________________
पंचम खण्ड : परिशिष्टाध्याय
७२३
३. यदि बालक मातृस्तन्यपायी हो तो माता के लिए पथ्यादि की व्यवस्था करना भी अपेक्षित रहता है ।
४. शुद्ध टंकण ३ से १ रत्ती की मात्रा मे मधु से चटाने के लिए बच्चो की, खांसी में उत्तम कार्य करता है ।
·
५ दाडिमचतु सम - - जायफल, लोग, श्वेत जीरा और शुद्ध सोहागे को बराबर मात्रा मे लेकर दाडिम के फल के मध्य मे भरकर, कपड मिट्टी करके पुटपाक कर ले | फिर पुट मे से निकाल कर बकरी के दूध में पीसकर सुखाकर शीशी में भर कर रख ले। बच्चो का अतिसार एवं आमशूल मे लाभप्रद । मात्रा' २-४ रत्ती । अनुपान मधु ।
६ महागन्धक योग ( ग्रहणी अधिकारोक्त ) - बालरोगो मे उत्तम लाभ दिखलाता है ।
७ अष्टमंगल घृत - गोघृत १ सेर, कल्कार्थ- वच, कूठ, ब्राह्मो, सरसो, ' अनन्तमूल, सेन्धा नमक तथा पिप्पली के कल्क से सिद्ध घृत को बनावे | बालको मे एक बल्य योग है | उनकी मेवा और आयुष्य का वर्द्धक है । बालक की बाल ग्रह के उपसर्ग से रक्षा करता हूँ |
1
वालशोष १ - घोघे को पानी मे उबाल कर एक-दो घोवे का रस ( शम्बूक मासरस ) उत्तम रहता है ।
"
२ - अश्वगंध को दूध में पकाकर ( २ माशा अश्वगंध, दूध ३ पाव, जल पाव ) पका कर, छान कर, मिश्री मिला कर, मीठा कर के देना' भी उत्तम रहता है ।
6
*******
J
素
३
far 1
३ रससिन्दूर ३ २०, प्रवाल भस्म हे २०, शृङ्ग भस्म ३ २०, शंख भस्म र०, शुक्ति भस्म ३ २०, वराट भस्म ३ २०, शंबूक भस्म' रे र०, दन्ती भस्म १ रत्ती । मिलाकर २ मात्रा मे करके मंधु या घृत के साथ देने से अच्छा लाभ होता है |
४- अर्कचीर का एक या दो बूंद नाक से नस्य रूप मे देना भी उत्तम रहता है । इससे छीकेँ आती है। बालक की दशा मे सुधार होता है । मास में एक, दो या तीन वार देना पर्याप्त होता है ।
प्रतिविष
वृश्चिक दंश में - १ अपामार्ग मूल का ऊपर से नीचे को दशित स्थान तक तीन बार तक घुमाना । इसमे अग से जडी का स्पर्श न हो और ऊपर से नीचे को एक ही दिशा मे घुमाना अपेक्षित रहता है ।
1