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चतुर्थ खण्ड : इकतीसवाँ अध्याय ५३३ विधान बतलाया है। परन्तु, पाक की अवस्था मे गुल्म को गुल्म न कहकर विद्रधि कहना ही अधिक उचित प्रतीत होता है। सहिताकार ने जो वर्णन किया है वह भी विद्रधि का ही है। पकने वाले गुल्म की तीन विशेषतायें दी गई है। कृतवास्तुपरिग्रह २ कृतमूल ३ रक्तमासाश्रयी।'
गुल्म के स्थान एवं भेद-मिथ्या आहार-विहार से कुपित हुए दोप कोष्ठ (उदर) में ग्रधि के आकार के पांच प्रकार के गुल्मो को पैदा करते हैं । गुल्म दोनो पाय, हृदय, वस्ति तथा नाभि इन पांच स्थानो मे होता है । वात, पित्त, कफ, सन्निपात तथा रक्त से उत्पन्न होने वाले पांच प्रकार के गुल्म होते है। इनमे प्रथम चार पुरुप और स्त्रो दोनो में किन्तु रक्तज गुल्म केवल स्त्रियो मे उनके गर्भाशय मे होता है।
गुल्म का पूर्वरूप--डकारो का अधिक आना, कोष्ठबद्धता, भोजन मे अरुचि, शक्ति का ह्रास, आत्रकूजन (गुडगुड शब्द होना), पेट का फूलना या बफारा, उदरशूल तथा पचन शक्ति का कम होना ये लक्षण गुल्म के पूर्वरूप मे मिलते है ।
रूप-उपर्युक्त लक्षण अधिक व्यक्त हो जाते है। भोजन मे अरुचि, मलमूत्र तथा अपान वायु के निकलने में कठिनाई, आत्रो मे गुडगुड शब्द होना, आनाह तथा उर्ववात-डकारो का अधिक आना, सभी गुल्मो मे सामान्य रूप से पाये जाते है। फिर दोपानुसार वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक तथा सान्निपातिक अथवा
१ विदाहलक्षणे गुल्मे बहिस्तुङ्ग समुन्नते । श्यावे सरक्तपर्यन्ते सस्पर्शे वह्निसन्निभे ॥ निपोडितोन्नते स्तब्धे सुप्ते तत्पार्श्वपीडनात् । तत्रैव पिण्डिते शूले सपक्व गुल्ममादिशेत् ॥ तत्र धान्वन्तरेयाणामधिकार क्रियाविधौ । रक्तपित्तातिवृद्धत्वात् क्रियामनुपलभ्य च ॥
यदि गुल्म विदह्यत शस्त्रं तत्र भिपग्जितम् ॥ (च चि ५.) २ कुर्वन्ति पचचा गुल्म कोष्ठान्तर्ग्रन्थिरूपिणम् । तस्य पचविध स्थान पार्श्वहृन्नाभिवस्तय. ॥ (मा नि.) म व्यस्तैर्जायते दोपै समस्तैरपि चोच्छ्रित ।
पुरुपाणा तथा स्त्रीणा ज्ञेयो रक्तेन चापर ॥ (सु) ३ उद्गारवाहुल्यपुरीपबन्धतृप्त्यक्षमत्वान्त्रविकूजनानि । • आटोपमाध्मानमपक्तिशक्तिरासन्नगुल्मस्य वदन्ति चिह्नम् ।।