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___ चतुर्थं खण्ड : अट्ठाइसवॉ अध्याय ३० तोले होना चाहिये। अच्छी प्रकार से कलछी से चलाते हुए सबको मिला लेना चाहिये। फिर सुखा कर चूर्ण बना ले। मात्रा-४ रत्ती से १ माशा।
यह योग बामवात, शोथ, अग्निमाध, पाण्डु, कृमिज पाण्डु, कामला आदि अनुपान भेद से नष्ट करता है और उत्तम रसायन है।
जीर्ण आमवात में जब रोगी मे रक्ताल्पता आ जाती है-उस अवस्था मे प्रयुक्त होकर विशेष लाभ करता है । आमवाताभ सधिशोथ (Rheumatoid Arthritis). मे महारास्नादि कषाय के साथ इस योग का प्रयोग अच्छा लाभ दिखलाता है। इसके सेवन वाले रोगो को पर्याप्त पौष्टिक आहार और दूध का प्रयोग करना अपेक्षित रहता है।
इसके साथ सुवर्ण के योगिको का देना उत्तम रहता है। एतदर्थ स्वर्ण भस्म प्रति मात्रा में 2 रत्ती स्वतंत्रतया मिलाया जा सकता है । अथवा सुवर्ण के योगो मे से वृहद्वातचिन्तामणि रस या योगेन्द्र रस १ रत्ती की मात्रा में मिलाकर दिया जा सकता है।
प्रसारणी संधान-गव प्रसारणी ८ सेर, जल ६४ सेर, शेष १६ सेर रसा कपाय । इस कषाय मे लहसुन का रस १ सेर, पुराना गुड १ सेर मिला कर एक पात्र में भरकर उसका मुख बन्द करके एक सप्ताह तक सधान करे। इसमें प्रक्षेप रूप में पिप्पली, पिप्पलीमूल, चव्य, चीता की जड और सोठ का चूर्ण कुल ३२ तोले भी डालना चाहिये । यह योग आमवात मे वडा लाभप्रद होता है । भोजनोत्तर २-४ तोले को मात्रा मे देना चाहिये ।
बाह्य प्रयोग-विषगर्भ तैल (वातरोगाध्याय ) अफीम मिलाकर या सैधवादि तैल का वेदना युक्त स्थान पर हल्के हाथ से मालिश करना ।
सैन्धवाच तैल-सैधव, गजपीपल, रास्ना, सौफ, अजवायन, सज्जीखार, कालीमिर्च, कूठ, सोठ, सोचल नमक, विड लवण, वचा, अजमोद, मुलैठी, जीरा, पोहकर मल और छोटो पिप्पली प्रत्येक २ तोला। इन द्रव्यो को कट कर पानी से पीस कर कल्क बनावे । फिर एरण्ड तैल तथा सौफ का क्वाथ दो-दो प्रस्थ, काजी एव दही का पानी ४-४ प्रस्थ सवको कलईदार कडाही मे अग्नि पर चढाकर मंद आंच से पाक करे।
महाविपगर्भ तेल-धतूरे की जड, निर्गुण्डी को जड, कटुतुम्वी की जड, गदहपुर्ना, एरण्ड मूल, अश्वगध मूल, चक्रमर्दमूल, चित्रकमूल, सहिजन की छाल, मकोय, कलिहारी की जड, नीम की छाल, महानिम्ब को छाल, शिवलिङ्गी, दशमूल, शतावरी, करैला, अनन्तमूल, विदारीकद, स्नुही, अर्क, मेढाशृङ्गी मूल, पीत पुष्प कनेर मूल, वचा, काकजघा, अपामार्ग मूल, महाबला-बला-अति