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चतुर्थ खण्ड : वयालीसवाँ अध्याय
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अब इस कामपणा की तृप्ति के लिये बहुविध कामशास्त्र के ग्रंथ उपलब्ध होते है जिनमे काम के लियो के विविध उपाख्यानो का वितृस्त वर्णन पाया जाता है । इम कामशास्त्र के सहायभूत अग वाजीकरण तत्र है । यह विशुद्ध वैद्यक का विषय है । इसका सीधा सम्बन्ध एक प्रधान पुरुपार्थ या एषणा अर्थात् काम वासना के साथ है - अस्तु, वैद्यक शास्त्र मे एक पृथक् तत्र रूप मे या अग रूप इसका वर्णन पाया जाना युक्तियुक्त है ।
वस्तुत. ऐहिक सुखो में तीन ही सुख प्रधान माने गये है- " सुत वित नारि ईपना तीना, केहि के मति नहि कीन मलीनी" ससार मे सुख की लिप्सा से मनुष्य धनार्जन करना, अधिक से अधिक स्त्री-सेवन तथा पुत्र को उत्पत्ति करना इन तीन ही इच्छात्रो से प्रेरित होकर व्याकुल रहता है । इन तीनो एषणावो को सम्यक् रीति से प्राप्ति का साधन वाजीकरण तन्त्र के द्वारा ही सभव हैं अतएव इस तन्त्र का बडा महत्त्व है । चरकाचार्य ने इसी लिये लिखा है- वाजीकरण के अधीन हा धर्म, अर्थ, काम, यश तथा श्रेष्ठ पुत्र की उत्पत्ति रहती है :तदायत्तौ हि धर्मार्थी प्रीतिश्च यश एव च ।
पुत्रस्यायतन ह्येतद्गुणाचैते सुताश्रयाः । ( च० चि०२ )
आज के युग में इस विजय का महत्त्व कम नही है । कामवासना कारक, कामोत्तेजक, वीर्योत्पादक, सन्तानोत्पादक तथा वीर्यस्तम्भक योगो के सेवन की चाह दिनो दिन लोक मे बढती जा रही है । ऐसे समय मे वाजीकरणाध्याय की चर्चा अधिक उपयुक्त सिद्ध हो रही है ।
वाजीकरण के गुण या फल - वाजीकरण के सेवन से
पुरुष को तुष्टि ( प्रसन्नता ), पुष्टि (वल ), गुणवान् सतान, अवाधित रूप से सतान - प्रवाह ( वश-परम्परा का अक्षुण्ण वना रहना ) तथा तुरन्त तात्कालिक प्रहर्पण प्रभृति लाभ होते हैं । इसके सेवन से शरीर को विशेष रूप से बल एव कान्ति की प्राप्ति होती है ।
अल्पसत्त्व व्यक्ति के लिये, रोग से दुर्बल शरीर वाले कामी व्यक्ति के लिये, शरोर की क्षय से रक्षा के लिये मुख्यरूप से वाजीकरण तन्त्र का उपदेश किया गया है ।
नीरोगी, युवा एव वाजीकरण सेवन करने वाले पुरुष के लिये सब ऋतुओ मे प्रतिदिन भी मैथुन निषिद्ध नही है ।
तुष्टिः पुष्टिरपत्य च गुणवत्तत्र सश्रितम् । अपत्यसन्तानकर यत्सद्यः सर्पणम् ॥
तद् वाजीकरण तद्धि देहस्योर्जस्कर परम् ॥ ( वा० उ० स्था० ४० )
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