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द्वितीय अध्याय
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मे ही बोध हो जाय तो दोपो का निर्हरण हो जाने से रोग अग्रसर नही होता और यदि विनिश्चय में विलम्ब हो जावे तो दोप क्रमश आगे की गतियो को प्राप्त करके रोग को अधिक बलवान् बना देते है
सञ्चयेऽपहृता दोपा लभन्ते नोत्तरा गतीः ।
ते
तूत्तरासु गतिषु भवन्ति बलवत्तरा ॥
क्रिया-काल शब्द का प्रयोग ही चिकित्सा के उपलक्षण से हुआ है । क्रिया का अर्थ प्रतीकार या चिकित्सा है और काल का अर्थ समय या अवधि है । अत क्रिया- काल का समूह मे अर्थ होगा ' समयानुकूल चिकित्सा' ( Timely Action ) । क्रिया से औषध, अन्न तथा विहार तीनो का ग्रहण करना चाहिये ।
संचयावस्था या संचयकाल ( 1st stage of the Disease or Ist stage of treatment ) — इसमे दोपो की चयवास्था या सचय होना पाया जाता है । अग्रेजी मे इसे Inceptive stage or stage of Cumulation or Incubation period कह सकते है । विभिन्न हेतु या निदान से विभिन्न दोपस्थानो मे दोषो का सचय होने लगता है । हेतु - विभिन्न काल या ऋतुओ का परिणाम । लक्षण - दोपो की स्तब्धता, कोष्टक पूर्ण होना ( वात के सचय में ), वर्ण एव त्वचा का पीलापन, उष्णता की मदता ( पित्त के सचय मे ), गुरुता ( भारीपन ) तथा आलस्य का अनुभव ( कफ के सचय मे ) होता है । यह प्रथम क्रियाकाल है । सभव रहे और रोग का बोध हो जाय तो यही प्रतीकार कर देने से रोग आगे नही वढ पाता है । इस प्रकार निदानज्ञान की 'तत्र प्रथम क्रियाकाल ' | प्रकोपावस्था (II stage of Disease or treatment ) — यदि दोपो का निर्हरण सचय की दशा मे नही हुआ तो रोग अग्रसर होगा और प्रकोपावस्था प्राप्त हो जायेगी । उसमे दोपो का विविध प्रकार के आहार, विहार, आचार तथा काल के प्रभाव से प्रकोप होता है । इसको Provocative stage of the Disease कहा जा सकता है । यह चिकित्सा करने के लिये द्वितीय काल या अवसर है 'तत्र द्वितीय क्रियाकाल ।' २ भि० सि०
उपादेयता सिद्ध है ।