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भिपकम-सिद्धि symptons) सम्बन्ध में करना आवश्यक होता है । ज्वर की आमावस्था मेंस्रोतस रद्ध रहते हैं, गरीर से पसीने का निकलना बंद हो जाता है, क्षुधानाग, अरुचि, अविपाक, उदर का भारीपन, तद्रा, आलस्य, हदय की अविशुद्धि, ज्वर की प्रबलता, ज्वर का न टूटना, मल-मूत्र आदि की सम्यक् प्रवृत्ति न होना, लालानाव, हृल्लास, शरीर का स्तब्ध, गुरु एव भारी होना, पुरीप का पक्व होकर न माना तथा मास का क्षीण न होना प्रभृति लक्षण पाये जाते है। पच्चमानावस्था मेज्वर का वेग अधिक तीव्र हो जाता है, तृष्णा, प्रलाप, श्वास, उत्क्लेग तथा मल का निकलना पाया जाता है । ज्वर की निरामावस्था में क्षुबा को प्रवृत्ति, दुर्वलता का अनुभव, गरीर का हल्कापन, ज्वर का हल्का होना तथा दोपो का निकलना ये लक्षण मिलते है । ज्वर को निरामावस्या सामान्यतया आठवें दिन माती है । परन्तु विशेष प्रकार के ज्वरो में सन्निपातादि में वह अधिक दिनो की भी हो मकती है।'
एक तीसरा विचार भी ज्वर को चिकित्सा में आवश्यक हो जाता है वह है दोपों के जनन के क्रम का ! किम दोप की प्रधानता किस ज्वर में है तदनन्तर चिकित्सा क्रम को निर्धारित करना पड़ता है।
__ ज्वर की तरण, आम या पन्यमानावस्या मे, तथा पित्त एवं ग्लेज्मा की वहुलना मे निम्नलिखित उपचार करना चाहिये । १ लषन २ वमन ३ स्वेदन ४. काल (एक सप्ताह या आठ दिनो की प्रतीक्षा ), ५ यवागू तथा ६ तिकरस ७ पाचन द्रव्य । इन उपक्रमोका क्रमग विचारपूर्वक प्रयोग करना चाहिये ।
एक दूसरा मूत्र भी ज्वर की सामान्य चिकित्सा के सम्बन्ध में पाया जाता है -"ज्वर के प्रारंभ में-आम दोपो की प्रबलता में-लघन, ज्वरकी मध्यमा वस्था में पाचन योपधियों का प्रयोग तया निरामावस्थामें गमन औपच की व्यवस्था
१ नोतमा सन्निरुद्धत्वात् स्वेदं ना नाधिगच्छति । स्वस्थानात् प्रच्युते चान्नी प्रायगस्तरणे ज्वरे ।। अरुचिश्चाविपाक्श्च गुरुत्वमुटरस्य च । हृदयस्याविशुद्धिश्च तन्द्रा चालस्यमेव च ।। ज्वरोऽविसर्गी बलवान् दोपाणामप्रवर्तनम् । लालाप्रसेको हल्लास सुन्नागो विरस मुखम् ।। स्तव्धसुप्तगुरुत्वञ्च गात्राणा बहुमूत्रता। न विड्जीर्णा न च ग्लानिज्वरस्यामस्य लक्षणम् ॥ स्वरगोऽविस्तृष्णा प्रलाप. श्वसन भ्रम । मलप्रवृत्तिरुत्क्लेन पच्चमानस्य लक्षणम् ॥ सुत्क्षामता लघुत्वञ्च गावाणा ज्वरमार्दवम् । दोपप्रवृत्तिरप्टाहो निरामज्वरलक्षणम् ।।