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( २२ ) है। यही कारण है कि वैद्य क्या वैद्येतर वर्ग के लोग भी एक घन्लू औषधि के रूप में इसका प्रयोग सफलतापूर्वक करते हुये आरोग्य लाभ करते देने जाते हैं।
काप्टऔपधि के तप के व्यवहार से कई लाभ होते है-औपवि सौम्यस्वरूप की हो जाती है, उसकी विपाक्तता कम हो जाती है, प्रयोग काल में तथा अनन्तर काल मे उपद्रवों की आशंका भी कम रहती है साथ ही औपवियों की आदत डालने वाला टोप ( Habit forming) भी जाता रहता है। औषधि के प्राकृतिक रूप में प्रयोग से सबसे बड़ा लाभ उसकी विषाक्तता की कमी प्रतीत होती है। यदि अफीम के सम्पूर्ण पौदे का सेवन किया जाय तो वह उतना विषाक्त नहीं होता जितना कि उसका वनीकृत रूप से प्राप्त दूध । सम्पूर्ण रूप में लेने से उस विप का प्रतिरोधी दव, जो प्रकृति मे ही उसने पूर्व से ही विद्यमान रहता है, मिल जाता है इसलिये विय-प्रभाव नीवस्वरूप का नहीं होता। इसी प्रकार अन्य विपाक्त वनस्पति-द्रव्यों के सम्बन्ध में भी समझना चाहिये।
प्राकृतिक रूप में औषधि के लेने का दूसरा अन्तर स्वाभाविक तथा कृत्रिम (Natural or synthetic ) शब्दों के प्रयोग से स्पष्ट हो जाता है। माधुनिक युग में वैज्ञानिक कृत्रिम चीजों की अपेक्षा प्राकृतिक चीजों के व्यवहार के पन्न में अधिक है-विशेषतः जान्तब और वानस्पतिक द्रव्यों के सम्बन्ध में । प्राकृतिक विटामिन्स, हार्मोन्स, प्रोटीन्स आदि की महत्ता आज भी वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं। इस दृष्टि को स्वीकार किया जाय तो आयुर्वेद की प्राकृतिक वानस्पतिक और जान्तव द्रव्यों से निर्मित योग निश्चित रूप से अधिक लाभप्रद
और उपयोगी है । औवले का सेवन करना हो तो प्राकृतिक आँवला या उसका कल्क, स्वरस, फाण्ट, काय, अवलेह आदि सिन्थेटिक विटामिन 'सी' के बने योगों से कई गुने लाभप्रद होंगे। ऋडफार्म में पाया जाने वाला विटामोन्स से भरपूर रहते हुए भोजन का भी प्रतिनिधि ( Substitute ) हो सकता है। सिन्थेटिक ग्टिामिन्स केवल विटामिन्स की कमी को किसी प्रकार पूरा कर सकता है उसका भोजन में कोई मूल्य (Food Value) नहीं अंकित किया जा सकता।
जहाँ तक खनिज पढाथो का आयुर्वेदीय औपधियो के रूप में प्रयोग होता है-वे क्रूड है ऐसा नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उनमें तो विभिन्न प्रकार के संस्कारों द्वारा संस्कृत, शोधन, मारण, जारण, निस्त्यीकरण प्रभृति क्रियाओं से शरीर ग्राह्य (Absorbable ) तथा सेन्द्रिय (Organic) स्वरूप में ले आने का भगीरथ प्रयत्न किया जाता है। आयुर्वेद में व्यवहृत होनेवाली रसौपधियाँ संस्कृत और परिष्कृत होती हैं इसके विपरीत आधुनिक चिकित्सा मे