________________
२१८
भिपकम - सिद्धि
शुत्र नमाल गोटा सम भाग में ले | प्रथम पाद एव गंधक की जली करे | पीछे हरताल मिला कर जब तक उसके सूक्ष्म कण भी न दिखाई दे खरल कर । फिर अन्य द्रव्यों को मिलावे | फिर भागरले के रस मे २१ भावना देकर २- २ रत्ती की गोलियां बना ले | मात्रा -१ गोली दिन मे तीन वार | अनुपान अदरक का रस, मिश्री या जल |
*
द्वितीय अध्याय
त्रिदोषज ज्वर में चिकित्सा का बडी कठिनाई उपस्थित होती है क्योकि विदीप नामक द्रव्य प्राय नही होते । जो उपचार बात के लिये पथ्य होता है वह ब्लेप्मा के लिये अपथ्य हो जाता है, जो जवि पित्त में पथ्य हैं वे प्राय. क्फ के लिये अपथ्य हो जाती है । जो तिक्त और कपाय द्रव्य कफपित्तहर होते हैं वे वात को करने वाले सिद्ध होते हैं । मधुर रस जो वातपित्त का शामक होता है वह कफ का वर्द्धक होता है | जो वास्तव में त्रिदोषशामक यामलको प्रभृति कुछ ओवियाँ है वे बहुत थोडी है । वे भो प्रति रोग के लिये नियत नहीं है और निश्चित रूप से ज्वर के यौगिक रूप में व्यवहृत होने वाली भी नहीं है । तो फिर मन्निपातज ज्वर में चिकित्सा कैसे को जाने ?
चिकित्सा सूत्र - सन्निपात से उत्पन्न ज्वरो मे चिकित्सा सूत्रो का उल्लेख करते हुये चरकाचार्य ने दो प्रधान विधियां बतलाई हैं :--
* वर्धनेनैकदोषस्य रूपणेनोच्छ्रितस्य वा । अर्थात् एक हीन दोप के बटाने लथवा एक बड़े दोप के लपण ( ह्रासन ) करने से ।
स. कफस्थानानुपूर्व्या वा सन्निपातब्बरं जयेत् । अथवा कफ स्थान का सर्वप्रथम उपचार करने के पश्चात् दूसरे दोपी के अनुसार उपक्रम करते हुए सन्निपात जन्य ज्वरो को जीतना चाहिये ।
मन्निपातज ज्वरो के पच्चीन भेद वतलाये गये है । इन में क्षीण दोष मे उत्पन्न बारह प्रकार के मन्तिपाती में दोपों में ज्वरारम्भक गुण ही नहीं होता है, क्योकि क्षीण हुए दोप अपने लक्षणो के हानिमात्र ( अभाव ) को ही उत्पन्न कर सकते है विना बढे ये ज्वरादि को पैदा नहीं कर सकते हैं । गेप जो तेरह प्रकार के त्रिदोषज स्वर होते हैं उन में त्रिदोपहर ज्वरघ्न द्रव्यों के अभाव मे दोपो