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चतुर्थ खण्ड : द्वितीय अध्याय
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के वटाव, घटाव या समता का विचार करते हुए चिकित्सा का निर्धारण करना पडता है । एतदर्थ वृद्धतर और वृद्धतम दापो का क्षपण करते हुए, एक दोप को बटाते हुए चिकित्सा की जाती है । जैसे वढे हुए कफ एव वृद्ध तर वातपित्त मे मधुर रम की ओषधि, यह वृद्धतर वात और पित्त का नाशक होते हुए क्षीण कफ को बढाते हुए भी वलवान् दोष का हन्ता होने के कारण से ज्वर का नाशक होता है । इसी प्रकार बटे कफ एव वृद्धतर पित्त दोष मे भो मधुर रस लाभप्रद होता है । अस्तु 'वर्धनेने कदोपस्य' इस सूत्र से दो उल्वण या तीन उत्वण, होन और मध्य दोषो से उत्पन्न दम सन्निपातो की चिकित्सा बतलाई गई ।
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क्षपणेनैकदोपस्य- - इस भाव का द्योतक दूसरा सूत्रार्द्ध पाया जाता है, इसका उपयोग अवशिष्ट सन्निपात ज्वरो मे किया जाता है। इसका भाव यह है क अत्यन्त साघातिक जो वृद्धतर या वृद्धतम एक दोप सन्निपात की अवस्था मे पाया जा रहा है उनका क्षपण ( ह्रासन ) करते हुए जो भेषज मिले उन से चिकित्मा करे । यद्यपि इस एक दोष के क्षपण का परिणाम यह होगा कि जो दो क्षीण है वे वढ जायेगे तथापि ऐसा ही करना चाहिये क्योकि प्रतिकार न करने से अत्यन्त वृद्धतम दोप ( बढा हुआ दोप ) सद्यो घातक हो जावेगा । अस्तु सर्वप्रथम वृद्धतम दोप का क्षपण करना ही अपेक्षित रहता है । फिर क्षीण दोपो की जो वृद्धि हो गई है वह कम हानिप्रद होगी और उसका क्रमश. उपचार करना भी सभव रहेगा । इम सूत्र से अनेकोल्वण तीन अवशिष्ट सन्निपातो की चिकित्सा बतलाई गई ।
दूसरे सूत्र का भाव यह है । कफ के स्थान से आमाशय का ऊपरी भाग ग्रहण किया गया है | स्थान ग्रहण से स्थानी कफ का भी ग्रहण हो जाता है | अस्तु मन्निपात से उत्पन्न ज्वरो मे सर्वप्रथम उपचार कफ तथा कफ स्थान का करना होता है । कफस्थान आमाशय है, और सभी ज्वर आमाशय - समुत्य ही होते हैं अस्तु सभी ज्वरो मे कफ स्थान का उपचार लंघन, पाचन आदि, चिकित्सा मे सर्वप्रथम उपक्रम होता है तो फिर सान्निपातिक ज्वर मे इस पर अधिक वल देने की क्या आवश्यकता है ? इस शका का निराकरण यह है कि यद्यपि यह सूत्र सभी ज्वरो मे सामान्य रूप से गृहीत है, परन्तु सन्निपात से उत्पन्न ज्वरो मे इसच अर्थात् कफ स्थान की लवन, स्वेदन और पाचन प्रभृति कर्मों से उपचार का अधिक महत्त्व और उसका विशेषतया ध्यान रखना चाहिये । दूसरी बात यह है कि सभी प्रकार के ज्वर के अतिरिक्त त्रिदोषज या सन्निपात से उत्पन्न रोगो मे सर्वप्रथम वात का उपचार किया जाता है, पश्चात् पित्त और तदनन्तर कफ का । वातस्यानुं जयेत्पित्त पित्तस्यानु जयेत्कम् । परन्तु