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द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय है तो अपधि की मात्रा अस्प २ से ४ औंस की रखी जाती है। ( In retention eacnma) यदि बहुत अधिक मात्रा मे द्रव पहुंचाना आवश्यक हो और उसके शोषण कराने की आवश्यकता हो जैसे, ६ पिण्ट द्रव को डालना हआ तो रोगी को वाये करवट पर लेटा कर उसको प्रविष्ट करके पुन उसे दाहिनी करवट पर लेटाते है, उसके श्रोणि या नितम्ब भाग को ऊँचा उठा देते है-आवश्यकता हुई नो रोगी को घुटने और केहुनी के बल करके औषधि द्रव को भर दिया जाता है। द्रव के निकलने के आक्षेप आने पर वार-बार रोगी की गदा के भाग पर एक तौलिए के परिये दवा दिया जाता है। यह कार्य एक चोगे ( funnel ) और रबर की नलिका तथा गोद जैसे नमनशील मत्र नाडी ( Gum Elasticcatheter) की सहायता से और आसानी से किया जा सकता है। इसमे ध्यान रखना चाहिए कि भरना धीरे-धीरे और वीच-बीच मे रुक कर होना चाहिए। माथ ही द्रव किंचित् उष्ण ९८° फ० ताप का होना चाहिए अन्यथा रोगी उसको वाहर कर देगा और औपधि द्रव अन्दर मे रुक नही सकेगा, इस विशेष प्रकार के ( Rectal Injection ) को अग्रेजी मे ( Entro clysis ) कहा जाता है। प्राचीन वस्ति कार्यों में विशोधन के अनन्तर अनुवासन वस्ति का माम्य इमी क्रिया से है।
आधुनिक युग मे निम्नलिखित प्रकार के एनोमा व्यवहृत होते है
(१) कृमिघ्न वस्ति ( Anthelmentic Enema ) सूत्र-कृमि ( Thread worms ) को दूर करने के लिए।
(२) आकुचनहर वस्ति ( Anti spasmodic Enema) हीग आदि का द्रव । आन्त्र के आमजन्य शूल मे ।
(३) ग्राही वस्ति ( Astringent Enema)-गुदामार्ग के स्राव तथा अतिमार में।
(४) सूदन वस्ति ( Emollient Enema) मलाशय और स्थूलान्त्र वी श्लेष्मल कला क्षुब्धता मे व्यवहृत होनेवाली-अतमी,जौ, और स्टार्च का काढा।
(५ ) सशामक वस्ति ( Sedative Enemata)-स्टार्च, मुसिलेज और अहिफैन आदि का वस्ति ।
(६ ) रेचक वस्ति ( Pugative Enema)-ग्लिसरीन, एरण्डतैल, ओलिव आयल या केवल लवणजल, साबुन का पानी सीरिज के द्वारा देना चाहिए या एनिमा के द्वारा देना चाहिए।
(७) पोषक वस्ति (Nutrient Enema.) जव मुख से अन्न का शोपण सम्भव नही रहता तो ग्लुकोज, डेक्स्ट्रोज १०% तथा सामान्य लवण विलयन एक वार मे ४ औस दिया जाता है। इसको अन्दर पहुँचाने के पूर्व एक गोवन एनीमा देकर कोष्ठ की शुद्धि कर लेनी होती है ।