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चतुर्थं खण्ड : आठवॉ अध्याय
२८५ का ६ माशे प्रतिदिन शीतल जल मे प्रात काल मे सेवन । अथवा कालातिल १ तोला, शक्कर १ तोला बकरी के दूध के साथ सेवन । १४ अभ्यास-नवनीत (माखन) और तिल के अभ्यास मे, केशर, नवनीत और मिश्री के अभ्यास से, सारयुक्त दधि को मथकर सेवन के अभ्यास से अर्थात् नित्य सेवन करने से रक्तार्श रोग दूर होता है ।
५ असली नागकेसर या केसर का मक्खन और मिश्री के साथ सेवन । ६ वनतण्डलीयक का तण्डुलोदक से सेवन ( बन चौलाई की जड ६ माशे, मधु ३ माशे, मिश्री ३ माशे, तण्डलोदक एक छटॉक छानकर पिये ) ७ मण्डूकपर्णी का स्वरम मधु के माथ मिलाकर सेवन । ८ कच्ची मूलो का चीनी के साथ सेवन या पलाण्डु का सेवन । ९ कुटज की छाल, बिल्वफल-मज्जा और शुठी का सेवन । अथवा केवल कुटज की छाल को तक्र के साथ पीसकर सेवन । १० गेन्दे के फूल और पत्ती का स्वरस ६ माशे दिन में दो बार रक्तार्श मे लाभप्रद पाया गया है । ११ दाडिम (अनार) फल के छिल्के को पीसकर चीनी के साथ सेवन । १२ असली केसर या नागकेसर ४ रत्ती की मात्रा मिश्री और चावल के पानी के माथ देना भी लाभ-प्रद होता है। १३ कमलिनी का कोमल पत्र पीसकर वकरी के दूध और मिश्री के साथ पीना।
भेपज योग
१ नागकेशर योग-नागकेशर, सूनखरावो ( दमउल अखबेन ) का सममात्रा मे बना योग । २ माशे। अनुपान शोतल जल, बकरी का दूध या चावल के जल के साथ।
२ चंदनकिरातादि कपाय--रक्त चदन, चिरायता, जवासा, सोठ, इन्द्र जी, कुटज की छाल, खस, अनार के फल का छिलका, दारुहल्दी, नीम की छाल, लज्जालु, अतीस और रसोत समभाग मे लेकर यथाविधि क्वाथ । शीतल होने पर मधु मिलाकर एक छटाँक की मात्रा मे दिन में तीन बार सेवन रक्त का सद्यः सग्राहक होता है।
३ समङ्गादि चूर्ण-मजोठ, नील कमल, मोचरस, लोध्र, कालीतिल, श्वेत चदन, लाजवन्ती । समभाग चूर्ण । मात्रा ३ माशे । अनुपान अजाक्षीर ।
वाह्य धूपन-नृकेशादि धूम ( जिसका उल्लेख ऊपर मे शुष्काश मे हो चुका है । ) अथवा राल-कर्पूर धूम राल एव कपूर को अग्नि मे जलाकर गुदा १. नवनीततिलाभ्यासात केशरनवनीतशर्कराभ्यासात् ।
दधिसरमथिताम्यासाद् गुदजा शाम्यन्ति रक्तवहाः ॥ (भै र )