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चतुर्थ खण्ड : पचीसवॉ अध्याय ४६१ इस मे वात रोग की सामान्य चिकित्सा करते हुए तैलो के अभ्यग, गुग्गुल, चूर्ण तथा रसायन औषधियो के सेवन से लाभ होता है। तीन वर्ष से अधिक पुराना कम्पवात प्राय. असाध्य हो जाता है । कम्पवात में एक विशेष तैल 'विजय भैरव' तैल का वर्णन पाया जाता है--इस तेल को १-२ बूंद की मात्रा से पीना तथा मालिग करना कम्पवात में लाभप्रद होता है । कम्पवात अनेक कारणो से पैदा हो सकता है-इस को अंग्रेजी मे Shaking Palsy या Tremors कहते हैं।
विजय-भैरव तेल-द्रव्य तथा निर्माण विधि--पारद, गंधक, मन • शिला, हरताल सब को शुद्ध करके सम भाग मे लेकर चूर्ण बना लेना चाहिये। फिर इसे काजी के साथ पीस कर इस कल्क से क्षोम वस्त्र ( रेशमी कपडे ) पर लेप चढा देना चाहिये। फिर इस वस्त्र को मोड कर एक वति जैसे बना लेना चाहिये। फिर उसको घृत से लिप्त करके ऊपरी सिरे पर दियासलाई से जला देना चाहिये । उस के जलने पर तैल टपकने लगता है-उसके नीचे एक पात्र रख कर त्रवित होने वाले तैल का संग्रह कर लेना चाहिये । इस विधि से स्रत तेल का थोडी मात्रा में लेकर उसको किसी अन्य तैल मे मिला कर मालिश करनी चाहिये । मुख से सेवन के लिये भी १-२ वू द दूध में डाल कर पिलाना चाहिये। कम्पवात रोग मे उत्तम लाभ दिखलाता है। यह तैल अन्य वात रोगो में भी लाभ दिखलाता है-विशेषत. कम्पवात मे फलप्रद होता है।'
१. सर्वाङ्गकम्प शिरसो वायुर्वेपथुसज्ञकः ।
नाशयेत् स ततैलं तद्वातरोगानशेषत. । बाहुकम्प शिर'कम्प जघाकम्प ततः परम् ॥ एकाङ्गं च तथा घात हन्ति लेपान्न संशयः । रोगशान्त्यै सदा नस्यं तैल विजयभैरवम् ॥ (यो र.)