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___ चतुर्थ खण्ड : तैंतीसवॉ अध्याय ५५९ मूत्रकृच्छ्, अश्मरी, मूत्राघात से पीडित रोगियो मे आहार-विहार के सम्बन्ध का विशेप ध्यान रखना चाहिये। एतदर्थ रोगी को जौ का मण्ड ( २ तोले को ६४ तोले जल मे उबाल कर चौथाई शेप रखकर कपड़े से छान कर ), कच्चे नारियल का पानी, नारियल की गिरी, गन्ने का रस, लौकी, पेठा, ककडी, खीरा, पुनर्नवा की पत्ती, कासनो की पत्ती, कुन्दरू, कुन्दरू की पत्ती, मकोय, पत्र शाक, उवाला हुआ जल का अधिक मात्रा मे सेवन प्रभृति मूत्रल द्रव्यो का प्रयोग हितकर होता है।
द्विदल धान्य ( विविध प्रकार के दालो का उपयोग ), मास, कंदशाक तथा स्नेह पक्व (घृत या तैल-पक्वान्न) अपथ्य है। अवगाहन स्वेद ( गरम जल मे कमर का भाग डूबा रहे ) मूत्रकृच्छ्र एवं अश्मरी मे हितकर होता है । रोग का दौरा शान्त हो जाने पर भी उपर्युक्त पथ्यो का ध्यान रखना चाहिये और भोजन मे पुराना चावल, जौ, गेहूँ, मूंग या कुलथी की दाल, तक्र ( मट्ठा ) या गाय का दूध, पेठा आदि मूत्रल आहार रोगी को सेवन के लिए देना चाहिये ।
पीड़ा के साथ मूत्रत्याग का वृत्त-वाल्यावस्था मे प्राय अश्मरी के कारण युवावस्था मे प्राय पूयमेह (Gonorrhoea. ) के कारण तथा वृद्धावस्था मे प्राय अष्ठीला ग्रथि की वृद्धि के कारण पाया जाता है। ऊपर , लिखे मूत्रल कपाय एव योगो के प्रयोग से सभी अवस्थाओ मे कुछ लाभ अवश्य पहँचता है। अश्मरियो के प्रतिषेध के सम्बन्ध मे तो बहुत कुछ लिखा जा चुका है । यहाँ पर पूयमेह तथा अण्ठीला वृद्धि के सम्बन्ध मे विशेप कथन अभिप्रेत है।
पूय-मेह प्रतिषेध
इस रोग की तीव्रावस्था में रोगी को पूर्णतया शारीरिक विश्राम देना चाहिए। मानसिक उत्तेजनाओ से विरत करना चाहिए, विशेषत कामवासनोतेजक भावो से । भोजन मे केवल दूध ( गाय का ) रोटी या चावल खाने को देना चाहिए । मद्य, मास, गर्म मसालो का त्याग करना चाहिए । रोगी को पर्याप्त मात्रा मे शीतल जल पिलाना चाहिए।'
वास्तव मे पूयमेह (Gonorrhea) आधुनिक सभ्यता का रोग है और कुप्रसग से पैदा होता है, प्राचीन ग्रथो मे इसका यथार्थत वर्णन नही पाया जाता है। फलत चिकित्सा में भी आधुनिक विज्ञान सम्मत ओपधियोग (Sulpha drugs, Penicillin, Streptomycine) तथा अन्य (Anti biotic) सद्य चमत्कारक लाभ दिखलाते हैं। परन्तु, इनके प्रयोग से लाभ तो शीघ्र हो जाता है, किन्तु रोग का पुनरावर्त्तन प्राय. होता रहता है। अस्तु, आयुर्वेदीय पद्धति से चिकित्सा करना भी आवश्यक हो जाता है ।