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द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय
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कर्म से पच कर्म मे, काल से ऋतु काल के शोवन मे तथा योग अर्थात् रोग के चिकित्सा काल मे इन तीन प्रयोजनो को लेकर विभिन्न संख्या की वस्तियो का निर्देश किया गया है । कर्म मे कुल तीस वस्तियाँ अपेक्षित है - इनमे प्रारम्भ मे एक स्नेह वरित देकर बारह निरूह और बारह अनुवासन एकान्तर से तथा अन्त मे पाच स्नेह वस्तियाँ सब मिला कर तीस हो जाती है । काल में १६ वस्तियाँ अपेक्षित है— निनमे प्रारम्भ में एक स्नेह देकर ६ निरूह और ६ अनुवासन मध्य मे एकान्तर-क्रम से तथा अन्त मे तीन स्नेह वस्ति देकर पूरी संख्या १६ की पहुँचाई जाती है । योग मे कुल आठ वस्तिया अपेक्षित है । इनमे प्रारम्भ मे एक स्नेहवस्ति दे | इस प्रकार कुल तीन निरूह और पाच अनुवासन कुल मिला कर आठ हो जाते है ।
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योगायोग के लक्षण - सामान्यतया वस्ति प्रदेश, कटि, पार्श्व और कुक्षि मे जाकर पाखाने आदि दोपो की मथ कर शरोर का स्नेहन करती हुई पाखाने और दोषो के साथ शरीर के बाहर निकल आती है । इसीको वस्ति कहते हैं |
सम्यक् निरुढ के लक्षण - मल, मूत्र और वायु का खुलना, अन्न मे रुचि, अग्नि को वृद्धि, आशयो की लघुता, रोग की शान्ति ओर रोगी का अपने को पूर्ववत् स्वस्थ अनुभव करना ये सुनिरूढ व्यक्ति के लक्षण है ।
असम्यक् निरूढ के लक्षण - यदि व्यक्ति का आस्थापन ठीक न हो पाया हो तो सिर, हृदय, गुदा और वस्ति मे पीडा, शोफ, प्रतिश्याय, तीव्र गुदा मे काटे जाने सी वेदना, हृल्लास, मूत्र और वायु का अवरोध तथा ठीक प्रकार से श्वासो का न आना प्रभृति लक्षण उत्पन्न होते हे ।
अतिनिरूढ का लक्षण - अति विरेचित मे जो लक्षण वतलाया गया है वही अति निरूढ मे पाया जाता है ।
सम्यक् अनुवासित के चिह्न - बिना किसी प्रकार की रुकावट के तैल और पुरीप का आना, रक्तादि धातु-वृद्धि, बुद्धि और इन्द्रियो की प्रसन्नता, सोने की इच्छा, लघुता और बल का अनुभव तथा वेगो की सुखपूर्वक प्रवृत्ति का होना ये लक्षण सम्यक् अनुवासित के होते है ।
असम्यक् अनुवासित के चिह्न - ऊर्ध्व शरीर, उदर, बाहु, पृष्ठ, पार्श्व की रुकावट और वायु आदि मे पीडा, गात्र का रूक्ष और खर होना, मल, प्रभृति चिह्न असम्यक निरूढ के मिलते है |
मूत्र
अति अनुवासित के चिह्न – हुल्लास, मोह, थकावट, साद,
प्रभृति चिह्न अत्यनुवासन में पाए जाते है । १० भि० सि०
मूर्च्छा,