिये । यदि सिद्ध घृत मुलभ न रहे तो वैरेचनिक योगो का घृत के साथ प्रयोग करना चाहिये । अथवा प्रत्येक औपधिको घृत के अनुपान से दे। फलत्रिकादि कषाय-हरीतकी, विभीतक, आमलकी, गिलोय, अडूसा, कुटकी, चिरायता, नीम की छाल । सब समभाग में लेकर जौकुट करले। २ तोले इस चूर्ण को आधा सेर जल मे खौलाकर जव जलकर दो छटाँक शेप रहे, तव ठडा होने पर मधु मिलाकर प्रात सेवन करे ।' यह एक प्रसिद्ध योग पाण्डु तथा कामला दोनो मे लाभ करता है । कामला मे विशेष उपयोगी है । १ साध्यन्तु पाण्ड्वामयिन निरीक्ष्य स्निग्ध घृतेनोर्ध्वमधश्च शुद्ध । सम्पादयेत् क्षौद्रघृतप्रगाढहरीतकीचूर्णमयै प्रयोगः॥ पिवेद् घृतवारजनीविपक्व यत्त्रफल तैन्दुकमेव वापि । विरेचनद्रव्यधृतम् पिवेद्वा योगाश्च वैरेचनिकान् घृतेन ॥ (च) २ फलत्रिकामृतावासातिक्ताभूनिम्बनिम्बई । क्वाथ क्षीद्रयुतो हन्यात् पाण्डुरोगं सकामलम् ॥ २१ भि० सि० Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ भिण्कर्म - सिद्धि लौह तथा मण्डूर के योग- लोह तथा मण्डूर भस्म के बहुत से योग पाण्डु रोग में व्यवहृत होते हैं । स्वतत्रतया भी भस्म का प्रयोग हरीतकी चूर्ण, घी और मधु के ऊपर आ चुका है | यहाँ कुछ सिद्ध योगो के नुस्खे केवल लोह या केवल मगहूर माथ सेवन करने का विधान उद्धृत किये जा रहे है | मण्डूर भस्म -४ रत्ती भण्डूर भस्म मे २ रतीशख भम्म मिलाकर १ मात्रा | श्रुत, मधु, हरीतकी चूर्ण से । - मण्डूर वटक – त्रिकटु, त्रिफला, चव्य, चित्रक, देवदारु, वायविडङ्ग, मुस्तक सम परिमाण मे प्रत्येक लेकर कुल चूर्ण के बरावर मण्डूर भस्म लेकर अष्टगुण गोमूत्र में अग्नि पर चढाकर पाक करे। जब वटक वनने लायक हो तो ६ माझे के वटक बनाले | अग्निवल के अनुसार १ मे २ वटक का दूव से सेवन । ( चरक ) 1 पुनर्नवादि मण्डूर - पुनर्नवामूल, त्रिवृतमूल, गुठी, मरिच, पिप्पली, वायविडङ्ग, देवदारु, चित्रक्मूल, पुष्करमूल, हरड, व्हेरा, आंवला, हल्दी, दारूहल्दी, दन्ती की जड, चव्य, इन्द्रयव, कुटकी, पीपरामूल मोथा - प्रत्येक का एक-एक तोला चूर्ण, चूर्ण के कुल परिमाण में द्विगुण मण्टूरभस्म और मण्ड भस्म के आठ गुना गोमूत्र । अग्नि पर चढाकर पाक करे । जब गाढा हो जाय और गोली वनने लायक हो जाय तव ४ रत्ती की गोलियां वना ले | मात्रा १ मागे । मधु ने दिन में दो वार । यह एक सिद्ध योग है । पाण्डु, कामला, कृमिरोग तथा गोथ रोग मे उपकारक है । (चर ) नवायस लौह - नवायम चूर्ण त्रिकटु, त्रिफला, त्रिमद ( मुस्तक- वायविडङ्गचित्रक) इन नां द्रव्यों में मे प्रत्येक एक एक तोला लेकर महीन चूर्ण वनाले फिर उसमे लोहभम्म कुल परिमाण के बराबर अर्थात् ९ तोले मिलाकर खरल करके रख ले | मात्रा ४ रत्ती । अनुपान १ तोला वृत और तोला मधु मिला कर रोगी को सेवन करावे । यह परम उत्तम योग है । कामला तथा पाण्डु दोनो रोगो में लाभदायक है | ( ना ) निशालौह - ममभाग हरिद्रा, दारु हरिद्रा, त्रिफला तथा कुटको का कपटछन चूर्ण सबके बराबर लोह भस्म अर्थात् ६ तोला मिलाकर महीन खरल कर रख ले। यह योग कामला रोग में विशेष लाभप्रद होता है । मात्रा २ से ४ रत्ती, अनुपान मधु एव वृत (भैर > ✔ विडङ्गादिलौह - वायविडङ्ग, त्रिफला, त्रिकटु प्रत्येक समभाग मे अर्थात् कुल ७ तो चूर्ण में ७ तोरे लौह भस्म मिलाकर बनाया योग । मात्रा २ से Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : दसवॉ अध्याय ३२३ ४ रत्ती। अनुपान घृत, मधु, विशेषत कृमिज पाण्डु या मृज्ज पाण्डु मे लाभप्रद । ( भै र ) योगराज-हरीतको, विभीतक, आमलकी, शुंठी, कालीमिर्च, छोटी पिप्पली, चित्रकमूल, वायविडङ्ग प्रत्येक का १ भाग, शिलाजीत ५ भाग, रौप्य शिलाजीत ५ भाग, सुवर्णमाक्षिक भस्म ५ भाग, लौह भस्म ५ भाग तथा मिश्री आठ भाग। भरमे तथा शिलाजीत छोड अन्य द्रव्यो का चूर्ण करे । पश्चात् उसमे शिलाजीत व भस्मे मिलाकर १, १, माशे की गोलियां बना ले। यदि रौप्य शिलाजतु न मिले तो रोप्यमाक्षिक भस्म ५ तोला अथवा शिलाजीत १० तोला मिला ले । अनुपान १-२ गोली दूध से प्रात (चर ) पाण्डु पचानन रस-लौह भस्म, अभ्र भस्म, ताम्रभस्म प्रत्येक चार चार तोले, त्रिकटु, त्रिफला, दन्तीमूल, चव्य, काला जीरा, चित्रकमूल, दारुहल्दी, हल्दी, त्रिवृत् की जड, मानकद की जड, इन्द्रजौ, कुटकी, देवदारु, बचा और नागरमोथा प्रत्येक का एक एक तोला, मण्डूर भस्म ६२ तोले और मण्डूर से अष्टगुण गोमूत्र छोडकर अग्नि पर पाक करे । जव पाक सिद्ध हो जाय तो उतार कर १-१ मारो की गोली बनाकर रख ले। यह एक उत्तम योग है। इसमे लौह और मण्डर के अतिरिक्त ताम्र मस्म है । जो रक्ताल्पता मे विशेष लाभप्रद रहता है। इस योग का प्रयोग गोथ, कामला, पाण्डु, हलीमक तथा प्लीहा और यकृत् के रोगो में होता है । ( भै र ) आमलक्यवलेह (धात्र्यवलेह)--ताजा आंवले का रस (१२ सेर १२ छटांक ४ तोले ) को कडाही मे छोडकर आग पर चढा दे। मन्द आँच पर पाक करे जब कुछ गाढा होने लगे तब उसमे निम्नलिखित द्रव्यों का प्रक्षेप डाल दे । पिप्पली चूर्ण ६४ तोले, मधुयष्टि चूर्ण ८ तोले, पत्थर पर पीसे मुनक्के को चटनी ६४ तोले, मोठ तथा वशलोचन प्रत्येक का ८ तोले, मिश्री २॥ सेर । जब अवलेह जैसे वन जोय तो अग्नि से नीचे उतार कर ठडा करके उसमे मधु ६४ तोले मिलाकर सुरक्षित रख दे । मात्रा १ से २ तोले । दूध से । ( चर) धात्र्यरिष्ट- (चर) दो सहस्र आंवले के रस मे २॥ सेर चीनी मिलाकर कलईदार कडाही में छोडकर अग्नि पर चढादे । जब एक तरह की चाशनी बनने लगे तब उसमे ८ तोले पिप्पली चूर्ण छोडकर अच्छी तरह से हिला ले । फिर शीतल होने पर अष्टमाश शहद मिलाकर घृतलिप्न मिट्टी के घडे मे रखकर आसवविधि से सचान करे। १ मास के अनन्तर खोलकर छानकर बोतलो मे भर ले । यह योग वल्य, अग्निवर्धक, पित्तशामक होने से परिणाम शूल, पाण्डु, Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ भिषकर्म-सिद्धि कामला तथा हृद्रोग में लाभप्रद रहता है। यह एक परमोत्तम योग है। मात्रा २ तोला भोजन के बाद समान जल मिलाकर । लौहासब--(भा. मं) वृत से स्निग्ध घट मे २ द्रोण ( २६ सेर) जल भर कर उसमे ५ सेर पुराना गुड, मवु ३१ सेर छोडकर भली प्रकार मिला मौर हाथो से मलकर एक कर दे । पञ्चात् उसमें लौह भस्म, त्रिकटु, त्रिफला, अजवायन, वायविडङ्ग, मोथा, चित्रक प्रत्येक का ८ तोला प्रक्षेप। पश्चात् घडे का मुख बंद कर १ मास तक संधान करे। पश्चात् छानकर बोतलो में भर दे। मात्रा २॥ तोले अनुपान समान जल से । दोनो वक्त भोजन के बाद । पाण्ड, कामला, विपमाग्नि में लाभप्रद । पुनर्नवादि तैल-पुनर्नवा पंचाङ्ग का चतुर्यागावशिष्ट क्वाथ, तिल तेल तथा तेल में चतुर्थांश निम्नलिखित कल्क डालकर पाक । त्रिकटु, त्रिफला, शृङ्गी, धान्यक, कट्फल, गटी, दार्वी, प्रियङ्ग, पद्मकाष्ठ, हरेणु, कुष्ठ, पुनर्नवा, यमानी, कलौजी, छोटी इलायची, दालचीनी, लोव, तेजपान, नागकेगर, वच, पीपरामूल, चव्य, चित्रक मूल, माफ, सुगंवबाला, मजीठ, रास्ना, धमामा प्रत्येक एक एक वोला । तैल पाक विधि से मंद यांच पर पाक करके रखले । पाण्डु, कामला, कुम्भ कामला तथा हलीमक मे पिलाने तथा मालिग के लिये। पाण्डु रोग में औपधि-व्यवस्थापत्र उपर्युक्त मोपवि योगो में से किसी एक लौह या मण्डर के योग की १ मात्रा प्रात, तथा १ मात्रा सायंकाल में देनी चाहिये। जैसे मण्डूर भस्म ४ २०, गंख भस्म १ २० मिलाकर एक सुवह और एक शाम केवल मधु से अथवा घृत १ तो० मधु माने के साथ नयवा हरीतकी चूर्ण २ मागे और वृत तथा मधु के साथ मिलाकर दे। इसी भॉति नवायस प्रति मात्रा २ रत्ती मुबह-जाम उपयुक्त अनुपान ने अथवा योगराज या पाण्डु पंचानन रस इसी अनुपान या दूध से सुबह-गाम दिया जा सक्ता है। भोजन के बाद प्रतिदिन लौहासव या कुमार्यासव अथवा वायरिष्ट दोनो वक्त बड़े चम्मच से दो चम्मच पानी मिलाकर पीने के लिये देना चाहिये। मामलक्यवलेह रात्रि में सोते वक्त या प्रात काल मे १-२ तोले दूध के साथ प्रतिदिन दिया जा सकता है। मज्ज पाण्डु यथवा कृमिजात पाण्डु में कृमिघ्न बोपवियों का योग करके भी देना चाहिए । जैसे-कृमिमुद्गर रस ४ २०, मण्डूर भस्म ४ २०, शंन्व भस्म.१ रत्ती मिलाकर । एक या दो मात्रा प्रात सायम् गे और मवु से, मण्ट्रक भस्म के स्थान पर नवायन या पाण्ड पंचानन भी मिलाया जा सकता है (प्रति मात्रा दो से ४ रत्ती)। रात्रि में पलाग-बीजादि Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : दसवाँ अध्याय ३२५ चूर्ण २ मा० रात में सोते वक्त पुराने गुड के साथ । मोजनोत्तर आसवारिष्टो की व्यवस्था की जा सकती है। मांसरस-पाण्डु रोग या रक्तक्षय मे बकरे, भेड या खरगोश के रक्त का पिलाना या आमागय का खिलाना प्रशस्त माना गया है। यदि ये सुलभ हो तो रोगी के लिए इसकी व्यवस्था करनी चाहिए। सामान्य-पथ्यकर भोजनो के साथ यकृत् मास का सेवन अधिक लाभ करता है। रक्तोत्पत्ति की क्रिया को उत्तेजना मिलती है, शरीर में रक्त बढता है और पाण्डुता दूर होती है । ___ आजकल आमाशय सत्त्व तथा यकृत् सत्त्व के कई योग वाजारो मे सुविधा से प्राप्त होते है । पोने के शवंत के रूप मे तथा पेशीमार्ग से सूचीवेध के द्वारा प्रयोग होता है। इन आयुर्वेदीय योगो के साथ इन योगो का प्रयोग अधिक लाभप्रद होता है। इन दोनो के उपयोग मे परस्पर मे कोई विरोध भी नही होता। ___अत्यधिक रक्त की कमी मे रक्त का अत भरण (Blood Transfusion) योग्य मानव-रक्त का शिरा द्वारा शरीर मे प्रबिष्ट करना मी आज को एक सिद्ध प्रक्रिया है। यथासमय इसका उपयोग किया जा सकता है । पाण्डु रोग मे पथ्य-पाण्डु रोग मे मानसिक एवं शारीरिक परिश्रम छोडकर पूर्ण विश्राम करना चाहिए । रोगी को विस्तर पर लेट कर रहना चाहिए। भोजन मे दूध, छाछ, मोसम्मी, माल्टा, सेव, दाडिम, अनार, खरबूजा, मीठानीबू ईख या गन्ने का रस, पके आम का प्रयोग अधिक करना चाहिए। मीठा आम पाण्डु रोग मे अमृत के तुल्य रहता है । अन्नो मे पुराने चावल का भात, मूग की दाल, हल्के शाक देने चाहिए। रोगी के लिए ब्रह्मचर्य से रहना अच्छा रहता है। यह पथ्य कामला रोग मे भी उत्तम रहता है। कामला प्रतिषेध सामान्य या कोष्टाश्रया कामला में क्रियाक्रम-कामला वाले रोगी का घृत ( महातिक्त, त्रिफला, पचगव्य, कल्याण, हरिद्रादि या द्राक्षादि घृत') से स्नेहन करके तिक्त रस वाले द्रव्यो से मृदु विरेचन कराना चाहिए। पश्चात् शामक औपवियो का प्रयोग करना चाहिए । इस प्रकार स्नेहन, विरेचन, पश्चात् शमन तीन उपक्रम कामला की चिकित्सा मे व्यवहृत होते है। कामला के रोगी मे नित्य मृदु विरेचक औपधि का प्रयोग उत्तम रहता है। भेपज-१ त्रिफला चूर्ण का मधु के साथ सेवन, .२ गुडूची स्वरस मे मधु १ रेचन कामलार्तस्य स्निग्धस्यादी प्रयोजयेत् । तत प्रशमननी कार्या क्रिया वैद्यन जानता ॥ (भे र ) कामली तु विरेचनै । ( च०) Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ भिषकर्म-सिद्धि मिलाकर सेवन कराना अथवा गुडूची के कपाय में मधु मिलाकर सेवन ३ दारुहरिद्रा, हरिद्रा चूर्ण या कपाय का मधु के साथ सेवन ४ इन्द्रायण मूल स्वरस ६ मागे या इन्द्रायण की ७ पत्ती के रस का दूध मिलाकर सेवन ५. पतली मूली का स्वरस ४ तोला, शक्कर १ तोला मिलाकर सेवन ६. पुनर्नवा मूल ६ माशे, मरिच ३, मिश्री २ तोला मिलाकर शर्वत बनाकर सेवन । ७ द्रोणपुष्पी ( गूमा) या पुनर्नवा पंचाग के शाक का सेवन । ८. त्रिभण्डी ( निगोथ) मूल अथवा ९. इन्द्रायण मूल ३ मागे अथवा १० शुण्ठी चूर्ण ४ माशे का पुराने गुड के साथ सेवन । पूर्ण विश्राम रोगी को देना चाहिए । __कामला में पथ्य-कामला रोग में यकृत् की क्रिया मढ रहती है । भूख रोगी को बिल्कुल नही लगती, अन्न से अरुचि हो जाती है। साथ ही रोगी का पेट साफ नही रहता और कोप्टबद्धता रहती है। अस्तु चिकित्सा-काल मे लघु, सुपाच्य तथा अग्नि को संधुक्षित करने वाले आहार-विहार की आवश्यकता पडती है । एतदर्थ मू ग की दाल की पतलो खिचडी, नीवू का अचार और मूली की तरकारी सबसे उत्तम अन्न प्रारम्भ मे रहता है। अग्नि-बल के अनुसार रोगी जितना खा सके खाने को देना चाहिए । पित्त के शमन तथा यकृत्-कोपो की सुरक्षा के लिए मधुर द्रव्यो का प्रयोग पर्याप्त करना चाहिए। एतदर्थ मिश्री का उपयोग अच्छा रहता है । रोगी को प्रति दिन छटाँक, दो छटाँक तक मिश्री खाने को देना चाहिए अयवा दिन में कई बार गर्म पानी मे मिश्री का शर्वत बना कर कागजी नीवू का रस डालकर पीने को देना चाहिए । मीठे फलो मे मीठा नीवू, शरवती, मोसम्मी, अंगूर, सेव, नीबू मादि पर्याप्त रोगी को खाने के लिए देना चाहिए । दही का मट्टा बना कर मीठा कर के पीने के लिए भोजन काल मे रोगी को दिया जा सकता है। दूध का अधिक सेवन अनुकूल नही पडता, थोड़ी मात्रा में मलाई निकाल रोगी की रुचि के अनुकूल देना चाहिए। रोगी के अग्निवल के अनुसार गन्ने का रस पीने के लिए दिया जा सकता है। एक सप्ताह या दो सप्ताह तक इस क्रम पर रखने के अनन्तर अग्निवल के बढ जाने पर रोगी को प्राकत आहार चावल या रोटी, दाल, शाक पर ले आना चाहिए । कामला रोग मे पुनर्नवा का उपयोग बड़ा उत्तम रहता है । पुनर्नवा पंचाङ्ग को पानी मे खोला कर उसका जल बना कर रख देना चाहिए और रोगी को पिलाते रहना चाहिए । डाभ का जल या नारिकेल जल का उपयोग भी उत्तम रहता है। भेषज योग-रोगी मे ज्वर हो तो विपमज्वराविकार में कथित सुदर्शन - चूर्ण २ माशे की मात्रा में दिन में तीन बार जल से देना चाहिए । यष्टयादि चूर्ण Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : दसवाँ अध्याय ३२७ ६ मागे की मात्रा मे रात में सोते वक्त गर्म जल से देना चाहिए । कालमेघ कपाय भी उत्तम रहता है। जब ज्वर न रहे ती नवायस या निशादि लौह या पुनर्नवा मण्डूर (पाण्डु रोगाविकार) दो से ४ रत्ती की मात्रा में दो बार दारुहल्दी के चूर्ण १ माशे से २ मागे और मधु ६ माशे से १ तोले मिला कर सुबह और शाम को देना चाहिए। भोजनोपरान्त धान्यरिष्ट का पिलाना उत्तम रहता है । बडे चम्मच से दो चम्मच समान जल मिलाकर दोनो प्रधान भोजन के पश्चात । लोहासव अथवा कुमार्यासव का उपयोग भी इसी भांति किया जा सकता है। फलत्रिकादि कपाय-कामला रोग मे अमृत के समान हितकारी एक या दो बार नित्य काढा बना कर मधु मिलाकर नवायस देने के अनन्तर सहपान के रूप मे या स्वतंत्रतया भी दिया जा सकता है । रोगी रात्रि मे शतपत्र्यादि चूर्ण ६ मागे या यट्यादि चूर्ण ६ माशे ( अग्निमान्द्याधिकार में पठित ) गर्म जल से दिया जा सकता है। त्रिफला चूर्ण का भी प्रयोग रात्रि मे ६ माशे को मात्रा मे किया जा सकता है। रस के योगो मे आरोग्यवर्धिनी १ माशे की मात्रा मे जल या दूध से दिया जा सकता है। आरोग्यवर्धिनी वटी-द्रव्य-शुद्ध पारद, शुद्ध गधक, लौह भस्म, अभ्रक भस्म, ताम्र भस्म प्रत्येक का एक भाग, हरीतकी, विभीतक, आमलकी प्रत्येक का २ भाग, शिलाजीत ३ भाग, शुद्ध गुग्गुल, चित्रक मूल की छाल प्रत्येक ४ भाग तथा कुटकी २२ भाग । निर्माण विधि-पहले पारद और गधक की कज्जली करके पश्चात् उसमें अन्य भस्मे और शेप अन्य द्रव्यो का कपडछन चूर्ण मिलावे । नीमकी पत्ती के रस मे तीन दिनो तक मर्दन करके तीन-तीन रत्ती की गोलियाँ बनावे । छाया में सुखाकर रख ले । मात्रा १ से ३ गोली । अनुपान रोगानुसार जल, दूध, पुनर्नवा कपाय, दशमूलकषाय या मूत्रलकषाय से । (रसरत्नसमुच्चय कुष्ठाधिकार) यह योग बहुत रोगो मे अनुपान भेद से चलता है। विशेषत यकृत विकार, जीर्ण विवव, उदररोग, कुष्ठ रोग, कामला, यकृत्प्लीहा के रोगो मे लाभप्रद पाया गया है। अजन-द्रोणपुष्पी स्वरस अथवा पुननवा स्वरस का अजन आँख के पीलापन को नष्ट करता है। निशाद्यंजन-हरिद्रा, गैरिक तथा आँवले को चिकने पत्थर पर पानी में घिसकर अजन करने से भी कामला रोग मे नेत्र का पीलापन दूर होता है। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ भिपकर्म-सिद्धि नस्य -- कर्कोट (क्कोडा या खेखसा ) की जडको पानी मे भिगोकर अथवा कडवी तरोई के सूखे फल को रात मे पानी मे भिगोकर दूसरे दिन उसको छान कर वनाये जल ( शीत कपाय ) का नासिका में छोडने से नामिका से तीव्र पीलास्राव होता है और नेत्र का पीलापन दूर होता है ।" वस्तुत कामला रोग यकृत् की क्रिया ठीक न होने से अथवा वित्तागय गोथं या पित्तके अवरोव अथवा पित्त के अधिक बनने से उत्पन्न होता है । अग्निमान्द्य, अरुचि, तीव्र विवध तथा आँखो का पीलापन प्रमुख लक्षण पाया जाता है । सम्यक् उपचार होने पर सामान्यतया रोग एक सप्ताह में अच्छा हो जाता है। रोगी की अग्नि जागृत हो जाती है- भोजन करने लगता है । विविध लक्षण प्रशमित हो जाते हैं परन्तु आंखों का पीलापन मास या डेढ़ मास तक चलता रहता है | यह पीलापन धीरे-धीरे दूर होता है । इस पीलापन को दूर करने के लिये कई प्रकार के झाड फूंक, विविध नस्य तथा अजनो के उपयोग पाये जाते है । नस्य तथा अजन के प्रयोग आँखो के पीलेपन को शीघ्रता से दूर करने मे महायक होता है । फलत नस्य और अजनो के साथ-साथ पित्तकी अधिकता को कम करने के लिये, पित्ताशय शोथ एव पित्तावरोध के दूर करने के लिए तथा यकृत् क्रिया सुचारु रूप से संचालित करने के लिये मुख से आभ्यन्तर औषधि के प्रयोगो को चालू रखना चाहिये । क्योकि प्रधान उपचार यही है - नस्य एवं अजन गौण उपचार हैयदि अजन या नस्य का प्रयोग न भी किया जाय तो भी मुख से ओपवियोग का प्रयोग करते हुए एक से तीन या चार सप्ताह मे कामला का रोगी पूर्णतया रागमुक्त हो जाता है । D -- शाखाश्रित कामला प्रतिपेध - कामला शुद्ध पैत्तिक रोग है अतएव उसमे पित्तविरुद्ध चिकित्सा का उपक्रम बतलाया गया है । क्लिनिकल दृष्टि से देखा जाय तो इसके दो प्रकार मिलते है १ जिसमे सम्पूर्ण मूत्र, नख, त्वचा-नेत्र रक्त के रजित होते हुए भी पुरीप ( पाखाना ) रोगी का हवेत वर्ण ( तिलके पिष्ट सहरा ) निकलता है । १ दूसरा वह प्रकार जिसमे सभी त्वचा रक्त-नेत्र आदि के पीलापन के साथ पाखाने का रंग अत्यधिक रजित होकर काला जाता है। इनमे प्रथम को शाखाश्रित और दूसरे को कोष्ठाश्रित (Haemolytic or Hepatic ) कहते है । प्रथम स्वतंत्रतया तथा दूसरा पाण्डु रोग के अनन्तर रक्तनाश के उपद्रव स्वरूप होता है । १ अंजनं कामलार्तस्य द्रोणपुष्पीरस स्मृतः । निशागैरिकधात्रीणा चूर्णं वा सप्रकल्पयेत् ॥ नस्य कर्कोटमूल वा प्रेय वा जालिनीफलम् ॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : दसवाँ अध्याय ३२६ इनमे शाखाश्रया निश्चित रूप से पित्त नलिका के अवरोध से उत्पन्न होती है जिसमे पित्त का पित्त-नलिका के द्वारा अन्त्र मे उत्सर्ग नही होता है ( obstructirre jaundice) फलत पुरीष का रग श्वेत होता है। इसको शाखाश्रित कामला कहते है। इसमे कुपित कफयुक्त वायु कोष्ठस्थ पित्तको शाखा मे प्रक्षिप्त कर देती है अत कोष्ठ मे श्लेष्मा की वृद्धि होती है, पित्त का मार्ग कफ से रुद्ध हो जाता है और पुरीप तिलपिटवत् श्वेत होकर निकलता है और मत्र, त्वचा हल्दी के रग के हो जाते है अत वायु एवं कफ के शमन, अग्नि के दीपन, कफ के पाचन तथा पित्त को कोष्ठ मे लाने का उपाय करना चाहिये तदनन्तर कोष्ठाश्रया कामला की चिकित्सा पूर्वोक्त करनी चाहिये । १ गासाधित कामला को अल्पपित्ता कामला भी कहते है। इसमे पित्त कफ से आवत रहता है अस्तु कफ के पाचन तथा वायु को अनुगुण कर के पुरीप मे पित्त का रग आने पर्यन्त कटु-तीक्ष्ण-उष्ण-रूक्ष-लवण और अम्ल पदार्थों का सेवन कराना चाहिए। पित्तको स्वस्थान ( कोष्ठगत ) पर आ जाने, पुरोप के पित्त से रजित हो जाने सथा उपद्रवो के गान्त हो जाने पर कामला की पूर्ववत् सामान्य चिकित्सा करनी चाहिये । अर्थात् कोष्ठाश्रित कामलावत् चिकित्सा करनी चाहिये । शाखाश्रया कामला के ये विशिष्ट उपक्रम है ।२।। पित्त को स्वस्थान पर लाने के लिये मयूर, तित्तिर एव मुर्गे के मासरस को कटु-अम्ल और रूक्ष बना कर रोगी को खाने के लिये देना चाहिये। सूखी मली, कुलथी की यूप के साथ अन्न का सेवन कराना भी उत्तम रहता है। मातुलुङ्गादि योग-(विजौरा या कागजी ) नीबू का रस ६ माशे, मधु ६ माशे, पिप्पली चूर्ण ४ रत्ती, कालीमिर्च चूर्ण ४ रत्ती, शुण्ठी चूर्ण ४ रत्ती एक मे मिलाकर दिन में तीन बार सेवन । इन द्रव्यो के उपयोग से पित्त अपने कोष्ठगत आशय मे पुन आ जाता है । १ तिलपिष्टनिभ यस्तु वर्च सृजति कामली । श्लेष्मणा रुद्धमार्ग तत् पित्त श्लेपमहरैर्जयेत् । २ कटुतीक्ष्णोष्णलवर्ण शाम्लैश्चाप्युपक्रम । आपित्तरागाच्छकृतो वायोश्चाप्रशमाद् भवेत् ।। स्वस्थानमागते पित्ते पुरीपे पित्तरजिते । निवृत्तोपद्रवस्य स्यात् पूर्व कामलिको विधि ॥ ३ बहितित्तिरदक्षाणा रूक्षाम्ल कटुकै रस । शुष्कामलककौलत्थैर्यर्षश्चान्नानि भोजयेत् ।। मातुलुगरस क्षौद्र पिप्पलोमरिचान्वितम् । सनागर पिवेत् पित्त तथास्यति स्वमाशयम् । (च चि १६) Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० भिषकर्म-सिद्धि उपर्युक्त सभी द्रव्य कमहर परन्तु पित्तवर्द्धक है-गाखात्रय दोप-पित्त की वृद्धि कराने का उद्देश्य कोष्ठानयन अर्थात् पित्त का स्वस्थानानयन के अतिरिक्त और कुछ नही है। आचार्य मुश्रुत ने लिखा है दोपो का स्वस्थानानयन वृद्धि मे, अभिष्यंदन , पाक होने से, स्रोतोमुख के विगोधन से तथा वायु के निग्रह । मे (गाखागत दोप शाखामओ को छोडकर स्वस्थान अर्थात् कोष्ट मे मा जाते है ) सभव रहता है ।' पश्चात् कामला की सामान्य चिकित्सा करते हुए रोगी की रोगमुक्त करना चाहिये। शाखाश्रित कामला का चरकोक्त वर्णन-हक्ष, गीत, गुरु-स्वादु व्यायामाविक्य एवं वेगो को रोकने से कफ से मिल कर वायु पित्त को अपने स्थान ( कोट ) से खीचकर वाहर को गाखामो मे मचालित कर देता है जिसमे रोगी की त्वचा-रक्त-नेत्र-मत्र हारिद्र वर्ण (हल्दी के रंग ) के हो जाते है और पाखाने का रंग सफेद ( श्वेत ) हो जाता है। रोगों के उदर मे सुई चुभाने जैसी वेदना, विवध, मा०मान, अफारा, हृदय का भारीपन, दुर्वलता, अग्नि की मदता, पागल (दाहिनी ओर यकृत प्रदेश पर पीडा या स्पर्शासह्यता (Tenderness ), अन्न में अरुचि, ज्वर आदि लक्षण क्रमग रोगी में पैदा हो जाते है । अल्प पित्त के गासा-समाधित होने पर ये लक्षण रोगी में उपस्थित रहते है। कुम्भकामला-प्रतिपेध-कामला की एक जीर्णावस्था है जिसमें रोगी के पैरो पर गोथ और सविगूल का उपद्रव पैदा हो जाता है। फलत. यह कामला की अपेक्षा अधिक कष्टमान्य हो जाता है 13 इसमें रोगी को लवणवयं आहारदूध और रोटी पर रखना चाहिये । इसमे कोष्ठाश्रया कामला को सम्पूर्ण चिकित्सा करनी चाहिये । इसमें अधिक से अधिक पुराने मण्डूर को भस्म बना कर बडी मात्रा-१ मागा की मात्रा दिन में तीन वार मधु के साथ सेवन करने के लिये देना चाहिये। साथ ही फलत्रिकादि कपाय को एक-दो वार दिन में पीने के लिये देना चाहिये। १ वृद्ध्याभिज्यदनात् पाकात् स्रोतोमुखविगोधनात् । गाखा मुक्त्वा मला कोष्ठ यान्ति वायोश्च निग्रहात् । २ क्षगीतगुरुस्वादुव्यायाम।गनिग्रह । कफसम्मूच्छितो वायु. स्थानात् पित्त क्षिपेली। { मुसू २८) हारिद्रनेत्रत्वकश्वेतवर्चास्तदा नरः । भवेत्साटोपविष्टम्भो गुरुणा हृदयन च । दीर्वत्या पाग्निपार्वात्तिहिवकारवासारुचिज्वरै । क्रमेणारपेनुसज्येत पित्ते गाखासमाश्रिते ।। (च चि १७) ३ भेदस्तु तस्या खलु कुम्भसाह्व. गोथो महास्तत्र च पर्वभेदः (सु ) Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : दसवॉ अध्याय हलीमक-प्रतिपेध-कामला का ही एक बढा हुआ रूप हलोमक होता है। इसमे बात और पित्त दोपो की अधिकता पाई जाती है। रक्त मे पित्त के अत्यधिक होने से रोगी मे असाध्यता के लक्षण व्यक्त होने लगते है। रोगी का वर्ण हरित, श्याव या पीतवर्ण का हो जाता है । अग्नि मद हो जाती है, मृदु स्वरूप का ज्वर बना रहता है, अरुचि, आलस्य, रोगी का बल और उत्साह क्षीण हो जाता है, स्त्रियो मे अहर्ष, अगमर्द, श्वास, तृष्णा, भ्रम और मूर्छा प्रभृति उपद्रव होने लगते है। इसी रोग को आचार्य सुश्रुत ने लाघवक या लाघरक अथवा अलमनाम से वर्णन किया है। सभवत अर्वाचीन विद्वानो के द्वारा वर्णित पित्तमयता (Cholaemia) की यह अवस्था हो । इस रोग को चरक ने "महाव्याधिहलीमक " बतलाया है। __इसमे वात-पित्त-शामक पाण्डु तथा कामला रोग की चिकित्सा करनी चाहिये। एतदर्थ गुडूची स्वरम और क्षीर से सिद्ध माहिप ( भैसका ) घृत का सेवन कराना चाहिये । निगोय या आमलका का स्वरम पिलाकर उपर्युक्त घृत से स्निग्ध रोगी को मृदु विरेचन कराना चाहिये । पुन. विरेचन के अनन्तर वात-पित्तशामक मधुरप्राय योगो का सेवन कराना उतम रहता है। जैसे अभयालेह, द्राक्षालेह, मा:कारिष्ट (द्राक्षारिष्ट), जीवनीय गण से सिद्ध घृत आदि का सेवन कराना चाहिये। अग्नि की वृद्धि के लिये अन्य अरिष्टो का भी प्रयोग उत्तम रहता है। कास-- रोगाधिकार मे कथित अभयावलेह जिसको अगस्त्य हरीतकी कहते है एक उत्तम योग है, पिप्पली तथा मधुष्टि का उपयोग भी इस अवस्था मे उत्तम रहता है। अस्तु, इनका प्रयोग दोष और रोगी के वलानल के अनुसार दूध के अनुपान से करना चाहिये । रोगी मे क्षीरवस्ति, यापना वस्ति ( सिद्धिस्थानोक्त ) अथवा अनुवासन वस्ति का प्रयोग लाभप्रद रहता है।' इस अवस्था मे सहस्रपुटी लौह का अथवा अधिक से अधिक पुट दी हुई लौह भस्म का प्रयोग १ रत्ती की मात्रा मे दिन मे तीन वार मधु से करना चाहिये । दूध और शर्करा का अनुपान पर्याप्त मात्रा मे करना चाहिये । १ गुडूचीस्वरसक्षीरसाधित माहिप घृतम् । स पिबेत् त्रिवृता स्निग्धो रसेनामलकस्य तु । विरिक्तो मधुरप्राय भजेत् पित्तानिलापहम् । द्राक्षालेह च पूर्वोक्तं सर्पोपि मधुराणि च । यापनान् क्षीरवस्तीश्च शीलयेत्सानुवासनान् । मा-कारिष्टयोगाश्च पिवेद्य क्त्याग्निवृद्धये । कासिक चाभयालेहं पिप्पली मधुक वलाम् । पयसा च प्रयु जोत यथादोप यथावलम् । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवा अध्याय रक्तपित्त-प्रतिपेध प्रावेशिक-रक्तपित्त एक महारोग है चरकाचार्य ने उसको महागद की सजा दी है । वस्तुत बहुत उष्ण-तीक्ष्ण-क्षार-अम्ल-कटु-लवण, अधिक परिश्रम, धूप या अग्नि के सेवन प्रभृति पित्त-प्रकोपक कारणों से पित्त जव वढकर रक्त मे मिलकर उसे भी दूपित कर देता है तब वह पित्तदूपित रक्त शरीर के विविध कारो से ऊपर या नीचे या दोनो ओर से गिरने लगता है। इस रोग को रक्तपित्त ( Bleeding or Haemorrhage) कहते है। रक्तपित्त का तात्पर्य यह है कि इसमें रक्त का संयोग, रक्त की दुष्टि, रक्त के गध एवं वर्ण की समानता पित्त के साथ पाई जाती है अस्तु इस व्याधिको रक्तपित्त कहते है। यह वातिक, पैत्तिक, ग्लैष्मिक, दो दो दोपो के द्वारा द्वंद्वज तथा तीनो दोपा से सान्निपातिक प्रकार का होता है। चिकित्सा की दृष्टि से या अधिक व्यावहारिक पक्ष से विचार किया जाय तो रक्तपित्त को तीन प्रकारो मे विभजित करना पर्याप्त है। १. ऊर्ध्वग ( ऊपर की ओर से--सप्त छिद्रो से दोनो आँख, दोनो नाक, दोनो कान तथा मुख से निकले वाला रक्त-त्राव । २ अयोग नीचे के दो मार्ग-गुवा एव लिग से पुरुपो में गुदा और योनि से स्त्रियो में पाया जाने वाला रक्तस्राव । ३ उभयग या दोनो मार्गो या सम्पूर्ण त्वचा से निकलने वाला रक्त । उन मे ऊर्ध्वग रक्तपित्त में कफ का अनुबंध, अधोग मे बात दोप का अनुवध तथा उभयग या दोनो मार्ग में प्रवृत्त होने वाले रक्तपित्त में कफ तथा वात दोनो दोपो का अनुबंध पाया जाता है। साच्यासाध्यता की दृष्टि से विचार करें तो ऊर्ध्वग रक्तपित्त साध्य, अधोग याप्य तथा दोनो मार्ग अर्थात् ऊपर-नीचे दोनो ओर से प्रवृत्त रक्तपित्त असाध्य होता है। इसी प्रकार एकदोपानुग रक्तपित्त साध्य, द्विदोपज कृच्छ्रसाध्य तथ त्रिदोषज अमाध्य होता है । जीर्णकालीन रोग से क्षीण हुए व्यक्ति का अथवा वृद्ध का अथवा लम्बे उपवासके अनन्तर होने वाला रक्तपित्त भी असाध्य होता है। जब रक्तपित्त एक मार्ग तक ही सीमित हो, रोगी बलवान् हो, रोग नया हो रक्तस्राव का वेग बहुत तीन न हो, रोगी मे उपद्रव न हो और ऋतु या काल भी अनुकूल हो तो ऐसा रक्तपित्त रोग मुखसाध्य होता है अर्थात् सुविधा पूर्वक ठीक किया जा सकता है। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ चतुर्थ खण्ड : ग्यारहवाँ अध्याय सामान्य क्रियाक्रम नादौ स्तम्भनमर्हति - यदि रोगी बलवान् है, खाता-पीता हैं तो उसके गिरते हुए रक्तपित्त को प्रारंभ मे रोकना न चाहिये । क्योकि प्रारंभ मे आम दोष ( Toxins ) या दूपित पित्त गिरता है उसका गिर जाना ही ठीक रहता है । अस्तु, प्रारंभ मे रोगी का वल एव रोग मे दोप का वल देखते हुए रक्तस्राव की उपेक्षा करनी चाहिये । पैदा प्रारंभ में ही रक्तपित्त का स्तंभन कर देने से अंतविषमयता रोगी मे बढ़ती है और उसके परिणामस्वरूप गलग्रह, पूतिनस्य, मूर्च्छा, अरुचि, ज्वर, गुल्म, प्लीहा, आनाह, किलास, मूत्रकृच्छ्र, कुछ, अर्श, विसर्प, वर्णनाश, भगन्दर, बुद्धि तथा इन्द्रियो का घात-प्रभृति रोग उपद्रव रूप मे हो जाते है । अत: वल और दोप का विचार करते हुए बलवान् रोगी के रक्तपित्त को प्रारंभ में ' गिरने देना चाहिये । जव आम दोपमय पित्त निकल जावे तव शोधन अथवा सगमन की चिकित्सा करते हुए चिकित्सा करे । ऐसा करने से शीघ्र रोग निवृत्त हो जाता है ।" लंघन अथवा संतर्पण - मार्ग, दोपका अनुबंध, हेतु आदि का विचार करते हुए रक्तपित्त मे यथावश्यक लघन ( अपतर्पण ) या सतर्पण कराना चाहिये । रक्तपित्त ऊर्ध्वग है या अधोग ? अर्थात् कफानुवधी है या वातानुबधी ? अर्थात् उप्ण और स्निग्ध पदार्थ के सेवन से उत्पन्न है अथवा उष्ण रूक्ष पदार्थों के सेवन से ? इन बातो का विचार करके लघन या सतर्पण क्रमो का रोगी में अनुष्ठान करना चाहिये । यदि रक्त-पित्त ऊर्ध्वग है तो उसमे कफ का अनुवध पाया जाता है, स्निग्ध तथा उष्ण पदार्थो के सेवन से पैदा हुआ है, इसमे आम की अधिकता रहती है अस्तु ऊर्ध्वग रक्तपित्त में प्रारभ मे अपतर्पण या लघन कराना चाहिये । इसके विपरीत रक्तपित्त अधोमार्ग से प्रवृत्त है तो उसमे बात अनुवध है और वह उष्ण एव रूक्ष द्रव्यो के सेवन से पैदा हुआ है, इसमे आम की कमी रहती है । तर्पण या बृहण चिकित्सा क्रम का अनुष्ठान युक्तिसगत रहता है । इस अस्तु, कथन का सक्षेप मे निष्कर्ष यह है कि ऊर्ध्वग रक्तपित्त मे आमको प्रबलता रहती है । अस्तु, लंघन कराना चाहिये तथा अधोग रक्तपित्त मे आम की कमी १ अक्षीणबलमासस्य रक्तपित्त यदश्नत । तद्दोषदुष्टमुत्क्लिष्ट नादो स्तम्भनमर्हति ॥ हृत्पाण्डुग्रहणी रोगप्लीहगुल्मोदरादिकृत् । तस्मादुपेक्ष्य वलिनो बलदोपविचारिणा ॥ रक्तपित्त प्रथमतः प्रवृद्ध सिद्धिमिच्छता । ( च चि. ४ ) Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ भिपकर्म-सिद्धि रहती है। वायु को प्रवलता रहती है। अस्तु, पेयादि के द्वारा उसमे वृहण या मतपण कराना चाहिये । १ पेयजल-रक्तपित्त के रोगी में तृष्णा के शमन के लिए होवेर-चंदनउगीर-मुस्तक और पित्तपापडे मे शृत जल अथवा केवल श्रृत-शीत जल पीने के लिए देना ( खोलाकर ठडा किया जल) चाहिये ।२ विदारिगंधादिक मे शृतगीत जल अथवा पर्याप्त मात्रा मे फलो के रस देने चाहिये । संशोधन-वमन अथवा विरेचन-ऊर्ध्वग रक्तपित्त मे प्रारभ मे एक दो वक्त उपवास कराके तर्पणकरा के विरेचन औपधियो का प्रयोग करना चाहिये। अधोग रक्तपित्त मे विना उपवास कराये प्रारभ से ही पेयादि देकर वमन कराना चाहिये । काल, मात्म्य, दोपानुवध और रोगी को प्रकृति आदि का विचार करते हुए यथायोग्य तर्पण और पेयादि का योग देना चाहिये । रक्तपित्त की चिकित्सा विपरीत मार्ग से दोपो के हरण का विधान है। ___अर्थात् अर्ध्वग रक्तपित्त मे विरेचन तथा अधोग रक्तपित्त मे वमन के द्वारा मे गोवन करना चाहिए। ____ऊचंग रक्तपित्तमें तर्पण के लिए निम्नलिखित द्रव्यो का प्रयोग करना चाहिए । जैसे ? पिण्ड खजूर, मुनक्का, महुवे का फूल या फालसा के फल का पडङ्ग परिभापा के यनुमार जल पकाकर ठण्डा करके शक्कर मिलाकर देना चाहिए। २ धान के खोल के सत्तू में घी और मधु मिलाकर पानी में घोल कर पिलाना । ३ जल के स्थान पर पूर्वोक्त फलोदक मे सत्तू को घोल कर पिलाना । ४ यदि अग्निमंद हो, भोजन मे अरुचि हो, अम्ल अनुकूल पडता हो तो खट्टा अनारदाना या आमलकी का चूर्ण मिलाकर तर्पण जलो या रसो को दिया जा सकता है । ५ विविध प्रकार के फलरम, मिश्री का पानी ( Glucose Water ) तथा १ मार्गी दोपानुबधञ्च निदान प्रसमीक्ष्य च । लंबन रक्तपित्तादी तर्पणं वा प्रयोजयेत् । प्रायेण हि समुत्किलप्टमामदोपाच्छरीरिणाम् । वृद्धि प्रयाति पित्तामृक् तस्माल्लघनमाचरेत् । २ होवेरचदनोगीरमुस्तपर्पटक शृतम् । केवल शृतगीतं वा तोयं दद्यात् पिपासवे। ३ अर्ध्वगे तर्पण पूर्व कर्त्तव्यञ्च विरेचनम् । प्रागयोगमने पेया वमनञ्च यथावलम् । (चर चि ४) ४. प्रतिमार्गञ्च हरण रक्तपित्ते विधीयते । (नि० २ च०) Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ चतुर्थ खण्ड : ग्यारहवाँ अध्याय मोसम्मी, अगूर, सेव प्रभृति फलो के रस ( Fruit juice ) इस कार्य मे व्यवहत हो सकते है । ६ ऊर्ध्वग रक्तपित्त मे यवागू हितकर नही होती है ।। ___ तर्पण देने के अनन्तर रेचन के लिए अमलताश की गुद्दी, आँवला, निशोथ अथवा बडे हरे का काढा शक्कर और मधु मिलाकर प्रात: पिलाना ऊवंग रक्त'पित्त में रेचन करता है। इस प्रकार ऊध्वंग रक्तपित्त मे लघन, तर्पण और रेचन के द्वारा प्रारभिक चिकित्सा करनी चाहिए। अधोग रक्तपित्त मे प्रारभ से ही पेया का प्रयोग करना चाहिए तदनन्तर वामक ववाथ पिलाकर वमन कराना चाहिए । पेया का निर्माण निम्न द्रव्यो के जल मे पका कर पुराने चावल या साठी के चावल का बनाना चाहिए । रोगी के अग्निबल के अनुनार पतला ( मण्ड), अर्ध द्रव (पेया) या अल्पद्रव ( विलेपी) बना कर देना चाहिए । दालो मे मूग या मसूर का योग करके कृशरा भी बनाई जा सकती है। कमल तथा नीलोत्पल को केशर, पृश्निपर्णी, फूल प्रियगु, चदन, उगीर, लोध्र, चिरायता, धातकी पुष्प, यवासा, विल्व, वला और शुण्ठी प्रभृति औपधियो से पापानीय विधि से जल बनाकर उसमे चावल, दाल आदि का पाक करके पेया बनानी चाहिए । इस पेया का प्रयोग ठडा करके उसमे घृत और मधु मिलाकर सेवन के लिए देना चाहिए। मामसात्म्य व्यक्तियो को कपोत के मासरस के साथ पेया सिद्ध करके दी जा सकती है। पेया के अनन्तर रोगी को मोथा, इन्द्रजौ, मुलैठी और मैनफल सम भाग मे ले कर कपाय मिलाकर वमन कराना चाहिए अथवा चीनी का गाढा शर्वत प्रचुर मात्रा मे पिलाएर अथवा इक्षुरस पेट भर पिलाकर वमन कराना भी प्रशस्त है। इस प्रकार अधोग रक्तपित्त मे प्रारभ से ही अन्न ( पेया ) देकर वमन कराना ‘चाहिए । यह सशोधन की चिकित्सा बलवान रोगियो के लिए है। जिनमे रक्त, मास और बल क्षीण न हो, दोपो की प्रबलता हो और रोग सतर्पणजन्य हो और 'जिनमे कोई उपद्रव न हो। ऐसे रोगी मे दूषित रक्त तथा पित्त का निर्हरण करना आवश्यक हो जाता है और ऊर्ध्व भाग के दोपो का हरण विरेचन से तथा अधो भाग का दोपहरण-वमन के द्वारा कराना चाहिए। १ वक्ष्यते बहुदोपाणा कार्य बलवता च यत् ।। अक्षीणबलमासस्य यस्य सतर्पणोत्थितम् ॥ बहुदोप बलक्तो रक्तपित्त शरीरिण । काले सशोवनार्हस्य तद्हरेन्निरुपद्रवम ॥ विरेचनेन भागमधोग वमनेन च । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि संशमन-जिस रोगी का बल-माम बहुत क्षीण हो गया हो, जो चिन्ताशोक-कार्याधिक्य, अतिपरिश्रम, वोझ अधिक ढोने या रास्ता अधिक चलने से दुर्वल हो अथवा जो अग्नि (भट्ठी पर काम करने वाला) तथा सूर्य-मताप से मतप्त हो, अथवा दूसरे किसी रोग से पीडित रहा हो और उपद्रव रूप मे रक्तपित्त का रोग पैदा हुआ हो अथवा गर्भिणी, वृद्ध, वाल, रूस, अल्प और सीमित भोजन करने वाला व्यक्ति हो ( under nourished ) अथवा अन्य किसी कारण से रोगी को अवम्य ( न वमन देने लायक ) यद्वा अविरेच्य (न विरेचन देने योग्य) समझा गया हो अथवा गोप का अनुबंध रोगी में पाया जावे तो उसमें सशोधन न देकर मगमन की क्रिया प्रारंभ मे करनी च हिए । सगमन का अर्थ यहाँ पर रक्तस्तभक योगो के प्रयोग से है। सामान्यतया पहले दोपो के सगोधन के अनन्तर ही सगमन का विधान है। परन्तु आत्ययिक अवस्था में ( Incases of emergency ) जिनका ऊपर मे उल्लेख हो चुका है संगमन के कर्म से चिकित्सा का प्रारभ करना चाहिए । निदान परिवर्जन-रक्तपित्त की उत्पत्ति मे कारणभूत पदार्थों का पूर्णतया परित्याग करना चाहिए । साथ ही निम्नलिखित आहार-विहार या अन्न-पान का अनुष्ठान करना चाहिए। अपथ्यो में कुलथी, गुड, वैगन, तिल, उडद, सरसो, राई, दही, बार, लवण, लहसुन, मद्य, सेम, पान, अम्ल एवं विदाही पदार्थ, गर्म ममाले, विरुद्ध भोजन, मछली, क्रोच करना, धूप या आग का सेवन, मैथुन, स्वेदन, धूमपान, मूत्र-पुरीपादि वेगो को रोकना, भार वहन, अध्वगमन, व्यायाम, परिश्रम, पैदल या तेज सवारी मे चलना प्रभृति पदार्यो का परिहार करना चाहिए। आहाराचार-रक्तपित को चिकित्मा मे याहार ( अन्न-पान ), माचार ( विहार ) का बहुत वडा महत्त्व है। प्रधान भोजन में पुराना गालि या साठी का चावल, कोदो, सावा, कगुनी, तिन्नी का चावल, साबूदाना प्रभृति अन्नोका मोदन देना चाहिये। ये परम ग्राही एव लघु अन्न है। दाल के लिए मूग, ममूर, चना, मोठ या अरहर प्रयोग करना चाहिये । इनमे मसूर की दाल लघु और ग्राही होने से तथा मूंग की दाल लघु और शीतवीर्य होने की वजह से अधिक उत्तम पडती है । गाक में लौकी, परवल, भिण्डी, गूलर, वश्रुवा, केला, कचनार १ वलमासपरिक्षीण गोकभाराबकशितम् । ज्वलनादित्यसतप्तमन्यैर्वा क्षीणमामय ॥ गर्भिणी स्थविर बालरुक्षाल्पप्रमितागनम् । अवम्यमविरेच्यं वा यं पश्येद्रक्तपित्तिनाम् ॥ गोपेण सानुबन्ध वा तस्य मगमनी क्रिया । गस्यते रक्तपित्तस्य पर साऽथ प्रवक्ष्यते । (च चि. ४) Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ग्यारहवाँ अध्याय ३३७ में फल, लक्ष (पाक के फोपल), सेमल के फूल, चौलाई, नीम को कोमल पत्ती, मागड, पतलो मूली, पलाण्ड, बेत के कोमल पत्र और गाम्भारो के फलफरया पा चाक उत्तम रहते है । इन गाको को घी मे भून कर नमक मिला पर अनारदाने या बनार में कुछ पट्टा करके ( यदि सट्टा रोगी को प्रिय हो तो) देना चाहिये। मानसात्म्य व्यक्तियों में जाङ्गल पशु-पक्षियो के मासरस जैसे पारावा, फपोत (बूनर), हिरन, सरगोश, लवा, बत्तस, वटेर, तीतर आदि या नष्ट मन्यवयुक्त मामरस देना चाहिये । मागमात्म्य व्यक्तियो में रक्तपित्त को अवस्था में विबंध हो तो वथुवे के रन मे सरगोश के मान को पका कर दे। वात की उल्वणता हो तो उदुम्बर (गुलर) के रस में पकाये तित्तिर का मासरस देना चाहिये । अथवा पाकड़ के कपाय में पकाये मयूर का माम अथवा बरगद के फल या शुग के रस मे पकाये मुर्गे का मास अथवा नोलोफर या कमल के रस में पकाये वटेर का मास देना चाहिये। दूध मे गाय या बकरी का दूध पथ्य होता है। माहिप घृत या गोघृत, मपवन उत्तम रहता है। फलो में आंवला, सजूर, वेदाना, अनार, मुसम्मी, मोठा संतरा, नेव, केला, फालसा, सिंघाडा, कसेरा, सौफ, कमलनाल (विस ), कमलगट्टा, मोठा अगूर, मुनक्का, किशमिश, ताड का फल, नारिकेल जल ( डाव फा पानी), ईस या गन्ने का रस, मिश्री, चीनी का उपयोग उत्तम रहता है। ___ आचार या विहार-रोगो को पूर्ण विश्राम देना चाहिये । रोग-काल में भूमिगृह ( तहखाने ), धारागृह (जिस घर के छत पर जल की धारा गिर रहो हो), हिमालय (ठडे स्थान पर) अथवा दरोगृह (पर्वत की ऐसी कदरा जहा निर्सर या प्रपात हो), शीतल उपवन, शोत स्थान या जलाशय जैसे किसी वडी नाव-तली में जो भाग जल में डूबा रहता हो रोगो को रखने की व्यवस्था करनी चाहिये। अवगाहन या ठडे जल का स्नान, शीतल वायु के सेवन, चन्दन-रक्त चदनपुण्डरीक-कमल-नोलोत्पल प्रभृति शीतल द्रव्यो को पीस कर लेप, पुष्करिणी की कीचड का लेप, मनोनुकूल तथा हर्पप्रद कथा-सगोत प्रवचन, सोने और बैठने के लिए मनोनुकूल गय्या उस के ऊपर कमल पत्र पुष्प का विछौना या केले के पत्ते का बिछौना, पद्म और उत्पल की ठडी हवा, मुक्ता-वैदूर्य प्रभूति मणिभाजनो को जल से 2डा करके स्पर्श करना या माला रूप मे धारण या अन्य सुगधित पुष्पो की माला, चादनी का सेवन, नौका-विहार, प्रियङ्गु, चन्दन आदि से दिग्ध शरीर-वराङ्गनावो का स्पर्श प्रभृति वाह्योपचार रक्तपित्त मे लाभप्रद २२ भि०सि० Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ भिपक्कम-सिद्धि रहते है। उन उपवारो से रक्त का स्तम्भन तथा रक्तनागजन्य दाह की शान्ति होती है। रक्तपित्त में संशमनोपचार या भेपज--रक्तपित्त मे वासा ( अटूमा) एक प्रमुख मीपधि के रूप में व्यवहृत होता है । लिखा है “अडूसा की विद्यमानता में और जीवन की आशा रहने पर रक्तपित्त, क्षय तथा कास खाँसी) वाले क्यो कप्ट उठाते है ।' अर्थात इन रोगो में वासा का प्रयोग अव्यर्थ रहता है। ऐसे रोगी वासा के सेवन से अपने रोग को हटा सकते है । कई कल्पनायें वासा की हो सकती है : वासा स्वरस-वासा के पंचाङ्ग को पानी से पीस कर उसका स्वरस मधु के साथ सेवन । या तालीगपत्र का २ माशा चूर्ण मिलाकर सेवन । वासापुटपाक स्वरस-पुटपाक विधि से वासा का स्वरस मधु से मिश्रित करके सेवन । वासा-कपाय-अडूसे के पंचाङ्ग के विधिपूर्वक सिद्ध किये कपाय मे नोल कमल, सोरठ मिट्टी ( अभाव में फिटकिरी ), फूल प्रियङ्ग, लोध्र, स्रोतोञ्जन, कमल की केमर प्रत्येक का ४ रत्ती की मात्रा में प्रक्षेप डाल कर सेवन । १. भद्रश्रियं लोहितचन्दनञ्च प्रपीण्डरीकं कमलोत्पल च । उशीरवानीरजलं मृणालं महस्रवीर्या मधुक पयस्या ॥ गालीक्षुमूलानि यवासगुन्द्रामूलं नलाना कुगकागयोश्च । कुचन्दनं शैवलमप्यनन्ता कालानुसार्यातृणमूलमृद्धि | मूलानि पुष्पाणि च वारिजाना प्रलेपनं पुष्करिणीमदश्च । उदुम्बराग्वत्थमधूकलोवाः कपायवृक्षा. गिगिगश्च सर्वे । प्रदेहकल्पे परिपेचने च तथावगाहे घृततैलमिद्धी । रक्तस्य पित्तस्य च शान्तिमिच्छन् भद्रश्रियादीनि भिपक् प्रयुज्यात । धारागृहं भूमिगृहं च गीतं वन च रम्य जलवातशीतम् । वैदूर्यमुक्तामणिभाजनाना स्पश्चि दाहे गिगिराम्बुगीता. ॥ पत्राणि पुष्पाणि च वारिजाना क्षीमञ्च शीतं कदलीदलानि । प्रच्छादनार्थ शयनासनाना पद्मोत्पलानाञ्च दलाः प्रशस्ता. ॥ प्रियङ्गकाचन्दनरूपितानां स्पर्गा प्रियाणाञ्च वराङ्गनानाम् । दाहे प्रगस्ताः सजला सुशीताः पद्मोत्पलानाञ्च कलापवाताः ॥ सरिध्रदाना हिमवद्दरीणा चन्द्रोदयाना कमलाकराणाम् । मनोनुकूला गिशिराश्च सर्वा कथा. सरक्तं गमयन्ति पित्तम् ॥ (चर० चि०४) २. वासाया विद्यमानायामाशायां जीवनस्य च । रक्तपित्ती चयी कासी किमर्थमवसीदति ॥ (च० द०) Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथ खण्ड : ग्यारहवाँ अध्याय ३३६ आटरूपक काथ-अडूसा के क्वाथ मे फूल-प्रियङ्ग, सोरठं मिट्टी, सफेद सुरमा या रसवत का प्रक्षेप प्रत्येक एक माशा चूर्ण छोडकर मधु मिलाकर सेवन । वासा घृत-१ वासा पंचाङ्ग से सिद्ध घृत का सेवन । १ २ गूलर के अधपके फलो का रस २१ तोले, शहद १ तोला मिलाकर सेवन । ३ अभया (हरे ) का चूर्ण २ माशे ६ माशा शहद के साथ । ४. वासा के स्वरस से भावित पिप्पली या अभया चूर्ण, वासा-स्वरस की सात भावना देकर बनाया चूर्ण मात्रा पिप्पली चूर्ण २ माशा और हरीतकी चूर्ण ४ माशे मधु ६ माशे के साथ । ५ पकी गूलर, गाम्भारी फल, हरीतकी या पिण्ड खजूर का पृथक् मधु से सेवन । ६ खदिर, प्रियङ्गु, काचनार और सेमल इनमे से किसी एक फूलो का चूर्ण ३ माशे मधु ६ माशे मिला कर सेवन । ७ शुद्ध लाक्षा का वस्त्र से छाना हुआ महोन चूर्ण ४ माशे की मात्रा में लेकर मधु ६ माशे और घृत १ तोले के साथ सेवन रक्त वमन को सद्य बद करता है । ८ निशोथ, हरड-बहेरा-आंवला-श्यामा लता और छोटी पोपल प्रत्येक १-१ तोला शर्करा कुल मात्रा को दुगुनी । ३ से १ तोले का मोदक के रूप मे बनाकर सेवन ऊर्ध्वग रक्तपित्त मे लाभप्रद होता है । ९ मदयन्तिका (मेहदो) के मूल का काढा बना कर मधु तथा शर्करा के साथ सेवन । १० अतसी का फूल ११ लज्जावती का पचाङ्ग १२. मजीठ १३ वटका प्ररोह इन का पृथक् पृथक् कषाय बनाकर मुद्गयूप के साथ सेवन । १४ शुद्ध स्फटिका ( फिटकिरी ) एक बडी सुन्दर रक्तस्तभक औषधि है। इसका स्थानिक प्रयोग बाहय रक्तस्राव को बन्द करता है। दन्तोत्पाटन के अनन्तर या दाँत से होनेवाले रक्त-स्राव मे फिटकिरी के चूर्ण को गर्त मे रख कर बद कर देना चाहिए। तत्काल रक्त वन्द हो जाता है । इसी प्रकार वाहय या दृष्ट रक्तस्राव मे फिटकरी का स्थानिक प्रयोग सद्य रक्तस्तभक होता है। आभ्यतर रक्तस्राव मे विशेपत. अधोग रक्तस्राव मे अर्थात् गुदा, लिङ्ग या योनि से होने वाले रक्तस्राव मे शुद्ध स्फटिका १ माशा की मात्रा मे गूलर के छाल के काढे के अनुपान से दिन मे दोतीन बार प्रयोग करने पर सद्य लाभप्रद पाई जाती है । १५ शुद्ध शख भस्म ४र०, सुवर्ण गैरिक १ माशा या दुग्धपापाण चूर्ण १ माशा की मात्रा मे दिन मे चार वार मधु के या घी-चीनी के साथ सेवन । १६ मूपाकर्णी, १७ अयापान १८ १ वासा सशाखा सहपत्रमूला कृत्वा कपाय कुसुमानि चास्याः । प्रदाय कल्क विपचेद् घृतञ्च क्षौद्रेण पानाद्विनिहन्ति रक्तम् ।। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपक्कर्म-सिद्धि ३४० वन तण्डुलीयक (वन चौलाई), १९ तण्डुलोदक २० चंदन २१. पठानी लोध्र का प्रयोग भी लाभप्रद होता है ।" 1 नासागत रक्तपित्त में स्थानिक उपचार - रोगी को पीठ के बल लेटा देना चाहिए, उसके सिर को शीतल जल से धो देना चाहिए । सिर पर वरफ की थैली रखने या वरफ के रगडने से भी लाभ होता है। सिर पर गोवृत और कपूर मिलाकर अभ्यंग, शतधीत या सहस्रधौत घृत का अभ्यग- हिमाशु तैल का लगाना भी लाभ करता है । कई प्रकार की ग्राही औपवियो के स्वरसो का नाक मे वूद बूंद करके छोडना भी उत्तम रहता है । जैसे १ चीनी मिलाकर दूध या जल को पीने के लिए देना चाहिए साथ ही उसकी कुछ बू दो को नाक मे भी छोडना चाहिए । २ दाडिम के फूल का स्वरस नस्य अथवा ३ आम की गुठली को पानी मे पीस छान कर उसका नस्य ४. ताजा दूव हरी या श्वेत के स्वरस का नस्य अथवा ५ प्याज के स्वरस का नस्य ६ वब्चूल की पत्ती का स्वरस नाक मे देना उत्तम रहता है । इसी प्रकार ७ लाक्षास्वरस का नस्य अथवा ८ हरीतको स्वरस का नस्य भी हितकर होता है । ९ जब रक्तस्राव बहुत तीव्र हो तो पच चोरी कपाय में कपडे की वर्ति मे भिगो कर नाक को भर देना आवश्यक होता है । १० फिटकिरी, माजूफल और कपूर का चूर्ण महीन कर नाक मे बुरकाने ( अवधूलन) से भी लाभ होता है । ११. आँवले को काजी मट्टे या जल मे पीस कर कल्क वना कर गोघृत मे छोक कर ठंडा करके सिर और मस्तक पर मोटा लेप करने से सद्यः रक्तस्राव वद होता है । यह एक उत्तम और अनुभूत उपक्रम है । लिखा भी है कि यह उपाय रक्त के वेग को उसी प्रकार रोकता है जिस प्रकार सेतु तोय के वेग को । यदि नासागत रक्तस्राव वडा हठी स्वरूप का हो तो उसमे दहन कर्म की सलाह रोगी को देना चाहिए। रक्तस्राव जब किसी तरह से वद न हो तो 'असिद्धिमत्सु चैतेषु दाह परममिष्यते' सुश्रुत ने दाह कर्म का ही उपदेश दिया है, इसके लिए आज के युग में Electric Cateurization प्रचलित इसकी व्यवस्था करनी चाहिए । आभ्यंतर उपचार - इन स्थानिक उपचारो के अतिरिक्त रक्तपित्ताधिकार में वर्णित बहुविध भेपज योगो का आभ्यंतर प्रयोग भी रोगी मे करने चाहिए । १ उगीरकालीयकलोध्रपद्मक-प्रियङ्गका कट्फलगड्खगैरिका । पृथक् पृथक् चन्दनतुल्यभागिका सगर्करा तण्डुलधावनप्लुता । ( चचि ४) Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ग्यारहवाँ अध्याय ३४१ एक आम तौर से चलने वाला नुस्खा - प्रवालपिष्टि २ रत्ती, गुडूची सत्त्व १ माशा मिलाकर एक मात्रा | ऐसी दिन मे दो या तीन मात्रा घी और चीनी या मक्खन और मिश्री के साथ देना चाहिए। साथ ही प्रतिदिन एक मृदु रेचन की एक मात्रा यष्ट्यादि चूर्ण ६ माशे या शतपत्र्यादि चूर्ण ६ भाशे नित्य रात मे सोते वक्त देते रहना चाहिए । रोगी को पथ्य के रूप मे पर्याप्त मात्रा मे चीनी का शर्वत ( Glucose Water ), अंगूर का रस, ईख का रस, दूध, घी, मक्खन आदि सेवन करने के लिए देना चाहिए । इन योगो का प्रयोग सभी प्रकार के रक्तपित्त में लाभप्रद रहता है । जैसेउशीरादि चूर्ण - खस, शीतलचीनी, तगर, सोठ, लाल चन्दन, श्वेत चन्दन, लांग, पिपरामूल, पिप्पली, छोटी इलायची, केसर, नागरमोथा, मुलेठी, कपूर, -वशलोचन, तेजपात प्रत्येक एक तोला, काला अगर इन सब के बराबर अर्थात् १६ तोले । कूट पीस कर कपडछन चूर्ण फिर उसमे ८ गुनी शक्कर (१२८ तोले) मिलाकर योग को बनावे | मात्रा ३ से ६ माशे । अनुपान शीतल जल । B एलादि गुटिका - इलायची, तेजपात, दालचीनी प्रत्येक ई तोला, पिप्पली २ तोला, चीनी, मुलेठी, खजूर या छुहारा और मुनक्का प्रत्येक ४ तोले । सवको कपडछन चूर्ण करके ग्वरल मे मधु से घोट कर २ माशे की गुटिका बनाले | दिन मे कई वार चूसने के लिए दे । इससे रक्तपित्त मे विशेषत उर क्षत तथा रक्तष्टोवन मे बडा लाभ होता है । कुष्माण्ड खण्ड --- छिल्के और बीजरहित सफेद पेठे को पानी मे डालकर एक मिट्टी के वर्तन मे रख कर आग पर चढा कर स्विन्न करके पेठे को रेशमी वस्त्र में रख कर हाथ से दबा कर उसके रस को पृथक् करके निकाल कर रख लेना चाहिए । फिर इस पेठे को पत्थर पर पीस कर धूप मे सुखा ले । इस चूर्ण को ५ सेर लेकर कलईदार वर्त्तन मे ६४ तोले घृत में अग्नि पर चढाकर भूने । जब वह लाल हो जाय तो उसमे निकाले हुए पेंठे का रस ५ सेर खाड या मिश्री मिलाकर पाक करना चाहिए । जब पाक समीप मालूम हो तो उसमे निम्नलिखित द्रव्यो का प्रक्षेप डाले । छोटी पीपल, सोठ, जीरा प्रत्येक आठ तोले, दालचीनी, इलायची, तेजपत्र, काली मिर्च, धनिया प्रत्येक २ तोले । खूब अच्छी तरह से चलाते हुए पाक को सिद्ध करके ठंडा होने पर घी की आधी मात्रा ( ३२ तोले ) शहद मिलाकर मर्तवान मे भर कर रख लेना चाहिए । मात्रा - अग्निवल के अनुसार २ तोले से एक छटांक तक । यह एक रसायन और ऊर्ध्वग रक्तपित्त मे सिद्ध योग है । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' भिपकर्म-सिद्धि वासा कुष्माण्ड खण्ड-उक्तविधि से निर्मित पेठे का चूर्ण ५० पल (5२॥ सेर ) भर लेकर कलईदार ताम्र की कडाही मे प्रतप्त हुए १ प्रस्थ (६४ तोले) घृत के साथ भून लेना चाहिए। भूनते-भूनते जब पेठे का चूर्ण लाल हो जाय और सुगन्ध आने लगे तब उसमे खाण्ड १०० पल (S५ सेर ) और अडूसे का क्वाथ १ आढक (४ प्ररथ=२५६ तोला ) डाल कर अच्छी तरह पाक करना चाहिए । आसन्न पाक को अवस्था मे मोथा, आँवला, बंगलोचन, भार्गी, त्रिसुगन्ध ( दालचीनी, छोटी इलायची और तेजपात ) का प्रत्येक चूर्ण १-१ तोला, एलुआ सोठ, धनिया, काली मरिच का प्रत्येक चूर्ण ४-४ तोला और छोटी पीपल का चूर्ण १ कुडव (१६ तोला) प्रक्षिप्त करके कलछी अथवा शुद्ध लकड़ी के डण्डे से अच्छी तरह घोट कर चूल्हे से उतार लेवे। शीतल होने पर गहद १ मणिका अर्थात् ८ पल ( ३२ तोला ) मिला कर घृतस्निग्ध मिट्टी के पात्र अथवा काचपात्र में भर देवे। दूर्वाद्य घृत-दूर्वा को लता, कमल-केसर, मजीठ, एलवालुक, खाड, श्वेत चन्दन, खस, मोथा, लाल चन्दन और पद्माख प्रत्येक १-१ तोला लेकर सवको जल के साथ पत्थर पर पीस कर कल्क वना लेवें। फिर वकरी का घृत चतुर्गुण अर्थात् ४० तोला, तुण्डुलोदक घृत से चतुर्गुण (१६० तोला=३२ सेर) तथा वकरी का दुग्व 5२ सेर लेकर सवको कलईदार ताम्र अथवा पित्तल या लौह को कडाही में डाल कर कडाही को चूल्हे पर चढाकर मन्द-मन्द अग्नि जला के पाक करना चाहिए । मात्रा-१-२ तोले दूध मे। उशीरासव-खम, नेत्रवाला, कमल की जड, गम्भारी की छाल, नील कमल, प्रियमु, पद्माख, लोध, मजीठ, धमासा, पाठा, चिरायता, वट के अकुर अथवा छाल, उदुम्वर के फल अथवा छाल, कचूर, पित्तपापडा, श्वेत कमल की जड़ अथवा पत्ती, पटोलपत्र, कचनार की छाल अथवा पुष्प, जामुन की छाल और मोचरस प्रत्येक का चूर्ण १-१ पल । तथा मुनक्को का पत्थर पर पीमा हुआ कल्क २० पल (१ सेर ), धाय के फूल का चूर्ण १६ पल भर ले कर दो द्रोण (२५१ सेर ८ तोला ) जल में डाल कर एक वृतस्निग्ध तथा जटामासी और कालीमरिचो से धूपित मिट्टी के भाण्ड में भर देवें और उममें गर्करा १ तुला (१०० पल-५ सेर) तथा शहद १ तुला मिला कर भाण्ड के मुख को गराब से ढंक कर कपडमिट्टी द्वारा मन्विवन्धन करके १ मास तक एकान्त और उप्ण स्थान मे रख देवें । १ महीने के पश्चात् इसको वस्त्र से ठान कर वोतलो में भर ले । मात्रा-२ तोले भोजन के बाद वरावर जल मिलाकर । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ग्यारहवाँ अध्याय ३४३ रक्तपित्तकुलकण्डनरस-शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, प्रवाल भस्म, स्वर्णभस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, नागभस्म और वगभस्म १-१ तोला ले कर प्रथम पारद और गन्धक की कज्जली बनाकर उसमे शेप भस्मे मिलाकर लालचन्दन, कमल की डण्डी, मालतीपुष्प ( मुकुलित), अडूसे के पत्ते, धनिया, वारणकणा (गजपीपल), शतावरकन्द, सेमल कन्द, वट के अकुर और गिलोय इनमे से प्रत्येक के स्वरस अथवा क्वाथ से क्रमश. तीन-तीन बार भावित करके घोट कर सुखा के शीशी मे भर देवे । मात्रा-४ रती से १ माशा । अनुपान-मुलेठी और अडूसे के क्वाथ मे मधु मिला कर । पित्तान्तक रस-जायफल, जावित्री, जटामासी, कूठ, तालीसपत्र, सोनामाखी, लौह भस्म और अभ्रक भस्म सब सम भाग मे लेकर उसमे सबो के बराबर रजतभस्म डाल कर पानी के साथ पोस कर २-२ रत्ती की गोलियां बना कर रख छोडे । मात्रा १ से २ गोली । महापित्तान्तक रस-पित्तान्तक रस मे सोनामाखी के स्थान में स्वर्ण भस्म मिला देने से महापित्तान्तक रस होता है। सुधानिधि रस-शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, स्वर्ण माक्षिक भस्म और लौह भस्म प्रत्येक समभाग मे लेकर खरल मे एकत्र कर लेवे। फिर इसमे त्रिफला क्वाथ डालकर मर्दन करके गोला बना कर भूषा मे रख कर भूधर यन्त्र' मे पका लेवे । मात्रा १-२ रती त्रिफला कषायके साथ । लौह पात्र मे दूध को गर्म करके रातमे पीना इस औपधि के प्रयोग-कालमे हितकर होता है। चन्द्रकला रस-शुद्ध पारद १ तोला, ताम्रभस्म १ तोला, अभ्रकभस्म १ तोला, शुद्ध गन्धक २ तोला, मोती की पिष्टी २ तोला, कुटकी, गिलोय का सत्त्व, पित्तपापडा, खस, छोटो पीपल, श्वेतचन्दन और अनन्तमूल प्रत्येक का कपडछान चूर्ण १-१ तोला। प्रथम पारे-गन्धक को कज्जली करे। पीछे उसमे भस्मे तथा अन्य द्रव्यो का चूर्ण मिलाकर नागरमोथा, मीठा दाडिम (अनार), दूव, केवडा, कमल, सहदेई, शतावर और पित्तपापडा इनके यथालाभ स्वरस, अर्क या क्वाथ की १-१ भावना और मुनक्का के क्वाथ की ७ भावनायें देवे । प्रत्येक भावना मे १-१ दिन मर्दन करे और छाया मे सुखा करके दूसरी भावना दे । पीछे वशलोचन का सूक्ष्म, कडछान चूर्ण अंगुलियो पर लगाकर उनसे चने के वरावर गोलियां बना छाया मे सुखा कर रख दे। मात्रा और अनुपान-१-२ गोलो, ठण्डा जल, उशीरासव, अशोकारिष्ट या पेडे के स्वरस से दिन मे २-३ बार दे । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म - सिद्धि बारहवाँ अध्याय राजयक्ष्मा-प्रतिषेध प्रावेशिक - राजयक्ष्मा शब्द की दो व्युत्पत्ति चरक संहिता में पाई जाती है । १ " यक्ष्मणा ( रोगाणा ) राजा" इति राजयक्ष्मा तथा "राज, चन्द्रमसो यस्मादभूदेप किलामय । तस्माद् राजयक्ष्म सज्ञेति" सर्वप्रथम नक्षत्रो के राजा चंद्रमा को यह रोग हुआ, अस्तु इस रोग का नाम राजयक्ष्मा पडा । पौराणिक कथा है कि प्रजापति को अट्ठाइस कन्यायें थी उन्होने सबका विवाह चंद्रमा से कर दिया परन्तु राजा चंद्रमा ने सभी रानियो को सम भाव से नही देखा केवल एक में जो रोहिणी नाम की रानी थी उस में अत्यधिक आसक्ति दिखलाई । प्रजापति से शेप बन्यावो ने इस वात की शिकायत की और प्रजापति को क्रोध हुआ उन्होने शाप दिया और वह क्रोध यक्ष्मा के रूप में चंद्रमा के शरीर में प्रविष्ट हो गया और वे राजयक्ष्मा रोग से ग्रसित हो गये । राजा चंद्रमा को पश्चात्ताप हुआ वे गुरुकी शरण में गये उनकी अम्पर्थना की गुरु ने प्रसन्न होकर उनको पुन. स्वस्थ होने का आशीर्वाद दिया अश्विनीकुमारो ने उनकी चिकित्माकी और चद्रमा फिर ठीक हो गये । ३४४ इस पौराणिक कथा से इस रोग के वारे में लक्षणों के द्वारा कई काम के अर्थ निकलते है | जैसे--१. यह रोग - रोगराज या राजरोग या राज- यक्ष्मा है | अर्थात् एक राजा के समान बृहत् या विशाल रोग है जिसमें अनुचर के रूप में प्राय सभी छोटे-बड़े रोगो का जैसे, ज्वर अतिसार, रक्तपित्त और विपमाग्नि प्रभृति रोगो का अनुप्रवेश पाया जाता है । फलत इस रोग की इतनी विशालता है कि इस का सम्पूर्णतया सभी अवस्थावो के लक्षण, चिह्न और चिकित्सा प्रभृति वातो का ज्ञान हो जाय तो प्राय सम्पूर्ण चिकित्सा शास्त्र का पण्डित हो जाना सभव रहता है क्योकि इस मे अधिकतर कायचिकित्मा-सम्बन्धी लक्षणो का अनुप्रवेश मिलता है । कई लेखको ने भी इस भाव की उक्तियाँ कही है कि "क्षय और फिरंग रोग को कोई चिकित्सक सम्पूर्णतया जान जाये तो वह सम्पूर्ण चिकित्सा ( कायचिकित्सा शास्त्र ) का ज्ञाता हो सकता हैं ।" २ यह रोग राजा को हो जाय अर्थात् आढ्य और श्रीमन्त व्यक्ति को हो जाय तो वह अच्छा हो जाता है, परन्तु यदि किसी गरीव या दरिद्र व्यक्ति को हो जाय तो उसके लिये चिकित्सा और पथ्य की सुविधा न होने से प्राय असाध्य हो जाता है । ३ यह रोग आहार-विहार के असयम से विशेषत. शुक्रक्षय की अधिकता से Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : वारहवाँ अध्याय ३४५ होता है । अस्तु इस रोग मे शुक्र-क्षय या वीर्य क्षय को बचाना अर्थात् शुक्र या वीर्य वर्धक औषधियो का प्रयोग उत्तम रहता है । ४ यह रोग स्नेहसंक्षय से "तत स्नेहपरिक्षयात्" से होता है अस्तु चिकित्सा मे अत्यधिक मात्रा मे दूध, घी, मक्खन, तैल, वसा, मज्जा, मासरस, यकृत् तैल ( विटामीन ए डी ) तथा पौष्टिक आहार की आवश्यकता पडती है । इसके अभाव मे रोग का अच्छा होना कठिन रहता है । सारक्षय भी माना जाता है-सार से शुक्र और ओजक्षय किया जावेगा, इस रोग मे पाया जाता है । स्नेह शब्द से देह का । जिसका वर्णन आगे ५ यह रोग असाध्य नही है - साध्य या कृच्छ्र साध्य है प्रारंभ से ही चिकित्सा की जाय तो साध्य होता है, परन्तु विलम्व से चिकित्सा करने पर कृच्छ्र साध्य या असाध्य हो जाता है । दूसरी बात यह है कि इस रोग में पुनरावर्त्तन की प्रवृत्ति पाई जाती है अर्थात् एक वार हो जाने पर पुन पुन उसके होने की संभावना रहती है । महाराज चद्रमा को यह रोग हुआ, देवचिकित्सक अश्विनी कुमागे ने इसकी चिकित्सा की, रोग अच्छा हो गया, परन्तु पुन सक्षय प्रारंभ हुआ । अस्तु चद्रमा शुक्ल पक्ष मे पूर्ण चिकित्सा - विश्राम-पथ्यादि के ऊपर ( Senetorium Treatment ) के ऊपर रहने पर अच्छा हो जाते हैं और चे पन्द्रह दिन मे पूर्ण हो जाते हैं - परन्तु चिकित्सा आदि की निगरानी के छूट जाने पर उनमें कृष्ण पक्ष मे पुनः सक्षय प्रारंभ हो जाता है और कृष्ण पक्ष की अमावस्या को वे पूर्णतया क्षीण हो जाते है । पुन उनकी चिकित्सा या पथ्यादि की आवश्यकता पडती है— अश्विनीकुमार लोग पुन उनकी चिकित्सा करते हैं पुन उनकी एक-एक कलावो का सबन्ध शुरू होता है और वे बढ कर एक पक्ष में स्वस्थ हो कर पोशश कला पूर्ण चंद्र होते है । इसी प्रकार क्षयरोग मे भी पथ्यापथ्य का परिणाम पाया जाता है और रोग का बार-बार होना या पुनरावर्त्तन पाया जाता है । चन्द्रमा की वृद्धि एव क्षय का प्रभाव सभवत. इस रोग मे पाया भी जाता है । ५. इस रोग मे चन्द्रका प्रतीक सोम से भी है । सोम से सौम्य गुण अर्थात् आप्यायन धातुवो का पोपण अभिलक्षित होता है । जगत् में दो प्रकार के अग्नि तथा सोम गुण के तत्त्व पाये जाते हैं । कही पर चिकित्सा मे आग्नेय तत्त्वो की आवश्यकता होती है । कई बार इसके विपरीत सोम तत्त्व की । यहाँ पर क्षय रोग के प्रतिपेध मे सोम तत्त्व का ही व्यवहार हितकर रहता है । धातुओ का शोष इस रोग मे पाया जाता है । आप्यायन इस के लिए जरूरी होता है अस्तु सोमगुण वाली औषधियो का शीतवीर्य एव धातुवर्धक पथ्य का उपयोग उत्तम रहता है । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ भिषकर्म-सिद्धि ७ इस रोग मे धातु-क्षय प्रवान हेतु के रूप में पाया जाता है यह क्षय अनु लोम या प्रतिलोम द्विविध हो सकता है । अनुलोम रस या रक्त के नाश से प्रारंभ होकर क्रमण. उत्तरोत्तर पाये जाने वाले धातुवो का अर्थात् रक्त, मास, मेद, अस्थि, मज्जा और अतमे शुक्र या वीर्य का क्षय होता है । प्रतिलोम मे शुक्रक्षय का प्रारंभ होकर क्रमण उससे अवर धातुवो का अर्थात् मज्जा, अस्थि, मेद, मास, रक्त और अंत मे रस का क्षय होता है । इस प्रकार धातुक्षय इस रोग के हेतु तथा प्रधान रूप मे पाया जाता है अस्तु राज- यक्ष्मा रोग का दूसरा पर्यायक्षय रोग अथवा शोष रोग ( धातुवो का सुखाने वाला रोग ) बनता है । इस रोग मे वलक्षय, भारक्षय प्रमुखतया पाया जाता है । अस्तु चिकित्सा में वल और मास प्रभृति धातुवो को बढाने वाला उपचार अपेक्षित रहता है । ८. चूंकि यह रोग शाप के कारण चन्द्रमा को हुआ था अस्तु इस रोग को जीतने के लिए देव व्यपाश्रय चिकित्सा का वडा महत्व है, आधिभौतिक (Materialistic treatment ) के साथ-साथ जिन क्रियावो के द्वारा प्राचीन काल मे राजयक्ष्मा रोग को दूर किया गया उन आधिदैविक अर्थात् मनोनुकूल सम्पूर्ण वेद-विहित क्रियावोको करते हुए उपचार करना चाहिये । ये देव-व्यपाश्रय उपाय निम्नलिखित है । इन उपायों से यक्ष्मारंभक दोपो की शान्ति होती हैं । इच्छित और मनोज्ञ ( मनका अच्छा लगने वाले ) मद्य का सेवन, गध का सूचना, रमणीय मित्रो तथा प्रमदावो का दर्शन, कानो के प्रिय लगने वाले गीत, वाद्य, हर्पण (प्रसन्न करने वाले आहार-विहार-आचार - कथा प्रसग ), आश्वासन ( तसल्ली देना ), ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान, दान, तपस्या, देवता की अर्चना, गुरुजनो का पूजन, सत्यभाषण, अहिंसा, दूसरे के कल्याण की भावना, वैद्य और धर्म-शास्त्रज्ञ के कथनो के अनुसार चलना आदि । १ राजयक्ष्मा रोग के पर्याय - रसादि धातुओ के शोषण होने से रोग का नाम शोप, धातु-क्रियाओ के क्षय होने से रोग का नाम क्षय हो जाता है, १ इष्टैर्मधर्मनोज्ञाना मद्यानामुपसेवने । सुहृदा रमणीयाना प्रमदानाञ्च दर्शनै. ॥ गीतवादित्रशब्दैश्च प्रियश्रुतिभिरेव च । हर्पणाश्वासनैनित्यं गुरुणा समुपासने. ॥ ब्रह्मचर्येण दानेन तपसा देवतार्चनं । सत्येनाचारयोगेन मङ्गलैरप्यहिंसया ॥ वैद्यविप्रार्चनाच्चैव रोगराजो निवर्त्तते । यया प्रयुक्तया चेष्टया राजयक्ष्मा पुरा जित ॥ ता वेदविहिनामिष्टामारोग्यार्थी प्रयोजयेत् । (च.चि ) Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : बारहवाँ अध्याय ३४७ मर्वप्रथम यह रोग राजा चद्रमा को हुआ अस्तु राजयक्ष्मा, राजरोग या रोग राज भी कहलाता है। राज-यक्ष्मा रोग के चतुर्विध हेतु-वेगावरोध (मल-मूत्र-प्रभृतिवेगो का रोकना), क्षय ( शुक्र प्रभृति धातुओ का क्षय), साहस (अयथावल आरम्भ) और विपमाशन (विषम भोजन ) इन चार कारणो से त्रिदोषज राजयक्ष्मा रोग उत्पन्न होता है। इसमे वेगावरोधादि कारणो से सर्वप्रथम वायु का कोप होता है पश्चात् अग्नि की दुष्टि होने से कफ और पित्त भी दूषित होता है। इन मूलभूत चार हेतुओ मे अगभूत असंख्य कारणो का समावेश समझना चाहिये ।२ राजयक्ष्मा के त्रिविध रूप या अवस्थाये-कधे और पार्श्व मे पीडा, हाथ-पैरो मे जलन और सम्पूर्ण शरीर मे ज्वर । इसको त्रि-रूप राजयक्ष्मा कहते है । रोग के प्रारभिक अवस्था मे ये ही लक्षण पाये जाते है । जब रोग अधिक बढता है तो द्वितीयावस्था मे पप यक्ष्मा पाया जाता है जिसमे भोजन मे अरुचि, स्वरभेद, कास, श्वास, रक्तष्ठीवन और ज्वर रहने लगता है-'कासो ज्वर पार्श्वभूल स्वरव!ग्रहोऽरुचि ।' इस से वढी हुई अवस्था एकादश रूप राजयक्ष्मा की होती है जिसमे वात के कारण स्वरभेद, कधे तथा पार्श्व मे शूल और मंकोच, पित्त के कारण ज्वर, दाह, रक्तष्ठोवन तथा कफ के कारण सिर मे भारीपन, भोजन मे अरुचि, कास तथा कठ मे पीड़ा ( या उत्कासिका या धसका) इन लक्षणो की उपस्थिति रोगी में पाई जाती है। 3 भोज ने लिखा है कि राजयक्ष्मा में 'कासो ज्वरो रक्तपित्त त्रिरूपं राजयक्ष्मणि' अर्थात् यक्ष्मा मे प्रधान तीन ही लक्षण मिलते हैं कास, ज्वर और रक्तपित्त । साध्यासाध्यता-यदि रोगी मे वलक्षय, मासक्षय और मदाग्नि न हो तो साध्य अन्यथा रोग कृच्छ्र साध्य या असाध्य हो जाता है। सम्पूर्ण, अर्ध या १. संशोपणाद्रसादीना शोष इत्यभिधीयते । क्रियाक्षयकरत्वाच्च क्षय इत्युच्यते बुधै । राज्ञश्चन्द्रमसो यस्मादभूदेप किलामय । तस्मात्त राजयक्ष्मेति केदिदाहुमनीपिण. । ( सुश्रुत ३४) २ वेगरोधात् क्षयाच्चैव साहसाद् विपमाशनात् । त्रिदोपो जायते यक्ष्मा गदो हेतुचतुष्टयात् ॥ (मा नि.) ३. अंसपाभितापश्च सताप करपादयो । ज्वर सर्वाङ्गगश्चेति लक्षणं राजयक्ष्मण. ॥ स्वरभेदोऽनिलाच्छल सकोचश्चासपार्श्वयो । ज्वरो दाहोऽति सारश्च पित्ताद्रक्तस्य चागम ॥ शिरस परिपूर्णत्वमभक्तच्छन्द एव च। कास. कठस्य चोद्ध्वसो विज्ञेय कफकोपत. । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ भिपकर्म-सिद्धि त्रिलिङ्ग मात्र से युक्त क्षयी रोगी मे यदि मास वल बहुत क्षीण हो गये हो तो चिकित्सा मे वर्जन करना चाहिये परन्तु सम्पूर्ण लक्षणो से उपद्रुत रोगी मे भी मास एवं बल का क्षय न हो तो चिकित्सा करनी चाहिये । वह साध्य रहता है ' । क्रियाक्रम - सभी प्रकार के राजयक्ष्मा का रोग त्रिदोपज होता है अस्तु दोपो का वलावल देखते हुए और विभिन्न अवस्थावो का विचार करते हुए शोप रोग की चिकित्सा करे ? | ज्वराधिकार मे ज्वर के शमन के लिये जो विधियां बतलाई गई है | सभी यक्ष्मा रोगी के ज्वर ओर दाह की अवस्थामे उत्तम होती हैं और व्यवहार मेलाई जा सकती है । अर्थात् क्षय रोग मे जीर्ण ज्वर की सम्पूर्ण चिकित्सा ज्वर के शमन के लिये करनी चाहिये । 3 राजयक्ष्मा मे प्रथम ज्वरादि उपद्रवो की चिकित्सा ज्वररोगाधिकारोक्त योगो से क्वाथ, चूर्ण, आसव, अरिष्ट और रसादिको के प्रयोग से करनी चाहिये । इन ज्वरादिक उपद्रवो के शान्त होने के साथ ही साथ राजयक्ष्मा मे जो गोप ( धातुवो के चय या शोष ) पाया जाता है उसका उपचार करना चाहिये । शोधन निषेध -- यदि रोगी वलवान् हो और रोग मे दोपो की अधिकता हो तो उसका स्नेहन स्वेदन करा के स्निग्व वमन और विरेचन के द्वारा दोपो का निर्हरण करना प्रशस्त रहता है, परन्तु यदि रोगो क्षीण हो जैसा कि प्राय राजयक्ष्मा रोग मे पाया जाता है उसमे सशोधन ( पंचकर्म ) कदापि नही करना चाहिये । यक्ष्मा में सशोधन विप के सदृश अहित करता है" । १. सर्वैरर्थैस्त्रिभिभिर्वापि लिर्मासवलक्षये । युक्तो वर्ज्यश्चिकित्स्यस्तु सर्वरूपोऽप्यतोऽन्यथा ॥ ( च चि) २ सर्वस्त्रिदोषजो यक्ष्मा दोषाणा च बलाबलम् । परीक्ष्यावस्थिकं वैद्यः शोपिणं समुपाचरेत् । ३ ज्वराणा गमनीयो य पूर्वमुक्तः क्रियाविधिः । यक्ष्मिणा ज्वरदाहेषु स सर्वोपि प्रशस्यते ॥ ४ उपद्रवा ज्वराद्यास्ते साध्या स्वं स्वैश्चिकित्सितैः । तेषु शान्तेषु रोगेषु पश्चाच्छोपमुपाचरेत् ॥ ( चर. चि. ८ ) ५ दोपाधिकाना वमनं शस्यते सविरेचनम् । स्नेहस्वेदोपपन्नाना सस्नेहं यन्न कर्पणम् ॥ वलिनो बहुदोपस्य पच कर्माणि कारयेत् । यक्ष्मिण. क्षीणदेहस्य तत् कृतं स्याद् विपोपमम् ॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड वारहवाँ अध्याय ३४६ - होने से इसके / राजयक्ष्मा रोग मे शुक्र ( वीर्य ) और मल की रक्षा का सदैव ध्यान रखना चाहिये | यह सिद्धान्त केवल राज- यक्ष्मा तक ही सीमित नही अपितु सभी प्रकार के दीर्घकालीन और क्षीण रोगियो मे उनके शुक्र और मल को रक्षा करना परमावश्यक कर्त्तव्य चिकित्सक का रहता है । इसका कारण यह है कि मनुष्य का वल शुक्र के अधीन रहता है क्योकि शुक्र समस्त धातुओ का अन्तिम तथा सारभूत पदार्थ है । चरक ने भी लिखा है आहार का परम धार्म शुक्र होता है उसकी रक्षा करना सभी आत्मवान् पुरुपो का कर्त्तव्य है— उसके अधिक क्षय होने मे बहुत से रोग हो सकते है अथवा व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है । अस्तु स्वस्थ व्यक्ति को भी शुक्र सरक्षण ब्रह्मचर्य और स्त्री-सयम के द्वारा करना चाहिये रोगी और दुर्वल के बारे मे तो उसमे शका का स्थान ही नही है । 'मलायत्तं हि जीवनम्' का तात्पर्य यह है शरीर का स्तभक अधोन क्षीण मनुष्य का जीवन रहता है । चरक ने लिखा है कि रोगी मे क्षोणावस्या मे कोष्ठ-सश्रित अग्नि अन्न का जो पाक अधिकाश मल बनता है और अल्प मात्रा में ओज या बल का निर्माण होता है । अर्थात् रोग की महिमा से अन्न का अधिकाग किट्ट बनता है और प्रसादभूत धातु अत्यल्प मात्रा मे निर्मित होता है । अस्तु सभी क्षीण रोगियो मे विशेषत राजयक्ष्मी मे मल की रक्षा मे चिकित्सक को तत्परता रखनी चाहिये । सर्व धातुओ के क्षय से आर्त रोगी मे उसका बल विट् या मल ही होता है । इस मल का रूक्ष, तीव्र या तीक्ष्ण रेचन देने से या शोधन करने से रोगी का बलक्षय होकर मृत्यु की संभावना रहती है । अस्तु राजयक्ष्मा रोग मे क्षीण रोगी को कदापि सशोधन ( वमन और विरेचन ) नही करना चाहिये | और यदि विवध हो तो स्निग्ध, मृदु और त्र सन औपधियो जैसे --- अमलताश, मुनक्का, निशोथ, अजीर आदि से घृत + मधु + शक्कर आदि से हल्का स्रसन कराना चाहिये । अथवा गुदवति, आस्थापन वस्ति, अनुवासन देकर कोष्ठ की शुद्धि करनी चाहिये । 'राजयक्ष्मा के करता है उसमे १ शुक्रायत्त वल पुमा मलायत्त हि जीवनम् । तस्माद्यत्नेन सरक्षेद्यक्ष्मिणो मलरेतसी ॥ २. आहारस्य पर धाम शुक्र तद्रक्ष्यमात्मनः । क्षये ह्यस्य बहून् रोगान् मरण वा नियच्छति ॥ (च ) ३ तस्मिन् काले पचत्यग्निर्यदन्न कोष्ठमश्रितम् । मल भवति तत्प्राय कल्पते किंचिदोजसे || तस्मात्पुरीप सरक्ष्यं विशेपाद्राजयक्ष्मण । सर्वधातुक्षयार्तस्य बल तस्य हि विड्वलम् || ( च० चि०८. ) Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० भिपकर्म-सिद्धि राजयक्ष्मा मे पथ्य (आहार-विहार)-रोगी को विस्तर पर लेटे रह कर रोग काल मे पूर्ण विश्राम देना चाहिये। अपानवायु, मल-मूत्र-कास-छीक प्रभृति वेगो का रोकना छोड देना चाहिये। भोजन मे एक साल पुराना शालि धान्य (मावारण चावल ), पष्टिक धान्य ( साठी का चावल), गेहू, यव की रोटी, मूग या अरहर की दाल, बकरी का दूध खाने के लिये देना चाहिये । दूध में प्रायः बकरी का दूध या भैंस का दूध रोगो को देना चाहिये। गाय का दूब इस रोग में शस्त नहीं है। उसके स्थान पर माहिप क्षीर दिया जा सकता है। सूखे फल ( मेवे ) इस रोग में अधिक लाभप्रद होते है जैसे पिण्डखजूर, मुनक्का, वादाम, चिलगोजा, अखरोट, काजू, पिस्ता मादि । तैलीय सूखे फल अधिक वल्य होते है। पका केला, पका माम, आँवला, खजूर, फालसा, नारियल भी उत्तम रहता है। स्वर्ण की अंगूठी और माभूपण धारण रोग में लाभ करता है । आँवले का हर प्रकार से चटनी, चोखा, अचार, मुरब्बा आदि वनाकर प्रचुर मात्रा में रोगी को देना चाहिये । ताडका रस या खजूर का रस भी उत्तम रहता है। प्रचुर मात्रा में उसका उपयोग यक्ष्मा-रोगी में कराया जा सकता है। अपथ्य-अविक जागरण, वेग-विधारण, श्रम, स्वेदन, साहमकर्म, स्त्रीस्म-कटु-तिक्त और अम्ल रस का सेवन, अधिक धूप सेवन और ताम्बूल सेवन अपथ्य होता है। यदि शोप (धातुओ का सूखना ) बहुत हो तो अनेक प्रकार के मद्य, जाङ्गल पगु-पक्षियो के मांस देना चाहिए । जिस व्यक्ति ने कभी मांम न खाया हो उसके लिए तो मास पर्याप्त धातुवर्धक होते है, परन्तु ऐसे व्यक्ति मे जिनमे सदा मास खाने का वृत्त हो, फिर भी क्षय ग्रस्त हो जाये तो उनके गोप मे किस प्रकार के मास सेवन की व्यवस्था करनी चाहिए? इसके लिए शास्त्र में उपदेश मास खाने वाले पशु-पक्षियो के मास देने का है। ये मास विशेष रूप से वृहण या धातुओ के वर्षन करने वाले होते है । मांसाहार-"सर्वदा सर्वभावाना सामान्यं वृद्धिकारणम्" समान द्रव्य समान का वर्षक होता है 'अस्तु मास मासेन वर्द्धते ।' मास का सेवन शरीरगत मास धातु की २. शालिपष्टिकगोधूमयवमुद्गादय. शुभा । मद्यानि जाङ्गला. पक्षिमूगा. यस्ता विशुष्यताम् ॥ शुष्यता क्षीणमासाना कल्पितानि विधानवित् । दद्यात् क्रव्यादमासानि वृहणानि विशेपतः ।। मासेनोपचिताङ्गाना मासं मासकरं परम् । तीक्ष्णोष्णलाघवाच गस्त विगेपान्मृगपक्षिणाम् ।। ( च० चि० ८ ) Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : बारहवाँ अध्याय ३५१ वृद्धि करता है । राजयक्ष्मा रोग मे मास धातु का बहुत क्षय हो जाता है, अस्तु मास सेवन से ही उसकी पूर्ति सभव रहती है। एतदथ यक्ष्मा के रोगियो मे मास का बहुलता से सेवन कराने का विधान शास्त्र मे पाया जाता है। ___ चरक तथा सुश्रुत सहिता मे ऐसे बहुत प्रकार के जीवो के मास सेवन कराने का विधान बतलाया गया है जिनका सामान्य भोजन के रूप मे व्यवहार नही पाया जाता है। इन मासो के प्रति अनभ्यास के कारण रोगी को घृणा हो सकती है । अस्तु इस प्रकार के अनिष्ट (जो रोगी को अभीष्ट नही है ) मासो का प्रयोग रोगी से छुपाकर दूसरे नामो से जो खाद्य मासो मे आते है बढिया स्वादिष्ट बनाकर मनोज्ञ, मृदु, रस्सेदार और सुगंधित करके देना चाहिये ताकि उनको रोगी विना किसी प्रकार की घृणा के भाव से सेवन कर सके। अन्न-पान मे प्रयुक्त होनेवाले मासो के आठ वर्ग है प्रसह, भूशय ( जमीन में विल बनाकर रहने वाले ), आनूप, वारिज (जल मे पैदा होनेवाले ) वारिचर (जल मे चलनेवाले ) ये विशेष रूप से वृहण होते हैं इनका शोप मे वाताधिक्य होने पर प्रयोग करे । प्रतुद (चोच से ठोग मारने वाले पक्षो) विष्किर ( पैर से विखेर कर खानेवाले पक्षी )। तर्था धन्वज (जाङ्गल पशु-पक्षी) ये लघु होते है, अस्तु शोप मे कफ-पित्त की अधिकता मे इनका व्यवहार करे ।२ शोप मे वहीं ( मयूर ) का मास दे और बी का मास कह के गोध, उलक और चाप (वाज) का मास स्वादिष्ट बनाकर रोगी को खाने को दे । तीतर के नाम से काक का मास, वर्मि ( एक प्रकार की लम्बी जल की मछली), घृत मे भुने केचवे का मास, खरगोश के मास के नाम से लोपाक (मृग विशेप), मोटे न्योले, बिल्ली, शृगाल के बच्चो के मास दे। हिरण के मास के नाम से सिंह, व्याघ्र, तरक्ष (भेडिया), चीते आदि मास खाने वाले पशुओ का मास देना चाहिए । हाथी गैडा, घोडे का मास भेसे के मास के नाम से दे। इनमे मयूर, तीतर, मुर्गा, हस, सूअर, ऊँट, गदहा, गो, माहिष के मास परं मासकर माने जाते हैं । सुश्रत ने निम्नलिखित पशु-पक्षियो के मासो का नाम शोप रोग मे व्यवहार के लिए लिखा है -काक, उल्लू, न्योला, विडाल, गण्डूपद (केचुवा) व्याल, १. योनिरष्टविधा प्रोक्ता मासानामन्नपानिके । ता परोक्ष्य भिषग्विद्वान दद्यान्मासानि शोपिणे ॥ २ विधिवत् सूपसिद्धानि मनोज्ञानि मृदनि च । अस्रवन्ति सुगन्धीनि मासान्येतानि भक्षयेत् ॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ भिषकर्म-सिद्धि बिल में रहने वाले चूहे, गृव्र, गदहा, ऊँट, हाथी , घोड़ा, खच्चर इन मासो को सर्पप तेल में भूनकर सेंधा नमक मिलाकर देना चाहिए। बाज के युग में जलचर और जलजात सामुद्रिक मछलियो के यकृत तैल का प्रयोग बहुलता से हो रहा है । नाक और कार्क मछली का यकृत अधिकतर व्यवहार में आता है इन प्रयोगो से भी बातुओ का वर्णन होता है। __ मद्यसेवन-(Medicated wines) क्षयरोग की चिकित्मा मे मद्य तथा माम का सेवन कराने का बडा माहात्म्य बतलाया है। मास के भोजन का कार मे उल्लेख हो चुका है, अब मद्य की विशेषतायें वतलाई जा रही है । मद्य कई प्रकार के निर्माण, द्रव्य एव बलकोहल ( Alcohol ) को प्रतिशत मात्रा के ऊपर हो सक्ते हैं जैसे प्रसन्ना, वारुगी, सीधु, गरिष्ट, नामव, मध्वासव आदि । आधुनिक युग में भी मद्य कई प्रकार के पाये जाते है । जैसे-वीयर, गेम्पेन, ह्विस्की, रम, जिन, ओडका, ब्राण्डी, प्रभृति । ___मांसाहार में सर्वोत्तम अनुपान मद्य का माना जाता है। अस्तु मांससेवन के साथ ही साथ मद्य-पान का भी विधान है। मद्य में कई विशिष्ट गुण होते हैजैसे वह तीक्ष्ण, उष्ण, विशद और मून गुण वाला होता है फलत वह स्रोतो के द्वारो को जो यक्ष्मा रोग में अवाट्ट हो जाते हैं मथकर खोल देता है। जिससे रस. रक्तादि सप्त धातुबों का पोपण होने लगता है और इनके पोपण के परिणाम स्वरूप रोगी में धानुमो की वृद्धि प्रारंभ हो जाती है और क्षय या शोप गोव्रता से दूर हो जाता है। बस्तु चरकाचार्य ने लिखा है "नियमित रूप से मांस का सेवन करते हुए और माध्वीक (मन) को पीते हुए स्थिर चित्त वाले संयमशील मनुप्प के गरीर में गोप रोग चिरकाल तक नहीं रहता है।" अर्थात् शीघ्र ठीक हो जाता है । इस प्रकार मय का अनुपान करते हुए मास के सेवन से रोगराज के दूर करने का विधान प्राचीन ग्रंथो में पाया जाता है।' बहिर्मार्जन या बहिः स्पर्शन (अवगाहन)-राजयटमा रोग में ज्वर एवं दाह के गमन के लिये जीर्ण ज्वर में कहे गये विधानो में जो क्रिया विधि वतलाई गई है उनका सम्पूर्णतया प्रयोग करना चाहिये ।। १ माममेवाग्नत गोपो माध्वीकं पिवतोऽपि च । नियतानल्लचित्तस्य चिरकाये न तिष्ठति ॥ प्रसन्ना वारुगी सीधुमरिष्टानासवान् मधु । ययामनुपानार्थ पिबेन्मांसानि भनयत् ।। मद्य तैदण्योष्ण्यवेगवात्सूक्ष्मत्वात् स्रोतसा मुखम् । प्रमथ्य विवृणोत्याग तन्मोलात् सप्त धातव. ।। पुष्यन्ति वातुपोपाच्च गीत्र गोप. प्रगायति । ( च ) Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : बारहवाँ अध्याय ३५३ ज्वर और दाह के शमन के लिए दूसरा साधन अवगाहन का है । तैल, दूध ( वकरी का) अथवा जल से भरे कोष्ठ ( Tub) मे डुबकी लगाकर स्नान करना अवगाहन कहलाता है । इस क्रिया से स्रोतसो के बद हए मुख खल जाते है। रोगी के बल की वृद्धि होती है, तथा वह पुष्ट होता है । तैल से भरी टकी मे नहाये और तैल का सुखपूर्वक हल्के हाथो से शरीर का मर्दन करे। औषधि सिद्ध तेल जैसे लाक्षादि तैल, चन्दन वला-लाक्षादि या वासा-चन्दनादि तैल, उत्तम रहते हैं। यदि ये सुलभ न हो तो जितने भी खाद्य तेल मिल सकते है, उनका मिश्रण बनाकर टकी मे भर कर अवगाहन करना चाहिये । तैल के इस क्रिया को बहि स्पर्शन या बहि मार्जन कहते है।' वहिर्जिन के लिये यह विधि सुलभ न हो तो जीवन्त्यादि उत्सादन-जीवन्ती, शतावरी, मजिष्ठा, अश्वगध, पुनर्नवा मूल, अपामार्ग, जया, मुलैठो, बला, विदारीकदै, सर्षप, कूठ, चावल, अतसी के बीज, उडद, तिल, किण्व समभाग में लेकर चूर्ण करके इनसे तीन गुना जी का आटा लेकर दही मे पीसकर थोडा मधु मिलाकर पूरे बदन पर उबटन जैसे लगाना चाहिये । इससे रोगी पुष्ट होता है उसके वल और वर्ण की वृद्धि होती है। स्नान-पीले सरसो के कल्क तथा जीवनीय गण की औषधियो से शृतजल मे सुगधित द्रव्यो को छोडकर इस जल को किसी बडे वर्तन म भरकर उसमे भली प्रकार स्नान कराना भी इसी प्रकार लाभप्रद होता है । इस जल को ऋतु के अनुसार शीत ऋतुओ मे उष्ण तथा उष्ण ऋतुवो मे शीतल कर लेना चाहिये। इन क्रियायो से हल्का व्यायाम, निष्क्रिय परिश्रम (Passive exercise) हो जाती है, त्वचागत ज्वर का शमन हो जाता है, शरीर का उत्तम प्रोक्षण या प्रमार्जन ( Sponging) हो जाता है। तैलो के अभ्यग से सूर्य-प्रकाश की उपस्थिति में पर्याप्त मात्रा मे जीवतिक्तियो (Vit A. & D ) का निर्माण और शोपण होने लगता है फलत शरीर पुष्ट होता है। अस्तु १ मास का सेवन २. मद्य का सेवन ३ बहिर्जिन ४ तथा वेगो के अविधारण (अपान, मल, मूत्र, कास, छीक आदि वेगो का न रोकना) से राजयक्ष्मा रोग दूर होता है। १ वहि स्पर्शनमाश्रित्य वक्ष्यतेऽत पर विधिः । स्नेहक्षीराम्बुकोष्ठेपु स्वभ्यक्त-, मवगाहयेत् । स्रोतोविबन्धमोक्षार्थ बलपुष्ट्यर्थमेव च । (च. चि ८) २ वारुणीमण्डनित्यस्य बहिर्मार्जनसेविन. । अविधारितवेगस्य यक्ष्मा न लभतेऽन्तरम् ।। २३ भि० सि० Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि अजा या छाग सेवन - अजा या बकरी मे क्षय रोग के दूर करने की अद्भुत क्षमता है । वास्तव में इस जीव में कदापि क्षय रोग नही होता है । ये राजयक्ष्मा रोग के लिये सदैव सक्षम ( Resistent ) रहती है । एतदर्थ ही इनके दूध, घृत, मास, भूत्र तथा मल का उपयोग क्षय रोग मे अमोघ फल वाला माना जाता है । इसीलिये लिखा है बकरे का मास, वकरी का दूध, वकरी का घी शक्कर के साथ सेवन करना, वकरियो के झुण्ड में चारपाई डालकर सोना और वकरियो के झुण्ड में ही रहना यदमा रोग के नाश के लिये अत्यन्त हितकारी है । " १ ३५४ अजा पंचक घृत--वकरी की मीगी सेर, वकरी का मूत्र १ सेर, वकरी का दूध १ सेर, वकरी का दही १ सेर और वकरो का घृत १ सेर । घृत पाकविधि से मद आंच पर पका कर उसमे यवक्षार दो छटांक मिलाकर रख देना चाहिये | मात्रा - १-२ तोले प्रतिदिन | छागलाद्य घृत का भी प्रयोग होता है । भेपज - १ मास खाने वाले पशु-पक्षियो के मासरस से सिद्ध घृत मधु के साथ उपयोग | २ दसगुने दूध मे सिद्ध किये घी का उपयोग | ३ मधुर द्रव्य, दशमूल कपाय, क्षीर, मासरस से सिद्ध घृत परम शोपहर होता है ।" ४ कबूतर, वानर, वकरा और हरिण इनके शुष्क मास का पृथक् पृथक् चूर्ण बकरी के दूध के साथ पीने से क्षय रोग नष्ट होता है । 3 ५ पिप्पली, यव, कुल्थी, सोठ, दाडिम वीन, आमलकी चूर्ण इनसे युक्त पकाया हुआ वकरी के मासरस का घृत के साथ सेवन राजयक्ष्मा मे लाभप्रद होता है । इसके सेवन से पीनसादि पड़ लक्षणो से युक्त यक्ष्मा ठीक हो जाता है । ६. मास वटक उपर्युक्त विधि से संस्कृत ( औषधियुक्त ) वटक भी सेवन के लिये दिया जा सकता है । १ छागमासं पयश्छाग छाग सर्पि सशर्करम् । छागोपसेवा शयनं छागमध्ये तु यक्ष्मनुत् ॥ २ मासादमासस्वर से सिद्ध सर्पि प्रयोजयेत् । सक्षीद्रं पयसा सिद्ध सर्पिर्दशगुणेन वा ॥ मिहं मधुरकैर्द्रव्यैर्दशमूलकपायकैः । क्षीरमासरसोपेत घृत गोपहरं परम् ॥ ( चचि ८ ) ३ पारावतकपिच्छागकुरङ्गाणां पृथक् पृथक् । मासचूर्णमजाक्षीरैः पीतं क्षयहर परम् ॥ ( भै र ) Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : बारहवाँ अध्याय ३५५ ७ नागबला मूल चूर्ण प्रत्यह १ तोले तक घो और मधु के साथ मिलाकर सेवन । ८. काकजंघा मूल के चूर्ण का बकरी के दूध के साथ सेवन । आचार्य सुश्रुत ने चार औषधियो का प्रयोग शोषहर बतलाया है । ९. रसोन (लहसुन) १० नाग बला ११ पिप्पली १२ शिलाजीत इनका प्रयोग पृथक् पृथक् दूध के अनुपान से करने को बतलाया है।' भेषज योग-१ दशमूलादि कषाय-दशमूल (विल्व-अरणी-सोनापाठा-पाढल-गम्भारी-शालपर्णी-पृश्निपी-कटकारी-बडी कटेरी-गोखरू)-वला-रास्ना, पुष्करमूल, देवदारु और शुण्ठी का समभाग मे लिया कपाय पार्श्व-कधं और शिर के शूल को तथा कास मे लाभप्रद । ___ क्वाथयोग-२. अश्वगन्धादि कषाय-अश्वगध-अमृता-शतावरी-नागबलापुष्करमूल-अडूसा अतीस तथा दशमूल का सम प्रमाण मे लेकर बनाये कषाय का सेवन । ३ त्रयोदशाङ्ग कपाय धनिया-पिप्पली-शुण्ठी तथा दशमूल का कपाय पार्श्वशूल, ज्वर, श्वास और पीनसादि को नष्ट करता है। (च० द०) चूर्ण योग लवडादि चूर्ण-लवन-शीतल चीनी-खस-श्वेत चन्दन-नील कमलश्वेत जीरा-इलायची-पिप्पली-अगुरु-भृगराज-नागकेसर-शुण्ठी-कालीमिर्च-जटामासीनागर मोथा-अनन्त मूल-जायफल-वश लोचन प्रत्येक का एक एक तोला, मिश्री ८ तोले । महीन चूर्ण करके शीशी मे रखले । यह चूर्ण अग्निवर्धक, रोचक, वृष्य और त्रिदोपघ्न होता है । मात्रा ३ माशे । अनुपान बकरी के दूध से । कपूराद्य चूर्ण-शुद्ध कपूर, दाल चीनी, शीतल चीनी, जायफल, जावित्री प्रत्येक एक तोला, लवङ्ग चूर्ण २ तोले, जटामासी चूण ३ तोले, कालीमिर्च का चूर्ण ४ तोले, छोटी पिप्पली ५ तोले और सोठ का चूर्ण ५ तोले । इन सवा का महीन चूर्ण बनाकर सब के बराबर अर्थात् २५ तोले मिश्री मिलाकर चूर्ण को शीशी मे भर कर रख ले। यह चूर्ण हृद्य है, हस्त-पादादि दाह, कास, स्वरावसाद, जीर्ण प्रतिश्याय, श्वास-कास और क्षय मे लाभप्रद है । मात्रा ३ माशे । अनुपान अन्न-पान के साथ मिला कर सेवन । १. रसोनयोग, विधिवत् क्षयार्त्त क्षीरेण वा नागवलाप्रयोगम् । सेवेत वा. 'मागधिका विधान तथोपयोगं जतुनोऽश्मजस्य ।। (सु ३ ४१) Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपी-सिद्धि सितोपलादि चूर्ण-मिश्री ( सिता) १६ भाग, वश लोचन (तुगाक्षीरी) ८ भाग, पिप्पली ४ भाग, इलायची २ भाग तथा दाल चीनी १ भाग । सवका मिश्रित चूर्ण। इस योग के नाम से ही नुस्खा याद हो जाता है, सि से सिता-मिश्री, तो मे तुगाक्षीरी या वगलोचन, प से पिप्पली, ला से लाची, दि से दाल चीनी। क्रमशः नीचे से ऊपर वाली मोपधियो को द्विगुणित करता चले तो नुस्खा तैयार हो जाता है । मात्रा १-३ माशे । अनुपान मधु । काम, श्वास, दौर्बल्य तथा क्षय मे लाभप्रद । इस चूर्ण को थोडा मुस में रखकर चूसने के लिए भी दिया जा सक्ता है। तालीशाध चर्ण या मोदक-तालीशपत्र १ भाग, काली मिर्च २ भाग, सोठ ३ भाग, पिप्पली ४ भाग, बंगलोचन ५ भाग, दालचीनी ३ भाग, छोटी इलायची ३ भाग, मिश्री ३२ भाग पृथक्-पृथक् कूटकर महीन चूर्ण। श्वासकाम-अरुचि-अग्निमाद्य और क्षयरोग में लाभप्रद । मात्रा १ मागे से ६ मागे। अनुपान मधु । इस चूर्ण में काकडासीगी-अर्जुन-असगध-नागवला-पुष्करमूल-हरीतकी-गुडूची का मिश्रण कर दिया जाय तो क्षय रोग में विशेष लाभप्रद होता है। इस योग को शृङ्गयनुनादि चूर्ण कहा जाता है। चौसठ प्रहरी-पिप्पली-पिप्पली को कूट कर चौसठ पहर अर्थात् १६२ घटे तक खरल करे। मात्रा १ मागा । अनुपान घृत-मधु । वासावलेह बृहत्वासावलेह नाम से कई योग पाये जाते है-यहाँ एक वृहत् वासावलेह का योग दिया जा रहा है। वामा पंचाङ्ग ५ सेर लेकर एक मिट्टी के भाण्ड में २ द्रोण (२५१ सेर ८ तोले) जल लेकर अग्नि पर चढा दे। चतुर्थाग जल गेप रहने पर काढे को उतार ले। फिर उसमें ५ सेर चीनी छोड़कर पुन अग्नि पर चढा कर पाक करे। लेह की तरह उस चाशनी के होने पर उसमें निग्न लिखित औपधि का महीन चूर्ण टालकर कलछी से चलाते हुए अवलेह ( चटनी) को बनावे-सोठ-मरिच-पीपल (छोटी)-दालचीनी-छोटी इलायची-नागकेसर-कायफल-मोथा-मीठाकूठ-कवीला-श्वेतजीरा-कालाजीरा--त्रिवृत् मूल-पिपरा मूल-चच्य-कुटकी-हरड़-तालीगपत्र और धनिया प्रत्येक २-२ तोला । फिर ठडा होने पर उसमें मधु ३२ तोले मिलाकर रखले। यह अवलेह कासश्वास-स्वरावसाद-उर. क्षत-हद्रोग-राजयक्ष्मा में लाभप्रद है। मात्रा १ से २ तोले । अनुपान उष्ण जल। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : बारहवाँ अध्याय ३५७ च्यवन प्राश-- दशमूल की औषधियाँ प्रत्येक चार तोला, छोटी पिप्पली, चला, मुद्गपर्णी, मापपर्णी, काकडासीगी, भुइ आँवला, द्राचा, जीवन्ती, पुष्करमूल, अगर, हरड गुडूची, कचूर, मोथा, पुनर्नवा, पचाङ्ग, छोटी इलायची, नीलकमल, लाल चदन, श्वेत चदन, विदारी कद, अडूसे की जड, काकनासा तथा अष्टवर्ग (ऋद्धि- वृद्धि - जीवक ऋपभक - काकोली क्षीर काकोली - मेदा - महामेदा कद) अष्टवर्ग के अभाव मे शतावरी, विदारी, अश्वगंध तथा वाराहीकद मे से प्रत्येक ४ तोला लेकर जो कुट करे । एक बडे कलईदार वर्त्तन मे डालकर उसमे १२ सेर १२ छटाँक ४ तोले जल और ५०० पके ताजा आंवले ( ६ | सेर ) को जल से धोकर कपडे में बांधकर पोटली बनाकर डाले । फिर अग्नि पर चढाकर पाक करे | जव चौथा हिस्सा जल शेष रहे तव वर्त्तन को नीचे उतार ठडा करे ओर आँवले को पृथक् करे और क्वाथ को कपडे से छान कर बर्तन मे रख ले | आँवले की गुठली को अलग करके उसको एक अच्छे कलईदार वर्त्तन के मुँह घर पाट ( सन ) का कपडा बांधकर उस पर थोडे-थोडे आँवले रखकर हाथ से दबाकर मसल कर छान ले। पीछे उसमे २८ तोले घी ( गाय का ) डालकर मदी आंच पर भूने और लकडी के हत्थे से हिलाता रहे। जब आँवलो से घी अलग होने लगे और गाढा हो जाय तो उतार कर रख दे । फिर उसमे शेष रखा हुआ क्वाथ और उसमे ७ से १३ छटांक देशी खांड या चीनी डालकर पकावे | अवलेह जैसी गाढी हो जाय उतार कर ठंडा करे । फिर उसमे २४ तोला शहद, छोटी पीपल ८ तोला, वशलोचन १६ तोला, दालचीनी ४ तोला, छोटी इलायची ४ तोला, तेजपात ४ तोला, नागकेसर ४ तोला इनका कपड़छन चूर्ण मिलाकर चीनी मिट्टी के वर्त्तन मे भर कर रख दे । मात्रा व्यक्ति के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकती है - जिस मात्रा के खाने से उस व्यक्ति के भूख मे कमी न हो वही उसकी मात्रा है । सामान्यतया २ तोला दूध से । गुण - यह एक पौष्टिक रसायन है । इसके सेवन से खांसी, पुराना श्वास रोग, राजयक्ष्मा, हृद्रोग, स्वरभग स्मरण शक्ति की कमी आदि दूर होती है । द्राक्षारिष्ट - मुनक्का २३ सेर, जल २५ सेर २८ तोले मे क्वथित करके चतुर्थाश शेप करे फिर इस क्वाथ में ठंडा हो जाने पर गुड' पुराना १० सेर लेकर हाथो से फोडकर मिलावे । फिर उसमे दाल चीनी-छोटी इलायची-तेजपत्र - नागकेशर- प्रियज-काली मिर्च- छोटी पोपल और वायविडङ्ग प्रत्येक का ४ तोले प्रक्षेत्र छोडकर घृतलिप्त पात्र मे रखकर संधान करे । इसमे भी मिला लेना चाहिये । १ मास के अनन्तर सधान धाय का फूल ३२ तोले को खोलकर छानकर Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ भिपस-सिद्धि वोतलो मैं भरकर रख लेना चाहिये। मात्रा २३ तोले समान जल मिलाकर भोजन के उपरान्त । ___ इस अरिष्ट के सेवन से मल का गोधन होता है, रोगी का बल बढ़ता है, अग्नि जागृत होती है । क्षय, कास, उर क्षत मे लाभप्रद होता है। यक्ष्मारि लौह-मधु १ तोला, स्वर्ण माक्षिक भस्म १ रत्ती, विडङ्ग चूर्ण १ माशा, शुद्ध गिलाजीत १ माशा, लौह भस्म १ रत्ती, हरीतकी चूर्ण १ मागा और गोवृत ३ तोला । इस योग का सेवन उग्न यदमा में भी लाभप्रद होता है। रोगी को दूध पर्याप्त मात्रा में देना चाहिये और पथ्यकर आहार-विहार से रहना चाहिये । इसी योग का दूसरा नाम ताप्यादि योग है। शिलाजत्वादि लौह--शुद्ध शिलाजीत, मधुष्टि चूर्ण ( या सत्त्व), गुठी, मरिच, छोटी पीपल तथा सुवर्ण माक्षिक भस्म प्रत्येक एक-एक तोला । इन सबके वरावर अर्थात् ६ तोला लौह भस्म मिलाकर महीन पीसकर शीशी मे भर लेवे । मात्रा २-४ रत्ती। सहपान थी और मधु । अनुपान दूध । शृंगाराभ्र-अभ्रक भस्म ८ तोले, कर्पूर ४ मागे, जावित्री-नेत्रवाला-जपीपल-तेजपत्र-लवङ्ग-जटामासी-तालीशपत्र-दालचीनी-नागकेसर-कूठ-बाय के फूल प्रत्येक चार-चार माशे, हरड़-बहेरा-आँवला-शुण्ठी-मरिच-पिप्पली प्रत्येक दो-दो माशे, छोटी इलायची ८ माशे, जायफल चूर्ण ८ माशे, शुद्ध गधक ८ माशे मौर शुद्ध पारद ४ माशे । प्रथम पारद और गधक की कज्जली बनाकर उसमें शेप चूर्णो को मिलाकर-जल के साथ खरल करके चार-चार रत्ती की गोलियां बना लेनी चाहिये। मात्रा १ से २ गोली अदरक और पान के रस और मधु से । यह योग श्वास-कास तथा यक्ष्मा मे लाभप्रद है। सुवर्ण भस्म के योग से बृहत् शृगाराभ्रनामक योग बनता है। कुमुदेश्वर रस-स्वर्णभस्म-रससिन्दूर-गधक-मोती भस्म-रजत भस्म-स्वर्णमाक्षिक भस्म-शुद्ध पारद-शुद्ध टकण मिलाकर कांजी में पीसकर गोला बनावे । उसपर कपडमिट्टी करके लवण यत्र में पाक करे । चूर्ण करके २ रत्ती की मात्रा में घी और मरिच के चूर्ण के साथ चाटे । वृहत् काञ्चनाभ्र रस-स्वर्ण भस्म, रम सिन्दूर, मुक्ताभस्म, लौह भस्म, मन भस्म, विद्रुम (प्रवाल भस्म), वैक्रान्त भस्म, रजत भस्म, ताम्र भस्म, वंगभस्म, क्स्तु री, लवङ्ग, जावित्री, ऐलवालुक प्रत्येक एक-एक तोला लेकर भली प्रकार से महीन पीस ले। फिर वृत कुमारी के मज्जा, भृ गराज स्वरस और बकरी के दूध से पृथक्-पृथक् तीन भावना देकर २ रत्ती की गोलियां बनाले । यह एक Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : बारहवाँ अध्याय ३५६ उत्तम लाभप्रद योग है । क्षयज कण्ठमाला मे तथा मधुमेह के साथ पाये जाने वाले क्षय रोग मे विशेप लाभप्रद होता है। महामृगाङ्क रस-मृगाङ्क रस राज-यक्ष्मा मे एक स्वनामख्यात योग हैं। इसके चार पाठ मिलते है-१. स्वल्पमृगाङ्क २ मृगा ३ राजमृगाङ्क (सताम्र भस्म ) तथा ४ महामृगाङ्क रस इस मे राजमृगाङ्क नामक योग का पाठ यहाँ दिया जा रहा है : पारद की भस्म अथवा रस सिंदूर ३ भाग, स्वर्णभस्म-ताम्रभस्म एक-एक तोला, शुद्ध मन शिला, शुद्ध हरताल शुद्ध गधक प्रत्येक २ तोले । प्रथम पारद गधक की कज्जली बनाकर शेष द्रव्यो को मिलाकर महीन चूर्ण बनावे फिर वडी-बडी कौडियो मे थोडा-थोडा भर कौडियो के मुख को शुद्ध टकण और बकरी के दूध एक मे पिसे हुए से बदकर के सुखाले। फिर शराव-सम्पुट मे वद कर गजपुट मे पुट देवे । पुट के अनन्तर शीतल हो जाने पर मय कौडियो के पीस कर महीन चूर्ण बनाकर शीशी मे भर ले । इस राजमृगाङ्क का सेवन १ से ४ रत्ती की मात्रा मे । १० पीपल और २१ काली मिर्च के चूर्ण, घी ३ तो, मधु १ नोले के साथ सेवन करना चाहिये । यह सभी प्रकार के क्षयरोग मे अमोघ औपधि है। महामगाड रस मे सुवर्ण भस्म १ भाग, रस सिन्दूर २ भाग, मुक्ता भस्म तीन भाग, शद्ध गधक ४ भाग, स्वर्णमाक्षिक भस्म ५ भाग, रजत भस्म ६ भाग, प्रवाल भस्म ७ भाग, शुद्ध टकण २ भाग, हीरे का भस्म सम्पूर्ण का ? भाग (हीरा भस्म के अभाव मे वैक्रान्त भस्म छोडने का विधान है) के योग से बनाया जाता है। चतमुख रस-शुद्ध पारद, शुद्ध गधक, लौह भस्म, अन भस्म प्रत्येक का एक भाग और सुवर्ण भस्म है भाग । प्रथम पारद और गधक की कज्जली करके उसमे अन्य भस्मे मिलावे । पीछे उसमे ग्वार पाठा (कुमारी ), ताजा गिलोय, त्रिफला, नागर मोथा, ब्राह्मी, जटामासी, लोग, पुनर्नवा और चित्रक मूल के यथालभ्य स्वरस या क्वाथ मे एक-एक दिन तक मर्दन करके एक गोला बनाकर धूपमे सुखावे । जव गोला सूख जाय तो उस पर एरण्ड को हरी पत्ती लपेट कर सूत से बांधले । फिर उसको धान्य की कोठरी में धुसेड कर तीन दिनो तक रहने दे। तीन दिन के बाद उसको निकाल कर एरण्डपत्र को हटाकर पुन कई दिनो तक लगातार घोट कर शीशी मे भर कर रखले । मात्रा १-२ रत्ती अनुपान--त्रिफला चूर्ण १ माशा और मधु १ तोला मे मिलाकर सुबह शाम सेवन के लिये दे । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकम-सिद्धि यह योग बहुत से रोगो मे लाभप्रद होता है। राज यक्ष्मा-पाण्डुरोग-वातरोग-अपस्मार और उन्माद मे विशेप हितकारी पाया गया है। मुक्ता पंचामृत-मुक्ता भस्म ८ भाग, मूगा भस्म ४ भाग, हिरन खुरोवंग भस्म २ भाग, शख भस्म १ भाग, गुक्ति ( सोप) भस्म १ भाग । सवको एकत्र करके घोट कर ईख के रस मे भावना देकर गोला बनावे फिर उसको बराव सम्पुट में बंद करके लघु पुट दे । इसी प्रकार गोदुग्ध, विदारो कद, वृत कुमारी, शतावरी, तुलसी या निर्गुण्डी, हंसपदी या लाल लज्जालु के स्वरस या क्वाथ मे पृथक् पृथक् भावना देकर लधुपुट दे । मात्रा ४ रत्ती। सहपान पिप्पली चूर्ण १ माशा के साथ । अनुपान बहुत दिनो की व्याई गाय का दूध । यह योग जीर्ण ज्वर और यक्ष्मा मे लाभप्रद पाया जाता है। इस योग से खटिक (Calcium) की कमी पूरी होकर खटिकाभरण (Calcification) मे सहायता मिलती है। अमृतप्राश घृत-द्रव्य एव निर्माणविधि-जीवक, ऋपभक, विदारीकंद, मोठ, कचूर, सरिवन, पिठवन, मुद्गपर्णी, मापपर्णी,मेदा, महामेदा, काकोली,क्षोर काकोली, छोटी कटेरी, वडी कटेरी, श्वेत पुनर्नवा, लाल पुनर्नवा (गर्दहपुर्ना),मलठी, केवाछ, शतावरी, ऋद्धि, फालसा, भारगी मूल, मुनक्का, छोटी गोखरू, छोटी पीपल, सिंघाडा, भुई आँवला, दूविया, बला, गुलशकरी, उन्नाव, अखरोट, पिण्ड खजूर, वादाम, पिस्ता, चिलगोजा, खुरमानी, चिरोजी प्रत्येक एक एक तोला लेकर कपडछान चूर्ण करके फिर जल से पास कर कल्क वनावे । उसमे ताजे यांवले का रस ६४ तोला, ताजा मतावर का रस ६४ तोला, विदारीकद स्वरस ६४ तोला, बकरे का मास ६४ तोला, बकरी का दूध ६४ तोला, गाय का घी १२८ तोला । घृतपाक की विधि से घृत तैयार करे । घृत के सिद्ध हो जाने पर उसको छान कर उसमें ३२ तोले शहद, मिश्रो ६४ तोले, तेजपात-छोटी इलायचीनाग केसर-दालचीनी और काली मिर्च इनका चूर्ण दो-दो तोला, वंशलोचन चूर्ण १६ तोले मिला कर रख ले। मात्रा ३ से १ तोला । अनुपान दूध । यह एक उत्तम पौष्टिक रमायन है। राजयक्ष्मा नौर वालको के सूखा राग (बाल गोप) में विगेप हितकारी है। जो रोगी माम वाली दवा का सेवन न करता हो उसको अजामास के स्थान पर उडद का क्वाथ डाल कर घृत को पकाना चाहिये । महाचंदनादि तैल-स्वल्प चंदनादि, चदनादि तथा महा चंदनादि तैल नाम से तीन योग भैपज्यरत्नावली में पठित है। यहां पर महाचदनादि तैल का योग दिया जा रहा है। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : वारहवाँ अध्याय ३६१ चदन, शालपर्णी, पृश्निपर्णी, छोटी तथा बडी कटेरी, गोखरू, मुद्गपर्णी, विदारी कद, असगध, मापपर्णी, आंवला, शिरीप को छाल, पद्माख, खस, सरल काठ, नाग केसर, प्रसारणी की जड अथवा प चाङ्ग, मूर्वामूल, प्रियङ्ग नील कमल, सुगध वाला, वला और अतिवला को जड, कमल कंद, कमल की डडी प्रत्येक ८ तीले श्वेत पुष्प वाली वला का पंचाग २॥ सेर लेकर २५॥ सेर ८ तोले जल मे छोड कर बडे भाण्ड मे रखकर अग्नि पर चढावे और चतुर्थांश शेष क्वाथ बनावे । फिर उसमे बकरी कद दूध, शतावर का स्वरस, लाक्षा का रम, काजी और दही का पानी प्रत्येक ३ सेर १६ तोले, हरिण-बकरी-खरगोश के मास का चतुर्गुण जल मे पकाया काढा १० सेर डाले। अब मूछिन तिल तैल ३ सेर १६ तोले लेकर उसमे इस काढे को डाल कर तथा निम्नलिखित द्रव्यो का कल्क छोड कर मद आंच पर पका कर तैल को सिद्ध करे। कल्क द्रव्य-श्वेत चदन, अगुरु, शीतल चोनी, व्याघ्रनखी, शिलारस, नागकेसर, तेजपत्र, दालचीनी, कमलमूल, हल्दी, दारु हल्दी, श्वेत अनन्तमूल, काला अनन्तमूल, लाल कमल, तगर, मोठा कूठ, त्रिफला, फालसे की छाल, मूर्वा, गठिवन, नालुका, देवदारु, सरल काष्ठ, पद्मकाप्ट, धायके फूल, कच्चे विल्वफल की मज्जा, रसाजन, मोथा, नेत्रवाला, वच, मजीठ, लोध, सौफ, जीवनीय गणको औपधियां, प्रियंगु, शटी, एला, कुकु म (केशर), सट्टाशी, कमल केसर, रास्ना, जावित्री, सोठ और धनिया प्रत्येक २ तोले । तैल के सिद्ध हो जाने पर नीचे उतार कर छान कर उसमे सुगधित द्रव्य, कस्तूरी, कपूर और केशर मिलाकर रख लेना चाहिये। इस तेल का अभ्यग, जीर्ण ज्वर, राजयक्ष्मा, रक्तपित्त, उर क्षत तथा धातुक्षीण रोगियो मे पुष्टिकर होता है। चदनवलालाक्षादि तैल-चदन, नागवलामूल, लाख और लामज्जक प्रत्येक एक सेर, जल १६ सेर को अग्नि पर चढाकर चतुर्थाश शेप क्वाथ बनाले । इस क्वाथ मे निम्नलिखित कल्क और ४ सेर दूध और २ सेर तिल तैल सिद्ध करले । कल्क द्रव्य-सफेद चदन, खस, मुलैठी, सोया, कुटकी, देवदारु, हल्दी, कूठ, मजीठ, अगर, नेत्रवाला, असगध, खिरेटी, दारु हल्दी, मूर्वा, मोथा, मूली, इलायची, दाल चीनी, नागकेसर, रास्ना, लाख, अजमोद, चम्पक, शिलारस, सारिवा, बिडलवण और सेधा नमक प्रत्येक समान भाग मे कुल मिलाकर आधा सेर। इस तेल के अभ्यग से जीर्ण ज्वर, रक्तपित्त, यक्ष्मा, दौर्बल्य, श्वास, कासादि रोग दूर होते है । सभी धातुवो की वृद्धि होती है। । बादाम का तेल ( रोगन वादाम)-श्वास, कास तथा राजयक्ष्मा मे बादाम का प्रयोग बडा उत्तम माना गया है । इसके सेवन के दो प्रकार है Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपक्कम-सिद्धि । १ हलुवा बनाकर-वादाम ११ दाने, इलायचो ११ दाने, मरीच ७ दाने । पोसकर घी २ तोले मे भूनकर मिश्री २ तोले मिलाकर दूध से सेवन करना । यह योग पुरानो खाँमी, जुकाम, श्वास रोग में बड़ा लाभप्रद मिला है । आवश्यकतानुसार एक या दो बार दिन में लिया जा सकता है। २ तेल रूप में सेवन-वढिया रोगन बादाम का चाय वालो चम्मच से १-२ चम्मच गर्म दूध में मिला कर पीना। निरामिप आहार वालो मे जिनको माम से परहेज है, इस तेल का प्रयोग पर्याप्त वृंहण करता है। काडलिवर आयल के प्रतिनिधि रूप मे व्यवहृत हो सकता है। तेरहवा अध्याय कास रोग-प्रतिषेध प्रावेशिक-कास रोग के पाँच भेद बतलाये हैं। जैसे वातज, पित्तज, श्लेष्मज, क्षतज और क्षयज । उनमें प्रारभिक तीन प्रकार के सुखसाध्य और शेप दो कृच्छ साध्य होते है । अथवा यदि रोगी बहुत क्षीण हो तो असाध्य हो जाते है। जराकास वृद्धावस्था में होने वाला एक प्रकार का दीर्घकालीन कास भी याप्य ही होता है। १ सम्यक् उपचार न होने पर सभी का अतिम परिणाम क्षयज कास या क्षय रोग होता है । ___ व्यावहारिक दृष्टि से विचार किया जाय तो कास के दो-सूखी खांसी या गीली साँसी भेद से अथवा तीन प्रकार प्रधानतया मिलते हैं। १ शुष्क कास या वातिक काम (सूखी खाँसी) तथा २ श्लैष्मिक काम (गोली खाँसी) तथा ३ पैत्तिक कास (खूनी खाँमी) । खूनी खाँसी के वर्ग मे ही क्षतज कास का समावेश हो जायगा जिसमें रोगी को खाँसी के साथ रक्त आता है। रोग की अवधि की दृष्टि से भी काम का विचार करना समीचीन रहता है। तीव्र या नवीन कास ( Acute Bronchitis), चिरकालीन या दीर्घकालीन कास । नवीन कास के वर्ग मे १ वातादिजास्त्रयो ये च क्षतज क्षयजस्तथा । पञ्चते स्युर्तृणा कासा वर्धमानाः क्षयप्रदाः ॥ साध्यो बलवता वा स्याद्याप्यम्त्वेव क्षतोत्थित । नवी कटाचित् सिद्धय तामेता पादगुणान्वितो ॥ स्थविराणा जराकास' सर्वो याप्य. प्रकीत्तित । श्रीन्साध्यान्साधयेत्पूर्वान् पथ्यर्याप्याश्च यापयेत् ।। (च० चि० १८) - Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तेरहवाँ अध्याय ३६३ वातिक, श्लैष्मिक तथा क्षतजो का समावेश हो जाता है और दीर्घकालीन कासो मे क्षयज कास (Tubercular Bronchitis ) जिसके परिणाम स्वरूप क्षय रोग पैदा होता है अथवा जराकास ( Bronchiectasis ) वृद्धावस्थागत फुपफुल तन्तुवो के स्थितिस्थापकत्व ( elasticity ) की कमी और फुफ्फुस सौत्र (Lung Fibrosis ) के कारण उत्पन्न कासो का समावेश समझना चाहिए । इनमे रूक्ष कास या वातिक कास ( Cough without expectoration ) श्वसनेतर फुफ्फुसेतर अंगो के विकार मे ( Extrarespiratory origin ) तथा शेष सभी प्रकार के कास फुफ्फुस एव श्वसन सस्थान जात ( Respiratory origin) के पाये जाते है । श्वसनेतर कहने का तात्पर्य उन अगो से है जिनका श्वसन क्रिया से साक्षात् सम्पर्क नही है । जैसे विबध आदि पचन संस्थान के विकारो में, गले के विकार जैसे गल शोथ ( Pharyna gitis ), तुण्डिकेरी ( Tonsillitis ), कण्ठशालूक ( Adenoids ), फुफ्फुमावृति शोध आदि में शुष्क कास पाया जाता है । शेष अन्य प्रकार के कासो मे अर्थात् कफयुक्त ( वलगमदार ) कास मे साक्षात् श्वसन संस्थान ही विकार के स्थल होते है । अस्तु चिकित्सा मे भेद करना पडता है । कास का प्रारंभ वास्तव मे शुष्क कास या वात कास से ही होता है आगे चल कर वह श्लैष्मिक का रूप धारण करता है । वातिक कास का रोग ही अधिकतर मिलता है पैत्तिक या इलैष्मिककास अपेक्षाकृत कम मिलते है । वातिक के परिणाम स्वरूप श्वास तथा हिक्का रोग और श्लेष्मकास का परिणाम स्वरूप फुफ्फुस क्षय होता है । कास रोग मे क्रियाक्रम और कुछ योगो का उल्लेख दोपभेद से पृथक् पृथक् करके यथाशास्त्र आगे दिया जा रहा है । क्रियाक्रम - वातिककास में, रोगी रूक्ष रहता है अस्तु उसको सर्वप्रथम वातघ्न औषधियो से सिद्ध स्नेह से ( स्निग्ध ) चिकित्सा करनी चाहिए । स्तिग्व पेया, यूप (दाल), मासरस खिलावे । वातघ्न लेह, धूम, अभ्यंग, स्वेद, सेक अवगाहन कर्म से चिकित्सा करे । यदि रोगी को विवध हो तो वस्ति देकर उसकी कोष्ठ शुद्धि करे । पित्तानुबध मे भोजन के बाद घृत या दूध पिलाना ( ऊर्ध्व या औत्तरभक्तिक घृत या क्षीर ) उत्तम होता है । श्लेष्मानुवव मे एरण्ड तेल जैसे स्निग्ध विरेचन के द्वारा उपचार करे । १ १ केवलानिलजं कास स्नेहैरादावुपाचरेत् । वातघ्नसिद्धे स्निग्धैश्च पेयायूषरसादिभि || लेहे धूमैस्तथाऽभ्यङ्गस्वेदसेकावगाहने । वस्तिभिर्बद्धविड्वात सपित्त तूर्ध्वभक्तिकैः ॥ घृतै. क्षीरंश्च सकफं जयेत्स्नेहविरेचनं । ( वा० चि० ३ ) Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि पथ्य-ग्राम्य, आनूप ओर ओदक ( जल के ) मासो के रस्ते या उडद अथवा केवाछ का यूप बनाकर उसके साथ शालि ( चावल ) अथवा पष्टिक ( साठी के चावलो ) का भात रोगी को खिलाना चाहिए। वार्तिक कास के उपद्रव रूप मे होने वाले श्वास- कास एव हिचकी रोग में दशमूल कषाय मे पकाई यवागू भी हितकर होती है। यह यवागू अग्नि को दीप्त करने वाली, धातुओ को चढाने वाली और वायु रोगो को शात करने वाली होती है । घृत से भुना हुआ कर्कोटक ( केकड़ा जीव या खेखसा शाक ) का सोठ मिलाकर अथवा गीमत्स्य को घी में भूनकर सोठ के चूर्ण के साथ मिला कर खिलाना भी वात कास मे पथ्य होता है । वातज कास मे वथुवा, मकोय, मूली, चीपतिया, घृत, तैल आदि स्नेह, दूध, ईख के रम और गुड से निर्मित भोजन, दही, काजी, खटेफल, प्रसन्ना, पानक ( शवंत ), खट्टे और नमकीन पदार्थों का सेवन करना पथ्य होता है । भेपज योग- अपराजित लेह कचूर- कर्कट श्रृंगी, पिप्पली, भारंगी, गुड, नागर मोथा, यवासा सम भाग से लेकर बनाया चूर्ण तेल ( कडवे तेल ) मे मिला कर सेवन करने से वातिक कास मे लाभ होता है । इस अपराजित लेह का प्रयोग सभी प्रकार को सूखी खाँसियो मे विशेषत कुकास ( whooping Caugh ) मे अधिक लाभप्रद पाया जाता है । ' यह कभी न पराजित होने वाला लेह है इसका अपराजित लेह नाम सार्थक है । भाङ्ग यदि लेह -- भारङ्गी, मुनक्का, कचूर, कर्कट श्रृगी, पिप्पली, शुण्ठी का सम भाग में वनाया महोन चूण का गुड-तैल के साथ सेवन लाभप्रद होता है । * ३६४ दशमूली वृत्त - दशमूल क्पाय और भारगी कल्क, मुर्गे और तीतर के मास से पकाया घृत भी वात कास मे लाभप्रद होता है । कण्टकार्यवलेह - चित्रक, पिप्पलीमूल, त्रिकटु, मस्तक, यवामा, कचूर, पुष्करमूल, श्रेयसी, तुलसी, वच, भारङ्गी, गुडूचो, रास्ना, काकडा सीगी के कल्क प्रत्येक एक कर्प, कंटकारी का काढा ( क्वाथ ) दो तुला, खाड सवा सेर, घी एक कुडव छोटकर पाक के सिद्ध हो जाने पर ठंडा होने पर उसमे मधु, पिप्पली एक कुडव, बालोचन १६ तोले मिलावे | इस अवलेह का प्रयोग वातिक कास-श्वास और हृद्रोग में करे | १ गटशृङ्गीकणाभाङ्ग-गुडवारिदयासकै । होयमपराजित ॥ ( भर ) सतैलवातकासघ्नो २ भाद्राक्षाशटीशृङ्गोपिप्पलीविश्वभेषजम् । गुडतैलयुतो लेहो हितो मारुतकामिनाम् ॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तेरहवा अध्याय ३६५ पंचमूली कपाय—बृहत पचमूल का काढा पिप्पली चूर्ण का प्रक्षेप देकर पिलाने से वात कास मे लाभ होता है । १ क्रियाक्रम पित्तकास में यदि कफ की अधिकता हो तो घी से वमन कराना हितकारी होता है । वमन कराने के लिये मदनफल, गाम्भारी का फल और मुलैठी का काढा पिलाकर अथवा इन औपधियो से सिद्ध घृत पिलाकर अथवा मदनफल और मलेठी को पीसकर उसका कल्क बनाकर विदारीकद या गन्ने के रस मे घोलकर उसे पिलाकर वमन कराना चाहिये ।२। पत्तिक कास में यदि कफ हो तो मधुर द्रव्यो से मिश्रित निशोथ का प्रयोग और यदि कफ गाढा हो तो तिक्त द्रव्यो के साथ संयुक्त करके निशोथ का प्रयोग विरेचन के लिये करे । दोषो के निकल जाने पर शीतल, मधुर और स्निग्ध पेया औषधि आदि का उपयोग कफ के पतले होने पर तथा कफ के गाढा होने पर रून, तिक्त और शीतल क्रियाक्रम रखना चाहिये । पथ्य-कफ के गाढे होने पर पित्तज कास मे जाङ्गल मासरसो के साथ या मूंग की दाल या मधुर द्रव्यो के साथ जौ, सावा, कोदो आदि के चावल का भात बनाकर तिक्त रस शाको का उपयोग मात्रा मे करना चाहिये। यदि कफ पतला निकलता हो तो चावल या साठी के चावल का उपयोग मासरस के साथ करना चाहिये । पीने के लिये गन्ने का रस, अगूर का रस, मुनक्के का प्रयोग अथवा शर्वत या दूध का प्रयोग करना चाहिये ।४। भेषज योग-लेह-द्राक्षामलकादि-मुनक्का, मुलैठी, आंवला, खजूर ( या छुहाडा ), पिप्पली, मरिच का कल्क बना कर घी और मधु के साथ सेवन । १ पंचमूलकृत क्वाथ पिप्पलीचूर्णसयुत । रसै समश्नतो नित्यं वातकासमुदस्यति ॥ (च द ) २ पित्तकासे तनुकफे त्रिवृता मधुरैर्युताम् । युञ्याद्विरेकाय युता धनश्लेष्मणि तिक्तकैः। ३ हृतदोषे हिम स्वादु स्निग्धं ससर्जन भजेत् । ___ घने कफे तु शिशिर रूक्षं तिक्तोपसहितम् । ४ मधुरैर्जाङ्गलरसयवश्यामाककोद्रवा । मुद्गादियूष शाकैश्च तिक्तकमत्रिया हिता ॥ घने श्लेष्मणि लेहाश्च तिक्तका मधुसयुता । शालय स्यात्तनुकफे पप्टिकाश्च रसादिभि । शर्कराम्भोऽनुपानाथ द्राक्षेक्षुस्वरसा पय । (वा. चि. ३) Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिपर्म-सिद्धि दूध पीते बछडे के गोवर का रस मधु के साथ चाटना ।' काकोली, बडी कटेरी, मेदा, महामंदा, अडूमा और सोठ से मासरस, दूध, पेया, यूप आदि को सस्कृत करके पित्तकास में देना चाहिये । बलादि काथ-वलाकी जड, छोटी कंटकारी, बड़ी कटेरी, अडूसा और द्राक्षा ( मुनक्का ) इन सव को वरावर मात्रा में लेकर । २ तोले का ३२ तोले जल में खौलाकर ८ तोले गेप रहने पर चीनी और शहद मिलाकर सेवन करना । क्रियाक्रम-श्लेष्मजकास में यदि रोगी बलवान् हो तो उसका तीटण वमन-विरेचन तथा गिरो विरेचन करके दीपो का संशोधन करना चाहिये । यदि रोगी निर्बल तो उसमें मृदु वमन तथा विरेचन कराके संगमन कराना चाहिये । ग्लैष्मिक कास के प्रारभ में दो उपक्रम आवश्यक होते है-प्रथम वमन, द्वितीय लघन । तदनन्तर सगमन करते हुए उपचार करे ।२ पथ्य-जी या तत्सदृश रूक्ष मन्न, कटु मोर तिक्त रस वाले यूप और शाक की व्यवस्था करनी चाहिये । कटु, तिक्त-रूक्ष और उष्णक्षार गुणवाले द्रव्यो का उपयोग कफन होता है, अस्तु इन गुणो से युक्त द्रव्यो का आहार तथा औपधि के रूप में प्रयोग करना चाहिये । जैसे-पिप्पली, क्षार, कुलथी, मूली, लहसुन, तिल, सर्पप, मूंग की दाल, जाङ्गल मास, तक्र, मद्य, पटोल, नीम, कासमर्द, कंटकारी, मधु आदि । नवाङ्ग-यूप-मूग और आँवला, यव और अनार, छोटी बेर और सूखी मूली, मोठ और पिप्पली से सस्कृत करके कुलथी या मूंग की दाल बनाकर देना कफज कास में बहा उत्तम रहता है। भेपज योग-१. मरिच का चूर्ण मधु से चाटना २ अगुरु का चूर्ण मधु मे । चाटना, ३. कटेरी का स्वरम ४. बडी कटेरी का स्वरस ५ भृगराज का स्वरस इनमें से किसी एक का स्वरम मधु से चाटना, ६. कसौदी (कासमर्द ) ७. १ लेह्येन्मधुना गोर्वा क्षीरपस्य शकृद्रसम् । (च चि १८) २. स्निग्ध विरेचयेदू-मधो मूनि च युक्तित.। तीक्ष्णविरेकर्वलिनम् । (म है) कफजे वमनं कार्य कासे लघनमेव च । गस्ता यवास्तत्प्रकृतियपाश्च कटुतिक्तका । (न. हृ.) ३ मुद्गामलान्या यवदाडिमाभ्या कर्कन्धुना शुष्ककमूलकेन । गुप्ठीकणा-या सकुलत्थकेन यूपो नवाझा कफकासहन्ता (यो र ) Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तेरहवाँ अध्याय ३६७ घोडे की लीद का रस अथवा ८. काली तुलसी का रस मधु से चाटना कफज कास मे उत्तम रहता है । ९ वैगन या भंटे का स्वरस भी मधु के साथ कासन होता है । " १०. पिप्पली, पिप्पली मूल, सोठ और विभीतक के समभाग मे वने चूर्ण का मधु मे सेवन | ११ मोर और मुर्गा की पखो को जलाकर ली गई कारिख, यवक्षार, इन्द्रवारुणी मूल, पिप्पली मूल और निशोथ के चूर्ण का मधु से सेवन । १२. देवदारु, शटी ( कचूर ), अतीस, नागरमोथा, पुष्करमूल, कट्फल, हरीतकी, कर्कटशृङ्गी, अदरक, सोठ, हिंगु, सैन्धव, पंचकोल, दशमूल आदि औपधियां वात और कफ कास में लाभप्रद होती है । - क्रियाक्रम क्षतज कास में पित्तकास मे वतलाये उपक्रमो के अनुसार क्षतज कास मे चिकित्सा करनी चाहिये । पित्तकास मे शमन के लिये पित्त दोष के शामक, कासघ्न एव मधुर द्रव्यो से जैसे क्षीर, घृत, इक्षु रस, शर्वत और मधु आदि का अनुपान देना चाहिए। जीवनीय गण की औषधियो से सिद्ध घृत का पिलाना । घृत का अभ्यग । कबूतर का मासरस । तृष्णाधिक्य मे बकरी का दूध | रक्तष्ठीवन अधिक हो रहा हो तो शीतल यवागू का सेवन | 2 इक्ष्वादिलेह - इक्षु, इक्षुवालिका, पद्म, मृणाल, उत्पल, चदन, मुलेठी, पिप्पली, मुनक्का, कर्कटशृंगी, शतावरी, प्रत्येक का एक भाग । कुल से दूना वशलोचन और चतुर्गुण मिश्री । इस चूर्ण का घृत और मधु मिलाकर सेवन क्रियाक्रम क्षयज कास में यदि रोगी दुर्बल हो और उसमे सम्पूर्ण लक्षणो से युक्त रोग हो तो उसको छोड देना चाहिए, परन्तु बलवान् रोगी हो और रोग नवीन हो तो रोग को दु साध्यता के बारे में रोगी के अभिभावक को बतलाकर ( प्रत्याख्यान करके ) उसकी स्वीकृति लेकर उपचार प्रारंभ करना चाहिये । क्षयज कास में सर्वप्रथम अग्नि का दीपन और रोगी के शरीर का वृहण ( धातुवो की वृद्धि ) का ध्यान रखना चाहिए। यदि रोगी मे दोपो की अधिकता ९ मधुना मरिच लिह्यान्मधुनैव च जोनकम् । पृथग् रसाश्च मधुना व्याघ्रीभार्ताकुङ्गजान् । कासघ्नाश्च कृशश्वश ४. सुरसस्यासितस्य च । ("वा चि ३ ) २ क्षतकासाभिभूताना वृत्ति स्यात् पित्तकासिको । चोरसर्पिर्मधुप्राया संसर्गे तु विशेषणम् ॥ वातपित्तादितेऽभ्यङ्गो गात्रभेदैर्वृतिः । पानं जीवनीयस्य सर्पिष ॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ भिपकर्म-सिद्धि हो तो उसको स्निग्ध और मृदु विरेचन देना चाहिए । अमल्ताश, त्रिवृत्, मुनक्का, तिल्वक कपाय या विदारी कंद के स्वरस से सिद्ध वृत से कमजोर रोगियो का गोधन करना चाहिए। भेपज-रोगी में अनुवासन वस्ति का प्रयोग बृतमण्ड या मिश्रक स्नेह में मधु मिलाकर । जाङ्गल मास, विल मे रहने वाले पशु-पक्षियो का मास तथा माम खाने वाले पशु-पक्षियो के मास जो विगेप बृहण होते हैं, क्षयज कास मे खाने के लिए देना चाहिये । क्षयज कास मे चटक-मास का प्रयोग भी लाभप्रद बतलाया है। पिप्पली गुड से सिद्ध अथवा छागीक्षीर से सिद्ध घृत क्षयज कास मे पिलावे। अचूर्ण के चूर्ण को वासा के स्वरस मे बहुत वार भावित करके वशलोचन, घृत, मधु और मिश्री के साथ मेवन । मुस्तकादिलेह-मोथा, पिप्पली, द्राक्षा, पके बडी कटेरी का फल सम भाग मे चूर्ण बनाकर घृत और मधु मिला कर सेवन । कास रोग का सर्व सामान्य प्रतिषेध-शास्त्रीय दोपानुसार चिकित्सा के अनन्तर व्यावहारिक चिकित्सा का उल्लेख किया जा रहा है। वास्तव में आधुनिक चिकित्सा मे अधिकतर इन्ही क्रिया-क्रमो का अनुपालन करते हुए रोगी को रोगमुक्त किया जा सकता है। भेपज-शृंगवेरस्वरस-(अदरक का रस )१० से २० वूद, मधु ६ मागे के साथ पिलाना। इसका उपयोग अधिकतर रस योगो के सेवन काल में अनुपान या सहपान के रूप में व्यवहृत होता है। सभी प्रकार के कास में लाभप्रद पाया जाता है। आईक के रस के साथ मधु की जगह पर पुराने गुड या चीनी की चाशनी का भी उपयोग हो सकता है। विभीतक (बहेरा-बहेरेके फल को घो मे चुपडकर उसके ऊपर गाय का गोवर लपेट कर आग में डाल कर पकाले। इस प्रकार स्विन्न विभीतक को ठडाकर के उसका चूर्ण बनाले । मुख में रख कर चूसने में कास तथा श्वास रोग मे अद्भुत लाभ दिखलाता है। औपवियो के अनुपान रूप मे इम विभीतक के चूर्ण का प्रयोग किया जा सकता १ सम्पूर्णरूप क्षयज दुर्वलस्य विवर्जयेत् । नवोत्थित बलवत. प्रत्याख्यायाचरेत् क्रियाम् ।। तस्मै बृ हणमेवादी कुर्यादग्नेश्च दीपनम् । बहुदोपाय सस्नेहं मृदु दद्याद् विरेचनम् ।। सम्पादन निवृतया मृद्वीकारसयुक्तया। तिल्वकस्य कपायेण विदारीम्बरसेन च ॥ मपि सिद्धं पिवेद्य क्त्या क्षीणदेहो विशोधनम् ॥ (च चि. १८) Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : तेरहवाँ अध्याय ३६६ है। आमलकी--आंवले को आग मे पकाकर उसका भर्ता बना लिया जावे तो सभी प्रकार के कास मे लाभ प्रद होता है। हरिद्रा--की गाँठ आग मे भूनकर उसकी गांठ को मुख मे धारण करने और चूमने से खांसी मे लाभ पहुँचता है। लवड-को आग के ऊपर तपा रख कर सेक कर मुख मे धारण करने से कास मे पर्याप्त लाभ होता है। वासक-अडूसे का पुटपाक से बनाया स्वरस मधु के साथ पिलाना अथवा वासा का कपाय बनाकर उसमे पिप्पली चूर्ण ४ रत्ती और मघु ६ मागे मिलाकर पिलाने से कास का वेग शान्त होता है । इमलो-इमली की पत्ती का काढा हिंगु एवं सेधानमक मिलाकर पिलाने से दुष्ट कास रोग मे भी लाभ होता है। कंटकारी-कटकारी पंचाङ्ग-स्वरस, कपाय या घृतभृष्ट फल श्रेष्ठ कासनाशक होता है। मधुयष्टि-मुलैठी का मुख मे धारण या इसके अनुपान से रसौषधियोगो का प्रयोग कासघ्न होता है । बृहत् पंचमृल अथवा दशमूल का कयाय पिप्पली का चूर्ण मिलाकर सेवन करने से पार्श्वशूल, कास, श्वास तथा श्लेष्मज काग मे लाभप्रद होता है । कालीमिर्चका पुराने गुडके साथ सेवन । गुडूची-का स्वरस या कषाय का मधु के साथ पिलाने से कास मे चमत्कारिक लाभ होता है । वदरीपत्र-बेर की पत्ती को घृत मे भूनकर नमक मिलाकर सेवन । त्रिफला और त्रिकटु के प्रत्येक द्रव्य सम मात्रा मे लेकर २ माशे की मात्रा मे मधु मे चाटना। कंटकार्यादिकपाय-छोटी कटेरी, बडी कटेरी, मुनक्का, अडूसा, सोठ, छोटी पीपल, कायफल, कचूर, कालीमिर्च, जेवायन और सुगधवाला का क्वाथ मयु और मिश्री युक्त कास मे सद्य. लाभ दिखलाता है। इसका उपयोग कास मिश्रण (Cough Mixtures) के प्रतिनिधि रूप में किया जा सकता है सभी प्रकार के कास मे समान भाव से लाभप्रद होता है। , मरिच्यादि चूर्ण या गुटिका-काली मिर्च १ तोला, छोटी पिप्पली १ तोला, दाडिम के फल का छिलका या अनारदाना ४ तोले, यवक्षार ३ तोला और गुड ८ तोला । महीन पीसकर चूर्ण बनाले अथवा गुटिका बना ले । यह मरिच्यादि चूर्ण या मरिच्यादि वटी एक सिद्ध योग है । सभी प्रकार की खांसी मे इसका प्रयोग लाभप्रद रहता है । मात्रा ३ माशे चूर्ण या १-२ माशे की गोलियां दिन में कई बार चूसने के लिए दे। सर्व औषधियो से असाध्य, वैद्य के द्वारा परित्यक्त कास रोग मे, यदि पूय भी खाँसी के साथ निकलती हो तो भी इस योग के प्रयोग से लाभ होता है। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० भिपकर्म-सिद्धि "सम शर्कर चूर्ण-लवङ्ग, जायफल, छोटी पीपल प्रत्येक का चूर्ण एक एक तोला, मरिच २ तोला, सोठ १६ तोला सब चूर्णों के बराबर अर्थात् मिश्री का चूर्ण २१ तोला । इस चूर्ण का प्रयोग वायु मोर श्लेष्मा जन्य कास में तथा अग्निमाद्य में वडा लाभप्रद होता है। मात्रा २ माशे । अनुपान जल । __ लवज्ञादिवटी-लबग, काली मिर्च, वहेरे के फल का छिल्का प्रत्येक १ भाग रोकर कुल चूर्ण के बराबर कत्था लेकर अर्थात् ३ भाग । बवूल के रस में घोट कर गोलियाँ ४ रत्ती के परिमाण की बना ले। सभी प्रकार के कास में विशेपत गीली खाँसी मे चूसने के लिए प्रयोग करे । इससे गले का क्षोभ (Irri tation) कम होता है । फलतः खांसी मे लाभ करता है । बृहत् लवङ्गादिवटी-लीग ४ तोला, बहेडे के फल का छिल्का'४ तोला, छोटी पीपल ४ तोला, काकडा सीगी २ तोला, अनार के फल का सूखा छिल्का १ तोला, दालचीनी २ तोला, कत्था १० तोला, मुलेठी का सत २ तोला, मुनक्का ५ तोला, आक के फूल ५ तोला, मागपर फुलाया सुहागा १ तोला । पहले माक के फूल मीर मुनक्के का चौगुने जल मे काढा वनावे जव चौथाई जल बाकी रहे तव कपडे से छान कर उसमे मुलेठी का सत और सुहागे का लावा मिलावे पीछे अन्य द्रव्यो का चूर्ण मिलाकर मटर के बराबर की गोलियाँ बनावे । उपयोग-जव साँसी जोर को भाती हो और कफ न निकलता हो तव इस गोलो को मुंह मे रखकर चूमने मे खांसी का वेग कम होता है, कफ आसानी से निकलता है और गला साफ होता है। (माचार्य यादवजी के सिद्धयोग-सग्रह से) सितोपलादि या तालीशादि चूर्ण--(क्षय रोग में उक्त ) इसका १ माशे से ३ माशे की मात्रा मे घी १ भाग शहद २ भाग के साथ दिन मे कई वार देना सभी प्रकार के कास मे लाभप्रद होता है। शवेत जूफा--मुनक्का ३० तोले, उन्नाव २० तोले, सपिस्तान ( लसोढे के पके और सूखे फल ) २० तोले, मूखे अजीर २० तोले, सोसन के मूल ( वेख कर्फम) १० तोले, जूफा १० तोले, हंसराज १० तोला, विहीदाना ५ तोला, अनी सून ५ तोला, सीफ ५ तोला, टिल्का रहित जी ३ तोले । सवको जी कुट करके तीन गुने जल मे रात को भिगी दे। सुबह मदी आँच पर पकावे। जव एक तिहाई जल रह जावे तो ठडा करके कपडे से छान ले । पीछे उसमें ६ सेर चीनी डाल कर पकावे जव चाशनी बन जावे तो उसे नीचे उतार कर ठंडा होने दे। फिर १ तुत्या लवङ्गमरिचाक्षफलत्वच. स्यु. सर्वेः समो निगदित खदिरस्य सार । बबूलवृक्षजकपाययुत च चूर्ण कामान्निहन्ति गुटिका घटिकाप्टकान्ते ॥ (वै० जी०) Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तेरहवा अध्याय ३७१ कपडे से छान कर वोतलो मे भर ले । मात्रा १ से २ तोला बरावर पानी मिला कर तीन वार दिन मे । वातिक और पैत्तिक कास मे लाभप्रद । खांसी से कफ निकलता हो तो इसके प्रगोग से कफ ढीला होकर आसानी से गिर जाता है। ___ अगस्त्यहरीतकी-दशमूल की प्रत्येक औषधि ८ तोला, केवाछ के बीज, शखपुष्पी, कचूर, बलाकी जड, गजपीपल, अपामार्ग मूल, पीपरामूल, चित्रक मूल,भारङ्गो मूल, पुष्कर मूल प्रत्येक ८ तोला । वस्त्र की पोटली मे बंधा जौ ३ मेर १६ तोला, वडी हरड १००, जल ३२ सेर । सवको एक बडे भाण्ड मे रख कर अग्नि पर चढावे । जव जल कर चौथाई पानी शेष रहे तो भाण्ड को नीचे करके ठंडा करे । पानी को छान लेवे । अब हरड को पृथक् करके प्रत्येक हरड को पतली नोकदार शलाका ( Fork ) से-सूए से कई छेद कर ले । फिर कलईदार कडाही मे घृत ३२ तोले, तिल तैल ३२ तोले डाल कर भट्टी पर चढाकर घृत और तेल के प्रतप्त हो जाने पर उसमे विधे हुए हरीतकी के फलों को भूने जब भुन ने पर हरीतकी का जलाश सूख जाये वह लाल हो जाय, उसमे सुगंध आने लगे तो कडाही को उतार कर हरडो को एक बर्तन मे पृथक् रख ले । अब कडाही मे उपयुत क्वाथ जल में ५ सेर पुराना गुड डाल कर आग पर चढावे । जव एक तार की चाशनी बनने लगे तो उसमे स्नेह मे भर्जित हरड को छोडे जब पाक समीप आवे तो उसमें १६ तोले पिप्पली का चूर्ण डालकर मालोडित करके उतार लेवे । शीतल हो जाने पर उसमे ३२ तोले शहद मिलाकर किसी मृतवान मे भर कर सुरक्षित रख लेवे । मात्रा प्रतिदिन २ से ४ हरड का सेवन । दूध या जल से करे । यह अगस्त्य ऋपि के द्वारा प्रोक्त रसायन है। सर्वकास मे प्रशसित है। । च्यवनप्राश तथा वासावलेह पूर्वोक्त क्षय रोगाधिकार का भी प्रयोग कास मे लाभप्रद है। । विभीतकावलेह-बकरी का मूत्र ५ सेर, विभीतक फल का चूर्ण ५ सेर । अग्नि पर चढाकर सिद्व करे । सिद्ध होने पर उतारे और ठडा हो जाने पर मधु आधा सेर मिलाकर रख ले । कास और श्वास रोग मे यह एक श्रेष्ठ योग है। १ वासावलेह-का सेवन भी उत्तम रहता है । - - - १ आजस्य मूत्रस्य शतं पलाना शत पलाना च कलिद्रुमस्य । पक्वं समध्वागु निहन्ति कासं श्वास च तद्वत् सबलं बलासम् ॥ (वै० जी०) Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૨ भिपक्कर्म-सिद्धि - करवीर योग-खत करवीर की जलाई काली राख ३ भाग, त्रिकटु चूर्ण ( मोठ, मरिच, छोटी पीपल प्रत्येक एक भाग), मात्रा १ मात्रा, अनुपान लगा पान के वीडे मे रख कर खाना । दिन में तीन चार वार | कासमे सद्यः लाभप्रद । (स्व० पुष्पोत्तम जी उपाध्याय अध्यापक आयुर्वेद विद्यालय हि० वि० वि० कागी का योग ) । गले का क्षोभ कम होकर कास मे लाभ पहुँचता है | एलादि वटी - छोटी इलायची, तेजपात, दालचीनी प्रत्येक आधा तोला, छोटी पीपल दो तोला, मिश्री ४ तोला, धोकर बीज निकाला मुनक्का ४ तोला, गुठली निकाला हुआ पिण्ड खजूर ४ तोला, प्रथम मुनक्का और पिण्ड खजूर को महीन पीसे । पीछे उसमे अन्य द्रव्यों का कपडछन चूर्ण मिलावे | यदि गोलो वनाने में आवश्यक्ता पढे तो उसमें शहद मिलावे । इसमें मुलैठी का सत भी ४ तोले मिला लेना चाहिए । 1 यह सूखी खांसी, पैत्तिक कास या क्षतज कास में सिद्ध योग है । दिन मे ८ से १२ गोली तक रोगी को चूसने के लिए देना चाहिए साथ में नित्य यष्ट्यादि चूर्ण ६ मागे एक मात्रा रात्रि में देना चाहिए । उत्तम कार्यकर होती है । द्राक्षारिष्ट ( क्षय रोग में पठित ) - भोजन के बाद नित्य पीने के लिये २|| तोले की मात्रा में समान भाग जल मिलाकर देना भी कास रोग में उत्तम रहता है । वासकारिष्ट - अडूने के पत्तो का स्वरम अथवा पञ्चाङ्ग का क्वाथ और मृत-सञ्जीवनी सुरा (Rectified Spinit) इन दोनो को बराबर लेकर वृत स्निग्ध मिट्टी के पात्र अथवा काच पात्र में भर कर उन पात्र के मुख को अच्छी तरह वन्द करके एक स्थान पर रख देवे । पञ्चात् उसको माफ छान कर शी में भर कर रख ले और प्रयोग करे | मात्रा १० से ३० वूद पानी मिलाकर । चंद्रामृत रस - सोठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, हर्रे का दल, व्हेडादल, आंवला, चव्य, धनिया, जीरा, मेंधा नमक, शुद्ध पारद तथा गंधक, लौह भस्म, वक भम्म प्रत्येक एक तोला तथा शुद्ध सोहागा ४ तोला । प्रथम पारदनांधक की कज्जली बनाकर शेप वनस्पतियों के कपड़ छन चूर्ण और भस्मो को मिलावे ! बकरी के दूध तथा अटूसे के रम की भावना देकर तीन तीन रत्ती की गोलियां चना ले | मात्रा १–२ गोली दिन में तीन बार । अनुपान अदरक के रस मधु से या पिप्पली चूर्ण और मधु से या कुलत्थो के काढ़े से या मिश्री के शर्बत से, शर्वत जूफा से सूखी खांसी में खून गिरने में खून खराबा का चूर्ण ५ रत्ती मिलाकर और लाल कमल या नीलोफर के काढ़े से पोने को दे । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तेरहवाँ अध्याय ३७३ न भागोत्तर गुटिका - शुद्ध पारद १ तोला, गन्धक २ तोला, पिप्पली चूर्ण ३ तोला, हरीतकी चूर्ण ४ तोला, बहेडे का चूर्ण ५ तोला, अडूसे के मूल या पत्ती का चूर्ण ६ भाग, भारती चूर्ण ७ भाग । इनका महीन चूर्ण । बब्बूल के रस या कषाय की भावना | मधु मिलाकर १ माशे की गोलियां । पिप्पली चूर्ण और मधु अथवा कंटकारी क्वाथ या अदरक रस और मधु से सेवन करावे अथवा मधुयष्टी चूर्ण और मधु के साथ दे। कुकास मे यह योग विशेष लाभप्रद ( Whooping Cough) पाया जाता है । are श्रृगाराभ्र, बृहत् श्रृंगारान इनका भी यथायोग्य अनुपान से प्रयोग कास मे लाभप्रद होता है नागवल्लभ रस - कस्तूरी, चोच, टकण प्रत्येक १ तोला, केशर, दरद, पिप्पली प्रत्येक २ तोला, अकरकरा, जातिपत्री, जातीफल ( जावित्री एवं जायफल ) प्रत्येक ४ तोले । महीन चूर्ण करके । पान के रस मे तीन दिनो तक मर्दन करे | मूंग के बराबर गोली बना ले । आर्द्रक के रस और मधु के अनुपान से अथवा पान में रखकर खाने का विधान है । वासाचन्दनादि तैल -- श्वेत चन्दन, रेणुका, खट्टाशी, अश्वगन्धा, गन्ध प्रसारिणी, दालचीनी, छोटी इलायची, तेजपत्र, पिपरामूल, नागकेशर, मेदा, महामेदा, सोठ, मरिच, पिप्पली, रास्ना, मुलेठी, भूरि छरीला, कचूर, मीठा कूठ, देवदारु, प्रियङ्गु और वहेडे के फल का छिलका प्रत्येक ४-४ तोले भर लेकर सबको जल के साथ पत्थर पर पीस कर कल्क बना लेवे । फिर तिल-तैल ३ सेर 1 १६ तोला, अडूसा पञ्चाग का क्वाथ, लाक्षा का स्वरस अथवा काढा, दही का पानी तथा लालचन्दन, गुडूची, भारंगी, दशमूल, छोटी कंटकारी का मिश्रित क्वाथ प्रत्येक का आवा द्रोण | तेल-पाक विधि से सिद्ध कर ले। इस तेल का अभ्यग पूरे शरीर मे विशेषत छाती, पीठ और पार्श्व मे करने से जीर्ण कास मे उत्तम लाभ होता है । धूम प्रयोग - जात्यादि धूम - चमेली की पत्ती, मरिच, मन शिला, आक की जड, गुग्गुल • बेर की पत्ती और जटामासी सम भाग में लेकर मोटा चूर्ण बना कर अर्क क्षीर से भावित कर के सुखाकर रख ले। निर्धूम अगारे पर थोडा छोडकर धूम के पीने से खांसी मे वडा लाभ होता है । धूम-पान का थोडी देर बाद दूध और मिश्री या मिश्री का शर्बत पिलाना चाहिये । पान का लगा वोडा खाने को देना चाहिये | इससे खाँसी मे तत्काल लाभ होता है । अपथ्य -- चावल, दधि, शर्बत, लस्सी, नया गुड, दूध, मछली, कदशाक, अन्य गुरु, शीत एव अभिष्यन्दी महार, धुलि, घुवे आदि का स्थान कास रोग मे अपथ्य है | Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ अध्याय हिक्का-श्वास-प्रतिपेव प्रादेशिक-माधारण वोल चाल में हिक्का को हिचकी और श्वास को दमा कहते है । खामी के साथ दमा का घनिष्ट सम्बन्ध है । खाँसी पुरानी होकर श्वास रोग को उत्पन्न करती है। इन दोनो का पाठ भी प्राय. शास्त्रों में साथ साथ या एक के बाद दूसरे का (अर्थात् कासके बाद ग्वाम का) पाया जाता है। चिकित्सा में बहुत से भेपज और उनके योग समान ही मिलते है और दोनो में लाभप्रद पाये जाते है। ग्वाम रोग के साथ हिक्का रोग का भी घनिष्ठ सम्बन्ध है। इन तन्ह काम (Cough), श्वास ( Asthma) तथा हिक्का ( Hiccough ) के लक्षण समुद्राय (syndrome) तीनो रोगो में परस्पर में सम्बद्ध है मस्तु दो या तीनो का पाठ एक ही अध्याय में किया मिलता है।' कास-हिक्का और श्वास में निदान ( हेतु ) और चिकित्सा सूत्र (Principles of treament) समान होने की वजह से दोनो या तीनो रोगो में समानता होते हुए भी सम्प्राप्ति, क्रिया तथा बैग में भिन्नता होने की वजह से काम का पाठ पृथक किया गया है। इसके अतिरिक्त दोपभेद से कास रोग में बातिक-पत्तिक-ग्लैष्मिक आदि भेद होते हैं। हिक्का-वाम मे इस प्रकार के भेद नहीं होते है । नाय ही हिलका-श्वान में प्राणोदान ममाना-पान तथा कास मे प्राणोदान ही विकृत होता है । अस्तु, कास रोग का स्वतंत्र वर्णन पाया जाता है। और ज्वान का साथ माय । हिरका और श्वास रोग में केवल वात और कफ दो दोपों की ही प्रधानता होती है, माथ ही पचन संस्थान की विकृति का होना भी अनिवार्य है जैसा कि दृवल ने कहा है 'कफवातात्मकावेती पित्तस्थानममुद्गतो' अर्थात् हिक्का एवं श्वास रोग पित्त स्थान से उद्भूत होते हैं। और कफवातात्मक होते हैं। यहा 'वाय. फेनानुगत पञ्च टिका करोति च' अर्थात् वायु कफ से मिलकर पाच प्रकार की दिकका पैदा करता है। भाचार्य वाग्भट ने तो श्वास और हिक्का रोग में १ हिरका-स्वाससामान्योत्पादकनिदानमाह-विदाहिगरुविष्टम्भिरुक्षाभियंदिभोजन. बीतपानागनस्थानरजोघमातपानिलः ।। व्यायामकर्ममाराध्ववेगाघातापतर्पण हिपना बासश्च कासश्च नणा ममुपजायते ॥ (सु ३.५०) . Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : चौदहवाँ अध्याय एक हो हेतु प्रारूप, संख्या, प्रकृति और समय " श्वासेकहेतुप्राग्रूपसंख्याप्रकृतिमंत्रया कहकर विराम के लिया है । यद्यपि हिक्का और श्वास में आरभक दोष नमान होते है तथापि उनमे सम्प्राप्ति, वेग, स्वर, लक्षण तथा प्रतिपेत्र मे प्रयुक्त होने वाले भेषजो के भेद से पर्याप्त भेद हो जाता है । अस्तु, दोनो की चिकित्मा का पृथक् पृथक् उल्लेख किया जाता है । }; ३०५ हिक्का और श्वाम रोग स्वतंत्र भी हो मकते है अथवा किसी अन्य रोग मे उपद्रव स्वरूप मे भी पैदा हो सकते हैं । " ये दोनो ही सद्य घातक रोग है । प्राण को नष्ट करने वाले रोग यद्यपि बहुत है, तथापि वे हिक्का और श्वास के समान उनती शीघ्रता से प्राणो का नाश नही करते है । इन अवस्थाओ में श्वासावरोध, हृदय का घात ( Syncope ) या सन्यास ( coma ) से सद्य. प्राणनाथ का भय रहता है । हिक्का और श्वास ये महान् प्राणघातक रोगो के लिये उतरे की घटी का काम करते हैं । " हिक्का -- आधुनिक विचारको के अनुसार हिक्का की उत्पत्ति अनुकोष्ठिका वातनाडी ( Phrenic Nerve ) के क्षोभ ( Irritation ) से होनेवाले महाप्राचीरा पेशी (Diaphragm) के अनियमित सकोच (Clonic Diapthragmatic spasm is called Hiccough ) के कारण होती है । स्वभाविक दशा में आमतौर से महाप्राचीरा के सकोच के साथ ही उपजिह्विका द्वार ( Epiglottis ) खुलता है, परन्तु अनियमितता आने पर इन दोनो क्रियावो मे अन्तर आ जाता है जिसमे अंत श्वसित वायु उपजिह्विका द्वार के वद होने के कारण रास्ते मे हो अवरुद्ध हो जाती है जिससे हिक हिक् शब्द की उत्पत्ति होती है । एतदर्थ इस रोग को हिक्का या हिचकी कहते हैं । इस अनियमित सकोच के विविध कारण है । उन सबको दो प्रधान वर्गों मे बाँट सकते है १ पचन संस्थानीय २ वात संस्थानीय ( Nervous ) १. अतिसारज्वरच्छदिप्रतिश्यायक्षतक्षयात् । रक्तपित्तादुदावत्तद् विसूच्यलसकादपि ॥ पाण्डुरोगा द्विपाच्चैव प्रवर्त्तेते गदाविमौ । निष्पावमापपिण्याकतिल - तैलनिषेवणात् ॥ पिष्टशालूकविष्टम्भिविदाहिगुरुभोजनात् । जलजानूपपिशितदध्यामक्षीरसेवनात् ।। अभिष्यन्द्युपचाराच्च श्लेष्मलाना च सेवनात् । कण्ठोरस - प्रतीघाताद्विविधैश्व पृथग्विधै ॥ (च ) २ कामं प्राणहरा रोगा बहवो न तु ते तथा । ļ यथा श्वासश्च हिक्का च हरत प्राणमाशु च ॥ ( चचि २१ ) ३ मुहुर्मुहुर्वायुरुदेति सस्वनो यकृत्प्लिहान्त्राणि मुखादिवाचिपन् । स घोषवानाशु हिनस्त्यसून् यतस्ततस्तु हिक्केत्यभिधीयते बुधै ॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि पचनसंस्थानीय कारण - आमाशय और अन्न--प्रणाली का क्षोभ जैसे मिर्च, मसाले, खटाई, धूम आदि विविध प्रकार के अजीर्ण, अतिसार, प्रवाहिका, विवध और आध्मान आदि । प्राचीनो के अनुसार पित्त स्थान से उद्भूत कहने का यही अर्थ है । पित्त स्थान का अर्थ सम्पूर्ण पचनसंस्थान से ग्रहण किया जा सकता है जिनके विकारो में हिचकी पैदा हो सकती है । ३७६ वातसंस्थानीय कारण - १ अपतंत्रक, मस्तिष्क शोफ, मस्तिष्कार्बुद, अपम्मार, मदात्यय (२) फुफ्फुसावृति णोथ, मध्यपर्शकीय अर्बुद या ग्रंथियाँ (Mediastinal glands), जीर्णवृक्कशोथ, मूत्रविपमयता में हिक्का उत्पन्न हो सकती है । इनमे प्रथम वर्ग का साक्षात् मस्तिष्क पर प्रभाव पड़ता है, दूसरे का प्रान्तीय वातनाडी क्षोभ ( Peripheral Nerve Irritation ) के द्वारा । हिक्का पाँच प्रकार की पाई जाती है अन्नजा, यमला ( चरक के अनुसार व्यपेता ), क्षुद्रा, गम्भीरा और महती । इनमें गम्भीरा ( नाभि से उठने वाली और गम्भीर गव्द करने वाली उपद्रव युक्त ) तथा महती ( मर्मो को पीडित करने वाली वडी हिक्का ) असाध्य होती है । यमिका भी यदि रोगी बलवान् हो, उपद्रव अधिक न हो, दो-दो या तीन हिचकी मिलकर आयें तो कृच्छ्रसाध्य अन्यथा असाध्य होती है । अन्नजा और क्षुद्रा हिक्का सुखसाध्य है ।" क्रियाक्रम —- सामान्य हिचकी में जहां मिर्च अधिक खा लेने से या तम्बाकू, सुर्ती आदि खा लेने से हिचकी आने लगती है, इसमें हेतु आमाशय और कंठ देश का क्षोभ होता है । इसमें पानी पिलाना पर्याप्त होता है । पानी पी लेने से, साँम रोक लेने से या मन को दूसरी दिशा में प्रेरित कर लेने से हिचकी शान्त हो जाती है । चित्तको दूसरी ओर आकृष्ट करने के लिये सहमा कुछ क्रियायें करने से हिक्का का दौरा खतम हो जाता है । संभवत इन क्रियावो से इडा स्वतंत्र नाडी- महल की उत्तेजना ( Sympathicotonia ) कम होकर प्राणदानाडी ( Vagotonia ) को क्रिया बढती है और लक्षणां मे शान्ति मिलती है । जैसे, शीतल जल का परिपेक (छोटा देना ), त्रास दिखलाना, विस्मय या आश्चर्य में डालना, क्रोध कराना, हर्प कराना, प्यारी वस्तु को दिखाना, उद्विग्न कराना, १. अन्नजा यमला क्षुद्रा गम्भीरा महती तथा । वायु. कफेनानुगत. पञ्च हिक्का करोति हि । हो चान्त्यों वर्जयेद्धि कमानो । अक्षीणञ्चाप्यदीनश्च स्थिरधात्विन्द्रियञ्च य ॥ तस्य माधयितु शक्या यमिका हृन्त्यतोऽन्यथा ॥ ( सु ३.५० ) Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : चौदहवाँ अध्याय ३७७ प्राणायाम कराना, दग्ध मिट्टी पर जल डालकर सुघाना, कूचो से जल की धारा छोडना, नाभि के ऊपर चोट पहुँचाना, हल्दी को दिया पर जला कर उससे पैरो पर या नाभि के दो अंगुल नीचे या ऊपर जलाना। परन्तु जहाँ पर हिचकी रोग रूप में पैदा हो जाती है-कुछ स्थायी उपचार भी आवश्यकता होती है । मस्तु, हिक्का रोग में तथा श्वास रोग में सर्वप्रथम हिनका रोग में रोगी के उदर पर तथा श्वास रोग मे रोगी के वक्ष-स्थल पर किमी तेल का मर्दन कराके स्वेदन करना चाहिए । तैल मे सैधव या कपूर भी मिलाया जा सकता है। स्वेदन के अनन्तर स्निग्ध तथा लवणयुक्त प्रयोगो से वायु का अनुलोमन करना चाहिए । यदि रोग वलवान् हो तो वमन तथा विरेचन मे उसका मदु नशोधन करना चाहिए अन्यथा केवल गमन चिकित्सा करनी चाहिए।' कुछ सामान्य औषधियां जो श्वास तथा हिक्का दोनो मे व्यवहृत होती है। दशमूल की औषधिया, रास्ना, कचुर, पिप्पली, द्राक्षा, शु ठी, पुष्कर मूल, कर्कटशृंगी, आमलकी, खजूर, भारगी, गुडूची, हिंगु, सीवर्गल, जीरा, हरीतकी, यव, घासमद, गाभाजन, सूसी मूली का यूप या वैगन का यूप, दधि, त्रिकटु और चियक घी मिला कर। हिकामे-भेषज-ओपधियाँ कारणानुसार दो प्रकार की होती है १. जिनको प्रभाव साक्षात् मस्तिष्क पर होकर हिचकी वद हो। २ दूसरी ऐसी औपवियाँ जिनका प्रभाव पचन संस्थान पर होकर धीरे-धीरे वायु का अनुलोमन होकर हिक्का का शमन हो। प्रथम वर्ग में कई प्रकार के नस्य (नाक के रास्ते प्रयुक्त होने वाले योग ) तथा धूम आदि है । जैसे-१ मातस्तन्य ( नारीक्षीर) का नस्य हिचकी मे चामत्कारिक लाभ दिखलाता है । २ नारीक्षीर, सफेद चंदन का घृष्ट और सैन्धव नमक मिलाकर पानी में घोलकर गर्म करके नाक मे टप काना हिक्का को सद्य वद करता है। ३ सेंधानमक को पानी में घोल कर १. शीताम्बुसेक सहसा त्रासो विस्मापन भयम् । क्रोधो हर्प, प्रियोगप्राणायामनिपेवणम् ।। दग्धसिक्तमृदाघ्राणं कूचंधाराजलार्पणम् । नाभ्यूर्ध्वपातन दाहो दीपदग्धहरिद्रया पादयो याङ्गलान्नाभेरूवं चेष्टानि हिक्किनाम् ॥ (भ. र) २. हिक्काश्वासातुरे पूर्व तैलाक्ते स्वेद इष्यते । स्निग्धैलवणयोगैश्च मृदु वातानुलोमनम् । ऊधि. शोधन शक्ते दुर्वले शमन मतम् ।। ( भै र ) ३ नारीपय पिष्टसुशुक्लचन्दन कृत सुखोष्णञ्च ससैन्धव च । पिष्ट तथा सैन्धवमम्वुना वा निहन्ति हिक्का खलु नावनेन । (यो र ) - -- Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - भिपकर्म-सिद्धि ( लवण विलयन गाढ) नाक में टपकाना भी ऐसा ही कार्य करता है। ४. मुलेठी ने चूर्ण को मधु मिलाकर नस्य देना । ५. छोटो पिप्पली का चूर्ण शक्कर मिलाकर नस्य देना। ६. शु ठी और गुडके चूर्ण का नस्य । ७ मक्खी की विष्ठा को दूध मे या अलक्तक ( आलता) के रस में घोल कर मिलाकर नस्य देना । ८. गाय के दूध और न्दन का नस्य । ये सभी नस्य हिक्का के नष्ट करने में समर्थ होते है । इन से चमत्कारिक लाभ होता है । ९ गुडूची और शुठी चूर्ण का नस्य भी हिक्कानाशक होता है। १० नौसादर और चूने को मिलाकर पोटली मे बांध कर या अमोनियम गैस का सुधाना भी रोगी में लाभप्रद पाया गया है। ११ लहसुन का रस १२ पलाण्डु का रस या १३ गाजर का रस का नस्य भी सद्यः हिक्का को बंद करता है। धूम-प्रयोग-उडद को चिलम में रखकर भाग जला कर उसका धुवाँ पीने से सद्य लाभ होता है। हिक्कानलेह-१ कास के मूल का चूर्ण मधु से चाटना सद्य हिक्का मे लाम पहुंचाता है २ केले के मूल का रस १ तोला, मधु ६ माशे मिलाकर सेवन । ३. इलायची के चूर्ण और मिश्री को मिलाकर सेवन । ४ काली मिर्च का चूर्ण और शक्कर मधु से कई बार सेवन करना ५ मयूरपिच्छ को जलाकर उसकी राख ( मयूरपुच्छभस्म ), पिप्पली चूर्ण और मधु के साथ मिलाकर सेवन यह वमन तथा श्वास में भी लाभप्रद होता है । ६. यवक्षार १३ माशे की मात्रा में खिलाकर ऊपर से गर्म पानी पिलाने से सद्य हिक्का शान्त होती है। ७ छोटी पीपल, सूखा आंवला और सोट प्रत्येक १ तोला, मिश्री ३ तोला। एकत्र महोन पीसकर रखलें । ३ मागे की मात्रा म मधु से सेवन करावें । यह एक मिद्ध योग है। हिक्का रोग में परम मंशमन होता है। ८ वेर के पके हुए सूखे फल की मज्जा ( कोलमज्जा) का चूर्ण, कालासुरमा (काला सुरमा त्रिफला के कपाय मे नात दिन तक लगातार भावना देने से शुद्ध होता है-इस प्रकार शुद्ध मुरमा होना चाहिए ) तया लाक्षा चूर्ण का मधु से चटना। मात्रा १-२ मागे । ९ कुटकी का चूर्ण और शुद्ध स्वर्ण गरिक ( सोना गेरू को चूर्ण करके दूध में भावित करके या गोघृत में तवे पर भून करके लेना चाहिये) का चूर्ण मिश्रित कर के मधु से मेवन । १०. गुद्ध कासीस (भ गराज के स्वरम मे तीन घटे तक दोला यंत्र में स्वेदन करने से शुद्ध होता है।) तथा कैय के फल के सूखे गूदे का चूर्ण.. सम मात्रा में मिलाकर ४ रत्ती की मात्रा में मधु से चटाना। ११ पाढ़ल के फल । १ मापचूर्णमयो धूमो हिक्का हन्ति न संशय. ।। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : चौदहवां अध्याय ३७६ भार फूल को समभाग मे लेकर २ माशे की मात्रा मे मधु से चटाना । १२ छोटी पोपल का तूर्ण, सजूर और नागर मोथे का समभाग मे बना चूर्ण ३ माशे की मात्रा में मधु ने चटाना। ये सभी श्रेष्ठ हिक्कानाशक भेष में है ।' १३ विजौरे निम्बू का रस १ तोला, काला नमक २ माशे और मधु ६ माशे मिलाकर सेवन १४ सोठ पकाया बकरी के दूध का सेवन । १५. धान्यलाज का चूर्ण सेंधानमक नीबू रन के साथ सेवन । १६ गर्म घी का सेवन, गर्म किये दूध का सेवन तथा गर्म जल का मेवन हिक्का में पथ्य होता है और शीघ्रता से हिचकी को शान्त करता है। १७ खजूर, पिप्पली, द्राक्षा का घी अरि मधु से सेवन हिक्का और श्वास दोनो में लाभप्रद होता है । रस तथा भस्म के योग-कान्त लोह भस्म १ रत्तो को मात्रा मे मधु से चाटकर दशमूल का क्वाथ सेवन । मुक्ता भस्म का १ रत्ती की मात्रा में लेकर कुटकी चूर्ण ४ र० और शुद्ध गैरिक चूर्ण १ माशा और मधु के साथ सेवन । ताम्र भस्म का ३ रत्ती को मात्रा में मधु के साथ चाटकर निम्बू ( विजौरे ) का रस १ तोला पीना । स्वर्णभस्म-मुक्ताभस्म-लौह भस्म तथा ताम्र भस्म सम मात्रा मे मिलाकर १ रत्ती की मात्रा में वीज पूर या विजौरे नोबू का रस, काला नमक और मधु के साथ सेवन सद्य हिक्का का शमन करता है । शंखचूल रस-शुद्ध पारद, अभ्रक भस्म, सुवर्ण भस्म, वैकान्त भस्म प्रत्येक १ तोला, शंख भस्म २० तोले । इन द्रव्यो को महीन पीसकर सूखे ही चूर्ण बना ले। मात्रा २ माशे । अनुपान मधु । यह योग मुमूर्प रोगी की भी हिक्का को तत्काल शान्त करता है । श्वास रोग-भी हिक्का के समान ही एक महाव्याधि है । यह भी प्राणघातक होती है । इस श्वास रोग मे कफप्रकोप पूर्वक वायु जब प्राणवाही स्रोतो को अवरुद्ध करके सव ओर व्याप्त (पूरे फुफ्फुस में ) हो जाती है तो श्वास को उत्पन्न करती है। इस रोग में प्रधान लक्षण श्वास का फूलना या दम का १ कोलमज्जाजन लाक्षा तिक्ता कोचनगरिकम् । कृष्णा घात्री सिता शुण्ठी काशीसं दधिनाम च । पाटल्या सफल पुष्पं कृष्णाखजूरमुस्तकम्। पडेते पादिका लेहा हिक्काना मधुसयुता ॥ (भै र.) २. मधुसौवचलोपेतं मातुल गरस पिवेत् । (भै र ) इसका प्रयोग ureamia के कारण उत्पन्न हिक्का मे उत्तम लाभ दिखलाता है। ३. यदा स्रोतासि सरुद्धय मारुत कफपूर्वक.। विपरव्रजति सरुद्धस्तदा श्वासान् करोति स || महोव-छिन्न-तमक-क्षुद्रभेदैस्तु पञ्चधा। भिद्यते स महाव्याधि. श्वास एको विशेषत ॥ - Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० भिपकम-सिद्धि फूलना या (Dyspnoea ) पाई जाती है जो अनेक कारणो से हो सकती है। जमे श्वासनलिका के ऊपरी भाग में किसी प्रकार का अवरोध, उरोवात ( Emphysema.), मूत्र-विपमयता, जानपदिक गोफ ( Epidemicdropsy) तथा सन्यास ( Coma. ) आदि । श्वास रोग के पांच भेद बतलाये गये है। महाश्वास, कलवास, छिन्न श्वास, तमक श्वास तथा क्षुद्र ग्वास। इनमें महा श्वास अन्तिम श्वास है इससे युक्त रोगी गीघ्र ही मर जाता है। पूर्णतया असाध्य होता है। ऐसी अवस्था हृद्रोग, वृक्क या मस्तिष्क रोगो में चिन्तनीय स्थिति में पाई जाती है। ऊर्ध्व श्वास भी मृत्यु के समीप की अवस्था है (Sterterous breathing ), वाम सस्थान के पात (Failure of respiratory system) में पाई जाती है, सद्यो घातक और असाध्य होती है । छिन्न श्वास जिसमे वास वेग कभी कम और कभी बढ़ जाता है और कभी कुछ काल के लिये श्वास की गति रुक जाती है फिर चालू होती है (Cheyne Stocks respearation )। यह भी एक साघातिक अवस्था है, रोगी क्लान्त हो जाता है और प्राणत्याग भी हो जाता है। तमक श्वास दमा का रूप है (Bronchial Asthma. Allergic Asthma or spasmodic Bronchitis) यह एक याप्य रोग है। रोगी सम्यक्तया आहार-विहार तथा औषधि के बल पर ठीक हो जाता है-अभाव मे रोग वढ जाता है । क्षुद्र श्वास मधिक दौड-धूप के कारण या मेदस्वी व्यक्तियो मे मल्प श्रम से उत्पन्न होनेवाला श्वास है और साध्य है।' तमक श्वास के पुन. दो भेद हो जाते है-१ प्रतमक तथा सतमक । इनमें प्रथम म वेगो के विधारण से वाताधिक्य पाया जाता है-यह रोग अधिकतर योगाभ्यास स अनभिज्ञ व्यक्तियो में प्राणायाम को विधियो की विपरीत क्रिया से उत्पन्न होते देखा जाता है । दूसरा पित्ताधिक्य में अधिक होता है और शीतल उपचार से रोगो को शान्ति मिलती है। श्वास रोग मे क्रियाक्रम-हिक्का रोग में सामान्य उपक्रमो का उल्लेख हो चुका है जैसे स्नेहन, स्वेदन, वलवान् रोगी में शोवन अन्यथा शमन चिकित्सा करना। हिक्का और बात-ब्लेम दोपो से पैदा होते है अस्तु दोनो में समान भाव से वात-श्लेष्महर उपचार लामप्रद रहता है। चरक में लिखा है-जो भी अन्न-पान या नौपधि कफ-वात को नष्ट करने वाली एव वातानुलोमन है। श्वास एवं हिक्का रोग मे प्रशस्त है । वात को १. लहानाच्यो मतस्तपा तमक कृच्छ उच्यते । बय श्वासा न सिध्यन्ति तमको दुर्वलस्य च ॥ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : चौदहवाँ अध्याय ३२१ बढाने वालो कफको हरने वाली अथवा कफ को बढाने वाली लेकिन वात को हरने वाली, ऐकान्तिक क्रिया का क्रम ठीक नही रहता है। बृहण अथवा कर्शन का कार्य हिक्का तथा श्वास के रोगियो में बहुत विचारपूर्वक करना होता है। बृहण अथवा कर्गन के अति मात्रा में होने से हानि की आशका रहती है, परन्तु सशमन कार्य विल्कुल ही निरापद रहता है। अस्तु हिक्का-श्वास के रोगियो में अधिकतर सशमन के द्वारा ही चिकित्सा करनी चाहिए।' श्वास रोग में भेपज-वानस्पतिक ( Vegitable sources)-१. } हरीतकी ३ माशे, शुठी चूर्ण २ माशा मिश्रित कल्क का उष्ण जल के साथ सेवन । २. पुष्करमुल १ माशा,. यवक्षार १ माशा और काली मिर्च का चूर्ण १ माशा का उष्ण जल के साथ सेवन । हिक्का और श्वास दोनो मे लाभप्रद है.। ३. बहेडे के फल के हिल्के का चूर्ण १ तो०, मधु १ तोला मिलाकर सेवन श्वास तथा हिल्का मे सद्य लाभप्रद होता है ४ पुराने गुड के १ तोला में सरसो का शुद्ध तैल १ तोला मिलाकर प्रतिदिन सेवन करने से कुल तीन सप्ताह के प्रयोग से श्वास रोग में पर्याप्त लाभ होता है। ५ विल्व पत्र स्वरस या अडसे की पत्ती का रस या सहदेवी की जड और पत्ती का रस या कमलपत्र-स्वरस का कटुतैल-सरसो के तेल के साथ सेवन । ६ कुष्माण्ड ( पेंठे) का सूखा चूर्ण ६ माशे गर्म जल के साथ । ७ छोटी पीपल और सैधव और अदरक के रस का सेवन । ७ शुद्ध गधक का गोघृत के साथ सेवन श्वास में लाभप्रद होता है । ९ भारङ्गो और गुड का सेवन या भारङ्गी एव सोठ का क्वाथ गुड मिलाकर सेवन करना भी श्वामध्न होता है । १०. केवाछ के बीज का चूर्ण घी और मधु के साथ सेवन करना । मात्रा ३ माशा चूर्ण, घृत ६ माशा और मधु १ तोला। १ यत्किचित् कफवातघ्नमुष्ण वातानुलोमनम् । भेषजमन्नपान व तद्धितं ग्वामहिक्किने ॥ बातकृद्वा कफहर कफद्वाऽनिलापहम् । कार्य नैकान्तिकं ताभ्या प्राय श्रेयोऽनिलापहम् ।। सर्वेपा बृहणे हयल्प शक्यश्च प्रायशो भवेत् । नात्यर्थ शमनेऽपायो भृशं शत्यश्च कर्शने ॥ तस्माच्छुद्धानशुद्धाश्च शमनवृहणैरपि । हिक्काश्वासादिताञ्जन्तून् प्रायशः समुपाचरेत् ॥ ( च चि. १७) २ गुड कटुकतैलेन मिश्रयित्वा सम लिहेत् । त्रिसप्ताहप्रयोगेण श्वास निर्मूलतो जयेत् ॥ (भै र ) ३ आर्ये प्राणप्रिये जातीफललोहितलोचने । भाीनागरयोः क्वाथ श्वासत्राणाय पाययेत् ॥ (वै जी ) Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिण्ार्म-सिद्धि ३८२ ११. अश्वगंध का क्षार ( असगन्ध जलाकर उसकी राख ) का मधु से सेवन । १२. सुवर्चला का स्वरस या गिरीप पुष्प स्वरस या सतपर्ण स्वरस का मधु के साथ मेवन । १३ मण्डूकपर्णी का स्वरस और कटु तैल का सेवन | रसयोगो के अनुपान रूप में भी इनका उपयोग किया जा सकता है । जीवद्रव्य गाय, खर, अश्व, उष्ट्र, गूकर, भेंड और गज के विष्ठा का रस पृथक्-पृथक् कफावित्र्य युक्त श्वास रोग में मधुके साथ पिलाने से लाभप्रद होता है । मयूरपात्र नाल ( मोर के पैर की नली ), गल्लक, साही का शकल ( मत्स्यशकर के आकार का शकल ), कुत्ता, जाण्डक, चाप, कुरर के रोम-केश, शृंगवाले तथा एक खुर या दो सुर वाले पशुवो के चर्म, अस्थि तथा खुर । इन द्रव्यो की भस्म पृथक्-पृथक् या एक में मिलाकर घृत और मधु से सेवन श्वास रोग मे बडा ही लाभप्रद होता है । इनका प्रयोग सदैव कफ को अविकता युक्त श्वाम में करना उत्तम होता है इनमें अम्बर एक वडा सुलभ पदार्थ है इसको जलाकर उसकी रास १ माशा और यवक्षार १ माशा मिलाकर मधु के साथ देने ने सच लाभ होता है । यह एक सिद्ध योग है। खरगोग, गल्लक मास और गोणित और पिप्पली से सिद्ध घृत का प्रयोग श्वास में वाताधिकय होने पर देना चाहिये । । हरिद्रादिलेह - हरदी, कालीमिर्च, मुनक्का, रास्ना, छोटी पिप्पली, कचूर और पुराना गुठ नव मिलाकर महीन पीस कर कडवे तेल में मिलाकर चाटने से श्वास रोग में उत्तम लाभ होता है । - श्रृंगचादि चूर्ण - काकडासोगी, भारगो, त्रिफला, सोठ, पोपरि, कालीमिर्च, कटकारी, नागर मोथा, पुष्करमूल, कचूर और कालीमिर्च सव का एक-एक भाग लेकर महीन चूर्ण बनावें फिर उसमें मिश्री ७ भाग मिलाकर रखले | मात्रा ६ मागे । अनुपान गहद । इम औषधि के साथ बृहत् पंचमूल, गुडूची और लटू का काढ़ा भी पिये । तो उग्र श्वास रोग में भी तीन दिनी में लाभ पहुँचता है । ग्यादि चूर्ण एक दूसरा योग है जिसमें मिश्री के स्थान पर पंच लवण पडता है। इसका भी सेवन उत्तम रहता है । शृग्यादि चूर्ण का केवल गर्म जल / म पीना भी लाभप्रद रहता है । १ एते हि कफमंरुद्ध गतिप्राणप्रकोपत तस्मात्तन्मार्गशुद्धययं देवा लेहा न निष्कके ॥ ( च चि. १७. ) Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : चौदहवा अध्याय ३८३ दशमूल कपाय-दगमूल के क्वाथ में पिप्पली चूर्ण ४ र० का प्रक्षेप डालकर पीना अथवा पुष्कर मूल ४ रत्ती का प्रक्षेप डालकर पीने से श्वास तथा कास में लाभ होता है। चासादि काथ-अडूसा, हल्दी, धनिया, गुरुच, भारंगी, छोटी पीपल, सोठ, मरिच मोर कटकारी इन का सम भाग में लेकर जौकुट कर के २ तोले द्रव्य को ३२ तोले जल में खोलकर ८ तोले जल मे खोलाफर ८ तोले शेप रहने पर पिलाये। दिन में दो वार प्रातः और सायम् । यह एक सिद्ध योग है । यह (anti spasmodic ) तथा ( anti Alergic) पडता है। कास और श्वास में बड़ा लाभप्रद होता है ।' क्वाथ मे कुछ लोग मरिच का चूर्ण डालने का विधान बताते है---अर्यात् मरिच के अतिरिक्त अन्य द्रव्यो का क्वाथ बनाकर उसमे ७ दाने मरिच को छोड कर पीना। डामरेश्वराभ्र-वज्राभ्रक भस्म को लेकर खरल मे डालकर निम्नलिखित द्रव्यो की प्रत्येक की एक भावना दे । भारङ्गी, धतूर, गिलोय, अडूसा, कसौंदी, पारिभद्र, चव्य, पीपरा मूल और चित्रक का क्वाथ या स्वरस यथालाभ । मात्रा ३ रत्ती की गोलियां । अनुपान अदरक का रस और मधु । - महाश्वासारि लौह-लौह भस्म २ तोला, अभ्रक भस्म ३ तोला, पिसी हई मिश्री और शहद दो दो तोले । हरड, बहेरा, आँवला, मुलैठी, मुनक्का, बेरकी मज्जा, वंशलोचन, तालीश पत्र, वायविडङ्ग, छोटी इलायची, पुष्कर मूल और नागकेसर प्रत्येक का चूर्ण ३ तोला । लौह के सरल मे डालकर लौह के मुमली से छ घटे तक घोटकर ३ रत्ती की वटिका बनाकर रख ले। मात्रा १-२ गोली । अनुपान मधु । सभी प्रकार के श्वास रोग मे लाभप्रद । “श्वास कुठार रस-कज्जली, शुद्ध वत्सनाभ विप चूर्ण, शुद्ध टकण, शुद्ध मन शिला प्रत्येक एक एक तोला तथा ८ तोला काली मिर्च का चूर्ण, ६ तोला पिप्पली चूर्ण और ६ तोला सोठ का चूर्ण । प्रथम पारद-गधक की कज्जली बना कर शेप द्रव्यो को महीन पीस कर मिश्रित करे। मात्रा १-२ रत्ती। अनुपान आर्द्रक स्वरस और मधु । विविध प्रकार के श्वास और कास रोग मे लाभप्रद । इस श्वासकुठार का नस्य भी दिया जा सकता है। मूर्छा, सूर्यावर्त, अर्धावभेदक तथा अपतत्रक मे नासारध्र से इसका प्रयोग रोगी को जागृत १. वासाहरिद्राधनिकागुचीमाीकणानागररिङ्गिणीनाम् । (छोटी कटेरी या रेंगनी)। क्वाथे नमारीचरजोऽन्वितेन श्वास शम कस्य न याति पुस । (वै. जी ) Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि ३८४ करने के लिए किया जा सकता है । इस योग में मन गिला पटा हुआ है जो एक after का यौगिक है। ● श्वास - कास चिन्तामणि रस - शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गधक २ भाग मोनामाली की भस्म १ भाग, सुवर्ण भस्म १ भाग, मुक्ता भस्म ई भाग, अभ्रक भस्म २ भाग, लोह भस्म ४ भाग | सबको एकत्र महीन पीसकर खरल मे डालकर कटकारी स्वरस, वकरी का दूध, मघुयष्टी का काढा और पान के रस में से प्रत्येक की सात सात भावना देकर बनावे | सात्रा १ से २ रत्ती । अनुपान पिप्पली चूर्ण और मधु । यह एक उत्तम योग है। सभी प्रकार के श्वास में विशेषत हृज्ज श्वास ( Cardiac Asthma ) में लाभप्रद प्राया जाता है । 'नागार्जुनाभ्र रस - सहस्रपुटी अभ्रक भस्म ( अभाव मे अधिक से अधिक पुट का अभ्रक भस्म ले) को अर्जुन की छाल के क्वाथ मे सात भावना देकर छाया मे मुखाकर रख ले | मात्रा २ रत्ती । अर्जुन क्षीरपाक । यह हृदय के विविध कपाटीय रोग ( Volvulardiseases ) एव तज्जन्य श्वास रोग में लाभप्रद पाया जाता है । वल को बढाने वाला, वृष्य तथा रसायन है । ~ भाग गुड - भारी ५ सेर, दणमूल ५ सेर, पोटली में बाँध कर १०० बढे हरड सबको एक वडे भाण्ड में लेकर चतुर्गुण जल छोड कर आग पर चढावे, चतुर्या क्वाथ शेष रहने पर छान कर उसको पृथक् रख ले। फिर इस छाने चत्राथ को एक कलईदार कडाही में रख कर उसमे ५ सेर गुड बोल कर, स्विन्न किने हरटी को टाल कर चूल्हे पर पुन पाक करे जब वह गाढा होने लगे तो उनमे मोठ, मरिच, पीपर, इलायची, दालचीनी और तेजपात इनमे से प्रत्येक का चूर्ण ४ तोले और यवचार २ तोले मिलाकर चलाते रहे । चाशनी के गाढ़ा होने पर उतारे । ठढा हो जाने पर उसमें २४ तोले शुद्ध शहद मिलाकर किसी मृतवान में भर कर रख ले | मात्रा २-४ हरड चासनी के साथ । अनुपान गर्म दूध या जल | वाम रोग में दौरे के बीच के काल में इसका एक बल्य-योग ( tonic ) के रूप में व्यवहार लम्बे समय तक करना चाहिए । कनकासव--धतूरे का पचान (मूल, गासा, पत्र, पुष्प, फल सबमे युक्त ) १६ तोले, लहूने की जट १६ तोले, महुवे का फूल ८ तोले, तालीश पत्र ८ तोले, पिप्पलीयण्टकारी नागकेशर शुण्ठी-भारगी प्रत्येक ८ तोले । कूट पीस कर चूर्ण के रूप में कर लेवें । बाय के फूलो का चूर्ण १ सेर, मुनक्का १ सेर, जल २५३ र ८ तोले, मिश्री ५ सेर और शहद २|| सेर | घृतस्तिग्व भाएट में भर कर भाण्ड का मुख वद करके एक मास तक एकान्त वायु के / Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : चौदहवाँ अध्याय ३८५ झोको से रहित और उष्ण स्थान मे रखे। पश्चात छान कर बोतलो मे भर कर रख ले । मात्रा २-४ तोला । समान जल मिला कर भोजनोत्तर । श्वास रोग मे एक उत्तम योग है। शर्वत एजाज, शर्वत शहतूत, गर्वत लिसोडा और शर्बत अडूसा भी । लाभप्रद होता है। सोम कल्प-एफेडा वल्गेरिस ( Ephedra. Valgari) नामक औषधि का चूर्ण ४ रत्ती से १ मागा की मात्रा मे देने से तत्काल लाभ होता है। तमक श्वास ( दमा) के दौरे के काल मे दौरे के वेग को तत्काल कम करने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है। सोम-सत्त्व ( Ephedrine Hydroch. loride ) नाम से इस औषधि का प्रयोग बहुलता से हो रहा है। इसकी मात्रा ग्रेन से १ ग्रेन की गोलियाँ औषधि विक्रेताओ से प्राप्त होती है । वैद्यक दृष्टि से सोम चूर्ण का ( Crudeform ) मे प्रयोग ही अधिक समोचीन होता है । इसे शृगाराभ्र, श्वास कुठार, श्वासकासचिन्तामणि या महाश्वासारि लौह के माथ २ रत्ती की मात्रा मे प्रति मात्रा मिलाकर दिया जा सकता है। यदि स्वतत्र देना हो तो रस सिन्दूर के साथ मिलाकर देना उत्तम रहता है। जैसे सोम योग (सि० यो० संग्रह)-रस सिन्दूर १ भाग, सोम चूर्ण २० भाग । प्रथम रस सिन्दूर को महीन पोसे फिर उसी खरल मे सोम चूर्ण का कपडछन चर्ण मिलाकर एक दिन मर्दन करके शोशी मे भर कर रखले । इस चूर्ण का अकेला ५ से १० रत्ती की मात्रा में जल या मधु से श्वास के दौरे के समय एक दो मात्रा दे । तात्कालिक अच्छा लाभ होता है। -श्वासहर धूम-१ धतूरे को पत्तो, शाखा और फल को कूट कर छाया मे सुखाले । फिर निर्धूम अगारे पर रख कर मध्य छिद्र युक्त सकोरे से ढक दे, फिर रबर की नली लगा कर धूम का पान करे । इसको तम्बाकू पीने वाली चिलम और हुक्के पर चढा कर पिया जा सकता है। इससे श्वास के दारे मे तात्कालिक लाभ होता है। २. धूमयोग-(सि० यो० स० ) छाया मे सुखाई हुई अडूसे की पत्ती ४ भाग, धतुरे की पत्ती २ भाग, भाग २ भाग, चाय २ भाग और खुरासानी अजवायन की पत्ती २ भाग। सबको मिलाकर मोटा चूर्ण करके कलमी शोरे के सतप्त विलयन ( कलमी सोरे को जल मे घोलता चले जब ऐसी स्थिति आजावे कि , १. कनकस्य फल शाखा-पत्र सकुटय यत्नत । शोपयित्वा तु तद्धूमपानोच्छ्वासो विनश्यति ।। (भ० र०) ५ भि सिर Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ भिपकर्म-सिद्धि उममें मोरा घुल सके तो उसको संतृप्त घोल या विलयन कहते है ) में भिगोकर । छाया में सुखा कर रखले । आवश्यकता पड़ने पर इसकी मोटे कागज में निगरेट जैने बना कर जला कर उसका चूम पिलावे । दौरे में तत्काल आराम होता है । रोगी को खुझी अनुभव हो वे तो थोडी देर बाद गो का दूध और मिश्री पीने को देना चाहिए। - उपसंहार-श्वास के णंच भेद बतलाये गये है। इनमे महाश्वाम, ऊर्व श्वान, तथा छिन्न बाम अमाध्य बतलाये गये है। इनमें चिकित्सा ईश्वराधीन रहती है। यदि रोगी को आयु शेष है तब तो उपचार से लाभ की आगा रहती अन्यथा प्राणभय उपस्थित रहता है। इन अवस्थाओ मे अधिकतर हृदय तथा वसनक उत्तेजक योगो का प्रयोग ( Heart Respiratory Stimulants) ही श्रेयस्कर होता है। जैसे कूपीपक्व रसायन, रस सिन्दूर, चन्द्रोदय, मकरध्वज, कस्तूरी भूषण, चतुर्मुख रस आदि । इस अधिकार में पठित नागार्जुनान, महाश्वासारि लौह अथवा श्वासकास चिन्तामप्ति रस उत्तम योग है। इनमे से क्मिी एक का किसी एक कूपवत्र रसायन के माथ मिश्रित करके देना चाहिए । जैसे रस सिन्दूर ३२०, म्वासकामचिन्तामणि रन २ २०, नागार्जुनान म १२० मिश्रित एक मात्रा दिन में तीन या चार मात्रा मण्डूकपर्णी के रस और मधु के साथ या रुद्राक्ष के घृष्ट चंदन और मधु के माथ। रोप दो श्याम रोगो मे अर्थात् तमक श्वास या क्षुद्र ग्वाम रोगो में ही प्रयुक्त होने वाली सम्पूर्ण चिक्लिा का उल्लेख पाया जाता है। क्षुद्र ग्वाम तो एक सुमाव्य रोग है। किमी एक योग के प्रयोग से पीड़ित रोगी लाभान्वित हो जाता है, परन्तु तमक वाम (Asthma) एक चिरकालीन स्वरूप का हठी फलत याप्य रोग है । इनमे व्यवहत होने वाले वहविध उपचारो का उल्लेख ऊपर में हो चका है। याधुनिक दृष्टि से तमक श्वास टक्कजन्य ( Renal ), हृज्ज (cardiac) हृदय के विकारो के कारण तथा श्वासनलिकीय (Bronchial) प्रभृति हो सकते है । कई वार बनर्जना ( Allergic) जन्य भी पाया जाता है। उप्ण कटिबंधज उपमिप्रियता ( Tropical Eosinophilia ) तमक वाम के नग ही विकार है। इन सभी यवस्थामो मे चिकित्सा का भेद होते हुए पर्याप्त ममता है। इन ममता के आधार पर ही आयुर्वेद ग्रंथो में चिकित्सा लिखी मिलती है। यहां पर एक अनुभूत व्यवस्था पत्र दिया जा रहा है जो प्राय नभी प्रकार के वाम रोगो में लाभप्रद पाया जाता है। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : चौदहवॉ अध्याय ३८७ ६ माशे वक्त । ६१) श्वासकासचिन्तामणि रस २ र० ) श्वासकासचिन्तामणि सुलभ शृगाराभ्र रस न हो या अधिक मूल्यवान प्रतीत शिलाजत्वादि लौह हो तो हटा दे। सखिया के योगो श्वास कुठार रस का देना अधिक लाभप्रद प्रतीत मोम चूर्ण हो तो मल्लसिन्दूर या मल्ल यवक्षार चद्रोदय दिन भर मे १ रत्ती तालोशादि चूर्ण मिलाया जा सकता है। श्वास ) कुठार भी सखिया का योग है। मवको मिलाकर पीस कर ४ मात्रा में विभाजित करे । अनुपान-केवल मधु से या केवल अडूसे के शर्वत से या केवल शर्बत एजाज से या शर्वत एजाज, शहतूत, लिसोढा और अडूसे के मिश्रण से। ४-४ चटे पर दिन मे चार वार । (२) अर्क लवण-४ माशे २ मात्रा, भोजन के बाद एक मात्रा दोनो अथवा कनकासव-भोजन के बड़े चम्मच से दो चम्मच वरावर पानी मिलाकर दोनों वक्त। (३) वासादि कपाय-दिन मे एक वार प्रात या रात्रि मे । अनूर्जता (Allergy ) के तीक्ष्ण मिलने पर विशेष लाभ होता है । श्वास रोग मे दो प्रकार की चिकित्सा अवस्थाभेद से को जाती है। दोरे के समय को वेगकालीन तथा वेगो के बीच वेगान्तर कालीन । वेगकालीन चिकित्सा तत्काल दौरे को शात करने के लिए धूम प्रयोग, सोम कल्प या अर्क लवण २ माशे की मात्रा मे गर्म पानी से देना उत्तम रहता है । वेगान्तर काल में पौष्टिकं, वल्य तथा अन्य ... सशामक योगो का प्रयोग श्रेयस्कर रहता है। पथ्यापथ्य-तमक श्वास के रोगी मे पथ्यापथ्य का विवेक आवश्यक रहता है । वातश्लेष्मकर एव रूक्ष तथा शीत आहार-विहार अनुकूल नही पडते है। नया गुड, दधि, नया चावल, उडद, मत्स्य, वैगन, कद शाक, ठडा दूध, लस्सी, वर्फ का शर्वत, ठडाजल, ठडे और धूलि-धम युक्त स्थान, अधिक परिश्रम-अति स्त्री सग, मलमूत्र, छीक आदि के वेगो का रोकना आदि अपथ्य है । पथ्य-गर्म किया हुआ गाढा दूध, मलाई, मिश्री, पुराना गुड, चने, रहर की दाल, गेहूँ, जौ, पुराना चावल, वथुवा, चौलाई, मूली, परवल, लहसुन, प्याज आदि गर्म मसाले, विरेचन, स्वेदन, औपधि युक्त धूमपान, वमन आदि कर्म प्रशस्त Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ भिपकम-सिद्धि है । मूखे फल-मुनक्का, खजूर, वादाम आदि मेवे उत्तम रहते है । जागल पशुपक्षियो के मासरस का सेवन भी पथ्य होता है। तमक ग्वाम के रोगो मे प्रात. काल में सूर्योदय के पूर्व किमी जलागय या नदी में स्नान करना भी लाभप्रद पाया जाता है। स्नान के बाद शीघ्रता से अग को पोछ कर गर्म कपडे मे शरीर को मावृत कर लेना चाहिए। पीने के लिए उष्ण जल देना चाहिए। श्वास और हिक्का के रोगी में शीतल जल प्रतिकूल पडता है। ब्रह्मचर्य का पालन भी इस रोग मे पथ्य होता है। श्वास के रोगियो मे तम्बाकू के नस्य की आदत डालना उत्तम रहता है। पन्द्रहवा अध्याय स्वरभेद-प्रतिपेध प्रावेशिकाले का भारीपन या गले का वैठना या नावाज का भही होना स्वरभेट कहलाता है । यह प्रतिश्याय, कास और ग्वास रोग में पाई जाने वाली एक सामान्य व्यथा (complaint) है । कई दगावो में मिल सकता है, मामूली म्वरभेद, दीर्घकालीन स्वरावमाद, स्वरलोप अथवा स्वगेपघात । शब्दोच्चारण मे होने वाला विकार अर्थात् म्वरभेद स्वरयत्र के स्थानिक अथवा मस्तिष्कगत वाणी केन्द्र के प्रभावित होने से आशिक या पूर्णधात तक हो सकता है। स्वरयत्र के स्थानिक विकृति के भेद से कई प्रकार का रूप हो सकता है जैसे १.खरवरता (Hoarseness of voice) २ भापणकृच्छ्रता (Dysphagia) ३ वरावसाद (Aphonia), यह अवस्था तीन स्वर-यत्र गोथ (Acute or catarrhal laryngitis) अथवा पुराण स्वर यंत्र शोथ ( chronic laryngitis) में मिलती है। स्वरभेद से अपने अध्याय का प्रतिपाद्य विपय यही तक मीमित है। इस प्रकार स्वरभेद लंचे स्वर से वोलना या गाना (भापण देना, चिल्लाना), अत्युच्च म्बर मे मव्ययन ( पाठ करना), अभिघात ( Tranma ) अथवा विपसेवन से होता है । इन कारणो से वातादि दोप कुपित होते है और वे कुपित होकर स्वरगही स्रोतो में अविष्टित होकर स्वर को नष्ट कर देते है जिसे स्वर Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : पन्द्रहवाँ अध्याय ३८६ भेद नामक व्याधि से अभिहित किया जाता है। पानी के दोष से भी स्वरभेद पैदा होता है । यात्रा में विभिन्न स्थानो का जल पीने से प्रायः स्वर का भेद होना देखा जाता है। मस्तिष्कगत वाणोकेन्द्र के प्रभावित या विकारयुक्त होने से यदि पर्णतया स्वरनाश हो जाय तो उसको मूकता (Aphasia) कहते है। इसका कारण मस्तिष्कगन वाणोकेन्द्र को भयकर विकृति है। यह मूकता यदि आशिक हई तो उसे वाककृच्छ्रता ( Dysphasia) कहते है । इसके अतिरिक्त एक और · तोसरी अवस्था भी हो सकती है जिसे गद्गद् वाक् (Dysarthria. ) कहते हैं । ये अवस्थायें सान्निपातिक ज्वर की विषमयता के परिणाम स्वरूप या वात रोगो मे जिसमें स्वरोत्पादक साधन (स्वर यत्र ओष्ठ, जिह्वा और ताल) का बात के (Paralysis) फल स्वरूप पाई जाती है। इनका उपचार बातरोगो के अध्याय मे वतलाया जायेगा। यहाँ पर स्वरभेद (Hoarseness of the voice) का वर्णन विशद्धतया स्वर यत्र को स्थानिक-विकृति के परिणाम से होने वाले स्वरभेद ( laryngitis) का ही किया जायेगा। यह स्वरभेद स्वतंत्रतया या रोगो के उपद्रव स्वरूप या किसी प्रधान व्याधि के लक्षण रूप में भी मिल सकता है । यह छ प्रकार का होता है-वातिक, पंत्तिक, श्लैष्मिक, सान्निपातिक, क्षयज तथा मेदोज । इनमे क्षीण, वृद्ध, कृश रोगियो का स्वरभेद या दीघकालीन जन्मजात, सान्निपातिक अथवा मेदस्वी व्यक्तियो में मेदाधिक्य के कारण होने वाला स्वरभेद असाध्य होता है। शेष साध्य होते है। स्वरभेद में क्रियाक्रम-सर्वप्रथम , उपचार-कारणो का दूर करना होता है, यदि बहुत बोलने या भाषण देने से स्वरभेद हो, तो गले और स्वरयंत्र को विश्राम देने के उद्देश्य से वोलना छोडकर मौन रहना रोगी के लिए हितकर होता है। शरीर के वल एवं पुष्टि को बढाने वाले, कफघ्न और स्वर शुद्ध करनेवाले अन्न-पान तथा आचार स्वरभेद मे हितकारक होते हैं। इसके लिये जो, लालचावल, १ अत्युच्चभाषणविपाध्ययनाभिपात-सदूषण. प्रकुपिता. पवनादयस्तु । स्रोत सु ते स्वरवहेषु गता प्रतिष्ठा हन्यु स्वरं भवति चापि हि षड्विध स ॥ वातादिभि पृथक् सर्वैर्मेदसा च क्षयेण च । २ क्षीणस्य वृद्धस्य कृशस्य वाऽपि चिरोत्थितो यश्च सहोपजात. । मेदस्विन सर्वसमुद्भवश्व स्वरामयो यो न स सिद्धिमेति ॥ (सु उ. ५३) Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 भिपकर्म-सिद्धि म ( वत्तक) और मुर्गे का अण्डा, मुर्गे, और मोरका मासरम, मद्य, गोखरू, विजौरे का रम, मकोय, जोन्वती, कच्ची छोटी मूली, मुनक्का, हरीतको, लहसुन, अदरक नमक के साथ, काली मिर्च, पान का रस या लगे पान का वीडा, घी, मलाई, रबडी का सेवन पथ्यकर होता है। रोगी में उष्णोपचार हिनकर रहता है, अस्तु, पीने के लिये उष्णजल की व्यवस्था स्वरभेद में करनी चाहिये । उष्ण पेय चाय, कोको, काफी अच्छा है । ३६० कपित्य, जामुन, वकुल तथा अन्य कच्चे फल, शालूक ( विस या जलकंड ), क्पाय एवं अम्ल रस द्रव्य, दही, वमन कर्म, दिवा स्वप्न यादि पदार्थ स्वरभेद वाले रोगी के लिये प्रतिकूल पढते है | अभिव्यकारक आहार-विहार, गीत और गो का विधारण भी अपथ्य होता है ।" गोतपेयों (cold drinks ) का निषेध करना चाहिये | स्वरभेद मे सामान्यतया स्वेदन, वस्ति देना, धूमपान, विरेचन- नस्य, कवल ग्रह ( गार्गल ) और शिरावेव के द्वारा उपचार करना होता है | वातिक स्वरभेद मे भोजनोत्तर ( भोजन के बाद ) घृत का पिलाना | घृत मे मरिच चूर्ण मिलाकर देना चाहिये । कान-मर्द का रस और भारगी मे मिद्ध घृत भी पथ्य होता है 13 पैत्तिक स्वरभेद मे - मधुर (मधुयष्टि, मुनक्का, खजूर आदि ) द्रव्यों से पकाये दूध का प्रयोग करना चाहिये । मृदु रेचन देना चाहिए । मुलंठी के काढ का घी मिलाकर सेवन उत्तम रहना है। मधुर रम वाले द्रव्यों का मधु के माध सेवन उत्तम रहना है। शतावरी, वला और धान्य लाज के चूर्ण वा मधु के साथ सेवन उत्तम रहना है। शर्करा, मिश्री, बनाये या तालमिश्री का चूसना लाभ करता है। झुठी, मधुयष्टि, क्षीरीवृक्ष के कल्क और दूध से सिद्ध घृत को प्रयोग हितकर होता है |" 1 १ वलपुष्टिकरं हृद्य कफघ्न स्वरशुद्धिकृत् । अन्न पान च निखिल स्वरभेदे हितं मतम् ॥ २ द्राचा पथ्या मातुलुङ्गं लशुनं लवणार्द्रकम् | ताम्बूलं मरिच सर्पिः पथ्यानि स्वरभेदिनाम् || ३ नायाभिष्यदि व्यं न च शीतक्रिया हिता ! दिवास्वापो न कर्त्तव्यो न च वेगविधारणनम् ॥ ४ स्वरोपघातेऽनिजे भक्तोपरि घृतं पिवेत् । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : पन्द्रहवाँ अध्याय ३६१ श्लैष्मिक स्वरभेड़ में-पिप्पली; पिप्पलोमूल, मरिच और शुठी का सम प्रमाण में बनाया चूर्ण २ माशे को मात्रा मे गोमूत्र के साथ लेना हितकर होता है। त्रिदोपज स्वरभेद मे--अजमोदा, हरिद्रा, मामलकी, चित्रक, यवक्षार का समप्रमाण मे बनाया चूर्ण ३ माशे, मधु ६ मागे, घृत १ तोले के साथ । मिलाकर सेवन । क्षयज और मेदोज स्वरभेद मे-क्षयरोग और मेदो रोग ( स्थौल्य रोगाधिकार ) के अनुसार चिकित्सा करनी चाहिए। कवल-धारण-(Gargles )--स्वरभेद मे कवल-ग्रहण बडा उत्तम उपचार है। कवल के द्वारा स्वरयन, गला, तालु, जिहा, दन्तमूल आदि मुखगतरगत अवयवो मे चिपका हुआ कफ निकल जाता है-कफ के निकल जाने से स्वर गुद्ध हो जाता है । अस्तु, बहुत प्रकार के कवलो का प्रयोग शास्त्र में पाया जाता है। वातिक स्वरभेद मे कटु तेल और लवण मिलाकर, पंत्तिक मे घृत और मधु मिलाफर और कफज स्वरभेद मे कटुद्रव्य एव मधु और क्षार मिलाकर कवल धारण करना उत्तम रहता है । भेपज--सामान्यतया कवल के लिए गर्म जल मे नमक डालकर कुल्ली करना, या गर्म जल मे शुद्ध फिटकरी का चूर्ण डाल कर कुल्लो करना, अथवा त्रिफला का काढा बना कर उसमे सरसो का तेल छोड कुल्ली करना अथवा क्षीरी वृक्षके छालो का क्वाय बनाकर कवल धारण उत्तम रहता है। __ रोगी को घृत, रवडो, मलाई प्रमति स्निग्ध आहार या मासरम के साथ अन्न देना चाहिए और पीने के लिए गर्म जल देना चाहिए। गर्म दूध का पोना भी लाभप्रद रहता है। यदि कफ दोष को अधिकता प्रतीत हो तो दूध मे थोडा सोठ या पिप्पली का चूर्ण छोडकर उबाल देना चाहिए। १ मरिच चूर्ण का १ पैत्तिके तु विरेक. स्यात् पयश्च मधुरै श्रुतम् । पिप्पली पिप्पलीमूल मरिच विश्वभेषजम् । पिवेन्मूत्रेण मतिमान् कफजे स्वरसक्षये ।। २ गले तालुनि जिह्वाया दन्तमूलेपु चाश्रित । तेन निष्क्रमते श्लेष्मा स्वरश्चाशु प्रमीदति ।। ३ वाते सलवण तैल पित्ते सपि. समाक्षिकम् । कफे सक्षारकटुक क्षौद्रं कवलमिष्यते ॥ - Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपधर्म-सिद्धि २ मा घृत के साथ सेवन । २. बेर की पत्ती को घी मे भूनकर सेंधानमक मिलाकर मेवन १३ जीवनीय गण को औषधियो से मिद्ध दुग्व में चीनी और शहद मिलाकर सेवन । ४. यामलको फल ताजा या अभाव आमलकी चूर्ण ३ मागे गर्म दूध के माथ सेवन ५ विभीतक (वहेहे ) के फल का छिल्का लेकर उनका चूर्ण बनाकर २ मागे पिप्पली चूर्ण १ मागा और सेंधानमक १ माशा मिलाकर सेवन करना। भेपज-योग चव्यादि चूर्ण-चव्य, अम्लवेत, सोठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, इमली के बीज, तालीश पत्र, श्वेत जीरा, वशलोचन, चित्रक, दालचीनी, छोटी इलायची, तेजपात-प्रत्येक का एक-एक तोला और कुल चूर्ण के बरावर अर्थात् १३ तोला पुराना गुट मिलाकर एका महीन पीसकर रखले । सभी प्रकार के स्वरभेद में लाभप्रद रहता है। मात्रा ३-६ मागे । अनुपान गर्मजल । निदिग्धिकावलेह-छोटी कटेरी ५ सेर, पिपरामूल २॥ सेर, चित्रक मूल १। मेर, दशमूल की ओपधियां । सेर, जल २५ सेर । क्वाथ बनाकर चौथाई शेप रहने पर उतार कर छान ले । अव इस क्वाथ की कडाही में रख भाग पर चढावे । उसमे पुराना गुड ३ सेर मिलाकर गाढा करे । जव अवलेह जैसे होने लगे तो उसमे पिप्पली चूर्ण ३२ तोले, निजात ( दालचीनी, छोटी इलायची और तेजपात ) ३२ तोले, काली मिर्च का चूर्ण ४ तोला मिलाकर पाक को उतार ले । ठहा हाने पर उसमें मधु १६ तोला मिलाकर रखले । दीर्घफालीन स्वरभेद में लाभप्रद है। प्रतिश्याय, कास में भी लाभप्रद होता है। मात्रा ६ मारो से १ तो अनुपान दूध या उष्ण जल ।। किन्नरकंठ रस-शुद्ध पारद, गुद्ध गंधक, अभ्रक भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म प्रत्येक १ तोला, वक्रान्त भम्म ३ मागे, स्वर्ण भस्म १३ माशा और चादी की भस्म ६ मागा। मड मे, भारङ्गो, वडी कटेरी, अदरक, ब्राह्मी के स्वरस या क्वाथ की पृथक्-पृथक् एक भावना । २ रत्ती की गोलियाँ। अनुपान शुण्ठी, गककार और मधु ने सेवन । इम गुटिका के सेवन से स्वरभेद दूर होता है। कंठ कोकिल-स्वर हो जाता है। - १ वदरीपत्रकल्क वा धुतभृष्टं ससैन्धवम् । स्वरोपघात कासे व लेमत प्रयोजयेत् ॥ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थे खण्ड : सोलहवा अध्याय ३६३ उपसंहार-सामान्यतया स्वरभेद मे किसी विशेष चिकित्सा की आवश्यकता नही पडतो है, प्रतिश्याय, कास आदि की चिकित्सा और कवल धारण, स्वर या को बाराम देने से ही स्वत एक सप्ताह के भीतर ठीक हो जाता है। कभी स्वरभेद अधिक दिनो तक चलने लगता है । उस अवस्था मे उसके विशेष उपचार की आवश्यकता पड़ती है। ऊपर लिखे उपक्रमो के अनुसार चिकित्सा करते हुए लाभ होता है। सोलहवाँ अध्याय अरोचक प्रतिपेध प्रावेशिक-जिस रोग मे अरुचि ( खाने में रुचि या इच्छा का बिल्कुल न होना) प्रधान रूप से पाया जाता है उसे अरोचक कहते है। अरोचक (Anorexia) शारीरिक और मानसिक कारणो के भेद से दो प्रकार का हो सकता है। शारीरिक कारणो में आमाशयगत विकार जैसे आमाशयकला शोथ, कैन्सर, अनम्लता तथा रक्ताल्पता (Gasteritis, cancer, hypochlorhydria & Anaemia) अरुचि की उत्पत्ति मे भाग लेते है । मानसिक कारणों में शोक, भय, लोभ, क्रोध, मनोविघात ( मन का टूटना ) आदि कारण भाग लेते है। इस अवस्था में (anorexia nervosa) हर प्रकार के भोजन से रोगी को घृणा हो जाती है, थोडा भी खा लेने पर पेट फूला रहता है । पोषण के अभाव मे रोगी दुर्बल होता चलता है। प्राचीन ग्रंथकारो ने पांच प्रकार के अरोचक का वर्णन किया है-१ वात २ पित्त ३ कफ ४ सन्निपात दोष से (शारीरिक ) तथा ५ मनोविघात ( क्रोध, शोक लोभ प्रभृति मानसिक उद्वेगो से ) के कारण होने 'वाले अरोचक ।' अरोचक में क्रियाक्रम वातजन्य अरोचक मे वस्ति कर्म, पित्तजन्य अरोचक मे विरेचन कर्म, कफ जन्य अरोचक में वमन कर्म कराना चाहिये तथा मनोविघातजन्य अरोचक मे हृद्य १ वातादिभि. शोकभयातिलोभक्रोधर्मनोनाशनरूपगन्ध । अरोचका स्यु ॥ हृच्छूलपीडनयुत पवनेन पित्तात्तृड्दाहचोपबहुल सकफप्रसेकम् । श्लेष्म रम वहुरुज बहुभिश्च विद्याद् वैगुण्यमोहजडताभिरथापरञ्च ॥ (च चि २६ ) Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ - भिषम सिद्धि रविकारक एव मन को प्रसन्न करने वाले याहार-विहार एवं औषधि करनी चाहिए। अरोचक मे कबल धारण, धूम का उपयोग, मुखधावन, मनोज्ञ अन्न-पान, पण एव आश्वासन, चित्र विचित्र स्वाद का पानक (गर्वत), लेह, तक्र, काजी, पाच ( अचार, चटनी ) आदि रोगी को खाने के लिए देना चाहिए । ( मरुची चित्रभोजनम् ) । लघु, सुपाच, दक्ष तथा मनोनुकूल पथ्य की व्यवस्था करनी चाहिए।' इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए ये विविध प्रकार के रुचिकर भोजन रोगी की प्रकृति, देश और काल के अनुकल और मात्म्य हो। १ विडङ्ग चूर्ण १ तोला, मधु ४ तोला मिलाकर मुख में धारण करने से कठिन अरोत्रक में भी लाभ होता है। २ कबलग्रह या मुख का धावन-२. त्रिकटु, त्रिफला, हल्दी, दालहल्दी, को सम प्रमाण में लेकर चतुर्गण जल में खोलाकर उसमें यवक्षार और मधु मिलाकर कुत्ली (Gargle ) करना । ३ गुडके गर्वत में दालचीनी, छोटी इलायची, काली मिर्च प्रत्येक मागे डालकर कुरली करना । ४ गएडूप-काजी मे नैवानमक मिलाकर गर्म करके मुख में भरना मार बार-बार फेंकना मुख की विरसता को दूर करता है। . ५. पानक-चीनी का गाढा गवत ६ भाग, कागजी नीबू का रस १ भाग, बङ्ग तथा मरिच का चूर्ण मिलाकर पीना । केवल नीबू का रस पोना, नीबू और नमक का चूमना भी यचि को दूर करता है। __६ गुटिका-कालाजीग, बेत जोरा, काली मिर्च, मुनक्का, अम्लवेत, अनारदाना, काला नमक तथा गुड प्रत्येक समभाग में लेकर महीन चूर्ण करके मधु मिलाकर गोली २ मागे की बना ले । मुख मे धारण करके चूमने स सभी प्रकार के अरोचक में लाभ होता है। ७. तक्र-भुनी राई, मुना जीरा, भुनी हीग, सोठ और मैन्धव नमक प्रत्येक का एक तोला लेकर कूट-पीम कर महीन चूर्ण कर ले । गाय की मथा हुई दोष १. वस्ति ममोरणे पित्ते विरेको वमनं कर्फ । सर्वजे सर्वकामार्य हपंग स्यादगेचके ।। अत्ची कब ग्राहो धूमः मुमुखबावनः । मनोनमन्न-पानं वा हर्पणावामनानि च ॥ मात्म्यान्म्वदेशरचितान् विविधाश्त्र भटयान् । पानानिमूलकठपाडवगगहान् । मेवेद्रसाश्त्र विविधान् विविधप्रयोग जीत पापि लघुरुममन मुन्नानि ।। (या र ) । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : सोलहवा अध्याय ३९५ दो छटांक मे १ तोला इस चूर्ण को मिलाकर सेवन करे। इससे अग्नि और रुचिको वृद्धि होती। ८ शिखरिणी-भली प्रकार औटाया दूध, वस्त्र मे बंधी हुई जल रहित भैस की दही इनको एक में मिलाकर इसमे बराबर चीनी मिलाकर एक मोटे कपडे पर घिन कर छान ले । पश्चात् उसमें छोटी इलायची, लौंग, कपूर और कालीमिच का चूर्ण मिलावे । यह एक रुचिकारक भोजन है । ९ रसाला-खट्टी दही १२८ तोला, श्वेत चीनी ६४ तोला, गोघृत और शहद ४-४ तोला, काली मिर्च और और मोठ का चूर्ण २-२ तोला, दालचीनी, छोटी इलायची, तेजपात और नागकेसर प्रत्येक ३ तोला । प्रथम दही को एक कपडे में बाँधकर एक खुटो से लटका दे। जब उमका पानी निकल जाय । तब उस दही को एक श्वेत वस्त्र पर रखकर स्वच्छ हाथो से घिसकर छान ले। फिर कपडे से छाने दही में शेप द्रव्यो के चूर्गों को मिलाकर कपूर से वासित करके पात्र मे भर रख लेवे । यह रसाला सर्वप्रथम भीमसेन ने बनाई थी जिसको भगवान् श्रीकृष्ण ने आस्वादित किया था। यह स्निग्ध वृहण और रुचिप्रद योग है। १०. अवलेह-विजीरा नीबू या कागजी नीबू का केसर, सैधव तथा घो के माथ बार-बार लेने या नीबू का रस मधु से लेने से या अनार के दाने चूसने से अरुचि दूर होती है। १ । ११ सैधव-अदरक-अदरक का नमक के साथ भोजन के पूर्व खाना । २ १२ चूर्ण यमानीपाडव-अजवायन, इमली का चूर्ण या सत्त्व, सोठ, अम्लवेत, खट्टा अनार दाना, और खट्टे वेर की सूखी मज्जा प्रत्येक एक-एक तोला, धनिया, सोचल नमक ( काला नमक ), श्वेत जीरा और दालचीनी प्रत्येक आधा तोला, छोटी पोपल १००, काली मिच २०० तथा मिश्री १६ तोले। यह यमानी पाडव चूण मुखशोधक, रुचिकारक, हृदय और पार्श्व-शूलशामक, विवध तथा आनाह को दूर करने वाला, कास और श्वास शामक तथा ग्रहणी एव अर्श मे भी लाभप्रद है । अरुचि मे इसका थोडा-थोडा चूसना या नीबू का रस मिलाकर सेवन फलप्रद होता है। १. शमयति केसरमरुचि सलवणघृतमाशु मातुलुङ्गस्य । दाडिमचर्वणमथवा चरको रुचिकारि सूचयामास । (यो र ) २ भोजनाने सदा पथ्य लवणाकभक्षणम् । ' रोचन दीपन वह्न जिह्वाकण्ठविशोधनम् ।। (भा० प्र०) - अहाता ह । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ भिपकर्म-सिद्धि १३. रस योग सुधानिधि रस-गुद्ध पारद और गंधक एक-एक भाग लेकर कज्जली वनावे । उममें दन्तीमूल क्वाथ की एक भावना दे। फिर जम्बीरी नीबू का रम, अदरख का रस, विजौरा नीबू का रस, विजौरे नीबू की मज्जा के रम की पृथक् पृथक् एक-एक भावना दे। फिर उसमें सुहागे की खील (शुद्ध टंकण) २ भाग, लवङ्ग ५ भाग, गुट्ट वत्सनाम विष (पारे का चौथाई भाग ) मिलाकर जल से पीसकर मागे-मागे भर की गोलियां बना ले । मात्रा १ मे २ गोली । अनुपानगुठी या गुट के साथ खावे। सभी प्रकार के अरोचक एवं अग्निमाद्य में लाभप्रद है। पथ्य-गेहूँ, चावल, मूग, गूकर-बकरा-खरगोग-हिरण का मास, मछली, तरबूज, वेत्त के मा, मूली, बैंगन, सहिजन, अनार, केला, कमरख, परवल, काला नमक, घी, दूध, कच्चे ताल फल, लहसुन, सूरण, दाख, भाम, नीम के कोमल पने, काजी, मद्य, रसाला, दही, मट्टा, अदरक, खजूर, कैथ, वेर, खाँड, हरट, अजवायन, काली मिच, होग, स्वादु-अम्ल एवं तिक्त द्रव्य, उवटन, तीरे पर ठडे में टहलना और स्नान भरोचक में प्रशस्त है। अपथ्य-वेगविधारण, अहृद्य अन्न-पान, रक्तमोक्षण, क्रोध, लोभ, गोक, भय प्रभृति माननिक उद्वेगो को अधिकता, दुर्गन्य एव कुरूप द्रव्यो का अवलोकन बरोचक में वजित है। सत्रहवा अध्याय छदि-प्रतिपेध प्रादेशिक-जिम रोग में वमन (के) होना प्रमुख लक्षण के रूप में पाया जाना है उसको दि रोग कहते है । यह पाँच प्रकार का वात, पित्त, कफ, विदोप, ने ( दोपज या शारीरिक ) तथा आगन्तुक (मानसिक उद्वेग मे ) का होता है। अन्ननलिका तथा मुख द्वारा यामागयिक पदार्थों का वेगपूर्वक निकलना इस छटि रोग में पाया जाता है। १. द्रुतमुत्क्लेशितो बलात् । छादयन्नानन वेगैरर्दयन्नंगभजन. । निरुच्यत दिरिति दोपो वक्त्र प्रधावित ॥ दुष्टदोषः पृथक् मर्वीभत्मालोचनादिभिः । छर्दय पञ्च विजेचा. | अनिद्रवरतिस्निग्धरहृयलवर्णरति । अकाले चातिमात्रैश्च तथा सात्म्यैश्च भोजने ॥ श्रमाद् भयात्तथोडे गादजीर्णाकृमिदोपतः । नायश्चिापन्नसत्त्वापास्तथातिद्रुतमश्नत ॥ बीभत्सर्हेतुभिश्चान्य. । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : सत्रहवॉ अध्याय ३६७ प्रतीच्य वैद्यक के आधार पर छदि को तीन बडे भागो मे विभक्त किया जा नकता है। १. केन्द्रीय छर्दि ( Central Vomiting )-मस्तिष्कगत वामक केन्द्र के उत्तेजना के फलस्वरूप वमन होना । इस प्रकार का वमन किसी वस्तु के प्रति स्वाभाविक घृणा, भय ओर बीभत्स हेतुओ से वामक केन्द्र के उत्तेजित होने से उत्पन्न होता है । इस प्रकार की अवस्था प्रायः असहिष्णु (Neurotic) व्यक्तियो में पायी जाती है । कई बार मस्तिष्कावंद, मस्तिष्कावरण शोथ प्रभृति गेगो में शोर्पान्तरीय निपीड (Intra. Cranial Pressure) के बढने से भी इस प्रकार की छदि का होना सभव है। १ प्रत्यावर्त्तन क्रियाजन्य छर्दि ( Reflex Vomiting)-यह भामाशस्थ विकृत खाद्य पदार्थ, विभिन्न सेन्द्रिय तथा निरिन्द्रिय विपो से आमाशय कला के क्षोभ तथा आमाशय के अधिक तन जाने से छदि उत्पन्न होती है। जैसे अतिद्रव, अति स्निग्व, अहृद्य, असात्म्य भोजन आदि । 3 विपजन्य छर्दि (Toxic Vomiting )-कई प्रकार के बाहय तथा अतस्थ विपो का प्रभाव साक्षात् मस्किषकगत वामक केन्द्र पर होता है फलत वमन होने लगता है । जैसे तूतिया, ताम्र, लवण जल तथा मत्रविषमयता ( uraemia ) आदि । आगन्तुक छर्दि में सुश्रुत मे वीभत्स ( घणोत्पादक ) पदार्थों का देखना, मुघना या सेवन के अतिरिक्त, कृभिजन्य छदि तथा गर्भकालीन छदि का भी वर्णन पाया जाता है । इनमे त्रिदोपज के अतिरिक्त सभी छदि रोग साध्य है, निम्नलिखित उपद्रवयुक्त छदि भी तृपाधिक्य, श्वासाधिक्य, लगातार हिक्का युक्त वमन ( जलाल्पता Dehydration से ) तीव्र वेग का वमन अथवा मल-मूत्र के ममान गध एवं वर्ण वाला वमन (आवावरोध Intestinal obstuction) असाध्य होता है। क्रियाक्रम-सभी प्रकार के छदि रोग मे आमाशय का उत्क्लेश (क्षोभ Irritation ) पाया जाता है । अस्तु, सर्वप्रथम उपक्रम मे लधन या उपवास कराना चाहिए । आमाशय के क्षोभ के कारण कुछ भी देने से वमन वढ जाता है, अस्तु जब तक वमन शान्त न हो जाय वल्कि वमन के वद हो जाने पर भी जब तक आमाशय का क्षोभ शान्त न हो जाय (वमन के चार या छ घन्टे वाद तक) रोगी को कुछ भी खाने को नही देना चाहिए। छदि रोग मे यदि विशुद्ध वायु दोप पाया जावे और रोगी दुर्बल हो तो Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ भिपकर्म-सिद्धि उस रोगी में गीत्र हो वमन के वद होने के अनन्तर कुछ हल्का भोजन, धान्यलाजमण्ड, अनार के फल का रस, पन्चात् कुछ गाढा भोजन आदि देना चाहिए। परन्तु जब कफ और पित्त दोष की प्रधानता हो और रोगो वलवान् हो तो उपवास या लवन के साथ हो साथ नंगोधन की भी व्यवस्था करनी चाहिए। यर्थात कफाविग्य'में पिप्पली, मपंप, निम्बपत्र का कणय या मदनफल के कपाय मे संचानमक का योग करके वमन कराना चाहिए । परन्तु यदि रोगी इन दोपो के अधिन्ना में भी दुर्वल हो तो मंशोधन न देकर के मगमन कराना हितकर होता है। यदि वमन आगन्तुक प्रकार का हो अर्थात् बीमत्म, अप्रिय, विपरीत एवं अपवित्र चीजो के देखने, मृबने या खाने में वमन हो रहा हो (मानसिक) तो उसे मनोनुकल, चिकर, प्रिय लगने वाले, लघु, शुष्क भक्ष्य, भोज्य या पेय द्रव्यो के (मामिप या निरामिप ) मेवन की व्यवस्था करनी चाहिए। १ । छदि रोग में वायु की गति पर की होती है उसका अनुलोमन या अधोगमन बढ हो जाता है । बस्नु, वायु या अन्य दोपो के अयोगमन कराने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। प्रतीच वैद्यकोक्न यात्रा समुत्र ( Travel sickness ). मामुद्र बमुत्र ( Sea sickness), याकाम अमुव ( Air sickness) जिसमें अनन्यस्त नवारियों पर चलने, ममुद्र के जहाज पर चढ़ने या हवाई जहाज में यात्रा करते समय वमन होने लगता है। प्राचीनोक्त आगन्तुक दमन के भीतर ये ममाविष्ट हो जाते है । इनमें बागन्तुक वमन नदृश ही क्रियाक्रम को रखना चाहिए । सुश्रुत ने बतलाया है कि यदि वमन वडा तीव्र हो नीर संनमन के उपायों में बोक न हो रहा हो और दोण की प्रबलता हो तो वामक औपवियो के द्वारा वमन कराना हिनकर होता है । "छर्दिषु बहुदोषामु बमनं हितमुच्यत" वमन करा देने से मरवा यामागय का प्रक्षालन (Stomach wash) करा देने में भामागय में क्षोम पैदा करने वाले मभी दोप निकल जाते है और वमन स्वयमेव गान्त हो जाता है। - १ मामागगेललेगमवा हि सर्वाग्च्चों मता लड्धनमेव तस्मात् । प्राक्कारयेद् मान्तजा विमुच्च नगोवनं वा कफपित्तहारि ।। चूर्णानि लियान्मनाभयाना हृयानि वा यानि विरेचनानि । मरे पयोभिश्च युतानि युक्त्या नयन्त्यबोदोपमुदीर्णमर्ध्वम् ॥ वल्लीफनाय वमन पिबेटा यो दुर्बलतं गमनश्चिकित्सेत् । रसं मनोन भिविगुकभविश्व भोज्यविविधश्च पानं ॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : सत्रहवाँ अध्याय दोषानुसार प्रतिपेध-- वातिक छर्दि-१ दूध मे समान भाग पानी मिलाकर पीने से अथवा घृत और सेवा नमक मिलाकर पिलाने से अथवा मूंग और आंवले का यूप बनाकर (भुना हुआ मूग २ तोला, आँवला १ तोला, ३१ तोले जल मे खोलाकर ८ तोला गेप रहने पर ) १ तोला घी और सेंधा नमक मिलाकर पिलाने से वातिक बमन शान्त होता है । सशमन के लिये धनियाँ, त्रिकटु, शंखपुष्पी तथा दशमूल के कपाय का उपयोग करना चाहिये। . पैत्तिक छर्दि'-अनुलोमन तथा मदु रेचन के लिये मुनक्का, विदारी कद, निशोथ, का काढा बनाकर ईख के रम मे निशोथ चूर्ण मिलाकर पिलाना चाहिये । मृदु रेचन होने के अनन्तर धान्य लाज का सत्तू पानी में घोलकर या मण्ड बनाकर उसमें शक्कर और मधु मिला कर देना चाहिये । जब यह पच जावे तो पुराने चावल का गोला भात बनाकर मूंग की पतली दाल या हल्के मासरम (शोरवे ) के साथ खाने को रोगी को देना चाहिये । संशमन के लिये श्वेत चंदन, कमलनाल, सस, सुगधवाला, शुठी, सोनागेरू, आमलको, अडूसा को समभाग मे लेकर कल्क (पीसकर चटनी बनाकर ) चावल के पानी और मधु से देना चाहिये । पित्त पापडा का काढा मधु के साथ पीने से पैत्तिक वमन मे गान्ति मिलती है । आँवला या कच्चे कैय का रस भी पैत्तिक वमन को शान्त करता है। श्लैष्मिक छर्दि...-कफजछदि मे कफ एव आमदोप की शुद्धि के लिये पिप्पली, सरसो नीम की छाल, उनको समप्रमाण मे लेकर २ तोले द्रव्य को ३२ तोले जल में खोलाकर ८ तोला शेप रहने पर उसमे मैनफल का चूर्ण तोला और सेंधानमक ३ तोला मिलाकर पिलाना चाहिये । पथ्य में-पुराना चावल का भात, गाय की दधि और चीनी मिलाकर देना उत्तम रहता है। १ हन्यात् क्षीरोदक पीत छदि पवनसम्भवाम् । ससैन्धव पिबेत्सपिर्वातच्छदिनिवारणम् ॥ २ पित्तात्मिकाया त्वनुलोमनाथ द्राक्षाविदारीक्षुरसैस्त्रिवृत् स्यात् । (च द्र) ३ कफात्मिकाया वमन प्रशस्त सपिप्पलीसर्षपनिम्वतोय । पिण्डीतक सैन्धवसप्रयुक्तश्छा कफामाशयशोधनार्थम् ॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि संशमन के लिये - १ वाय विडङ्ग, त्रिफला, गुंठी का सम प्रमाण में बना चूर्ण मधु के साथ | २ जामुन की गुठली तथा वेर के फल की मज्जा का सूखा चूर्ण मधु मे । ३. नागरमोथा तथा कर्कटशृड्डी का चूर्ण मधु से । ४ दुरालभा ( जवासा ) का चूर्ण मधु से कफज हर्दि का शामक होता है । सामान्य भेपज - (सभी प्रकार के बमन में गुडूची के काढा या हिम ( गुडूची को कूट कर पानी में को हिम कहा जाता है ) का मधु के साथ सेवन अथवा गुडूची का स्वरस, मवु प्रत्येक १ तोला मिलाकर देने से सभी प्रकार के वमन मे विशेषत: गर्भकालोन वमन में बढिया लाभ दिखलाता है । २ १ श्रीफल ( बेल ) ओर गुडूची का काढा मधु के साथ पिलाना भी लाभप्रद होता है । ३ मूर्वा का स्वरस या चूर्ण मधु के साथ सेवन । ४ विल्व के मूल की छाल का काढा मधु के साथ पिलाने से सभी प्रकार के वमन मे लाभ पहुँचाता है । ५. मसूर का सत्तू - मसूर के सत्तू को मधु मे मिलाकर अनार या वेदाना का रस मिला कर पानी में घोलकर थोडी मिश्री मिलाकर पिलाने से वमन को शान्त करता है । शहद मिलाकर लेने से भी वमन शान्त होता है । ७. अश्वत्य - पीपल की सूखी छाल को लेकर आग में जलाकर उसके अगारे को पानी में बुझाकर इस पानी के पिलाने से वमन शान्त होता है । यह जल तृपाशामक भी होता है । ८ आम्रामिथ ( आम की गुठली की मज्जा ) तथा बिल्व की मज्जा का काढा बनाकर मिश्री और मधु मिलाकर पिलाने से वमन तथा अतिमार दोनो की शान्ति होती है । इम भेपज का पाठ विसूचिकाधिकार में हो चुका है। विसूचिका मे विशेष लाभप्रद रहता है । ९ विजोरा नीबू, जामुन एवं आम के पल्लव का काढा ठडा करके धान के लावा का चूर्ण एवं मधु मिलाकर सेवन कराने से वमन एवं अतिसार दोनो मे लाभ होता है । १० मक्षिकाविट् का मधु के साथ सेवन या जगलीबेर, आँवले की मज्जा का मिश्री और मधु के साथ सेवन वमन का शामक होता है । ११ मयूरपिच्छ - मयूर - पुच्छ को जलाकर उसकी राख को मधु के साथ चटाने से वमन शान्त होता है ।° १२ गोणी भस्म पुरानी गोणी को जलाकर उसकी राख ६ जो के सत्तू को घोलकर ૪૦૦ -१ विधिवत् बनाये हुए भिगो कर रखे हुए जल १ विल्वत्वचो गुडूच्या वा क्वार्थ चोद्रेण सयुत । जयेत् त्रिदोषजा छदि पर्पट. पित्तजा तथा ॥ ( च. द तथा शार्ङ्गधर ) २ वेल या ऊंट के ऊपर बोझा लादने के लिये जो चीज बनती है उसे गोणी कहते है । इस तरह की पुरानी गोणी को जला कर उसकी राख को मधु से सेवन के लिये देने से वमन शान्त होता है । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : सत्रहवाँ अध्याय ४०१ का जल मधु के साथ सेवन । १३ जातीपत्र-चमेली की पत्ती का रस, कच्चे कैथ के फर का रस-छोटी पीपल, मरिच, मिश्री और मधु के साथ सेवन चिरकालीन वमन को भी शान्त करता है । १४ दही का पानी, पिप्पली चूर्ण मधु, मिलाकर थोडा-थोडा करके वार-बार चाटने से वमन शान्त होता है। १५ करंज ( कटु कुवेराक्ष)-करंज को कोमल पत्तियो को पीसकर सेंधानमक तथा नीबू के रस मे मिलाकर थोडा-थोटा चाटने से कफ के विकार तथा वमन सद्यः शान्त होता है। करंज के बोज को थोडा आग पर भूनकर छोटे-छोटे टुकडे करके खाने से तीव्र वमन भी गान्त होता है । १६ हरीतकी-हरोतको चूर्ण ३ माशे मधु के साथ चाटने से दोप के अधोगमन होने से वमन शान्त होता है। १७. शखपुष्पी-का स्वरस १ तोला मधु के साथ देने से वमन को शान्ति होती है । १८ मधुयष्टो और श्वेत चदन-को गाय के दूध मे पीसकर पिलाने से रक्त या रुधिर का वमन शान्त होता है। १९. धनिया और चावल को जल में सायकाल में भिगोकर दूसरे दिन । प्रात काल में मसल कर छान कर मधु या मिश्री मिलाकर पीने से छदि विशेषत. गर्भकालोन छदि का शमन होता है।' २० छोटी इलायची-को पीस कर मधु के साथ देने से भी कुछ वमन को शान्ति होती है । २१ पुदीने का ताजा रस या अर्क पीने से भी वमन मे शान्ति होती है । २२ मुलेठो, विजौरे नीबू की जड को पीस कर घी एवं मधु से सेवन करने पर भी वमन मे विशेपत गर्भिणी के वमन मे लाभप्रद होता है। । योग-एलादि चूर्ण-वडी इलायची, लवङ्ग, नागकेसर, वेर के फल की मज्जा, धान का लावा, प्रियङ्ग, मोथा, श्वेत चन्दन तथा पिप्पली प्रत्येक का चूर्ण १ तोला कूटकर कपडछन चूर्ण बनाकर शीशी मे भर लेवे। इस चूर्ण को थोडा थोडा मुह में रखकर चूसने से या २ माशे को मात्रा मे मधु के साथ सेवन करने से सभी प्रकार के वमन मे लाभ होता है । रसादि या पारदादिचूर्ण-शुद्ध पारद, शुद्ध गधक, कपूर, वेरकी मज्जा (वेरकी गुठली का मगज), लोग, नागरमोथा, प्रियङ्ग, सफेद चन्दन, छोटी पीपल, दालचीनी, छोटी इलायची और तेजपात । पहले पारद-गंधक की कज्जली बना १ सतण्डुलाम्भःसितधान्यकल्कपानाद्वमिर्गच्छति गर्भिणीनाम् । मध्वाज्ययष्टीमधुलुङ्गमूल निष्पीड य पीतं च तदर्थकारि ।। २ एलालवङ्गगजकेसरकोलमज्जालाजप्रियडगुधनवन्दनपिप्पलीनाम् । चूर्णं सितामधुयुतं मनुजो विलिह्य छदि निहन्ति कफमारुतपित्तजाताम् ।। (योगरत्नावली)। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ भिपकर्म-सिद्धि कर पीछे उसमें अन्य द्रव्यो का कपड छन चूर्ण मिलाकर चन्दन के काढे को भावना देकर सुखा कर चूर्ण बना ले। मात्रा ४ रत्ती ने १ मागे । अनुपान मरिच चूर्ण और मधु से, जल मे, धान के लावा के मण्ड मे, चन्दनादि अर्क में या पोदीने का रस या अर्क के साथ । इम योग को थोडा मुंह में रखकर चूमने से भी लाभ अच्छा होता है। वमनामृत योग-शुद्ध गवक, कमल गट्टे का वीज, मुलेठी, गिलाजीत, न्द्राक्ष, गुद्ध टंकग, मृगशृङ्ग भस्म, वैत चन्दन, बंगलोचन तथा गोरोचन प्रत्येक सममात्रा में लेकर बेल के मूल के काढ़े मे तीन घण्टे तक भावितकर मटर में वरावर की गोलियां बनाले। यह योगरत्नाकर में पठित योगमार नामक पुस्तक में उद्धृत एवं कमलाकर वैद्य द्वारा निर्मित सिद्ध योग है जो विविध अनुपानो से अनेक प्रकार की छदि में लाभ करता है। छदिरिपु-कपूर कचरी का सूदम कपडसन चूर्ण करके उसको तीन घण्टं तक चन्दनादि अर्क के काढ़े में मर्दन करके २, २ रत्तो की गोली बनाले । मात्रा २,२ गोटो पुदीने के अर्क में । उमसंहार-वमन के रोगी में उपवास कराके मामागय को रिक्त रखना उत्तम रहता है । दोपो का अधोगमन कराने के लिये तथा वायु के अनुलोमन के यि विपरीत मार्ग मे दोप-हरण अर्थात् मृदुरेचन जैसे यष्टयादि चूर्ण २ मागे की मात्रा में कई बार देना नावश्यक होता है। यदि वमन बहुत ही स्वरूप का हो तो मस्तिष्क केन्द्र के संगमन के लिये रस के योगों का या छदिरिपु योग का या मयूरपुच्छ भस्म का प्रयोग करना चाहिये। अम्लपित्ताविकार में पठित मूतशेखर रग का भी प्रयोग इन कार्य के लिये किया जा सकता है। मंगमन के लिये पठित बहुविध भपजो का भी मुलभता के अनुसार रोग के वल के अनुसार प्रयोग करने में मद्य लाभ होता है। वमन में तपा की प्राय अधिकता पाई जाती है उसके लिये बिल्व की छाल का जल, गुटूचीकृतजल, वटावरसृतजल, विजौरा नीबू की पत्ती, वाम के पत्र, जामुन के पत्र के मृत जलो को यथवा सौंफका अर्क, कर्पूराम्बु या पुदीने का अर्क या चन्दनाद्यर्क पनि को देना चाहिये । भामाशय के क्षुब्ध रहने पर कोई भी जल पचता नहीं पीने के साथ ही वमन होने लगता है। अन्तु, इन पेय जलो को चम्मच मे थोडा-थोडा करके कई बार में देना चाहिए । वमन यो रोगी से पूर्ण विश्राम कराना चाहिए। उसके लिए जी, गेहूँ, चावल, मृग, कलाय, मसूर, खरगोग, तित्तिर, लबा का मास, नारिवल, गाजर, बजूर, बेर, दाना, मोठा बनार या वेदाना, ईव का रस आदि पथ्य होता है। अमात्म्य और दुष्ट मन्न-पान एवं व्यायाम अपथ्य होता है। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : सत्रहवा अध्याय ४०३ मागन्तुक छदि में यदि वमन बीभत्स कारणों से हो रहा हो तो रोगी को उस वातावरण से दूर करना चाहिए । यदि गर्भकालीन वमन हो तो मृदु ओपधियो से उनका गमन करे, यदि दोहृद के कारण हो रहा हो तो हृद्य औपधियो के द्वारा या गर्भवतो की इच्छा पूरी करने से वह दूर होता है । असात्म्य वस्तुवो का अभ्यास रहने के वजह से वमन हो रहा हो तो लंघन कराके, सात्म्य पदार्थों का वमन करा के और सात्म्यपदार्थों के सेवन से रोग को जीतना चाहिये । उदरस्थकृमियो के कारण वमन हो रहा हो तो कृमिरोग के अधिकार में कथित चिफिल्मा द्वारा शमन करना चाहिए।' ___ मनोविघात से वमन हो रहा हो तो मनोनुकूल, वाणी, आश्वासन, हर्पण, मन्न, पान, गध, रस, स्पर्श, शब्द, रूप का योग करने से वमन का शमन होता है। इस प्रकार का वमन मानसिक कारणो से अधिकतर अपतंत्रक वाले (Hysterical) रोगियों में पाया जाता है। कई बार पति से वियुक्तावस्था मे युवती स्त्रियो में पाया जाता है। इनमे उनके मनोनुकूल आहार, विहार और परिस्थिति करने से ही लाभ सभव रहता है। यदि इनके अनुकूल पदार्थ छदि रोग में अपथ्य भी हो अथवा रोगी को सात्म्य भी न हो तब उसकी मानसिक प्रसन्नता के लिए देना चाहिए। ___वमन के अनन्तर होने वाले उपद्रवो के लिए वातनाशक उपचार जैसे-दूध, घृत, मपिण्ड आदि का प्रयोग रोगी के वहण के लिए करना चाहिए। दीर्घ दि रोग में सदैव वातघ्न उपचार करना ही श्रेयस्कर होता है। लाज मण्ड-धान का लावा (खोल ) १ तोला, छोटी इलायची ४ नग, लौंग ४ नग, मिश्री ३ तोला, पानो २० तोला । सबको एकत्र कर आग पर चढाकर ५,७ उफान आवे इतना पकावे फिर छानकर ठंडा करे । १-२ चम्मच थोडीथोडी देर से रोगी को पिलावे। इसमे कागजी नीबू का रस भी मिलाया जा सकता है । वरफ से ठडा करके भी दिया जा सकता है। (सि यो. स) - - १ बीभत्सजामवीभत्सर्हेतुभि संहरेद्वमिम् । दीहृदस्था वमि हृद्य काक्षितैवस्तुभिर्जयेत् ।। लङ्घनैर्वमनर्वापि सात्म्यैर्वाऽमात्म्यसम्भवाम् । कृमिहृद्रोगवच्चापि साधयेत्कृमिजा वमिम् ।। वमनी च चिरोत्थासु प्रयोज्या च्छदिपु क्रिया ॥ (यो र) गन्ध रस स्पर्शमथापि शब्द रूपं च यद्यत् ' प्रियमप्यसात्म्यम् । तदेव दद्यात् प्रशमाय तस्यास्तज्जो हि रोगः सुख एव जेतुम् ।। ( च चि २० ) Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ अध्याय तृष्णा रोग प्रतिपेध प्रावेशिक - जिस रोग में रोगी अनवरत जल पीता रहे और बार-वार पीने में भी उसको तृप्ति का अनुभव न हो, वार-वार जल के पीने की इच्छा करता रहे, उस रोग को तृष्णा कहते है । वोल-चाल की भाषा में इसे तृपा या प्यास की अधिकता कहते है । यह रोग शारीरिक, मानसिक तथा आगन्तुक कारणो से कई बार रोगो के उपद्रव स्वरूप एक लक्षण के रूप में और कभी स्वतंत्र व्याधि के रूप में, जिसमें तृष्णा एक प्रमुख लक्षण ही, पाया जाता है । " इस रोग की उत्पत्ति में शरीरगत जलाग की कमी या जलाल्पता (Dehydration ) प्रवान हेतु है । शरीर में ६५-७० प्रतिशत जल या द्रव का भाग होता है । आहार द्रव्य से उत्पन्न आवश्यक तत्त्वों को घोलकर रस या रक्त के रूप में विभिन्न धातुवो को पोषण पहुँचाना और उसके त्याज्य द्रव्यो को मूत्र, स्वेद, वाप्प ( श्वास से ), अश्रु और मल के द्वारा बाहर निकालना भी शरीरगत जलीय या तरल भाग का ही काम है । अस्तु, यह निश्चित है कि जव भी शरीर में रस-सचार में वाधा उत्पन्न होने से या मलो की अधिक उत्पत्ति या संचय होनेसे अथवा किसी कारण से मूत्र, स्वेद-पुरीप आदि के द्वारा अस्वाभाविक रूप में जल के अति नि मरण होने से अथवा आहार द्वारा ऐसे पदार्थो के पहुँचने से जो अनिष्ट है - और उन्हें घोल कर निर्वल करना तथा वाहर निकालना होगा तो जल की अधिक मात्रा की आवश्यक्ता होगी । इस आवश्यकता की सूचनास्वरूप मुख, जिल्हा, तालु यदि अवयवो में अलीयाश की कमी के कारण तृष्णा तथा अन्य नार्वदैहिक लक्षणों की उत्पत्ति होती है । इसी को तृष्णा कहते है । ३ दोपो की दृष्टि से विचार किया जाय तो वात तथा पित्त दोप की प्रधानता पाई जाती है । सुश्रुतने तृष्णा रोग के सात प्रकार बताये हैं । वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक, क्षतज ( रक्तस्रावज या Haemorrhagic), क्षयज ( जैसे मधुमेहज ), आमसमुद्भव या आमज तथा भक्तोद्भवा (स्निग्ध, लवण, गुरु १. सन्ततं य पिवेद्वारि न तृप्तिमधिगच्छति । पुन काङ्क्षत तोयञ्च त तृष्णादितमादिशेत् ॥ ( सु ) २ यव्वातु देहस्यं कुपित. पवनो यदा विशोपयति । तस्मिन्छु के गुप्यत्यवलस्नुष्यत्यय विशुप्यन् ॥ (च ) Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : अठारहवाँ अध्याय ४०५ ओर गर्म मसालेदार भोजन से ) । १ चरक तथा वाग्भट ने एक उपसर्गज ( रोगो के उपद्रवस्वरूप ) भेद का वर्णन किया है । सभी प्रकार के तृष्णा रोग अत्यधिक प्रमाण मे होने से असाध्य होती हैं | रोग से कृश तथा वमनयुक्त तथा उपद्रवयुक्त रोगियो में तृष्णारोग असाध्य होता है । शेष साध्य होता है । सामान्य क्रियाक्रम - जलीय धातुवो के क्षय से तृष्णा उत्पन्न होती है और जलधातु के सूख जाने से अर्थात् जलाल्पता से प्राण का भय उपस्थित रहता है । अस्तु, पर्याप्त मात्रा में वर्षाजल ( ऐन्द्रतोय ) मधु मिलाकर तृष्णा से पीडित रोगी को देना चाहिए । यदि यह सुलभ न हो तो तद्गुणो से युक्त जल जैसे - सोफका अर्क, जेवायन का अर्क, पुदीने का अर्क, चदनादि अर्क, वरफ का जल, कर्पूराम्बु या बरफ चूसने के लिए या मिश्री या द्राक्षाशर्करा का जल (Glucose water) रोगी को थोडा थोडा कर के पिलाते रहना चाहिये । कोई भी जल जो हल्का, पतला, शीतल, सुगंधित, सरस, किंचित् कषाय अनुरस वाला तथा अनभिष्यदि हो, ऐन्द्र तोय के सदृश ही होते हैं उनका प्रयोग तृष्णा में किया जा सकता है 13 गर्म करके शीतल किया जल मिश्री मिलाकर अथवा मिट्टी का ढेला गर्म करके अथवा सुवर्ण, चादी आदि को तप्त करके पानी मे बुझाया जल मिश्री मिलाकर या अश्वत्थ ( पीपल ) की सूखी छाल जलाकर उसके अगारे से बुझाया जल अथवा कशेरू, सिंघाडा, कमलगट्टा, शर- ईक्षु दर्भ- काश-शालि मूल से खोलाकर ठंडा किया जल पीने के लिए तृष्णा रोग में वार-बार थोडा-थोडा करके देते रहना चाहिये । गर्म करके ठंडा किया या वरफ छोडकर शीतल किया जल या केवल विना गर्म किये १. तिस्रः स्मृतास्ता. क्षतजा चतुर्थी क्षतात्तथा हयामसमुद्भवा च । भक्तोद्भवा सप्तमिकेति तासा निवोध लिङ्गान्यनुपूर्वशस्तु || ( सु ३४८ ) २ सर्वास्त्वतिप्रसक्ता रोगकृशाना वमिप्रयुक्तानाम् । घोरोपद्रवयुक्तास्तृष्णा मरणाय विज्ञेया ॥ ( च चि २२ ) ३. अपा क्षयाद्धि तृष्णा सशोष्य नर प्ररण । शयेदाशु | तस्मादन्द्र तोय समधु पिबेत् तद्गुण वाऽन्यत् ॥ किंचित्तुवरानुरसं तनु लघु शीतलं सुगन्धि सुरसञ्च । अनभिष्यन्दि च J यत्तत्क्षितिगतमप्यैन्द्रवज्ज्ञेयम् ॥ ( च चि २२ ) Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ भिपकम-सिद्धि गीतल जल मूर्च्छा, रक्तपित्त, हर्दि, तृपा, दाह, मदात्यय तथा कशित व्यक्तियो मे लाभप्रद होता है । ' पथ्य-धान्यलाज या तालमखाने की खील का सत्तू बनाकर पानी में घोल कर पतला बनाकर मिश्री मिलाकर दिया जासकता है। जो या वाट्य. मण्ड ( वार्लो वाटर) मधु और मिश्री मिलाकर, या कोद्रव ( कोदो) या चावल की पतली पेया या मण्ढ मिश्री मिलाकर दिया जा सकता है । भुने हुए मूग, मसूर या चने की दाल का पतला यूप पीने के लिए दिया जा सकता है । केले का फूल, द्राक्षा ( दाख), पित्तपापडा, कपित्थ, जंगली वेर ( कोल ), इमली, कुष्माण्ड आदि की पेया । खजूर, दाडिम (अनार या वेदाना मीठा ), आंवला, ककड़ी, खस का पानी, जम्बीरी नीवू या कागजी नीवू, करमर्द, गाय का दूध, तक्र, महुए का फूल प्रभृति तिक्त एव मधुर द्रव्य हितकर होते है । नारिकेल या डाभ का पानी, पन्ना, शहद, तालाव का जल, सीफ, केसर, इयायची, जायफल, हरीतकी, धनिया, तूपाशामक होते है । गोतल चादनी में बैठना, घूमना, सोना, शीतल पवन का सेवन, श्वेत चंदन, कपूर आदि का अनुलेपन तथा अन्य पित्तशामक आहार, विहार तृष्णा के शामक होते हैं । मास-मात्म्य व्यक्तियो मे कबूतर का मासरस घृत में बना कर देना उत्तम रहता है । वृत में पकाया छाग ( बकरे ) का मास भी लाभप्रद होता है । अपथ्य - तृष्णा रोग मे स्नेह, अञ्जन, धूमपान, स्वेदन, व्यायाम, धूप में रहना, अम्ल, कटु, लवण रस पदार्थ, तीक्ष्ण पदार्थ, दूषित जल, स्त्रीसंग आदि का परिवर्जन करना चाहिए । तृष्णा के भेदानुसार विशिष्ट क्रियाक्रम - 3 वातिक मे - वातघ्न, शीत १. मूर्च्छादितृपादाहस्त्री मद्य भृशकशिताः । पिवेयु. शीतल तोयं रक्तपित्ते मदात्यये ॥ ( भै र ) २ हृद्य सुमधुर शीत मेवेत तृपयादिनः । उग्रमुद्देगजनन त्येजत् सर्वमतन्द्रित ॥ ३ वातघ्नमन्नपान मिष्टं गीत च वाततृष्णाया । स्याज्जीवनीयसिद्ध क्षीरवृत वातजे तर्पे ॥ पित्तजाया तु तृष्णाया पववोदुम्बरज रमम् । तत्ववायो वा हिमस्तद्वच्छारिवादिगणाम्बु वा ॥ यच्चोक्त कफनृष्णाया छद्य तत्तथैव कार्य स्यात् । पयसाथवा प्रदद्याद्रजनी मधुशर्करायुक्ताम् || यो० २० क्षतोत्थिता रुग्विनिवारणेन जयेद्रमानामसृजश्च पार्ने । क्षयोत्थिता क्षीरजल निहन्याद् मासोदकं वाऽथ मधूदकं वा ॥ गुर्वन्नामुल्लिस ने जयेच्च क्षयादृते सर्वकृताञ्च तृष्णाम् ॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : अठारहवा अध्याय ४०७ अन्न-पान तथा जीवनीय गणको औपधियो से सिद्ध क्षीर या घृत का उपयोग, गुड और दघि का मेवन । गुडूची स्वरस का सेवन उत्तम रहता है। पैत्तिक मे-पक्व गूलर का रस मिश्री के साथ, गूलर का काढा या शारिवादि गण की औपधियां ( अनन्तमूल, खस, गाम्भारी के फल, महुवे का फूल, दोनो चदन, मुलैठी और फालसा) तथा मधुष्टि, अमलताश और द्राक्षा का उपयोग उत्तम रहता है । लाजसत्तूका घोल भी मिश्री के साथ अनुकूल पडता है। श्लैष्मिक मे-कफज छदि के समान उपचार करे। नीम की पत्ती का काढा पिलाकर वमन करावे । दाडिम तथा अन्य अम्ल एवं कषाय रस के फलो के रन का सेवन । हल्दी का चूर्ण मधु और मिश्री मिला कर जल से दे। विल्बमूल, अरहर का मूल, धाय का फूल और पचकोल के कपाय का सेवन उत्तम रहता है। क्षतोत्थित में-रक्तस्राव के लिए स्तम्भन चिकित्सा करे और मृग मादि का ताजा रक्त का पान रोगो को करावे । क्षयोत्थित मे-क्षयन उपचार । दूध-पानी बराबर मिलाकर पिलाना, मधु युक्त जल का पिलाना अथवा मास के रस का सेवन कराना लाभप्रद होता है। भक्तोद्भव-गरिष्ठ अन्न के सेवन करने से उत्पन्न तृष्णा मे वमन कराना चाहिए। क्षयोद्भव तृष्णा को छोडकर सभी तृष्णा रोग मे वमन करा देना लाभप्रद होता है। सामान्य भेपज नस्य-मुनक्के ( अगूर) का रस, ईख का रस, दूध और मिश्री, मिश्री का पानी मे बना शर्बत, मुलेठी का काढा और मधु, महुए के फूल का रस मधु मिलाकर, नील कमल का रस मधु मिलाकर। नाक से नस्य रूप मे देने से दारुण तृष्णा भो शान्त होती है। इन रसो को पृथक् पृथक् उपयोग मे लाना चाहिए । ऊँटनी का दूध अथवा नारी-क्षीर का नस्य भी तृषा मे शामक प्रभाव दिखलाता है । गण्डूप-दूध, ईख का रस, महुवे का आसव (माध्वीक ), शहद, सीधु ( मधुर द्रव्यो का आसव ), गुड का शर्वत, अम्लवंत का काढा तथा काजी इनका यथालाभ एकैक या मिलाकर गण्डूप ( मुख मे कुल्ला) भरने से तृष्णा शान्त होती है । यह योग विशेपत तालु-शोप ( तालु के सूखने ) मे लाभप्रद होता है। कवल-विजौरे नीबू का केशर, अनारदाने का चूर्ण और मधु मिलाकर चटनी जेसे बना कर मुख मे धारण करने से तत्काल तृष्णा शान्त होती है। लेप-अनार, वेर, लोध, कपित्थ, वीजपूर ( विजौरा नीवू ), लाल चदन, चन्दन, खस, सुगधबाला, कमल के फूल। इन द्रव्यो को यथालाभ काजी मे पीस कर सिर पर लेप करने से तृष्णा का शमन होता है। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकम-सिद्धि कपाय-आम और जामुन की पत्ती वा छाल या गुठली का क्णय मधु मिलाकर लेना सभी प्रकार की छदि तथा तृष्णा का गामक होता है। मधुका फाण्ट-महुए का फूल, गाम्मारी, श्वेत चटन, खस, धनिया, मुनक्का को कुचल कर बोलने पानी में चाय जैसे बना कर ठंडा हो जाने पर मिलाकर मेवन करने मे दाह, मृर्णी, श्रम तथा तृष्णा गान्त होती है। चणे-बटाग, लोत्र, बाहिम की छाल, मुलेठी और मियी मम परिमाण में लेकर चूर्ण बनावै । यह दगृङ्गादि चूण का योग है। अनुपान मधु । मात्रा २ माशा तृषायामक होता है। गुटिका~बर के मंकुर, मीठा कूठ, धान का लावा और नील कमल के फूल उन का मम भाग में लेकर चूर्ण बना कर मधु के माय घोट कर १ मागे के परिमाण की गोलियां बनाले । इन गुटिका को मुख मे धारण करने से तृपा गान्त होती है । वामक-सभी प्रकार के तृमा रोग में (अयन को छोडकर ) वमन कराने से लाभ देखा जाता है । इसके लिए मवृतक का प्रयोग उत्तम रहता है । गीतल जल में म मिलाकर पर्यन्त पिलाने में वमन होता है और तपा बान्त होती है। ओदन-बावल का गोला भात बनाकर उसके ठंडे हो जाने पर मधु के भाव सेवन करने से तृप्या शांत होती है। यदि वमन की अति मात्रा होने को बजह से तपाधिका हो तो वमन के बन्द हो जाने पर दही और गुड रोगी को डिलाना चाहिए अथवा दही भीर गुड के साथ भात खाने को देना चाहिए। मद्य-जीरा, अदरक, काला नमक मिला कर मद्य का पीना भी तृपायामक होता है। जल-तृष्णा रोग में जल पीने की इच्छा रोगी को होती है। यदि जल न दिया जाय तो पित रोगी मूच्छिन हो जाता है, मूर्छा के अन्तर उसको मृत्यु हो जाती है अतः किसी भी अवस्था में पानी को नहीं रोकना चाहिए । अन्न के बिना तो कुछ दिनों तक जीवन-यापन हो भी सकता है, परन्तु जल के बिना जीवन का धारण मनभव हो जाता है, अस्तु, तृपित को योडा गेडा, वार बार, गर्म करके ठंबा रिया जल या गातल जल पीने को देते रहना चाहिए। । अन्ननापि बिना जन्तु प्राणान् घारयते चिरम् । तीयाभावे पिपासात. क्षणाप्राविमुच्यते ।। तृपिनो मोहमायाति मोहात्याणान् विमुञ्चति । तस्मात्सर्वान्चबन्धामु न विचिट्टारि वार्यते ॥ बन्यम्बुपानात् प्रभवन्ति रोगा निरम्पानाच्च नत्र दोप' । नम्माद् बृध प्राणविवर्धनायं मुहर्मुहर्वारि पिबेदमूनि ।। मूर्छाउदितृपादाहीमा मृगशिताः । पित्रेय गीतलं तोयं रक्तपित्त मदात्यये ।। - - Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : उन्नीसवाँ अध्याय ४०६ कच्चे ठडे पानी की अपेक्षा उबाल कर ठंडा किया जल अधिक तपाशामक होता है। उबाल कर पानी को मिट्टी के घडे या सुराही मे ठडा होने के लिए रख देना चाहिए । ठडा हो जाने पर थोडा थोडा पिलाना चाहिए। रस योग रसादि चूर्ण-शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, कपूर, छलछरीला, खस इन द्रव्यो को क्रम मे बढते हुए भाग मे लेकर । प्रथम पारद गंधक की कज्जली बनाकर शेप द्रव्यो का महीन चूर्ण मिलाकर बराबर मात्रा में शक्कर डालकर पानी से घोट कर ३ रत्ती की गोलियां बना ले । प्रात. काल मे १ गोली का सेवन वासी पानी के अनुपान से करने से तृष्णा रोग शान्त होता है । उपसंहार-यदि रोगाधिकार के योगो का प्रयोग करने से तृष्णा को रोग में भी शाति मिलती है। उन्नीसवाँ अध्याय मूर्छा-भ्रम-अनिद्रा-तद्रा-संन्यास प्रतिषेध महिताहार-विहार, रक्तादि-धातुक्षय, अभिघात, विष तथा मद्यादि के सेवन से रजो गुण और तमो गुण की वृद्धि होने से रसवाही, रक्तवाही एव चेतनावाही स्रोतो में अवरोध होकर मद, मूर्छा और सन्यास की उत्पत्ति होती है । ये रोग वयोत्तर बलवान होते है अर्थात् मद से मूर्छा और मूर्छा से सन्यास आत्ायक होता है। इनमे रसवह स्रोत के अवरोध से मद, रक्तवह स्रोत के अवरोध से मूर्छा तथा चेतनावह स्रोत के अवरोध से सन्यास की उत्पत्ति मानी जाती है।' मूी को बोलचाल की भाषा मे 'वेहोश होना' कहते है। इसमे मुख्य विकार हृद्विकार के कारण मस्तिष्क के रक्तसचार मे बाधा उत्पन्न होती है। हृदय के विकार दो तरह के होते है-१ हृद्गत-हृदय के पेशी की दुर्बलता और हृदय के द्वारो के विकार, जिसमें शरीर मे पर्याप्त रक्त रहते हुए भी हृदय मस्तिष्क तक पहुँचाने में असमर्थ होता है फलत मूर्छा पैदा होती है । २ परिसरीय १ रजोमोहाहिताहारपरस्य स्युस्त्रयो गदा । रसासृक्चेतनावाहिस्रोतोरोधसमुद्भवा । मदमूर्छायसन्यासा यथोत्तरवलोत्तरा ॥ ( अ ह नि. ६.) - Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० भिपकर्म-सिद्धि ( Peripheral )-दूसरे प्रकार में कुछ अंगो मे केशिकावो का विस्फार हो जाता है । जिस से रक्त का अधिक भाग प्रान्तस्थ या दूरस्थ भागो में चला जाता है । शरीर में रक्त की कमी होने (पाण्टु रोग)से, हृदय में स्वतः रक्त की कमी हो जाती है-जिस से मस्तिष्क को पूर्ण रक्त नही पहुँचता फलत मूर्छा उत्पन्न होती है। इन कारणो के अतिरिक्त मूर्छा या सन्यास की उत्पत्ति मे-निम्नलिखित हेतु भी भाग लेते है। जैसे १. मस्तिष्क का तीन आघात २ उच्च रक्तनिपीड या विप सेवन से मस्तिष्क के किसी बडी धमनी का फट जाना ३ अति तीव्र संताप ( ज्वर, लू या अग्निसम्पर्क से ) ४. मादक द्रव्यो का सेवन-अफीम, भांग, धतूर, मद्य आदि का ५ हीन मनोवल अपतत्रक और अपस्मार आदि ६ अहिताहारविहारजन्य अम्लोत्कर्प (Acidosis), क्षारोत्कर्ष ( Alkalosis) अथवा मूत्रविपमयता ( Uraemia), मद-मूछादि का परस्पर में भेद-१ मूर्छा को उत्सत्ति मे पित्त और तम दोप की प्रधानता, भ्रम में रजोदोप, पित्त-वायु दोप की अधिकता, तमो गुण एव वात और कफ की विशेषता तन्द्रा में, श्लेष्म और तमो गुण की बहुलता निद्रा में पाई जाती है । २ दूसरा भेद यह है कि मद और मूर्छा में दोपा के वेग (दौरे) के गान्त होने पर विना सोपवि-सेवन के ही रोगी जागृत हो जाता है, परन्तु मन्याम में जहां पर दोपो की अधिक प्रबलता और तम का अतिरेक पाया जाता है, वहुन कठिनाई से चिकित्सा होती है और विना औपधि-सेवन के अच्छा नहीं होता है । अग्रेजी पर्याय के रूप मे मद को ( Faintness ), मूर्छा को (Syncope),सन्यास को(Coma)कहते है। तद्रा तथा अनिद्रा को(Drowsy Feehng of Insomnia. ) नाम से कहा जाता है। मूर्छा के छ प्रकार ग्रथकारो ने बतलाया है-दातिक, पंत्तिक, श्लैष्मिक, रक्तज, मद्योत्थ तथा विपजन्य । इनमें कारणनुरूप चिकित्सा करनी चाहिये। अधिकतर पित्त दोप की विशेपता मूर्छा रोग में पाई जाती है ।' __ मृा मे क्रियाक्रम-सामान्य-मूच्छी रोग में प्राय पित्त की बहुलता पाई जाती है, अस्तु, शीतल उपचार सामान्यतया लाभप्रद रहता है । माथे पर ठडे पानी का जोर से छोटा देना; माथे पर गीतल जल की धारा छोडना, तालाब या १. मूर्छा पित्ततम प्राया रज पित्तानिलाद् भ्रम । तमोवातकफात्तन्द्रा निद्रा श्लेष्मतमोमवा ॥ ( मा नि ) वातादिमि शोणितेन मद्य न च विपेण च । पट्स्वप्येतासु पित्त तु प्रभुत्वेनावतिष्ठते । ( मु. ३ ४६ ) Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : उन्नीसवाँ अध्याय ४११ ठडे जल से भरे टव मे बैठना, मज्जन (स्नान ) या अवगाहन ( डुबकी लगाकर नहाना ), मोती-प्रवाल-स्फटिक प्रभृति मणियो का धारण करना या उनसे बने हार का धारण, कपूर, केशर और श्वेत चंदन का लेप करना, ताडपत्र या कमल पत्र के पंखे से हवा करना, चदन-खस-गुलाव-केवडा-आदि गंध द्रव्यो से निर्मित प्रपानक या शर्वत का पान करना हितकर उपचार है। . ____नारिकेल, दाग्व, मिश्री, अनार, लज्जालु ( लज्जावती ), नील कमल, कमल के फूल प्रभृति द्रव्यो का सुगधित कपाय बनाकर पीना अथवा पित्त ज्वर मे कथित पित्तशामक उपचारो से भी मूर्छा मे लाभ होता। रवतज मूर्छा मे भी शीतोपचार ही लाभप्रद रहता है। मद्यज मूर्छा मे हल्का मद्य पिलाना और सुलाना उपचार है। विषजन्य मूर्छा मे शीतोपचार के साथ विपनाशक चिकित्सा की भी व्यवस्था करनी चाहिये । ___ मूर्छा में दो प्रकार का उपचार प्रशस्त है। वेगकालीन तथा वेगान्तरकालीन । वेगकालीन कहने का तात्पर्य उस चिकित्सा से है जिससे रोगी की वेहोगी दूर हो वह जागृत हो जाय । वेगान्तरकालीन चिकित्सा वह है जो मूर्छा के दौरे के अनन्तर चलायी जावे जिम से रोग मे स्थायी लाभ हो सके । मूर्छा से जागृत करने के कई उपाय ऐसे है जिनसे चमत्कारिक लाभ होता है । जैसे बोधकरी प्रक्रिया १. अंजन-शुठी, मरिच या पिप्पली को घिस कर नेत्रो में आजन करना । होश में लाने के उपाय-चंद्रोदयावर्ति, तुत्थकादि वत्ति को घिस फर अजन करने से मूर्छा तत्काल दूर होती है। • अवपीडन-नाक से फूक मारकर लहसुन से भावित औपधि चूण को नाक मे डालना । इस कार्य के लिये देव दाली ( बन्दाक) का नस्य या कायफर का महीन कपडछन चूर्ण का नस्य वडा उत्तम कार्य करता है । एक कागज का चोगा बनाकर उसको नाक में प्रविष्ट करके चूर्ण को अदर की ओर फूंक देना चाहिए । धूम-तीन गध वाले धूम का धुंवा देने से भी बेहोशी दूर होती है। १ सेकावगाही मणयः सहारा शोताः प्रदेहा व्यजनानिलाश्च । गीतानि पानानि च गन्धवन्ति सर्वासु मूस्विनिवारितानि ।। द्राक्षासितादाडिमलाजवन्ति शीतानि नीलोत्पलपद्मवन्ति । पिवेत् कपायाणि च गन्धवन्ति पित्तज्वर यानि शमं नयन्ति ॥ (सु) २ रक्तमाया तु मूर्छाया हित शोतक्रियाविधि । मद्यजाया पिबेन्मद्य निद्रा सेवैद्यथासुखम् । विषजाया विपघ्नानि भेपजानि प्रयोजयेत् ॥ (भे र ) Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ भिपकम-सिद्धि सूचीवेध-यूई को नोक मे देह में कोचना । माज कल की मूचीवेध द्वारा किमी निरापद ओपधि की सुई देना इस अवस्था में एक उचित कर्म है। इस क्रिया से बेहोग रोगी होग मे मा जाता है। केश और लोमों का लुंचन-एक दो केगोको पकटकर नोचने में भी लाभ होता है। नाक और मुम्ब बंद करना, अंडको रगटना, दांत मे काटना । नस्रो के मध्य में दबाना । गलाका ने दाह कर्म ( जलाना ) तथा केवांछ की फली का गरीर में घर्षण करना प्रभृति क्रियावो से मूच्छित रोगी मंजा में या जाता है। वेगान्तरकालीन चिकित्मा-मू -भ्रम-अनिद्रा तथा संन्याम रोगो मे रसायनाधिकार की दोपवियो का प्रयोग करना लाभप्रद रहता है। मृा में भेपज-५ त्रिफला चूर्ण : मागे को रात्रि में मधुके माथ चाटना २. अदरक को पीसकर १ तोला योर गुट २ तोला का प्रात काल में सेवन ३ पिपली चूर्ण १॥ माशे मधु के माथ मेवन ४. जी का सत्तू बगवर शक्कर मिलाकर नारिकेल जल के (डाव के पानी के ) माथ पीना 1 ५ कोल-मज्जादि चूर्ण-बेर के फल को मूसी मज्जा, काली मिर्च, सम और नागकेसर का राम प्रमाण में बना चूर्ण। मात्रा ३ मागा । अनुपान गोतल जल । इन भेपजो से मूर्टी गान्त होती है। भ्रम-(चक्कर आना) दुरालमास्वरस या कपाय- दुरालभा अथवा यत्रामा का स्वरन २ तोला लेकर ३२ तोले जल में खोलाकर ८ तोले शेप रहने पर २ ठीला मिश्री और १ तोला गोवृत मिला कर मेवन करने में चक्कर का आना शान्त होता है। कौम्म सपिः-एक मौ वर्ष का पुराना कीम्भ वृत कहलाता है। इसको ३ मार्ग की मात्रा में गाय के दूध में याडकर पीना श्रम तथा मृी को धान्न करता है। प्रवालपिष्टि योग-प्रवालपिष्टि २ २० बोर गुटची सत्त्व १ माशे की माया में एक माया बनाकर ऐमी दो मात्रा सुबह-गाम, यावल का चूर्ण २ मागे ' मधुना हन्युपयुक्ता त्रिफला गत्री गुदाईकं प्रातः 1 सप्ताहात् पथ्यभुजो मदमू कामलोन्मादान् ॥ २. चक्रवद् चमती गाय भूमो पतति सर्वदा । चमरोग ति यो रक्तपित्तानि यात्मक ॥ (मा नि.) ३. दुरालभा-यपायस्य वृनयुक्तम्य मेवनान् । भ्रमो नश्यति गोविन्दरमरणादिव पातकम् ।। (वे. जी ) Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : उन्नीसवाँ अध्याय ४१३ घी और मिश्री के साथ अथवा केवल घी और चीनी के साथ खिलाने से तथा रात्रि मे नित्य त्रिफला चूर्ण ६ माशे या यष्टयादि चूर्ण ६ माशे दूध के साथ देने से भ्रम, मूर्छा तथा अनिद्रा में उत्तम लाभ होता है । शतावरी, बलामूल, द्राक्षा से सिद्ध दूध का सेवन भ्रम मे लाभप्रद होता है। ___अनिद्रा-पीपरामूल का २ माशे चूर्ण और ३ तोला पुराना गुड मिलाकर सेवन करने से निश्चित रूप में चिरकाल से नष्ट हुई निद्रा आ जाती है । भांग को घी मे भूनकर बकरी के दूध मे पोस पैर के तलवे मे लेप करने से निद्रा आती है । सर्पगंधा चूर्ण २ माशा गुलकद के साथ देना भी निद्राकर है । चद्रोदय अथवा मकरध्वज ३ रत्ती की मात्रा मे चावल के धोवन (पानी) और मधु के माथ सोने के आधा घटा पूर्व लेने से निद्रा माती है। ईख का रस, पोईगाक (उपोदिका), उडद की दाल, मद्य, मास, घृत, भैसका दूध, गोधूम (गेहूँ ), मिश्री, गुड तथा तथा मत्स्य का भोजन में उपयोग परम निद्राकर होता है। महिफेन के योग जैसे कर्पूर वटो निद्राकर होती है। - अहिफेन और कपूर के योग से बनी मंगलोदया वटी परम वेदनाशामक तथा निद्राकर होती है। परन्तु इसका प्रयोग बहुत कम, जव नितान्त आवश्यकता हो और अन्य निरापद योगो से लाभ न होता हो तब करना चाहिये । तन्द्रा-तन्द्रा मे त्रिफला चूर्ण ६ माशे मधु से सेवन करना तथा कटफल का नस्य देना उत्तम रहता है। ___मून्तिक रस-रससिन्दूर, स्वर्णमाक्षिक भस्म, स्वर्ण भस्म, शुद्ध शिलाजीत और लौह भस्म प्रत्येक एक तोला । शतावरी तथा विदारी के स्वरस या कपाय में भावना देकर ३ रत्ती की गोली बनावे । १ वटी की मात्रा मे दिन मे दो वार गाय के दूध और मिश्री के साथ दे । भ्रम तथा मर्छा मे लाभप्रद होता है। ____ अश्वगंधारिष्ट-असगध २३ सेर, मुसली १ सेर, मजीठ-हरड-हल्दी-दारुहल्दी-मुलैठी-रासन-विदारीकद-अर्जुन की छाल, मोथा-त्रिवृत की जड प्रत्येक आधा सेर, श्वेत सारिवा, कृष्ण सारिवा, श्वेत चदन, लाल चदन, वच और चित्रक की जड प्रत्येक ३२ तोले। सवको जवकुट करके, २ मन ५४ तोले जल मे खौलावे चतुर्थाश अर्थात् १२ सेर, १२ छटाँक ४ तोला शेष रहने पर उतार ले । क्वाथ को छान ले । ठडा होने पर उसमे धाय का फूल ६४ तोले, शहद १५ सेर, सोठमरिच-पीपल का मिश्रित चूर्ण ८ तोला, दालचीनी-इलायची और तेजपात का मिश्रित चूर्ण १६ तोला, प्रियङ्ग का चूर्ण १६ तोले, नागकेशर ८ तोला मिलाकर सबको घृतलिप्त सुधूपित मिट्टी के भाण्ड मे भर कर सकोरे से उसका मुख Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ भिपकर्म-सिद्धि भलो प्रकार वद कर कपडमिट्टी करके एक मास तक सुरक्षित स्थान पर रख दे। महीने भर के वाद खोलकर छानकर बोतलो में भर कर रख ले। मात्रा २१ तोला। भोजन के बाद दोनो वक्त । वरांवर पानी मिलाकर । यह अश्वागधारिष्ट भ्रम, मद, मज़, अपस्मार, गोप और उन्माद में लाभप्रद और हृद्य होता है। पथ्यापथ्य-इन रोगो में दूध, घी, मिश्री, नारिकेल, वेदाना, चावल, मूग, पेग, पटोल और रोहू मछली प्राय. देना चाहिये। अपथ्यो में पान, पत्र शाकगाक, दधि, वेगावरोध और स्वेदन, धूप का मेवन अनुकूल नहीं पड़ता है। बीसवाँ अध्याय मदात्यय प्रतिपेध , जो व्यक्ति विधिपूर्वक, मात्रानुसार, उचित समय मे ऋतु एवं बल के अनुसार प्रसन्नतापूर्वक हितकारक खाद्यो के साथ (स्निग्ध अन्न और मास आदि का सेवन करके ) मद्यपान करता है उसके लिए मद्य अमृत के तुल्य होता है। इस प्रकार के मय-सेवन से उसकी आयु, बल और सौन्दर्य की वृद्धि होती है । इसके विपरीत क्रोध, भय, पान, भूत्र तथा गोक की अवस्था में व्यायाम, भार तथा यात्रा की थकावट में, भाजन विना किये खाली पेट पर, वेगो को रोक कर; गर्मी से मंतप्त रहने पर मद्य जो पीता है उसको मद्योत्थ नाना प्रकार की यकृत, हृदय, मस्तिष्क तथा वृक्कसंबंधी विविध प्रकार के रोग हो जाते है। इन रोगो को मदात्यय ( Alcoholism) कहते है। मदात्यय दो प्रकार का हो सकता है। तीत्र ( Acute ) तथा जीर्ण ( Chronic)। तीन मदात्यय-मद्य पोने का तत्काल प्रभाव होता है, उसका नगा-मद कहलाता है, यह कई अवस्थाओ (Stages ) का हो सकता है जो, प्रथम मद, द्वितीय मद, तृतीय मद तथा चतुर्य मद के नाम से माधवनिदान में वर्णित है । मद्य का यधिक मात्रा में या अयुक्तियुक्त मात्रा में सेवन करने से तत्काल परिमाण के अनुसार कई रोग (Due to immediate after effects) हो जाते है, जैसे-पानात्यय, परम मद, पानाजीर्ण, पानवित्रभ आदि हो जाते है। १ विधिना मात्रया काले हितैरन्नयथावलम् । प्रह्टो यः पिवेन्मद्य तस्य न्यादमृतोपमम् ॥ ये विपस्य गुगा प्रोक्तास्तेऽपि मद्ये प्रतिष्ठिना । तेन मिथ्योपयुक्तेन भवत्युग्रो मदात्यय ॥ ( मा० नि० ) Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१५ चतुर्थ खण्ड : बीसवाँ अध्याय इनमें वमन कराके या माशय के प्रक्षालन से और पूर्ण निद्रा लेने से स्वयमेव शान्ति मिलती है। __जीणे मदात्यय-मदात्यय नाम से चरक संहिता में इसका वर्णन पाया जाता है। इसके लक्षणो के भेद से चार प्रकार के वर्ग वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक तथा विदोपज का उल्लेख मिलता है। वास्तव मे मदात्यय (chronic Alcoholism ) दीर्घ काल तक मद्य के विधिपूर्वक सेवन न करने से होने वाला एक रोग है। मदात्यय चिकित्सा से यही रोग अभिलक्षित है। जीर्ण मदात्यय के वर्ग में उपद्रव स्वरूप होने वाले दो और रोगो का वर्णन वाग्भट तथा चरक मे पाया जाता है । १. ध्वंसक तथा २. विक्षेपक या विक्षय । मद्यपान के अभ्यास का कुछ समय त्याग करने के पश्चात् मनुष्य सहसा अत्यधिक मद्य का पान करता है तो ध्वंसक तथा विक्षेपक नाम रोग होते हैं । ध्वंसक मे कफ का स्राव, कठ और मुख कीशुष्कता, शब्द का सहन न कर सकना, तद्रा तथा निद्रा की अधिकता तथा विक्षेपक मे हृदय तथा कठ मे अवरोध की प्रतीति, मर्छा, वमन, अग पीडा, ज्वर, तृपा तथा शिर शूल आदि लक्षण मिलते हैं।' ये दोनो ही दुश्चिकित्स्य होते है। जीर्णमदात्यय के रोगियो में जिनका ऊपर का ओठ नीचे लटक गया हो ( Facial Paralysis ), शरीर में अति शीत अथवा अतिदाह प्रतीत हो ( Due to Polineuritis ), जिसके मुंह की तेल से लिप्त के समान आभा हो (Due to damaged heart), जिसकी जिह्वा, दाँत, ओष्ठ, नाक काले या नोले ( Due to dilated small veins or Cyauosis) हो, जिसके नेत्र पीले कामला युक्त (Due to Hepaticfailure ) अथवा लाल रंग के से Conjuctivitis chronic due to none abosorption of vitamin A ) हो असाध्य होते है। 3 १. पानात्यय परमद पानाजीर्णमथापि वा। पानविभ्रममुग्नञ्च तेपा वक्ष्यामि लक्षणम् ॥ (सु० ) २ विच्छिन्नमद्य सहसा योऽतिमात्र निपेवते । ध्वसको विक्षयश्चैव रोगास्तस्योपजायते ॥ श्लेष्मप्रसेक कण्ठास्यशोप शब्दासहिष्णुता। तन्द्रा निद्रातियोगश्च ज्ञेय ध्वसकलक्षणम् ॥ हृत्कण्ठरोग सम्मोहश्छदिरङ्गरुजा ज्वर । तृष्णा कास शिर शूलमेतद्विक्षयलक्षणम् ॥ (च०) ३ हीनोत्तरौप्ठमतिशीतममन्ददाहं तैलप्रभास्यमपि पानहत त्यजेत्तु । जिहोष्ठदन्तमसित त्वथवापि नील पोतं च यस्य नयने रुधिरप्रभे च ॥ (सु० ३.४७ ) Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ भिपकर्म-सिद्धि प्रायः सभी मदात्यय सान्निपातिक या त्रिदोपज होते है, इनमे रूप की विशेपता वातिक, पत्तिक, श्लैष्मिक प्रभृति भेद से करना होता है । मदात्यय में जिम दोप की विशेषता हो उसके अनुसार उपचार का प्रारम करना चाहिए। फिर भी लेप्माविक्य में प्रथम श्लेष्म दोप के शमन के उपचार तदनन्तर पित्त तथा वात के शमन के लिए उपचार करना चाहिए। मदात्यय नामक व्याधि मिथ्या, अति या हीन मात्रा में मद्य के पीने से पैदा होती है । अन्तु, मद्य के सम मात्रा में प्रयोग करने से वह ठीक होता है। मद्योत्य रोग के गमन के लिए मद्य का ही प्रयोग पिलाने के लिये करना चाहिए । फिर रोग के हल्का होने पर अन्न में रुचि पैदा होने पर हितकर आहार-विहार कराना चाहिए । यदि मद्य का उपक्रम प्रारम मे अनुकूल न पडे तो मदात्यय के रोगी को प्रारंभ मे लघन कराके कफ के क्षीण हो जाने पर प्रचुर मात्रा में गाय के दूध का पान कराना चाहिए। क्योकि दूध मोज के समान गुण वाला है और मद्य ओज के विपरीत गुण वाला होता है । अस्तु, दूध का प्रयोग करके जब रोगी का बल बढ जावे तो दूध को बंद करके अल्प मात्रा में मद्य पिलाना प्रारंभ करना चाहिए।' क्रियाक्रम वातज मदात्यय में काला नमक, शुण्ठी, मरिच, छोटी पोपल से युक्त मय का जल मिश्रित करके हल्का करके पिलाना । पित्तज मदात्यय में-बट शुग के हिम, शर्करा से युक्त मद्य पिलाना चाहिए । यामला, खजूर, मुनक्का मोर फालसा का उपयोग हितकर होता है। श्लेष्मज मदात्यय सेवामक योगो के साथ मद्य पिलाकर वमन करावे । वल के अनुसार लधन तथा दीपन औपधियो का प्रयोग करना चाहिए । त्रिदोपज में-त्रिदोष का मिलित उपचार करे। सामान्यतया खजूर १ सर्व मदात्ययं विद्यात् त्रिदोपमधिकं तु यम्। दोप मदात्यये पश्येत् तस्यादौ प्रतिकारयेत् ।। कफम्यानानुपूर्व्या च क्रिया कार्या मदात्यये। पित्तमारुपतर्यन्त प्रायेण हि मदात्यय ॥ मिथ्यातिहीनपीतेन यो व्याधिरुपजायते। समपोतेन तेनैव स मद्येनोपगाम्यति ॥ जीर्णाममद्यदोपाय मद्यमेव प्रदापयेत् । प्रकाशालाघवे जाते यद्यदस्मै प्रदापयेत् ॥ च० वि० २४ ॥ न चेन्मद्यक्रम मुक्त्वा मद्यमस्य प्रयोजयेत् । लड्नाद्य . क्फे क्षीणे जातदोवल्यलाघवे ॥ ओजस्तुल्यगुण क्षीरं विपरीत च मद्यत । पयना च हृते रोगे वले जाते निवर्तयेत् । धीरप्रयोग मद्यका क्रमेणाल्पात्पमाचरेत ।। च०६० Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड: बीसवाँ अध्याय ४१७ मुनाका, विजीरा नीबू, अम्लत, इमली का सत, अनार दाने, फालसा और आंवला इनके रस को मन्य के साथ पीने से सर्व प्रकार के मदात्यय मे लाभ होता है। मन्थ-जी के मत्तू को घी में मलकर चीनी और ठंडा पानी मिलाकर घोल लेना मंथ कहलाता है। मद्य का हीनवीयकरणोपाय-यदि मनुष्य मद्य-पान करने के पश्चात् तुरन्त ही घो में चीनी मिलाकर पी लेवे तो उग्रवीर्ययुक्त मद्य भी उस मनुष्य को मदयुक्त नहीं करता है। अर्थात् नशा तेज नही होने पाता है । अस्तु, घी और शक्कर का प्रयोग मदात्यय मे लाभप्रद होता है। अन्य मद-कई वार मद्य के अतिरिक्त मादक-कोदो, सुपारी या धतूरे के सेवन ने भी नशा तेज हो जाता है। इन अवस्थामओ में सुपारी के नशे मे शीतल जल को पेट भर ( आकठ ) पिलाना, शख भस्म का सूधना या जंगली कडे की राख का सू चना, नमक खिलाना तथा चीनी का शर्वत पिलाना लाभप्रद होता है। मादक कोदो के मद मे पेठे का रस ( पूरे पेठे को मय छिल्का बीज पीसकर उमका स्वरस ) गुड के साथ सेवन तथा धतूरे के मद में दूध और मिश्री का पिलाना लाभप्रद रहता है । वैगन के फल या पत्र का स्वरस भी लाभप्रद है। योग-अष्टाङ्ग लवण-कालानमक, काला जीरा, वृक्षाम्ल (विषाम्विल), अम्लवेत प्रत्येक १ तोला, दालचीनी, छोटी इलायची, मरिच प्रत्येक ३ तोला । इनको कूट पीस कर उसमे १ भाग चीनी डालकर शीशी मे भर ले । यह अष्टाङ्ग लवण क्फप्राय मदात्यय तथा सर्व मदात्यय मे लाभप्रद होता है। यह अग्नि का संदीपन करता है और स्रोतो का विशोधन करता है। यह वडा स्वादिष्ट और रुचिकर योग है। मदात्यय के अतिरिक्त रुचिकर योग के रूप में भी इसका उपयोग हो सकता है। ___ एलादि मोदक-छोटी इलायची, महुए का फूल, चित्रक मूल, हल्दी, दारुहल्दी, त्रिफला, लाल शालि चावल, छोटी पीपल, मुनक्का, खजूर, काली तिल, जौ, विदारीकद, गोखरू बीज, निशोथ की जड और शतावर का कद । प्रत्येक समभाग तथा समस्त द्रन्यो से दुगुनी खाड मिलाकर मोदक बनावे। सुबह-शाम गाय के दूध के अनुपान में लेने से सब प्रकार के मदात्यय मे लाभ होता है। कज्जली-पारद और गधक की सम प्रमाण में बनी कज्जली का आँवले के रस और मिश्री के सेवन से सर्व प्रकार के मदात्यय मे लाभप्रद होता है। मात्रा १-२ रत्ती। ध्वंसक तथा विक्षय-मे उपचार वातिक मदात्यय के सदृश करना चाहिये । क्योकि अत्यत दुर्बल और क्षीण धातु के रोगियो मे ये पाये जाते है । अस्तु, दूध २७ भि० सि० Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ भिपकर्म-सिद्धि और घृत का प्रचुर प्रयोग, अनुवासन तथा यापन वस्ति का प्रयोग तथा वातनाराक मन्यंग, उद्वर्तन, नान और अन्नपान की व्यवस्था करनी चाहिये। उपसंहार-मदात्यय के रोगी चिकित्सा मे क्रम बाते है । चरक चिकित्मा स्थान में मनात्यय चिकित्सा नामक व्याय बड़ा ही विगढ ढंग से लिवा मिलता है उसमें मुरा को भगवती करके उम्बोधन किया गया है । इसके सेवन की परम्परा का इतिहास वैदिक युग में भारम करके बाज के दिन तक का वर्णित है। इसके योनि, संस्कार तथा नाम में विविध भेदो का उल्लेख किया गया है। इनमे विवियता होते हा भी मद ( नशा होना ) लक्षण की समानता पाई जाती है। विधिपूर्वक मन्त्र सेवन की विधि, मब के अमृत तुल्य विविध गुण, उम्ने निर्माण में व्यवहृन होनेवाले घटक, उसकी विविध चेष्टायें, उससे उत्पन्न होनंगली मद त्री विविध बस्यायें प्रभृति बातो का वृहद् माझ्यान पाया जाता है। नदनन्तर अयुक्तियुक्त विधि या मात्रा में न प्रयुक्त होने पर उन में उत्पन्न होने वाले दोर, उम ने उन्यन्न मान्यर प्रभृति रोगों का विशाल वर्णन, उनको नमुचित चिकित्सा की अवस्या नभनि वातो का उल्लेव पाया जाता है । व्यवहार में मचनान राग आज कल कम मिलते है। संभवत प्राचीन युग में इस ( मद्यपान ) का प्रचार अधिक रहा हो फलतः तज्जन्य व्याधियाँ भी बहुत पैदा होती रही हो, उनमा उपचार-ज्ञान चिकित्सको के लिये आवश्यक रहा हो । विदेगो में मद्यपान की परम्परा अब भी पाई जाती है, परन्तु देश में उन परम्पग का लोप हो गया है जो कुछ शेष भी रहा उसका मद्य-निषेधक वियानो ने मूलोच्छन ही हो रहा है। फलत. इस बध्याय के लिखने में कुछ क्रियाक्रमों तथा कुछ गिनी चुनी बोपषियो का उल्लेख कर देना हो उचित समझा गण । विस्तृत जान के लिये चरक संहिता का महारा लेना अपेक्षित है। अध्याय का उपमंहार करते हुए अंत में चरक ने अपना निष्पक्ष विचार मद्यसेवन नियपरक ही व्यक्त किया है। मद्य सब गुणों के बावजूद भी उसके अविधि या अति भवन में विविध दीप पैदा होते है । मस्त "जो मनुष्य ईन्द्रियो को वन में नहीं रखता है अर्थात् जितेन्द्रिय मोर सम्पूर्ण प्रकार की मादक (मयादि नगाला चीनो) द्रव्यों के सेवन से अपने को बचा लिया है टम को गारीरिक तथा माननिक विकार (जो प्राय, मदकर व्या में होते है ) नहीं होते हैं।" '. १ निवृत्तः सर्वमन्यो नगे यत्र जितेन्द्रियः। गारीरमानमर्थीमान् विकारन स युज्यते ॥ (चर. त्रि. २४) Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कीसवॉ अध्याय दाह-प्रतिषेध ... प्रावेशिक-बाह्य अग्नि या तेजस पदार्थ के सम्पर्क में आने से जो अनुभव होता है उसको दाह या जलन कहते है। शरीरान्तर्गत कारणो से रोगी को होने वाली जलन की विशेष अनुभूति को दाह रोग ( Burnring syndrome ) कहते है। दाह शरीरान्तर्गत अग्नि, स्वरूप का' ही अन्यतम गुण है। इस प्रकार किसी भी कारण से शरीरगत सोम गुण---कफ का ह्रास तथा अग्नि गुण-पित्त की वृद्धि होने से दाह का अनुभव होता है। सामान्यतया दाह पित्त की वृद्धि से ही उत्पन्न होता है । अस्तु, उसमे पित्तनाशक उपचारो से' शान्ति मिलती है । क्यो कि इस अवस्था मे पित्त और रक्त की ऊष्मा से दाह होता है। अस्तु, पित्त का ह्रासन यहां कर्त्तव्य रहता है।' कई बार ऐसा भी होता है कि पित्त प्राकृत या स्वाभाविक रहता है, परन्तु कफ के अति मात्रा में सक्षय होने से वायु अधिक बढती है और वायु पित्त को शरीर के विभिन्न अवयवो मे त्वचा आदि मे खीच ले जाती है। उन अवयवो मे पित्त का सम्पर्क होने से दाह या जलन पैदा होती है। इस अवस्था मे पित्त को स्थानाकृष्टि-अपकर्षण से दाह पैदा होता है । चिकित्सा मे यहाँ पर पित्तशामक उपचारो द्वारा वायु को शान्त करके पित्त को स्वस्थान में लाने की आवश्यकता होती है। अस्तु, यहाँ पित्त का ह्रासन न करके वायुशामक उपचार लाभप्रद होता है। सुश्रुत ने सात प्रकार के दाहो का उल्लेख किया है-१ मद्यज, २ पित्तज, ३ तृष्णानिरोधज, ४ रक्तपूर्ण कोष्ठज ५. क्षतज ६ धातुक्षयज तथा ७, मर्माभिघातज । इनमे मर्माभिघातज (Due to shock ) असाध्य होता है शेष साध्य होते है। इनमे मद्यज, पित्तज, क्षतज, रक्तपूर्ण कोष्टज और तृष्णा निरो१ त्वच प्राप्त स पानोष्मा पित्तरक्ताभिमूच्छित । दाह प्रकुरुते घोर पित्तवत्तत्र भेषजम् ॥ २ प्रकृतिस्थ यदा पित्तं मारुत श्लेष्मण क्षये । स्थानादादाय गात्रेषु यत्र यत्र विसर्पति ॥ तदा भेदश्च दाहश्च तत्र तत्रानवस्थित । गानदेशे भवत्यस्य श्रमो दीर्वल्यमेव च । ( च सू १०) . . - - - Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० भिपकर्म-सिद्धि धज (Dueto Alcohol Haemorhage &Dehydration) विशुद्ध पैत्तिक दाह है-इनमे पित्तशामक उपचारो से लाभ होता है परन्तु धातुक्षयोत्थ दाह जिसमे वायुकोप प्रधान हेतु होता है वह वातनाशक उपायो से शान्त होता है । क्रियाक्रम-सामान्य-पित्त ज्वर मे जो दाह की चिकित्सा मे आहारविहार तथा उपचार बतलाये गये हैं । वही उपचार दाह के शमन के लिये करना चाहिये ।' पित्त ज्वर, मदात्यय, रक्तपित्त तथा दाह रोग मे पित्त के शमन के लिए लगभग समान उपक्रम ही वरते जाते हैं । बरफ या शीतल जल बाहय तथा पीने के लिए आभ्यन्तर प्रयोग, पूरे शरीर पर कस्तूरी, श्वेतचदन, कपूर और खस को ठडे पानी मे पीस कर लेप करना, धारागृह मे बैठना, सहज स्नेहयुक्त, मुग्ध और मजुल आलाप करने वाले बालको का समाश्लेप ( आलिङ्गन), खसकी टट्टी लगे पानी के छिडकाव वाले कमरे और पखे की हवा में बैठना ( Air conditioned Rooms ), कवियो का साहित्य-सरस वाणी या सुकुमारियो का गान सुनना, पीने के लिये अगूर का रस, ईख का रस, नारिकेल जल, आँवले का पानी, फलो के रस, फालसा का शवंत, कोमल और मूत्रल फलो का सेवन, धनिया को रात्रि मे भिगोकर सवेरे उसका वासो पानी पीना, या जीरे का पानी, अगुरु, लोध्र, चदन आदि का उद्वर्तन, नदी-जलाशय के समीप का वास, ठंडे पर्वतो और निर्झर के समीप का वास, गाय का दूध-घृत-मक्खन का सेवन, ककडी, पेठा, केला-मुनक्का, खजूर, छुहारा, सिंघाडा आदि फलो का सेवन । चीलाई और परवल का शाक, मूग या मसूर की दाल और साधारण चावल-रोटी का भोजन आदि। ___ गर्ममसाले-क्षार-कटु-तिक्त-उष्ण द्रव्यो का सेवन; विरुद्ध अन्न-पान, वेगविधारण, हाथी-घोडे की सवारी, परिश्रम, व्यायाम, धूप का सेवन, हिंगु या ताम्बूल का खाना, स्त्रीसंग, दधि, मत्स्य आदि पित्तकर द्रव्यों का पूर्णत. परिहार दाह की अवस्था मे कर देना चाहिये। १ कपूर, सस, श्वेत चन्दन का ठण्डे पानी मे पीसा लेप शरीर पर करना ।२ भेपज २ शतधोत या सहस्रधीत घृत का लेप । गोघृत को फूल या कासे के वर्तन में रखकर सो पानी या हजार बार पानी से धोया घृत पूरे शरीर मे लगाने से १ यत् पित्तज्वरदाहोक्त दाहे तत्सर्वमिष्यते । ( भै र ) २ अयि नितम्बिनि खेलनलालसे मधुरवाणि निकाममदालसे । वपुपि दाहवता विहित हित हिमहिमाशुजलेरनुलेपनम् ।। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : एकीसवाँ अध्याय ४२१ दानान्त होता है। यदि अवयव विशेप में जैसे हाथ-पैर के तलवे में हो तो केवल यही पर लगाना चाहिये । प्रदेह चा लेप नीम को पत्तो को पोसफर एक मिट्टी के बर्तन में पानी डालकर मधकर उनले फेन ने लेप करने से दाह मान्त होता है। विशेषतः विसूचिका के अनन्तर होने वाले उदर के दाहम लाभप्रद पाया गया है। इससे तृपा, दाह और मूर्छा मे भी आराम होता है। ४ जी का सत्तू, बांबला, बेर फो गुठली या मज्जा, नाम का पन्ना (कच्चे मन को बाग में पकाकर उसका लेप) काजी के साथ पीस कर लेप करना भी दाहशामक होता है। ५. चारो वृक्ष को छाल, श्वेत चदन को दूध में पीस कर पूरे बदन में लेप करना। ६. प्रियन, लोध्र, सस, नेनवाला, नागकेसर, तेजपात, मोथा और चन्दन का लेप। शय्या-बोले के पन अथवा कमल के पत्ते पर सोना । आच्छादन-काजी से आई किये वस्त्र के द्वारा पूरे शरीर का मावृत करना। परिपेक तथा अवगाहन-सुगन्धवाला, पद्माख, खस और सफेद चन्दन को पानी में सोलाकर ठण्टा हो जाने पर उसे एक द्रोणो मे भरकर डुवको लगाकर स्नान । केवल शोतल जल से स्नान भी लाभप्रद होता है। काथ-पपेटादि कपाय-पित्तपापडा, खस और मोथा इनका सम भाग में लेकर बनाया पवाथ मिश्री के साथ पीना दाहशामक होता है। धान्यक हिम-धनिया को रात्रि में मिट्टी के वर्तन में भिगोकर उसको सुवह मसल कर छान कर मिश्री के साथ पीना सुन्दर दाहशामक होता है। ___ चूणे-चंदनादि चूर्ण-चदन, खस, कूठ, नागरमोथा, आंवला, नील कमल का फूल, मुलेठी, महुए का फूल, मुनक्का, खजूर, छोटी इलायचो, ककडी का वीज, खीरे का वीज, धनिया समभाग और सब के बरावर मिश्री मिलाकर बनाया चूण । मात्रा ३ माशे । अनुपान शीतल जल । १ सहस्रपौतेन घृतेन वापि दिग्धस्य दाह कृशता वित्ति । अन्याङ्गनासगसमादरस्य स्वीयेषु दारेषु यथाभिलाषः ॥ २ तृड्-दाह-मोहा. प्रशम प्रयान्ति निम्बप्रवालोत्थितफेनलेपात् । यथा नराणा धनिना धनानि समागमाद्वारविलासिनीनाम् ।। ( वै जी.) Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिषकर्म-सिद्धि घृत-तैल- कुत्रादि तैल या घृत- कुशादि पंचतृण, गालपर्णी तथा जीवनीय गण की औपवियों से सिद्ध तैल या घृत का सेवन । उपसंहार ४२२ दाह रोग मे प्रयोज्य कुछ व्यवस्थापत्र १ चंद्रकलारस ३ २० प्रवाल पिष्टि ३ २० गुडूचीसत्त्व १॥ मा० मिलित ३ मात्रा १ मात्रा दिन मे तीन वार घृत और चीनी के साथ या गुलकन्द के साथ | ( २ ) यष्ट्यादि चूर्ण या शतपत्र्यादि चूर्ण ६ माशे रोज रात्रि मे सोते वक्त दूध से वायु के कारण दाह हो तो ( १ ) गुग्गुलुवटी ६ / ३ मात्रा २, २ गोली दिन मे तीन बार गर्म जल से ( २ ) यष्टयादि चूर्ण या गतपत्र्यादि चूर्ण पूर्ववत् रात्रि में । ( ३ ) पंचगुण तैल का अभ्यंग | आजकल दाह रोग अधिकतर धातुक्षयजन्य अर्थात् वातिक ही मिलते हैं । अस्तु, इनकी चिकित्सा मे धातुओ के वर्धन, पोपण की व्यवस्था, जीवतिक्तियुक्त द्रव्य आहार प्रचुर मात्रा मे देना उत्तम रहता है । प्रदर तथा योनि रोग से पीडित स्त्रियों में शुक्रक्षय की अधिकता से उत्पन्न पुरुषो तथा किसी दीर्घकालीन रोग के परिणाम स्वरूप उत्पन्न दाह का रोग प्राय मिलता है | नवीन वैज्ञानिको के शोध के अनुसार हस्त पादादितल - दाह ( Burnig Feet Syndrome) का उत्पादक कारण जीवतिक्ति वी की कमी ( Vit B, and Calcium Pantothenate ) माना जाता है । इस अवस्था में मुख से प्रयुक्त होने बाली तथा सूचीवेव से देय बहुत सी औषधियाँ भी मिलती है । फिर भी इनसे स्थायी लाभ नहीं होता है । स्थायी लाभ के लिये आयुर्वेदीय योगो का उपयोग श्रेयस्कर होता है । यहाँ पर एक योग, कविराज प० भूमित्र शर्मा वैद्य का, उद्धृत किया जा रहा है जो उत्तम लाभ करता है :-- कुंकुमादि वटी - केशर १ तोला, सिंगरफ १ तोला, सोठ १ तोला, धतूरे का वोज १ तोला, जायफल १ तोला, लीग १ तोला, जावित्री १ तोला तथा मिर्च १ तोला । सबको कूट-पीसकर महीन चूर्ण बनाकर खरलकर वटी वना लेनी चाहिये | मात्रा -२ रत्ती प्रातः सायं जल या दूध से । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : वाइसवॉ अध्याय ४२३ पाद-दाह का वर्णन वातरोगाध्याय मे भी पाया जाता है। वहां पर चिकित्ला रूप में नागकेशर के काँटो को पीसकर शतधौतवृत में मिलाकर पैरो में लेप करना अथवा दशमूल के काढे से पैर के तलवे का धोना अथवा मक्खन का लेप कर' स्वेद करना बतलाया गया है । निरावेध के द्वारा रक-निहरण तथा दाह कर्म का भी विधान पाया जाता है। विभीतक फल के चूर्ण का अवधूलन, चूर्ण को पानी में पीसकर लेप या विभीतक फल की मज्जा का लेप हाथ-पैर के दाह का नामफ होता है। वाइसवॉ अध्याय भूत-विद्या चिकित्मा शास्त्र मे पठित रोग दो वर्गों के मिलते है। एक वे जिनमे पैदा होने वाले लक्षणो की दोप-दूष्य-हेतु-पूर्वरुप-उपशय-तथा सम्प्राप्ति के अनुसार तथा शारीर एवं मानस दोपो के अनुसार उनको तर्कसंगत व्याख्या की जा सके और समझा जा सके। इसके विपरीत कुछ सीमित व्याधियो का एक दूसरा वर्ग भी होता है। जिसमें अद्भुत या विचित्र स्वरूप के लक्षण पैदा होते है। इनमें मिलने वाले लक्षणो या लक्षण-समुदाय की उपपत्ति त्रिदोषवाद के सिद्धान्त के अनुसार या सत्त्व, रज एवं तम प्रभृति मानस गुणो के आधार पर समझ मे नही भाती है। जसे-कोई व्यक्ति जिसने कभी भी सस्कृत भाषा न पढी हो और वह, अचानक रोग के आवेश मे संस्कृत वाणी मे प्रवचन करने लगे। अथवा कोई ऐसा व्यक्ति जिसने कभी भी फारसी न पढी हो रोग को अवस्था मे सहसा फारसी मे बोलने या लिखने लगे। ऐसे रोगियो में अथवा उनमे उत्पन्न होने वाले लक्षणो का बोधगम्य एव तार्किक समाधान नही हो पाता है। इस प्रकार के असाधारण रोगो के लिये एक स्वतत्र वर्ग की ही कल्पना आयुर्वेद शास्त्रज्ञो ने १ शिराव्यध. पाददाह पादकण्टकवत् क्रिया । शतधौतघृतोन्मिश्रेर्नागकेसरकण्टकै. ॥ पिष्ट प्रलेप सेकश्च दशमूल्यम्वुनेष्यते । आलिप्य नवनीतेन स्वेदो हस्तादिदाहहा ॥ (च द.) Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिप -सिद्धि की एवं मायुर्वेद ने एक स्वतंत्र अंग भूत-विधा के अंतर्गत ऐसे रोगो का मात्यान दिया है। इस विनिष्ट मंग में पाये जाने वाले रोग अधिकतर सत्त्व या मन से सम्बन्ध रखने वाले हैं। मंग के प्रवर्तक नाचार्यों ने इन में प्रकट होने वाले रोगो का सम्बन्ध आगन्तुक कारणो ने जोडा तथा उन में होने वाले लक्षण-समुदाय की मना भी पूर्णतया भिन्न स्वरूप की दी तथा रोग को रोग न कहकर भूतावेग, सत्वावधा, ग्रहजुष्ट, ग्रहोपसर्ग, बागजुष्ट बादि शब्दो में आल्यान किया। इस अंग में वर्णित बावावो की व्याख्या, विनिश्चय तथा उपचार भी भिन्न स्वरूप के बतलाये। इस मग में वहत होने वाले शब्द सभी भिन्न स्वरूप के पारिभाषिक अर्थों में व्यवहृत होते हैं। रोगो का नाम, उत्पत्ति तथा उनके उपचार सभी रहस्यमय हो मिलते है । बस्तु, भूत-विद्या नामक इन तंत्र या सग को यदि रहस्यमय रोग नया उनके उपचार का मध्याय (A chapter on Mysterious diseases & their treatment ) कहा जाय तो अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है। अब यहाँ शंका होती है कि भूतविद्यान्तर्गत वर्णित देव-असुर-पिशाच प्रभृति या वास्तव में मनुष्य शरीर में उपसृष्ट होकर कष्ट देते है या नहीं? विषय विवादास्पद है । बहुत कुछ खण्डन और मण्डनपरक युक्तियाँ दी जा सकती है। खण्डन ना नास्तिपरक ही विचारो का ही आधिक्य पाया जाता है । वस्तु, विचारणीय यह है-भूत-प्रेत आदि स्वय अदृश्य हैं, चर्म चक्षु से दिखलाई नहीं पडते है तो फिर उनके अस्तित्व का ज्ञान कैसे होवें। इसका सीधा उत्तर यह है कि उनके प्रभाव से । जैसे-ताप और शक्ति दृष्ट नहीं होते, परन्तु प्रभाव से ही उनकी विद्यमानता का ज्ञान मंभव रहता है। भूतादि का प्रभाव प्राय: अल्पसत्त्व (कमजोर मनोबल) के आदमियो में दिखलाई पड़ता है। महातत्त्व (दृढ मनोवल ) के व्यक्तियो अथवा पवित्र माचरण के व्यक्तिगें में इनका कोई भी प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता है। परन्तु कमजोर मन के एवं गन्दे रहनेवाले व्यक्तियों में तथा जनंस्कृत व्यक्तियों में (अगोच के कारण) बाये दिन उन पर होनेवाले प्रभावो का प्रत्यन किया जा सकता है। दूर के देहातो में जहां शिक्षा का अभाव है, औद्योगीकरण का कमी है एवं चिकित्सा की सुविधा मुलन नहीं है-वहाँ पर प्रेत-बाधा आदि का रोगो मे सर्व प्रथम निदान योर तप-मत्र एवं यंत्र का मर्व प्रथम उपचार देखने को मिलता है। देहातो को छोट गहरों या गहरो की समीप बस्तियों में रहने वाले निम्न वाधिक स्तर के व्यक्तियों में भी हम भूत-विद्या के प्रति कम आस्या नहीं दिखलाई Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : वाइसवाँ अध्याय ४२५ पटती। इनमें भी विविध व्याधियो मे प्राय प्रेतावेश का निदान और तदनुकूल उपचारो की व्यवस्था देखी जाती है। आवेग का एक अर्थ आग्रह या हठ भी है। इस प्रकार का आवेशयुक्त रोगी कई भाग्रहो से युक्त होकर सभ्य चिकित्सको के समीप भी आ सकता है। मान लें कोई रोगी चिकित्सक के समीप आकर अपने रोगो का कारण प्रेतबाधा बतलाता है। और उसके प्रतिकार रूप मे किसी देवता को प्रसन्न करने के लिए किसी विशेप प्रकार के पूजन का आग्रह करता है । अव चिकित्सक उसका अनुमोदन करेगा या विरोध । यदि अनुमोदन करता है तो वह आशिक रूप मे भूत-विद्या नामक कला का समर्थन करता है। यदि पूर्णतया विरोध करता है तो उसकी यशोहानि की सभावना रहती है। रोगो के मानसिक उद्वेगो के शमन के लिये उसके मन को प्रौढ करने के लिये सफल चिकित्सक प्राय भूत-विद्यान्तर्गत कथित उपचार, साधनो या दैवव्यपाश्रय उपायो को अपनाती है। रोगी के मानसिक शान्ति के लिये कभी अनूकूल या प्रतिकूल उपचारो का सहारा लेना परमावश्यक हो जाता है। बस इतने में ही भूतविद्या की सम्पूर्ण कला निहित है और इन साधनो का आश्रय लेते हुए उपचार करने में ही भूतविद्या नामक तंत्र की सार्थकता है। तात्रिक व्याख्या-तत्र शास्त्र में ऐसा माना जाता है कि देव-ऋपि-यक्षगधर्व-प्रेत आदि की नाडियां सुपुम्ना के समीप में पाई जाती है। योगी लोग अपनी इच्छा के अनुसार जब चाहे इनमे किसी को भी जागृत या सुप्त कर सकते है। दूसरे के शरीर के इन नाडीतत्रो को भी जगा सकते है। यदि किसी आगन्तुक कारण से ये नाडियां उन्मुख हो जाय तो विविध प्रकार के प्रेत-गन्धर्व आदि के आवेश के लक्षण सामान्य व्यक्ति मे भी होने लगते हैं, जिसे भूत-वाधा के नाम से अभिहित किया जाता है । इसी विषय का वर्णन इस भूत-विद्या नामक अग में किया जाता है। भूत विद्या-नाम देवासुरगंधर्वयक्षरक्षःपितृपिशाचनागग्रहाद्युपसृष्टचेतसा शान्तिकर्मवलिहरणादिग्रहोपशमनार्थम् । ( सु सू. १) देवर्पिगंधर्वपिशाचयक्षरक्षःपितृणामभिधर्पणानि आगन्तुहेतुनियमव्रतादिमिथ्याकृतं कमे च पूर्वदेहे ॥ (च चि ) आयुर्वेद के अष्टाङ्गो में एक अन्यतम अग भूतविद्या है। आयुर्वेद के इस अग का प्रयोजन देव ( देवता), असुर ( दैत्य ), गधर्व ( देवगायक), यक्ष (कुवेर आदि), राक्षस ( ब्रह्मराक्षस ), पितर (श्राद्ध मे दिया गया भोजन Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ भिकर्म-सिद्धि ग्रहण करने वाले ), पिगाच (पिगित खाने वाले ), नाग (सर्प ग्रह ), ग्रह (वाल ग्रह ) से उपसृष्ट चेतस् ( मन ) वाले व्यक्तियो के गान्ति-बलिहरणादि उपचारो द्वारा ग्रहो का उपशमन करना है। अव एककग इन शब्दो का विचार मावश्यक हो जाता है । देव ग्रह से क्या तात्पर्य है क्या देवता स्वय किसी मानव के शरीर में प्रविष्ट होकर कष्ट देते है ? देव ग्रहो में तप, दान, व्रत, धर्म, नियम, सत्य तथा अष्टविध सिद्धियाँ उनमें नित्य रहती है। उत्कृष्ट गुण होने के कारण वे मनुष्यो के साथ नहीं बैठते और न तो वे मनुष्यो के शरीर में प्रविष्ट ही होते है। किन्तु जो लोग भी अज्ञानवश मानव शरीर मे इनका प्रवेश मानते है उनको भूतविद्या से अनभिज्ञ ही समझना चाहिये । वास्तव में ये देव स्वयं शरीर में प्रविष्ट नहीं करते अपितु इन ग्रहो के जो असख्य अनुचर है एवं रक्त और मास पर ही निर्भर रहते है वे भयङ्कर तथा रात्रि में भ्रमण करनेवाले देवो के परिचर ही मानव-शरीर में प्रवेश करते और उन्माद प्रभृति रोगो को पैदा करते है । ___ असुर-दैत्व ग्रह भी कहलाते है । गन्धर्व-देवताओ की सभा के गायक गन्धर्व कहलाते है। यक्ष-कुवेरादि देवता लोगो के कोपाध्यक्ष या अर्थपति होते है। राक्षस-से ब्रह्मराक्षस का ग्रहण करना चाहिये, ब्राह्मण की मृतात्मा। पितृग्रह-अपने वश के मृत पूर्व पुरुप जिनको पिण्डदान किया जाता है यदि उनको पिण्डदान न किया जाय या अन्य किसी कारण से अप्रसन्न हो जायें तो वे भी ग्रह रूप मे वाधक हो जाते है । नाग-सर्प लोक के ग्रह । ग्रह-वालग्रह के अध्याय मे वणित विविध ग्रह जो वालको में उपसृष्ट होकर नाना प्रकार की व्याधियां पैदा करते है। पिशाच-पिशित या मास खानेवाले ग्रह या निम्नस्तर के या समाज के एक छोटे अग के रूप में पाये जाने वाले प्रेत । ___इन ग्रहोपसर्गो को समझने के लिये इनके प्राकृतिक रूप में पाये जाने वाले मत्त्वो का ज्ञान आवश्यक हो जाता है। इसके लिये सत्त्वो का वर्णन अध्याय के अन्त मे चरक सहिता के अनुसार सत्त्व या रज अश की विशेषता के आधार पर १ तपामि तीब्राणि तथैव दानं ब्रतानि धर्मो नियमग्च सत्यम् । गुणास्तथाष्टावपि तेपु नित्या व्यस्ता समस्ताश्च यथाप्रभावम् ॥ न ते मनुष्य सह सविशन्ति न वा मनुष्यान् क्वचिदाविशन्ति । ये त्वाविगन्तीति वन्दन्ति मोहात्ते भूतविद्याविपयादपोह्या ॥ तेपां ग्रहाणा परिचारका ये कोटीसहस्रायुतपद्मसत्या. । अमृवसामांसभुजः सुभीमा निशाविहाराश्च तथा विशन्ति । ' (सु. ३ ६०) Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : बाइसवॉ अध्याय ४२७ सात सात्त्विक अश से और छ राजस अग से युक्त व्यक्तित्वो का विविध नाम से आस्यान किया गया है । वैकारिक अवस्थावो मे इनके आधार पर ही किस सत्व का आवेश किसी व्यक्ति में हुआ है इसका विनिश्चय किया जा सकता है । ग्रहावेश या भूतावेश दो प्रकार के होते हैं-देव कोटि के या पिशाच कोटि के । अथवा महासत्त्व ( बलवान् ) तथा अल्पसत्त्व ( कमजोर ) । आयुर्वेद अथर्ववेद का एक उपाङ्ग है । अथर्ववेद मे भूतविद्या तथा मत्रचिकित्सा का प्रचुर वर्णन पाया जाता है। मंत्र - शास्त्र या मंत्र - चिकित्सा को सर्वोपरि स्थान चिकित्सा - विद्या मे दिया जाता है । इस कला की प्रशंसा करते हुए लिखा गया है कि सबसे सिद्ध वैद्य मात्रिक होता है । "सिद्धवैद्यस्तु मात्रिकः । " तात्विक दृष्टि से विचार किया जाय तो व्याधि या रोग दो प्रकार के हो सकते है । एक वे जिनका सम्बन्ध शरीर से हो, दूसरे वे जिनका सम्बन्ध मन से हो । शरीर में होनेवाले रोगो को व्याधि तथा मन मे होने वाले रोगो को आधि की मज्ञा दी जाती है । यद्यपि व्याधि और आधि के रूपो मे पर्याप्त भेद होता है तथापि वे पूर्णतया स्वतन्त्र नही है बल्कि परस्पर में अनुस्यूत है | शरीरगत व्याधियों के प्रभाव मन के ऊपर और मन मे होने वाले रोगो-आधियो का प्रभाव शरीर के ऊपर पडता है । कई वार तो ये आपस मे मिलकर ऐसा रूप धारण करते हैं कि उनका पार्थक्य करना भी कठिन हो जाता है । उत्पादक हेतुओ को दृष्टि से विचार किया जावे तो व्याधि या शरीरगत व्याधियों के उत्पन्न करने मे वात-पित्त-कफ दोप भाग लेते हैं और उनके परिणाम स्वरूप शरीरगत धातुओ में वैकारिक परिवर्तन होते ( Pathological changes ) हैं और उनके कारण विविध लक्षण पैदा होते हैं । परन्तु मनोगत व्याधियों मे रज और तम दो दोप उत्पादक हेतु बनते है और इनके परिणाम स्वरूप शरीरगत धातुओ मे वैकारिक परिवर्तन (No signs of Patholohgical changes in Body tissues ) के कोई चिह्न नही मिलते है फिर भी विविध प्रकार के लक्षण पैदा होते है । सम्भव है उनकी उत्पत्ति मे मस्तिष्क धातु मे कुछ वैकारिक परिवर्तन होते हो । अब चिकित्सा या उपचार पर विचार करें तो व्याधि की चिकित्सा मे युक्तिव्यपाश्रय ( Materialistic ) साधन बतलाये जाते है और आधियो की चिकित्सा प्राय आधिदैविक या दैवव्यपाश्रय चिकित्सा का प्रसंग आता है । आधियो का विचार किया जाय तो उनमे कुछ मद, मूर्च्छा, सन्यास, अपस्मार, उन्माद और अपतत्रक प्रभृति ऐसी व्याधियाँ है जिनका आधिभौतिक या युक्ति Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि व्यपाश्य चिकित्सा करते हुए और साथ में कुछ देवव्यपाश्रय उपाय बतलाते हुए उपचार करना संभव रहता है। परन्तु कुछ ऐसे भी रोग चिकित्सको के सम्मुन्त बाते है जिसका रहस्य समझ में नहीं आ पाता है और उनमे नाविभौतिक उपचार कुछ भी लाभ नहीं करता है और विशिष्ट देव-व्यपाश्रय उपक्रमो से उनमा गमन करना संभव रहता है। इस प्रकार का रहस्यमय मानस रोग भूतविद्या के विषय हो जाते हैं। क्हतं का तात्पर्य यह है कि आधि या मानसिक रोगो के दो वर्ग है-१. सामान्य माधियाँ २ विशिष्ट माधियां । मामान्य प्राधियो के रहस्य का तो भेद लग जाता है और कुछ सामान्य देव-व्यपाश्रय उपक्रमो की सहायता से प्रधानतया युक्ति-व्यपाश्रय उपायो द्वारा उपचार सामान्य व्यक्ति भी कर लेता है। दूसरे वर्ग में विशिष्ट मावियो को समझना चाहिये-जो परमगढ, रहस्यमय और अप्रतऱ्या होती है जिनका उपचार विगेपनो का विषय रह जाता है। इस प्रकार को विशिष्ट रहस्यमय व्याधियां और उनका उपचार भूत-विद्या का विषय हो जाता है । इन व्याधियो की कोई तर्कसंगत व्याख्या या उपचार असंभव हो जाता है । ___इस प्रकार की विशिष्ट व्याधियो के हेतु, लक्षण, मंना एवं उपचार पूर्णतया स्वतंत्र ढंग के होते है, उनका मायुर्वेद के अन्य सात संगो (गल्य-गालाक्य, बगदतंत्र, कौमार भृत्य, रसायन, कल्प तथा वाजीकरण) के साथ कोई पूर्वापर सम्बन्ध भी नही रहता है । इनके उपचार करने वालो के लिये भी कोई गेप अन्य लंगो की विगेप अपेक्षा नहीं रहती है। इस विपय का अविक सम्बन्ध मन्त्र शास्त्र से हो जाता है। तत्र-मंत्र-यत्र के द्वारा उपचार करते हए इन आधियो में भान्ति मिलती है। मंत्र शास्त्र के अनुसार चिकित्सा करनेवाले चिकित्सको का एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय है जिन्हें तान्त्रिक या मोझा-सोखा कहते है । विशिष्ट प्रकार का माधिो का उपचार करना उन विपनो का हो विषय है। भूत-विद्या का विशेषज्ञ वास्तव में तत्रिक या मंत्रगास्त्रज्ञ ही होता है। सामान्य चिकित्सक को पुछ मामान्य बातो का ज्ञान हो जाना ही पर्याप्त है--जिनके आधार पर वह विशिष्ट तंत्रजो से सलाह लेने के लिये रोगी को भेज सके। चिरित्सा शास्त्र के विद्यार्थी को बहुविध ऐसे विषय पढाये जाते है जिनका उनके परवर्ती कार्यक्षेत्र में काम नहीं पड़ता है। जैसे-प्रसूति तंत्र, स्त्रीरोग तथा गल्यतंत्र-सम्बन्धी बृहत् शस्त्र वर्म (Major operations ) । एक मामान्य चिकित्सक के लिए कार्य क्षेत्र में आने पर विशेषत. काय-चिकित्सक के लिये इन दमों का व्यवहार अप्रामगिक हो जाता है। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि इन विषयों का ज्ञान कराना उसके लिये निरुपयोगी या Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : बाइसवॉ अध्याय ४२४ अनावश्यक है। क्योकि इस ज्ञान के अभाव मे चिकित्सक रोग के निदान मे, उसके शस्त्रसाध्य या औषधसाध्य होने में, लघु शल्यकर्म साध्य या वृहत्कर्म साध्य तथा संभाव्य माध्यासाध्य विवेक में अनभिज्ञ ही रह जायगा और उस अवस्था के अनुमार वैसे रोगी को उचित सलाह देने मे चूक जायेगा। रोगी की स्थिति के अनुसार उसे किसी शल्यकर्म-विशेपज्ञ, प्रसूति-विशेपन के उपचार के लिये अथवा यथोचित छोटे या बडे चिकित्सालय मे जाने के लिये प्रेरित करने मे उसका पूर्व पठित ज्ञान सहायक बनता है। इसी तरह भूत-विद्या के जहाँ तक सामान्य ज्ञान का प्रश्न है-सभी कायचिकित्सक को जानना आवश्यक है। मान लें चिकित्सक को भूत-विद्या तत्र मे कुछ भी आस्था नही है वह उसको एक हास्यास्पद विषय या कपोलकल्पित अनावश्यक विवेचना समझता है। परन्तु यदि कोई व्यक्ति या रोगी भूत-प्रेत आदि बाधाओ से पीडित होकर उसकी चिकित्सा मे आता है तो क्या उसको मजाक कर टाल सकेगा। उसको वाध्य होकर आधिभौतिक उपचारो के साथ कुछ आधिदैविक उपक्रमो का भी शरण लेना पडेगा। देवव्यपाश्रय चिकित्सा वह या तो स्वयं करे अथवा उसके लिये किसी अन्य तंत्रज्ञ से सलाह लेने के लिये उपचार कराने के लिये भेज दे। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक चिकित्सक को इन आध्यात्मिक या मानसिक विकारो तथा उनके उपचारो से अवगत होना वाछित है । इसी लिये सभवत आयुर्वेद के शास्त्रकारो ने भूत-विद्या की एक अन्यतम अंग के रूप मे व्याख्या की है। जैसा कि ऊपर मे बतलाया जा चुका है कि आधियो मे सामान्य चिकित्सक को भी इन उपचारो का शरण लेना पडता है-जैसे आगन्तुक विषमज्वर, आगन्तुक या भूतोत्थ उन्माद, आगन्तुक अपस्मार या अपतंत्रक तथा बालरोगो को चिकित्सा मे बालग्रह आदि । अस्तु, एक सामान्य चिकित्सक ( General Practitioner ) को कुछ इस मंत्र शास्त्र के सामान्य बातो की जानकारी करना आवश्यक हो जाता है। उदाहरण के लिए कुछ रोगो का उदाहरण नीचे दिया जा रहा है। नव प्रसूत वालको में कई प्रकार के रोग या लक्षण-समुदाय (Syndrome) प्रकट होकर उसकी दशा को साघातिक बना देते है । बोलने और दवा-दारू के सेवन मे असमर्थ बालक व्याकुल हो जाता है । चिकित्सक का भौतिक उपचार (marternalistic Treatment ) दुरूह हो जाता है और प्राय असफल ही पाया जाता है। बालक कुछ ही क्षणो मे अपनी जीवन-यात्रा समाप्त कर Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० भिकर्म-सिद्धि देता है। वालक के माता-पिता तथा चिकित्सक की बुद्धि एवं युक्ति भी अकिचित्कर होती है, वे किंकर्तव्य-विमूढ हो जाते है। जो कुछ भौतिक उपचार करता है वह भी प्राय. सफल नहीं होता। असफलतावो के कारण चिकित्सक हताश हो जाता है। इनमे न ठीक निदान हो हो पाता है और न ममुचित चिकित्सा ही। छोटे रोगी का सहयोग ( Co operation ) भी चिकित्सक के लिए दुर्लभ हो जाता है । फलत चिकित्सा में असफलता ही अधिक मिलती है और मफलता कम। इन रोगो में आयुर्वेद अपने भूत-विद्या नामक अग के शरण लेने का उपदेश देता है जिसमें कई प्रकार के आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक उपायो से वालक रोगी के रोग-निहरण के लिए उपदेश पाया जाता है। रोग के निश्चय में वह विशेप प्रकार के हेनु, रोग की भिन्न प्रकार की सजा, विशिष्ट प्रकार के पूर्वस्प तथा उपचारो के अलौकिक रूपो का आख्यान करता है । इन अवस्थावो मे वालको के रोगो की सज्ञा बालग्रह हो जाती है। उपचार में युक्ति की अपेक्षा परम्परा या देव की विगेपता बतलाता है। इसके लिए ग्रहवाधा-प्रकरण नामक विगेप अध्याय लिखा जाता है, जिसका सम्बन्ध उसके अन्य सात अगो से न करके, विगिप्ट अग भूत-विद्या से जोडता है । फलत वालग्रह के उपचार तथा आगन्तुक अनुवधो के उपचार कुछ दूसरे प्रकार के हो जाते है जो आयुर्वेद का अपना वैगिष्टय बन जाता है। विषय को अधिक स्पष्ट करने के लिए यहां पर अत्यन्त संक्षेप मे इन ग्रहो के नाम, स्वरूप तथा उपचारो का एक व्यावहारिक वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है। वाल ग्रह-रोग कई स्वरूप के होते है। इनसे अत्यन्त तीव्र स्वरूप के (Acute ) और कई वार जीर्णस्वरूप के (Chronic ) लक्षण भी. पैदा होते है, परन्तु घातक प्राय सभी होते है । वालग्रह-सामान्य रूप-ग्रहोपसृष्ट वालक में सामान्यतया निम्नलिखित लक्षण नमुदाय ( Syndrome ) पाये जाते है। जैसे-ज्वर, क्रन्दन, चीकना, चिल्लाना, आंख एव भ्रू का नचाना, मुख से फेनोद्गम, ऊपर की ओर स्थिर नेत्रो ने देखना, दांतो का कटकटाना, अनिद्रा, भयाकुल उद्विग्नता, माता का स्तन्यत्याग (दूध न पीना), स्वर और चेष्टावो का विकृत होता, नख से माता या धानी के शरीर का कुरेदना, निसंजता (बेहोशी), विवध या अतिसार, उसके शरीर मे मान-रक्त से मछत्री, खटमल या छुछुन्दर जैसी दुगंध का माना। इन लक्षणो के आधार पर बाल ग्रह से जुष्ट बालक का निदान करना सम्भव रहता है। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३१ चतुर्थ खण्ड : बाइसवॉ अध्याय वालमहसंख्या-सुव्रत तथा अप्टाइहृदय मे कई वर्गों में इन लक्षणो के विभजन तथा विभिन्न ग्रहो के अनुसार लक्षण तथा उपचार का उल्लेख मिलता है। उदाहरणार्थ सुध्रुत ने कुल ग्रहो की सत्या ९ वतलाई है जो माकाशीय नवग्रहो की मरमा के माघ माम्य रसता है । अष्टाङ्गहृदय मे सत्या बारह वतलाई गई है। रावण नामक किसी आचार्य ने बाल ग्रहो का वर्णन पूतना के नाम से किया है नौर कुल सल्या सोलह बतलाई है। यहां पर अष्टाङ्गहृदय के अनुसार १२ वालग्रही मा नाम दिया जा रहा है। अपने पुत्र कात्तिकोय की रक्षा के लिए शूलपाणि भगवान् शकर ने ग्रहो की उत्पत्ति की है । ये बारह प्रकार के होते है। इनमे छ पुलिङ्गी और छ स्त्रीलिली होते है। १ स्कंद २ विशाख ३. मेष ४ श्वग्रह ५. प्रपितृ ६. शकुनि मना छ: पुलिङ्गवाचक तथा ७ पूतना, ८ शीतपूतना ९ दृष्टिपूतना १० मसमण्डलिका ११ रेवती, १२ शुष्करेवती ये छ स्त्रीलिङ्ग वाचक होते है। रोगोत्पत्ति में ग्रहों की कारणता-आचार्य सुश्रुत ने लिखा है कि "माप्त या शाम्नबननो के अनुसार अर्थात् जो शास्त्र मे लिखा है उस को देख कर तदनरूप रोगो की उत्पत्ति में इन ग्रहो की कारणता, लक्षण और चिकित्सा का उत्लेव किया जावेगा।" माता या घात्री के अपथ्य या अपचारो से जसे, मास-सुरादि का सेवन, मत्र-परीपादि को सफाई न रखना, मगल कर्म का अभाव तथा अपवित्रता से ग्रह कपित हो जाते है तथा अपनी पूजा करने के निमित्त या हिंसा के लिए शिशु पर आक्रमण करते है । हिंसाकाक्षा या अर्चनाकाक्षा इन दो कारणो से ही वालक को ग्रह कष्ट देते है "हिंसारत्यर्चनाकाक्षा ग्रहग्रहणकारणम् ।" वस्तुत गह बालक के रक्षक रूप मे रहते है क्योकि इसी निमित्त इनकी सृष्टि भगवान् शंकरने की थी परन्तु अपवित्रता या अपूजन से वे स्वयं बालक के भक्षक हो जाते हैं। सामान्य उपचार-सामान्यतया सभी ग्रहो के उपचार में निम्नलिखित कर्मों या उपक्रमो की आवश्यता होती है- १ परिपेक (Sponging) २ अभ्यंग ( Massage)-महावला तैल का अभ्यंग ३ घृत प्रयोग-अष्टमगल घृत (* र ) ४. क्षीर प्रयोग-जैसे विडङ्गपाक क्षीर ५ धूपन-सर्पनिमोक, रोम, केश, चर्म आदि का धूपन ६. प्रदेह-सर्वगधद्रव्य युक्त ७ औषधि धारणगडची-पुत्रजीव-शारिवा-आदि का धारण ८ वलिनिहरण-बहिर्बलि के लिये रगीन वस्त्र, भक्ष्य, द्रव्य, नैवेद्य देवता के नाम से निकाल कर बालक को स्पर्श कराके Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ भिवकर्म-सिद्धि घर से बाहर किसी चौराहे पर रख देना ९ रक्षामंत्र, १० स्नान-धात्री तथा वालक का विशेष विधियो से स्नान कराना। भूत-विद्या के अतर्गत वाल रोगो का समावेश सभवत• असमर्थतावश आचार्यां ने किया है। क्योकि-इस प्रकार के नवप्रसूत बालको के कोमल और मूक शरीर में रोग का निदान वडा ही कठिन होता है । निदान क्वचित् हो भी जाय आभ्यंतर मे प्रयुक्त होने वाली सामान्य एवं निरापद ओपवियो से उपचार करना कठिन हो जाता है। अस्तु, अभ्यंग, उत्सादन प्रभृति बाह्य उपचारो के द्वारा तथा मंत्र-तंत्र और यंत्र द्वारा चिकित्सा करना युक्तिमगत प्रतीत होता है। अस्तु, वालग्रह सज्ञा से इस कालमर्यादा को होनेवाली व्याधियो का वर्णन आचार्यों ने किया तथा उसके उपचार में व्यवहृत होने वाले शान्ति कर्म, वलिहरणादि क्रियावो का उपदेश किया। भूत-विद्या के अतर्गत दूसरा प्रमुख प्रसंग उन्माद रोग के अधिकार में आता है। मद-मूर्छा-सन्यास-अपतंत्रक-अपस्मार तथा उन्माद ये ऐसे रोग है-जिनमें शारीरिक दोप वात-पित्त-कफ तथा मानसिक दोप सत्त्व-रज और तम, दोनो का मतुलन बिगड जाता है और शरीर तथा मन दोनो के दोपो मे वैपम्य पैदा होता है। विविध मानसिक या मस्तिष्कगत रोगो में मनमें विकार कैसे पैदा होता है, इस विषय को समझने के लिए थोडा मन के दोप, गुण और क्रिया का सक्षिप्त ज्ञान हो जाना आवश्यक है। ___मनके गुण तथा दोप--प्रकृति के समान मन भी त्रिगुणात्मक होता है । प्राकृत अवस्था में इसमें मत्त्व गुण को ही प्रधानता रहती है । अस्तु, इसका दूमरा नाम ही सत्त्व पड गया है। रज और तम मन के दो दोप है-"रजस्तमश्च मनसा द्वो दोपावुदाहृतो।" इन दोनो की विपमता या प्रबलता से विविध मानसिक रोग पैदा होते है । मन के कार्य और उसकी क्रिया को सम्पन्नता कर्तव्या-कर्तव्य का विचार, तर्क, ध्यान, संकल्प, इन्द्रियो का नियमन तथा अपना नियमन आदि मन के कर्म हैं चिन्त्यं विचार्यमूह्यञ्च ध्येयं संकल्पमेव च । यत्किचिन्मनसो नेयं तत्सर्व ह्यर्थसंज्ञकम् । इन्द्रियाभिग्रहः कर्म मनसः स्वस्य निग्रहः ।। (च शा ) । - - १. विस्तार के लिए देखिये सुश्रुत उत्तरस्थान बालग्रह-प्रतिपेध । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड: बाइसवॉ अध्याय अनुभव (Feeling), विवेचन (Thinking), तथा क्रिया (Action), इनसे मानसिक क्रियाये सम्पन्न होती है । मन की ही अवस्था विशेष का नाम बहकार और बुद्धि है । इन्द्रियो के द्वारा किया गया प्रत्यक्ष मन के पास पहुँचता है, मन उसके हेयोपादेय (भले बुरे) का विचार करके अहकार को दे देता है। अहकार भी यह मेरा है ममझकर उसका ग्रहण या त्याग करने के लिए बुद्धि को गोप देता है। इस प्रकार वस्तु के ज्ञान मे इन्द्रियाँ अप्रधान तथा मन आदि तीनों संत करण प्रधान माने गये है। सान्तःकरणा बुद्धिः सर्व विषयमवगाहते यस्मात् । तस्मात् त्रिविध करणं द्वारि द्वाराणि शेषाणि ।। ( सा. का ) ये सभी क्रियायें मन के सत्त्व गुण की प्रकृतावस्था पर ही निर्भर है। सत्त्व गुण को कमी एवं रज और तम की अधिकता से उपर्युक्त विविध मानसिक व्याधियाँ उत्पन्न होती है । मानसिक व्याधियो मे उन्माद का महत्त्व सर्वाधिक है। अत यहां पर उसी का वर्णन किया जा रहा है। वातादि दोप विकृत होकर जब मनोवह स्रोत (वातनाडी सस्थान ) मे पहचते है तो उसके सत्त्व गुण का ह्रास एवं रज तथा तमो गुण की वृद्धि कर के मनोविभ्रम या उन्माद रोग को उत्पन्न करते हैं। उन्माद किस को और क्यो होता है। इसका विवेचन यथास्थान आगे किया जायगा। सम्प्रति उन्माद की सक्षिप्त परिभाषा के बारे मे विचार किया जा रहा है। निष्प्रयोजन तथा उच्छृ खल प्रवृत्ति का ही दूसरा नाम उन्माद है। प्राकृतावस्था मे मनुष्य प्रत्येक कार्य किसी प्रयोजन मे ही करता है बिना प्रयोजन के अल्प बुद्धि को भी प्रवृत्ति नही होती 'न प्रयोजनमनुदिश्य मन्दोऽपि प्रवर्तते।' प्राचीनो ने प्राणैषणा (जीवित रहने की इच्छा Instinct of Self Preservation), धनैषणा या कामैपणा (धन या कामना की पूर्ति की इच्छा Sexual), धर्मपणा या परलोकैषणा ( समाज और धर्म की इच्छा Herd instinct ), इन तीनो को ही प्रवृत्ति का कारण या प्रयोजन माना है"सुत वित नारि ईपना तीनी। केहि के मति नहिं कीन मलीनी"। ये सभी एपणाये तथा प्रकृति एव तदनुकूल प्रवृत्तियाँ प्राय माता-पिता के गुणो के अनुसार सतान में आती है । वृत्त तथा सदाचार आदि गुण जातोत्तर काल मे शिक्षण के अनुसार आते हैं। ___इस प्रकार उपर्युक्त एपणावो से रहित होकर कार्य करने की अव्यवस्थित प्रवृत्ति को ही उन्माद कहते हैं । व्यर्थ हो तिनके तोड़ना, भूमि का कुरेदना प्रभृति २८ भि०सि० Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपक्षम-सिद्धि छोटे छोटे कार्य भी निष्प्रयोजन कर्म की श्रेणी में आने से मानस रोग या उन्माद के द्योतक ( Abnormal Psycosis) है। लोभ, क्रोध आदि के वेग का संवरण न कर सकना आदि भी सामयिक पागलपन ही है। विचार करने से ऐसा प्रतिभात होता है कि स्वस्थ की परिभापा के अनुसार "समदोष समाग्निश्चः समधातुमलक्रियः। प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते ।" जिस प्रकार पूर्ण स्वस्थ शरीर वाले मनुष्य, समाज में बहुत थोडे है उसी प्रकार समाज का बहुत कम भाग ऐसा है जो मानस रोगो से पूर्णतः मुक हो। इसका वर्णन प्राकृतिक सत्त्व-विवेचन मे आगे किया जायगा । ___ शारीरिक रोगो को अपेक्षा मानस रोगो का अनुपात अधिक ही पाया जाता है। देश के अधिकाधिक औद्योगीकरण से संभवत. यह अधिक वढ रहा है । ऐसा कुछ वैज्ञानिको का अनुमान है। किन्तु शारीर और मानस रोगो मे अंतर यह हैचिकित्सा-शास्त्र ग्रथो मे शारीरिक रोगो का वर्णन विशद रूप मे पाया जाता है फलत उनके पहचानने में सोकर्य भी होता है। इसके विपरीत साधारण अवस्था में मानस रोगो का ज्ञान नहीं हो पाता अपितु जब वह उग्ररूप धारण करता है तव हम उसको उन्माद या पागलपन के रूप मे समझ पाते है । वास्तव में यह वहुत पूर्व ही प्रारंभ हो जाता है । मानसिक रोग शारीरिक रोगो की अपेक्षा बद्धमूल होकर असाध्य भी शीघ्रता से होते है। इसके अतिरिक्त मानस रोगो में शारीर रोगो की अपेक्षा वश-परम्परा मे चलने की प्रवृत्ति अधिक पाई जाती है। __वैद्यक ग्रंथो में वर्णित मानस रोग उन्माद में स्पष्टतया दो वर्ग के पाये जाते है-एक सामान्य वर्ग, जिनमे लक्षणो की उत्पत्ति होने पर शारीरिक दोषो के वैपम्य अथवा मानस दोप-रज-तम की घटा-बढी अवस्था के अनुसार उसकी उत्पत्ति मे उपपत्ति दी जा सके, जैसे-वातिक, पैत्तिक,श्लैष्मिक तथा त्रिदोषज उन्माद । दूसरा वर्ग-विशिष्ट उन्मादो का पाया जाता है । जिन अवस्थावो में लक्षणो के प्रकट होने पर त्रिदोपवाद के अनुसार सत्त्व दोपो (रज-तम) के अनुसार कोई उपपत्ति नहीं दी जा सकती। इस वर्ग के विशिष्ट उन्मादो का कारण उन्होने भूत-पिशाच प्रभृति इन्द्रियातीत तत्त्वो को स्वीकार किया है । यह आगन्तुक उन्मादो का वर्ग है । भूत-पिशाच आदि की सत्ता का विषय आज भी विवादास्पद बना हुआ है। परन्तु कई बार इस प्रकार की घटनायें प्रत्यक्ष देखने को मिलती है, जिनके आधार पर इन्हे निरर्थक कह कर नहीं टाला जा सकता है। हाँ शका एक अवश्य यह हो सकती है कि इन भूत-प्रेतो का रोगोत्पत्ति में साक्षात् कारण माना जाय या Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : वाइसवॉ अध्याय परम्परचा। इसके लिये महर्षि चरक ने कहा है कि देवता, राक्षस, गधर्व आदि किसी को भी रोगोत्पत्ति का साक्षात् कारण नही माना जा सकता है क्यो कि सम्पूर्ण दु ख का कर्ता अपनी बुद्धि को ही समझना चाहिये । रोग की उत्पत्ति प्रजापराध से ही होती है-देव, यक्ष आदि आगन्तुक या निमित्त कारण के रूप ने माते है । मनुष्य अच्छा कर्म करता हुआ सदा निर्भीक रह सकता है । नैव देवा न गन्धर्वा न पिशाचा न राक्षसाः। न चान्ये स्वयमलिष्टमुपक्लिश्यन्ति मानवम् ॥ ये त्वेनमनुवत्तन्ते लिश्यमानं स्वकर्मणा । न स तद्धेतुकः क्लेशो नास्ति कृतकृत्यता ।। प्रज्ञापराधात् सम्भूते व्याधौ कर्मज आत्मनः । नाभिशंसेद् बुधो देवान्न पितृन्नापि राक्षसान् ।। आत्मानमेव मन्येत कर्तारं सुख-दुःखयोः। तस्माच्छेयस्कर मार्ग प्रतिपद्येत नो सेत् ।। ( च ) कहने का तात्पर्य यह है मनुष्य अपनी गल्लियो से यदि इन वाधक देवो को कष्ट देता है तब वे क्रुद्ध होकर उस मनुष्य को भी कष्ट देने लगते हैअन्यथा नहीं। भतोन्माद की विशेषता-ये उन्माद अधिकतर आगन्तुक स्वरूप के होते हैं। उनकी उत्पत्ति मे कोई तर्कसंगत उपपत्ति नहीं दी जा सकती है। और उन्मत्त व्यक्तियो की वाणो, पराक्रम, शक्ति व चेष्टाये अमर्त्य या अनमाषिक स्वरूप की अर्थात् मनुष्यो से अधिक तथा विचित्र स्वरूप की होती है । ऐसे उन्मत्त व्यक्तियो में ज्ञान-विज्ञान एव बल भी अद्भुत स्वरूप का पाया जाता है। इन उन्मादो में दोपज उन्मादो के समान उन्माद का समय नियत न होकर अनिश्चित होता है। ऐसे उन्माद को भूतोत्थ उन्माद कहा जाता है। भूतोन्माद इस एक शब्द से चरकोक्त देवोन्माद, गंधर्वोन्माद आदि अष्टविध आगन्तुक उन्मादो का ग्रहण हो जाता है। अमर्त्यवाग्विक्रमवीर्यचेष्टो जानादिविज्ञानबलादिभियः। । उन्मादकालोऽनियतश्च तस्य भूतोत्थमुन्मादमुदाहरन्ति । (च चि ९) आचार्य सुश्रुत ने इस भूतोन्माद को विशेषता बतलाते हुए लिखा है। गुप्त (गुह्य) वातो का भेद दे देना, भविष्य मे घटने वाली घटनावो को पहले ही बतला देना, चित्त को अनवस्था, सहिष्णुता का अभाव ( सहने की शक्ति का अभाव ) Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि ४३६ } महिष्णुता तथा अमानृपिक कार्य तथा चेष्टायें भूतोन्माद से युक्त व्यक्तियो मे पाई जाती हैं : गुह्या-नागत-विज्ञानमनवस्थाऽसहिष्णुता । क्रिया वासानुपी यस्मिन् स ग्रहः परिकीर्त्यते ॥ आगन्तुक उन्माद ८ प्रकार के होते है -- जैसे -- ( सुश्रुत से संगृहीत माधवनिदान के पाठानुसार ) १ देवजुष्टोन्माद -- देवग्रह के कारण पागल मनुष्य सदा सतुष्ट रहता है । वह पवित्र रहता है और उसके शरीर से अकारण ही उत्तमोत्तम पुष्पो को गन्ध आती रहती है । उसे निद्रा और तन्द्रा नही आती । सत्य बोलता है तथा धारा-प्रवाह शुद्ध संस्कृत में भाषण करता है। रोगी तेजस्वी होता है, उसके नेत्र भी स्थिर रहते है । आस पास के लोगो को वरदान देता है, और ब्राह्मणो की पूजा करता है । संतुष्टः शुचिरतिदिव्यमाल्यगन्धो निस्तंद्रीरवितथसंस्कृतप्रभापी । तेजस्वी स्थिरनयनो वरप्रदाता ब्रह्मण्यो भवति नरः स देवजुष्टः ॥ (सु ३.६० ) २. देवशत्रुजुष्ट - ( दानव या असुरजुष्ट ) -- असुर ग्रह से पीडित मनुष्य को पसीना बहुत आता है । वह ब्राह्मण, गुरु और देवताओ के दीप का वर्णन करता है। आंखें तिरछी रहती है और वह किसी से नही डरता। ऐसे रोगी की प्रवृत्ति सदा कुमार्ग पर चलने की रहती है । बहुत खाने पर भी उसको तृप्ति नही होती तथा वह दुष्ट प्रकृति का होता है । संस्वेदी द्विजगुरुदेवदोपवक्ता जिह्याक्षो विगतभयो विमार्गदृष्टिः । संतुष्टो न भवति चान्नपानजातैर्दुष्टात्मा भवति स देवशत्रुजुष्टः ॥ ३- गन्धर्व ग्रह पीडित उन्मन्त - सदा प्रसन्न रहता है, नदी के किनारे या उपवनों में घूमने में आनन्द का अनुभव करता है । जिसका आचरण शुद्ध हो, जिसको मगीत और गन्धमाल्यो से अधिक प्रेम हो एवं जो सुन्दरतम ढंग से नाचता हुआ मद मद मुसकराता हो उसे गन्धर्व ग्रह से पीड़ित समझना चाहिये । हण्टात्मा पुलिनवनान्तरोपसेवी स्वाचारः प्रियपरिगीतगन्धमाल्यः । नृत्यन्वं प्रहसति चारु चाल्पशब्दं गन्धर्वग्रहपरिपीडितो मनुष्यः ॥ ४ यक्षविष्ट - जिस उन्मादी की औसे लाल हो, जिसको सुन्दर, वारीक तथा लाल रंग के वस्त्र धारण का गोक हो, जो गम्भीर और शीघ्रगामी हो, जो कम वोले और सहनशील हो, देखने से तो तेजस्वी मालूम हो एवं जो Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : बाइसवॉ अध्याय ४३७ सर्वत्र कहता फिरे 'फिमको क्या हूँ?" ऐसे उन्मादी को यक्ष ग्रह से पीडित समझना चाहिये। ताम्राक्षः प्रियतनुरक्तवस्त्रधारी गम्भीरो द्रुतगतिरल्पवाक् सहिष्णुः। तेजस्वी वदति च किं ददामि कस्मै यो यक्षग्रहपीडितो मनुष्यः ।। ५ पितृजुष्ट-पितृ ग्रह से पोडित उन्मत्त व्यक्ति शान्त रहता है एवं दाहिने कर्ष पर यज्ञोपवीत वस्त्र आदि रखकर, कुशा के बने आसन पर बैठकर, पितरो को पिण्डदान और जलदान करता रहता है। मास, तिल, गुड और क्षीर जमे द्रव्यो में अधिक रुचि रखता है एव पितरो का भक्त भी होता है। प्रेतानां दिशति स संस्तरेषु पिण्डा शान्तात्मा जलमपि चापसव्यवस्नः। मांसेप्सुस्तिलगुडपायसाभिकामस्तभक्तो भवति पितृमहाभिजुष्टः ।। ६ सर्पग्रह जुष्ट-जो मनुष्य कभी कभी सपि के समान भूमि पर पेट के वल लेटकर सरकता है तथा जिह्वा से मोठो को चाटता रहता है, अत्यन्त क्रोधी होता है, जिसे गुड, गहद, दूध और खीर खाने की बहुत इच्छा रहती हो उसको सर्पग्रह से पीडित समझना चाहिये । यस्तूळ प्रसरति सर्पवत् कदाचित् सृकण्यौ विलिहति जिह्वया तथैव । क्रोधालुगुंडमधुदुग्धपायसेप्सु तव्यो भवति भुजङ्गमेन जुष्टः।। ७ राक्षस-ग्रह जुष्ट-राक्षस ग्रह जुष्ट उन्माद मे रोगी. मांस-रक्त तथा अनेक प्रकार के मद्यो को चाहता है। वह निर्लज्ज, अत्यन्त कठोर स्वभाव का और शूर होता है। ऐसे रोगी को क्रोध भी बहुत आता है एवं उसमे शक्ति भी बहुत अधिक होती है । वह रात्रि में घूमता है और पवित्रता से द्वेष करता है। मांसारमृग्विविधसुराविकारलिप्सुर्निर्लज्जो भृशमतिनिष्ठुरोऽतिशूरः ।, क्रोधालुर्विपुलवलो निशाविहारी शौचद्विड् भवति च राक्षसैगृहीतः।। ८ पिशाच ग्रहजुष्ट उन्माद-जो मनुष्य भुजाये ऊपर उठाये हुए रहता हो, नग्न रहता हो, जिसका मास क्षीण हो गया हो, जिसका शरीर कृश हो, जिसके शरीर से दुर्गन्ध आती हो, जो बहुत गन्दा रहता हो तथा अति लोभी हो, जो अधिक भोजन करे और निर्जन बनो मे घूमता रहे, जो विरुद्ध चेष्टा करता हो एव रोता हुमा इतस्तत. घूमता रहता हो उसे पिशाच ग्रह से जुष्ट समझना चाहिये। उद्धस्तः कृशपुरुपोऽचिरप्रलापी दुर्गन्धो भृशमशुचिस्तथातिलोलः। बह्वाशी विजनवनान्तरोपसेवी व्याचेष्टन् भ्रमति रुदन् पिशाचजुष्टः।। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ भिपकर्म-सिद्धि प्रेत ग्रहों के आवेश प्रकार कुछ लोगों का कहना है यदि ग्रहो का शरीर में प्रवेश होता है तो एक शरीर में दूसरे का प्रवेश किस प्रकार स्वीकार किया जा सकता है | इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार दर्पण जैसे चमकीली वस्तु में प्रतिविम्व चला जाता है, अथवा प्राणियों के शरीर में जिस प्रकार उता एवं शैत्य का प्रवेश हो जाता है अथवा जिस प्रकार सूर्य की किरणें सूर्यकान में प्रविष्ट हो जाती है दिखाई नहीं पडती फिर भी अपना प्रभाव दिखलाती है अथवा जैसे अदृश्य आत्मा गर्भ शरीर में प्रवेश कर जाता है उसी प्रकार मनुष्यो के शरीर में प्रविष्ट हो जाते है किन्तु चर्म चक्षु मे दिखाई नही पड़ते परन्तु उनका प्रभाव दिखाई पड़ता है । जब ये शरीर में प्रविष्ट कर जाते है तो मनुष्य के शरीर में दु. मह पीड़ा पैदा करते है । दर्पणादीन यथा छाया शीतोष्णं प्राणिनो यथा । स्वमणि भास्करार्चिश्च यथा देहं च देहधृक् ॥ विशन्ति न च दृश्यन्ते ग्रहास्तद्वच्छरीरिणः । प्रविश्याशु शरीरं हि पोडां कुर्वन्ति दुःसहाम् || ( मुउ ६०) अदूपयन्तः पुरुषस्य देहं देवादयः स्वस्तु गुणप्रभावः । विशन्त्यदृश्यास्तरसा यथैव च्छायातपो दर्पणसूर्यकान्तौ । (च.चि. ६ ) देवादि का आक्रमण या आवेश काल: देव ग्रह पूर्णिमा के दिन आक्रमण करते है, अतः यदि किसी रोगी को पूर्णिमा के दिन दौरा जावे या रोग का आरंभ हो तो देव ग्रहों का उपसर्ग समझना चाहिये । यदि प्रातः या सायं काल में दौरा जावे या रोग का आक्रमण हुला हो तो अमुर ग्रह का प्रकोप समझे । यदि अष्टमी के दिन रोग प्रबल हो वयवा रोग का आक्रमण हो तो गन्धर्व ग्रह का और प्रतिपदा के दिन पागलपन का दौरा हो तो यक्षग्रह के प्रकोप का अनुमान करना चाहिये । अमावास्या के दिन दौरा जाने पर पितृग्रह तथा पंचमी को दौरा आने पर सर्पग्रह के आक्रमण का अनुमान करे । इसी प्रकार रात्रि मे दौरा जाने पर राक्षस ग्रह और चतुर्दशी को दौरा थाने या रोग का आरम्भ होने पर पिशाच ग्रह का अनुमान करना चाहिये । देवप्रहाः पौर्णमास्यामसुराः सन्ध्ययोरपि । गन्धर्वाः प्रायशोऽष्टम्यां यक्षाश्च प्रतिपद्यथ ॥ पित्र्याः कृष्णक्षये हिंस्युः पञ्चम्यामपि चोरगाः । रक्षांसि रात्रौ पैशाचाचतुर्दश्यां विशन्ति हि ॥ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से ही प्रेरित अन्तु, इनके उपचापान के ग्रहमाण मनन चतुर्थ खण्ड : बाइसवाँ अध्याय ४३६ चरकने लिखा है कि देवग्रह प्रायः शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा या त्रयोदशी को अवसर पाकर प्रवेश करते हैं। ऋपि ग्रह पष्ठी या नवमी ( शुक्ल पक्ष ) को, पितृ ग्रह दशमी को, गधर्व ग्रह द्वादगी या चतुर्दशी को, यक्ष ग्रह शुक्ल एकादशी या सप्तमी को, ब्रह्म राक्षस शुक्ल पचमी या पूर्णिमा को, पिशाच ग्रह द्वितीया, तृतीया या अष्टमो को प्राय आवेश या आक्रमण करते है। ___ अगन्तुक उन्माद मे व्यवह्रियमाण उपक्रम-रति(काम्य अर्थ की प्राप्ति) तथा अर्चना (पूजा लेने की इच्छा ) इन दो प्रयोजनो से ही प्रेरित होकर ये बाधक ग्रह देव तथा प्रेत योनि के ग्रह-गण मनुष्य शरीर पर आक्रमण करते है-अन्तु, इनके उपचार में भी चिकित्सक को उनके अभिप्रायो को समझ कर उन उन ग्रहो के अभिलपित उपहार, वलि आदि देते हुए उनकी पूजा एवं मत्र का प्रयोग करते हुए साथ ही उपयुक्त भेपज द्वारा चिकित्सा करते हुए उनका उपशम करना चाहिये। रत्यर्चनाकामोन्मादिनौ तु भिपगभिप्रायाचाराभ्यां बुद्ध्वा तदङ्गोपहारवलिमिश्रेण मंत्रभैपज्यविधिनोपक्रमेत । (च. चि.) आगन्तुक उन्माद में स्पष्टतया दो प्रकार के बाधक ग्रह होते हैं एक देव कोटि के जैसे देव, ऋपि, पितृ, गधर्व तथा दूसरे पिशाच कोटि के इनमे महासत्व तथा अल्पसत्त्व ग्रहो का विचार कर लेना चाहिये। यदि ग्रहोपसर्ग बहुत बलवान् स्वरूप का हो तो उसके अनुकूल एव मृदु उपचारो से शमन का प्रयत्न करना चाहिये, परन्तु यदि अल्पसत्त्व का ग्रह हो तो उसको दबाने या प्रतिकूल क्रिया करके शमन करना चाहिये। सामान्य तया देव कोटि के उपसर्ग महासत्त्व के होते हैं । अस्तु, इनमे अनुकल तथा मदु उपचार करने का ही उपदेश पाया जाता है। चरक सहिता मे लिखा है कि देवपि-पितृ-गधर्व से उन्मत्त व्यक्तियो में बुद्धिमान चिकित्सक अजनादि तीक्ष्ण और कर कर्म न करे। उसके लिये घुत पान आदि मदु उपचार करे। ___इनका आवेश दूर करने के लिये पूजा, वलि, उपहार, मंत्र, अंजन, शान्ति कर्म, इष्टि, होम, जप, स्वस्त्ययन वेदोक्त नियम और प्रायश्चित्त करे । भूत-प्रेतो के अधिपति जगत् के प्रभु भगवान् शकर की नित्य नियमपूर्वक पूजा करते हुए मनुष्य उन्माद के भय से दूर हो सकता है । - रुद्र के प्रमथ नाम के गण लोक मे विचरते रहते है। इनकी पूजा करते हुए मनुष्य उन्माद के भय से मुक्त हो जाता है। अस्तु, इनकी भी पूजा करनी Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म -सिद्धि ४४० चाहिये । इससे उन्माद दूर होता है । सत्य का आचरण, तपस्या, ज्ञान, दान, नियम, व्रत, देव-गो-ब्राह्मण- गुरु की पूजा, सिद्ध मंत्रादि के प्रयोग से आगन्तुक उन्माद शान्त होता है | ( च चि. ९ ) इस प्रकार आगन्तुक उन्माद में देग, आयु, सात्म्य, दोप, काल, चलावल का विचार करते हुए, १ वृतपान, २ मंत्र तत्र का प्रयोग ३ देवादि का पूजन ४ वलि प्रदान ५. उपहार ६ यज्ञ कराना ७ मंत्र ८ जप ९. शुचि कर्म ( पवित्रता ) १०. मंगल कर्म ( स्वस्तिवाचन ) ११ मृदु अंजन १२ रत्न एवं औषधि का धारण १३. दान १४ व्रत १५ नस्य । इनका उपयोग यथा विधि करना चाहिये । इन उपायो से आगन्तुक वाधायें दूर होती है । इनमें देव कोटि के वाधावो में अजन तथा नस्य प्रभृति तीक्ष्ण कर्म या क्रूर कर्म (ताटना देना, मारना, पीटना, बांधना ) आदि नही करना चाहिये । बुद्ध्वा देशं वयः सात्म्यं दोपं कालं बलावले । चिकित्सितमिदं कुर्यादुन्मादे भूतदोपजे ॥ सर्पिष्पानादिनाऽऽगन्तौ मन्त्रादिश्चेष्यते विधिः । पूजावल्युपहारेष्टिहोममन्त्राञ्जनादिभिः ॥ जयेदागन्तुमुन्मादं यथाविधि शुचिर्भिपक् । देवपिपितृगन्धर्व रुन्मत्तस्य तु वुद्धिमान् ॥ वर्जयेदब्जनादीनि तीक्ष्णानि क्रूरकर्म च । भूतानामधिपं देवमाश्वरं जगतः प्रभुम् । पूजयन् प्रयतो नित्यं जयत्युन्मादजं भयम् ॥ रुद्रस्य प्रमथा नाम गणा लोके चरन्ति ये । तेपां पूजां च कुर्वाण उन्मादेभ्यः प्रमुच्यते ॥ बलिभिर्मङ्गलैहमरो पव्यगढ़धारणैः । सत्याचार-तपो ज्ञान-प्रदान- नियम त्रतैः ॥ देवगोत्राह्मणानाञ्च गुरूणां पूजनेन च । आगन्तुः प्रशमं याति सिद्ध मन्त्रीपवैस्तथा ॥ 1 ( चचि ९ ) कृष्णाद्यंजन - गोरोचन, छोटी पीपल, काली मिर्च, संन्धव इन चारो को बरावर लेकर महीन चूर्ण करके करके मधु के साथ अजन | मरिचाद्यंजन-काली मिर्च का चूर्ण और गोरोचन को एकत्र महीन पीसकर एक मास तक धूप में रखकर अंजन करने से भूतोत्य उन्माद दूर होता है । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : वाइसवॉ अध्याय ४४१ शिरीपपुष्पादि नस्य गिरीप पुष्प, लशुन, सोठ, पीली सरसो, वच, मजीठ, हल्दी, पिप्पली को वस्त-मूत्र मे पीसकर बनाये अंजन या नस्य का प्रयोग लाभप्रद होता है । निम्नपत्रादि धूम-नीम की पत्ती, वच, हीग, सर्प की केचुल और सरसो को कूट कर अग्नि में जलाकर धूप देने से डाकिनी आदि भूत-प्रेत दोष दूर होते है। महाधूप-कपास के बोज, मोर की पाँख, वडी कटेरी पचाङ्ग, निर्माल्य, मैनफल, खस, वशलोचन, विडाल की विष्ठा, धान्य को भूसी, वच, भूतकेशी, मर्प की केचुली, गाय की सीग, हाथी के दाँत, होग और काली मिरच । सब सम भाग लेकर मोटा चूर्ण कर ले । बाग मे जलाकर उसका धूपन उन्मत्त रोगी को कराने से-स्कदापस्मार, उन्माद, पिशाचावेश, राक्षसावेश, देवावेश और ज्वर नष्ट होता है। महापैशाच-घृत-जटामासी, हरीतकी, भूतकेशी, केवाछ के बीज, त्रायमाण, अरणी, पृश्निपर्णी, चोरक, कुटकी, गुरुच, वाराहीकद, सौफ, सोया बीज, शुद्ध गुग्गुल, शतावरी, ब्राह्मी, रासना, गध रास्ना, मालकगुनी, विछुवा और शालपर्णी। जटिला पूतना केशी मर्कटी चारटी वचा। त्रायमाणा जया वीरा चोरकं कटुरोहिणी ॥ कायस्था शूकरी छत्रा सातिच्छत्रा पलंकपा । महापुरुपदन्ता च वयस्था नाकुलीद्वयम् ॥ कटम्भरा' वृश्चिकाली स्थिरा चैतैघृतं पचेत् । तत्तु चातुर्थिकोन्माद - ग्रहापरस्मारनाशनम् ।। महापैशाचकं नाम घृतमेतद्यथाऽमृतम् । बुद्धि-मेधा-स्मृतिकरं बालानां चाहवर्धनम् ।। कल्याण वृत, चैतस घृत, नारायणल तथा महानारायण तैल का भी उपयोग प्रशस्त है । शिरोप, अमलतास के बीज को भी घृत और मधु से सेवन कराना चाहिये। भूतभैरव रस-पारद, हरताल, शिलाजीत, लौह भस्म, स्रोतोञ्जन भस्म, ताम्र भस्म, शुद्ध गंधक । प्रथम पारद एवं गधक की कज्जली वनावे फिर शेष द्रव्यो को मिलाकर घोटे । फिर नरमूत्र को भावना देकर एक गोला बना ले। फिर इस गोले को द्विगुण गधक के साथ एक लौह पात्र मे रखकर अग्नि पर चढाकर पाक करे । पाक समाप्त होने पर चूर्ण बनाकर रख ले । मात्रा ५ रत्ती। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ भिपक्षम-सिद्धि अनुपान होग, त्रिकटु, कालानमक, घी और नरमूत्र के साथ । भूत-प्रेतजन्य उन्माद में यह योग उत्तम कार्य करता है । भूतोत्य ज्वर-मे सहदेवी को जड का विधिपूर्वक कंठ में धारण करने से लाभ होता है परन्तु दैव व्यपाश्रय उपक्रम सर्वत्र समान भाव से चलते है-जैसे पूजावल्युपहारशान्तिविपयो होमेष्टि-मन्त्रक्रिया दानं स्वस्त्ययनं व्रतादितियमः सत्यं जपो मङ्गलम् ।। प्रायश्चित्तविधानमञ्जलिरथो रत्नौषधीधारणम् । भूतानामधिपस्य विष्टपपतेर्गौरीपतेरचनम् ।। भूत-विद्या का विषय उन्माद के अतिरिक्त अन्य रोगो में भी यत्र तत्र आता है । विषम ज्वर, भूतोत्थ ज्वर, मद, मूर्छा, संन्यास, अपस्मार और अपतंत्रक आदि विविध मानस रोगो में वावक ग्रहो का प्रवेश या उपसर्ग होने पर भूतोन्माद के समान ही लक्षण पैदा होते है, फलत. चिकित्सा भो तदनुकूल हो करनी पड़ती है । भूत-विद्या का एक दूसरा प्रयोजन स्वभाव में स्थित पुरुपो के प्रकृति या स्वभाव के ज्ञान कराने में है। ऐमा देखा जाता है कि संसार में कुछ व्यक्ति मात्त्विक गुणो से युक्त कुछ राजस गुण युक्त और कुछ तामस गुणो से सम्पन्न मिलते है। ये मभी किसी न किसी सत्त्व से आविष्ट होकर कार्य करते है । शुद्ध मात्त्विक मग से आविष्ट व्यक्तियो का व्यक्तित्व सात प्रकार का हो सकता है, राजस गुणो से युक्त व्यक्तियो के व्यक्तित्व छ. प्रकार तथा तामस गुणो से युक्त व्यक्तित्व तीन प्रकार के सत्त्वो से आविष्ट पाये जाते है। वास्तव में यह कोई रोग या वैकारिक स्थिति नही प्रत्युव पर्णतया उनके प्राकृतिक गुण है फिर भी वे किमी न किसी सत्त्वावेश से ही कार्य किया करते है। पारिभाषिक शब्दो में इन सत्त्वाविष्ट व्यक्तियो की व्याख्या चरक-मत का मनमरण करते हुए की जा रही है। जब तक प्राकृतावस्था में इन सत्त्वाविष्टो को नहीं समझते तव तक वैकारिक अवस्था का ज्ञान सम्यक् प्रकार का नही हो सकता है । यस्तु, यह प्रसग नीचे दिया जा रहा है-सत्र-रज तथा तमके अशाश कल्पना के अनुसार व्यक्तित्व के अपरिसंत्य (असंस्य ) भेद हो सकते है, फिर भी वर्ग के अनुमार भेट करते हुए शुद्ध सत्वावेश के सात ब्रह्म-ऋपि-गक्र-यमवक्षण-बेर-गर्व मत्त्वानुकरण भेट से, राजस के छ दैत्य-पिशाच-राक्षसमप-प्रेत-शकुनि सत्त्वानुकरण भेद से, तथा तामनिक के तीन वर्ग पशु-मत्स्य एवं वनस्पति सत्त्वानुकरण भेद से हो जाते है। चिकित्सा में यथासत्त्व उपचार की व्यवस्था करने से बडा उपकार होता है। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : बाइसवाँ अध्याय ४४३ सात्त्विकांश के सत्त्व भेद-( शुद्ध सत्त्व मे कल्याणाश कल्याण के भावो की अधिकता होती है।) ब्राहा सत्व-पवित्र, सत्यप्रतिज्ञ, जितात्मा, सम्यक् विभाग करनेवाला, जान-वचन-प्रतिवचन सम्पन्न, स्मृतिमान्, काम-क्रोध-लोभ-मान- ईर्ष्या-अहर्प आदि दर्गणो ने रहित सभी जीवो को समान भाव से देखने वाला ब्राह्म सत्त्व का व्यक्ति होता है। आप सत्त्व-यज्ञ-अध्ययन-व्रत-होम-ब्रह्मचर्य पर, अतिथिसेवक एव मदमान-रागद्वेप-मोह-लोभ-रोप आदि से रहित तथा प्रतिभा-वचन-विज्ञान-अवधारण शक्ति से युक्त ऋपि सत्त्व का व्यक्तित्व होता है। ऐन्द्र सत्त्व-ऐश्वर्यवान, आचरण करने योग्य वचन बोलनेवाला, यज्ञ करनेवाला, शूर, ओजस्वी, तेजस्वी, प्रशस्त कार्य करनेवाला, दीर्घदर्शी, धर्म-अर्थ और काम की प्रवृत्ति मे अभिरत इन्द्र सत्त्व का व्यक्तित्व होता है। याम्य सत्त्व-कर्तव्याकर्तव्य का विचारक, अवसर के अनुसार कार्य करनेवाला, जिस पर प्रहार न हो सके ( असप्रहार्य ), सतत कार्य के लिये तत्पर, ऐश्वर्यवान्, राग-ईर्ष्या-मोह आदि से रहित याम्य सत्त्व का व्यक्तित्व होता है। वारुण सत्त्व-शूर, धीर, पवित्र, अपत्रिता से द्वष रखनेवाला, यज्ञ करने वाला, जल-विहार की रुचिवाला, प्रशस्त कार्य करनेवाला, समयानुसार और प्रसग के अनुसार कोप करने वाला या प्रसन्न होनेवाला वारुण सत्त्व का व्यक्तित्व होता है। कौवेर सत्त्व-स्थान-मान-उपभोग और परिवार से सम्पन्न, धर्म-अर्थकाम नित्य, पवित्र, सुख एव विहार करने वाला, स्पष्ट क्रोध तथा प्रसन्नता युक्त, कोवेर सत्त्व का व्यक्तित्व होता है। ____ गांधर्व सत्त्व-प्रिय लगनेवाले-नृत्य - गीत - वादित्र- उल्लापक -श्लोक आख्यायिका इतिहास-पुराण आदि मे कुशल, गंध-माल्य-अनुलेपन-वस्त्र-स्त्री-विहार काम-नित्य, अनिन्दक या ईर्ष्या न करनेवाला व्यक्तित्व गाधर्व सत्त्व का होता है। राजस अंश के सत्त्व-भेद-( इन व्यक्तित्वो मे रोषाश या क्रोधाश की अधिकता होती है । ) आसुर सत्त्व-शूर, प्रचण्ड, निन्दक, ईर्ष्यालु, ऐश्वर्यवान्, बहुत खानेवाला। -राक्षस सत्त्व-कोप करनेवाला, अवसर या छिद्र पाकर प्रहार करनेवाला, क्रूर, अतिमात्रा में आहार करनेवाला, मास की अतिशय चाह करनेवाली, ईर्ष्या करनेवाला, अधिक सोने तथा परिश्रम करनेवाला राक्षससत्त्व का व्यक्तित्व होता है । Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ भिपकम-सिद्धि पैशाचसत्त्व अधिक वानेवाला, स्त्री के बगी, स्त्री के रहस्य जान को प्रवृत्ति वाला, अपवित्र, पवित्रता से द्वेप करनेवाला, स्वयं भोर होते हुए भी दूसरे को डराने वाला, विकृत माहार-विहार एवं गील वाला व्यक्तित्व पैगाचसत्त्व का होता है। सार्पसत्त्व या नागसत्व-क्रुद्ध होने पर शूर परन्तु अक्रुद्धावस्था में भीन (डरपोक), तीरण, अधिक परिश्रम करनेवाला, ढरे डरे सामने मिलने पर आहार-विहार करनेवाला मार्पमत्त्व का व्यक्तित्व होता है। अंतसत्व-आहार की कामना वाला, पति दुखदाई गील-आचार और उपचार से युक्त, परनिन्दक, बाँटकर न खानेवाला, अति लोलुप, दुराचार तथा अपकर्म ( निंद्य कर्म ) करनेवाला प्रैतमत्व का व्यक्तित्त्व होता है। शाकुन सत्त्व-अनुपस्त काम ( अतिकामुक ), अनवरत माहार एवं विहार करनेवाला, अनवस्थित चित्त तथा अमर्पयुक्त, मंचय वाला व्यक्तित्व माकुन नत्त्व का होता है। तामस सत्व के भेद-( इन मत्त्वो मे मोहाग या बनान की अधिकता होती है।) पाशव सत्त्व-अकर्मण्य-निराकरण या प्रतिवाद न करनेवाला, वुद्धिहीन, निन्दित आहार एवं याचार का, मैथुनगील, अधिक निद्रा लेनेवाला पागवसत्त्व का अस्तित्व होता है। मात्स्य सत्त्व-भीर, अनानी, आहार पर लुब्ध, पनवस्थित (मस्थिर चित्त), काम-क्रोध से रहित, अधिक चलनेवाला (गमनगील) तथा जल की यधिक चाह वाला व्यक्तित्व मात्स्य सत्त्व व्यक्तियो का होता है । बानम्पत्य सत्त्व-बालसी, केवल माहार में चित्त लगाया हुआ, सब प्रकार की बुद्धि मोर अग से हीन वानस्पत्य मत्त्व का व्यक्तित्व होता है । एकीयमत-कुछ विचारको ने आयुर्वेद के बग इस भूत-विद्या का सम्बन्ध अदृश्य अणु जीवो (PathoGenic Microbes & Viruses) से स्थापित किया है। जिनके उपमर्ग मे विविध प्रकार के औपगिक रोग उत्पन्न होते हैं । गतबीय चिकित्मा में जहाँ पर भूतीपमर्ग ( Sepsis due to microbes in Infection) के उपद्रव तथा उपचार का वर्णन है-भूतोपसर्ग इमी अर्थ का द्योतन करता है। परन्तु कायचिकित्मा में जहां पर ओन्मादिक रोगो में भागन्तुक उपमर्ग के रूप में भूनोपसर्ग विगृह रूप में प्रेतादि का यावेग ही ज्ञात होता है । Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेइसवॉ अध्याय उन्माद रोग-प्रतिपेध प्रादेशिक-प्रवृद्ध-दोप उन्मार्गगामी होकर चूकि मनोविभ्रम उत्पन्न करते है अत इस मानस रोग को उन्माद कहते हैं । यह ५ पाँच प्रकार का होता है । १. वातिक २. पत्तिक ३ श्लैष्मिक ४. सान्निपातिक तथा आगन्तुक । उन्माद की उत्पत्ति में सामान्यतया विरुद्ध-दुष्ट एव अपवित्र भोजन, गुरु-माता-पिता तथा ब्राह्मणो का अपमान, अत्यधिक हर्प या भय से मन का प्रभावित होना, शरीर की विपम चेष्टावो से अन्य प्रकार से मन पर आघात पहुंचना हेतु होता है। इन कारणो से प्रकुपित हुए वातादि दोष सत्त्व गुण की कमी वाले या दुर्बल मन वाले मनुष्य बुद्धि के निवासस्थान हृदय को दूपित करके तथा मस्तिष्क तथा मनोवाहि स्रोतसो मे व्याप्त होकर मनुष्य के चित्त को भ्रान्तियुक्त करके उन्मत्त कर देते है । फलस्वरूप बुद्धि मे भ्रम होना, मन की चचलता, आँखो का चुराना, व्यर्थ इतस्ततः देखना, चित्त की अस्थिरता, सम्बद्ध आलाप ( वातचीत ), हृदय की शून्यता तथा यात्मज्ञान का अभाव प्रभृति लक्षण सामान्यतया मिलते है। इनमे आगन्तु उन्मादो का वर्णन भूतविद्या नामक पूर्व के अध्याय मे हो चुका है। अब दोपो से चतुर्विध उन्मादो की चिकित्सा का विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है। उन्मादो मे Acute Dehrnous Mania or Melecholia प्रभृति Insanity के लक्षण पाये जाते है। इनमे जिस रोगी का वल क्षीण हो गया हो, तथा जिसका मुख सदा ऊपर या नीचे की ओर ही १ मदयन्त्तुद्गता दोपा यस्मादुन्मार्गमागता.। मानसोऽयमतो व्यधिरुन्माद इति कीर्तितः ॥ (सु उ ६२) पञ्चोन्मादा वातपित्तकफसन्निपातागन्तुनिमित्ता । ( च सू १९.) विरुद्धदुष्टाशुचिभोजनानि प्रधर्पणं देवगुरुद्विजानाम् । उन्मादहेतुर्भयहर्षपूर्वो मनोविघातो विपमाञ्च चेष्टा ॥ तरल्पसत्त्वस्य मला. प्रदुष्टा बुद्धेनिवास हृदयं प्रदूष्य । स्त्रीतास्यधिष्ठाय मनोवहानि प्रमोहयत्याशु नरस्य चेत ॥ धीविभ्रम सत्त्वपरिप्लवश्च पर्याकुला दृष्टिरधीरता च । अवद्धवाक्त्व हृदयञ्च शून्य सामान्यमुन्मादगदस्य लिङ्गम् ॥ (च चि १४) Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ भिपकर्म-सिद्धि रहे, जिसको निद्रा बिल्कुल ही न यावे ऐसा उन्माद का रोगी असाव्य हो जाता है और मर जाता है ।" क्रियाक्रम : वातिक उन्माद में प्रथम स्नेहमान, पित्तज उन्माद में विरेचन और कफजन्य उन्माद में वमन कराना चाहिये । तदनन्तर सवो में निम्हण, अनुवामन वस्ति तथा गिरोविरेचन कराना चाहिये | निम्हण स्नेहवस्ति (अनुवासन ) तथा गिरोविरेचन का यथादोप यथावल वारम्वार प्रयोग करना चाहिये । सामान्यतथा वानज में स्नेह वस्ति, पित्तज में निह वस्ति और श्लैष्मिक मे शिरोविरे• चन कराने का विधान है । परन्तु आवश्यकतानुसार सव का सर्वत्र प्रयोग हो सकता है | इस प्रकार वमनादि शोधन कर्मों के द्वारा हृदय, इंद्रिय, गिर तथा कोष्ट शुद्ध हो जाते हैं । उनके सबुद्ध हो जाने से चित्त निर्मल हो जाता है । और उसमें चेतना शक्ति तथा स्मरण शक्ति का उदय होता है और उन्माद रोग जाता रहता है । " आगे बतलाये जाने वाले अपस्मार - चिकित्माधिकार में जो यत्न वतलाये गये हैं उनका प्रयोग उन्माद रोग में करना चाहिए। क्योकि अपस्मार एवं उन्माद में दोष और दूप्प दोनों को समानता होने से परस्पर की चिकित्मा भी हितकर होती है । नशोधन के अनन्तर भी उन्मत्त रोगो मे आचार का सुधार न हो उसकी चेतना शुद्ध होकर उसमें विनम्रता न आवे तो उसमें तीव्र नस्य तथा अजन का प्रयोग करना चाहिये । मन, वुद्धि और देह को उद्घोजित करने के लिए ताडन के द्वारा उपचार करना चाहिए । यदि रोगी बहुत उद्धत (Voilent) हो तो उसको भयभीत करने के लिए किसी मजबूत पट्टी या रस्सी से ढीला बंधन करे ( ताकि उसने व्रण न बने ), लकडी के खम्भे से बांवकर अंधेरे कमरे में डाल देना चाहिये । बहुत उद्धत हो तो उसे कोड़े से मार कर किसी विजन कमरे ( जिसमें आदमी न १. जवाची वाप्युदञ्ची वा क्षीणमामवलो नरः । जागरुको हृयसंदेहमुन्मादेन विनश्यति ॥ ( मुनू. ३४ ) - • २ उन्मादेवातिके पूर्व स्नेहपानं विरेचनम् । पित्तजे कफजे वान्ति परो वस्त्यादिक क्रम. ॥ निम्हणस्नेहवस्ती गिरमच विरेचनम् । तत कुर्याद्ययादोपं ततो भूयस्त्वमाचरेत् ॥ हदिन्द्रियमिर कोष्ठे मशुद्धे वमनादिभि । मन प्रसादमाप्नोति स्मृतिज्ञा च विन्दति ॥ यच्चोपदेक्ष्यते किचिदपस्मारचिकित्मिते । उन्मादे तच्च सामान्याद्दीपदूष्ययो ॥ (भैर ) Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तेइसवॉ अध्याय ४४७ जाते हो) अंधेरे में डाल दे। इससे रोगी का विभ्रान्त चित्त शान्त होता है और रोगी का औद्धत्य भी शान्त हो जाता है। दांत निकाले हुए निर्विष सर्प से कटाने का भय दिखलाना, भयङ्कर सिंह या हाथी के सामने खडाकर उनसे भयभीत करना । तेज शस्त्र को दिखलाकर उससे काट देने का भय देना अथवा नामने उसके शत्रु या चोर-डाकू को खडाकर उससे डराना। अथवा राजपुरुष (पलिस ) आदि से पकडाकर बंधवा कर घरसे बाहर निकलवाना अथवा अन्य प्रकार से उसे प्राण का भय दिखलाना । तप्त किया लाल लोहे से या उबलते जल से स्पर्श करा के भयभीत करना । उन्मत्त रोगी के औद्धत्य को कम करने के लिए उसको सरसो के तेल की मालिश करके चारपाई से बांधकर धूप मे चित्त पीठ के बल लेटाकर रख देना चाहिए। केंवाछ की फली को लेकर उसके शरीर की त्वचा पर रगड देना। इससे तीव्र कण्डु होती है । रोगी चेतना मे आ जाता है। इस देह के कप्ट तथा भय से प्राय रोगियो में सुधार होता है यदि सुधार न हो तो प्राण के भय से तो वह जरूर ही चेतना मे आ जाता है। सब प्रकार से रोगी का विभ्रान्त मन शान्त होता है। इस प्रकार तर्जन ( वाणी से डांट टपट करना), त्रासन ( राजपुरुष पुलिस आदि से डटवाना), दान ( अभिलपित पदार्थ पथ्य हो तो देना), हर्षण (प्रसन्न करना ), सान्त्वना ( आश्वासन देना या तसल्ली देना), भय (भयभीत करना या डराना ), विस्मय (आश्चर्य पैदा करने वाले विषय ) प्रभृति उपचारो मे रोगी उन्माद के उत्पादक हेतुवो को विस्मृत कर देता है और उसका मन प्रकृति मे आ जाता है। जव रोगी का मन प्रकृतिस्थ हो जावे तो उसको विविध प्रकार के प्रदेह ( लेप), उत्सादन ( उवटन ), अभ्यङ्ग (तेल की मालिश ) धूमप्रयोग (धु वा १.शद्धस्याचारविभ्रंशे तीक्ष्ण नावनमञ्जनम् । ताडन वा मनोबुद्धिदेहसंवेजन हितम् ॥ य सक्तोऽविनये पट्ट. सयम्य सुदृढ. सुखै. । अपेतलोहकाष्ठाद्य सरोध्यश्च तमोगृहे । कशाभिस्ताडयित्वा वा सुबद्ध विजने गृहे । रुन्ध्याच्चेतो हि विभ्रान्त बजत्यस्य तथा शमम् ॥ सर्पणोद्धृतदंष्ट्रण दान्त सिंहगंजैश्च तम् । त्रासयेच्छस्त्रहस्तैर्वा तस्करै शत्रुभिस्तथा ॥ अथवा राजपुरुषा बहिर्नीत्वा सुसयतम् । त्रासयेयुर्वधन तर्जयन्तो नृपाज्ञया ॥ देहदु खभयेभ्यो हि परं प्राणभयं स्मृतम् । तेन याति शम तस्य सर्वतो विप्लुत मन. ।। तर्जनं त्रासन दान हर्पणं सान्त्वन भयम् । विस्मय विस्मृतेर्हेतोनयन्ति प्रकृति मन. ॥ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि ४४८ देना ) और ओपविसिद्ध घृतो का पान कराते हुए उसकी मन-बुद्धि-स्मृति और मंत्रा आदि को जागृत करके स्वस्थ करना चाहिये 19 १ उन्माद के रोगियों में सब समय उनके प्रतिकूल ही आचरण करना प्रगस्त नही है । मय, तर्जन, त्रासन करने के अनन्तर उसको बीच-बीच में अनुकूल याचरणो के द्वारा या धर्म-अर्थ से युक्त वचनो ने प्रसन्न करना, मित्रो के सम्पर्क में लाना, मित्रो के द्वारा उसको सान्त्वना या आश्वासन दिलाना और उसको खुश रखना भो आवश्यक होता है | यदि किसी इष्ट (वाहित) द्रव्य के नष्ट हो जाने से उसके मन को अभिघात पहुंचा हो और उन्मत्त हो गया हो तो उसको तत्सदृग द्रव्यो की प्राप्ति कराना या उसको शीघ्र प्राप्त होने का आश्वासन या सान्त्वना देना उचित है । इसी प्रकार काम-शोक-भय-क्रोध-दर्प-ईर्ष्या और लोभ से उत्पन्न मनोविभ्रमजन्य उन्माद में उनके यापन में प्रतिद्वन्द्वी भावो के प्रभाव से अच्छा करना हितकर होता है । जैसे कामजन्य उन्माद में हर्पण ( प्रसन्न करना ), भयज उन्माद में क्रोध, क्रोवज उन्माद में शोक पैदा करनेवाले समाचार, ईर्ष्याजन्य उन्माद मे प्रेम जोर गोकज उन्माद में इन्ति पदार्थ की प्राप्ति कराना । इन क्रियावो से उन्मत्त का विकृत मन प्रकृतिस्थ होता है। कई वार विस्मय के उत्पादन करने से भी लाभ होता है जैसे बद्भुत या आश्चर्यजनक वस्तुवो को दिखलाना उनके अभिलपित या प्रिय पदार्थ के नष्ट होने की महसा सूचना देना | कुष्माण्ड फल- मय वीज भेपज - १ ब्राह्मी या मण्डूरपर्णी का स्वरस २ और मज्जा का स्वरम, ३ राखपुष्पी स्वरस तथा ४ मीठी वच का स्वरन (स्वरन के अभाव में वच का चूर्ण १ मागा ) । ये चारो स्वरस पृथक्-पृथक् सिद्ध उन्मादनागक भेपज है । मात्रा २ तोला । अनुपान मीठाकूठ का चूर्ण १ माना और मधु ८ मागे । यथावश्यक दिन में दो या तीन वार । 3 १ प्रदेहोत्मादनाम्यद्भवूमा. पानञ्च सर्पिप. । प्रयोक्तव्यं मनोबुद्धिस्मृतियंज्ञाप्रबोधनम् ॥ २ उष्टद्रव्यविनाशात्तु मनो यस्योपहन्यते । तस्य तत्सदृशप्राप्तिज्ञान्त्याश्वासः शम नयेत् ॥ वाश्वामयेत् सुहृट्टा तं वाक्यमर्थिनहितैः । कामशोकभयक्रोवहर्षयलोभसंभवान् । परस्परप्रतिहन्ट रेभिरेव शमं नयेत ॥ ( च. चि. ९ ) ३. ब्राह्मीकुष्माण्ठपदग्रंथाशखिनीस्वरसा. पृथक् 1 मधुकुष्ठयुता. पीता: सर्वोन्मादापहारिणः ॥ ( शा० सं० ) Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तेइसवाँ अध्याय ४४६ ५. कुष्माण्डवीज की भीतर को मीगी निकालकर उसको पीसकर ई से १ तोला तक मधु के साथ सेवन से तीन दिनो तक प्रयोग करने से उन उन्माद मे भी लाभ होता है । कुष्माण्ड को पीस कर मिश्री के माथ शर्वत बनाकर पिलाना वडा उत्तम कार्य करता है । इससे उच्चरक्त-निपीड ( Hypertension ). कम होता है । ६ चटक मास - गोरेये के कच्चे माम को पीसकर गाय के दूध के साथ सेवन करने से उन्माद का शमन होता है । ७ कोकिल ( कोयल या पिक ) के मास को सिद्ध करके रोगी को सेवन करा के निर्वात स्थान मे रखने से स्मृति ओर वृद्धि का विभ्रंश दूर होकर रोगो चेतना मे आ जाता है । ( नीग) ताजा मधु मिलाकर सेवन करना तथा ९ सरसो के तेल का नस्य और अभ्यंग उन्माद में लाभप्रद होता है । ८ ताड का रस १० पुराने घृत को दूध में मिलाकर प्रतिदिन पीने से उन्माद शान्त होता है । ११. रोगी मे चिडचिडापन हो तो उसमे अर्जुन के चूर्ण का प्रयोग घृत के साथ करे | १२ उन्माद मे वरुणत्वक् का चूर्ण, कपाय या घन सत्त्व' भी उत्तम लाभ करता है । १३ सर्पगधामूल - इसका प्रयोग ताजा मिल सके तो २ माशा पानकर मरिच और मिश्री के साथ शर्वत बनाकर पिलावे । ताजा न मिले तो मूल को मुखाकर चूर्ण बना कर रख ले । १ से २ माशा की मात्रा मे दिन मे दो बार गुलकंद १ तोले साथ अथवा गुलाब के फूल की पंखुडी और मिश्री के साथ करे । वडा उत्तम लाभ मिलता है । यह उच्च रक्तनिपीड के लिये अमोघ औषधि मानी ' जाती हैं | सम्पूर्ण विश्व में इसका प्रयोग आज होने लगा है । १४ श्वेत फूल वाली बला का चूर्ण १ तोला दूध के साथ पीना । १५ लहसुन का घृत के साथ प्रयोग भी उत्तम रहता है । 1 सारस्वत चूर्ण योग - मीठा कूठ, अश्वगंध, सैधव, अजवायन, जीरा, काला जीरा, सोठ, मरिच, पीपरि, पाठा और शखपुष्पी प्रत्येक १ तोला । इन सब के बराबर मीठी वच लेकर कूट-पीसकर छानकर महीन कर लेवे । फिर इसमे ब्राह्मी स्वरस को तीन भावना देकर सुखाकर रख ले | मात्रा १ से २ माशे । अनुपान घृत ६ मागे, मधु १ तोला | इससे उन्माद ठीक होता है, बुद्धि और स्मृति बढती है | सर्पगंधा घनवटी - सर्पगंधा १० सेर, खुरासानी अजवायन की पत्ती २ सेर, जटामासी २ सेर, भाग १ सेर । जोकुट करके अठगुने जल मे मदी आँच पर पकावे और हिलाता रहे। जब अष्टमाश वाकी रहे तब ठंडा होने पर २६ भि० सि० " 1 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ___ . . भिषकर्म-सिद्धि दो वार कपडे से छानकर फिर मदी आंच पर पकावे । जब इतना गाढा हो जावे कि क्वाथ करछी या लकडी के हत्थे में लगने लगे, तब उसको नीचे उतार कर धूपमे मुखावे । जब गोली बनने लायक हो जाय तो उसमे १०-२० तोला पीपरा मूल का चूर्ण मिलाकर ३-३ रत्ती की गोलियां बना लें। २ गोलो रात में सोते वक्त लेने से निद्रा नाती है। दिन में दो-तीन वारउन्माद में प्रयोग करे। (वैद्य यादवजी के सि. यो सं. से ) उन्माद-गजकेशरी रस-शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, शुद्ध मन मिला, शुद्ध धस्तूर वीज । प्रयम पारद और गवक की कज्जली बनाकर गेष द्रव्यो को मिलाकर महीन चूर्ण करे । उसमें ब्राह्मो स्वरस तथा बचाके क्वाथ की सात-सात भावना देकर तैयार करे। मात्रा ४ रत्ती दिन में दो या तीन वार । अनुपान गोवृत १ तोले के साय । ___ रसपर्पटी-शुद्ध किये धतूरे के पाच वीज के चूर्ण के साथ रसपर्पटो १-२ रत्ती का सेवन उन्माद में लाभप्रद रहता है। चतुर्भुज रस-रससिन्दूर २ तोला, स्वर्णभस्म, मन गिला, कस्तूरी और शुद्ध हरताल प्रत्येक एक तोला । घृतकुमारी के स्वरस से भावित कर गोला बनावे । एरण्डपत्र से गोले को आवेष्टित कर धान की ढेर में गाड़कर तीन दिनो के मनन्तर निकाले । फिर एरण्डपत्र के मावेष्टन को पृथक् करके सरल में भावित करके चूर्ण रूपमें बनाकर रख ले। मात्रा २ रत्ती । अनुपान त्रिफला चूर्ण और मधु । वहुत प्रकार के मस्तिष्कगत रोगो में लाभप्रद । क्षीरकल्याण धृत--इन्द्रायणमूल, त्रिफला, रेणुका, देवदारु, एलुवा, गालपर्णी, तगर, हल्दी, दारहल्दी, श्वेत सारिवा, कृष्ण सारिवा, प्रियङ्गु, नील कमल, छोटी इलायची, मजीठ, दन्तीमूल, दाडिम के छिल्के या अनारदाना, नाग केसर, तालीशपत्र, वडी कंटकारी, मालती के नवीन पुष्प, वायविडङ्ग, पृश्निपर्णी, मीठाकूठ, सफेद चदन और पद्माल प्रत्येक १ तोला । सव को लेकर पत्थर पर जल ने पीसकर कल्क बनावे। फिर एक कलईदार कडाही में इस कल्क को, मच्छित गोवृत १ प्रस्थ, जल दो प्रस्थ और गाय का दूध ४ प्रस्थ में छोडकर अग्नि पर चटाकर घृतपाक विधि ने वृत को सिद्ध कर ले। यह वृत उन्माद, अपस्मार में तथा अन्य बहुत से जीर्ण रोगो में मस्तिष्कदौत्यजन्य व्याध्यिो में लाभप्रद होता है। चंतस घृत-गाम्भारी से रहित दशमल की औपधियाँ, रास्ना, एरण्ड मूल की छाल, बला की जड, मूर्वा की जद, गतांवर, प्रत्येक ८ तोले लेकर एक Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तेइसवॉ अध्याय ४५१ द्रोण जल मे क्वाथ बनावे, चतुर्पाश शेप रहने पर स्वाथ को छानकर रख ले। फिर एक पलईदार पान में यह पत्राघ, मूच्छित गोघृत एक प्रस्थ तथा कल्याण धृत में कथित तल्क को लाल कर अग्नि पर चढाकर पाक करे । इस प्रकार से सिद्ध घृत का उपयोग उन्माद, अपस्मार तथा विविध पित्तविकारो मे लाभप्रद होता है। मात्रा १ तोला। अनुपान दूध । शिवा तेल-मुख, नस और यात्र को अलग करके पुरुप शृगाल (गीदड) का मास १ प्रस्थ, पोटली बांधकर, दशमूल की औपधियाँ आधी तुला और जल 'एक द्रोण लेकर एक बडे भाण्ड मे रख कर अग्नि पर चढावे, जब चतुर्थांश जल गेप रहे तो उतारे । टडा होने पर छानकर पृथक् कर ले । फिर एक बडे पात्र मे यह क्वाथ, मच्छिन तिल तेल १ प्रस्य और निम्नलिखित कल्क द्रव्यो को पीस कर पका कर पाफ करे। कल्क द्रव्य--वृहत् पचमूल, वच, कूट, भूरिछरोला, सफेद अनन्तमूल, फाला अनन्तमूल, धतूर का वीज, वरुण की छाल, बैगन, छोटो कटेरी, वटी कटेरी, चित्रकमूल, पोपरामूल, मुलेठी, मेंधा नमक, खिरेटी, सोया; देवदारु, रास्ना, गजपीपल, नागरमोथा, कचूर, लाख, गधप्रसारणी और रक्त चंदन प्रत्येक एक तोला। इस तेल की मालिश ( अभ्यग) या पान सभी प्रकार के उन्माद मे लाभ प्रद होता है। धूम, नस्य, अंजन-इनका उल्लेख भूतजन्य उन्माद मे हो चुका है। उन्ही यागो का यथावश्यक प्रयोग करना चाहिये । पथ्य-गेहूँ, चावल, मूग, धारोष्ण गाय का दूध, शतधौत घृत, नवीन तथा पुराना गोघृत, कछुए का माम, पुराना कुष्माण्ड का फल, ब्राह्मी या मण्डूकपर्णी का शाक, बथुवा, चौलाई, मुनक्का, कैथ, कटहल, मड वा (धान्य विशेष) पथ्य होता है।' अपथ्य-मद्य, विरोधी आहार, अधिक मास-सेवन, भैस का दूध, उष्ण पेय तथा भोजन, निद्रा-क्षुधा तथा तृपा के वेगो का रोकना, अधिक लवण, तीक्ष्ण १ गोधूममुद्गारुणशालयश्च धारोष्णदुग्ध शतधौतसपि. । घृतं नवीनञ्च पुरातनञ्च कूर्मामिपं धन्वरसा रसाला ॥ पुराणकुष्माण्डफल पटोल ब्राह्मीदल वास्तुकतण्डुलीयम् । द्राक्षा कपित्य पनस च वैद्यविधेयमुन्मादगदेषु पथ्यम् ।। (यो र) निवृत्तामिपमद्यो यो हिताशी प्रयत शुचि । निजागन्तुभिरुन्मादै सत्त्ववान्न स युज्यते ॥ ( च चि ९ ) Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ भिषकर्म-सिद्धि तथा तिक्त द्रव्यो का सेवन निन्द्य है । सम्पूर्ण प्रकार के मद्य और मास से निवृत्त, हिताहार-विहार करने वाला, सयमी और पवित्र आचरण का व्यक्ति सत्त्ववान् होता है । अर्थात उसका सत्त्व या मन वढा दृढ होता है फलत ऐसे व्यक्तियो को निज अथवा आगन्तुक उन्माद का रोग नही होता है । उपसंहार - उपर्युक्त चिकित्सा क्रम को यथावश्यक यथास्थान वरते । साथ मे इस प्रकार की व्यवस्था करे 1 उन्माद गजकेशरी रस २-४ रत्तो की एक मात्रा गोघृत के साथ प्रात सायम् दे । सारस्वतारिष्ट भोजन के बाद दे । बडे चम्मच से २ चम्मच पानी मिलाकर | रात्रि मे सोते वक्त सर्पगंधा घनवटी २ गोली दे । यदि घनवटी तैयार न हो तो सर्पगंधा चूर्ण २ माशा, गुलकंद १ तोले के साथ खिलाकर गाय का दूध पिलावे । सिर पर लगाने के लिये हिमाशु तैल या शतधौत घृत की मालिश करावे | होगी वलवान् हो तो नित्य हर दूसरे या तीसरे दिन एरण्ड तल एक छटाक की मात्रा मे दूध में डालकर पिलावे । खाने में चावल का भात या गेहू की रोटी और दूध देना चाहिये । पीने के लिये शर्वत के रूप मे कई बार श्वेत कुष्माण्ड ( पेंठे ) के बीज और गूदा को निकाल कर पीस कर मिश्री मिला कर कई बार देना चाहिये । यदि रोगी बहुत उद्धत हो तो उसको एक निर्जन स्थान में बन्द कमरे मे रखना, डरवाना, नस्य ( कायफर के चूर्ण का नस्य ) या शिरीपाद्यजन का प्रयोग करते हुए अच्छा लाभ देखा जाता है । उन्मत्त रोगी को ठंडे जल मे खूब स्नान कराना चाहिये । उसको सबसे उत्तम लाभ जल की धारा सिर पर नल की टोटो खोल कर देने से होता है - इतनी धार से स्नान करावे और तब तक स्नान करावे जब तक कि वह शीत से काँपने न लगे । उन्माद का रोगी किसी एक व्यक्ति से डरता है सब से नही, खास कर उस व्यक्ति से जिसने उने एक वार मार दिया है । वह दूसरे से दवा भी नही खाना चाहता जब तक कि वह व्यक्ति सामने न खड़ा हो। इसका भी ध्यान रखना चाहिये । उन्मत्तो मे दवा का खिलाना भी एक कला है । उच्मत्त बिना भय न खाना खाता है और न ओपधि । हर बात में उसके साथ जबर्दस्ती ही करनी पडती है । 1 f 2 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवॉ अध्याय . अपस्मार प्रतिषेध अपस्मार-(मगो ) एक मानस रोग है, इसमे भी उन्माद के समान मस्तिष्क में कोई प्रत्यक्ष विकृति दृष्टिगोचर नही होती है। ज्ञान के विनाश की दृष्टि में यह उन्माद सदृश ही है, भेद यह है कि उन्माद में बुद्धि-विभ्रम होता है जिसले रोगी देखता या सुनता हुआ भी उसके यथार्थ तत्त्व को ग्रहण करने मे असमर्थ रहता है । उन्मत्त व्यक्ति वातें करता है किन्तु सव असम्बद्ध, इसी प्रकार वह खातो भी है किन्तु उसके स्वाद का ज्ञान प्राय. उसको नही होता । अपस्मार का रोगी एकदम वेहोश हो जाता है उसको दौरे के काल मे कुछ भी ज्ञान नहीं रहता इसके अतिरिक्त वह किसी प्रकार की क्रिया भी नही कर पाता । इस तरह उन्माद मे बुद्धि-विभ्रम तथा अपस्मार मे बुद्धि-नाश पाया जाता है। अपस्मार रोग का दौरा होता है । यह दौरा मावस्थिक एव किंचित् काल स्थायी ( या थोडे देर का होता है । फिर वह चेतना मे आ जाता और सामान्य व्यक्ति जैसे दिखलाई पड़ता है-इनमे दौरे का समय भी प्राय निश्चित सा ही रहता है। यह बात उन्माद में नही होती उन्माद का आक्रमण अस्थायी न होकर स्थायी म्वल्प का होता है, रोगी अचेन या वेहोश प्राय कभी नहीं होता है। अपस्मार-चिन्ता-काम-क्रोध-शोक तथा उद्वेग जैसे मानसिक कारण एवं गिरोभिधात तथा मस्तिष्कावरण शोथ ( Menigitis ), मस्तिष्कगत रक्तस्राव ( Apoplexy ) तथा मस्तिष्कावुद ( Cerrbral Tumour') के कारणो से सत्त्व के दुर्बल, रज तथा तम की प्रबलता होने पर उत्पन्न होता है । स्वभावत. दखल मन ( हीन सत्त्व ) वलि व्यक्तियो मे यह अधिक पाया जाता है। उपर्यक्त कारणो से कपित हए दोप मनोवह स्रोत ( मस्तिष्क, मस्तिष्कगत इन्द्रियाधिठान तथा वात नाडियो) मे आश्रित होकर अपस्मार रोग को उत्पन्न करते हैं।? - १. चिन्ताशोकादिभिर्दोपाः क्रुद्धा हृत्स्रोतसि स्थिता ।। . कृत्वा स्मृतेरपध्वसमपस्मारं प्रकुवते ।। तम प्रवेश सरम्भो दोषोद्रेकहतस्मृते । अपस्मार इति ज्ञयो गदो घोरश्चतुर्विधः ॥ ( मा. नि ) स्मतेरपगम प्राहुरपस्मार भिषग्विद । तम प्रवेशं वीभत्सचेष्ट . धीसत्त्वसप्लवात् ।। (च चि १० ) Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिषकर्म-सिद्धि 1 साधारणतया अपस्मार आधुनिक ग्रंथों में अपस्मार के ( Epilepsy ) दो भेद प्रमुखतया मिलते हैं । औपविक यह बाघात, हृदय एवं रक्तवाहिनी के रोग, मस्तिष्कगत रोग तथा रोगों की विषमयता में पाया जाता है । २. अनैमित्तिक या अज्ञात कारणजन्य यही शुद्ध अपस्मार नामक मानस- रोग है कहने से इसी का दोष होता है । इसमें मस्तिष्क में कोई अंगगत विकृति नही दिखाई पड़ती है। वैज्ञानिको ने अब तक रोग के कारण का निश्चित कारण नहीं स्थिर दिया है | उनका मत है कि नमवत्तं ( Metobolism ) के दोपो से शरीर में एक अतस्य विष ( Choline ) बनता है जिसका प्रभाव मस्तिष्क पर होते ने रोग का दौरा होता है और वह नि मंत्र होकर गिर पढ़ता है । यदि प्रभाव घोडा हुवा दो लघु अपस्मार ( Petit Mal ) और प्रभाव के तीव्र होने पर तीव्र स्वरूप का नृपस्मार ( Grand Mal ) का रूप पाया जाता है । इस रोग में बंध- परम्परा की प्रवृत्ति पाई जाती है । रोग का प्रारम्भ वाल्यावस्या से हो जाता है । प्राचीन निदान के अनुसार वार्तिक, पैत्तिक, ग्लेष्मिक तथा नान्निपातिक भेद मैं अपस्मार के चार प्रकार होते हैं । इस रोग का दौरा एक मास के बाद, पन्द्रह दिनों के अंतर या बारह दिनों के अन्तर पर अथवा सप्ताह के बाद जाते रहते हैं । बहुत वह जाने पर नित्य भी या सक्ता है | Ev अपस्मार एक कष्टसाध्य रोग है-नवीन और एक्दीपज तो कुछ साध्य भी होते हैं, परन्तु विदोषज, और दुर्बल रोगी के अपस्मार असाध्य हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त जिस रोगी में वारम्वार आक्षेप बाते हो, जो अत्यन्त क्षीण हो, जिसकी भृकुटियाँ टपर को चढ़ जायें और जिसकी न भी विकृत हो जायें तो ये अपस्मार भी साध्य हो जाते है। १ क्रियाक्रम - वनज अपस्मार में वस्तिकर्म, पित्तज में रेचन तथा ग्लेष्मिक में वमन कर्म के द्वारा शोधन करना चाहिये । अपस्मार में प्रथम वमन के द्वारा ग्रोवन उत्तम रहता है। इन कर्मों से अच्छी तरह से गोवन हो जाने के अनन्तर रोग की निवृत्तिसम्बन्धी वामन रोगी को देते हुए अम्म्मार को दूर करने के लिये निम्न लिखित शमन के उपचारों के द्वारा चिकित्सा करनी चाहिये । २ १ सर्वतः समस्तैश्च विज्ञेयस्योपजः । अपस्मार म चासाध्यो य. लीगम्यानवच य ॥ प्रतिस्फुरन्तं बहुध चीणं प्रचलित ध्रुवम् । नेत्राभ्याञ्च विकुर्वाणमपन्मारो विनाशयेत् ॥ ( च० चि०१० ) २ वानिक वलिमिः प्राय. पैत्तं प्रायो विरेचनः । चमनप्रायैरपस्मारमुपाचरेत् ॥ ( च० पि० ) कष्मिकं Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड: चौबीसबॉ अध्याय ४५५ अंजन-१ मैनसिल, रमान्जन, कबूतर (जंगली) की विष्ठा, इन्हें मिला कर या पृथक्-पृथक् अंजन करने से उन्माद तथा अपस्मार मे लाभ होता है । २ मुलठी, होग, वच, तगर, गिरीप, लहसुन, कूठ को सम भाग मे लेकर बकरी के मूत्र में पीसकर गोली बनाकर रख ले। और घिस कर आँखो में अजन करे। इसका चूर्ण नस्य के रूप में भी प्रयुक्त हो सकता है । ३. करंजादि-करंज, देवदारु, सरसो, कटभी, होग, वच, मजीठ, त्रिफला, त्रिकटु, प्रियङ्गु सम प्रमाण 'मे लेकर वस्तमन (वकरे के मत्र) में पोसकर बने योग का नस्य तथा अजन रूप मे प्रयोग । पुष्यनक्षत्र में उद्धृत कुत्ते के पित्त ( Bile) का अजन अपस्मारन होता है । इसका घी के साथ धूपन में भी प्रयोग किया जा सकता है। नस्य-१ निर्गुण्डो स्वरस और बन्दाक का स्वरस या चूर्ण -नस्य रूप में नाक से देने से अपस्मार मे निश्चित रूप से लाभ होता है।। २ वचा, गिलोय, त्रिकटु, मधुष्टि का सत, रुद्राक्ष, सेंधा नमक, समुद्रफल, लहसुन, इन द्रव्यो का समभाग मे बनाये नस्य का प्रयोग। ३. कुत्ता, शृगाल, विडाल और कपिल वर्ण को गाय के पित्त का नस्य अपस्मार को नष्ट करता है। स्नान, लेप तथा उद्वत्तेन-१ श्वेत तुलसी, कूठ, छोटी हरें, जटामासी “और ग्रथिपर्ण को समभाग मे लेकर गोमूत्र मे पीसकर उबटन लगाना और गोमूत्र से स्नान कराना।। । २. चमगादड की विष्ठा और जलाये हुए बकरे के लोम, श्वेत सरसो और सहिजन की छाल को गोमूत्र मे पीस कर लेप करना। ३ सरसो, के तेल में चतुर्गुण वकरे का मूत्र और गाय का पुरीष और मूत्र डाल कर पका ले । इससे उबटन लगाना एव स्नान कराना उत्तम होता है। धूपन-नकुल, उलूक, मार्जार, गोध, सांप और काक के तुण्ड, परीष । और पख से अपस्मार रोगी का धूपन करने से दुश्चिकित्स्य अपस्मार भी अच्छा होता है। भेषज-१ मधुयष्टि का कुष्माण्ड वीज के साथ पीसकर सेवन २. वचा' का चर्ण १ माशा मधु के साथ सेवन-भोजन मे दूध और भात। इस योग के सेवन-काल में देना चाहिये । ३ लहसुन का तेल में पकाकर सेवन ४ ब्राह्मी १ य खादेत् तीरभक्ताशी माक्षिकेण क्चारज । अपस्मार महाघोर सुचिरोत्थ जयेद् ब्रुवम् ।। प्रयोज्य तेललशुन पयसा वा शतावरी। ब्राह्मीरसश्च मधुना सर्वापस्मारभेषजम् ॥ (भै र ) Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ भिपर्म-सिद्धि - स्वरस या मण्क्रपर्णीस्वरस और मधु का सेवन ५. दूध के साथ शतावरी का सेवन सिद्ध प्रयोग है। ६. सद्द प्रमूता बकरी के बच्चे के नाल को हाथ से दवा कर निद्रव करने कांजी के साथ पका कर सेवन करने से अपस्मार दूर होता है। ७. निस रस्सी के द्वारा फासी लगाई गई हो उस रस्मी को जला कर उनकी राख को ठडे जल से पीने से उद्धत अपस्मार भी बच्छा होता है। ८. खरमूत्र (गर्दभ या गर्दभी मूत्र) को परम अपस्मारनाशक कहा गया है। वास्तव में यह लाभ करता है। पुराने अपस्मार के रोगियो में भी इसके उपयोग से लाभ देखा गया है। मूर्छा, अपस्मार तथा अपतंत्रक में समान भाव से लाभप्रद रहता है । मात्रा २ तोले से ४ तोला । प्रात काल ।' योग-कल्याण चूण-पिप्पली, पिपरामूल, चव्य, चित्रक, सोठ, काली मिर्च, हल, व्हेरा, बावला, विडलवण, मेघव लवण, वायविडङ्ग, करंजवीज की मांगी, मजवायन, धनिया और जीरा प्रत्येक एक तोला । महीन कूट कर के चूर्ण बना ले। मात्रा-१-२ मागा। अनुपान उष्णोदक । वातश्लेष्मज विकारो मे लाभप्रद ! उन्माद तथा अपस्मार में हितकर तथा मनिवर्धक होता है। ब्राह्मी वृन-' मूनि गोवृन १ मेर, ब्राह्मी स्वरस ४ सेर, कूठ और वाखपुष्पी का मम भाग में लिया क्क १ पाव । मग्नि पर चढा कर पाक करे। अपस्मार, उन्माद दोनो में लाभप्रद । मात्रा-१-२ तोला गाय के दूध में । मिलाकर। स्वल्प-पंचगव्य घृत- मूच्छित गोवृत १ सेर, गाय का गोबर १ पाव, गाय की खट्टी दही १ सेर, गाय का दूध १ मेर, गाय का मूत्र १ सेर । मग्नि पर बढाकर पाक । ग्रहबाया तथा वपम्मार में लाभ । मात्रा तथा अनुपान पूर्ववत् । । अप्माण्ड घृत- गाय के घो ने १८ गुना कुष्माण्ड स्वरस और मध्यष्टि १ बग्भूत्रमपरमारोन्मादब्रह्नागनम् -11 (च सू १) २ ब्राह्मोरमबचाकुष्टगखपृष्योभिरेव च । पञ्च पुरातनं मपिरपरमारहर वम् ।। (भा प्र )३. गोगन्द्रमध्यम्लक्षीरमः समव॒तम् । - मिट्ट चाथिकोन्मादग्रहापस्मारनागनम् ।। (च.) ४ कुमाएडम्बरसे नपिरप्टादशगुणे पचेत् । यप्ठ्यावाल्के तत्सिद्धमपस्मारहरं परम् ।। (वृन्द) Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : चोवीसवाँ अध्याय ४५७ चूर्ण एक पाव का कल्क डाल कर पाक किया घृत । मात्रा और अनुपान पूर्ववत् । वातकुलान्तक रस-श्रेष्ठ स्तूरी, शुद्ध मन शिला, नागकेसर का चूर्ण, बहेडे के छिल्के का चूर्ण, शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, जायफल, छोटी इलायची और लवङ्ग प्रत्येक एक तोला । प्रथम पारद-गधक को कज्जली बनावे । सोप चूर्णों को मिलावे। सब एकत्र महीन पोस कर २ रत्ती के परिमाण की गोली बना ले। यह अपस्मार मे बडा श्रेष्ठ योग है विशेपत. आक्षेपयुक्त 'अपस्मार मे । मात्रा दिन में तीन-चार गोली मण्डूकपर्णी के रस और मधु के योग से। स्मृतिसागर रस-शुद्ध पारद, शुद्ध गधक, हरताल, शुद्ध मन शिला, ताम्र भस्म । सम भाग में लेकर प्रयम कज्जली बना कर शेप 'द्रव्यो को मिला कर. वचा के क्वाथ या स्वरस तथा ब्राह्मो स्वरस या कपाय से इक्कीस 'भावना दे। कटभी बीज के तेल की एक भावना दे।' घृत और मिश्री के अनुपान से ४ रत्तो की मात्रा में प्रयोग करे। अपस्मार मे एक परम उत्तम योग है। उपसंहार-यह एक बडा ही रोग है । इसमे रक्त एव पाखाने की परीक्षा करा लेनी चाहिये। यदि रक्त में फिरग या उपदंश आदि की उपस्थिति मिले तो फिरंगनाशक चिकित्सा करते हुए पर्याप्त लाभ होता है। यदि कृमियो की उपस्थिति मिले तो कृमिघ्न उपचार अथवा यदि अभिघात का वृत्त मिले तो तदनुकूल उपचार करते हुए लाभ हो जाता है । ( Antbiotic peni cillin Procaine Injection ) अन्यथा विशुद्ध मानस अपस्मार मे, जो अनैमित्तिक स्वरूप का ( Idiopathic.) होता है, कोई वढिया फल नही दिखलाई पडता है। आज के युग मे जितने नवीन (anti convulsants), योग चलते हैं उनका लाभ भी स्थायी नही रहता, जितने दिनो तक औषधि चलती रहती है, रोग ठीक रहता है, औपवि के छोड देने पर रोग का पुनरावर्तन होने लगता है। एक वृद्ध आचार्य कहा करते थे कि अपस्मार मे सफल चिकित्सा के लिए किसो सिद्ध पुरुष, महात्मा या तात्रिक की, ही शरण लेना चाहिये । - उन लोगो को आशीर्वाद या प्रयोगो से अपस्मार, अच्छा हो जाय तो उत्तम अन्यथा आधिभौतिक चिकित्सा से कोई विशेप लाभ नही होता है। इस अधिकार मे कथित चिकित्साये भी, जैसा कि ऊपर मे देख चुके है, तात्रिक , प्रयोग ही है । इनके प्रयोग भी अधिक दुर्लभ और दुरूह है, करने से लाभ अवश्य होता है । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिपकर्म - सिद्धि अपस्पार में आगन्तुक उपसर्ग प्रतीत हो तो भूतोत्य उन्मादवत् चिकित्ना कन्नी चाहिये । उन्माद रोगाधिकार में कथित यथायोग्य योगो का यथावसर प्रयोग अपस्मार रोग मे भी किया जा सकता है । माध्य अपस्मारी में निम्नलिखित व्यवस्या मे पर्याप्त लाभ होता है - - 도 रम और मधु मे । वात-चूर्ण ४ रत्ती और स्मृति मागरम ४ रत्ती प्रात मण्डूकपर्णी के कुलान्तक रस माय २ से ४ रत्ती गोघृत, मीठी वच का मिश्री से । धारिष्ट भोजन के बाद दोनो ववत २ तोला समान जल मिलाकर । लगुनादि वटी भी भोजन के अनन्तर एक-दो गोली देना चाहिये । मोन पिण्ड भी उत्तम योग है । अपस्मार और अपतंत्रक में लहसुन उत्तम कार्य करता है । मिद्ध वृतो में से किमी वृत का प्रयोग नित्य करना चाहिये, जैसे ब्राह्मो वृत १ तोले की मात्रा में गाय के १ पाव दूध में डाल कर रात्रि में सोते वक्त । कोष्टबुद्धि का ध्यान रखना - -बीच बीच में एनीमा देकर या किसी रेचक औषधि का प्रयोग कर के कोष्ठ की शुद्धि कर लेनी चाहिये | आक्रमण काल में किसी नस्य या अंजन के प्रयोग से अथवा मूर्च्छाविकार में कथित उपायों मे रोगी को होश में लाना चाहिये । नस्त्र तथा अजनो का प्रयोग दौरे के अतिरिक्त समय में हर तीसरे दिन या सप्ताह में एक दिन या वीच बोच में यथावश्यक करते रहना चाहिये 1 पचगव्य का उद्वर्त्तन और गोमूत्र का स्नान भी उत्तम रहता है | पथ्यापथ्य- अपस्मारी को उन्माद महा रखना चाहिये । जल ( जलावगाहन ), अग्नि के समीप या भट्टी के समीप काम करना, पेड पर चढना, पहाड या ऊंचे टीले यादि का चढना प्रभृति कार्यों से मृगी वाले रोगियो को बचाना चाहिये । क्योकि इन पदार्थो से उसको रोग का दौरा होता है और उसके प्राणनाश का भय रहता है ।" -- अतत्त्वाभिनिवेशचरक ने अपस्मार रोग को दुश्चिक्त्स्यि, त्रिर काल तक चलने वाला और रोगी के क्षोण होने पर असाध्य माना है । इसको > १. जलाग्निद्रुमशैलेभ्यो विपमेभ्यश्च तं सदा । रसेदुन्मादिनचैव मद्य प्राणहरा हि ते ॥ २. रजस्तमोम्या वृद्धाभ्या वृद्धो मनमि चावृते । हृदये व्याकुले दोपैरथ मूढोऽल्पचेतन ॥ विषमा कुरते वृद्धि नित्यानित्ये हिताहिते । तत्त्वाभिनिवेशं तमाहुराप्ना महागदम् ।। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : चौबीसवॉ अध्याय ४५६ महागद ( महारोग ) की संज्ञा भी दी है। अपस्मार से मिलते हुए लक्षणो वाले एक दूसरे रोग का वर्णन अतत्त्वाभिनिवेश नाम से किया है । इस को भी महागद वतलाया है। मलिन आहारशील, प्राप्त वेगो के रोकने वाले व्यक्तियो मे, शीत-उष्णरूक्षादि के अति सेवन से रज एवं तमो गुण की वृद्धि होकर हृदय, मस्तिष्क तथा मनोवह स्रोतो की दुष्टि होती है। मनुष्य मूढ या अल्प चैतन्य का हो जाता है, उसकी बुद्धि विषम (विपरीत या उल्टी) हो जाती है फलत वह हित को अहित, अहित को हित, भले को बुरा, बुरे को भला, नित्य को अनित्य और अनित्य को नित्य समझता है । इस रोग को महागद अतत्त्वाभिनिवेश कहते है । इसमे Fixed delusion, Amentra, Dementia जैसी अवस्था हो जाती है। क्रिया-क्रम-१. इस रोग मे रोगी का स्नेहन और स्वेदन करके वमनविरेचन प्रभृति पंचकर्मो के द्वारा शोधन करना उत्तम रहता है। शोधन के अनन्तर ससर्जन करते हुए रोगी को प्रकृताहार पर लाना चाहिए । मध्य-मस्तिष्क शक्ति या बुद्धिवर्धक आहार ( भोजन ) रोगो को देना चाहिये। शखपुष्पी, ब्राह्मो-स्वरस, मण्डूकपर्णो स्वरस, पचगव्य घृत, रसायनाधिकार मे कथित मेध्य रसायन का उपयोग करना चाहिए। तैल और लहसुन का प्रयोग, दूध और शतावरी का प्रयोग तथा अन्य अपस्माराधिकार की औपधियो का योग अतत्त्वाभिनिवेश युक्त रोगियो में भी करना चाहिये। अपस्मार तथा अतत्त्वाभिनिवेश ये दोनो ही महारोग एवं दुश्चिकित्स्य है, अस्तु, रसायनो के दीर्घ काल के उपयोग से जीते जा सकते है । साथ ही धर्म, अर्थ से सम्बद्ध, प्रियमित्रो के अनुकूल वचन, विज्ञान, धैर्य, धृति और समाधि का योग उत्तम रहता है। १ सुहृदश्चानुकूलास्त स्वाप्ता धर्मार्थवादिन । । सयोजयेयुविज्ञानधैर्यस्मृतिसमाधिभि ॥ . दुश्चिकित्स्यो ह्यपस्मार श्चिरकारी कृतास्पद । तस्माद्रसायनरेन प्रायशः समुपाचरेत् ॥ (च० वि० १०) Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचीसवॉ अध्याय वात-व्याधि प्रतिपेध प्रादेशिक :-विकृत वातजन्य असाधारण व्याधि को वात व्यावि कहते है । चरक ने मामान्यज और नानात्मज भेद से दो प्रकार को व्याधियो का वर्णन किया है । जो व्याधियाँ वातादि प्रत्येक दोप व समस्त दोपो से होती है उन्हें मामान्यज कहते है । ज्वर, अतिसार, अर्श आदि व्याधियाँ इसके उदाहरण है। इसके विपरीत केवल एक ही दोप से उत्पन्न होने वाली व्याधियाँ नानात्मज कहलाती है । यथा-आक्षेपक, पडगुत्व, गृध्रमी आदि रोग केवल वायु से ही होते है, पित्त और कफ से नही। इसी प्रकार दाह, मोप, चोप, पाक आदि पित्त से ही होते है, वायु और कफ से नहीं। तृप्ति, तन्द्रा, निद्रा आदि रोग कफजन्य ही होते है, पित्त तथा वात से नहीं। इस प्रकार शास्त्र मे अस्मी वातात्मज, चालीस पित्तज तथा वीस कफ विकार से नानात्मज व्याधियो का उल्लेख मिलता है। ___ अब यहाँ शका होती है कि चरक और सुश्रुत ने पित्त नानात्मज और कफ नानात्मज व्यावियो का स्वतत्र अध्याय के रूप में वर्णन न करके केवल वात नानात्मज याविगे का ही स्वतत्र मध्याय क्यो लिखा? इस शका के निराकरणार्थ कई उपपत्तियाँ शास्त्र में पाई जाती है जिसमें बात दोप को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। ( देखिये चरक वातकलाकलीयाध्याय सूत्रस्थान में ) । बात को साक्षात् स्वयंभू भगवान् बतलाया गया है। इस प्रकार वायु को सर्व प्रेरक, मति बलवान्, माशुकारी उमके विकारो को टु साध्य होने से प्रधानतया बात-विकारो का ही विस्तार से वर्णन किया है, पित्त तथा कफ का नहीं । गान्धर की उक्ति है कि पित्त और कफ पंगु है वे निष्क्रिय है, सक्रिय केवल बात ही है, वह जहाँ पर जिम धातु या दोप को ले जाना चाहता है ले जाता है, जिस प्रकार बादलो को हवा । "पित्त पग कफः पङ्गु पशवो मलधातव । वायुना यत्र नोयन्ते नत्र गच्छन्ति मेघवत् ।" चरकोक्त वात रोग चिकित्साधिकार में लिखा हैवायु यायु है, वायु ही बल है, वायु ही शरीर का धारक है, वायु व्यापक और सम्पूर्ण क्रियाक्लाप का अधिपति होता हुआ संमार का प्रभु है। जब तक यह स्थानम्ब (पने स्थान में स्थित) और स्वभावस्थ-उसकी गति में कोई रुकावट Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड: पचीसवाँ अध्याय ४६१ नही पैदा हो रही है, वह मनुष्य को या जीवधारी को नीरोग रख कर सैकडो वर्ष तक जीवित रख सकता है, परन्तु विपरीत होने से प्राण को सकट मे डाल देता है । वह अपने प्राण उदान-समान-अपान तथा व्यान भेद से पचधा विभक्त होकर शरीर का धारण करता है । इस प्रकार वायु के प्रधान धातु या दोष होने के कारण वात रोगाध्याय नामक स्वतंत्र अध्याय लिखने की आवश्यकता शास्त्रकारो को प्रतीत हुई ।' जो कुछ भी श्वास-प्रश्वास, आँखो के पलको का खुलना या बंद होना, आकुंचन, प्रसारण, प्रेरण, सधारण तथा संवेदन आदि क्रियायें होती है, वायु के कारण ही होती है । अव पुन शंका उठती है कि वायु से आधुनिक परिभाषा मे हम क्या समझें? संक्षेप मे उपर्युक्त वर्णन से शरीरगत कोई भी तत्त्व जो सचालन ( Motor Function ) कराता है या संवेदन कराता है अर्थात् वेदनाओ की सूचना ( Seusory furction ) देता है उस शक्ति विशेष को बात कहते है । इन सम्पूर्ण शक्तियो का अधिपति वात संस्थान ( Nevvous Lisshes or Brani & Neues ) है । अस्तु, वात धातु से इन्ही का ग्रहण करना सगत प्रतीत होता है । अस्तु, वात रोगाध्याय कहने का तात्पर्य ( Diseases or the Nervdussystelu ) वात नाडी संस्थान का रोग समझना समीचीन है । • वायु के कारण विविध प्रकार के रोग होते हैं, फलत इस अध्याय में बहुत प्रकार के रोगो का प्रसंग आयेगा । प्रसंगानुसार उनके क्रिया क्रमो का भी एकका उल्लेख किया जावेगा । चिकित्सा मे कुछ सामान्य बातो का ध्यान अवश्य रखना चाहिये । जैसे वायु का कोप दो प्रकार से होता है-धातुक्षय से या मार्ग के आवृत होने से । “वायोर्धातोः क्षयात्कोपो मार्गस्यावरणेन वा ।" अधिकतर वायु के रोग प्रथम वर्ग के अर्थात् धातुक्षयजन्य ही पाये जाते है । अस्तु, सामान्यतया वृंहण उपक्रमो का ही ध्यान रखना चाहिये । १. वायुरायुर्बलं वायुर्वायुर्धाता शरीरिणाम् । वायुविश्वमिदं सर्वं प्रभुर्वायुश्च कीर्तित ॥ अव्याहता गतिर्यस्य स्थानस्थ प्रकृतौ स्थित । वायु स्यात्सोऽधिकं जीवेद्वीतरोगः समा. शतम् ॥ प्राणोदानसमानाख्यख्यानापान स पञ्चधा । देह तत्रयते सम्यक् स्थानेष्वव्याहतं चरन् ॥ विमार्गस्था स्वस्थानकर्मजे । शरीरं पीडयन्त्येते प्राणानाशु हरन्ति च ॥ ह्ययुक्ता वा रोगे - ( च० चि०१६ ) Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ भिपहम-सिद्धि त्र्यिाक्रम-सामान्य-अम्बंग, स्वेदन कस्ति, स्निस्व नस्य, स्निन्ध विरेचन, निध-अम्ल लवण और मधुर रस पहाणे का सेवन', पित्त के बावरण में गीत और उग उपचार, कफ या मेद या बाम के आवरण में रूम-उप्ण भय तथा भेपज देना चाहिये । यदि विशुद्ध गयु का ही कोप हो तो सर्वत्र स्निग्ध एवं उष्ण भय एव भेषज का उपयोग करना चाहिये। स्निग्ध, उष्ण-गोत-स्मादि उपक्रमो ने यदि वायु का रोग न गान्त हो तो रोग में रक्त को दुष्टि समझनी चाहिएऔर वहा पर वायु की चिकित्सा के साथ ही रक्तगोधक उपचार भी करना उत्तम रहता है । विगुद्ध वात के रोगी में प्रायः बृहण चिकित्मा का ही विधान जैसा कि चक्रटन मे लिखा है "घो-तैल-वसा-मज्जा का पान, अभ्यंग तथा वस्ति, सिध स्वेदन, वात के झोनो ने रहित (निवात) स्थान, गर्म वस्त्रो से शरीर को आवृत रखना, मामरस, दूध, मधुर, खट्टे और नमकीन पदार्थ तथा शरीर के वृहा करने वाले पदार्थों का उपयोग हितकर होता है । . वातघ्न लेप-जुदन का गोद २० तोला, आमाहल्दी ४ तोला, सज्जीखार २ तोला, एलवा ( मुमबर ) ५ तोला, हीरा वोल २ तोला, आर्चा २ तोला, गेरू ५ तोला, मफेद मरमो १ तोला, हीग १ तोला,, उगारे रेवन्द एक तोला, यजन्त तोला, डीकामाली का गोट २ तोला, मेदा लकडी २ तोला, चन्दसूर (चनूर हालीम ) ४ तोला, मेयी २ तोला । इन सब का चूर्ण बना कर रख ले। उपयोग-आवश्यकतानुसार जल में महीन पीस कर गर्म करके जहाँ पर चोट लगी हो या वेदना हो वहाँ पर मोटा लेप कर ऊपर से ई रख कर वाच दे। इससे पीडा और मूजन शान्त होती है । प्रदेह-जंगली वेर, कुलघी, देवदार, रास्ना, उडद, अतसी का वीज तथा नेल, त्रिफला, कूठ, वत्र, सोये का बीज और जौ का माटा। इन द्रव्यो को नम १. अन्यङ्ग स्वेदनं वस्तिनस्यं स्नेहविरेचनम् । स्निग्धाम्ललवण स्वादु बृप्यं वातामयापहम् ॥ पित्तस्यावरणे वातेरोगे गीतोष्णभेषजम् । कफस्यावरणे वायो लोण भक्ष्यभेषजम् ॥ केवले पवने व्यावी स्निग्योष्णं भवभेण्जम् । स्निग्योष्णगोतन्क्षायतिनो यो न शाम्यति । विकारस्तत्र विजेयो दुष्टगोणितसंभव. ॥ २. मपिस्तन्दसामज्जपानान्यञ्जनवस्तय. । स्वेदाः स्निग्या निवातञ्च स्थानं शावरणानि च ॥ रमा पयासि भोज्यानि स्वान्ललवणानि च । बृहणं यत्त तत्सर्व कर्तव्यं वातरोगिणाम् ॥ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड · पचीसवाँ अध्याय ४६३ भाग में लेकर काजी में पीस कर गर्म करके सुहाता-सुहाता लेप कर वेदना और गोय का शामक होता है।' शाल्वण स्वेद-काकोत्यादि गण की गोपधिया, २ भद्रदादि गण की औपधिया ( 3 वातघ्न गण को वाग्भटोक्त औपधिया ) सर्व प्रकार के अम्ल द्रव्य, मानपदेश के प्राणियो के मास, मब प्रकार के स्नेह और लवण-इनका यथोचित मात्रा मे बघालाभ लेकर अच्छी प्रकार से पीस के आग. पर पानी मिलाकर चटाकर पकाले । वातरोगियो मे पीडा के स्थान पर इसका उपनाह या पुल्टिन बाधनो चाहिये । इनमें काकोल्यादि गण की औषधिया १ भाग, भद्रदादि गण को मोपधिया १ भाग, मास २ भाग । अम्ल वर्ग की ओपधिया उतनी हो जितने में लम्लता माजावे, जितने स्नेह से स्निग्यता आ जाये उतना स्नेह और जितने लवण से लेप में नमकीनपन आ जाये उतना लवण छोडना चाहिये । इस उपनाह को अग पर लगा कर रुई रख कर कपडे से वाध देना चाहिये। गण को मोपधियो मे यथालाभ ( जितनी मिल जाय उतनी ) उपयोग करने का नियम सर्वत्र समझना चाहिये । फलत इस योग में भी वर्गोक्त समस्त, आधी या जितनी मिल सके, उतनी ही भोपधियो का प्रयोग करना चाहिये। यह एक उत्तम लाभप्रद प्रक्रिया वात रोग में प्रख्यात है। वातहा पोटली-चक्रमर्द बीज, एरण्डमूल, महानिम्ब, निम्ब की छाल, बकुल की छाल, कटुकरज की छाल, नारिकेल के फल की मज्जा, पतिकरज की छाल, कपास वीज, सहिजन को छाल, पोस्ता की डोड़ी, सुनिपण्णक (तिनपतिया), सर्पप, अकोल बीज ( ढेरे का फल ), रास्ना, कूठ, कुलथी, तिल (काली), वच, लहसुन, हींग, सफेद सरसो, सोठ इनका पानी में पिसा कल्क, घृत और तिलतल और सरसो का तेल मिलाकर कपडे मे वाधकर पोटली जैसे बनाकर सेंकना । वात रोगो मे परम वेदनाशामक उपनाह है ।-( योगसार से उद्धृत )... १ कोल कुलत्यामरदाररास्नामापातसीतैलर्फलानि कुष्ठम् । वचा शताह्वा यवचूर्णमम्लमुष्णानि वातामयिना प्रदेहः ॥ २ काकोल्यादि गण-काकोली, क्षोरकाकोली, जोवक, ऋषभक, मुद्गपर्णी, मेदा, महामेदा, छिन्नरुहा, कर्कटशृङ्गो, तुगाक्षीरी, पद्मक, प्रपौण्डरीक, ऋद्धि, वृद्धि, जीवन्ती, मृद्वीका मधुकञ्च । (सु सू ३८) ३ भद्रदारुनिशे भाी वरुणो मेषगिका। जटा झिण्टी चार्तगलो वरा गोक्षरतण्डुला । अर्को श्वद्रष्ट्रा राजिका धुस्तूरश्वाश्मभेदक । वरी स्थिरा पाटला रुग्वभिर्वसुको यव । भद्रदादिरित्येष गणो वातविनाशनः ॥ ( वा सू १०) ४ अम्ल द्रव्य से यहा पर काजी का ग्रहण करना चाहिये। " Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ · भिपकर्म-सिद्धि । तैल द्रोणी या कांजिक द्रोणी-अवगाहन-द्रोणी के आकार के पात्र अथवा नाद ( Tub) मे तैल ( तिल सर्पप कुसुम्भ आदि का यथालाभ मिश्रित तैल ) भर कर या काजी भर कर उसमे रोगी को बैठाना और उसमे सिर के ऊपर तैल या कांजी से किसी पात्र से स्नान कराना या डुबकी लगा कर नहलाना वात रोगो मे लाभप्रद रहता है। इसका प्रयोग पक्षवध, अदित, मन्यस्तिंभ तथा अपतानक मे लाभप्रद पाया जाता है। अभ्यंगार्थ-तैल माष तेल-(चक्रदत्त) पाकार्थ तिल तेल ४ सेर । उडद ४ सेर, बला ४ सेर, जल ६४ सेर क्वाथ बनाकर अवशेष १६ सेर । उडद, केवाछ के बीज, अतीस, एरण्ड की जड, रास्ना, सौंफ और सेधा नमक-सव का सम भाग में वना कर कल्क १ सेर । यथाविधि मद आंच पर पका कर सिद्ध करे। यह तैल-मालिग, नस्य और पीने से पक्षवध मे लाभप्रद होता है। महामाप तैल-उडद १२८ तोले, दशमूल की औपधियाँ २३ सेर, बकरे का मास १॥ सेर, जल १२ सेर १२ छटाक ४ तोले । सव को लेकर बडे भाण्ड मे अग्नि पर चढा कर क्वाथ करे, जब चतुर्थांश शेप रहे तो ठंडा होने पर छान ले। फिर एक बडे कडाही मे तिल तेल १ सेर, दूब ४ सेर तथा निम्न औपधियो का कल्क बना कर मद आंच पर पाक करे। कपिकच्छु का बीज, एरण्डमूल, सौफ, सेंधानमक, कालानमक, विडनमक, जीवक, 'ऋपभक, काकोलो, क्षोरकाकोली, मैदा, महामेदा, ऋद्धि, वृद्धि, मुलेठी, मुद्गपर्णी, मापपर्णी, मजिष्टा, चव्य, चित्रक को जड, कायफल, सोठ, मरिच, पिप्पली, पिपरामूल, रास्ना, देवदार, गिलोय, कूठ, असगध, बच, कचूर तथा कपूर प्रत्येक १ तोला । सव को जल के साथ पीस कर कल्क बना कर पाक करे । इस तेल को उष्ण दूध में १-२ तोला मिलाकर पीना, वस्ति देना । मात्रा ४ तोला, अभ्यग करना, नस्य लेना और कानो में छोडना । पक्षाघात, अदित, खज और पंगुत्व में लाभप्रद । निरामिप महामाप तैल-निरामिप भोजियो मे मास का प्रक्षेप न करते हुए तेल का पाक कर लेना चाहिये। मापवलादि तैल-तिल तैलं ४ सेर । क्वांथार्थ-उडद २ सेर, जल १६ सेर, शेप जल ४ सेर, दगमल की सम भाग में गहीत मोपवियाँ २ सेर, जल १६ सर, १ मापात्मगुप्ताऽतिविपोरुबूक-रास्नाशताहालवर्ण. प्रपिष्ट । चतुर्गुणे मापवलाकपाये तेल कृतं हन्ति च पक्षघातम् ॥ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ मेर, गायन, तगर, सारिखा, चतुर्थ खण्ड : पचीसवाँ अध्याय ४६५ शेष ४ सेर । प्रसारणी २ सेर, जल १६ सेर, शेप जल ४ सेर । सौफ २ सेर,' जल १६ मेर, शेप जल ४ सेर । लाक्षा २ सेर, जल १६ सेर, शेप ४ सेर । काजी ४ मेर, शतावर का स्वरस २ सेर, पाताल कोहडा का स्वरस २ सेर, दही ४ सेर, गोदुग्ध ४ सेर । कल्क द्रव्य-सोया, सौफ, मेथी, रास्ना, गजपीपरि, रास्ना, नागरमोथा, असगंध, खस, मुलेठी, शालपर्णी, पृश्निपर्णी, बला, भुई आँवला प्रत्येक १६ तोले। मंद आंच पर पाक करे । यह एक उत्तम बृहण तेल बहुत प्रकार की वात व्याधियो मे लाभप्रद होता है।' सिद्धार्थक तैल-शतावरी स्वरस १॥ सेर ८ तोले, मूच्छित तिल-तैल १ मेर, गाय का दूध ४ सेर । अदरक का रस ३ पाव । सौफ, देवदार, वलामूल, लाल चदन, तगर, कूठ, छोटी इलायची, शालपर्णी, रास्ना, असगध, मजीठ, श्वेत सारिवा, कृष्ण सारिवा, पृश्निपर्णी, वच, एरण्डमूल, सैन्धव लवण इन को सम भाग मे लेकर पीस कर कल्क १६ तोले । यथाविधि-पाक करे । यह सम्पूर्ण वात रोगो मे लाभप्रद है । इसका विशेष लाभ पोने से होता है । मात्रा १ से २ तोला भोजन के बाद दूध मे छोड कर १२ सहाराज प्रसारणी तल-प्रसारणी तेल के नाम से कई तेलो के पाठ सग्रह ग्रंथो में पाये जाते हैं। जैसे-पुष्पराजप्रसारणी, कुब्जप्रसारणी, त्रिशती प्रसारणो, सप्तशतिक प्रसारणी, 'एकादशशतिक प्रसारणी, अष्टादश शतिक प्रसारणी आदि। इनमे महाराज प्रसारणी तेल एक परमोत्तम योग है। उसका योग यहाँ दिया जा रहा है । यह तेल बहुत मूल्यवान् पडता है, इसमे भल्लातक पड़ा हुआ है। अल्प मात्रा मे भी अभ्यग में प्रयुक्त होकर लाभप्रद होता है। - गंधप्रसारणी का पचाग १५ सेर, पीले फूल वाली कटसरैया ( सैरेयक ) १० सेर, असगंध, एरण्डमूल, बलापचान, शतावर, रास्ना, पुनर्नवा-पवाङ्ग, केतकी की जड़ और पुष्प, दशमूल के प्रत्येक द्रव्य, नोम की छाल प्रत्येक ५ सेर, १ वातरोग निहन्त्याशु मन्यास्तम्भ नियच्छति । - हनुस्तम्भविकारञ्च जिह्वादन्तगलग्रहान् ॥ प्रमेहान् विशति हन्ति गात्रकम्पादिक जयेत् । एतान् हरति रोगाश्च तैल माषवलादिकम् ॥ (भै र.) २ मासमेकं पिदेद्यस्तु यौवनस्थ पुनर्भवेत् । ' सिद्धार्थकमिदं ख्यात नरनारीहिताय वै ।। भ० र० ॥ ३० भि० सि० Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ भिपकर्म-सिद्धि देवदारु का बुरादा और गिरोप की छाल प्रत्येक २॥ सेर, लाक्षाचूर्ण तथा लोध्र प्रत्येक १। सेर । इन सवो को जीकुट कर एक बडे भाण्ड में ४२ मन जल मिलाकर बडी भट्टी पर चढाकर क्वाथ करे । शेप जल २५ सेर ४८ तोले रहने पर क्वाथ को नीचे उतार कर ठडा कर के छान ले। फिर एक बड़े कडाहे मे तिल-तैल १३ सेर ४८ तोले लेकर अग्नि पर चढाकर उसको मूच्छित करके उसमें उपर्युक्त क्वाथ, एवं उस क्वाथ को जो इस प्रकार का बना हो, गाय का दूध आठ सेर, गाय की दही ८ सेर, दही का पानी ८ सेर, गन्नो का रस १६ सेर, बकरे का मास १५ सेर, ३६ सेर जल मे क्वथित कर १३ मेर ४८ तोले शेप रहने पर उतार कर कडाहे में डाले। फिर उसमे मजीठ का काढा १३ सेर ४८ तोला डाले । पश्चात् निम्नलिखित विधि से बने काजी का १२ सेर १२ छटांक डाले ।' अब तीन प्रकार के कल्को को डाल कर प्रत्येक से पृथक् पृथक् तेल का पाक करे। प्रथम कल्क-भिलावे ( भल्लातक ) फल की मज्जा, पिप्पली, शुण्ठी, कालोमिर्च, प्रत्येक २४ तोले, हरड, वहेरा, आँवला, सरल काठ, वच, सौंफ, काकडामीगो, चोरपुष्पी, कचूर, मोथा, नागरमोथा, कमल, नीलकमल, पिपरामूल, मजीठ, असगंध, पुनर्नवा पचाङ्ग, दशमूल, चक्रमर्द, रसाञ्जन, गधतृण, हरिद्रा तथा जीवनीय गण की औपधियाँ पृथक् पृथक प्रत्येक १२-१२ तोले । पत्थर पर पीस कर इस कल्क के साथ पाक करे यह प्रथम पाक हुआ । अव तेल को पक जाने पर छान ले और कड़ाही में लेकर अग्नि पर चढाकर द्वितीय कल्क के माथ द्वितीय पाक प्रारम्भ करे । द्वितीय पाक प्रकार-फिर लोग, बोल, तेजपात, राल, छैल छरीला, प्रियगु, खस, सौफ, जटमासी, देवदारु, वलामूल, नलिका, खोटो, छोटी इलायची, कुन्दरु, मुरामासी, तीनो प्रकार की नखी (काकोदुम्बरपत्र, अश्वखुर, उत्पलपत्र), तेजपात, कपूरकचरी, खट्टाशी (पूति ), चम्पे की कलिया, मनफल, हरेणुका स्पृक्का (असवरग), मरुवे का फूल ( मरुवक पुष्प ) प्रत्येक १२ तोले । सव को जल १. महाराजप्रसारणो तेल की काजी का निर्माण-प्रकार-चावल का माड ६४ तोले, काजी १६ सेर. दही ३२ तोले. पराना गड ६४ तोले, मुली ३२ ताल, ठिलो अदरक ६४ तोले, छोटी पीपल, श्वेतजीरा, सेंधानमक, हल्दी, कालीमिर्च प्रत्येक ८-८ तोला । मब को एक मृत्पात्र मे मुख को बंद करके रखे । ८ दिनो के पश्चात् शुक्त को निकाले । इस गुक्त में फिर इलायची, नागकेसर, दालचीनी, तेजपात प्रत्येक का चूण ३-३ तोले छोड कर रखले । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : पचीसवाँ अध्याय ४६७ के साथ पन्थर पर पोस कर फल्क बनाकर तेल में डाल कर गधोदक मिलाकर पुनः पाक करे। गंधोदक-विधि-तेजपात, खस, मोथा, वला की जड प्रत्येक १०० तोले, कूठ १० छटाक, जल २० सेर, आग पर चढाकर पाक करे । आधा शेप रहने पर अर्थात् १० सेर शेप रहने पर छान ले। इस गधोदक को द्वितीय पाक में कल्क के साथ डाले एवं पाक करे । तृतीय पाक प्रकार-कल्क के लिये नागकेशर, कूठ, दालचीनी, तगर, केशर, सफेद चदन का बुरादा, लता कस्तूरी, ग्रथिपर्ण, लवङ्ग, गर, शीतलचीनी, जावित्री, जायफल, छोटी इलायची और लवन के वृक्ष की छाल प्रत्येक १२ तोले। पत्थर पर पीसे हुए इस कल्क को तेल मे छोडकर, फिर उपर्युक्त गंधोदक तथा चदनोदक ( चंदन को खोलाकर बनाया जल ) कुल १० सेर डाल कर पाक कर ले । फिर इस तेल को छानकर उसमे कस्तूरी २४ तोले और कपर ६ तोले मिलाकर । सुरक्षित रख ले। " यह महागुणवान् प्रसारणी तैल अन्य प्रसारणी तैलो से अधिक गुणवान् है । अधिक व्यय तथा परिधम साध्य होने से श्रीमान् व्यक्तियो के लिये व्यवहार्य है। अस्तु, इसका नाम महाराज प्रसारणी तेल है। वात रोगो मे सिद्ध एव परमोत्तम योग है। नारायण तैल-असगध, बलामूल, वेलमूल, पाढर के मूल, छोटी कटेरी रैगनी भटकटया), वडी कटेरी (बनभटा), गोखरू, सभालू की पत्ती, सोनापाठा की छाल, गहदपूर्ना को जड, उडद, कटसरैया, रास्ना, एरण्डमूल, देवदारु, प्रसारणी, अरणी प्रत्येक ४० तोले । इन द्रव्यो को जौकुट करके ४ द्रोण ( ४०९६ तोले ) जल में पकाये । जव चौथाई जल शेष रहे तो ठंडा होने पर छान कर रख ले । पीछे उसमें तिल का तेल २५६ तोले, शतावर का रस २५६ तोले, गाय का दूध २५६ तोले । एवं निम्न औपधियो का कल्क छोडकर अग्नि पर चढाकर पाक करे। कल्कद्रव्य-कूठ, छोटी इलायची, श्वेत चदन, बरियरा को जड, जटामासी, छरीला, सेंधा नमक, असगध, वच, रास्ना, सौफ, देवदारु, सरिवन, पिठवन, मापपर्णी, मुद्गपर्णी और तगर इनमे से प्रत्येक ८ तोले । तेल का पाक करे । पाक के सिद्ध होने पर तेल को छानकर शीशियो मे भरकर रख ले । उपयोग-पक्षाघात, अदित, हनुस्तभ, मन्यास्तंभ, अवबाहुक, कटिशूल, पार्श्वशूल, कान का दर्द, गृध्रसी, किसी अवयव का सूखना, एकाग घात, अर्धाङ्ग घात तथा सर्वाङ्ग घात मे लाभप्रद । इसका उपयोग अभ्यग के लिये, पीने के लिये, वस्ति देने मे, नस्य में तथा कान मे छोडने मे किया जा सकता है। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ भिपकर्म-सिद्धि यह सिद्ध वात रोग नाशक तेल है। नारायण तैल नामक कई पाठ मिलते हैं-नारायण तेल, मध्यम नारायण तेल तथा महा नारायण तेल । इनमे से एकपाठ गाङ्गघर के अनुसार यहा उद्धृत किया गया है । उत्तम कार्य करता है। विष्णु तैल-शालपर्णी, पृश्निपर्णी, वला, शतावरी, एरण्डमूल, बड़ी कटकारी मूल, छोटी कंटकारी मूल, करज को जड, अतिवला, या गोरखमुण्डी को जड, कटसरैया की जड प्रत्येक ४-४ तोले । सवको लेकर पत्थर पर पीसकर कल्क बनावे । फिर इस कल्क को मूच्छित तिल तेल ६४ तोले, बकरी या गाय का दूध २५६ तोले, जल १०२४ तोले यथाविधि, मद आच पर पाक करे । पाक होने पर छान कर शीशियो में भर कर रख ले। फिर यथावश्यक पीने के लिये, नस्य के लिये और मालिश के लिये उपयोग करे। विष्णु तैल नाम से भी स्वल्प, मध्यम और वृहत् नाम से तीन योग भैपज्यरत्नावली मे सगृहीत है । यहा पर स्वल्प विष्णु तैल का एक योग उद्धृत किया गया है । जो वहुविध रोगो मे लाभप्रद होता है । विष्णु तैल, नारायण तेल, माप तेल या प्रसारणी तैल, सभी बडे सिद्ध एव परम वीर्यवान् योग है जो अनेक गुणो से युनत होते है और बहुत प्रकार के रोगो में लाभ करते है ।' क्लव्य, हृच्छूल, पार्वशूल, अविभेदक, पाण्डु, मूत्र के गेग, क्षोणता, वार्धक्य दोष, क्षयरोग, आत्रवृद्धि, गण्डमाला, वातरक्त, अदित तथा वध्या स्त्रियो के पुत्र जनन मे भो समर्थ होते है । पशुवो की चिकित्सा मे भी इन का व्यवहार आशु लाभप्रद होता है। वात रोगाधिकार मे पठित तैलो के दो प्रकार पाये जाते है । एक वे जिनमे निर्विप और बृहण एवं पौष्टिक औषधियां पडी है। दूसरे वे जिनमे सविप द्रव्य धतूर, वत्सनाभ आदि पडे है। प्रथम वर्ग में अब तक के वर्णित सभी तैलो का ग्रहण हो जाता है। दूसरे वर्ग के कुछ तैलो का उल्लेख नीचे किया जा रहा है। प्रथम वर्ग के तैलो का पीने, वस्ति तथा वाह्य मालिश आदि मे सब तरह का उपयोग किया जा सकता है, परन्तु दूसरे वर्ग के तैलो का, १. अस्य तैलस्य पववस्य शृण वीर्यमत परम् । अश्वाना वातभग्नाना कुंजराणा तथैव च ॥ अपुमाश्च नर पीत्वा निश्चयेन पुमान् भवेत् । हृच्छ्ले, पावशूले च तयवाद्धविभेदके ॥ कामलापाण्डुरोगेपु कामलास्वश्मरीषु च । क्षीणेन्द्रिया नरा ये च जरया जर्जरीकृतां ॥ येपा चैव क्षयो व्याधिरन्त्रवद्धिश्च दारुणा । अर्दित गलगण्ड च बातगोणितमेव च ॥ स्त्रियो या न प्रसूयन्ते तामाञ्चैव प्रदापयेत् ।। भै र Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : पचीसवाँ अध्याय ४६६ जिनका नीचे उत्लेख किया जा रहा है, केवल वाह्य प्रयोग अर्थात् मालिश में ही व्यवहार करना चाहिये । प्रथम की अपेक्षा द्वितीय वर्ग वाले तेल अधिक पोडागामक होते है। विपगर्भ तेल-ताजे असगंध के मूल, कनेर की जड, आक की जड, धतूरे का पचाङ्ग, सभालू की पत्ती और कायफर की छाल प्रत्येक। ६४-६४ तोले लेकर भठगुने जल मे क्वाथ करे, जब चौथाई जल बाकी रहे तो कपडे से छान कर उसमे तिल का तेल १२८ तोले, बछनाग, धतूरे के वीज, घुमची, अफीम, खुरासानी अजवायन, कलिहारी की जड, कूठ और वच प्रत्येक ४-४ तोला कल्क मिला कर मद यांच पर पकावे । तेल तैयार होने पर कपडे से छान कर , कुछ गर्म हालत मे ही कपूर का चूर्ण एक छटाक मिलाकर शीशी मे भर कर रख ले। उपयोग-सधिवात तथा शरीर के किसी भी अवयव मे दर्द होता हो इनकी हल्के हाथ से मालिश करे । पोडा को शान्त करने के लिये यह उत्तम योग है। पंचगुण तैल-हरे, बहेरा, आँवला प्रत्येक ५ तोला, नीम और सभालू की पत्ती प्रत्येक १५-१५ तोले । जौकुट कर अठगुने जल मे पकावे । जब चौथाई शेप रहे तो उसमें तिल का तेल ८० तोला, मोम, गंधविरोजा, शिलारस, राल और गुग्गुलु प्रत्येक ४ तोले टाल कर मदी आच पर पकावे । पकते-पकते जव खर पाक होकर तेल अलग हो जाय तव कपडे से छान कर थोडी गर्म हालत में उसमें कपूर का मोटा चूर्ण ५ तोला चम्मच से चलाकर मिला दे। ठंडा होने पर उसमे तारपीन का तेल, 'यूकलिप्टस का तेल, काजुपुद का तेल २॥२॥ तोला मिला कर शोशी में भर ले। उपयोग-सभी प्रकार की वेदना, सधिशोध, गूल मे 'वेदनाशामक होता है। कान के दर्द मे कान मे छोडने पर वेदना का शमन करता है। व्रणोपचार में व्यवहृत होकर व्रण का शोधन एवं रोपण करता है। ('सि. यो 'सग्रह से ) मिश्रक तैल-सरसो का तेल, तिल का तेल, नारियल का तेल, एरण्ड तेल, महुवे का तेल, कुसुम्भ । वरे ) के तेलो का मिश्रण छागलाद्य घृत-चर्म-खुर-लोम-सीग-आन्त्र से रहित बकरे का मास ॥ सेर, दशमूल की समभाग में ली गई औपधियाँ ढाई सेर और जल २५ सेर ४८ तोले अग्नि पर चटाकर चतुर्थाश शेप रखे । कल्क द्रव्य-मधुयष्टी, जीवनीय गण की औपधियाँ पृथक्-पृथक लेकर कुल मिलाकर ३२ तोले । फिर दुग्ध १२८ तोले । शतावरी का स्वरस १२८ तोले । गोघृत २ प्रस्थ ( १२८ तोले)। मद आँच पर पाक करे । वात रोगो मे इसका सेवन लाभप्रद होता है । यह परम वृहण Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपधर्म-सिद्धि और धातुवो का पोषण करने वाला योग है । और एक बड़ा योग वृहत छागलाद्य घृत के नाम में भी पाया जाता है जो बहुत से रोगो मे लाभप्रद होता है। वस्ति-अनेक प्रकार के वस्ति के योग पाये जाते है जिनमें एक सामान्य योग का उल्लेख यहाँ पर किया जा रहा है। जिसका प्रयोग सर्वत्र वात रोगो में किया जा सकता है। दशमल का कपाय , नारायण तेल २ तोला, सेंधा नमक ३ माने, मध ६ मागे। पहले मधु और सेवा नमक को खरल में मिलाकर एक कर ले, फिर उसमें नारायण तेल २ तोला मिलाकर एक करे पश्चात् दशमूल क्वाथ मिलाकर मथ ले। अव एक एनीमा पाट में भर कर रवर की नली और नोजल के सहारे गुदामार्ग से धीरे धीरे चटावे । जव सब द्रव चढ़ जाय किंचित् दोष रहे तो चटाना वद करे। इस वस्ति का प्रयोग प्रात.काल में रोगी के गौच ( पाखाने ) से लौटने के बाद करना चाहिये । यदि पाखाना साफ न हुआ रहे तो केवल आस्थापन (नमक जल की वस्ति ) बेकर कोठगुद्धि कर ले और दूसरे दिन इस वस्ति का प्रयोग करे ! इस वस्ति का लगातार या एकान्तर कम से बत्तीस तक प्रयोग किया जा सकता है। पक्षवध तथा अर्धाङ्गवात के रोगियों में लाभप्रद होता है। इस वस्ति के लगाने के अनन्तर थोडी देर तक कम से कम एक घंटे तक रोगी को लेटा राखना चाहिये । उसको तत्काल गौच के लिये नहीं जाने देना चाहिये । इस अवधि में भीषधि के गुण का शोषण होता है। ६ पड्धरण योग-चित्रकमूल, इन्द्रजी, पाठा, कुटकी, अतीस, बड़ी हरड़ ममभाग में बनाया चूर्ण । मात्रा २ मागा। उप्ण जल से। सभी प्रकार के वात रोगों में विशेषत. यामागयगत वात रोग में लाभप्रद है। महारास्नादि कपाय-रास्ना २ भाग, वलामूल, एरण्डमूल, देवदार, कचर, वच, बडूसे का मूल, सोठ, हरें, चाव (चव्य ), नागरमोथा, पुनर्नवा मूल, गुडूची, विधारा, मोया के बीज, गोखरू, असगंध, अतीस, अमल्ताग का गूदा, शतावर, छोटी पीपल, कटसरैया, धनिया, छोटी-बडी दोनो कटेरी, चोपचीनी, गोरम्बमुण्डी, बेल के मल, नागवला (गंगेरन) । इन सवो को जौकुट करके रख ले । इसमें से एक तोला लेकर १६ तोले जल में खोलावे, ४ तोला शेप रहे तो एरण्ड तेल आधा तोला मिलाकर पी ले। इम योग का उपयोग सभी प्रकार के वात रोगो में विशेषतः पक्षवध, घनी मोर सधिदात में या दीर्घ काल स्थित वात व्याधि मे हितकर होता है। रसोन पिराड-अच्छे रसदार लहसन लेकर उसके स्पर के छिल्क भला प्रकार पृथक कर के (यदि एक कली या पोती का लहसुन मिले तो अधिक उत्तम Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : पचीसवाँ अध्याय ४७१ है ) उसको रात भर दही के मट्ठे मे भिगो कर रख दे। इससे लहसुन की दुर्गंध चली जाती है । सुबह में छाछ से निकाल कर धोकर उसको खरल मे महीन पीसे । इस पिसे हुए लहसुन का ६ तोला और उसमें घृतभर्जित होग, जोरा सफेद, जीरा स्याह, अजवायन, सेंधा नमक, काला नमक, सोठ, काली मिर्च गोर छोटी पिप्पली का चूर्ण प्रत्येक १ माशे मिलावे और थोडा तिल का तेल मिलाकर एकत्र घोटकर शीशी में भर लेवे । उपयोग - अग्निवल एवं रोगो का वल, ऋतु तथा दृष्यादि का बल देख कर १ से २ तोला तक देकर ऊपर से एरण्डमूल का क्वाथ पिलावे । एकाग घात, अदित, अपतत्रक, अपस्मार, वातज उन्माद, गृध्रसी तथा विविध प्रकार की वातिक वेदनावो का शामक होता है । त्रयोदशाङ्ग गुग्गुलु -वव्यूल की छाल या गोद, असगंध, हाऊवेर गिलोय का तत्त्व या गिलोय, शतावर कद, गोखरू, विधारे का शुद्ध बीज, रास्ना, सौफ, कपूर, अजवायन और सोठ बराबर वरावर लेकर महोन कूट पीस कर कपडे से छान लेवे। इस चूर्ण को खरल में डालकर चूर्ण के बरावर शुद्ध गुग्गुलु और गुग्गुलु का आधा गोघृत मिलाकर अच्छी तरह से घोटकर २ माशे की गोलियां बना ले और सुखाकर शीशी में भर ले । इस त्रयोदशाङ्ग गुग्गुलु का २, गोली दिन मे तोन चार सुरा, यूप, मद्य, मंदोष्ण जल, दुग्ध या मांसरस इनमें से किसी एक के अनुपान से प्रतिदिन सेवन करें। बहुत प्रकार के स्तंभ, शूल तथा घातजन्य वात रोगो में लाभप्रद होता है । रसायन योगराज गुग्गुलु सोठ, पीपरा मूल, पीपल, चव्य, चीता का मूल, भुनी हीग, अजगोदा, सरसो, स्याह जीरा, सफेद जीरा, रेणुका, इन्द्रजी, पाठा, वायविडङ्ग, गजपीपल, कुटकी, अतीस, भारती, वच, मूर्वा, इन बीस औषधियो का चूर्ण ३-३ माशे मिलित ५ तोले । त्रिफला का चूर्ण दुगुना १० तोले, सबोके बराबर ( १५ तोले ) गुग्गुलु लेवे । बग भस्म, चांदी भस्म, सीसा भस्म, फौलाद भस्म ( लौह भस्म ), अभ्र भस्म, मण्डूर भस्म और रससिन्दूर प्रत्येक ४-४ तोले ले । घी डाल कर पहले गुग्गुलु को कूट ले फिर उसमे अन्यान्य चूर्ण तथा भस्मादि को देकर खूब कूटे । जब एक दिल होकर गोली बाँधने लायक हो जाय तो १ - १ माशे की गोली बना ले | मात्रा तथा उपयोग -१-१ गोली दिन मे दो बार महारास्नादि कषाय से सम्पूर्ण वात रोगो मे तथा अनुपानभेद से विविध रोगो मे लाभप्रद होता है । मंजिष्ठादि कपाय के साथ मेदो रोग और कुष्ट मे तथा निम्ब और निर्गुण्डी के क्वाथ से व्रण मे मी लाभप्रद रहता है । