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चतुर्थ खण्ड : सत्रहवा अध्याय ४०३ मागन्तुक छदि में यदि वमन बीभत्स कारणों से हो रहा हो तो रोगी को उस वातावरण से दूर करना चाहिए । यदि गर्भकालीन वमन हो तो मृदु ओपधियो से उनका गमन करे, यदि दोहृद के कारण हो रहा हो तो हृद्य औपधियो के द्वारा या गर्भवतो की इच्छा पूरी करने से वह दूर होता है । असात्म्य वस्तुवो का अभ्यास रहने के वजह से वमन हो रहा हो तो लंघन कराके, सात्म्य पदार्थों का वमन करा के और सात्म्यपदार्थों के सेवन से रोग को जीतना चाहिये । उदरस्थकृमियो के कारण वमन हो रहा हो तो कृमिरोग के अधिकार में कथित चिफिल्मा द्वारा शमन करना चाहिए।' ___ मनोविघात से वमन हो रहा हो तो मनोनुकूल, वाणी, आश्वासन, हर्पण, मन्न, पान, गध, रस, स्पर्श, शब्द, रूप का योग करने से वमन का शमन होता है। इस प्रकार का वमन मानसिक कारणो से अधिकतर अपतंत्रक वाले (Hysterical) रोगियों में पाया जाता है। कई बार पति से वियुक्तावस्था मे युवती स्त्रियो में पाया जाता है। इनमे उनके मनोनुकूल आहार, विहार और परिस्थिति करने से ही लाभ सभव रहता है। यदि इनके अनुकूल पदार्थ छदि रोग में अपथ्य भी हो अथवा रोगी को सात्म्य भी न हो तब उसकी मानसिक प्रसन्नता के लिए देना चाहिए। ___वमन के अनन्तर होने वाले उपद्रवो के लिए वातनाशक उपचार जैसे-दूध, घृत, मपिण्ड आदि का प्रयोग रोगी के वहण के लिए करना चाहिए। दीर्घ दि रोग में सदैव वातघ्न उपचार करना ही श्रेयस्कर होता है।
लाज मण्ड-धान का लावा (खोल ) १ तोला, छोटी इलायची ४ नग, लौंग ४ नग, मिश्री ३ तोला, पानो २० तोला । सबको एकत्र कर आग पर चढाकर ५,७ उफान आवे इतना पकावे फिर छानकर ठंडा करे । १-२ चम्मच थोडीथोडी देर से रोगी को पिलावे। इसमे कागजी नीबू का रस भी मिलाया जा सकता है । वरफ से ठडा करके भी दिया जा सकता है। (सि यो. स)
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१ बीभत्सजामवीभत्सर्हेतुभि संहरेद्वमिम् । दीहृदस्था वमि हृद्य काक्षितैवस्तुभिर्जयेत् ।। लङ्घनैर्वमनर्वापि सात्म्यैर्वाऽमात्म्यसम्भवाम् । कृमिहृद्रोगवच्चापि साधयेत्कृमिजा वमिम् ।। वमनी च चिरोत्थासु प्रयोज्या च्छदिपु क्रिया ॥ (यो र)
गन्ध रस स्पर्शमथापि शब्द रूपं च यद्यत् ' प्रियमप्यसात्म्यम् । तदेव दद्यात् प्रशमाय तस्यास्तज्जो हि रोगः सुख एव जेतुम् ।। ( च चि २० )