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भिपक्रम-सिद्धि करता रहे। प्राचीन आयुर्वेद अन्यों में यह गिदाल पूर्णतया प्रतिपादित। आचार्य मुश्रुत ने बडे विग्तार के गाय ज्या उतात्ति-कार तबा लन्नर अवस्याओ मे किये जाने वाले प्रनिका का गागोपान न गृप्रधान के उक्कासवे अध्याय में क्रियाकाल शब्द में किया है। आधुनिक युग के नाम का विचार भी बहुत कुछ प्राचीन मिटान्त मे मिला हुआ है, जगा कि 'यार' नामक ग्रंथकार की भूमिका में निम्नलिमित वचनो गे स्पष्ट सेता है
Disease is not a state, it is iathcr a process of ever changing its manisestations, il process which
may end in recovery or in death, which may be acute oi fulminating in its manifestations or which may appear such a slow ageing of the 11syucs, brought about by sharp tootli of time
सुश्रुत ने छ क्रिया-कालो मे गेगोत्पत्तिक्रम का वर्णन किया है। १. मचर, २ प्रकोप, ३ प्रसर ४ म्यान मथय, व्यक्ति तया ६. भेद । 'मवत्र च मोप च प्रसर स्थानमययम् । व्यक्तिभेद च यो वेत्ति दोपाणा म भवेद भित्र ।' चरक एव वाग्मटने व्यावि को उत्तनि मे तीन हो क्रमिक अवस्थाजो का वर्णन किया है-चय, प्रकोप तथा प्रगम । यह भेद मप्रदायभेद के कारण ही है। चरक
और वाग्भट आत्रेयमप्रदाय या कायचिकित्मा-गम्प्रदाय ( Atreya school or physician school ) के रहे, परन्तु मुश्रुत धान्वन्तर या गत्यचिकित्सक मम्प्रदाय ( Dhanavantari school or surgeon's school ) के थे। कायचिकित्सको का कार्य चय-प्रकोप-प्रगम नामक तीन अवस्थामओ के वर्णन से पूरा हो जाता था, परन्तु सुश्रुताचार्य को व्रण तया रक्तदोप मे उत्पन्न व्यावियो का वर्णन करना अपेक्षित था। अत उन्होने छ अवस्थाओ मे रोगोत्पत्तिक्रम का वर्णन किया है। ___सुश्रुत ने इन छ अवस्थामओ का छ क्रिया-काल नाम मे जो विशद वर्णन दिया है वह अविक विज्ञानमम्मत प्रतीत होता है, अत उसका विगेप वर्णन 'निदानपवक' विषय को समझाने के लिये प्रस्तुत किया जा रहा है। इन क्रिया-कालो का सम्यक् ज्ञान रोग के प्रारम्भ में ही विनिश्चयार्य ( Early Diagnosis), साध्यासाव्य विवेक ( Prognosis ), अनागत वाधा प्रतिपेच ( Profilactic treatment ) तया आगत बावा प्रतिपेय ( Curative treatment ) के लिये भी महत्त्व का है। इस क्रिया-कालो के ज्ञान की महत्ता बतलाते हुए आचार्य ने लिखा है कि यदि रोग को प्रारभिक अवस्था