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छब्बीसवाँ अध्याय
वातरक्त प्रतिषेध प्रादेशिक हाथी, हंट या घोडे की अधिक सवारी (आधुनिक युग की साइकिल प्रभृति सारियां जिसमें पैर को नीचे लटकाये रहना पड़ता हो या खड़ा रहने का व्यवसाय भी कारण रूप में ग्रहण किया जा सकता है ) अधिक करने वाले व्यक्तियो में तथा विदाही अन्न का अधिक सेवन करने वलि व्यक्तियो में ( विदाही अन्न, लवण, क्टु, अम्ल, जार. स्निग्ध, उप्ण भोजन, अधिक मात्रा में रम्सेदार या सूखा अन्न, जल के जीवो के मास, आनूपदेश के मांस, तिल, मूली, कुलथी, उड़द, गाक, इक्षुरस, गुड़, दवि, काजी, शुक्त, सुरा, आसव, अव्यशन, विरोधी अन्नपान, दिवास्वप्न, रात्रिजागरण प्रभृति अभिष्यंदी माहार-विहार) रक में विदाह पैदा होता है और वह पैरो में संचित होने लगता है फिर अपने कारणों से वायु कुपित होकर इस दूपित रक्त से मिलकर वातरक्त नामक रोग पैदा करता है । कहने का तात्पर्य यह है कि इस रोग में वात को प्रधानता होती है माय ही साथ रक्त भी दूषित रहता है। अस्तु, वातरक्त कहलाता है। इसके उपचार में वात की चिकित्सा के साथ ही साथ रक्तदुष्टि का भी उपचार करना अपेक्षित रहता है। ___ यह रोग अधिकतर सुकुमार प्रकृति के धनी व्यक्तियो में पाया जाता है। अस्तु, इसे आट्यवात ( धनी रोगियो का वात रोग) भी कहते हैं । इस राग म मविकतर छोटी सधिया प्रभावित होती है। उनमें शोथ और मूल होता है । अस्तु, खुद्ध (छोटी सधि ) वात भी कहा जाता है। इस रोग में शोणित के द्वारा यावृत पाई जाती है। अस्तु, वातवलान की भी संज्ञा दी गई है। इसमें शरार की मभी मधियाँ विगेपत हाथ-पैर की छोटी संधियाँ शोथ तथा वेदना से युक्त हो जाती है।
शास्त्र में दो रोगों का वर्णन रन्नवात और वातरक्त नाम से पाया जाता है। दोनो में ही रखनावरण पाया जाता है। रक्तवात में रक्त शुद्ध रहता है क्वल बात मान की दुष्टि पाई जाती है. परन्तु वातरक्त नामक रोग में वात तथा रक्त दोनो की दुष्टि प्रारम से ही पाई जाती है।