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चतुर्थं खण्ड : द्वितीय अध्याय
२२१ स्वेदन तथा उसका परिहार-स्वेदन कर्म से पसीना निकलता है, कफ क्षीण होता है, आम का पाक होता है तथा शोफ का शमन होता है। साथ ही शरीर के बहुत से अत स्थ विप पसीने से बाहर निकल आते है। शरीर का ताप कम हो जाता है, शरीर भी हल्का हो जाता है ।
एतदर्थ हो लिखा है कि स्वेदन के बिना सन्निपात ज्वर शान्त नही होता है। इस लिये सन्निपात ज्वरग्रस्त रोगियो को बार बार स्वेदन का कर्म करना चाहिये। सन्निपात ज्वर मे जलीयाश या कफ का अश अधिक हो जाता है इसको कम करने के लिये अग्नि से बढ कर दूसरा कोई उपाय नही है । इस लिये अग्नि का स्वेदन के रूप मे प्रयोग करते रहना चाहिये । यद्यपि सन्निपात ज्वर को नष्ट करने के लिये बहुत से सविप तथा निर्विष उपाय है, परन्तु अग्नि को उष्णता के बिना प्राय उनका प्रभाव नही होता है। इस लिये सन्निपातज ज्वर तन्त्रोक्त रसोपरस निर्मित योगो के साथ स्वेदनादि के रूप मे अथवा साक्षाद अग्निकर्म के द्वारा चिकित्सा करनी चाहिये। पूर्वोक्त स्वेदनादि उपचारो के वावजूद भी सन्निपातग्रस्त रोगो की मूर्छा दूर न होती है तो उसके पादतल या ललाट प्रदेश में अग्नितप्त रक्तवर्ण लौह-शलाका से दहन कर्म करना चाहिये । ___ सन्निपात मे स्वेदन के इतने लाभप्रद होते हुए भी कुछ अवस्थावो मे स्वेदन नही करना चाहिये बल्कि उनमे शीतल उपचार की ही क्रिया प्रशस्त रहती है। जैसे रोगी के नेत्र लाल हो, वमन प्रलाप अधिक हो रहा हो, सिर को इधर-उधर पटक रहा हो। ऐसी अवस्थायें अधिकतर अत्युच्च ताप ( Hyper pyraxia) अथवा मस्तिष्कगत रक्तस्राव (Cerebral haemorrhage) को अवस्थावो मे पाई जाती है । इनमे उष्णोपचार न करके शीतोपचार ही करना चाहिये ।।
स्वेदन का विधान ज्वरो मे वात-श्लेष्मा को अधिकता मे, आमवात मे तथा सन्निपात ज्वर मे पाया जाता है । स्वेदन के बहुत से प्रकार है । विस्तार के लिये चरक सूत्र स्वेदाध्याय देखना चाहिये। यहां पर कुछ प्रचलित स्वेद-विधियो का, जिनका व्यवहार आज कल होता है, सक्षेप मे दिग्दर्शन कराया जा रहा है।
१ न स्वेदव्यतिरेकेण सन्निपात प्रशाम्यति । तस्मान्मुहर्मुह कार्य स्वेदन सन्निपातिनाम् ।। सन्निपाते जलमयो नराणा विग्रहो भवेत् । विना वह्नयुपचारेण कस्त शोर्षायत्त क्षम ॥ प्रयोगा बहव. सन्ति सविपा निविपा अपित वह्नयमाण विना प्रायो न वीर्य दर्शयन्ति ते । प्रतिक्रियाविधावेव यस्य संज्ञा न जायते । पादतले लाटे वा दहेल्लोहशलाकया । २ लौहित्ये नेत्रयोन्तिौ प्रलापे मूर्धचालने । न स्वेद शुभदो यस्तत्र शीतक्रिया हिता ॥