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भिण्कर्म-सिद्धि सभी सन्निपातोदर या दूप्योदर का रूप धारण करके असाध्य हो जाते है। बगदोदर, तीन बात्रावरोध ( Acute Intestinal obstruction) के रूप में स्पष्टतया प्रतिभान है और क्षनादर भी एक तोवावस्था का ही वर्णन प्रतीत होता है जब कि किसी रोग के उपद्रव रूप में मात्र छिद्र ( Perforation of the Intestine हो जाय ।
इस प्रकार उदर रोग में अधिकतर तीव्र रोगो ( Acute Abdomen ) का ही वर्णन पाया जाता है । इनमे अधिक गल्यतत्रीय चिकित्सा ही लाभप्रद भी होती है । इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी रोगो का वर्णन उदर रोगो के अव्याय में पाया जाता है, जिनमे उत्पादक कारणों की मन्दता, दोपो की अल्पता मादि से जीर्ण बलए की व्याधियां हो जाती है । जैसे, प्लीहोदर (Spleenomegaly), यकृतात्युदर (Cirhosis of the liver ), तथा जलोदर (Ascitis), मादि । ये सभी अनुतीव्र या चिरकालीन स्वरूप (Sub-acute or chronic type ) की व्यावियाँ है । वस्तुत., कायचिकित्सक को अपने को यहाँ तक मीमित रखना श्रेयस्कर होता है। अन्य रोगो में उनावर्त महा उपचार करते हुए सफलता मिल जावे तो ठीक है, अन्यथा किसी शल्यतत्रीय चिकित्सक को रोगी को देना उत्तम रहता है। "मर्वाण्येव प्रत्यास्यायोपक्रमेत् । तेप्वाद्यश्चतुर्वर्गों भेवजमाघ । उत्तर शस्त्रसाध्य । कालप्रकर्षात् सर्वाण्येव शस्त्रसाध्यानि भवन्ति वयितव्यानि वा ।" (मु )
संक्षेप में कह्ना हो तो उदररोगो में बहुत से तीन (Acute ), अनुतीन (Subacute ) तथा जीर्ण ( Chronic ) स्वरूप को व्याधियो का उल्लेख प्राचीन गास्त्रकारो ने किया है जिनके कारण उदर को दीवाल उभरी हुई प्रतीत हो (All acute or subacute conditions of Abdomen causing enlargement of the Abdominal wall ) ___इन अष्ट उदर रोगो में काय-चिकित्सक के लिये दो बडे महत्त्व के रोग है१ यकृत्प्लीहोदर तथा २ जलोदर । इन्ही दोनो के प्रतिपेध का वर्णन इम अध्याय का प्रतिपाद्य विषय है। १ यकृत्प्लीहोदर या प्लीहयकृद्दाल्यदर अथवा प्लीहोदर एव यहाल्यदर-विदाही तथा अभिप्यदी पदार्थों का अत्यधिक सेवन करने म मनुष्य का रक्त और कफ अधिक कुपित हो जाता है । फलत. प्लीहा की निरन्तर बृद्धि होती जाती है । प्लीहा बटकर उदर का उभार पैदा कर देती है। इस अनन्या गे प्लीहोकर बहते है । प्लीहा की वृद्धि उदर में वाई और होती है । इस यस्या में रोगी मद उवर एवं मन्दाग्नि में विशेष रूप से पीटित रहता