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इकतीसवाँ अध्याय
गुल्म प्रतिषेध हृदय और नाभि के वीच उदरस्थ अगो में विशेपतः आंत्रो मे होने वाले अर्बुद या उभार को गुल्म कहते है । इसकी उत्पत्ति में वायु प्रधान भाग लेता है, वह आत्रके किमी भाग मे भर कर उसका विस्फार पैदा करता है, जिससे उदर । की दीवाल पर एक वृत्ताकार उभार सा दिखलाई पडता है अथवा स्पर्श द्वारा प्रतीत किया जा सकता है (Abdominal tumour due to Gaseous distension of Intestinal coil ) यह उभार चल ( सचारी ) या स्थिर भी हो सकता है-वायु को विगुणता में वह स्थिर रहता है और वायु के अनुलोमन हो जाने पर वह अपचय को प्राप्त होकर नष्ट हो जाता है। अर्थात् यांन मे कभी घटने और कभी वढने वाले उभार को गुल्म कहते है ।'
भाचार्य सुश्रुत ने इसको अर्बुद मे पृथक् रोग माना है क्योकि अर्बुदो का स्वतत्र अध्याय में वर्णन किया है। विद्रधि ( Abscess ) से भी इसको पृथक माना है। विद्रधि मे इसका पार्थक्य करते हुए उन्होने लिखा है कि विद्रधि एक सीमित स्थान पर वाह्य या मान्यतर अवयवो में उत्पन्न होती है । वह स्थिर या अचल ( Immovable) होती है और संचारी ( Mobile ) नही होती है। विद्रधि एक स्यायी विकार है जिसमे रक्त-मासादि धातुओ का आश्रय पाया जाता है, अस्तु, उनका मूल होता है और वास्तुपरिग्रहवान् (एक घेरायुक्त) होती है, इसमे पाक या पूयोत्पत्ति होती है। परन्तु, गुल्म में पाक नही होता है इसमें दोप ही स्वय गुल्म का रूप धारण कर लेते है और उभार चल होता है उसका चलना अखिो से दिखाई पड़ता है अथवा स्पर्श के द्वारा प्रतीत किया जा मक्ता है।
चरक ने गुल्म में भी कई बार पाकोत्पत्ति होते बतलाया है। विद्रधि के भांति इसमें पक्वापक्वावस्था का निदान, चिकित्सा में उपनाह तथा शस्त्र कर्म का १ हृन्नाम्योरन्तरे ग्रथिः संचारी यदि वाऽचल ।
वृत्तश्चयापचयवान् स गुल्म इति कोत्तित ॥ कुपितानिलमूलत्वात् सचितत्वान्मलस्य च । तुल्यत्वाद्वा विगालवाद् गुल्म इत्यभिधीयते ।। (सु)