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चतुर्थ खण्ड : प्रथम अध्याय
१९७ और ज्वर के निवृत्त हो जाने पर रोगी के वलादिका विचार करके विरेचन औषधि का उपयोग करना चाहिये ।"१ ।
लंघन-ज्वर मे लघन कराना सर्वप्रथम उपचार है । लघन शब्द का प्रयोग यहाँ पर अनशन या उपवास कराने के अर्थ मे ही सीमित है। जब ज्वर नया हो उसमे आम दोप प्रवल हो, दोपो मे पित्त एव श्लेष्मा की प्रधानता हो, तो अनशन कराना चाहिये । इस क्रिया से दोषो के पाचन मे सहायता मिलती है । और अग्नि दीप्त होता है। परन्तु इसके विपरीत अवस्था के ज्वरो मे जैसे-जीर्ण ज्वर, धातुक्षय के कारण होने वाले ज्वर, राजयक्ष्मा के ज्वर, भय-क्रोध-कामशोक प्रभृति मानसिक क्षोभ से उत्पन्न ज्वर, अधिक परिश्रम या अभिघात से उत्पन्न ज्वर तथा विशुद्ध वायु के कुपित होने से पैदा होने वाले ज्वरो मे उपवास या अनशन नही कराना चाहिये। इस अवस्था मे कर्शन न कराके शमन क्रिया से उपचार करना चाहिये।
ज्वर मे उपवास कराने का लक्ष्य बालक, वृद्ध, दुर्बल और गर्मिणी में लंघन नही करावे । वढे हये दोषो का कम करना और अग्नि को प्रज्वलित करना, रहता है इस क्रिया से ज्वर का वेग कम होता है, शरीर मे हल्कापन आता है एवं भूख की इच्छा जागृत होती है । परन्तु लघन या अनशन रोगी के वल के अनुसार कराना चाहिये। यदि रोगो बलवान् हो तो पूर्ण उपवास कराया जा सकता है, किन्तु दुर्बल हो तो अधिक उपवास से उसका बल टूट जाता है। आरोग्य के लिये शारीरिक बल की ही प्रधानता दो गई है । वल के टूट जाने पर. आरोग्य होना सभव नही रहता है। लघन क्रिया का अन्तिम उद्देश्य रोगी को आरोग्य देने के अतिरिक्त और कुछ नही होता है । अस्तु प्राण या वल के अविरोधी लघन से ही उपवास कराना चाहिये।' अर्थात् वल के अनुसार ही रोगो को उपवास कराना चाहिये।
लंघन-अवधि-जिस प्रकार राख से ढंकी अग्नि अन्न का पाक नही कर सकती, उसी प्रकार दोपो से ढकी जाठराग्नि ज्वरयुक्त रोगो को दिये गये भोजन का परिपाक नही कर सकती। अस्तु दोपो के परिपाक होने तक बल के अनुसार
१ ज्वरे लङ्घनमेवादावुपदिष्टमते ज्वरात् । क्षयानिलभयक्रोधकामशोकश्रमोदभवात || चर चि ३ । लङ्घन स्वेदन कालो यवाग्वस्तिक्तको रस । मलाना पाचनानि स्युर्यथावस्थ क्रमेण वा ॥ ज्वरादी लवन सामे ज्वरमध्ये तु पाचनम् । निरामे शमन कुर्याज्ज्वरान्ते तु विरेचनम् । २ लघनेन क्षय नीते दोपे सधुक्षितेऽनले ।
विज्वरत्वं लघुत्वञ्च क्षुच्चवास्योपजायते ।