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चतुर्थ खण्ड : पन्द्रहवाँ अध्याय ३८६ भेद नामक व्याधि से अभिहित किया जाता है। पानी के दोष से भी स्वरभेद पैदा होता है । यात्रा में विभिन्न स्थानो का जल पीने से प्रायः स्वर का भेद होना देखा जाता है।
मस्तिष्कगत वाणोकेन्द्र के प्रभावित या विकारयुक्त होने से यदि पर्णतया स्वरनाश हो जाय तो उसको मूकता (Aphasia) कहते है। इसका कारण मस्तिष्कगन वाणोकेन्द्र को भयकर विकृति है। यह मूकता यदि आशिक हई तो उसे वाककृच्छ्रता ( Dysphasia) कहते है । इसके अतिरिक्त एक और · तोसरी अवस्था भी हो सकती है जिसे गद्गद् वाक् (Dysarthria. ) कहते हैं । ये अवस्थायें सान्निपातिक ज्वर की विषमयता के परिणाम स्वरूप या वात रोगो मे जिसमें स्वरोत्पादक साधन (स्वर यत्र ओष्ठ, जिह्वा और ताल) का बात के (Paralysis) फल स्वरूप पाई जाती है। इनका उपचार बातरोगो के अध्याय मे वतलाया जायेगा।
यहाँ पर स्वरभेद (Hoarseness of the voice) का वर्णन विशद्धतया स्वर यत्र को स्थानिक-विकृति के परिणाम से होने वाले स्वरभेद ( laryngitis) का ही किया जायेगा।
यह स्वरभेद स्वतंत्रतया या रोगो के उपद्रव स्वरूप या किसी प्रधान व्याधि के लक्षण रूप में भी मिल सकता है । यह छ प्रकार का होता है-वातिक, पंत्तिक, श्लैष्मिक, सान्निपातिक, क्षयज तथा मेदोज । इनमे क्षीण, वृद्ध, कृश रोगियो का स्वरभेद या दीघकालीन जन्मजात, सान्निपातिक अथवा मेदस्वी व्यक्तियो में मेदाधिक्य के कारण होने वाला स्वरभेद असाध्य होता है। शेष साध्य होते है।
स्वरभेद में क्रियाक्रम-सर्वप्रथम , उपचार-कारणो का दूर करना होता है, यदि बहुत बोलने या भाषण देने से स्वरभेद हो, तो गले और स्वरयंत्र को
विश्राम देने के उद्देश्य से वोलना छोडकर मौन रहना रोगी के लिए हितकर होता है। शरीर के वल एवं पुष्टि को बढाने वाले, कफघ्न और स्वर शुद्ध करनेवाले अन्न-पान तथा आचार स्वरभेद मे हितकारक होते हैं। इसके लिये जो, लालचावल,
१ अत्युच्चभाषणविपाध्ययनाभिपात-सदूषण. प्रकुपिता. पवनादयस्तु । स्रोत सु ते स्वरवहेषु गता प्रतिष्ठा हन्यु स्वरं भवति चापि हि षड्विध स ॥ वातादिभि पृथक् सर्वैर्मेदसा च क्षयेण च ।
२ क्षीणस्य वृद्धस्य कृशस्य वाऽपि चिरोत्थितो यश्च सहोपजात. । मेदस्विन सर्वसमुद्भवश्व स्वरामयो यो न स सिद्धिमेति ॥ (सु उ. ५३)