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________________ चतुर्थ खण्ड : छत्तीसवाँ अध्याय ५८७ है । उनमे कफ एक पित्त के लक्षण और उपद्रव मिलते है। रोगी का वल क्षीण एव वर्ग पीला हो जाता है। निदान लक्षण तथा चिकित्सा को समानता के कारण प्राचीन ग्रंथकारो ने यहाल्युकर का पाठ भी प्लीहोदर के नाथ ही किया है । अन्तर केवल इतना हो है कि प्लीहोदर उदर के बाई ओर तथा यकृद्दाल्युदर दायी ओर होता है। कुछ रोगो में इन दोनो को एक साथ भी वृद्धि होती है। प्लीहा को वृद्धि करने वाले कालाजार, मलेरिया, राजयक्ष्मा, फिरग, फक्करोग, ल्युकीमियां आदि रोगो की किमी अवस्था मे यकृद्-वृद्धि भी अवश्य होती है। साथ ही यकृत् की वृद्धि के कारण भी प्लीहा की वृद्धि करते है । अस्तु, दोनो रोगो के हेतु, लक्षण तथा चिकित्सा में पर्याप्त साम्य है । अस्तु, दोनो रोगो का एक साथ ही वर्णन प्राचीन ग्रन्यो में मिलता है । उक्ति भी पाई जाती है-'प्लीहोदरस्यैव भेदो यकृद्दाल्युदर तथा ।'(भा प्रा)। 'तदेव प्लीहोदर यकृहाल्युदर ज्ञेयम् ।' (डल्हण ) । 'तुल्यहेतुलिङ्गीपधत्वात् तस्य प्लीहजठर एवावरोध इत्येतद्यकृत्टलोहोदरम् ।' (चरक )। रोग के प्रमार की दृष्टि से विचार दिया जाय तो भी प्लीहावृद्धि के रोगी यकृतवहि की अपेक्षा अधिक संख्या में पाये जाते है । इस प्रकार प्लीहोदर नामक प्रधान व्याधि के अन्दर यकृत्-वृद्धि नामक गाण व्यावि अन्तर्विष्ट हो जाती है ।' जलोदर या दकोटर-उदरगुहा में जलसचय को जलोदर कहते है । प्राचीनो ने जलवाही स्रोतो को दुष्टि को जलोदर का कारण माना है । आधुनिक विद्वान इसके निम्नलिखित कारण मानते है-१ हृद्रोग २ वृक्क रोग ३ यकृद्रोग (प्रतिहारिणी सिरा का अवरोध Portal obstruction) तथा ४ क्षयजन्य उदरवृतिशोथ (T B Peritonitis) ५ प्लीहोदर के परिणाम स्वरूप । सामान्य लक्षणो मे उदर मे उत्सेध, नाभि का उल्टा होना ( Everted umbelicus), मशक के समान क्षोभ या कम्प ( Thrill), इतिवत् शब्द ( Percussion Dullness), हृद्रव ( Palpitation ), श्वासकृच्छ, काम, बुभुनानाश, अग्निमाद्य, विवन्ध, चलने में असमर्थता, पैरो पर सूत्र, मूत्र की कमी आदि लक्षण मिलते है ।२ १ विदाह्यभिष्यन्दिरतस्य जन्तो प्रदुए मत्यर्थमसक कफश्च । प्लीहाभिवद्धि कुरुन प्रवृद्धौ प्लीहोत्थमेतज्जठर वदन्ति ॥ तद्वामपावें परिवृद्धिमेति विशेपत सीदति चातुरोऽत्र । मन्दज्वराग्नि कफपित्तलिंगरुपद्रुत क्षीणवलोऽतिपाण्ड । सव्यान्यपार्वे यकृति प्रवृद्धे ज्ञेय यकृद्दाल्युदर तथैव ।। (सु नि ७) २ य स्नेहपीतोऽप्यनुवासितो वा वान्तो विरिक्तोप्यथवा निरूढ । विवेज्जलं
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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