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चतुर्थ खण्ड : ग्यारहवाँ अध्याय
सामान्य क्रियाक्रम
नादौ स्तम्भनमर्हति - यदि रोगी बलवान् है, खाता-पीता हैं तो उसके गिरते हुए रक्तपित्त को प्रारंभ मे रोकना न चाहिये । क्योकि प्रारंभ मे आम दोष ( Toxins ) या दूपित पित्त गिरता है उसका गिर जाना ही ठीक रहता है । अस्तु, प्रारंभ मे रोगी का वल एव रोग मे दोप का वल देखते हुए रक्तस्राव की उपेक्षा करनी चाहिये ।
पैदा
प्रारंभ में ही रक्तपित्त का स्तंभन कर देने से अंतविषमयता रोगी मे बढ़ती है और उसके परिणामस्वरूप गलग्रह, पूतिनस्य, मूर्च्छा, अरुचि, ज्वर, गुल्म, प्लीहा, आनाह, किलास, मूत्रकृच्छ्र, कुछ, अर्श, विसर्प, वर्णनाश, भगन्दर, बुद्धि तथा इन्द्रियो का घात-प्रभृति रोग उपद्रव रूप मे हो जाते है । अत: वल और दोप का विचार करते हुए बलवान् रोगी के रक्तपित्त को प्रारंभ में ' गिरने देना चाहिये । जव आम दोपमय पित्त निकल जावे तव शोधन अथवा सगमन की चिकित्सा करते हुए चिकित्सा करे । ऐसा करने से शीघ्र रोग निवृत्त हो जाता है ।"
लंघन अथवा संतर्पण - मार्ग, दोपका अनुबंध, हेतु आदि का विचार करते हुए रक्तपित्त मे यथावश्यक लघन ( अपतर्पण ) या सतर्पण कराना चाहिये । रक्तपित्त ऊर्ध्वग है या अधोग ? अर्थात् कफानुवधी है या वातानुबधी ? अर्थात् उप्ण और स्निग्ध पदार्थ के सेवन से उत्पन्न है अथवा उष्ण रूक्ष पदार्थों के सेवन से ? इन बातो का विचार करके लघन या सतर्पण क्रमो का रोगी में अनुष्ठान करना चाहिये ।
यदि रक्त-पित्त ऊर्ध्वग है तो उसमे कफ का अनुवध पाया जाता है, स्निग्ध तथा उष्ण पदार्थो के सेवन से पैदा हुआ है, इसमे आम की अधिकता रहती है अस्तु ऊर्ध्वग रक्तपित्त में प्रारभ मे अपतर्पण या लघन कराना चाहिये । इसके विपरीत रक्तपित्त अधोमार्ग से प्रवृत्त है तो उसमे बात अनुवध है और वह उष्ण एव रूक्ष द्रव्यो के सेवन से पैदा हुआ है, इसमे आम की कमी रहती है । तर्पण या बृहण चिकित्सा क्रम का अनुष्ठान युक्तिसगत रहता है । इस अस्तु, कथन का सक्षेप मे निष्कर्ष यह है कि ऊर्ध्वग रक्तपित्त मे आमको प्रबलता रहती है । अस्तु, लंघन कराना चाहिये तथा अधोग रक्तपित्त मे आम की कमी
१ अक्षीणबलमासस्य रक्तपित्त यदश्नत । तद्दोषदुष्टमुत्क्लिष्ट नादो स्तम्भनमर्हति ॥ हृत्पाण्डुग्रहणी रोगप्लीहगुल्मोदरादिकृत् । तस्मादुपेक्ष्य वलिनो बलदोपविचारिणा ॥ रक्तपित्त प्रथमतः प्रवृद्ध सिद्धिमिच्छता । ( च चि. ४ )