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प्रथम अध्याये
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ही बलवान् हो सकता है । अत पूर्वरूप की अवस्था में ही रोग का ज्ञान हो जाने र उपचार प्रारम्भ कर देना चाहिये । जैसे ---
'ज्वरस्य पूर्वरूपे लघ्वशनमपतर्पणं वा । ' ( चरक ) 'वातिकज्वरपूर्वरूपे घृतपानम् ।' (सुश्रुत )
साध्यासाध्यविवेक का अभाव - पूर्वरूप के कथन के अभाव में कई रोग में माध्यासाध्य का विचार भी सभव नही रहता । अत पूर्वरूप के वर्णनो की अपेक्षा दोनो मे अवश्य रहती है । उदाहरणार्थ
पूर्वरूपाणि सर्वाणि ज्वरोक्तान्यतिमात्रया | यं विशन्ति विशन्त्येन मृत्युर्ज्वरपुरःसरम् ॥ अन्यस्यापि च रोगस्य पूर्वरूपाणि यं नरम् । विशन्त्यनेन कल्पेन तस्यापि मरण ध्रुवम् ॥ ( चरक ) सापेक्ष्य निश्चिति मे पूर्वरूप की उपादेयता - जो मनुष्य प्रमेहोक्त पूर्वरूप के बिना ही हारिद्रवर्ण या रक्त वर्णका मूत्र त्याग करता है, उसे प्रमेह न समझ कर रक्तपित्त का ही विकार समझना चाहिये । इस प्रकार पूर्वरूप ज्ञान के अभाव मे रक्तपित्त एव प्रमेह रोग का विनिश्चय करना सभव नही हो सकेगा । जहाँ दो व्याथियो के लक्षण समान हो वहाँ पर विभेद करने से पूर्वरूप सहायक होता है । इस प्रकार पूर्वरूप कथन की उपादेयता स्पष्ट हो जाती है । रूपाभिधान प्रयोजन — निदान एव रूप का वर्णन न किया जावे तो रोग के होता, क्योकि व्याधि का वास्तविक स्वरूप व्याधि का यथार्थ ज्ञान होता है- - रोग मे पाये होने वाले लक्षणो को ही रूप कहा जाता है । न तो रोग का रूप ही स्पष्ट हो सकता उपयोग करना ही सभव रहता है । रूपज्ञान का
है
आवश्यक है ।
पूर्वरूप के रहते हुए भी यदि स्वरूप का ज्ञान हो सभव नही रूप ही है । रूप कथन से जाने वाले स्पष्टतया प्रतीत
फलत रूप का कथन न होने से
,
और न चिकित्सा - विशेष का वर्णन रोग मे करना नितान्त
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साध्यासाध्य विवेक — रोगो मे स्वरूप या रूप का कथन न हो तो रोग की साध्यासाध्यता का ज्ञान करना भी कठिन होता है । जैसे—सुखसाध्य रोगो के प्रसग मे वचन मिलता है - १ हेतव पूर्वरूपाणि रूपाण्यल्पानि यस्य - वै ।' २ 'नच तुल्यगुणो दृष्यो न दोप प्रकृतिर्भवेत् । ' रोग की कप्टसाध्यता-सूचक उक्तियाँ १ 'निमित्त पूर्वरूपाणा रूपाणा मध्यमे वलम् । कालप्रकृतिदूष्याणा सामान्येऽन्यतमस्य च ।' रोग के असाध्यता सूचक कथनो मे भी रूप का अभिधान पाया जाता ह २ ' सर्वसम्पूर्णलक्षण सन्निपातज्वरोऽसाध्य. ।'