________________
ग्यारहवा अध्याय
रक्तपित्त-प्रतिपेध प्रावेशिक-रक्तपित्त एक महारोग है चरकाचार्य ने उसको महागद की सजा दी है । वस्तुत बहुत उष्ण-तीक्ष्ण-क्षार-अम्ल-कटु-लवण, अधिक परिश्रम, धूप या अग्नि के सेवन प्रभृति पित्त-प्रकोपक कारणों से पित्त जव वढकर रक्त मे मिलकर उसे भी दूपित कर देता है तब वह पित्तदूपित रक्त शरीर के विविध कारो से ऊपर या नीचे या दोनो ओर से गिरने लगता है। इस रोग को रक्तपित्त ( Bleeding or Haemorrhage) कहते है। रक्तपित्त का तात्पर्य यह है कि इसमें रक्त का संयोग, रक्त की दुष्टि, रक्त के गध एवं वर्ण की समानता पित्त के साथ पाई जाती है अस्तु इस व्याधिको रक्तपित्त कहते है। यह वातिक, पैत्तिक, ग्लैष्मिक, दो दो दोपो के द्वारा द्वंद्वज तथा तीनो दोपा से सान्निपातिक प्रकार का होता है।
चिकित्सा की दृष्टि से या अधिक व्यावहारिक पक्ष से विचार किया जाय तो रक्तपित्त को तीन प्रकारो मे विभजित करना पर्याप्त है। १. ऊर्ध्वग ( ऊपर की ओर से--सप्त छिद्रो से दोनो आँख, दोनो नाक, दोनो कान तथा मुख से निकले वाला रक्त-त्राव । २ अयोग नीचे के दो मार्ग-गुवा एव लिग से पुरुपो में गुदा और योनि से स्त्रियो में पाया जाने वाला रक्तस्राव । ३ उभयग या दोनो मार्गो या सम्पूर्ण त्वचा से निकलने वाला रक्त । उन मे ऊर्ध्वग रक्तपित्त में कफ का अनुबंध, अधोग मे बात दोप का अनुवध तथा उभयग या दोनो मार्ग में प्रवृत्त होने वाले रक्तपित्त में कफ तथा वात दोनो दोपो का अनुबंध पाया जाता है। साच्यासाध्यता की दृष्टि से विचार करें तो ऊर्ध्वग रक्तपित्त साध्य, अधोग याप्य तथा दोनो मार्ग अर्थात् ऊपर-नीचे दोनो ओर से प्रवृत्त रक्तपित्त असाध्य होता है।
इसी प्रकार एकदोपानुग रक्तपित्त साध्य, द्विदोपज कृच्छ्रसाध्य तथ त्रिदोषज अमाध्य होता है । जीर्णकालीन रोग से क्षीण हुए व्यक्ति का अथवा वृद्ध का अथवा लम्बे उपवासके अनन्तर होने वाला रक्तपित्त भी असाध्य होता है।
जब रक्तपित्त एक मार्ग तक ही सीमित हो, रोगी बलवान् हो, रोग नया हो रक्तस्राव का वेग बहुत तीन न हो, रोगी मे उपद्रव न हो और ऋतु या काल भी अनुकूल हो तो ऐसा रक्तपित्त रोग मुखसाध्य होता है अर्थात् सुविधा पूर्वक ठीक किया जा सकता है।