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भिपकर्म-सिद्धि सान्निपातिक ज्वर में यह क्रम पूर्णतया बदल जाता है । यहाँ सर्वप्रथम कफ तथा कफ स्थान का उपचार करना आवश्यक होता है। एनदर्थ नये अभ्यासी को, अन्य सान्निपातिक उपचारो के साथ भ्रम न पैदा हो जाय आचार्य ने कफस्थानानु पूा वा कफस्थानानुपूर्वी उपक्रम पर अधिक जोर दिया है। ___इसके पश्चात् दोप को उल्बणता का ह्रासन या क्षीण दोप का वर्णन करते हुए उपचार का प्रारभ करना चाहिये ।।
उपर्युक्त भाव का दूसरे शब्दो मे उल्लेख करते हुए आचार्य भेलने बतलाया है कि सन्निपात ज्वर मे प्रथम लघन, स्वेदन, पाचन प्रभृति कर्मों से थाम और कफ का अपहरण करना चाहिये । पुन कफ के नष्ट हो जाने पर पित्त एवं वायु के प्रगमन का उपाय करना चाहिये । १
चिकित्सा क्रम-वात-पित्त एवं कफ इन तीनो दोपो के प्रकोप से उत्पन्न सन्निपात ज्वरो मे १ लंघन २ वालुका स्वेद ३ नस्य ४ निष्ठीवन ५ अवलेह तथा ६ अजनो का प्रयोग करना चाहिये । २.
लंघन एवं उसकी अवधि-नावारण ज्वरोकी अपेक्षा सान्निपातिक ज्वरो में इस उपक्रम का अधिक महत्त्व वतलाया गया है। सन्निपात ज्वरो में दोपो के बलावल का विचार करके वाताधिक्य मे तीन दिन पित्ताधिक्य मे पाँच दिन तथा कफाधिक्य में दस दिनो तक लघन कराना चाहिये। अथवा जब तक आम दोप या आम रसो का परिपाक न हो तब तक लघन या उपवास कराना चाहिये । अथवा जब तक रोगी आरोग्य ( रोगहीन) न हो जाय तब तक लंघन कराना चाहिये क्योकि जब तक मनुष्य लघन सहन करता रहता है तब तक दोषो को प्रबलता समझनी चाहिये। आम दोपो के क्षीण हो जाने पर मनुष्य लंघन को सहन नहीं कर सकता है। इस लिये लघन सहन करने की शक्ति रोगो में जव तक विद्यमान रहे लंघन कराते रहना चाहिये । यही लंधन को वास्तविक कालमर्यादा है । कारण यह है कि जब तक रोगी में आम दोप की प्रबलता रहती है। उसको अन्न में अरुचि, उत्क्लेग, वमन, तृप्ति प्रभृति लक्षण रहते है । वह खाना नही खा सकता है। आमदोप के पच जाने पर स्वतः उसे बुभुक्षा पैदा होती है, अर्थात् भोजन की चाह पैदा होती है ।
१ सन्निपातज्वरे पूर्व कुर्यादामकफापहम् । पश्चाच्छ्लेष्मणि मंक्षीणे गमयेत्पित्तमारुती भेल । २. लवन वालुकास्त्रेदो नस्य निष्ठोवनन्तथा । अवलेहोs. अनचव प्राक् प्रयोज्य त्रिदोपजे ॥ ३. त्रिरात्रं पञ्चरात्रं वा दगरात्रमथापि वा । लड्डनं सन्निपातेषु कुर्यादारोग्यदर्शनात् । दोषाणामेव सागक्तिलइने या सहिष्णुता । नहि दोपक्षये कश्चित् सहते लवनादिकम् ॥