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सिपस-सिद्धि ४२ प्रकार के हो सकते हैं। इनमें कुछ महत्त्व के भेदो का उल्लेख किया जा रहा है। पात के पित्त से आवृत होने पर उन उन स्थानो में दाह-उष्णता आदि तथा मूर्छा जैसे सार्वदेहिक लक्षण उत्पन्न होते है । कर्फ से मावत होने पर शीतती, अरुचि, देरस्य तथा मलबद्धता आदि लक्षण पैदा होते है । अपान वायु के पित्तावृत होने पर गुदा, वस्ति, गर्भाशय, योनि तथा मेढ़ मे विकार पैदा होता है । गर्भाशय या वस्ति से रक्त की प्रवृत्ति पित्तावृत अपान का उदाहरण है। समान वायु भोजन का परिपाक कराता है, किन्तु कफ से आवृत हो जाने पर वह उक्त कार्य नहीं कर पाता जिसमे आम दोप की उत्पत्ति होकर विविध वात रोग पैदा होते है।
इनके आवरणो के उपचार में सर्वप्रथम आवरण को दूर करना चाहिये फिर आवरण के दूर हो जाने पर विशुद्ध वायु की चिकित्सा करनी चाहिये । जैसे पित्तावृत मे प्रथम शीत क्रिया करके पश्चात् उष्णोपचार करे। अथवा मिश्रित क्रिया-शीत और उष्ण दोनो क्रियामो को करे । जीवनीय घृत, धन्वमास (जागल मासरस ), क्षीरवस्ति, विरेचन, लघु पचमूल-गृत क्षीर । कफावृत म जी, मूग की दाल, जागल पशु-पक्षी का मांसरस, स्वेद, तीक्ष्ण द्रव्यो का प्रयोग, निरूहण, वमन और विरेचन, पुराण घृत, तिल और सर्पप का उपयोग उत्तम है। शोणितावृत बात में वात-शोणितनाशक उपचार करना चाहिये। इसी प्रकार अन्यान्य आवृत वातों की चिकित्सा में प्रथम आवरणं दोप जो प्राय बलवान होता है उसे वमन, विरेचन, वस्ति अथवा शमन क्रियां के द्वारा दूर करके पश्चात् शुद्ध वात रोग को चिकित्सा वातरोगाधिकार में पठित योगो से करनी चाहिये।
आवृत वात चिकित्सा-का प्रकरण अधिक शास्त्रीय है, व्यावहारिक पक्ष उसका अधिक महत्व का नहीं है । अस्तु, संक्षेप में इसका वर्णन किया गया है-बृहत् क्रियाक्रम के लिये चरक चिकित्सा स्थान वातरोगाध्याय देखना उत्तम होगा।
कम्पवात या वेपथुवात प्रतिपेध कम्पवात या वेपथुवात प्रतिपेध-कम्प के सर्वाङ्गकम्प (सव अगो का कम्पन ) अथवा एकागकम्प (एक अंग का कापना) दो प्रकार पाये जात है। कुछ विचारको के मत से हाथ-पैर या सव मगो के कम्प को कम्पवात और शिर.कम्प को वेपथु वात कहा जाता है।