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ भिपक्षम-सिद्धि गुग्गल एक रसायन बोपधि है । वात रोगो के दूर करने में यह एक अव्यर्थ वा रामबाण औषधि के रूप में प्रख्यात है। इसके कई योग विभिन्न संग्रह प्रयो में पाये जाते हैं। जैसे योगराज गुग्गुल, द्वात्रिंगक गुग्गुलु, त्रयोदगाग गुगलु, पडनीति गुग्गल, गुग्गुलु वटी आदि । योगराज गुग्गुलु के पुन कई योग मिलते है । जैसे योगराज गुग्गुल, रसायन योगराज गुग्गुलु, वृहत् योगराज गुग्गुलु आदि । यहाँ पर एक लाभप्रद और उत्तम योगराज गुग्गुलु का योग चिकित्सासार. नग्रह नामक ग्रंथ से उद्धृत किया जा रहा है। योगराज गुग्गुलु-चित्रक, पिप्पलीमूल, अजवायन, काला जीरा, सफेद जीरा, वावविउझ, अजमोदा, देवदारु, चव, वडी इलायची, नेवा नमक, कूठ, रास्ता, गोखरू, धनिया, त्रिफला, नागरमोथा, विक्टु, दालचीनी, खम, यवनार, तालीगपत्र, लवड्ग, सज्जीखार, नटी (कचूर), दन्ती, गिलोय, हाऊबेर, अश्वगध, शतावरी प्रत्येक का चूर्ण १ ताला, लौह भस्म ४ तोला । इन द्रव्यो के कपडछन महीन चूर्ण और कुल चूर्ण के बराबर शुद्ध गुग्गुलु लेकर घी मिलाकर खूब कूटकर एक कर ले और १ माने की गोलियां बना कर वृतस्निग्य भाण्ड में रख ले । ___ उपयोग-आमवात, वात रोग, दुष्ट व्रण, गुल्म, अर्श मादि पचन संस्थान के रोग तथा विविध प्रकार की बातिक वेटनाओ का गामक है। मात्रा एवं अनुपान ऊपर वाले योग के सदृश है। गुग्गुलु बटी-शुद्ध गुग्गुल, नीम के गिरी को मज्जा, घी में भुनी होग, सोठ तथा लहसुन सम भाग में लेकर पूर्वोक्त राति में कूटकर वटी बनाना चाहिये । एरण्ड पाक-मुपक्व एरण्डबीज को उमके ऊपर का टिल्का निकाल कर मज्जा को ६४ तोले लेकर मेर ६ छटाक २ तोले गाय के दूध में अग्नि पर चढाकर पाक करे । फिर उसी में घृत ३२ तोले और खाण्ड १२८ तोले मिलावे । पाक करता रहे जब गाढ़ा होने लगे तो उसमें निम्न द्रव्यो का चूर्ण एक-एक तोले को मात्रा में मिलाकर पकावे-त्रिक्टु, चतुर्जात, ग्रंथिपर्ण, चित्रक, चव्य, माफ, सोया, विश्व, जीरा नफेद और स्याह, हल्दी, दाम्हल्दी, अश्वगंधा, बला, पाठा, कान्वेर, मरिच, पुष्कर मृत, गोसर, आरग्बध, देवदार, खीरे का बीज, क्वडी का बीज, गनावरी। पुराने मामवात, कटिगल, गृध्रसी, थानाह, कस्तभ यादि-मे लाभप्रद । माना २ तोला । गाय के दूध के माय । अमृत मल्लातक-अच्छे पके और पष्ट भिलावे - को एक दिन गोमूत्र में और तीन दिन गाय के दूध में भिगो कर रखे। फिर कपड्छन किये हुए हट के Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : पचीसवाँ अध्याय ४७३ चूर्ण में ममल कर जल से धोकर सुगा लें । इस प्रकार शुद्ध किये भिलावे को गाने के काम में लावे । २५६ तीले भल्लातक के फलो को सरोते से काट कर दो करके १०२४ तोले जल में पकावे । जब ववाथ चतुर्थांश बाकी रहे तो कपडे से छान कर उसमे २५६ तोले गाय का दूध ६४, तोले गाय का घी मिलाकर मंदी आच पर पडावे । पीछे नीचे उतार कर उसमे मिश्री कपडछान चूर्ण ६४ तोले मिलाकर मनी से मथ कर काच के वरतन मे भर कर रख ले ! देकर ऊपर से गाय का धारोष्ण दूध या t मात्रा - सवेरे शाम १-२ तोले गर्म करके ठंडा दूध पीने के लिये दे । उपयोग-तब प्रकार के कफ और वात के पुराने रोग मे विशेषत कुष्ठ रोग, अर्श, पक्षाघात और कमर के दर्द में इसका उपयोग करे । यह योग अच्छा पौष्टिक और वीर्यवर्धक एवं वाजीकरण है । इसके सेवन करने वालो को गर्म जल से स्नान, धूप में बैठना, अग्नि के पास बैठना निषिद्ध है । इसके सेवन - काल शरीर में खाज उठे तो सेवन बंद करा देना चाहिये । ओर नारियल का तेल तथा कपूर शरीर में लगाना चाहिये । नारसिंह चूर्ण - शतावरी ६४ तोले, गोखरू ६४ तोले, वाराहीकद ८० तोले, गिलोय १०० तोले, शुद्ध भिलावे १२८ तोले, चित्रक के मूल की छाल ४० तोले, धोई हुई तिल ६४ तोले, दालचीनी, इलायची और तेजपात प्रत्येक ११-११ तो, मिश्री २८० तोले, विदारीकद ६४ तोले । सब का महीन चूर्ण बनाकर एकन करके शीशी में भर लेवें । f सात्रा तथा अनुपान - ३ माशे से ६ माशे । शहद १॥ तोले के साथ· मिलाकर । सबेरे-शाम दे । पिला दे । I * पंचामृत लौह गुग्गुलु — शुद्ध पारद, शुद्ध गधक, रौप्य भस्म, अभ्रक भस्म और सुवर्णमाक्षिक भस्म प्रत्येक ४-४ तोले, लौह भस्म ८ तोले और साफ किया शुद्ध गुग्गुलु २८ तोले । प्रथम पारद और गधक की कज्जली करे । पीछे लोहे की खरल मे लोहे की मूसली से थोडे कडवे, तेल का छोटा देकर कूटे । जब नर्म हो जावे तव उसमे कज्जली तथा अन्य भस्मे मिलाकर छै घटा तक गुग्गुलु मर्दन करके ४-४ रत्ती की गोलियां बना ले । मात्रा एवं अनुपान - १-१ गोली सवेरे गाम दूध से । अथवा चोपचीनी, असगंध, एरण्डमूल उशवा, सोठ और कडवे सुरजान के समभाग मे लेकर बनाये...... काढे से | I गाय का घी १ तो० और ऊपर से गाय का दूध Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ सिषम-सिद्धि इसके सेवन से अववाहुक, गृध्रसी, कमर और घुटने के दर्द मे तथा अन्य प्रकार के वातिक वेदना मे लाभ पहुंचता है। इसका उपयोग रकदुष्टि तथा कुष्ठ रोग मे भी हितकर होता है। वातगजाश-रससिन्दूर, लौह भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, शुद्ध गंधक, शुद्ध हरताल, हरीतकी, काकडासींगी, शुद्ध वत्सनाम विप, सोठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, बरणी मूल की छाल और शुद्ध सुहागा प्रत्येक १ तोला । सव को एकत्र महीन पीस कर गोरखमुण्डो के क्वाथ या स्वरस की एक भावना फिर निर्गुण्डीपत्र स्वरस या कपाय की एक भावना देकर २-२ रत्ती भर को बटिकार्य बना ले। यह वातगजाश रस है। इस रस की १-२ वटी दिन में दो या तीन वार मजीठ के क्वाथ एव पिप्पली चूर्ण के साथ देने से बहुविध वात रोगो में लाभप्रद रहता है। गध्रसी, अववाहुक तथा पक्षाघात मे लाभप्रद । बृहत् वातगजाङ्कुश नाम से भी एक पृथक् योग का पाठ मिलता है जिसमें सुवर्ण भस्म भी पड़ा हुआ है। वृहद्वातचिन्तामणि रस-स्वर्ण भस्म १ भाग, रौप्य भस्म २ भाग, अभ्रक भस्म २ भाग, मोती की पिष्टि ३ भाग, प्रवाल पिष्टि ३ भाग, काकोलो का चूर्ण १ भाग, सम्बर १ भाग, चंद्रोदय ७ भाग ले। प्रथम चंद्रोदय को महीन पीस कर उसमें काकोली का चूर्ण, अम्बर डाल कर उसे कुमारी के स्वरस में भावित करे । जब वे अच्छी तरह से मिल जाये तव अन्य भस्में मिलाकर पुनः घृतकुमारी के रस में मर्दन करके १-१ रत्ती की गोलियां बना ले और छाया मे सुखाकर शीगी में भर कर रख ले। मात्रा-१ गोली दिन में दो या तोन वार । गुण और उपयोग~यह रस हृदय एव मस्तिष्क के लिये परम बलकारक, बात और कफ का नाशक तथा वाजीकरण है। सब प्रकार के वात रोगों में मस्तिष्क तथा नाडी संस्थान के रोगो में इसका प्रयोग करे। आक्षेपक और अपतत्रक में मास्यादि क्वाथ के साथ दे। सन्निपात ज्वर में प्रलाप, मोह, नाडी की क्षीणता, हाथ-पांव का कांपना, पसीना अधिक होकर शरीर का ठंडा पडना आदि लक्षण हो तो इसके प्रयोग से लाभ होता है। इसमे अनुपान में अदरक का रस १० बूंद नौर मधु २० व्द देना चाहिये। रसराज-रससिन्दूर ४ तोला, अभ्रक भस्म १ तोला, सुवर्ण भस्म, मोती फी पिष्टि, प्रवाल भस्म आधा-आधा तोला, लौह भस्म, रौप्य भस्म, वंग भस्म, अमगध, लोग, जायपत्री, जायफल और काकोली प्रत्येक चौथाई-चौयाई तोला ले। प्रथम रससिन्दूर को महीन पीस कर उममे अन्य भस्में तथा बनौधियो का Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : पचीसवाँ अध्याय कपडद्यान चूर्ण मिलाकर एक दिन घृतकुमारी के रस मे दूसरे दिन काकमाची के रस में मर्दन करके २-२ रत्ती की गोलियां बना ले। मात्रा-अनुपान-१-१ गोली सुवह-शाम दूध मोर मिश्री के साथ । इससे पक्षाघात, अदित, भाक्षेप, कान में आवाज माना, चक्कर आना तथा उच्च रक्त निपीडजन्य उपद्रव शान्त होते हैं। वातकुलान्तक रस तथा कृष्ण चतुर्मुख रस-का उल्लेख अन्य अधिकारो में हो चुका है। इनका उपयोग भी वात रोगो में लाभप्रद होता है। योगेन्द्र रस-रससिन्दूर २ तोला, स्वर्ण भस्म, कान्त लौह भस्म, अम्रक भस्म, मुक्ता भस्म, वंग भस्म प्रत्येक १-१ तोला । सबको एकत्र महीन खरल करके घृतकुमारो के रस में भावित करके गोला जैसा बनाकर एरण्डपत्र से आवेष्टित करके तीन दिनो तक धान की राशि में दवाकर पाक के लिये रख देना चाहिये । चौधे दिन निकाल कर पुन घृतकुमारी के रस मे भावित करके १-१ रत्ती की गोली बना ले। गुण तथा उपयोग-यह रस योगवाही है-अनुपान भेद से या विविध योगो के साथ संयुक्त होकर सर्व रोगो को दूर करता है । मूर्छा-उन्माद-अपतंत्रक तथा वात रोगो में विशेष हितकर होता है। त्रैलोक्य चिन्तामणि रस आदि कई योग वातरोगाधिकार में पठित ऐसे है जिसमें हीरक भस्म पडा हमा है, जैसे वातनाशन रस, वातकंटक रस तथा त्रैलोक्य चिन्तामणि रस ( रसेन्द्रसार संग्रह के योग )। इसमे त्रैलोक्य चिन्तामणि रस का योग यहाँ उद्धत किया जा रहा है-असाध्य वात रोगो में इसका प्रयोग करके देखना चाहिये-हीरा भस्म, सुवर्ण भस्म, रौप्य भस्म, तीक्ष्ण लौह भस्म प्रत्येक का एक भाग । चारो के बराबर अभ्रक भस्म, अभ्रक के बराबर रस सिन्दूर एकत्र करे। फोलाद या मजबूत पत्थर के बने खरल मे इन द्रव्यो को खरल करके घी कुमारी के रस में भावित करके १ रत्ती के प्रमाण की गोलियां बना ले। सैकडो योगो से भी नष्ट नहीं होने वाली बीमारी को दूर करने के लिये ऋषियो ने इसको बनाया है । ऐसी प्रशंसा ग्रथो मे मिलती है। __ कई वार वात रोगो में प्रायः फिरंग और उपदश के परिणाम स्वरूप होने वाले वात रोगो में सखिया युक्त योगो के देने की आवश्यकता होती है। इसके लिये कई योग बडे उत्तम है-जैसे -मल्ल सिन्दूर, नवग्रह रस, सुवर्ण समीर पन्नग रस आदि । इनके योग तथा निर्माण की विधि नीचे दी जा रही है। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ भिपकम-सिद्धि नवग्रह रस-(नवग्रही शिरोराज भूपण रम)--शुद्ध किया हुआ सखिया विप, शुद्ध हिंगुल, शुद्ध गधक, शुद्ध पारद, शुद्ध खडिया मिट्टी (दुग्ध पापाण), गुद्ध नीला तूतिया, शुद्ध हरताल, शुद्ध मन शिला और शुद्ध खपर। इन सव द्रव्यो को सम प्रमाण मे लेकर वारीक चूर्ण करके करेला और नीम के रस में ६-६ घण्टे तक मर्दन करके, ६.७ कपडमिट्टी किये हुए आतशी शीगी मे भरकर मुख बन्द कर वालुका यंत्र में चढाकर एक दिन तक अग्नि जलाकर पाक करे । फिर स्वाङ्ग-शीतल होने पर निकाल कर प्रयोग करे। मात्रा १ चावल भर मक्खन के साथ दिन में दो बार । समस्त बात रोगो मे लाभप्रद । - , मल्ल सिंदूर-गुद्ध पारद ९ भाग, गुद्ध रसकपूर ९ भाग, शुद्ध गधक ५॥ भाग, शुद्ध सखिया ४॥ भाग । प्रथम पारद-धक को कज्जली करे। पीछे उसमे रम कपूर और मखिया मिलाकर घृतकुमारी के रस में दो दिनो तक मर्दन करे । ७ कपडमिट्टी की हुई शीशी मे भर कर दो दिनो तक वालुका यत्र में पकावे । स्वाग-शीतल होने पर शीशी को तोडकर भीगी के गले मे जमे हुए मल्ल सिन्दूर को निकाल कर तीन दिनो तक खरल मे पीस कर खूब महीन होने पर शीगी में भर कर रख ले। मात्रा आधा से १ रत्ती दो बार सितोपलादि चूर्ण १॥ मागा और शहद के साथ । उपयोग-सव प्रकार के वात एवं कफ के रोग में विशेपत. अदित तथा पक्षाघात मे तथा तमक श्वास रोग मे अच्छा लाभ होता है। विशिष्ट क्रियाक्रम-जैसा कि ऊपर में बतलाया जा चुका है कि बात च्यावि का अध्याय एक बहुत बडा अध्याय है, इसमें अनेक रोगो का समावेश हो जाता है। ऊपर में बताये गये सामान्य योगो का यथारोग, देश, काल, वल, ऋतु, आदि का विचार करते हुए उपयोग करने से सर्वत्र पर्याप्त लाभ होता है । अव सक्षेप में प्रमुख रोगो का पृथक्-पृथक क्रिया-क्रमो का आख्यान किया जा रहा है। कोप्टगत वात-मे क्षारो का प्रयोग उत्तम रहता है। इसके लिये क्षारगज २ मागा तथा हिग्वादि वटी का मिश्रित प्रयोग उत्तम रहता है। हिंग्वादि वटी १ एवं क्षारराज २ मागा एक में मिलाकर । एक छटाँक जल में बनाये चीनी के गर्वत में छोटकर नीबू का रस मिला कर पीना । यदि दोप आमाशय तक ही सीमित हो तो वमन कराना, लंघन और उदर का स्वेदन सर्वत्र लाभप्रद १ रमरमविधू नवाक्षी मापुचतु सुवर्णवलिमल्ली। , कूप्या यह्न विपचेत् पवनकफो हन्ति मल्लसिन्दूर.।। सिद्धभेपजमणिमाला। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : पचीसवाँ अध्याय ४७७ होता है । पधरण योग को ३ माशे की मात्रा मे गर्म जल से पीने के लिये देना उत्तम रहता है | यदि दोष पक्वाशय मे हो तो स्निग्व विरेचन ( एरण्ड तेल ४-५ तोले गर्म दूध में मिलाकर ) देना, शोधन के वस्ति ( Enema Saline or Soap ) देना और घृत मिश्रित सैधव लवण या भास्कर लवण या हिंग्वाष्टक चूर्ण का प्रयोग उत्तम रहता है । इम अवस्था में देने के लिये एक स्नेह लवण का उल्लेख चक्रदत्त ने किया है— जिसमे सेंहुड का दूध, पंच-लवण, वैगन और चतु स्नेह (धत, तैल, वसा, मज्जा ) इन सव को सम मात्रा मे लेकर एक हण्डिका मे रख कर उसका मुख कप मिट्टी से बन्द करके जंगली कडो में अन्तर्धूम जला लेना चाहिये । मात्रा २ माशा । अनुपान उष्णोदक | ' सक्षेप मे उदर का स्वेदन ( Hot water Bag, Terpentine stoup ), आस्थापन वस्ति ( Soap or Salte Enema ), स्निग्ध रेचन ( Casteroil ), उपवास, उष्ण जल तथा वातानुलोमन के लिये क्षार, लवण, हिंगु, त्रिकटु युक्त योगो का उपयोग हितकर होता है । त्वक मांस-रक्त एव सिरागत बात मे - स्नेहन, स्वेदन, वधन, मर्दन, उपनाह, रक्त-मोक्षण तथा दाह कर्म के द्वारा उपचार करे । मास-मेद अस्थि-मज्जागत वात मे - विरेचन, निरूहण, शमन के योग वाह तथा वाभ्यतर स्नेह से उपचार करे । स्नायुसंध्यस्थिगत वात स्नेह, स्वेद, उपनाह आदि करना चाहिये । शुक्रगत वायु मे - शुक्र दोप की चिकित्सा करनी चाहिये । स्त्रोतोगत वात मे— स्नेहन, स्वेदन, उपनाह, मर्दन, आलेप आदि करे । पक्ष - त्रिक और मन्या वात मे - वमन, मर्दन एव नस्य से उपचार करे । वस्तिगत वात में वस्ति का विशोधन करे । अष्टीला तथा प्रत्यष्टीला में - गुल्म और अतविद्रधि की चिकित्सा करनी चाहिये । १ विशेषतस्तु कोष्ठस्थे वाते क्षारं पिवेन्नर आमाशयगते वाते छर्दिताय यथाक्रमम् रूक्ष. स्वेदो लंघनञ्च कर्त्तव्य वह्निदोपनम् । पक्वाशयगते वाते हित स्नेहविरेचनम् ॥ वस्तय शोधनीया या. प्राशाश्च लवणोत्तराः । ( यो र ) Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ भियकर्म-सिद्धि हिंग्यानि चूर्ण या हिंगूनगधादि चूर्ण-होग, वच, काला नमक, मोठ, जीग, हरीतकी, चीते का मूल और कूठ । इन द्रव्यो का कपड़छान चूर्ण । विडङ्गारिष्ट-वायविउङ्ग, पिप्पलीमूल, पाठा, आँवला, खीरे का वीज, कुटज की छाल, इन्द्रजी, राम्ना, भारङ्गी प्रत्येक २० तोले । सोलह गुने जल मे बौलाकर चतुर्थीगावशिष्ट क्वाथ वनावे । इस क्वाथ के ठंडा हो जाने पर उसमें वातली पुष्प १ सेर, त्रिकटु ३२ तोले, विजात ८ तोले, फलिनी, हेम (सुवर्णक्षीरी), तोय (सुगधवाला), लोध्र प्रत्येक का ४-४ तोले डाल कर घृतलिष्ठ भाण्ड में एक माम तक सधान करे । पश्चात् निकाल कर प्रयोग करे। यह योग प्रत्यष्टोला, विद्रधि और भगंदर में लाभप्रद होता है। आध्मान तथा प्रत्याध्मान में-आध्मान की अवस्था मे रोगी का लंघन, हाय का तलवा आग पर गरम करके उससे उदर का सेंकना, फलत्ति ( गुदामार्ग से ( Suppository ) का लगाना, गोधन वस्ति ( Enema. ) तथा दीपन एव पाचन योगो का उपयोग हितकर होता है। प्रत्याव्मान में वमन-लंघन नघा दीपन औपधियो का उपयोग करे । बृहत्पंच मृल का कपाय त्रिवृत् चूर्ण के साथ सेवन कराने । दोनो अवस्थामो लाभप्रद । उदर पर दापटक को पानी में पीसकर या काजी में पीस कर गुनगुना गर्म करके लेप करना भी उत्तम होता है। दानपटक लेप-देवदारु, वच, कूठ, सौंफ (सोया), हिंगु, और सेंधानमक, इसका पीसकर उदर पर गर्म लेप आध्मान की अवस्था में सद्यो लाभप्रद होता है। तूनी तथा प्रतितूनो-पिप्पल्यादि गण की औषधियो का चूर्ण अथवा वृत २ नाले में घृतजित हीग १ माशा तथा यवक्षार १ मागा मिलाकर गर्म पानी से सेवन करना हितकर होता है। पिापल्यादिगण ( मुश्रुत )-पिप्पली वच, चव्य, चीता, अतीस, सोठ, जोरा, पाठा, होग, रेणुका ब्रीज, मुलेठी, सरसो, फुटको, त्रिकटु, इंद्रयव, अज१. प्रत्यष्ठोलाठीलिकयोगुल्मेऽभ्यन्तरविद्रधौ । क्रिया हिंग्वादि चूर्ण च स्यतेऽत्र विगेपत. ।। (यो. र,) २ माध्माने लंघनं पाणितापश्च फलवतय. । दोपन पाचनञ्चैव वस्तिश्चाप्यत्र शोधनः ।। प्रत्याध्मान तु वमनं लंघनं दीपनन्तथा । ३. पिप्पल्यादिरजस्तूनी-प्रतितून्यो. मुखाम्बुना । पिहा स्नेहलवण सवृत चारहिंगु वा ।। - Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ चतुर्थ खण्ड : पचीसवॉ अध्याय मोद, श्रुटि, अजवायन, भारङ्गी और वायविडङ्ग । यह गण कफ रोगो को नष्ट करता है। गृध्रसी-प्रतिषेध-रोगी को पूर्ण विश्राम देना आवश्यक होता है-चलनाफिरना छोडकर लकडी चौकी पर सोना उत्तम रहता है । गृध्रसी मे विबध प्राय पाया जाता है । अस्तु, एरण्ड तेल का विरेचन बीच-बीच मे देते रहना चाहिये। इसके लिये कई योग ग्रंथो मे पाये जाते है-जैसे १. दशमूल के द्रव्य पूयकपृथक्, बला, रास्ना, गुडूची या सोठ का काढा बनाकर उसमे एरण्ड तेल छोटी चम्मच से १-२ चम्मच मिलाकर एक मास तक पिलाना । 'यह गृध्रसी रोग, खञ्ज तथा पंगुत्व मे भी लाभप्रद रहता है। २ बृहत् पचमूल के द्रव्यो को २ तोला लेकर ३२ तोले जल में खोलाकर ८ तोला शेष रहने पर उसमे काली निशोथ का चूर्ण २ मा० घृत : तोला और एरण्ड तैल १ तोला मिला कर सेवन करना। ३. गोमूत्र १ छक, पिप्पली चूर्ण २-४ रत्ती और एरण्ड तेल १ तोला मिलाकर लेना। ४ एरण्ड तैल मे पकाये गये वैगन का सेवन । ५ एरण्ड के बीज की गूदी (गिरी) १ तोला से २ तोला तक लेकर दूध मे पकाकर खीर जैसे बना कर थोडा शुठी का चूण मिलाकर सेवन । ६ एक मास तक प्रतिदिन १ तोले भर एरण्ड तैल को गोमूत्र एक छटाँक मे मिलाकर सेवन ।' रास्नासप्तक कषाय का एरण्ड तेल १ ताले मिश्रित करक नित्य मेवन गृध्रसी में लाभप्रद होता है। अन्य घत तैलादि के प्रयोग-वात रोगाधिकार मे बतलाये तैल-अथवा घत अथवा केवल तिल तेल और घृत को आदी के स्वरस और बिजोरे नोब का रस, चुक्र ( चूक) और पुराने गुडको यथावश्यक मिलाकर सेवन करने से, कटि, ऊरु, पीठ, त्रिक के शूल, स्तंभ, गृध्रसी रोग तथा उदावत रोग मे लाभ होता है। गग्गलु के योग-त्रयोदशाङ्ग गुग्गुलु, योगराज गुग्गुलु अथवा गुग्गुल वटी का १ माशे की मात्रा म दिन में तीन बार गर्म जल से दे। एक योग रास्ना गुग्गुलु का यहाँ दिया जा रहा है-रास्ना १ पल (४ तोले ). शद्ध गग्गल १० तोले। इन दोनो द्रव्यो को थोडा घी मिला कर कूटकर एक करके एक-एक माशा को गोलियाँ बनाये । मात्रा १-३ गोली। उष्णोदक से। १. तैलमेरण्डज वापि गोमूत्रेण पिबेन्नर. । मासमेक प्रयोगोऽय गृध्रस्यूरुगदापहम् ॥ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिषम-सिद्धि तैलाभ्यंग-पंचगुण या विपगर्भ तैल को हलके हाथ से मालिग भी वेदना का गामक होता है। वस्ति-प्रयोग-राध्रसी से पोडित रोगी का प्रथम पाचनादि उपायो से अग्नि को प्रदीप्त करना चाहिये । पश्चात् अग्नि के दोप्त हो जाने पर नारायण तेल, विष्णु तेल या माप तैल का वस्ति ( गुदा मार्ग मे देना) प्रारम करना चाहिये। यदि रोगी को अग्नि दीप्त न हो, अथवा ऊर्चगोधन न हुआ हो तो स्नेह वस्ति का प्रयोग निरर्थक होता है। इस की उपमा राख मे डाली गई घृत की माहुति मे शास्त्रकारों ने दा है। विशुद्ध शरीर के व्यक्ति में प्रयुक्त स्नेह मन्दाग्नि के कारण पचता नहीं अपितु वैसा का वैसा ही मल के साथ निकल जाता है। शेफालिका प्रयोग-निर्गुण्डी की पत्ती का काढा पीने से चिरकालीन गध्रमी रोग में उत्तम लाभ होता है ।' महानिम्ब का कपाय या महानिम्ब के कल्क का लेप गृध्रमी को नष्ट करता है । गृध्रसी में गिरावैध भी लाभप्रद होता है। वातकंटक-रक्तावसेचन करके अशुद्ध रक्त का निर्हरण करना चाहिये । एण्ट तेल का प्रयोग कुछ दिनो तक कराना चाहिए। छोटी मूई को रक्त तप्त करके उससे दाह करना चाहिये। पादहर्ण-(Numbness of the Feet)-अग्नि में प्रदीप्त किये हए इंट के टुकडो को काजी में वुझावुझा कर उसके वाष्प से पैर का स्वेदन करना हितकर होता है। झिन्अिनीवात-(झुनझुनी मालूम होना)- दशमूल के काढे में हीग ( घी म भुनी ) २ र० और पुष्करमूल ४ रत्ती मिलाकर पीने से लाभ होता है । पाददाह-दाहाधिकार में चिकित्सा देखें। खल्ली-( हाय-पैर की टॉम या टटाना)-कूठ-मेंधानमक-चुक्र (चूक) को पानी में पीस कर सर्पप तेल में मिलाकर किचित् गर्म करके लेप करना । १ गेफालिकादलक्वाथो मृग्निपरिसावित । दुर्वारं गध्रसीरोग पीतमा नियच्छति !! २. कुष्टमैन्धवयो कल्करचुक्रतैलमन्वितः । सुखोप्णो मर्दने योज्य: सल्लीशूलनिवारण. ॥ ३ दशमूलस्य निर्यहो हिङ्गपुष्करसंयुतः । गमयेत् परिपोतस्तु वातं झिन्दिनिसंनितम् ।। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : पचीसवाँ अध्याय ४८१ विश्वाची तथा अववाहुक-दशमूल-बला एवं माप का क्वाथ बनाकर तिल और घी मिलाकर पीना तथा इसी का नस्य लेना लाभ करता है। माप ( उडद) और लहसुन से सिद्ध तेल का अभ्यंग वाहु पर करना भी लाभप्रद रहता है।' क्ला के मूल किंवा नीम की पत्ती का स्वरस अथवा केवाच का स्वरस या क्वाथ बनाकर पीने या नस्य लेने से वज्र के समान वाहु हो जाता है । त्रिकशूल, कटिशूल और संधिवात में-गृध्रसी के समान सम्पूर्ण उपचार करना चाहिये । स्वेदन के लिए बालुका को पोटली मे बांधकर गरम करके अथवा करीपाग्नि ( कण्डेको आग बनाकर ) उससे सेंकना चाहिये । सर्वत्र कैशोर गुग्गुलु १ माशा और गोक्षुरादि गुग्गुलु १ माशा मिलाकर गर्म जल से दिन में दो बार देना रात्रि में सोते वक्त वैश्वानर चूर्ण ६ माशा देना और पंचगण तेल की मालिश कराना लाभप्रद रहता है। इन रोगो में कोष्ठशुद्धि का विशेष ध्यान रखना चाहिये । इस के लिए बीच-बीच मे आस्थापन वस्ति देकर कोष्ठ शुद्ध कर लेना चाहिये। इसके अतिरिक्त त्रिफला और गुडूची का कषाय अनुपान रूप मे देकर अथवा दूध मे १ छटांक एरण्ड तैल देकर सप्ताह मे एक बार रेचन करा देना चाहिये । दूध के साथ वृद्धदारुक वीज का सेवन भी लाभप्रद रहता है। पक्षाघात-प्रतिषेध-अगघात या अगवध चार प्रकार का हो सकता है। जैसे १ एकाङ्गघात ( Monoplagia.), पक्षवध या अर्धाङ्गघात (Hemiplegia) ३ सर्वाङ्गघात ( Diplagia ) ४ अधराङ्गघात ( Paraplagia ) इसमे खञ्जत्व और पद्भुत्व दो आता है। इन चारो प्रकारो में चिकित्सा प्रायः एक सदृश ही होती है । १. मापतैलरसोनाम्या बाह्वोश्च परिवर्तनात् । दशाध्रिमापक्वाथेन जयेद् वैद्योऽववाहुकम् ।। दशमूलीवलामाषक्वाथं तैलाज्यमिश्रितम् । साय भुक्त्वा चरेन्नस्यं विश्वाच्या चावबाहुके ॥ ( भै र ) २ गुग्गुलु क्रोष्टुशीर्पञ्च गुडूचीत्रिफलाम्भसा। क्षीरेणैरण्डतलं वा पिवेद्वा वृद्धदारुकम् ॥ ३ हत्वैकं मारुतः पक्ष दक्षिण वाममेव वा। कुर्याच्चेष्टानिवृत्तिं हि रुजं पाकस्तम्भमेव च ॥ गृहीत्वाचं शरीरस्य सिरास्नायू विशोज्य च । पादं संकोचयत्येकं हस्त वा तोदशूलकृत् ॥ एकाङ्गरोग त विद्यात् सर्वाङ्गं सर्वदेहजम् ॥ ३१ भि० सि० Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिपक्षम-सिद्धि अंगघात की अवस्थायें कठिनाई से साध्य होती है। ये रोग दीर्घ काल तक चलते रहते हैं। आचार्य चरक ने लिखा है “संधिच्युति (मधि का वार-बार च्युत होना ), हनुस्तंभ ( Lock jaw), अंगमकोच, कुब्जता, मदित ( Facial paralyeis), पक्षाघात, अगगोप, पंगुत्व, गुल्फ-सधि का वात ( आमवात की एक अवस्थाविप ), स्तंभ, आव्यवात, मज्जा एवं अस्थि के रोग ये रोग बढ़ी गहराई के चातुवो के विकार से पैदा होते है इनकी बडे प्रयत्नपूर्वक चिकित्सा की जाय तो सफलता मिलती और नही मी मिलती है। रोगी यदि वलवान मोर रोग नया या निरुपद्रव हो तव तो सम्यक् उपचार से लाभ की आगा रहती है अन्यथा सफलता की आगा कम रहती है।" __इन कठिन रोगो की चिकित्सा की दुलहता और चिकित्सा की अल्प प्रति किया की दृष्टि से ही यह उक्ति वात रोगो में चलती है कि-'ये वातव्याधियाँ असाध्य है देव-कृपा से अच्छी हो जाती है, इन का वैद्यक (चिकित्सा ) अनुमान से की जाती है और प्रतिज्ञा करके नहीं' रोग के अच्छा होने की गारंटी पहले से ही नहीं दी जा सकती है। पक्षवध में क्रियाक्रम (Upper Motor Neurone ty peof Paralysis)-पक्षाघात के रोगी में तीक्ष्ण विरेचन तथा वस्ति क्रिया द्वारा शोधन कराने से रोग गान्त होता है। पक्षाघात के रोगियों में पौष्टिक आहार देना चाहिये । इस के लिये-वला की जट का क्वाथ या बृहत् पंचमूल या दगमूल के द्रव्यो के क्वाथ के साथ बकरे का सिर ( Brain), जलीय प्राणियो ( मत्स्यादि ) के मास अथवा आनूपदेश के प्राणियो के मास अथवा मासभक्षक प्राणियो के मास पकाकर उस को छान कर रस निकाल कर देना चाहिये। इस मांसरस को घृत से छोक कर दही, काजी और निकटु चूर्ण ( मोठ, मिर्च, पिप्पली ) तथा नमक मिलाकर स्वादिष्ट १. सन्धिच्युतिहनुस्तम्भः कुञ्चन कुजतादित. । पक्षाघातोऽङ्गसंशोप पद्भुत्व खुटवातता । स्तम्भनं चाट्यवातश्च रोगा मज्जास्थिगाश्च ये । एते स्थानस्य गाम्भीर्याद् यत्लासिद्ध्यन्ति वा न वा । नवान् वलवतस्त्वंतान साधयेन्निरूपवान् ॥ (च. चि. २८) २. वातरोगस्त्वसाध्योज्यं दैवयोगेन सिद्धयति । __ मनुमानेन कुर्वन्ति वैधक न प्रतिज्ञया ।। (यो. र ) ३. पक्षाघातसमानान्तं सुतीक्ष्णश्च विरेचतः । शोधयेद्वस्तिभिश्चापि व्याधिरेबं प्रशाम्यति ।। ( भा. प्र.) Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ चतुर्थ खण्ड पचीसवाँ अध्याय ४८३ करके खाने के लिये देना चाहिये। इस मासरस के साथ ही उसको गेहूँ की रोटी, उडद की दाल आदि पथ्य देना चाहिये । लहसुन का प्रयोग भी रोगी को पर्याप्त मात्रा मे कराना चाहिये । लहसून की चटनी बनाकर भोजन के साथ देना या लहसुन को मसाले के रूप मे देना अथवा लहसन को तेल में पकाकर उस तेल और लहसुन को दाल मे छोड कर खाने के लिये देना चाहिये। ऊपर रसोन पिण्ड नामक योग का आख्यान हो चुका है। उम रसोन पिण्ड का प्रयोग प्रचुरता से किया जा सकता है। सामान्यतया सभी वात रोगो मे तेल के साथ लहसुन का प्रयोग करने को शास्त्र में बतलाया गया है, परन्तु पक्षवध, अदित आदि महारोगो मे तो बडा ही उत्तम लाभ दिखलाता है। लहसुन के वाद दूसरा स्थान प्याज का वात रोगो मे आता है। इसका भी प्रचुर प्रयोग करना चाहिये। लहसून यदि एक गाँठ वाला मिले तो अधिक उत्तम रहता है। इस का उच्च रक्तनिपीड ( Hyper tension) पर अच्छा प्रभाव दिखलाई पडता है। इस प्रकार लहसुन वात रोगो में एक महौषधि के रूप में प्रख्यात है। माषवलादि पाचन--उडद, वला की जड़, शुद्ध केवाच के बीज, रोहिप घास, रासन, असगध, एरण्ड की छाल । इन्हे सम प्रमाण में लेकर २ तोले को, ३२ तोले जल मे खौलाकर जब ८ तोला शेष रहे तब उतार कर छान ले । उसमे १ रत्ती भर घृत मे भुनी होग का चूर्ण तथा १ माशा भर पिसा हमा सेधानमक मिलाकर मन्दोष्ण नासिका द्वारा सात दिनो तक पीने से पक्षाघात, मन्यास्तभ, कान की पीडा और कर्णनाद तथा दुर्जय अदितवात अवश्य ही नष्ट हो जाता है। यदि नाक से रोगी न पी सकता हो तो इस क्वाथ का थोडा नाक से नस्य देना और शेष मुख से पीने को देना चाहिये । १ रसोनानन्तर वायो 'पलाण्डु परमौषधम् । साक्षादिव स्थितं यत्र शकाधिपतिजीवितम् ॥ (अ. सं ) . नान्यानि मान्यानि रसौषधानि परन्तु कान्ते ! न रसोनकल्कात् । तैलेन युक्तो ह्यपर प्रयोगो महासमीरे विपमज्वरे च ॥ (वै. जी.) २ मापवलाशूकशिम्बीकत्तृणरास्नाश्वगंधोरुबूकाणाम् ।। क्वाथो नस्यनिपीतो रामठलवणान्वित कोष्ण. ॥ अपहरति पक्षघात मन्यास्तम्भ सकर्णनादरुजम् । दुर्जयमदितवातं सप्ताहाज्जयति चावश्यम् ॥ ( वृन्द) Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिषम-सिद्धि सहारास्नादि कपाय-का पीना तथा नस्य लेना भी उत्तम होता है। . महामंजिष्टादि कपाथ-(वातरक्ताधिकार योगरत्नाकर ) जिसका योग मागे वातरक्ताधिकार में उद्धृत किया जा रहा है उसका प्रयोग भी पक्ष वध की अवस्था में उत्तम पाया गया है। अस्तु, महारास्नादि अथवा महामंजिष्टादि कपायो में से किसी एक का प्रयोग प्रात काल मे एक मात्रा अवश्य करना चाहिये। सामान्यतया पक्षवध में-अधो लिखित प्रकार से व्यवस्था करना उत्तम रहता है। रसराज २-२ रत्ती, प्रात.-साय दूध और मिश्री से लेकर लपर से महारानादि या महामजिष्ठादि कपाय प्रात एक मात्रा दे। सायकाल में मापवलादि कषाय या केवल एरण्डमूल के कपाय के साथ दे। भोजन के बाद दोनो वक्त रसोन पिण्ड के अभाव में लसुनादि वटी एक-दो गोली दे । जिह्वास्तंभ-अर्धाङ्ग-यात मे-जिह्वा और गले की पेशियो के घात के कारण रोगी के बोलने में कठिनाई होती है। उनमें जिह्वास्तंभ, मूकता, स्वरावनाट प्रभृति लक्षण पाये जाते है-इस अवस्था मे कल्याण चूर्ण या कल्याणावलेह का प्रयोग करना चाहिये । प्रयोग-विधि यह है-कल्याण चूर्ण १-२ माशा लेकर उसको छागलाध घृत में मिलाकर जीभ के ऊपर उंगली के सहारे हल्के हाथोसे रगडना चाहिये। कुछ वैद्य-परम्परावो मे सिद्धार्थ तेल का उपयोग भी इस कार्य मे होता है। कल्याण चूर्ण या कल्याणावलेह-हल्दी, बच, कूठ, पिप्पली, शुण्ठी, अजवायन, जीरा, और मधुयष्टी का सम भाग में बनाया चूर्ण ।' रसराज के स्थान पर वृहद्वातचिन्तामणि रस, वातकुलान्तक रम, योगेन्द्र रस, कृष्ण चतुर्मुख रस, वातविध्वंसन रस अथवा हीरक भस्म युक्त योग जसे वातनागन रस या त्रैलोक्य चिन्तामणि रस में से किसी एक का प्रयोग भी किया जाता है। रक्तनिपीड के व्यक्ति-क्रम से उत्पन्न अंगघातो में इन से उत्तम लाभ होता है। यदि पक्षवध के रोगी में फिरंग रोग का वत्त मिले अथवा रक्त परीक्षा से फिरंग दोप की उपस्थिति मिले (कानकसोटी अस्त्यात्मक हो) तो सखिया तथा १. तच्चूर्ण सपिपाऽलोड्य प्रत्यहं भक्षयेन्नर. । एकविंगतिरात्रेण नरः ध्रुतिवरो भवेत् ।। मेघदुन्दुभिनिघॉपो मत्तकोकिलनि स्वन. । जगद्गदमूकत्वं लेह. कल्याणको जयेत् ।। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड: पचीसवाँ अध्याय हरताल योग अधिक उपयुक्त होते हैं ऐसी अवस्था में मल्लसिन्दूर, सुवर्ण समीर पन्नग, वातगजारा तथा नवग्रह रस में से किसी एक का प्रयोग करना चाहिये । अनुपान रूप में निर्गुण्डीपत्र स्वरस, मक्खन, मलाई या घी और मिश्री को देना उत्तम रहता है । शेष विधान उसी प्रकार रखना होता है। । । पक्षवध के रोगियो मे विबंध प्रायः पाया जाता है-एतदर्थ नित्य कोष्ठशुद्धि होती रहे इस बात का ध्यान रखना चाहिये । नित्य थोडी मात्रा में एरण्ड तेल, त्रिफला या पधरण चूर्ण, वैश्वानर चूर्ण ६ माशे रात में सोते वक्त गर्म जल से देना चाहिये। गुग्गुलु के योगो मे रसायन योगराज गुग्गुलु या त्रयोदशाङ्ग गुग्गुलु का उपयोग उत्तम रहता है। घी के साथ इन गुग्गुलु योगो को खाकर ऊपर से गर्म जल या दूध का सेवन उत्तम होता है। चूर्णों मे प्रधान औषधि के रूप मे नारसिंह चूर्ण का उपयोग श्रेष्ठ रहता है। इसमें तिल और भल्लातक पड़ा हुआ है। कई रोगियो मे भल्लातक का उत्तम फल वात रोगो में विशेपत पक्षधात मे दिसलाई पडता है। भत्लातक के योगो मे अमृत भल्लातक नामक पाक भी इसी उद्देश्य से व्यवहृत होता है और उत्तम फल वात रोगो मे दिखलाता है। अभ्यंग-वात रोगाधिकार मे विविध बृहण तैलो का अभ्यंग पक्षवध के रोगियो में कराना चाहिये । विष्णु तैल, नारायण तैल, माष तैल अथवा महामाप तेल का अभ्यग पूरे शरीर में विशेप करके विकृत माधे मग पर करना चाहिये। अभ्यग के अनन्तर उन तैलो को नाक के छिद्रो से ३-४ वूद का छोडना, कान मे डालना भी उत्तम होता है । महाराज प्रसारणी तैल बडा मूल्यवान होता है। इसलिये इसका अल्प मात्रा मे सीमित एव अधिक विकृत स्थान पर मालिश करना चाहिये। हाथ की हथेली को आग पर गर्म करके उस पर थोड़ा सा लेकर धीरेधीरे मलकर त्वचा मे सुखाना चाहिये । शेष अग पर किसी अन्य तेल की मालिश करनी चाहिये। ___ यदि रोगी नितान्त अर्थहीन हो तो उसके लिये लहसुन से पकाकर तेल बना लेना चाहिये । लहसुन १, सरसो के तेल १ सेर, पानी २ सेर । अग्नि पर चढाकर पाक कर लें। इस तेल मे कपूर मिलाकर मालिश करनी चाहिये । अथवा केवल शुद्ध सरसो के तेल मे कपूर मिलाकर अभ्यग करना चाहिये। अभ्यग क्रिया से निष्क्रिय व्यायाम होता रहता है और पेशियो का अपचय ( Degeneration ) नही होने पाता है । अस्तु, अभ्यग वात रोगो मे आवश्यक और उपयोगी उपक्रम के रूप में माना जाता है। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___.. सिरकम-सा सिक्षम-सिद्धि वस्ति का वर्णन कपर में हो चुका है। वस्ति देने के दो उद्देश्य होते हैकोष्ठ की शुद्धि तथा वस्ति के वीर्य तेल मादि का गोपण कराना । कोष्टशुद्धि पीष्टि से तो साधारण 'साबुन के पानी' या 'नमक के जल' की वस्ति देना पर्याह होता है, परन्तु जहाँ पर विशेष गुणाधान के विचार से प्रयोग करना हो वहाँ पर उपर्युक्त वस्ति का उपयोग करना चाहिये । इस अवस्था में (पक्षवध में) निगेप लाभ होता है। स्वेदन गाल्वण गेग से विकृत शरीराध का उपनाह, लेप, प्रदेह आदि भी उत्तम रहता है। अर्दित-यह कई वार स्वतंत्र और माम तौर से अर्धाङ्गघात के साथ-साथ पाया जाता है। अर्धाङ्गघात के साथ होने पर उपर्युक्त उपचार से दोनो अवस्थामो मे लाभ पहुंचता है। तथापि अदित रोग मे शास्त्र में कुछ विशिष्ट क्रियाक्रमो का उल्लेख पाया जाता है । इन क्रियायो को स्वतंत्र रूप में पाये जाने वाले मदित रोग में वरतना चाहिये । मर्दित में नस्य कर्म (नावन), सिर पर तलो का सम्यग या शिरोवस्ति, तर्पण (वहण आहार), नाड़ी स्वेद, मानूप मांसी से उपनाह, स्निग्ध स्वेद आदि उपचार करना चाहिये। आगे उतलाये जाने वाले धनुर्वात या अपतानक में भी इन क्रियाक्रमो को करना हितकर होता है।' भपज-१ रसोन कारक पत्थर पर पिसे हुए ६ मागे लहसुन के कल्क १ तोला सक्खन के साथ मिलाकर खाने से अदित रोग नष्ट होता है । २. अदित रोग में मक्खन के साथ उड़द का बडे खाकर तदनन्तर दुग्ध या भानरस के साथ भोजन करना उत्तम रहता है। अपराल में दशमूल का क्वाथ भी लाभप्रद रहता है। ३ इसके अतिरिक्त वात रोग के अन्य उपक्रमो को यथापूर्व रखना चाहिये । स्वेद, अभ्यंग, शिरोवस्ति, स्नेहपान, नस्य (वातघ्न तेल या घृतो से) तथा भोजन के पश्चात् घृत का पीना लाभप्रद रहता है। १. स्वेदाभ्यग-गिरोवस्तिपाननस्यपरायणः । दितं च जयेत् सपि. पिवेदोत्तरभक्तिकम् ।। अदिते नवनीतेन खादेद् मापेण्डरी नरः । वीरमासरसभुक्त्वा दशमूलीरसं पिवेत् ।। (भै र ) २. उपाचरदभिनव खन पगुमथापि वा । विरेकाम्थापनस्वेदगुग्गुलुस्नेह-बस्तिभि. ॥ क्रम पलायावजस्य खजपझ्वोरिव स्मृतः । विगेपास्नेहनं कार्य कर्म ह्या विचक्षणः ।। (भा.प्र.) Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खराड : पचीसवाँ अध्याय सन्ना तथा ग्रीवा संभ ( Spasm of Sternocleido mastold ) - अभ्यंग, स्वेद, नस्य, पंचमूल अथवा दशमूल का क्वाथै पिलाना पाहिये । वरागंध, गोमूत्र और कढवे तैल का लेप ग्रीवा और मन्या मे करने से लान होता है । नस्य में 'अमोनियम कार्य' का सुंघाना या कट्फल चूर्ण का नस्य देना भी बच्चा लाभ करता है । कलाय सज १ वन तथा पङ्गव ( Paralysis of Spinalorigin ) --इस नवन्या में भी चिकित्सा पक्ष वध के सहश ही करनी पडती है । कलायखंज, वन तथा पशुत्व में समान उपचार की ही व्यवस्था करनी पडती है ? कलाय राज में विशेषत. स्नेहन एवं धातुओ के वर्धन का उपचार करना चाहिये । चाय की दाल खाने का वृत्त, रूक्ष अन्न सेवन का वृत्त, हीन पोषण का वृत्त इन रोगो में प्राय पाया जाता है । एतदर्थ उपचार काल मे सर्वप्रथम इन उत्पादक कारणों का वर्जन करना चाहिये । रोगी के लिये भोजन से अधिकतर उद को दाल का सेवन करने को बतलाना चाहिये । घृत, वसा, मज्जा, तैल, दूध, मानरस, जीवतिक्ति युक्त आहारो की व्यवस्था रोगी के लिये करनी चाहिये । M ४८७ नये खज्ञ रोग तथा पङ्गुत्व का उपचार करने से लाभ भी शीघ्रता से होता है । पुराने रोगों में चिकित्सा का प्रभाव कम दिखलाई पडता है । उपचार में विरेचन ( नित्यकोष्ठ शुद्धि ), स्थापन वस्ति, स्निग्ध वस्ति, विविध प्रकार के बृंहण तैलो का विशेष करें माप तेल का अभ्यंग, स्वेद, लहसुन और तेल का उपयोग तथा गुग्गुलु के उपयोग से लाभ होता है । गुग्गुलु के योगो में त्रयोदशाङ्ग गुग्गुलु, रसायन योगराज गुग्गुलु अथवा गुग्गुलु वटी के प्रयोग, एरण्डमूल के कषाय, उष्ण क्षोर या उष्ण जल के साथ उत्तम रहता है । इन रोगो ( अँधेराङ्गघात, खञ्ज एवं पंगु ) में शुद्ध कुपीलु का उपयोग उत्तम रहता है । शुद्ध कुपीलु २ रत्ती से ४ रत्ती तक घृत और चीनी के साथ अथवा किसी गुग्गुलु के योग के साथ मिलाकर दिया जा सकता है । निम्नलिखित योग वडा लाभप्रद पाया गया है खञ्जनकारि रस -- शुद्ध कुचले का कपडछन चूर्ण, मल्ल सिन्दूर, रौप्य १. अर्दित नावन मूनि तैल तर्पणमेव च । नाडीस्वेदोपनाहाश्चाप्यानूपपिशितैर्हिता । स्वेदनं स्नेहसंयुक्तम् ॥ (च.चि. २८ ) Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपर्म-सिद्धि भस्म समभाग में ले, पहले मल्ल सिन्दूर का खरल में वारीक पीरा ले, पीछे उसमें अन्य द्रव मिलाकर, अर्जुन बृक्ष की छाल की ७ भावनायें देकर १ रत्ती की गोली बना ले। मात्रा १-२ गोली दिन में दो बार दूध या दगमूल कपाय के साथ । मदित, खंजवात, पङ्गत्व तथा पुराने पक्षाघात में इससे अच्छा लाभ होता है। (मि. यो. स ) मकर मुष्टि योग--मकरध्वज, स्वर्ण सिन्दूर या रस सिन्दूर मे से किसी एक फा १ रत्ती, कान्त लौह भस्म १ रत्ती तथा शुद्ध कुपीलु १ रत्ती मिलाकर एक या दो मात्रा कर के । मलाई, मक्खन या घृत और चीनी से देने भी अच्छा लाभ पहुंचता है। आक्षेपक - अपतानक-अन्तरायाम-बहिरायाम-दण्डापतानक-हनग्रह-हतस्तंभ-वातरोगाध्याय में पठित ये रोग बडे भयंकर एवं घातक होते है । माधुनिक ग्रंथो मे पठित धनुर्वात ( Tetanus ) की विविध अवस्थामो में पाये जाते है । धनुर्वात का रोग यदि गर्भपात के अनन्तर हुमा हो या अति मात्रा में रोगो मे रक्तमय हो गया हो अथवा अभिघातज (Traumatic origin) का हो नो असाध्य हो जाता है। गेप साध्य होते है। ऐसा प्राचीन ग्रथकारो का अभिमत है। धनुर्वात के रोगी की मुखाकृति वदल जाय अर्थात् वह विवर्ण या बिकटास्य युक्त हो जावे, अग मिथिल हो जावे और स्वेद अधिक मात्रा में निकलने लगे तो वह एक दारुण रोग है । देवकृपा से अच्छा होता है । यदि रोगी की बायु शेप रहे योर निम्नलिखित बरिष्ट लक्षण उपस्थित न हो तो उपचार करे---१. नेत्रों से जलवाव, २ कम्प ३. चारपाई पढ़ लेना ४, तारो (Pupil) का विस्तृत होना । जब तक कि अपतानक के रोगी में ये लक्षण न पैदा हो गये हो उपचार करे। ____ मरिष्ट लक्षण बोर उपद्रवो से युक्त रोगी, प्रायः असाध्य होते है । अस्तु, उपर्युक्त चिह्नो के मिलने के पूर्व ही गीघ्रता से उपचार प्रारभ करे। १ गर्भपात-निमित्तश्च गोणितातिसवाच्च यः । अभिघातनिमित्तश्च न सिद्धयत्यपतानकः ।। विवर्णबद्ध वदन नस्ताङ्गो नष्टचेतन । प्रस्विद्यश्च धनु स्तम्भी दशरात्रं न जीवति ॥ ( यो. र.) अथापतानकेनातमन्न ताममवेपनम् । लखवापातिनं चैव त्वरया ममुपाचरेत् ।। ( भा. प्र.) Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : पचीसवॉ,अध्याय ४८९ उपचार-इन रोगो में अस्ति राहश उपचार करना चाहिये । पीने के लिये अमांशावशिष्ट जल ( जल को एक मिट्टो के नये वर्तन में सौलाकर जव उसका आदर्श भाग गोप रहे ) देना चाहिये । दशमूल फा कपाय पिप्पली चूर्ण अथवा अश्वत्य की छाल का कपाय अधिक मात्रा में पिलाना चाहिये । वात रोगो मे पठित वातघ्न तैलो का सम्यग या तल को द्रोणी मे भरकर अवगाहन कराना नाहिय । स का दूध मिश्री मिलाकर पर्याप्त मात्रा में रोगी को देना चाहिये। रोगी को स्नेहन, नारायण तैलादि को पिलाकर, मालिश करके करना चाहिये । स्पेदन की प्रचुर व्यवस्था करनी चाहिये। इसके लिये भैस के गोबर के बने गोहरे की अग्नि बना कर उससे धूपन एव स्वेदन करना चाहिये। यदि व्रण रोगी को गरीर पर उपस्थित हो तो व्रण का शोधन-रोपण प्रभृति उपचार करना चाहिये । स्वेदन के लिये अन्य प्रकार के वातनाशक स्वेदनो का जैसे शाल्वण स्वेद का भी उपयोग किया जा सकता है। धनुर्वात के रोगी मे प्रथम लक्षण हनुस्तभ पैदा हो जाता है, जिसके कारण मनसे मोपधि का सेवन भी कठिन होता है। प्रयत्नपूर्वक वृहत् वातचिन्तामणि रस अथवा वातकुलान्तक या कस्तूरी भैरव रस का प्रयोग अदरक, तुलसी के रस, घी और मरिच के अनुपान से करना चाहिये। सभी उद्भव के आक्षेपो मे पस्तुरी के यौगिको का विशेषकर के वातकुलान्तक रस का उपयोग उत्तम लाभ दिसलाता है। यदि एक, एक गोली की मात्रा से लाभ न दिखाई पडे, तो दो, दो या चार, चार गोली एक साथ दे। वस्ति प्रयोग-दशमूल, वला, रास्ना, अश्वगंध प्रभृति वातनाशक द्रव्यो के नवाथ, वातघ्न तैल, सेंधानमक और मधुमिश्रित योग का गुदा से वस्ति देना लाभप्रद रहता है । अन्य वातनाशक योगो का प्रयोग किया जा सकता है। आवृतं वात प्रतिपेध-वायु अपने कारणो से स्वतत्र या विकृत होकर रोग उत्पन्न करता है और कभी कभी वृद्ध कफ और पित्त आदि से आवृत होकर भी विकारो को उत्पन्न करता है। आचार्य चरक ने कहा है कि "वायु का धातुक्षय के कारण कुपित होना तथा मार्ग के आवरण से कुपित होना पाया जाता है।" इस आवरण के बहुत से भेद हो सकते है। सब मिलाकर १. बाह्यायामेऽन्तरायामे विधेयादितवत् क्रिया । (भा. प्र ) । बाह्मायामान्तरायामपार्श्वशूलकटिग्रहान् ॥ खल्लीदण्डापतानी च स्नेहस्वेदपुटैजयेत् । अपतानव्रणायामी स्नेहणचिकित्सित. ॥ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिपस-सिद्धि ४२ प्रकार के हो सकते हैं। इनमें कुछ महत्त्व के भेदो का उल्लेख किया जा रहा है। पात के पित्त से आवृत होने पर उन उन स्थानो में दाह-उष्णता आदि तथा मूर्छा जैसे सार्वदेहिक लक्षण उत्पन्न होते है । कर्फ से मावत होने पर शीतती, अरुचि, देरस्य तथा मलबद्धता आदि लक्षण पैदा होते है । अपान वायु के पित्तावृत होने पर गुदा, वस्ति, गर्भाशय, योनि तथा मेढ़ मे विकार पैदा होता है । गर्भाशय या वस्ति से रक्त की प्रवृत्ति पित्तावृत अपान का उदाहरण है। समान वायु भोजन का परिपाक कराता है, किन्तु कफ से आवृत हो जाने पर वह उक्त कार्य नहीं कर पाता जिसमे आम दोप की उत्पत्ति होकर विविध वात रोग पैदा होते है। इनके आवरणो के उपचार में सर्वप्रथम आवरण को दूर करना चाहिये फिर आवरण के दूर हो जाने पर विशुद्ध वायु की चिकित्सा करनी चाहिये । जैसे पित्तावृत मे प्रथम शीत क्रिया करके पश्चात् उष्णोपचार करे। अथवा मिश्रित क्रिया-शीत और उष्ण दोनो क्रियामो को करे । जीवनीय घृत, धन्वमास (जागल मासरस ), क्षीरवस्ति, विरेचन, लघु पचमूल-गृत क्षीर । कफावृत म जी, मूग की दाल, जागल पशु-पक्षी का मांसरस, स्वेद, तीक्ष्ण द्रव्यो का प्रयोग, निरूहण, वमन और विरेचन, पुराण घृत, तिल और सर्पप का उपयोग उत्तम है। शोणितावृत बात में वात-शोणितनाशक उपचार करना चाहिये। इसी प्रकार अन्यान्य आवृत वातों की चिकित्सा में प्रथम आवरणं दोप जो प्राय बलवान होता है उसे वमन, विरेचन, वस्ति अथवा शमन क्रियां के द्वारा दूर करके पश्चात् शुद्ध वात रोग को चिकित्सा वातरोगाधिकार में पठित योगो से करनी चाहिये। आवृत वात चिकित्सा-का प्रकरण अधिक शास्त्रीय है, व्यावहारिक पक्ष उसका अधिक महत्व का नहीं है । अस्तु, संक्षेप में इसका वर्णन किया गया है-बृहत् क्रियाक्रम के लिये चरक चिकित्सा स्थान वातरोगाध्याय देखना उत्तम होगा। कम्पवात या वेपथुवात प्रतिपेध कम्पवात या वेपथुवात प्रतिपेध-कम्प के सर्वाङ्गकम्प (सव अगो का कम्पन ) अथवा एकागकम्प (एक अंग का कापना) दो प्रकार पाये जात है। कुछ विचारको के मत से हाथ-पैर या सव मगो के कम्प को कम्पवात और शिर.कम्प को वेपथु वात कहा जाता है। Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : पचीसवॉ अध्याय ४६१ इस मे वात रोग की सामान्य चिकित्सा करते हुए तैलो के अभ्यग, गुग्गुल, चूर्ण तथा रसायन औषधियो के सेवन से लाभ होता है। तीन वर्ष से अधिक पुराना कम्पवात प्राय. असाध्य हो जाता है । कम्पवात में एक विशेष तैल 'विजय भैरव' तैल का वर्णन पाया जाता है--इस तेल को १-२ बूंद की मात्रा से पीना तथा मालिग करना कम्पवात में लाभप्रद होता है । कम्पवात अनेक कारणो से पैदा हो सकता है-इस को अंग्रेजी मे Shaking Palsy या Tremors कहते हैं। विजय-भैरव तेल-द्रव्य तथा निर्माण विधि--पारद, गंधक, मन • शिला, हरताल सब को शुद्ध करके सम भाग मे लेकर चूर्ण बना लेना चाहिये। फिर इसे काजी के साथ पीस कर इस कल्क से क्षोम वस्त्र ( रेशमी कपडे ) पर लेप चढा देना चाहिये। फिर इस वस्त्र को मोड कर एक वति जैसे बना लेना चाहिये। फिर उसको घृत से लिप्त करके ऊपरी सिरे पर दियासलाई से जला देना चाहिये । उस के जलने पर तैल टपकने लगता है-उसके नीचे एक पात्र रख कर त्रवित होने वाले तैल का संग्रह कर लेना चाहिये । इस विधि से स्रत तेल का थोडी मात्रा में लेकर उसको किसी अन्य तैल मे मिला कर मालिश करनी चाहिये । मुख से सेवन के लिये भी १-२ वू द दूध में डाल कर पिलाना चाहिये। कम्पवात रोग मे उत्तम लाभ दिखलाता है। यह तैल अन्य वात रोगो में भी लाभ दिखलाता है-विशेषत. कम्पवात मे फलप्रद होता है।' १. सर्वाङ्गकम्प शिरसो वायुर्वेपथुसज्ञकः । नाशयेत् स ततैलं तद्वातरोगानशेषत. । बाहुकम्प शिर'कम्प जघाकम्प ततः परम् ॥ एकाङ्गं च तथा घात हन्ति लेपान्न संशयः । रोगशान्त्यै सदा नस्यं तैल विजयभैरवम् ॥ (यो र.) Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसवाँ अध्याय वातरक्त प्रतिषेध प्रादेशिक हाथी, हंट या घोडे की अधिक सवारी (आधुनिक युग की साइकिल प्रभृति सारियां जिसमें पैर को नीचे लटकाये रहना पड़ता हो या खड़ा रहने का व्यवसाय भी कारण रूप में ग्रहण किया जा सकता है ) अधिक करने वाले व्यक्तियो में तथा विदाही अन्न का अधिक सेवन करने वलि व्यक्तियो में ( विदाही अन्न, लवण, क्टु, अम्ल, जार. स्निग्ध, उप्ण भोजन, अधिक मात्रा में रम्सेदार या सूखा अन्न, जल के जीवो के मास, आनूपदेश के मांस, तिल, मूली, कुलथी, उड़द, गाक, इक्षुरस, गुड़, दवि, काजी, शुक्त, सुरा, आसव, अव्यशन, विरोधी अन्नपान, दिवास्वप्न, रात्रिजागरण प्रभृति अभिष्यंदी माहार-विहार) रक में विदाह पैदा होता है और वह पैरो में संचित होने लगता है फिर अपने कारणों से वायु कुपित होकर इस दूपित रक्त से मिलकर वातरक्त नामक रोग पैदा करता है । कहने का तात्पर्य यह है कि इस रोग में वात को प्रधानता होती है माय ही साथ रक्त भी दूषित रहता है। अस्तु, वातरक्त कहलाता है। इसके उपचार में वात की चिकित्सा के साथ ही साथ रक्तदुष्टि का भी उपचार करना अपेक्षित रहता है। ___ यह रोग अधिकतर सुकुमार प्रकृति के धनी व्यक्तियो में पाया जाता है। अस्तु, इसे आट्यवात ( धनी रोगियो का वात रोग) भी कहते हैं । इस राग म मविकतर छोटी सधिया प्रभावित होती है। उनमें शोथ और मूल होता है । अस्तु, खुद्ध (छोटी सधि ) वात भी कहा जाता है। इस रोग में शोणित के द्वारा यावृत पाई जाती है। अस्तु, वातवलान की भी संज्ञा दी गई है। इसमें शरार की मभी मधियाँ विगेपत हाथ-पैर की छोटी संधियाँ शोथ तथा वेदना से युक्त हो जाती है। शास्त्र में दो रोगों का वर्णन रन्नवात और वातरक्त नाम से पाया जाता है। दोनो में ही रखनावरण पाया जाता है। रक्तवात में रक्त शुद्ध रहता है क्वल बात मान की दुष्टि पाई जाती है. परन्तु वातरक्त नामक रोग में वात तथा रक्त दोनो की दुष्टि प्रारम से ही पाई जाती है। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : छब्बीसवाँ अध्याय ४६३ रक्त को दुष्टि होने से वातरक्त मे कुष्ठ रोग के लक्षणो की समानता पाई जाती है-जैसे त्वचा की विवर्णता, स्वेदका अधिक होना, चकत्तो ( मण्डलो) को उत्पत्ति, चकत्तो के स्थान पर स्वेदाभाव, चकत्तो मे स्पर्श का ज्ञान न होना (Anaesthesia.) या अति रुक (Hypersthesia), परन्तु वातरक्त रोग की अपनी विशेषता भी पाई जाती है-जैसे पादमूल की संधियो मे शोथ, स्फुरण, शूल आदि । पिडिकोत्पत्ति (तरुणास्थि को वाताश्म Trophi), रोग का बार-बार माक्रमण होना, सधियो मे विकृति का वार-बार होना और ठोक हो जाना । बार-बार आक्रमण होने से सधियो में स्थायी विकार भी पैदा हो जाता है। इस प्रकार रोग का पैरो के मूल से आरंभ होकर अथवा क्वचित् हाथो के मूल से आरंभ होकर चूहे के विष के समान (दूषीविष सहश) धीरे धीरे शरीर के अन्य अगो मे भी पहुचता है । चरक मे उत्तान ( Superficial ) तथा गम्भीर ( Deep) भेद से दो प्रकार वातरक्त के बतलाये गये है। त्वचा और मासगत उत्तान तथा संधि, अस्थि और मज्जाश्रित गभीर होता है।' इस रोग की बहुत कुछ समता आधुनिक युग के गाउट (Gout) रोग से पाई जाती है। द्विदोपज तथा एक साल से अधिक पुराना कृच्छ साध्य हो जाता है, परन्तु त्रिदोपज, उपद्रवयुक्त तथा अगूठे से भारम्भ कर के जानु तक पहुँच गया हो, त्वचा विवर्ण, विदोर्ण और स्रावयुक्त हो रही हो तो असाध्य हो जाता है। क्रियाक्रम-वातरक्त उत्तान तथा गम्भीर भेद से दो प्रकार का होता है। त्वचा एवं मास मे आश्रित हो तो उत्तान और आभ्यंतर अवयवो मे आश्रित हो तो गम्भीर कहलाता है । अधिक पुराना होने पर यह रोग दुर्जय हो जाता है। १. हस्त्यश्वोष्ट्र गच्छतश्चाश्नतश्च विदाह्यन्नं सविदाहोऽशनस्य । कृत्स्नं रक्तं विदहत्याशु तच्च स्रस्तं दुष्टं पादयोश्चीयते तु ॥ तत्सपूक्तं वायुना दूषितेन तत्प्रावल्यादुच्यते वातरक्तम् ॥ प्रायश. सुकुमाराणां मिथ्याहारविहारिणाम् । स्थलाना सुखिना चापि कुप्यते वातशोणितम् ॥ पादयोमूलमास्थाय कदाचिद्धस्तयोरपि आखोविपमिव क्रुद्धं तदेहमुपसर्पति ॥ (सु) उत्तानमथ गम्भोरं द्विविध तत्प्रचक्षते । त्वड मासाश्रयमुत्तानं गम्भीरं त्वन्तराश्रयम् ॥ (च ) २ साध्यं स्यान्निरुपद्रवम् । एकदोपानुगं साध्य नवं याप्यं द्विदोषजम । विदोपजमसाध्यं स्याद्यस्य च स्युरुपद्रवा ॥ आजानु स्फुटितं यच्च प्रभिन्न प्रस. तञ्च यत् । उपद्रवैश्च यज्जुष्ट प्राणमासक्षयादिभिः ॥ (सु.) - Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थियटर्स-सिद्धि लेप, अगंग, परिपेक तथा अवगाहन प्रभृति उपचारो के द्वारा उत्तान मे तथा विरेचन, आस्थापन एवं स्नेहन प्रभृति उपचारो के द्वारा गम्भीर प्रकार में चिकित्सा करनी चाहिये। दोषो के मनुवन्ध का विचार करते हुए वाताधिक्य में स्नेहन, रक्ताधिक्य में रक्तमोक्षण, पित्ताधिक्य में रेचन, कफ की अधिकता मे वमन कराके आगे वश्यमाण औपधियो का प्रयोग कराना चाहिये। यदि विकार मे दो दोषो का संसर्ग या त्रिदोषो का सन्निपात पाया जावे तो मिश्रित उपचार की व्यवस्था करनी चाहिये। वायु की रक्षा करते हुए, यथादोप-यथावल सभी प्रकार के वातरक्त के दूपित रक्त के निहरण की व्यवस्था करनी चाहिये । प्रथम रोगी का स्नेहन करने के पश्चात् रक्त-विस्रावण करना चाहिये । रक्त के निर्हरण के लिये श्रृंग, जलीका, अलाबू अथवा शिरावेध का यथास्थान यथावश्यक उपयोग करना चाहिये। ___ शतधौत घृत का अभ्यंग, भेंड के दूध का लेप तथा रूक्ष एवं मृदु औपधियो के योग से बने वस्ति का उपयोग सर्वन किया जा सकता है। वस्ति के समान मोई भी दूसरा उपचार वातरक्त में लाभप्रद नही होता है। अस्तु, वस्ति कर्म का सर्वत्र प्रयोग करना चाहिये । वातरक्त से पथ्य-चावल, गेहूँ, जी, अरहर, चना, मूंग, मसूर की दाल वृत मिलाकर, वकरी, भेंड, भैस या गाय का दूध, सूरण, गुडुची, पोई, मकोय, चौपतिया, बेत्रान, बथुवा, करेला, पटोल, चौलाई, पुराना पेठा,-प्रसारणो प्रभृति शाक, लावा, तित्तिर, मुर्गा, मोर, तोता, कबूतर आदि पतियो के मास, आंवला, मुनक्का, चीनी, मक्खन, घी प्रभृति तिक्त-मधुर पदार्थ पथ्य होते हैं। श्वेत चंदन, २. वातरक्तं द्विधा ज्ञेयं गम्भारोत्तानभेदतः । त्वडमासाश्रयमुत्तानं गम्भीरं त्वन्तराश्रयम् ॥ कालातिक्रान्तमेतत्तु कष्ट भवति दुर्जरम् । विरेकास्थापनस्नेहर्गम्भोरं तदुपाचरेत् ।। उत्तानं लेपनाल्यङ्गपरिपेकावगाहने । वाताधिकं वातरक्तं स्तेहाद्यः समुपाचरेत् ।। रक्तादयं रक्तमोक्षायः पित्ताढ्य रेचनादिभि । कफाढ्य वमनाचे श्च प्रोक्तरप्रीपमिपक् ॥ संसर्गे सन्निपाते च क्रियां मिश्रा समाचरेत् । वातरक्ते द्विनिलिने द्विविहेतुसमुत्थिते ॥ वातशोणितिनो रक्तं स्निग्धस्य बहुशो हरेत् । अल्पाल्प रक्षता वायु यथादोषं यथावलम् ।। सर्वप्रासृक्ल तिः सूचीजलोकायलाबुभिः । शतधौतघृताभ्यङ्गो मेपीदुग्धावसेचनम् ॥ रूक्षा मृदुभि शस्तमसकृद्वस्तिफर्म च । नहि वस्तिसम लिचिद् वातरक्ते चिकित्सितम् ।। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : छब्बीसवाँ अध्याय ४६५ शीशम, अगुरु, देवदारु एवं सरल वृक्ष से निकले तैलो का मर्दन भी पथ्य है । " एरण्ड तेल का भी उपयोग उत्तम रहता है । अपथ्य आहार-विहार - दिन में सोना, अग्नि का तापना, ब्यायाम, कुश्ती आदि का लडना, धूप में रहना, स्त्रीप्रसंग, उडद, कुलत्थ, सेम, मटर और क्षार तथा लवण पदार्थों का सेवन । जलचर तथा आनूपदेश मे पैदा होने चाले प्राणियो के मास, परस्पर मे विरुद्ध अन्न, दही, ईख, मूली, मद्य, तिलपिण्याक, कांजी प्रभृति अम्ल पदार्थ, कटु, उष्ण, गुरु एवं अभिष्यदी पदार्थ, ताम्बूल, लवण तथा सत्तू का सेवन वातरक्त मे अपथ्य होता है | २ भेषज १. हरीतकी - एक या दो हरीतकी को लेकर चूर्ण बना कर गुड मे मिलाकर सेवन करे और उसके पश्चात् गुडूची के क्वाथ का अनुपान करे तो जानुपर्यन्तस्फुटित हुआ वातरक्त शान्त होता है । २ गुडूची- गुडूची स्वरस, कल्क, चूर्ण या क्वाथ को अधिक काल तक सेवन करने से वातरक्त शान्त होता है । ३. एरण्ड तेल ४. आरग्वध-अमलताश 'के फल का गूदा, गिलोय एवं अडूसे का काढ़ा बनाकर उसमे एरण्ड तैल १ तोला मिलाकर सेवन करने से वातरक्त मे लाभ होता है । ५. अश्वत्थ ( पीपल ) की छाल का क्वाथ बना कर उसमे मधु मिलाकर पीने से त्रिदोषज भयङ्कर भी वातरक्त रोग नष्ट होता है 13 ६. त्रिवृत, विदारी एवं गोक्षुरु का सम प्रमाण मे बनाया कषाय पीने से वातरक्त नष्ट होता है । ७ शुद्ध शिलाजतु - मात्रा १ माशा प्रात. - सायं गुडूची से सेवन । ८. गोरखमुण्डी - गोरखमुण्डी का महीन चूर्ण ६ माशा, घी १ तोला, मधु १॥ तोला मिलाकर १. आढक्यश्चर्णका मुद्गा मसूराः समकुष्ठका । यूषार्थे बहुसर्पिष्काः प्रशस्ता वातशोणिते । पुराणा यवगोधूमनीवारा. शालिषष्टिकाः । भोजनार्थे हिता गव्य माहिषाजपयो हितम् ॥ २. दिवास्वप्नाग्निसताप व्यायामं मैथुनन्तथा । कटूष्ण गुर्वभिष्यन्दिलवणाम्लानि वर्जयेत् ॥ ३. हरीनकी प्राश्य समं गुडेन एकोऽथवा द्व े च ततो गुडूच्या. । क्वाथोऽनुपीतः शमयत्यवश्यं प्रभिन्नमाजानुजवातरक्तम् ॥ शम्पाकामृतवासानामेरण्डस्नेहसंयुतम् । पीत्वा क्वाथमसृग्वातं क्रमात्सवर्गिजं जयेत् ॥ गुडूच्या स्वरसं चूर्णं कल्कं च क्वाथमेव वा । प्रभूतकालमासेव्य मुच्यते वातशोणितम् ॥ बोधिवृक्षकपायं सु पाययेन्मधुना सह । वातरक्तं जयत्याशु त्रिदोषमपि दारुणम् ॥ ( भै. र ) Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ सिपचर्म- सिद्धि सेवन करके ऊपर से गुडूची का काढ़ा पीना । ९ पुराना गुड १ तोला गोघृत १ तोला मिलाकर सेवन करना । ये सभी भेपज सामान्यतया वातरक्त के शामक होते है । बाह्य प्रयोग के भेपज -- १. तिल को भून कर गो का दूध के साथ पीस कर लेप करना । २ गेहूँ का आटा घी और वकरी के दूध का लेप | ३. वकरी के दूध के साथ एरण्ड वीज की मज्जा निकाल कर पोस कर लेप करना । ४ केवल भेंड के दूध या घी का लेप अथवा ५. शतधौत घृत ( सो पानी धोये गाय के घी ) का लेप करना । ६ बकरी के दूध एवं सोफ का लेप करना । ७ घी और सर्जरस ( सफेद राल ) का लेप । ८ गृहधूमादि लेप - रसोई घर का घुंवा, वच, कूठ, सौफ, हल्दी, दारूहल्दी का बकरी के दूध में पीस कर लेप करना वेदनाशामक होता है । ९ चलादि प्रलेप - वला की ताजी जड, रेडी के छिल्के रहित वीज, जीरा सफेद, गुडूची और साफ इनको बकरी के दूध में पीस कर वातरक्त के कारण स्फुटित हुए स्थान पर लेप करने से वेदना और जलन शान्ति होती है । गुडूची तैल - मूच्छित तिल तेल १२८ तोले, गुडूची का क्वाथ ५१२ तोले, गुडूची का पिसा हुआ कल्क ३२ तोले, गोदुग्ध ६४ तोले । इन द्रव्यो को कलईदार कडाही में लेकर अग्नि पर चढा कर मंद आंच से पका कर सिद्ध कर ले | इस तल का वाह्य प्रयोग मालिग के लिये तथा आभ्यंतर प्रयोग दूध में १-२ तोला मिलाकर पीने के लिये भी किया जा सकता है । गुडूची तल नाम से कई और योग पाये जाते है । वृहत् गुडूची तैल, महारुद्र गुडूची तेल आदि सभी वातरक्त और कुष्ठ रोग में लाभप्रद पाये जाते हैं । पिण्ड तैल-मूच्छित तिल तैल १ सेर, कल्कार्थ- मोम, मजीठ, राल तथा नारिवा प्रत्येक ५, ५ तोळे । तैल से चतुर्गुण अर्थात् ५ सेर जल डालकर यथाविधि मंद यांच पर पकाले । इस तेल के अभ्यंग से वातरक्तजन्य पीड़ा शान्त होती है । इस अधिकार में महा पिण्ड तैल नाम से एक वृहद् योग का भी पाठ मिलता है | लाभप्रद रहता है | सिरावेध -- वातरक्त, रक्त-वात, कुष्ठ प्रभृति रक्तविकारो में विकृत रक्त के निर्हरण से उत्तम लाभ देखा जाता है । इसके लिए पैर, वाहु अथव ललाट की किसी वटी उपरितन शिरा से यथाविधि रक्त विस्रावण का विधान ग्रन्थों में पाया जाता है । यदि रोगी बलवान् हो तो रक्तमोक्षण विधि से २० से ३० तोले तक उसके शरीर से निकाला जा सकता है - इससे अधिक रक्त Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : छब्बीसवाँ अध्याय ४६७ निकालने पर उसको दारुण वात रोग अथवा मृत्यु हो जाने की सम्भावना रहती है । अंतः प्रयोज्य योग १ लघुमंजिष्ठादि कपाय - मञ्जिष्ठा ( मजीठ ), हरें, बहेरा, आँवला. कुटकी, वच, दारूहल्दी, हल्दी ओर निम्व को सम प्रमाण मे लेकर जोकुट करके २ तोले लेकर, ३२ तोले जल मे खोलाकर ८ तोले शेप रहने पर छान कर ठंडा कर मधु मिला कर पिलाना । कुष्ठ तथा वातरक्त मे उत्तम लाभप्रद योग है । बृहन्मजिष्ठादि कपाय का योग वातरोगाध्याय मे आ चुका है । यह लघु से अधिक लाभप्रद होता है । निम्बादि चूर्ण - नीम की छाल, गिलोय, आँवला, हरड और बाकुचो प्रत्येक ४ तोले, सोठ, वायविडङ्ग, चक्रमर्द के वीज, पिप्पली, अजवायन, वच, जीरा, कुटकी, खैर की छाल, सेंधा नमक, यवक्षार, हल्दी, दारूहल्दी, मोथा, देवदारु और कुष्ठ प्रत्येक १ - १ तोला । सब को एकत्र कर महीन पीस कर कपडे से छान कर शीशी में भर ले | मात्रा २ माशे । गुडूची क्वाथ के अनुपान से । वातरक्त, कुष्ठ तथा विविध प्रकार के रक्त दोप में परम हितकर होता है । खिन कुष्ट मे विशेष लाभप्रद होता है । कैशोर गुग्गुलु — रक्त वर्ण का गुग्गुलु १ प्रस्थ लेकर निर्मल वस्त्र की एक पोट्टली में बाँध ले | हरड, व्हेरा, आँवला प्रत्येक एक-एक प्रस्थ, गुडूची १२८ तोले, जल १९ सेर १६ तोले भर लेकर एक बडे पात्र मे भर कर उसमे गुग्गुलु को पोट्टली लटका दे । वर्तन को अग्नि पर चढा कर पकावे । आधा जल शेष रहने ? अशुद्धो वलिनोऽप्यत्र न प्रस्थात्स्रावयेत्परम् । अतित्र तो हि मृत्यु. स्याद्दारुणा वातजामया. ॥ ( वा शि व्य ) यहाँ पर प्रस्थ १३॥ तोले का रहता है, इस प्रकार कुल रक्त निकालने की मात्रा ५४ तोले ठहरती है । अर्थात् आवश्यकता पडने पर बलवान् एव जवान व्यक्तियो मे ५४ तोले तक रक्त निकाला जा सकता है । प्रत्येक रोगी मे या प्रत्येक कर्म मे उतना रक्त निकालने की आवश्यकता नही पडती है । किसी रोगी मे २ तोले से कही पर ४ तोले से अन्यत्र ८ तोले से काम चल जाता है । रक्त के निर्हरण की मात्रा रोगी के बलावल के अनुसार निर्धारित की जाती है । अस्तु, एक सामान्य मात्रा २० से ३० तोले की वातरक्त या कुष्ठ मे बताई गई है । आधुनिक युग में कई रोगो मे शिरावेध के द्वारा चिकित्सा की आवश्यकता पडती है, चिरकालीन हृद्रोग में २० से ३० ओस तक रक्त निकालने का विधान है । 1 ३२ भि० सि० Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपम-सिद्धि पर वर्तन को आग से नीचे उतार कर ठडा करके छान ले। अब फिर एक लोह की कडाही में गुग्गुलु और यह क्वाथ डाल कर पकावे । पकाते-पकाते जब वह गाढा हो जावे और दर्वी से चिपकने लगे तो कडाही को नीचे उतार कर ठंडा होने पर उसमे आँवला, हरे, बहेरा, सोठ, काली मिर्च, पिप्पली और वायविडङ्ग प्रत्येक दो दो तोला, त्रिवृत् और दन्तीमूल का चूर्ण १-१ तोला, गुर्च का चूर्ण २ तोला, गोघृत ३२ तोला मिलाकर एक दिल करके एक-एक माशे की गोलियाँ वना ले । सुखा कर शीशी मे भर रख दे। मात्रा प्रतिदिन २-२ गोली दिन में चार वार । अनुपान जल ।। गोक्षुरादि गुग्गुलु-सोठ, छोटी पीपल, काली मिर्च, हर का दल, बहेढे का दल, आंवला और नागरमोथा प्रत्येक ४ तोला। छोटे गोखरू के बीज का चूर्ण २८ तोले और अच्छा गुग्गुलु ५६ तोले ले। प्रथम गुग्गुलु को इमामदरते मे कूटे जब वह नर्म हो जाये तो उसमे अन्य चूर्णो को मिलावे । जब गोली बनने लायक कूटते-कूटते हो जावे तो १॥ मागे की मात्रा की गोलियां बना ले। मात्रा १-२ गोली। सुबह-शाम । गोखरू के काढे, दूध, जल या किसी कपाय से सेवन करे। सनेश्वर रस-शुद्ध पारद १० तोला, शुद्ध गंधक, शुद्ध नील तुत्थ १०१० तोले, पलाश वीज चूर्ण ५ तोला, छोटी कंटकारी की जड, कनेर की जड, धतूरे की जड या वीज, अकरकरा, नीलझिण्टी, जटामासी, दालचीनी, शुद्ध कुचिला, भिलावे का शुद्ध चूर्ण १०-१० तोले । प्रथम पारद और गवक की कञ्जली बना कर शेप द्रव्यो का महीन चूर्ण मिलाकर एकत्र महीन पीसकर गीशी में भर ले। मात्रा २ रत्ती, रोगी को सहन हो सके तो तीन रत्ती तक दे। अनुपान गोघृत । इससे वातरक्त, कुछ, त्वचा की खरता, अग्निमाद्य आदि रोग नष्ट होते है । ( र सार. मं ) उपसंहार-कुष्ठ एवं वातरक्त में चिकित्सा की बहुत समानता है । कुष्ठाधिकार के बहुत से योग वातरक्त में भी लाभप्रद होते है। रसमाणिक्य १ रत्ती और गुडूची सत्त्व १ माशा मिलाकर एक मात्रा । ऐसी दो मात्रा प्रतिदिन घी और चीनी या मक्खन के साथ देना। __मारिवाद्यासव भोजन के बाद २ तोले समान जल मिलाकर देना तथा कशोर गुग्गुलु २ मागे की मात्रा में रात में सोते वक्त जल से या दूध से देना उत्तम लाभप्रद रहता है। अमल्ताग, निशोथ और गिलोय का काढा एरण्ड तल १ तो मिलाकर देना भी उत्तम रहता है। रोगी को मालिश के लिय पिण्ड तेल, गटच्यादि अथवा मरिच्यादि तैल का अभ्यग कराना भी उत्तम है । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ताईसवाँ अध्याय ऊरुस्तंभ-प्रतिषेध प्रावेशिक - ऊरुस्तभ एक विरलता से पाया जाने वाला रोग है । संभवतः प्राचीन युग में बहुत मिलता रहा हो, आधुनिक युग में तो बहुत कम मिलता है । स्व० कविराज गणनाथ सेनजी सरस्वती ने लिखा है- " पुराणा विलय यान्ति नवीना प्रादुरासते ।" अर्थात् कुछ रोग पुराने जमाने मे मिलते थे आज वे दृष्टिगोचर नही होते, इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे नवीन रोग भी होने लगे है, जो पुराने जमाने मे नही मिलते थे । शीत, उष्ण, द्रव, शुष्क, गुरु तथा स्निग्ध द्रव्यो के सेवन करने से, अजीर्ण मे ही भोजन ( अध्यशन ) करने से, सम्पन्न व्यक्तियो में यह रोग होता है । इसमे अधिक मात्रा मे आम-मेद कफ से युक्त वायु पित्तको अभिभूत करके करु ( Thigh ) मे आकर दोनो सक्थियो को एव उनकी अस्थियो को स्तिमित या श्लेष्मायुक्त कर देते है जिससे वे जकड जाते है | इससे दोनो ऊरु ( जांघो ) में जकडाहट, शीतता तथा अचेतनता आ जाती है। रोगी को अपने ऊरु पराये के समान भारी प्रतीत होते हैं वह उनको स्वतत्रतया हिलाने में असमर्थ हो जाता है । टांगो को उठा नही सकता तथा उनमें सुन्नता आ जाती है । उक्त लक्षणो से युक्त रोग को ऊरुस्तभ कहते है । कुछ लोग इसे आढयवात भी कहते है । यह एक ही प्रकार का होता है " एक एव ऊरुस्तभ " । " क्रियाक्रम - स्नेहन, वमन, विरेचन, वस्तिकर्म तथा रक्त-विस्रावण कोई भी शोधन कर्म ऊरुस्तभ मे नही करना चाहिये, क्योकि ये सभी कर्म रोग के विरोधी पडते है | अस्तु, स्वेदन, लघन, प्रभृति रूक्षण क्रिया जो आम और कफ को नष्ट करनेवाली हो, करनी चाहिये । यह भी ध्यान मे रखना चाहिये कि जो औषधि 'कफ एव आम का नाश करती हो, किन्तु वात का प्रकोप न करती हो, उसीका १. सक्थ्यस्थीनि प्रपूर्यान्त श्लेष्मणा स्तिमितेन च । तदा स्तभ्नाति तेनोख स्तब्वौ शीतावचेतनौ ॥ परकीयाविव गुरू स्यातामतिभुशव्यथौ । ध्यानाङ्गमर्दस्तैमित्यतन्द्राच्छद्य रुचिज्वरं । सयुतौ पादसदनकृच्छ्रोद्ध रणसुप्तिभि । तमूरूस्तम्भमित्याहुराढ्यवातमथापरे ।। ( वा नि १५ ) Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० भिपकर्म-सिद्धि ऊरस्तंभ मे प्रयोग करना चाहिये । ऊरुस्तंभ मे प्रारंभ मे कफनागक आहार, विहार एवं भेपज देकर पश्चात् वातविनाशक सम्पूर्ण क्रिया करनी चाहिये । अरुस्तभ रोग अधिकतर मेदस्वी तथा सुकुमार व्यक्तियो में होता है-कफ को क्षीण-करने के लिए रोगी को कर सकने वाले व्यायामो को करने के लिए कहना चाहिये । प्रात काल में उठकर उसको विपम स्थान (ऊँची-नीची जमीन पर ), वाल, धूल और कंकडीले स्थानो पर टहलने का व्यायाम कराना उत्तम रहता है। जल-संतरण-जिस नदी के अंदर नक्रादि हिंसक जल-जन्तु न हो, धार तेज न हो, स्वच्छ जल बहता हो, उसके प्रवाह के विरुद्ध दिशा में ऊरुस्तभी को तैराना चाहिये । यदि नदी न हो तो किसी नहर या जलागय में रोगी को तैराना चाहिये । वार-बार तैरने से पानी में पैरो को चलाने से रोगी का कफ नष्ट होने से ऊरस्तंभ भी दूर होता है । यदि रोगी का अधिक रूक्षण हो जावें तो वायु के प्रकोप से निद्रानाश, वेदना की अधिकता प्रभृति उपद्रव होने लगते है-इस परिस्थिति मे रोगी का स्नेहन और स्वेदन करके वायु को शान्त करना चाहिये। ऊरुस्तंभ मे प्रलेप-लहसुन, जीरा, सहिजन की छाल, कालीमिर्च, सरसों, जयन्ती पत्र, काले धतूर की जड, अफीम के फल के छिल्के, करंज के फल, अश्वगव मूल, नीमकी छाल, अमूल । इन द्रव्यो को सम भाग में लेकर गोमूत्र में पीस कर गर्म करके लेप करना । तेल-अष्टकटवर तेल-पिप्पलीमल और सोठ दोनो का गर-चार तोला लेकर पानी में पीस कर कल्क बना ले। फिर सर्पप तेल ( सरसो का तेल ) ६४ तोले, दही ६४ तोले तथा माढी बाली दही (ससार दधि कट्वर कहलाती है) उस या प्रस्थ अर्थात् ६ सेर ३२ तोले, इसको मथकर तक बनाकर डाले । सब को कलईदार कडाही मे लेकर अग्नि पर चढाकर मंद आँच पर यथाविधि मिद कर ले । इमके तेल की मालिश से गध्रसी एवं ऊरुस्तभ में लाभ होता है । १ स्नेहामृक्नाववमन वस्तिकर्म च रेचनम् । वर्जयेदाढयवातेपु तैश्च तस्य विरोधत ॥ तस्मादव सदा कार्य स्वेदलंघनरूक्षणम् । आममेव कफाधिक्याद् मारुतं परिरक्षता ॥ यत्स्यात् कफप्रगमनं न च मारतकोपनम् । तत्सर्व सर्वदा कायमूरुस्तम्भम्य भेषजम् ।। सर्वपिधक्रम कार्यस्तत्रादी कफनागन । पश्चाद्वातविनाशाय कृल्ला कार्या क्रिया यथा ॥ (यो. र.) २ प्रतारयेत् प्रतिन्नोती नदी गीतजला गिवाम् । नरश्च विमल शीतं स्थिरतोय पुन पुन. ।। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड: सत्ताईसवाँ अध्याय ५०१ भेपज - १. शिलाजीत ( शुद्ध ) २ गुग्गुलु ( शुद्ध ) अथवा ३ पिप्पली चूर्ण में से किसी एक का प्रयोग १ से २ माशा की मात्रा में दिन से तीन बार । अनुपान दशमूल क्वाथ तथा गोमूत्र । ४. त्रिफला चूर्ण और कुटकी चूर्ण मिलाकर ६ माशे की मात्रा मे मधु से लेना । ५ पधरण या पटूचरण योग - ( चित्रक, इन्द्रजी, पाठा, कुटकी, अतीस, हरें ) इन द्रव्यो को सम प्रमाण मे लेकर वनाया योग षड्धरण योग कहलाता है । इसका वर्णन वातरोगाध्याय में भी हो चुका है । इसका उपयोग महावात रोगो मे लाभप्रद बतलाया गया है । ऊरुस्तम्भ मे भी हितकर होता है । : गण्डीरारिष्ट' ७ पुनर्नवादि कषाय - पुनर्नवा मूल, सोठ, देवदारु, हरीतकी, शुद्ध भल्लतिक, गुडूची । इन द्रव्यो का समभाग में लेकर तथा दशमूल की सभी पधियो को बराबर मात्रा में लेकर कपाय बना कर पीने से ऊरुस्तम्भ मे लाभ होता है । गुंजाभद्र रस - शुद्ध पारद १ तोला, शुद्ध गधक ४ तोला, शुद्ध गुजा बीज २ तोला, जयन्ती, नीम तथा शुद्ध जयपाल के वीज प्रत्येक ४-४ माशा | प्रथम पारद और गधक की कज्जली बनाकर उसमें शेप द्रव्यो के चूर्ण मिलावे, फिर खरल करके उसमे भाग, जयन्ती, जम्बीरी नीबू का रस और धतूर के रस की एक-एक भावना पृथक्-पृथक् दे । फिर घृत के साथ भावना देकर ४-४ रत्ती की गोलिया बना ले । कठिन ऊरुस्तभ के रोग मे भी लाभप्रद यह योग होता है | सेवन विधि प्रतिदिन एक से दो गोली भुनी होग का चूर्ण २ रत्ती और सेंधा नमक ४ रत्ती के साथ सेवन करे । पथ्य - आहार-विहार मे इस रोग मे रूक्ष उपक्रम रखना चाहिये । एतदर्थ स्वेदन, जागरण, शक्ति के अनुसार व्यायाम, चक्रमण ( टहलना ), नदी या तालाब में तैरना, आदि विहार ठोक पडते है । भोजन मे जी, लाल चावल, कोदो, सावा, कुलर्थी, सहिजन की फलिया, करैला, परवल, लहसुन, चीपतिया, वयुवा, वैगन, नीम के कोमल पत्ते, बैत के अकुर, छाछ, आसव, अरिष्ट, शहद, कटु एवं तिक्त पदार्थ, कषाय रस प्रधान द्रव्य, चारद्रव्य ( यवक्षारादि या पत्र शाक, गोमूत्र, ) उष्ण जल का पीना या उष्ण जल से स्नान आदि श्लेष्महर 'द्रव्य पथ्य होते है । १ शिलाजतु गुग्गुलु वा पिप्पलीमथ नागरम् । ऊरुस्तम्भे पिवेन्मूत्रं दशमूलीरसेन वा ॥ २ ऊरुस्तम्भे प्रशंसन्ति गण्डीरारिष्टमेव वा । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिनकर्म-सिद्धि अपथ्य-गुरु-शीत-द्रव-अत्यन्त स्निग्ध, विरुद्ध एव असात्म्य भोजन, स्नेहन, वमन, विरेचन, आस्थापन, अनुवासन, रक्तनिहरण ये सब ऊरुस्तभ से पीड़ित मनुष्य के लिये अहितकर है। एक समय अग्निवेश ने अपने गुरु आत्रेय से अपना संशय दूर करने के लिये पूछा कि-भगवन् आपने बतलाया है कि पंचकर्म सभी प्रकार के शरीर मे होने वाली व्याधियो को दूर करने में असमर्थ है तो फिर इस नियम के अपवाद रूप मे दोपज कोई ऐसा भी रोग है, जो साध्य होते हुए भी पचकर्म के उपचारो द्वारा ठीक नहीं हो सकता है ? गुरु ने संदेह का निराकरण करते हुए उत्तर दिया 'हाँ एक मात्र रुस्तम एक ऐसा रोग है।" जिसमे न स्नेहन करना चाहिये, न वस्ति और न विरेचन (वमन, रेचन एवं नस्य कर्म) कोई भी कर्म इसमे लाभप्रद नही होता है। प्रत्युत अपथ्य होते है। अट्ठाइसवॉ अध्याय आमवात-प्रतिपेध प्रावेशिक-आमवात एक बडा कष्टप्रद रोग ( Rheumatic and Rheumatoid Arthritis) है। इसमें रोगी के विभिन्न अगो मे विशेपत. संधियो मे पीडा होती है, अरुचि, प्यास, आलस्य, शरीर का भारीपन, ज्वर, भोजन का परिपाक न होना और अगो मे सूजन होना, ये आमवात के लक्षण है। १ अग्निवेशो गुरुं काले सगय परिपृष्टवान् । भगवन् पंचकर्माणि समस्तानि पृथक् तया ॥ निर्दिष्टान्यामयाना हि सर्वेपामेव भेपजम् । दोपजोऽस्त्यामयः कश्चिद्यस्य तानि भिपग्वर ॥ न स्यु. शक्तानि शमने साध्यस्य क्रियया सत. । अस्त्यूरुस्तम्भ इत्युक्ते गुरुणा तस्य कारणम् ॥ तस्य न स्नेहन कार्य न वस्तिन विरेचनम् । सर्वो रुक्षक्रम. कार्यस्तत्रादौ कफनाशन ॥ पश्चाद् वातविनाशाय कृत्स्न कार्यः क्रियाक्रम. ॥ (भै. र.) Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : अट्ठाइसवाँ अध्याय ५०३ आमवात प्रवृद्धावस्था मे सब रोगो से अधिक कष्टप्रद एवं कष्टसाध्य हो जाता है। इसमे हाथ, पैर, सिर, गुल्फ ( Ankle ), त्रिक ( Sacrum ). जानु तथा ऊरु की संघियो मे पीडायुक्त शोथ पैदा होता है । इस रोग की उत्पत्ति में प्रधान भाग आम दोप का होता है, नाम दोष से एक प्रकार का अन्त' विष समझना चाहिये । शरीर से बहुविध त्याज्य पदार्थ मल-मूत्र एव स्वेद के जरिये निकल जाया करता है । वह क्वचित् न निकले तो शरीर के रक्त में आम दोप सचरित होकर बहुत प्रकार के रोग पैदा होते है । आमवात भी एक ऐसा ही रोग है । जिसमे आम दोष के साथ वायु का कोप पाया जाता है । अस्तु, इस रोग की चिकित्सा मे आम के पाचन एव निर्हरण के साथ साथ वायु के शमन की चिकित्सा करनी पडती है । आम बात में आम दोष जिन जिन स्थानो पर पहुचता है, उन उन स्थानों पर अर्थात् विविध शरीर की बडी बडी सधियो मे वृश्चिकदश के समान वेदना होती है । साथ ही साथ अग्निमदता, शरीर को गुरुता, ज्वर, उत्साह की कमी, पेशाब की अधिकता, निद्रानाश, तृपाधिक्य, हृदय प्रदेश मे पीडा या हृद्रोग तथा विबंध भी रोगी में उत्पन्न होता है । इनमे एकदोपज साध्य, द्विदोषज कृच्छू साध्य तथा त्रिदोषज या सर्वदेहज शोथ असाध्य होता है । यह रोग अधिकतर बाल्यावस्था मे या कम आयु के व्यक्तियो में होता है, वेदना भ्रमणशोल होती है-आज एक सघि प्रभावित है तो दो दिन के बाद दूसरी फिर दो दिनो के बाद तीसरी । पूर्व को प्रभावित सधि मे वेदना कुछ कम हो जाती है फिर नई संधि प्रभावित होती और उसमे वेदना, रक्ताधिक्य शोथ अधिक हो जाता है । इसमे शरीर के सभी वडी सधिय एक के बाद दूसरी शोथ और वेदना से युक्त होती चलती है । सधियो मे पूयोत्पत्ति प्राय नही होती है | १ क्रियाक्रम -- प्रमेह, वात एवं मेदो रोग मे कफ एव आम के पाचन के लिये जो उपचार बतलाये है । उन सबका आमवात रोग में प्रयोग करना चाहिये । २ १ अगमर्दोऽरुचिस्तृष्णा ह्यालस्य गौरव ज्वर । अपाक. शूनताऽङ्गानामामवातस्य लक्षणम् ॥ स कष्ट सर्वरोगाणा यदा प्रकुपितो भवेत् । हस्तपादशिरोगुल्फत्रिकजानूरुधिपु ॥ करोति सरुजं शोफो यत्र दोप. प्रपद्यते । स देशो रुजतेत्यर्थं व्याविद्ध इव वृश्चिकः ॥ मा. नि. ॥ २. प्रमेहवातमेदोनी रामवाते प्रयोजयेत् ॥ ( च. चि. ) Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ भिर्म-सिद्धि बामवात मे रोगी तथा रोग के वलावल के अनुसार लंघन, स्वेदन, तिक्त तथा क्टु रस द्रव्यो का उपयोग करना चाहिये । विरेचन, स्नेहपान तथा वस्ति कर्म भी लाभप्रद रहता है। सैन्धवादि तैल से अनुवासन वस्ति या क्षार द्रव्यो की वस्ति ( Soap water Enema.) देकर कोष्ठशुद्धि करके आम का निहरण करना चाहिये । वालू की पोट्टली बनाकर उससे संधियो या गोथ एवं पीडायुक्त स्थानो का स्वेदन करना हितकर होता है। स्नेह-हीन उपनाह भी लाभप्रद रहता है।' पथ्य-आमवात से पीडिन मनुष्य यदि पिपासा से युक्त हो तो उसको पीने के लिये पचकोल-शृत जल ( पंचकोल चूर्ण २ तोले, जल २५६ तोले खोला कर आधा शेप रहे तो उतार कर ) देना चाहिये। आमवात के रोगी मे दूध भी एक उत्तम पथ्य है- इस दूध को भी पचकोल से शृत कर देना उत्तम रहता है। आमवात में बैगन भी एक उत्तम पथ्य है-इसका भर्ता या चोखा बनाकर देना या सौदीर नामक काजी मे उवाले वैगन का उपयोग उत्तम रहता है। बथुवे का शाक, पुनर्नवा का शाक, नीम के पत्तो का शाक, सहिजन, परवल, वरुण एव करेले का नाक ठीक पड़ता है । जो, कोदो, साँवा, गेहूँ की रोटी या दलिया, कुलथी, चने और मटर की दाल, लवा पक्षी का मास इन रोगियो मे अनुकूल पडता है । आर्द्रक या शुण्ठी का उपयोग, पीने के लिये गर्म किया जल भी पथ्य रहता है । कई रोगियो में उडद के तेल में पकाया वडा भी उत्तम लाभ दिखलाता है, विगेपतः उस अवस्था में जब ज्वर का प्रशमन हो गया हो केवल सविशोथ और शूल शेप रहा हो। लहसुन का सेवन आमवात मे भी उत्तम रहता है । अपथ्य-दधि, मछली, गुड, कच्चा दूध, उडद की दाल, दूपित जल, पुरवा हवा, असात्म्य एव विरोधी भोजन, वेगो का रोकना, रात्रि-जागरण, गुरु एवं अभिष्यंदी अन्य माहार-विहार आमवात मे प्रतिकूल पडते है, फलत अपथ्य है । मभिष्यदी, गुरु एव पिच्छिल पदार्थ वर्जित है ।२ १. लघन स्वेदन तिकदीपनानि कटनि च । विरेचन स्तनपान वस्तयश्चाम मारते ॥ रक्षःस्वेदो विधातव्योवालुकापोटलैस्तथा । उपनाहाश्च कर्त्तव्यास्ते ऽपि स्नेहविजिता. ॥ विरेचनं स्नेहपान वस्तयश्चाममारते । सैन्धवाचनानुवास्य चारवस्ति प्रगस्यते ॥ आमवाताभिभूताय पीडिताय पिपासया । पचकोलेन ससिद्ध पानीयं हितमुच्यते ॥ २ अभिष्यन्दिकरा ये च ये चान्ये गुरुपिच्छिलाः। वर्जनीया प्रयत्नेन आमवातादितैर्नरः ॥ (भै. र.) Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथखण्ड : अट्ठाइसवाँ अध्याय भेपज-एरण्ड तैल-आम वात रोग में एरण्ड तैल एक रामावाण औपधि है । एरण्ड तैल में दो गुण होते हैं-रेचन क्रिया के द्वारा आम दोप का निकालना तथा स्निग्ध होने के कारण वायु का शमन करना। आमवात मे यही दो विकार रहते हैं--उन दोनो ही विकारो का शमन एरण्ड तैल से हो जाता है । अस्तु, आमवात में विशिष्ट औषधि के रूप में यह व्यवहृत होता है। इसके प्रयोग के दो साधन हैं बड़ी मात्रा मे (एक छटाक) रेचन के लिये या थोडी-थोडी मात्रा मे १-२ चम्मच का प्रयोग करना। रेचन तो नित्य दिया नही जा सकता है-अस्तु, सप्ताह में एक दिन या दो दिन, पक्ष मे एक दिन या मास में एक दिन रोगी तथा रोग के बल के अनुसार दिया जा सकता है । छोटी मात्रा में किसी कपाय ( दशमूल बपाय, शु ठी कपाय या रास्नासप्तक कपाय) के साथ मिलाकर मास, दो माम या अधिक लम्बे समय तक भी उपयोग में लाया जा सकता है । इस प्रयोग-विधि से तेज रेचन नहीं केवल कोष्ठगुद्धि होती है, माम निकल जाया करता है, और रोगी को अच्छा लाभ प्रतीत होता है । सौंफ के अर्क एक छटाँक मे १ चम्मच मिलाकर भी लम्बे समय तक दिया जा सकता है । गोमूत्र एक छटांक की मात्रा में उममे १ चम्मच एरण्ड तैल मिलाकर भी लम्बे समय तक प्रयोग किया जा सकता है। एरण्ड वीज का प्रयोग भी आमवात में उत्तम रहता है, वीज को छिल्के से पृथक् करके उसकी गुद्दी का सेवन कराना अथवा वात रोगाधिकार में पठित एरण्ड-पाक का प्रयोग भी उत्तम रहता है। एरण्ड का प्रयोग केवल रेचन के विचार से आमवात में नहीं कराया जाता है, क्याफि उसके लिये तो बहुत से रेचक योग है, प्रत्युत आमवात विशिष्ट लाभप्रद होने से कराया जाता है। भाव-प्रकाश ने एरण्ड तैल का आमवात में प्राशस्त्य बतलाते हुए लिखा है। गरीररूपी वन में विचरण करने वाले आमवातरूपी मतवाले हाथी को नष्ट करने के लिए एरण्ड तैल रूपी सिंह अकेला पर्याप्त है। १ एरण्ड के मूल का प्रयोग भी सभी वात रोगो मे विशेपत आमवात मे लाभप्रद रहता है । जैसे-एरण्डमूल, गोखरू, रास्ना, सौफ, पुनर्नवा इनका विधिवत् १. आमवातगजेन्द्राणा शरीरवनचारिणाम् । निहन्त्यसावेक एव एरडस्नेहकेशरी ॥ कटीतटनिकुञ्जपु सचरन् वातकुञ्जर । एरण्डतैलसिंहस्य गन्धमाघ्राय गच्छति ।। रास्नादिक्वाथसयुक्त तैल वातारिसज्ञकम् । प्रपिवन् वातरोगात सद्य. शूलाद्विमुच्यते ॥ दशमूलकषायेण पिवेद्वा नागराम्भसा । कुक्षिवस्तिकटीशूले तैलमेरण्डसभवम् ॥ एरण्डो गोक्षुर रास्ता शतपुष्पा पुनर्नवा । पान पाचनके शस्तं सामे वाते सुनिश्चितम् ।। (यो ) , - Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ भिवचन-सिद्धि निख कपाय का सेवन मामबान में लाभप्रद रहता है। एरण्ड-पायस एरण्ड वीज की मज्जा को दूध में पकाकर लेना भी श्रेष्ठ है। हरीतजी-हरीतकी चूर्ण 3 मागे भर लेकर १-२ तोले भर एरण्ड तैल में मिलाकर उष्ण जल ने मेवन करने से, आमवात, गृध्रसी, वृद्धि तथा अदित रोग में लाभ होता है। ___ आसन्ध-अमलताश के पत्रो को कड़ाही में लेकर सरसो के तेल में भूनकर अपवा कानी में स्विन्न करके मेवन करने से आमवात में लाभ होता है । शुंठो-आमवात मे एक उत्तम और विशिष्ट ओपधि है-इसका मान्यंतर प्रयोग २ माशे की मात्रा में काजी के साथ या जल के साथ पीने से अथवा गुप्टी का चूर्ण बना कर नोथ और शूल युक्त मंत्रिगे पर रगडन से लाभ करता है। इस प्रकार इन और्णव का वाह्य तथा आभ्यंतर दोनो प्रकार से उपयोग बामवान में उत्तम रहता है। कचर एवं सोठ सम मात्रा में लेकर ३ माशे की मात्रा में गव्हर्ना के क्वाथ से लेना श्रेष्ठ है। त्रिवृचणे-त्रिवृत् का महीन चूर्ण करके उस को त्रिवृत् के काढे से एक सप्ताह तक भावित करके सुखाकर चूर्ण बना कर शीशी में भर ले । मात्रा ३ माद्या । अनुपान जल या कांजी के साथ । लोन-लहसुन की चटनी का सेवन या तेल में पकाकर सेवन या मसाले के यस दाल-तरकारी में डाल कर लेना उत्तम रहता है। रसोनादिकपाय-लहसुन की गिरी, मोठ बार निर्गुण्डी की जड । उन्हें सम प्रमाण में लेकर २ तोले को ३२ नोले जल मे खोलाकर ८ तोले शेष रहने पर पीने से आमवात में लाभ होता है । सोन पिंड या महारसोन पिंड का ( वात रोग में ) सेवन भी लाभप्रद रहता है। रसोन मुरा-विशुद्ध सुरा ( Rectified spirit ) ५ सेर, उसमें लचारहित लहसुन का कल्क २॥ सेर, पचकोल, जीरा, कूल प्रत्येक १ तोला वृर्ग । एक सप्ताह तक संधान करके छान ले । मात्रा-२० से ३० बूंद पानी मिलार भोजन के बाद। दशमूल दशमूल की औषधियो का सममात्रा मे ग्रहण कर बनाया कपाय उत्तम रहता है। रास्ना-रास्नापत्रक, महारास्नादि कपाय अथवा रास्ता सप्तक या राम्ना वादगक पाय का पीना भी उत्तम रहता है। इन कपायो में १ तोला एरंट तेल मिलाकर सेवन करना अधिक लाभप्रद रहता है। रास्ता सप्तक कपाय-रास्ना, गिलोय, समल्तान का गूढा, देवदार, गोखरू, एरडमूल पार पुनर्नवा उन्हें समभाग में लेकर २ तोले को ३२ तोले पानी में उबालकर ८ तोल Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : अट्ठाइसवॉ अध्याय ५०७ शेष रहने पर उसमें शुगे चूर्ण १ माशा मिलाकर सेवन करना जंघा, ऊरु, पार्श्व प्रदेश, त्रिक प्रदेश और पीठ के शूल में लाभप्रद रहता है।' पंचसम चूण-शुठी, हरीतकी, पिप्पली, निशोथ तथा काला नमक समभाग में लेकर बनाया चूर्ण । सात्रा ३ मागे से ६ माशे । अनुपान उष्ण जल। यह चूर्ण-उदर विकार तथा आमवात मे लाभप्रद होता है। वैश्वानर चूणे-सैन्धवलवण, अजवायन २. २ भाग, अजमोदा ३ भाग, मोठ ५ भाग, हरीतकी १२ भाग सब अच्छी तरह महीन कूट-पीसकर कपडछन चूर्ण बनाकर शीगी मे भर ले । साना ३ माशे से ६ माशे। अनुपान-दही का पानी, मट्ठा, काजी, घृत या गर्म जल से । . अलम्बुषाद्य चूर्ण-मुण्डो १ भाग, गोखरू २ भाग, हरड ३ भाग, बहेडा ४ भाग, आंवला ५ भाग, सोठ ६ भाग, गिलोय ७ भाग तथा इन सबके बरावर विधारा की जड या काली निशोथ की जड । सवका महीन कपडछन चूर्ण । मात्रा ३ माशे से ६ माशा । अनुपान उपर्युक्त । यह चूर्ण आमवात तथा वातरक्त दोनो में लाभप्रद होता है । आमवातारि गुग्गुलु-एरण्ड तल, शुद्ध गधक, शुद्ध गुग्गुलु, हरड, बहेरा एवं आंवला। इन सवो को सम प्रमाण मे लेकर । प्रथम चूर्ण बनाकर एरण्ड तैल से भावित करके १ माशे की मात्रा मे गोलियां बनाले। १-२ गोली दिन में तीन बार । गर्म जल या दूध से । योगराज गुग्गुलु इसका योग वात रोग मे उद्धृत किया जा चुका है। सिंहनाद गुग्गुलु-त्रिफला का क्वाथ ३ पल, शुद्ध गवक तथा शुद्ध गुग्गुलु १-१ पल, एरण्ड तैल ८ पल सवको लेकर एक कलईदार कडाही में अग्निपर चढाकर पाक करे । फिर ठडा होने पर १-२ माशे की गोलियां बना ले। यह योग सभी प्रकार के वात रोगो मे विशेपत आमवात मे लाभप्रद रहता है। यह दण्डपाणि नामक आचार्य के द्वारा प्रोक्त, सिंह की गर्जना की भांति रोग रूपी हाथियो को भगाने वाला है । अस्तु, इसे सिंहनाद गुग्गुलु की सज्ञा दी गई है । ( च द )। शिवा गुग्गुलु नामक एक दूसरा योग पाया जाता है उसमे भी घटक लगभग यही है। शुंठीत-सोठ का क्वाथ ८ पल, सोठ का कल्क ३ प्रस्थ, मूच्छित गोघृत २ प्रस्थ लेकर कलईदार कडाही मे पाक करे । फिर घृत को छान किसी शोशे के १. रास्नाऽमृतारग्वधदेवदारुत्रिकटकरण्डपुनर्नवानाम् । ___ क्वाथं पिबेन्नागरचूर्णमिश्र जघोरुपार्श्वत्रिकपृष्ठशूली ॥ ( यो. र. ) - Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिपक्षम-सिद्धि वर्तन या मर्तबान में भर कर रख ले। मात्रा १-२ तोला । दूध में मिलाकर ले । भन्नि को दीप्त करता है । कटिनल एवं मामवात में लाभप्रद । आमवातारि रस-द्ध पारद १ भाग, गंधक २ भाग, समभाग मे गृहीत त्रिफला चूर्ण ३ भाग, चित्रक मूल चूर्ण ४ भाग 1 प्रथम पारद और गवक की फज्जली बनाले । पश्चात् गेप चूर्णो को मिलाकर उसमें एरण्ड तैल की भावना देकर खरल कर सुखाकर गोशी में भरले। मात्रा १ मागा। दिन में दो या तीन वार । गुंठी चूर्ण एवं मधु के माय ।। आमवातिक बर-आमवात रोग के प्रारंभ मे ज्वर होता है और यह संतत स्वरूप का तीन या चार सप्ताह तक चलता रहता है। इस अवस्था में रोगी को पचकोल मृत क्षीर, पत्रकोल गृत जल, मूंग की दाल और गाक पर रखना चाहिये। यदि अग्निवल अच्छा हो और रोगी को भूम्ब लगे तो जो की रोटी भी दी जा सकती है। वार्ली वाटर भी उत्तम रहता है। बोपवियो मे ज्वराविकार का हिंगुलेश्वर रस मात्रा २ २०, उपर्युक्त सामवातारि रस मात्रा ? मावा, दिन में दो ग तीन वार देना चाहिये। अनुपान रूप में निर्गुण्डी स्वरस, मेकाली स्वरस, आर्दक स्वरस में से कोई एक 'और मधु मिलाकर देना चाहिये । राम्ना सप्तक कपाय का भी प्रयोग उत्तम रहता है। साथ में संधियों के गोय तथा वेदना के गमन के लिए गलका स्वेद, उपनाह, विपगर्भ तेल का अन्यंग अयत्रा निम्नलिखित क्सिी लेप का प्रयोग बाह्योपचार के रूप मे करते रहना चाहिये। ___ज्वर के समाप्त हो जाने पर पञ्चात् गुग्गुलु, चूर्ण, कपाय, प्रभृति अन्य योगो का प्रयोग लम्बे समय तक करते रहना चाहिये। विडङ्गादि लौह-लौह भस्म ५ पल, अभ्रक भस्म २॥ पल, गुद्ध पारद २॥ पल, शुद्धगंधक २॥ पल । त्रिफला चूर्ण १ से १० तोले लेकर सोलहगुने जल में क्वथित कर अप्टमायावनिष्ट अर्थात् सवा दो सेर शेप रहने पर उतार ले। फिर इस क्वाथ को एक लौह की कड़ाही में अग्नि पर चढाकर उसमें लोह, मन्त्रक भस्म और कज्जलो को बाल कर पाक करे । आमन्न पाकावस्था में उसमें गोवृत ३० तोले, गतावर का स्वरस ३० तोले और गाय का दूव ६० नोले छोड़कर पाक करता रहे। पाक मंद अग्नि पर करना चाहिये । जव पाक गाढा होने लगे तो उनमें निम्नलिखित मोपधियों का प्रक्षेप करे । वायविटङ्ग, मोठ, धनिया, गिलोय का मत्त्व, जीरा, पलाश के बीज, काली मिर्च, पिप्पली, - गजपिप्पली, निवृत को जट, त्रिफला, दन्तीमूल, इलायची, एरण्डमूल, चन्य, पोपरामूल, विनामूल, मोथा और विधारा प्रत्येक का चूर्ण सम भाग कुल Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ चतुर्थं खण्ड : अट्ठाइसवॉ अध्याय ३० तोले होना चाहिये। अच्छी प्रकार से कलछी से चलाते हुए सबको मिला लेना चाहिये। फिर सुखा कर चूर्ण बना ले। मात्रा-४ रत्ती से १ माशा। यह योग बामवात, शोथ, अग्निमाध, पाण्डु, कृमिज पाण्डु, कामला आदि अनुपान भेद से नष्ट करता है और उत्तम रसायन है। जीर्ण आमवात में जब रोगी मे रक्ताल्पता आ जाती है-उस अवस्था मे प्रयुक्त होकर विशेष लाभ करता है । आमवाताभ सधिशोथ (Rheumatoid Arthritis). मे महारास्नादि कषाय के साथ इस योग का प्रयोग अच्छा लाभ दिखलाता है। इसके सेवन वाले रोगो को पर्याप्त पौष्टिक आहार और दूध का प्रयोग करना अपेक्षित रहता है। इसके साथ सुवर्ण के योगिको का देना उत्तम रहता है। एतदर्थ स्वर्ण भस्म प्रति मात्रा में 2 रत्ती स्वतंत्रतया मिलाया जा सकता है । अथवा सुवर्ण के योगो मे से वृहद्वातचिन्तामणि रस या योगेन्द्र रस १ रत्ती की मात्रा में मिलाकर दिया जा सकता है। प्रसारणी संधान-गव प्रसारणी ८ सेर, जल ६४ सेर, शेष १६ सेर रसा कपाय । इस कषाय मे लहसुन का रस १ सेर, पुराना गुड १ सेर मिला कर एक पात्र में भरकर उसका मुख बन्द करके एक सप्ताह तक सधान करे। इसमें प्रक्षेप रूप में पिप्पली, पिप्पलीमूल, चव्य, चीता की जड और सोठ का चूर्ण कुल ३२ तोले भी डालना चाहिये । यह योग आमवात मे वडा लाभप्रद होता है । भोजनोत्तर २-४ तोले को मात्रा मे देना चाहिये । बाह्य प्रयोग-विषगर्भ तैल (वातरोगाध्याय ) अफीम मिलाकर या सैधवादि तैल का वेदना युक्त स्थान पर हल्के हाथ से मालिश करना । सैन्धवाच तैल-सैधव, गजपीपल, रास्ना, सौफ, अजवायन, सज्जीखार, कालीमिर्च, कूठ, सोठ, सोचल नमक, विड लवण, वचा, अजमोद, मुलैठी, जीरा, पोहकर मल और छोटो पिप्पली प्रत्येक २ तोला। इन द्रव्यो को कट कर पानी से पीस कर कल्क बनावे । फिर एरण्ड तैल तथा सौफ का क्वाथ दो-दो प्रस्थ, काजी एव दही का पानी ४-४ प्रस्थ सवको कलईदार कडाही मे अग्नि पर चढाकर मंद आंच से पाक करे। महाविपगर्भ तेल-धतूरे की जड, निर्गुण्डी को जड, कटुतुम्वी की जड, गदहपुर्ना, एरण्ड मूल, अश्वगध मूल, चक्रमर्दमूल, चित्रकमूल, सहिजन की छाल, मकोय, कलिहारी की जड, नीम की छाल, महानिम्ब को छाल, शिवलिङ्गी, दशमूल, शतावरी, करैला, अनन्तमूल, विदारीकद, स्नुही, अर्क, मेढाशृङ्गी मूल, पीत पुष्प कनेर मूल, वचा, काकजघा, अपामार्ग मूल, महाबला-बला-अति Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० मिपकर्म- सिद्धि चला- नागवला मूल, कंटकारी मूल, वासामूल, गुडूची एवं प्रसारणो । प्रत्येक ६ तोले १ द्रोण जल मे क्वथित करके चतुर्थांश शेप रहने पर उतार कर छान ले । कन्कार्थ- सोठ, मरिच, छोटी पीपल, कूठ, कुचला, रास्ना वत्सनाभ, मोथा, देवदारु, मीठाविप, जवाखार, सज्जीखार, तूतिया, कायफल, पाठा, भारंगी, नौसादर, त्रायमाण, घमासा, जीरा और इन्द्रायण प्रत्येक १६ तोले जल से पीस कर कल्क बनावे | फिर एक कलईदार पित्तल के वडे कटाह मे क्वाथ, सरक और मूच्छित तिल तैल १ प्रस्थ ( तीन पाव ४ तोले ) लेकर पाक करे । मन्दाग्निपर यथाविधि पाक । यह तैल आमवात जन्य पीडायुक्त स्थान पर तथा सर्वाङ्ग वात एवं पक्षाघात मे मालिश के लिए परम लाभप्रद होता है । वातहर उपनाह तथा वातघ्न लेप - वात रोगाधिकार का उत्तम रहता है । हिंस्रादिलेप -- हैस की जड, कंटकारी, केबुक, सहजन की छाल, वल्मीक मृत्तिका -- इन्हें गोमूत्र मे पीसकर आमवात में पीडायुक्त स्थान पर लेप | शताहादि लेप - सौफ, वच, सहिजन की छाल, गोखरू, वरुण की छाल, बला की जड, गदहपुर्ना, कचूर, गंधप्रसारणी, जयन्ती, होग इनको काजी या सिरके के साथ पीस कर गर्म करके लेप करना । ० रास्नादि अवचूर्णन - रास्ना, सोठ, सहिजन, कचूर प्रत्येक १ भाग, खडिया मिट्टी ४ भाग मिलाकर चूर्ण महीन बना कर आमवात के कारण उत्पन्न पीडायुक्त सधियो पर इस चूर्ण का घर्षण करना उत्तम लाभ दिखलाता है । शूल प्रतिषेध ( Colics) उन्तीसवाँ अध्याय प्रावेशिक - शूल का शाब्दिक अर्थ है शंक्वाकार कोई नुकीला अस्त्र । इस से चुमाने के समान के समान पीडा जिस रोग में हो उसे शूल रोग कहते है । शरीर के किसी भी भाग में इस प्रकार की तीव्र वेदना हो सकती है । स्थानानुसार उसकी विभिन्न सजायें भी दी जा सकती है । यथा सिर का दर्द - शिर शूल, कान का दर्द - कर्णशूल, छाती का दर्द - उरः शूल या वक्षस्तोद, वृक्क की वेदना - वृक्क - Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : उन्तीसवाँ अध्याय ५११ शूल तथा वस्ति की वेदना-बस्ति शूल आदि । परन्तु शूलाधिकार नामक प्राचीनोक्त अध्याय मे केवल उदर तथा वक्ष गुहास्थित अवयवो के विकार से उत्पन्न पीडाओ या शूलो का वर्णन करना अभिलपित रहता है। गुल्म रोग मे जिस प्रकार पांच स्थानो मे होने वाले कष्टो का ही समावेश होता है उसी प्रकार शूल रोग का वर्णन भी दोनो पार्श्व, हृदय, नाभि तथा वस्ति इन पांच स्थानो मे होने वाली तीन पीडाओ तक ही सीमित है-अन्य स्थान पर होने वाली तीन वेदनाओ का उल्लेख यथास्थान प्रसगानुसार अन्य अन्य स्थानो पर पाया जाता है । अस्तु, इस अध्याय मे इन पांच स्थानो मे होने वाली तीन वेदनाओ का उल्लेख किया जावेगा। गुल्म के समान इस अध्याय के अंदर उदर एवं वक्ष मे होने वाली वेदनाओ फा ही वर्णन अपेक्षित है। दोनो पार्श्व, हृदय, नाभि तथा वस्ति ये गल्म के पांच स्थान है। इन्ही स्थानो मे होने वाली सभी पीडाओ का इस अध्याय मे समावेश हो जाता है। दोप भेद से शूल आठ प्रकार के होते है-वातज, पित्तज, श्लेष्मज, वात पित्तज, वात कफज, पित्त कफज, त्रिदोषज तथा आमज । किन्तु इन सभी प्रकार के शूलोमे वायु की प्रधानता रहती है । इनमे वातिकशूल प्राय. हृदय, पार्श्व, पृष्ठ, त्रिक तथा वस्ति प्रदेश मे विशेषतया होता है जैसे, हृच्छूल (Angina. Pectoris) पार्श्व शूल ( Pleurodyna, Inter Costal Neuralgia), त्रिकशूल ( Lumbago), वस्तिशूल ( Renal colicuterine colic etc ), पैत्तिक शूल प्राय पित्ताशय ( Biliarycolic), कुक्षिशूल ( Appendicular ) कुक्षि आदि मे होता है। श्लैष्मिक शूल प्राय आमाशय भाग मे (AcuteGasterstis) विकृति आने से होता है। द्विदोषज एव त्रिदोषज शूल दोषानुबघ के भेद से विविध लक्षणो से युक्त होते है, तथा सर्वत्र हो सकते है । . आमज शूल, कफज शूल के समान लक्षण एव चिह्नो वाला होता है-इसका १ शकुस्फोटनवत् तस्य यस्मात्तीवाश्च वेदना । शूलासक्तस्य लक्ष्यन्ते तस्माच्छूलमिहोच्यते ॥ (सु) दोष पृथक्समस्ताभ्या द्वन्द्व . शूलोऽष्टधा भवेत् । । । सर्वेष्वेतेपु शूलेपु प्रायेण पवन. प्रभु ॥ (मा नि ) २ वायु प्रवृद्धो जनयेद्धि शूल हृत्पार्श्वपृष्ठत्रिकवस्तिदेशे । वातात्मकं वस्तिगत च शूल पित्तात्मक चापि वदन्ति नाभ्याम् ॥ हृत्पार्श्वकुक्षी कफसन्निविष्टे सर्वेषु देशेषु च सन्निपातात् । Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ सिषकर्म-सिद्धि आमाशय या कुक्षि ही प्रधान अधिष्ठान होता है। इन शूलो के अतिरिक्त दो प्रकार के विशेप शूलो का वर्णन इस अधिकार मे और पाया जाता है जिनका त्रिदोपज शूल के भीतर ही समावेश समझना चाहिये। इनमे पित्तोल्वणता होती है । इन दो प्रकार के शूलो मे से एक परिणाम शूल दूसरा अन्नद्रव शूल कहलाता है । इन दोनो का आधुनिक युग के ( Peptic ulcer ) के वर्णनो के साथ पूर्ण साम्य है । परिणाम शूल ( Duodenal ulcer ) का तथा अन्न द्रव शूल ( Gestric ulcer ) के रूप मे स्पष्टतया प्रतीत होता है । भोजन के परिपाक काल मे या भोजन के पच जाने पर ( भोजन के दो-तीन घटे वाद ) होने वाले उदर शूल को परिणाम शूल और बिना किसी नियम के होने वाले शूल को जो भोजन करने के साथ ही या भोजन के पच जाने पर या रिक्त आमाशय पर या भरे आमाशय पर कभी भी हो जाता है और वमन हो जाने पर शान्ति मिलती है, अन्नद्रव शूल कहते है ।' ___आधुनिक ग्रंथो मे शूल ( Colics) पांच प्रकार के बतलाये जाते है-- वृक्क शूल (Renal Colics), पित्ताशय शूल (Biliarycolic), गर्भाशय शूल (uterine Colics), आत्रपृच्छ शूल ( Appendiulear Colics) तथा आत्र शूल ( Intestinal Colics), तथा प्राचीन ग्रथकारो ने इन शूलो के अतिरिक्त कुछ अन्य शूलो का भी इसी अध्याय मे समावेश कर रखा है। जैसे-हच्छूल (Angina Pectoris), वक्षस्तोद (Pleurodyna ) तथा परिणाम एव अन्नद्रव शूल ( Peptic ulers)। इनमे पित्त शूल, वृक्क शूल, हृच्छूल, परिणाम शूल एवं अन्न द्रव शूल इन रोगो में पंत्तिक शूलवत् उपचार करने का विधान तथा अन्य शलो मे कफ एव वात जन्य शूलोपचार करने का विधान बतलाया गया गया है । सामान्य क्रियाक्रम-शूल के रोगी मे प्राथमिक उपचार के रूप में सर्वप्रथम लंघन (खाना बद करके उपवास), वमन ( ऊपर से दोपो को निकालने के लिये ), फलत्ति ( अघो भाग से दोपो के निर्हरण के लिये सपोजिटरी १ भुक्ते जीर्यति यच्छूलं तदेव परिणामजम् । जीर्णे जीर्यत्यजीर्णे वा यच्छलमुपजायते ।। पथ्यापथ्यप्रयोगेण भोजनाभोजनेन च । न शमं याति नियमात्सोऽन्नद्रव उदाहृत ॥ अन्नद्रवात्यगूलेपु न तावत्स्वास्थ्यमश्नुते । वान्तमाने जरपित्तं ,मूल चाशु व्यपोहति ॥ (मा. नि ) Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : उन्तीसवाँ अध्याय ५१३ या नावुन के पानी या लवण जल को वस्ति गुदा से देना), स्वेदन ( उदर तथा अन्य शूलयुक्त अङ्ग का स्वेदन ), पाचन तथा वायु का अनुलोमन करने के लिये क्षारो, चूर्णों और गोलियो का उपयोग करना उत्तम रहता है। इन सामान्य उपायो से शूल का शमन होता है। वास्तव मे जैसा पूर्व में बताया जा चुका है कि शूल रोग में सर्वत्र वायु की हो प्रधानता होती है । अस्तु, सामान्य वात-शामक उपचार ही प्रशस्त माने गये हैं।' . विशिष्ट क्रियाक्रम-वातिक शूल में विशिष्ट रूप से स्नेहन तथा स्वेदन (पायस या कृशरा से सेंक, पिण्ड या पोट्टलो बनाकर सेंक, स्निग्ध मास को पोट्टलो बनाकर सेंक ) विशिष्ट उपवार है। वायु का रोग आशुकारो होता है । अतः शीघ्रतापूर्वक उसका प्रतिकार करना चाहिए । शूलाभिपन्न व्यक्ति मै स्वेदन (Fomentation) करना सद्य सुख पहुँचाता है। तिलकल्कादि स्वेद-कांजी के साथ कालो तिल को पीसकर कडाही मे गर्म करके एक कपडे के टुकडे मे पोटलो बनाकर गर्म-गर्म उदर के ऊपर बार-बार सेंकना शूल का शमन करता है । गमे जल का सेक-एक बोतल मे गर्म जल भर कर या रवर के थैला में गर्म जल भर कर सेकना ( Hot water Bottle ) गर्म जल में तारपोन का तेल छोडकर उसमें तौलिया भिगोकर निचोड कर उदर का सेंकना ( Terpentine stoup) भी उसी प्रकार लाभप्रद रहता है। १ वमनं लघनं स्वेदः पाचनं फलवर्त्तय । क्षारश्चूर्ण च गुटिका शस्यते शूलशान्तये ।। २. ज्ञात्वा तु वातज शूल स्नेहै स्वेदैरुपाचरेत् । पायस कृशरापिडे. स्निग्धैर्वा पिशितोत्करैः ॥ आशुकारी हि पवनस्तस्मात्तं त्वरया जयेत् । तस्य शूलाभिपन्नस्य स्वेद एव सुखावह ॥ नाभिलेपाज्जयेच्छूल मदन काजिकान्वितम् । बिल्वरण्डतिलापि पिष्टैरम्लेन पोट्टली ॥ राजिकाशिग्रुकल्कं वा गोतक्रेण च पेपितम् । तेन लेपेन हन्त्याशु शूल वातसमुद्भवम् ।। हिंगु तैल सलवण गोमूत्रेण विपाचितम् । नाभिस्थाने प्रदातव्यं यस्य शूल सवेदनम् ॥ (यो र ) ३३ भि० सि० Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिषक्षर्म-सिद्धि । विनीला, कुल्थी, तिल, जौ, एरण्डमूल, अतीस, पुनर्नवा, सन के वीज इन्हे जाजी मे पीसकर पृथक-पृथक् या मिलाकर गर्म करके उदर का सेंक करना ।। लेप सेक-मदनफल को काजी के साथ पीसकर गर्म करके उदर पर लेप करना । राई, सहिजन की छाल इनको सममात्रा में गाय के म्ढे के साथ पीसकर उदर पर गर्म गर्म लेप करने से सद्य. गूल का शमन होता है । हींग, सरसो का तेल, मेंधा नमक और गोमूत्र को गर्म करके उससे तौलिया भिगो कर निचोड कर उदर का सेंकना तथा नाभिछिद्र मे भरना शूलशामक होता है । ___ दही के मढे के साथ जौ का आटा गूंद कर उसमें जवाखार मिलाकर (जी का आटा si, ग्वाक्षार 5- मिलाकर ) गर्म करके उदर पर मोटा लेप करना उदर शूल का शामक होता है।' १. कुलत्थ यूष या लावकं यूप-कुलथी' ४ तोले अथवा वटेर का मांस ४ तोले ६४ तोले जल मे खौलाकर १६ तोले शेप रहने पर उतारे। उसमे हीग, सोठ, मरिच, पीपल ( छोटी ), सेंधा नमक, काला नमक प्रत्येक २ रत्ती मिलाकर घीसे छोक कर पिलाने से वातिक शूल का शमन होता है । । २ बलादि क्वाथ-वला, पुनर्नवा, एरण्ड, छोटी कटेरी तथा गोखरू मूल का समभाग में बनाये कपाय मे घी मे भुनी हीग और काला नमक का प्रक्षेप करके पीना। ____३ दशसूल कपाय मे एरण्ड तैल, होग और काला नमक का प्रक्षेप डाल कर पीना। ४ करज के फल की मीगी (कंटक करंज), काला नमक, शुठी, घृत में मजित होग । २ इनका समभाग मे बना चूर्ण ३ माशे की मात्रा मे गर्म जल से सेवन । इस चूर्ण को करंजादि चर्ण कहते हैं। एक योग कुवेराक्षादि वटी नामक बाज कल प्राय चलता है। उसका योग इस प्रकार का है :-- ५. कुवेराक्षादि वटी-बालू मे भुना करंज बीज, मटे मे भिगो कर घी म तला लहसुन और सोठ प्रत्येक एक एक तोला, घी में तली होग और सुहागे की खोल ६, ६ मागे। सहिजन के रस में घोट कर ४-४ रत्ती गोली। अनुपान गर्म जल । सभी शूल में लाभप्रद । १. तण पिष्टं यवचूर्णमुष्णं सक्षारमत्ति जठरे निहन्यात् ॥ च. सू. ३ २ करजसौवर्चलनागराणां सरामठाना समभागिकानाम् । चूर्ण का प्णेन जलेन पीत समीरशूलं विनिहन्ति सद्यः ।। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : उन्तीसवाँ अध्याय ५१५ पैत्तिक शूल में विशिष्ट क्रियाक्रम -- पुराना गुड, शालि चावल, जी, दूध, घृतपान, विरेचन, जाङ्गल पशु-पक्षियो के मास ये द्रव्य पित्तशूल से पीडित रोगियो में लाभप्रद होते है । पैत्तिक शूल में परवल की पत्ती और नीम की पत्ती को दूध, पानी या ईख के रस में पीसकर पिलाकर वमन कराना, शीतल जल मे अवगाहन, शीतल वायु युक्त स्थानो पर नदी के किनारे आवास, शीतल जल से भरे कास्यपात्र ( कटोरे प्याले ) को शूलयुक्त स्थान पर रखना उत्तम रहता है । " यवयूप, मण्ड या पेय १ - वमन रोग, ज्वर, ज्वरातिसार, पैत्तिकशूल, तीव्र संताप एव बार बार प्यास लगना ( तृष्णा रोग ) मे जो का मण्ड बनाकर ठंडा होने पर उसमे मधु मिलाकर ( Barly water) पीने को देना चाहिये । इससे इन सभी रोगो मे शान्ति मिलती है । धान के खील का मण्ड और मधु भी उत्तम पथ्य है । मांसरसो मे खरगोश ( शश ) तथा लावा ( वटेर ) का मास रस बनाकर दिया जा सकता है । भेपज- २१ आमलकी स्वरस १ तोला या आमलकी चूर्ण ६ मारो से १ तोला मधु के साथ । २ विदारीकद स्वरस १ तोला । ३ त्रायमाणा का स्वरस या कषाय । ४ द्राक्षा का स्वरस या कल्क या कपाय । ५. त्रिवृत् (निशोथ काली ) का चूर्ण मधु के साथ । ६ शतावरी का स्वरस मधु से ७ मधुयष्टि का कपाय एरण्ड तैल मिलाकर । ८ आरग्वध फल को मज्जा । या ९ त्रिफला का कपाय और मधु का प्रयोग पैत्तिक दाह तथा शूल मे परम लाभप्रद होता है | त्रिफलादि कपाय --- त्रिफला, निम्बपत्र, मधुयष्टि, कुटकी, अमलताश का गूदा, शतावरी, बला और गोक्षुर का कषाय यथाविधि बनाकर ठंडा होने पर मधु मिलाकर सेवन करने से पित्त की अधिकता शान्त होती है । रेचन हो जाने से तज्जन्य दाह एव शूल दोनो का शमन होता है। श्लेष्म शूल में विशिष्ट क्रियाक्रम - कफन शूल मे वमन, लंघन, ज्योतिष्मती ( मालकगुनी ) आदि द्रव्यो द्वारा शिरोविरेचन, मधु से वने सीधु या १. गुड शालियवा क्षीर सविष्यानं विरेचनम् । जाङ्गलानि च मासानि भेपजं पित्तशूलिनाम् ॥ पित्ते तु शूले वमनं पयोऽम्बुरसस्तथेोः सपटोलनिम्बै । शीतावगाहाः पुलिना सवाता कास्यादिपात्राणि जलप्लुतानि ॥ ( भै . ) २ प्रलिह्यात् पित्तशूलघ्नं धात्रीचूर्णं समाक्षिकम् ॥ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि अरिष्टो का सेवन, शहद, गेहूँ एवं जी की रोटी, एवं अन्य रुक्ष एवं कटु द्रव्यो का सेवन करना चाहिये। भेपज-१ पंचकोलादि चूर्ण--पंचकोल, सैधव, सामुद्र तथा विडलवण तभजित होग सम मात्रा में लेकर चूर्ण बना ले। मात्रा १-३ माशे । अनुपान मदोष्ण जल । २. दशगूल कपाय बनाकर उसमे सेंधा नमक १ माशा, यवक्षार १ माना मिलाकर पीना। ३. विल्वादि क्वाथ-वित्वमूल, एरण्ड, चित्रक इन की जड़ें मार शुण्ठी इन को सम भाग में लेकर कपाय बना कर उस में घी में भुनी हीग २ रत्ती और सेंधा नमक १ मागा मिलाकर सेवन करने से कफज गूलो का शमन होता है। त्रिदोपज शल में विशिष्ट क्रियाक्रम-१ शंख भस्म, सेंधा नमक, सोठ, मरिच, छोटी पोपल घी में भुनी हीग । सम भाग मे लेकर । गर्म जल से । मात्रा ३ मारों । सभी प्रकार गृलो मे विशेषत: विदोपज शूल में लाभप्रद होता है ।। २ गोमूत्र में सिद्ध मण्डूर भस्म को त्रिफला चूर्ण और मधु के साथ सेवन निदोपज शूल मे लाभप्रद रहता है। आम शूल में विशिष्ट क्रियाक्रम-आम शूल में कफ शूल के विनाशक उपचारो को बरतना चाहिये । पुन. आम के नष्ट हो जाने पर अग्निवर्धक उपचारो में अग्नि का दीपन करना चाहिये । पंचसम चूर्ण-आमवाताधिकार का गर्म जल से सेवन । द्विदोपज शूलों में विशिष्ट क्रियाक्रम-वात-पित्तज शूल में बृहत्यादि गण की योषधियो का कपाय मधु के साथ लेना तथा मिश्रित क्रिया करनी चाहिये । बृहत्यादि गण को मोपवियो में छोटी-बडी कटकारी, इन्द्रजी, पाठा, मुलेठी। ये ओपधिया वात-पित्त की गामक होती है और मूत्रकृच्छ्र में लाभप्रद होती है। पित्त-कफज शूल में पित्त और कफ शूल की जो चिकित्सा बतलायी गई है उन दोनो का मिश्रित उपचार करना चाहिये । पटोलादि कपाय-पटोल, आंवला, हरें, वहेरा, नीम का क्वाथ मधु के साथ देना उत्तम रहता है। वात उन्लेष्मज शूल में लहसुन के स्वरम का मद्य के साथ सेवन (१ तोला लहसुन का १ श्लेष्मातके छर्दनलंबनानि, शिरोविरेकं मधुसीधुपानम् । मधूनि गोचूमयवानरिटान् सेवेत रूक्षान् कटुकाश्च योगान् ॥ भै. र. २. शंखचूर्ण सलवणं सहिंगु व्योपसंयुतम् । उष्णोदकेन तत्पीतं हन्ति शूल विदोपजम् ।। Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : उन्तीसवाँ अध्याय ५१७ रस ओर ४ तोला मद्य के साथ पिलाना ) उत्तम रहता है। लहसुन के रस को मधु मिलाकर सेवन भी उत्तम रहता है । ' श्रोणि तथा वृक्क-शूल ( Renal or uterine colic )— १ एरण्ड सप्तक कपाय - एरण्ड बिल्व, छोदी कटेरी, बडी कटेरी, एवं विजौरे को नीबू की जड, पापाण मौर गोखरू के वीज, पाठा एवं मुलेठी इन सब औषधियो का २ तोला लेकर, ३२ तोला जल में खोला कर शेष जल ८ तोला, इस में घी में भूनी हीग ४ रत्ती, यवक्षार १ माशा और एरण्ड तैल १ तोला मिलाकर पीने को देना चाहिये । इस क्वाथ से श्रोणि प्रदेश मे होनेवाले ( Pelvic region colic ) शूल शान्त होते है । २. अश्मरीहर कपाय - ( मूत्रकृच्छ्राधिकार ) वृक्कशूल में लाभप्रद होता है । २. हिंग्वादि चूर्ण - घृतभर्जित होग, सोचल नमक, हरड, विडलवण, सैन्धवलवण, तुम्बुरु ( नेपाली धनिया ) तथा पुष्करमूल प्रत्येक एक-एक तोला लेकर कूट- छान कर महीन चूर्ण बना ले | मात्रा ३ माशे । अनुपान दशमूल कपाय | ( चक्रदत्त ) ४. कुन्दरु को पत्ती या मूल का स्वरस या कषाय वृक्कशूल शामक होता है । इस चूर्ण का उपयोग पार्श्वशूल. हृच्छूल ( Angina Pectoris ) वस्ति कटि-पृष्ठ शूल (Uterine or Renal colics or Lumbago ) मे उत्तम कार्य करता है | ५ शुण्ठयादि योग - शुण्ठी चूर्ण १ तोला, छिल्का रहित काली तिलका चूर्ण १ तोला और पुराना गुड १ तोला मिश्रित दूध के साथ सेवन करने से योनि या गर्भाशय शूल ( Unterine colic ) मे उत्तम लाभ होता है | किन्तु गर्भाशय के शूल मे विशेष उपयोगी है | पित्ताशय यकृत्प्लीह शूल - ( Biliary cotics ) मे १ बिजौरे नीबू की जड का क्वाथ या सहिजन की छाल का काढ़ा बनाकर उसमें यवक्षार १ माशा १. रसोनं मधुसम्मिश्र पिवेत् प्रात प्रकाक्षित. । वातश्लेष्मभव शूलं निहन्ति वह्निदीपनम् ॥ २. नागरार्द्धपल पिष्टं द्वे पले लुञ्चितस्य च । तिलस्यैकं गुडपलं क्षीरोष्णेन तु पाययेत् ॥ वात गुल्ममुदावर्त्ती योनिशूलन्च नाशयेत् । । Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवर्स-सिद्धि और : टोला गह मिलाकर देना! अथवा विजौरे नीबू का रस १ छटाक लेकर उरमं यवक्षार १ गागा मिलाकर सेवन करना भी लाभप्रद रहता है । २ वरणादि कराय-(अमरी अधिकार) उत्तम कार्यकर होता है । ३. पंचतृण कपाय-कुश, कास, गर, दर्भ, इक्षु-मूल, नरकट मूल, तालमखाने का मूल इनका सम प्रमाण में लेकर बनाया कपाय । मधु से उत्तम कार्य करता है। ४.पित्ताश्मरी या पित्ताराय शूल में वाकुची वीज (गोलदाने की) और वरुण की छाल प्रत्येक २ तोला, जल ३ छटांक रात में भिगोकर सुवह मसल छान कर पीने से लाभप्रद रहता है । ५. वीरतरादिगण-(अश्मरीनागक) भोपधियो का यथालाभ कपाय का सेवन भी उत्तम रहता है। शूलहर धूप-कम्बल से गरीर को ढककर प्राणायाम करते हुए रोगी को पड़वा तेल से ग्लेि हुए सत्तू से धूपन करने से शूल शान्त होता है । आंत्र राल ( Intestinal Colic) में शूलाधिकार के बहुविध योग तथा पुरीपोदावर्त्त की चिकित्मा समुचित है। आंत्रपुच्छ शूल ( Appendicular Cohc) में अन्तर विद्रधि एवं गुरम रोग की चिकित्सा समीचीन है। ___परिणाम शूल तथा अन्न द्रव शूल में क्रिया क्रम-भोजनसम्बन्धी मनियमो के कारण अधिकतर इन शूलो की उत्पत्ति होती है । अस्तु, इन शूलो की चिकित्मा में आहार का नियंत्रण सर्वाधिक महत्त्व रखता है । रोगी को शारीरिक एवं मानसिक विश्राम देना भी यावश्यक होता है। कार्याधिक्य, चिन्ता, शोक, क्रोध, भोजन करके दीडना-वूमना मादि कार्य यदि उत्पादक हेतु रूप में मिल रहे हो तो इन कार्यों से रोगी को विरत करना चाहिये । व्यायाम, मैथुन, मद्य, दाल (मूग, ममूर, अरहर, चना, उडद ) आदि का अधिक सेवन, कट पदार्थों का ( तेल, मिर्च-मसाले का) सेवन बन्द करा देना चाहिये । मल-मूत्र, छीक, जम्भाई, निद्रा, वमन यादि वेगो को रोकना बन्द करा देना चाहिये। चिन्ता अधिक, शोक क्रोध आदि के वातावरण से रोगी को दूर रखने का प्रयत्न करना चाहिये । परस्पर विरोधी अन्न-पान, रात्रि-जागरण, विपम-भोजन ( समय-असमय का साना), मधिक गरिष्ट मोर शीतल अन्न का सेवन बन्द करना चाहिये । आहारविहार सम्बन्धी इन नियमो का पालन सभी प्रकार के शूल रोगों में विशेषतः Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : उन्तोसवाँ अध्याय परिणाम तथा अन्नद्रव शूलो में करना उत्तम रहता है ।' काजी, अचार, खटाई एवं तिल का वर्जन करना भी उत्तम रहता है । ५१६ चटनी ر x ! परिणाम शूल तथा अन्नद्रव शूल के रोगी मे सर्वप्रथम केवल क्षीराहार (गर्म करके ठडा किये दूध) पर रखना चाहिये । दूध को मीठा एवं रुचिकारक बनाने के लिये उसमें मिश्री, बताशे या चीनी मिलाकर देना चाहिये । इस प्रकार दूष पर एक-दो सप्ताह तक रोगी को रखकर चिकित्सा करते हुए शीघ्रता से लाभ होने लगता है ।' पश्चात् शूल कम होने पर दूध के साथ ही साथ रोगी को जो का मरुड देना प्रारम्भ करे, जब पोडा और कम हो जावे तो जो की रोटी या गेह-जी के मिश्रित आटे की रोटी और दूध पर रखकर औषधि द्वारा चिकित्सा करता रहे। इस रोग में चावल का प्रयोग रोगी को अनुकूल नही पडता है । नमक का सेवन भी उत्तम नही रहता है । अस्तु, जब रोग मे दो-तीन सप्ताह की चिकित्मा से पर्याप्त सुधार प्रतीत हो तब शाक-सब्जी का प्रयोग करना प्रारंभ करना चाहिये । शाको में परवल, सहिजन, करेला, मूली, चौलाई, बथुआ, चने का नाक एव वैगन आदि अनुकूल पडते है । रोटी-शाक और दूध का सेवन लम्बे समय तक कराते रहना चाहिये । इन शूलो में फल वडे उत्तम पथ्य हैं, सर्वोत्तम फल बनार या वेदाना पडता है । इसके अलावे आँवले का प्रचुर प्रयोग करना चाहिये । चटनी, अंचार, मुरब्बा अथवा चूर्ण के रूप में आंवले का उपयोग उत्तम रहता है । पके आम, मुनक्का, कैथ, चिरींजो, कागदी नीबू, विजौरा नीबू, अमरूद, . सेन आदि फलं बडे उत्तम रहते है। इनका उपयोग रोगी को प्रारंभ से हो कराना चाहिये । बेर का फल यदि लाल वेर या, जंगली बेर हो तो और अच्छा रहता है इसका भी उपयोग परिणाम शूल, अम्लपिस एवं वमन के रोगियो में हितकर होता है | क्षारो का सेवन शूलशामक होता है । अस्तु, सोडा का पानी, सज्जीखार ( Sodu Bicarb ), यवाखार आदि का भी पानी में घोलकर उपयोग करना लाभ दिखलाता है । 1 1 4 i {" " परिणाम शूल में स्निग्ध द्रव्यों का प्रयोग श्रेष्ठ रहता है । एतदर्थ घी का सेवन उत्तम रहता है । परिणाम शूल में व्यवहृत होने वाली बहुत सी औषधियाँ आती है, जिनके अनुपान रूप मे घृत और मधु का प्रयोग होता है । घी और १ व्यायाम मैथुन मद्य, वैदल लवण तिलान् । वेगरोध शुच क्रोध वर्जयेच्छूलवान्तर ॥ विरुद्धान्यन्नपानानि जागर विषमाशनम् । रूक्षतिक्तकषायाणि शीतलानि गुरूणि च ॥ मापादिशिम्विधान्यानि मद्यानि वनिता हिमम् । आतपं जागरं क्रोध शुचं संधानमम्लकम् ॥ वर्जयेत्पित्तशूलात स्तथा जीर्णतिलानपि ॥ में र. Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिषम-सिद्धि गृड का उपयोग भी उत्तम रहता है। गेहू, जो या पुराने चावल का मण्ड बना कर उसमे घी डालकर कई वार पिलाना उत्तम रहना है । पीने के लिये गर्म करके टडा किया जल अथवा नारिकेल जल (डाभ का पानी) देना चाहिये। ___ कई बार सत्तू का उपयोग भी परिणाम शूल मे लाभप्रद पाया जाता है। मलाई युक्त दही के साथ जी या मटर का सत्तू केवल खाने को दिया जावे, साथ मे दूसरा भोजन न दिया जाये तो उत्तम लाभ दिखलाई पढ़ता है । दालो में मटर की दाल परिणाम शूल मे अनुकूल पडती है। मटर की पतली. दाल बना कर उसमें जी का सत्त मिलाकर पीने से शीघ्र शूल में लाभ पहुंचता है। पुराने तथा नवीन उभयविध परिणाम शूल में ही हितकर होता है । औषध--मासरसो में जाङ्गल पशु-पक्षियो के मांसरस उत्तम रहते है । आज कल मासरसो के बहुत से योग (Protienous diet) अंग्रेजी दवाखानो में मिलते है । इनका उपयोग जाङ्गल मासरसो के अभाव में किया जा सकता है। रोगी के दोपो के संशोधन के लिये वमन, विरेचन तिवत मधुर द्रव्यो से कराना चाहिये । आवश्यकतानुसार वस्ति (Enema) देकर भी कोटशुद्धि करनी चाहिये ।२ . ' भेपज योग-१. निर्मास गम्बूक (धोधे) की भस्म १ माशा की मात्रा में घृत के साथ चटाकर ऊपर से गर्म जल पिलाने से शूल में सद्यः शान्ति मिलती है। २. शख भस्म, सेंधानमक, सोठ, मरिच, छोटो पीपल और घी में भुनी होग। समभाग मे लेकर। मात्रा २-४ माशा गर्म जल से देना सद्यः शूल शामक होता है । ३. शंख चूर्ण-शख भस्म, सेंधानमक, सोचलनमक, विडनमक, सामुद्रलवण, खनिजलवण, यवक्षार, शुद्ध सुहागा, जायफल, सॉफ, अजवायन पी में भुनी होग, सोठ, कालामिर्च, छोटी पीपल । इन द्रव्यो को समभाग में लेकर महीन चूर्ण कर ले। मात्रा २ माशा गर्म जल के अनुपान से सेवन यह सभी प्रकार के शूलो में जैसे-~यकृच्छूल, पित्ताशय शूल ( Biliary colic), मात्रशूल ( Intes tnial colic ), परिणाम शूल तथा अन्नद्रव गल (Peptic ulcer ), में १. दध्नाऽनूनसरेणाद्यात् सतीनयवशक्तुकान् । अचिरान्मुच्यते शलान्नरोऽन्नपरिवर्जनात् ।। य. पिवति सप्तरात्र शक्तूनेकान् कलाययूपेण । स जर्यात परिणामज मूल चिरजमपि किमुत नूतनजम् ।। २. वमनं तिक्तमधुरविरेकरपात्र शस्यते । वस्तयश्च हिता. गले परिणामसमुद्भवे ॥ - Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : उन्तीसवाँ अध्याय ५२१ उत्तम लाभ दिखलाता है। ४ शुंठी क्षीरपाक-सोठ, कालीतिल और गुड समभाग मे लेकर कुल २ तोला, दूध १६ तोला, पानी ६४ तोला आग पर चढाकर दूध मान शेष रहने पर उतार लेना । इस विधि से बने क्षीर-पाक का प्रयोग एक सप्ताह तक करने से भयङ्कर परिणाम शूल भी शान्त होता है। ५ पटोल, त्रिफत्रा, नीम का काढा मधु के साथ पीने से पित्त-श्लेष्म से उत्पन्न रोगो मे और अम्ल पित्त तथा परिणाम शूल मे लाभप्रद होता है।' तिलादिगुटिका-तिल, सोठ, हरड और शवूक भस्म ( घोघा भस्म) प्रत्येक १ तोला, पुरानो गुड़ ८ तोला । सब को अच्छी तरह खरल करके ६, ६ माशे की गुटिका बना ले। शीतल जल के अनुपान से दिन में एक या दो बार ले। इसके सेवन काल मे दूध-रोटी या मासरस और रोटी रोगी को खाने के लिये देना चाहिये। विडङ्गादि मोदक-वायविडङ्ग के बीज, सोठ, मरिच, पिप्पली, त्रिवृत, दन्ती की जड, चित्रक की जड इन सबको समभाग मे लेकर पीस छानकर सबसे द्विगुण गुड़ मिलाकर रख दे । यह अग्निवर्धक, कृमिघ्न तथा शूलघ्न योग है। लौह तथा मण्डूर के योग-आयुर्वेद के ग्रन्थो मे लौह तथा मण्डूर को परम शूलशामक माना गया है। इसके कई प्रसिद्ध एव आशु लाभप्रद योगो का उल्लेख नोचे किया जा रहा है। नारिकेल लवण-अच्छी तरह से पके हुए नारियल को ले. उसके ऊपर की जटा को पृथक् करे, फिर उसमे छेद करके, सेधानमक महीन चूर्ण भर दे फिर छिद्र को बन्द करके उसके ऊपर कपडमिट्टी कर उपले को आग मे पुट देकर जलावे । जब वह अपने आप वुझकर शीतल हो जाय तो आग से निकालकर मिट्टी को दूर करके भस्मीभूत नारियल का महीन चूर्ण मय नमक के कर लेना चाहिये। मात्रा २ माशा। अनुपान पिप्पली चूर्ण ४ रत्ती और गर्मजल से । सभी प्रकार के शूलो मे विशेषत. परिणाम शूल मे लाभप्रद । शूलवर्जिनी वटी-शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, लौह भस्म, शंख भस्म प्रत्येक २ तोला, शुद्ध सुहागा, घो में भुनी होग, सोठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, हरड का दल, बहेरा का दल, आंवला, कचूर, दालचीनी, छोटी, इलायचो, तेजपात, तालीशपत्र, जायफल, लोग, अजवायन, जीरा, धनिया प्रत्येक १ तोला ले । प्रथम पारद एव गन्धक की कज्जली बनाकर शेष भस्म तथा काष्ठौषधियो के चूर्णो को १. पटोलत्रिफलारिष्टक्वाथं मधुयुतं पिबेत् । । । पित्तश्लेष्मज्वरच्छदिदाहशूलोपशान्तये ॥ भ. र. । - Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२. भिपकार्य-सिद्धि मिन् वरल करे। फिर उसमें चकरी के दूध की एक भावना और आंवले के बाकी १ भावना देकर, ४-४ रत्ती की गोलियां बना मुखाकर गीगियो में भर र न ले। माना १.२ गोली बकरी के दूध से ग्रा-ठण्डे जल से दे । सभी प्रसार के गृलो में विशेषतः परिणाम बेल में लाभप्रद रहता है। त्रिगुणात्य रस-मुहागे को ग्वील, मगङ्ग भस्म, स्वर्ण भस्म, गुद्ध गन्धन तया रस मिन्दुर नमभाग में लेकर बदरक के रस में एक दिन तक भावित कर सम्युट करके गजपुट में एक बार फूक दे। स्वाम-गीतल होनेपर निकाल कर प्रयोग करे । मात्रा २-८ रत्ती । अनुपान सेंधानमक, भुना जीरा, भुनी होग प्रत्येक २ रत्ती, म ६ मागे और घृत १ तोले के साथ । परिणाम पल में न लानप्रट होता है। पार्वगल और छाती के दर्द में विशेष लाभप्रद । धात्री लोह-अच्छे पके हुए नांवलो को तोड़कर उनकी गुठली पृथक बरे, फिर छाग में सुखाकर उसका कपड़छन चूर्ण करे । इस प्रकार तैयार किया हया अविने का चूर्ण ३२ तोला, लौह भस्म १६ तोला, मधुयष्टि चूर्ण-८ तोले । मुत्रको एकत्र कर नानी गिलोय के रस में मर्दन कर के कपडछन चूर्ण बना लें। मात्रा ५-१० रत्ती। अनुपान वृत और मधु । भोजन के पूर्व, मध्य एवं अन्त में । समामृत लोह-मूली, हरट, बहेरा, आंवला और लोहभस्म प्रत्येक १-१ नोला । खन्न में एकत्र महीन पोस कर रख ले। मात्रा १ माशा । अनुपान नहद तोला मोर घो १ तोला के साथ। यह योग परिणाम शूल के मनिरिक्त तिमिर नामक नेत्र रोग में भी लाभप्रद है। इन लोह योगो के अतिरिक्त भी कई लोह योग जैसे गूलराज लोह, वैश्वानर लोह, चतु.