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भिषकर्म-सिद्धि
घृत-तैल- कुत्रादि तैल या घृत- कुशादि पंचतृण, गालपर्णी तथा जीवनीय
गण की औपवियों से सिद्ध तैल या घृत का सेवन ।
उपसंहार
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दाह रोग मे प्रयोज्य कुछ व्यवस्थापत्र
१ चंद्रकलारस
३ २०
प्रवाल पिष्टि ३ २०
गुडूचीसत्त्व
१॥ मा०
मिलित ३ मात्रा
१ मात्रा दिन मे तीन वार घृत और चीनी के साथ या गुलकन्द के साथ | ( २ ) यष्ट्यादि चूर्ण या शतपत्र्यादि चूर्ण ६ माशे रोज रात्रि मे सोते वक्त दूध से
वायु के कारण दाह हो तो
( १ ) गुग्गुलुवटी ६ / ३ मात्रा २, २ गोली दिन मे तीन बार गर्म जल से ( २ ) यष्टयादि चूर्ण या गतपत्र्यादि चूर्ण पूर्ववत् रात्रि में ।
( ३ ) पंचगुण तैल का अभ्यंग |
आजकल दाह रोग अधिकतर धातुक्षयजन्य अर्थात् वातिक ही मिलते हैं । अस्तु, इनकी चिकित्सा मे धातुओ के वर्धन, पोपण की व्यवस्था, जीवतिक्तियुक्त द्रव्य आहार प्रचुर मात्रा मे देना उत्तम रहता है । प्रदर तथा योनि रोग से पीडित स्त्रियों में शुक्रक्षय की अधिकता से उत्पन्न पुरुषो तथा किसी दीर्घकालीन रोग के परिणाम स्वरूप उत्पन्न दाह का रोग प्राय मिलता है | नवीन वैज्ञानिको के शोध के अनुसार हस्त पादादितल - दाह ( Burnig Feet Syndrome) का उत्पादक कारण जीवतिक्ति वी की कमी ( Vit B, and Calcium Pantothenate ) माना जाता है । इस अवस्था में मुख से प्रयुक्त होने बाली तथा सूचीवेव से देय बहुत सी औषधियाँ भी मिलती है । फिर भी इनसे स्थायी लाभ नहीं होता है ।
स्थायी लाभ के लिये आयुर्वेदीय योगो का उपयोग श्रेयस्कर होता है । यहाँ पर एक योग, कविराज प० भूमित्र शर्मा वैद्य का, उद्धृत किया जा रहा है जो उत्तम लाभ करता है :--
कुंकुमादि वटी - केशर १ तोला, सिंगरफ १ तोला, सोठ १ तोला, धतूरे का वोज १ तोला, जायफल १ तोला, लीग १ तोला, जावित्री १ तोला तथा मिर्च १ तोला । सबको कूट-पीसकर महीन चूर्ण बनाकर खरलकर वटी वना लेनी चाहिये | मात्रा -२ रत्ती प्रातः सायं जल या दूध से ।