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द्वितीय अध्याय
२. 'प्लुष्टेऽग्निप्रतपनम्, उष्णो गुर्वादिलेपश्च (सु ) अग्निना कोपितं रक्तं भृशं जन्तोः प्रकुप्यति । ततस्तेनैव वेगेन पित्तमस्याप्युदीर्यते ॥
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अर्थात् अग्निदग्ध व्रण मे रक्तसंचार के वढ जाने से पित्तकोप या पाक नही होता अस्तु, अग्निदग्ध मे शीत क्रिया का निषेध और उष्णोपचार को लाभप्रद बतलाया गया है -
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प्रकृत्या ह्युदकं शीतं स्कन्दयत्याशु शोणितम् ।
तस्मात् सुखयति ह्युष्णं न तु शीतं कथञ्चन ॥ ( सु )
अस्तु, यहाँ पर भी हेतु व्याधि-विपरीत हो चिकित्सा हुई । फिर विपरीतार्थकारी कहने का क्या प्रयोजन |
३ इसी प्रकार ऊर्ध्वगामी जगम विप मे अधोगामी स्थावरविप का प्रयोग भी हेतुप्रत्यनीक ही होता है ।
विपं विषन्नमुक्तं यत् प्रभावस्तत्र कारणम् । ऊर्ध्वानुलोमिकं यच्च तत्प्रभाव प्रभावितम् ||
४ इसी प्रकार मदात्यय की चिकित्सा मद्यप्रयोग । प्रयुक्त होने वाला मद्य शुद्ध मद्य से नितान्त भिन्न होकर हेतुविपरीत ही होता है । इस मद्य मे नीबू का रस एव चुक्र आदि मिलाकर देने का विधान है - जैसे मद्य १ तोला, नोवू का रस १ तोला और जल १ छटाँक । यदि क्वचित् शुद्ध मद्य का भी मदात्यय में प्रयोग किया जाता है तो वह भी पूर्व पीतमद्य से पूर्णतया विपरीत गुण वाला होता है । जैसे रूक्ष गुण युक्त माध्वीकादि से उत्पन्न मदात्यय मे पिष्ट आदि स्निग्ध द्रव्यो से निर्मित मद्य । यह भी यथार्थ मे हेतु - विपरीत ही होता है । मदात्यय मे मद्य के द्वारा चिकित्सा करने का विधान करते हुए सुश्रुत ने कहा भी है ' जैसे राजाज्ञा से दण्डित व्यक्ति की पुन राजाज्ञा से ही मुक्ति हो सकती है अन्य से नही उसी प्रकार मद्यपान जनित मदात्यय से भी छुटकारा मद्यपान से हो हो सकता है' ? -
यथा नरेन्द्रोपहतस्य कस्यचिद् भवेत् प्रसादस्तत एव नान्यतः । ध्रुवं तथा मद्यहतस्य देहिनो भवेत्प्रसादस्तत एव नान्यतः ॥ ५ इसी प्रकार ऊरुस्तंभ चिकित्सा मे जल - प्रतरण भी हेतुप्रत्यनीक ही उपशय है । इसमे 'लिप्त कुम्भकार न्याय' क्रिया होकर जल की शीतता के कारण शरीराग्नि किंचिन्मात्र भी बाहर नही निकलने पाती और अत स्थित देहाग्नि से तप्त होकर पिण्डित कफ और मेद पिघल जाता है-और तैरने का व्यायाम उसको सुखा देता है तथा वायु आवरणरहित हो स्वमार्गगामी हो ५ भि० सि०