मम लौह, लौहामृत और लौह गुटिका आदि कई योगो का मूलाधिकार में वर्गन बाया है । मण्डूर के भी कई योग पाये जाते है, जैसे-चतुःसम मण्डूर, भीमवटा मगदूर, तारा मण्डूर, गतावरी मण्डर, बृहत् शतावरी मण्डूर तथा गुड मदर। ये सभी योग, पुराने परिणाम शूल में जब पोषण की कमी से रक्ताल्पता हो जाती है, उत्तम कार्य करते हैं। इन लोह या मगदूर के योगो को पान्नुराग का चिकित्सा में भी व्यवहार किया जा सकता है। यहाँ पर एक भटूर का योग दिया जा रहा है नारा सण्डर-वायविडन्त, चित्रक की जड़, चव्य, हरीतकी, विभीतक, आँवला, मोठ, मरिच, छोटी पीपल प्रत्येक का चूर्ण १-१ तोला, मण्दूर भस्म १ तोला, गोमूत्र १८ तोला और पुराना गुड ९ तोला । कलईदार कड़ाही में रख अग्नि पर चढ़ाकर पाक बरं । जब पकते २ पिण्ट के रूप में हो जावे तो उतार घृत से निध भाण्ड में रख ले। मात्रा १ मागा। दिन में तीन बार प्रातः एवं Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : उन्तीसवाँ अध्याय ५२३ भोजन के बाद घृत और मधु के साथ प्रयोग करे। यह योग भयंकर परिणाम शूल, कामला, कृमिजपाण्डु, कृमि रोग, गुल्म, उदर रोग, शोथ तथा स्थौल्य मे हितकर होता है। __अभ्रक भस्म के योगो का भी उल्लेख परिणाम शूल चिकित्सा मे आता हैविद्याधरान तथा बृहत् विद्याधरान रस के नाम से दो योग मिलते है । उनका उपयोग झूल रोग मे उत्तम लाभ करता है। विद्याधराभ्र रस (वृहत् )-शुद्ध पारद, शुद्ध गधक, हरड, बहेरा, आंवला, सोठ, मरिच, छोटी पीपल, वायविडङ्ग, मोथा, त्रिवृतमूल, दन्तीमूल, चित्रकमूल, मूषाकर्णी और पीपरामूल प्रत्येक १-१ तोला, अभ्रक भस्म ४ तोला, लौह भस्म १६ तोला । प्रथम पारद-गन्धक की कज्जली फरे, फिर शेष द्रव्यो का महीन चूर्ण मिलाकर महीन पीसकर घृत और मधु से खरल करके २ रत्ती के परिमाण की गोलियां बना ले । मात्रा १-२ गोली। अनुपान गाय का दूध या नारिकेल जल ( डाभ--का पानी)। सभी प्रकार के शूलो मे लाभप्रद । नारिकेलखण्ड-आदि कई पाक का उपयोग परिणाम शूल मे होता है । जैसे हरीतकी खण्ड, पूग खण्ड (सुपारी पाक ), खण्डामलकी, नारिकेल खण्ड आदि । यहा पर नारिकेल खण्ड (बृहत्) का योग उद्धृत किया जा रहा है। यह एक परिणाम शूल के रोगी में उत्तम काम करने योग्य तथा बल्य एवं रसायन है। सुन्दर पके हुए नारियल की गिरी को शिला पर पीसकर वस्त्र मे रख कर जलोयाश को निकाल कर पृथक् रख ले। फिर गिरी का कल्क १ सेर लेकर ४० तोले घी मे भूनकर उसमें कच्चे नारियल का जल १६ सेर, चीनी २ सेर, सोठ का चूर्ण ३२ तोला और गोदुग्ध २ सेर मिलाकर पाक करे। जब पाक तैयार हो जाय तो अग्नि से उतार कर उसमे निम्नलिखित द्रव्यो का महीन चूर्ण मिलाकर एक कर ले । वशलोचन, सोठ, मरिच, पीपल, नागरमोथा, दालचीनो, तेजपात, छोटी इलायची, नागकेशर, धनिया, जोरा, गजपीपल प्रत्येक ४ तोले । मात्रा ६ माशे । अनुपान दुग्ध या जल । इसका उपयोग सभी प्रकार के शूल विशेपत. परिणाम शूल, अन्नद्रव शूल, अम्लपित्त तथा छदि रोग मे लाभप्रद होता है। शूल रोग मे कुछ व्यवस्था पत्र सामान्यतया शूल रोगो में वायु की अधिकता होती है, -अस्तु; तीन उदर शूल से पीडित रोगी आवे तो उसको तत्काल उदर का स्वेदन करे । एतदर्थ वातिक शूल के जो उपचार बतलाये गये है उनका प्रयोग करे । जैसे गर्म पानी को रबर के थैले या बोतल मे भर कर सेकना, उदर पर जौ का आटा और जवाखार को Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिषकर्म-सिद्धि ५२४ मट्ठे मे पोसकर मोटा लेप करना चाहिये । क्षारराज --- ( यवक्षार, सज्जीखार, तालवृन्तक्षार तथा सोडावाय काव का मिश्रण ) इसे एक छटांक गर्म जल में २ माशा की मात्रा मे डालकर कागजी नीबू का रस डालकर पिलाना । साथ मे बने बताये योगो को मिलाना हो तो हिग्वादि वटी ( कुपीलुयुक्त ) एक से दो गोली और क्षारराज १-२ माशा मिलाकर दो-दो घंटे के अंतर से गर्म पानी के शर्बत और नीबू के रस के साथ देता चले । शूलवजिनी वटी एक उत्तम योग है । इस की एक एक गोली एक दो घंटे के अंतर पर गर्म जल से देता चले | कोष्ट के लिए आस्थापन ( सोपवाटर, सेलाइन वाटर का एनीमा ) देना चाहिये । यदि एक आस्थापन से कोष्ठ शुद्धि न हो तो दूसरी-तीसरी वस्ति भी दी जा सकती हैं | अन्नद्रव तथा परिणाम शूल में व्यवस्थापत्र - सप्तामृत लोह या धात्री लोह ४ रत्ती से १ माशा, प्रतिमात्रा मे । दिन मे दो वार घी १ तो. और मधु १| तोले के साथ दे । धात्र्यरिष्ट - भोजन के बाद २ चम्मच पीने को दे । यदि धात्रयरिष्ट सुलभ न हो तो घात्री ( आँवले ) का चूर्ण ६ माशे भोजन के बाद दे । आँवले का प्रचुर प्रयोग परिणाम शूल में हितकर होता है । अविपत्तिकर चूर्ण ( अम्ल पित्ताधिकार) ६ माशे की मात्रा में रात में सोते वक्त दूध के साथ देना चाहिये । शान्त करने के लिये शूलवजिनी वटी, परिणाम शूल की वेदना को तत्काल शङ्खवटी, शबूक भस्म या धारराज या केवल साथ देना चाहिये । अम्लपित्ताधिकार की जा सकता है । सोडा वायकार्य - निम्बू के शर्वत के औषधियो का भी उपयोग किया * तीसवाँ अध्याय उदावर्त्त तथा आनाह प्रतिषेध प्रावेशिक - अधारणीय वेगो के धारण से ( न रोकने वाले स्वाभाविक वेगो के रोकने से ) आवृत वायु ( रुद्ध हुई वायु ) की विलोम ( उल्टी ) गति होने लगती है । वह इतस्ततः घूमती हुई विविध लक्षणो को पैदा करती हैं। इस रोग को उदावर्त कहते है । शरीर में स्वाभाविक वेग तेरह प्रकार के ऐसे पाये Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तीसवाँ अध्याय ५२५ जाते हैं जिन का रोकना उचित नही है जैसे - मल ( पाखाने का ), मूत्र, अपान वायु, उद्गार ( डकार ), छर्दि (वमन), छोक, जृम्भा (जभाई), क्षुधा, तृपा, निद्रा, अश्रु ( आंसू ), ब्वास ( परिश्रम से उत्पन्न श्वास ) तथा शुक्र ( काम वासना से उत्पन्न ) के वेगो के रोकने से उदावर्त्त रोग होता है । इन वेगो की सख्या तेरह है और तेरहो के रोकने से तेरह प्रकार के उदावर्त्त भी हो सकते है, जैसे १ अपानोदावर्त्ती २ पुरोषजोदावर्त्त ( इनमे Pelvirectal staisis जैसे लक्षण पैदा होते हैं । ३ मूत्रोदावर्श ( Disteh ded Bladderdue to Urethral Spasm ), ४ जृम्भानिरोधज उदावर्त्त (ग्रीवास्तंभ Spasm of Sternocleidomstoid ) ५ अश्रुज उदावर्त्त ( Acute Dacrocystitis or Blepheritis सदृश लक्षण ), ६. छिक्कानिरोधज उदावर्त्त ( Rey Neck, Headache, Hemicrania सदृश लक्षण ), ७. उद्गारनिरोधज उदावर्त्त ( Hicolugh & chset pain ), ८ छर्दिनिरोधज उदावर्त्त ( Urticaria सदृश लक्षण ), ९ क्षुधानिरोधज या १०. तृपानिरोधज उदावर्त्त ( Emaciation & Ghddiness & Syn cope, Dehydration symptoms ), परिश्रमजन्य श्वास के वेगो के रोकने से ११ श्वास निग्रहजन्य उदावर्त्त ( हृद्रोग, मूर्च्छा प्रभृति 'लक्षण ), १२ निद्रानिरोधज उदावर्त्त ( जृम्भा, अगमर्द, शरीर का भारीपन ) तथा १३. शुक्रनिरोधज उदावर्त्त इनमे वृषणग्रथि, शुक्रप्रणाली -शुक्राशय तथा पौरुष ग्रंथि के विकार पैदा होते है | " + वेग - विधारण से वायु का कोप होता है । इस प्रकार सभी उदावतों मे वायु की विगुणता होती है । अस्तु, पोडा का होना एक प्रमुख लक्षण के रूप मे पाया जाता है, चिकित्सा में वायु का अनुलोमन करना ही प्रधान उद्देश्य चिकित्सक का रहता है । उदावर्त्त मे लक्षण तीव्र अथवा चिरकालीन दोनो प्रकार के स्वरूप ले सकते है | २ 1 १ वातविण्मूत्रजृम्भाश्रुक्षवथूद्गारवमीन्द्रिया क्षुत्तृष्णोच्छ्वासनिद्राणा धृत्योदावर्त्त संभवः ॥ ( सु ) न वेगान् धारयेद्धीमानू जातान् मूत्रपुरुषयो । न रेतसो न वातस्य न च्छद्य. चवथोर्न च ॥ च. नोद्गारस्य न जृम्भाया न वेगान् क्षुत्पिपासयो । न बाष्पस्य न निद्राया निश्वासस्य श्रमस्य च ॥ २ सर्वेष्वेतेषु विधिवदुदावर्त्तेपु कृत्स्नश । वायो क्रिया विधातव्या स्वमार्गप्रतिपत्तये ॥ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ भिपकम-सिद्धि उपर्युक्त ये सभी वेग शरीर को स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ है ( Nature calls ), शरीर को स्वस्थ रखने के लिये इन का रोकना हानिप्रद होता है। इन वेगो के अतिरिक्त कुछ मानसिक वेग भी होते हैं । जिनका धारण करना (रोकना) ही श्रेयस्कर होता है और स्वास्थ्य को ठीक रखता है । अस्तु, इन को रोकना चाहिये । उदाहरणार्थ--लोभ, शोक, भय, क्रोध, मान, निर्लज्जता, ईर्ष्या, अतिराग ( मोह ) तथा अभिध्या आदि । इनके न धारण करने से विविध प्रकार के आकस्मिक ( Accidental ) या सद्योघातज रोगो के होने की संभावना रहती है। आनाह-उदावत से सम्बद्ध एक रोग आनाह पाया जाता है जिस रोग मे पूर्णतया मल एव अपान वायु की प्रवृत्ति न हो, उदर में गुड गुड शब्द भी नही हो उसे थानाह कहते है । इस अवस्था मे पूर्णतया अवरोध रहता है। मल का नि सरण वन्द हो जाता है, अपान वायु अथवा डकार का निकलना भी सर्वथा बन्द हो जाता है । आनाह आम तथा पुरीप दोनो के संचय से हो सकता है । आधुनिकदृष्ट्या इस अवरथा को बृहदंबधात ( Paralytic Ileas ) के कारण होने वाला आन्त्रावरोध ( Intestinal obstruction) कह सकते हैं। मानाह से मिलती हुई एक अवस्था आध्मान का उल्लेख वातरोगाधिकार मे आता है। इसमे भी वायु का निरोव पाया जाता है, पेट का फूलना, पेट मे गुटगुडाहट, तीन उदर शूल, उदर का फूला हुआ ( तनाव या आध्मान Distension ) पाया जाता है--परन्तु इसमें मल का संचय होना आवश्यक नहीं होता है, साथ गे गुडगुडाहट (आटोप या आत्रकूजन) पाई जाती है और उदर मे पीडा की अधिकता रहती है। सामान्य क्रियाक्रम--सभी प्रकार के उदावत रोग मे चिकित्सक को सम्पूर्णतया वायु को स्वमार्ग मे ले आने की क्रिया करनी चाहिये, जिससे स्वाभाविक वेग प्रवृत्त हो और अवरुद्ध मल या दोष निकल जावे । २ इसके लिये स्नेहन १ लोभशोकभयक्रोधमनोवेगान् विधारयेत् ।। नर्लज्ज्येातिरागाणामभिध्यायाश्च वुद्धिमान् । (चर ) २. सर्वेष्वेतेपु भिपजा चोदावर्तेपु कृत्स्नशः । वायो क्रिया विधातव्या स्वमार्गप्रतिपत्तये ।। आस्थापन मारुतजे स्निग्धरिवन्ने विशेपतः । पुरीपजे तु कर्त्तव्यो विधिरानाहकोदित । यो. र यिवृत्सुधापनतिलादिशाकग्राम्यौदकानूपरसर्यवान्नम् । अन्यैश्च सृष्टानिलूमूत्रविड्भिरद्यात् प्रमन्नागुडसीधुपायी ॥ भै. र. Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तीसवाँ अध्याय ५२७ स्वेदन, लेखन (Counter Irritants) तथा विरेचन, फलवीत्ति (Irritants) तथा अभ्यग, अजन, नस्य आदि करना चाहिये। भोजन एव औषधि के रूप में ऐसी कल्पना करनी चाहिये जिससे मल, मूत्र तथा वायु (अपान या डकार) पर्याप्त मात्रा में निकले । भोजन मे ग्राम्य (पालतू ), आनुपदेशज तथा जलचर जीवो के मास तथा जौ का ( वहुमूत्रशकृद्-यव ) का बहुल प्रयोग करना चाहिये । बैगन, मूली, गुड, अदरक, नीबू, यवाखार, हरीतकी, लवड्ग, होग, द्राक्षा, पचलवण का अधिक प्रयोग करना चाहिये । औपधि के रूप मे विशेषतः वायु एवं पुरीपज उदावत मे मद्य, आसवारिष्ट, एरण्ड तैल, अमलताश का मज्जा, त्रिवृत् ( काली 'निशोथ ), सेहुण्ड, दन्ती वीज, गोमूत्र आदि का प्रयोग करना चाहिये। वायु का अवरोध हो तो उदर पर तेल की मालिश और सेक करके आस्थापन द्रव्यो से वस्ति देना और पुरीपज उदावत मे आनाह की वक्ष्यमाण चिकित्सा का क्रम रखना चाहिये । आस्थापन द्रव्यों में-त्रिवृत्, बिल्व, पिप्पली, कुष्ठ, सर्पप, वच, इन्द्रयव, शतपुष्पा, मुलैठी ये दश द्रव्य विशेप लाभप्रद होते है, अस्तु, इनके कपाय से वस्ति देना उत्तम रहता है। (च) । उदावत में सामान्य सप्तलादिगण की औषधियाँ--सप्तला, शखिनी श्वेता, आरग्वध, तिल्वक, श्यामा, दन्ती, द्रवन्ती, स्नुही, त्रिवृत्, अमृता, महाश्यामा, काम्पिल्लक, करंज, स्वर्णक्षोरी-ये सभी तीन क्षोभक और रेचक औपधियाँ है इनका उपयोग रेचन में करे । .. मूत्रोदावर्त मे-मूत्र के वेग के अभिहत होने वाले उदावत मे मूत्रावरोध, होता है। एतदर्थ १ मद्य मे काला नमक मिलाकर पिलाना । २. मद्य मे छोटी इलायची का चूर्ण- मिलाकर पिलाना। ३ दूध मे जल-मिलाकर पिलाना । ४. जवासा अथवा अर्जुनकी छाल की काढा पिलाना। ५ ककडी के बीज को पानी मे पीसकर थोडा सेंधानमक मिलाकर पिलाना । ६ लघुपंचमूल कषाय या उससे सिद्ध क्षीर का पिलाना । ७ द्राक्षा का कषाय पिलाना । ८ मुनक्का के कपाय मे या अगूर के रस मे यवक्षार तथा शर्करा प्रत्येक १ माशा मिलाकर पिलाना । ९ शतावरी का.स्चरस या कषाय शक्कर मिलाकर या १० कुष्माण्ड स्वरस या कषाय का शक्कर के साथ पिलाना भी उत्तम रहता है। लेप-पेडू या वस्ति के ऊपर चूहे की मोगी, या चूहे के बिल की मिट्टी, किंशुक ( पलाश पुष्प ) को पीसकर किंचित गर्म करके लेप करना। गोखरू के वीज, मदनफल, चूहे की, मीगी, ककडी-के बीज, केले की जड को काजी के साथ पीसकर लेप करना । अन्य भी मूत्रकृच्छ तथा अश्मरी में प्रयुक्त होने वाली Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिपक्षम-सिद्धि बोधियों का उपयोग मूत्रावरोध ( Retention of urine ) को दूर करता है। अन्य प्रकार के उदावत्ता में क्रियाक्रम-जम्मा निरोषजन्य उवायत्त में नेहन और स्वेदन करे । मयुनिरोधन उदावत में नेत्र का स्वेदन कराके लेखन ( मरिच बादि के योग से बने) बंजनों को लगाकर बधु की प्रवृत्ति कराना चाहिये । ठोक के नकावट में पैदा होने वाले उदावत मेनस्य लेकर, सूर्य की और देवकर या नाक को कुरेदकर ठीक लाने का प्रयत्न करना चाहिये । डकार की नकाब्ट में पैदा हुए उदावन में स्नैहिकघूम का उपयोग, बदरक एवं काला नमक का मेवन, मट्टे के साथ बाढ का सेवन कराना चाहिये । बमन विरोध के उत्पन्न उदावत में दोणनुनार बामक योग देकर वमन कराना । शुक्रोदावर्त में मैथुन का विधान है, साथ ही पौष्टिक एवं शुक्रवर्धक याहार-विहार जैसे अभ्यंग, नवगाहन, मदिग, मुर्गे का बण्डा या मास, दूध, चावल और निम्ह वस्ति देना चाहिये । वस्तिगोधक द्रव्यों से मिद्ध क्षीर का प्रयोग उत्तम रहता है। भूख के निरोध से उत्पन्न उदावरी में-स्निग्ध, रुचिकर एवं स्वल्प भोजन है। तृषा-विधात में उत्पन्न उदावन में स्वादु एवं शीतल यवागू तथा मद्य का पिलाना हितकर होता है। परिश्रमजन्य स्वास के अवरोध से उत्पन्न उदावत में-पूर्ण विश्राम और मासरस के माय भोजन देना हितकर होता है। निद्रा विधानज उदावत्त म-रात में सोते वक्त माहिप-और (भैस का दूध) पीने के लिये देना चाहिये । नाय हो तिल तल से अन्यंग कराके रोगी को जमीन पर माने के दिये प्रेरित करना चाहिये । इस प्रकार नामान्यतया उदावर्त रोग में स्नेहन, स्वेदन, मास्थापन वस्ति, विरेचन तथा गुदत्ति का प्रयोग लाभप्रद क्रियाक्रमों में माने गये हैं।' २. स्नेहस्वेदन्दावतं नुम्मणं ममुपाचरेत् । अचमोक्षोऽक्षिजे कार्य. स्निग्वस्विन्नस्य देहिनः ॥ मरिचाद्यजनधर्मरादित्याद्यवलोकन । शवयो क्षवयत्रेण घाणस्थेनाउनयेत्सवम् ॥ उदगार क्रमोपेतं स्नहिकं घूममाचरेत् । भक्षयेद्रुचक साद्र घाटं वा मथितान्वितम् ।। वयं वान्तं यथादोपं नस्यस्नेहादिभिर्जयेत् । वस्तिगुद्धिकरमिद्धं चतुर्गुणजलं पय ॥ यावारिनाशात् क्यथितं पीतवन्तं प्रक्रामतः । रमोय. प्रिया नार्य गक्रोदावत्तिनं नरम् ।। तस्यान्यगावगाहाश्च मदिराश्चरणायुधाः । ग्रालि. पयो निल्हारच हितं मैथुनमेव च ॥ क्षुद्विधाते हिनं स्निग्धं यमपञ्च भोजनम् । तपाघाते पिवेन्मद्य यवा स्वादु गीतलम् ।। रसेनाद्यात्तु विधान्त. श्रमवासादितो नर । निद्राघाते पिवद् दुग्व माहिएं रजनीमुसे ।। तिलतलेन मम्मृज्य भूतले गयनं चरेत् । उदावत्तिनमभ्यक्तस्निग्वगात्रमुपाचरेत् ॥ वत्तिकास्थापनस्वेदवस्तिरेवनकर्मणा ! ( यो. र.) Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तीसवाँ अध्याय ५२९ आनाह तथा उदावत रोग में सामान्यतया चलने वाले योगउदावत रोगो में वायु तथा पुरीप के अवरोध तथा आनाह यही दो महत्त्व के रोग है। जिनमे चिकित्सा प्राय तत्परता से करने की आवश्यकता पडती है।' मल-वायु का अवरोध आनाह में भी पाया जाता है । अस्तु, दोनो मे चिकित्सा क्रम सामान्य हो रहते है। अस्तु, यहां पर इन दोनो का विशेष उल्लेख किया जा रहा है । लिखा भी है "उदावत की क्रिया ही आनाह रोग मे करनी चाहिए। आनाह की आमावस्था हो तो प्रथम लंघन करा के फिर पाचन देना चाहिए।" वायु एवं पुरीष के उदावर्त तथा आनाह रोग मे अघो वायु का निरोध पाया जाता है-स्नेहपान (घृत का पिलाना या घृत के अनुपान से वातानुलोमक चूर्णों का प्रयोग), तेल का उदर पर मालिश, स्वेदन ( उदर का सेक), उदर पर लेप, आस्थापन वस्ति ( Enema) तथा गुडति (Suppositories) का प्रयोग हितकर होता है। गुदवत्ति के कई योग ग्रथो मे पाये जाते हैं। इनमे किसी एक का उपयोग गुदामार्ग से करने पर अद्भुत लाभ दिखलाई पडता है । ___फलवर्ति-मैनफल, पिप्पली, कूठ, वच, सफेद सरसो, गुड और यवक्षार इन द्रव्यो को सममात्रा में लेकर पोसकर वत्ति जैसी एक अगुली की मोटाई की पत्ति बनाकर गुदा मे रखने से मल और वायु की प्रवृत्ति होकर उदावतं दूर होता है। हिग्वादिवर्ति-होग, शहद और सेधानमक सममात्रा मे लेकर वत्ति बनाकर घृत से अभ्यक्त करके गुदा मे प्रविष्ट करना । यह योग वडा ही उत्तम कार्य करता है। __अगार धूमादिवर्ति-रसोई घर का धुवा, सेंधानमक, पिप्पली, मैनफल, पीला सरसो-इन्हे समभाग मे लेकर गोमूत्र मे पीसकर तिल का तेल मिलाकर वत्ति बनाकर गुदा मे प्रविष्ट करना । १ अधोवातनिरोधोत्थे ह्य दावर्ते हितं मतम् । स्नेहपान तथा स्वेदो वत्तिर्वस्तिहितो मतः ॥ उदावर्तक्रियाऽऽनाहे सामे लघनपाचनम् । आनाहेऽपि प्रयुजीत उदावहिरी क्रियाम् ॥ २ मदन पिप्पली कुष्ठ वचा गौराश्च सर्षपाः । गुडक्षीरसमायुक्ता फलवत्ति. प्रशस्यते ॥ हिंगुमाक्षिकसिन्धूत्थैः पक्त्वा वरि सुवर्तिताम् । गुडक्षीरसमायुक्ता फलवतिः प्रशस्यते ॥ ३४ भि० सि० Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० सिपकर्म-सिद्धि राठादिवत्ति-मन गिला, गृधूम, काला नमक, सोठ, मरिच, छोटी पीपल, निर्गुण्डीपत्र, श्वेत सर्पप, कूठ और मैनफल । महीन पीसकर गोमूत्र में पक्राकर अंगूठे के बराबर मोटी वत्ति बनाकर घी में लिप्त करके धीरे-धीरे गुदा में प्रविष्ट करने से बानाह में अद्भुत लाभ दिखलाता है। उदर का प्रलेप-वल्मीक (गम्बी ) की मिट्टी, करञ्जकी त्वचा, मूल, फल और पत्र तथा मरसो। इनको गोमूत्र में पीस कर उदर पर गुनगुना लेप करने से वायु का ठीक प्रकार से बनुलोमन होता है। इससे उदावते तथा यानाह का गमन हाता है। पुरीपोदावर्त तथा आनाह में प्रयुक्त होने वाले आभ्यंतर योग १ सप्तलादि गण ( चक्रदत्तोक्त) की औषधियो का चूर्ण या कषाय रूप मे मुम्ब से उपयोग लाभप्रद रहता है । इन्ही औपवियो का श्यामादि कपाय नाम से वृन्द ने उपयोग बतलाया है । इसका उल्लेख ऊपर हो चुका है। २. त्रिवृत्, हरोतकी और काली निगोथ इनका चूर्ण सममात्रा में लेकर स्नुही भीर से नावित करके १-२ माना की मात्रा में गर्म जल से देना।' ३. केवल स्नुही (सेहुण्ड मूल का चूर्ण) १-२ मागा गर्म जल से देने से नाह में लाभ होता है। ४. हिंग्वादि चूर्ण-घी में भुनी हीग १ भाग, दूविया वच २ भाग, कूठ ४ भाग, सब्जीखार ८ भाग, वायविडङ्ग १६ भाग। इनका कपड़छन चूर्ण । मात्रा ?-२ मागा । अनुपान उष्णोदक । हृद्रोग, गुल्म, मानाह, डकार का अविक माना मे इसके प्रयोग से लाभ होता है । ५ वचादि चूर्ण-दूधिया वच, बड़ी हरड, चित्रकमूल, यवक्षार, पिप्पली, बतीन तथा कूठ । इन द्रव्यो को समभाग में लेकर बनाया महीन चूर्ण । मात्रा २-३ माने । उदावर्त एवं मानाह ( वायु का रुकना और सफारा) में लाभप्रद । ६. नाराच रस-गुद्ध पारद एवं गद्ध गंधक की कजली (प्रत्येक एक तोला), काली मिर्च १ तोला, शुद्ध सोहागा, पिप्पली चूर्ण प्रत्येक २-२ तोला, जयपाल ( जमालगोटे) का शुद्ध चूर्ण ९ तोला । सव को मिलाकर यूहर के दूध के साथ तीन दिनो नक खरल करे। फिर इसको टिल्के रहित नारियल के फल के भीतर टोटा से छेडकर के उसमें भर तीव्र आंच के भीतर रख कर पाक करे । फिर म्वाङ्गगीतल होने पर चूर्ण को नारियल से बाहर करके पीस ले एव गीगी में १ त्रिवृद्धरीतकी श्यामा स्नुहीक्षीरेण भावयेत् । स्नुहीमूलस्य चूर्ण वा पिवेदुप्णेन वारिणा ॥ (म. र.) Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३१ चतुर्थ खण्ड : तीसवाँ अध्याय भर कर रख ले। मृदु कोष्ठ के रोगियो मे केवल नाभि मे लेप कर देने से रेचन होने लगता है। इस चूर्ण का गध लेने से भी सुकुमार एव स्निग्ध कोष्ठ के व्यक्तियो मे रेचन होता है। क्रूर कोष्ठ के व्यक्तियो मे १ रत्ती को मात्रा मे शीतल जल से देने से तीन रेचन होता है, उदावर्त तथा आनाह का शमन होता है। ७ इच्छाभेदी रस-शुद्ध पारद, शुद्ध गधक, शुद्ध सोहागा, काली मिर्च, प्रत्येक १ तोला, निवृत् की जड तथा सोठ का चूर्ण प्रत्येक २ तोला, शुद्ध जयपाल का चूर्ण ९ तोला। प्रथम पारद और गधक की कज्जली बनाकर उसमे शेष द्रव्यो को सयुक्त करके अर्कक्षोर या अर्कपत्र-स्वरस की भावना देकर, अर्कपत्र में लपेट कर उपले की मृदु आंच में पका ले । फिर चूर्ण करके शीशी मे भर ले । मात्रा १-३ रत्ती तक । अनुपान शीतल जल ।' यह एक तीन रेचक योग है । इच्छा के अनुसार रेचन कराता है, अस्तु, इसका नाम ही इच्छाभेदी कर दिया गया है। जब तक दस्त कराने की इच्छा हो दस्त - से लौटने के बाद ठडा जल पीता रहे, जब दस्त बन्द करने की इच्छा हो तो उष्ण जल पीते दस्त बन्द हो जावेगा । यदि इस योग से दस्त बहुत होने लगे और वद न हो तो भिण्डी का रस पिलाना। भोजन मे दही-चावल खिलाना और उष्ण वस्त्र मे शरीर को आवृत कर सो जाने से तत्काल दस्त बन्द हो जाता है। इस योग का अनेक रोगो मे विवन्ध दूर करने के लिये प्रयोग होता है, परतु उदर रोग, आनाह तथा उदावत्त में विशेष क्रिया होती है। __ अपथ्य-वमन, वेगो का रोकना, शमीधान्य (विविध प्रकार की दाल), कोद्रव, शालूक ( विस-मृणाल ), जामुन, ककडी का फल, तिल की खली, सभी प्रकार के आलू, करीर, पीठी के पदार्थ, विवन्धकारक, विरुद्ध, कषाय रस द्रव्य, गुरुपाकी पदार्थों का सेवन निपिद्ध है। १ गुजैकप्रमितो रसो हिमजलै. ससेवितो रेचयेद् , यावन्नोष्णजल पिबेदपि वर पथ्यं च दध्योदनम् ॥ भै र Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतीसवाँ अध्याय गुल्म प्रतिषेध हृदय और नाभि के वीच उदरस्थ अगो में विशेपतः आंत्रो मे होने वाले अर्बुद या उभार को गुल्म कहते है । इसकी उत्पत्ति में वायु प्रधान भाग लेता है, वह आत्रके किमी भाग मे भर कर उसका विस्फार पैदा करता है, जिससे उदर । की दीवाल पर एक वृत्ताकार उभार सा दिखलाई पडता है अथवा स्पर्श द्वारा प्रतीत किया जा सकता है (Abdominal tumour due to Gaseous distension of Intestinal coil ) यह उभार चल ( सचारी ) या स्थिर भी हो सकता है-वायु को विगुणता में वह स्थिर रहता है और वायु के अनुलोमन हो जाने पर वह अपचय को प्राप्त होकर नष्ट हो जाता है। अर्थात् यांन मे कभी घटने और कभी वढने वाले उभार को गुल्म कहते है ।' भाचार्य सुश्रुत ने इसको अर्बुद मे पृथक् रोग माना है क्योकि अर्बुदो का स्वतत्र अध्याय में वर्णन किया है। विद्रधि ( Abscess ) से भी इसको पृथक माना है। विद्रधि मे इसका पार्थक्य करते हुए उन्होने लिखा है कि विद्रधि एक सीमित स्थान पर वाह्य या मान्यतर अवयवो में उत्पन्न होती है । वह स्थिर या अचल ( Immovable) होती है और संचारी ( Mobile ) नही होती है। विद्रधि एक स्यायी विकार है जिसमे रक्त-मासादि धातुओ का आश्रय पाया जाता है, अस्तु, उनका मूल होता है और वास्तुपरिग्रहवान् (एक घेरायुक्त) होती है, इसमे पाक या पूयोत्पत्ति होती है। परन्तु, गुल्म में पाक नही होता है इसमें दोप ही स्वय गुल्म का रूप धारण कर लेते है और उभार चल होता है उसका चलना अखिो से दिखाई पड़ता है अथवा स्पर्श के द्वारा प्रतीत किया जा मक्ता है। चरक ने गुल्म में भी कई बार पाकोत्पत्ति होते बतलाया है। विद्रधि के भांति इसमें पक्वापक्वावस्था का निदान, चिकित्सा में उपनाह तथा शस्त्र कर्म का १ हृन्नाम्योरन्तरे ग्रथिः संचारी यदि वाऽचल । वृत्तश्चयापचयवान् स गुल्म इति कोत्तित ॥ कुपितानिलमूलत्वात् सचितत्वान्मलस्य च । तुल्यत्वाद्वा विगालवाद् गुल्म इत्यभिधीयते ।। (सु) Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : इकतीसवाँ अध्याय ५३३ विधान बतलाया है। परन्तु, पाक की अवस्था मे गुल्म को गुल्म न कहकर विद्रधि कहना ही अधिक उचित प्रतीत होता है। सहिताकार ने जो वर्णन किया है वह भी विद्रधि का ही है। पकने वाले गुल्म की तीन विशेषतायें दी गई है। कृतवास्तुपरिग्रह २ कृतमूल ३ रक्तमासाश्रयी।' गुल्म के स्थान एवं भेद-मिथ्या आहार-विहार से कुपित हुए दोप कोष्ठ (उदर) में ग्रधि के आकार के पांच प्रकार के गुल्मो को पैदा करते हैं । गुल्म दोनो पाय, हृदय, वस्ति तथा नाभि इन पांच स्थानो मे होता है । वात, पित्त, कफ, सन्निपात तथा रक्त से उत्पन्न होने वाले पांच प्रकार के गुल्म होते है। इनमे प्रथम चार पुरुप और स्त्रो दोनो में किन्तु रक्तज गुल्म केवल स्त्रियो मे उनके गर्भाशय मे होता है। गुल्म का पूर्वरूप--डकारो का अधिक आना, कोष्ठबद्धता, भोजन मे अरुचि, शक्ति का ह्रास, आत्रकूजन (गुडगुड शब्द होना), पेट का फूलना या बफारा, उदरशूल तथा पचन शक्ति का कम होना ये लक्षण गुल्म के पूर्वरूप मे मिलते है । रूप-उपर्युक्त लक्षण अधिक व्यक्त हो जाते है। भोजन मे अरुचि, मलमूत्र तथा अपान वायु के निकलने में कठिनाई, आत्रो मे गुडगुड शब्द होना, आनाह तथा उर्ववात-डकारो का अधिक आना, सभी गुल्मो मे सामान्य रूप से पाये जाते है। फिर दोपानुसार वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक तथा सान्निपातिक अथवा १ विदाहलक्षणे गुल्मे बहिस्तुङ्ग समुन्नते । श्यावे सरक्तपर्यन्ते सस्पर्शे वह्निसन्निभे ॥ निपोडितोन्नते स्तब्धे सुप्ते तत्पार्श्वपीडनात् । तत्रैव पिण्डिते शूले सपक्व गुल्ममादिशेत् ॥ तत्र धान्वन्तरेयाणामधिकार क्रियाविधौ । रक्तपित्तातिवृद्धत्वात् क्रियामनुपलभ्य च ॥ यदि गुल्म विदह्यत शस्त्रं तत्र भिपग्जितम् ॥ (च चि ५.) २ कुर्वन्ति पचचा गुल्म कोष्ठान्तर्ग्रन्थिरूपिणम् । तस्य पचविध स्थान पार्श्वहृन्नाभिवस्तय. ॥ (मा नि.) म व्यस्तैर्जायते दोपै समस्तैरपि चोच्छ्रित । पुरुपाणा तथा स्त्रीणा ज्ञेयो रक्तेन चापर ॥ (सु) ३ उद्गारवाहुल्यपुरीपबन्धतृप्त्यक्षमत्वान्त्रविकूजनानि । • आटोपमाध्मानमपक्तिशक्तिरासन्नगुल्मस्य वदन्ति चिह्नम् ।। Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि स्त्रियों में पाया जाने वाला राज गुल्म अपने विशिष्ट लक्षणो से युक्त मिलते है।' रक्तगुल्म का वर्णन स्त्री रोग विज्ञान मे विस्तार से तथा पक्व गुल्मो का गत्यतन्त्र मे विद्रधि के अधिकार में विस्तार के माथ लिखा गया है। यहीं पर काय-चिकित्मा से सम्बद्ध चतुर्विध (वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक तथा सान्निपातिक ) गुल्मो की चिकित्सा का लिखना अभिलपित है । अस्तु, इन्ही चारो की चिकित्मा का मास्यान नीचे किया जा रहा है। गुल्म रोग से सामान्य क्रियाक्रम-~ हारीत सहिता मे गुल्म-चिकित्मा मे व्यवहृत होने वाले ग्यारह क्रियाक्रमों का उल्लेख किया है । जैसे-स्नेहन, स्वेदन, निरूहण, अनुवासन, विरेचन, वमन, वृहण, शमन, गोणितमोक्षण तथा अग्निकर्म । इस प्रकार इन एकादश प्रकार के क्रियाक्रमो में से दोप, दूष्य तथा रोगी के बलाबल का विचार करते हुए प्रयोग करना चाहिये । जैसा कि ऊपर में बतलाया जा चुका है गुल्म रोग मे वायु की ही प्रधानता पाई जाती है। अस्तु, गुल्मरोगियो मे सर्वप्रथम वात शामक ही चिकित्सा करनी चाहिये । क्योकि वायु के स्वभावस्थ हो जाने पर स्वल्प चिकित्सा से भी अन्य उटीर्ण दोपो का स्वयमेव गमन हो जाता है। अस्तु, गुल्म रोग मे स्नेह तथा स्वेदन प्रधान उपक्रमो के रूप मे वरते जाते है। स्नेहन के अनन्तर स्वेदन करने से त्रोतम् मृदु हो जाते है, विवद्ध (रुद्ध) वात का संशमन होता है तथा रूक्षता के कारण आत्र में सचित मल का भेदन होकर गुल्म का विनाश होता है । गुल्म को नष्ट करने के लिये रोगी के उदर पर तेल की मालिश करके सेंकना उत्तम रहता है। इसके लिये १. वातहर ओपधियो के क्वाथ के वाष्प से सेंक करना (कुम्भीस्वेद ), २. उड़द कुलथी, जो प्रभृति द्रव्यो के चूर्ण को पानी मे - - १. अरुचि कृच्छ्रविण्मूत्र वातान्त्रप्रतिकूजनम् । आनाह चोध्ववातत्व सर्वगुल्मेपु लक्षयेत् ॥ (सु) २ मिद्धमेकादशविध शृणु मे गुल्मभेषजम् । म्नेहनं स्वेदनञ्चैव निरूहमनुवासनम् ।। विरेकवमने चोभे लघनं वृहण तथा । गमनञ्चावसेकञ्च गोणितस्याग्निकर्म च ।। कारयेदिति गुत्माना यथारम्म चिकित्सितम् ।। ( हा ) ३ गुल्मिनामनिलगान्तिरूपाय. सर्वशो . विधिवदाचरितव्या । मारते यवजितेऽन्यमुदीणं दोपमल्पमपि फर्म निहन्यात् ।। ( भै र.) Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : इकतीसवाँ अध्याय उबाल कर उसका पिण्ड बनाकर कपडे मे पोट्टली बनाकर सेकना, ३. इंट को गर्म करके ऊपर वातहर क्वाथ का छोटा देकर उसके वाष्प से सेंकना अथवा गर्म ईटे को वातहर क्वाथ मे वुझा कर उससे सेंकना । ४ वातहर औपधियो को पीसकर कल्क बनाकर गर्म करके उदर को सेंकना या लेप करना । ५ वात रोगाधिकार में पठित ।' शाल्वण स्वेद से उदर का स्वेदन करना भी हितकर होता है । ६ तिलादिस्वेद-तिल, एरण्ड बोज, अतसीवीज, सरसो पीसकर गर्म करके पोटली बनाकर सेंकना । गुल्म के स्थान से रक्त-वित्रावण, बाहु की शिरा के बेच (Cubitalvein), स्वेदन तथा वातानुलोमन सदैव हितकर रहता है। लघन ( उपवास या लघु भोजन), अग्नि को प्रदीप्त करने वाले एव स्निग्ध उष्ण तथा वात के अनुलोमक पदार्थ तथा वीर्य को बढ़ाने वाले सभी प्रकार के खाद्य एव पेय द्रव्यो का सेवन गुल्म रोग मे हितकर होता है । पथ्य-वातनाशक दशमूलादि द्रव्यो से सिद्ध की हुई पेया, कुलथी का यूष, जगली पशु-पक्षियो के मासरस, तथा वृहत् पचमूलादि से सिद्ध यूप गुल्मरोगियो मे हितकर होते है । पुराना चावल, गाय या बकरी का दूध, मुनक्का, फालसा, खजूर, दाडिम, आंवला, नारगी, नीबू, अम्लवेत, तक्र, एरण्ड तैल, लहसुन, छोटो मूली, बथुवा, सहिजन को फली, जवाखार, हरें, होग, विजौरा नोवू, त्रिकटु, गोमूत्र आदि पथ्य होते हैं। अपथ्य-विरोधी भोजन, गरिष्ठ अन्न, मछली, वडो मूली, मीठे फल, शुष्क शाक, आलू का अधिक सेवन, शमी धान्य (दाल आदि), वेगो का रोकना, वमन, अधिक जल पीना गुल्म रोगी को छोड देना चाहिये। विशिष्ट क्रियाक्रम-वात गुल्म मे स्नेहन, स्वेदन, स्निग्ध विरेचन, निरूहण तथा अनुवासन, श्लैष्मिक गुल्म में लघन, लेखन, स्वेदन, अग्नि का दीपन, कटु एव क्षार द्रव्यो से सिद्ध घृत । तथा स्निग्ध एवं उष्ण द्रव्यो से उत्पन्न पित्त गुल्म में स्रसन एवं रूक्षोष्ण सेवन से उत्पन्न पित्त गुल्म मे घृतका प्रयोग उत्तम रहता है। १ स्निग्धस्य भिपजा स्वेदः कर्त्तव्यो गुल्मशान्तये । कुम्भोपिण्डेष्टकास्वेदान् कारयेन् कुशलो भिषक् ।। उपनाहाश्च कर्तव्या. सुखोष्णा शाल्वणादय । २ स्थानावसेको रक्तस्य बाहुमध्ये शिराव्यध । स्वेदोऽनुलोमनञ्चैव प्रशस्त सर्वगुल्मिनाम् ॥ पेया वातहरैः सिद्धा कौलत्था धान्वजा रसाः । खडा. सपचमूलाश्च गुल्मिना भोजने हिता ॥ - Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ भिपकम-सिद्धि बात गुल्म में अपज१. विजौरे नीबू का रस एक छटाँक मे भुनी होग ? रसी, दाडिम बीज का चूर्ण १ माना या स्वरस १ तोला, काला नमक ४ २०, सेंधा नमक ४ रत्तो मिलाकर सेवन । २ मोठ का चूर्ण १ तोला छिल्का रहित तिल १ तोला, और पुराना गुड १ तोला मिलाकर दूध के साथ सेवन करने से वातिक गुल्म, उदावर्त तथा गर्भाशय के शूल मे उत्तम लाभ होता है । ३ वारुणीमण्ड सुरा ( Alcoholic drinks) में एरण्ड तैल ४ तोला या उष्ण दुग्ध में एरण्ड तैल ४ तोला मिलाकर पीने से वातिक गुल्म में उत्तम लाभ होता है। ४. लशुन क्षीर-छिल्को से रहित करके सुखाया हुमा लहसुन ४ तोला लेकर उसको अष्टगुण क्षीर अर्थात् ३२ तोले में डालकर अग्नि पर पका कर जब दूध मात्रा शेप रह जावे, तो पिलाने से लाभ होता है। इस योग का प्रयोग राजयक्ष्मा, हृद्रोग, विद्रधि, उदावत, गुल्म, गृध्रसी, श्लीपद तथा विषम ज्वर में लाभप्रद होता है। पित्त गुल्म में-मृदु रेचन अथवा स्रसन के लिये १. कवीले का चूर्ण २ मागा, ३ माशे मधु के साथ २ द्राक्षा का रस या द्राक्षा (मुनक्का) का गुड के साथ सेवन । ३ त्रिवृत चूर्ण ३ माशे त्रिफला के कपाय के साथ । ४. हरीतकी चूर्ण और पुराना गुड के साथ सेवन । ५. मामलकी-कपाय का मधु के साथ सेवन । ६ द्राक्षा, विदारी, मधुयष्टि, श्वेत और पद्माख का समभाग में लेकर बनाया चूर्ण। मात्रा ३ मागा मघ एवं चावल के पानी से। पित्त गुल्म में पास होने लगे तो उपनाह (पुल्टिग) बाँधना उत्तम होता है। पक जावे तो भेदन, शोधन तथा रोपण मादि वणवत् उपचार करना चाहिये। वज्रक्षार-पंच लवण ( सामुद्र, सैधव, विड, रुचक, सोचल), यवक्षार, सज्जीखार, शुद्ध मुहागा। प्रत्येक को समभाग मे लेकर तीन दिनो तक अर्क-चोर में भावित करे । पश्चात् स्नुहीनोर ( थूहर के दूध ) में तीन दिनो तक भावना दै। मुखाकर इस कुल चूर्ण को अर्क के पत्र में लपेट कर सकोरे मे कपडमिट्टी करके बदकर लघु पुट में पुट देना चाहिये। फिर उसको पुट से निकालकर चूर्ण कर लें। फिर दम कुल चर्ण की आधी मात्रा में निम्नलिखित द्रव्यो का समभाग में लिया महीन चूर्ण डालकर मिला ले । सोठ, मरिच, पोपरि, हरट, बहेरा, आँवला, जीरा, हल्दी और चित्रक मूल । मात्रा २ माशे । अनुपान-उष्ण जल या काजो के साथ। Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : इकतीसवाँ अध्याय ५३७ । काङ्कायन गुटिका - कचूर, पोहकरमूल, दन्ती की जड, चित्रक की जड, अरहर की जड, सोठ, वच, निशोध की जड प्रत्येक ४ तोला, शुद्धहोग १२ तोला, यवक्षार, अम्लवेत ८-८ तोला, अजवायन, धनिया, जीरा, काली मिर्च, काला जीरा, अजमोद प्रत्येक १-१ कर्ष । सब द्रव्यो का महीन कपडछन चूर्ण बनाकर विजौरे नीबू के रस के साथ एक सप्ताह तक भावना दे पश्चात् ४-४ रत्ती की गोली बना ले | मात्रा १-२ गोली दिन मे तीन बार यह गुटिका अर्श, हृद्रोग, उदावर्त्त तथा गुल्म रोग मे लाभप्रद होती है । अनुपान भेद से विविध प्रकार के गुल्मो मे इसका उपयोग प्रशस्त है । जैसे, श्लेष्मगुल्म मे गोमूत्र के अनुपान से । पित्तज गुल्म मे दूध के अनुपान से । मद्य तथा अम्ल से वातिक गुल्म में । त्रिफला कपाय, गोमूत्र के साथ त्रिदोषज गुल्म मे । ऊँटनी के दूध के साथ स्त्रियो के रक्क गुल्म मे लाभप्रद होती है । । अनुपान - उष्णोदक | गुल्मकालानल रस - इस योग के नाम से तीन पाठ भैषज्यरत्नावली मे मिलते है । गुल्मकालानल रस के दो तथा बृहत् गुल्मकालानल रस नाम से । यहाँ पर एक उत्तम योग का पाठ दिया जा रहा है । शुद्ध पारद, शुद्ध गंवक, शुद्ध हरताल, ताम्र भस्म, शुद्ध टकण एव यवक्षार प्रत्येक २ तोला, नागरमोथा, पिप्पली, शुठी, कालीमिर्च, गजपीपल, हरीतकी, वच और कूठ प्रत्येक का चूर्ण १ तोला । प्रथम पारद और गधक की कज्जली बनाकर शेप द्रव्यो को संयुक्त करके, पित्तपापडा, मोथा, सोठ, अपामार्ग, पाठा, भृगराज, धतूर के पत्र के स्वरस या कपाय की पृथक्-पृथक् एक एक भावना देकर घोटकर सुखाकर शीशी मे भर लेवे । मात्रा ४- रत्ती । अनुपान हरीतकी चूर्ण २ माशा और मधु से दिन मे दो बार । गुल्म रोग मे उत्तम कार्य करना है । नागेश्वर रस - शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, नागभस्म, बगभस्म, शुद्धमन.शिला, शुद्ध नवसादर, यवक्षार, सज्जिका क्षार, शुद्धटकण, लौहभस्म, ताम्र भस्म और अभ्रक भस्म १-१ तोला । सर्वप्रथम पारद एवं गधक की कज्जलो बनाकर शेप द्रव्यों को सयुक्त करे । फिर यूहर के दूध ( स्नुहोक्षीर ) को एक भावना दे । पश्चात् चित्रक-अडूसा अथवा दन्ती स्वरस को एक एक भावना दे । फिर सुखाकर शीशी में भर ले | मात्रा १-२ रत्ती । अनुपान - ताम्बूलपत्र स्वरस ओर मधु । "इसके प्रयोग से शोथ, आध्मान, प्लोहावृद्धि, यकृत् वृद्धि तथा गुल्म ठीक होता हैं । प्रवाल पंचामृत--प्रवाल भस्म २ तोला, मुक्का पिष्टि, शखभस्म, शुक्ति भस्म, वराद भस्म ( कोडी का भस्म ) । अकक्षीर ६ तोला । अर्कक्षीरं से सभी द्रव्यों को भावित करके शराव-सम्पुट मे रखकर एक-दो पुट दे । इसमे Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ भिपधर्म-सिद्धि अधीर की भावना मारित मृगशृंग भस्म भी १ तोला मिलाकर योग बनाया जय तो अधिक उत्तम कार्य करता है । यह प्रवाल पंचामृत एक उत्तम योग है जो बहुत कार के रोगो में अनुपान भेद मे व्यवहत होता है । गरीर में खटिक लवणो ( Calcium Deficiency ) की कमी से होने वाले रोगो में इसका उपयोग उत्तम रहता है। इनका प्रयोग हृद्रोग, बानाह, गुल्मरोग, अग्निमांद्य, ग्रहणी, मूत्रसन्धान के रोग, उदर के रोग आदि में होता है। इन योगो के अतिरिकगेगराज गुगल (वातरोगाधिकार), व्यादरम, विष्टक चूर्ण (अग्निमाद्याधिकार), हिंवादि वटी, लगुनादि वटी, रसोन पिण्ट, अभयारिष्ट, कुमार्यासव (यो. र )। आदि का उपयोग भी उत्तम रहता है। हिंग्यादि चूर्ण या वटिका-गुडहींग, सोठ, मरिच, पिप्पली, पाठा, हपुग, हाड, कचूर, अजमोना, बजवायन, तिन्तिडीक, अम्लवेत, दाडिम के वीज, पुष्करमूल, धनिया, जीरा, चित्रमूल, यवाखार, सज्जीखार, सैंधव, मोचल नमक, बच, हरीतकी और चच्य। इन द्रव्यो का महीन चूर्ण बनाकर बाईक स्वरस में एक भावना तथा नीबू ( विनोरे) के रस को ७ भावना देकर सुखा कर चूर्ण रूप में रख ले अथवा गोली बनाकर १ माने की रख ले। यह योग परम वातानुलोमक एवं अग्नि को दीप्त करने वाला है। उप्ण जल या मद्य के मनुपान से देने पर इनसे हठूल, पागल, माठमान, अफारा, उदावत, गुल्म, तीन उदर गल गदि में लाभ होता है। झीरपट्पल घृत-पिप्पली, पिप्पलीमूल, चन्य, चित्रक की जड़, सोठ तथा यवक्षार प्रत्येक १-१ पल (४-४ तोले) लेकर पीसकर कल्क बनावे । उसको एक एक प्रस्थ वृत और दुग्ध (६४ तोले प्रत्येक ) तथा सम्यक् पाकार्थ जल ४ प्रस्य लेकर मंद आंच पर पाक करे । इस वृत का १ तोले की मात्रा में प्रयोग करने से गुल्म रोग में उत्तम लाभ होता है। वणादि कपाय-वाग की छाल, अगस्त्य का पुष्प, बिल्व की छाल, अपामगर्ग, चित्रक की छाल, दोनों अरणी की छाल, दोनो शिव की छाल, छोटी क्टेरी, बढी क्टेरी की छाल, तीनो पसरया, मेहायङ्गी, चिरायता, अजङ्गो, विम्बी, करंज तथा शतावर । इन द्रव्यों का सममात्रा में योग करके २ तोले द्रव्य को ३२ तोले पानी में उबाल कर चौथाई गेष रहने पर मव मिलाकर सेवन ! यह वक्ष्यादि गम की दोपवियो ना क्त्राय कफ रोग, मेदोवृद्धि, गुल्म, शिरःशूल तथा आभ्यंतर विद्रधिगें में लाभप्रद होता है । उपनहार-गुल्म एक दीर्घ काल तक चलने वाला रोग है । यह रोग पुरुषों ही पेक्षा स्त्रियों में अधिक पाया जाता है। वायुगोला नाम से लोक में इस Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चतुर्थ खण्ड : इकतीसवाँ अध्याय ५३६ रोग का व्यवहार होता है। इसके निदान में कठिनाई नही होती है क्योकि स्वयं रोगी इस रोग का निदान अपने मुख से इस रोग को तकलीफ रूप मे बतलाता है । इस रोग के दोरे होते है । कुछ दिनो तक रोगी खाता-पीता हुआ स्वस्थ रहता है अचानक एक मास या पद्रह या आठ दिनों के अतर पर रोग का दौरा आता है, रोगी बेचैन हो जाता है, उस के उदर मे तीव्र शूल होता है, डकारो की अधिकता, उदर के ऊपर मात्र मे वायु भर जाने से आत्र की गति एक तरफ से दूसरे तरफ को दिखलाई पडती है । इन आत्र गतियो को स्पश द्वारा भी प्रतीत किया जा सकता है । उदर के ऊपर गोला जैसे उभार दिखलाई पडता है | दबाने से वह आत्र के अवोभाग में जाकर विलीन हो जाता है और पुन उठता है । रोगी को इस दौरे के काल मे वमन होता है, फिर पतले दस्त होते है । उदरशूल शान्त हो जाता है, दोरा निकल जाता है । फिर कुछ दिनो तक रोगी ठीक रहता है । बार बार रोग का दौरा होता है । गुल्म रोग स्वयं एक याप्य व्याधि है । इसमे जब तक रोगी पथ्य से रहता है ठीक रहता है-अपथ्य होने से पुन उपस्थित हो जाता है । यदि रोगी क्षीण हो तो उसका रोग असाध्य हो जाता है । चिकित्सा मे कोष्ठ को शुद्धि का ध्यान सदा रखना चाहिये । उसे नित्य वातानुलोमक अथवा मृदु विरेचक औषधियो का उपयोग करना चाहिये । हरीतकी, त्रिवृत् या द्राक्षा आदि सारक या स्र सन योगो का नित्य व्यवहार करना चाहिये । दौरे के काल में वेदना के शमन के लिये तीव्र उदर शूल या उदावर्त्त के समान चिकित्सा करनी चाहिये । दौरे के अवान्तर काल मे निम्नलिखित योगो के उपयोग से पर्याप्त लाभ होता है । १. गुल्मकालानल रस अथवा नागेश्वर रस २-४ रत्ती को मात्रा मे हरीतकी चूर्ण २ माशे और मधु से दिन मे दो बार प्रात - सायम् । २ हिंग्वादि चूर्ण अथवा हिंग्वाष्टक चूर्ण ३ माशे को मात्रा मे घी के साथ भोजन के पूर्व । 1 ३ कुमार्यासव भोजन के बाद २ चम्मच समान जल मिलाकर । ४ वैश्वानर चूर्ण ६ माशा ( आमवाताधिकार ) रात मे सोते वक्त गर्म जल से । गुल्मकालानल रस के स्थान पर प्रवालपचामृत तथा श्रृंग भस्म का प्रयोग भी १ माशे की मात्रा में उत्तम रहता है । वज्रक्षार का प्रयोग भी भोजन के बाद उत्तम रहता है | Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसवाँ अध्याय हृद्रोग प्रतिषेध प्रावेशिकअति व्यायाम, परिश्रम, दु साहस, अत्युष्ण-गुरु-कटु-तीक्ष्ण भोजन का सेवन, अध्यगन-चिन्ता-भय-त्रास आदि मानसिक कारण, वेगविधारण, लंघन-वमन-विरेचन तथा वस्ति आदि के प्रयोग से अतिकर्पण, आमवात, फिरङ्गादि रोगो के उपद्रव रूप मे तथा अभिधानादि कारणो से पाच प्रकार के हृद्रोग होते है-वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक, त्रिदोपज तथा कृमिज । इन सभी हृद्रोगो मे विकार पैदा होता है, जिसके परिणाम स्वरूप वैवर्ण्य (Pallor, Cyanosis, Malar Flush ) मूर्छा ( Syncope ), ज्वर ( Inflam matory diseases of the heart), कास-हिक्का-श्वास (Pressure in Mitral regurgitation or stenosis), वमन, अरुचि, श्वास-कृच्छ्रता, छदि, कफोत्क्लेश, आस्यवरस्य (Due to coronary insufficiency ), तृपाविक्य, चक्कर आना (Giddiness), हृद्रव ( Heart Palpitation ), हृच्छून्यभाव (हृदय के स्थान पर शून्यता का भाव का होना ) प्रभृति लक्षण सामान्य होते है। वातिक हृद्रोगमे-सूचिकावेधनवत् पीडा, मन्थवत् पीडा, फाडने वा चीरने जैसी पीडा अथवा आरे कुल्हाड़ी से काटने जैसी पीडा, हृदय में खिंचावट तथा हृद्रव ( धडकन ) आदि लक्षण पैदा होते हैं । इस प्रकार की हृदय प्रदेश (वायें ओर के वक्ष ) मे पीडा आधुनिक निदान के अनुसार Angina. Pectoris (हृच्छूल) मे होती है। हृच्छल हृवाहिनी की घनास्रता ( Coronary thrombosis मे भी पाया जाता है, परन्तु इसमे कफाधिक्य के भी चिह्न पाये जाते है । अस्तु, श्लेष्मानुवन्धी हृद्रोग रोग या श्लेष्मज हृद्रोग मे इसका समावेश समझना चाहिये । पैत्तिक हृदोग में पित्ताधिक्य के तृष्णा, ऊष्मा, १ व्यायामतीक्ष्णातिविरेकवस्ति-चिन्ताभयत्रासगदातिचाराः । छ-मसधारणकर्गनानि हृद्रोगकर्तणि तथाऽभिघात ॥ वैवर्ण्यमू ज्वरकासहियका-श्वासाम्यवरस्यतृपाप्रमोहा । छदि कफोत्क्लेशरुजोऽरुचिश्च हृद्रोगजा स्युविविधास्तथाऽन्ये ॥ हृच्छून्यभावद्रवशोपभेदस्तम्भाः समोहा. पवनाद्विशेष. ॥ (च. चि २६) Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४१ चतुथे खण्ड : बत्तीसवाँ अध्याय दाह, स्वेद और मूर्छा प्रभृति लक्षण विशेषतया मिलते है । त्रिदोषज हृद्रोग में मिश्रित लक्षण उपस्थित रहते है। कृमिज हृद्रोग मे कृमियो की आत्र मे उपस्थिति तथा तज्जन्य रक्ताल्पता होकर हृदय-प्रत्युगिरण (Regurgitation) का दोप आजाता है, जिससे श्रवण यत्र से हृत् प्रदेश पर एक विशेष प्रकार की मर्मर ध्वनि ( Haemic Marmur ) सुनाई पडती है।। हृद्रोग प्रतिषेध-हृद्रोग मे रोगी को विश्राम का कार्य करना चाहिये । अधिक परिश्रम, कार्य भार बद कर देना चाहिये। अधिक दौडना-धूपना, धूप मे कार्य करना भी रोग के प्रतिकूल पडता है, अस्तु, विश्राम का जीवन, ब्रह्मचर्य का पालन, स्त्रोसग प्रभृति काम-वासनावो से पृथक् हृद्रोगी को रखना चाहिये । क्रोध, रोप, चिन्ता आदि मानसिक उद्वेगो से भी रोगी को दूर रखने का ध्यान रखना चाहिये । अधिक वोलना, भापण-प्रवचन आदि भी रोगी को अनुकूल नही होता है। तैल, खट्टा तक्र ( मट्ठा ), काजो आदि अम्ल, गरिष्ठ अन्न का सेवन, अध्यशन ( अधिक मात्रा मे भोजन ), कपाय द्रव्यो का सेवन भी ठीक नही रहता है। अस्तु, इनका भी परित्याग करना चाहिये । वेगो का सधारण, नदीजल, दूपित जल, भेड का दूध, महुवेका उपयोग, पत्र शाक भी ठीक नही होते है। रोगी को खाने में जौ, गेहूँ, मूग, प्राना चावल, जागल पशु-पक्षियो के मासरस, मरिच (गोल या कालीमिर्च ) से युक्त करके देना चाहिये । परवल, करला आदि फलशाक देना चाहिये । केले का फल, पेठा, नई मूली, मुनक्का, पुराना गुड, ताल या खजूर का गुड़, मिश्री, सोठ, अजवायन, लहसुन, हरीतकी, अदरक, कस्तूरो, चदन प्रकृति द्रव्य अनुकूल पडते है। हृद्रोग मे वायु की अधिकता हो तो रोगी का स्नेहन कराके वमन करावे । शोधन के अनन्तर पुष्करमूल, विजौरे नीबू की जड की छाल, सोठ, कचूर, हरड, वच । इन द्रव्यो से निर्मित कषाय मे यवक्षार, घृत, सेंधानमक और कांजी मिला कर पोना। पित्त की अधिकता होने पर मधुर द्रव्यो से सिद्ध क्षीर या घृत का उपयोग करे । जैसे-गाम्भारी का फल, मुनक्का, मधुयष्टि । इन द्रव्यो का कपाय बनाकर इसमे घृत-मधु और पुराने गुड या चीनी का प्रक्षेप डालकर पिलाना । कफाधिक्य युक्त हृद्रोग मे वमन द्वारा शोधन करके त्रिवृत् मूल, बला, रास्ना, शुठी, - १ शालिमुद्गयवा मास जाङ्गल मरिचान्वितम् । पटोल कारवेल्लञ्च पथ्य प्रोक्त हृदामये ॥ तेलाम्लतक्रगुर्वन्नकपायश्रममातपम् । रोप स्त्रीनर्म चिन्ता वा भाष्यं हृद्रोगवास्त्यजेत् ॥ ( यो. र ) - Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि हरीतकी, पृष्करमूल, ठोटी इलायची, पीपरामूल । इन द्रव्यो का चूर्ण बनाकर गोमूत्र या उष्ण जल से सेवन । सात्रा ३ माशे । त्रिदोपज हृद्रोग में मिश्रितक्रम रखें । कृमिज हृद्रोग मे-रोगी को सर्वप्रथम स्नेहयुक मांस, दही और तिल के साथ चावल का भात तीन दिनो तक खिलाकर पश्चात् तीन रेचन देना चाहिये, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर, मैंधव, श्वेत जीरे के चूर्ण के साथ किसी एक रेचन औपवियोग को दे । इम क्रियाक्रम से हृदय को वाधा पहुँचानेवाले कृमि निकल जाते हैं। कृमिजन्य हृद्रोग में गोमूत्र एक छटाँक लेकर उसमें वायविडङ्ग २ मागा और कूठ का चूर्ण १ माशा टालकर पिलाना भी हितकर होता है। रेचन हो जाने के बाद रोगी को विडङ्ग के क्वाथ में वना यवागू खाने को देना चाहिये । सामान्य-चिकित्सा १. एरण्डमूल ८ तोले, जल ६४ तोले खौलाकर बनाया क्वाथ १ छटोंक में यवक्षार टोडकर पिलाना । २. दगमूल का कपाय बनाकर उसमें सेंधानमक और यवक्षार मिलाकर मेवन । ___अर्जुन-सिद्धक्षीर-अर्जुन की छाल २ तोला, दूव १६ तोला, जल ६४ तोले दुध मात्र गेप रह्न पर उतार कर पिलाना । इसी विवि से गालपर्णीमिद्धक्षीन, बलामिद्ध क्षार, मधु-यष्टी से सिद्ध क्षीर अथवा पंचमूल से सिद्ध क्षीर का मेवन भी हृद्रोग में उत्तम रहता है। ८ अर्जुन का पत्रस्वरस मधु के माथ देना अथवा अर्जुन चूर्ण ३ मागा १ तोले त के नाथ देकर ऊपर से दूध देना भी उत्तम रहता है। ५. पुष्करमूल का चूर्ण ४ रत्ती से १ मामा मधु के साथ देने से हृच्छूल, वक्षस्तोद, श्वास तथा काम में लाभप्रद रहता है। ६ गोधूम प्रयोग-गेहूँ का काटा बनाकर देना भी हृद्रोग में उत्तम रहता है। गेहूँ का माटा लेकर घृत और तिल-ल में भूनकर पुराना गुड़ डालकर मीठा बनाकर उसमें अर्जुन चूर्ण मिलाकर, इस लप्सिका (हलुवा) का सेग्न आम १ कृमिहृद्रोगिणं स्निग्ध भोजयेत् पिशितादनम् । दना च पललोपेत अहं पश्चाद् विरेचयेत् ।। कृमिजे च पिवेन्मूत्रं विडङ्गामयमंयुतम् । हृदि स्थिता पनन्त्येव ह्यधस्तात् कृमयो नृणाम् ।। यवान्नं विनरेच्चाम्मै सविडङ्गमतः परम् । - - Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : बत्तीसवाँ अध्याय ५४३' रहता है । इस हलवे मे पानी की जगह बकरी का दूध और गुड की जगह मिश्री का चूर्ण या चीनी भी मिला सकते है । शीतल होने पर मधु भी मिलाया जा सकता है। ७ नागवला-का चूर्ण ३ माशे से ६ माशे दूध के साथ सेवन । ८ हिंगूनगंधादि वटी-( उदावत)-कई बार इस गोली का सेवन-चूसना या 'जो के क्वाथ के साथ सेवन हृच्छूल तथा बेचैनी को शान्त करता है। हपाठाद्य चूर्ण-पाठा, वच, यवाखार, हरड, अम्लवेत, यवासा, चित्रक की छाल, सोठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, हरड, बहेरा, आंवला, कचूर, पोहकरमूल, वृक्षाम्ल, दाडिम की छाल, अनारदाना, विजौरा नीबू के जड की छाल । सम मात्रा मे कूटकर चूर्ण बना ले । मात्रा २-४ माशे । मद्य या जल के साथ । १० मृगशृंग भस्म-बारहसोगे के सीग को ( अच्छे पुष्ट भरे ) ले । उसको काटकर छोटे-छोटे टुकडे कर ले । गजपुट में फूक दे । स्वागशीतल होनेपर दूसरे दिन निकाल कर उसको चूर्ण करके अर्कक्षीर से भावित करे । टिकिया बना ले । शराव-सम्पुट में बदकर पुन उपले की अग्नि में एक पुट दे । शहद और गाय के घी के साथ २ रत्तो से १ माशा तक दे। हृच्छ्रल, पार्श्वशूल, विविध प्रकार के हृद्रोग तथा कफ कास में प्रयोग करे। बृहद् धमनी-विस्कार ( Fusiform Dilatation of Arota) मे इसका उत्तम लाभ एक बार देखने को मिला था। अर्कक्षीर से भस्मीकृत शृंग का ही प्रयोग हृद्रोग मे लाभप्रद रहता है ।२ ११ नागार्जुनान रस (श्वासरोगाधिकार )-परम बल्य, वृष्य एवं हृद्य रसायन है । हृद्रोग मे उत्तम कार्य करता है । १२ हृदयार्णव रस-शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक ताम्र भस्म प्रत्येक एक तोला। त्रिफला कपाय की एक भावना, काकमाची ( मकोय ) के स्वरस या कपाय की एक भावना दे पश्चात् २-२ रत्ती की गोलियां बना ले। अर्जुन चूर्ण आँवले के चूर्ण-घृत और मिश्री के साथ दे। शोथ युक्त पुराने हृद्रोग मे उत्तम लाभ करता है। १२ प्रभाकर वटी-स्वर्णमाक्षिक भस्म, लौह भस्म, अभ्रक भस्म, १. गोधूमककुभचूर्ण छागपयोगव्यसपिषा पक्वम् । मधुशर्करासमेतं हृद्रोगं बहुसमुद्धतं पुसाम् ॥ (भै र ) २ पुटदग्धमश्मपिष्टं हरिणविपाण च सर्पिपा पिवत । हृत्पृष्ठशूलमुपशममुपयात्यचिरेण बहु कप्टम् ॥ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ भिषकस-सिद्धि वंशलोचन, गुद्ध शिलाजीत प्रत्येक एक तोला । खरल में मिलाकर अर्जुन के छाल के वाय को भावना देकर ४-४ रत्ती को गोलियां बनाकर मुखाकर रख ले । नभी प्रकार के हृद्रोग में उत्तम लाम करता है । १३. चिन्तामणि रस-बुद्ध पारद, बुद्ध गधक, अभ्र भस्म, लोह भस्म, बंग भस्म । गुद्ध शिलाजीत १-१ तोला, स्वर्ण भस्म 1 नोला तथा चांदी भस्म तोला ! प्रथम पारद एवं गंवक की इज्जली बनाकर शेर भस्मो को मिला। फिर चित्रक क्वाय, भृगराज स्वरम, अर्जुन का क्वाथ इनमे प्रत्येक में पृथक्-पथक मात-मात भावना देकर २-२ रत्ती की गोलियां बनाकर छाया में सुखाकर भीगी में भर कर रख ले । मात्रा-१-२ वटी दिन में दो बार । अनुपान-गेहूँ का क्पाय । यह बलवर्द्धक एव हृदय के लिये हितकारो रसायन है । विविध प्रकार के होगो में लाभप्रद है। १४ विश्वेश्वर रस-सुवर्ण भस्म, अभ्रक भस्म, लौह भस्म, गुद्ध पारद, जुद्ध गंधक तथा वैक्रान्त भस्म १-१ तोला ले । प्रथम पारद बौर गंधक की. कम्जली बनाकर गेप भस्मो को मिलावै । फिर अर्जुन के स्वरन से भावित करके २-२ रत्ती की गोलियां बनावे। मात्रा १-२ गोला प्रातः-सायम् । अनुपानबर्जुन पत्र-स्वरम और मधु । १५ अजुन धृत-गोवृत १ प्रस्थ, बर्जुन कपाय ४ प्रस्थ ( अर्जुन को हाल २ प्रस्थ जल १६प्रस्य, सदशिष्ट ४ प्रत्य), अर्जुन की छाल कल्कार्थ प्रस्थ, मन्द अग्नि में घृत का पाक रे। मात्रा १-२ तोला अनुपान गाय का दूध । १६ पार्थाचरिष्ट या अर्जुनारिष्ट-अर्जुन की छाल ४०० तोले, मुनक्का २०० तोले, महुए का फूल ८० तोले, जल ६४ सेर । चतुर्थानावशिष्ट क्वाय वना ले। फिर छानकर एक भाण्ड में इस जल को लेकर उसमें धाय के फूल का चूर्ण ८० तोले और पुराना गई ४०० तोले मिलाकर संधिवधन करके रख दे । १ नान के बनन्तर छानकर फिर गीशियो में भर कर रख ले । मात्रा२ तोला । अनुपान नमान जल । दोनों समय भोजन के बाद । १७. रत्न एवं मणियो का धारण अयवा उनकी वती पिष्टियो का मुख से मेवन करना परम हय है। एतदर्थ कई योग व्यवहृत होते हैं । यहाँ जवाहर मोहरा नामक एक प्रनिद्ध योग का उद्धरण दिया जा रहा है। यूनानी वैद्यक में मणिगे को पिष्टिका का प्रचलन विशेष रूप से है। जवाहर मोहरामाणिक्य पिष्टि २ तोला, पन्ना को पिप्टि २ तोला मुक्तापिष्टि २ तोला, प्रवाल पिष्टि ४ तोला, कहावा नो पिप्टि २ तोला, चादी का वरक आधा तोला, सोने का वरक माग तोला, दरियाई नारियल का चूर्ण ४ तोला, आदरेशम कतरा हुआ २ तोला, Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : बत्तीसवाँ अध्याय ५४५ __ मृगशृङ्ग भस्म ४ तोला, जद्वार (निर्विपो ) का चूर्ण २ तोला, कस्तुरी १ तोला, अम्बर २ तोला ले। अच्छे न घिसने वाले खरल मे प्रथम सब पिष्टियो को डालकर उसमे सोने और चादी के वरको को एक-एक कर मिलावे और मर्दन फरता रहे । जव सव वरक मिल जावे तब उसमे अर्क गुलाब थोडा डाल कर १४ दिनो तक मर्दन करे । १५ वें दिन उसमे कस्तूरी और अम्बर डाल कर एक दिन तक गुलाव के अर्क मे मर्दन करके १-१ रत्ती की गोलियां बनाकर छाया मे सुखाकर शीशी मे भर लेवे । मात्रा एवं अनुपान-१-१ गोली सुबह-शाम खमीरोगाव जवान से या मधु से सेवन करे। उपयोग-यह हृदय को वल देने वाला उत्तम योग है । हृद्रव ( दिल का धड़कना), थोडा परिश्रम से दम भरना प्रभृति हृदय को दुर्बलता से पैदा होने वाले लक्षणो में अच्छा कार्य करता है । (सिद्धयोग संग्रह से) उपसहार-व्यवस्थापन-- (१) अर्जुन क्षोर प्रात । (२) रस-सिन्दूर या स्वर्ण सिन्दूर या चन्द्रोदय या मकरध्वज प्रवाल पिष्टि चिन्तामणि विश्वेश्वर, हृदयार्णव रस या प्रभाकर वटी मृगशृङ्ग भस्म ४ र० इन तीन मे से । व्योमाश्म पिष्टि १र० कोई, एक दो र रक्ताश्म पिष्टि । या तीनो । हरिताश्म पिष्टि १र० मिश्र २ मात्रा प्रातः-सायं अर्जुन चूर्ण + घी + चीनी से या । दिन में दो बार गेहूँ के काडे से । (३) हिग्वादि वटी (उदावत) भोजन के बाद १ गोली खिलाकर ऊपर से (४ ) अर्जुनारिष्ट या धान्यरिष्ट या अश्वगधारिष्ट बडे चम्मच से २ चम्मच वरावर पानी मिलाकर । (५) चन्द्रप्रभा वटी ( अर्शोधिकार ) । १-२ गोली रात मे सोते वक्त दूध से । (६ ) जब कभी बेचैनी, घबराहट, तनाव आदि प्रतीत हो तो अर्क वेद मुश्क ( लताकस्तुरी), अर्क अजवायन, अर्क सौफ, अर्क पुदीना और गुलाब जल मिलाकर पीने के लिये देना चाहिये । ३५ भि० सि० m Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ भिषकर्म-सिद्धि (७) नारायण तेल का शरीर एवं शिर मे अम्बंग । (८) रेचन के लिये एरण्ड तैल 'शतपत्र्यादि चूर्ण' गुलकंद आदि का उप योग करे, शुद्धि के लिये वस्ति का उपयोग भी ठोक रहता है । सक्षेपत हृदय मे दो प्रकार के रोग होते है-१ हृदय का अंगसम्बन्धी विकार (organic disorders) २ क्रियासम्बन्धी विकार (Functional disorders) इनमे क्रियासम्बन्धी विकारो का शमन शीघ्र हो जाता है, परन्तु आङ्गिक विकारो का सुधार विलम्ब से होता है, क्वचित् नही भी होता है। हृद्रोग में रसायन एव वल्य दोनो का उपयोग श्रेष्ट रहता है। आँवले का सेवन, च्यवनप्राश का सेवन, अश्वगंध का सेवन-वातानुलोमक एवं मृदु रेचन की व्यवस्था भी ठीक रहती है। चेतस हृदय, मानस और मन ये गन्द पर्यायरूप मे व्यवहृत होते है । अस्तु, मन को प्रौढ बनाने के लिये तथा चित्त को प्रसन्न रखने के लिये उपाय करना चाह्येि । हृद्रोगो में प्रमुखतया हृच्छूल तथा व्यतिरिक्त अन्य लक्षण दो प्रकार के होते है। इन उभयविध लक्षणो के होने पर चिकित्सा मे उपयुक्त योगो से चिकित्सा करते हुए लाभ की संभावना रहती है। तथापि हृदय एक सर्वाधिक महत्त्व का मर्माङ्ग है। इसमे अभिघात या विकार का होना प्रायः घातक होता है। अस्तु, इम मङ्गि की सुरक्षा तथा तद्गत रोगो के प्रतिकारो में सदैव तत्परता रखनी चाहिए। आयुर्वेद के प्राचीन ग्रथो में हृदय की रचना-शारीर का वर्णन विस्तार से नहीं पाया जाता, तथापि इस अग मे होने वाले विकारो तथा चिकित्सा का वर्णन पश्चात्कालीन नथो मे पर्याप्त मिलता है । इन ग्रंथो के आधार पर चिकित्सा करते हुए सफलता भी मिलती है। क्योकि सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जावे तो वस्तुत हृदय मे आम तौर से मिलने वाली पांच प्रकार को व्याधियां दिखाई पड़ती है १ चेतना-विकारजन्य मानस रोग (Cardiac Nurosis)-इनमें चेतनास्थान हृदय तथा मन को प्रौढ वनाना चिकित्सा है। २. सहज हृद्रोग (Congenital Heart disease)-जन्मजात व्याधियो में किसी विशेप उपचार को आवश्यक्ता नहीं पड़ती है। रसायन औषधियो का सेवन, विश्राम का जीवन, कोप्ट को शुद्धि आदि, आहार-विहार एवं पथ्य के द्वारा ही उपचार पर्याप्त होता है। ३. उच्च रक्तनिपीडजन्य हृद्रोग (Hypertensive ), इनमें वायु की यधिकता होती है। अस्तु, वात रोग ( रक्तवात ) की चिकित्सा करने से हो रोगो में उपकार की आशा रहती है। ४ आमवातज हृद्रोग ( Rheumatic Heart Disease )-इसमें आम का पाचन, अग्निदीपन, एरण्ड तैल के Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तैतीसवाँ अध्याय ५४७ प्रयोग प्रभृति आमवातघ्न उपचारो से शमन प्राप्त करने की आवश्यकता रहती है । ५ हृदय का रक्त द्वारा सम्यक् रोति से पोषण न होने के कारण होने वाले रोग ( Ischaemic Diseases of the Heart)-वास्तव मे हृच्छूल शब्द से उसी रोग का वर्णन हृद्रोगाधिकार के वैद्यक-ग्रंथो मे पाया जाता है। हृच्छल दो कारणो से Angina Pectoris तथा Coronary Thrombosis से हो सकता है। हृद्रोग-चिकित्साधिकार मे इसके प्रतिषेध एवं क्रिया"मो का ऊपर मे वर्णन हो चुका है। तैंतीसवॉ अध्याय मूत्रकृच्छ, मूत्राघात तथा अश्मरी एवं शर्करा प्रतिषेध मूत्रकृच्छ्र-कष्ट या पीडा के साथ मूत्र-त्याग होना मूत्रकृच्छ कहलाता है । "मूत्रस्य महता कप्टेन दुखेन प्रवृत्ति ।" इस अवस्था मे मूत्र पर्याप्त बनता है, वस्ति मूत्र से भरी रहती है, रोगी मूत्र-त्याग को इच्छा भी करता है । परन्तु, मार्ग मे किसी प्रकार का अवरोव होने से मूत्र त्याग कष्ट के साथ होता है । मूत्र-त्याग मे रोगी को जलन एवं पीडा होती है। इस अवस्था को अग्रेजी में Painful Micturation or Dysurea. कहते है । इसकी उत्पत्ति मे आधुनिक ग्रंथकारो के अनुसार त्रिविध कारण भाग ले सकते है-१. वस्तिगत कारण--तीन या जोर्ण वस्तिशोथ ( Acute or chronic cystitis), २. मूत्रपरमाम्लता ( Hyperacidity), ३ फिरगी खञ्जता (Tabes Dorsalis), अपतंत्रक ( Hysteria) आदि । मूत्र-प्रणालीगत कारण-शिश्नकला शोथ ( urethritis), पूयमेह (Gonorr hoea), मूत्र-मार्गगत सौत्र संकोच (urethral stricture), १ स्युर्मूत्रकृच्छाणि नृणा तथाष्टौ । पृथड्मला स्वैः कुपिता निदानै सर्वेऽथवा कोपमुपेत्य वस्ती ।। मूत्रस्य मार्ग परिपीडयन्ति यदा तदा मूत्रयतीह कृच्छ्रात् ।। (च. चि ६) Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिषक्कर्म-सिद्धि ५४८ कई वार अष्टोलावृद्धि ( Enlarged Prostate ), अर्ग तथा सूत्रकृमि ( Threadworms ) में भी मूत्रकृच्छ उत्पन्न हो सकता है । चरक के अनुसार मूत्रकृच्छ्र आठ प्रकार का हो सकता है । वार्तिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक, सान्निपातिक, शल्याभिघातज ( आघात या विजातीय वस्तु की मूत्रमार्ग मे उपस्थिति ), पुरीपोदावर्त्त ( पुरोप के वेग को रोकने से ), मूत्रमार्ग स्थित अश्मरी के कारण अश्मरीज मूत्रकृच्छ्र ( Bladder stone ) तथा शुक्रोदावरीज (शुक्र के वेग को रोकने से ) । में मूत्राघात - इस अवस्था में मूत्र का पूर्णतया अवरोध हो जाता है (Retention of urine ), मूत्र का त्याग बूंद बूंद करके बिना पीडा के हो जाता है, वस्ति, मूत्र से पूर्णतया भर जाती है, परन्तु, रिक्त नही होती है । मूत्रकृच्छ्र मूत्र का अवरोध नही होता है वल्कि मूत्रस्राव होता है-किन्तु पोढ़ा, वेदना मोर जलन के साथ | मूत्राघात में वेदना मूत्र के अवरोध या रुकावट के कारण होती है | कईबार मूत्रवसाद की भी एक अवस्था पाई जाती है । जव शरीर से जलीयाग चहुत निकल गया हो, हृदय की पेशियां कमजोर हो गई हो, मूत्र का वनना ही कम हो जाता है (Suppression of urine) जैसा विसूचिका के उपद्रव में होता है | सूत्राघात रोग में इस अवस्था का भी समावेग हो सकता है । ( इसके ज्ञान के लिये विसूचिका अध्याय देखें ) 1 मूत्राघात तेरह प्रकार के होते है -१ वातकुण्डलिका (Spasm of urethra ), २ वातवस्ति एवं ३ मूत्रजठर (Distended Bladder), ४. अष्टीला (Enlarged Prostate ), ५. मूत्रातीत ( Incontinence of urine ), ६ मूत्रोत्मग ( stricture of urethra). ७. मूत्रक्षय ( पूर्वोक्त सूत्रावसाद Anurea or suppression of urine ), ८. मूत्रग्रंथि (Enlarged prostate or Tumour of the Bladder), ९ मूत्रशुक्र, १० उष्णवात ( Chronic cystitis or urethritis of Gonorrhoeal or other origin ), ११. मूत्रसाद ( Supp ression or Scanty urine ), १२ विविघात ( Recto vesical Fistula, १३. वस्तिकुण्डल (Atonic state of the Bladder ) ।' अश्मरी या शर्करा ( Stone or Calculus ) – पथरी शरीर में विविध प्रकार की विभिन्न स्थानो में पाई जाती है । जैसे क - मृत्राश्मरी (Urinary १ जायन्ते कुपितैर्दो पैर्मूत्राघातास्त्रयोदश । प्रायो मूत्रविघाताद्य र्वातकुण्डलिकादय ॥ ( मा नि. ) Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : तैतीसवाँ अध्याय ५४६ Calculus ) १ वृक्कगत ( Renal ) २ गवीनोगत ( Ureteric ), ३ वस्तिगत ( Bladder), ४. अष्ठोलागत ( Prostatic ), ५ प्रसेकगत या मूत्र मार्गगत ( Urethral ), ६ शिश्नचर्मगत ( Prepusal ), ख - पित्ताश्मरी ( Biliary Calculus ), ७ पित्ताशयगत ( Gall Bladder ), एवं पित्तनलिकागत ( Bileduct ) ग -- अग्नयश्मरी ( Pancreatic Calculus ), घ - लालाश्मरी ( Salivary Calculus ), ड-नाभिगत ( Umbehcal ), च पुरीषाश्मरी ( Fecolith ), छ --शुक्राश्मरी (Prostatic or Spermolith ), ज -- रक्ताश्मरी ( Calcilied thrombus ), प्राचीन ग्रंथो मे अश्मरी से केवल मूत्राश्मरी का हो वर्णन पाया जाता है | इसके तीन स्थानो का भी उल्लेख स्पष्टतया पाया जाता है । १. वस्तिगत ( Vesical ), २. गबीनीगत ( Urethral ), ३ शुक्राश्मरी ( Spermolith or Prostatic Calculus ), वस्तिगत अश्मरियो के तीन भेदो का भी उल्लेख वाताश्मरी ( Oxalic ), पित्ताश्मरी ( Uricacid), श्लेष्माश्मरी ( Phosphatic ) । अन्य अश्मरियो का उल्लेख नामत प्राचीन ग्रंथो मे नही हुआ है, तथापि लाक्षणिक दृष्टि से रोग का प्रसंग अवश्य पाया जाता है। जैसेगवीनो- प्रसक्त अश्मरी का वात व्याधि में तूनी एव प्रतितूनी नाम से तथा शूलाधिकार में पठित विविध शूलो में पित्ताश्मरियो का पाठ पाया जाता है । यहाँ पर केवल मूत्राश्मरी तक अपने विषय को सीमित रखना उद्देश्य है । 1 वात पित्त, तथा कफ भेद से तीन एवं शुक्राश्मरी ये चार प्रकार की मूत्रगत 'अश्मरियाँ होती है - इनकी उत्पत्ति मे कफ दोप की प्रधानता रहती है । समवर्त्त की विकृति से मूत्र मे ९ तरलता की कमी एव धनता की वृद्धि २. मिहिक अम्ल तथा फास्फेट ( Uric acid, oxalate, Phosphate) जैसे पदार्थों की प्रचुरता होने पर उनके कण धीरे धीरे सचित होकर अन्ततो गत्वा अश्मरी का रूप धारण करते है । अश्मरियां अधिकतर बाल्यावस्था मे - पाई जाती है । परन्तु युवावस्था मे भी वृक्काश्मरियाँ या शुक्राश्मरियां पैदा होती है । " शर्करा - अश्मरी छोटे छोटे टुकडे या कण के रूप में बाहर निकलती है तो उसको शर्करा ( Passing of Gravels ) कहते है । इस तरह अश्मरी ओर १. वातपित्तकफैस्तिस्रश्चतुर्थी शुक्रजाऽपरा । प्रायः श्लेष्माश्रया सर्वा अरमर्थः स्युर्यमोपमा ! Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपक्रम-सिद्धि शर्करा में परिमाण के अतिरिक्त और कोई भेद नही है। इन दोनो की उत्पत्ति समान कारणो से होती है, लक्षण और चिह्न भी तुल्य स्वरूप के ही होते है और चिकित्सा भी समान ही है । मूत्रवेग के साथ शर्करा के निकलने से मूत्रकृच्छ्र तथा वेदना होती है-और निकल जाने पर वेदना गान्त हो जाती है-जब तक अन्य शर्करा मूत्रस्रोत को फिर से अवरुद्ध न कर दे। अश्मरी से सामान्य लक्षण-नाभि, सेवनी, अण्ड एवं गुदा के मध्य मे, वस्ति के ऊपरी भाग पेड़ में वेदना होती है । यश्मरी के द्वारा मूत्रमार्ग के अवरुद्ध हो जाने पर मूत्र कई धाराओ मे निकलता है। मूत्रमार्ग से अश्मरी के हट जाने पर रोगी स्वच्छ यो गोमेद के समान कुछ रक्त वर्ण का मूत्रत्याग करता है। यदि अश्मरी के रगड से वस्ति में क्षत हो जाय तो मूत्र मे रक्त भी आने लगता है। मार्ग में अश्मरी के रहने पर प्रयत्नपूर्वक मूत्र-त्याग किया जाय तो भयङ्कर पीडा होती है। मृत्रकृच्छ-मूत्राघात तथा अश्मरी प्रतिषेध-इनमे बहुत सी अवस्थायें है जिनमें रोग गल्यकर्म साध्य रहता है। अस्तु, यदि औपवियो के सेवन से कोई परिवर्तन रोगी में न दिखाई पडे तो किसी गल्यतंत्रविद् की सलाह लेनी चाहिये और मावश्यक हो तो शल्यतंत्रीय उपचार के लिये रोगी को प्रेपित करना चाहिये । इन सभी रोगो में परम्पर में सामजस्य है। मूत्रकष्ट, वस्ति को उपरी भाग में वेदना, मूत्र की धारा का दोप प्रभृति लक्षण उन तीनो रोगो मे समान भाव से पाये जाते है । अस्तु, चिकित्सा में व्यवहृत होने वाले योगो मे भी पर्याप्त साम्य है। यहां पर पृथक् पृथक क्रियाक्रम तथा भेषजो का उल्लेख किया जा रहा है। भेषजो में अदल-बदल कर तीनो अवस्थाओ में प्रयोग किया जा सकता है। मूत्रकृच्छ्र-में वातिक लक्षणो की प्रबलता हो तो अभ्यग, स्नेहन, स्वेदन, उपनाह, वातघ्न औपवियों से परिपेक, निल्ह वस्ति तथा उत्तर वस्ति का उपयोग किया जा सकता है। पैत्तिक लक्षणो की प्रबलता हो तो शीतल उपचार, विरेचन, परिपेक, अवगाहन, गीतल योपवियो का लेप (चदन, कमलनाल, कपूर प्रभृति ), १ अश्मयैव च शकरा। सा भिन्नमूर्तिर्वातन शर्करेत्यभिधीयते । मूत्रवेगनिरस्ताभि प्रामं याति वेदना । यावदस्या पुनर्नेति गुडिका स्रोतसो मुखम् ।। २ यादी मूल कृति देगे कटौ स्यात् पश्चाद्रोधो जायते मूत्ररक्तम् । एतैलिगश्मरीरोगचिह्न ज्ञात्वा कुर्याद भेपजाद्यश्चिकित्माम् ॥ यो. र. Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तैतीसवाँ अध्याय ५५१ दूध, द्राक्षा, विदारीकंद, इक्षुरस, घृत, शीतल पेय (Cold drinks) प्रभृति स्वादुस्निग्ध एव शीतल उपचारो से ठोक करना चाहिये । श्लैष्मिक लक्षणो की प्रबलता मूत्रकृच्छ्र में दिखलाई पडे तो भोजन एवं ओपन के रूप मे नारो का उपयोग उष्ण एव तीक्ष्ण अन्नपान, स्वेदन, जौ का प्रयोग, वमन, निरूहण, मट्ठा, तिक्त औपधियो से सिद्ध तैल का अभ्यंग एव पान करे । त्रिदोषज लक्षण मिलें तो व्यामिश्र क्रियाओ को वरते । ' M भेषज - १. कूष्माण्ड रस - पैठे का स्वरस ४ तोला उसमे यवक्षार ६ माशे मिलाकर चार मात्रा में विभाजित करके दिन में कई बार पीना । २ आमलकी स्वरस या कषाय - आमलकी २ तोला, जल १६ तोला अग्नि पर चढाकर अवशिष्ट जल ४ तोला, उसमे पुराना गुड २ तोला मिलाकर सेवन करने से रक्तपित्त, रक्तप्रदर, श्वेतप्रदर तथा मूत्र कृच्छ्र दूर होता है । थकावट दूर होती है और चित्त प्रसन्न होता है । ३ एर्वारु बीज - खोरे या ककडी का बीज भी अच्छा मूत्रल और मूत्रकृच्छ्रशामक होता है । इसका स्वतंत्र अथवा अन्य औषधियो का योग करके सेवन उत्तम रहता है । जैसे ककडी का बीज ६ माशा, मधुयष्टी ३ माशा, दारुहरिद्रा चूर्ण ३ माशा । मिलाकर एक मात्रा, चावल के पानी और मधु के साथ सेवन । 1 - ४. यवक्षार - यवक्षार १ माशा और खांड या देशी चीनी के शर्बत का सेवन । ५. कटकारी स्वरस २ तोला, मधु ६ माशा का सेवन । ६. सूर्यावर्त ( सूरजमुखी) अथवा सुवर्चला ( हुरहुर ) के बीजो को पत्थर पर पीस कर ताम्र घट मे रखे हुए वासी जल के साथ सेवन । ७ शुद्ध गंधक - शुद्ध गंधक ४ रत्ती, यवक्षार १ माशा, चोनी ६ माशे तक मे मिला कर सेवन करने से पूयमेहज मूत्रकृच्छ्र मे लाभ होता है । ८ नारिकेल पुष्प -- नारियल के फल के भीतर की पुष्पाकृतिरचना को निकाल कर चावल के धोवन के साथ पीस कर पीने से रक्तस्राव के साथ होने वाले मूत्रकृच्छ मे लाभ होता है । ९ गोक्षुर - गोक्षुर वीज का कषाय यवक्षार मिलाकर पीना सरक्त मूत्रकृच्छ्र में लाभ करता है। १० पंच-तृण कषाय - कुश, कास, शर, दर्भ और ईख के १ नस्याञ्जन स्नेहनिरूहवस्ति स्वेदोपनाहोत्तरवस्तिसेकान् । स्थिरादिभिर्वातहरैश्च सिद्धा दद्याद्रसाश्चानिलमूत्रकृच्छू || सेकावगाहा शिशिराः प्रदेहा ग्रैमी विधिर्वस्तिपयोविकारा । द्राक्षाविदारीक्षुरसंघृतैश्च कृच्छ्रेषु पित्तप्रभवेषु कार्या ॥ क्षारोष्णतीक्ष्णौपधमन्नपान स्वेदो यवान्न वमन निरूहा | तक्र सतिक्तोषधसिद्धतैलमभ्यगपान कफमूत्रकृच्छ्रे ॥ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि मूल का कपाय परम पित्त-शामक, मूत्रकृच्छ्र को दूर करने वाला और वस्ति का विशोधक होता है । इसका उपयोग मूत्रसंस्थान के रोगो के अतिरिक्त पित्ताश्मरीजन्य शूल मे भी किया जा सकता है । ११. पंच-तृण सिद्ध क्षीर-उन्ही औपधियो के योग से पकाया दूध भी उत्तम कार्य करता है । इस योग मे शतावरी, तालमखाना, गोखरू, विदारीकद, नरकट, धान का मूल इन औपधियो के मूली का भी यथालाभ समिश्रण करके उपयोग उत्तम रहता है। १३. इक्षुरसगन्ने के रस। १३. तक्र-मक्खन युक्त मट्ठे का चीनी के साथ १४ क्षीर-गर्म करके ठडा किया दूध मिश्री खाड मिलाकर प्रचुर मात्रा मे सेवन करना भी लाभप्रद रहता है ।२ १५. करज की छाल ( १ तोला) को गाय के दूध (1) के साथ पीस कर पीना । १६ आखुविट्-चूहे की भीगी का गन्ने के रस के साथ सेवन सद्य मूत्रकृच्छ्र का शामक होता है।३ १७. त्रिफला ३ माशा पानी के साथ पीस कर सेंधानमक मिलाकर सेवन करना। १८. सूक्ष्मैला-छोटी इलायची का चूर्ण २ माशा, गोमूत्र, केले के मूल के रस या मद्य के साथ पीना मूत्र की पीडा को शान्त करता है। १६ हरीतक्यादि कपाय हरीतकी, गोखरू का बीज, अमलताश की गुद्दी, पापाणभेद के मूल या पत्ती तया यवासा समान भाग में लेकर जीकुट करके २ तोले को १६ गुने जल मे क्वथित करके चौथाई शेप रहने पर उतार कर ठंडा करके उस मे शहद ३ माशे मिलाकर सेवन करने से वेदनायुक्त मूत्र कृच्छ भी शान्त होता है। यह एक सिद्ध योग है बहुत प्रकार के मूत्रकृच्छ्र में उत्तम लाभप्रद पाया गया है। २० पापाणभेदादिक्वाथ-पाषाणभेद, मुलैठी, छोटी इलायची, एरण्डमूल, अडूसा, गोखरू बोज, अमल्ताश, हरड, छोटी कंटकारी मूल, समभाग मे लेकर २ तोले द्रव्य को अष्टगण जल मे खोलाकर चतुर्थांश शेप रहने १ कुश. काम शरो दर्भ इक्षुश्चेति तृणोद्भवम् । पित्तकृच्छ्रहर पचमूल वस्तिविशोधनम् ॥ २. भृष्टास्वरसं ब्राह्यमाखुविट्सहितं पिवेत् । नाशयेन्मूत्रकृच्छ्राणि सद्य एव न सशय ॥ ३ गुडेन मिश्रितं दुग्ध फदुष्ण कामत. पिवेत् । मूत्रकृच्छ्रेप सर्वेषु शर्करा वातरोगनुत् ।। ४ मूत्रेण मुरया वापि कदलीस्वरसेन वा । फ्फकृच्छविनाशाय सूक्ष्मा पिष्ट वा श्रुटि पिवेत् ॥ - Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तैतीसवॉ अध्याय २५३ पर छान कर उसमे सुवर्चला (हुरहुर या सूरजमुखी ) के बीज का चूर्ण ४ रत्तो और मधु ६ माशे मिलाकर पिलाना भी उत्तम रहता है । २१ एलादि चूर्ण-छोटी इलायची के दाने, पाषाणभेद, शुद्ध शिलाजीत, छोटी पिप्पली । सम भाग में बना चूर्ण। मात्रा २ माशा । अनुपान चावल का पानी। २२. श्वेत पर्पटी, क्षार पर्पटी या सित चूर्ण-अच्छा कल्मी शोरा ४० तोला, फिटकरी ५ तोला और नौसादर २॥ तोला। सब का मोटा चूर्ण फरके मिट्टी की हाड़ी में पकावे । जब सब द्रव हो जाय तो जमीन पर गोवर 'विछाकर ऊपर केले का अखण्ड पत्ता रख कर उस पर डाल दे और तुरन्त उसके ऊपर दूसरा केले का पत्र रख कर दवा दे। ठंडा होने पर निकाल कर कपडे छान करके चूर्ण बना कर शीशी मे भर ले। इस योग का कई नामो से वैद्यपरम्पराओ मे व्यवहार पाया जाता है जैसे सितचूर्ण, ववक्षार, क्षार पर्पटी, गोतल पर्पटी और श्देत पर्पटी। मात्रा'१ से २ माशा । शीतल जल मे घोल चीनी के शर्बत मे मिलाकर या कर्पूरोदक मे मिलाकर या कच्चे नारियल के पानी के घोलकर । उपयोग-यह अच्छा मूत्रल, स्वेदल और वातानुलोमक योग है । अम्लपित्त, मूत्रकृच्छ, मूत्राघात, अश्मरी तथा पेट का अफारा मे प्रयोग करे । इसका स्वतंत्र या किसी क्वाथ में मिलाकर अथवा यवक्षार के साथ मिलाकर ( श्वेत पर्पटी २ माशा और यवक्षार १ माशा मिश्र १ मात्रा। चीनी के शर्बत में घोल कर पिलाना उत्तम रहता है। त्रिकट्वादि या गोक्षुरादि गुग्गुलु (प्रमहाधिकारोक्त)-इस वटी का प्रमेह, मूत्राघात, मूत्रकृच्छ तथा अश्मरी में दूध या जल के अनुपान से प्रयोग करे। तारकेश्वर रस-शुद्धपारद, शुद्ध गधक, लौहभस्म, वंग भस्म, अम्रभस्म, जवासा, यवक्षार, गोक्षुरबीज चूर्ण, हरीतकी चूर्ण प्रत्येक १ तोला । प्रथम पारद एवं गंधक की कज्जली बनाकर शेष द्रव्यो को मिलाकर कुष्माण्ड फल स्वरस, पचतृण कपाय तथा गोखरू के क्वाथ की, पृथक् पृथक् भावना देकर २ रत्ती के प्रमाण की गोलियाँ बनाले । मात्रा १-२ गोली दिन मे २ वार । उदुम्बर फल चूर्ण ३ तोला और मधु के साथ सेवन करावे। इस औपध के सेवन काल में हल्का पथ्य रखे । वकरी का दूध, गन्ना का रस या खांड का शर्बत पीने को दे । सभी प्रकार के मूत्राकृच्छ्र एवं मूत्राघात में लाभप्रद होता है। Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ भिपकर्म-सिद्धि चंद्रकला रस-शुद्ध पारद, ताम्र भस्म, अभ्र भस्म प्रत्येक १ तोला, शुद्ध गधक २ तोला । प्रथम पारद और गंधक की कज्जली बनाकर शेप द्रव्यों को मिलाकर अच्छी प्रकार घोटले । फिर उसमे कुटकी, गिलोय का सत्त्व, पित्तपापडा, खश, माधवी लता का चूर्ण, अनन्तमूल, श्वेत चन्दन प्रत्येक का चूर्ण १ तोला भर मिलाले। पश्चात् नागरमोथा, मीठा अनार, दूर्वा, केवडे का फूल, सहदेवी, घृतकुमारी, पर्पट, रामशीतलिका, शतावरी इनका यथालाभ क्वाथ या स्वरस से पृथक्-पृथक् एक एक दिन तक यथाविधि भावित करके सुखाकर रख ले। इसको द्राक्षादि गण की औषधियो के वाथ - (द्राक्षा, सन्तरा, केला, ताडफलगिरी, जामुन एवं आम ) से भावित करके या द्राक्षा के काढे या अगूर के रस में ७ दिनो तक भावित करके औषधि का गोला बनाकर पत्तो में लपेट कर एक सप्ताह तक धान्यराशि में रख दे। धान्यराशि मे पाक हो जाने पर एक सप्ताह के पश्चात् औपधि को निकाले । पश्चात् गोलियां चने के वरावर को बनाकर छाया मे सुखाकर रखले । यह चन्द्रकला रस शरीर के दाह, चक्कर आना, मूर्छा, खासी से रक्त आना, रक्त का वमन, रक्तपित्त, रक्तप्रदर, रक्तार्श, जीर्णज्वर तथा मूत्रकृच्छ्र मे परम लाभप्रद होता है। यह परम पित्तशामक औषधि है । मात्रा १-२ गोली दिन में तोन वार, पेठे के काढे या रस के साथ । (वृहत निघद्ध रत्नाकर)। सुकुमारकुमारक घृत-पुनर्नवा की जड़ १ तोला लेकर २ द्रोण जल मे खोलाकर चतुर्थाशावशिष्ट क्वाथ बनावे एवं छानकर रखले। फिर दगमूल, शतावर, वला की जड, असगध, तणपचमल, गोखरू, विदारीकद, शालपर्णी, नागवलामूल, गिलोय और अतिवला प्रत्येक ४०-४० तोले लेकर दो द्रोण ( ३२ सेर) जल मे खोलाकर चतुर्थाशावशिष्ट क्वाथ बनाकर छान कर रखले । फिर गोघृत १२८ तोल तथा मधुयष्टी, अदरक, द्राक्षा, सैधव, छोटी पीपल ८-८ तोले, अजवायन १६ तोले, गुड १२० तोले, एरण्डतैल ६४ तोले का कल्क एवं दोनो क्वाथो को आग्न पर चढाकर यथाविधि पाक करे। यह सूकुमार प्रकृति के व्यक्तियो के लिय, राजा अथवा राजा के समान या थीमन्त मनुष्यो के लिये हितकर, बलकारक एवं शीतवीर्य रसायन औषधि है। अनेक रोगो में विशेषत मत्रकृच्छ्र और मूत्राधात में लाभप्रद रहता है।' मात्रा १ तोला गर्म दूध मे डाल कर दिन दो या तीन बार । (चक्रदत्त) __मूत्राघात प्रतिपेध-मूत्राघात की चिकित्सा मे दोपानुसार मूत्रकृच्छ् रोग की चिकित्सा में व्यवहृत होने वाली औपधि योगो का प्रयोग करना चाहिये तथा वस्ति, उत्तरवस्ति एव एरण्डतले से विरेचन देना चाहिये । Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तैतीसवाँ अध्याय ५५५ त्राघात (Retention of urine or Distended Bladder)मे पेड़ के ऊपर ( वस्ति के उपरितन प्रदेश पर ) कई लेप करने से लाभ होता है। जैसे-१ सेमल के फूल को एरण्ड तैल मे पौस कर गर्म करके लेप करना।' २-चूहे की मीगी को केले के रस में पीस कर लेप करना। ४. धारा चिकित्सा--१. किशुक ( पलाश के फूल) का काढा बनाकर पेड़ के ऊपर गुनगुना छोडना २ मेघनाद ( वन चौलाई ) का गर्म गर्म लेप या काढा बना कर धारा रूप मे पेड़ पर छोडना। ३ कर्कोटक (खेखसा ) को गर्म करके सेकना या लेप करना या उसका काढा बनाकर पेड़ के ऊपर छोडना ४ केवल गर्म जल या गर्म तैल की धारा छोडना उत्तम रहता है। ५ विम्बी, कुन्दरू की लता की जड को काजी मे पीस कर गर्म करके पेड़ पर लेप करना या उसका पानी बनाकर.धारा के रूप मे छोडना । अन्य उपाय-लिङ्ग के छिद्र मे कपूर का चूर्ण २ रत्ती महीन पीस कर लिङ्ग मे छोडना । यदि इन उपायो से मूत्राशय रिक्त न हो तो मूत्रसारिणी रबर की नाडी (Rubber catheter) को मूत्रमार्ग मे लगाकर मूत्र को निकाले । यदि इससे भी मूत्र न निकले तो लौहनिर्मित मूत्र नाडी (Metal catheter) अथवा लोह शलाका (Metal sounds) का प्रवेश करा के मूत्र का निकालना उत्तम रहता है। __अंत प्रयोज्य औषधियो मे मूत्रकृच्छ्रहर पूर्वोक्त औषधि योगो का प्रयोग ' हितकर होता है, जैसे--ककडी या खीरा के बीज, कुष्माण्ड स्वरस, गोक्षुर क्वाथ, तृण पंचमूल, श्वेत चदन आदि । कुछ विशेष योगो में-१. अशोक के बीजो का चूर्ण २ माशे शीतल जल पीसकर पीना । २. रुद्रजटा के मूल का मट्ठ के साथ पीसकर सेवन । ३ वटपत्री या पापाणभेद के पत्र को मट्ठ, तेल या घी के साथ पीसकर पीना। ४. मद्य मे इलायची का चूर्ण ४रत्ती, नागरमोथा का चूर्ण ४ रत्ती, सेंधा या कालानमक, अनार का रस और मधु मिलाकर सेवन करना । ५ शुद्ध शिलाजीत ४ रत्ती से १ माशा, शहद ३ तोला, शक्कर १ तोला, मिलाकर सेवन । ६ शुद्ध शिलाजीत ४ रत्ती, शक्कर ६ माशा, दशमूल कषाय के साथ। इनसे मूत्रकृच्छ्र मूत्रजठर, मूत्रातीत, वातवस्ति, अष्ठोला प्रभृति अवस्थावो मे रुका हुआ मूत्र सवित होता है । १ क्षतशल्यसमुद्भूतमूत्राघातनिवृत्तये । प्रवेशयेन्मूत्रमार्गे शलाका मूत्रसारिणीम् ॥ (भै र ) २ सशर्करं च ससित लोढ सिद्धं शिलाजतु । निहन्ति मूत्रजठर मूत्रातीतं च देहिनः ।। Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि अश्मरी प्रतिषेध-अश्मरी रोग में श्लेष्म दोप की प्रधानता है। यह वृक्क में पैदा होकर कई स्थानो पर पडी गरीर में मिल सकती है, जैसे--वृक्क, गवीनी अथवा मूत्रागय । अश्मरी रोग अधिकतर शस्त्रकर्म-साध्य है तथापि कुछ अवस्थावो मे औषवि के प्रयोग से लाभ की भाशा रहती है। ऐसे योगो का उल्लेख नीचे दिया जारहा है। अश्मरी मे वातिक लक्षणो की प्रमुखता हो तो वृतपान कराने से लाभ होता है, औपधियो में वरुणादि गण का उपयोग, पित्तसदृश लक्षण मिले तो पाषाणभेद का उपयोग और श्लेष्माधिक्य का चिह्न मिले तो क्षार का उपयोग करना चाहिये । सामान्य योग--१. वरुणादि कषाय-वरुण को छाल, सोठ, गोखल वीज, मुसली, कुलथी, कुश-कास-गर-दर्भ एवं इक्षुमूल। इनको सम प्रमाण में लेकर २ तोले को ३२ तोले जल में खोलाकर चौथाई गेप रखकर २ तोले देशी चीनी और यवक्षार १ माशा मिलाकर पिलाना। २ वरुण अथवा गिग्रु का कपाय गुड के साथ मिलाकर सेवन । ३ एलादि क्वाथ-छोटी इलायची, पिप्पली, मुलेठी, पापाणभेद, रेणुका, गोखरू, अडूसा, एरण्डमूल । इनको समभाग में लेकर २ तोले को ३२ तोले जल मे खोलाकर चौथाई गेप रहने पर छानकर मुख गिलाजीत ४ रत्ती, ६ माशे मधु और १ तोला शक्कर मिलाकर सेवन । ४. गोखरू वीज-गोखरू वीज का चूर्ण ६ माशे और मधु १. तोला मिलाकर वकरी या भेंड के दूध के साथ सेवन करना । एक सप्ताह तक इसके प्रयोग से अश्मरी का भेदन होता है।' ५. वाकुची वीज ३ माशे, वरुण की छाल ३ माशे रात में किसी मिट्टी के पात्र म भिगो कर सुवह मसल कर पानी को छान कर पीने से अश्मरी का भेदन होता है । इस योग का उपयोग पित्ताश्मरी में भी लाभप्रद रहता है। ६ वोरतरादि गण-शर की जड, नील तथा पीत पुष्प वाला सैरेयक (पियावासा ), दर्भ, दृक्षादनी ( वादा), नरसल, गिलोय, कुश, कास, पापाणभेद, ईख की जड, सोनापाठा, कटसरैया, सूर्यमुखी या हुरहुर, अगस्त्य की छाल, बरणी, नीलोत्पल, गोखरू तथा कपोतवक्त्रा ( इलायची या काकमाची) दशमूलीशृतं पीत्वा सशिलाजतु गर्करम् । वातकुण्टलिकाप्टोलावातवस्तो प्रमुच्यते ।। (यो. र.) १. विकण्टकस्य वीजाना चूर्ण माक्षिकमंयुतम् । अजाक्षीरेण सप्ताह पेयमरमरिभेदनम् ।। (सु) Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तैतीसवॉ अध्याय ५५७' इस गण की औषधियाँ मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघात, अश्मरी मे लाभप्रद, शीतवीर्य एवं पित्तशामक होती है । , ७ ऊपकादि गण - क्षारयुक्त मृत्तिका, पुष्प काशीस, शुद्ध गुग्गुलु, शुद्ध शिलाजीत, भाग में बने योग को ऊपकादि गण कहते है के रूप में सेवन करना कफ रोग, मेदो वृद्धि, रहता है । सेधा नमक, हीग, धातु काशीस, शुद्ध तुत्थ | इन औषधियो के सम इन औषधियो का क्वाथ या चूर्ण अश्मरी तथा मूत्रकृच्छ्र मे लाभप्रद | ८ ताम्रघट मे रखे हुए वासी पानी के साथ मुसली का कल्क ३ माशे अथवा इन्द्रायण की जड़ का चूर्ण १ माशा पोस कर लेने से भी अश्मरी का भेदन होता है । अश्मरीभेदक अन्य योग - गोखरू, तालमखाना, छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, एरण्ड मूल । सम भाग मे लेकर ६ माशे चूर्ण मीठे दही के साथ सेवन करना । इसका एक सप्ताह तक प्रयोग करने से अश्मरी का भेदन होता है । " १ १० कुलत्थ यूष भी अश्मरीभेदक होता है । अश्मरी ११. कुन्दुरू का स्वरस - विम्बी पत्र या मूल का स्वरस या कषाय शूल मे लाभप्रद होता है । १२ हरिद्रा और गुड प्रत्येक अश्मरीभेदक होता है । १३ बन्व्या होता है । १४. वरुणाद्य लौह-वरुण की छाल और आँवले का चूर्ण ८-८ तोला, धाय का फूल ४ तोला, हरड का चूर्ण २ तोला, पृश्निपर्णी का चूर्ण-लोह भस्म और अभ्रक भस्म प्रत्येक १ तोला । सब औषधियो को घोट पोस करके शीशी मे भर ले | इस योग को २ माशा की मात्रा मे तृण पंचमूल के क्वाथ के साथ, शहद से या केवल जल से सेवन करने से भयंकर मूत्राघात, मूत्रकृच्छ्र तथा अश्मरी रोग में लाभ होता है । १ तोला काजी के साथ पीस कर सेवन कर्कोटिका कन्द मधु के साथ अश्मरीभेदक अश्मरीहर कपाय -- पाषाणभेद, सागौन के फल, पपीते की जड, शतावर, गोखरू वीज, वरुण की छाल, कुशमूल, कासमूल, धान का मूल, पुनर्नवामूल, गिलोय, अपामार्गमूल, खीरा का बीज प्रत्येक समभाग । जटामासी १ मूलं श्वद्रष्ट्र क्षुरको रुवूकात् चीरेण पिष्ट वृहतीद्वयाच्च । आलोड्यय दध्ना मधुरेण पेय दिनानि सप्ताश्मरिभेदनार्थम् ॥ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.८ भिपकर्म-सिद्धि और खुरासानी अजवायन की पत्ती या वीज प्रत्येक दो भाग ले । सव को जी जुट करके रख ले। इसमें से एक तोला लेकर १६ गुने जल में खौलाकर ४ तोला शेप रहे तो उतार कर छान कर उसमें ५ से १० रत्ती शुद्ध शिलाजीत, श्वेत पर्पटी १० रत्ती और यवक्षार ५ से १० रत्ती तक मिलाकर दे । इस प्रकार रोगी को दिन में तीन-चार बार पिलावे। इसके साथ हजरत जहद की भस्म देने से विशेष लाभ होता है। अश्मरी या शर्करा तथा उससे होने वाले गुर्दे (वृक्कशूल Renal Colic) में विशेष उपयोगी है । ( सि. यो संग्रह) हजरु जूहद की भस्म-एक लम्ब गोल ऊपर से रेखा वाला पत्थर है । यूनानी दवा वेचने वालो के पास इसी नाम से मिलता है। यूनानी दैद्यक मे यह मत्रल और पथरी को तोडकर निकालने वाला माना गया है। मम्म-निर्माण विधि-पहले पत्थर को जल से धो कर कपड़े से पोछ कर साफ कर ले फिर लोह के इमामदस्ते मे कटकर कपडछन चूर्ण बनावे। फिर पत्यर के खरल में तीन दिनो तक मूली के स्वरस मे मर्दन करके टिकिया बनाकर सुखा ले । पश्चात् मिट्टी के दो कसोरो में टिकियो को रखकर अर्धगजपुट में अग्नि दे। म्वाङ्गशीतल होने पर टिकिया को निकाल कर पीसकर शीशी मे भर ले । ४-८ रत्ती की मात्रा मे दिन मे तीन वार अश्मरीहर कपाय के अनुपान से सेवन के लिए रोगी को दे । यदि अम्मरी छोटो हो तो कुछ दिनो तक इसके सेवन करने से पेशाब के रास्ते निकल जाती है । ( सि यो. सग्रह ) उपसंहार-जैसा कि ऊपर मे वतलाया जा चुका है, उपर्युक्त रोगो मे प्राय. ये रोग गल्यकर्म से साध्य होते हैं-फिर भी कई अवस्थायें है जो औपधसाध्य है। इन अवस्वाओ में इन औपधियो के प्रयोग से उत्तम लाभ होता है । अश्मरी-भेदक मोपधियो का पर्याप्त ज्ञान आधुनिक विज्ञान में नहीं है । अस्तु, इन ओपधियो को शस्त्र कर्म के पूर्व एक बार परीक्षा करके अवश्य देखना चाहिये । वृक्क अथवा मूत्र-वह स्रोत तक अश्मरियो का भेदन हो जाना तो युक्त प्रतीत होता है, 'परन्तु वस्तिगत अश्मरी में औपधियो से लाभ पहुँचना कठिन रहता है । अस्तु, शस्त्र क्रिया की ही शरण लेना उत्तम रहता है। एक और बडी विचित्रता इन योगो की है कि जो अश्मरीभेदक योग हैं वे केवल मत्राश्मरी पर ही सीमित नही है गरीर के अन्य भागो में होने वाली अश्मरियो पर भी उनके भेदन में इनको क्षमता देसी जाती है। Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ चतुर्थ खण्ड : तैंतीसवॉ अध्याय ५५९ मूत्रकृच्छ्, अश्मरी, मूत्राघात से पीडित रोगियो मे आहार-विहार के सम्बन्ध का विशेप ध्यान रखना चाहिये। एतदर्थ रोगी को जौ का मण्ड ( २ तोले को ६४ तोले जल मे उबाल कर चौथाई शेप रखकर कपड़े से छान कर ), कच्चे नारियल का पानी, नारियल की गिरी, गन्ने का रस, लौकी, पेठा, ककडी, खीरा, पुनर्नवा की पत्ती, कासनो की पत्ती, कुन्दरू, कुन्दरू की पत्ती, मकोय, पत्र शाक, उवाला हुआ जल का अधिक मात्रा मे सेवन प्रभृति मूत्रल द्रव्यो का प्रयोग हितकर होता है। द्विदल धान्य ( विविध प्रकार के दालो का उपयोग ), मास, कंदशाक तथा स्नेह पक्व (घृत या तैल-पक्वान्न) अपथ्य है। अवगाहन स्वेद ( गरम जल मे कमर का भाग डूबा रहे ) मूत्रकृच्छ्र एवं अश्मरी मे हितकर होता है । रोग का दौरा शान्त हो जाने पर भी उपर्युक्त पथ्यो का ध्यान रखना चाहिये और भोजन मे पुराना चावल, जौ, गेहूँ, मूंग या कुलथी की दाल, तक्र ( मट्ठा ) या गाय का दूध, पेठा आदि मूत्रल आहार रोगी को सेवन के लिए देना चाहिये । पीड़ा के साथ मूत्रत्याग का वृत्त-वाल्यावस्था मे प्राय अश्मरी के कारण युवावस्था मे प्राय पूयमेह (Gonorrhoea. ) के कारण तथा वृद्धावस्था मे प्राय अष्ठीला ग्रथि की वृद्धि के कारण पाया जाता है। ऊपर , लिखे मूत्रल कपाय एव योगो के प्रयोग से सभी अवस्थाओ मे कुछ लाभ अवश्य पहँचता है। अश्मरियो के प्रतिषेध के सम्बन्ध मे तो बहुत कुछ लिखा जा चुका है । यहाँ पर पूयमेह तथा अण्ठीला वृद्धि के सम्बन्ध मे विशेप कथन अभिप्रेत है। पूय-मेह प्रतिषेध इस रोग की तीव्रावस्था में रोगी को पूर्णतया शारीरिक विश्राम देना चाहिए। मानसिक उत्तेजनाओ से विरत करना चाहिए, विशेषत कामवासनोतेजक भावो से । भोजन मे केवल दूध ( गाय का ) रोटी या चावल खाने को देना चाहिए । मद्य, मास, गर्म मसालो का त्याग करना चाहिए । रोगी को पर्याप्त मात्रा मे शीतल जल पिलाना चाहिए।' वास्तव मे पूयमेह (Gonorrhea) आधुनिक सभ्यता का रोग है और कुप्रसग से पैदा होता है, प्राचीन ग्रथो मे इसका यथार्थत वर्णन नही पाया जाता है। फलत चिकित्सा में भी आधुनिक विज्ञान सम्मत ओपधियोग (Sulpha drugs, Penicillin, Streptomycine) तथा अन्य (Anti biotic) सद्य चमत्कारक लाभ दिखलाते हैं। परन्तु, इनके प्रयोग से लाभ तो शीघ्र हो जाता है, किन्तु रोग का पुनरावर्त्तन प्राय. होता रहता है। अस्तु, आयुर्वेदीय पद्धति से चिकित्सा करना भी आवश्यक हो जाता है । Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० भिपकर्म-सिद्धि रोग की तीव्रावस्था में - शुद्ध गंधक १ माशा की मात्रा में घी ओर चीनी मे सुबह-शाम देकर तक्र (छाछ) पिलाना चाहिये । अनुपान रूप में शिग्रु का कपाय, अथवा हरीतक्यादि कपाय का भी उपयोग किया जा सकता है ! श्वेत पर्पटी -२ माशा और यवक्षार १ मागा मिलाकर एक छटांक पानी मे वने चीनी के शर्वत में घोलकर दोनो वक्त भोजन के बाद पिलाना चाहिये । चंदन का तेल - ५ वूद बताशे मे रख कर पिलाने से भी उत्तम लाभ इसका विशेष प्रभाव होता है । होता है । पूयको रोकने में चंदनादि वटी - श्वेत चंदन का बुरादा, छोटी इलायची के वीज, कवाव चीनी, सफेद राल, गंधा विरोजे का सत, कत्था और आंवला प्रत्येक चार-चार तोला । कपूर १ तोला उत्तम चदन का तेल ( इत्र ) ५ तोला, रसोत ( दारूहरिद्रा का घनसत्त्व ) इतनी मात्रा मे जितने मे गोली बन सके । ५०५ रत्ती की गोलियाँ बनाले | मात्रा - २-४ गोली दिन में से । पूय ( मवाद ) मेह में पेशाब की जलन होने पर विशेष ( सिद्ध योग संग्रह ) पूयमेह की जीर्णावस्था में - उष्णवात की चिकित्सा करनी चाहिये । इसके लिये तिन्तिडी चूर्ण- इमली के बीज का कपटछान चूर्ण ६ माशे की मात्रा में जल या मधु के साथ अथवा हरिद्रा योग-हरिद्रा, आमाहल्दी, दारुहरिद्रा तथा आमलको का सम भाग मे लेकर बनाया चूर्ण ३ माशे की मात्रा में घी या गाय के दूध से देना उत्तम रहता है । संधिवात (Gonorrhoeal Arthritis ) से उपद्रत जीणे पूयमेह में गोक्षुरादि गुग्गुलु २ गोली दिन में तीन वार, हरीतक्यादि कपाय से देना चाहिए। शेष लाक्षणिक उपचार करना चाहिये । जीर्ण पूयमेह मे प्रमेहाधिकार के योग, जैसे- चंद्रकला वटी, वसन्ततिलक रस, जिवा गुटिका आदि भी लाभप्रद रहते हैं । वग के योगो में विशेषत सुवर्णवग का उपयोग करना चाहिये । तीन बार ठंडे जल लाभ करता है । अष्ठीला वृद्धि (Enlarged Prostate ) — वृद्धावस्था में होने वाला शस्त्रसाध्य रोग है । निम्न लिखित योगो के प्रयोग से लाभ प्राप्त होता है गोमूत्र स्त्रिन्न हरीतकी दूरीतकी १ पाव लेकर पानी से धोकर मिट्टी के वर्त्तन में गोमूत्र में भिगो दे । चौबीस घंटे के पश्चात् उसे निकाल ले और एरण्ड तेल - में भूनकर पकाकर रस ले । १-२ हरीतकी दिन में दो बार सेवन करे । तारकेश्वर रस अथवा शिवा गुटिका अथवा अश्मरीहर कपाय का भी उपयोग यथावसर करना चाहिये । Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसवाँ अध्याय प्रमेह प्रतिपेध प्रावेशिक-अश्मरी, मूत्राघात एवं मूत्रकृच्छ्र के पश्चात् मूत्र रोगो मे दूसरा अध्याय प्रमेह का पाया जाता है। प्रमेह शब्द को शाब्दिक व्याख्याप्रकण-प्रभूत-प्रचुर वारंवार-मेहति मूत्रत्याग करोति यस्मिन् रोगे स प्रमेह । अर्थात् जिम रोग मे अत्यधिक या बार बार मूत्रत्याग ( Frequeny, of micturation or Total out put of urine increased) atar ē अथवा मूत्र मे आविलना-गदलापन (Turbidity) पाया जाता है, उस रोग को प्रमेह कहते है। इन सभी प्रमेहो मे मूत्र-सस्थान की विकृति पाई जाती है। विकृति की विभिन्नता के अनुसार प्रमेह के लक्षणो मे भी भेद पाये जाते है और विशिष्ट लक्षण मिलते है। आचार्य वाग्भट ने लिखा है कि वस्तुत 'मूत्र की अधिकता और गदलापन सभी प्रमेहो का सामान्य लक्षण है । सभी प्रमेहो में दोप एव दूष्य के समान रहने पर भी उनके सयोग विशेष के कारण मूत्र के वर्ण, गध, स्पर्श आदि भेदो से प्रमेहो के अनेक भेद हो जाते हैं। सामान्य दोप, दूष्य तथा मेहों के भेद-प्रमेह एक त्रिदोपज व्याधि है । दोपो को उल्वणता या अविकता के अनुसार वातिक, पैत्तिक एवं श्लैष्मिक भेद किये जाते है । प्रमेह की उत्पत्ति मे दूष्यो की समानता पाई जाती है। दूष्यो मे मेद, रक्त, शुक्र, जल, वसा, लसीका, मज्जा, रस, मोज तथा मास शरीर के धातु, दूष्य वनते है । इन दोप एव दूष्यो की विकृति के प्रभाव से दोषभेदो के अनुसार कफज दश (उदकमेह, इक्षुमेह, सान्द्रमेह, सुरामेह, पिष्टमेह, शुक्र१ सामान्य लक्षण तेषा प्रभूताविलमूत्रता। दोपदण्याविशेषेऽपि तत्सयोगविशेपत ॥ मूत्रवर्णादिभेदेन भेदो मेहेषु कल्प्यते । सूत्राघाता प्रमेहाश्च शुक्रदोषास्तथैव च ।। - मूत्रदोपाश्च ये वापि वस्तौ चैव भवन्ति हि । २. कफ सपित्त. पवनश्च दोपा मेदोऽस्रशुक्राम्बुवसालसीका । मज्जारसौज पिशित च दुष्या प्रमेहिणा विशतिरेव मेहा ॥ ३६ भि० सि. Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ भिपकर्म - सिद्धि मेह, शीतमेह, सिकतामेह, गनैर्मेह, लालामेह ) पित्तज छ ( चार-काल-नील-रक्तमाजिष्ठ- हारिद्रमेह ) तथा वातज चार ( वसा - मज्जा - हस्ति - मधुमेह ) एवं कुल मिलाकर वीस प्रकार के प्रमेह होते हैं । प्रमेह रोग मे विशिष्ट हेतुओ के अनुसार ये भेद बतलाये गये है । सामान्यतया भी कुछ हेतु प्रहो की उत्पत्ति मे भाग लेते हैं । ये सामान्य हेतु कफ दोप तथा कफ दोष से समता रखने वाले दूष्यो को विकृत करके रोग की उत्पत्ति कराते है -- जैसे गुदगुदे विस्तर पर निश्चेष्ट शारीरिक परिश्रम से विमुख होकर आराम से पड़े रहना, अधिक बैठे रहने का व्यवसाय, निश्चिन्त होकर अधिक सोना, दही का अधिक सेवन, ग्राम्य ( पालतू जीवो के मास ), मछली आदि जल-मास तथा भैसा, शूकरप्रभृति आनूपदेशज प्राणियो के मासो का सेवन, दूध तथा दूध से बने रबडी, मलाई आदि का अधिक उपयोग, गुड तथा गुड के बने पदार्थ मिश्री, चीनी, खाड आदि का सेवन, नवीन पैदा हुआ अन्न और पान का सेवन सभी कफवर्धक आहार प्रमेह के उत्पादक होते हैं । ' ( Rich & fatty diet & Sedatary life). साध्यासाध्यता- इन बीस प्रकार के मेहो मे कफज मेह साध्य, पित्तज मेह याप्य तथा वातज मेह असाध्य होते हैं । साध्यासाध्यता की उपपत्ति मे प्राचीन ग्रथकारो ने यह बतलाया है कि कफज मेहो मे दोप ( कफ ) एव दृष्य (मेदादि) की समानता है दोनो के प्रतिकार मे कटु, तिक्त आदि रसो का प्रयोग हितकर होता है । अस्तु, समान क्रिया से दोप एव दृष्य दोनो का शमन करना सभव रहता है । अस्तु, सभी साध्य होते है । वित्त मेहो मे पित्त दोष एव दृष्य पूर्ववत् मेदादि होते है । इस प्रकार दोप और दृष्यो को एक ही क्रिया नामक नही होती है । प्रत्युत विपरीत पडती है । जैसे पित्तहर जो मधुरादि रसवाले द्रव्य है वे मेद के वर्द्धक होते है-और मेदोहर कटुकादि उपचार पित्त के बढाने चाले पडते है । अस्तु, क्रिया की विषमता उत्पन्न हो जाती है फलतः पित्तज मेह मुखसाध्य न रहकर याप्य हो जाते है । वातज मेहो मे मज्जादि गम्भीर धातुओ. का नाश होने से बहुत से उपद्रव खडे हो जाते है । रोग भी शीघ्र विनाशकारी हो जाता है अतएव वातज मेह असाध्य होते है | । १. आस्यासुख स्वप्नसुसं दधीनि ग्राम्योदककानूपरसा पयासि । नवान्नपान गुडवैकृतञ्च प्रमेहहेतु. कफकृच्च सर्वम् ।। ( वा. नि. १०) २. साध्याः कफोत्या दश पित्तजा पद्याप्या न साध्य पवनाच्चतुष्क. । समक्रियत्वाद् विषमक्रियत्वाद महात्ययत्वाच्च यथाक्रमं ते ॥ ( च चि. ६.) Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : चौतीसवाँ अध्याय ५६३ कुलज सभी रोग असाध्य - प्रमेह भी यदि कुलज हो तो असाध्य होता है । प्रमेही से उत्पन्न संतान भी प्राय प्रमेही पैदा होती है और उसका रोग भी असाध्य हो होता है । इन दोनो अवस्थाओ मे अमाध्यता पंदा करने वाला कारण गर्भारभक चीजदोप ( शुक्रकीट, डिम्बगत क्रोमोजोम्स ) होता है । यदि प्रमेही का वल मास बहुत क्षीण हो गया हो तव भी वह असाध्य हो जाता है । सभी प्रमेह सम्यक् रीति से उपचार न होने से अत मे मधुमेहत्व को प्राप्त करते है ओर तव वे असाध्य भी हो जाते है । मधुमेह - समय पर उचित उपचार न करने से सभी प्रमेह मधुमेह मे परिणत होकर असाध्य कोटि मे पहुँच जाते है । चूँकि मधुमेह मे रोगी मधु के समान मधुर मूत्र का त्याग करता है और शरीर मे भी माधुर्य रहता है अत इस रोग को मधुमेह कहते हैं । मधुमेह कारणभेद से दो प्रकार का होता है- एक धातुक्षय से कुपित वायु से तथा दूसरा पित्त और कफ से आवृत वायु के द्वारा | इनमें आवरण दोपजनित या उपेक्षित प्रमेहजन्य मधुमेह कष्ट साध्य किन्तु स्वतंत्र वातकोपजन्य में मधुमेह असाध्य होता है | - मधुमेह आधुनिक विद्वानो के अनुसार प्राङ्गोदोयो ( Carbohydrates) के ममवर्त्त' ( Metabolism ) की विकृति का परिणाम होता है । मधुमेह प्रमेह रोग अन्तिम परिणाम ( Seqnella1 ) के रूप में पैदा होता है -- इसमे मूत्र की मधुरता के साथ-साथ शरीर की भी मधुरता पाई जाती है । शरीर की मधुरता से रक्तगत शर्करा को वृद्धि समझनी चाहिये । अर्थात् मधुमेह मे रक्तगत शर्करा को वृद्धि के साथ-साथ मूत्र द्वारा भी शर्करा का उत्सर्ग होता है । इसे मधुमेह युक्त परम मधुमयता ( Hyper Glycaemia with Glycosuria or Diabetes Mellitus ) कहते है । श्लेष्मिक प्रमेहो मे पाये जाने वाले रोग इक्षुमेह से इसका यही भेद है-- इक्षुमेह मे केवल मूत्र मे माधुर्य ( Glycosuria ) पाई जाती है, परन्तु Diabetes Mellitus मे शरीर का मधुर होना या रक्त-गत शर्करा का Threshhold ) से अधिक होना आवश्यक है शर्करा को वृद्धि नही होती है । २ वृक्क देहली ( Renal जब कि इक्षुमेह मे रक्तगत १ जात प्रमेही मधुमेहिनो वा न साध्य उक्त स हि बीजदोषात् । ये चापि केचित् कुलजा विकारा भवन्ति तास्तान् प्रवदन्त्यसाध्यान् ॥ (च ) , २ सर्व एव प्रमेहास्ते कालेनाप्रतिकारिण. 1 मधुमेहत्वमायान्ति तदाऽसाव्या भवन्ति हि ॥ ( सु ) 1 Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ भिपकर्म-सिद्धि प्रमेह में सामान्य क्रियाक्रम-प्रमेहपीडित रोगी दो प्रकार के मिलते हैएक स्थूल ( मोटे ) एव वलवान् दूसरे कृश एव दुर्बल । इनमे स्थूल एव बलवान रोगी मे बढे हुए दोपो को दूर करने के लिये वमन एव विरेचन प्रभृति कर्मों के द्वारा संगोधन करना उचित रहता है--कृश एवं दुर्वल रोगियो मे बल-मासादि को बढाने के लिये वृहण करना अपेक्षित रहता है। स्थूल एवं बलवान् प्रमेह के रोगियो की वमन एवं विरेचन कर्म के द्वारा अर्ध्व और अधो मार्ग मे लीन हुए मल के दूर हो जाने के पश्चात् संतर्पण क्रम से ही चिकित्सा करनी चाहिये । जो रोगी अत्यन्त क्षीण या दुर्बल होने के कारण सशोधन के योग्य नहीं है उनकी सशमन क्रिया के द्वारा चिकित्सा, प्रारंभ से ही करनी चाहिये । सामान्यतया मत्र-संस्थान के रोगो मे अपतर्पण पथ्य होता है--परन्तु प्रमेह रोग में मशोवन के अनन्तर अग्निका वल देखते हुए संतर्पण को भी व्यवस्था करनी चाहिये । प्रमेह मे सामान्यतया कफ-पित्तनाशक उपचार पथ्य होता है । अस्तु, भपतर्पण की ही क्रिया अधिक प्रशस्त है।' ___प्रमेह रोग में सशमन के लिये निम्न लिखित थाहार-विहार की व्यवस्था करनी चाहिये । रोगी को बल के अनुसार शारीरिक श्रम कराना, भोजन मे लघु भोजन जैसे-जो, कोदो, साँवा, गेहूँ (रोटी, दलिया, भात या सत्तू बनाकर यथायोग्य) का प्रयोग करना चाहिये । पुराने चावल का सेवन भी कराया जा सकता है, परन्तु सब से उत्तम अन्न जी है। इसका बहुलता के साथ उपयोग ___ मधुमेहे मधुसमं जायते स किल द्विधा । क्रुद्ध धातुक्षयाद्वायुर्दोपावृतपथेऽथवा ।। आवृतो दोपलिङ्गानि सोऽनिमित्त प्रदर्शयन् । क्षणाक्षीण क्षणात्पूर्णो भजते कृच्छ्रसाध्यताम् । मधुर यच्च मेहेपु प्रायो मध्विह मेहति । सर्वेऽपि मधुमेहाख्या माधुर्यान्च तनोरत ॥ ( वा नि. १०) १. रयूल प्रमेही वलनानिहेक कृगस्तथैक परिदुर्वलश्च । सबृहण तत्र कृशस्य कार्य संशोधनं दोपवलाधिकस्य ॥ अवं तथाऽधश्च मलेऽपनीते मेहेपु संतपंणमेव कार्यम् । सशोधनं नार्हति यः प्रमेही तस्य क्रिया संशमनी प्रयोज्या ।। यवस्यभक्ष्यान् विविधास्तथाद्यात् कफप्रमेही मसंप्रयुक्तान् । भृष्टान् यवान् भक्षयत प्रयोगान् शुकारच सवतन्न भवन्ति मेहाः ।। व्यायामयोगविविध प्रगाढरुहर्तनः स्नानजलावसेकं. ॥ विलक्षणायं कफपित्तजेपु सिद्धा प्रमेहेप्वपि ते प्रयोज्या । क्लेदश्च मेदश्च फफरच वृद्ध प्रमेहहेतु प्रसमीक्ष्य तस्मात् । वैद्य न पूर्वकफपित्तजेपु मेहेषु कार्याएयपतर्पणानि ॥ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : चौतीसवॉ अध्याय ५६५ कराना चाहिये। जौ के वने विविध प्रकार के भोजन जैसे-दलिया, रोटी, हलुवा, अपूपा (पूवा ), वाटी आदि बनाकर भी दिया जा सकता है--"यवप्रधानस्तु भवेत्प्रमेही।" दालो मे मूग, चना एव अरहर, कुलथी का और विशेष कर मूग का उपयोग करना चाहिये । शाक-तरकारी मे तिक्त और कपाय कटु रस युक्त पत्र, पुष्प, फल वाले शाको का जैसे-नीम की पत्ती, परवल, करेला, केला, गूलर आदि का सेवन कराना चाहिये । मूल और कदो का शाक रूप मे उपयोग कम करना चाहिये । मासरसो में प्रतुद (चोच से निकालकर मासादि खाने वाले गीध, बाज. काकादि ) एव विष्किर ( जमीन को कुरेदकर या नख से विखेर कर खानेवालेमुर्गे वत्तक, तितिर, लावा आदि ) पक्षियो के मास या अन्य जाङ्गल पशुओ के मास प्रमेह मे उत्तम रहते है । प्रमेह मे म8 का सेवन तथा मधु का उपयोग उत्तम रहता है--फलो मे आँवला, जामुन, आम, केला, अगूर मुनक्का, सेव, अमरूद, तथा अन्य ऋतु-फलो का सेवन पथ्य रहता है । फलो के माधुर्य से मधुमेह मे भी हानि नही होती है । जौ के सत्त का सेवन भी हितकर है। तैलो मे सर्षप, अतसी एव इगुदी तेल का उपयोग खाद्य रूप मे करना उत्तम रहता है । रुक्ष पदार्थ जैसे—निम्ब-हरिद्रादि द्रव्यो के चूर्ण के द्वारा या महीन मिट्टी के द्वारा शरीर के ऊपर गाढा उद्वर्त्तन करना, स्नान करना, व्यायाम करना, रात्रि मे जागरण, पथ्य है। दिन मे न सोना, अधिक बैठना या सोना, आराम-तलवी का जीवन तथा स्निग्ध, गुरु एवं अभिष्यदी आहार प्रमेह में अनुकूल नही पडते है.--- अस्तु, इन आहार-विहार एव औषधियो का बाह्य तथा आभ्यतर प्रयोग प्रमेह रोग मे हितकर होता है। निदान या कारण का परिहार सभी रोगो मे चिकित्सा सूत्र है-फलत. प्रमेह के उत्पादक सामान्य हेतुवो का-जिनका ऊपर मे कथन हो चुका है-पूर्णतया परित्याग करना आवश्यक होता है। जैसे दधि, आनूपदेशज मास, उडद, घी, रबडी, मलाई, कुष्माण्ड, इक्षुरस, गुड, स्वादु, अम्ल एव लवण का उपयोग सर्वथा बद कर देना चाहिये । गाय का दूध पानी मिलाकर सेवन करना उत्तम रहता है । धारोष्ण हो एवं वरावर पानी मिलाकर लिया जावे तो अधिक उत्तम रहता है। १ यर्हेतुभिर्ये प्रभवन्ति मेहास्तेपु प्रमेहेपु न ते निपेन्या । हेतोरसेवा विहिता यथैव जातस्य रोगस्य भवेच्चिकित्सा ।। (च चि ६) २ आमदुग्ध समजल य पिवेत् प्रातरुत्थित । नि सशय शुक्रमेह पुराण. स्तस्य नश्यति ॥ सर्वमेहहरो धाच्या रस क्षौद्र निशायुतः । लीढ. सारो गडच्यास्त मधुना तत्प्रमेहनुत् ॥ पीतो रसो गुडूच्या वाम धुना मेहनाशन । पलाशपुष्पतोलैक सितायाश्चार्धतोलकम् । पिष्ट पीताम्भसा पीत मेह हन्ति न सशय. ॥ (भै. र.) Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि प्रमेहन्न सामान्य औपधियाँ-१. हरिद्रा (हन्दी का चूर्ण : मागा मधु ६ मागा)। २. आमलकी मधु के माथ। ३. गुडूची क्वाथ या स्वन्म मधु के साथ । गुडुचीसत्त्व १-२ मामा मधु के नाथ । ४ खदिर का क्वाय या जल। ५. कुग का क्वाथ या जल । ६ मधु का गर्वत ( पानी में घोल कर बनाया जल)। ७. त्रिफला चूर्ण ३ माना ६ मागा या त्रिफला क्वाथ का मधु से सेवन । ८. दारुहरिद्रा का चूर्ण २ माशा मवु से । ९ गतावरीमूल का स्वरस १ तोला लेकर उसे १ पाव दूध में मिलाकर सेवन । १०. पलाग पुष्प १ तोला मिश्री १ तोला जल से पीसकर गर्वत वना कर लेना प्रमेह रोग मे लाभप्रद रहता है। ११ गुद्ध स्फटिका चूर्ण-१ माशा की मात्रा में नारिदेल जल के साथ सेवन विपत जीर्ण पूयमेह ( Gleet ) में उपयोगी है। १२. शुद्ध गिलाजीत १ मागा की मात्रा मे दूध में घोल कर सेवन । १३. लौह भस्म १ २० की मात्रा में त्रिफला चूर्ण एवं मधु के साथ लेना । १४. त्रिवंग (नाग-बग-यगद) में से किसी एक का भस्म १-२ रत्ती की मात्रा में हरिद्रा चूर्ण २ माशा और आंवले का स्वरस ६ मागा एव म ६ माशा के साथ सेवन । १५ भूम्यामलकी का स्वरस १ तोला, मरिच २० दाने के साथ सेवन करना। १६ कतक्वीज (निर्मली बीज ) का चूर्ण १ तोला तक के साथ पीसकर मधु मिला कर सेवन । १७. गुडमार की पत्ती का करक या 'स्वरम कालीमिर्च के साथ पिलाने से वहुमत्र तथा मधुमेह और इभुमेह में लाभप्रद रहता है। १८. गुजामूल चूर्ण 3 माशे मधु से। १९ वकायन की मोगी या पूतिकरज की मीगी का चूर्ण १-२ मा मधु में मेवन । दोपानुसार तथा प्रमेहभेदानुसार विशिष्ट क्रिया क्रम श्लेष्म प्रमेह-कफज प्रमेह ढग प्रकार होते है। उनमें सामान्य उपचार के रूप में लंघन, लेखन तथा सगोधन क्रियावो को यथासमय करना हितकर होता है। विविष्ट सोपवियो का एक्क्म, वर्णन नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है। १. उदक मेह-(Diabetes Insipidus) पारिजात का पाय (२ तोले पारिजातपत्र ३२ तोले जल में उबाल कर ८ तोले शेष रहने पर पिलावे ।) (मु) हरट, कायफल, नागरमोथा और लोत्र सम भाग में लेकर २ तोले द्रव्य का कपाय बनाकर मधु मिलाकर सेवन । (यो. २) Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चतुर्थ खण्ड : चौतीसवाँ अध्याय ५६७ २ इक्षुमेह ( Glycosuria Alimentry ) — निम्व के पत्र या छाल का काढा (सु) पाठा, वायविडङ्ग, अर्जुन की छाल और धमासा - समभाग लेकर जोकुट कर २ तोले द्रव्य का यथाविधि क्वाथ बनाकर मधु के साथ । ( यो. रत्नाकर मे कदम्ब के पाठ से उद्धृत ) जयन्ती क्याय भी उत्तम रहता है । ३ सान्द्रमेह ( Phosphatoria ) - सप्तपर्ण का कषाय । (सु) हरिद्रा, दारु हरिद्रा, नागरमोथा और वायविडङ्ग समभाग मे लेकर २ तोले द्रव्य का यथाविधि बनाया कपाय मधु के साथ ! 1 ४ पिष्ट मेह ( Chylura ) - हरिद्रा एवं दारु हरिद्रा का कषाय (सु) दारुहरिद्रा, वाय विडङ्ग, खदिर की छाल और धव की छाल का सम भाग मे गृहीत का कपाय मधु के साथ । 3 वरतुत पिष्टमेह और सान्द्रमेह दोनो मे लक्षण एव चिकित्सा का बहुत साम्य है- 1 अस्तु, एक में प्रयुक्त औषधि दूसरे मे भी व्यवहृत हो सकती है । इन दोनो अवस्थावो में मण्डूर भस्म ४ रत्ती की मधु से दिन मे दो बार देकर त्रिफला का म्याय पिलाने से अद्भुत लाभ होता है । ---- ५ सुरामेह ( Acetonuria ) - सुरातुल्य गव का मूत्र । यह भी एक प्रकार का साद्रमेह ही है । मधुमेह ( Diabetes Mellitus ) का एक विशिष्ट लक्षण है । शाल्मली ( सेमलमूल) का कपाय उत्तम रहता है (सु ) कदम्ब की छाल अथवा फूल, शाल की छाल, अर्जुन को छाल और अजवायन समभाग मे लेकर २ तोला द्रव्य का यथाविधि बना। कपाय मधु के साथ | 1 2 ( योग र. ) 1 ६ शुक्रमेह ( Spermatorrhea ) - दुर्वा, शैवाल, पूर्ति करञ्ज, कशेरुक, केवटी मोथा, सेवार, जलकुभी कपाय का ( सु ) देवदारु, मीठा कूठ, अगुरु लेकर यथाविधि निर्मित कपाय मधु ओपधियाँ मधु मे 1 और लाल चदन इन द्रव्यो को सम भाग में के साथ | ( यो र ) न्यग्रोधादि गण की ७ सिकतामेह ( Lithuria or Passing of Gravels ) — अश्मरी तथा शर्करा अधिकार की चिकित्सा करे । निम्ब का कषाय पान ( सु ) दारूहल्दी, अरणी की छाल, त्रिफला और बच का कषाय मधु के साथ (यो र ) चित्रक का क्वाथ भी उत्तम है । ८ शीतमेह - स्वभावत मूत्र शरीर के रक्त ताप के समान उष्ण होता है, पर जिन अवस्थावो में ( Nitrogenous) पदार्थों की अमोनिया आदि को उत्पत्ति अधिक होती है, मूत्र शीतल होता है । सभवत इसी अवस्था को ध्यान Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ भिपकर्म-साद्ध । मे रखकर आचार्यों ने इस अवग्था का वर्णन किया है। उपचार मे व्यवहृत होने वाली औषधियाँ-पाठा एव गोक्षुर कषाय ( सु.) अथवा पाठा, मूर्वा और गोखरू का पाय मधु से पिलावे। (यो. र ) ६ शनैर्सह-धीरे-धीरे मद वेग से मूत्र का स्राव होना। त्रिफला और गुडूची का कपाय । (सु) वच, खस, हरड, गिलोय इनका समभाग मे लेकर २ तोले द्रव्य का कपाय लाभप्रद होता है । ( यो. र.) १० लालामेह-स्निग्ध एवं पिच्छिल वस्तु का मूत्र से सवित,होना । यकृत् दोप से शुक्रकीट ही शुक्र द्रव (Spermatic Fluid Prostatic or Seminal vesical Secretion ) का स्राव । त्रिफला और अमलताश का कपाय ( सुश्रुत ) । अडूसा, हरीतकी, चित्रक की छाल और सप्तपर्ण की छाल का कपाय लालामेह को दूर करता है। (यो र.) वकायन के बीज की भीगी २ मागा का चूर्ण मधु से। सुश्रुत ने लवणमेह ( जिसमे क्लोराइड्स की मात्रा अधिक आवे इस प्रकार का मूत्र ) तथा फेनमेह ( मूत्र मे फेन या वायु की उपस्थिति होना- Pneumaturia) का वर्णन गीतमेह तथा लालामेह के स्थान पर किया है। फेनमेह मे त्रिफला, आरग्वध और द्राक्षा कपाय मधु के साथ पिलाने को बतलाया है । अगुरु तथा पाठा का क्वाथ लवणमेह मे उत्तम बताया है। पित्तप्रमेह-पित्त प्रमेह छ. प्रकार के होते है। इनमे सामान्यतया विरेचन, सतर्पण तथा सशमन के द्वारा उपचार करना होता है। एकैकशः इनकी चिकित्सा का वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है । १. क्षारमेह ( Alkalineurine )-त्रिफला कपाय (सु.)। खस, लोध्र, अर्जुन की छाल और चदन का सम भाग में लेकर जो कुटकर २ तोले द्रव्य का कपाय मधु से । २. नीलमेह ( Indicanurna)--शालसारादि कपाय, अश्वत्थ कपाय (सु.)। सस, मोथा, आंवला एव हरड का कपाय । ३ अम्लमेह ( Highly acidic urine ) का वर्णन केवल सुश्रुत मे आता है । इसमें क्षारीय द्रव्यो का उपयोग करना चाहिये। शेप हारिद्र, माजिष्ट, रक्त और काल मेह वास्तव मे रक्तपित्त या रक्तमेह के ही विविध प्रकार है--'रवतस्य पित्तस्य हि स प्रकोप. (चरक)। ३. हारिद्रमेह ( Haemoglobinurna)~आरग्वध कपाय ( सु.) मोथा, हरड, पुष्करमूल, श्वेत कुटज की छाल इनका क्वाथ । Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : चौतीसवाँ अध्याय ४ मांजिष्ठ मेह ( Haemoglobinuria or urobilmuria)-- मजिठा एवं चंदन का कपाय (सु) लोध्र, नेत्रवाला, दारुहरिद्रा और घाय के फूल का कपाय | ५ रक्तमेह या शोणितमेह ( Haematuria ) -- गुडूची, तिन्दुकाम्पि, गाम्भारी और खजूर के फल का कपाय मधु मिलाकर लेना । सोठ, अर्जुन की छाल, शिरीष की छाल, छोटी इलायची और नील कमल का कपाय । रक्त चंदन, मधुयष्टि, मुनक्का से सिद्ध क्षीर का प्रयोग । वृक्काश्मरी, अर्बुद, अभिघात क्षय, वस्तिगत अश्मरी तथा रक्तपित्त आदि विविध कारणों से यह अवस्था उत्पन्न होती है । कारणानुरूप चिकित्सा करनी चाहिये । तथापि उपर्युक्त योगो से अथवा के शुद्ध स्फटिका १ माशा की मात्रा मे गूलर के कपाय से देने से लाभ उत्तम दिखलाई पडता है । ६ कालमेह ( Melanu11a ) – यह भी रक्तमेह का एक प्रकार है । न्यग्रोधादि कपाय | पटोलपन, निम्ब की छाल, आंवला और गिलोय इनका वाय मधु मिलाकर । वातिक प्रमेह - वातिक प्रमेो मे अत्यधिक मात्रा मे धातुक्षय हो जाता है जिससे वायु कुपित होकर प्रमेह रोग को पैदा करता है । ये सभी प्रमेह असाध्य हो जाते है । अस्तु, इनकी चिकित्सा की विशेष चिन्ता की आवश्यकता नही रहती है । वातघ्न ओवियो से सिद्ध तैल या घृत का सेवन रोगी को कराना चाहिये ।१ भेदानुसार यहाँ एकैकश चिकित्सा का वर्णन किया जा रहा है । इन रोगों के असाध्य होते हुए भी यापनार्थ कुछ औपधि योगो का व्यवहार अपेक्षित रहता है । १ वसामेह ( Lipuria ) - मूत्र मे अत्यधिक मात्रा में वसा आती है । अग्निमथ ( अरणो ) का अथवा शिशपा ( शीसम ) का कपाय मधु से 1 (सु ) 6 ५६६ २ मज्जा मेह- इसे सुश्रुत ने सर्पि मेंह की सज्ञा दी है । यह वसामेह का ही एक प्रकार है । इसमें वसा के साथ रक्त का भी मिश्रण पाया जाता है । ऐसी अवस्था वृक्क विद्रधि, पुराना पूयमेह तथा मूत्र-सस्थान के राजयक्ष्मा मे मिलती है । चिकित्सा मे कूठ, कुटज, पाठा, हिङ्गु, कटुरोहिणी (कुटकी), गुडूची और चित्रक का कपाय । ( सु ) । त्रिफला, मूर्वा की जड, सहिजन की छाल, नीम की छाल, मुनक्का और सेमल के जडको छाल, इनका कषाय बना कर 1 १. या वातमेहान् प्रति पूर्वमुक्तावातोल्वणाना विहिता क्रिया या । वायुहि मेहेष्वतिकशिताना कुप्यत्यसाध्यान् प्रति नास्ति चिन्ता ॥ ( च चि ६) Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० सिपकर्म-सिद्धि मधु के साथ । मम प्रमाण में इन औषधियो को जीजुट कर २ तोले को ३२ तोले जल में उबाल कर ८ तोले गेप रहने और ठडा होने पर मधु मिला कर लेना । गीत्र लाभ पहुंचाता है। हस्तिमेह-मतवाले हारी के समान वेगरहित मजन मूत्र का स्राव होता है । मूत्र लसीका युक्त और विवद्ध रहता है। संभवत. जीणं वृक्क नोथ का यह वर्णन है, जिस में शुक्लिी ( Albumin-), निर्मोक ( Casts) और पौरुष बहुमूत्रता ( Pollurna) आदि लक्षण मिलते है । कुछ विद्वानो के मत मे यह एक प्रकार का मिथ्या मूत्रकृच्छ (False in Continence of urine )-~जो सुपुम्ना स्थित मूत्र केन्द्र के घात अथवा थिको वृद्धि में पाया जाता है। चिकित्सा मे तिन्दुक, कपित्थ, शिरीप, पलाश, पाठा, मूर्वा, धमासा का कपाय मधु मिधित कर के पिलाना अथवा-हाथी, अन्न, भूकर, खर (गर्दभ ) और बैट को हड्डी की भम्प का उपयोग करना उत्तम बतलाया है। ४ श्रौद्रमेह या मधुमेह या ओजोमेह-आधुनिक परिमापा के अनुसार इस रोग को 'डायबेटीज मेलाइटन ( Diabetes Mellitus) कहा जाता है। यह एक याप्य गेग है, इस मे मूत्र में शर्करा का उत्सर्जन होता है। रक्तगत गर्करा की भी मात्रा बट जाती है। इस रोग की चिकित्मा मे आहारबिहार का सम्यक् रीति से अनुपालन करना आवश्यक होता है। जब तक रोगी पथ्य में रहता है, ठीक रहता है अन्यथा रोग पुन हो जाता है। प्रमह रोगो में बतलाये गये सभी पच्चों का इस अवस्था में उपयोग करना चाहिये । । __ यह रोग प्राय समाज के उस वर्ग में पाया जाता है जो शारीरिक श्रम से त्रिमुग्ध होकर सम्पन्नता का जीवन व्यतीत करते है। दैनिक कार्यक्रम मे जिनको गारीरिक श्रम बहुत ही कम करना पड़ता है, अधिकाग बैठे रहना पडता है। साहार भी अत्यधिक पीष्टिक, स्निग्ध, कफ-मेदोवर्धक पदार्थों की बहुलता रहता है । अन्तु, चिकित्सा करते समय सर्वप्रथम इन कारणों को दूर करना आवश्यक होता है। एतदर्थ मधुमेह में पीडित व्यक्तियों के लिए व्यायाम या शारीरिक पन्धिम जो उनके शक्य हो अवश्य कराना चाहिये। सभी प्रकार के व्यायाम-टहलना, दोडना, खेल-कूद में भाग लेना, दण्ड-बैठक करना, दण्ड, मुद्गर-कुश्ती पादावात आदि यथायोग्य कराना चाहिये। आरामतलबी का जीवन छोडकर मनियों को तरह ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कराना आवश्यक होता है। प्रतिदिन विना जूते और छाते के धारण किये मार्ग में भ्रमण करते हुए, गृहस्थो के घर में Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : चौतीसवाँ अध्याय ५७१ मांगी हुई भिक्षा से उदर पालन करते हुए तथा मुनियो की तरह ब्रह्मचर्यादि का पालन करते हुए सौ योजन ( ८०० मील ) या इससे भी अधिक योजनो तक निरन्तर भ्रमण करने से मधुमेह रोग नष्ट होता है । अथवा केवल जगल मे रहकर नीवार और आँवले के फलो मे भोजन-वृत्ति का निर्वाह करते रहने से सर्व प्रकार के प्रमेह नष्ट होते हैं । सक्षेप मे आढ्य - वृत्ति का परित्याग और दरिद्र-वृत्ति का अनुपालन श्रेयस्कर रहता है । " नवारियो ने गद्देदार और आरामदेह सवारियो के स्थान पर हाथी और घोडे की मवारी मधुमेह मे अच्छी मानी गई है । उपर्युक्त पथ्य सभी प्रकार के प्रमेह रोग में विपत मधुमेह में हितकर होते है। सूर्य प्रकाश या धूप मे भ्रमण करना या काम करना भी उत्तम रहता है ।" मधुमेह पीडित रोगो को अपने भोजन मे मधुर-अम्ल एवं लवण रस पदार्थो का सेवन अथवा स्निग्ध (घी मलाई - रबडी और खोये का वना पदार्थ या मिष्टान्न ) जो ल्फ एव मेद के वर्धक होते है पूर्णतया छोड देना चाहिए । रूक्ष, कटु, तिक्त एव कपाय रस युक्त पदार्थों का सेवन रखना चाहिये । इस प्रकार के पथ्यो मे उत्तम आहार जी को रोटी या दलिया, मूंग की दाल और मट्टे का पर्याप्त सेवन उत्तम रहता है । शाको मे परवल एव करैले का सेवन उत्तम रहता है। गूलर एव केले के शाक का सेवन या अन्य प्रकार के पत्राको का जैसे मूली, चोजई, सोआ एव पालक का उपयोग ठीक रहता है । वदशाको मे आलू, शलजम आदि अनुकूल नही पडते है । फलो का सेवन उत्तम रहता है | दूध एवं फलाहार अनुकूल पडता है । औपधि-कपाय-रवरस - करैले के ताजे फल का स्वरस १ तोला प्रातः काल में खाली पेट पर लेना । निम्म्रपत्र- स्वरस ६ माशा मधु के साथ । विल्वपत्र स्वरस व बैल की पत्तो का रस या वेल की छाल का काढा बना कर लेना । विस्वी पचाङ्ग का स्वरस मधु के साथ १ तोला । आमलकी स्वरस | कच्ची हल्दी का स्वरस या अभाव मे हरिद्रा का चूर्ण २ माशा । जामुन का फल, जामुन के मूल की छाल का कपाय या जामुन की गुठली का चूर्ण १-३ माशे मधु के साथ सेवन । विजयसार - इसकी लकडी को ताम्रघट मे रखे जल मे १ व्यायामजातमखिल भजन्मेहान् व्यपोहति । पादातपच्छन रहितो भिक्षाशी मुनिवद्यत || योजनाना शत गच्छेदधिक वा निरन्तरम् । मेह जेतु वने वापि नोवारामलकाशन ॥ २ हस्त्यश्ववाहनमतिभ्रमण रवित्विट् ॥ ( भै र ) Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकम - सिद्धि વ્યૂહર્ छोड़ देना चाहिये-उसने पानी का इन जल को पीने के उपयोग में लाना चाहिये । त्रिफला चूर्ण २ मे ४ मागा मधु के साथ प्रातः यात्रम् । आम या जामुन चूर्ण या काय का मवु में मेवन | यूनिकरंज के वीप की सींगो का उपयोग भी उत्तम है। गुड़मार के पत्र के चूर्ण या कपाय का उपयोग | (बिपी) के किंचित् लाल रंग का हो जाता है । शालसारादि गण (सुन) औषधियों का यथालाभ बजाय बनाकर मधु मिलाकर दिन में दोवार सेवन करना उत्तम रहता है । बहुमूत्रता को कम करने के त्रिफलादि कपाय- त्रिफला, बाँसकी पत्ती, नागरमोथा और पाठा का सममात्रा में बनाया काय मधु के साथ देना चाहिये ।' शालनारादि गण या वृक्ष, साल के भेद ( अजकर्ण ), खदिर, निन्दुक वृक्ष, सुपारी, भूर्जपत्र, नेपशृंगी, विनिंग, त्रेत चंदन, रक्त चन ग्रीनम, विशेष, अर्जुन, वव, अमन ( विजयसार ), ताड़ का मूल, शाक वृक्ष, करंज एवं पूनिकरंज, वर्ण, अगर तथा पीत चंदन | सोपनियों में मिलाजीत, विग (बंग - नाग-नम्म), लोह तथा गुग्गुलु के योग उत्तम रहते है जैसे - विवा गुटिका ? माया दूध में घोल कर प्रात सार्य अथवा चंद्रप्रभावदी १-२ गोली दूब से प्रात:सायम् । स्वर्ण और मुक्ता के यौगिकों में शुमार का सेवन कराना १-२ रत्ती कांवले और हल्दी के म और मधु के साथ उत्तम कार्य करता है । त्रिवंग भस्म या नवायस लोह का गुट्टी मत्त्व एवं मधु ने सेवन भी उत्तम रहता है | कई औपत्रि योगों का नीचे संग्रह किया जा रहा है, इनका उपयोग प्रमेह तथा मधुमेह की विभिन्न अवस्थावों में करने से लाभ प्राप्त होता है । न्यग्रोधादि चूर्ण-लर-पीपल और सोनापाठा की छाल, अमत्ताय का गूदा, अमन (विजयमार) की छाल नामकी गुठळी, जामुन की गुठली, कैथफल की मज्जा, चिरोजी, अर्जुन की छाल, घव की छाल, महुए की छाल, मत्रयष्टी, पठानी लोध, अरहर के पद की जड़, करंज फल की गिरी और कु ४०४ तले चूर्ण करले | मात्रा ३ माया | चन्द्र और शुद्ध प्रायार्यविषय के वाय से | १. त्रिपाठामधुयुतं कृन. । कुम्मयोनिरिवाम्मो वयं तु शोषयेत् (यो. र. ) · Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : चोतीसवाँ अध्याय ५७३ कुशावलेह-कुशा-कास-खस-इक्षु-एव रामशर की जड प्रत्येक का १०१० पल लेकर २ द्रोण जल मे क्वथित कर अष्टमाश शेप रहने पर छान ले । फिर इसको कडाही मे लेकर अग्नि पर चढाकर १ प्रस्थ खांड डालकर दो तार की नाशनी बनावे, जब वह किंचित् गाढा होने लगे तो उसमे निम्नलिखित द्रव्यो फा चूर्ण डाले-मयष्टि, सीरा-कुष्माण्ड एवं ककडी के वोज-गिरो, वशलोचन, आंवला, तेजपात, दालचीनी, इलायचो नागकेशर, वरुण की छाल, गिलोय का सत्त्व, प्रियग प्रत्येक एक तोला । फिर अच्छी तरह से आलोडित करके मिलावे । और पाक बना ले । मात्रा १ तोला । दूध के साथ प्रातः-सायम् ले । सभी प्रकार के प्रमेह, मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघात मे लाभप्रद । गोक्षुरादि गुग्गुलु ( वातरक्ताधिकार)-मधुमहेज वातिक वेदना एव सधिगोथ एवं पूयमेहज संधिवात मे लाभप्रद ।। चंद्रकला वटी-छोटी इलायची के बीज, कपूर, शिलाजीत, आँवला, जायफल, केशर, सेमल के मूल, रस सिन्दूर, वग भस्म और अभ्रक भस्म समभाग में ले । प्रथम रम सिन्दूर को खरल मे महीन पीसे । पीछे उसमे शिलाजीत, भस्मो तथा अन्य द्रन्यो के कपडछान चूर्ण को मिलावे । फिर हरी गिलोय और सेमल के मूल के रस से तीन-तीन दिनो तक मर्दन करके ३-३ रत्ती की गोलियां बना ले। छाया में सुना कर शीशी में भर ले । मात्रा २ गोली सुबह-शाम मधु से चाट कर ऊपर से गाय का दूध ले। सर्व प्रमेहो मे लाभप्रद । विशेपत शक्रमेह एवं स्वप्नदोप में हितकर है। चंद्रप्रभा वटी-कपूर, वच, मोथा, चिरायता, देवदारु, हल्दी, कडवी अतीस, दारुहल्दी, पीपरामूल, चित्रक की छाल, निशोथ, दन्ती की जड, तेजपात, दालचीनी, इलायची, वंशलोचन, गिलोय, प्रत्येक १-१ तोला, धनिया. हर वहेरा, आंवला, चव्य, वायविडङ्ग, गजपीपल, स्वर्णमाक्षिक भस्म, सोठ, मरिच, पीपल ( छोटी), सजिक्षार, यवक्षार, सैवव, सोचल तथा विडलवण प्रत्येक का वर्ग-४ माशे, लौह भस्म २ तोला, चीनी ४ तोला, शुद्ध शिलाजीत तथा शुद्ध गुग्गुलु ८-८ तोले। प्रथम गुग्गुलु को साफ करके लोहे के इमामदस्ते मे कूटे जब गुग्गुलु नर्म हो जाय तो उसमे अन्य भस्म तथा द्रव्यो के कपडछन चूर्ण मिलावे । जब गोली बनने लायक हो जावे तो उसमे त्रिफला क्वाथ की भावना देकर ५-५ रत्ती की गोलियां बनाकर शीशी मे भर ले । मात्रा १-२ गोली। अनुपान गाय के दूध से । Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ भिषक्कम-सिद्धि ___ उपयोग-सभी प्रकार के मूत्र-संस्थान के विकारो मे तथा यकृद् दोप मे लाभप्रद । चंद्रप्रभा गुटिका (नर्णोविकारोक्त ) भी प्रमेह रोग में लाभप्रद होती है। वसन्ततिलक रस-लौह भस्म, वंग भस्म, सुवर्णमाक्षिक भस्म, सुवर्ण भस्म, अभ्रभस्म, प्रवाल भस्म, रजत (चादी) भस्म, मुक्ता भस्म, जावित्री, जायफल, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेशर प्रत्येक एक एक तोला । एका महीन पीसकर त्रिफला के स्वरस की भावना देकर २-२ रत्ती को गोली बनावे । यह एक उत्तम वल्य रसायन योग है। अनुपान भेद से नाना प्रकार के चातविकार, अपस्मार, मूर्छा, उन्माद, सन्यास (Coma), क्षय, विविध प्रकार के मेह रोग विशेपतः मधुमेह मे लाभप्रद है। वसन्तकुसुमारुर रस-सुवर्ण भस्म, रजत भस्म २-२ माशे, मीसक (नाग) तथा कान्त लोह भस्म ३-३ माशे, अभ्रक भस्म, प्रवाल भस्म. मुक्ता भस्म प्रत्येक ४-४ माशे। प्रथम इन द्रव्यो को खरल मे लेकर महीन कर उसमे निम्नलिखित द्रव्यो की एक एक भावना दे । गाय के दूध, गन्ने के रस, असे का क्वाथ, लाता स्वरस, सुगन्ध वाला का क्वाथ, कदलीकद का स्वरम, कमल पुष्पो का रवरम, मालती पुष्प का स्वरस । पश्चात् १ तोले कस्तूरी को गलाव जल मे पोसकर उसमे मिला दे । फिर दो-दो रत्ती की गोलिया बनाकर छाया मे सुपाकर रसले । मात्रा १ गोली दिन में दो वार वृत ६ माशा, मधु १० मागा, चीनी ६ माशे के साथ सेवन । यह उत्तम रसायन एव वल्य योग मेधा शक्ति और कामशक्ति बढाती है गरीर पुष्ट होता है प्रमेह नष्ट होते है । मधुमेह रोग मे परम वल्य रसायन है । वसन्त कुसुमाकर मधुमेह ( Diabetes) को विख्यात औपधि है। मधुमेह के विविध उपद्रवो मे लाभप्रद होता है । वसन्ततिलक अथवा वसन्त कुसुमाकर में से किसी एक का प्रयोग हरिद्रा स्वरस ३ माशा आमलकी स्वरस २ माशा और मधु ६ मागे के साथ मधुमेह ( Diabetes ) मे उत्तम रहता है। बृहद् बंगेश्वर रस-शुद्ध पारद, शुद्ध गधक, लोह भस्म, अभ्रक भस्म, सुवर्ण भस्म, वग भस्म, मुक्ता भस्म तथा सुवर्ण माक्षिक भस्म प्रत्येक एक तोला । प्रथम पारद और गंवक की कज्जली बनावे फिर शेप भस्मो को मिलावे और चोट लेवे। पश्चात् घृतकुमारी स्वरस से भावना देकर २-२ रत्तो की गोली वनावे । पुराने मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघात (Gleet ) तथा विविध प्रकार के मेहो मे लाभप्रदा Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : चोतीसवाँ अध्याय ५७५ सुवर्ण वंग- शुद्ध वग २० तोले लेकर उसे लोहे या मिट्टी के पात्र मे डालकर, पात्र को चूल्हे पर चढाकर मद-मद आंच पर वग को पिघलावे | फिर इस पिघले वग को एक पत्थर के खरल मे जिसमे २० तोले शुद्ध पारद हो तुरन्त उसमे छोडे और अच्छी प्रकार से घोटे । फिर दोनो की पिष्टि हो जाने पर उसमे ५ तोला सैधव लवण डालकर घाटे । आधे घंटे तक घोटने के पश्चात् उसको जल से प्रक्षालित करे । इस प्रकार २१ वोर लवण के साथ मर्दन कर उसको २१ चार प्रक्षालित करे । फिर उसमे पारद के वरावर शुद्ध गधक ( २० तोला ) मिलाकर वज्जली बनावे, पश्चात् २० तोला नवसादर मिलाकर मर्दन करे फिर पारद से चौथाई कल्मी शोरा ( ५ तोला ) डालकर खूब घोटकर रखे । अब इस द्रव्य को मात वार कपडमिट्टी की हुई आतशी शोशो मे उसके चतुर्थाश तक भर कर आतशी शीशी को वालुका यत्र मे चढाकर १२ घंटे तक पाक करे । अग्नि की आंच देना प्रारंभ करे । थोडी देर मे कज्जली उबल कर ऊपर आने लगे तो आंच को मद कर दे। बीच बीच मे लोहे की शलाका को शीशी के मुख के भीतर प्रविष्ट करके गधक के जलने का ज्ञान होता चलता है । जब शीशी पर श्वेत धूम न दिखलाई पडे और जब शलाका प्रविष्ट करने पर उसके अग्र पर लाल चमक्ते पीले रंग के कण लगने लगे तो आँच देना कम कर देना चाहिये । यह गचक के जीर्ण हो जाने का चिह्न है । इस प्रकार खुले मुख से ही सुवर्ण वग का पाक होता है । इस प्रकार पाक करने से सुवर्ण के समान चमकता हुआ अत्यन्त सुन्दर 'सुवर्ण वर्ग' नामक रसायन सिद्ध होता है । यह सुवर्ण वग बलवर्धक, प्रमेहनाशक, जीर्ण पूयमेहादि में लाभप्रद, शरीर की कान्ति, मेवा, वीर्य एव अग्नि का बढाने वाला होता है । अपूर्व मालिनी वसन्त- वैक्रान्त भस्म, अम्र भस्म, ताम्र भस्म, सुवर्णमाक्षिक भस्म, चादी भस्म, वग भस्म, प्रवाल भस्म, रस सिन्दूर, लौह भस्म, शुद्ध टकण, क्षुद्र शत्र भस्म ( शम्बूक या घोघा की भस्म, प्रत्येक १ - १ तोला लेकर सब को महीन पीस कर खस, हरिद्रा तथा शतावर के क्वाथ की पृथक्-पृथक् सात-सात भावना दे । फिर उसमें कस्तूरी तथा कपूर प्रत्येक १ - १ तोला मिलाकर २-२ रत्ती को गोलियां बना ले | पिप्पली चूर्ण और मधु के अनुपान से एक-एक गोली प्रात - सायम् देने से सभी प्रकार के जीर्ण ज्वरो मे लाभ होता है । गुडूचीसत्त्व और मिश्री के अनुपान से सभी प्रमेहो मे प्रशस्त है | नीबू के जड के क्वाथ के साथ मूत्रकृच्छ्र तथा अश्मरी मे प्रयोग करना चाहिये । । Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ भिषकर्म-सिद्धि शिवागुटिका-उत्तम शुद्ध शिलाजीत १ सेर ले। इसे त्रिफला के क्वाथ मे आप्लुत करके रात भर रहने दे। दूसरे दिन खरल को धूप में रखकर घोटे इस प्रकार तीन भावना दे। इसी प्रकार दगमूल, गिलोय, वला, पटोलपत्र और मधुयष्टि के स्वरस या कपाय मे यथालाभ भावना दे । प्रत्येक से तीन तीन वार भावना पश्चात् गोदुग्व की भावना देकर सुखाकर रख ले । पश्चात् काकोली, क्षीरकाकोली, मेदा, महामेवा, विदारी, क्षीरविदारी, शतावर, द्राक्षा, ऋद्धि, वृद्धि, जीवक,ऋपभक, जटामासी, गोरखमुण्डी, श्वेत जोरक, कृष्ण जीरक, शालपर्णी, पृग्निपर्णी, रास्ना, पुष्करमूल, चित्रकमूल दन्तीमूल, गजपीपल, इन्द्र जौ, चव्य, नागरमोथा, कुटको, शृङ्गो और पाठा इनमे प्रत्येक औपधि को ४-४ तोले लेकर । पोडग गुण जल मे चतुर्थांगावशिष्ट क्वाथ बनाये। इस क्वाथ से पूर्वोक्त शिलाजीत की सात भावना देकर सुखा ले। इस प्रकार से वने शिलाजीत में अब निम्नलिखित द्रव्यो का महीन चूर्ण मिलावे--सोठ, पिप्पली, कुटको, काकडासीगी और काली मरिच का चूर्ण ८-८ तोले, विदारी कद का चूर्ण ४ तोला, तालीशपत्र का चूर्ण १६ तोला, मिश्री ६४ तोले, गोघृत १६ तोले, गहद ३२ तोले, तिल तैल ८ तोले एवं वंशलोचन, तेजणत, दालचीनी, नागकेगर और छोटी इलायची प्रत्येक २ तोले । मव द्रव्यों को अच्छी प्रकार से मिलाकर १-२ माशे की गोलियां बना ले। मात्रा १-२ मागा दिन में दो बार । अनुपान दूध, मासरस, अनार का रस, सुरा, मानव, गद या केवल गीतल जल मे घोलकर सेवन । यह एक परमोत्तम रसायन योग है। इसके सेवन से सम्पूर्ण रोगो का नाश हो, नव-यौवन की प्राठि होती हैं । मधुमेह रोग मे यह अमृत तुल्य मोपधि है। लोध्रासव-लोध, कचूर, पुष्कर मूल, छोटी इलायची, मर्वा, वायविडङ्ग, त्रिफला, अजवायन, चव्य, प्रियगु का फूल, सुपारी, विशाला (१), चिरायता, कुटकी, भारङ्गी, नत, चीता, पिप्पलीमूल, कूठ, अतीस, पाठा, इन्द्रयव, नागकेगर, नख, तेजपात, काली मिर्च, प्लव-प्रत्येक एक-एक कप लेकर १२ सेर १२ छटांक ४ तोले जल मे उबाल कर चतुर्यागावशिष्ट क्वाथ बनावे। इस क्वाथ मे आधा मधु मिलाकर एक घृतलिप्त भाण्ड में मुख वद कर एक पक्ष तक संधान करे । पश्चात् छानकर बोतलो में भर कर रख ले और गोपवि स्प मे उपयोग में लावे। सेवनविधि २ तोला समान जल मिला कर भोजन के बाद । शारिवाचालव-कृष्ण सारिवा, नागरमोथा, लोध, वट की छाल, पीपर की छाल, कचूर, अनन्तमूल, पद्माख, नेत्रवाला, पाठा, बावला, गिलोय, खस, श्वेत चंदन, रक्त पदन, बजवायन, कुटकी, तेजपात, छोटी इलायची, बडी इला पात, छोटो भावला, गिलोय, पीपर Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ढ : चौतीसवाँ अध्याय -५७७ यची, कूठ, सनाय, हरड प्रत्येक २० - २० तोले लेकर ३२ सेर जल मे डाल कर तीन तुला ( १५ सेर ) पुराना गुड, धाय के फूलो का चूर्ण २॥ सेर, मुनक्का पौने चार सेर मिलाकर घृत सुगंधित भाण्ड मे भर कर सधिबंधन करके १ मास के लिये एकान्त स्थान में सुरक्षित रख दे । एक मास के अनन्तर छानकर मर्त्तबान मे भर कर रख ले | इसके सेवन से वातरक्त, रक्तदुष्टि प्रमेह - पिडिका एव विविध प्रमेह रोगो मे लाभ होता है । सेवनविधि-भोजन के वाद २ चम्मच समान जल के साथ मिलाकर । 0 प्रमेहमिहिर तैल - सौफ, नागरमोथा, हरिद्रा, दारुहरिद्रा, मूर्वामूल, कूठ, अश्वगंधा, श्वेत चदन, लाल चन्दन, हरेणुका, कुटकी, मुलैठो, रास्ना, दालचीनी, इलायची, ब्रह्मदण्डी ( भारगी ), चव्य, धनिया, इन्द्रयव, करंजवीज, तगर, तेजपात, त्रिफला, नालुका, गधवाला, वला एव अतिवला की जड, मजीठ, सरल काठ, पदुमकाठ, लोध, छोटी सौफ, वचा, जीरा, खस, जायफल, अडूसा, तगर प्रत्येक १ - १ तोला लेकर पानी से पीस कर क्ल्क बना ले । पश्चात् तिलतैल तथा शतावरी का कषाय प्रत्येक १२८ तोले ( या १-१ सेर ), लाक्षा क्वाथ तथा दही का पानी ४-४ सेर और दूध १ सेर । यथाविधि कडाही में अग्नि पर चढाकर पाक करे । विविध प्रकार के जीर्ण ज्वर, हस्त पादादि - दाह, क्षीणेन्द्रियता, ध्वजभग आदि उपद्रवो मे अभ्यग से लाभ होता है । वानिक शुक्रक्षय या स्वप्नदोप - युवावस्था मे अविवाहित व्यक्तियो मेनिद्रा मे शुक्र-क्षय होना बहुलता से पाया जाता है । सोलह वर्ष को आयु के अनन्तर पुरुषो मे प्रजननसम्बन्धी अवयवो का जैसे अण्ड, शुक्रग्रंथि, पौरुपथि आदि की क्रिया प्रारंभ हो जाती है-फलत पुरुषत्व का आगमन, कामवासनावो की वृद्धि, प्रजनन अंगो के विकास के माथ शुक्रक्षय की प्रवृत्ति भी जागृत होती है । इसके परिणामस्वरूप निद्राकाल मे शुक्रक्षय का होना भी स्वाभाविक रहता है । इस अवस्था को स्वप्नदोष या स्वाप्निक शुक्रक्षय कहते है । पालन प्राय कठिन होता है । इस आयु मे शुक्र -सरक्षण या ब्रह्मचर्य का प्राचीन युग मे ऋपियो ने ब्रह्मचर्य के पालन के लिये बहुविध साधन बतलाये है, जैसे- गुरुकुल में वास, तपोवन, सध्योपासन, परिश्रम का जीवन, सीमित रूक्ष सात्त्विक आहार, स्वल्प निद्रा, श्रृगार-साधनो का जैसे तैलाभ्यग, केशप्रसाधन, सुखासन-सुखशय्या आदि का परिहार, स्त्री के सभापण - दर्शन आदि से दूर रहना, इन नियमों के अनुसार रहते हुए ब्रह्मचर्य भी सभव है । परन्तु, आज के युग मे इसके ठीक विपरीत वातावरण से होकर युवक को गुजरना पडता है । फलत. वीर्य की रक्षा करना अथवा ब्रह्मचर्य का पालन वडा दुर्घट हो जाता है । > ३१ भि० सि० Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि प्राचीन ग्रंथो में स्वप्नदोप वा स्वाप्निक शुक्रक्षय नामक किसी रोग विशेप का उल्लेख नहीं पाया जाता है । इसके दो कारण हो सकते है-१ इसको कोई रोग या वैकारिक स्थिति ( Pathological condition ) न समझा गया होवत्कि एक स्वाभाविक क्रिया ( Physiological functions of Puberty in males ) माना गया, जिसमें किमी उपचार की आवश्यकता न ममजी गई हो । २ सभवन प्राचीन युग मे यह विकार होता ही कम होवे, फल स्वस्प आचार्यों को इसका स्वतत्र गेग के रूप में उल्लेख करने की या चिकित्सा वतलाने की आवश्यकता ही न प्रतीत हुई हो । दोनो पक्ष ही युक्तियुक्त है तथापि प्रथम पक्ष अधिक विनानमम्मत प्रतीत होता है। वास्तव में स्वप्न में वीर्य का क्षय होना कोई रोग नहीं है--प्रत्युत एक प्राकृतिक ब्रिया है-जो दो कारणो से उत्पन्न होती है-१. प्रजनन अगो के स्वाभाविक विकास २ तथा कामवासनावो की उत्तेजना तथा उसको मतृप्ति ( Dissatisfaction of the Sexual Hunger ) #1 TFF JAT वहुधा देखा जाता है कि स्वाप्निक शुक्रक्षय से ग्रस्त व्यक्तियो का वैवाहिक सम्बन्ध या गार्हस्थ्य स्थापित हो जाने पर निद्रा से वीय-क्षय होने का विकार स्वत. गान्त हो जाता है । इस कथन का तात्पर्य यह है कि एक सीमित मात्रा तक मान में १ से ४ दिनो तक स्वप्न में शुक्र-नय का होना कोई चिन्त्य विषय नही है, परन्तु, इससे अधिक होना कुछ मानसिक उत्तेजनावो का द्योतक होता है । इसके लिये कुछ सगामक योगो का देना आवश्यक हो जाता है । प्रतिपेध-१ स्वप्न-दोप-गब्द के शाब्दिक अर्थ का विचार करने में स्पष्ट हो जाता है स्वप्न का दोष । स्वप्न कहते है निद्रा को, अस्तु, निद्रा का दोप ही प्रधान हेतु शुक्रक्षय मे कारण बनता है। स्वाभाविक निद्रा में दो प्रकार की अवस्थायें पाई जाती है-१ पहलो अवस्था-स्वप्न--जिसमे निद्रा एवं जागरण का मिश्रण पाया जाता है दूसरे शब्दो में अप्रगाढ निद्रा इसे कहते है । २ दूसरी अवस्था सुपुटिन जिममें प्रगाढ (गाढी ) निद्रा रहती हैं। प्रथमावस्था में कई प्रकार के दिन में देखे गये विचार निद्रा में आते रहते है और उसके फलस्वम्प शुक्रक्षय भी हो जाया करता है। अस्तु, प्रगाढ निद्रा का प्रयत्न करना चाहिये । इसके लिये मस्तिष्क का मगमन एव मृदु निद्राकर औपधियो का उपयोग करने से पर्याप्त लाभ पहुँचता है। शुक्रक्षय की चिकित्मा में व्यवहृत होने वाले सभी योग शीतवीर्य एवं मस्तिष्क-तन्तुत्री के सगमन करने वाले हो तो उनका प्रयोग करते हुए व्यक्ति को लाभ पहुँचता है । साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि व्यक्ति को सीमित समय तक चारपाई पर पडे Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : चौंतीसवाँ अध्याय ५७९ रहने दे। दिन में मोना या एक साथ मे ६ घटे से अधिक सोना भी अनुकूल नही पड़ता है। आलस्य को त्याग कर सोना, ब्राह्म मुहूर्त मे उठना, जब मूत्र का वेग प्रतीत हो मूत्रत्याग, शौच का वेग आने पर शौचत्याग करने का अभ्यास करना चाहिये । औपवि रूप मे निम्नलिखित औषधियोगो का व्यवहार करते हए पर्याप्त लाभ होता है। गुडूची, वशलोचन, हरिद्रा, दारुहरिद्रा, आंवला, मजीठ, अगर, कूठ, नागरमोथा, देवदारु, श्वेत चदन, त्रिफला, कशेरु, अर्जुन की छाल, सेमल की मुसली, वलामूल, शीतलचीनी, कर्पूर प्रभृति औषधियो का उपयोग उत्तम रहता है। यदि रोगी मे विवध का वृत्त मिले तो वस्ति या मृदु रेचन से कोष्ठशुद्धि कर लेनी चाहिये। १ हरिद्रादि योग-हरिद्रा चूर्ण २ माशा, आमलको चूर्ण,२ माशा और मधु ६ माशा का जल के साथ सेवन । २. समुद्रशोपादि चूर्ण-समुद्र शोष १ भाग, साफ राल २ भाग और मिश्री ८ भाग इस अनुपात मे बना चूर्ण । मात्रा ६ माशे ठडे जल से । पुरुषो के शुक्रक्षय तथा स्त्रियो के श्वेत प्रदर दोनो रोगो मे लाभप्रद होता है । ३ शीतलचीनी का चूर्ण २ मा० मधु ६ माशे के साथ मिलाकर सेवन । ४ सुवर्णमाक्षिक भस्म १ रत्ती, शहद ६ माशे के साथ अथवा प्रबालपिष्टि २ रत्ती और गुडूची सत्त्व १ माशा मिलाकर मधु के साथ दिन में दो बार । रस सिन्दूर १ रत्ती, शुद्ध शिलाजीत ४ रत्ती इस योग मे मिला दिया जावे तो उत्तम लाभ होता है । चद्रकला वटी-१-२ गोली सुबह-शाम मधु के साथ सेवन उत्तम हैं। ५. चद्रकला वटी २ रत्ती, प्रवालपिष्टि १ रत्ती, सुवर्ण माक्षिक भस्म १ रत्ती, गुडूची सत्त्व १ माशा मिला कर एक मात्रा-ऐसी दो मात्रा सुबह-शाम लेने से उत्तम होता है। साथ मे चदनासव-भोजन के बाद २ चम्मच समान जल मिलाकर देना भी उत्तम रहता है। ६ यदि रोग वडा हो हठी हो तो कुछ दिनो तक निद्राकर योगो का प्रयोग करना भी उत्तम रहता है-जैसे जटामास्यादि कषाय अथवा शुद्ध कपूर १ रत्ती और शुद्ध अहिफेन १ रत्ती मिश्रित १ मात्रा। ७ चंदनासव-श्वेत चदन, नागरमोथा, नेत्रवाला, गम्भारी की छाल, नील कमल, प्रियगु, पद्माख, पठानी लोध, मजीठ, लाल चंदन, पाठा, चिरायता, वट की छाल, पिप्पली, कचूर, पित्तपापडा, मुलैठो, रासना, पटोलपत्र, कचनार की छाल, आम की छाल, और मोचरस प्रत्येक चार-चार तोला। धाय का फूल Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि १ सेर, मुनक्का १। सेर, जल ३२ सेर, गर्करा ! मेर, गुड 3 सेर २ छटाँक । चूर्ण करने लायक औपधियो का महीन चूर्ण करके वृतलिप्न भाण्ड में संधान करना चाहिये । १ गस तक भाण्ड का मुख बंद करके रखना चाहिये । एक मान के अनन्तर छान कर गीगी में भर कर रख ले। मात्रा २ तोला भोजन के बाद। ८ चल्य चूर्ण-वब्बूल की फली, ममुद्रगोप, अष्टवर्ग की नीपधियां या उनके शास्त्रोक्त प्रतिनिवि द्रव्य, मालिव मिश्री, सेमर का मुसला, तृणकान्त (कहरवासमई), छोटी इलायची के वीज, कतोरा, सफेद मुसली प्रत्येक १ भाग, इसबगोल को भूसी ४ भाग । मव का चूर्ण बनाकर कुल के बराबर मिश्री मिला कर रख ले। मात्रा २ माशा । अनुपान जल या दूध से । (श्री पं० राजेश्वर दत्त शास्त्री हि वि. वि कागी) पैतीसवाँ अध्याय मेदोरोग प्रतिषेध प्रावेशिक-मेदो रोग या स्थौल्य-वह रोग जिसमे शरीर मे अत्यधिक वमा ( मेद या चरबी ) का संत्र्य हो जावे । व्यायाम का अभाव, अधिक सोना, निश्चितता का जीवन, दिवास्वप्न, ग्लेष्मा-वर्वक आहार का मेवन, मधुरतायुक्त बन्न-रम स्निग्ध होने से मेद को उत्पन्न करता है। मेद के द्वारा स्रोतो का अवरोध होने में अन्य धातुवो का पोपण नहीं होता केवल भेद की ही वृद्धि निरन्तर होती रहती है। इससे रोगी कोई काम नहीं कर पाता । उसको घोडे श्रम से ही सांस फूलने लगती है। मेदस्त्री को भूख, प्यास एवं निद्रा अधिक होती है। आशिथिल हो जाता है, पसीना अधिक आता है, पसीने में वदवू पाई जाती है। रोगी की जीवनी शक्ति, मैथनगक्ति एवं प्रजननशक्ति भी कम हो जाती है। उदर मे मेद का संचय होने से उस का याकार विगेप बढ़ जाता है। न्यौल्य से ग्रस्त व्यक्ति या मेदस्वी व्यक्ति की स्फूति या गति-चीलता कम हो जाती है, शरीर का गठन बिगड़ जाता है, विचचिका ग कच्छु रोग (Eczyma) अथवा मधुमेह होने की प्रवृत्ति पाई जाती है । Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : पैतीसवॉ अध्याय उपद्रव रूप में हृदय का वसामय अपजनन ( Fatty degenation of the heart )-रोगी का हृदयातिपात होकर अल्प आयु मे मृत्यु भी हो सकती है। मेदो रोग मे कुछ कुलज प्रवृत्ति भी पाई जाती है, कुछ अशो के लोगो मे स्थूलता प्रायः दिखलाई पड़ती है। पुरुषो की अपेक्षा स्त्रियो मे यह रोग अधिक मिलता है। यद्यपि यह रोग किसी भी आयु मे पैदा हो सकता है तथापि चालीस वर्ष की आयु के बाद अधिक पाया जाता है। आधुनिक वैज्ञानिको ने स्थौल्य की उत्पत्ति मे उपर्युक्त कारणो (व्यायामाभाव, दिवास्वाप एव अत्यधिक पौष्टिक आहार ) के अतिरिक्त कुछ अन्य कारणो का भी भाग लेने की चर्चा की है । जैसे, अवटुका ( Thyroid ), पीयूष ( Pitutary ) एव अधिवृक्क ( Suprarenal ) नथा वृपण ( Testes ) ग्रथि के अत त्रावो को कमी। इससे मौलिक समवर्त ( Basic Metabolism ) की क्रिया बिगड जाती है, जिससे सेवन किये गये सम्पूर्ण वसा का भंजन नही हो पाता और वह वसा शरीर के विभिन्न धातुवो मे सचित होने लगती है, व्यक्ति मेदस्वी हो जाता है । ___ मेद की अस्वाभाविक वृद्धि के कारण जिस व्यक्ति के नितम्ब, उदर एवं स्तन हिलने लगते हैं तथा जिस के शरीर का विकास एवं उत्साह यथायोग्य नही है उसे यतिस्थूल न्हते है ।' मेदोरोग में क्रिया सूत्र-- निदान-परिवजेन-जिन कारणो से स्थौल्य होता है उन कारणो का परित्याग करना परमावश्यक है। अस्तु, आहार-विहार सम्बन्धी उपचारो पर ही विशेष ध्यान देना चाहिये । स्थौल्य का प्रधान कारण अल्प परिश्रम एव अधिक पौष्टिक भोजन ( Highcaloricdict) होता है । अस्तु, स्थूल व्यक्ति के लिये-परिश्रम का कार्य, शारीरिक व्यायाम ( खेल, कूद, दौड, घोडे की मवारी आदि ), चिन्ता का कार्य, स्त्रीसग, अल्प निद्रा का अभ्यास, अर्थोपार्जन, शास्त्रचिन्तन आदि मानसिक परिश्रम अधिक करने का उपदेश देना चाहिये । सक्षेप मे अधिक सतपंण से यह रोग पैदा होता है । अस्तु रोगी का अपतर्पण करना चाहिये। १ मेदोमासातिवृद्धत्वाचलस्फिगुदरस्तन । अयथोपचयोत्माहो नरोऽतिस्थूल उच्यते ॥ (च सू २१) स्थूले स्युर्दुस्तरा रोगा विसर्पा सभगन्दरा । ज्वरातिसारमेहार्श श्लीपदापचिकामला ॥ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि अपतर्पण के लिये--अधिक जागरण, लघन ( उपवास), चिन्ता, श्रम, सायकिल, हाथी या छोडे की सवारी, धूप में चलना या काम करना, भ्रमण करना, उबटन लगाना, शरीर की मालिग करना, वमन एवं विरेचनादि शोधन कर्म करना उत्तम रहता है। भोजन में इन रोगियो को पुराना अन्न विशेपत. रुक्ष अन्न जैसे जौ, साँवा, कोदो, नीवार, कङ्ग धान्य तथा अन्य तृण धान्य या मुन्यन्न का सेवन करना चाहिये । दालो मे कुलथी, मूग, मसूर, चना, तुवरी, लाज ( खील ), मधु, मट्ठा ( मक्खन निकाला दूध या मट्ठा ), मासव, अरिष्ट, सुरा, सर्पप तैल, पत्र शाक ( पत्ती बाले शाक), वैगन का भत्ता, चिंगट मछली (छोटी जाति की मछली) प्रभृति कटु-तिक्त-कपाय रस वाले द्रव्य एव रूक्ष गुण भूयिष्ठ पदार्थों का सेवन रोगी को कराना चाहिये । " औपधियों में-त्रिफला, गुग्गुल, लोह के योग, गोमूत्र, विडङ्गादि कृमिघ्न द्रव्यो के योग, त्रिक्टु, शिलाजीत, पीने के लिये उष्ण किया जल, उष्ण जल से स्नान, जल का कम सेवन और भोजन के पूर्व जल का पीना उत्तम रहता है। लेखन वस्तियो का भी उपयोग करना चाहिये । अपथ्य-शीतल जल से स्नान, नवीन अन्न ( चावल, गेहूँ), सुखपूर्वक सदा गही और तकिये के सहारे बैठना, दूध, मलाई, रवडी, मावा या खाड-राव का खाना, अधिक स्निग्ध एव पौष्टिक आहार, मछली, मासादि का अधिक सेवन, दिन का सोना, भोजन के बाद का जल पीना इन कार्यों को मेदस्वी व्यक्तियो को समभाव मे माने के लिये अर्थात् नातिस्थूल नातिकृश बनने केलिये छोड देना चाहिये। भेपज-१ शहद १ तोला एव जल ४ तोला मिलाकर प्रात काल मे सेवन । २ चावल का गर्म मण्ड पीना।२ ३. दधि-मस्तु ( दही का पानी ), अथवा मथी हुई दधि का मक्खन निकाला छाछ तथा पचकोल भी कर्पक होता है। ४. अरणी की छाल का क्वाथ बनाकर उसमे शुद्ध शिलाजीत १ मागा मिलाकर पिलाना । ५. एक तोले भर वेर की पत्ती को काजी मे पीस कर सेवन करना। ६ एरएटपत्र को जलाकर उसका क्षार बनाकर २ माशा की मात्रा ४ रत्ती घृत भजित हीग मिलाकर गर्म जल में घोल कर सेवन । १ श्रमचिन्ताव्यवायाध्यक्षीद्रजागरणप्रिय । हन्त्यवश्यमतिस्थोल्य यवश्यामाकभोजन ।। अस्वप्नञ्च व्यवायच व्यायाम चिन्तनानि च । स्थौल्यमिच्छन् परित्यक्तु क्रमेणातिप्रवर्द्धयेत् ॥ २ प्रातमधुयत वारि मेवित स्थीत्यनागनम् । उष्णमन्नस्य मण्ड वा पिबन् कृशतनुर्भवेत् ।। ( भै र ) Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८३ __ चतुर्थ खण्ड : पैतीसवाँ अध्याय योग-शक्तु प्रयोग-चव्यादिशक्तुक-चव्य, जीरा,मोठ,मरिच, पिप्पली, वृनजित होग, सोचल नमक, चित्रक की छाल, इन्हे सम प्रमाण मे लेकर महीन चूर्ण कर ले। यह चूर्ण २ मागा, जौ का सत्तू एक छटाँक, दधि का पानी घोलकर सेवन करने से स्थौल्य दूर होता है। व्योपाचशक्तुक-सोठ, मरिच, पिप्पलो, वायविडङ्ग, सहिजन की छाल, हरड, वहेडा, आंवला, कुटकी, छोटी कटेरी, बडी कटेरी, हरिद्रा, दारु हरिद्रा, पाठा, अतीस, शालपर्णी, घृतजित होग, केबुक की जड, अजवायन, धनिया, चित्रक को छाल, सोचल नमक, श्वेत जीरा, हाऊवेर, इन द्रव्यो को सम भाग मे लेकर चूर्ण कर शीशो मे भर दे। फिर यह चूण, तैल, घृत और शहद प्रत्येक ४-४ मागे और जी का सत्तू १६ गुना २१ तोले ४ मागे जल मे घोलकर पीना । इस प्रयाग में अग्नि दीप्त होती है, प्रमेह, कुष्ठ, कामला, प्लीहावृद्धि, कृमिरोग तथा मेदो रोग में लाभ होता है। ' नवक-गुग्गुलु-त्रिकटु, त्रिफला, चित्रक की छाल, नागरमोथा, वाय विडड तथा गुग्गुलु । सवको वरावर भाग लेकर प्रथम गूगल को कूटकर उसमे शेप द्रव्यो का चूर्ण मिश्रित करके गोली वनाले । मात्रा १ माशा । अनुपान मधु । दिन में तीन बार । अमृताद्य गुग्गुलु-गिलोय १ तोला, छोटी इलायची २ तोला, वायविडङ्ग ३ तोला, कुटज को छाल ४ तोला, बहेडा ५ तोला, हरड ६ तोला, आंवला ७ तोला, शुद्ध गुग्गुलु ८ तोला । मात्रा २ माशा । अनुपान मधु । दिन में तीन बार । प्रमेहपिडिका, भगदर तथा रयौल्यरोग में इससे लाभ होता है। त्रिफलाद्य तैल-तिल तेल s१, सुरसादि गण की औषधियो का क्वाथ ४ सेर, काली तुलसी, सफेद तुलसी, मरुवा, माजवल, रोहिस तृण, गध तृण, वन तुलमी, कृष्णार्जक, कासमद, नकछिकनी, खरपुष्पा, वायविडङ्ग, जायफल, सफेद, एव नोले फूल को निर्गुण्डी, मूषाकर्णी, भारगो, काकजघा, काकमाची एव कुचेला-सम भाग मे लेकर १ सेर द्रव्य को १६. सेर जल मे क्वथित करके ४ सेर शेष करे । एव हरड, बहेरा, आंवला, अतीस, मूर्वामूल, त्रिवृत् मूल, चित्रक मूल, असा, नीम की छाल, सप्तपर्ण की छाल, हरिद्रा, दारुहरिद्रा, गिलोय, निर्गुण्डी, पिप्पली, कूठ, सरसो, सोठ इन्हे सम प्रमाण मे लेकर कुल एक पाव लेकर जल के साथ पीस कर कल्क के रूप मे डाले । यथाविधि मद अग्नि पर चढाकर तैल का पाक करे । - इस तेल का पान, अभ्यग, गण्डप, नस्य तथा वस्ति के रूप में प्रयोग करने से स्थूलता, आलस्य, कण्डु तथा कफ एव मेदो दोप से उत्पन्न विकार शान्त हाते है । Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ सिपकर्म-सिद्धि लौहारिष्ट्र-शालसारादि गण की योपधियो के क्वाथ (प्रमेहाधिकारोक्त ) बनाकर छान ले। फिर इस क्वाथ मे ठडा हो जाने पर मधु मिलाकर मीठा करे । फिर गुड की चागनी तथा पिप्पल्यादि गण की औपधियो का प्रक्षेप मिलावे। फिर घत-पिप्पली चूर्ण एव मधु से अंदर से लिप्त नाफ घडे के भीतर रखे। इस घड़े में तीक्ष्ण लौह के पतले पत्रो को खदिर की अग्नि में डालकर बुझावे, लोह पत्रो को उसी मे पडा रहने दे। फिर घडे के मुख को भलीभाँति वद करके ३-४ मास तक जी की राशि के भीतर रख कर पडा रहने दे। पश्चात् उमको छान कर गोगियों में भर कर रख ले। यह सुश्रुतोक्त लोहारिष्ट है । इसके उपयोग से मधुमेह, मेदो रोग, प्रमेह पिडिका, पाण्डु रोग, प्लीहा, एव उदर रोग में लाभ होता है। मात्रा २ तोला । समान जल मिलाकर भोजन के बाद । विडङ्गाद्यलौह-वायविडङ्ग, हरड, बहेरा, आँवला, नागरमोथा, पिप्पली, सोठ, वेल की छाल, पके बेल का गूदा, श्वेत चन्दन, सुगन्धवाला, पाठा, खस तथा वला की जड प्रत्येक एक तोला सब के वरावर लौह भस्म १३ तोले । पानी मे पीस कर घृतलिप्त अंगुली से १ मागे प्रमाण की गोलियाँ वनाले । माना १-२ वटी दिन में दो बार । अनुपान गर्म दूध । वडवाग्नि लोह-रससिन्दूर, शुद्ध हरताल, लौह भस्म, ताम्र भस्म सभी समान भाग । अर्कपत्र-स्वरस की भावना । मात्रा १ रत्ती । अनुपान मधु या घृत और मधु से । दिन में दो बार। स्वेदहर तथा दुर्गवनाशक लेप-१. अडूसे का रस, विल्व पत्र का रस प्रत्येक एक एक तोला उसमें शंख भस्म २ माशा मिलाकर लेप करने से शरीर के पसीने की वदवू दूर होती है । २. हरट, लोध, नीम की पत्ती, आम की अंतर छाल, अनार का छिल्का इनका समभाग मे लेकर महीन कूट पीसकर-१ तोले से २ तोले पानी के साथ पोमकर लेप करने में दुगंध दूर होती हैं। स्त्रियो के मुख की त्रिवर्णता दूर होती है, हाथी-घोडे पर चलने वाले श्रीमन्न व्यक्तियो के जांघ तथा नितम्ब प्रदेश की त्वचा की विवर्णता भी दूर होती है। यह स्त्रियो के लिये अगराग तया नराधिपो के लिये जघा कपाय है। १ हरीनकी लोत्रमरिएपत्रचनत्वचो दाडिमवत्कलञ्च । एपङ्गिराग कथितोऽङ्गनाना जंघाकपायश्च नराधिपानाम् ॥ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवाँ अध्याय उदर रोग प्रतिषेध प्रावेशिक - वातोदर, पित्तोदर, कफोदर, सन्निपातोदर, यकृत् - प्लीहोदर, वद्धगुदोदर, नतोदर तथा जलोदर भेद से उदर रोग आठ प्रकार के होते है । उदर रोगो मे उत्सेधयुक्त सम्पूर्ण उदरगुहागत रोगो का समावेश हो जाता है, जिसमें कारण ओदरिक वृद्धि ( Genralsed Abdominal Enlargement ) पाई जाती है । प्राचीन ग्रंथो मे उदररोगो के उत्पादक तीन कारण वतलाये गये है- १. मन्दाग्नि २ मलसंचय ३. पाप कर्म । उदर रोगो की सामान्य सम्प्राप्ति के सम्वन्ध मे यह बतलाया गया है कि संचित हुए दोष स्वेदचाही तथा जलवाही स्रोतसो में अवरोध उत्पन्न करके प्राण अपान एव जठराग्नि को दूपित कर उदररोगो को उत्पन्न करते है । सब प्रकार के उदर रोगो मे आध्मान (पेट का तनाव ), चलने-फिरने में असमर्थता, दुर्बलता, पाचन करने वाली अग्नि की मदता, शरीर मे सूजन, अगो मे शिथिलता, वायु एवं मल का अवरोध, दाह एवं तद्रा ये सामान्य लक्षण पाये जाते है ।" चरक सहिता मे इन प्रत्येक उदर रोगो का विस्तार से वर्णन पाया जाता है । वातोदर मे मलका अवरोध, आध्मान, शूल आदि के साथ "आध्मातदृति वच्छन्दमाहूतं प्रकरोति च " अर्थात् आध्मानयुक्त उदर मे स्पर्शन अथवा अगुलिताडन करने से, भरी हुई मशक के ठोकने पर जैमा शब्द मिलता है वैसे ही शब्द पाया ( Tympanitic node ) जाता है, यह विशिष्ट लक्षण है जो आधुनिक दृष्टि से (Tympanitis) के वर्णन से सादृश्य रखता है । इसी प्रकार पित्तोदर का वर्णन अर्वाचीन शास्त्रो मे वर्णित उदरावृतिशोफ ( Peritonitis ) के साथ साम्य रखता है । कफोदर मे आमाजीर्ण कफज ग्रहणी आदि आमप्राय विकारो के साथ या उनके बाद होता है, उदर मे शोथ होता है । अर्वाचीन दृष्टि से इसका सामन्जस्य ( Amoebiasis ) या तत्सदृश विकारो से कर सकते है । कालान्तर मे ये १ पृथग्दो समस्तैश्च प्लीहबद्धक्षतोदकं । सभवन्त्युदराएयष्टी तेषा लिङ्ग पृथक् शृणु ॥ रोगा. सर्वेऽपि मन्देऽग्नौ सुतरामुदराणि च । अजीर्णान्मलिनैश्चान्नंर्जायन्ते मलसचयात् ॥ आध्मान गमनेऽशक्तिर्देर्विल्य दुर्बलाग्नित। । शोथ सदनमङ्गाना सगो वातपुरीपयो || दाहस्तन्द्रा च सर्वेषु जठरेपु भवन्ति हि ॥ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ भिण्कर्म-सिद्धि सभी सन्निपातोदर या दूप्योदर का रूप धारण करके असाध्य हो जाते है। बगदोदर, तीन बात्रावरोध ( Acute Intestinal obstruction) के रूप में स्पष्टतया प्रतिभान है और क्षनादर भी एक तोवावस्था का ही वर्णन प्रतीत होता है जब कि किसी रोग के उपद्रव रूप में मात्र छिद्र ( Perforation of the Intestine हो जाय । इस प्रकार उदर रोग में अधिकतर तीव्र रोगो ( Acute Abdomen ) का ही वर्णन पाया जाता है । इनमे अधिक गल्यतत्रीय चिकित्सा ही लाभप्रद भी होती है । इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी रोगो का वर्णन उदर रोगो के अव्याय में पाया जाता है, जिनमे उत्पादक कारणों की मन्दता, दोपो की अल्पता मादि से जीर्ण बलए की व्याधियां हो जाती है । जैसे, प्लीहोदर (Spleenomegaly), यकृतात्युदर (Cirhosis of the liver ), तथा जलोदर (Ascitis), मादि । ये सभी अनुतीव्र या चिरकालीन स्वरूप (Sub-acute or chronic type ) की व्यावियाँ है । वस्तुत., कायचिकित्सक को अपने को यहाँ तक मीमित रखना श्रेयस्कर होता है। अन्य रोगो में उनावर्त महा उपचार करते हुए सफलता मिल जावे तो ठीक है, अन्यथा किसी शल्यतत्रीय चिकित्सक को रोगी को देना उत्तम रहता है। "मर्वाण्येव प्रत्यास्यायोपक्रमेत् । तेप्वाद्यश्चतुर्वर्गों भेवजमाघ । उत्तर शस्त्रसाध्य । कालप्रकर्षात् सर्वाण्येव शस्त्रसाध्यानि भवन्ति वयितव्यानि वा ।" (मु ) संक्षेप में कह्ना हो तो उदररोगो में बहुत से तीन (Acute ), अनुतीन (Subacute ) तथा जीर्ण ( Chronic ) स्वरूप को व्याधियो का उल्लेख प्राचीन गास्त्रकारो ने किया है जिनके कारण उदर को दीवाल उभरी हुई प्रतीत हो (All acute or subacute conditions of Abdomen causing enlargement of the Abdominal wall ) ___इन अष्ट उदर रोगो में काय-चिकित्सक के लिये दो बडे महत्त्व के रोग है१ यकृत्प्लीहोदर तथा २ जलोदर । इन्ही दोनो के प्रतिपेध का वर्णन इम अध्याय का प्रतिपाद्य विषय है। १ यकृत्प्लीहोदर या प्लीहयकृद्दाल्यदर अथवा प्लीहोदर एव यहाल्यदर-विदाही तथा अभिप्यदी पदार्थों का अत्यधिक सेवन करने म मनुष्य का रक्त और कफ अधिक कुपित हो जाता है । फलत. प्लीहा की निरन्तर बृद्धि होती जाती है । प्लीहा बटकर उदर का उभार पैदा कर देती है। इस अनन्या गे प्लीहोकर बहते है । प्लीहा की वृद्धि उदर में वाई और होती है । इस यस्या में रोगी मद उवर एवं मन्दाग्नि में विशेष रूप से पीटित रहता Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : छत्तीसवाँ अध्याय ५८७ है । उनमे कफ एक पित्त के लक्षण और उपद्रव मिलते है। रोगी का वल क्षीण एव वर्ग पीला हो जाता है। निदान लक्षण तथा चिकित्सा को समानता के कारण प्राचीन ग्रंथकारो ने यहाल्युकर का पाठ भी प्लीहोदर के नाथ ही किया है । अन्तर केवल इतना हो है कि प्लीहोदर उदर के बाई ओर तथा यकृद्दाल्युदर दायी ओर होता है। कुछ रोगो में इन दोनो को एक साथ भी वृद्धि होती है। प्लीहा को वृद्धि करने वाले कालाजार, मलेरिया, राजयक्ष्मा, फिरग, फक्करोग, ल्युकीमियां आदि रोगो की किमी अवस्था मे यकृद्-वृद्धि भी अवश्य होती है। साथ ही यकृत् की वृद्धि के कारण भी प्लीहा की वृद्धि करते है । अस्तु, दोनो रोगो के हेतु, लक्षण तथा चिकित्सा में पर्याप्त साम्य है । अस्तु, दोनो रोगो का एक साथ ही वर्णन प्राचीन ग्रन्यो में मिलता है । उक्ति भी पाई जाती है-'प्लीहोदरस्यैव भेदो यकृद्दाल्युदर तथा ।'(भा प्रा)। 'तदेव प्लीहोदर यकृहाल्युदर ज्ञेयम् ।' (डल्हण ) । 'तुल्यहेतुलिङ्गीपधत्वात् तस्य प्लीहजठर एवावरोध इत्येतद्यकृत्टलोहोदरम् ।' (चरक )। रोग के प्रमार की दृष्टि से विचार दिया जाय तो भी प्लीहावृद्धि के रोगी यकृतवहि की अपेक्षा अधिक संख्या में पाये जाते है । इस प्रकार प्लीहोदर नामक प्रधान व्याधि के अन्दर यकृत्-वृद्धि नामक गाण व्यावि अन्तर्विष्ट हो जाती है ।' जलोदर या दकोटर-उदरगुहा में जलसचय को जलोदर कहते है । प्राचीनो ने जलवाही स्रोतो को दुष्टि को जलोदर का कारण माना है । आधुनिक विद्वान इसके निम्नलिखित कारण मानते है-१ हृद्रोग २ वृक्क रोग ३ यकृद्रोग (प्रतिहारिणी सिरा का अवरोध Portal obstruction) तथा ४ क्षयजन्य उदरवृतिशोथ (T B Peritonitis) ५ प्लीहोदर के परिणाम स्वरूप । सामान्य लक्षणो मे उदर मे उत्सेध, नाभि का उल्टा होना ( Everted umbelicus), मशक के समान क्षोभ या कम्प ( Thrill), इतिवत् शब्द ( Percussion Dullness), हृद्रव ( Palpitation ), श्वासकृच्छ, काम, बुभुनानाश, अग्निमाद्य, विवन्ध, चलने में असमर्थता, पैरो पर सूत्र, मूत्र की कमी आदि लक्षण मिलते है ।२ १ विदाह्यभिष्यन्दिरतस्य जन्तो प्रदुए मत्यर्थमसक कफश्च । प्लीहाभिवद्धि कुरुन प्रवृद्धौ प्लीहोत्थमेतज्जठर वदन्ति ॥ तद्वामपावें परिवृद्धिमेति विशेपत सीदति चातुरोऽत्र । मन्दज्वराग्नि कफपित्तलिंगरुपद्रुत क्षीणवलोऽतिपाण्ड । सव्यान्यपार्वे यकृति प्रवृद्धे ज्ञेय यकृद्दाल्युदर तथैव ।। (सु नि ७) २ य स्नेहपीतोऽप्यनुवासितो वा वान्तो विरिक्तोप्यथवा निरूढ । विवेज्जलं Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ भिपक्कम-सिद्धि साध्यासाध्यता-सामान्यतया उत्पत्ति-काल से ही सर्व प्रकार के उदर रोग कृच्छ्रसाध्य होते है। उदरावरण को गुहा मे जल का संचय ( जलोदर ) रोगो का मतिम परिणाम है । उदर रोगो का परिपाक होकर जलोदर होता है। अस्तु, प्रायः सभी असाध्य हो जाते है तथापि रोगी यदि बलवान् हो और रोग नवीन हो तो यत्नपूर्वक चिकित्सा करने से लाभ की आशा रहती है और रोग याप्य या कृच्छ्रसाध्य रहता है । उदर रोगों में सामान्य प्रतिषेध-उदर रोगो मे मल की अधिकता पाई जाती है। अस्तु, विरेचन के द्वारा उसका शोधन सदैव हितकर होता है। इसके लिये दूध, एरण्ड तैल, त्रिवृत्, त्रिफला, दशमूल कषाय, दन्ती, स्नुहीक्षीर, इंद्रायण मूल, गोमूत्र अथवा अष्ट-मूत्र, काम्पिल्लक, पिप्पली, हरीतकी, गुग्गुल, हरिद्रा, दारिद्रा, पटोल, पुनर्नवा तथा देवदारु, शिलाजीत आदि ओपधियाँ उत्तम रहती है । पुनर्नवाष्टक कपाय-पुनर्नवा, नीम की छाल, पटोलपत्र, शुठी, कुटको, गिलोय, देवदारु, हरीतकी इन द्रव्यो का समभाग लेकर २ तोले को ३२ तोले जल मे उबाल कर ८ तोले शेप रहे तो जानकर शहद मिलाकर पिलाना । सर्वाङ्गशोथ, जलोदर एव पाण्डु मे लाभप्रद ।४।। शीतलमाशु सम्यक् स्रोतासि दूष्यन्ति हि तद्वहानि ॥ स्नेहोपलिप्तेष्वथवाऽपि तेपूदकोदर पूर्ववदभ्युपैति । स्निग्धं महत्तत्परिवृत्तनाभि समाततं पूर्णमिवाम्बुना च ॥ यथा हतिः क्षुभ्यति कम्पते च शब्दायते चापि दकोदर । तत् । (सु) १ जन्मनैवोदर सर्व प्राय कृच्छ्रतम मतम् । वलिनस्तदजाताम्बु यत्नसाध्य नवोत्थितम् ॥ (च. चि. १३) अन्ते सलिलभाव हि भजन्ते जठराणि तु । सर्वाण्येवं परीपाकात्तदासाध्या भवन्ति हि ।। (सु) २ दोपादिमात्रोपचयात त्रोतोमार्गनिरोधनात् । मम्भवन्त्युदर तस्मान्नित्यमेतं विरेचयेत् ।। पाययेतैलमैरण्ड समूत्र सपयोपि वा। ३. शिलाजतूना मूत्राणा गुग्गुलोस्त्र फलस्य च ।। स्नुहोक्षीरप्रयोगाश्च समयन्त्युदरामयम् । ( भै.) ४ पुनर्नवानिम्बपटोलगुठीतिक्तामृतादार्वभयाकपाय । मङ्गिशोथोदरकासमूलवासान्वितं पाण्डुगदं निहन्ति । Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : छत्तीसवाँ अध्याय ५८६ नारायणचूर्ण - अजवायन, हाउबेर, धनिया, त्रिफला, काला जीरा, सौक, पिप्पली मूल, अजमोद, कचूर, बच, सोया बीज, श्वेत जीरा, सोठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, स्वर्णक्षीरी मूल, चित्रक, यवक्षार, सज्जीखार, पुष्करमूल, कूठ, सैधव, सामुद्र लवण, मोचल लवण, विड लवण, उद्भिद् लवण और वायविडङ्ग प्रत्येक १ तोला । दन्ती की जड ३ तोले, निशोथ तथा इन्द्रायण की जड २-२ तोले, सातला की जड ४ तोले । सवका महीन कपडछन चूर्ण | यह नारायण चूर्ण अनेक रोगो मे अनुपान भेद मे लाभप्रद होता है । मात्रा २-४ माशे । उदर रोगो में मट्ठे के साथ, गुल्म रोग मे बेर के क्वाथ के साथ, अर्श एवं विबन्ध रोग में दही के पानी या अनार के रस के साथ और अजीर्ण मे गर्म जल के साथ पाण्डु, हृद्रोग, कास- श्वास तथा ग्रहणी एव विष देने से उत्तम लाभ होता है । चिकित्सा मे भी उपयोगी है । देवदार्वादि लेप --- देवदारु, पलाश के वीज या मूल, आक के पत्र या जड, गजपिप्पली, सहिजन की छाल, असगंध और काकमाची इन्हे सम प्रमाण मे लेकर गोमूत्र मे पीसकर उदर पर गर्म गर्म लेप करने से आध्मान कम होता है । यकृत् एव प्लीहा की वृद्धि भी कम होती है । ' सहस्रपिप्पली प्रयोग — थूहर के दूध मे सात बार या इक्कोस वार भिगोयी एक सहस्र को संख्या मे उदर रोग नष्ट होता है । रहता है । १० पिप्पली से और सुखाई पिप्पली का सेवन करने से और केवल क्षीराहार पर रोगी के रहने से इसमे वर्धमान पिप्पली के क्रम से प्रयोग करना उत्तम प्रारंभ करे प्रथम दिन दूध में पीसकर तीन हिस्से मे बांटकर प्रात, मध्याह्न एव साय काल मे दूध के साथ १० छोटी पीपल का प्रयोग दूसरे दिन २० और तीसरे दिन ३० तथा इस प्रकार बढाते हुए दसवें दिन १०० पिप्पली का सेवन करावे फिर दस के क्रम से घटाते हुए १० पिप्पली प्रतिदिन पर लेकर क्रम को वद कर दे । इस प्रकार पूरे कल्प मे १००० पिप्पली लगती है - रोगी को क्षीराहार पर रखकर इस प्रयोग से यकृद्दाल्युदर ( Cirhosis of the liver ) एव तज्जन्य उपद्रवो मे जलोदर आदि में उत्तम लाभ होता है । रोगी और रोग के बल के अनुसार तोन, पाँच या सात के क्रम से भी वृद्धि की जा सकती है । और पिप्पली कुल संख्या कम की जा सकती है - यह सहस्र पिप्पली प्रयोग बडा उग्र है और बलवान रोगियो मे ही करना सभव है । इसकी एक तृतीयाश अर्थात् ३३० पिप्पली का कुल १ देवदारुपलाशार्क हस्ति पिप्पलिशिग्रुकै । साश्वगधे सगोमूत्र प्रदिह्यादुदर शनै ॥ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० भिपकम-सिद्धि प्रयोग अधिक अनुकूल पडता है। यह क्रम ३-३ पिप्पली के वर्द्धमान प्रयोग मे पूर्ण हो जाता है । कुछ वैद्य १-१ के क्रम से बढ़ाते हुए उपयोग करते हुए लाभ उठाते हैं। विना स्नुही से भावित पिप्पली के उपयोग से भी पर्याप्त लाभ होता है। इस वर्धमान पिप्पली प्रयोग से बढकर उदर रोग में कोई चिकित्सा जगत् में नहीं है। वर्धमान पिप्पली प्रयोग-इस प्रयोग मे पिप्पली (छोटी पीपल ) दो प्रकार की हो सकती है.-केवल पिप्पली या भावित पिप्पली या सस्कारित पिप्पली। संस्कारित पिपलियो में १ किंशुक ( पलाश ) के क्षार जल में भिगोयी पिप्पली या पिप्पली को सात दिन तक मट्ठे में भिगोकर पश्चात् निकाल कर प्रयुक्त बयवा स्नुहोक्षोर मे भावना देकर बनायो पिप्पली। इनमें केवल पिप्पली या पलाग क्षार जल मे भिगोयी, मट्ठे में भिगोयी-पिप्पली का प्रयोग जब केवल यकृत् एवं प्लीहा की वृद्धि (Enlargement of spleen or Cirhosis of liver ) मात्र हो, उपद्रव रूप में जलोदर साथ में न हो (अजातोदक) तब करना उत्तम रहता है, परन्तु जब इनके उपद्रव रूप में जलोदर ( जातादक ) हो जावे तो स्नुही क्षीर से भावित पिप्पली अधिक उत्तम रहती है। रोगी के वल, काल, महन-शक्ति का विचार करते हुए वर्धमान पिप्पली का प्रयोग करना चाहिये । सब से उत्तम क्रम १० पिप्पली से प्रारंभ करके प्रयम दिन दस, टूमरे दिन वीस, तीसरे दिन तीस करके देना है, इस प्रकार दसवें दिन मी पिप्पली का उपयोग प्रतिदिन प्रयोग करने से हो जाता है। इस वर्धमान पिप्पली के उपयोग काल में रोगी को कंवल दूध ( गरम करके ठडा किये दूध) पर रखना चाहिए। और दूध मे पीसकर हा पिप्पली का सेवन करने को देना चाहिये । दिन में दो या तीन हिस्से में विभाजित कर प्रतिदिन की पिप्पली की संख्या को देना चाहिये। जैसे जैसे पिप्पली वढती चले दूध की भी मात्रा एक नियमित क्रम से वढानी चाहिये । जैसे रोगी के प्रारभिक दूध की मात्रा १ मेर रही हो तो प्रत्यह १ पाव या आधा सेर वढाते जाना चाहिये। दसवें दिन १ स्नहीपयोमाविताना पिप्पलोना पयोगन । महन्न चेह भुजीत शक्तितो जठरामयो । पिप्पलीवर्धमान वा कल्पदृष्एं प्रयोजयेत् । जठराणा विनाशाय नास्ति तेन समं भुवि ॥ (भै. र.) त्रिभिरथ परिवृद्ध पञ्चमि सप्तभिर्वा दगभिरथ विवृद्ध पिप्पलीवर्धमानम् । इति पिवति युवा यस्तस्य न वामकामज्वरजठरगुदार्गावातरक्तक्षया. स्युः।। (यो र.) Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : छत्तीसवाँ अध्याय ५६१ दूध एव पिप्पली की मात्रा पूरी हो जाती है। फिर ग्यारहवे दिन से पिप्पली की नंख्या प्रत्यह दस कम करता चले साथ ही दूध की मात्रा भी १ पाव प्रतिदिन कम करता चले। इस प्रकार उन्नीसवे बीसवें दिन रोगो पिप्पली तथा दूध की प्रारम्भिक मात्रा पर आ जाता है एव कल्प पूरा हो जाता है। पूरे कल्प से एक सहत पिप्पली का उपयोग हो जाता है । ___ पल्प के पूरा हो जाने पर, पिप्पली और दूध के जीर्ण हो जाने पर रोगी की सुधा जागृत होती है, उसको साठो के चावल का भात और दूध खाने को देना चाहिये। इस महत्र पिप्पली कल्प में १० के क्रम से वृद्धि उत्तम, ६ पिप्पली के क्रम से वद्धि मध्यम तथा ३ पिप्पली के क्रम से वृद्धि करके पूर्ण करना अवर माना गया है। यह वधमान पिप्पली चल्प रसायन है, बृहण, वृष्य तथा आयु के लिये हितकर है। कही-कही ग्रथो में पांच पिप्पली का प्रयोग प्रारभ करके प्रतिदिन पांच बढाते हुए पांच सौ ( अर्ध सहत) तक बढाकर फिर पांच घटाते हुए सहल पिप्पली का भी प्रयोग पाया जाता है। रोगी की आयु, बल, काल आदि का विचार करते हुए किमी एक क्रम का निर्णय करना चाहिये। आज यत् और प्लीहा रोगो मे कई जटिल रोग पाये जाते है। इनका सम्यक उपचार भी ज्ञात नही है । जैसे यकृढद्धि ( Cirhosis of liver ), प्लीहोदर ( Spleeno medulary Leukaemia), बालयकृद्दाल्युदर, यकृत् केन्सर आदि । इन रोगो में इन प्रयोगो को करके देखना चाहिये, सभव है-इन में इस कल्प की कुछ उपयोगिता सिद्ध हो। देवद्रमादि योग-देवदारु, सहिजन की छाल, अपामार्ग पचाङ्ग-सम मात्रा में लेकर चूर्ण बनाकर गोमूत्र के साथ सेवन । मात्रा-३ माशा चूर्ण एक छटाँक गोमूत्र से। १ क्रमवृद्धया दशाहानि दशपिप्पलिक दिनम् । वर्द्धयेत्पयसा साद्ध तथैवापनयेत्पुनः ।। जीर्णाजीणं च भुञ्जीत षष्टिक क्षीरसपिंपा। पिप्पलीना सहस्रस्य प्रयोगोऽय रसायन. ॥ दशपिप्पलिक. श्रेष्ठो मध्यमः षट्प्रकीर्तित । यस्त्रिपिप्पलिपर्यन्त प्रयोग सोऽवर. स्मृत ॥ - Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकमै सिद्धि अश्वगंध—बेवल अश्वगंध का चूर्ण ६ माना का गोमूत्र के साथ सेवन । अष्ट-मूत्र के द्वारा उदर का सेंक करने अथवा मुग से पिलाने से उदर रोगो मे लाभ होता है । -- गावाच्यादि - इन्द्रायण ( गवाक्षी की जड ), स्तुहीमूल, दन्तीमूल एवं नीलिनी के पत्ते मम मात्रा में लेकर २ माया की मात्रा मे गोमूत्र के साथ पीन कर लेने में सभी प्रकार के उदर रोगों में लाभ होता है । त्रियोग - १ मैम के दूध में गोमूत्र ( १ पाव दूध में २३ तोला ) मिलाकर पीना २ त्रिफला का चूर्ण ( ३ माया ) गाय के दूध ( १ पाव ) में मिलाकर पीना दुग्धाहार पर रहकर गोमूत्र का सेवन । ५६२ यकृत्लीह प्रतिपेध - यकृत् एव प्लीहा को वृद्धि में यदि मूल रोग का निदान हो जाय जैसे जीर्गा प्रवाहिका, रक्ताल्पता, विषम ज्वर या कालज्वर तो मृल व्याधि की विशिष्ट चिकित्सा करने से स्वयमेव यकृत् अथवा प्लीहा भी ठीक हो जाती है । परन्तु यदि विशिष्ट कारण का पता न लग सके तो कुछ सामान्य सिद्धान्तों का अनुसरण करते हुए चिकित्सा करनी चाहिये। जैसे रहन, स्वेदन, प्लीहा एव यकृत् का मर्दन तथा गिरावेध | प्लीहा - यकृत् के क्षेत्र पर तेल का मर्दन करना, अष्टसूत्रों को गर्म करके उसमे कपटा या रुई भिगोकर सेंक करना उत्तम रहता है | सुश्रुत ने यत् एव हा वृद्धि की चिकित्मा मे शिरावेध तथा दाह कर्म का विधान बतलाया है-इस क्रिया का प्रयोग करके देखना चाहिये । इस पर लेखक का अपना कुछ भी अनुभव नहीं है, परन्तु ग्रंथों में उल्लेख पाया जाता है— बहुत से प्रयोगो के अनन्तर ही इस पर कोई सिद्धान्त दिया जा सकता है । विधान यह है कि रोगी को दही के साथ बन्न खिलाकर उसके बाद के मध्य वाली निरा वा नाम कूपर मधिगत मिरा ( Cabital vem ) का तथा यकृत् रोग में दक्षिण बाह को गिरा का वेव करना चाहिये । इस में सिद्धान्त यह हैलोहा एवं यट्टन् में इस क्रिया मे आकुचन होता है और दुष्ट रक्त निकल जाता है और और रोग शान्त हो जाता है | " १ नेम्वेदादि विधेय लोह रोगिणि । दध्ना भुवनवतो वामबाहुमध्ये मिरा भिषक् । विव्येन्ह विनाशाय यकृन्नाशाय दक्षिणे । प्लीहानं मर्दयेद् गार्ट दुष्टतप्रान्तये ॥ ( मु.) प्लीहान वकून वृद्ध मृत्रस्वेदैरुपाचरेत् | प्लीहजिटर एंवाया पल्वस्त क्रेण सेवितः ॥ ( भं र ) Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : छत्तीसवाँ अध्याय दाह-वामबाहु मे मणिवध के आगे वामाङ्गष्ठ के समीपवर्ती शिरा को क्षार से या शर मे ( तप्त करके ) जलाना चाहिए।' प्लीहोदर से ओपधि-१ शरपुंखा मूल के कल्क का तक के साथ सेवन अथवा शरपुखा-स्वरम ६ माशे से १ तोला की मात्रा मे मधु से अथवा शरपुङ्खा का क्षार बनाकर उसका सेवन १ माशा की मात्रा मे । २. रोहीतक-रोहीतक की छाल तथा अभया प्रत्येक १.१ तोला लेकर क्वाथ बनाकर उसमें पिप्पली चूर्ण ४ रत्ती और यवक्षार या शरपुंखा क्षार १ माशा मिलाकर सेवन । रोहीतक का स्वतन्त्र चूर्ण, कपाय या अरिष्ट घृत के रूप मे सेवन भी लाभप्रद रहता है। ३ शिग्र-(१) सहिजन की छाल का कपाय बनाकर उसमे पिप्पली, कालीमिच, अम्लवेत एव सैधव लवण प्रत्येक ४-४ रत्तो का प्रक्षेप छोडकर सेवन । (२) सहिजन के क्वाथ में सैन्धव लवण, चित्रक को छाल तथा पिप्पलीचूर्ण प्रत्येक ४-४ रत्ती का प्रक्षेप छोडकर सेवन । (३) सहिजन के क्वाथ मे पलाश क्षार तथा यवक्षार प्रत्येक ४-४ रत्ती की मात्रा में प्रक्षेप देकर पिलाना यकृच्छोथ तथा प्लीहशोथ ( Hepatitis or spleenic congestion) मे लाभप्रद होता है । ४. शाल्मलिपुष्प क्वाथ-सेमल के फूल को पानी मे खौलाकर स्विन्न कर ले, फिर उसे रातभर रख कर दूसरे दिन प्रात काल में ( मात्रा २ तोला) हरिद्रा का चूर्ण २ मोशा मिलाकर सेवन ।। ५ तालपुष्प-नाड के फूलो को जलाकर उसका क्षारविधि से क्षार बनाकर २ माशे पुराने गुड के साथ सेवन । ६ चित्रकमूल-चित्रकमूल का चूर्ण १-२ माशे पुराना गुड २ तोले के साथ सेवन । ७ हरिद्रा-हरिद्रा का चूर्ण ३ माशे का गुड के माथ सेवन । ८. अर्कपत्र-मदार के कोमलपत्र २-४ लेकर पुराना गुड के साथ सेवन । ६ धाय के फूल-धाय के फूल का चूर्ण २ माशा, पुराना गुड १ तोले के साथ सेवन । १० लशुन-लहसुन-पिप्पलीमूल एव हरीतकी प्रत्येक समान मात्रा मे लेकर चूर्ण बनाकर ६ मागे की मात्रा मे एक छटाँक गोमूत्र के साथ सेवन । १ मणिवन्धसमुत्पन्नवामाङ्गष्ठ समीरिताम् । दहेच्छिरा शरेणाशु वैद्य प्लीह्न प्रशान्तये ॥ (सु ) ३८ भि०सि० Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि ११ पिप्पली-पलाग के रम या पलागधार के जल में पिप्पली को २१ वार भावित करके घृत में भूनकर सामान्य या वर्द्धमान क्रम से दूध के साथ उपयोग करने मे यकृत् एवं प्लोहा रोग दोनो में लाभ होता है ।। १२. प्रतिकरंज-पूतिकरज के मूल के चार को कांजी में भावित करके उसमें विडलवण और पिप्पली चूर्ण ४-४ रत्ती मिलाकर सेवन करने से यकृन्प्लीहावृद्धि का गमन होता है। १३ शाष्टिा नियृह-कोकजघा या काकमाची या लता करज या गुञा का पाय बनाकर उनमें सेंधा नमक और इमली का क्षार मिलाकर (प्रत्येक ४-४ रत्ती ) सेवन करने से प्लीहरोग में लाभ पहुँचता है । ११.जाखनाभि की भरम-मात्रा-२ माशे जम्वीरी निम्बू का रस २ तोले मिलारर दिन मे दो-तीन बार सेवन करना-इस योग से दीर्घकालीन प्लोहावृद्धि में भी लाभ होता है । २५ शुक्तिमस्म-समद्रगवित भस्म १.२ मागा की मात्रा में दूध मे डालकर भवन । १६ काली तिल-काली तिल ६ माशा और सेन्धा नमक - मागा मिला कर सेवन करने मे यकृत् की वृद्धि ( Cirhosis ) में लाभ होता है ।। १७ पके आम के फल के रस-पके माम के फल के रस का मधु मिलाकर मेवन या अमावट का बहुल प्रयोग या पके आम मा सेवन यकृत् के रोगो में उत्तम बोपधि है। १८ भल्लातक-शुभरलातक, हरड और जोरा ( भुना ) सम भाग मे लेकर पुरान गुड के माथ लड्डू बनाकर रख ले । १-२ मागे की मात्रा में दूध या जल के अनुपान से सेवन करने से यकृत् एव प्लीह रोगो में उत्तम लाभ होता है। एक सप्ताह के उपयोग से दारुण प्लीहा-वृद्धि में भी पर्याप्त लाभ पहुंचता है। योग १ रोहितकाद्य चूर्ण-रोहीतक की छाल, यवक्षार, चिरायता, कुटकी, नवनादर, अतीम और मोठ । मम प्रमाण में लेकर बनाया चूर्ण । मात्रा-१ मे ३ नागा प्रात-मायम् । अनुपान-जल, मट्ठा या मानवारिष्टो में मिलाकर । यहान्द्रोग (Cirhosis of liver ) में लाभप्रद । २. गुडूच्यादि चूर्ण-नीम गिलोय, यतीन, मोठ, चिरात्रता, कालमेघ या यतिका, नागरमोथा, पिप्पली, यवक्षार, गुद्र कासीम, चम्पे की जट को छाल । ममभाग में लेकर बनाया चूर्ण । मात्रा-२ माशा । अनुपान-उप्ण जल प्लीहा वद्धि में लाभप्रद । Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : छत्तीसवाँ अध्याय ५६५ ३ अर्क लवण - अर्क या मदार के पत्र पर तह करके दो पत्तो के बीच मे सेन्वा नमक रखकर एक मिट्टी की हडिका मे कई तहे लगाकर रख दे । हडिका का मुख ढक्कन देकर कपडमिट्टी कर बन्द करके गजपुट मे एक पुट दे । स्वागशीतल होने पर उसको निकाल और सबको पीस ले । यह अर्क लवण नमक योग है । इसके उपयोग से उदरशूल विशेषत यकृच्छुक का सद्य शमन होता है । पुरानी वढी प्लीहा या यकृत् वृद्धि मे भी लाभ होता है। रोगी को कब्ज विशेष रहता हो, पाखाना साफ न होता हो तो भोजन के पश्चात् इसके उपयोग से लाभ होता है । मात्रा - २ माशा | भोजनोत्तर गर्मजल के अनुपान से । ४ रोहितकादि वटी - रोहेडे की छाल, चित्रकमूल की छाल, अजवायन, तालमखाना प्रत्येक १० - १० तोला, सेंधानमक २ तोला तथा नवसादर १ तोला । सबको कूटकर महीन चूर्ण बना ले। फिर करज-स्वरस की भावना देकर ४-४ रत्ती को गोलियाँ बनाले | मात्रा - १-२ गोली दिन मे तीन बार । अनुपान - उष्ण, जल । , " ५ रोहीतक लौह - हरड बहेडा आँवला, शुण्ठी, मरिच, पिप्पलो, 'चित्रकमूल की छाल, नागरमोथा, वायविडङ्ग प्रत्येक १ -१ भाग, रोहेडे वृक्ष को अन्तर्छाल ९ भाग- - सबका कपडछन चूर्ण कर उसमे लौह भस्म या मण्डूर भस्म ९ भाग मिलाकर उसमे रोहितक के अन्तर्छाल की सात भावनाएँ देकर छाया मे मुखाकर रख ले | मात्रा - ३ रत्ती । अनुपान - दूध या छाछ । -- उपयोग -- यकृत् प्लोहा की वृद्धि, पाण्डु रोग, जीर्ण विषम ज्वर मे अच्छा लाभ देने वाला योग हे । बृहल्लोकनाथ रस - लोकनाथ रम नाम से भंषज्य रत्नावली में तीन पाठ मिलते हैं, इनमे द्रव्य प्राय तीनो मे समान है— कुछ भावनाओ का भेद है । यहाँ पर बृहल्लोकताथ रस नामक पाठ का योग उद्धृत किया जा रहा है www शुद्ध पारद १ तोला, शुद्ध गन्धक २ तोला लेकर खरल में कज्जली बनावे, चश्चात् उसमे अभ्रक भस्म १ तोला, लौह भस्म २ तोला, ताम्र भस्म २ तोला, कपर्द ( वराट ) भस्म ९ होला मिलावे । पश्चात् घृतकुमारी स्वरस, एव मकोय के रस को एक एक भावना देकर शराव-तम्पुट मे वन्द करके लघुपुट में रखकर अग्नि मे पकावे । पश्चात् स्वाङ्ग-शीनल होने पर खरल करके शीशी में भर लेवे । मात्रा - १-२ रत्ती । अनुपान-भुने जीरे का चूर्ण और मधु, हरीतकी और गुड, अजवायन का चूर्ण एवं शहद, पिप्पली चूर्ण एवं गुड या मधु, मधु या खदिर के काढ़े से । ਨ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि यह योग सभी प्रकार की यकृत-प्लीहा की वृद्धि, विषमज्वरजन्य प्लीहा वृद्धि तथा वाल यकृताल्युदर ( Infantile Cirhosis) मे विशेषतः लाभप्रद है। ___प्लीहारिवटी--मुसब्बर, अभ्रक भस्म, शुद्ध हीरा कासीस और लहसुन इन्हें सम भाग मे लेकर ब्रोणपुष्पी (गूमा के रस में तीन प्रहर ( ९ घटे) तक भावित कर के २ रत्ती के प्रमाण में गोलिया बनाकर रख ले। १-१ वटी नुवह-नाम जल से। यकृत्प्लीहारि लोह-शुद्ध पारद, गुद्धगधक, लौह भस्म, अभ्रक भस्म प्रत्येक १ तोला, तान भम्म २ तोला, गुद्ध मन गिला, हरिद्रा चूर्ण, गुद्ध जयपाल, गुद्ध, टकण, गुद्ध गिलाजीत प्रत्येक सरल रै। फिर दन्तीमूल, निशोथ, चित्रकमूल, निर्गुण्डी, गुठी, मरिच, पिप्पली, यदरक और भृगराज प्रत्येक के क्वाथ से एक एक भावना पृथक् पृथक् दे कर दो रत्ती की गोलियां बना ले। मात्रा १-२ गोली दिन में दो बार अनुपान गरपुंखा के स्वरस मोर मधु से । ___यकृदारि लौह-लौह भस्म, अभ्रक भम्म प्रत्येक २-२ तोले, ताम्र भस्म १ तोला, निम्बू के जड़ की छाल का चूर्ण तथा मृगचर्म भस्म प्रत्येक ५-५ तोला । नवको एकत्र महीन चूर्ण कर । जल मे घोटकर १ मामा की मात्रा में गोलियां बना ले । १-१ गोली प्रात मायम् मधु से । शखद्रावक-दाब द्राव, महामाखद्राव, द्रावक ग्स, महाद्रावक रस नाम से कई योग भैपच्यरत्नावली मे उल्लिखित है। ये सभी द्राव बडे तीन पाचक, क्षारीय गुण के, तीव्र उदर गलशामक, प्लीहा एव यकृद्वद्धि में लाभप्रद होते हैं। ये सभी द्रावक द्रव रूप में होते है-चिकित्सा मे इनका उपयोग भोजन के पश्चात् कुछ वूद की मात्रा ( २ से १० बद तक) से कांच के वर्तन में पानी में घोल कर हल्का कर के देना होता है। निर्माणविधि सबकी समान है-उनमें पड़ने वाले द्रव्यो में भेद हो जाता है। यहाँ पर एक ख द्रावक का योग दिया जा रहा है - शस भस्म, यवक्षार, नजिका क्षार, टकाण, पांवो लवण पृथक-पृथक्, फिटकिरी तथा नौमादर, शुषित भस्म, वराट भस्म प्रत्येक ४-४ तोला लेकर काचकूपी में रखकर अग्नि पर चढाकर वायत्र से उटाकर द्रव को रख कर काच पात्र में रख लेना चाहिले। रोहितकारिष्ट्र-रोहे की छाल सेर, ६४ सेर जल मे क्यथित कर चौगई १६ सेर गेप रखे। शीतल होने पर उसे छान ले फिर उममें गुड १२॥ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : छत्तीसवाँ अध्याय ५६७ सैर, धाय का फूल १ सेर तथा पिप्पली, पिप्पली मूल, चव्य, चित्रक की जड, मोठ, दालचीनी, इलायची, तेजपात, हरड बहेरा, आँवला प्रत्येक ५-५ तोला डाल कर घृत से स्निग्ध मिट्टी के भाण्ड मे भर कर भाण्ड के मुख पर ढक्कन रराकर कपडमिट्टी कर १ मास तक सुरक्षित स्थान पर रख दे । फिर छान कर चोतलो मे भर दे । मात्रा २ तोला । अनुपान समान जल मिलाकर भोजन के परचात् 1 कदल्यादि क्षार तैल - केला, तिलनाल और तालमखाना इनका क्षार बना कर उस द्वार से तिल तेल को सिद्ध कर सेवन करने से कफवातज प्लीहा मे लाभ होता है | वालयद्दाल्युदर प्रतिपेध ( Infantile Cirhosis ) - बाल्यावस्था में होने वाली यकृद्वृद्धि एक असाध्य स्वरूप की व्याधि है । चिकित्सा मे सफलता क्म एवं असफलता ही अधिक मिलती है । रोग से पीडित होने पर चालक दिन-प्रतिदिन सूखता जाता है, शरीर मे मेद का भाग शुष्क हो जाता है, कोष्ठवद्वता प्राय पाई जाती है -- शुष्क, गाठदार एव श्वेत वर्ण पुरोप त्याग करता है, चिडचिडा बहुत हो जाता है । रोग के प्रारंभ मे चिकित्सा की जाय तो लाभ को आशा रहती है । अन्यथा कामला और जलोदर का उपद्रव हो जाने पर पूर्णतया असाध्य हो जाता है । ( विस्तृत वर्णन के लिये लेखक की बालरोगचिकित्सा देखे ) । t 7 रोग को चिकित्सा के लिये यकृत् एव प्लीहा के प्रतिपेध मे बताये योगो का उपयोग करना चाहिये । विशेष चिकित्सा के लिये -- बालक को माता का दूध बद कराके डिब्बे के दूब पर (Glaxo) रखना चाहिये । साथ मे बालींवाटर (जो का -यूष ) पोने के लिये देना चाहिये । फलो मे अनार बेदाना, मोसम्मी, सतरा, अगूर, मुनक्का, केला, टमाटर का यूप आदि देना चाहिये । खाली पेट पर प्रात काल मे गोमूत्र छोटी चम्मच से १-२ चम्मच पिलाना चाहिये । कालमेघ या यवतिका का ताजा स्वरस मिल जाय अथवा "लिक्विड एक्सट्रैक्ट कालमेघ” छोटी चम्मच १ चम्मच दिन मे तीन बार देना चाहिये । मासरस मे यकृत् का केमा बनाकर या उसका कच्चा रस टमाटर के रस में मिलाकर पिलाना चाहिये । प्याज का स्वरस भी उत्तम पाया गया है । अस्तु, इसका भी दिन मे दो बार छोटी चम्मच से १-२ 'चम्मच देना चाहिये । रस के योगो मे यकृदरि लोह, यकृत् - प्लीहारि लौह का रत्ती की मात्रा, शरपुखा स्वरस ३ माशा और मधु के साथ देना चाहिये | लोकनाथ रस या बृहल्लोकनाथ रस इस रोग मे चलने वाला एक उत्तम योग है । इसका उपयोग ३–१ रत्ती की मात्रा मे दिन मे दो-तीन वार हरीतकी चूर्ण एवं € Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूहरु भिपकर्म-सिद्धि मधु ( १ माशा चूर्ण और ३ मात्रा मधु ) के साथ करना चाहिये । उबर के ऊपर विशेषत यकृत् प्रवेश पर गोमूत्र या अष्टमूत्र को गर्म करके उसमे हई भिगो कर उनमे सेंकना भी उत्तम रहता है । देवदार्वादि लेप का लेप भी यकृत- प्रदेश पर करना उत्तम रहता है | आरोग्यवर्धिनी वटी का उपयोग भी उत्तम रहता हैं, रात में सोते वक्त रोगी को २ रती की मात्रा मे दूध के साथ देना चाहिये । रोग से पीड़ित वालक को आरारोट का विस्कुट अनुकूल नही पडता है । अस्तु, उमका निषेध करना चाहिये । इस रोग मे बालक मीठी चीजें बहुत पसंद करता है, एतदर्थ उमे मिश्री, बतासा या मधु दिया जा सकता है- दूसरी खोवे से बनी मिठाइयों पर पूर्णतया प्रतिबंध रखना चाहिये । अजातोदक व्यवस्था मे जब तक कि उदर मे जल संचय न हुआ हो तो इस प्रकार के पथ्य एव उपचार पर रोगी को रखना चाहिये । जब जातोदक को अवस्था या जावे अर्थात् उदर में जल सचय हो जावे तो जलोदर की चिकित्सा प्रारंभ कर देनी चाहिये । जलोदर प्रतिपेध - बाचार्य सुश्रुत ने लिखा है, उदर रोगो का परिपाक हो जाने पर अतिम परिणाम जलोदर होता है-उदर अत मे मलिल भाव (जल भाव ) को प्राप्त होकर असाध्य हो जाता है । फलत. इम मे रोग का निमूलन तो होता नही है, परन्तु समुचित पथ्य और ओपधि आदि की मात्र करते हुए कुछ स्वस्थ रखा जा सकता है । व्यवस्था से रोगी का यापन सुश्रुत ने जलोदर की चिकित्सा में जल- विस्रावण (Tapping Abdomen ) का विधान बतलाया है । पश्चात् रोगी को पूर्ण विश्राम देते हुए एक वर्ष तक पथ्य पर रहने की व्यवस्था की है। रोगी को निरन्न ( विना अन्न ) तथा निर्जल ( बिना जल पिलाये ) तथा निर्लवण ( बिना नमक के ) रखना चाहिये । प्रारंभिक छ मास तक उसे केवल दूध अथवा मागरम (जाङ्गल अर्थात् हल्के पशुपक्षियों के मामरस-गोरवे ) पर रखना चाहिए | उसके बाद तीन मास तक दूध में आवा जल मिला कर देना चाहिये - फो के रस तथा मासरस देना चाहिये । अवशिष्ट अन्त के तीन महीनों में लघु एवं हित अन्न का सेवन, जैसे- मण्ड, पेया, त्रिलेपी, कृारा, योदन आदि का सेवन करना चाहिये | नमक का अब भी परिहार रखना चाहिये । एक वर्ष के अनन्तर रोगी को प्राकृत आहार पर ले आना चाहिये । इस प्रकार जलोदर की चिकित्मा में पूरे एक वर्ष का समय लगता है, पश्चात् रोगी रोगमुक्त होता है | आधुनिक युग में भी उदर वेध कर के जल-विस्रावण की प्रक्रिया जलोदर में Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथे खण्ड : छत्तीस नॉ अध्याय κεε चलती है, परन्तु, यह क्रिया अल्पकालीन आराम के लिये होती है । इस का रोगी नीरोग नही हो पाता है । यदि चरक या सुश्रुत मत से उसको एक वर्ष तक कडे पथ्य ( Ristricted diet ) पर रखा जाय तो लाभ स्थायी होता है । " Rao ओपधि प्रयोग से जलोदर प्रतिषेध-गवहार मे यह देखा गया है कि विसावण (Tapping ) के अनन्तर आये रोगियो की चिकित्सा मे यश नही मिलता । सभवत उन में पथ्य की ठीक व्यवस्था न होने से या सहसा जल के निकलने से हृदय दुर्बल हो जाता है, फलन चिकित्साकाल मे उनकी मृत्यु हो जाती है । अरतु, चिकित्सा मे ऐसे रोगियो का लेना जिन मे जल विस्रावण की क्रिया न की गई हो, उत्तम रहता है । जलोदर के रोगी को निर्जल, निर्लवण एव निरन्न रख कर केवल दूध का पथ्य देते हुए उपचार प्रारंभ करना चाहिए और यह क्रम तब तक रखना चाहिये जब तक कि उदर प्राकृतावस्था मे न आ जावे । पश्चात् ससर्जन करते हुए क्रमश मण्ड, पेया, विलेपी आदि देते हुए दूध और रोटी पर रोगी को ले आना चाहिये । पुन रखना चाहिये अन्यथा जलोदर के अच्छे हो सेवन से पुनरुद्भव की आशंका रहती है । भात अथवा दूध एवं इस आहार पर उसको एक वर्ष तक जाने के पश्चात् भी उस मे अपथ्य चिकित्सोपक्रम -- रोगी को स्वेदल, मूत्रल एव रेचक औषधियो का प्रयोग करते हुए उदरगत जल के निकालने का प्रयत्न करना चाहिये । साथ ही इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि रोगी का हृदय कमजोर न होने पावे, एतदर्थ हृद्य योगो का सेवन भी कराते रहना चाहिये। रोगी को जल का परित्याग चिकित्सा - काल मे करना चाहिये । क्षुधा एव तृषा दोनो के शमन के लिये गर्म कर के ठडा किया दूध ( शृतशीततीर ) ही पथ्य होता है, परन्तु यदि ऋतु अनुकूल न हो, अथवा रोगी की तृपा ( प्यास ) बहुत तीव्र हो तो जल के स्थान पर किसी अर्क का उपयोग पीने के लिये किया जा सकता है । अर्को मे काकमाची, पुनर्नवा, शतपुष्पा (सोफ) या अजवायन का अर्क दिया जा सकता है- नारिकेलजल ( डाभ का पानी) भी उत्तम रहता है । १ परमासाश्च पयसा भोजयेज्जाङ्गलरसेन वा । ततस्त्रीन्मासानर्दोदकेन पयसा फलाम्लेन जाङ्गलरसेन वा । अवशिष्ट मासत्रयमन्न लघु हित वा सेवेत । एव सवत्सरेणागदो भवति ॥ ( सुचि १४ ) २ सर्वोदय कुशलै प्रयोज्य क्षोर मृत जाङ्गलजो रसो वा । (सु ) प्रयोगाणा च सर्वेषामनुक्षीरं प्रयोजयेत् । दोषानुबन्धरक्षार्थं वलस्थंयर्थमेव च ॥ प्रयोगापचिताङ्गाना हित चोदरिणापय । सर्वधातुक्षयादोना देवानाममृत यथा ॥ (च ) Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० भिपकर्म-सिद्धि बोपधि-योगो मे जलोदरारि रस का प्रयोग उत्तम रहता है, नुवह-शाम दो-दो रत्ती की मात्रा में पुनर्नवास्वरस : माना और मधु ६ मागे के साथ । हच योग के लिये रमसिन्दूर १ नी, हृदयार्णव २ रत्ती, प्रवालपिष्टि २ रत्ती, जहरमहरा २ रत्ती, वर्जुन चूर्ण ४ माना मिला कर दो मात्रा मे वाट कर दिन में दो बार देना चाहिए ! गेगी को गत ने मोते वक्त आरोग्यवर्धिनी ४ रत्ती-८रत्ती तक एक मात्रा दूध के माथ देना चाहिए। यदि पंगे पर गोय एक रस्ताल्पता हो तो नवायन बनवा नवा मडूर का नित्रण नी यथावक किया जा सकता है । इस व्यवस्था से रोगी का रेन एव वातानुलोमन होता चलता है। इस व्यवस्था के बावजूद भी नेगी वाचन व ना 3 दश्यक रहता है । एतदर्थ एक एक दिन के अन्तर से प्रात काल में इन्चामंदी म २-४ रत्ती नाराब स १-२ रत्ती, जलापा चूर्ण २-४ मागा व्या नमठेचन ( मंगमाफ) एवं सोडा सत्फ १ ओस के जल या चीनी के गत में साथ देने की यावश्यक्ता पडती है ! इन क्रिया ने तीन रेचन होकर रोगी के उदर का मायाम घटता है । इन औपवि योगो के तिरिक्त भी वहत से उन औषधियों का प्रयोग किया जा सकता है जिनका ऊपर मे नामोल्लेख हो चुका है। जैसे-अष्टमूत्र या गोमूत्र का १ स्टाक की मात्रा में प्रात काल में उपयोग, हरीतको चूर्ण ६ माशा की मात्रा मे गोमूत्र के अनुपान में । जलोदर प्रतिपेध में सर्पविप का प्रयोग-आचार्य चरक ने लिखा है कि जब सम्पूर्ण प्रकार को चिकित्सा करने पर कोई लाभ न हो, न दोपो का ही गमन हो पावे और न उलोदर का हो, तो अतिम उपचार के रूप में इस भयंकर एव खतरनाक उपचार का भी प्रयोग म्यिा जा सकता है। यह एक दारुण कम १. क्रियातिवृत्ते जठरे विवोपे चाप्रगान्यति । जातीन नमुहृदो दारान् ब्राह्मणान्नृपतीन् गुरुन् । अनुमाप्य भिपक कर्म विध्वात् नशय वन् । बम्निाय व मृत्यु निवारा मंगयो ब्रुवन् । एबमान्याय न मनुजात नुहृद्गण. । पानभोजनमबन्न विमस्मै प्रयोजयेत् ॥ यस्मिन् दापित नो दिनृद्धि पले विपम् । भोजयेत्तदुरिण प्रवित्राय मिपावरः ।। तेनात्य दोपगंधान रियो लीनो विमार्गग. । विपेणाशु प्रमाथित्व दागु भिन्न प्रवर्तते ।। Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : छत्तीसवाँ अध्याय ६०१ है- शोध अनुसंधान का विषय है । सब से बडी कठिनाई इस मे मात्रा निर्धारण ओर उपयोग की विधि की उपस्थित होती है । - चरकाचार्य ने लिखा है कि इस दारुण कर्म करने के पूर्व रोगी के ज्ञाति, कुटुम्बी, मित्र, स्त्री, ब्राह्मण, गुरु तथा राजा को सूचित किया जावे और उन की अनुज्ञा या अनुमति ले लो जावे, चिकित्सक भी स्वयं अपना सदेहात्मक अभिमत प्रकट कर दे "कि उपचार नही किया जायगा तो रोगी को मृत्यु ध्रुव है, इस उपचार में भी सशय है कि रोगी रोग से बच जावेगा ओर स्वम्थ हो ही जावेगा ।" पश्चात् विप का प्रयोग रोगो के भोजन या पेय के साथ सयुक्त करके करे अथवा सर्प से किसी फल को कटवा के - - जिसे सर्प ने अपने विप से युक्त कर दिया होखिलाया जावे | उत्तम चिकित्सक को चाहिये कि विचार करके उसकी मात्रा का निर्धारण कर के प्रयोग करे । इस क्रिया से रोगी का विमार्गस्थित दोपसंघात जो शरीर में स्थिर एव लीन हो गया है उसका विघात होकर शीघ्रता से निकल जाता है क्योकि विप तीव्र आशुकारा एव प्रमाथी होता है। दोपो के निर्हरण हो जाने के अनन्तर रोगो का शीतल जल से परिषेक करके उसको वल के अनुसार पर्याप्त मात्रा मे गाय का दूध अथवा यवागू का प्रयोग भोजन के रूप में करना चाहिये | पश्चात् त्रिवृत् पत्र, मण्डूकपर्णी का पत्र, वथुवा का शाक, या काल शाक को स्विन्न कर के बिना खटाई, मसाला, नमक और स्नेह ( तेल या घी ) के या यवयूप खाने के लिये देना चाहिये । एक मास तक रोगी को निरन्न ही रखना, पर्याप्त मात्रा मे दूध एव उपर्युक्त शाको को स्विन्न करके या बिना स्विन्न किये देना चाहिये। रोगी को जल भी नही देना चाहिये । प्यास लगने पर उपर्युक्त शाको का स्वरस ही पीने के लिये देना चाहिये । इस प्रकार एक मास के अनन्तर दोपो के सम्पूर्णतया निकल जाने पर दुर्बल रोगियो मे वल के वर्धन के लिये ऊटनी का दूध ( कारभ पय ) पिलाना चाहिये । पश्चात् यवयूप आदि देते हुए क्रमश ससर्जन क्रम से रोगी को धीरे धीरे प्राकृत आहार पर ले आना चाहिये । १ १. विपेण हृतदोष त शीताम्बुपरिपेचितम् । पाययेत भिपग दुग्ध यवागू वा यथावलम् || त्रिवृन्मण्डूकपर्योश्च शाक सयववास्तुकम् । भक्षयेत् कालशाक वा स्वरसोदकसाधितम् ॥ निरम्ललवणस्नेह स्विन्नास्विन्नमनन्नभुक् । मासमेकं ततश्चैव तृपित स्वरस पिवेत् ॥ एव विनिर्हृते दोषे शाकैर्मासात् पर तत । दुर्वलाय प्रयुञ्जीत प्राणभृत् कारभ पय ॥ ( चचि १३ ) Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैंतीसवाँ अध्याय शोथरोग प्रतिपेध रोग परिचय - श्वयथु, शोथ एक शोफ ये तीनों दब्द सूजन के बोधक । शोय रोग कहने का तात्पर्यं कई प्रकार के वर्गीकरण सूजन के दो प्रकार किये होते है एवं प्राय पर्याय रूप में व्यवहृन होते है होता है देह के सूजन को बीमारी । शोध रोग में प्राचीन ग्रन्थो मे पाये जाते है । जैसे - कारणभेद से जा सकते है -निज तथा आगन्तुक । निज वे शोथ है जो विविध प्रकार के मिथ्या आहार-विहार के कारण दोपो के शरीर मे कुपित होने से होते है । दूसरा वर्ग आगन्तुक कारणो का होता है जिसमे आघात, अग्नि या अग्नितप्त पदार्थो मे जलना, रासायनिक पदार्थ या तीव्र अम्ल या चारो से जलाना, विविध विकारी अणुजीव, विप-सम्पर्क तथा विद्युत् आदि से त्वचा मास आदि में शोध हो जाता है । इन दो भेदो मे नव प्रकार के शोथो का समावेश हो जाता है--यथावातज - वित्तज कफज वातपित्तज, पित्तकफज, वातकफज, सन्निपातज ( निज प्रकार में ) तथा अभिघातज एव विपज ( आगन्तुक प्रकार मे ) । आधुनिक ग्रन्थों में भी शोथ के दो प्रकार पाये जाते है । निष्क्रियशोथ ( Passive Oedews ) तथा सक्रिय शोथ ( Active oedema or Inflammatary oedema ) सक्रिय शोथ को प्राचीन परिभाषा में व्रण शोध कहते है । दूसरे शब्दो में निष्क्रिय शोथ वा 'ईडिमा' को प्राचीनोक्त निजवर्ग में तथा व्रण-शोथ ( Inflammatary oedema ) को आगन्तुकवर्ग मे रखा जा सकता है । चरक के अनुसार शोफ के तीन भेद किये जा सकते है - १ सर्वाङ्गशोफ ( Generalised oedma ) - जब शोफ सम्पूर्ण शरीर में हो । २ अर्थाङ्गशोफ-आवे अङ्ग में शोफ का होना - ऐमा शोफ हृदय एव यकृत् की विकृति मे अधराङ्गगोफ अथवा वृक्क के विकारों में ऊर्ध्वाशोफ अधिकतर होता है । ३ एकाशोफ या एकदशोत्थित शोफ (Localised oedema ) । आगन्तुक कारणो से प्राय. एकदेशोत्थित शोफ होता है । इस प्रकार का शोक व्रणशो मे तथा श्लीपद में पाया जाता है । Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : सैतीसवाँ अध्याय ६०३ वाग्भट ने आकृतिभेद से भी गोथो के पृथु उन्नत एव ग्रथित भेद से तीन प्रकार किये है | साध्यासाध्यता एव चिकित्सा भेद की दृष्टि से भी शोथो का एक वर्गीकरण पाया जाता है । जैसे प्रादज शोथ-पैरो से शोथ का प्रारम्भ होकर सम्पूर्ण या आधे शरीर में फैल गया हो अथवा मुखज शोथ - मुख से शोथ का प्रारम्भ होकर सम्पूर्ण या आधे शरीर मे व्याप्त हो गया हो अथवा गुह्यज या उदग्ज शोथ, जो गुह्य स्थान या उदर से प्रारम्भ करके सम्पूर्ण या आधे शरीर मे व्याप्त हो । इन शोफो में उपद्रव होने पर पादज शोथ, जो प्राय हृदय के विकारो मे होता है । पुरुषो के लिये घातक होता है, मुखज शोथ, जो प्राय वृक्क विकारो मे पाया जाता है, स्त्रियो मे घातक होता है । गुह्यज शोथ अर्थात् गुह्य अङ्गो से शोफ का प्रारम्भ हुआ हो और उपद्रव युक्त हो, तो स्त्रीपुरुष दोनो को समान भाव से घातक सिद्ध होता है । " इसका कारण मर्माङ्गो का विकार ग्रस्त होना ही है पुरुषो मे हृद्रोग असाध्य होता है जिसमें पादज शोध पाया जाता है । स्त्रियो मे वृक्क रोग होने से उसके उपसर्ग का प्रभाव श्रोणिगुहा के विविध अङ्गो को शोथयुक्त करके श्रोणिगुहागत पाक प्रभृति साघातिक उपद्रव पैदा करके स्त्रियो के लिये विशेष रूप से घातक होता है । इनमे मुखज शोथ ही प्रारम्भिक लक्षण के रूप मे पैदा होता है । गुह्यज या उदरजशोथ क्षयज आन्त्रावृति शोफ (TB Peritonitis) या यकृद्दाल्युदरज जलोदर (Hepatic cirhosis ) मे पाया जाता है जो दोनो लिङ्गो के व्यक्तियो मे समान भाव से घातक सिद्ध हो सकता है । । शोफ की सम्प्राप्ति - रक्तवह सिरा की दृष्टि होने मे रक्ताभिसरण क्रिया में बाधा होने से शोथ रोग की उत्पत्ति मानी जाती है । प्राकृतावस्था में रक्तवह सूक्ष्म केशिकावो ( Arterial capillaries ) को दीवाल से पोपक पदार्थयुक्त रक्त रस स्रवित होकर तत्स्थानगत धातुवो का पोषण करता है, फिर वहाँ से त्याज्यपदार्थयुक्त वही रक्तरस सिरा सूक्ष्म केशिकावो ( Venous capillaries ) के द्वारा शोषित होकर उससे लेकर लोटता है और विविध विसर्जन अंगो द्वारा उसका निर्हरण करता है । इस प्रकार की क्रिया प्राकृतावस्था में चलती रहती है । जब किसी भी कारण से इस धातुगत रस के शोषण मे बाधा उत्पन्न होती है या स्रत रक्त रस अधिक होने लगता १. अनन्योपद्रवकृत शोथ: पादसमुत्थितः । पुरुष हन्ति नारीञ्च मुखजो गुह्यजो द्वयम् ॥ ( वा. नि १३ ) Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ भिपकर्म-सिद्धि है, तब धानुवो के संयोजक वातुवो में अधिक तरल का सचय होने लगता है और वहाँ उत्पध या उभार पैदा होता है इसी को गोथ कहा जाता है।' इस प्रकार के परिवर्तन मामान्यतया निम्नलिखित कारणो मे होते है जिनके परिणामस्वरूप गोथ रोग पैदा होता है । १ धातगत परिवर्तन-धानुबां में लवण जसे कतिपय पदार्थों के सचय हो जाने पर उनको घोलने के लिा अधिक जल को आवश्यकता पड़ती है और अधिक जल-मचर, गोय की उत्पत्ति होती है । २ रक्तगत विभिन्न संघटको का प्रभाव-इसम जल और नमक { Sodium chloride ) का अधिक महत्त्व है। शोथ की चिकित्मा मे जल और नमक का निपेव र देने ने गोय में निश्चित लाभ देखा जाता है। रन मे जल और लवण की अधिकता मे गाय अधिक बढता है। ३ रक्त र सगत 'प्रोटीन की कमी-जमा कि वृक्क विकारो मे शुक्लीमेह ( Albumainuria ) के कारण हीन पोपण से भोजन में प्रोटीन या जीवतिक्तियों ( Vit A & B ) की पर्याप्त मात्रा में न मिलना ( Femine oedema.) अथवा पाएदुरोग में रक्तगत 'प्रोटीन' गोणित वर्तुलि ( Haemoglobin ) का अत्यधिक मात्रा में कम हो जाना (अकुश कृमिजन्य पाएदुना या रक्ताल्पता मे ) गोय की उत्पत्ति होती है। ऐमा मानते है कि रक्त मे 'प्रोटीन' की मात्रा स्वाभाविक ७ प्रतिगत होनी चाहिए, जब यह मात्रा ५-५% से कम हो जाती है, आस्तृतीय सम्पीडन (Osmotic pressure) कम हो जाता है और वातुगत तरल का शोपण रक्तरम के द्वारा पूर्णतया नहीं हो पाता है, फलत धातुओ मे तरल या द्रव का सचय अधिक होने लगता है। जिसके परिणाम स्वरूप त्वचा मोर मास में उभार पैदा होकर गोय की उत्पत्ति होती है। ४ रक्तवह लोनगत भारवृद्धि हृदय रोग में रक्तसंचारगत वावा होने से गिरयो मे रक्तभार स्वाभाविक से बहुत अधिक हो जाता है। उससे गोपण कार्य में बाधा होने से तरल सचय होकर गोय पैदा होता है । ५ स्त्रवणक्षमता को वृद्धि-कई बार आगन्तुक कारणो मे अभिघातज अणगाय में या रोगों में रक्तवाहिनियो को त्रवण क्षमता ( Permeability १ वनपिनम्फान् वायदृष्टो दृष्टान् वहि मिरा । नीत्वा रुद्वगनिम्तहि कुर्यात्त्वट्माससंश्रयम् । उन्ध नहतं गोयं तमाहुनिचयादत ॥ (मा नि ) Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : सैतीसवां अध्याय of capillary epithelium ) बट जाती है। सामान्यतया सिरास्रोतो की भित्ति से केवल जारक (02) और जल या उसमे घुले हुए कुछ सीमित द्रव्य ही स्रोत से बाहर आते है और तत्रस्थ धातुओ का पोपण करते है, परन्तु जव 'प्रोटीन' भी रक्तरस के साथ वाहर आ जाती है, तब इस तरल के शोषण मे बाधा उत्पन्न होकर शोथ पैदा होता है । शोथ रोग मे सामान्य लक्षण-गुरुता ( भारीपन ), अस्थिरता (शोफ का एक स्थान पर मीमित न रहकर फैलना), उत्सेध ( उभार), उष्णता ( यह केवल व्रणशोथ मे मिलता है--सामान्य शोथो मे नही ), रक्तवाहिनियो का विस्फार, रोमाञ्च ( रोगटे का खडा होना) तथा वर्ण की विकृति ये सामान्य रक्षण एव चिह्न शोथ रोग मे पाये जाते है । सामान्य क्रिया-क्रम-आमज शोथ में लघन एव पाचन करे, अति वढे हुए दोप मे शोधन से उपचार करे । अर्थात् शिरोगत शोथ मे नस्य के द्वारा गिरोविरेचन, ऊर्ध्वगशोथ मे वमन तथा अधोग शोथ मे रेचन के द्वारा उपचार करे । यदि शोथ का उत्पादक हेतु अति स्नेहन हो तो रोगी का रूक्षण करे और यदि उत्पादक हेतु अति रूक्षण ज्ञात हो तो स्निग्ध क्रिया करनी चाहिए ।२ इस प्रकार शोथ गेग की चिकित्सा मे लधन, पाचन, वमन, विरेचन, आस्थापन तथा शिरोविरेचन प्रभृति क्रियाओ के द्वारा यथादोष एव यथावल उपचार करना उत्तम रहता है। विशिष्ट क्रियाक्रम-दोषानुसार विचार कर वातिक शोथ मे स्नेहपान एव कोष्ठबद्ध हो तो निरूहण (आस्थापन वस्ति ), पैत्तिक शोथ मे दूध एव घृत का उपयोग तथा श्लैष्मिक शोथो मे विरूक्षण की क्रिया करनी चाहिए। १ सगौरव स्यादनवस्थितत्व सोत्सेधमूष्माऽथ सिरातनुत्वम् । सलोमहर्पश्च विवर्णता च सामान्यलिङ्ग श्वयथो प्रदिष्टम् ॥ . (च चि १२) २ अथामज लघनपाचनकमविशोधनैरुल्वणदोपमादितः । शिरोगत शीर्पविरेचनरधोविरेचनरूप्रहरैस्तथोर्ध्वगम् ॥ उपाचरेत् स्नेहभव विरूक्षण. प्रकल्पयेत्स्नेहविधिञ्च रूक्षणे ॥ ३. स्नेहोऽथ वातिके शोथे बद्धविट्के निरूहणम् । पयो घृत पैत्तिके तु कफजे रूक्षणक्रमः ।। ४ लघन पाचन शोथे शिर कायविरेचनम् । वमनञ्च यथासत्त्व यथादोप विकल्पयेत् ।। Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ भिपकम - सिद्धि वातिकशोथ में दशमूल क्वाथ का सेवन या विवन्ध होने पर दूध में एरण्डतैल छोडकर पिलाना उत्तम रहता है । पैत्तिक शोथ में दूव का उपयोग उत्तम रहता है, त्रिवृत्, गुडूची एवं त्रिफला का सेवन उचित रहता है, शीतल उपचार अनुकूल पडते है | श्लैष्मिक नोथ मे उष्ण एव रूक्षोपचार विशेषत. पटोल, त्रिफला, निम्व, दारूहल्दी और गुग्गुलु का सेवन उत्तम रहता है । त्रिदोषज गोथ मे मिश्र उपक्रमों को वरतना चाहिए। रोगी को भोजन दूध के साथ देना चाहिए और ओवियो मे अदरक, मोठ, शिलाजीत या त्रिफला का प्रयोग करना चाहिए । पथ्यापथ्य - शोथ के उत्पादक कारणों का परित्याग करना चाहिये । एतदर्थ उउद, गेहें, नया अन्न, आनूपदेशज पशु-पक्षियों के मास, गुड, दधि प्रभूति गुरु पदार्थो का सेवन नही करना चाहिये । शोध रोग में अधिक जल का पीना या नमक का सेवन भी अनुकूल नही पडता है । अस्तु, इनका भी परिहार रोगी के लिये आवश्यक होता है । कई उष्ण एव तीक्ष्ण द्रव्य जैसे - मद्य का सेवन, गर्म मसाले या सटाई का सेवन, मिट्टी का खाना, तैल एव सृखे लाल मिर्च का सेवन इसी प्रकार सूखे मास या शाक, दिवास्त्राप ( दिन का सोना ) तथा भी शोध रोगीको अनुकूल नही पडता है । विरुद्व आहार, दाहकारक भोजन, वेगावरोध, मैथुन भी शोथरोगी को प्रतिकूल पडता है । अस्तु, रोगी को पूर्ण विश्राम के साथ रखना चाहिये । परिश्रम मे शोथ वढता है और विश्राम करने से शमन होता है । भोजन में हल्के एव सुपाच्य आहार की व्यवस्था करनी चाहिये । सव से उत्तम आहार गर्म करके ठंडा किया दूध रहता है | जब तक शोथ अधिक हो रोगी को दूध के अतिरिक्त कुछ भी न दे । भूक लगे तो दूब, प्यास लगे तब भी दूध ही देना चाहिये । लवण एव जल का पूर्णतया निपेध रखना चाहिये । यदि तृपा की अधिकता हो तो सोफ, काकमाची, पुनर्नवा या जेवायन का अर्क पीने को देना चाहिये । नारियल का जल या डाव का पानी भी ठीक रहता है । जव शोफ का शमन हो जावे तो रोगी को दूध के साथ हल्का भोजन देना चाहिये । जन को खोलकर ठंडा करके या पुनर्नवा मे शृत कर के देना चाहिये, भोजन मे पुराना चावल, जो, कुल्थी, मूग, मट्टा, शहद, आमव सेम की फली, करेला, गहजन, परवल, खेखया, गाजर, मानकेंद, बेगन, मृली, पुनर्नवा, नीम आदि द्रव्यों का सेवन उत्तम है। मांसाहारी व्यक्तियों में प्रारभ में ही दूध के साथ या वाद में भोजन के साथ मासरसो का उपयोग शोथ रोग में उत्तम रहता है | इसके लिये हल्के मासरम अर्थात् जागल पशु पक्षियों के मामरन जैसे- गोह, नेह, तीतर, मुर्गा, बटेर, छोटी जाति की मछत्री या कच्छप मानरम या जाङ्गल पशु पक्षियों के मामरन दिये जा सरते हैं । Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०७ ना चतुर्थ खण्ड : सैतीसवाँ अध्याय शोथ रोग में दोपनिरपेक्ष सामान्य औपधियां पुनर्नवा-शोथ रोग मे यह एक रामवाण महौषधि है । इसका स्वतत्र तथा योगो के रूप मे शोथ रोग मे भूरिश प्रयोग होता है। जैसे-पुनर्नवाष्टक पाय, पुनर्नवादशक कषाय, पुनर्नवादि चूर्ण, पुनर्नवारिष्ट, पुनर्नवासव, पुनर्नवादि तैल तथा पुनर्नवामण्डूर आदि । गोमूत्र-मर्व प्रकार के शोथ मे चाहे वह यकृत् विकार या हृद्विकार, वृषाविकार से उत्पन्न हुआ हो सब मे लाभप्रद रहता है। इसको स्वतत्र खाली पेट पर एक छटाक की मात्रा में प्रात काल मे रोगो को पीने को देना चाहिये अथवा विफला कपाय में मिलाकर देना उत्तम काय करता है। गुग्गुलु-पुनर्नवा, देवदारु और गुठी के काढे के साथ १-२ माशा की मात्रा में गुग्गुलु का सेवन अथवा गोमूत्र के साथ गुग्गुलु का सेवन शोथ मे उत्तम रहता है। पुननेवादि गुग्गुलु-पुनर्नवा, देवदारु, हरे, गुडूची इनको समभाग लेकर २ तोले को ३२ तोले जल मे सौलाकर ८ तोले शेप रहने पर उसमे गोमूत्र २ तोले और शुद्ध गुग्गलु २ माशा मिला कर सेवन । मानकंद-मानकद का स्वरस या दूध मे पकाकर मानकद का प्रयोग अथवा मानकद सिद्ध घृत का उपयोग भी शोय रोग मे लाभप्रद होता है। माणक घृत-मानकद २ सेर लेकर १६ सेर पानो मे खौलाकर ४ सेर रहे तो उतार कर छान ले फिर इस स्वरस मे १ पाव मानकद कल्क, घत १ सेर मिला कर यथाविधि अग्नि पर चढा कर मंद आच से पकावे । यह सान्निपातिक शोथमे भी लाभप्रद है । साना १ तोला गाय का दूध डाल कर पिलावे । अदरक, सोंठ, हरड़ एवं पिप्पली गुडाईक, गुडशुण्ठी, गुडाभया अथवा गुडपिप्पली योग शोथ रोग मे स्वनामख्यात है। अदरक का रम ६ माशे से १ तोला लेकर उस मे पुराना गुड २ तोला मिला कर सेवन करने से और आहार मे केवल बकरी का दूध पीने से थोडे दिनो मे ही शोथ रोग से मुक्ति हो जाती है। गुड और अदरक या गुड और हरड का चूर्ण या गुड और पिप्पली का चूर्ण इन चारो योगो मे से किसी एक का एक एक तोले का मोदक बना लेना चाहिये । “मोदके द्विगुणो गुड" अर्थात् चूर्ण से द्विगुण पुराना गुड इस मोदक मे रखना चाहिये । एक मोदक से प्रारभ कर के प्रतिदिन एक एक वढाते हुए तीन पल या १५ तोले तक बढावे, फिर एक एक क्रमश कम करते हुए एक Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० भिपकम-सिद्धि मोदक पर मा जाना चाहिये । इस प्रकार एक पक्ष अथवा एक मास तक इस योग के सेवन करने से गोथ, प्रतिश्याय, गले के रोग, श्वास, कास, अरुचि, पीनल, जीर्णज्वर, अर्ग, मंग्रहणी तथा अन्य कफ एव वायु के रोग गान्त होते है। विल्व पत्र स्वरस-या निम्ब पत्रस्वरस-नीम की पत्तो का रस या वेल की पत्ती का रस १ तोला उममें काली मिर्च का चूर्ण १ मागा मिला कर सेवन करने से गोथ, विवव, अर्श एव कामला में लाभ होता है ।२ देवदारु-केवल देवदारु से सिद्ध क्षोर का सेवन अयवा देवदारु और त्रिकटु के योग से पकाया दूध अथवा देवदार, गुग्गुलु, सोठ, चित्रक की हाल और पुनर्नवा के योग से पकाया या शृत दूध शोथशामक होता है । भूनिम्व-चिरायता और शुण्ठी का चूण प्रत्येक २ माशे भर लेकर खाकर ऊपर मे पुनर्नवा का क्वाथ पीने से सर्दाङ्ग गाफ के रोग में उत्तम लाभ होता है। स्थलपद्म-केवल स्थलपद्म के कल्क को दूध के माय सेवन करने से गोय रोग मे लाभ होता है । स्थलपद्म से निम्नलिखित द्रव्यो मे से किसी एक का ग्रहण किया जा सकता है-जैसे- सेवती, गुलदाउदी, नेपाली, वकुल या कदम्ब का फूल । स्थलपद्म से 'मोलट कम्बल' का भी ग्रहण होता है । प्रयोग करके देखना चाहिए । स्थलपद्म घृत का भी योग भपज्य रत्नावली में पठित है । कोकिलाक्ष-तालमखाना का उपयोग भी गोथ रोग मे उत्तम रहता है। इमका कपाय या पौदे को जलाकर उसकी राख बनाकर २ माशे की मात्रा मे गोमूत्र या दूध के साथ देना चाहिये । अपामाग-क्षारीय द्रव्य गोथ में उपयोगी होते है । फतल अपामार्ग स्वरस या क्ल्क का उपयोग भी शोथ में लाभप्रद रहता है। अपामार्ग के अतिरिक्त तालमखाना, मूली, निर्गुण्डी आदि का भी प्रयोग शोथ में होता है।। मण्डूर तथा लोह-मराडूर अथवा भस्म का उपयोग स्वतंत्रतया या किसी योग के रूप में करना शोथ रोग में लाभप्रद होता है। इसके कई योग बड़े उत्तम है जैसे-पुनर्नवामण्डूर, शोधारिमण्दूर, तारामण्डूर, रसाश्रमण्डूर, शोथारि लोह, विकटवादि लौह एव नवायस आदि । १ गुडाद्रकं वा गुडनागर वा गटाभया वा गुडपिप्पलो वा । भिवृद्वचा त्रिपलप्रमाण खादेन्नरः पक्षमथापि मासम् ।। घोचप्रतिश्यायगलास्यरोगान् मन्वासकासातचिपीनसादीन् । जीणज्वराोरहणीविकारान हन्यात्तथान्यान् कफवातरोगान् ॥ ( च द ) २ निम्बपनग्नं पातु (वित्वपत्ररसं पात) सोपण श्वयथी विजे । विट्मगे चैव दुर्नान्नि विदध्यात् कामलासु च ॥ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड: सैतीसवाँ अध्याय विप प्रयोग-शोथ रोग मे धतूर, अहिफेन या विजया का भी उपयोग उत्तम रहता है--इसके कई योग दुग्धवटो, क्षोग्वटी, तक्रवटो आदि के उपयोग बडे उत्तम प्रमाणित होते है। योग-कपाय ५ पुनर्नवाष्टक कपाय-पुनर्नवा मूल, नीम की छाल, परवल के पत्ते, सोठ, कुटका, गुडूत्रो, देवदारु और हरीतको-समभाग मे लेकर जौकुट कर २ ताले द्रव्य को ३२ तोले जल मे खौलाकर ८ तोले शेप रखकर मधु के साथ पिलाना । यह एक अत्यन्त उपयोगी योग है जिसका सर्वाङ्ग शोफ, जलोदर, हृद्रोग, श्वामकृच्छ एव रक्ताल्पत्व में विश्वास के साथ उपयोग किया जा सकता है।' इस कपाय मे गोमूत्र-मिलाकर पीने से अधिक लाभ होता है । चूर्ण-पुनर्नवादि चूर्ण-पुनर्नवा, देवदारु, हरड, पाठा, पक्व बिल्वफलमज्जा, गोखर, छोटी कटकारी की जड, बडो कटेगे, हल्दी, दारुहल्दी, छोटो पीपल, गजपोपल, चित्रक की छाल, अडूमा को जड । समभाग मे लेकर बना चूर्ण । मात्रा ३-६ माशे । अनुपान गोमूत्र एक छाक । मुत्रल कपाय-शोथ रोग में मूत्र का साफ न होना प्राय पाया जाता है। इम अवस्था मे मूत्र को माफ ले आने के लिये मूत्रल पाय की आवश्यकता पडतो है । मूत्रल कपाय का वर्णन मूत्रकृच्छ्राधिकार में किया जा चुका है, उस का उपयोग इम अवस्था में करना उत्तम रहता है। स्थल पद्म, तालमखाना और अपामार्ग शोथन एवं मूत्रल है। आसव-पुननेवासवत्रिकटु, त्रिफला पृथक् पृथक्, दारु हरिद्रा, गोखरू, छोटी बड़ी दोनो कटेरी पृथक पृथक्, अडूना, एरण्ड मूल, कुटकी, गजपोपल, पुनर्नवा, नीम की छाल, गिलोय, सूखी मूली, जवासा, पटोलपत्र प्रत्येक का जौकुट चूर्ण पांच-पांच तोले, धाय का फूल १ सेर, मुनक्का ११ सेर, शर्करा ६। सेर, उत्तम शहद ३ मेर २ छटांक, जल ३२ मेर लेकर सवको एक घृत से स्निग्ध भाण्ड मे भरकर सधिवधन करके एक मास तक जी के भूसे के ढेर मे रख देवे । १ महीने के पश्चात् छानकर मर्त्तवान मे भर देवे । पुनर्नवामव-शोथ, उदर रोग, प्लोहावृद्धि, यकृवृद्धि, गुल्म आदि को नष्ट करता है। मात्रा २ तोला वरावर पानी मिला कर भोजन के बाद दोनो वक्त । १ पुनर्नवानिम्बपटोलशुठोतिक्तामृतादार्वभयाक्पाय । सर्वाङ्गशोथोदरपावशूलश्वासान्वितं पाण्डुगद निहन्ति । ३६ भि० सि० - Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपक्कर्म-सिद्धि ६१० रस के योग त्रिनेत्र रस - गुद्ध सुहागा, ताम्र भस्म, लोह भस्म, गुद्ध पारद और शुद्ध गंवक | प्रथम शुद्ध पारद और गुद्ध गन्धक को कज्जलो वनावे | पश्चात् गेप द्रव्यों को मिलाकर अदरक के रस की भावना देकर टिकिया बनाकर गराव सपुट में वन्दकर के लघुपुट में एक च दे । सात्रा ४ रत्तो से एक माशा । अनुपान मधु से चटाकर ऊपर से एरण्डमूल और अपामार्ग का काढा बनाकर पिलावे । दुग्धवटी - वटी के कई योग भैषज्यरत्नावली के शोधाधिकार ने पाये जाते हैं— जैसे - कल्पलता वटी, दुग्ध वटी, क्षार वटी, तक्र वटी, वैद्य वटी या दवि वटी । यथानाम दुग्ध या तक्र पर रोगी को रखकर इन वटियो का प्रयोग किया जाता है। रोगी के लिए जल और ननक प्रयोगकाल मे पूर्णतया निपिद्ध रहता है । वालको के गोय रोग से दुग्ध वटी अनुपम लाभ दिखलाती है । अतिसार के वाद होनेवाले गोफ में यह वटी उत्तम कार्य करती है । वृक्क विकारजन्य गोफो में इम्का उपयोग श्रेष्ठ रहता है । यहाँ पर एक चीर वटी का पाठ उद्धृत किया जा रहा है। इनके घटको में धतूर, अहिफेन एवं विजय भी है । शुद्ध हिंगुल १ तोला, लबज चूर्ण, शुद्ध अफीम, शुद्ध वत्सनाभ, जायफल और धतूरे का शुद्ध बीज प्रत्येक ई-ई तोला लेकर खरल में डालकर अत्यन्त महीन चूर्ण करले । फिर सांग के व्वाथ के साथ भावना देकर मूंग के बरावर की गोलियाँ बनाले ओर छाया में सुखाकर शीशी में भर ले | दूध के अनुपान से चटी का एक एक कर के दिन में चार बार उपयोग करे, भोजन में दूध ही रोगी को पिलावे | यदि भूख बहुत लगे तो पुराना चावल या जो अथवा गेहूँ को ढलिया दूध के साथ दे | गोथ रोग में यहो प्रयोग विधि है । यदि ग्रहणी के रोगी को देना हो तो विजया क्वाय के अनुपान से देना चाहिए। मात्रा १-२ रत्ती । पुनर्नवा मण्डूर- इसका योग पाण्डुरोगाधिकार में दिया जा चुका है । शोध रोग में भी यह एक उत्तम बोपधि हैं | रसाभ्र मण्डूर—शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म तथा पारद दो-दो तोला, मण्डूर भस्म एवं ह्रड का चूर्ण आठ-आठ तोले, बिलाजीत १ तोला, कान्त लौह भस्म १ तोला । प्रथम पारद और गन्धक को खरल में मिलाकर कज्जली करें फिर नेप द्रव्यों को मिलाकर खरल करे । पश्चात् भृङ्गराज, केगराज, निर्गुण्डी, मानकन्द का यथालाभ स्वाय या स्वरस १-१ सेर लेकर पृथक-पृथक सूर्यताप में घोटते हुए मुत्रावे | फिर उसमें त्रिकटु, त्रिफला, व्य और नागरमोथे का चूर्ण पृथब्-६६ सवा-नवा तोले मिलाकर ४ तोले गहद और २ तोले Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६११ चतुर्थ खण्ड : अड़तीसवाँ अध्याय गोघृत मिलाकर मर्दन करके मृतवान में भर दे। मात्रा-१ से २ माशा। यह शोथ मे एक उत्तम योग है। शोथारि लौह-लौह भस्म ४ तोला, सोठ, मरिच, पीपरि तथा यवक्षार एक-एक तोला भर लेकर परस्पर मे मिश्रित करके खरल करके रख ले। मात्रा२-४ रत्ती । अनुपान-त्रिफला क्वाथ । शोथ में बाह्यप्रयोग दोपनलेप-पुनर्नवा, देवदारु, सोठ, सफेद सरसो और सहिजन की छाल इनका कपडछन चूर्ण करके मकोय के रस में पीस करके लेप करना शोफ का गामक होता है। शुष्कमूल्याद्य तैल-सूखी मूली, दशमूल, पिपरामूल तथा पुनर्नवा एक एक सेर लेकर जौकुट करके ३२ सेर जल मे खौलाकर आठ सेर शेष रखे । फिर इमे छानकर उनमे तिलतल २ सेर, गोमूत्र २ सेर लेवे और सूखी मूली, गिलोय, सोठ, पटोलपत्र, पिप्पली, बलामूल, पाठा, पुनर्नवा, नेत्रवाला, खम, सहिजनपत्र, निर्गुण्डीपत्र, भाग, श्यामलता, करज की छाल, अडूसे की पत्ती, हरड, पिप्पली, वच, पुष्करमूल, रास्ना, वायविडङ्ग, चव्य, हल्दी, दारुहल्दी, धनिया, स्वर्जिका क्षार, यवक्षार, सैधव, देवदारु, पद्मकाष्ठ, कचूर, गजपीपल, पक्व विल्वमज्जा, मजीठ इनमे प्रत्येक २ तोला लेकर पत्थर पर पीसकर कल्क बना ले। अग्नि पर तैल का पाक करे । इस तेल का अभ्यग शोथ मे लाभप्रद रहता है। पुनर्नवादि तैल-पाण्डु रोगाधिकार में इस योग का उल्लेख हो चुका है। गोथ रोग मे इस तेल का अभ्यग भी लाभप्रद रहता है। अड़तीसवाँ अध्याय श्लीपद प्रतिषेध परिचय-जिस रोग मे पैर शिला के समान स्थूल एव कठोर हो जाय उसको श्लीपद कहते है। अथवा धोरे-धीरे होने वाले धने शोथ को श्लीपद कहते हैं। वस्तुत लसीकावाहिनियो का अवरोध होकर किसी भी स्थान की त्वचा मे शोथ होकर श्लोपद हो सकता है। किन्तु मुख्यतया या सर्वाधिक पैरो मे इसकी उत्पत्ति होती है अत श्लीपद कहलाता है। अन्यथा हाथ, कान, नाक, ओष्ठ, पुरुष जननेन्द्रिय, वृपण या स्त्रियो के भगोष्ठ आदि मे भी श्लीपदकृत शोथ हो सकता है। Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपक्कर्म-सिद्धि ६१२ इस रोग की ममता आधुनिक दृष्टि मे Filariasis or Elephantiasis रोग मे है | इसकी उत्पत्ति रूप में आधुनिक विद्वान श्लीपदाणु कृमि ( Microfilaria Bancrofty ) को हेतु मानते है । ये कृमि एक विशिष्ट जाति के मच्छरी (Culex Falgans) के काटने से मनुष्य शरीर में प्रविष्ट हो जाते है । शरीर में प्रविष्ट होकर लसीका वाहिनी, रसकुत्या एव लसीका ग्रंथियों में अपनी वृद्धि करके लमीत्रा वाहिनियों में अवरोध पैदा करते है। इस प्रकार स्थानीय लमिका-मंचय से क्रमण सूजन प्रारंभ हो जाती है । जो आगे चलकर गिला या पत्थर के समान कठोर हो जाती है । सर्वप्रथम लसीका ग्रंथि में सूजन होती है-गोय का परिणाम स्वरूप ज्वर होता है जो प्राय शीत के साथ होता है और दो-चार दिनो तक बना रहता है फिर क्रमश पूरे अग में सूजन हो जाती है । फिर रोग का दौरा चला जाता है, सूजन भी कम हो जाती है, परन्तु कुछ सूजन शेप रह जाती है । रोग का पुनः पुन आक्रमण होता रहता है-ज्वर, लसीका ग्रंथियो का फूलना ओर अंग का सृजन बार-बार होता रहता है। हर दौरे में कुछ न कुछ सूजन गैप रहती चलती है । इस तरह वर्ष में कई दौरे आने के फल स्वरूप उस अग विशेष मे पत्थर जैसी बनी सृजन होकर श्लीपद नामक रोग का स्वरूप प्राप्त हो जाता है । पैर के श्लीपद में सर्वप्रथम वक्षण प्रदेश की लसीका ग्रथियां सूज जाती है, रोगी को ज्वर आता है, इसमें पीड़ा भी रहती है । पुन. यह सूजन करु, जानु, जंघा में होते हुए नीचे की उत्तर कर पैर में पहुँच जाती है। रोग की यही मम्प्राप्ति प्राचीन ग्रंथकारो ने बतलाई है ।' श्लीपद रोग में दो विशेषतायें प्राचीनो ने बतलायी है, प्रथम यह है कि यह देगज अर्थात् आनूपदेगज रोग ( Endemic Disease ) है - अन्तु यह रोग सर्वत्र नही प्राप्त होता बल्कि "पुराने जल मे सदा भरे रहने वाले तथा सव ऋतुओ मे शीतल रहने वाले देशों में श्लीपद रोग विशेषतया उत्पन्न होता है ।" दूसरी विशेषता यह है कि "सभी प्रकार के श्लीपद कफ की अधिकता से होते है, क्यो कि मोटापन और भारीपन तथा अवरोध कफ के बिना नहीं होता है ।" इन दोनो विशेषताओ का ध्यान रखते हुए कफघ्न उपचार श्लीपद में लाभप्रद रहता है | १. यः सज्वरो वक्षणजी भृशात्ति गोफो नृणा पादगत. क्रमेण । तच्छुलीपद स्यात्करकर्णनेत्र मिग्नीष्टनामास्वपि केचिदाहु ॥ २. श्रीण्येतानि विजानीयाच्छ्लीपदानि कफोच्छ्रयात् । गुरुत्वं च महत्त्वच यस्मान्नास्ति कफाद्विना ॥ ( मा नि ) Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ चतुर्थं खण्ड : अड़तीसवाँ अध्याय ६१३ साध्यासाध्यता-श्लीपद एक कृच्छ साध्य रोग है, नया रोग जो एक वर्ष कम का हो ठोक हो जाता है । पुराना रोग, जो एक वर्ष से अधिक समय का हो, अथवा जिसमे सूजन अत्यधिक कडो हो गई हो और अंग अतिशय मोटा पड गया हो, अथवा सूजन मे वल्मीक के समान उभार या गाँठे पड गई हो प्राय असाध्य हो जाते है। क्रिया क्रम-श्लीपद रोग की चिकित्सा मे लंघन, वमन, आलेपन, स्वेद, रेचन, शोणितमोक्षण ( रक्कावसेचन) तथा कफघ्न अन्य उपचारो की आवश्यकता पडती है।' लंघन-श्लोपद कफज व्याधि होती है फलत उपवास या लघु भोजन करना श्रेष्ट रहता है । उपवास की विशेष विधि वैद्य-परम्परावो मे इस रोग मे बरती जाती है । जब रोग के आक्रमण का काल हो तब तो रोगी को पूर्ण लघन करना ही चाहिये, परन्तु आक्रमण के अनन्तर या अवान्तर काल मे उपवास कुछ विशेष तिथियो पर ही करना चाहिये । इन तिथियो में महत्त्व की-मास की दोनो एकादशी, अमावास्या, पूर्णिमा तथा दोनो प्रतिपद एव दोनो अष्टमी तिथिया है। ऐसा देखा जाता है कि इन तिथियो मे कफाधिक्य प्रकृति मे पाया जाता है । अस्तु, रोग के दौरा होने की भी सभावना भी इन तिथियो मे अधिक रहती है। अमावास्या अथवा पूर्णिमा की तिथियो के समीप की तिथियो मे रोग का दौरा होना प्राय पाया जाता है। अस्तु, एकादशी, अमावस्या और पणिमा तिथियो का ध्यान रखते हुए रोगी को उपवास कराने से रोग के दौरे से रोगी को बचाया जा सकता है। यदि व्यक्ति पूर्णतया उपवास न कर सके तो दिन मे एक बार भोजन करे, रात्रि मे विलकुल भोजन न करे, भोजन मे चावल, दही आदि का सेवन न कर के हल्का भोजन- दूध, फल या शाक पर रहे। पूर्णिमा के दिन चद्रमा पूर्ण रूप से उदय लेते है-समुद्र मे जल का वेग प्रवल होता है, ज्वार का वेग रहता है, सभवत इसका प्रभाव सम्पूर्ण प्रकृति पर होकर कफाधिक्य स्वभावतः पाया जाता है फलत कफवर्धक उपक्रम आहारादि का सेवन रोगी के लिए प्रतिकूल पडता है । इस रोगी की एक विशेषता रात्रि के सम्बन्ध का होता है-रोग का दौरा सायकाल के पश्चात् रात्रि में प्राय होता है--क्योकि दिन की अपेक्षा रात्रि मे कफ की अधिकता प्राय पाई जाती है, रात्रि के कफाधिक्य से बचने के लिए रोगी को अधिक रात्रि मे भोजन न देना ( Late night's १ लघनालेपनस्वेदरेचन रक्तसेचन । प्राय श्लेष्मरुष्ण श्लीपदं समुपाचरेत् ।। प्रच्छर्दन लघनमस्रमोक्ष स्वेदो विरेक परिलेपनञ्च ॥ (भै र.) Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ भियकर्म-सिद्धि meals ) भी प्रशस्त रहता है अस्तु, ग्लीपद रोगियों में सूर्यास्त के पूर्व तक हो, नायाह्न भोजन की व्यवस्था करनी उत्तम रहती है। क्वचित् सायाह्न भोजन समय से न मिल सके और निगीथ हो जाये तो रोगी को दूध पीकर ही रह जाना अनुकूल पड़ता है। इस प्रकार कलीपट में लंघन सर्थात् विधिपूर्वक उपवान व्रत तथा लघु भोजन की व्यवस्था करनी चाहिये । कहा भी है "लंघनं लघुभोजनम् ।" * बाधुनिक वैज्ञानिको के विचार से श्लोपट रोग एक विशेष प्रकार के अणुकृमियों के कारण पैदा होता है। प्राचीन प्रयकार कृमियो की उत्पत्ति में कारण ग्लेप्मा दोप, श्लैष्मिक माहार-विहार को मानते है। अस्तु, कफनाशक आहारविहार श्लीपद रोग में सदैव अनुकूल पडता है। एतदर्थ रोगी को नया अन्न, अधिक चावल, दही, गुड, उड़द, अम्ल पदार्थ, मछली, बैगन, तिल, गुड, कुष्माण्ड, मलाई, रवडी, मिष्टान्न, मानूप देशज मास, आनूप देश का वास, नदी जल या कच्चे जल का सेवन, अन्य 'पिच्छिल, गुरु एव अभियंदो माहारो का त्याग करना चाहिये। लीपदी को भोजन में पुराना अन्न, जी, गेहूँ, कुलथी, मूंग, चने एवं रहर की दाल, परवल, सहिजन, करेला, वास्तूक, पुनर्नवा प्रभृति-~-कटु, तिक्त और दोपन द्रव्यो का भोजन में प्रयोग करना चाहिये । शाक भाजी कडवे तैल (मर्पप तेल) में मिर्च एवं गरम मसालेदार भोजन एवं लहसुन और प्याज का प्रचुर मात्रा में उपयोग करना चाहिये । लोपद रोग में लहसुन एक उत्तम द्रव्य है। गोमूत्र का सवन भी उत्तम माना जाता है। एरण्ड तेल का प्रयोग रोगी में बीच बीच में फरत रहना चाहिये जिससे विवध न रहे और रोगो की कोष्ठगुद्धि होती रहे ।' श्लीपद रोग में जल के दोपा से बचाने के लिये पंचकोल चूण का उपयोग १-२ मागा की मात्रा में भोजन में छिडक कर करना चाहिये। ग्लीपद गेग यातूप देगज व्याधि है अर्थात् एक विशेष प्रकार के भूखण्ड में पाई जानेवाली व्याधि है, बम्नु, इसमे जल-वायु या देश के परिवर्तन में पर्याप्त लाभ की आगा रहती है। यदि देश-परिवर्तन संभव न हो तो रोगी की एमी व्यवस्था करनी चाहिये, जिसमें जल दोप रोगी को न होने पाये इसलिये पंचकोल चूर्ण थोडी मात्रा में भोजन और पेय के साथ मिलाकर देने से जल दोप नहीं होने १ पुरातना. पष्टिकशालयश्च यवाः कुलस्य लगुन पटोलम् । एरएटतल सुरभीजलञ्च कति तिक्तानि च दीपनानि । एतानि पथ्यानि भवन्ति पुंमा रोगे सति इलीपदनामवेये । ( यो. र ) पिवेत्सर्पपतलं वा दलीपदाना निवृत्तये ।। (सु) Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : अड़तीसवाँ अध्याय पाता है। लहसुन, प्याज, गोमूत्र आदि का सेवन भी ऐसा ही कार्य करता है। वमन-श्लोपद कफज व्याधि होने से वीच बोच मे रोगी का वमन ( मास मे एक या दो वार ) कराने से उत्तम लाभ होता है। इसके लिये सोये का वीज, मूली का बीज पानी से पीसकर तीन-तीन माशे की मात्रा मे देना चाहिये । अथवा पटोलपत्र, निम्बपत्र, मदनफल और सैधव प्रत्येक तीन माशे पानी से पीसकर पानी में घोल बनाकर पिलाना चाहिये अथवा कषाय बनाकर मधु के साथ पिलाना चाहिये । वमन कराने से कफ दोप का निर्हरण होकर रोग मे लाभ को सभावना रहती है। लेप एवं स्वेद-श्लीपद रोग मे हाथ, पैर आदि अगो की सूजन को दूर करने के लिये कई लेप बडे प्रशस्त है । धस्तूरादि लेप-धतूरे की पत्ती या जड, एरण्ड मूल, निर्गुण्डी, पुनर्नवा की जड, सहिजन की छाल, समान भाग मे लेकर काजी के साथ पीसकर, जलसे पीसकर या गोमूत्र से पीसकर उसमे सरसो का तेल मिलाकर गर्म करके मोटा लेप शोथयुक्त अग पर करन से सूजन शीघ्रता से कम हो जाती है। यह एक सिद्ध योग है। २ श्वेत अर्फ की मूल की छाल को लेकर काजी के साथ पीसकर लेप करना चाहिये । ३ चित्रक, देवदारु, श्वेत सर्पप एव सहिजन की छाल का समभाग लेकर काजी से पीसकर लेप करना भी उत्तम है। काजी के स्थान पर गोमत्र में भी पीसकर गर्म करके लेप किया जा सकता है । ४ मदनादि लेप-~मदनफल और समुद्रलवण दोनो को एक एक तोले लेकर १ तोले मोम और तोन तोले भैस के घी के साथ मिश्रित कर के अग्नि पर सतप्त कर के लेप करने से पुराने श्लीपदजन्य त्वक्-वैवर्ण्य एव विदार एक सप्ताह के उपयोग से ठीक हो जाते है। ५ विडङ्गादि तैल-वायविडङ्ग, काली मिर्च, अर्क मूल, सोठ, चीते की - जड की छाल, देवदारु, एलवा तथा पाचो नमक प्रत्येक एक-एक तोला लेकर पानी से पीस कर कल्क बना ले। इस कल्क से चतुर्गुण तिल या मर्पप तैल अर्थात् ४८ तोले और तेल से चतुर्गुण जल अर्थात् १९२ तोले पानी मिला कर अग्नि पर चढाकर मद आच से पकावे। इस तेल का श्लोपद रोग मे अभ्यग १ धस्तूरै रण्डनिर्गुण्डीवर्षाभूशिग्रुसर्पपै । प्रलेप श्लोपद हन्ति चिरोत्थमपि दारुणम् ।। Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भियम-सिद्धि उत्तम रहता है। पीने में भी इस तेल का उपयोग हो सकता है। मात्रा १-२ तोला। ६. श्लीपदगन खुजली को बान्त करने के लिये मक्खन और मधु का लेप उत्तम रहता है। कांजी एव नरसो के तेल का लेप गत-कफज वेदना को कम करता है। ब्लीपद में पिनाधिक्य होने पर दाह के यमन के लिये संजिष्ठादि लेप-मजीठ, मुलेटी, रास्ना, हंस की जड और पुनर्नवामूल इमको समभाग में लेकर काजी के माथ पीस कर लेप करना चाहिए । विविध प्रकार के श्लीपदो में भी इस लेप का उपयोग किया जा सकता है। - रेचन-उलीपद रोग मे कोप्टनुद्धि होती रहे। रोगी में विवध न हो इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए । एतदर्थ त्रिफला, हरीतकी चूर्ण, मध्यप्टोचूर्ण, नमल्ताग, गोमूत्र तथा एरण्ड तेल का प्रयोग रोगी में करना चाहिये । १. लीपद के दौर में त्रिफला कपाय बनाकर उसमें २॥ तोला गोमूत्र मिलाकर दिन में एक-दो बार देना उत्तम होता है । इलीपदजन्य अण्डबृद्धि म यह एक उपयोगी योग है। २ गोमूत्र में भिगोयी हुई या पकाई हुई हरीतकी को एरण्ड तैल में भूनकर चूर्ण बनाकर ३ माशे की मात्रा में स्वतंत्र या मेंधा नमक मिला कर चूर्ण बना कर मिथित ४ मागे की मात्रा में जल के साथ या गोमूत्र के अनुपान के साथ नित्य मेवन करने से इलीपद रोग में वडा ही उत्तम लाभ देखने को मिलता है। इस योग का उपयोग विविध प्रकार को बण्डवृद्धि, मात्रवृद्धि तथा श्लीपद में दृढता पूर्वक किया जा सकता है । प्ठीला वृद्धि ( Enlarged Prostate ) मे जो प्राय वृद्धिावस्था में पाया जाता है इस हरीतकी योग मे उत्तम लाम होता है । रक्तावलेचन या शोणित मोक्षण-लीपद में निरावेध का वडा माहात्म्य चिक्मिा में बनलाया गया है। वातिक ग्लीपद मे यदि पैर का हो तो गुफवि के ऊपर वाली मिरा का वेप, पत्तिक श्लोपट में गुल्फ की अध सिरा का वध और श्लंटिमक दलीपट में क्षिप्रमर्म को बचाते हा दगुट के समीप की निगवेब मरने की विधि बतलाई गई है। १ त्रिफलाक्याथगोमनं पिवेत्रातरतन्द्रित । व फवातोनवं हन्ति स्वययु वृष्णोस्थितम् ।। • गोमूत्रमिद्धा न्युतलभृष्टा हरीतरी मैन्धवचूर्णयुक्ताम् । सादेन्नरः कोप्टन लानुपाना निहन्ति बृद्धि चिरजा प्रवृद्धाम् ।। गंधर्वलभृष्टा हरीतकी गाजलेन यस्तु । पिबति स्लीपदबन्धनमुनो भवति हि स मप्तरात्रेण ।। -- -- Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : अड़तीसवाँ अध्याय ६१७ आज कल शिरावेध का कार्य प्रचलित नहीं है - यह एक शोध का विषय है । इस दिशा मे इगित मात्र करना ही लक्ष्य है | ओषधि - श्लीपद रोग मे सशमनार्थ बहुत प्रकार की ओपधियो का व्यवहार होता है और ये सभी दृष्टफल भी है । १ दारु हरिद्रा एवं रक्त चंदन- इन दोनो औषधियो मे से किसी एक का या दोनो को समभाग में लेकर कपाय बना कर २ तोले द्रव्य, ३२ तोले जल मे खोलाकर ८ तोला शेप रख कर मधु के साथ सेवन । यह परम उत्तम योग हैं । - २ सर्षप तैल- - का स्वतंत्र १ तोले की मात्रा मे पीना | लम्बे समय तक प्रयोग करने से श्लीपद रोग से निवृत्ति होती है । सर्षप तेल का बाह्य प्रयोग अभ्यग के रूप में या सर्पप बीज का लेप भी उत्तम रहता है । I ३. पूतिकरंज - डिठउरी की पत्ती का रस ६ माशे से १ तोला स्वतन्त्र या सर्पप तेल में मिला कर सेवन । ४. पुत्रजीवक - स्वरस का भी उपर्युक्त प्रकार से सेवन लाभप्रद रहता है । वृद्धदारुक - विधारे के वीज या छाल का चूर्ण ३ माशे की मात्रा मे - १६ छटाक गोमूत्र के अनुपान से, सर्पप तेल के अनुपान से सेवन उत्तम रहता है । ६ हरिद्रा - - हरिद्रा चूर्ण या हरिद्रा स्वरस ३ माशे, पुराने गुड १ तोले के माथ सेवन करके गोमूत्र का अनुपान करना उत्तम रहता है । ७ गुडूची- गिलोय का स्वरस १ तोला, कटु तेल ( सर्पप तेल ) १ तोला मिलाकर प्रात काल मे लेना । ८ पिण्डारक -- नामक वृक्ष के ऊपर लगे हुए बन्दाक ( बादे ) के चूर्ण का १-२ माशे घृत के साथ सेवन अथवा पिण्डारक की जड को सूत्र मे बाध कर पैर मे बाधना उग्र श्लीपद मे भी लाभप्रद रहता है । ६. गोधावती - मूल और उडद की पिष्टि बनाकर सरसो के तेल मे पका -कर सेवन करने से श्लीपद ज्वर में लाभ होता है । १० शाखोटक - सिहोर की छाल का २ तोले की मात्रा मे कपाय बना कर सेवन करना, इस क्वाथ से प्रारंभ मे वमन हो सकता है। इसका स्वतंत्र या गोमूत्र मिला कर उपयोग करे । इसके ४० दिनों के सेवन से पुराने श्लीपद मे भी लाभ होता है । ११ खदिर और नीम की छाल का चूर्ण बनाकर ३ मारो की मात्रा में गोमूत्र के अनुपान से सेवन । वृद्धदारक समचूर्ण - त्रिकटु एवं त्रिफला पृथक पृथक, चव्य, Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ भिपकर्म-सिद्धि दारुहरिद्रा, वरुण की छाल, गोखरू बोज, मुण्डी और गिलोय इन्हें प्रत्येक एक एक तोला लेकर महीन चूर्ण करे फिर इस चूर्ण के बरावर अर्थात् १२ तोले विधारा के मूल का या वीज का चूर्ण मिलावे । मात्रा ३-६ माशे । अनुपानकाजी या गोमूत्र । पंचकोल चूर्ण--पिप्पली, पिप्पली मूल, चव्य, चित्रक और शुठी का सम प्रमाण मे लेकर बनाया चूर्ण । मात्रा १-२ माशा। भोजन के साथ मिलाकर सेवन । नित्यानन्द रस--शुद्ध पारद, शुद्ध गधक, ताम्र भस्म, कास्य भस्म, बग भस्म, शुद्ध हरताल, शुद्ध तुत्थ, शंख भस्म, कपर्दिका भस्म, लौह भस्म, त्रिकटु, त्रिफला, विडङ्ग, पच लवण, चव्य, पिपरामूल, हाउबेर, बच, कचूर, पाठा, देवदारु, इलायची, विधारा, निशोथ, चित्रकमूल तथा दन्तीमूल प्रत्येक का चूर्ण १-१ तोला । प्रथम पारद-गंधक की कज्जली बनावे फिर अन्य भस्मो तथा चूर्णो को खरल कर मिलावे । फिर हरीतकी के रस की भावना देकर पांच-पांच रत्ती की गोलियां बना ले । मात्रा १-२ गोलो प्रात. साय शीतल जल या दूध से। बहुत से रोगो मे विशेषत श्लीपद में यह एक उत्कृष्ट योग तथा एक सिद्ध एवं प्रसिद्ध वैद्यकीय योग है जिसका श्लीपद मे उपयोग परम लाभप्रद होता है । श्लीपद गज केशरी रस-शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, त्रिकटु, शुद्ध वत्सनाभ, अजवायन, चित्रक मूल, शुद्ध जयपाल वीज, शुद्ध टकण और शुद्ध मन.. शिला । प्रत्येक १-१ तोला । प्रथम पारद एवं गंधक को खरल कर कज्जली बनावे पश्चात् अन्य द्रव्यो का सम्मिश्रण करके खरल करे । फिर भृगराज स्वरस, गोखरू क्वाथ, अदरक के रम और जम्वीरो नीबू के रस की पृथक्-पृथक् एक-एक दिन तक भावना देकर २-२ रत्तो को गोलियां बनाकर छाया में सुखाकर रख ले । मात्रा १-२ गोली। अनुपान उष्ण जल । विवध कोष्ठ से युक्त श्लीपद रोगो मे उत्तम एव श्रेष्ठ योग है। मण्डूर- केवल मण्डूर भस्म ४ रत्तो की मात्रा में या पुनर्नवा मण्डूर ४ रत्तो-१ माशा मधु के साथ दिन में दो वार देना श्लोपद में हितकर होता है । उपसंहार-श्लीपद के रोगी को विश्राम देना चाहिये । अधिक पैदल चलना या नायकिल चलाना भी अच्छा नही पड़ता है। सोते समय उसको शाथ युक्त शाखा को तकिये के सहारे ऊँचा उठा कर रखना अच्छा रहता है । कृमि रोग तथा शोधाधिकार में प्रयुक्त मण्डर, लौह के योग अयवा कृमिघ्न योगी का सेवन भी श्लोपद में लाभप्रद रहता है । Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : उन्तालीसवाँ अध्याय ६१६ श्लीपद के आक्रमण काल मे ज्वर प्राय आता है । इस ज्वर मे विषम ज्वर वाला उपचार करना चाहिये । नित्यानन्द रस का तुलसी, निर्गुण्डो, पारिजात अथवा अदरक के रस और मधु से उपयोग उत्तम रहता है । चन्दन और दारु हल्दी का कपाय श्लीपद के आक्रमण काल मे उत्तम रहता है । त्रिफला कषाय मे गोमूत्र मिला कर देना भी उत्तम रहता है । दौरे के बीच मे नित्यानन्द रस या श्लीपद गजकेशरी रस का प्रयोग कई मास तक करने की आवश्यकता रहती है। तीन से छ. मास तक उपयोग करने पर वडा ही उत्तम लाभ देखने को मिलता है । इस अधिकार मे अन्य औषधियो और योगो का उपयोग भी हितावह रहता है । ☆ उन्तालीसवाँ अध्याय कुष्ठरोग प्रतिषेध परिचय - " कुष्णातीति कुष्ठम् " शरीर की त्वचा आदि धातुवो का नाश करने के कारण उस रोग को कुष्ठ कहते है । आयुर्वेद में कुष्ठ शब्द से दाद, खुजली जैसे साधारण त्वचा के रोगो से लेकर बडे-बडे रोग जैसे कोढ, कुष्ठ आदि का भी ग्रहण किया जाता है । इन दोनो मे भेद-प्रदर्शन के लिये क्षुद्र कुष्ठ तथा महाकुष्ठ ये दो प्रकार कुष्ठ रोग के बतलाये गये है । पुन क्षुद्र कुष्ठ ग्यारह प्रकार के और महाकुष्ठो के सात प्रकार वतलाये गये है । आधुनिकदृष्ट्या विचार करने पर क्षुद्र कुष्ठो को त्वचा के रोग ( Skin Diseases ) और महाकुष्ठो को वास्तविक कुष्ठ या Leprosy कहते हैं । हेतु तथा सम्प्राप्ति -- विरुद्ध अन्न-पान, अपक्व एव गरिष्ठ अन्न का सेवन, अध्यशन, अधारणीय वेगो का रोकना, भोजन के अनन्तर व्यायाम करना, अधिक सन्ताप या धूप का सेवन, परिश्रम के अनन्तर सहसा शीतल जल के सेवन, नवीन अन्न, अधिक दही - मत्स्य- लवण - उडद-आलू- पिष्टद्रव्य- तिल-गुड-अम्ल का सेवन, दिवास्वाप, माता-पिता- गुरु ब्राह्मण एव आचार्य का तिरस्कार करना तथा अन्य Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० भिपर्म-सिद्धि नीच कर्मों के प्रभाव से तीनो दोप कुपित होकर त्वचा-रक्त-माम और शरीर के जलीय धातु को दूपित कर देते है। इस से अठारह प्रकार के कुष्ठ रोग उत्पन्न हो जाते है । इस प्रकार सात द्रव्य अर्थात् तीन दोप एवं चार दूष्य मिल कर कुष्ठ के उत्पादक होते है । आचार्य सुश्रुत का मत है कि त्रिदोष कुपित होकर प्रथम त्वचा में लक्षण उत्पन्न करता है--और उपेक्षा करने पर पश्चात् रक्तादि घातुओ को प्रभावित करता और अन्दर में प्रविष्ट कर जाता है । ____ आधुनिक ग्रथो में कुष्ठ में उत्पादक हेतु के रूप में दो वर्ग पाये जाते है । प्रधान हेतु कुष्ठ दण्डाणु ( Bascillus leprae) का उपसर्ग तथा सहायक हेतु इसके अनर्गत बाहार-विहार सम्बन्धी अनियम, दुर्बलता उत्पन्न करने वाले रोग जैसे विषम ज्वर-कालाजार-फिरंग-अकुश कृमि प्रभृति रोग। इस रोग का संचय काल २ साल मे दस साल तक या अधिक भी हो सकता है। कुष्ट के प्रकार--सभी कुष्ठ त्रिदोपज होते है। फिर भी दोपो को उल्वणता के विचार से उनके कई भेद हो जाते है । महा कुष्ठ सात प्रकार के होते है उनके नाम १. कापाल कुप्ठ (वाताधिक्य से ), २. औदुम्बर कुष्ठ (पित्ताधिक्य मे), ३ मण्डल कुष्ठ ( श्लेष्माविक्य से ), ४ ऋष्यजिह्व ( वात-पित्ताधिक्य से) ५. पुण्डरीक कुष्ठ (पित्तकफाधिक्य से) ६. सिध्म कुष्ठ ( वातकफाधिक्य से ) तथा ७ काकण कुष्ठ (त्रिदोष से ) क्रमश पाये जाते है । ___ ग्यारह क्षुद्र कुष्ठो में १ एक कुष्ठ ( Psoriasis), २. गजचर्म या हस्तिचर्म, ३ किटिभ ४ वैपादिक ( Rhagades) ५ अलस या अलमक ( Linchen ), ६. चर्मदल ( Excoriation ) ७. पामा (Scabies ) ८ फच्छु ( Dry Eczyma) ९ विस्फोट ( Bullae ), १० विचिका ( Weeping Eczyma ), ११ शतारु ( Erythemas ) गिनाये गये है। कुप्ठो के नामकरण मे चरक तथा सुश्रुत के मन्तव्य में थोडा अन्तर है । मुश्रुत न चमकृष्ठ, वैपादिक, अलसक, कच्छ, विस्फोट तथा गतार का वर्णन क्षुद्र कुण्ठो म नहीं किया है अपितु इनके स्थान पर स्थूलारुष्क, परिसप, रकमा, विसपं, महाकुष्ठ और मिथ्म का वर्णन किया है। दद् का वर्णन मुश्रुत ने महाकुण्ठ में और चरक ने सिम का वर्णन महाकुष्ठो में किया है। क्षुद्र कुण्ठो मे दोपो का विचार करें तो चर्मकुण्ठ, एककुष्ठ, किटिभ, सिध्म, बलम और विपादिका वात और कफ की अधिकता से पैदा होते है । दद्र, शतारु, विस्फोट, पामा तथा चर्मदल नामक कुण्ठ कफ-पित्तजन्य होते हैं । Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : उन्तालीसवाँ अध्याय ६२१ सामान्य लक्षण-लक्षण और निवृत के अनुसार आधुनिक ग्रन्थो में कुष्ठ के तीन प्रकार बतलाये गये है। १. ग्रन्थि कुष्ठ ( Nodular or lempromatous type) रोग में प्रथम कई आकार-प्रकार की लालरग की गाठे उत्पन्न होती है। कभी-कभी कई प्राथिया मिल कर एक बडा धन्ना बना लेती है। सज्ञावाही नाड्यग्नो ( Nerve endings) के नष्ट होने पर ये स्वापयुक्त ( anaesthetic) एव लोमरहित हो जाती है। ये गाठे अधिकतर चेहरे पर मस्तक, भ्र, कपोल और वर्णपाली में पाई जाती है । इसके अतिरिक्त इस तरह की गाठे रोगी के हाथ, कलाई, बाहु, ऊरु तथा कटि प्रदेश के वाह्य तल पर भी पैदा होती है। इस से रोगी का चमडा बहुत मोटा और चेहरे की आकृति बहुत खराब सिंह सम ( Lion face ) हो जाती है । ग्रथियो के फूटने से व्रण बनते है । रोग का प्रभाव मुख, गला, नासिका और नेत्रो मे पाया जाता है । गले मे होने पर स्वरभग, नासा मे होने से नासाभग और आखो के प्रभावित होने पर आंखें लाल हो जाती है। २ नाड़ी कुष्ठ ( Nervous variety)-इस मे कुष्ठ के जीवाणुवो का नाडो के ऊपर प्रभाव पड़ता है। जिससे स्वार, स्वेदाभाव, सरसराहट, चुनचुनाहट आदि लक्षण पैदा होते है । जो प्राचीन दृष्टि से कुष्ट के वातिक प्रकार मे मिलते है। ३. मिश्र प्रकार ( Mixed type )-इस मे कुष्ट के दोनो प्रकार के लक्षण मिलते रहते है । इस प्रकार के रोगी ही अधिक मिलते है। इसमे अथिया भी उत्पन्न होती है और वात नाडिया मोटी पड़ जाती है। इन्ही लक्षणो का वर्णन प्राचीन ग्रथकारो ने सप्त महाकुछो मे किया है । कुष्ठ के त्वचागत होने से वर्ण मे परिवर्तन, त्वचा मे रूक्षता, सुन्तता, रोमहर्ष तथा स्वेद की अत्यधिक प्रवृत्ति होती है। रक्तगत कुष्ठ के होने पर खुजली तथा दुर्गधित पूयस्राव होता है, कुष्ठ मासाधित होने पर त्वचा का मोटा होना, मुख का सूखना, कर्कशता, पिडिकावो की उत्पत्ति, सुई की चुभोने जैसी पीडा, फोडो की उत्पत्ति इत्यादि लक्षण पाये जाते है । जव कुष्ठ का प्रभाव मेदधातु तक पहुँच जाता है, तो अंगुलि का गलकर गिरना, गति करने में असमर्थता, अगो मे पीडा, घावो का फैलना आदि पाया जाता है। अस्थि और मज्जा तक कुष्ठ के पहुंचने पर नासिका का गलकर बैठ जाना, आखो मे लाली, घावो में फोडो का पडना तथा स्वरावसाद आदि लक्षण होने लगते है । साध्यासाध्यता--त्वचा, रक्त एव वात-कफजन्य कुष्ठ साध्य होता है। Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकम-सिद्धि मेद धातु में प्रविष्ट एवं द्विदोपज कृच्छ्रसाध्य होता है । मज्जाश्रित, क्रिमि तृपादाह्मदाग्नि युक्त एवं त्रिदोषज कुष्ठ असाध्य होता है । कुण्ठपीडित व्यक्ति का शरीर जब फट गया हो, अंग सड़ने लगे हों, जिसके नेत्र लाल हो, जिनको बोलने को शक्ति नष्ट हो गई हो और जो पंचकर्म गुणातीत ( अर्थात् जिस में पंचकर्म न किया जा सकता हो ) माध्य हो जाते है ।" ६२२ श्वित्र े - कुष्ठ के अध्याय में श्वित्र नामक एक रोग का भी उल्लेख पाया जाता है । कुष्ठ के जो उत्पादक कारण बतलायें गये है वे ही कारण चित्र के भी उत्पादक होते हैं । वित्र रोग के कई पर्याय ग्रंथो मे पाये जाते है चरक ने लिखा है "दाणं वारुण स्वित्रं किलास नाम भिस्त्रिभि. " अर्थात् श्वित्र के तीन प्रकार दारण, वारुण तथा किलास है । इस रोग को मावारण वोल चाल में श्वेत कुष्ठ या सफेद दाग ( Leucoderma ) कहते है । त्रि में किसी प्रकार का स्राव नही होता है -यह वातादि तीनो दोपो मे रक्त-मास और मेद धातु में आश्रित रह कर उत्पन्न होते है । वातिक फिलाम न एवं लाल रंग का पैत्तिक कमल या ताम्र वर्ण का, और लोमो को नष्ट करनेवाला होता है । कफज श्वेतवर्ण का भारी ओर खुजली युक्त होता है । वित्र के उत्पत्ति भेद से दो प्रकार होते है-त्रणज और दोपज । व्रणज किसी ऋण या अग्निदाह के परिणाम स्वरूप और दोपज वैसे ही होते हैं । वित्र मे केवल त्वचा की ही विकृति पाई जाती है । जैसा कि सुश्रुत के वचनों से सिद्ध है "त्वग्गतमेव किलानम्" । उस प्रकार वित्र रोग में कृमि का कोई सम्बन्ध नही रहता, फलत संक्रामक नहीं होता है । यह एक दोपज व्यावि है दूसरे कुष्ठो जैसा त्रिदोषज नही है | इसमें गरीरगत धातुओं का नाम भी नहीं होता है । ऐसे चित्र, जिनमें बाल सफेद न हुए हो, जिसका विस्तार कम हो, जो एक दूसरे से मिले हुए न हो, नवीन और याग से जलने के बाद उत्पन्न हुआ न हो साध्य होते है | इसके विपरीत लक्षणो से युक्त होने पर असाध्य हो जाता है । १. साध्य त्वग्रवमानस्थं वातमाविकञ्च यत् । मेदमि हहजं याप्य वज्यं मज्जास्थिसथितम् ॥ क्रिमिनृद्दाहमन्दाग्निमयुक्त यत्त्रिदीपजम् । प्रन नानां च रक्तनेत्रं हतस्वरम् | प्रभिन्नं पञ्चकर्मगुणातीतं कुष्ठ हन्तीह मानवम् ॥ ( मा. ति ) २ वचाम्यतव्यानि कृतघ्नभावा निन्दा गुरुणा गुरुधर्पणञ्च । पापक्रिया पूर्वकृतञ्च कर्म हेतु' कियानस्य विरोधि चान्नम् ॥ (चर ) Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : उन्तालीसवाँ अध्याय गुह्य स्थान, हाथ-पैर के तलवे और ओष्ठ मे पाये जाने वाले श्वित्र तथा दीर्घकाल का पुराना श्वित्र भी असाध्य होता है।' क्रियाक्रम-सामान्यतया सभी रोगो मे सर्वप्रथम उपचार 'निदान परिवर्जन' या 'हेतोरसेवा' अर्थात् रोगोत्पादक हेतुओ का परिवर्जन करना होता है। कुष्ठ के उत्पादक हेतुओ मे बहुविध आहार-विहार सम्बन्धी विषमताओ के अतिरिक्त अधर्म या पापाचरण को भी रोगोत्पादक बतलाया गया है। अस्तु, आहार-विहार सम्बन्धी दोपो के दूर करने के साथ ही साथ पाप कर्म का भी पुण्यकर्मो के अनुष्ठान के द्वारा दूरीकरण का प्रयत्न करना चाहिये। इसके लिए कई सदाचरणो का उपदेश आचाय वाग्भटने किया है। इनके सम्यक् आचरण से कुष्ठ रोग से मुक्त होना सभव रहता है। जैसे-व्रत-दम-यम-सेवा-त्याग-शील का अभियोग, द्विज-देवता-गुरु की पूजा, सभी जीवो मे मेत्री रखना, शिव-गणेश-जिन-जिनपुत्र-तारा तथा सूर्य देव की आराधना पाप के फलस्वरूप पैदा होने वाले कुष्ठ रोग का उन्मूलन करती है । सूर्य की आराधना से सभी रोग दूर हो सकते है । शरीर सदैव स्वस्थ रखा जा सकता है। सूर्य की आराधना या पूजन विशेपत. कठिन नेत्र रोग और कुष्ठ रोग मे लाभप्रद रहता है । सूर्य की आराधना मे अर्घ्य पूजन एव सूर्य स्तव ( आदित्य हृदय स्तोत्र आदि ) का पाठ उत्तम रहता है । २ सूर्यनतो मे रविवार का व्रत उत्तम रहता है, इस दिन उपवास, लवणवयं आहार और एक समय का भोजन उत्तम रहता है। रोगी को नया अन्न, दधि, दूध, मद्य, तिल, मछली, नमक, उडद, मूली, गुड, अभिष्यदी आहार एवं विरोधी भोजन तथा शुक्र-क्षय का होना समुचित नही रहता है, अस्तु, ब्रह्मचर्य के साथ जीवन-यापन करते करते हुए उपयुक्त आहार का वर्जन करना चाहिये। अधिक धूप मे काम करना या भट्ठी प्रभृति अग्नि के १. अशुक्लरोमाऽबहुलमसश्लिष्टमथो नवम् । अनग्निदग्धज साध्य श्वित्रं वय॑मतोऽन्यथा ॥ गुह्यपाणितलौष्ठेपु जातमप्यचिरन्तनम् । वर्जनीय विशेषेण किलास सिद्धिमिच्छता ॥ २ व्रतदमयमसेवात्यागशीलाभियोगो द्विजसुरगुरुपूजा सर्वसत्त्वेपु मैत्री। शिवशिवसुततारा (जिनजिनसुततारा ) भास्कराराधनानि प्रकटितमलपाप कुष्ठमुन्मूलयन्ति । ( अ. हृ चि १९) Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ भिपक्कम-सिद्धि ममीप कार्य करना भी अनुकूल नहीं पड़ता । अस्तु, ऐसे व्यवसायो को या दिन फा मौना, भाग का तापना भी रोगी को छोड देना चाहिये ।। पथ्य-कुष्ठ रोगियो में घृत (विप करके गोघृत) का उपयोग वडा हो उत्तम पाया गया है । पुगने अन्नो मे जो, गेहूँ, चावल, मूग, अरहर, चना, मसूर का सेवन अनुकूल पड़ता है। चना गेहूँ की रोटी और घी का सेवन पथ्य रूप में उत्तम रहता है । गहद, जागल पशु-पक्षियो के माम, आपाढ मे पैदा होने वाले फल जमे ककडी, खरबूजे, तरवूज, बेंत की कोपल, परवल, तरोई, मकोय, नीम की पत्ती, लहसुन आदि का उपयोग ठोक रहता है । हुरहुर, पुनर्नवा, मेढासिंगी, चक्रमर्द की पत्ती, ताल के पके फल, जायफल, नाग केमर, कंगर पथ्य होते है । तलो मे-तिल-मरसो-नीम-हिंगोट-सरल-देवदारु-सीमम-अगुरु-बदन तुवरक (चालमोगरा) आदि कुष्ठ में हित रहते हैं। गोमूत्र तथा गवा-जंट-घोडा-या भंस का मूत्र तथा तिक्त पदार्थों का सेवन पथ्य है । इन पथ्यापथ्यो का विचार सभी प्रकार के कुष्ठ रोगो में विशेषत महाकुण्ठो के सम्बन्ध में करना चाहिये । पंचकर्म या संशोधन-कुष्ठ रोग में संशोधन को चिकित्सा एक आवय्यक एवं उत्तम उपक्रम माना गया है। इसके द्वारा दोपो के निहरण हो जाने के अनन्तर पथ्य एवं ओपधि का उपयोग करते हुए रोगी को रोगमुक्त किया ना नकता है । अस्तु, एक एक पक्ष (पन्द्रह-पन्द्रह दिनो) के अन्तर मे रोगी का वमन कराना, एक-एक माम के अन्तर से विरेचन देना, प्रनि तीसरे-तोमरे महीने पर गिरोरेचन या नस्त्र कर्म कराना तथा छठे-छठे महीने पर रक्त विनावण ( गिरावेध के द्वारा रक्त का निकालना ) कुष्ठ रोग में हितकर रहता है-ऐमा आचार्यों का मत है। इन कर्मों का सामान्यतया विधान हाते हुए भी कुष्ठ मे वाताधिक्य होने पर अर्थात् वातोल्वण कुष्ठ में घृतपान, कफोल्वण कुष्ठ मे वमन १ पापानि कर्माणि कृतघ्नभावं निन्दा गुरुणा गुरुधर्षणञ्च । विरुद्धपानागनमह्नि निद्रा चण्डाशुतापं विपमागनञ्च ॥ स्वेद रत वेगनिरोवमिक्षु व्यायाममम्लानि तिलाश्च मापान् । द्रवान्नगुर्वन्ननवान्नमुक्त विदाहि विष्टमि च मूलकानि ॥ सह्याद्रिविध्याद्रिसमुद्भवाना तरङ्गिणीनामुदकानि चापि । मानूपमामं दधिदुग्धमद्य गुड च कुष्ठामयिनस्त्यजेयु. । अन्नपानं हितं कुप्ठे न त्वम्ललवणोपणम् । दधिदुग्धगुडानूपतिलमापास्त्यजेत्तराम् ।। (यो, र.) २. पळे मासे शिरामोक्ष प्रतिमाम विरेचनम् । प्रतिपदं च वमनं कुष्ठे लेपं त्र्यहाच्चरेत् ॥ (यो. र.) Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : उन्तालीसवाँ अध्याय ६२५ तथा वित्तोल्वण कुष्ठ मे विरेचन तथा रक्त-विस्रावण कराना श्रेष्ठ रहता है । " रक्त-विस्रावण के सम्बन्ध में यह ध्यान में रखना चाहिये कि यदि कुष्ठ का प्रसार रक्त धातु मे न हुआ हो और त्वचा के ऊपर एक-दो स्थानो में सीमित हो तो उसका प्रच्छान करके शृङ्ग के द्वारा रक्त निकाले, परन्तु जव कुष्ठ का दोप सर्व-शरीर में व्याप्त हो तो उस अवस्था मे रोगी का सशोधन शिरावेध करके ( फस्त खोलकर ) करना चाहिये । - वमन कराने के लिये - वासा, अडूसा, परवल की जड, नोम तथा प्रियंगु को छाल, मैनफल का काढा 'वनाकर मधु मिलाकर वमन कराना तथा — विरेचन के लिये त्रिवृत् ( निशोथ ), दन्तीवीज ( जयपाल ) तथा त्रिफला का चूर्णं या काढा बनाकर दस्त कराना कुष्ठ रोगियो मे हितकर होता है । अंतःप्रयोज्य रक्त शोधक या कुष्ठशामक औषधियाँ -- कुष्ठ के रोगियो मे बहुत सी रक्तशोधक औषधियां व्यवहृत होती है जिनके द्वारा कुष्ठ के लक्षणो का सशमन होकर रोग दूर होता है । जैसे, १ धात्री और खदिर का क्वाथ - खदिर की छाल १ तोला, आंवला १ तोला लेकर ३२ तोले जल में खौलाकर ८ तोले शेष रहने पर मधु मिलाकर पिलाना । २. धात्री ओर खदिर के बने क्वाथ मे बाकुची का चूर्ण १ माशा प्रक्षिप्त करके पीना । ३ भयङ्कर कुष्ठ से पीडित व्यक्ति भी यदि एक वर्ष तक बाकुची का चूर्ण २ माशे और काली तिल का चूर्ण ३ माणे मिलाकर एक मात्रा प्रात - सायम् सेवन करे तो कुष्ठ रोग से मुक्त हो जाता है । २ ४ अथवा केवल वाकुचीका २ माशे से ३ माशे प्रतिदिन जल या दूध के साथ सेवन करे तो कुष्ठ रोग से मुक्त हो जाता है | इन योगो का उपयोग सभी प्रकार के कुष्ठ रोगो मे लाभप्रद होता है, परन्तु विशिष्ट रूप से विकुष्ठ (श्वेतदाग) में लाभदायक होता है । इन योगो के सेवन काल में श्वित्र 'कुष्ठ के रोगी मे गाय के दूध की व्यवस्था पर्याप्त मात्रा में करनी चाहिये - रोगी को आहार में रोटी ओर दूध या पुराना चावल और दूध ही पथ्य कर देना चाहिये । श्वित्र के अतिरिक्त दूसरे कुष्ठ रोगो में बार्कुची का प्रयोग करना हो तो घृत या गोघृत की पर्याप्त व्यवस्था करनी चाहिये क्योकि दूध अन्य P कुष्ठेषु । श्रेष्ठम् ॥ १ वातोत्तरे सर्पिर्वमनं श्लेष्मोत्तरेषु पित्तोत्तरेषु मोक्षो रकस्य विरेचनं २ तीव्रण कुष्ठेन परीतदेहो य सोमराजी नियमेन खादेत् । संवत्सरं कृष्णतिलद्वितीया स सोमराजी वपुपाऽतिशेते ॥ ४० भि० सि० Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ भिपकर्म-सिद्धि कुष्टो में उतना उपयोगी नही रहता है । रोगी को गोघृत के साथ ही भोजन देना चाहिये। वाकुची को सोमराजी कहते है-सोमराजी का अर्थ होता है चंद्रमा की कान्ति, अर्थात् जो कुष्ठ से विरूप हुए व्यक्ति को चद्रमा की कान्ति जैसे कान्तिवान् वना दे। सोमराजी के प्रयोगो मे कई घृत और तैलो का भी पाठ मिलता है जैसे सोमराजी तैल तथा सोमराजी घृत इनका पाठ घृतो के प्रसंग में आगे दिया जावेगा । वाकुची वीज चूर्ण के अतः प्रयोग में मात्रा का ध्यान रखना चाहिये, ग्रन्थो में १ तोले तक की प्रतिदिन की मात्रा वतलाई गई है, परन्तु रोगी को.प्रारंभ मे १,२ माशा तक दे ।' जैसे-जैसे रोगी को सह्य होता चले वढावे । वृत के अनुपान से देना चाहिये-वाकुची के प्रयोग-काल मे रोगी के लिये पर्याप्त गोवृत की व्यवस्था कर लेनी चाहिये । वाकुचो का वाह्य प्रयोग श्वित्र कुष्ठ में भूरिशः हुआ है इसका वर्णन लेपो के प्रसंग मे आगे किया जावेगा । श्वित्र में वाकुची की एक और भी प्रयोगविधि है । . प्रथम दिन पाँच वीज वाकुची के ठंडे जल से निगलावे । प्रतिदिन १-१ दाना बढाता चले । इस प्रकार २१ तक वटाकर फिर १-१ दाना घटा कर पाँच पर लावे। इस प्रकार का वधमान वाकुची का प्रयोग जब तक रोग अच्छा न हो जावे कई वार करे । साथ में शुद्ध वाकुची का तेल उस मे बरावर तुवरक का तेल मिलाकर श्वित्र पर लगावे । इस प्रकार खाने एव लगाने के वाकुची के उपयोग से श्वित्र में उत्तम लाभ होता है । ५. 'खदिरः कुष्टघ्नानाम्' कुष्ठघ्न औषधियो मे खदिर का उपयोग भी बहुलता से हुआ है-कुष्ठघ्न योगो मे खदिर बहुश. प्रयोग आया है। खदिर का स्वतंत्र प्रयोग करना हो तो खदिर की छाल का क्वाथ बनाकर देना चाहिये । अथवा कत्ये को २ माशा पानी में खोलाकर पीना चाहिये । श्वित्र कुष्ठ मे कत्थे का घोल उत्तम लाभ दिखलाता है। खदिर के योगो में खदिरारिष्ट का उपयोग उत्तम रहता है ---इसके योग का उल्लेख आगे किया जा रहा है । ६. गुडूची-गुटूची का स्वरस २ तोले या यथावल मात्रा में नित्य लेकर सेवन करने से तथा आहार में मंग की दाल और पुराने चावल का भात खाने से कुष्ठ रोग से मुक्ति होती है । १ अवल्गुजावोजकपं पीत्वा कोष्णेन वारिणा । भोजन सपिपा कार्य - सर्वकुष्ठविनाशनम् ॥ २ छिन्नाया स्वरसो वापि सेव्यमानं यथावलम् । जीर्णे घृतेन भुञ्जीत मुद्गयूपीदनेन च । अपि पूतिशरीरोऽपि दिव्यरूपी , भवेन्नर । Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : उन्तालीसवॉ अध्याय ६२७ ७. निम्ब-निम्ब एक उत्तम रक्तशोधक ओषधि है। इसके पंचाङ्ग का चूर्ण बना लेना चाहिये । इस चूर्ण के ६ माशे का ६ माशे हरीतकी चूर्ण या ६ माशे आँवले के चूर्ण के साथ सेवन करने से उत्तम लाभ होता है । कुष्ठ के प्रारं. भिक अवस्था मे एक मास के प्रयोग से रोगी को बहुत लाभ होता है । निम्ब के कई योग पंचनिम्बचूर्ण, निम्बादिचूर्ण, बहत् पंचनिम्बादिचूर्ण प्रभृति योगो का उल्लेख आगे किया जा रहा है-इनका प्रयोग भी किया जा सकता है ८. गोमूत्र-सर्व प्रकार के कुष्ठ रोगो मे गोमूत्र एक 'परमौषधि है । इस का उपयोग प्रात काल मे खाली पेट पर एक छटाँक की मात्रा मे कुष्टी को प्रतिदिन करना उत्तम रहता है। इस गोमूत्र के साथ हरीतकी चूर्ण'६ माशे का उपयोग किया जाय तो सफलता और उत्तम मिलती है। अर्थात् उससे निश्चय ही कुष्ठ अच्छा होता है। लम्बे समय तक प्रयोग की आवश्यकता होती है। कुष्ट रोग मे गोमूत्र से स्नान और प्रक्षालन भी उत्तम रहता है। । ९ तुवरक-(चालमोगरा) इसका दूसरा नाम कुष्ठवैरी भी है, जिसका अर्थ होता है कुष्ठ रोग का शत्रु । इसके चूर्ण एव तैल का अन्त. प्रयोग तथा वाह्य योग कण्ठ मे उत्तम कार्य करता है। आधुनिक चिकित्सा मे भी कुष्ठ रोग में 'चालमोगरा तथा 'हिडनोकार्पस' के तेल का सूचीवेध के द्वारा उपयोग उत्तम लाभप्रद प्रमाणित हुआ है । तुवरकाद्य तैल नामक एक योग का, बहुलता से विभिन्न त्वक रोग तथा कुष्ठ मे व्यवहार वैद्यक मे होता है-इसमे तुवरक तैल २ भाग, वाकूची तैल २ भाग तथा चदन का तेल १ भाग की मात्रा मे मिश्रित रहता हैइसका स्थानिक प्रयोग अभ्यग रूप मे होता है। तुवरक तेल मे गधक एवं मोम मिलाकर त्वचा पर लेप करने से कुष्ठजन्य चर्म दोप मे सुधार होता है। तवरक तैल का मुख से प्रयोग की विधि-शुद्ध तुवरक तैल का ५ चूद की मात्रा मे १ तोला मक्खन या दूव को साढी मे रखकर दिन में दो वार देना प्रारंभ करना चाहिये । प्रति चौथे दिन ५ वूद को मात्रा वढावे । रोगी जितनी मात्रा सहन कर सके, उतनी वढावे । जव मात्रा सहन नही होती, तो जी मिचलाने लगता है और वमन भी हो जाता है। जब ऐसा लक्षण होने लगे तो मात्रा घटा देनी चाहिए। रोगी को स्नान करा के इस तैल का अभ्यंग भी कराना चाहिये । अधिक से अधिक मात्रा, जिसे रोगी सहन कर सके उतनी मात्रा, छ मास तक या जब तक रोगी रोगमुक्त न हो जाय तब तक, देता रहे। १ कुष्ठाना विनिवृत्तौ च गोमूत्रं परमौषधम् । अभयासहितं तद्धि - ध्रुव सिद्धिप्रदं मतम् ॥ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ भिपधर्म-सिद्धि तैल के सेवन काल में पथ्य-यदि रोगी केवल गाय के दूध, मोसम्मी, मीठा नीवृ, जनार, सेब, केला, मीन अंगूर मादि मीठे फलों पर रहकर उपयोग करे तो लाम विगेप एवं गीत्र होता है। यदि इस पथ्य पर न रह सके तो उसे पुराने चावल का भात, जौ-गेहूं की रोटी, घृत दोर दूध के साथ न्वावै । अम्ल, लवण, चटपटे और गरम मसालेदार भोजनो का वर्जन करे । नव प्रकार के महाकुष्ठो में इसके लगाने और खाने से वडा लाभ होता है। इस तेल में कपडा भिगोकर व्रण पर बांधने से व्रण गोत्र भरते हैं। १० भल्लातक-गुद्ध भिलावे का उपयोग भी कुष्ठ मे उत्तम पाया गया है। इसके कई योग जैसे 'समृत भल्लातक'; 'भल्लातक गुड' नादि वडे प्रसिद्ध मोर उत्तम योग है, जिनके प्रयोग से कठिन रोगियों में लाभ पहुंचता है । चक्रदत्त का सप्तसमयोग-काली तिल, त्रिफला, त्रिकटु, घृत, मधु, एव शर्करा प्रत्येक १ भाग । मात्रा ३-६ माशे । इसके सेवन काल में क्सिी पथ्य की आवश्यकता नहीं रहती है । यह रसायन है, कुष्ठ में उत्तम लाभ करता है। ११.सुधोदक-चूने के पानी का ३० से ६० बूंद तक पिलाना भी उत्तम रहता है विशेपत. कुष्ठ प्रतिक्रिया (Lepra reactions) में। आधुनिक चिकित्सा में कुष्ठ प्रतिक्रिया 'कैल्दिायम्' का मुख या सूचीवेध के द्वारा प्रयोग उत्तम पाया गया है। १२ किरात--चिरायते का पानी या काढा भी रक्तगोवक होता है । १३ गोरख मुण्डो-का उपयोग भी रक्तगोधन में हिम या अर्क के म्प में करना श्रेष्ठ है। १४ पाताल गन्ही का स्वग्म पीना तथा पत्तियो का वात्य लेप। १५ काष्टोदुम्बर-गास्त्र में कठगूलर को भी पुण्ठन बताया गया है । इसके फई टोटे योग उत्तम लाभप्रद होते है जैसे----गूलर तथा वहेरे की जड की छाल समभाग मे लेकर कुल २ तोले का क्वाथ बनाकर उसमे वाकुची का चूर्ण ४ रत्तो मिलाकर पिलाना । विगेपतः श्वित्रकुष्ठ में लाभप्रद रहता है। - कुष्ठारि योग-कठगूलर, भार्गी, वला, नागवला और अतिवला सबको सम प्रमाण लेकर चूर्ण बना ले । मात्रा ३-६ माशे । मधु से मेवन । गलित, पूय एवं कोट युक्त कुष्ठ में एक मास के उपयोग से पर्याप्त लाभ होता है। १. मुधोदकाञ्च कुष्ठघ्नं विशद्वन्दुमितेन हि । ( भ. र.) २. काष्ठोदुम्बरिकाचूर्ण ब्रह्मदण्डी बलात्रयम् । प्रत्यहं मधुना लीळं वातरक्तापहं नृणाम् ।। तरद्रवत चलन्मासं मासमात्रेण नर्वथा । गलत्यूय पतत्कीटं बिटई सेव्यमीरितम् ।। Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : उन्तालीसवाँ अध्याय ६२६ कुष्ठनाशक रस-कठगूलर, करंज के पत्र, हरड, शिरीष की छाल और बहेडा, सम प्रमाण में लेकर चूर्ण बना ले। इसका चूर्ण ३ माशे, मुनक्का १ तोला, शुद्ध टंकण १ माशा और गोमूत्र २३ तोला । आलोडित कर ( मथकर) फेन उठने पर पीये । एक सप्ताह के उपयोग से सप्त धातु तक प्रविष्ट महाकुष्ठो मे भी पर्याप्त लाभ होता है।' १६ शुद्ध गंधक-दूध मे या म8 में शुद्ध किये गधक का ४ रत्ती से एक माशा की मात्रा में घी और चीनी के साथ प्रयोग उत्तम रहता है। इसके दो योग उत्तम है। १ सोगंधिक चूर्ण-शुद्ध गधक १ भाग, काली मरिच १ भाग, त्रिफला ६ भाग और अमलताश की गुद्दो ६ भाग मिश्रित करके बनाया चूर्ण ३ माशे । अनुपान जल से । २ गंधक रसायन-निर्माण-विधि-गाय के दूध से तीन वार शुद्ध किया गंधक ६४ तोले ले, उमको पत्थर के खरल मे डालकर, दालचीनी, तेजपात, छोटी इलायची और नागकेसर इनमें प्रत्येक के कपड़छन चूर्ण को रात मे द्विगुण जल में भिगो सवेरे हाथ से मसलकर कपडे से छाने हुए जल से, ताजी गिलोय के स्वरस से, हरे और वहेडे के क्वाथ से, आँवला, भांगरा और अदरक इनमें प्रत्येक के स्वरस से आठ आठ दिनो तक मर्दन करे । अर्थात् प्रत्येक के जल, क्वाथ या स्वरस मे आठ-आठ दिनो तक भावना दे। कुल ८० भावना दे । प्रत्येक भावना मे ३-६ घटा तक मर्दन करके छाया में सुखाने के बाद दूसरी भावना दे। अन्त मे सुखाकर समान भाग मिश्री मिलाकर सुखाकर शोशी मे भर ले। मात्रा और अनुपान--४-८ रत्ती की मात्रा में सुबह-शाम घृत के साथ, दूध से, मजिष्ठादि कपाय से या सारिवादि हिम के साथ सेवन करावे । सभी प्रकार के कुष्ठ रोग मे लाभप्रद । १७ हरताल-शुद्ध हरताल, रसमाणिक्य, तालकेश्वर, महातालकेश्वर आदि का उपयोग भी जिसमे हरताल प्रमुख भाग मे पाया जाता है, उत्तम रहता है। १ चिरविल्वपत्रपथ्याशिरोपच विभीतकम् । काष्ठोदुम्बरिकामूल मूत्ररालोड्य फेनितम् ।। कर्पमात्र पिवेद्रोगी गोस्तन्या सह टंकणम् । सप्तसप्तकपर्यन्त सर्वकुष्ठविनाशनम् । ( र. सा. सं ) Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० भिषकर्म-सिद्धि योग :० मयन्त्यादि चूर्ण-छाया में सुखाये मेंहदी के वीज या पत्ती का चूर्ण २ भाग और भृगराज के स्वरस में शुद्ध किये गन्धक का १ भाग। दोनो को तीन घण्टे तक मर्दन करके शीगी में भर ले। मात्रा १-२ माशे, जल या सारिवादिहिम के अनुपान से । कण्डु, पामा, फोडे-फुन्सी मे इसका उपयोग उत्तम रहता है। सारिवादि हिम-अनन्तमूल, उशवा, चोपचीनी, मजीठ, गिलोय, धमासा, रक्तचंदन, गुलवनप्सा, खस, गोरखमुण्डी, शाहतरा, कमल के फूल, गुलाब के फूल, गखाहुली प्रत्येक समभाग में लेकर चूर्ण करके रख ले। इसमें १ तोले चूर्ण को रात में छ तोले गर्म जल में मिट्टी या कांच के पात्र में भिगो दे। सवेरे हाथ से मसलकर कपडे से छानकर पीने को दे। फिर उसी वर्त्तन में सुवह ५ तोला गर्म जल डालकर रख छोड़े। उसको गाम को मसलकर कपड़े से छान कर पीने को दे। उपयोग-सब प्रकार के रक्तविकार, कण्डु, पामा, हाथ-पाँव के जलन, जीर्ण ज्वर, अम्लपित्त, रक्त एवं पित्त के विकारो में लाभप्रद रहता है। (मि यो सं.) मंजिष्ठादि काथ (लघु)---मजोठ, हरड, बहेरा, आँवला, फुटकी, वच, देवदार, हरिद्रा और निम्व की छाल इनमे प्रत्येक १ तोला, लेकिन हरीतकी २ तोला ने। जौकुट करके २ तोले द्रव्य को ३२ तोले पानी में खौलाकर ४ तोले गेप रहने पर मधु मिलाकर सेवन करे । मंजिष्ठादि क्वाथ नाम से कई पाठो का मग्रह पाया जाता है जैसे लघु, मध्यम तथा महा । यहाँ पर लघु एव महा मजिष्टादि क्वाथ का वर्णन दिया जा रहा है। महामंजिष्टादि या वृहद् मंजिष्टादि कपाय-मजीठ, नागरमोथा, कुटज, गिलोय, कूठ, सोठ, भारंगी, टोटी कटेरी, वच, नीम की छाल, हल्दी, दारहल्दी, पटोल, कुटकी, मूर्वा, वायविडङ्ग, विजयसार, शाल, गतावर, बायमाण, गोरखमुण्डो, इन्द्रजी, बडूमा, मुंगराज, देवदारु, पाढल, खैर, रक्तचंदन, निशोथ, वरण को छाल, चिरायता, वावची, अमल्ताग, बकायन की छाल, करज, अतीस, सन, इन्द्रायण की जद, धमासा, अनन्तमूल, पित्तपापडा सव समभाग । उपर्युक्त के अनुसार मात्रा निर्माण एवं सेवन विधि । १. मजिष्ठा त्रिफला तिक्ता वचा दारु निगाऽभया । निम्बश्चैव कृत. क्याथ मर्वकृष्टं विनाशयेत् ।। Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : उन्तालीसवॉ अध्याय ६३१ पंचनिम्ब चूर्ण-निम्ब के पत्र, जड, छाल, पुष्प और फल इन्हे सम प्रमाण मे लेकर महीन कपडछान चूर्ण बनावे । मात्रा ३ माशे । अनुपान-घृत, गाय का दूध, आवले का स्वरस या जल के साथ। खदिरारिष्ट-खैर की लकडी का बुरादा २०० तोले, देवदारु २०० तोले, वावची ४८ तोले, दारुहल्दी १०० तोले, हरे, बहेरा और आवला मिलाकर ८० तोले । इब सव को जौकुट कर ८१९२ तोले जल मे पका कर १०२४ तोले जल शेष रहने पर कपडे से छान ले। पोछे उसमे शहद ४०० तोले, चीनी ४०० तोले, धाय के फूल अस्सी तोले, कवावचीनी, नागकेशर, जायफल, लोग, छोटी इलायची, दालचीनी, तेजपात प्रत्येक ४-४ तोले और अनन्तमूल ३२ तोले इनका कपडछान चूर्ण मिला कर किसी पेचदार चीनी मिट्टी के वर्तन या मिट्टी के भाण्ड मे या सागौन की लकडी के पीपे मे मुँह बन्द करके एक मास तक पडा रहने दे। १ मास के बाद छानकर शीशियो मे भर ले । मात्रा २ तोले से ४ तोले वरावर पानी मिलाकर । कुष्ठ मे घृत-प्रयोग-कुष्ठ रोग मे घृतो के प्रयोग से उत्तम लाभ होता है | तिक्त घृत, महातिक्त घृत, पचतिक्त घृत, महाखदिर घृत आदि श्रेष्ट योग है । इनमे कुछ, पर उत्तम घुतो का योग नीचे दिया जा रहा है-- महातिक्त घृत (चरक)-छतिवन, अतीस, अमलताश, कुटकी, पाढ, नागरमोथा, खस, हरे, वहेरा, आवला, परवल की पत्ती, नीम, पित्तपापड़ा, धमासा, चन्दन, छोटीपीपल, पद्माग्व, हल्दी, दारुहल्दी, वच, इन्द्रायण को जड, शतावर, अनन्तमूल, अडूसा, कुटज की छाल, जवासा, मूर्वा, गिलोय, चिरायता, मुलैठी, और त्रायमाण प्रत्येक १-१ तोला लेकर कपडछान चूर्ण बनाकर पानी से पीस कर कल्क बनावे पश्चात् उसमें घी १२८ तोले, जल १०२४ तोले और आवले का रस २५६ तोले मिलाकर घृत का मद आच पर पाक करे । तैयार होने पर कपडे से छानकर काच के वरतन में भर ले । माया , तोला, प्रातः समय । पंचतिक्त घृत-निम्ब की छाल, पटोलपत्र, कटकारी पंचाङ्ग, गिलोय, एव अडूसे को प्रत्येक ४० तोले लेकर १६ सेर जल मे पकावे । ४ सेर क्वाथ के शेप रहने पर उसमे घी १ सेर और त्रिफला कल्क २० तोले भर मिला कर पकावे। सोमराजी घृत-खदिर ८ पल, वाकुची २ पल, त्रिफला, नीम, देवदारु, दारुहरिद्रा, पित्तपापडा १-१ पल, कटकारी २ पल । इन द्रव्यो को जो कुट कर के चतुर्गुण जल मे पका कर चोथाई शेप रहने पर उतार कर छानले । फिर बाकुची ४ पल, खदिर की छाल १ पल, परवल की जड, हरड, वहेरा, आवला, Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ भिषकर्म-सिद्धि बायमाणा, जवासा, कुटकी १-१ तोला और शुद्ध गुग्गुल का चूर्ण ८ तोला लेकर पानी मे पीस कर कल्क बनावे । इस कल्क से चतुर्गुण ( २१ सेर ) गोघृत लेकर वृतपाक विधि से पाक करे। यह योग कुष्ठ की परमोपधि हैं । मात्रा ६ माशे से १ तोला । पंचतिक्त घृत गुग्गुलु-नीम की छाल, गिलोय, अडूसा पचाङ्ग, पटोल पत्र और कंटकारी की जड प्रत्येक ८ तोला लेकर ३२ सेर जल मे क्वथित करे ४ सेर शेष रहने पर उतारे । फिर उसमें शुद्ध गुग्गुलु २४ तोले और गोवृत १ सेर लेकर मंद आच पर पकावे। जब पाक समीप आवे तो निम्नलिखित द्रव्यो का कल्क छोड़े और पाक करता चले । कल्क द्रव्य--पाठा वायविडङ्ग देवदारु, गजपीपल, सज्जीखार, यवक्षार, सोठ, हल्दी, सौफ, कूट, तेजवल, काली मिर्च, इन्द्रजी, जीरा, चित्रक की छाल, कुटकी, शुद्ध भल्लातक, वचा, पीपरामूल, मंजिष्टा, अतोस, हरड, बहेरा, आवला और अजवायन प्रत्येक १-१ तोला पाक के सिद्ध हो जाने पर कपडे से छान कर रख ले। मात्रा ६ मारो से १ तोला । ___ यह योग परम रक्तगोधक है। बहुविध रोगो में व्यवहृत होता है। उत्तम रक्त-शोधक है। कुष्ट रोगो मे लाभप्रद है। गुग्गुलु के और कई योग जैसे एकविंशतिक गुग्गुलु तथा अमृताद्य गुग्गुलु भी कुष्ठ रोग मे उपयोगी है । अमृतभल्लातक-इस योग का पाठ वातरोगाधिकार में हो चुका है। यह एक उत्तम रसायन है। वात रोगो तथा कुष्ठ रोगो म इस प्रयोग से उत्तम लाभ होता है। कुष्ट रोग की चिकित्सा मे अमृत भल्लातक की प्रगसा करते हुए थकार ने लिखा है कि जिम मनुष्य के कान, संगुलियाँ, नासिका ये कुष्ठ के कारण गलकर गिर गये हो, मारा गरीर कुष्ठ कृमियो से व्याप्त हो रहा हो, गला विकृत हो गया हो, वह मनुष्य भी इस औपध-सेवन के प्रभाव से क्रमशः धीरे-धीरे जलवृष्टि से जैसे अंकुर और शाखायें निकलकर धीरे-धीरे पूरा वृक्ष बन जाता है, उसी तरह नष्ट हुए मग-प्रत्यग पुन विकसित होकर पूर्ण गरीर युक्त हो जाते है । धातवीय योग : तालकेश्वर रसद पत्र हरताल ४ तोले लेकर खरल में पीसकर चक्रमर्द बन्न चोर नरपुसा के क्वाथ के साथ तीन-तीन घण्टे तक घोटकर चनिकायें बनाये, उन्हें मुनाकर एक दिन में रखकर ऊपर-नीचे पलाग की रास १. विगीर्णकर्णागलिनामिकोऽपि हिदितो भिन्नगलोऽपि कुष्ठी। सोऽपि क्रमादहरितानशाखस्तय॑या भाति नमोऽम्बुसिक्तः ॥ (भ. र.) Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : उन्तालीसवाँ अध्याय भरकर अग्नि पर चढाकर चौवीस घण्टे तक पाक करे। फिर इन टिकियो को निकालकर चक्रमर्द तथा शरपुंखा क्वाथ से घोटकर पुटपाक देना चाहिये । जब भस्म श्वेतवर्ण की हो जावे तथा उसके थोडे से भाग को प्रदीप्त अंगार पर रखने से धुवा न निकले तब अच्छी प्रकार से मृत भस्म जान कर पुट देना बन्द कर देना चाहिये । मात्रारत्तो से ३ रत्ती तक । अनुपान घो एवं मिश्री । उपयोग बहुत प्रकार के कुष्ठ, रक्तदुष्टि, शीतपित्त और गलत् कुष्ठ मे लाभप्रद । - रसमाणिक्य-पत्रताल हरताल को लेकर उसे कुष्माण्ड स्वरस, दही के पानी और काजी मे पृथक्-पृथक् दोलायत्र विधि से नौ-नौ घण्टे तक, तीन-तीन दिनो तक स्देदन करे। फिर उसको सुखाकर चावल के बरावर के टुकडे कर ले। अब इन टुकडो को एक मिट्टी के पात्र मे या शराव-सम्पुट मे एक श्वेतपत्र अभ्रक पत्र रखे, उस पर उन हरताल के टुकडो को रखकर ऊपर से दूसरे श्वेत अभ्रक पत्र से ढंककर पात्र के मुखपर एक सकोरा रखकर दोनो का मुख बन्द कर ले। बेर की पत्ती के कल्क से दोनो सकोरो के सधिस्थल के मुख को पूर्णतया बन्द कर देना चाहिये। फिर अग्नि मे रख कर पाक करे । जव पात्र के नीचे का भाग लाल रंग का हो जाय तो अग्नि देना बन्द करके, शीतल हो जाने पर माणिक्य के समान आभावाले रस को बाहर निकाल कर शीशी में रख ले। मात्रा ३ रत्ती से १ रत्ती । गुडूची सत्त्व १ मागा, घी और मिश्री के अनुपान से दिन में दो बार सुबह-शाम । हरताल के योगो के, लम्बे समय तक, १ वर्ष या दो वर्ष तक भी, उपयोग की आवश्यकता महाकुष्ठो मे पडती है। कई बार इनके प्रयोग-काल मे रोगी मे रोग की प्रतिक्रिया होकर चकत्ते अधिक लाल रंग के और स्पष्ट हो जाते है । ऐसी दशा में कुछ दिनो तक औषधि का सेवन वन्द कराके प्रवाल पिष्टि ४ रत्ती प्रतिदिन देना चाहिये । फिर रसमाणिक्य का प्रयोग चालू करना चाहिये । ब्रह्मरस-रम सिन्दूर १ तोला, शुद्ध गंधक, चित्रक मूल की छाल, वाकुची वीज, ढाक वीज प्रत्येक १२-१२ तोले तथा पुराना गुड ३० तोला, एकत्र शहद के साथ खरल करके ४-४ रत्तो की गोलियां बना ले । १-१ गोलो दिन में तीन वार पातालगरुडी के काढे के साथ सेवन । गलत्कुष्टारिरस-शुद्ध पारद, शुद्ध गधक, ताम्र भस्म, लौह भस्म, शुद्ध गुग्गुलु, चित्रक मूल, शुद्ध शिलाजीत, शुद्ध कुपीलु और त्रिफला प्रत्येक १-१ तोला, अम्रक भस्म एव करंज वीज का चूर्ण प्रत्येक ४-४ तोले । घृत और मधु से घोट कर १ माशे की गोलियां वनावे । मंजिष्ठादि काथ के अनुपान से Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ भिषक्कम-सिद्धि नोपधि का प्रयोग करे, चावल के भात और दूध का पथ्य रखे। इस प्रयोग से गलत्कुष्ठ ऐसे कोढी, जिनके माँख, कान, नाक और अंगुलि गल रहे हो, उनमे भी लाभ होता है। सर्वेश्वर रस-शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गंधक ४ भाग । एक प्रहर तक मर्दन करके कज्जली करे । फिर उसमे ताम्र भस्म, लौह भस्म, अभ्रभस्म, शुद्धहिंगुल ४-४ तोले, स्वर्ण-भस्म, रजत भस्म २॥२॥ तोले, हीरक भस्म १ माशा, शुद्ध हरताल १० तोले । जम्वीरी नीवू, धतूर की पत्तो, थूहर की पत्ती, अर्कपत्र प्रत्येक के स्वरस तथा शुद्ध कुचिला और कनेर के क्वाथ से पृथक्-पृथक् एकएक दिन तक खरल करे। इस तरह एक सप्ताह तक घोटने के बाद गोली वनाकर चौपहे वस्त्र मे आवेष्टित करके कपड़मिट्टी कर वालुका यत्र मे रख मृदु अग्नि से तीन दिनो तक पाक करे । पश्चात् शीतल होने पर खूब महीन खरल करके उसमे शुद्ध वत्मनाभ विप का चूर्ण ५ तोला तथा पिप्पली चूर्ण १० तोला मिलाकर महीन पीस कर शीशी में भर दे । मात्रा २ रत्ती । अनुपान वाकची और देवदारु चूर्ण १-१॥ माशे और एरण्ड तेल १ तोला । इसके प्रयोग से सुप्त और मण्डल कुष्ठ में लाभ होता है। आरोग्यवर्धिनी-शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गधक १ भाग, लौह भस्म १ भाग, अभ्र भस्म १ भाग, ताम्र भस्म १ भाग, बड़ी हरड़ का दल २ भाग, यांवला २ भाग, बहेडा २ भाग, शिलाजीत ३ भाग, शुद्ध गुग्गुलु ४ भाग, चित्रक मूल की छाल ४ भाग और कुटकी २२ भाग ले । प्रथम पारद और गधक को कज्जली करके उसमें शेप द्रव्यो का कपडछान चूर्ण मिलावे । पीछे गुग्गुलु को नोन की ताजी पत्ती के स्वरस में ६ घटा तक भिगो कर मसलकर कपडे से छान कर उसमे अन्य द्रव्यो को मिला ले। फिर नीम की ताजी पत्ती के रस में तीन दिनो तक मर्दन करके तीन-तीन रत्ती की गोलियां बना ले।। मात्रा १ मे ३ गोली। अनुपान-रोगानुमार जल, दूध, पुनर्नवा कपाय, दशमूल कपाय अथवा मुघल फपाय से। गुण तथा उपयोग-बहुत प्रकार के रोगो में इस योग का व्यवहार होता है । जैसे, जोर्ण विवध ( पुरानी कब्ज), यकृत् दोप, उदर, यकृत्-प्लीहा-वृद्धि, सर्वांग गोफ, जलोदर, मेदो रोग आदि । यह उत्तम रक्तशोधक औपधि है । अस्तु, कुष्ट रोग में या त्यगत रोगो में इसका व्यवहार होता है । हृद्य होने से हृद्विकारो में भी लाभप्रद होती है । यह एक मूल औपधि के रूप में सर्वाग शोफ एव जलोदर में भी उपकारक है। Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : उन्तालीसवॉ अध्याय ६३५ कुष्ठ में वाह्य प्रयोग---जैसा कि पूर्व मे उल्लेख हो चुका है-कुष्ठ रोग मे बहुत से त्वग्गत रोगो का समावेश हो जाता है---इन त्वचा के विकारो मे कई प्रकार के लेप एवं तैलो का उपयोग किया जाता है । कुष्ठ मे त्वचागत दोपो को लेपो के द्वारा दूर करने के पूर्व दूषित रक्त का निर्हरण तथा आशयो का संशोधन भी अपेक्षित रहता है । तो भी जल्दी सफलता मिलती है ।' लेप: दद्र-रकसा-विचर्चिका-कच्छु आदि में व्यवहृत होने वाले लेप( Ringworm & Eczyma. ) मे कठजामुन की छाल दही के साथ पोसकर लेप। - मनःशिलादिलप---मैनशिल, हरताल, काली मिर्च, इनमे प्रत्येक का १-१ तोला लेकर चूर्णित करके सरसो का तेल ४ तोला और अर्क क्षीर २ तोला मिलाकर खरल करके लेप बना ले। इस लेप से पुराने त्वक रोगो में भी उत्तम लाभ होता है। करजादि लेप-करंज के बीज, चक्रमर्द के बीज तथा कूठ इनको पीसकर गोमूत्र मिलाकर लेप । __ आरग्वधादि लेप--रोगी के शरीर पर प्रथम सरसो के तेल का अभ्यंग करावे पश्चात् अमल्ताश, मकोय और कनेर के पत्तो को छाछ के साथ पोसकर उवटन लगावे । विविध प्रकार के त्वक् विकारो मे उत्तम लाभ करता है। भल्लातकादि लेप--भिलावे का फल, चित्रक मूल, थूहर की जड, आक की जड. गुफा का मूल या फल, सोठ, मरिच, पिप्पली, शख भस्म, नीला थोथा, कूठ, पाचो लवण, सजिक्षार, यवक्षार तथा कलिहारी इन सव द्रव्यो को सम मात्रा मे लेकर महीन चूर्ण बना कर कड़ाही मे चढाकर चौगुने थूहर या अर्कक्षीर के साथ पाक कर लेना चाहिये। यह तीन क्षणन क्रिया करने वाला योग (Causticaction ) है । इसका उपयोग लोहे को शलाका से सीमित स्थान पर करना चाहिए । इसका प्रयोग कुष्ठ के मण्डल (मोटे चकत्ते), अर्श के मस्से या चर्मकील पर करना चाहिये। १ ये लेपा कुष्ठाना युज्यन्ते निर्गतास्रदोषाणाम् । संशोधिताशयाना सद्य सिद्धिर्भवेत्तेषाम् ।। २ मनःशिलाले मरिचानि तैलमार्क पय कुष्ठहर प्रदेह । ३ करजबीजंडगज. सकुष्ठ गोमूत्रपिष्टश्च वर. प्रदेह. । ४ पर्णानि पिष्ट्वा चतुरगुलस्य तक्रेण पान्यथ काकमाच्याः । तैलाक्तगात्रस्य नरस्य कुष्ठान्युद्वर्त्तयेदश्वहनच्छदैश्च ।। (च) - Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ भिषमसिद्धि कुवरीधा १ भाग, मरमो का तेल ४ भाग, जल ८ भाग । तैल पाक विधि में पका ले । उनका अन्यंग विचिका में सिद्ध योग है। दद में लेप-चक्रमादि लेप-मई का वीज, कासमद वीज या नृल, तुलसी पत्र, वायविडंग, कृठ, हरिद्रा, हरीतकी, श्वेत सरमो, महजन की हाला , गाल को गोद और क्पूर मम मात्रा में लेकर काजी में पीसकर गोली नावे । नीबू के रस के नाथ गोली को लगावे । प्राचीन ग्रन्थो में चक्रमर्द बीज का दाद में बहुत उपयोग पाया जाता है-इसका दूसरा नाम ही दद्रुघ्न बतलाया गया है। दन्नबटी-पारसीकयवानी (बृरासानी अजवायन ), गन्धक, टंकण, राल एवं पर समान भाग लेकर बाजी में पीस कर गोली बना ले। नीबू के रस में घिस कर दद्रुमण्डल पर लगावे । पामा में लेप-- रमादि लेप-पाग, जीरा (मफेद एवं काला दोनों), हल्दी, आमाल्दी, झाली मिर्च, सिन्दूर, गंधक और मनगिल मम भाग। प्रथम पारद एवं गंधक को ज्जली बना ले पन्त्रात् अन्य द्रव्यो के महीन चूर्णों को मिलाकर भली प्रकार से एरल कर ले। इस चूर्ण को वृत में मिलाकर पूरे शरीर में यदि खुजली हो तो मारिम करे। पश्चात् सावुन से स्नान कर ले । घी के अभाव में नारिकेल तेल में भी मिलाकर लेप किया जा सकता है। यह एक पामा में व्यवहृत होने वाला उत्तम और मिड योग है। इसमें मूवी बोर गोली दोनो प्रकार की खुजली या वारिगो में लाभ होता है । तीन दिनों के उपयोग से खुजली दूर हो जाती है।' इस योग में यदि दवृष्न वीज का चूर्ण नी १ भाग मिला लिया जावे तो सभी प्रगर के कानुयुक्त त्वचा के रोगो में से दद्रु, विचिका प्रति रोगो में भी उत्तम लाभ देग जाता है। गंधक दव-गधक १ भाग, चूने की कली १ भाग बार जल १६ भाग । सिध्म यासहंवा में लेप- अपामार्ग के स्वरस, गोमूत्र, मळे या मानी ये नाथ मूली के बीज को पीमवर लेप करना, २. हन्दी को केले के रस से भिगो पर एक मकान तरकटने , फिर उभे केले के रस में पीने और लेप करे । ३ भनाई वीज, मूला के बीज, गवत, यवक्षार, इन द्रव्यों को चूर्ण करके कड़वे १. महिनीरद्रिनिगामरीत्रसिन्दूरदत्येन्द्रमनःगिलानाम् । चीकृताना तमिबिताना प्रिनिः प्रलेपैरपयाति पामा । (वै. जी.) Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : उन्तालीसवाँ अध्याय ६३७ तेल में मिलाकर लेप करना । ४ कठ, मूली के बीज, प्रियङ्गु, सरसो, हल्दी इन द्रव्यो को समभाग में लेकर चूर्ण करे, उसमे छठा भाग केशर मिलावे, फिर काजी, गोमूत्र या तक्र के साथ पीस कर लेप करने से बहुत वर्ष के सिध्म मे भी लाभ होता है । ५ आंवला, राल और यवक्षार को काजी मे पीस कर उबटन करना । ६. अमलताश की पत्ती को काजी के साथ पीसकर लगाना। ७. मूली का वीज, सफेद सरसो, नीम की पत्ती और गृहधूम समभाग मे लेकर पानी से पोसकर मक्खन मिलाकर पूरे शरीर पर लगावे फिर गर्म जल से स्नान करे तो तीन दिनो मे सिध्म ( सेंहुवा ) दूर होता है।' ८. कपास की पत्ती, काकजघा और मूली के बोज को मछे से पीसकर मगल के दिन उबटन लगाने से सिध्म शोघ्र दूर होता है ।२।। कच्छु-काठ-एक प्रकार की दद्रु या विचचिका जो अधिकतर गुह्यागो पर चूतड, वृषण एवं गुदा प्रभृति उपागो मे होता है। वृपणकच्छु (Scaotol Ecrsyma) एक प्रसिद्ध रोग है-जो प्राय. हठी स्वरूप का होता है। है । इसमें दो लेपो का उपयोग उत्तम रहता है-१ बाकुचों, कासमर्द के बीज, चक्रमर्द बीज, हल्दी, आमाहल्दो, सेंधानमक । समभाग मे लेकर चूर्ण बनाकर । मठे या काजी से पीसकर लेप करना । २ अडूसे के कोमल पत्ते और हल्दी को लेकर गोमूत्र में पीस कर लेप करना। कुष्ठ रोग मे व्यवहृत होनेवाले तैल ० अर्क तैल-सरसो का तेल १ सेर, अर्कपत्रस्वरस ४ सेर, मन शिला तथा हल्दी को सम मात्रा में लेकर पीसकर 1 कल्क से यथाविधि तैल सिद्ध कर ले । यह खुजली मे लाभप्रद रहता है । करवीर तैल-श्वेत करवीर (श्वेत कनेर ) की जड का क्वाथ तथा गोमूत्र ४-४ सेर, वायविडङ्ग और चित्रक की छाल २-२ छटांक, तिल तैल १ सेर । यथाविधि पाक करके अभ्यग । सभी प्रकार त्वक् रोगो मे उपयोग । कृष्ण सर्प तैल-कृष्ण सर्प वसा को सोमराजी तेल में मिलाकर लगाने से गलत् कुष्ठ में लाभप्रद होता है। १ बीज मूलकज निम्बपत्राणि सितसर्पपान् । गृहमं च सम्पिज्य जलेनागं प्रलेपयेत् ॥ उद्वर्त्य नवनोतेन क्षालयेदुष्णवारिणा । व्यहादनेन सिध्मानि शाभ्यन्त्याशु शरीरिणाम् ॥ २. कार्पासिकापत्रविमिश्रकाकजधाकृती मूलकवीजयुक्त.। । तक्रेण लेप क्षितिपुत्रवारे सिऽमानि सद्यो नयति प्रणांशम् ।। (यो. र.) Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपक्षम-सिद्धि मरिचादि तैल-काली मिर्च, हरताल, मनःशिला, नागरमोथा, आक का ध, कनेर की जड, जटामामी, निशोथ, गोवर का स्वरस, इन्द्रायण की जड, कल, हरित्रा, देवदाद, श्वेतचंदन प्रत्येक २-२ तोले लेकर करक बनावे। फिर सरनो का तेल १ सेर घोर गोमूत्र ४ सेर लेकर यथाविधि पाक कर ले। सभी प्रकार के कृष्फो में इसके अभ्यंग से लाभ होता है। मरिचादि तैल नाम से दो पाठ मिलते है । एक लघु जिमका कपर में योग दिया गया है । एक वृहत् मरिचादि तेल-जिसमे अधिक मोपधियों का योग है। यह बव-परम्परा में व्यवहत होनेवाला एक व्यापक योग है। सोमराजी दल-दो योग इस तेल के भी हैं लघु तथा वृहत् । तेल का पाठ दिया जा रहा है। बाकुची वीज, चक्रमर्द वीज 1-1 सेर लेकर जल ३२ सेर नेप ८ मेर पृथक्-पृथक दोनो का क्वाथ बनाकर गोमूत्र ४ सेर, सरसो का तेल १ सेर । कल्कार्थ द्रव्य-चित्रक एवं कलिहारी मूल, सोंठ, कू, हल्दी, करंजवीज, हरताल, मन गिला, अपराजिता, आक की जड, कनेर का जद, सप्तपर्ण की छाल, गोवर, खदिर की छाल, निम्बपत्र, काली मिर्च और काममदं के बीज या मूल का चूर्ण १-१ कप लेकर कल्क बनाकर तेल पाक विधि ने पाऊ कर ले । सभी प्रकार के त्वगत रोग तथा कुष्ठ में लाभप्रद । तुवरकाद्य तेल केवल चावल मोगरा का तेल भयवा-बाकुची योर चन्दन का तेल मिलाकर शरीर पर लगाना उत्तम कुष्ठनाशक उपाय है।' श्वेत कुष्ट चिकित्सा-सफेद कोड को दूर करने के लिये बाह्य तथा याभ्यंतर दोनो प्रकार के प्रयोगो की आवश्यकता रहती है। वाह्य प्रयोग में व्यवहृत होने वाले कुछ उत्तम योगी का नीचे मंग्रह दिया जा रहा है । श्वित्र को चिकित्सा में' वाकुचो एक महत्त्व का स्थान रखती है। इसके वाह्य तथा नान्यंतर प्रयोग या विधान कपर में बाकुची योग के नाम से बताया जा चुका है। यहाँ कुछ अन्य योगों का उल्लेख किया जा रहा है। १. गुंजाफलचित्रक लेप-गुंजा के फल और लाल चीते की छाल को - नमभाग में लेकर गोमूत्र में पीसकर लगाना। २. मन.गिला चौर नपामार्ग को १ वैवस्वतद्रुमसमुद्भववोजतलं कृटापहें निखिलचर्मरजापहञ्च । वन्यजनं निगदित ननु वैद्यवन्य भूयोऽनुभूय भुवि रोगिजनेप्वजत्रम् ।। - - २. मुटवं वाकुचोवीजं ( १६ तोला ) हरितालपलान्वितम् (४ तोला)। गवां भूत्रेण नम्पिप्य लेपनाच्छ्वित्रनागनम् ॥ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : उन्तालीसवाँ अध्याय ६३६ जलाकर उसकी राख को गोमूत्र मे भिगोकर लगाना। ३. सफेद जयन्ती के मूल की छाल को गोमूत्र में पीसकर लगाना। ४. वाकुची वीज और हरताल' का महीन चूर्ण बनाकर गोमूत्र से पीसकर लेप करना । ५ गजादि चर्म मसीहाधी, चीता और शेर के चमडे को जलाकर काजल बनाकर लेप करना । ६ पूतिकीट को सरसो के तेल मे पीसकर लगाना। ७ श्वित्रहर लेप-अर्क मूलत्वक, हल्दी, आमा हल्दी, वाकुची, हरताल समभाग चूर्ण बनाकर गोमूत्र केनि साथ श्वित्र पर लेप करना। ८ काकनासा की पर्ती के कल्क या स्वरस का Zall लेप । ९ गजलिण्ड योग-हाथो के मल को अच्छी तरह सूखने पर जलाकर | उसकी राख को जल में घोलकर सात बार निथारकर प्राप्त क्षार जल मे जल से दशमाश वाकची बीज का चूर्ण डालकर अग्नि पर पकावे । चिक्कन होने पर गुटिका बना ले। इस गुटिका को पानी मे घिसकर श्वित्र पर लगाने पर श्वित्र नष्ट होता है । और त्वचा सवर्ण हो जाती है । १०. बाकुची तैल-शद्ध वाकची के तेल का श्वित्र पर लगाना भी उत्तम लाभ करता है। ११, सोमराजी, पचानन या आरग्ववादि तैल का लेप भी उत्तम रहता है। । ओप्ट-श्वित्रहरलेप--ओष्ठश्वित्र कप्टसाध्य होता है। इसके लिये गधक, चित्रक, कासीस, हरताल, बहेरा और आंवले को जल मे पीसकर ओष्ठ के श्वित्र पर लगाने से लाभ होता है। शिवत्र मे लेप प्राय तीक्ष्ण होते हैं । फलतः इनके लगाने से कई बार त्वचा पर छाले पड़ जाते हैं। छाले हो जाये तो औषध प्रयोग कुछ दिनो के लिये बन्द कर देना चाहिये। छालो को सूई से विद्ध करके जल को स्रवित करके पुनः लेप का उपयोग करना चाहिये। पंचानन तैल-अंकोठ ( ढेरा ), कडवी तरोई, एरण्ड, तुलसी, वाकुची एवं चक्रमर्द के वीज, पिप्पली, मन.शिला, कासीस, हरड, कूठ, वायविडङ्ग को दो-दो तोले लेकर कल्क करे, सरसो का तेल, गोमूत्र, गोदधि, गोदुग्ध, वकरी का मूत्र प्रत्येक १ सेर और जल ४ सेर मिलाकर कडाही मे अग्नि पर चढाकर पाक करे । इस सिद्ध तैल का श्वित्र मे लेप करे। प्रथम श्वित्र स्थान को ताम्र के पैसे से रगड ले पश्चात् तैल को लगावे । आरग्वधाद्य तेल-अमलताश तथा धव की छाल, कूठ, हरताल, मन.शिला, हरिद्रा, दारुदरिद्रा प्रत्येक तीन-तीन तोले भर कल्क वनावे फिर १ सेर तेल और ४ सेर पानी मिलाकर तेल का पाक कर ले । उपयोग पूर्वोक्त तैलवत् । Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० भिपकर्म-सिद्धि श्वित्रकुष्ट मे अन्तः प्रयोग की औषध / १ शुद्ध गन्धक या गन्धक रसायन ४ रत्ती-१ मागा तक घृत और गकरा के साथ ऊपर से आंवला और खैर का काटा पिलावे। सुबह और शाम दिन मे दो वार । अथवा केवल धात्री मीर खदिर ( आँवले और कत्ये ) का काढ़ा में वाकुची वीज १ माशा मिलाकर पिलाना भो श्वित्र में हितकर होता है । २ वाकुची बीज का खाने में उपयोग-प्रतिदिन १-२ मागा चूर्ण का जल, दूध या गोघृत के साथ लगातार एक पक्ष या मास तक सेवन करना । दूसरे वर्षमान वाकुची सेवन का ऊपर में उल्लेख हो चुका है। दोनो में जो रोगी को अनुकूल प्रतीत हो उस विधि का प्रयोग करे। इसके प्रयोगकाल में घृत का मेवन रोगी को कराना चाहिये और भोजन में सात्विक माहार देना चाहिये। २. विभीतक और काष्टोदुम्बर की छाल का काढा कर उसमें बाकुची बोज का प्रक्षेप करके सेवन । श्वेतारिरस-शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, हरड़, वहेरा, आँवला, भृङ्गराज, वाकुत्री, शुद्ध भल्लातक, काली तिल, निम्ब बीज का चूर्ण १-१ तोले । भृगराज स्वरम की भावना देकर ४ रत्ती की गोलियां बना ले। मात्रा १-२ गोली दिन में दो बार । अनुपान ६ माशा घृत एवं ८ माशा मधु । ४. पंचनिम्ब चूर्ण प्रभृति अन्य भी कुष्टाधिकार के योगों का सेवन रकगोवन के निमित्त श्वित्र में किया जा सकता है। उपसंहार-कुष्ट एक दीर्घ काल तक चलनेवाला रोग है। इसमें चिकित्सा लम्बे समय तक ६ मास, एक वर्प, दो वर्ष या अधिक अवधि तक करनी होती है। लम्बी नववि तक पथ्य एव ओपधि सेवन करते हुए रोगी घबडा जाता है। कुष्ठ के रोगियो मे एक विचित्रता और पाई जाती है कि उनके लिये जो पथ्य कर आहार-विहार आदि का उपदेश वैद्य करता है-उसके विपरीत रोगी ठिपाकर आचरण करना चाहता है। अस्तु, दृढता-पूर्वक उपचार करने की आवश्यकता रहती है। इसके अतिरिक्त रोगी को सात्विक आहार, उदार विचार, परोपकार की प्रवृत्ति तथा देवोपासना को भी मावश्यकता रहती है। कुष्ठाधिकार में वर्णित निमित्मा का सम्यक्तया अनुपालन करने से कुष्ठ रोग में लाम निश्चित होता है । विपादिका कुष्ट-इमको पाददारी (Rhagades) भी कहते हैं । इस रोग में वायु की अधिकता या सूक्षता से हाथ एवं पर या केवल पर फट जाता है। १. धात्रीमदिरयो. क्वायं पीत्वा च मधुमयुतम् । गंलकुन्देन्दुधवलं जयेच्छिवयं न मंगय ॥ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : चालीसवाँ अध्याय यह रोग कई बार सामान्य रूप का और कई बार कुष्ट के उपद्रव रूप मे पाया जाता है । इस अवस्था में निम्नलिखित योगो का लेप उत्तम लाभ दिखलाता है। सर्जरसादिलेप-राल, सेंधानमक, गुग्गुलु, गेरु, गुड, घृत, मोम, शहद प्रत्येक एक-एक तोला लेकर कडाही मे सवको एकत्रित करके पका लेना चाहिये । इस लेप से परो का फटना निश्चित रूप से अच्छा हो जाता है। ( भै. र ) जीवन्त्यादि लेप--जीवन्तीमूल, मजीठ, दारुहल्दी और कबीला प्रत्येक का कपडछान चूर्ण ४-४ तोला और नीलाथोथा का चूर्ण १ तोला इन को जल मे पीसकर कल्क करे । पीछे उसमे तिल का तेल ३२ तोले, गाय का घो ३२ तोले, गाय का दूध ६४ तोले और पानी २५६ तोले मिलाकर स्नेहपाक-विधि से पकावे । जव स्नेह सिद्ध हो जाय तो उसे उतार-छानकर थोडा गर्म करके उसमे राल का चूर्ण ८ तोला और मोम ८ तोला मिला कर कपडे से छानकर कांच के वरतन मे भर ले। अथवा उसको एक सौ बार पानी से धोकर कांच या चीनी मिट्टी के पात्र मे भर कर और ऊपर चार अगुल तक ठंडा जल डालकर रख छोड़े। ४-४ दिनो पर ऊपरका जल बदलता रहे । उपयोग-विना धोये मल्हम को हाथ-पांव के तलो के फटने और पाँव की अंगुलियो के बीच के हिस्से मे पकने या मड़ने में लगावे । धोये हुए मल्हम को अग्निदग्ध व्रणो, पामा, कण्डु और अर्श के मस्सो पर लगावे । ( सि. यो. सं०) मधूच्छिष्टादि लेप-मोम, मुलैठी, लोध, राल, मजीठ, श्वेत चंदन और मर्वा प्रत्येक ४-४ तोले तथा घी ६४ तोले लेवे। प्रथम मुलैठी, लोध, मजीठ, चदन, राल और मूर्वा इनका कपडछान चूर्ण कर पानी मे पीस कर फिर उसमे घी और मोम मिलाकर घृतपाकविधि से पकावे । घृत तैयार होने पर कपडे से छान कर शीशी में भर ले। उपयोग-त्वचा के विदार, कुष्ठ, व्रण एव अग्निदग्ध व्रणो मे लेप रूप में उपयोग करे । चालीसवां अध्याय शीतपित्त-प्रतिपेध रोग परिचय-त्वचा पर ततैयो के काटने (वरटीदश) के समान सूजन जो छोटी-छोटी फुन्सी या चकत्ते के रूप मे एव बहुसख्यक पैदा होती है तथा जिसमे खुजली, सूई चुभाने कीसी पीडा, जलन एव कई बार वमन और ज्वर भी ४१ भि० सि० Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिषकर्म-सिद्धि होता है, उसे शीतपित्त कहते है । इसी को कुछ विद्वान उदर्द भी कहते है। शीतपित्त मे कुछ वायु की अधिकता और उदर्द मे कफाधिक्य पाया जाता है। इसी से मिलता हुआ एक कोठ रोग भी होता है जो हेतु एवं लक्षण की दृष्टि से गीतपित्त या उदर्द से कुछ भिन्न स्वरूप का होता है । वमन के हीन योग या मिथ्या योग या अति योग से अथवा निकलते हुए कफ एवं अन्न के वेग को धारण करने से इनकी उत्पत्ति होतो है। इनमे लाल रंग के वडे-बड़े अनेक चकत्ते निकलते है । ये अल्प काल तक रहते है- इनमे पुनरुद्भव की प्रवृत्ति नही रहती है । शीतपित्त एवं उदर्द मे बार-बार होने की प्रवृत्ति पाई जाती है ।२। ___शीतपित्त एव उदर्द का आधुनिक ग्रंथो में ( urticarna) नाम से और कोठ रोग का ( Angioneurotic) नाम से वर्णन पाया जाता है। ये सभी त्रिदोप रोग है। परन्तु जैसा कि नाम से स्पष्ट है ये गीत और पित्त अर्थात् दोनो के प्रभाव से पैदा हो सकते है । फलतः इनमे पित्त और श्लेष्म दोपो की प्रधानता रहती है। माधुनिक विद्वान इनकी उत्पत्ति मे एक प्रकार की अनूर्जता (Allergy ) को कारण मानते हैं, जो किसी असात्म्य द्रव्य के सम्पर्क मे बाने से या भोजन मे सेवन किये जाने ( Unsuitable protien or Histamin producing substances) से उत्पन्न होती है। इसमें कई प्रकार के विपो के जैसे सखिया, क्विनीन मादि के सेवन काल मे, अथवा कृमिदश के प्रभाव से या आत्रगत कृमियो की उपस्थिति से अथवा विकृत मत्स्य, मास, अण्डा, कई प्रकार के शाक के सेवन से अथवा विविध प्रकार के तृणों के पराग के नाक के सम्पर्क में आने से ( Hay fever ) शीतपित्त की उत्पत्ति मुत्यतया पाई जाती है। क्रियाक्रम:-शीतपित्तादि रोगो मे कडवे तेल का अभ्यंग, उष्ण जल से १ वरटोदशसंस्थान शोफ संजायते बहिः । सकराडुतोदबहुलच्छदिज्वरविदाहवान् ॥ उदमिति तं विद्याच्छीतपित्तमथापरे । वातापिकं गीतपित्तमुदर्दस्तु कफाधिकः ॥ २ मण्डलानि सकण्डुनि रागवन्ति वहूनि च । उत्तो० सानुबधश्च कोठ इत्यभिधीयते ॥ ३. बन्यंगक्टुलेन सेक्श्वोप्णेन वारिणा । तथानु वमनं वार्य पटोलारिष्टवानकैः ।। त्रिफलापनकृष्णानिरिकश्चात्र शस्यते । नपि. पोत्रा महातिक्त कार्य गोणितमोक्षणम् ॥ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : चालीसवाँ अध्याय स्नान, वमन एवं विरेचन तथा शोणितमोक्षण कराना प्रशस्त है । रोग की क्रियाक्रमों में वमन एवं विरेचन पर विशेष ध्यान देना चाहिये। वमन के लियेपटोल, निम्बपत्र और मदन फल का उपयोग तथा विरेचन के लिये त्रिफला चूर्ण का मधु के साथ सेवन.उत्तम रहता है। शीतपित्त मे संशोधन के पश्चात् निम्न लिखित संशमन योगो को देना चाहिये। ये सभी द्रव्य क्रिया मे Anti allergic or anti histaminic प्रतीत होते है । १. मधुयष्टि एवं शर्करा योग-मुलंठी ६ माशा और मिश्री १ तोला मिलाकर जल से सेवन । प्रात. सायम् । २ आमलकी एवं गुड योग-आंवले का चूर्ण ६ मा०, पुराना गुड १ तोला मिलाकर जल से सेवन । प्रातः-सायम् । ३. अजवायन एवं गुड योग-अजवायन ३ माशे, पुराना गुड १ तोला मिला कर लेना । प्रात -सायम् । ४ घृत-मरिच योग-काली मिर्च ३ माशे, घृत १ नोला मिला कर सेवन । प्रात सायम् । ५. अरणीमूल-घृत योग–अरणोमूल का चूर्ण ६ माशे १ तोला धृत के माथ नेवन । प्रात. सायम् । ६ आद्रक गुड योग-अदरक ३ माशे, पुराना गुड १ तोला मिलाकर सेवन । प्रातः सायम् । ७ हरिद्रा चूण-३ माशे मिश्री या मधु १ तोला के साथ सेवन । प्रात -सायम् । ८ गुडूची-का क्वाथ बनाकर मधु के साथ सेवन । प्रात -सायम् । 8 गाम्भारी फल-पके गाम्भारी फल का दूध के साथ सेवन करना । प्रात -सायम् । १० निम्व पत्र-निम्वपत्र एवं आँवले का चूर्ण समभाग मे लेकर ३-६ माशे घृत के साथ सेवन । प्रात:-सायम् । ११. पिप्पली-पिप्पली चूर्ण १ माशा घृत के साथ सेवन । प्रातः-सायम् । १२ लशुनका घृत के साथ सेवन । प्रात -सायम् । १३ पुनर्नवा-पुनर्नवा मूल ६ माशे, हरीतकी बडी २, मरिच ७ अडे और मिश्री २ तोले का शर्बत बनाकर लेना। प्रात सायम् । १४ त्रिफला-त्रिफला चूर्ण ३ माशे की मात्रा में मधु के साथ सेवन । प्रात.-सायम् । नवकार्पिक क्वाथ-हरड, विभीतक, आँवला, नीम की छाल, मजीठ, वच, कुटकी, गिलोय और दारु हरिद्रा इन नौ द्रव्यो मे से प्रत्येक को एक एक कर्प लेकर अष्टगुण जल मे पकाकर चतुर्थांश शेष रहने पर उतार कर मधु Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ भिषकर्म-सिद्धि मिला कर पिलाना चाहिये । एक कर्ष का आधुनिक मान से १ तोला होता है। फलतः इस क्वाथ को बना कर नौ हिस्से में बांट लेना चाहिये। एक बार बना लेने पर तीन दिनो तक दिन में तीन मात्रा देकर पिलाया जा सकता है। इस कपाय के पीने से वातरक, कुष्ठ, शीतपित्त, कोठ प्रभृति रोगो मे उत्तम लाभ होता है । शीतपित्त मे यह एक सिद्ध कपाय है। ___ अमृतादि कषाय-गिलोय, अडूसा, परवल की पत्ती, नागरमोथा, छतिवन की छाल, खैर की छाल, काला बेंत, निम्बपत्र, हरिद्रा, दारु हरिद्रा । प्रत्येक समभाग । इन औपवियो को जौकुट कर एकत्र करके २ तोले की मात्रा मे लेकर अष्टगुण जल मे पकाकर चतुर्थांश शेप रखकर मधु के साथ पिलाना चाहिये। यह विसाधिकार का कपाय है, शीतपित्त और मसूरिका रोग में उत्तम लाभप्रद है। मधुयष्टयादि कपाय-मुलैठी, महुवे का फूल, रास्ना, रक्तचंदन, श्वेतचंदन, निर्गुण्डी और पिप्पली को समभाग मे लेकर २ तोला का कषाय बनाकर सेवन शीतपित्तघ्न होता है। हरिद्रा खण्ड-घी में किंचित् भुनी हरिद्रा चूर्ण : सेर, गोघृत ६ छटांक, गोदुग्ध ४ सेर, शकर ३ सेर २ छटाँक । अग्नि पर चढाकर यथाविधि पकावे । जब पाक गाढा होने लगे तो उममे सोठ, मरिच, छोटो पीपल, दालचीनी, छोटी इलायची, तेजपात, वायविडङ्ग, निगोथ, आंवला, हरड, वहेरा, नागकेशर, मोथा और लौह भस्म पांच पांच तोले लेकर महीन कपडछान चूर्ण बनाकर मिलावे और करछो से पाक को चलाता रहे । मात्रा ३ से १ तोला। अनुपान उष्ण जल । यह जीर्ण और हठी शीतपित्त में लाभप्रद परमौषधि योग है। विश्वेश्वर रस-रससिन्दूर, ताम्रभस्म, तीक्ष्ण लौहभस्म, प्रवालभस्म, शुद्ध हरताल, शुद्ध गधक, नायफल, मेषशृङ्गो, वच, सोठ, भारंगी, हरड़, नेत्रवाला तथा धनिया का चूर्ण प्रत्येक १-१ तोला भर लेकर पटोलपत्र का स्वरस या क्वाथ से एक दिन तक खरल करे । पश्चात् १ मागे की गोली बनाकर मुखाकर शीशी में भर लेवे। मात्रा १ गोली सुबह-शाम । अनुपान-मधु । सहपान-मकोय का स्वरस और मेंधा नमक । ___ इन योगो के अतिरिक्त वृहद् योगराज गुग्गुलु या कैगोर गुग्गुलु या आरोग्यवधिनी या मारिवाद्यासव या अमृतारिष्ट या कनकामव का भी उपयोग शीतपित्त रोग में बावश्यक और चयालाभ किया जा सकता है। शीतपित्तादि रोगो में पाई वार १ रत्ती रससिन्दूर के साथ प्रवाल भस्म १-२ रत्ती और गुडूचीमत्त्व १ माशा मिलाकर धी-चीनी के अनुपान से देना भी उत्तम रहता है। कई वार गरिक का वाह्य तथा आभ्यतर प्रयोग भी लाभप्रद रहता है। इनके लिये Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथे खण्ड : चालोसवॉ अध्याय कामदुधा चूर्ण(शुद्ध सुवर्ण गैरिक मे आमलको स्वरस को ७ भावना देकर निर्मित) २-४ माशे को मात्रा में उप्ण जल के अनुपान से देना अथवा सिद्धामृत योग { शुद्ध सुवर्ण गरिक १ भाग, गोदन्ती २ भाग, शुद्ध स्फटिका ३ भाग और गुडूची सत्त्व ४ भाग मिश्रण से निर्मित) १-२ माशा की मात्रा मे घी और शक्कर के अनुपान से दिये जा सकते है । वाह्य प्रयोग-उदर्दादि रोग मे जब चकत्ते बहुत निकल गये हो उनमें खुजली एव जलन बहत हो तो निम्नलिखित लेपो मे से किसी एक का व्यवहार करना चाहिये। सिद्धार्थ लेप-श्वेत सरसो, हरिद्रा, कुष्ठ, चक्रमर्द बीज और तिल सम भाग में लेकर महीन चूर्ण बनाकर या पानी से पीसकर उसमें सरसो का तेल मिलाकर उवटन जैसे लगाना। दूर्वादि लेप-हरी दूव, हल्दी को जल में पीसकर गुनगुना करके लगाना । या क्षार जल में या चूर्ण के पानी मे पीसकर लगाना। क्षारजल-सज्जीखार, यवाखार या सोडा वाई कार्य को पानी में घोल कर सरसो का तेल मिलाकर लगाना । __ दार्वी तैल-दारु हरिद्रा, तुलसी, मुलेठी, गृहधूम (रसोई घर का कज्जल), और हरिद्रा प्रत्येक १, १, भाग लेकर कल्क करे उसमे सरसो का तेल कल्क से चतुर्गण और तैल से चतुर्गण जल डालकर मद अग्नि पर तैल का पाक कर ले 1 इस तेल के लेप से शीतपित्त का शीघ्रता से शमन होता है। __कोठ-रोग मे क्रियाक्रम-शीतपित्त एव उदर्द रोग में जो चिकित्सा-क्रम बतलाया गया है, उसी क्रम से कोठ रोग में भी चिकित्सा रखनी चाहिये । कुष्ठ रोग तथा अम्लपित्त रोग में भी जो चिकित्सा बतलाई गई है वह भी शीतपित्त , उदर्द एवं कोठ रोग मे लाभप्रद रहती है। विशेषत रक्तशोधन के विचार से महातिक्त घृत का सेवन कोठ रोग मे करना चाहिये और रोगी का सिरावेध करके रक्तविस्रावण कराना हितकर होता है।' शीतपित्तादि मे पथ्यापथ्य-गरिष्ठ अन्न-पेय, दूध के विकार जैसे-खोआ, रबडी, मलाई, दही प्रभृति, ईख के विकार जैसे-गुड, राव आदि, शूकर, मछली आदि आनुपदेशज मास या जलजीवो के मास, नवीन मद्य, पूर्व तथा दक्षिण दिशा की १. कुष्ठोक्त च क्रम कुर्यादम्लपित्तघ्नमेव च । उदर्दोक्ता क्रियाञ्चापि कोठरोगे समासत. ॥ सपि पीत्वा महातिक्त कार्य रक्तस्य मोक्षणम् । - Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ भिषकर्म-सिद्धि ठंडी हवा का सेवन, शीतल जल से स्नान, धूप का अधिक सेवन, दिन का सोना, वेगो का रोकना, स्निग्ध एवं अम्ल पदार्थो का अधिक उपयोग, मैथुनकर्म शीतपित्त के रोगियो मे विपवत् होते है-अस्तु इन आहार-विहारो का रोगी को पूर्णतया परित्याग करना उचित है । ___रोगी को पथ्य रूप में हल्का एवं सुपच्य आहार देना चाहिये। जैसे पुराना अन्न, मूग, कुल्थी आदि की दाल, जागल पशु-पक्षियो के मासरस, खेखसा, परैला, मूली, पोई का शाक, बेंत की कोपल, अनार, त्रिफला, मधु आदि का सेवन लाभप्रद रहता है । संक्षेप मे श्लेष्मा और पित्त को नष्ट करने वाले कटु-तिक्त एवं कपाय रस द्रव्य रोगी के लिये अनुकूल पडते है।। उपसंहार-शीतपित्त एव उदर्द एक हठी स्वरूप के रोग होते है। वर्षों तक चलते रहते है। अल्प काल तक चलने वाले रोगो मे तो स्वल्प उपचार से ही लाभ हो जाता है। परन्तु जीर्णकालीन रोगो मे पूर्ण पथ्य-व्यवस्था के साथ उपचार करने की आवश्यकता पडती है। अध्यायोक्त क्रियाक्रम, एकोपधि योग तथा बड़े योगो का यथावसर उपयोग करते हुए रोग का निर्मूलन संभव रहता है । इकतालीसवां अध्याय अम्लपित्त प्रतिषेध रोग परिचय-विरुद्ध भोजन, दूपित भोजन, अत्यधिक अम्ल, विदाह पैदा करने वाला तथा पित्तप्रकोपक भोजन एवं पेय से अथवा पित्त को कुपित फरने वाले कारणो से व्यक्ति का पित्त विदग्ध हो जाता है-जब विदग्ध पित्त की वृद्धि हो जाती है तो उस रोग को अम्लपित्त कहते है । सुश्रुत मै पित्त का स्वाभाविक या प्राकृतिक रस कटु वतलाया है और विकृत हो जाने पर पित्त विदग्ध कहलाता है और उसका रम अम्ल हो जाता है। अम्लपित्त रोग मे यही अवस्था उत्पन्न हो जाती है "अम्लं विदव च तत् पित्तम् अम्लपित्तम् ।"१ आधुनिक दृष्टया इस रोग को आमागय शोथ (Gasterntis ) कहते है। प्राङ्गोदीय ( Carbohydrates ) का पाचन ठीक न होने से, मामागय की १ विरुद्धदुष्टाम्लविदाहिपित्तप्रकोपिपानान्नभुजो विदग्धम् । पित्तं स्वहेतूपचितं पुरा यत्तदम्लपित्तं प्रवदन्ति नन्त ॥ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : इकतालीसवां अध्याय ६४७ प्लेष्मलकला के शोथ युक्त होने से या अत्यन्त क्षोभक पदार्थों जैसे गर्म मिर्चममाले, धूम्रपानादि से यह रोग होता है । इस रोग मे प्राय अम्लातिशय (Hyperacidity) पाई जाती है क्वचित् इसके विपरीत स्थिति अर्थात् अम्लाल्पता (Hypo acidity) से भी अम्लपित्त सदृश लक्षण पैदा हो सकते है । अस्तु, अम्लपित्त मे अम्लातिशय, अल्पता या अभाव भी हो सकता है। लक्षण-अम्लपित्त मे सामान्यतया भोजन का न पचना, विना परिश्रम के थकावट, मिचली, कड़वी या खट्टी डकारें, शरीर मे भारीपन, उदर मे भारीपन, हृदय प्रदेश तथा गले में जलन, भोजन मे अरुचि प्रभृति लक्षण पाये जाते हैं । अम्लपित्त के दो प्रकार है-ऊर्ध्वग तथा अधोग।' साध्यासाध्यता-यह अम्लपित्त रोग नवीन होने पर यत्नपूर्वक चिकित्सा करने से भी ठीक हो जाता है, पुराना होने पर यह याप्य और किसी किसी मे कृच्छमाध्य भी होता है। क्रियाक्रम-अम्लपित्त रोग मे सशोधन आवश्यक होता है । एतदर्थ सर्वप्रथम पटोलपत्र, निम्वपत्र, मदनफल सम भाग में लेकर कपाय बनाकर मधु. -मिलाकर वमन कराने के लिये देना चाहिए.। वमन से ऊर्ध्वग दोषो के अथवा श्लेष्म दोष के निर्हरण के अनन्तर पित्त दोष के निर्हरण के लिये मृदु विरेचन देना चाहिए। अम्लपित्त मे रेचनार्थ त्रिवृत् (निशोथ) का चूर्ण ४ माशा मधु से अथवा त्रिफला चूर्ण ६ माशे या कपाय एक घटॉक की मात्रा मे पिलाना चाहिये । नये अम्लपित्त में वमन-विरेचन कराना ही पर्याप्त होता है, परन्तु यदि रोग पुराना हो तो वमन, विरेचन के अतिरिक्त स्थापन एवं अनुवासन वस्ति कर्म भी आवश्यक होता है। अम्लपित्त रोग मे शीतपित्त एव उदर्द की भाति ही कफ तथा पित्त दोषो को प्रबलता पाई जाती है । अस्तु, वमन एव विरेचन आदि सशोधनो से इनके निहरण हो जाने के पश्चात् संशामक पथ्य, आहार एव औषधि की व्यवस्था १. अविपाकवलमोत्क्लेशतिकाम्लोद्गारगौरवैः । । हत्कण्ठदाहारुचिभिश्चाम्लपित्तं वदेद् भिषक् ।। २ रोगोऽयमम्लपित्ताख्यो यत्नात् ससाध्यते नव । चिरोत्थितो भवेद्याप्य. कृच्छ्रसाध्यश्च कस्यचित् ।। तस्य सशोधनं पूर्व कार्य पश्चाच्च भेपजम् । पूर्व तु . वमन कार्य पश्चान्मृदु विरेचनम् ॥ कृतवान्तिविरेकस्य सुस्निग्धस्यानुवासनम् । स्थापनं च चिरोत्थेऽस्मिन् देय दोपाद्यपेक्षया ॥ अम्लपित्त प्रयोक्तव्यः कफपित्तहरो विधि । पाचनं तिक्तबहलं पथ्यं च परिकल्पयेत् ।। Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ भिपकर्म-सिद्धि करनी चाहिये । तिक्त रम द्रव्यो का पाचन एवं पथ्य स्प में अम्लपित्त में उपयोग करना चाहिये । पथ्यापथ्य-अम्लपित्त के रोगी को तिक्तभूयिष्ठ आहार एवं पेय देना उत्तम है। तोरण द्रव्य जैसे मिर्च, गर्म मसालो से रहित भोजन देना चाह्येि । जो, गेहूँ और धान के लाज का सत्तू मीठा बना कर देना चाहिये । चावल एवं दाल का व्यवहार-भोजन पूर्णतया वन्द कर देना चाहिये । अम्लपित्त मे कोई भी दाल प्रशस्त नहीं है, वैसे मू ग की दाल का सेवन किया जा सकता है। जाङ्गल पशुपक्षियो के मासरस, चीनी, मिश्री, बतागे, मधु, खौलाकर ठंडा किया जल प्रशस्त है । शाक-सब्जियो में अम्लपित्ती को परवल, करेला, खेखसा, मूली, लौकी, तरोई, नेनुवा, हिलमोचिका, सोमा,पालक, वथुवा, चौलाई, चने का गाक, वेत्र के मोपल, पका कुष्माण्ड, केले के फूल प्रशस्त है । फलो में कैथ, नारियल, केला, पका याम, मोमम्मी, विला, अनार वेदाना, मुनक्का, गुलकद, आंवले का मुरब्बा, वेर तथा अन्य कफपित्तगामक तिक्त, कपाय एवं मधुर रस प्रधान द्रव्य प्रगस्त है । गाय या भैंस का दूध भी अम्लपित्त में अनुकूल पडता है ।' ताजा मक्सन या घी भी दिया जा सकता है । मसालो में धनिया, जीरा, हल्दी, अदरक, कागदी नीवू, सेंधा नमक, भादि का उपयोग उत्तम है। नया अन्न विगेपत. चावल, विरोधी अन्न, पित्तप्रकोपक भोजन, तिल, उटद, की दाल, वेगन, मछली, कुलथी, तेल, मिर्च-मसाले, दही, भेंड का दूध, काजी, लवण, अम्ल एव कटु रस द्रव्य, गरिष्ठ भोजन और मद्य आदि द्रव्य अम्ल पित्त मे अनुकूल नही पडते है । अस्तु, अम्लपित्ती को इन पदार्थो का परित्याग करना चाहिये । तेल में तली पूढी, पकोटी, आदि अपथ्य है। ___ अम्लपित्त में सामान्यतया गेहूँ, जो की रोटी, मूग की दाल या साबूत मूग का जूम और कपर में कथित शाक-सब्जियो का व्यवहार रखना चाहिये । रोटी, शार मोर दूध पर्याप्त मात्रा में रोगी को दिया जा सकता है। स्नेहो में घोड़े घी या मकचन का सेवन रखा जा सकता है। अम्लपित्त रोग मे पथ्यकर आहार पर विशेष ध्यान देना चाहिये । पथ्य आहार के अभाव में यह रोग अच्छा नहीं होता है। अम्लपित्त एक हठी रोग है, वर्षों तक चलता हुआ रोगी के लिये रोग न रहकर भोग स्वरूप बन जाता है. इस लिये पथ्य को अनुकूल १. निवतयिष्टमाहारं पानञ्चापि प्रकल्पयेत् । यवगोधूमविकृतीस्तीदणमस्कारजिताः। यथास्वलाजमयनुन् वा मितामधुयुनान् पिबेत् । Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : इकतालीसवॉ अध्याय ६४६ रखना परमावश्यक है। अच्छा हो जाने पर भी अपथ्य होने से इसके पुनरुद्भव की संभावना रहती है । पुराने अम्लपित्त को याप्य व्याधि शास्त्रकारो ने बतलाई है । अस्तु, इस रोग मे पथ्यकर आहार-विहार की विशेष महत्ता दी गई है। आँवला-आंवले का उपयोग अम्लपित्त मे श्रेष्ठ है। आँवले के स्वरस ६ माशे से १ तोला का १ तोला मिश्री के साथ सेवन या आंवले का चूर्ण ६ माशा का मिश्री या मधु से सेवन उत्तम लाभ करता है। पिप्पली-पिप्पली चूर्ण १-२ माशा का मधु ६ माशे के साथ सेवन । कुष्माण्ड-स्वरस १ तोला दूध में मिलाकर लेना अथवा कुष्माण्ड स्वरस में गुड मिलाकर लेना। जम्बोरी नीवू-स्वरस १ तोला की मात्रा मे सायंकाल मे पीना। कागजी नीबू का रस भी पानी मे डालकर साय काल मे ३ बजे पीना लाभप्रद रहता है।' ___ हरीतकी चूर्ण या त्रिफला चूर्ण-३ माशे की मात्रा मे मधु से दिन में दो बार । त्रिफला सेवन का एक और भी विधान है। त्रिफला चूर्ण ६ माशे लेकर कान्त लौह पान पर लेप कर दे। रात भर व्युपित होने पर दूसरे दिन उसको निकालकर मधु के साथ सेवन करना । __ शृंगराज-भृगराज का चूर्ण ३ माशा, हरीतकी चूर्ण ३ माशा मिश्रित कर १ तोला पुराने गुड के साथ सेवन । आर्द्रक या शुण्ठी-सोठ ४ माशा, पटोलपत्र ८ माशे भर लेकर १६ तोले जल में खौलाकर ४ तोले शेष रख क्वाथ मे मधु मिलाकर सेवन । मधुयष्टी-चूर्ण ५ माशा मधु के साथ सेवन । त्रिवृत चूर्ण-६ माशा मधु से सेवन । जौ-जीमण्ड ( वार्ली वाटर) का सेवन अम्लपित्तघ्न होता है। यदि तुपरहित जौ, पिप्पली और पटोलपत्र का क्वाथ बनाकर मधु के साथ दिया जाय तो अधिक लाभ होता है। अंगूर या द्राक्षा--का मिश्री के साथ मिश्रित करके सेवन उत्तम रहता है। १. पिप्पली मधुसयुक्ता अम्लपित्तविनाशिनी । जम्बीरस्वरस पीत साय हन्त्यम्लपित्तकम् ।। २ कान्तपात्रे वराकल्को व्युषितोऽभ्यासयोगत.। सिताक्षौद्रसमायुक्तः कफपित्तहर स्मृतः ॥ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० भिपकर्म-सिद्धि कपित्य या बदर-पकी लाल वेर या कैथ को चटनी जैसी बनाकर उसमें अदरक, मिश्री और मेंधानमक मिलाकर भोजन के माथ सेवन करना अम्लपित्त में लाभप्रद रहता है। सर्जिकानार-मोडा वाय कार्व-२ मागे की मात्रा में लेकर एक शीशे के ग्लास में रख तीन छटांक जल में घोलकर एक कागजी नीबू का रस छोडकर दिन में एक वार सायंकाल में तीन बजे लेना उत्तम लाभ दिखलाता है। 'मोडावाटर' का पानी भी उत्तम है। नारिकेल-नारिकेल की गिरी या जल-डाव का पानी अम्लपित्त में उत्तम लाभ करता है। वासादशाङ्ग कपाय-अदूसा, गिलोय, पित्तपापडा, नीम की छाल, चिरायता, भृङ्गराज, गांवला, हरढ, बहेरा बोर पटोलपत्र को समभाग मे ग्रहण करे। फिर उन्हें जौकुट करके २ तोले द्रव्य का ३२ तोले जल में क्वथित करके ८ नोले गेप रहे तो उतार-छान कर ठंडा होने पर शहद मिलाकर सेवन करना अम्लपित्त में अदभुन लाभप्रद पाया गया है।' द्राक्षादि चूणे-मुनक्का, धान का लावा, श्वेत कमल, मुलेठी, गुठली निकालकर छुहारा, अनन्तमूल, वंगलोचन, खस, आंवला, नागरमोथा, सफेद चदन, तगर, कवावचीनी (गीतल मिर्च ), जायफल, दालचीनी, तेजपात, छोटी इलायची, नागकेगर, छोटी पीपल और धनिया मव समभाग तथा मिश्री मव के वरावर लेकर कपडछान चूर्ण करे । मात्रा १-३ माशे। अनुपान गीतल जल दिन में तीन-चार बार चार-चार घटे के अन्तर से दे । उत्तम पित्तशामक योग है। अविपत्तिकर चूर्ण-सोठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, हरे, बहेरा, आंवला, नागरमोथा, नौमादर, वायविडङ्ग, छोटी इलायची और तेजपात प्रत्येक १-१ तोला, लबग ११ तोला, निगोथ का मूल २२ तोला, मिश्री ४४ तोले लेकर मनका कपडछान चूर्ण बना कर रख ले । मात्रा ३-६ मागे अनुपान दूध, जल या नारिवल जल । यह अम्लपित्त की एक सिद्ध मोपधि है । दानादि गुटिका-धोकर वीज निकाली हुई मुनक्का १ भाग, गुठली निकाली वढी हरें एक भाग, मिश्री २ भाग । प्रथम मुनक्के को महीन पोमे । १ वामाऽमृतापर्पटकनिम्बमूनिम्बमाव । त्रिफलाकुल के क्वाथ मन्चौद्रश्चाम्लपित्तहा । (भै र.) निम्बनिम्बात्रिफलापटोलवासामृतापर्पटमार्कवाणाम् । पवाघो हरेत् क्षोद्रयुतोऽम्लपि चित्तं यथा वारवधूकटाच ॥ (वं जी) Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : इकतालीसवाँ अध्याय ६५१ पीछे उसमें हरें और मिश्री का कपडछान चूर्ण मिलाकर १ तोले के गोले बना ले । १-२ गोले रात में सोते वक्त कुनकुने जल से सेवन करे । इसके सेवन से कब्जियत दूर होती है, छाती और कंठ की जलन जो अम्लपित्त मे प्राय पाई जाती है, दूर होती है । (सि. यो मं. ) नारिकेल खण्ड -- नारिकेल को ताजी गिरी १६ तोले लेकर भली प्रकार से पोसले फिर उसमे ४ तोला घी छोडकर अग्नि पर चढा हल्का भुने । पश्चात् उसमें नारिकेलजल ६४ तोले और मिश्री का चूर्ण १६ तोले डाल कर पाक करें । आसन्न पार्क होने पर उसमें निम्नलिखित द्रव्यों का महीन चूर्ण बनाकर डाले । प्रक्षेप द्रव्य - धनिया, पिप्पली, नागरमोथा, वशलोचन, जीरा सफेद, जोरा स्थाह, दालचीनी, छोटी इलायची, तेजपत्र और केशर प्रत्येक ३ माशे । अम्लपित्त, यदि तथा परिणाम शूल में यह उत्तम योग हैं । मात्रा १-२ तोला । अनुपान दूध | खण्डकुष्माण्डावलेह --पके पेठे का रस ४०० तोले, गाय का दूध ४०० तोले, आमलको चूर्ण ३२ तोले, मिश्री या चीनी ३२ तोले । मंदाग्नि से पाक करे । पाक के सिद्ध होने पर अम्लपित्त मे प्रयोग करे । मात्रा २ तोले से ४ तोला प्रतिदिन । अनुपान जल या दूध | सौभाग्य शुठी- - सोठ, मरिच, पिप्पली, हरड बहेडा, आंवला, भृङ्गराज, श्वेत जीरा, स्याह जीरा, धनिया, कूठ, अजवाइन, लोह भस्म, अभ्रक भस्म, काकाशृङ्गी, कायफल, मोथा, छोटी इलायची, जायफल, जटामासी, तेजपात, तालीसपत्र, नागकेशर, गधमातृका, कचूर, मुलेठी, लवङ्ग, लालचन्दन १-१ तोला तथा सोठ २८ तोला ( सभी चूर्ण के बराबर ) चीनी ११२ तोला, गोदुग्ध २२४ तोला लेकर यथाविधि पाक करले । मात्रा १ तोला | अनुपान गोदुग्ध या शीतल जल । गुण-- यह औषधि बहुत से रोगो मे लाभप्रद होती है। इसका विशेष प्रयोग प्रसवकाल में, सूतिका रोग मे तथा अम्लपित्त के पौष्टिक योग के रूप मे होता है । इस योग का ताजा प्रयोग करना ही लाभप्रद रहता है । नारायण घृत--पिप्पली १ सेर लेकर १० सेर जल मे क्वथित कर २ || सेर शेष रखे । इस क्वाथ को ले उसमें २|| सेर गोघृत, गिलोय का स्वरस १ सेर, आंवले का स्वरस पौने चार सेर । कल्कार्थ - मुनक्का, आँवला, पटोलपत्र, सोठ एवं वच प्रत्येक ४ तोले । घृतपाकविवि से घृत को बनाले | मात्रा १-२ तोला । अनुपान - १ पाव दूध में घोल कर ले । Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपक्कम-सिद्धि धान्यरिष्ट--पाण्डुरोगाधिकार का भोजन के बाद २ तोला समान मात्रा में जल मिलाकर लेना । अम्लपित्त में उत्तम लाभ दिखलाता है। रस के योग-- सूतशेखररस-शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, सुवर्ण भस्म, रोप्य भस्म, ताम्र भस्म, गप भस्म, शुद्ध टंकण, सोठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, दालचीनी, तेजपात छोटी इलायची, नागकेगर, शुद्ध धतूरे का वीज, पके वेल की मज्जा और कचूर प्रत्येक सम भाग । प्रथम पारद एव गधक की कज्जली करे पश्चात् अन्य द्रव्यो का कपडछान चूर्ण मिलाकर, भृङ्गराज स्वरस की २१ भावना देकर २-२ रत्ती की गोलियां बनाकर छाया में सुखाकर रख ले। मात्रा-१ गोली दिन में चार वार। अनुपान-१॥ माशा शहद और ३ माशा घी के साथ । पश्चात् मीठे वेदाना का रम या शर्वत पिलावे । उपयोग-अम्लपित्त, छाती का जलन, चक्कर आना, मूळ, वमन, पेट का शूल आदि पित्तदोषज विकारो में लाभप्रद रहता है। लीलाविलास रस-शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, अभ्र भस्म, ताम्र भस्म, लौह भस्म प्रत्येक का ४-४ तोले लेकर उसमें आमलकी स्वरस या क्वाथ, विभीतक कपाय, भृङ्गराज स्वरस या कपाय की पृथक् पृथक् तीन-तीन भावनायें देकर २ रत्ती की गोलियां बनाले। मात्रा-१-२ गोली दिन में दो बार । अनुपान-आमलकी स्वरस, कुष्माण्ड स्वरस और मिश्री के साथ । अम्लपित्तान्तक लौह-रससिन्दूर, ताम्र भस्म, लौह भस्म प्रत्येक १-१ तोला, हरीतकी चूर्ण ३ तोला एकत्र मिला लें। मात्रा-२ रत्ती से ४ रत्ती दिन में दो बार मधु से। सितामण्डूर-अच्छी बनी मण्डूर भस्म ४ तोला, मिश्री २० तोला, पुराना गोवृत ३२ तो०, गोदुग्ध ६४ तोला लेकर या लोहे की कडाही में डालकर यथाविधि पका कर कुछ उष्ण रहते ही उसमें सोठ, मरिच, पोपर, छोटी इलायची, दुरालभा (यवासा), वायविडग, मावरा, हरी, बहेडा, कूठ, लौंग एक-एक तोला मिलावे । पुन. गीतल होने पर शहद ८ तोला मिला लेवे । सेवन-विधि-शुभ मुहर्त के दिन भोजन के पूर्व प्रथम दिन ११॥ माशे की मात्रा में प्रारम्भ कर प्रति दिन थोहा योटा बढाकर एक एक तोले मेवन करें। तथा चन्द्रमा के किरणो में मीनल हुये दुग्ध का अनुपान करें। गुण-यह दिव्य "मितामडूर' अम्लपित्त तथा तज्जन्य शूल, वमन, मानाह, मूर्छा, प्रमेह तथा अनेक प्रकार के रक्तजन्य गिमारो फो नष्ट करता है। श्रीविल्वतल-कच्चे विल्व फल को ना १०० तोला तथा जल २ द्रोण Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : वयालीसवॉ अध्याय । ६५३ ( ३२ सेर ) लेकर क्वाथ करे अष्टमाशावशेप अर्थात् आठ सेर शेष रहने पर छान ले तथा उसमें १ सेर तिल का तेल, १ सेर आंवले का स्वरस, बकरी का दूध १ सेर एवं कल्कार्थ-आँवला, लाक्षा, हरड़, मोथा, लाल चन्दन, गन्धवाला, सरल काष्ठ, देवदार, मजिष्ठा, श्वेत चन्दन, कूठ, इलायची छोटी, तगर, जटामासी, शंलेयक (छैल छरीला ), तेजपात, प्रियगु, अनन्तमूल, वच, शतावर, असगन्ध, सौफ, पुनर्नवा का मिलित कल्क १ पाव भर लेकर, यथाविधि तैल सिद्ध कर लेवे और बोतलो मे भर कर मुखबन्द करके १ मास तक रख दे। उसके बाद इसे अभ्यग एव नस्यादि रूप में प्रयुक्त करें। इस तेल का मुख से सेवन १ तोले की मात्रा मे १ पाव दूध में मिलाकर या नस्य रूप में नासाछिद्रो से ४-६ बूद या अभ्यङ्ग के रूप मे करने से अम्लपित्त मे लाभ होता है। बयालीसवां अध्याय वाजीकरण निरुक्ति :-महाफलवती रसायन ओपधियो के सेवन के अनन्तर उनकी अपेक्षा अल्पफलवान् वाजीकरण योगो की चाह मनुष्य को करनी चाहिये । वाजीकरण शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की जाती है 'वाज शुक्रम् ( वाज का अर्थ है शक्र या वीर्य, सोऽस्यास्तीति वाजी।' वह जिसको है वह हुआ वाजी), अवाजी वाजी क्रियतेऽनेनेति-वाजीकरणम् अर्थात् अवाजी को वाजी जिस क्रिया के द्वारा किया जाता है उस क्रिया को वाजीकरण कहते है। वाजीकरण शब्द को दूसरी व्युत्पत्ति भी है। वाजी कहते है घोडे को, जिस क्रिया से घोडे के समान अप्रतिहत सामर्थ्य होकर युवक पुरुप युवती के पास जाता है उसको वाजीकरण कहा जाता है। वाजीकरण के फलस्वरूप पुरुप स्त्रियो के लिए अतिप्रिय होता है, उसका शरीर पुष्ट होता है क्योकि वह शरीर को बल एव कान्ति विशेप रूप से देता है। वाजीकरण का उपयोग नित्य करना चाहिये । रसायन औषधियो का प्रयोग एक वार किया जाता है, परन्तु, इसका सेवन आत्मवान् पुरुप को नित्य करना होता है। जिस प्रकार शरीर की वृद्धि एवं पुष्टि के लिए आहार की नित्य Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ भिपकर्म-सिद्धि आवश्यकता होती है उसी प्रकार शुक्र की पुष्टि एवं वृद्धि के लिये और शरीर को स्वस्थ बनाये रखने के लिये वाजीकरण की सदा आवश्यकता रहती है। वाजीकरण शब्द की एक तीसरी व्युत्पत्ति भी ग्रंथो में पाई जाती है। वाज शब्द से मैथुन कर्म का अर्थ ग्रहण करने से वाजी का अर्थ होगा मैथुन-शक्तिसम्पन्न । फिर वाजीकरण का समूह में अर्थ हुआ अवाजी अर्थात मैथुन-शक्तिरहित पुरुप, मैथुन गक्ति से समर्थ जिस क्रिया द्वारा बनाया जावे उसको बाजीकरण कहते है। अस्तु, वाजीकरण संज्ञा से पुस्त्व का ही वोध होता है । इससे यह सिद्ध होता है कि पुस्त्व को बढानेवाली क्रिया को वाजीकरण कहते है । अंग्रेजी में इस प्रकार की क्रिया वाली ओपधियो को Aphorodiasic or Sexstimulent कहा जाता है । उपर्युक्त व्युत्पत्ति से स्पष्टतया यह ज्ञात हो रहा है कि वाजीकरण पद मे दो गन्द है वाजी तथा करण । वाजी शब्द का तीन अर्थों मे व्यवहार होता है वाजी एक अर्य शुक्रवान्, दूसरा मर्य घोडा और तीसरा अर्थ पुस्त्व या पुरुपत्व है और करण का एक ही अर्थ है करना या बनाना । अस्तु, वाजीकरण का अर्थ होगा आदमी को Potent वनाना-अर्थात् क्षोणबल पुरुप Impotent man को जिस क्रिया द्वारा आजीवन बलवान् ( Potent man ) बनाया जावे उम चिकित्सा पद्धति को वाजीकरण कहा जाता है। जैसा निम्नलिखित मूत्रो मे स्पष्ट है - १ वाजः-शुक्रम् तदस्यातीति वाजी अवाजी वाजी क्रियतेऽनेनेति वाजीकरणम् । २. वाजी नाम प्रकाशत्वात्तच्च मैथुनसंजितम् । __वाजीकरणसज्ञाभिः पुंस्त्वमेव प्रचक्षते ॥ ३ येन नारीपु सामथ्यं वाजिवल्लभते नरः। येन वाऽप्यधिक वीर्य वाजीकरणमेव तत् ।। ४ चिन्तया जरया शुक्र व्याधिभिः कर्म कर्पणात् । अय गच्छत्यनशनात् स्त्रीणा याति निपेवणात् ।। (भै० र०) ५ मवमानो यदौचित्याद् वाजीवात्यर्थवेगवान् । नारीस्तर्पयते तेन वाजीकरणमुच्यते ।। (सु० चि० ३६) ६. वाजीवातिवलो यन यात्यप्रतिहतोऽङ्गनाः। नवयतिप्रियः स्त्रीणा येन येनोपचीयते ॥ तद्वाजीकरण तद्धि देहस्योत्करं परम् । ७. बाजीकरणमन्विच्छेत् सततं विषयी पुमान् ॥ (वा० ३-४० ) Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : बयालीसवाँ अध्याय ८. येन नारोषु सामर्थ्यं वाजिवल्लभते नरः । व्रजेच्चाभ्यधिक येन वाजीकरणमेव तत् ॥ ( चरक - चि०२ ) वाजीकरणमन्विच्छेत पुरुषो नित्यमात्मवान् । ९ यद् द्रव्यं पुरुषं कुर्याद् वाजिवत् सुरतक्षमम् । तद् वाजीकरण ख्यातं मुनिभिर्भिषजा वरैः ॥ ( यो०र० ) " अर्थात् विविध प्रकार की चिन्ता, वृद्धावस्था, व्यायामादिक कर्म, पंचकर्म, अनशन तथा अतिस्त्रीसेवन से शुक्र का क्षय होता है । जिस औषध, आहार एवं विहार के द्वारा वीर्यहीन मनुष्य स्त्रियो के साथ सम्भोग करने मे अश्व के समान शक्ति प्राप्त करले उमे वाजीकरण कहते है । अथवा जिस क्रिया के द्वारा वीर्य को अति वृद्धि होती हो उसे वाजीकरण कहते हैं । वाजपद से मैथुन का अर्थ ग्रहण करने से वाजी शब्द का अर्थ मैथुन-शक्ति वाला हुआ, अत जिस औषध से मैथुन-शक्ति रहित पुरुष मैथुन - शक्ति सम्पन्न बनाया जाता है, वह वाजीकरण कहलाता है । ६५५ अत वाजीकरण शब्द से पुस्त्व का ही वोध किया जाता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि पुस्त्व को बढानेवाली औषधि को वाजीकरण कहते है । जिन औषधियो का उचित मात्रा मे उपयोग करने से घोडे के समान अत्यधिक वेगवान होकर स्त्री को तृप्त करने का सामर्थ्य मनुष्य मे प्राप्त होता है, उसे वाजीकरण कहा जाता है । इसके उपयोग से पुरुष स्त्रियो के लिये अति प्रिय हो जाता है और स्त्री तथा पुरुष दोनो का शरीर अधिक शक्तिशाली हो जाता है । फलत विषयी पुरुष को नित्य वाजीकरण का सेवन करना चाहिये अर्थात् वाजीकरण प्रक्रिया का नित्य उपयोग करना चाहिये । .1 वाजीकरण शब्द की परिभाषा बनाते हुए आचार्य सुश्रुत ने लिखा है अल्पवीर्य वाले व्यक्ति वीर्यवाले व्यक्ति का बाजीकरण तत्र उस तत्र को कहते है - जिसमे स्वभाव से का आप्यायन ( पूरण ), दुष्ट वातादि दोपो से दूषित प्रसादन, अत्यधिक क्षय को प्राप्त हुए क्षीण वीर्य करना, वृद्धावस्था या प्रौढावस्था मे शुष्क वीर्य वाले स्वस्थ व्यक्ति में शुक्र की वृद्धि एवं स्राव बतलाये जावें । वाजीकरणतन्त्र नामाल्पदुष्टक्षीणविशुष्करेतसाम् आप्यायनप्रसादोपचयजनननिमित्त प्रहर्पजननार्थ: । ( सु० सू० १ ) वाजीकरण का माहात्म्य - आयुर्वेद के आठ प्रधान अग या विभाग वतलाये गये है उसमे एक अन्यतम अग वाजीकरण माना जाता है । रसायन व्यक्ति का उपचय या वृद्धि व्यक्ति का शुक्रोत्पादन तथा करने के निमित्त उपचार Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ भिवकम-सिद्धि तन्त्र के पश्चात् दूसरा महत्त्व का तन्त्र यह वाजीकरण तन्त्र है । रसायन तन्त्र का मुख्य लक्ष्य आरोग्य एव दीर्घ जीवन की प्राप्ति है । इस दीर्घ जीवन की प्राप्ति के अनन्तर प्राण का परिपालन, बनार्जन (धन का फमाना ), धर्मार्जन (धर्म का संग्रह करना), पुरुष का कर्तव्य हो जाता है । इन कर्तव्यो का तीन एपणावो या इच्छावो के नाम से या पुरुषार्थों के नाम से प्राचीन ग्रयो मे वर्णन पाया जाता है साथ ही इनके प्राप्त करने की महत्ता भी बतलाई गई है । इतना ही नही पुरुप को पुरुप तभी कहा जाता है जब वह तीनो एपणावो की प्राप्ति में सदैव तत्पर रहता है। इसीलिये इन्हें पुस्पार्थ भी कहते हैंपक्षपार्थ चार होते है-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । एपणायें बहुविध होती हुई भी तीन बढे वर्गों में ममाविष्ट है-प्राणपणा, धनपणा तथा परलोकपणा । पुरुप का पौरुप (गारीरिक वल) तथा पराक्रम (मानसिक वल ) का सर्वोत्कृष्ट फल इसी में निहित है कि वह सदैव विविध एपणावो या पुरुषार्थी की प्राप्ति में तत्पर रहे। पुरुषार्थयुक्त पुरुप को पुरुप कहा जाता है, दूसरे को नही । पुरुषार्थ के अभाव में वह पशुतुल्य ही रहता है। आचार्य चरक्ने भी लिखा है कि मनुष्य को अपने गरीर, मन, बुद्धि, पौरुफ तथा पराक्रम से इमलोक तथा पर लोक मे हित का विचार करते हुए तीनो प्रकार की एपणावो की प्राप्ति में मतत प्रयत्नशील रहना चाहिो। उदाहरण के लिए प्राणपणा, धनपणा तथा परलोकपणा के प्रति । "इह खलु पुरुषेणानुपहतसत्त्वबुद्विपौरुपपराक्रमेण हितमिह चामुम्मिश्च लोके समनुपश्यता तिन एपणाः प्रयष्टव्या भवन्ति । तद्यथा प्राणेपणा, धनेपणा, परलोकपणेति ।" (चर० सू० ११) ____मनुष्य को इच्छावो में से सर्वप्रथम इच्छा प्राण (जीने ) की होती है क्योकि प्राण के त्याग से नव कुछ चला जाता है। इसके पालन के लिये स्वस्थ को स्वस्थवृत्त के सूत्रो का नाचरण, रोग हो जाने पर रोग के सद्यः प्रगमन के उपाय करते हुए दीर्घायुष्य को प्राप्त करना प्रथम इच्छा होनी चाहिये । प्राण के अनुपालन के अनन्तर दूसरी इच्छा धन के साधन की होनी चाहिये । कपि, व्यवसाय या नौकरी करके धन का संग्रह करना चाहिये । प्राणपणा एव धनपणा मे कामनामक पुरुषार्थ-चतुष्टय का अन्तर्भाव हो जाता है क्योकि शरीर सम्पत्ति और धन-सम्पत्ति में काम का ही पोपण होता है। यह कामपणा स्वतः उत्पन्न होती है । फलत इसके सम्बन्ध में अधिक उपदेग की अपेक्षा नहीं रहती यह प्रकृति से स्वयमेव उत्पन्न होती है । परलोकपणा से धर्म और मोक्ष प्रभृति अन्तिम पुरयार्थो का ग्रहण हो जाता है । Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : वयालीसवाँ अध्याय ६५७ अब इस कामपणा की तृप्ति के लिये बहुविध कामशास्त्र के ग्रंथ उपलब्ध होते है जिनमे काम के लियो के विविध उपाख्यानो का वितृस्त वर्णन पाया जाता है । इम कामशास्त्र के सहायभूत अग वाजीकरण तत्र है । यह विशुद्ध वैद्यक का विषय है । इसका सीधा सम्बन्ध एक प्रधान पुरुपार्थ या एषणा अर्थात् काम वासना के साथ है - अस्तु, वैद्यक शास्त्र मे एक पृथक् तत्र रूप मे या अग रूप इसका वर्णन पाया जाना युक्तियुक्त है । वस्तुत. ऐहिक सुखो में तीन ही सुख प्रधान माने गये है- " सुत वित नारि ईपना तीना, केहि के मति नहि कीन मलीनी" ससार मे सुख की लिप्सा से मनुष्य धनार्जन करना, अधिक से अधिक स्त्री-सेवन तथा पुत्र को उत्पत्ति करना इन तीन ही इच्छात्रो से प्रेरित होकर व्याकुल रहता है । इन तीनो एषणावो को सम्यक् रीति से प्राप्ति का साधन वाजीकरण तन्त्र के द्वारा ही सभव हैं अतएव इस तन्त्र का बडा महत्त्व है । चरकाचार्य ने इसी लिये लिखा है- वाजीकरण के अधीन हा धर्म, अर्थ, काम, यश तथा श्रेष्ठ पुत्र की उत्पत्ति रहती है :तदायत्तौ हि धर्मार्थी प्रीतिश्च यश एव च । पुत्रस्यायतन ह्येतद्गुणाचैते सुताश्रयाः । ( च० चि०२ ) आज के युग में इस विजय का महत्त्व कम नही है । कामवासना कारक, कामोत्तेजक, वीर्योत्पादक, सन्तानोत्पादक तथा वीर्यस्तम्भक योगो के सेवन की चाह दिनो दिन लोक मे बढती जा रही है । ऐसे समय मे वाजीकरणाध्याय की चर्चा अधिक उपयुक्त सिद्ध हो रही है । वाजीकरण के गुण या फल - वाजीकरण के सेवन से पुरुष को तुष्टि ( प्रसन्नता ), पुष्टि (वल ), गुणवान् सतान, अवाधित रूप से सतान - प्रवाह ( वश-परम्परा का अक्षुण्ण वना रहना ) तथा तुरन्त तात्कालिक प्रहर्पण प्रभृति लाभ होते हैं । इसके सेवन से शरीर को विशेष रूप से बल एव कान्ति की प्राप्ति होती है । अल्पसत्त्व व्यक्ति के लिये, रोग से दुर्बल शरीर वाले कामी व्यक्ति के लिये, शरोर की क्षय से रक्षा के लिये मुख्यरूप से वाजीकरण तन्त्र का उपदेश किया गया है । नीरोगी, युवा एव वाजीकरण सेवन करने वाले पुरुष के लिये सब ऋतुओ मे प्रतिदिन भी मैथुन निषिद्ध नही है । तुष्टिः पुष्टिरपत्य च गुणवत्तत्र सश्रितम् । अपत्यसन्तानकर यत्सद्यः सर्पणम् ॥ तद् वाजीकरण तद्धि देहस्योर्जस्कर परम् ॥ ( वा० उ० स्था० ४० ) No fire for Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = भिषकर्म-सिद्धि बाचार्य सुश्रुन ने लिखा है कि वाजीकरण के मुख्यतया तीन ही लक्ष्य हैं | सद्यः कामतृप्ति के लिये १ स्त्री मे प्रीति पैदा करना २. संतानोत्पादन तथा ३ वल या हर्ष का पैदा करना । देग-वल-काल-व्यक्ति का विचार करते हुए यथावश्यक एवं यथालभ्य इन वाजीकरण के साधनो का सेवन करना चाहिये | सेवन के पूर्व व्यक्ति के मल का शोधन करके तदनन्तर दृष्य योगो का अनुष्ठान करना चाहिये | एते वाजीकरा योगाः प्रीत्यपत्यबलप्रदाः । विशुद्धोपचितदेहैः सेव्या कालाद्यपेक्षया ॥ ( सु. चि. २६ ) वाजीकरण के विपय- अधिक कामी या विषयी पुरुष को नित्य वाजीकरण योगो का सेवन करना चाहिये । पुरुष ही वाजीकरण के सेवन का अधिकारी है । उसी को आवश्यकता भी है । स्त्री और नपुंसक को नही । क्योकि पुरुष सक्रिय होता है स्त्री निष्क्रिय ( Active & Passive ) । दूसरा कारण यह है कि स्त्रियो मे प्रकृति से पुरुपो को अपेक्षा काठ गुना रति को शक्ति होती है. - 'पुग्रहण स्त्रीपण्ढादिनिवृत्त्यर्थम् । पुरुपग्रहण बालात्यन्तवृद्धनिरसनार्थम् । न पुनः स्त्रीपण्डव्युदासार्थम्, तेषा तु वाजीकरणप्राप्तेः इति जेज्जटः ।' पुरुप शब्द के कहने से तरुण पुरुप ( युवक पुरुष ) समझना चाहिये | क्योकि बालको में अर्थात् सोलह वर्ष की आयु के पूर्व अथवा वृद्धो मे अर्थात् सत्तर वर्ष के पञ्चात् वाजीकरण का सेवन व्यर्थ या अकिचित्कर होता है । उक्ति भी पाई जाती है कि अत्यन्त वाल्यावस्था मे मनुष्य के धातु, सम्पूर्णतया बने नही रहते हैं ऐसी आयु में स्त्रीगमन से वह उसी प्रकार सूख जाता है जिस प्रकार तालाब का स्वल्प जल ग्रीष्म ऋतु में सूख जाता है । अस्तु बाल्यावस्था में मंथुन निषिद्ध है । इसी प्रकार रूखा सूखा, घुन लगा और जर्जर पेड जिस प्रकार छूने मात्र से ही गिर जाता है उसी तरह अत्यन्त वृद्ध पुरुष स्त्रीसंग से । अतिबालो ह्यसपूर्ण सर्वधातुः स्त्रियो व्रजन् । उपशुष्येत सहसा ताडागमिव काजलम् ॥ शुष्कं रूक्ष तथा काट जन्तुजग्वं विजर्जरम् । माशु विनीयत तथा वृट्ठस्त्रियो व्रजन् ॥ (च चि. २) योगरत्नाकर ने बाजीकर योगों के सेवन की आयु वतलाते हुए स्पष्टतया लिया है कि सोलह वर्ष की आयु के पूर्व या मत्तर वर्ष की उमर के पश्चात् वाजीकर योगो का उपयोग नहीं करना चाहिये | क्योंकि आयु की चाह रखने वाले व्यक्ति को मोलह के पूर्व या नत्तर वर्ष की आयु के पूर्णतया परित्याग कर देना चाहिये - अन्यथा, करने मे पश्चात् मैथुन कर्म का अकाल-मृत्यु का भय Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : बयालीसवॉ अध्याय ६५६ रहता है। इस प्रकार मोलह वर्ष से लेकर सत्तर वर्ष की आयु तक वाजीकरण या वृष्य योगो के सेवन करने को काल-मर्यादा बताई गई है : सप्तत्यन्त प्रकुर्वात वर्षादूवं तु पोडशात् । न चैव पोडशार्वाक सप्तत्या. परतो न च ॥ आयुष्कामो नरः स्त्रीभिः सयोग कर्तुमर्हति । अकालमरणञ्च स्याद् भजतः स्त्रियमन्यथा ॥ ( यो० र०) आत्मवान् या सदाचारी पुरुपो को ही वाजीकरण सेवन के लिये देना चाहिये । दुरात्मा या दुष्ट व्यक्तियो को नहीं। क्योकि दुरात्मा व्यक्ति वृष्य योगो के सेवन से धातुओ की वृद्धि के कारण कामातुर होकर अगम्या स्त्री के साथ भी गमन करने लगता है-जिसमे लोक मे, समाज में या धर्म की दृष्टि से हानि होती है। अस्तु, पूर्ण विचारवान् व्यक्तियो मे ही वाजीकरण योगो के प्रयोग को मोमित रखना चाहिये । आचार्य सुश्रुत ने लिखा है कि वाजीकरण के उपयोग की आवश्यकता निम्नलिखित व्यक्तियो मे होती है। नीरोग व्यक्ति, तरुणावस्था के व्यक्ति, प्रौढावस्था में रमण को इच्छा रखने वाले व्यक्ति, स्त्रियो मे प्रीति या वाल्लभ्य की चाह वाले व्यक्ति, अति स्त्री प्रसग से शुक्रक्षययुक्त व्यक्ति, क्लोब व्यक्ति ( Impotent ), अल्पशुक्र व्यक्ति, विलासी व्यक्ति, धनी व्यक्ति, रूप एवं युवावस्था से युक्त व्यक्ति तथा बहुत स्त्री वाले व्यक्ति । इन पुरुषो मे वाजीकरण योगो का सेवन हितकर होता है । कल्पस्योदग्रवयसो वाजीकरणसेविनः । सर्वस्वृतुष्वहरहळवायो न निवारितः ॥ स्थविराणा रिरसूना स्त्रीणा वाल्लभ्यमिच्छताम् । योपित्प्रसगात् क्षीणाना क्लीबानामल्परेतसाम् ॥ विलासिनामर्थवता रूपयौवनशालिनाम् । नृणा च बहुभार्याणा योगा वाजीकरा हिता. ॥ (सु चि २६) हिता वाजीकरा योगाः प्रीत्यपत्यबलप्रदा ॥ . सुश्रुत ने क्लैव्य के ६ प्रकार बतलाये है-१ मानस (Psychtological) २ आहारज ( कटु-उष्ण-अम्ल-लवण रस के अधिक खाने से ) ३ वाजीकररहित होकर अतिव्यवायज (शुक्रक्षय को अधिकता से ध्वजभग) ४ मेढ़रोगज शस्त्रच्छेदज ( Traumatic) ५ सहज क्लव्य-जन्म से ही क्लीब होना तथा ६ स्थिर शुक्रनिमित्तज-ब्रह्मचर्य व्रत मे क्षुब्ध मन के निरोप से । उनमे Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० भिपकर्म-सिद्धि सहज और मर्म च्छेदज क्लैब्य असाध्य है, किन्तु गेप चार प्रकार के क्लच हेतुविपरीत चिन्मिा तथा बाजीकर योगो के प्रयागो से ठीक हो जाते है। अन्तु, इन चतुर्विध क्लयों में भी वाजीकरण की सतत आवश्यकता पड़ती है । "योपित्यसंगाक्षीणाना क्लीवानामल्लरेतसाम् । हिता वानीकरा योगाः प्रीणयन्ति बहुप्रदाः ॥ (भा. प्र.) वाजीकरण के अभाव मे दोष-वाजीकरण के अभाव में स्त्री के वगी भूत होकर मैथुन करने से ग्लानि, कम्प, बवमाद (मिथिलता), कृगता, इन्द्रियों की मीणता, गोप, श्वास, उपदंग, ज्वर, अर्ग, भगन्दरादिक गुदा के रोग, रस-रक्तादि धातुओ की क्षीणता, भयङ्कर बात रोग, क्लीयता और लिङ्ग भग ( ध्वज भग) यादि उपद्रव होते हैं । इसलिये कामी पुरुषो को नित्य वाजीकरा योगों का सेवन करना चाहिये । ग्लानिः यो वनादत्तदनु कृशता क्षीणता चेन्द्रियाणां शोपीच्यायोगदावर गुदजगढा क्षीणता सर्वधातौ ॥ जायन्ले दुनिवाराः पचनपरिमगः लीवता लिङ्गभगो वाग च्यातियोगाद् भजत इह सदा गजिक्रमांच्युतत्य ।। (मै र.) ब्रह्मचर्य तथा वाजीकरण-अब यहाँ शका पैदा होती है कि बायुर्वेद उहाँ पर ब्रह्मचर्य तथा शुक्ररक्षण की भूरि-भूरि प्रशंना करता है-आहार, स्वप्न तया ब्रात्र को तीन जीवन न मानता है वहीं पर कामपणा की तृप्ति के लिए वाजीकरण नन्त्र का उमका उपदेश कहां तक युक्तिमगन है। इसका समाधान यह है कि वस्तुन इन दोनो विचारो में कोई विरोध नहीं है। विधिपूर्वक गम्य म्बिगे में और ऋतु काल में किया गया मैथुनविहित कम है और वह निष्टि नहीं है । इस प्रकार का विहित मैथुन कर्म ब्रह्मचर्य या शुक्र संरक्षण का सहाय मृत नग होता है । इनमें मदेह नहीं कि ब्रह्मचर्य एक अधिक महत्त्व का मात्रण है । यह धर्म के अनुकूल माचरण है। इसके द्वारा यम की प्राप्ति, वायु की वृद्धि, उहलोक तथा परलोक में रसायन ( उपकारक ) गुणो की प्राप्ति होनी है । नर्वण निर्मल ब्रह्मचर्य वा गाम्न सदैव अनुमोदन करता है। परन्तु बहाई का अनुष्ठान स्त्र के लिये सरल नहीं होता है। यह बड़ी ही कठिन ताम्ग है। फारम ब्रह्मचर्य का बन्न होना ही स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में ग्नि प्रकार हम अपने नामपणावा भी कि बने हुए स्वस्थ रहकर दीर्घायुप्त भी प्राप्ति करने है। एतद ही वाजीकरण विद्या का वाचार्यों ने उपदेग किया है। नए में ऐसा कहा जा सकता है कि ब्रह्मचर्य का धारण तो निर्विवाद Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : बयालीसवाँ अध्याय सर्वाधिक आयु देने वाला है "ब्रह्मचर्यमायुष्कराणा श्रेष्ठतमम्" (चरक ) परन्तु इसका यदि पालन सभव न हो सके तो गृहस्थी में रहकर स्वास्थ्य-सरक्षण का दूमरा उत्कृष्ट मार्ग वाजीकरण सेवन का है । कारण यह है कि वाजीकरण या वृष्य योगो के सेवन से शुक्र की उत्पत्ति और वृद्धि होती रहती है और शुक्र के क्षय होने पर भी पुरुप मे किसी प्रकार की दुर्बलता नही आने पाती प्रत्युत उसका स्वास्थ्य अधिकाधिक बढता चलता है। वाजीकरण तथा सन्तानोत्पत्ति-वाजीकरण योग वष्य होते हैउनसे शुक्र जनन को क्रिया अधिक हो जाती है । इनसे शुक्र कोट (Sperms) भी दृढ हो जाते है । परिणाम स्वरूप सन्तानोत्पत्ति भी अवश्यम्भावी हो जाती है । प्राचीन काल मे पुत्रोत्पादन या सन्तानोत्पादन को बडी महत्ता दी जाती थी। पुत्र पद की व्याख्या करते हुए शास्त्रो मे लिखा है-'नाम नरक से जो रक्षा करता है उसे पुत्र कहते है। फलतः पुत्रोत्पादन एक धर्म कार्य है। इसके विपरीत नि मन्तान व्यक्ति की निन्दा समाज मे होती थी, लिखा है-छायारहित, दुर्गधित पुष्पो वाले, फलरहित और एक शाखा वाले अकेले वृक्ष को भांति सन्तानहीन पुरुप होता है । सन्तानरहित व्यक्ति की उपमा चित्र में खीचे दोपक से, सूखे तालाव से, सुवर्ण की आभा वाले असुवर्ण से, तृण के बने पुतले से, दी गई है। समाज मे उसको प्रतिष्ठा नही होती है। उसे नग्न के समान, एकेन्द्रियवाला तथा निष्क्रिय व्यक्ति माना जाता है। एतद्विपरीत सन्तानयुक्त पुरुष की प्रशसा करते हुए भी बचन पाये जाते है-जैसे बहुत सन्तानयुक्त व्यक्ति को बहुत मूर्तिवाला, बहुत मुख वाला, बहुत च्यह ( बहुत रूप का ) वाला, बहुत नेत्रो वाला, बहुत ज्ञान वाला, बहुत आत्मावाला तथा बहुक्रिय व्यक्ति कहा गया है। बहुत सन्तान वाले व्यक्ति को मगलमय दर्शन वाला, प्रशसित, धन्यवाद का पात्र, वीर्यवान् एव बहन शाखाओ से यक्त वक्ष की भांति स्तुत्य कहा गया है। अपत्य या सन्तान के अधीन प्रीति, चल, सुख, वृत्ति, कुल का विस्तार, लोक में यश तथा सुख की प्रीति सभव रहती है। इसलिये गुणवान् एवं सच्चरित्र सन्तान पैदा करने के लिये मनुष्य को सतत प्रयत्नशील रहने का भी उपदेश पाया जाता है। इस प्रकार कामैषणा की तप्ति के लिये कामसुखो को प्राप्त करने के लिये, ससार के सम्पूर्ण सुखो के उपभोग के लिये वीर्य तथा सन्तानोत्पादन क्रिया के बढाने वाले वाजीकरण साधनो का पुरुष को नित्य उपयोग करना अपेक्षित है। वाजीकरण तन्त्र की महत्ता इस दृष्टि से भी स्वीकार की गई है। Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिषकर्म-सिद्धि . अच्छायएक शाखश्च निष्फलश्च' यथा द्रुमः । अनिष्टगन्धश्चैकश्च निरपत्यस्तथा नरः ॥ बहुमूर्तिर्वहुमुखो बहुव्यूहो बहुक्रियः । बहुचक्षुर्वहुनानो बहात्मा च बहुप्रजः ॥ ___ + + + बाजाकरणनित्यः स्यादिच्छन् काममुखानि च । उपभोगसुखान् सिद्धान् वीर्यापत्पविवर्धनान् ।। (च. चि. २) आज युग बदल गया है। देश मे दरिद्रता के साथ ही साथ जनसंख्या भी वटती जा रही है। याज वह्नपत्पता या बहुत सन्तान पैदा करना एक अभिशाप हो गया है । नियोजित पितृत्व, सन्तति-निरोध या परिवार नियोजन (Family Plannig or Birth control ) की चर्चा चारो ओर सुनाई पड़ती है । ऐसे युग में सन्तति-नियमन ही (कम सन्तानो का पैदा करना ही ) सद्गुण हो गया है और वहुप्रज होना एक महान् समगल कर्म हो गया है। फिर भी सन्तानोत्पादन का महत्त्व कम नही हुआ है-अप्रज (बिना सन्तान वाले व्यक्ति) की बाज भी निन्दा ही है । सन्ताने जरूर पैदा होवें, परन्तु बहुत सख्या मे नही होनी चाहिये । नीति का भी वचन यही है-~"एक भी गुणी पुत्र का होना सी मूर्ख एवं दरिद्र सन्तानो के पैदा होने से अच्छा है।" अथवा "बहुत सी सन्तानो का होना दन्द्रिता का प्रतीक है।" "वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्खशतान्यपि । एकरचन्द्रस्तमो हन्ति न च तारागणरपि ।" "वह्वपत्यं दरिद्रता।" बाज के युग में कम सन्तानो का पैदा होना यद्यपि एक श्रेष्ठ गुण है तथापि हम ब्रह्मचर्य या इन्द्रिय-दमन के द्वारा इस कार्य का सम्पादन नही कर सकते। पोंकि कामुक वासनाओ का नियमन करना असभव है। यह वासना आज के युग में पूर्व की अपेक्षा किसी कदर कम नहीं हो सकी है। यदि यह कही सभव : रहता तो हमे आज मतिनिरोध के लिये बडी-बड़ो औपधियो की खोज की योजना या संतति नियामक विविध प्रवन्धो, प्रचारो, शिक्षण तथा शस्त्र कर्म के मनुसन्धान की आवश्यकता नहीं पड़ती पेवल पति-पत्नी के मयम से ही काम चल जाता। चूकि इनकी कामवासनाओ का दमन करना सर्वथा असभव है । अस्तु, हमे नतान नियमन के लिए नाना प्रकार के कृत्रिम साधनो का ( Contracep tive Methods ) ईजाद करना पट रहा है। फरत माज नमाज को ऐसी मोपधिया की जरूरत है जो कामुकवामनायो को जागरूक गरें, परन्तु गर्भाधान या सन्तानोत्पत्ति कम हो या बिल्कुल न हो। फामुष वामनानो या फार्मपणा की पूर्ति का होना आज भी उतना ही आवश्यक Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : बयालीसवाँ अध्याय ६६३ है जितना पहले किमी युग मे रहा होगा । एतदर्थ वाजीकरण तन्त्र की सार्थकता तथा उसकी उपयोगिता आज भी कम नही हो पाई है। आज भी उसको उपादेयता अक्षुण्ण बनी हुई है केवल एक प्रतिवन्ध के साथ कि सतति' की औसत वृद्धि न होवे । एतदर्थ सतति-नियामक विधियो के साथ-साथ वाजीकरण का विधान सर्वथा और सर्वदा युक्तियुक्त है । सामान्य वाजीकर द्रव्य-बहुत प्रकार के आहार-विहार, आचार एवं परिस्थितियां वाजीकरण के रूप में होती है । उदाहरणार्थ, अनेक प्रकार के चित्रविचित्र भोजन, विविध प्रकार के पीने के पदार्थ, सगीत, कान को प्रिय लगर्ने वाले मधुर वचन, त्वचा को स्पर्श से प्रिय लगने वाले वस्त्र-स्पर्श, आभूषणादि, चन्द्रमायुक्त रात्रि, नवयौवना स्त्रो, कान-मन को हरने वाले गाना-बजाना आदि, ताम्बूल (पान की वोडा), मद्य ( मदिरा), माला (सुगधित पुष्पो की माला), सेण्ट, इतर तैल आदि खुशबूदार या सुगधित द्र-य, सुन्दर मनोहर चित्र-विचित्र पुष्पो वाला उद्यान और मन को प्रसन्न रखने वाले कर्म मनुष्य को मैथुन-शक्ति प्रदान करने वाले है। भोजनानि विचित्राणि पानानि विविधानि च । गीत श्रोत्राभिरामाश्च वाचः स्पर्शसुखास्तथा ॥ यामिनी सेन्दुतिलका कामिनी नवयौवना। गीत श्रोत्रमनोहारि ताम्बूल मदिरा स्रजः ॥ गधा मनोज्ञा रूपाणि चित्राण्युपवनानि च । मनसश्चाप्रतीघातो वाजीकुर्वन्ति -मानवम् ॥ (सु चि २६ तथाभा प्र) । सम्पूर्ण प्रकार के वाजीकर द्रव्यो से सर्वाधिक बाजीकरण स्त्री को माना गया है। कामवासनाओ के जागृत करने वाले एक-एक विपय जैसे मनोहर शब्दस्पर्श-रूप-रस-गध पुरुष को बलपूर्वक अपनी ओर आकर्षित करने वाले होते है-- और इनसे एक-एक के द्वारा भी प्रोति उत्पन्न हो सकती है । जब ये सभी विषय एकत्र होकर सघात के रूप मे स्त्री मे व्यवस्थित रहते हैं तब उससे बढकर और क्या वाजीकरण हो हो सकता है । स्त्री मे प्रकृति से ही ( उनको मधुमय वाणी ), रूप ( उनका लावण्यमय रूप), स्पर्श ( उनके शरीर का कोमल स्पश), रस ( उनके अधरणत रस ) तथा गध ( उनके शरीर की गंध) का आकर्षक सामं. जस्य सघात रूप में स्थापित रहता है जो पुरुप के लिये परम आकर्षण, प्रीति तथा वाजीकरण का प्रत्यक्ष हेतु बनता है। इस प्रकार का सघात अन्यत्र कही Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ सिपकर्म-सिद्धि भी नही पाया जाता है । इसलिये स्त्री को श्रेष्ठ वाजीकरण, प्रहपिणी-वृष्य तथा श्रेष्ठतम वाजीकर माना गया है । वृप्यतम स्त्री के लक्षणो को बतलाते हए आचार्य ने लिखा है-"जो स्त्री पवती, युवती, कामशास्त्रोक्त शुभ लक्षणों से युक्त, मन को प्रिय लगने वाली तथा काम शास्त्र में शिक्षिन हो-वृष्यनमा स्त्री पहलाती है । स्वभाव से ही युवती स्त्री वृष्य होती है और पुरुष के आकर्षण का कारण बनती है। स्त्रियों में धर्म, अर्थ, काम प्रतिष्ठिन है । वह लक्ष्मीस्त्रन्पा होती है। उसमें सम्पूर्ण लौकिक यश एवं कीति निहित है। सन्तान की उत्पत्ति भी स्त्री पर हो आश्रित है। इसीलिये इनमें एन्प को विशेष प्रीति का होना स्वाभाविक है। अपने चरित्र, नंतान. कल मर्यादा, वंगपरम्पग तथा अपनी अपनो रक्षा स्त्री की रक्षा करने से ही संभव है । सम्नु, जाया या स्त्री की रक्षा सदैव करनी चाहिये ऐसा स्मृति भी कहती है। । बाजीकरणमयं च क्षेत्रं स्त्री या प्रदर्पिणी । दृष्टा ह्येकैकयोऽप्यर्थाः परं प्रीतिकगः स्मृताः ।। किं पुनः न्त्रीशरीरे ये संघातेन व्यवस्थिताः । न्त्रीषु प्रीतिविगेपेण स्त्रीप्वपल्यं प्रतिष्ठितम् ॥ धर्मार्थ स्त्री लक्ष्मीश्च श्रीपु लोकाः प्रतिष्ठिताः। सुल्या यौवनत्था या लक्षणैर्या विभूपिता ।। या वश्या शिक्षिता या च सा श्री वृष्यतमा मता । (च. चि २) स्वा प्रसूति चरित्रं च कुलमात्मानमेव च स्वं च धर्म प्रयत्नेन जाया पक्षन् हि क्षति ।। (मनु.) वृप्य स्त्री का वर्णन चरक तथा वाग्मट में उत्कृष्ट कोटि का पाया जाता है। संक्षेप मै वाग्मट के अनुसार यहाँ पर उद्धरण दिया जा रहा है । जिसका नाम भी हृदय को बानन्द देने वाला हो, जिमके देखने में कभी तृप्ति नही होती हो, जो सब इन्द्रियो को बीचने के लिये पागरूप हो, जो पति के अनुकूल व्रत में दीक्षित हो, कला विलाम के अगों तथा वय मे विभूपित हो, पवित्र, लज्जागील, एकान्त में प्रगम एवं प्रिय बोलनेवाली हो, जिसकी कामवासना पति के समान हो, ऐमी स्त्री पुरुष के लिये परम वृप्य या वाजीकर होती है। इसके अतिरिक्त कामसूत्र में वर्णित निर्दोप, पापरहित ऐमो• रनिचर्या को जानने वाली स्त्री जो देश-काल-बन गौर यक्ति के अनुरूप एवं आयुर्वेद शास्त्र के नम्पर्ण रनिचर्या के अनुकूल हो, ऐसी स्त्री भी उत्तम वृप्य होती है । Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथ खण्ड : बयालीसवॉ अध्याय ६६५ इस प्रकार के गुणो से युक्त स्त्री पुरुष के हृदय मे प्रविष्ट हो जाती है इससे वियुक्त होकर आदमो संसार को स्त्री से हीन मानता है, इससे रहित होकर अपने को पुरुप इन्द्रियो से शून्य अनुभव करता है और उसके शरीर का धारण करना या जोवित रहता भी दुर्भर हो जाता है । पुरुष ऐसी स्त्री के समीप अत्यधिक हर्ष और वेग से जाता है । वार-बार जाने पर भी उससे उसकी तृप्ति नही होती है । ऐसी स्त्री पुरुप के लिए सदैव अपूर्व या नित्य नवीन बनी रहती है । ऐसो स्त्री वृष्यतमा होती है। गम्य स्त्री को निम्नलिखित विषताओ से युक्त होना चाहिए । जैसे अतुल्य गोत्र ( असमान गोत्र ) की, वृष्य स्त्री के गुणो से युक्त, नित्य प्रसन्न, नीरोग या उपद्रवो से रहित तथा रज स्रावकाल के अनन्तर स्नान करके शुद्ध हुई स्त्री पुरुप को भी नीरोग एव स्वस्थ, सन्तान से युक्त होकर स्त्री-सग धर्म के अनुसार करना चाहिये। वाजीकर या वृष्य द्रव्य-जो भी द्रव्य मधुर, स्निग्ध, वृहणकारक, बलवर्धक और मन को प्रसन्न करने वाला है, वह वृष्य कहलाता है । इस प्रकार के द्रव्यो का सेवन करके, आत्मवेग से दर्पित होकर तथा लावण्य, हाव-भाव आदि स्त्रो गुणो से प्रहपित होकर पुरुष को स्त्रियो के पास जाना चाहिये । इस प्रकार शुक्रजनन, जोवनीय बृ हण, बलवर्धन तथा क्षीरजनन द्रव्य सभी वृष्य योगो मे प्रयुक्त होते हैं । यकिंचिन्मधुर स्निग्ध वृहण बलवर्धनम् । मनसो हर्पण यच्च तत्सवं वृष्यमुच्यते ॥ द्रव्यैरेवविधैस्तस्मादर्चितः प्रमदा ब्रजेत् । आत्मवेगेन चोदीर्णः स्त्रीगुणैश्च प्रहर्षितः ॥ (वा ३. ४०) नाना वृष्य ओषधियाँ-वृष्य औषधियो मे निम्नलिखित औषधियाँ प्रायः ग्रहण की जाती है । सरकण्डा, गन्ना, कुश, कास, विदारी, उशीर, कटेरी के मूल, जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, ऋद्धि, वद्धि, वला. अतिवला, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, शतावर, असगंध, केवाछ, पुनर्नवा, विदारी, क्षीर विदारी, जीवन्ती, रास्ना, गोखरू, मधुयष्टो, कठगूलर, पका आम, पिप्पली, द्राक्षा. खजूर, वशलोचन, दालचीनी, इलायची, नागकेशर, आमलको, तालमखाना, कसेरू, चिरौजी, रत्ती (घुमची ), सिंघाडा, मुनक्का, कमलगट्टा प्रभृति औषधियां व हण योग बहुलता से व्यवहृत होते है । मिश्री, घृत, मलाई, मक्खन, दूध प्रभृति निरामिष भोजन तथा मछलो, सूअर, मगर, कबूतर, तित्तिर, मर्गी, चटक (गौरया) प्रभति पश-पक्षियो के मास अथवा विविध प्रकार के पक्षियो के अएडे जैसे केकडा. Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि ૬૬૯ चटक, हम, मोर, मुर्गा अथवा गोह, कच्छप एवं मगर के अण्डे तथा शूकर, शेर आदि के बनाओ का तथा भेंसे, साड तथा बकरे का वीर्य पाना प्रभृति आमिष प्रयोग वाजीकरण एव वृष्य होते है । घी और दूध का सेवन, नैरुज्य, अभ्यग, उबटन, स्नान, गव द्रव्यों का लगाना आदि कर्म भी वृष्य होते हैं । कुलीरर्कमनक्राणामण्डान्येवं तु भक्षयेत् । माहिपर्पभवस्ताना पिवेच्छुक्राणि वा नरः ॥ ( सु० चि० २६ ) आचार्य सुश्रुत ने लिखा है कि वृष्य आहार की दृष्टि से कई दूध प्रगसित है । जैसे गृष्टिक्षीर- प्रथम प्रसूता गाय या भैस, वृद्धवत्साक्षीर- वकेना का दूध अर्थात् टूथ देने वाले पशु जिनके बछडे लगभग एक वर्ष के हो गये हैं । मापपर्ण भृतजो-गाय को उडद की पत्ती खिलाकर ग्रहण किया दूब, इन दूधो की वृष्य योगो में प्रशसा पाई जाती है । वाजीकरण कार्य में क्षीर वर्ग, माम वर्ग तथा काकोल्यादिगण की ओषधियाँ श्रेष्ठ मानी गई है - यस्तु, इनका वृष्य योगो में बहुलता से उपयोग करना चाहिये । गृष्टीणा वृद्ववत्साना मापपर्णभृता गवाम् । चत्क्षीरं तत्प्रासन्ति बलकामेषु जन्तुषु ॥ क्षीरमासगणाः सर्वे काकोल्यादिश्च पूजितः । वाजीकरणहेतोर्हि तस्मात्तत्तु प्रयोजयेत् ॥ (मुचि २६ ) वृष्य वातावरण-मन को प्रिय लगने वाले स्थान तथा 'परिस्थितियाँ जैसे मनोरम गृह, सुन्दर शय्या, आसन, स्त्री, सवाहन, निर्झर, मनोरम दृश्य युक्त एकान्न स्थान, आभूषण, सुगंध, माला, इच्छित स्त्री, प्रिय हमजोली, कोकिल कूजन, कुसुमित वन, सगीत-गोष्ठी, नई जवानी ये परम हर्षोत्पादक परिस्थितिया होती है । एते प्रयोगविधिवद् वपुष्मान् वयोपपन्नो बलवर्णयुक्त. | हर्षान्विता वाजिवदष्टवर्षो भवेत्समर्थश्च वराङ्गनामु || वयच किंचिन्मनसः प्रियः स्याद् रम्या वनान्ता. पुलिनानि चैलाः । ष्टाः त्रियो भूषणगंधमाल्य मिया वयस्याश्च तत्रत्रयोज्या || सहयः परिपुष्टष्टा फुला वनान्ता विशदान्नपानाः । गन्यशब्दाथ सुगंवयोग्याः सत्त्वं. विशाल निरुपद्रवञ्च ॥ मिहार्थता चाभिनव च कामः स्त्री युव सर्वमिहात्मजस्य ! वयों नव जातमदश्च कालो हर्पस्य योनिः परमा नराणाम् || ( च० चि० २ ) Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथ खण्ड : बयालीसवाँ अध्याय ६६७ वाजीकर औषधि की प्रयोग विधि-जैसे मलिन वस्त्र पर बढिया रग नही चढता है उसके लिये सर्वप्रथम उसका खूब साफ धुला होना आवश्यक होता है-उसी प्रकार मलयुक्त शरीर मे वृष्य योगो का भी प्रभाव उत्तम नहीं दिखलाई पडता है--अस्तु वृष्य योगो या वाजीकरण औषधियो के सेवन कराने के पूर्व व्यक्ति का सशोधन अपेक्षित रहता है । सशोधन के, लिये व्यक्ति का विरेचन तथा निरूहण कराके कोष्ठ ( Pusgatives anemata) शुद्धि करानी चाहिये । स्रोतस के शुद्ध हो जाने पर व्यक्ति का शरीर शुद्ध हो जाता है-ऐसी स्थिति में सीमित मात्रा मे भी यथाकाल प्रयुक्त वहण योग परम वहण करता है और व्यक्ति को बल देता है। व्यक्ति का सशोधन उसके बल के अनुसार मृदु, मध्यम या तीन कर लेना चाहिये पश्चात् वाजीकरण योग का उपयोग करना चाहिये। स्रोतःसु शुद्धेष्वमले शरीरे वृष्य यदा नामितमत्ति काले । वृषायते तेन पर मनुष्यस्तद् वृहण चैव बल्प्रदञ्च ॥ तस्मात्पुरा शोधनभेव कार्य बलानुरूप नहि वृष्ययोगा. । सिद्धयन्ति देहे मलिने प्रयुक्ताः क्लिष्टे यथा वाससि रक्तयोगाः ॥ (च चि २) वाजीकरण में अपथ्य--जो मनुष्य कामी, रति करने वाला या स्त्रियो का चाहने वाला हो वह अत्यन्त उष्ण, कटु, तिक्त, कपाय, रूक्ष, अम्ल, क्षार द्रव्यो का पत्र-शाक का तथा अधिक लवणयुक्त पदार्थों का सेवन न करे। ऐसो लोक तथा समाज मे प्रसिद्धि है :-- अत्यन्तमुष्णकटुतिक्तकषायमग्लं क्षारञ्च शाकमथवा लवणाधिकञ्च । कामी सदैव रतिमान् वनिताभिलाषी नो भक्षयेदिति समस्तजनप्रसिद्धिः ।। (भै० २०) वाजीकरण योग--१ घृत मे भुनी हुई उडद की दाल प्रत्येक १-२ छटांक आधा सेर दूध में पकाकर खीर जैसे बनाकर उसमे मिश्री १ छटाँक मिलाकर सेवन । घृतभृष्टमाषदुग्धपायसो वृष्य उत्तम । अथवा साठी के चावल का भात घृत और उडद की दाल के साथ सेवन करना भो उत्तम वष्य होता है। २ शतावरी १ छटाँक दूध आधा सेर, पानी आधा सेर डालकर पकावे जब दूध मात्र शेष रहे तो मिश्री डालकर सेवन करे। ३ पुरानी सेमल के मूल को लेकर उसका स्वरस निकालकर या क्वाथ बनाकर मिश्री मिलाकर एक सप्ताह तक सेवन करने से शुक्र की वृद्धि होती है।। Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ भिपकर्म-सिद्धि ४ दो-तीन वर्ष पुराने सेमल के मूल का चूर्ण ६ मागे तथा मुसली का चूर्ण ६ माझे मिश्रित करके घृत और मिश्री के साथ मिलाकर सेवन करे और ऊपर दूध पिये तो उत्तम वीर्यवर्धक होता है । ५. विदारी कंद के चूर्ण ६ मागे से १ तोला को घी और चीनी से चाटकर ऊपर से दूध पीने से या गूलर की छाल का काढा या स्वरस पीने से वृद्ध मनुष्य भी कामसम्पन्न हो जाता है । अथवा विदारीकद के चूर्ण को विदारीकंद स्वरस में भावित करके उपर्युक्त अनुपान से ले । मात्रा १ तोला | ६ आमलको चूर्ण को आमलको स्वरस मे सात भावना देकर छाया में सुखाकर रख ले | इस चूर्ण को घृत और मधु मिलाकर सेवन करे और साथ में दूध पिये तो वृष्य क्रिया होती है । ७. केबाछ और तालमखाने के वीज का चूर्ण ६ माशे उसमे १ तोला मिश्री चूर्ण मिलाकर दूब के अनुपान से सेवन । ८ गुञ्जा को जड या वीज का चूर्ण ६ माशे अथवा गुंजामूल और शतावरी प्रत्येक का चूर्ण ४-४ माशे लेकर मिलाकर प्रतिदिन दूध के अनुपान से लेने मे उत्तम वाजीकर होता है । ९ उच्चटादियोग - गुजा, कॅवाद्य तथा गोक्षुर वोज का चूर्ण बनाकर तीनो को मिलाकर ६ मागे - १ तोला | दूध में पकाकर मिश्री डालकर पोने से वृद्धावस्था में काम का वर्द्धक होता है, तो युवावस्था में इसका पूछना हो क्या है ? १०. मधुयष्टि चूर्ण १ तोला, घृत १ तोला मधु १ तोला, मिश्रित करके दूध नाथ नित्य दिन एक बार लेने से नित्य सम्भोग के लिये पुरुष उत्सुक रहता है । ११ गोक्षुरादि चूर्ण - गोखरू, तालमखाने के वीज, शतावर, शुद्ध कॅवार के बीज, नागवला तथा अतिवला के मूल का चूर्ण बनाकर ६ मागे से १ तोले की मात्रा में दूध के अनुपान से लेने से अतिवृष्य होता है गोक्षुरकः क्षुरकः शतमूली वानरि नागबलातिबला च । चूर्णमिट पयसा निशि पेयं यस्य गृहे प्रमदाशतमस्ति || १२ गेहूँ और केंवाछ के वोज को दूध में पकावे अथवा केंवाछ और उडद की दाल को दूध में पकावं, ठंडा होने पर उसमें घी और मधु मिलाकर सेवन करे । १३ अश्वत्थ ( पीपल ) के फल, भूल, त्वक् और शुद्ध से सिद्ध किये क्षीर पाक विधि से पकाये, दूध में मिश्री और मधु मिलाकर सेवन करने से चटक पक्षी के समान व्यक्ति कामुक हो जाता है । अश्वत्थामलमूलत्वक्शुगासिद्धपयो नरः । पीत्वा सशर्कराक्षोत्रं कुलिङ्ग इव हृप्यति || (स० चि० २६) Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : वयालीसवाँ अध्याय ६६६ १४. कामदीपक चाण्डालिनी योग-श्वेत पुनर्नवा का चूर्ण बनाकर सेमल के कद के स्वरस के साथ सात वार भावित कर सुखाकर चूर्ण बना ले। फिर उसमे उतना ही सेमल का गोद मिला ले। अब चूर्ण के बराबर शुद्ध गंधक चूर्ण पोसकर मिला दे। इस चूर्ण को ४ रत्ती से १ माशा को मात्रा मे मधु के अनुपान से दे। औपधि के खाने के वाद १ पाव गाढा दूध व्यक्ति को पिलावे । यह योग वडा तीव्र उत्तेजक होता है। आमिप प्रयोग १ वकरे के अण्ड ग्रथियो को प्रथम थोडे पानी मे उबाल ले। फिर बढिया घी मे उसको लाल होने तक भुने फिर उसमे पिप्पली चूर्ण और सेधा नमक मिला कर यथायोग्य मात्रा मे सेवन करने से उत्तम वाजीकरण होता है। २ बकरे की अण्ड ग्रंथि २ तोले लेकर १६ तोले दूध मे ६४ तोले पानी छोडकर पकावें । जव दूध मात्र शेष रहे तो कालो तिल का चूर्ण २ तोले पीसकर मिलावे और सम्पूर्ण का सेवन करे। यह उत्तम दृष्य योग है । ३ ताजा मछली या शफरी मछली का मास घृत मे भूनकर सेवन करने से उत्तम वृष्य होता है। ४ कच्छप मास या कच्छप का अण्डा भी घृत में भूनकर सेवन करने से वृष्य होता है। ५ भैसे के मास मे बकरे के अण्ड अथि और उडद को पकाकर नये घृत मे भून ले फिर उसमे ताजे फलो के रस, धनिया, जीरा, सोठ और नमक मिलाकर सेवन करे तो उत्तम वृष्य होता है। ६ गौरेये को तित्तिर के मास रस मे पकावे या तित्तिर मास को मुर्गे के मासरम मे पकावे या मुर्गे के मास को मोर के मासरस मे पकावे या हस के मासरस में 'मोर के मांस को पकावे । नवीन देशी घी मे तलकर फलो के रस और गध द्रव्यो से संयुक्त करके सेवन करने से उत्तम वृष्य होता है । ७ चटक (गौरेये) का मास पकाकर खाकर ऊपर से दूध उत्तम वाजीकरण होता है। ८ घडियाल के शुक्र मे भुने हुए मुर्गे के मास का सेवन या घडियाल के अण्डो और मुर्गे के मास के साथ पकाकर खाना उत्तम वृष्य योग है। ९ मछली के अण्डो को घी में तलकर सेवन । अथवा हंस-मोर-तित्तिर और मुर्गे के अण्डे का सेवन उत्तम वाजीकरण होता है। १० भैसा, साढ या बकरे को उत्तेजित करके उसके शुक्र का सेवन भी उत्तम वाजीकरण होता है। Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० भिषकर्म-सिद्धि आज विविध पशुवो के अण्डकोपो के सत्त्वो का (Testicularextract) तथा शुक्र सत्त्व (Male Hormones ) का व्यवहार चिकित्सा मे बहुलता के साथ हो रहा है । विविध प्रकार के भाव से सेवन योग्य तथा सूचीवेध के द्वारा मांस मार्ग से दिये जाने वाले योग बने बनाये वाजार मे विकते है । उपर्युक्त संहितोक्त मूल-द्रव्य यदि सुलभ न हो अथवा इनका सेवन न कराया जा सकता हो तो उसके प्रतिनिधि द्रव्यो के रूप मे प्राप्त होने वाले इन योगो का उपयोग किया जा सकता है। अपत्यकर स्वरस-केवाछ के बीज, उडद, खजूर, शतावरी, सिघाडा के फल और मुनक्का प्रत्येक दो दो तोला लेकर उसमें दूध १६ तोले और १६ तोले जल लेकर पकावे जब दूध १६ तोले शेष रह जाये तो मसल कर कपडे से छान कर दूध को रख ले । उसमे मिश्री २ तोला, वशलोचन ३ माशे और नवीन घृत २ तोला और मधु १ तोला मिलाकर पीले। इस योग के सेवन काल मे पथ्य में माठी का चावल, उडद की दाल और दूध देना चाहिए। इस योग के उपयोग से दुर्वल एवं वृद्ध व्यक्ति को भी युवक के समान हर्प होता है और विपुल सन्ताने पैदा होती है । यह एक सिद्ध योग है, आचार्य श्री प० सत्यनारायण जी शास्त्री का भी बहुश. अनुभूत है। पुत्रप्रद यह योग है। कमलाक्षादि चूर्ण-कमलगट्टा ७ तोला, जायफल २ तोला, केशर १ तोला, तेजपात १ तोला, सालमपजा २ तोला, छोटी इलायची के वीज १ तोला मोठ १ तो०, शतावर २ तोला, असगंध २ तोला, वंशलोवन १ तोला, रूमी मम्तगी १ तोला, पोपगमूल १ तोला, कवाव चीनी १ तोला। सबको कपडछान चूर्ण बना शीशी मे भर ले। मात्रा एव अनुपान-३-६ माशे चूर्ण को १ तोला गाय के घी मे जरा मा भुनकर उसमे आधासेर दूध और यथारुचि मिश्री डालकर ५-७ उफान आनेतक उबाले फिर नीचे उतार कर ठडा कर ले और पी जावे । उपयोग-इसके सेवन से शरीर पष्ट होता है, वीर्य बढता है तथा कामोत्तेजना पैदा होती है। (सि० यो० म०) वानरी गुटिका-केवाछ के वीज १६ तोले लेकर ६४ तोले दूध में दोला यत्र विधि मे तीन घटे तक म्वेदन करे । फिर पोटली से बीज निकाले और उनको टिलके मे रहित करे। फिर उसे मील पर पोसकर छोटे छोटे बडे के सहा ६-६ मागे की वटिकायें बना ले। अब इम बडे को गोघृत मे पकावे । फिर इन द्रव्य मे दुगुनी मात्रा में चीनी लेकर गाडी चामनी अलग से बना ले । इम चागनी Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : बयालीसवॉ अध्याय ६७१ में वटिकाओ को डुबो दे । एक दो घण्टे बाद इन वटिकावो को निकालकर एक मृतवान या कांच के वर्तन मे शहद भरकर उसमे इन गुटिकावो को डुबो कर रख दे। एक बडा सुबह और शाम दूध के अनुपान से ले यह एक उत्कृष्ट वाजीकरण योग है, क्लव्य, ध्वजभग, वीर्यपतन आदि विकारो को ठीक करता है। श्री मदनानन्द मोदक-शुद्ध पारद, शुद्ध गधक, लौह भस्म १-१ तोला, अभ्रक ३ तोले, भीमसेनी कपूर, सैधव, जटामासी, आँवला, छोटी इलायची, सोठ, मरिच, छोटी पीपल, जावित्रो, जायफल, तेजपत्र, लवङ्ग, श्वेत जीरा, काला जीरा मुलंठो, वच, कूठ, हरिद्रा, देवदारु, हिज्जल बीज, शुद्ध टकण, भारगी, सोठ, नागकेसर, काकडासोगी, तालीसपत्र, मुनक्का, चित्रक, दन्ती, बला-अतिबला की जडे पृथक, दालचीनी, धनिया, गजपीपल, कचूर, नेत्रवाला, नागरमोथा, गंधप्रसारणी' विदारीकंद, शतावर, आक को जड, केंवाछ के बीज, गोखरू के वीज, विधारा के बोज तथा भाग के बीज प्रत्येक १-१ तोला । प्रथम पारद-गधक की कज्जली करे फिर लौह भस्म एव अभ्रक भस्म को मिलावे फिर शतावरी क्वाथ की भावना देकर सुखा ले पीछे शेष द्रव्यो के कपडछान चूर्णों को मिलावे । फिर समस्त चूर्ण मे चौथाई प्रमाण मे सेमल को मुसली का चूर्ण तथा उस मिश्रित चूर्ण से आधा 'विजया का चूर्ण डालकर बकरी के दूध से भावित कर एक दिनतक खाल करके सुखा ले। पश्चात् सम्पूण चूर्ण से दुगुनी खाड को उससे चौगुने दूध मे डालकर 'पाक करे । गाढा होवे पर दालचीनी, छोटी इलायची, तेजपात, नागकेसर, भीमसेनी कपर, सेधानमक तथा त्रिकटु का मिश्रित चूर्ण २ तोला मिलाकर चलाता रहे। फिर उसमे यथावश्यक घी और मधु डालकर आलोडित करके चार-चार माशे का मोदक बना ले। फिर इस योग को मत्र से अभिमत्रित करके सुवर्ण, रजत, काच या मतवान में रख देवे। मात्रा--१-१ मोदक सायकाल में रुद्राक्ष चूर्ण १ माशा, काली तिल ३ ‘माशा और गोघृत १ तोले के साथ खाकर ऊपर से दूध पीना । गण-तीन सप्ताह के सेवन से हो पर्याप्त काम शक्ति बढती है। यह एक श्रेष्ठ वष्य एव वाजीकर योग है। महाचंदनादि तैल-मूच्छित तिल तैल १ सेर, कल्कार्थ श्वेत चन्दन, लाल चन्दन, पतग, अगर, तगर, देवदारु, सरल वृक्ष, पदमाख, तून की लकडी, कपूर, कस्तूरी, लता कस्तूरी, शिलारस, केसर, जायफल, चमेली की पत्तो, लोग, छोटी इलायची, बडी इलायची, दालचीनी, मुरा, कपूर, छलछरीला, नागरमोया रेणका, प्रियगु, गधा विरोजा, गुग्गुलु, लाख, नखी, राल, धाय के फूल, गठिवन, मजीठ, मोम प्रत्येक ३-३ माशे सम्यक् पाकार्थ जल ४ सेर । Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ भिपकर्म-सिद्धि गुण-इस तेल के अभ्यग से ८० वर्ष का वृद्ध मनुष्य भी बलवीर्यादि सम्पन्न हो जाता है, वंध्या स्त्री गर्भ धारण करती है, नपुंसक मनुष्य पुंस्त्व प्राप्त करता है तथा नंतानहीन संतान प्राप्त करता है। भल्लातक तेल-भिलावा, बडी कटेरी का फल तथा अनार के फल का हिल्का इनको समभाग में लेकर १ सेर कल्क बनावे, ४ मेर सरसो का तेल और १६ सेर जल डालकर तल का पाक करे । तैलमात्र शेप रहने पर उतार कर छान ले । यह एक तिला है जिसका जननेन्द्रिय पर मालिश करने से उसमें दृढता __ एव स्थूलता आती है। " वसायोग-केवल शूकर की चर्बी का जननेन्द्रिय पर मालिश कर पान के पत्तो से आवृत कर रखे । इससे भी लाभ होता है । करभवारुणी मूल-ऊँटकटेला की जड़ को एक सप्ताह तक बकरी के दूध में भिगो कर एव पीस कर जननेन्द्रिय पर लेप करने से शैथिल्य नही आता है। दशमूलारिष्ट्र-ववाथ्य द्रव्य दशमूल की प्रत्येक औपधि २०-२० तोले चित्रक की जड़ की छाल और पुष्कर मूल १००-१०, तोले, पठानी लोध तथा गिलोय ८०-८० तोले, आंवले ६४ तोले, जवासा ४८ तोले, खैर की छाल, विजय, सार, गुठली रहित बडी हरड प्रत्येक ३२ तोले, कूठ, मजीठ, देवदारु, वायविडङ्ग, मुलेठी, भारगी, कैथ के फल को मज्जा, बहेरा, पुनर्नवा की जड, चव्य, जटामांसी, फूलप्रियङ्ग, सारिवा, काला जीरा, निशोथ, सम्भालू के बीज, रास्ना पिप्पली, सुपारी, कचूर, हरिद्रा, सौफ, पदुमकाठ, नागकेसर, नागरमोथा, इन्दजी, काकडामीगो, जीवक, ऋपमक, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षोरकाकोली, ऋद्धि-वृद्धि प्रत्येक ८-८ तोले लेकर जो कुट करे। फिर आठ गुने जल मे डालकर क्वाथ चौथाई शेप रखे । फिर इस क्वाथ में मुनक्के का क्वाथ अलग बनाकर मिलावे एतदर्थ ३ सेर मुनक्का लेकर पीसकर उमको चौगुने जल में ग्वौलावे, तृतीयाश शेप रहने पर उतार कर छान ले। इन दोनो क्वाथो के मिलाने के अनन्तर उसमे १२८ तोले महद और २५ मेर गुड को चूर्ण कर मिलावे । फिर उनमे धाय के फूल १२० तोले, गीतल चीनी, नेत्रवाला, श्वेत चदन, जायफल, लवङ्ग, दालचीनी, छोटी इलायची, तेजपत्र, नागकेसर और छोटो पिप्पल प्रत्येक का चूर्ण ८-८ तोले और पस्तूरी ३ मामा प्रक्षिप्त करे। फिर स्निग्य एवं धूपित भाड में सम्पूर्ण को भर भाण्ड पे मन पर टक्कन रखकर कपडमिट्टी करके जमीन के भीतर गाडकर एक मास तक धान करे । पश्चात् सिद्ध ओपधि को छान कर उसमे ४ तोले Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : बयालीसवाँ अध्याय निर्मली का पल्क डालकर एक रात के लिए ढककर रखे फिर नितरे हुए अरिष्ट को शोशियो मे भर कर डाट लगाकर सुरक्षित रख ले। मात्रा-२ तोला समान जल के साथ मिलाकर भोजन के उपरान्त । गुण-यह योग बहुत प्रकार के रोगो में विशेषत सूतिका रोग मे लाभप्रद है। यह धातु को पुष्ट करता है, बंध्या स्त्री के लिए पुत्रप्रद होता है-पुरुष के लिए दाजीकर भी होता है। मृतसंजीवनी सुरा-नवीन गुड ४०० तोले, बब्बूल को छाल, बंर की छाल तथा सुपारी प्रत्येक ६४-६४ तोले, पठानी लोध १६ तोले, अदरक ८ नोले । इन सब द्रव्यो से आठ गुणा जल ग्रहण करे। इस जल में प्रथम गुड को घोले पश्चात् उसमे पीसा हुआ अदरक डाले, फिर बवूल की छाल या चूर्ण पश्चात् बेर की छाल या चूर्ण डाले । फिर शेप अन्य द्रव्यो को भी चूणित कर मिलावे। सब को अच्छी तरह से मथकर घृतस्निग्ध एव धूपित नये भाण्ड मे भर कर उसके मुख को यथाविधि बन्द कर वीस दिनो तक पड़ा रहने दे। २१ वे दिन उसको मयूर यन्त्र मे रख कर मन्द मन्द आंच पर गर्म करे। पश्चात सुपारी, एलुवा, देवदारु, लोग, पद्माख, खस, लाल चन्दन, सोया, अजवायन, काली मिर्च, श्वन जीरा, कालाजीरा, कचूर, जटामासी, दालचीनी, छोटो इलायची, जायफल, मोथा, गठिवन, सोठ, सौफ, मेथीवोज, सफेद प्रत्येक २-२ तोला लेकर कपडछान चूण बनाकर उसमे मिलावे । फिर भवके मे चढाकर इनका अर्क खीच ले फिर शोगियो मे भरकर रख ले। उपयोग-यह सुरा धातुवर्धक, बल्य एव पुष्टिकर होता है । अग्नि को दीप्त करता है। वायु विकारो का शमन करता है। परम उत्साहवर्धक तथा वाजीकर योग है। नारसिंह चूर्ण ( वातरोग) या अमृत भल्लातक (कुष्ठ रोग)-ये दोनो भिलावे के योग भी अतिवृष्य होते है। ___ आम्रपाक या खण्डाम्रक-वीजू आम के पके हुए फलो का रस १६ सेर, स्वच्छ दानेदार चीनी ४ सेर । गो घृत २ सेर, सोठ का चूर्ण आधा सेर, काली मिर्च का चूर्ण १ पाव, पिप्पली का चूर्ण दो छटाक, पाकार्थ जल ४ सेर । सबको एकत्र कर अग्नि पर चढावे जव गाढा होने लगे तो उसमे तेजपात का चूर्ण १६ तोला तथा पिपरामूल, चित्रकमूल, नागरमोथा, धनिया, श्वेत जीरा, काला जीरा, सोठ, मरिच, छोटी पीपल, जायफल, तालीश पत्र, दाल चीनी, छोटी इलायची और नागकेशर का चूर्ण ४-४ तोले मिलावे । फिर अग्नि से नीचे उतार करके ठडा होने पर उसमे मधु १ पाव मिलाकर रख ले । मात्रा २ तोला ४३ भि) सि० Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ भिपकर्म-सिद्धि प्रोत एवं सन्ध्या समय अनुपान दूध | यह एक उनम वृष्य योग है। यह पुरुप तथा स्त्री दोनो के लिये उपयोगी है । पाण्डुरोग, प्रमेह तथा मूत्रकृच्छ में भी लाभ प्रद होता है । स्त्रियो में सन्तानोत्पादक होता है। वीर्य स्तंभकर योग १ शुद्ध किया सूरण का कंद तथा तुलसी को जड का चूर्ण बनाकर एवं मिप्रित कर १-२ मागे की मात्रा में पान के वोडे मे रखकर खाने से वीर्य च्युति गीघ्र नहीं होती है। इन दोनो ओपत्रियो का एकैकश. स्वतन्त्र उपयोग भी लाभप्रद रहता है। २. चटक पक्षो के अण्डो को मक्खन में पीसकर सम्भोग काल में पैर के तलवो में लेप करने से जब तक पैर पृथ्वी से न छुवे तब तक वीयपात नही होता। ३ नील कमल तथा सफेद कमल के केमर को चोनी और मधु में मिलाकर नाभि मे लेप करने से शीघ्र वीर्य का स्खलन सम्भोग काल में नहीं होता। ४ भूमिलता ( केचुवे ) को वरे के तेल में पीसकर पैरो पर लेप करने से भी रति काल में वोयं स्खलन शीघ्रता से नही होता है। ५ कामिनी विद्रावण रस-अकरकरा, सोठ, लवङ्ग, केशर, पिप्पली, जायफल, जावित्री, खेत चन्दन । इनमें से प्रत्येक १-१ तोला, गुद्ध हिंगुल और गुद्ध गधक ४-४ माशे, शुद्ध अफीम ४ तोले । हिंगुल और गंधक को खरल कर कज्जली बनावे । फिर शेप औषधियो को चूर्ण करके मिलावे । पीछे पान के स्वरस मे सरल कर ३-३ रत्ती की गोलियां बना ले छाया में सुखाकर गीशो मे भरकर रक्से । मात्रा १ गोली दिन में दो या तीन वार दूध के साथ सेवन करे । यह उत्तम वीर्य स्तंभक महिफेन का योग है। वीय स्तंभ वटी-जायफल, लवङ्ग, जावित्री, केशर, छोटी इलायची, अहिफेन, अकरकरा प्रत्येक १-१ तोला, कपूर ३ माशा पान की पत्ती के रस मे घोटकर चने के बराबर को गोली बना ले। शरीर के वल वर्णादि को बढाती है तथा वीर्य स्तमन करती है। वृप्य रसीपधि योग-- पुष्पधन्वा रस-रम मिन्दूर, नाग भस्म, लौह भस्म, अभ्र भस्म, वग भस्म । प्रत्येक १-१ तोला । उन्हें एकत्र पोसकर चतुर की पत्ती के स्वरम, भाग के क्वाथ, मुलेठी के क्वाथ, सेमल की जड के क्वाय और पान के पत्र स्वरस से पूधम्-पृथक एक-एक भावना देकर २-२ रत्ती की गोलियां बना ले। घी ६ मागा चोर म ८ मामा के माथ गोटी को पाकर ऊपर से मिश्री मिश्रित दूध पिये। पात -नायम् । उत्तम वाजीकरण है । बल एवं मायु का बर्षक है । Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : बयालीसवाँ अध्याय ૬૭૬ हरजभुजगलौह चाभ्रक बंगचूर्ण कनकविजययष्टी शाल्मली नागवल्ली । वृतमधुसितदुग्धं पुष्पधन्वा रसेन्द्रो । रमयति गतरामा दीर्घमायुर्बलञ्च ।। ( भै० र०) कामिनो दर्पन रस-शुद्ध पारद और शुद्ध गंधक दोनो की कज्जली करे दोनो के वरावर धतूर पोज ( शुद्ध ) का चूर्ण मिलावे । फिर धतूर वीज से निकाले तैल को भावना देकर छाया में सुखाकर शोशी मे भरकर रख ले । मात्रा माधी रती। अनुपान घो, चीनो तथा दूध । इसके उपयोग से प्रमेह रोग दूर होता है, मनुष्य को अधिक वोर्यशाली और कामक्षम बनाता है । मन्मथाभ्र रस-शुद्ध पारद तथा गधक समभाग लेकर कज्जली ४ तोला, निश्चन्द्र अनक भम्म २ तोला, भीमसेनी कपूर १ तोला, वग भस्म एवं ताम्र भस्म -१ तोला, लौह भस्म १ तोला, विधारे की जड या बोज, श्वेत जीरा, विदारीकद, शतावर, तालमखाना वीज, खिरेंटी वाज, केवाछ वीज अतोस, जावित्री, जायफल, लवङ्ग, भाग के वाज, श्वेतराल, अजवायन प्रत्येक का चूर्ण ६-६ मागे। सबको जल के साथ घोटकर २-२ रत्तो को गोलियां बना ले । मन्दोग दुग्ध के अनुपान के साथ १-१ गोली दिन मे दो या तीन बार ले। यह श्रेष्ठ बलबर्वक एव उत्तम बाजीकरण योग है। यह तीव्र अग्निवर्वक है, ध्वजभंग को चिकित्मा में प्राय व्यवहृत होता है । चन्द्रोदय रस-पीपश्व रसायनो मे रम सिन्दूर, स्वर्ण सिन्दूर, चन्द्रोदय मकरध्वज, सिद्ध मकरध्वज सभी वृष्य एव वाजीकरण होते है। इनका स्वतन्त्र अथवा अन्य औषधियो के साथ मिलाकर भी उपयोग किया जा सकता है । एक दो उत्तम योग नीचे उद्धत किए जा रहे हैं।। चन्द्रोदय मकरध्वज (स्वल्प)-जायफल, लवङ्ग, भीमसेनी कपूर, काली मिच का चूर्ण प्रत्येक एक-एक तोला, स्वर्ण भस्म तथा कस्तूरी १-१ माशा तथा रस सिन्दूर ४ तोले २ माशा । सबको एकत्र खरल कर पान के रस मे घोटकर २-२ रत्ती की गोलियां बना ले, छाया मे सुखा कर शीशी मे भर ले। यह योग बल, वोर्य एव अग्नि का वर्धक तथा अत्यन्त बाजीकर है। मकरमुष्टि योग-मकरध्वज, कान्तलौह भस्म तथा शुद्ध कुपोलु सव समभाग । पीसकर शीशी मे भर कर रख ले। मात्रा १-२ रत्ती । अनुपान पान के बीडे मे रख कर भोजन के बाद । घृत, मलाई या मक्खन के साथ सुबह शाम । अश्वगंधा घृत या कामदेव घृत-अश्वगध ४०० तोला, गोखरू , २०० तोला, परियारा, गिलोय, सखिन, विदारीकद, शतावरी, शु ठी, पुनर्नवा, Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ भिपकर्म-सिद्धि पीपल के कोपल, गाभारी के फूल कमलगट्टा और उडद प्रत्येक ४० तोला सवको जौकुट कर ४०९६ तोले जल में पकावे । जव चौथाई जल वाकी रहे तो कपडे से छान ले और उसमें गाय का घी २५६ तोले मेदा-महामेदा, जीवक, ऋपभक, काकोली, चीर काकोली, ऋद्धि, वृद्धि, कूठ, पदमाख, रक्त चंदन, तेजपात, पिप्पली, द्राक्षा, कवाछ, नील कमल, नागवे सर, शारिवा, वला, अतिवला प्रत्येक १-१ तोला और मिश्री ८ तोले इनके कपडछान चूर्ण का जल में बनाया हुआ मल्क का योग करके वृत पाक विधि से मद आंच पर पाक कर ले। घृत तैयार होने पर कपडे से छानकर शीशी में भर ले । मात्रा १-२ तोले उतनी ही मिश्री का चूर्ण मिला कर दे ओर ऊपर से दूध पिलावे । यह योग उत्तम पौष्टिक तथा वाजीकर है। वीर्य क्षय, शरीर की कृशता और नपुसकता मे इसका प्रयोग करे । (सि. यो स.) इन योगो के अतिरिक्त वसन्त कुसुमाकर, शिलाजत्वादि वटी, जयमगल रन, पूर्णचन्द्र रम, अपूर्वमालिनी वसन्त, वसन्त तिलक रस आदि का प्रयोग भी ___ यथायोग्य अनुपान से वाजीकरण के रूप में किया जा सकता है। तैतालीसवाँ अध्याय रसायन ( Geriatrics ) शाब्दिक व्युत्पत्ति-रस + अयन इन दो गन्दो से रसायन शब्द की निप्पत्ति होती है । रम गब्द के बहुत से अर्थ प्रसङ्गानुसार संस्कृत वाङ्मय मे पाए जाते है । विगद्ध वैद्यक शास्त्र की दृष्टि से विचार तो भी रस शब्द के कई अर्थ हो सकते है, जैसे रस शास्त्र मे रस पारद के अर्थ में, द्रव्य गुण विषय मे पड़रसो के अर्य में और गरीर शास्त्र में रस अन्नो के परिपाक होने के अनन्तर बनने वाले रस के अर्थ मे व्यवहृत होते है। शास्त्र कारो ने रमायन शब्द में व्यवहृत होने वाले रम को इमी अन्तिम अर्थ में ग्रहण किया है। भोजन के सेवन के अन• न्तर शरीर की पाचकाग्नि से पच जाने के पश्चात जो अन्न रस बनता है, उसको रस गल मे अभिहित किया गया है । इस रम के द्वारा सम्पूर्ण धातुओ का पोपण होता है । यह दिन रात गरीर में भ्रमण करता रहता है और यथावश्यक, यथाम्गन रग, रयत, माम, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र प्रभृति वातुओ का पोपण परता हुमा सतत गमनंगील है। एतदर्थ ही इसे रस की संज्ञा दी गयी है, अहरहः Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तैतालीसवाँ अध्याय ६७७ गच्छतीति रस'। यह रस सम्पूर्ण धातुओ का आदि धातु है इसी के परिणाम से रक्त मासादि धातुओ का पोपण होकर शरीर स्वस्थ एव प्रभावान् रहता है। जवतक शरीर मे यह भ्रमणशील धातु रहता है, तब तक शरीर जीवित है । जव यह रस अपनी गति वन्द कर देता है तो जीवन भी समाप्त हो जाता है । रस को दानिको ने ब्रह्म माना है, "रसो वै स" अर्थात् वह ब्रह्म या आत्म-तत्व या जीवन-तत्व रस ही है । इस रस की महत्ता दर्शन कराने के लिए इतना कथन ही पर्याप्त है। रस की महत्त्व सूचक एक दूसरो दृष्टि भी है। रस को आदि धातु माना है अर्थात् इसके स्वस्थ या विकृत होने का प्रभाव गरीर के स्वास्थ्य एवं दु.स्वास्थ्य पर अवश्यभावि है। अस्तु, रस शुद्ध स्वरूप का बने और उससे स्वस्थ एव अविकृत धानुओ का निर्माण होकर शरीर का स्वास्थ्य चिरन्तन बना रहे इस प्रकार की विचारधारा का उदय भी स्वतः होता है "प्रीणन जीवन लेपः स्नेहोधारण पूरणम् । गर्भोत्पादश्च कर्माणि धातूना क्रमश स्मृतम् ।" रसायन शब्द मे दूमरा उपशब्द अयन है। अयन का प्रयोग मार्ग, आवास या प्राप्ति के अर्थ में पाया जाता है । यहाँ पर अयन शब्द प्राप्ति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । समास मे रसायन शब्द का अर्थ होता है उत्तम या प्रशस्त रस की प्राप्ति । इसकी प्राप्ति का जो मार्ग है वह है रसायन । इसी अर्थ मे आचार्य चरक ने रसायन शब्द को व्याख्या का है “लाभोपायो हि शस्ताना रसादीना रसायनम् ।" अर्थात् प्रशस्त रस आदि धातुओ के शरीर को प्राप्त कराने के उपाय को रसायन कहते है। किस प्रकार से प्रशस्त रसो का शरीर मे निर्माण हो और उससे शरीर को लाभ पहुचते हुए शरीर समुन्नत एवं स्वस्थ्य बन सके यह सब विधियां वैद्यक शास्त्र के जिस अग मे वणित की जाती है, उस अग को 'रसायन-तन्त्र' कहा जाता है। परिभापा.-आचार्य सुश्रुत ने रमायन तन्त्र की परिभापा करते हुए कहा है "रसायन तन्त्रं नाम वय स्थापनमायुर्मेवा वलकर रोग हरण ममर्थञ्च"। अर्थात रसायन तन्त्र वैद्यक तन्त्र का वह अंग है जिसमें वय स्थापन, (सौ वर्पतक आयु निरवच्छिन्न रखना ), आयुष्कर ( आयु को सौ वर्ष से भी अधिक बढाना ) मेधाकर (मस्तिष्क शक्ति को बढाना), वलकर ( स्वास्थ्य को अधिक शक्तिशाली या क्रियाशील बनाना), रोगापहरण (रोग का सदा के लिए दूर करना), तथा जरापहरण ( वाक्य दूर कर बहुत काल तक व्यक्ति को तरुणावस्था में रसना) प्रभृति साधनो का उल्लेख पाया जाता है । (सु० सूत्र १ अ) इस तन्त्र का प्रयोजन या सामर्थ्य वतलाते हुए इस अग का विशेपण "सर्वोपघात शमनीय रसायनम्" ( सु चि २७ ) अन्यत्र लिसा है । इसका साराश यह Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिषम-सिद्धि है कि इस अंग के द्वारा मन्य रीति से अनुष्ठान किए जाने पर सम्पूर्ण प्रकार के उपधान वा बाधाएं दूर हो सकती है । इन मूत्र में रसायन गट की व्यात्या करने हुए उल्हा ने लिखा है : "रमादि बातुनामयनं बाप्यायनम्" बाबा "नेपाधितानां स वीर्यदिपाकप्रभावपरमार्वलबीर्यागा वलस्थर्यकराणाम्यनम, रमायनन्, बट स्थापनम् अप्राप्य प्रापकं वेत्यर्थः ।" अर्थात् स्वस्थ रस रक्तादि धातुओं का पूरण या प्राप्ति रमायन है । मथ्वा मोपवियो के रस, वीर्य, विषाक, प्रभावों का बाय, वल, वीर्य बलस्थर्य के लिए संयुक्त करने की क्षमता को रसायन कहते हैं । अर्थात् रसायन बोपधियां अपने प्रभाव मे आयु, वल एवं वोर्ड की अधिक वर्द्धक एवं स्थिरता पैदा करने वाली होती हैं। बथवा अप्राप्य वन्तु की प्रापक (प्राप्त कराने वाली) होती है। ___वाग्भट ने भी लिखा है-रसायन के सेवन से मनुष्य दीर्घायु, गक्ति, स्मृति, मेवा (मस्तिष्क शक्ति), सतत आरोग्य, तरुणावस्या (यौवन ), प्रभा, वर्ण एवं स्वर को निर्मलता, शरीर तथा जानेद्रियों के अक्षुण्ण वल, वाक् सिद्धि (जो कहता हो उसका होना), वीर्य परिपूर्णता तथा कान्ति को प्राप्त करता है । संक्षेप में जिस तन्त्र-ज्ञान के द्वारा मनुष्य श्रेष्ठ रस रक्तादि धातुखों को प्राप्त करता है वह रमायन है । इसी भाव की उक्ति चरक संहिता में भी मिलती है।' रसायन मन्द का दूसरा व्यवहार वैद्यक शास्त्र में रस या पारद घटित बोपवियों के वर्ष में भी पाया जाता है। नागार्जुन नामक गास्त्रकार रस विद्या के जन्मदाता माने जाते है। उन्होंने चिकिल्ला में स्वास्थ्य संरक्षण तथा रोग चिकित्सा के लिए पान्द, गन्धक एवं विविध प्रकार के वानूपयातुओ ना प्रयोग प्रारम्भ ग्गि। प्रगति करते-करते रस विद्या बाज के युग में सर्वोत्तम सिद्ध हुई और माज वैद्यो में रस वैद्य ही अधिक पाए जाते है । रस विद्या के दो ही प्रधान हेच ये। १-लोह मिद्धि अर्थात् कल्प मुत्य की यातुओ का मशीन, बंग, यगद, तात्र आदि शाविक मूल्यवान धातुओ में जैसे चाँदी, मोना मादि में परिणत करना तथा २-देह निद्धि अथात् गरीर को उतना दृढ बना देना, जिससे ििवध प्रसार गर्गर एवं बागन्तुक व्याधियों से मुक्त दूधा जा सके। इसी अर्थ में रमापधियों को भी रसायन कहा जाता है। १ दीवाय. स्मृति मेदामारोचं नाणं वयः । प्रमावर्णस्वरोदार्य देहेन्द्रियबालं परम् । वामिदि प्राति गन्ति लम्ते ना रसायनात् । लानीपायो हि शस्ताना रनादीनां रसायनम् ॥ (च० चि०१) Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अखण्ड : तैतालीसवाँ अध्याय ६७६ बहुत से धातवीय या खनिज पदार्थों का उपयोग रसायन रूप मे अर्थात् नैरुज्य सम्पादन, जरावस्थाजन्य विकारो को दूर करना तथा दीर्घायु की प्राप्ति के निमित्त पाया जाता है । इनमे शिलाजीत, लोह, तथा कज्जली घटित कुछ योग अधिक प्रसिद्ध है | अध्याय के अन्त मे ऐसे कुछ योगो का उल्लेख किया जा रहा है । १ भेपजाभेपजः –— चरक ने लिखा है कि भेपज के पर्याय रूप में चिकित्सित व्याधिहर, पथ्य, साधन, औषध, प्रायश्चित्त, प्रशमन, प्रकृति स्थापन तथा हित शब्द का प्रयोग होता है । इन सभी शब्दो का एक ही अर्थ है चिकित्सा कार्य मे व्यवहृत होने वाले औपच या भेषज दो प्रकार के होते हैं । १. स्वस्थ को अधिक ऊर्जस्कर या अधिक प्रशरत बनाने वाले तथा २. रोगी के रोग दूर करने वाले । ऊर्जस्कर या प्रशस्तकर भेषज से तात्पर्य यह है कि ऐसी औषध जो १ जराव्याधि-मृत्यु प्रभृति स्वाभाविक ( Natural decaying ) व्याधियो को दूर कर सके अथवा २ अहर्ष, मैथुनको अशक्ति एव अशुक्रता को दूर कर मनुष्य को अधिक हर्षयुक्त, मैथुनक्षम एव अधिक वीर्ययुक्त बना सके। इनमे प्रथम वर्ग को रसायन औषध और दूसरे वर्ग को वाजीकरण औषध कहते है । कुछ ऐसी भी औषधियाँ हैं जो केवल ज्वर, अतिसार, रक्त पित्त आदि की चिकित्सा मे अर्थात् रोगी के रोग के दूर करने मे ही उपयुक्त होती हैं । अब यहाँ पुन शका होती है कि क्या इन भेषजो का यह वर्गीकरण ठीक है ? क्योकि बहुत से भेपज जो वृष्य या वाजीकरण बतलाए गए है वे रसायन रूप मे भी व्यवहृत होते है अथवा वहुत से रसायन रूप मे कथित ओषध रोग की चिकित्सा मे भी व्यवहृत होते हैं । उदाहरण के लिए क्षतक्षीण की चिकित्सा मे व्यवहृत सर्पिगुड आदि बहुत से योग रसायन एव वृष्य भी होते है । पाण्डु रोगाविकार मे चिकित्मा मे व्यवहृत होने वाला योगराज रसायन भी बतलाया गया है और कास रोग मे व्यवहृत होनेवाला अगस्त्य हरीतकी योग रसायन रूप मे भी कथित हुआ है । इसके अतिरिक्त रसायन तथा वाजीकरणाधिकार के बहुत से भेपज चिकित्सा मे रोग प्रशमन मे भी प्रयुक्त होते हैं । फलत इस तरह का भेषज का वर्गीकरण अनुप १. चिकित्सित व्याधिहर पथ्यं साधनमौषधम् । प्रायश्चित्तप्रशमन प्रकृतिस्थापनं हितम् । विद्याद् भेषजनामानि भेषज द्विविध च तत् । स्वस्थस्योर्जस्कर किंचित् किंचिदार्त्तय रोगनुत् ।। स्वस्थस्योर्जस्कर यत्तु तद् वृष्य तद् रसायनम् ॥ ( च० चि० १. ) Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० भिषक्कर्म-सिद्धि युक्त है । अस्तु, शास्त्रकारो के इम प्रकार के विभाजन का लक्ष्य केवल बाहुल्य प्रदर्शन है । अर्थात् जिन भेपजो मे रमायन गुणो की बहुलना है, वे रमायन, जिनमें वृ कार्य की बहुलता है वे वाजीकरण और जिनमें रोगो के रोग प्रशमन की बहुलता पाई जाती है वे रोगनुत् औषध है । यद्यपि सभी औपधियाँ उभयार्थफारी होती है, सभी प्रयोजनो मे व्यवहृत हो सकती है, परन्तु उनमे तद्-तद् गुणो की बहुलता विशेषतया आधिक्य होने मे तद्-तद् औपधियो का वृष्य रसायन या रोगनूत् का विशेषण दिया गया है । प्राय शब्द का व्यवहार इनकी विशेषता द्योतनार्थ होता है ।" इस प्रकार सक्षेप मे कहना हो तो ऐसा कहेंगे कि जो औषधियाँ नामलकी, कपिकच्छू आदि विशेषकर स्वस्थ को अधिक प्रशस्तकर चनाती है वे वृष्य या रसायन के विभाग में और जो बहुलता से रोग प्रशमन मे व्यवहृत होती है जैसे पाठा, कुटज, मतपणं प्रभृति वे व्याविहर औषधियो के वर्ग में आती है | इनमे स्वस्थ को उर्जस्कर बनाने वाले भेपजी के दो विभाग हैरसायन तथा वाजीकरण एव व्याधिहर औपवियों का एक दूसरा ही वर्ग है जिनका उल्लेख पूर्व के अध्यायों मे चिकित्सा वीज मे हो चुका है । इस प्रकार भेषजी के तीन वर्ग रनायन, वाजीकरण तथा व्याधिहर है ।" भेषज का विपरीत शब्द अभेपज है । इनका सेवन नही करना चाहिए ये शरीर के लिए हानिप्रद है । ये न रसायन है, न वाजीकरण और न व्याधिहर, प्रत्युत विकल्प है । शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए केवल भेपज या ओपध का उपयोग करना चाहिए, अभेपज का नही । ये अभेपज भी दो प्रकार के होते है । १ बाधन तथा २. सानुवाधन । वाधन उन अपथ्यो या अभेपजो को कहते है जो तत्काल अपना हानिप्रद प्रभाव शरीर के ऊपर दिखावे । जैसे विविध प्रकार के तीव्र विष । अनुबाचन उन अपथ्यो या अभेषजो को कहते है जो दूपी विष या गर विप स्वरूप के और दीर्घ काल तक अपना प्रभाव दिखाकर कुष्ठादि व्याधियों को पैदा करे । समामत सद्यो बाधक अभेषजो को बाचन तथा दीर्घकालीन परिणामी अभेषजो का अनुवाधन कहते है । १ स्वस्थस्योर्जस्करं यत्तु तद् वृष्य तद् रसायनम् । प्राय प्रायेण रोगाणां द्वितीयप्रशमे मतम् ॥ प्राय दो विशेषार्थो ह्यभय ह्युभयार्यकृत् । (च.चि १ ) २. स्वम्ययोपरत्वे द्विविध प्रोक्तमौषधम् । यद् व्याविनिर्घातकरं वक्ष्यते तच्चिकित्सिते ॥ Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : तैतालीसवाँ अध्याय ६८१ एक मे Acute Poisoning और दूसरे मे Slow Poisoning या Chronic Poisoning स्वरूप होता है । दूसरे शब्दो मे इनको सद्योविपाकी तपा कालान्तर विपाकी कहा जाता है।' रसायन के गुण--ब्राह रसायन को महिमा का उल्लेख करते हुए लिखा है :- यह महपिंगण से सेवित रमायन है। उसके प्रयोग से मनुष्य निरोग, दीर्घ आयु वाला एव बलवान होता है। उसका शरीर कान्तिमान तथा चन्द्र और सूर्य के समान देदीप्यमान हो जाता है । स्मृति-शक्ति इतनो बढ जाती है कि सुनने के साथ ही उमका धारण भी किया जा सकता है। मनुष्य का शरीर ऋपिसत्व हो जाता है। वह पर्वत के समान पृथ्वी का धारण करने वाला, वायु के समान विक्रम वाला हो जाता है । उसके शरीर मे विष का कोई प्रभाव नहीं होता। च्यवनप्रास रसायन की महिमा बताते हुए कहा गया है कि यह एक परम उत्तम रसायन है । कई रोगो मे इसका उपयोग उत्तम लाभप्रद होता है । जैसेकास-श्वास, क्षत-क्षीण, स्वरक्षय, उरोरोग, हृदय रोग, वात रक्त, तृष्णा, मूत्रदोप, शुक्रदाप आदि। इस रसायन का उपयोग वृद्धो और बालको के अग की वृद्धि करने के लिए करना चाहिए। इसके उपयोग से च्यवन ऋषि अत्यन्त वृद्ध होने पर भी पुन युवावस्था मे आ गये थे। इसके सेवन से मेधा, स्मृति, आयु, अग्नि, इन्द्रियबल, कान्ति, नैरोग्य, स्त्री मे हर्प प्रभृति की वृद्धि होती है। शरीर का वर्ण बढता है । इसका कुटी प्रावेशिक नामक विशेप विधि से सेवन करने पर सम्पूर्ण वृद्धावस्था का स्वरूप परिवर्तित होकर नवीन युवावस्था का स्वरूप मनुष्य का बन जाता है। आमलक घृत की गुण स्तुति करते हुए भी लिखा है कि इसके सेवन करने से शरीर पर्वत के समान वृहत् और सारयुक्त हो जाता है, इन्द्रियाँ बलवान् एव स्थिर हो जाती ह । स्वरूप सुन्दर हो जाता है, चित्त प्रसन्न रहता है, घोष घने बादल के मानिन्द हो जाता है और वह मनुष्य बहुसख्या मे बली सन्तानो का जन्म देने वाला होता है। इसी प्रकार आमलक्यवलेह प्रभृति अन्यान्य रसायन १ अभेषजमिति ज्ञेयं विपरीत यदीपधात् । तदसेव्य निषेव्य तु प्रवक्ष्यामि यदौषधम् ।। अभेषज च द्विविध बाधन सानुबाधनम् । च चि १ २ इत्ययं च्यवनप्राश परमुक्तो रसायन । कासश्वासहरश्चैव विशेषेणोपदिश्यते ॥ । Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ भिपम-सिद्धि योगो को प्रगंमा में लिखा है कि इनके सेवन से विना वृद्धावस्था का अनुभव किए हुए मनुप्य सौ वर्ष तक जीता है। ____ग्मायनो की प्रशंसा में यह समासोक्ति पर्याप्त है कि जैसे देवताओ के लिए अमृत है, मणे के लिए सुधा का स्थान है वैसे ही प्राचीन काल मे महपियो के लिए रसायद का म्यान था। इसके प्रभाव से न उनमे वृद्धावस्था आती थी न दुर्बलता, न रोगी होते थे और न मरते थे। रसायनो के प्रयोग से सहस्र वर्ष तक की आयु का निर्वाय भोग करते थे। फलत रमायन के सेवन से न केवल दीर्घायु की प्राप्ति होती है, प्रत्युत देवर्पियो के द्वारा प्राप्त होने वाली परमगति अर्थात् अक्षय ब्रह्म गति की भी प्राप्ति होती है।' दिव्यायधियो अथवा रसायनों का अवतरण .-प्राचीन काल में किसी समय गालीन एवं यायावर दोनो वर्ग के ऋपिगण — गालीन का अर्थ होता है घर बना कर गृहस्थ जैसे रहना और यायावर का अर्थ होता है भ्रमण करने वाले ), ग्रामीण या नागरिक लोग जिन औपधियो ( गेहूँ, यव, चावल आदि बाहार ) का भोजन करते है, उन्ही औषधियो का भोजन करते हुए सम्पन्न पुरुषो के सहग भारी शरीर, भारी पेट वाले और आलसी हो गये जिसके फलस्वरूप पूण निरोग नही रह गये । वे भृगु, अङ्गिरा, वशिष्ठ, अत्रि, काश्यप, अगस्त्य, पुलस्त्य, कामदेव, अमित और गौतम प्रभृत्ति महपि जब इस आहार के करने मे बत मे तपश्चर्या, पूजा-पाठ करने में भी असमर्थ हो गये तब उन्होने क्षीणताना वृद्धानां वालाना चाङ्गवर्द्धनः । म्वरक्षयं उरोरोग हृद्रोगं वातशोणितम् ।। पिपाना मुत्रगुक्रस्था दीपाश्चाप्यपकर्षति । अन्त्र मात्रा प्रयुजीत योपाध्यान्नभोजनम् ।। यन्य प्रयोगाच्चवन. मुवृद्धोऽभूत् पुनर्युवा । मेधा स्मृति कान्तिमनामयत्वं आयु प्रपं बलमिन्द्रियाणाम् । म्योपु प्रहर्ष परमाग्निवृद्धि वर्णप्रमाद पवनानुलोम्यम् ।। ग्मायनम्बाम्य नर प्रयोगाल्ल भेत जोर्णोऽपि कुटोप्रवेगात् । जराकृतं रूपमपान्य सर्व विनि रूपं नवयौवनस्य ॥ ( च चि १) १ यथा नराणाममृत तथा भोगवता मुधा । तथाभवन्महीणा रसायनविवि. पुरा। न जग न च दौर्बल्य नातुर्य निवन न च । जग्मुर्पमस्राणि रसायनपर पुरा ।। न वैवलं दीपंमिहायुरस्नुते रमायन यो विधिवन्निपेवते । गति म देवपिनिपेविता गुमा प्रपाते ब्रह्म तवैति चाक्षरम् । च. वि २ Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तैंतालीसवाँ अध्याय ६८३ विचारा कि नगर या ग्राम-वास से उनकी यह दुरवस्था हुई है । फलत: उन्होने निश्चय किया कि हम लोग इस दुरवस्था से बचने के लिए ग्राम्य दोष से रहित कल्याणकारक, पुण्य एवं उदार स्थान, पापियो के लिए अगम्य, गंगा के उत्पत्ति स्थान, देव- गन्धर्व-यक्ष- किन्नरो की सञ्चार भूमि, अनेक रत्नो की खान, अचिन्त्य एवं अद्भुत प्रभाव वाले ब्रह्मपियो- सिद्ध पुरुषो के चरणो से सेवित, दिव्य तीर्थ एवं दिव्य औषधियो के उत्पत्ति स्थान, अतिशरण्य तथा देवराज इन्द्र से सुरक्षित हिमालय पर्वत पर चले और उन्होंने ऐसा ही किया । हिमालय में पहुँचने पर देवताओ के गुरु इन्द्र ने उन लोगो का स्वागत एवं सत्कार किया और कहा कि आप लोग ज्ञान एवं तपस्या मे बढे हुए ब्रह्मज्ञानी पुरुष है | परन्तु ग्राम्यवास के कारण आप लोगो का शरीर कष्टयुक्त हो रहा है, स्वर एव वर्ण मे अन्तर आ गया है तथा असुख का अनुभव कर रहे है | ग्राम का वास वास्तव मे अप्रशस्त है, इस वास से बहुधा असुख उत्पन्न हो रहे है । आप पुण्यवानो का ग्रामवासी जनता के कल्याण के लिए यहाँ आगमन हुआ अपने शरीर के दोषो के परिमार्जन के साथ-साथ ग्राम वासी जनता का भी आप कल्याण करना चाहते है एतदर्थ आप लोगो का यहाँ नागमन हुआ है । यह काल भी आयुर्वेद के उपदेश के लिए उपयुक्त है । अस्तु, मै आप लोगो को आयुर्वेद का उपदेश करूंगा, जिसके द्वारा आप अपना तथा ग्रामवासी प्रजा दोनो का कल्याण कर सकें । फिर इन्द्र ने इन महर्षियो को आयुर्वेद का उपदेश किया । इन्द्र ने कहा कि यह आयुर्वेद का उपदेश अपने तथा प्रजा के कल्याण के लिए है । इस आयुर्वेद का उपदेश अश्विनी कुमारो ने मुझे किया था, अश्विनी कुमारो को यह ज्ञान प्रजापति से प्राप्त हुया था और प्रजापति को साक्षात् जगत् के स्रष्टा ब्रह्मा ने उपदेश किया था । इस उपदेश का प्रधान उद्देश्य ग्रामवास करते हुए प्रजा का कल्याण ही है । लोक की प्रजा रोग, वृद्धावस्था ( छोटो उमर मे ही वर्द्धय का अनुभव ) दुख एव दुख की परम्परा से पीडित हैं, वे अल्पायु हो गये है, उनमें तप-दम-नियम एव अध्ययन की कमी होती जा रही ह । अस्तु, मै उन लोगो को तप-दम-नियम - अध्ययन में अधिक समर्थ करने के लिए, आयु को बढाने के लिए, जरावस्था एव रोग को दूर करने के लिए, स्वस्थ प्रजा को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए, आप लोगो के समक्ष ब्रह्म, आर्ष, अक्षय, परम कल्याणकारक, उदार एव अमृत स्वरूप आयुर्वेदीय रसायनो का उपदेश कर रहा हूँ । आप सभी एकाग्रचित्त होकर सुनें और सुनकर प्रजा के कल्याण के लिए इसे प्रकाशित करें और प्रचार करे । इन्द्र के इस वचन को सुनकर ऋपियो ने इन्द्र की स्तुति की और बडे प्रसन्न हुए । Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिषकर्म-सिद्धि इन प्रकार इन्द्र ने बायुर्वेद के अमृत स्वरूप इन रसायन ओोपधियो का तथा दिव्य औषधियों का परिचय ऋषि लोगो को कराया। उन्होने यह भी कहा कि हिमालय पर्वत में पैदा होने वाली ये दिव्योपधियाँ सम्पूर्ण वीर्ययुक्त हो गयी हैं और इनके उपयोग का यही उपयुक्त समय है, इनका मचय भी अभी करना चाहिए। इन ओषधियों को सिद्ध औषधियाँ या इन्द्रोक्त रसायन कहते है। जैसे ऐन्द्री, ब्राह्मी, पयस्था ( क्षीर काकोली ), क्षीर पुष्पी (ाल पुष्पी या विष्णुक्रान्ता ), श्रावणी ( मुण्डी ), महाश्रावणी ( मुण्डो भेट ), शतावरी ( शतावर ), विदारीकन्द, जीवन्ती, पुनर्नवा, नागवला, स्थिरा ( शालपर्णी ), वचा, छत्रा, अतित्रा, मैदा, महामेदा, अन्य जीवनीय गणको औपवियाँ जैसे जीवक, ऋपमक, मुद्गपर्णी, मापपर्णी, मधूयष्ठी । इनके छ मास के उपयोग मे आयु की परम वृद्धि होती है, व्यक्ति सदा युवा बना रहता है, निरोग रहता है, वर्ण और कान्ति की वृद्धि होती है, मस्तिष्क और मेवा की शक्ति प्रखर होती है, वल की वृद्धि होती है तथा अन्य भी इच्छित कामनाओं की पूर्ति करने में ये सिद्ध है | इन औषधियों के अतिरिक्त अन्य भी कई सिद्ध रसायनो का ज्ञान ऋपियों को प्राप्त हुआ । यथा ब्रह्म सुवर्चला नामक पवि जिसका छोर मुत्र के रंग का होता है एवं पत्र पुष्कर सदृश होते हैं | आदित्य पर्णी नामक ओपथि जिसको सूर्यकान्ता भी कहते है इनका भी वीर सुवर्ण वर्ण का और पुण्य सूर्य मण्डल के आकार का होता है | नागे नामक जोपवि जिसे अश्ववला भी कहते है जिसके पिप्पली ( धन्वज ) महा पत्र होते हैं । काष्टगोवा नामक ओपवि जो गोह (गोवा) के बाकार की तथा सर्पा नामक ओपघि सर्प के आकार की होती है | बोर प्रत्येक गाँठ पर इसमें मोम (चन्द्र ) मोम नामक पवियों का राजा जिसमें पन्द्रह गांठ एक पत्तो लगी हुई कुल पन्द्रह पत्तियों वाली ओपथि है, के समान वृद्धि और होम पाया जाता है । अर्थात् पूर्णिमा के दिन यह अवधि पन्द्रह पत्तों ने पूर्ण रहती है । कृष्ण पक्ष में तिथि के क्रम से पत्र गिरते है बोर अमावास्या के दिन यह पूर्णतया निष्पत्र हो जाती है । पद्मा नामक लोपधि पद्मावार, लाल कमल के आकार की एवं पद्म ( लाल कमल ) के गन्ध की होती है | अजा नामक योनि को भी कहते है । नोला नामक बोपवि नील वर्ण के फूलवाली, नीले रज के दूधवाली और लना के प्रतान के रूप में पाई जाती है । इन आठ औधियो ( नौवीं औपधिराज सोम ) मे से जो-जो भी सोपवि प्राप्त हो उन-उन औरवियों के स्वरस को पेट भर पीकर घा, तेल वादि स्नेह मे भावित ताजी ( गोली ) पलान की बनाई हुई होणी ( Tub ) में जिस पर पानी ताजी लाडी का ढकना भी हो, नग्न होकर लेट जाय । वह ६८४ Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तैतालीसवॉ अध्याय ६८५ वहाँ मूच्छित हो जाता है। छ मास के पश्चात् पुन संज्ञा मे आता है। उस समय उसे बकरी के दुग्ध पर सजीवावस्था मे रखना चाहिए अर्थात् बकरी का दूध पीने को देना चाहिए । छ मास के बाद वह आयु, वर्ण, स्वर, आकृति, बल तथा कान्ति मे देवताओ के सदृश हो जाता है और स्वयं ही उसे सब भाषाएँ प्रकट होती है अर्थात् सभी भापाओ का उसे अनायास ही ज्ञान हो जाता है । उसके नेत्र और कर्ण दिव्य हो जाते है । जो साधारण मनुष्य देख और सुन नही सकते वह भी उसे दिखाई और सुनाई देता है । वह एक हजार योजन तक एक दिन मे चल सकता है । रोग आदि उपद्रवो से रहित दश हजार वर्ष की आयु होती है। साधारण देश मे उत्पन्न होनेवाली औषधियो के सेवन को भी वही विधि है जो हिमालय पर उत्पन्न होनेवाली दिव्य औषधियो की है। किन्तु इनका वीर्य क्षेत्र के गुणो के कारण तथा कर्म (जरा-व्याधि-नाश आदि ) के मध्यम होने से मृदु होता है। वही औषधियाँ हिमालय के अतिरिक्त अन्य देशो मे उत्पन्न होने पर वीर्य मे मृदु होती है, क्योकि उन देशो की भूमि वह उत्तम प्रभाव नही रखती जो हिमालय पर्वत रखता है । जो वानप्रस्थी उद्यमी तथा संयमी हो वही इन मृदु वीर्य वाली ओपधियो का सेवन कर सकते हैं । असयत पुरुप इन मृदु वीर्य वाली औपधियो को भी सहन नहीं कर सकते। तीक्ष्ण वीर्य वाली ब्रह्मसूवर्चला आदि औपधियो के वीर्य को केवल वही मनुष्य सह सकते है जो हिमालय पर्वत पर रहकर तपस्या आदि का अनुष्ठान करते रहते है। जो लोग नगर आदि या नगर के समीप के वनो मे रहते है तथा संयमी हैं वे बल में मध्यम होते हैं तथा वे मृदुवीर्य ब्रह्मसुवर्चला इत्यादि के वीर्य को सह लेते हैं। जो साधारण पुरुष आलसी तथा विषय जाल मे फैसे होते है वे निवल कोरी और इन औषयो के वीर्य को नही सह सकते । जो मनुष्य आरोग्य चाहते है, परन्तु उन औपधियों को ढूंढने अथवा प्रयोग करने में असमर्थ हैं उनके लिए दूसरा रसायन विधान उत्तम है ( इन्द्रोक्त रसायन विधान)। रसायन ( Geriatrics ) का आलोचनात्मक विवेचनससार की सभी वस्तुएँ नश्वर है। ये क्रमश जीर्ण होते हुए नष्ट हो जाती है। यह एक प्रकार का स्वभाव है अर्थात् स्वभाव से ही नयी चीजें पुरानी होती हुई काल से कवलिन होकर लय को प्राप्त होती है । इमी विधि विधान अनुसार मनुष्य तथा अन्य जीवधारियो मे भी विकार (रोग) उत्पन्न होते है। उनमे क्रमशः जीर्णावस्था या जरावस्था ( वार्धक्य ) की प्राप्ति होती है और मृत्यु के Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ भिषम-सिद्धि द्वारा उनका निधन प्राप्त होता है। केशो का श्वेत होना केशो का वाद्धक्य है, दृष्टि की शक्ति का ह्रास होना उनमें काच या मोतियाविन्दु का बनना नेत्रो का वार्द्धक्य, त्वचा में झुरियो का पडना, त्वचा को जरठता, पेगियो का गैथिल्य और उनको नमनशीलता का कम होना मासपेशी का वाक्य, शरीरगत रक्तवाहिनियो की नमनशीलता का कम होकर दृढता का धमनी जरठता (Arternosclerosis ) प्रभृत्ति परिवर्तन वाक्य के चिह्न के रूप में पाए जाते है । संक्षेप में युवावस्था में जो कार्य-क्षमता रहती है उसका क्रमिक ह्रास वृद्धावस्या में कुछ परिवर्तनो के अनन्तर पाये जाते है । ये सभी घटनाएँ काल परिणाम से होती है और स्वाभाविक है एव मर्त्य लोक में अवश्यभावि है । देव योनि मे ममय से होनेवाले परिवर्तन नही पाये जाते। मनुष्य एवं देव, मर्त्य तथा स्वर्ग लोक में यही महान अन्तर है। स्वर्ग, नरक की कल्पना का भी सम्भवत. यही आधार है । फलतः देव लोक काल परिणाम जन्य रोग, जरावस्था और मृत्यु इन तीन अवस्थाओ से परे होते है अर्थात् इन तीनो स्वाभाविक अवस्थाओ पर विजय प्राप्त किए हुए है। . __ मनुष्य अनेक युगो से इस देवत्व की प्राप्ति के लिए प्रयास करता आ रहा है । फलत मानव का जरा, रोग और मृत्यु के जीतने का या इनके ऊपर विजय प्राप्त करने का प्रयास अनादि काल से चला आ रहा है और गाश्वत है। आधुनिक युग में वैज्ञानिक भी रोग पर विजय प्राप्त करने के लिए सतत प्रयत्नशील है। उसी प्रयास के फलस्वरूप रोग निवारण ( Prfilaxis) के बड़े-बड़े साधनो का आविष्कार किया है और करते जा रहे है । विश्व स्वास्थ संघ (W. H. O ) का मंगठन भी इसी आधार पर हुआ है कि किस प्रकार हम मनुष्य को निरोग रख सकें। जरावस्था पर भी विजय प्राप्त करने का दुन्दुभीघोप कर दिया है। युवक को वृद्धावस्था में परिणत करनेवाले कारण भूत विभिन्न प्रकार के नि स्यन्दो ( Hormones) के परिवर्तनो, जीवतिक्तियो को कमी पुन. उनको पूति द्वारा जरावस्या को रोकने का प्रयत्न (Gernatics) समुदाय की चिकित्मा व्यवस्था द्वारा चल रहा है। यद्यपि इन योगो में सफलता पूरी नहीं मिल पाई है, परन्तु प्रयत्न चल रहे है-सम्भव है भविष्य भी उज्ज्वल रहे । मृत्यु पर भी आधिपत्य प्राप्त करने के लिए माज वैज्ञानिक मनीपी अग्रसर है, परन्तु मफरता अभी भविष्य के अन्तराल में निहित है । आयुर्वेद में एक स्वतन अंग हो दिव्य रमायनो का पाया जाता है। अन्य अग क्वचित् अपूर्ण भी मिलते है, परन्तु यह अंग स्वतः पूर्ण एवं अनुपम है । Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८७ चतुर्थ खण्ड : तैतालीसवाँ अध्याय आयुर्वेद के द्विविध प्रयोजनो का उल्लेख ऊपर हो चुका है। स्वस्थ को अधिक उर्जस्कर वनाना भी उसका एक अन्यतम प्रयोजन है। इसो निमित्त वाजीकरण एवं रसायन तन्त्रो का उल्लेख पाया जाता है । सुन्दर स्वास्थ्य के साथ दीर्घायुष्य की प्राप्ति भो मायुर्वेदोपदेश का उद्देश्य रहा है। इस उद्देश्य की पूर्ति रसायनो के द्वारा हो नम्भव है । लिखा है जो व्यक्ति विधिपूर्वक रसायनो का सेवन करता है वह केवल दीर्घायुष्य नहीं प्राप्त करता अपितु देव ऋपियो के द्वारा प्राप्त गति एवं अक्षर ब्रह्म को भी प्राप्त करता है। रसायन के प्रकार-सुश्रुत टोकाकार ने रसायनो के तीन प्रकार बतलाये है । १. काम्य रसायन २. नैमित्तिक रसायन ३ आजनिक रसायन । काम्य रसायन किसी विशेष कामना ( इच्छा या उद्देश्य ) से उपयोग में आने वाले रसायन है जैसे--प्राण कामीय, श्री कामीय, मेधा कामीय इत्यादि रसायन । नैमित्त-किसी रोग विशेष को दूर करने की इच्छा वा उद्देश से उपयोग में आने वाले रसायन जमे-शिलाजतु रसायन का कुण्ठ हरण के लिए प्रयोग, भल्लातक रसायन का कुष्ठ या अर्श व्याधि के दूरीकरण के निमित्त उपयोग, तुवरक रसायन का मधुमेह या कष्ट व्याधि नाशार्थ उपयोग। आजस्रिक-मे निरन्तर भोजन के रूप मे या नित्य अभ्याम के रूप मे व्यवहृत होनेवाले रसायन जैसे घृत या क्षीर का अभ्यास ऐसे द्रव्यो के सदा उपयोग से शरीर स्वस्थ रहता है । आयु एवं मेधा की वृद्धि होती है। १ सशोधन और २ संशमन भेद से भी रसायनो के दो भेद होते है । कुछ ऐसे रसायन द्रव्य होते हैं जिनके प्रयोग से शरीर का वमन, विरेचन, स्वेदन प्रभति क्रिया होकर देह की शुद्धि हो जाती है । पुन विकृत दोषो के निकल जाने के अनन्तर नवीन जीवन का सचार होता है। जैसे कि सुश्रुतोक्त सोम रसायन का प्रयोग । इसके विपरीत रसायनो का दूसरा वर्ग संशमन क्रियावाली दिव्य औषधियो का आता है । जिनके प्रयोग से सशोधन न होकर केवल सशमन मात्र से कार्य होता है। रसायनो का अधिकाश भाग संशमन वर्ग की औषधियो का हो है जैसे-आमलकी, नागवला, च्यवनप्राश रसायन आदि । रसायनो की प्रयोग विधि के अनुसार भी उनके दो वर्ग होते हैं। १ वातातपिक २. कुटो प्रावेशिक । इनमे कुटी प्रावेशिक प्रधान या मख्य विधि तथा वातातपिक गौण या अमुख्य विधि है ।' दूसरे शब्दो मे कुटीप्रावेशिक को १ रसायनाना द्विविध प्रयोगम्पयो विदु. । कुटीप्रादेशिक मुख्य वातातपिकमन्यथा ॥ - Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ भिपक्कर्म -सिद्धि Indoor treatment तथा वातातपिकको Outdoor treatment कहा जा सकता है | कुटी प्रावेशिक विधि - ग्राम या नगर के पूर्व या उत्तर दिशा में, जिस स्थान पर सभी आवश्यक सामग्री प्राप्त हो सके, जहाँ को भूमि अच्छी हो तथा वातावरण शान्त, गर्द-गुवार और धूम से रहित तथा निर्भय हो एक छोटी-सी कुटी या छोटा सा मकान बनवाना चाहिए। यह घर त्रिगर्भ होना चाहिये । त्रिगर्भ कहने का यह अर्थ है कि मकान के दो खण्ड वाहर रहे और तीसरा मकान उसके बीच में रहे। सभी खण्ड के मकान प्रशस्त होने चाहिएँ । शोर-गुल और अप्रिय शब्द वहाँ नही पहुचना चाहिये । मकान पर्याप्त लम्बा, चौडा और ऊँचा होना चाहिए | मकान को दीवालें मोटी और मजबूत होनी चाहिए, उसमे हवा और प्रकाश की अच्छी व्यवस्था के लिए वातायन ( झरोके ) वने होने चाहिएँ । यह मकान सव ऋतुओ मे सुखप्रद, मन को सुख देने वाला होना चाहिए । उस कुटी मे गम्य स्त्रियो का निपेध हो । मंगलाचार करके पुण्य दिन मे अपने पूज्य देवतादि का पूजन करके, मनशरीर और वाणी को पवित्र करके, ब्रह्मचर्य, धैर्य, श्रद्धा, इन्द्रिय मयम, देवीपासना, दान-दया- सत्यवन तथा धर्म मे लीन रह कर उचित मात्रा में सोने और जागने की क्रिया करते हुए औपधि एवं वैद्य मे प्रीति एवं विश्वास रखकर, अनन्य प्रकार का आहार, विहार और आचरणो का पालन करते हुए रसायन - सेवी मनुष्य कुटी मे प्रवेश करे और रसायन का सेवन प्रारम्भ करे । सर्वप्रथम व्यक्ति का वमन, विरेचन कर्म से सशोधन करना चाहिए । १ शोधन - शोधन के लिए हरीतकी, आंवला, वच, सैन्धव, सोठ, हल्दी, पिप्पली और गुड इनका चूर्ण बनाकर गर्म जल से पिलावे । इससे भली प्रकार विरेचन होकर कोष्ठ शुद्धि हो जाती है । फिर शरीर के शोधन के पश्चात् रोगी का ससर्जन करते हुए तीन, पांच या सात दिनो तक यव की रोटी या दलिया बनाकर घी के साथ पथ्य में देना चाहिए। जब तक पुराने मल का शोधन न हो जावे तब तक यव का भोजन घृत के साथ देना चाहिए । इस प्रकार संस्कृत १ चरक चिकित्सा, प्रथम अध्याय । वाग्भट उत्तरतन्त्र ३९ अध्याय । सुचि ३८ अध्याय । तत. शुद्धशरीराय कृतमंसर्जनाय च। त्रिरात्र पञ्चरात्रं वा सप्ताह वा वृतान्वितम् ॥ दद्याद्यावकमाशुद्धे पुराणगकृतोऽथवा । इत्य मस्कृतकोष्ठस्य रमायनमुपाहरेत् ॥ यस्य यद्योगिकं पश्येत् सर्वमालोच्य सात्म्यवित् । ( अ० हृ० उत्तर तन्त्र ३९ ) Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तैतालीसवाँ अध्याय ६ कोष्ठ व्यक्ति के लिए जो रसायन योग उचित एव सात्म्य प्रतीत हो उसका सेवन रोगी को करावे। ___अशुद्ध शरीर में रसायन प्रयोग निष्फल-मलिन वस्त्र में दिया हुआ रंग जिस प्रकार बढ़िया कार्य नहीं करता है उसी प्रकार मलिन शरीर मे बिना शोधन किये गये रसायन या वाजीकरण योगो का उत्तम प्रयोग लाभप्रद नही रहता है । अस्तु, रसायन सेवन के पूर्व व्यक्ति का शोवन अवश्य कर लेना चाहिए। सौर्यमारुतिक विधि-इस प्रकार कुटोप्रावेशिक विधि का उल्लेख हुआ। कुटोप्रादेशिक विधि सबके लिए सुलभ नही हो सकती है। यह कुछ सीमित श्रीमन्त, समर्थ, निरोग, बुद्धिमान, निश्चित विचारवाले, नौकर-चाकरयुक्त, घनी-मानी पुरुषो के लिए सम्भव रहता है। जो व्यक्ति धनी-मानी नही फिर भी रसायन योगो के सेवन के अभिलापी है उनके लिए वातातपिक या सौर्यमारतिक विधि से रसायनो का प्रयोग करना चाहिए। वातातपिक अर्थात् वात (वायु, हवा), और आतप (धूप ) मे रहते हुए, घूमते-फिरते रसायन सेवन की विधि । सौर्यमारतिक का भी अर्थ यही है कि सूर्य को धूप मे या मारुत ( हवा) में रहते हुए रसायन का सेवन करना है। यह सामान्य व्यक्तियो के लिए सामान्य विधि है । इसको (Outdoor arrangement for Rasayanas) कह सकते है । यह सर्वजन सुलभ विधान है। परन्तु विशिष्ट विधान कुटी मे प्रवेश करके रसायन सेवन ( Indoor arrangement for Rasayanas) एक विशिष्ट विधि है जो विशिष्ट व्यक्तियो के लिए प्राप्य हो सकती है। आचार रसायन-रसायन सेवन मे कुछ सदाचरणो या विशिष्टाचरणो का अनुपालन आवश्यक होता है। उन्हे आचार रसायन की सज्ञा दो गयी है। उदाहरणार्थ सत्य बोलना, क्रोध न करना, मद्य एवं मैथुन से निवृत्त होना, हिंसा न करना, विश्राम करना, शान्त रहना, प्रिय बोलना, पवित्रता से रहकर जप करना, धीरज धारण करना, नित्य दान एव तप मे लगा रहना, देवी-गौब्राह्मण-आचार्य-गुरु एव वृद्धो की पूजा करना, निष्ठुरता का त्याग, दूसरे के दुःस में करुणा दिखाना, यथोचित मात्रा मे सोना और जागना, नित्य क्षीर तथा घृत का सेवन, देश तथा काल का सम्यक ज्ञान रखना, युक्ति का जानकार होना, अहकार का अभाव, प्रशस्त आचरण, सकीर्ण विचारो को छोडना, अध्यात्मचिन्तन मे मन एव इन्द्रियो का लगाना, वृद्ध, आस्तिक एव जितेन्द्रिय व्यक्तियो की सेवा करना, धर्मशास्त्र के अनुसार नित्य एव नैमित्तिक कर्मों को करना । इन गुणो से युक्त होकर जो व्यक्ति रसायन का सेवन करता है वह सम्पूर्ण रसायन के ४४ भि० सि० Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० सिपकर्म-सिद्धि गुणो को प्राप्त करता है। इसके अतिरिक्त यह भी उदिन मिलती है कि तप, बह्मचर्य, ध्यान एवं प्रगम के द्वारा ही महपि लोग रसायन सेवन के सम्पूर्ण गुणों को प्राप्त करते है। तद्विपरीत आचरण से अमित आयु को प्राप्ति एवं रसायनो के गुण मुलभ नहीं है। " सत्यवादिनमक्रोध निवृत्तं मधमैथुनात् । अहिंसकमनायासं प्रगान्तं प्रियवादिनम् ।। जप-गौचपरं धीरं दाननित्यं तपस्विनम् । देव-गो-ब्राह्मणाचार्य गुल्वृद्धार्चने रतम् ।। समजागरणस्वप्न नित्यं क्षीरघृताशिनम् । देश-काल-प्रमाणनं युक्तिशमनहकृतम् ।। शत्ताचारमसंकीर्णमन्यात्मप्रवणेन्द्रियम् । उपासितारं वृद्वानामास्तिकाना जितात्मनाम् ।। धर्मशास्त्रपर विद्यान्नर नित्यं रसायनम् । गुण रेतैः समुदितैः प्रयुक्ते यो रसायनन् ।। रसायनगुणान् सर्वान् यथोक्तं स समश्नुते । च चि १ तपसा ब्रह्मचर्येण व्यानेन प्रगमेन च ।। रसायनविधानेन कालयुक्तेन चायुपा । स्थिता महर्षयः पूर्व न किञ्चित्तद्रसायनम् ।। ग्राम्याणामन्यकार्याणा सिहत्यप्रयतात्मनाम् । रसायन सेवन की आयु-रमायन का सेवन जितात्मा पुरुष को पूर्व आय (युवावस्था के प्रारम्भ मे) या मध्य-आयु मे अर्थात् चालीस वर्ष की आयु के पन्चात् करना चाहिये । रसायन सेवन के पूर्व व्यक्ति का स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन एवं रक्त विनावण कम ( गोवन) कर लेना आवश्यक है। अत्यन्त वाल्यावस्या एवं वृद्धावस्था के व्यक्ति रसायन के अविकारी नहीं है "जरापक्वगरीरस्य व्यर्थमेव रमायनम् ।" जरावस्था के कारण पक्व शरीर में रसायनो का उपयोग व्यर्थ ही होता है। मस्तु, युवावस्था के प्रारम्भ मे तथा प्रौढावस्था में रसायन सेवन का विधान बतलाग गया है। क्योंकि अत्यन्त वालक और वृद्ध ग्मायन का सेवन सहन नहीं कर पाते । च्यवन ऋपि ने वृद्ध होने पर भी रसायन का जो सेवन किया और नहन किया इसमे उनका तप कारण था । उन सावन का तात्पर्य यह है कि पहले से ही रसायनो का अभ्याम किया जावे तो वह जरावस्था को रोक देता है और इस प्रकार जरावस्था का नाशक होता है। Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड तैतालीसवाँ अध्याय ६९१ पूर्वे वयसि मध्ये वा तत्प्रयोज्यं जितात्मनः। .. स्निग्धस्य तरक्तस्य विशुद्धस्य च सर्वथा ॥ वा उ. ३९ रसायन-योग आमलकी रसायन-कोटर आदि से -रहित पूर्ण-वीर्य एक पलास के पौधे को चुन लेना चाहिए । इस पौधे के शिर के भाग को काटकर साफ कर ले। पौधे के तने मे दो हाथ गहरा गड्ढा बनाकर उसको नवीन ताजे आँवलो से भर दे । अव पौधे के मूल से लेकर गिर तक कुश से वेष्टित करे, उसके ऊपर से पदमिती-पंक (कमलिनी जिस तालाव या जलाशय मे उत्पन्न हो उसका कीचड) से लेपकर ढक दे । अव जगली गोहरे को जलाकर हवा के झोको से बचाते हुए आंवले का स्वेदन करे । स्विन्न आँवले को रसायन-सेवी मनुष्य घृत और मधु से सयुक्तं कर पेट भर मेवन करे फिर इच्छानुसार ऊपर से गाय का दूध पान करे। इस प्रकार केवल इस आंवले, धृत, मधु एव दुग्ध के आहार पर एक मास तक रहे । रमायन सेवन काल मे स्त्री, मद्य, मास, क्षारादि का सेवन न करे । शीतल जल का सेवन न करे और न शीतल जल का स्पर्श ही करे। इस रसायन सेवन के ग्यारह दिनो पश्चात् मनुष्य के केश, नख और दाँत हिल जाते है या गिर जाते हैं । फिर थोडे दिनो मे उनकी नवीन उत्पत्ति या स्थिरता प्रारम्भ हो जाती है और व्यक्ति के वल, शक्ति आदि क्रमश वढते हुए एक मास के अनन्तर वह स्वरूपवान, शक्तिशाली, वोर्यशाली व्यक्ति हो जाता है । ( अ हृ. र.) आमलकी रसायन-आँवलो का कपडछान चूर्ण २५६ तोले लेवे । इस चूर्ण में ताजे आंवले की इक्कीस भावना देकर छाया में सुखावे । फिर इसमे शहद २५६ तोले, घृत २५६ तोले, छोटी पीपल ३२ तोले तथा मिश्री का चूर्ण २ सेर मिलाकर एक मिट्टी के वर्तन मे वर्षा ऋतु मे राख की ढेर मे गाड कर रख दे । वर्तन के मुख को ढकने से ढंक कर कपड मिट्टी करके बन्द कर देना चाहिये । वर्षा ऋतु के खतम हो जाने पर शरद् ऋतु मे सेवन प्रारम्भ करे। यह एक उत्तम रसायन है । शरीर और मस्तिष्क की क्रिया इसके उपयोग से सुचारु होती है। (भै र ) च्यवनप्राश-यह एक प्रसिद्ध एव श्रेष्ठ रसायन योग है। हरीतकी रसायन-हरीतकी और आमलकी मिलित एक हजार, पिप्पली एक हजार, इनको परिपूर्ण-वीर्य ढाक के क्षार से भावित करके पात्र में रख दे। क्षारोदक के सूख जाने पर इसे छाया में सुखाकर चूर्ण कर ले। इस चूर्ण से चतुर्थाश शर्करा और चौगुना मधु और घृत मिलाकर घृत-लिप्त घट मे भरकर जमीन मे गाड देवे । छ• महीने के पश्चात् इसको निकालकर प्रात काल में Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ - भिपक्म-सिद्धि ----- सेवन करे और निरन्तर पथ्य से रहे। इसके सेवन से सौ वर्ष तक मनुष्य वृद्धावस्था रहित एवं निरोग रहकर जीवित रहता है। त्रिफला लौह रसायन-पिप्पली, त्रिफला, मुलहठी, वशलोचन, सेंधा नमक पृथक् लौह या सुवर्ण इनमे से किसी एक के साथ वच, मधु और घृत मिलाकर अथवा घृत एवं शर्करा के साथ भली प्रकार सेवन करने से यह त्रिफला रसायन सर्वरोगनाशक तथा मेधा, आयु, स्मृति एवं बुद्धि का देनेवाला है । रसायन ओषधियाँ (क) वल्य-विडङ्ग, बला, अतिवला, नागवला, विदारी, शतावरी, वाराहीकन्द, विजयसार, अग्निमन्थ, शणफल आदि द्रव्य । . . . (ख ) मेध्य-श्वेतवाकुची, चित्रक्मूल, मण्डूकपर्णी, ब्राह्मी, हैमवती वचा, विल्व, विस, नीलोत्पल, सुवर्ण, वासा, प्रियङ्गु, पुत्रजीवक, यष्टीमधु आदि द्रव्य । (ग) दिव्य (सौम्य)-सोम, श्वेत कापोती, कृष्ण कापोती, गोनसी, वाराही, कन्या, छत्रा, अतिच्छत्रा, करेणु, मजा, चक्रिका, आदित्यपणिनी, ब्रह्मसुवर्चला, श्रावणी, महाश्रावणी, गोलोमी, अजलोमी, महावेगवती। सोम के अतिरिक्त नोमसदृश वीर्यवाली इन अठारह दिव्य ओपधियो का याख्यान भी सुश्रुतसहिता में पाया जाता है। ये दिव्य दुर्लभ औपवियाँ है, कृतघ्न, पापवर्मा, अथद्धालु एव आलसियो को ये प्राप्त नही होती है। पुण्यकर्मा व्यक्ति नदियो के किनारे, पहाडो पर, तालावो के किनारे, पवित्र जगलो एव आश्रमो में इनका प्रयोग कर लेता है। अस्तु सर्वत्र इनकी खोज मे सदैव लगे रहना चाहिए । सौभाग्य प्राप्त हो जाती है। १. बोपधीना पति सोममुपयुज्य विचक्षण । दगवर्षमहत्राणि नवा धारयते तनुम् ।। (सु चि २९ ) २ सु चि ३० ? वघानरसै कृतघ्न पापकर्मभि । नेवासादयितु शक्या नोमा सोमसमास्तथा ॥ नदीप शैलेपु मर सु चापि पुण्येवण्येषु तथाश्रमेषु । मर्वत्र सर्वा पनिगगितव्या सर्वत्र भूमिहि वसूनि धत्ते ॥ (सु चि ३०) Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : तैतालीसवाँ अध्याय (६६३ नरल रसायन सेवन के योग मेधावृद्धिकर या मेध्य रसायन -१ केवल मण्डूकपणां का ताजा स्वरन अग्निवल के अनुसार १ तोले से २|| तोले प्रतिदिन सेवन करे । २ केवल मधुयष्टी ( मुठी ) का चूर्ण ६ माशे से २ तोले की मात्रा मे प्रति दिन गाय के दूध के साथ पी ले । ३. केवल गुडूचो का स्वरस १ से २ तोले को मात्रा में प्रतिदिन सेवन करे । ४. केवल शखपुष्पी को फूल सम्पूर्ण मूल और ) बनाकर मिश्री के के नाथ उपा ले और उसका कल्क ( १ तोला साथ पानी में घोलकर शर्बत बनाकर पान करें। इन चारो ओषधियो मे शख रोगो के नाशक, बल-वर्ण पुष्पी विशेष मेध्य है | ये चारो योग आयुवर्द्धक, स्वर एवं अग्निवर्द्धक, मेध्य तथा रसायन गुणो से युक्त होते हैं ।' इन ओपधियो का सेवन एक मान से तीन मास तक करके बन्द कर देना चाहिए । कुछ वर्षो का अन्तर देकर पुन आवश्यकतानुसार सेवन कराना चाहिए । शखपुष्पी कुछ वंचों में विष्णुकान्ता का व्यवहार भी पाया जाता है । से भृंगराज रसायन - केवल भृङ्गराज का ताजा स्वरस । मात्रा आधा से १ तोला । भूम लगने पर केवल दूध का सेवन अथवा के भात का सेवन । नमक, मिर्च, मसाले और शाक, कुल नेवन काल एक मात इस प्रयोग से मनुष्य वर्ष तक जीवित रहता है | अश्वगंधा रसायन - नागौरी असगघ के चूर्ण का १ माशा से ६ माशा तक की मात्रा में घृत, तैल, दूध या मन्दोष्ण जल के अनुपान से मिश्री मिलाकर सेवन करने मे दुवले शरीर की इस प्रकार पुष्टि होती हैं, जिस प्रकार वृष्टि से धान के नये अकुर वढते है । 3 कुल पन्द्रह दिनो के प्रयोग से ही पर्याप्त पुष्टि सेवन दूध और साठी के चावल भाजी दाल का परिहार । वल-वर्ण युक्त होकर एक सौ १. मण्डूकपर्ण्या स्वरमं यथाग्निक्षीरेण यष्टीमधुकस्य चूर्णम् । रस गुडूच्या. मह मूलपुष्प्या. कल्कं प्रयुञ्जीत च शखपुष्या. ॥ आयुष्प्रदान्यामयनाशनानि वाग्निवर्णस्वरवर्धनानि । मेध्यानि चैतानि रसायनानि मेध्या विशेषेण च शखपुष्पी ॥ ( अ. हृ उ. ३९ ) २. ये माममेकं स्वरम पिवन्ति दिने दिने भृङ्गरज समुत्थम् । क्षीराजिनस्ते वलवर्णयुक्ता समा शत जीवितमाप्नुवन्ति ॥ (भैर) ३ पोताश्वगन्धापयसार्द्धमास घृतेन तैलेन सुखाम्बुना वा । कृशस्य पुष्टि वपुपो विधत्ते वालस्य सस्यस्य यथाम्बुवृष्टि ॥ ¿ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ भिषकर्म-सिद्धि - मर्ता की होती है। इसका सेवन वालगोप तथा राजयक्ष्मा के रोगियों के रोगों मे उत्तम लाभप्रद पाया गया है। मोपधि का लम्बे समय तक सेवन कराने की मावश्यकता पड़ती है। निरामिष भोजी व्यक्तियो में बल और भार बढाने के लिये यह एक उत्तम नोपवि है। अश्वगधा के मूल के चूर्ण का ही प्रयोग करना चाहिये । जीत ऋतु मे एक मास तक दूध के साथ सेवन करने से वृद्ध भी युवक के समान कार्यक्षम हो जाता है । चूर्ण को घृत मौर मधु से चाटकर ऊपर से दूध पीना चाहिए। तिल रसायन-काली तिल, आंवले का फल और भृङ्गराज सम्पूर्ण । इन तीनो द्रव्यो का चूर्ण बनाकर ६ मागे से १ तोले की मात्रा में रसायन विधि से जो मनुष्य सेवन करता है वह कृष्णकेग, निर्मलेन्द्रिय और व्याधियो से रहित होकर एक मौ वर्ष की आयु प्राप्त करता है। प्रतिदिन काली तिल को २ तोला की मात्रा में गीतल जल से खाने पर शरीर पुष्ट होता है और दात जीवन पर्यन्त दृढ रहते है। नागवला रसायन-गरद् ऋतु के प्रारम्भ मे नागवला के मूल को पुष्य नक्षत्र में उसाडे । इस जट में से एक कप चूर्ण करके दूध के साथ पिये। अथवा मधु और घृत के माथ चाटे । बिना अन्न साये केवल दूब पर ही रहे । इस प्रकार एक वर्ष तक प्रयोग करने पर सौ वर्ष तक बलवान होकर जीता है। . पलाशबीज रसायन-पलागवीज, मावला और तिल (काली)। सम मात्रा में बना चूर्ण । मात्रा ३ से ६ मागे । रात में सोने के पूर्व घी और चीनी के अनुपान में सेवन । इसके सेवन से मनुष्य के केश नहीं पकते, बल बढता है और मास दो-मास के उपयोग से वह बुद्धिमान और मेवावान होता है। पुनर्नवा रसायन-नवीन पुनर्नवा को दूध में पीसकर पन्द्रह दिन, दो मान भयवा छ. मास या एक वर्ष तक सेवन करने से शरीर पुन नया होता है। पुनर्नवा की मात्रा २ तोला ।८ । १ शिशिरे चाश्वगन्धायाः कन्दचूर्ण पयोन्वितम् । मासमत्ति समध्वाज्य म वृद्धोऽपि युवा भवेत् ।। (गजमार्तण्ड) २ धात्रीतिलान् मनरजोविमिधान ये भक्षयेयुर्मनुजा क्रमेण । ते कृष्णरेगा विमलेन्द्रियारच निधियो वर्षगतं भवेयुः ।। ३ दिनेदिने कृष्णतिलप्रकुञ्च समश्नतां गीतजलानुपानम् । पोप. गरीरस्य भवत्यनत्पो दृढीभवन्त्यामरणं च दन्ता ॥ (वा. रसा.) ४. पुनर्नवल्याईपलं नवम्य पिष्टं पिवेद्यः पयमार्यमासम् । मासहयं तटिगुण ममा बा जीर्णोऽपि भूय स पुनर्नवः स्यात् ।। (यो. र.) - Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तैतालीसवाँ अध्याय ६६५ वृद्धदारक रसायन - विधारा के मूल के चूर्ण को शतावरी के स्वरस से सातवार भावित करके सुखाकर रख ले। इस चूर्ण को १ तोले की मात्रा मे घृत के साथ सेवन करे । इस प्रकार एक मास तक निरन्तर इस चूर्ण का सेवन करने से मनुष्य बुद्धिमान्, 'मेधावी, 'स्मृतिमान् हो जाता है तथा झुर्रियो और केशो के पकने से रहित होकर जीवित रहता है । अर्थात् वार्धक्य का अनुभव नही होता है । वाराहीकंद रसायन - अति दूध वाले वाराही कंद के मूल को दूध के साथ पीसकर पिये । इस प्रकार अन्नरहित रहकर एक मास तक दूध पर ही रहे । पश्चात् एक मास तक दूध और भात पर रहे। इस प्रयोग से बुढ़ापा दूर होता है । ( वाग्भट ) चित्रक रसायन --- चीता तीन प्रकार का पुष्पभेद से होता है । पीत, श्वेत एवं काले फूलो वाला । इनमें काले फूलवाला सर्वश्रेष्ठ होता है। इनमे से किसी एक प्रकार का चित्रक विधिपूर्वक सेवन करने से रसायन होता है | 1 चित्रकमूल को छाया मे सुखाकर चूर्ण बनावे | इस चूर्ण का १-३ माशे की मात्रा मे मधु से मिलाकर, घी मे मिलाकर या दूध मे घोलकर, मट्ठे मे घोलकर या जल मे मिलाकर सयम के साथ एक मास तक सेवन करने से मेधा, बल, कान्ति एव अग्नि का वर्धक होता है । मनुष्य को शतायु बनाता है । तिल तैल मिलाकर चित्रक चूर्ण को चाटने से भयानक वायु रोग नष्ट होते है । गोमूत्र के साथ सेवन करने से श्वेत कुष्ठ और त्वक् रोग दूर होते है । मट्ठे के साथ सेवन करने से अर्श नष्ट होते है । प्रयोग की अवधि एक से दो मास । हरीतकी रसायन वर्षा ऋतु मे सेंधानमक, शरद् ऋतु में खाड, हेमन्त ऋतु मे सोठ के चूर्ण, शिशिर ऋतु मे पिप्पली चूर्ण, वसन्त ऋतु में शहद तथा ग्रीष्म ऋतु मे गुड के साथ हरीतकी के चूर्ण को रसायन गुण चाहने वाला मनुष्य सेवन किया करे | " A १ सिन्धूत्थशर्कराशुण्ठी कणामधुगुडे. क्रमात् । वर्षादिण्वभया सेव्या रसायनगुणैषिणा ॥ ग्रीष्मे तुल्यगुडा सुसैन्ववयुता मेघावनद्धाम्बरे सार्धं शर्करया शरद्यमलया शुण्ठ्या तुपारागमे । पिप्पल्या शिशिरे वसन्तसमये क्षौद्रेण सयोजिता राजन् भुङ्क्ष्व हरीतकीमिव गदा नश्यन्ति ते शत्रवः ॥ ( रा. मार्तण्ड ) Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६ भिपकर्म-सिद्धि वेवल हरीतकी को घृत मे भूनकर खाने तथा उस घृत के पीने से भी रसायनगुण होता है। मात्रा वडी हरड दो। अवधि १ वर्ष । बल एव आयु की प्राप्ति होती है । अमृतादि रसायन-गिलोय, मावले का फल, गोखरू के बीज । सम मात्रा मे बना चूर्ण मात्रा ६ माशा। घी १ तोला ओर चीनी आधे तोले के साथ मिलाकर सेवन । प्रयोगावधि ६ मास । यह एक उत्तम रसायन है जो जरावस्था को दूर कर केशो को काला करता और मनुष्य को पूर्ण युवक सदृश कार्यक्षम बनाता है। गुडूच्यादि रसायन योग-गिलोय, अपामार्ग की जड, वायविडङ्ग, शखपुष्पी, वच, हरीतकी, कूठ और शतावर । इन द्रव्यो को सम प्रमाण मे लेकर चूणित करके गाय के घी और मिश्री के अनुपान से तीन दिनो तक सेवन करने से मनुष्य एक हजार श्लोको को कण्ठ करने योग्य हो जाता है । मात्रा ३ से ६ माशे । __ ब्राह्मी रसायन-ब्राह्मी, वच, हरीतकी, अडूसा और पिप्पली का सम प्रमाण में वना चूर्ण। मात्रा ३ मागा । अनुपान मधु और सेंधानमक । यह एक स्वर को वढानेवाला योग है। इसके एक सप्ताह के सेवन से ही कठ किन्नर सदृश हो जाता है। त्रिफला रसायन-चरक सहिता मे कई पाठ त्रिफला रसायन के मिलते है। इनमें से किसी एक का प्रयोग एक वर्ष तक करने से सेवन करने वाला व्यक्ति बुटापा और रोग से रहित होकर सौ वर्ष की आयु प्राप्त करता है । १. भोजन के पूर्व दो बहेरे का चूर्ण, भोजन के तत्काल वाद चार भावले का चूर्ण और भोजन के पच जाने पर अर्थात् ४-५ घटे के अनन्तर एक हरीतकी का चूर्ण। मधु और घृत के अनुपान से चाट ले। - १ हरीतकी सपिपि सप्रताप्य समश्नतस्तत् पिवतो घृतश्च । __भवेच्चिरस्थायि वल शरीरे सकृत् कृत साधु यथा कृतज्ञे । (वा. रसा.) २. अमृतामलकीविकण्टकाद्य हविषा शर्करया निपेवणेन । बजरा अमरा अपारवीर्या अलिकेशा अदिते सुता बभूवुः ॥ (4 जी ) ३. गुदूच्यपामार्गविडङ्गजिनीवचाभयाकुष्ठगतावरीसमा । वृतेन लोटा प्रकरोति मानव निभिदिन इलोकसहत्रधारिणम् ।। ४. नाहीवचाभयावासापिप्पल्यो मधुमैन्धवम् ।। अन्य प्रयोगात्सप्ताहात् किन्नरै. सह गीयते ॥ (भा. प्र ) Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तैतालीसवॉ अध्याय ६९७ २ समान प्रमाण मे आमलकी, हरीतकी और विभीतक के फलों का चूर्ण बना ले। पानी से पीस कर उसको नये लौह के पात्र ( कडाही) मे लेप कर रख दे। चौबीस घटे के पश्चात् उसमे पानी छोडकर घोले और छान कर मधु मिलाकर पिये। इस प्रयोग काल मे उस व्यक्ति को प्रचुर मात्रा मे स्नेह (घृत, वसा, मजग आदि) देना चाहिए। ३. त्रिफला के वने चूर्ण का मुलेठी, वशलोचन, पिप्पली, मिश्री, मधु या घी के माथ सेवन भी रसायन गुण वाला होता है। पिप्पलो रसायन तथा वधमान पिप्पली रसायन-इस रसायन का उल्लेख उदर रोग की चिकित्सा मे विस्तार के साथ हो चुका है। शतावरी घृत-शतावरी के कल्क और क्वाथ से सिद्ध घृत का सेवन । मात्रा १ तोला । अनुपान शर्करा । व्यक्ति निर्व्याधि एव निर्जर हो जाता है। अवधि १-३ मास । वचा रसायन-मोठी बच के चूर्ण का दूध, तैल या घृत के साथ सेवन । मात्रा १-२ माशे । अवधि-१ मास तक । गुण-मनुष्य मेधावी, मधुरभाषी और भूतादि के उपसर्ग से सुरक्षित रहते हुए जीता है। आमलकी स्वरस-आमलकी का स्वरस ६ माशा से १ तोला, मध ६ माशा, शर्करा ६ माशा और घृत १ तोला मिलाकर प्रतिदिन सेवन करने से और हिताहार-विहार पर सयमपूर्वक रहने से बुढापे से उत्पन्न सभी विकार दूर हो जाते है, जैसे विशाल ग्रन्थ ठीक प्रकार से न पढने से नष्ट हो जाते है । सोमराजी रसायन-सोमराजी ( वाकुचो) तथा काली तिल का सेवन । कुष्ठ रोगाधिकार में वर्णन हो चुका है। तुवरक रसायन का भी वर्णन उसी अधिकार मे हो चुका है। रसोन रसायन-आमलकी, हरीतकी तथा लहसुन ये तीनो द्रव्य स्वतन्त्रतया पचरस युक्त होते है । आमलकी एवं हरीतकी, मधुरामलकटुतिक्तकपायरसयुक्त तथा लहसुन 'मधुरलवणकटुतिक्तकपाय' रस युक्त होता है । १. शतावरीकल्ककपायसिद्ध ये सपिरश्नन्ति सिताद्वितीयम् । ताजीविताध्वानमभिप्रपन्नान्न विप्रलुम्पन्ति विकारचौरा.॥ (अ.ह उ ३९) २ मासं वचामप्युपसेवमानाः क्षीरेण तैलेन घृतेन वापि । भवन्ति रक्षोभिरधृष्यरूपा मेधाविनो निर्मलमृष्टवाक्या ॥ ३ धात्रीरसक्षौद्रसिताघृतानि हिताशनाना लिहता नराणाम् । प्रणाशमायान्ति जराविकारा ग्रन्था विशाला इव दुर्गृहीता ॥ , Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ भिषसम-सिद्धि फलतः ये सर्वव्याधिहरण मे समर्थ तथा रसायन गुणो से युक्त होते है । आमलकी एव हरीतकी को प्रधानता वाले बहुविध योग सहिताओ मे रसायनाधिकार में पाये जाते है । जैसे-वाम रसायन, च्यवनप्राश, आमलक रसायन, आमलकी घृत, आमलकावलेह, हरीतको योग आदि। इनमे कुछ योगो का ऊपर मे उल्लेख हो चुका है। लहसुन भी एक इसी प्रकार का रसायन द्रव्य है जिसके बहुविध योगो का वर्णन काश्यप सहिता के रसोन कल्प मे पाया जाता है । यहाँ पर उसके रसायन रूप में सेवन विधि का अष्टाङ्गहृदय के अनुसार संक्षिप्त वर्णन दिया जा रहा है। लहसुन वीर्य मे उष्ण होता है। इसका रसायन रूप मे सेवन हेमन्त ऋतु या वसन्त मे करना चाहिये । वात रोग से पीडित व्यक्ति वर्षा ऋतु मे ले सकता है। यदि वातार्त व्यक्ति हो तो ग्रीष्म ऋतु में भी इसका सेवन ऋतु दोष को वचाते हुए तदनुकूल व्यवस्था करते हुए कर सकता है। प्रतिदिन लहसुन के कल्क की कुल मात्रा २ से ४ तोले । स्वरस की ४ से ८ तोले । इसमे उतनी ही मात्रा में सुरा या मद्य मिलाकर भोजन के साथ खाने को देना चाहिये । जी मद्य न पीता हो उसे काजी या फलो के रस, विजौरे या कागजी के रस मे मिला कर देना चाहिये । लहसुन के अनुपान रूप में तक्र, तेल, दूध, घी, मांसरस, वसा, मज्जा का भी अनुपान बतलाया गया है। काल, रोग, वल, सात्म्य, सत्त्व आदि का विचार करते हुए प्रतिदिन की मात्रा तथा अनुपान का निर्धारण करना चाहिये। __ इस प्रकार पित्त-रक्त रहित सम्पूर्ण आवरणो से रहित वायु के लिये या गुद्ध वायु के लिये लहसुन से उत्तम और कोई द्रव्य नहीं है। मास, मद्य, अम्ल से जिनको द्रुप है, जल, गढ और दध जिनको प्रिय है अथवा अजीर्ण से जो पाडित हैं, उनमें लहसुन का सेवन हितकर नही रहता है। लहसुन के प्रयोग काल में पित्त की अधिकता को कम करने के लिये व्यक्ति में प्रतिदिन मृदु रेचन की भी व्यवस्था करनी चाहिये । इस प्रकार विचारपूर्वक लहसुन के वरते जाने से रमायन का गुण प्राप्त होता है। विडङ्ग रसायन-विडद्भावलेह-विडङ्ग चूर्ण २५६ तोले, पिप्पली चूर्ण । २५६ तोले, मिश्री २५६ तोले, वृत १२८ तोले, तिल तेल १२८ तोले, मधु १२८ तोले । छवो द्रव्यो को एक में मिश्रित करके घृत के भाण्ड में रखकर वर्षा महतु में रास की ढेर में गाड कर रख दे । पुन. वर्षा ऋतु के अनन्तर निकालकर मात्रा से सेवन करें। इसके सेवन से वार्धक्य से रहित होकर मनुष्य शत वर्ष तक जीवित रहता है । Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तैंतालीसवॉ अध्याय ६६६ भल्लातक रसायन-भल्लातक एक तीक्ष्ण वीर्य एवं विविध अद्भुत कार्य करने वाली विषाक्त रसायन ओषधि है। इसकी उपमा अग्नि से दी गई है। जिस प्रकार अग्नि अति तीक्ष्ण, पित्तोत्तेजक एव पाचक होती है उसी प्रकार भल्लातक भी। विधि के अनुसार प्रयोग करने पर यह अमृत के तुल्य शरीर के लिये लाभप्रद होता है। कोई कफजन्य ऐसा रोग नहो, न ऐसा कोई विवन्ध है जिसको भिलावा शीघ्र नष्ट न कर दे । यह शीघ्र अग्नि बल को देनेवाला है।' भल्लातक सेवन काल में आंवला, मलाई, दूध, घो, तैल, गुड, जो का सत्त, तिल, नारियल, मूली का प्रयोग काफी करना चाहिये। कुलथी, दही, सिरका, तेल की मालिश, आग का तापना, धूप मे काम करना वन्द कर देना चाहिये। __ भल्लातक प्रयोग योग-भल्लातक घृत, भल्लातक, भल्लातक क्षौद्र, गुड भल्लातक, भल्लातक यूप, भल्लातक तैल, भल्लातक पलल, भल्लातक सत्तू , भल्लातक लवण, भल्लातक तर्पण इस प्रकार से दशविध प्रयोग चरक मे वर्णित हैं। __"यहाँ पर एक सहस्र भल्लातक रसायन का योग एवं सेवनविधि अष्टाङ्गहृदय के अनुसार उद्धृत की जा रही है जिसके सेवन किये व्यक्ति आज भी उपलब्ध हैं। ___ . अच्छी प्रकार से पके भिलावो को ग्रीष्म ऋतु मे एकत्रित करके धान्य राशि मे रख देवे । हेमन्त मे मधुर, स्निग्ध और शीतल वस्तुओ से शरीर को सस्कृत करके इनमे से आठ भिलावो को आठगुने जल में पकावे। इस क्वाथ का अष्टमाश शेष रहने पर इसमे शीतल होने पर क्षीर मिलाकर पिये। प्रतिदिन एक-एक भिलावे को इसमे बढाता जाये। इस प्रकार इक्कीस दिन तक बढाये । फिर तीन-तीन वढाये, जब तक इसकी सख्या चालीस तक न पहुँच जाये। फिर वृद्धि के क्रम से इनको घटाना आरम्भ करे। इस प्रकार सात सप्ताहो तक एक हजार भिलावो का सेवन करे। इनके सेवन में जितेन्द्रिय रहे, घी, दूध, शालि एवं साथी का भोजन करे । भिलावे के प्रयोग के बाद तीनगुने समय तक इसको वरतता रहे अर्थात् इवकीस सप्ताह तक यह विधि करे। इससे वह पूर्वोक्त १. भल्लातकानि तीक्ष्णानि पाकीन्यग्निसमानि च । भवन्त्यमृतकल्पानि प्रयुक्तानि यथाविधि ।। कफजो न स रोगोऽस्ति न विबन्धोऽस्ति कश्चन । य न भल्लातको हन्याच्छीघ्र मेधाग्निवर्धनम् ॥ ( च चि. १) Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० सिषकर्म-सिद्धि अभिलषित गुणो को प्राप्त करता है, विगेपकर उसकी अग्नि प्रदीप्त होती है। वह प्रमेह, कृमि, कुष्ठ, अर्श तथा मेदोदोप ने रहित होता है । गुग्गुलु रसायन-लौह भस्म १ पल, गुग्गुलु ३ पल, त्रिकटु ५ पल, त्रिफला ८ पल । मिश्रित मात्रा १ तोला । अनुपान दूध। (भा प्र.) शिलाजतु रसायन-प्रीष्म ऋतु मे सूर्य से तप्त हिमालय पर्वत मे पत्थरो मे लाख के सदृश एक वस्तु का क्षरण होता है ! जो सगृहीत होकर शिलाजीत के पन्यरो के रूप मे पाया जाता है । सुवर्ण, रजत, ताम्र, लौह प्रभृति ६ घातुओ के अनुसार इसके भी प्रकार होते है। इनमे लौह शिलाजतु सर्वश्रेष्ठ है । रम में मभी शिलाजीत तिक्त, कटु, विपाक में भी कटु और छेदक गुण वाला होता है । वीर्य मे नात्युष्ण होता है। उत्तम शिलाजीत के लक्षण-जो शिलाजीत गोमूत्र की गंधवाला, गग्गुलु के समान, कंकड एवं शर्करा रहित, चिकना, स्निग्ध, अनम्ल (अम्ल न हो), मृदु और गुरु होता है, वह श्रेष्ठ है । शिलाजीत शोधन-पहले पानी में धोकर सुखावे । फिर त्रिफला क्वाथादि में उवाले मोर भावना दे। बाजार में गद्ध शिलाजीत नाम से शुद्ध किया ही गिलाजीत मिलता है। उसी का व्यवहार करना चाहिये। सेवन विधि-प्रथम रोगी का स्नेहन आवश्यक है। तिक्त द्रव्यो से साधित वृत का तोन दिनो तक सेवन कराके रोगी को स्निग्ध कर लेना चाहिये पश्चात् शुद्ध शिलाजीत को तीन-तीन दिनो तक निम्न वस्तुओ में से एक-एक के साथ वरते । त्रिफला के क्वाय से तीन दिन, पटोल के क्वाथ से तीन दिन और मध्यष्टी के क्वाथ से तीन दिन । इस प्रकार एक, तीन या सात सप्ताह तक प्रयोग करावे । कुल मात्रा २ तोले, ४ तोले या ८ तोले की होनी चाहिये । इनको क्रमश हीन, मध्यम, उत्तम मात्रा कहते है। यह शिलाजीत की विशिष्ट सेवन विधि है। सामान्य विधि-मामान्यतया १ मागा की मात्रा में प्रातः सायं दूध में घोल कर लेने की विधि रोगो की चिकित्सा में चलती है। मधुमेह, अश्मरी और गरा नादि रोगो में उस विधि से प्रयोग करते हुए १ तुला (५ सेर ) तक अधिकतम फुल मात्रा वतलाई गई है जिसका उल्लेख प्रमेह चिकित्साधिकार मे हो चुका है। गालमागटि गा में कहे हुए द्रव्यो के क्वाथ के साथ शिलाजीत को अच्छी प्रकार भावित करके शुष्क चूर्ण बना लेना चाहिये। फिर यथासंभव पचकर्म द्वारा Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तैतालीसवाँ अध्याय ७.१ प्रमेही के शरीर की शद्धि करके शिलाजीत को ४ रत्ती की मात्रा में प्रारंभ कर शहद मे मिला कर सेवन करे । शालसारादि गण की ओषधियो का क्वाथ अनुपान रूप में दे। इस प्रकार प्रतिदिन दो-दो रत्ती की मात्रा बढाते हुए १ माशा प्रात और १ माशा सायं काल मे देता हुआ १ तुला (५ सेर ) तक शिलाजीत का सेवन करावे । यह इसकी वडी से बडी पूर्ण मात्रा है। इसके अनन्तर ओपधि का सेवन बद करा दे । ओषधि सेवन काल मे क्षुधा प्रतीत होने पर जाङ्गल पशुपक्षियो के मासरस के साथ चावल का भात पथ्य रूप में देना चाहिये । इस के सेवन से मनुष्य रोग से मुक्त हो जाता है-कान्ति और बल से युक्त होकर सो वर्ष तक जीता है।" शिलाजीत प्रयोग काल मे अपथ्य-गुरु, विदाही भोजन का सेवन न करे। कुलथी, काकमाची और क्बूतर के मास का सदा के लिए परित्याग करे । शिलाजीत रसायन की प्रशंसा-मर्त्यलोक मे साध्य रूप ऐसा कोई भी रोग नही है जिसको शिलाजीत का सेवन बलपूर्वक न जीत सके । स्वस्थ व्यक्ति मे काल, योग, मात्रा और विधि का अनुसरण करते हुए सेवन करने से अतिशय पोरुप को वढाता है ।२ मेहाधिकारोक्त योग 'शिवागुटिका' भी एक रसायन योग ही है। वह शिलाजतु का ही योग है। गंधक रसायन-शुद्ध किये गधक को गाय के दूध, चातुर्जात, गुडूची, । हरीतकी, विभीतक, आमलकी, भृगराज और अदरक के रसो से पृथक्-पृथक् आठ भावना देकर तैयार करे । मात्रा ४ रत्ती से १ माशा। अनुपान घी और चीनी । इमसे वीर्य एव शरीर पुष्ट होता है, अग्नि जागृत होती है, विविध त्वक् रोग नष्ट होते है और दीर्घायुष्य की प्राप्ति होती है। सुवर्ण रसायन-सुश्रुतचिकित्सा स्थान २८ वे अध्याय मे सुवर्ण के साथ विविध काष्ठोपधियो का पाक करके क्षीर सेवन के विविध योगो का उल्लेख पाया जाता है । इसमे सुवर्ण के भस्म की आवश्यकता नही पडती है । मस्कार मात्र के लिये सुवर्ण छोड़ा जाता है । इन रसायनो के सेवन से मेधा एव आयुष्य की वृद्धि होती है। पूरे अन्याय का नाम ही मेधायुष्कामीयम् है। यहां पर एक योग अष्टाङ्ग हृदय का तत्सहश उद्धृत किया जा रहा है । सरल एवं उत्तम है। १ कुर्यादेव तुला यावदुपयुजीत मानव । ( भै० २०) २. न सोऽस्ति रोगो भुवि साध्यरूप शिलाह्वय यं न जयेत् प्रसह्य । तत्कालयोगविधिभि प्रयुक्त स्वस्थस्य चोर्जा विपुला दधाति । (च० चि० १) Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ 'भिपक्षम-सिद्धि पंचारविन्द रसायन-विस, कमलनाल, कमल के पत्ते, कमल के केसर, कमल के वीज इनके कल्क के साथ सुवर्ण का टुकड़ा, दूध और घी को सिद्ध करें। यह विख्यात पंचारविन्द नामक वृत है। जिसका पीरुप, बल, मेधा, प्रतिभा नष्ट हो गई है उसको इसका सेवन करना चाहिये । पुन: मेवा एव आयु की प्राप्ति होती है। . अन्य रस के योग-कूपोपपत्र रसायन ( मकरध्वज, चंद्रोदय प्रभृति ), तथा रस योग ( महालक्ष्मीविलास, योगेन्द्ररस, त्रैलोक्यचिन्तामणि रस प्रभृति) भी रसायन रूप मे व्यवहृत होते है । मात्रा १-२ रत्ती । अनुपान दूध, मलाई, घृत, नवनीत, मिश्री यथालभ्य । रसायन पथ्य-गीतल जल, दूध; मधु और घृत ये अलग, दो-दो मिलाकर या तीन-तीन या चारो को मिलाकर प्रातःकाल मे पीने से वयःस्थापक (आयु को स्थिर करने वाले) होते हैं। इनके पन्द्रह योग होते है। इनका यथावश्यक, असमान मात्रा में सेवन करना चाहिये ।१ जी को कटकर बनाये यवाग या रोटी का पिप्पली चूर्ण २-४ रत्ती और ६ मागे मधु के साथ मिलाकर सेवन करना मेध्य एवं लायुष्य होता है। इसके प्रयोग से मेघा वृद्धि होकर मुखपूर्वक शास्त्राभ्यास हो जाता है । २ रात के वीच जाने पर प्रात काल मे शीतल जल का नस्य या नाक मे पानी का पीना रसायन एव दृष्टिजनन होता है। प्रात. काल मूर्योदय के पूर्व उठकर कुरले करके शीतल जल का पीना मनुष्य को शतायु करता है । मात्रा ६४ तोला। मजतल रसायन-एरण्ड तैल, निम्बतैल,ज्योतिष्मती तैल, विभीतक मज्जा तेल, पलाश वोज मज्जा तेल । इन तैलो का सेवन रसायन गुण वाला होता है। इनका मुत्र ने तय नस्य द्वारा प्रयोग करना चाहिये । इससे शरीर नोरोग होता है। मकाल पलित (केमो का पकना) दूर होता है । इनके प्रयोग काल मे व्यक्ति को १. नीतोदक पय क्षौद्रं घृतमकैकग द्विश त्रिश. सगरतमथवा प्राकपीत स्थापयेद्वय ।। (यो र ) २ चावफास्तावकान् सादेत् अभिभूय यवास्तथा । पिप्पलीमधुनयुक्तान् शिक्षाचरणवद् भवेत् ।। (सु. चि. २८ ) ३ व्यंगवलीपन्तिघ्नं पीनमवस्वर्यवासकामहरम् । रजनीक्षयेऽम्युनस्यं रसायनं दृष्टिजननञ्च ।। (भै. र.) ४ सम्मम. प्रनृतीनटी रवावनुदिते पिवन् । वातपित्तगदान् हत्वा जोवेर्पशतं नर ॥ (भै. र ) Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : तैतालीसवाँ अध्याय ७०३ मास या दो मास तक केवल गाय के दूध और भात पर रखना चाहिये। निम्ब तेल का उपयोग बहुश दृष्टफल है । आश्चर्यजनक लाभ होता है।' इस प्रकार संक्षेपत. उन रसायन ओषधियो का, जो सुलभ है एवं जिनका प्राप्त करना तथा व्यवहार करना एक साधारण व्यक्ति के लिये भी शक्य है, उनका भात्यान इस अध्याय में किया गया है। आज के औद्योगिक युग में रसायनो का सेवन एक दुष्कर कार्य हो गया है। अस्तु, युगानुरूप सरल एवं सुगम रसायनो का वर्णन करना अपना लक्ष्य रहा है । इस अध्याय मे कथित ओपधियो के अतिरिक्त महाफलवान् दूसरे वहुत से रसायनो का पाठ सहिताओ में प्राप्त होता है जिनका नामोल्लेख भर करके उनकी ओर इगित मात्र ही किया गया है, क्योकि वे ओपधियां सर्वजनसुलभ नहीं है-उनका प्राप्त करना शक्य नही है, मस्तु उनका मविस्तर वर्णन नहीं दिया जा सका है। ऐसी बहुत सी महान् गुणो से युक्त महाफल देने वाली रमायन ओपधियाँ और भी है, जिनका वर्णन इस अध्याय में नहीं हो सका है। उक्तानि शक्यानि फलान्वितानि युगानुरूपाणि रसायनानि । महानुशंसान्यपि चापराणि प्राप्त्यादिकष्टानि न कीर्तितानि ।। (अ. ह र ) इति १ एरण्डतैलमथ निम्बफलास्थितैलमेतद्रसायनमनामयकायकारि । Tamane ज्योतिष्मतीफलपलाशफलोद्भव वा तैल वलीपलितहारि भिपकप्रदिष्टम् ॥ (यो र ) निम्बस्य तेल प्रकृतिस्थमेव नस्तो निपिक्त विधिना यथावत् । मासेन गोक्षीरभुजो नरस्य जराग्नदूत पलित निहन्ति ।। (भै र.) Page #754 --------------------------------------------------------------------------  Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड (परिशिष्ट) ४५ भि० सि० Page #756 --------------------------------------------------------------------------  Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टाध्याय पूर्व के अध्यायो मे प्राय. कायचिकित्सा से सम्बन्धित रोगो का आख्यान हो चुका है। इस अध्याय मे कुछ अवशिष्ट रोगो का, शल्य-काय उभयविध रोगो ( Medicosurgical Diseases ) का तथा कुछ विप्रकीर्ण विषयो का मक्षिप्त विचार प्रस्तुत किया जा रहा है। इसमें केवल दृष्टफल योगो का ही वर्णन है। वृद्धिरोग ( Inguino-Scrotalswelling ) प्रतिषेध वृपण वृद्धि या अण्डकोप शोथ (Orchitis)-चिकित्साक्रमसर्व प्रकार के वृद्धि रोगो मे पूर्ण विश्राम, रेचन, वातानुलोमक तथा मूत्रप्रवर्तक औपधियो का प्रयोग करना चाहिए। त्रिफला चूर्ण दो तोला, जल १६ तोला, अवशिष्ट क्वाथ ४ तोला मे उतना ही गोमूत्र मिलाकर प्रात काल में देने से नवीन वृद्धि में सद्यः लाभ होता है। साथ मे गुग्गुलु वटी २-२, सुबह-शाम गर्म जल से तथा रात में सोते समय पट्सकार चूर्ण या हरीतकी चूर्ण ६ माशा या यष्ट्यादि चूर्ण ६ माशा रात को सोते समय गर्म गल से देना चाहिए। एरण्ड तैल का प्रयोग भी उत्तम रहता है ।' घीकुआर को फाडकर उसपर आमाहल्दी का चूर्ण छिडक कर वृषण पर बाँधना और लँगोट लगाना भी उत्तम रहता है। गलगएड (Goitre)-स्थानिक लेप, वमन, रेचन, शिरोविरेचन तथा रक्तविस्रावण लाभप्रद रहता है। रोगी को भोजन मे जौ, कोदो, मूग, परवल, करेला, अदरक, लहसुन एव प्याज प्रचुर मात्रा मे देना चाहिए । लेपअदरक, सहिजन, सोठ, काला जीरा, प्याज, मसूर की दाल और बकरी की मीगी को पीसकर मन्दोष्ण लेप । केवल जलकुम्भी को पीस कर उसका लेप गले पर चढ़ाना तथा उसका रस निकाल १-२ तोला प्रतिदिन रोगी को पिलाना उत्तम रेचन मूत्रकृद् यच्च यद्वायोरनुलोमनम् । तत्सवं वृद्धिरोगेपु भेपज परियो गयेत् ।। त्रिफलाक्वाथगोमूत्रं पिवेत् प्रातरतन्द्रित । कफवातोद्भव हन्ति श्वयथु वृषणोत्थितम् ॥ ( भै र ) Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म - सिद्धि ७०८ रहता है। कि विद्वानो ने इसकी उत्पत्ति मे भोजन मे जम्बुकी धातु ( Iodine ) की कमी को कारण माना है । जलकुम्भी मे यह तत्त्व प्रचुर परिमाग में मिलता है । जनः लाभ भी होता है । अमृताच तैल - गिलोय, नीम की छाल, हंस की जड, कुटज की छाल, पिप्पली, बला, अतिबला, देववार प्रत्येक २ तोला । जल मे पीसकर कल्क बनावे, फिर इसमें नरमी तिल का तेल १ सेर, पानी ४ सेर मिलाकर अग्नि पर चटा तैल-पाकविधि में तेल का पाक कर ले | इसको दूध में मिलाकर 22 तो- १ तोले की मात्रा में पिलाना चाहिए ।' कांचनार गुग्गुलु का भी सेवन जा सकता है । मृताद्य तेल का नस्य भी उत्तम रहता है । आचार्य चरक ने लिखा है कि , दूध और कपाय रस के द्रव्यों का बहुलता से उपयोग करने से गलगण्ड नहीं होता है । अस्तु, गलगण्ड को चिकित्मा मे भी इन पोषक बाहारों का ध्यान रखना चाहिए। गण्डमाला - अपची प्रतिषेध ( Scrofula ) - कांचनार गुग्गुलु — कचनार की छाल २० तोला, सोठ, मरिच, पिप्पली प्रत्येक ५-५ तोळे, हर्रा, व्हेरा, बांवला प्रत्येक २|| तोले, वरुण की छाल १। तोला, तेजणन, छोटी इलायची के दाने तथा दालचीनी ४-४ मागे । सव को छूट छानकर चूर्ण घर हो । फिर इन समस्त चूर्ण के बराबर गुरु गुग्गुलु मिलावे । निफनाथ की भावना देकर २ माशे की गोलियाँ बनाकर रख ले | प्रातमा २-१ गोली । अनुपान हरीतकी, मुण्डो या खदिर का काढा या देवगड | पच्य तथा चिकित्सा क्रम गलगण्ड सदृग । गोप का अनुबन्ध हो तो एव लयवन उपचार भी करे । निम्नलिखित औपवि का उपयोग दृष्टर है। बनगोभी की मूल के नाथ उखाड़कर साफ करके पीसकर उसका एक छान ताजा रस निकालकर २|| मरिच के साथ लगातार इक्कीस दिनो लुखी को गर्म करके गांठ की जगहो पर बांध दे । लाव हो तो ४१ दिनो तक प्रयोग करे रोग निर्मूल हो जाता है | पंचतिक्त वृत गुलु (कुष्टाधिकार ) का उपयोग भी गण्डमाला, अपची, नाडीव्रणादि में लाव रहता है। १ क्षेत्रानिम्बहिन ह्वणवत्मक पिप्पलीनि । मित्र बंयन्त्रा च सदेवदार हिताय नित्यं गलगण्डगे | ( सु ) २ मान्न भवन्ति ते । (च.वि. २१ ) Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम तण्ड : परिशिष्टाध्याय ၆၀င် वा-शोथ विद्रधि एवं व्रण प्रतिषेध । ‘शिय-महिजन के मूल का स्वरस १ तोला मधु मिलाकर अथवा सहजन की छाल का क्वाथ बनाकर भुनी हीग (४ र०) और सेधा नमक (१ मा० ) मिलाकर पोना उत्तम कार्य करता है । पूयोत्पत्ति के रोकने मे यह उत्तम कार्य करता है । त्रिफला, वरुण, शिग्रु, दशमूल, पुनर्नवा, गुग्गुलु और गोमूत्र आदि का उपयोग भी उत्तम रहता है । शिनु के इन्ही गुणो के कारण लोग इसे आयुर्वेद का एण्टिबायटिक मानते हैं । दशान लेप-गिरीप की छाल, मुलैठो, तगर, लाल चन्दन, छोटी इलायची, जटामासो (बालछड ), हल्दी, दाल्हल्दी, कूठ, नेत्रवाला। इनको एकत्र कूटकर कपड़छान चूर्ण बना ले । इस लेप का एक तोला लेकर पानी से महीन पीस कर उसमे घी १ तोला, गहद १ तोला, गेहू का आटा, अलसी ( कुटी हुई) ५-१० तोला या आवश्यकतानुसार मिलाकर आग पर गर्म करके व्रणशोथ के स्थान पर एक कपडा रखकर उस पर फैलाकर ऊपर से एक और कपडा रख कर बांध दे। ३-३ घटे पर पुल्टिस बदलता रहे। यदि प्रारंभ मे ही इसका प्रयोग किया जाय तो शोथ बैठ जाता है । यदि पकना प्रारभ हो गया है तो जल्दी पककर फूट जाता है । फूटने पर भी दो-तीन दिनो तक इसका प्रयोग करता रहे तो मवाद निकलकर व्रण स्थान शुद्ध हो जाता है । पश्चात् रोपण की व्यवस्था करे। व्रणशोधन-निम्बपत्र, त्रिफला, खदिर, दारुहरिद्रा, वट आदि के कषाय से प्रक्षालन व्रणो का शोधक है। - अनन्तमूल-केवल अकेले अनन्तमूल का काढा या लेप व्रण का उत्कृष्ट शोधक है। ८ रोपण-व्रणो के रोपण मे काली तिल और मधु एक मे पीसकर पिष्ट ( Paste ) बनाकर लेप करने से उत्तम लाभ होता है । इसके अतिरिक रोपण मे असगध, कुटकी, लोध्र, कायफर, मधुयष्टी, लज्जालु और धाय के फूल का लेप भी उत्कृष्ट रोपण द्रव्य है । १ शोभाजनकनियूंह हिंगुसैधवसयुत । अचिराद् विद्रधि हन्ति प्रात प्रातनिषेवित ॥ शिमूल जले धोत दरपिष्ट प्रगालयेत् । तद्रस मधुना लेपो हन्त्यन्तविद्रधिं नर ॥ - - Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० भिपकर्म-सिद्धि जात्यादि तैल-चमेली की पत्ती, निम्बपत्र, पटोल पत्र, करंज पत्र, मोम, मुलैठी, कूठ, हरिद्रा, दारहरिद्रा, कुटकी, मजीठ, पद्माख, लोध, हरड, कमल केसर, शुद्ध तुत्थ, अनन्तमूल और करज वोज । प्रत्येक २ तोला । तिल तैल १ सेर । जल ४ सेर । तैलपाक विधि से सिद्ध करे। यह वृहद् जात्यादि तैल परम व्रणरोपण योग है। अधःपुष्पी ( अधाहुली )यह व्रणोपचार मे महीपधि है। यह शोथघ्न, सकोचक, वेदनाहर, रक्तशोधक, विपन आदि गुणो से युक्त होती है। इसका अधिकतर बाहय प्रयोग शोफयुक्त स्थानो पर किया जाता है । पूययुक्त सधिशोथ, अस्थिपाक, निर्जीवाङ्गत्व प्रभृति दु साध्य रोगो मे भी इसके पचाङ्ग का लेप करने से अद्भुत लाभ देखने को मिला है। निर्जीवाङ्गत्व तथा कोथ (गैग्नीन) मे इसका वाह्य लेप समान मात्रा मे मूषाकर्णी पचाङ्ग को मिलाकर लेप रूप मे करना चाहिये । यह एक दृष्टफल योग है। सद्योत्रण (Accidental wound)-गर्म किये घी और मुलैठी के चूर्ण फा मिश्रित लेप व्रणगत वेदना को शान्त करता है। अपामार्ग की पत्ती का स्वरस व्रणस्थान पर छोड़ने से सद्य रक्त का स्तभन करता है। घृत ६ माशा और क्पूर मागा को एक मे मिलाकर कटे स्थान पर भर कर बांध देने से व्रण स्थान गत वेदना दूर हो जाती है और ब्रण का रोहण भी शीघ्र होता है । कोह से निकाला ताजा तेल का पूरण भी ऐसा ही उत्तम पडता है । रक्तनाव के बन्द करने के लिये फिटकिरी के चूर्ण का स्थानिक उपयोग भी उत्तम रहता है। सद्योजात व्रणो मे सरफोके का रस, काकजंघा का रस भैस के प्रथम नवजात बच्चे का मल अथवा लज्जाल का रस या कल्क का लेप सद्यो व्रण मे लगा कर बांधने मे नण शीघ्र भर कर ठीक हो जाता है। नाडीत्रण ( Sinuses )-वला की पत्तो का रस निकाले । नासूर के छिद्र में टपकाये। इसी पत्ती को पीसकर, घी मे तलकर टोकरी जैसी बनाकर अण के मुख पर बांध दे । शीघ्र व्रण का रोपण होता है। एक वा साग्विामूल सर्वव्रणविगोधनम् । अपेतपूतिमामाना मासस्थानामरोहताम् ।। परक सरोपण कार्य निलजो मधुसयुत ॥ अश्वगंधा रहा लोन कट्फल मधुर्याप्टका । समगा घातकीपुष्पम् परमं व्रणरोपणम् ॥ (सु. सं , भे र.) १ शरपुट्या काकजट्या प्रथम माहिपीसुतम् । मल लज्जा च मद्यस्क्व णनं पृथगेव तु ।। Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : परिशष्टाध्याय ७११ उदुम्बर सार-दस सेर हरी पुष्ट गूलर की पत्ती धोकर साफ कर ले । फिर इसको साफ किये ओखल में डालकर मूसल से कूट ले। फिर उसमे १ मन जल डालकर कलईदार वर्तन मे रखकर आग पर चढाकर मंद आंच पर पकावे । जब चौथाई जल शेप रहे तो उतार कर अच्छे कपडे से दो बार छानकर उसमे ५ तोला सुहागा मिलाकर पुन आग पर चढाकर मद आंच पर पकावे । जब यह करछे में लगने लगे तो नीचे उतार कर कलईदार थालो मे फैलावे। इसके ऊपर एक कपडा बांध कर धूप मे सुखा ले। जब लेह जैसा हो जावे तो काच के बरतन मे भर कर रख ले। गुण एवं उपयोग-उदुम्बरसार अणशोथ शामक, ब्रण का शोधक, रोपक तथा रक्तस्रावनिरोधी है। इसका उपयोग नणशोथ-शमन मे स्त्रियो के स्तनविद्रधि मे, व्रण के प्रक्षालन मे, मुख पाक मे, कुल्ली के लिये, स्त्रियो के प्रदर, श्वेत प्रदर, योनिमार्ग दे. क्षत मे उत्तरवस्ति के लिये होता है। उदुम्बर सार को उदलते हुए जल में छोडकर विलयन बनाकर प्रयोग में लाना चाहिये। रक्तार्श, रक्तप्रदर प्रभृति रोगो मे ३-६ माशे की मात्रा में अठगुने जल मे मिलाकर दिन मे तीन चार बार पीने को देने से भी उत्तम लाभ होता है। अग्निदग्ध व्रणलेप-मोम, मुलैठी, लोध, राल, मजीठ, श्वेत चन्दन, मूर्वा प्रत्येक ४-४ तोला और गाय का घो ६४ तोला ले । प्रथम मुलैठी, लोध, राल, मजीठ, चन्दन, मूर्वा का चूर्ण करे । उसमे मोम और घी मिला कर ३ सेर पानी डालकर घो को आग पर पका ले । पश्चात् छानकर शीशी मे रख ले। सभी प्रकार के अग्नि से जले स्थान पर लगावे । (सु० सू० १३) भग्न ( Fractures)-अस्थिभग्न के रोगियोमे खाने के लिये मास, मासरस ( अस्थि का शोरवा), लहसुन, घृत, दूध, मटर की दाल तथा अन्य बलवर्धक आहार देना चाहिये । प्रथम प्रसूता गाय का दूध, मधुरौषधि गण की ओषधियाँ, घृत और लाक्षा चूर्ण का प्रयोग करना चाहिये । / अस्थिसंहारादि चूर्ण-हरजोड का चूर्ण, लाक्षाचूर्ण, गोधूम चूर्ण ( आटा), अर्जुन की छाल का चूर्ण सम भाग मे लेकर मिश्रित करे। इसे घी और चीनी के साथ मिलाकर १ तोले की मात्रा मे ले और ऊपर से दूध पिये। इसके उपयोग से भग्न का सधान शीघ्रता से होता है। अस्थिसहारक का बाह्य तथा आभ्यंतर प्रयोग अकेले ही अस्थिसयोजन मे उत्तम कार्य करता है। इस का सेवन घृत के साथ या दूध के साथ करना चाहिये । क्योकि इस मे सूरण जैसे मुख और गले मे क्षोभ पैदा करने का दुर्गुण है । स्वरस को घृतं और शकर या दूध मे Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ मिपी-सिद्धि लेने पर यह बच गुण दूर हो जाता है । यह एक रसायन मोपधि है, जिसका कई एक वैद्यक त्रयो मे म मत गण लिया मिलता ।' सगंदर ( Fistula in Ano )--यह शस्त्रक्रम साध्य रोग है । रोग की प्रारंभिक अवस्था में जातिपत्रादि लेप (भा प्र ) से उत्तम लाभ होता है। इन लेप मे चमेली की पत्ती, वट के कोमल पत्र, गिलोय, सोठ तथा सेंधा नमक उन्हें नम भाग में लेकर म→ में पीस कर मोटा लेप कर ऊपर से बटपत्र मे आवृत कर के लगोटे वाधने से लाभ होता है। नवहार्पिक गुग्गुलु हरें, वहेरा, भावला प्रत्येक १-१ तोला, शुद्ध गुग्गुलु ५ तोला, छोटी पिप्पली १ तोला। सबको कूट पीस कर कपड़छान चूर्ण बनाकर घृत के मात्र मदित कर के २-२ मागे को गोलियां बना ले। सुखा कर गीगी मे भर ले। सुबह-गाम १-१ गोली का दूध या जल से सेवन करे । भगदर में हितकर होता है। विसपे (Erisepelas)१-गिरीप के पत्र या छाल के कपाय से प्रक्षालन, पत्रको पोम कर लेप तथा कपाय का पिलाना । उत्तम लाभ दिखलाता है । २-जीरा कामीन ४ रत्ती लेकर १ पौण्ट जल मे घोल कर बिलयन बना ले। इस में कपटा भिगो कर विमपति स्थान पर रखने में भी लाभ होता है। विस्फोट मे अन्यान्य रक्तगोधक चिकित्मावो के माय गिरीप का भी वाह्याभ्यन्तर प्रयोग करना चाहिये। मसृरिका ( Pox) निस्वादिकपात्रनीम की छाल, पित्तपापडा, पाठा, पटोल पत्र, कुटकी, बदमे को छाल, दुरालभा, मावला, खम, श्वेत चदन, लाल चदन । मम भाग में लेजर वाय बना कर पीने मे त्रिदोषज ममूरिका, ज्वर, विस्फोट, विसर्प आदि दूर होते है । यदि किन्ही दोपो मे ममूरिका के दाने मतलनि हो गये हो तो इस क्वायमा दानों के ठोक निकलने के लिये प्रयोग करना चाहिये । ममूरिका म दाना के निकलने में विषमयना कम होकर रोगी को सुन्व की प्रतीति होती है। पटोलादि कपाय-पटोलपत्र, गिलोय, नागरमोया, अटूमा, घमासा, चिरायता, नीम की छाल, कुटकी, पित्तपापड़ा । इन द्रव्यो के क्याथ को पिलाने में ममूनिका के पन्ने दाने बैठ जाते है, पर दाने सूब जाते है । विस्फोट तथा ज्वर के गमन के लिये यह उत्तम है। १ किमन चित्र यदि वञवल्ली समेविता शर्करया घृतेन । मानन रोगान् विनिहन्ति मर्यान् मामय विनमातनोति ।। (हरमेखला) Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : परिशिष्टाध्याय ७१३ मसूरिकामे दानो को निकालना हो तो प्रथमोक्त का और बैठाना हो तो द्वितीयोक्त कषाय का प्रयोग करना चाहिये । उपदंश फिरंग अंकरी - मूखी पत्ती १ तोला, गीली पत्ती २॥ तोला, काली मिर्च, एक छटाक पानी मे पीस कर, चीनी के शर्बत के साथ सेवन करे । सुबह-शाम दिन मे दो बार, कुल एक सप्ताह तक सेवन करावे | पाददारी ( बेवाई Rhagades ) – राल और सेधानमक दोनो को मम भाग मे लेकर पीस कर शहद और घृत मिलावे । फिर सरसो का तेल मिला कर मल्हम जैसे बना ले । दारी वाले स्थान पर लगावे । युवानपिडिका मुखदूपिका- १ मसूर की दाल को घी में भून कर दूध में पीसकर लगाने से एक सप्ताह मे ही पर्याप्त लाभ होता है । २ शख भस्म का अवधूलन (मुहासे के ऊपर 'पाउडर' जैसे लगाना) उत्तम कार्य करता है । नाथ में पेट को ठीक रखने के लिये आरोग्यवर्धिनी १-२ गोली सुबह-शाम दिन मे दो वार देना चाहिये । व्यंग ( झाँई ) – १ लोध, सोठ, देवदारु, गेरू, मसूर की दाल को पीसकर लेप करना । अथवा २ जायफल को दूध या जल मे पीसकर लेप करना । न सीमम की पत्ती का लेप । ४ हल्दी के चूर्ण को मदार के दूध या वट के दूध के साथ लगाना । ५ अमलताश की पत्ती, आमाहल्दी को दही मे पीसकर लेप करे | यह योग व्यग तथा युवानपिडिका दोनो मे लाभप्रद रहता है । अपिका ( रूसी ) - कूठ को तवे पर भूनकर चूर्ण बनाकर तिल तेल मे मिलाकर लेप करने से उत्तम लाभ होता है । सिर एव केशो की सफाई का भी ध्यान रखना चाहिये । • इन्द्रलुप्त—१ उस्तरे से उथले चीरे लगा कर या हल्के प्रच्छान लगाकर गुजा के बीजों का लेप करना । २ हाथो के दांत की अतधूम भस्म बनाकर उसमे उतनी ही श्रेष्ठ रसोत मिलाकर जल के साथ पीसकर लेप लगाने से नष्ट हुए केश पुन: उत्पन्न हो जाते है ।" इस योग को यहाँ तक प्रशसा है कि हाथ के तलवे मे भी लेप करने से बाल आ सकते है । ३ इन्द्रलुप्त-नाशन तैल का सिर पर मालिश करना भी उत्तम है । चक्रदत्त का स्नुह्याद्य तैल या इन्द्रलुप्तघ्न तैल उत्तम रहता है । निर्माणविधि इस प्रकार है । क्ल्कार्थ - थूहर का दूध, आक का I १ हस्तिदन्तमसी कृत्वा मुख्य चैव रसाञ्जनम् । लोमान्यतेन जायन्ते लेपात्पाणितलेष्वपि ॥ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ सिषकम-सिद्धि दूध, भृगराज, मलिहारी, वत्सनाभ, गुजा की जड, इन्द्रायण मूल, सफेद सरमो । इनको समभाग मे लेकर कल्क १ पाव, सरमो का तेल १ सेर, बकरी का मूत्र, गोमूत्र प्रत्येक २ सेर । मद यांच पर तैल का पाक करे । अस्यगार्थ उपयोग करे। नापितकण्डु ( Barbers Ittch )-१. उदुम्बर सार का लेप । २ दशाङ्ग लेप का लगाना। ३. हरताल, मैनगिल, मुर्दागख, शुद्ध टंकण बरावर भाग मे लेकर महीन पीसकर वेसलीन मे मल्हम जैसा बनाकर लगाना । पलित रोग-( अकाल में केगो का सफेद होना )-केशरजन के लिये कई लेप तथा तेल ( नीलिनी, महानील तैल ) आदि योग है। सर्वोत्तम योग निम्नलिखित है और दृष्टफल है। इनका नाक से नस्य के रूप मे तथा पीने के लिये दोनो तरह से उपयोग होना चाहिये । प्रयोग काल मे व्यक्ति को गाय के दूध और भात पर रहना आवश्यक है। इन द्रव्यो का उल्लेख रसायनाधिकार मे हो चुका है। यहीं दूसरे ग्रंथ से उद्धरण प्रस्तुत किया जा रहा है। विभीतक, निम्ब, गम्भारी, हरीतकी, गाखोटक (सिहोर), लाल गुजा इनमें किसी एक के बीज से निर्मित तैल का नस्य द्वारा प्रयोग करने से निश्चित सफेद बाल काले हो जाते है ।' शय्यामूत्र-१ विम्बी के मूल का रस १ तोले की मात्रा में एक सप्ताह तक करने से मोने में पेगाव करने की बीमारी दूर हो जाती है । २ महिफेन का अल्प माना में प्रयोग रत्ती से ३ रत्ती तक रात में सोते वक्त देने से भी लाभ होता है । ३. जिमको शय्या मे निद्रा के समय मूत्रत्राव होता है उसके विस्तर के भीतर पीली मिट्टी का ढेला रखे । जव मूत्र से आर्द्र हो जावे तो उसको चूर करके तवा पर भून ले। इसको पुन १-३ माशे की मात्रा में घी और शहद के अनुपान से चटावे तो बादत छट जाती है। ४ कमलगट्टा का चूर्ण १-२ मा० मधु से चटावे । लोमशानन (केश गिराने के उपाय )-१ कुसुम्भ तेल (वरे का तेल) पा अन्धग कशो को गिराता है। २. शस भस्म को एक सप्ताह तक केले को रन में भावित कर सूखा ले। पश्चात उममे उतनी ही मात्रा में हरताल मिलाकर रख ले। इनी में थोटा कली का चूना मिलाकर रख ले । इस चूर्ण के लेप से कैग गिर जाते है। १ विनीतनिम्बगाम्मारी शिवा शेलुश्च काकिनी। एकतलनस्येन पलितं नश्यति ध्रुवम् ॥ (गा में ) Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : परिशिष्टाध्याय ७१५ अलस (अंगुलियों का सड़ना-पंचगुण तैल या मरिचादि तैल का लगाना। मुखपाक ( Stomatis )१ शुद्ध टकण का मधु से लेप । २ दुग्धपाषाण (सग जराहत) मधु से लेप करना। ३ खदिरादि वटी का मुख मे धारण करना। ४ चमेली पत्र या सहिजन के छाल का काढा बनाकर कुल्लो करना । ५. नित्य मृदु रेचन (यष्ट्यादि चूर्ण६ मा.) देना । बार-बार होने वाले मुख पाक मे अकुरित चने का सेवन एक मास तक । ६. जात्यादि कपाय-चमेली की पत्ती, अनार की पत्ती, बब्बूल की छाल, वेर को जड । प्रत्येक ६-६ माशे। जौकुट करके ६४ तोले जल मे पकावे । आधा शेष रहने पर उममे शुद्ध फिटकिरी १ मागा और शुद्ध टकण १ माशा मिलाकर रख ले। दिन मे कई वार कुल्ली करे। इससे मुख और गले के पकने मे अच्छा लाभ होता है। तुण्डिकेरी ( Tonsils enlarged )-१ कफकेतु ( कासरोगाधिकार ) का पानी में पीस कर गले में बाहर से लेप। २ अध.पुष्पी ( अधा हुली) की पत्ती, शहतूत को पत्ती, रहर की पत्ती, मरिच ७ दाने मिलाकर एकत्र महीन पीस कर आग पर गर्म करके गले के बाहर से बाँधे। यथावश्यक एक सप्ताह से लेकर एक मास तक प्रयोग करने से पर्याप्त लाभ होता है। ३. गृह धूम ( रसोई घर का धुवा), सेंधानमक और मधु एक मे मिलाकर गले के अदर लेप करे । ४ कल्याणावलेह (वातरोगाधिकार) ३ माशा मे शु टकण ४ रत्तो, १ माशा मधु मे मिलाकर दिन में दो बार चटावे । ५. पीत सैरेयक ( पीली कटसरैया का क्वाथ बनाकर उससे कई बार गार्गल भी रोगी को कराना चाहिये । चलदन्त ( दाँतो के हिलने )--मे मौलसिरी ( वकुल ) की छाल का मजन उत्तम रहता है। किसी मीठे तेल का अथवा वातरोगाधिकार मे पठित तैलो का, पंचगुण तैल का अथवा इरिमेदादि तैल का मुह मे कुल्ला करना उत्तम रहता है।' दॉतों मे पानी का लगना-अजवायन, हल्दी और सेधानमक का ___ महीन चूर्ण बनाकर सरसो के तेल में मिलाकर मजन करना उत्तम होता है। १ एषः सुगन्धमु फुलो बकुलो विभाति वृक्षाग्रणी प्रियतमे मदनैकवन्धु । यस्य त्वचा च चिरचर्वितया नितान्तं दन्ता भवन्ति चपला अपि वज्रतुल्या ॥ (वै जी) Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि दशनसंस्कार चूर्ण-मोठ, हरड़, मोथा, कथा, कपूर, सुपारी को वतन भस्म, काली मिर्च, दालचीनी तथा लवङ्ग का चूर्ण १-१ तोला लेकर नमन के बराबर खडिया ( Chalk ) मिला ले। इसके मंजन मे दाँत बार मुम्ब के रोग दूर होते हैं । वदन्त मंजन-त्रिफला त्रिन्टू तूतिया तीनो नोन पतंग । दन्त वत्र सम होत है माजूफल के मंग। उस चूर्ण का उपयोग ममूडे में होने वाले रक्तस्राव मे तथा दन्त वेष्ट ( Pyorrhoea ) में करना चाहिये । इग्मेिदादि तेल-घर की छाल २०० तोला, मौलसिरी की छाल २०० तोला ले कट २०४८ तोला जल में दालकर पकावें । जब ५१२ तोला जल वाकी रहे तब कपडे ने ठान ले । पीछे उममें १२८ तोला तिल का तेल और खैर की छाल, लोग, गैस, मगर, पास, मजीठ, लोव, मुली, लाख, वड की छाल, नागरमोथा, दालचीनी, जायफल, कवावचीनी, अकरकरा, पतंग, वायके फूल, छोटी इलायत्री, नागोगर और कायफल को टाल-प्रत्येक १-१ तोला ले इनका वक करके मिलावे । पीछे तैलपाक विधि से मदी आंच पर पकावे और खोचे से हिलाता रहे । जब तेल निद्ध हो जाय तब ठडा होने पर उसमे एक तोला कपूर का चूर्ण मिलाकर कपटे से छानकर गीगी में भर लें। उपयोग-इस तेल से मुंह का पकना, ममूड़ी का पकना बोर उसमे मवाद (पीप ) होना, दातो का मटना, दातो में छिद्र होना, दाँत फटना, दातो मे कीड़े होना, मेंह की दुर्गन्ध तथा जीभ, तालू और गांठ के रोग ये सव नष्ट होते है। वक्तव्य-गाह घर में यह पाठ इरिमेदादि तेल के नाम से दिया है उसमें रिमेटके म्यान में बैर नया मौलमिरी की छाल लेकर बनाने में यह योग अधिक गुणकारक होता है। कर्णशूल ( Earache)१ आक या मदार के पके हुए पत्ते पर घो दोनो तरफ चुपढ कर प्रदीप्त आग परतणकर, निचोर कर रस निकाले । इस रस को कान में गुनगुना कर छोटे। इसमें कान की तीन वंदना भी गान्त होती है । (भ. र.) २-गाय, मैन गदि अष्टमूनों में मे किमी एक मृत्र को लेकर कपड़े से छानकर मन्दोन कान में पृरण करने से कान को वेदना मान्न होती है। (भ. २)। १. अष्टानामपि मृनाणा मूत्रेणान्यतमेन वा । कोगन पूरयेत्कणं कर्णगूलोपशान्तये ॥ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१७ पंचम खण्ड : परिशिष्टव्याय कर्णस्राव ( Chroni Ear Discharge ) — १ जलकुम्भी तैल - जलकुम्भी का कल्क १६ तोला, तिल तैल ६४ तोला, जलकुम्भी का स्वरस २५६ तोला । सबको तेल पाक विधि से पकावे । पश्वात् कपडे से छानकर शीशी में भर ले । कान को साफ करके कान मे करने पूरण से कान से मवाद का आना कम होता है और वेदना भी शान्त होती है । २ - पुराने कर्णस्राव में विपगर्भ तैल ( वातरोगाधिकार ) का पूरण भी उत्तम कार्य करता है | दुष्ट प्रतिश्याय या जीर्ण नासारोग या अपीनस १. चित्रकहीतकी - चित्रकमूल का क्वाथ ४०० तोला, आंवले का स्वरस या कपाय २५६ तोला और गुड ४०० तोला । इन सबको एकत्र करके पकावे । जव अवलेह जैसे हो जावे तब उसमे सोठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, तेजपात, इलायची ८-८ तोला और यवाखार २ तोला । इनका कपड़छान चूर्ण मिलाकर रख छोडे । दूसरे दिन ठंडा होने पर उसमें ३२ तोला शहद मिलाकर भर कर रख दे । इसमें प्रक्षेप द्रव्यो मे ८ तोले कायफर का चूर्ण मिलाने से और उत्तम लाभ होता है । ( भं. र ) सेवन विधि - ६ माशा की मात्रा मे प्रात - सायम् गर्म दूध के साथ । उपयोग-पुरानी नाक की बीमारी, बार-बार होने वाले प्रतिश्याय ( जुकाम ), कण्ठशालूक, गलशुण्डी तथा तुण्डिकेरी रोग मे उत्तम कार्य करता है । २ केवल मधुयष्टी चूर्ण ६ माशा की मात्रा मे घृत ६ माशा और मधु ६ माशा के साथ मिलाकर प्रात -साथ सेवन करने से भी पोनस प्रभृति व्याधियो में उत्तम लाभ होता है । इसे 'मधुक रसायन' कहते है । ३ व्याघ्री तैल-तिल तेल २० तोला, कल्कार्थ कंटकारी मूल, दन्ती पंचाग, वच, सहजन की छाल, तुलसी, सिन्दुवार, त्रिकटु और मैन्धव का मिश्रित कल्क ५ तोले । पानी १ सेर । यथाविधि तैल को पकाकर छानकर शीशी मे ल । नाक मे इस तेल की बूंद ( Nasaldrop ) छोडने से बहुत प्रकार के नासा रोग ठीक हो जाते है । (भेर ) भर नेत्राभिष्यंद - १ - दारुहरिद्रा के क्वाथ से वने रसाञ्जन को स्त्री स्तन्य या गोदुग्ध मे मिलाकर, खोलाकर, छानकर, ठंडा करके नेत्रो मे टपकाने से अभिप्यन्द ( जिसमे नेत्र की लालिमा, अश्रुस्राव, दाह, वेदनादि पाई जाती है ) ठीक होता है । Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ भिपर्म-सिद्धि २-महिजन के पत्तो का स्वरस या कपाय खूब साफ छानकर मधु मिलाकर मक्षन कराने या टपकाने से अभिष्यन्द मे लाभ होता है।' ३-फुल्लिका द्रव-परिस त सलिल (Distilledwater) ८ तोला, मिश्री ४ तोला, सेन्धा नमक ४ तोला, शुद्ध स्फटिका ४ तोला । मिश्रित नेत्र की बूंदें। ४-नेत्रविन्दु-गुलावजल ८ तोला, कपूर ६ माशा, अफीम १ तोला, रसोत ८ तोला । मिश्रित । नेत्र मे वूदें डाले । चन्द्रोदया वत्ति-गख की नाभि, विभीतक मज्जा, हरीतकी, मनःशिला, पिप्पली, मरिच, बच, कूट । सम भाग मे लेकर बकरी के दूध में पीसकर पतली पत्ति बनाकर रखले । सूर्योदय के पूर्व और सूर्यास्त के बाद पानी में घिसकर मजन लगाने से तिमिर, मासवृद्धि, काच, पटल, रात्र्यन्ध ( रतौंधी ) एक वर्ष तक का पुष्प ( फूला ) को दूर करती है । रतीधी के रोगियो को आहार में वाजरे की रोटी, दूध, नेनुवा का शाक, पका याम या नाम का अमावट प्रचुर मात्रा में खाने को देना चाहिए। साथ में चन्द्रोदया वत्ति का अंजन भी कराना चाहिए । त्रिफलाद्य घृत-गोघृत १ सेर, त्रिफला क्वाथ, शतावरी का स्वरस या क्वाथ २-२ सेर, कलकार्य मधुयष्टी चूर्ण २० तोले, मन्द आंच पर पाक करले । इस वृत की १ तोले की मात्रा दिन में दो बार दूध में डालकर प्रात.-सायं पिये। अथवा शहद के साथ मिलाकर खावे । इसका नेत्रो मे अंजन भी किया जा सकता है। तिमिर, दृष्टिमाद्य प्रभृति बहुविध नेत्ररोगो में इसका सेवन माश्चर्यजनक लाभ दिखलाता है। सप्तामृत लोह-त्रिफला चूर्ण, मधुयष्टी चूर्ण तथा लौह-भस्म सम भाग मे लेकर बना ले । माना १-२ मागा। अनुपान घृत और मधु । विविध नेत्र रोगी में इसका सेवन लाभप्रद है। त्रिफला चूर्ण-नेत्र में बड़ा प्रशसित है । इसका घृत एव मधु के अनुपान से सेवन अथवा उनका काढा या गीतकपाय बनाकर नेत्रो का नित्य प्रक्षालन बहुविध नेत्र रोगो में लाभप्रद रहता है । १. लोलिम्बराजफविना वनितावतंसे गिनोरमुष्य कथितस्तु किमूपयोग । एतस्य पल्लवरसात् समघो. किमन्यद् दृग्व्याधिमात्रहरणे महिलाग्नगण्ये । (वै. जी ) Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : परिशिष्टाध्याय ७१६ अत्रण शुक्र ( Corneal opacity ) १ - त्रिफला घृत का अजन और पिलाना । २ – चन्द्रोदयावत्ति का अंजन । ३ -- सुवर्णमालिनी वसन्त या वसन्त मालती ( ज्वराधिकार ) का मधु मे घिस कर नेत्र में अंजन भी उत्तम कार्य करता है । शिर शूल ( Headache ) शिरःशूलाद्रि वज्र - शुद्ध पारद ४ तोला, शुद्ध गधक ४ तोला, लोह भस्म ४ तोला, निशोथ ४ तोला, शुद्ध गुग्गुलु १६ तोला, त्रिफला ८ तोला तथा मुलेठी, छोटी पीपल, सोठ, गोखरू, वायविडङ्ग, सरिवन, पिठवन, छोटी कटेरो, बड़ी कटेरी, छोटे गोखरू, बेल, अरणी, सोनापाठा, गंभारी, पाढल प्रत्येक १ - १ तोला । प्रथम पारे और गधक की कज्जली कर उसमे लोह भस्म तथा अन्य द्रव्यों का चूर्ण मिलावे । पीछे साफ किये हुए गुग्गुलु को इमाम दस्ते मे डाल कर कूटे | जब गुग्गुलु नरम हो जावे तो उसमें अन्य द्रव्य मिलाकर दशमूल कपाय और भृङ्गराज स्वरस या कपाय की ३ - ३ भावना देकर ४-४ रत्ती की गोलिया बना ले । सुखाकर शीशी मे भर कर रख ले । मात्रा और अनुपान - २ - २ गोली सुबह-शाम । बकरी का दूध, गाय का दूध या पथ्यादि क्वाथ के अनुपान से सभी प्रकार के शिर शूल में लाभप्रद । पथ्याषडङ्ग कपाय — हर्रे का दल, बहेरे का दल, आवला, चिरायता, २ तोला हल्दी, नीमको छाल, गिलोय । प्रत्येक सम भाग जीकुट कर रख ले | लेकर ३२ तोले पानी मे खोलाकर ८ तोला शेष रहने पर उतारे फिर गुड आधा तोला मिलाकर पीने को दे । यह एक परमोत्तम योग है, जो सभी प्रकार के शिर शूल में लाभप्रद होता है | " गोदन्ती भस्म- -१ माशा की मात्रा मे दिन मे दो-तीन बार घो और चीनी के साथ सभी प्रकार शिर शूलो मे देना चाहिये । षड्बिन्दु तैल - एरण्डमूल, तगर, सौफ, जीवन्ती के मूल, रास्ना, अगर, सेधानमक, दालचीनी, वायविडङ्ग, मुलैठी और सोठ प्रत्येक १ ॥ - १॥ तोला ले | बकरी के दूध में पीस कर कल्क बनावे | उसमे काले तिल का तेल ६४ तोले, वकरी का दूध ६४ तोले और जल २५६ तोले डाल कर तेल पाक १. पथ्याऽक्षधात्रीभूनिम्बनिशा निम्वामृतायुता । कृत क्वाथ षडङ्गोऽयं सगुड. शीर्षशूलहृत् ॥ ( शा. स ) Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० भिषकर्म-सिद्धि विवि से पकाये। जब तक मिद्ध हो जाय तो कपडे से छान कर भीगी उपगेग-गिर भूल के रोगियों में ६-६ वट की मात्रा दोनो नथुनो से । रोगी को चित नेटाकर नाल मे छोडे । घिर.शूल मे मद्य याराम मिलता है। अत्य नस्य-निर मूल में नन्य एक चिकित्सा का उत्तन साधन है। एतदर्थ कायकर की छाल का महीन कान्छन चूगं, नीबू (कागदी ) के रस का, अपामार्ग के रस का, फिटकरी और कपूर के महीन चूर्ण का अथवा नौसादर और चूने का मिलिज गध का भी उत्तम रहता है। एक नम्य और वडा उत्तम कार्य करता है इनको गीगी में बनाकर रखना चाहिये और बीच-बीच में गिर झूल में पोडित रोगी को मुंघा दिया करे । कपूर, सत बजवायन, पुदीने ना मत, लोहबान का सत मिश्रित ! कई वार शुद्ध नवु का संजन भी सद्य. निर लगानक होता है। रज.कृच्छ, रजोल्पता, रजावरोध रजाप्रवर्तिनी बटी-2. जुद्ध सोहागा १ भाग, हीराकासीस १ भाग, घी ने की हीग: भाग, मुसब्बर १ भाग । घृतकुमारी के रस में घोट कर ४-४ रत्तो की गोली बना ले। मात्रा-१-२ गोली दिन में तीन या चार वार जल में। २ कुमायोसब-भो भोजन के बाद २-२ चम्मच पोने को देना चाहिये । ३ मूली, मेयो और गाजर के बीज को वरावर लेकर बनाया चूर्ण मात्रा ३ माना । गुड़ के गर्म गर्वत से । रक्तप्रदर तथा योनिव्यापद U लिट्टामृत योग--2. शुद्ध सुवर्ण गैरिक, दुग्धपापाण, दन्तीभस्म, शुद्ध फ्टिकिरी, वाल पिष्टि । मम मात्रा में लेकर बनाना महीन चूर्ण । मात्रा १-२ माग दिन में दो या तीन वार । अनुपान केले की जड़ का रस १ छटांक या गृहर का गदा । यह श्वेत तथा रक्त दोनों प्रदर में उपयोगी है। / २. व या ततैग के हत्ते को जलाकर उनकी रात्र 1 ४-४ रत्ती की मात्रा में दिन में तीन बार गति भस्म २-२ रत्तो मिलाकर उत्तम कार्य करता है। रक्त मे बन्द मन्ना है। ३. पनी न्यूनर के बीट को माफ करके महीन चूर्ण करे । कपड़े से छान पर मीनी में भर ले। १.२ मा० की मात्रा में चावल के पानी से दे। उत्तम रन्तप्रदर नाना होता है। Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : परिशिष्टाध्याय ७२१ ४. दायोदि कषाय-दारुहल्दी, रसोत, अडूसे की छाल, नागरमोथा, चिरायता, बेलगिरी, शुद्ध भल्लातक, रक्त चन्दन, नील कमल । इसका यथाविधि वना क्वाथ सभी प्रकार के प्रदर रोग मे लाभप्रद है। कठिन प्रदर के रोगियो मे इसका उपयोग अवश्य लाभप्रद होता है। ५ पुण्यानुग चूर्ण-पाठा, जामुन तथा आम के बीज की गिरी, पाषाणभेद, रसोत, अम्बष्ठा, मोचरस, लज्जालु, मजीठ, कमलकेशर, नागकेशर या केसर, अतीस, मोथा, विल्वफल मज्जा, पठानीलोध, सुवर्ण गैरिक, कायफल, काली मिरच, सोठ, मुनक्का, लाल चन्दन, सोनापाठा और कुडे की छाल, अनन्तमूल, धाय के फूल, मुलठी तथा अर्जुन की छाल । इन सब औषधियो को बराबर मात्रा मे पुष्यनक्षत्र मे लेकर इकट्ठी कर लेवे। पुन. पुष्य नक्षत्र मे ही इस चर्ण योग को बनावे । मात्रा ३-६ माशे । अनुपान चावल का पानी । सभी प्रकार के योनिव्यापद एव प्रदर मे लाभप्रद । ६. अशोकारिष्ट-अशोक की छाल ५ सेर, लोध २॥ सेर ले । जौ-कुट करके ४०९६ तोले जल मे पकावे जव चतुर्थांश शेष रहे तब कपडे से छानकर उसमे चीनी ५ सेर, शहद २॥ सेर, जौकुट की हुई मुनक्का १ सेर, धाय के फूल ६४ तोले । जीरा, नागरमोथा सोठ, दारुहल्दी, कमल, हरें, बहेडा, आंवला, आम की गुठली, केशर, अडूसा, श्वेत चन्दन, रसौत, पतग, खैर का बुरादा, बेल, सेमल का फूल या मोचरस, बरियरा का मूल, भिलावा, अनन्तमूल, गुडहुल के फल, दालचीनी, बड़ी इलायची और लवङ्ग प्रत्येक ४-४ तोला कपडछान चूर्ण डालकर किसी मिट्टी के बडे पात्र में या सागोन की लकडी के पीपे मे भरकर मह बन्द करके एक मास तक रख दे। एक मास पश्चात् छानकर शीशियो मे भर कर रख ले । मात्रा भोजन के बाद २-४ तोला बरावर पानी मिलाकर सेवन करे । 'स्त्रियो के सभी गर्भाशयसम्बन्धी रोगो मे लाभप्रद । ७. फल घृत द्रव्य तथा निर्माण विधि-मजीठ, मुलैठी, कंठ, हरड, बहेरा, आंवला, चीनी, बच, अजमोद, हल्दी, दारुहल्दी, घी मे सिंकी हुई होग, कुटकी, कमल, चन्दन, मुनक्का, पद्माख, देवदार, मेदा, ' महामेदा, बिदारीकन्द, काकोली, असगन्ध, छोटी पीपल, चमेली के फूल, वंशलोचन, बायविडंग, कमल, वरियरा के मूल, कायफल, अनन्त मूल, नागरमोथा, गोखरू, छोटी' कटेरी और १. दार्वीरसाञ्जनकिरातवृषाब्दविल्वभल्लातकैरवकृतो मधुना कषायः । पीतो जयत्यतिबलं प्रदरं सशूल पीतासितारुणविलोहितनीलशुक्लम् ॥ कलित। Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि... बद्री पटेरी प्रत्येक १-१ तोला ले कूट कर कपड़छान कर जल में पीसकर इनका कफ करें। फिर उस कल्क में गाय का घी १२८ तोला, शतावर का रस २४८ तोला गिलाकर वृतपाक विधि से पकावे। जब घृत तैयार हो जाय तव कपड़े से छानकर काब के बरतन में भरकर रख दे। मात्रा और अतुपान-आधा तोला से १ तोला तक उतना ही मिश्री का चूर्ण मिलाकर दे बोर ऊपर से दूध पिलावे । उपयोग-जिम रत्री को वारम्बार गर्भपात होता हो, मरे हुये या अल्पायु बालक होते हा और एक बालक होकर फिर गर्भ न रहता हो ऐसी स्त्री को इस गृत का मेन कराने से बुद्धिमान और स्वरूपवान् वालक होता है। गर्भशल, गोभ-गर्भिणी को गर्भकाल मे शूल होने पर घिरनी की को मिट्टी को पानी में घोलकर पिलाना चाहिये । गर्भक्षोभ मे रक्तप्रदरोक्त रक्तस्तभक उपचार करे। सूतिका रोग - १ दशमूल क्वाथ-दशमूल का क्वाथ बनाकर उसमें एक तोला घी मिलाकर पिलाना। २. सूतिका दशमूल क्वाथ-शालपणी, पृश्निपर्णी, छोटी कटेरी, वटी पाटेरी, गोखरू, नीलमिण्टीमूल, गन्धप्रसारणी, सोठ, गिलोय और नागरमोथा । वाथ। ३ दशमूलारिष्ट-(वातरोगाधिकार) भोजन करने के बाद २-४ तोला समान जल मिलाकर । दिन में दो बार । बाल रोग १- बालचातुर्भद्रिका-नागरमोथा, पिप्पली, यतीस और काकवासीगी। मम भाग में देकर महीन ननाया चूर्ण। १-४ रत्ती तक की मात्रा मे पानी में घिमकर चटाना, मातृम्तन्य में घोलकर पिलाना अथवा शहद के साथ चटाना। गिगुणों के ज्वर, पाम, मतीसार, श्वास, वमन सभी रोगो में लाभप्रद रहता है। यह एक हटफर मिद्ध योग है। २. लाक्षादि नल ( ज्वराधिकार )-की मालिग भी वालको के पुराने ज्वर मे प्रगरत है। १ पनकृष्णानणारजीचूर्ण क्षोण गंयुतम् । शिगोर्ध्वगतिमारघ्नं कामयागबमोहरम् ।। - - Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : परिशिष्टाध्याय ७२३ ३. यदि बालक मातृस्तन्यपायी हो तो माता के लिए पथ्यादि की व्यवस्था करना भी अपेक्षित रहता है । ४. शुद्ध टंकण ३ से १ रत्ती की मात्रा मे मधु से चटाने के लिए बच्चो की, खांसी में उत्तम कार्य करता है । · ५ दाडिमचतु सम - - जायफल, लोग, श्वेत जीरा और शुद्ध सोहागे को बराबर मात्रा मे लेकर दाडिम के फल के मध्य मे भरकर, कपड मिट्टी करके पुटपाक कर ले | फिर पुट मे से निकाल कर बकरी के दूध में पीसकर सुखाकर शीशी में भर कर रख ले। बच्चो का अतिसार एवं आमशूल मे लाभप्रद । मात्रा' २-४ रत्ती । अनुपान मधु । ६ महागन्धक योग ( ग्रहणी अधिकारोक्त ) - बालरोगो मे उत्तम लाभ दिखलाता है । ७ अष्टमंगल घृत - गोघृत १ सेर, कल्कार्थ- वच, कूठ, ब्राह्मो, सरसो, ' अनन्तमूल, सेन्धा नमक तथा पिप्पली के कल्क से सिद्ध घृत को बनावे | बालको मे एक बल्य योग है | उनकी मेवा और आयुष्य का वर्द्धक है । बालक की बाल ग्रह के उपसर्ग से रक्षा करता हूँ | 1 वालशोष १ - घोघे को पानी मे उबाल कर एक-दो घोवे का रस ( शम्बूक मासरस ) उत्तम रहता है । " २ - अश्वगंध को दूध में पकाकर ( २ माशा अश्वगंध, दूध ३ पाव, जल पाव ) पका कर, छान कर, मिश्री मिला कर, मीठा कर के देना' भी उत्तम रहता है । 6 ******* J 素 ३ far 1 ३ रससिन्दूर ३ २०, प्रवाल भस्म हे २०, शृङ्ग भस्म ३ २०, शंख भस्म र०, शुक्ति भस्म ३ २०, वराट भस्म ३ २०, शंबूक भस्म' रे र०, दन्ती भस्म १ रत्ती । मिलाकर २ मात्रा मे करके मंधु या घृत के साथ देने से अच्छा लाभ होता है | ४- अर्कचीर का एक या दो बूंद नाक से नस्य रूप मे देना भी उत्तम रहता है । इससे छीकेँ आती है। बालक की दशा मे सुधार होता है । मास में एक, दो या तीन वार देना पर्याप्त होता है । प्रतिविष वृश्चिक दंश में - १ अपामार्ग मूल का ऊपर से नीचे को दशित स्थान तक तीन बार तक घुमाना । इसमे अग से जडी का स्पर्श न हो और ऊपर से नीचे को एक ही दिशा मे घुमाना अपेक्षित रहता है । 1 Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिपकर्म-सिद्धि २. मर्क क्षीर का या पत्ती के रस का नाक में टपकाना या नस्य देना। सर्पदंशमें-पीपल के टहनी को तोड़े उसे चाकू से कलम जैसे नुकीला करे। फिर कान मे पर्दे तक उसको पहुँचावे । बडे वेग से वह टहनी अंदर की ओर सिंचेगी । मजबूती से पकड कर रखे। सर्पविप में उत्तम कार्य करती है। निम्नलिखित विषों मे प्रतिविष विविध अम्ल या तेजाच सें--शंख या वराट भस्म-सज्जीखार और साने का सोडा। कार्बोलिक अम्ल में-चूने का पानी और शर्वत । विविध क्षारों में--तक्र, नीबू का सिरका का घोल । फास्फोरस में-१-२ रत्ती की मात्रा मे तुत्थ पानी में घोलकर १५, १५ मिनट पर देता चले वमन होगा विप निकल जावेगा। संखिया सेवन चौलाई का रस बडी मात्रा, मे पिलावे । कपास के बीज़ को मीगी भी हितकर है। पारद मे~~-गधक, दूध और जी का सत्तू । जीर्ण विष मे शुद्ध गंधक और, अपामार्ग स्वरस । नाग में-अपामार्ग या अश्वत्थ कपाय । ताग में-दूध, जो मण्ड । जीणे विप में-अपामार्गक्षार । अहिफैन में हींग का घोल, करेमू का शाक । शुठी और अदरक भी प्रगस्त है । धतूरा में-बैगन का स्वरस, नीबू का रस, भुने जीरे का चूर्ण, कमलपत्रचूर्ण और इमली प्रशस्त है। वत्सनास में-धतूरे के पत्तो का रस, भल्लातक क्षार, घी, ताम्बूल पत्र स्वरस या कपूर का प्रयोग करे । करवीर ( कनेर ) में हरीतकी । भल्लातक में-तिल, गुड, गरी, विल्वपत्र, कपास के बीज, हरिद्रा, कचूर, इमली । मूली का रस वाद्य एवं साम्यंतर प्रयोग अके क्षीर में-नीली रस । तम्बाकू में-गुज, गन्ने का रस और थे। स्तुही मे-सुवर्णपुष्यो-मूलत्वक् । मधु-घृत समजनित विकार में जल । Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : परिशिष्टाध्याय __७२५ साधकार ) १-१ गो वटी रात में सोते भॉग में--तुलसी मंजरी। वरटी-शृंग दंश में--अमोनियम् फोर्ट का लगाना, किरोसिन तेल का लेपः। उच्च रक्तनिपीड ( Hypertension)-( Hypertension with Albuminurea ) १. रसराज ( वातरोगाधिकार ) १-१ गोली प्रात.-साय दूध से । चंद्रप्रभा वटी रात में सोते वक्त २ गोली गाय के दूध से । साथ मे निम्नलिखित द्रव्यो से निर्मित कपाय दिन में दो वार । जटामासी, पुनर्नवा, गोखरू, वेल की छाल, सोठ, गुदूची, हरीतकी, एरण्ड मूल, वासा, पीपरि, पीपरामूल, वायविडङ्ग, पोहकरमूल, जपापुष्प, सेमल का फूल, अनार का फूल, नीलोफर, मधुयष्टि, आंवला, खस, हल्दी, दारुहल्दी, चन्दन,, शालपर्णी, पश्निपर्णी, शतावरी तथा बृहती। [ कविराज विश्वनाथ उपाध्याय दुमका के सौजन्य से प्राप्त ] अनिद्रा-१ आमलकी और निशोथ चूर्ण समभाग मिश्र । मात्रा ३ माशा भैस के दूध से प्रातः । । २. जटामासी, पीपरामूल, शंखपुष्पी समभाग मे मिश्र चूर्ण ३ माशा रात में सोते वक्त भैस के दूध से । । अपस्मार, मूर्छा-उष्ट्री या गर्दभी क्षीर का सेवन उत्तम रहता है। आमवात में अन्य उपचारो के साथ मद्य का प्रयोग भी उत्तम मिला है। माषादि मोदक-छिल्के रहित उड़द का चूर्ण, जौ का आटा, चावल का आटा, गेहूँ का आटा तथा पिप्पली चूर्ण । बराबर मात्रा मे लेकर गाय के घी मे भूनकर रख ले । पश्चात् सव चूर्ण के वरावर मिश्री लेकर उसमे दुगुना जल डालकर आग पर चढाकर फिर उतार कर १-२ तोले का लड्डू बना ले । प्रातः; साय एक एक लड्डू जल या दूध से । यह एक सस्ता एवं उत्तम बाजीकर है। अधोग रक्तपित्त-मूत्रमार्ग से रक्त जाता हो तो शतावरी १ तोला, गोखरू बीज १ तोला, दूध १६ तोला और पानी ३२ तोला मिलाकर खोलाकर दूध मात्र शेष रहे तो उतार कर पिलावे । इसी प्रकार मलमार्ग से रक्त निकल रहा हो तो मोचरस से सिद्ध दूध पिलावे। ये दोनो चरक के योग हैं और हष्टफल है। रक्तशोधक कपाय-गिलोय, गोरखमुण्डी, अनन्तमूल, चिरायता, चोपचीनी, पोहकर मूल, रास्ना, जवासा मूल, अर्जुन, उसवा, हरे, वहेरा, आँवला, मुनक्का । इन द्रव्यो का कषाय सभी प्रकार की रक्तदुष्टि मे लाभप्रद पाये गये हैं। Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ भिपक्रम-सिद्धि पज-सेवन विचार-टोपवि सेवन के टस काल बतलाये गये है। इसमे रोग तथा गी केवल एक टोप का विचार करते हुए दवा का सेवन कराना चाहिये । कफ फी अधिकता में खाली पेट बोपधि देनी चाहिये । अपान वायु के दोप में भोजन के पूर्व, समान वायु के दोप में भोजन के मध्य में, उदान वायु के कोप में भोजन के उपगन्न, व्यान वायु के कुपित होने पर प्रात काल में ओपधि का सेवन कराना चाहिये। प्राण वायु के कुपित होने पर मुहः मुहु या ग्रास में मिला कर या नामान्त में मोपधि दी जानी चाहिये । विप, वमन, हिक्का, श्वास, कास घोर तृपा में वार बार योपवि वरतनी चाहिये। मरोचक में भोजन के साथ मिलार मोपधि देना । कम्प, आक्षेप मोर हिक्का में स्वल्प भोजन के साथ सामुद्ग ( भोजन के पहले और बाद मे) ओपधि दे । कर्व जत्रुगत रोगो में रात में सोते वक्त मोपवि देनी चाहिये । । श्रीपध सेवन काल' १. अनन्न औषध--औषध को खाकर उसके जीर्ण होने पर तब भोजन किया जावे। अथवा बाहार के जीर्ण होने पर भोपधि । अथवा औपध के जीर्ण होने पर माहार लिया जावे । २. अन्न के आदि में--(प्रारभक्त ) भोजन के पहले। पहले ओपधि खाकर पश्चात् भोजन करना। ३. मध्य में--आधा भोजन करके ओपधि चाना, पश्चात् आवा भोजन करना। ४. अंत मे-भोजन के उपरान्त तुरन्त औपधि खाना। . ५. कवलान्तर--ग्रामो के मध्य में (ग्रामो के मध्य में मिलाकर नही ). पाना। ६. ग्रास ग्रास में--प्रत्येक ग्रास में मिलाकर मोपधि का मेवन । ७ मुहुः मुहुः-ओपधि का वार वार चाटने या चूसने या पीने के लिये देना । ८ सान्न--थाहार में बोपधि को मिलाकर खाना । है सामुदग (मम्युट )--पहले औषध फिर भोजन, फिर औपध लेना मामुद्ग है । इनमे आहार दो औपच के बीच में आने से सम्पुटित हो जाता है। १०. निशाकाल-~गत में मोते समय मोपवि का खिलाना। . १ म्यादनन्नमन्नादी मध्येऽन्ते कवलान्तरे । गाने ग्रासे मह सान्नं सामुद्गं निगि चौपधम् ॥ (य ह. मू १३) Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्यपरम्परा प्रशस्तिः चिन्तामणेर्गणपतेस्समवाप्तमत्या केदारगौयनुगृहीतविवेकशक्तथा।। विद्यागुरोविभक्तः परमार्थभक्त्यासोऽहं प्रशस्तिमुचितां प्रणयेहऽरीत्या।। वृद्धत्रयीये समये व्यतीते गते क्रमे प्रौढचिकित्सकानाम् । प्रादुर्वभूवावनिमण्डलश्रीगंगाधरः सर्वनरेन्द्रमान्यः ।, यो' जल्पकल्पैश्वरकं ततान व्याख्याप्रसंगैर्विविधर्मनोहः। . कालक्रमेणाथ . त एव जाताः कल्पद्रमा मानववैद्यगोष्ठंथाम् ॥ वैद्यः सुविद्यो यशसानवद्यः सिद्धौ प्रसिद्धोप्यथ साधुवृत्तः । देवोपमः शिष्यगणरुपेतो बृहस्पतिश्चापरवद् बभासे ।। 'वेदानुशिष्टे पथि शिष्टजुष्टे संस्थापिते तस्य तु वैद्यपीठे । त्रिसूत्रसग्यकूत्तरबोधलुब्धाश्छात्राः शरण्यं तमुपेयिवांसः। सुशिक्षिता लब्धबलप्रतिष्ठाः सुस्नातकाः शास्त्रगिरासमेतः। हाराणचन्द्रो निखिलागमज्ञो राजेन्द्रसेनश्वरके विशिष्टः॥ श्रीधर्मदासश्चरकावतारः सश्यामदासो ' निखिलार्थवेत्ता । 'सर्वेऽभवन् सिद्धतमा नरा भुवि स्त्रीभिश्च पुम्भिः परिपूजिताः समः॥ अन्येऽपि , जाता महिमावदाताः परम्परा तां परिबृंहयन्तः। गुरोरधीताखिलवैद्यविद्याः पीयूपहस्ताः । कुशलाः क्रियासु॥ तेभ्यो नमस्कारपरः सदाऽहं श्रीधर्मदासान् प्रति भक्तिमावहे । गुरोगुरून् स्वान्नतिभिर्विशेषयन् स्वीयोचिता यत्खलु- पक्षपाताः ॥ "अधीतवान् यः सदशश्चतुर्भिवः समयं चरकं गुरुभ्यः। तञ्चारकं पाठनशीलमपथ सुदुलेभं चानुपमं । प्रशस्यम् ।। 'आविर्भवात्तस्य विबोधसिन्धोः प्रकाशनान्नूतनपाठशेल्याः। , पुनः प्रतिष्ठां यदवाप वेदः स्वायुर्हितात्मा भुवि विश्रुतो यः॥ "विद्यासमृद्धौ सततानुरागी शिष्योपकारे निरतः कृपालुः । वैद्यावतंसो मतिमान् सुधीरः स धर्मदासः कविराजराजः॥ एतैर्गुणैर्लब्धमना, महामना यो मालवीयः परमादरेण । स विश्वविद्यालयवैद्यविद्यालयस्य मूर्धन्यपदे - न्ययुक्त ॥ 'धनान्धकारावृतमाप्य तत्त्वं - प्रकाशयामास वचोमयूखैः। 'प्रकाशकस्तम्भमिवाब्धिमार्गे. सांयात्रिकाणां भिपजां नवानाम् ।। Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिषकर्म-सिद्धि श्रीधर्मदासेन च शिक्षिताः पुनः शिष्या बभूवूर्वहुनामधेयाः । जातो गुरोर्ज्ञानविशेपयुक्तः श्रीसत्यनारायण शास्त्रिवैद्यः ॥ काशीद्विजश्रेष्ठ सुपूज्य वंशे चांशेन धन्वन्तरिरादिदेवः । श्रीसत्यनारायणशास्त्रिवर्यो जातः शरीरी वृतुशास्त्रराशिः ॥ गुरोर्गृहीतामथ वैद्यविद्यां पारायणेन प्रगुणीप्रकुर्वन् । अभ्यासयोगेsपि सदानुरक्तः परं प्रतिष्ठां पदमारुरोह ॥ एवंविधैस्तैर्विविधैरुपायैराराधयामास गिरं शास्त्रश्रिया पूर्णतया वभासे मृजाभिरादर्श इवोज्ज्वलश्रीः ॥ प्रतापैः सम्पूज्यमानो बुधवैद्यवृन्दैः । विश्वविद्यालयायुर्निंगमालयेऽपि ॥ यथावत् । स्वल्पैश्च कालैर्वहुलैः प्राचार्यतां चानुबभूव अध्यापयामास च वैद्यविद्यां प्रोत्साहयन् साहसिकप्रवीरान् । शिष्यान्नवान्स्नातक वैद्यवर्गान् प्राच्यप्रतीच्या प्तसमस्त शिक्षान् ॥ तत प्ररोहा चहुधा विकीर्णा. शिष्यानुशिष्यैश्च परम्परायाम् । अष्टाङ्ग पूर्णा उभयज्ञरूपा लोकप्रशस्ता. पटुभावनाढ्याः ॥ कीर्त्तिदिवोदासकृता हितायुर्वेदे पुरा या प्रथिता तु काश्याम् । मनीषिणं तं समवाप्य सम्प्रत्यासादिता सा नवता स्वलिङ्गः ॥ श्रोतार्थसारेच पवित्रितश्रुतिः स्मृतेश्च सम्भेदसमेधितस्मृतिः । स पारगामी पथि तर्ककर्कशे जयी सदा जैमिनिशास्त्रविस्तरे ॥ वैशेषिके चाप्त विशेषशीलो बोधे च वेदान्तविदां विशारदः । काव्येतिहासपुराणपारगो योगे वर्णविनिर्णये किल ن तथाभ्यस्तसमस्ततन्त्रकः ॥ वाक्शासने देवाधिदेवेन्द्रपुरोहितोपमः । नत्या च दूरीकृतचापलः पुमान् विभ्रन् सदा यः सहजा प्रगल्भताम् ॥ कामं वभूवुरपरे भिपजः पृथिव्यां वैद्यान्विताऽभवदनेन वसुन्धरेयम् । आलम्बते कमपि नो कमला समृद्धं नारायणोरसि परं लभते प्रतिष्ठाम् ॥ रूपे नये तेजसि विक्रमे च तोषे च शान्त्या हरिणा समो गुणैः । काव्ये कविश्चन्द्रसमः सुदृश्यो बुद्धया गुरुवाग्निसमच शुद्धौ ॥ उदारतायां मनुवत्सुकीर्त्तितः प्रातीभ्यजुष्टच भृगोः समः पुनः । गभीरतायाञ्च महार्णवोपमो यः पार्थवत् पार्थिवपूजने रतः ॥ कृपालुतायाञ्च कृपावतारः प्रशिक्षणे साधु गुरुस्वभावः । मनस्वितायामसमो नरेन्द्रः वात्सल्यभावे जननीसमानः || धर्मेण धर्मस्तपसा कुमारः स्वाचारचार्वाचरणे च वेधाः । Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 726 अचार्यपरम्परा प्रशस्ति सत्ये च सत्यव्रततुल्यशौर्यः सहिष्णुतायां क्षमयैव तुल्यः / / भयेन यस्य प्रणतिर्न संभवा उप्रेषु यः कालसमो महोग्रधीः / नतेपु यः सान्त्वनदानमानैरेकः शरण्येषु च दीनवत्सल.॥ जये कठोरप्रियता प्रसिद्धा भावस्वभावानियताच पित्तात् / दुरवीर्यः समिती प्रकृष्टा शास्त्रे मतिर्यस्य सनातनीष्टा / / सुदुर्लभैरहगुणैस्समुच्छितैर्न विक्रिया यस्य मनाक चरित्रे | अभूतपूर्व सहजे स्वभावे सदा स्थितत्वाद् विगतस्मयत्वात् / / शास्त्रैः समुद्धैरभिमानवर्जितै लोपि स्वस्याप्यथ लोकचातुरी / आडम्बरं शारदवारिदोपमं ख्यात सदा लाघवमात्रकारणम् / / समाजसेवाव्रतमास्थितेऽपि यद् नासंभवा मानयशोमुखा गुणाः / परोपकारे निरतेऽपि तस्मिन्नानाप्तसर्वाऽपि सशास्त्रवैदुपी॥ अनुग्रहार्थं त्वथ देहिनां कृते चिकित्सिते ब्राह्मणवृत्तिमाश्रिते / अहर्निशं तत्परभावराशिभिय॑स्तेऽपि काव्यप्रियतारसज्ञता / / प्रोचुर्यञ्चरकर्पयः स्फुटतया तव्याहरन्तः स्वयं सूक्ष्मा दोपहितक्षणप्रकृतिभूसात्स्याद्यवस्थास्तथा / साध्यासाध्यविवेकहेतुसहितैर्लिङ्गैश्च सम्प्राप्तिभि नर्नाडी ग्यमुलतः स्पृशन्ननुपदं वेदाऽद्वितीयो गुरु / / इत्थं सोऽत्र निजा कुलस्थितिकरी कीत्तिञ्च सम्पादयंस्तन्वन् दिक्षु दशस्वपि स्थितिमती विद्यां सुदिव्यां शिवाम् | राज्येशेन पुरस्कृताञ्च पदवीं मानादिभिर्नन्दितः प्राप्तो पद्मविभूपणाभिधपदं राष्ट्रेशवैद्ये स्थितिम् / / सम्पद्युतोऽपि गुरुमानयुतोऽपि शश्वत् स्वाराधयानविरतं त्रिजगत्प्रसूं स्वाम् / तस्याः प्रसादममल नितरां प्रविन्दन् प्रापञ्च विश्वविदितां विशदां स्वकीर्तिम् / / श्रीयुक्तादनमोलतः प्रकटितो मातुः पराज्योतिषो जैमिन्यार्पभवद्विवेदिकुलजः क्षेत्रे भृगोः पावने / एतं बन्धमलं व्यधादनुदिनं भक्त्यानतः श्रीरमानाथः स्नातक एप वैद्यकनये विश्वेशपुर्या वसन् /