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चतुर्थ खण्ड : सप्तम अध्याय
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गीता इस औषधि का प्रबंध कर सकता हो, तो कल्प रूप मे करना
हा है।
पंचामृत पर्पटी --पर्पटी योगों में यह एक अल्पव्ययसाध्य उत्तम योग है। इसी का व्यवहार वल्प योगों मे चिकित्मक करते है । इसमे वन और लौह भस्म का योग हो जाने से औपवि की क्रिया जीर्ण- ग्रहणी रोग उत्तम होती है। जोर्णातिनार, पाण्डु रोग, अरुचि, मंदाग्नि और ग्रहणी रोग प्रयोग करना चाहिये । पचामृत पर्पटी के प्रयोग से भूम वढती है | तात्र पर्पटी - - यकृत के रोग, प्लीहा की वृद्धि और उदर के रोगो मे एक उत्तम औषधि है । शास्त्र में लिखा है कि ताम्र पर्पटी - छोटी इलायची और भुने जीरे के चूर्ण के साथ पुराने ग्रहणी रोग को, त्रिफला चूर्ण और मधु के साथ प्रमेन और पाण्डु रोग को, एरण्ड तेल के साथ सम्पूर्ण प्रकार के उदर शूलो को और बानी के चूर्ण के साथ सेवन करने से दद्रु और चित्र को दूर करती है । निरन्न चिकित्सा पथ्य- वर्धमान पर्पटी प्रयोग में शरीर का एक कल्प ( नवीनीकरण या कायाकल्प ) हो जाता है। रोगी को पूर्ण विश्राम से विस्तर पर रचना होता है । उसके पचन संस्थान को मुख से लेकर गुदा पयन्त आमानवान् प्रभृति अवयवो को पूर्ण विश्राम देने के लक्ष्य लपण, मनाले प्रभृति सामान्य ठोम भोजन को पूर्णतया है | उनको केवल द्रवाहार दूध अथवा तक्रपर रख कर ( Bland diet ) चिकित्सा की जाती है । इस चिकित्मा का लक्ष्य पचन संस्थान की पुरानी श्लेष्मल कला को ज़रा कर उसके स्थान पर नये श्लेष्मल कला का निर्माण तथा गोपणावरो का पुनर्जनन और अधिक कार्यक्षम बनाना रहता है । इस तरह इस कल्प चिकित्सा के परिणाम स्वरूप पचन तथा शोपण की दोनो क्रियायें प्राकृत हो जाती है ।
से
रोगी को अन्न, जल,
वद कर दिया जाता
सर्वप्रथम यह निर्णय करना चाहिये कि तक्र और दूध इनमें से कौन सा द्रव पदार्थ रोगी के अनुकूल पडता है, तव किसी एक पर रख कर चिकित्सा का प्रारंभ करना चाहिये । जिस रोगी की अग्नि वहुत मद है, पाचन को शक्ति बहुत क्षोण है और जिसके कोष्ठ मे वायु की अधिकता है उसको तक्र विशेष हित करता है । इसके विपरीत जिसके कोष्ठ मे वायु विशेप नही है और अग्नि अधिक मंद न हो उसे गोदुग्ध पर रखना चाहिये । दूध से शक्ति शीघ्र आती है । परन्तु तक्र लघु होने से पचन शीघ्र सुधरता है और मल जल्दी बँध जाता है ।
प्रकृति तथा प्राप्यता ( Availability ) का भी विचार करना चाहिए | कभी कभी तक्र या दुग्ध मे से किसी एक का प्रारंभ
कराने पर रोगी
१८ भि० सि०