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चतुर्थ खण्ड : सप्तम अध्याय
२६३ कफ ग्रहणी में क्रियाक्रम-कफ से दूषित ग्रहणी मे यथाविधि वमन करा के कटु, अम्ल, लवण क्षार तथा तीक्ष्ण द्रव्यो का सेवन कराके जाठराग्नि दीप्त करे।
त्रिदोष-ग्रहणी-में क्रियाक्रम-त्रिदोपो से दूपित ग्रहणी मे विधिपूर्वक पचकर्म कराके दीपन घृत, क्षार, आसव, अरिष्ट का प्रयोग करे । वातादि ग्रहणी की जो चिकित्सा वतलाई गई है उसे पर्याय क्रम से पृथक् पृथक् अथवा तीनो को मिलाकर दोपो की विशेपता के अनुसार उपचार करे ।
सामान्य औषध योग-ग्रहणी मे प्रारभ मे स्नेह, स्वेदन और लघन कराने के पश्चात् जाठराग्नि को दीप्त करने वाले योगो का प्रयोग लाभ करता है-जैसे-पाचन के लिये चूर्ण, लवण प्रधान ओपधियों ( लवण-भास्कर ), क्षार प्रधानयोग, मधु का उपयोग, अरिष्ट, आसव (कुटजारिष्ट, तक्रारिष्ट, मूलासव आदि ), जाठराग्नि वर्धक घी ( पिप्पल्यादि घृत, पट्पल घृत ) तथा तक्र के विविध प्रकार के योगो का सेवनक दोपानुसार यथावश्यक ग्रहणी रोग मे करना चाहिये।
ग्रहणो रोग में तक प्रयोग-ग्रहणी रोग मे तक ( मट्ठा ) ग्राही, दीपन और लघु होने के कारण तथा आन्त्र को शोपण क्रिया को बढाने वाले होने के कारण श्रेष्ठ माना गया है। विपाक मे मधुर होने से यह पित्त को कुपित नही करता अर्थात् पित्त ग्रहणी मे मीठा करके तक का सेवन करे । कषाय रस, उष्ण विकासि और रूक्ष होने की वजह से कफ मे हितकर होता है अस्तु कफज ग्रहणी मे मक्खन निकाला रूखा ही सेवन किया जा सकता है। मधुर, अम्ल और सान्द्र ( गाढा ) होने से तक वातिक ग्रहणी मे भी लाभप्रद रहता है। तक प्रयोग में ताजा का ही उपयोग करना चाहिये क्यो कि यह विदाह नही पैदा करता है। तक मीठा, कुछ खट्टापन लिये हुए ताजा और गाढा प्रयोग मे लाना चाहिये ।
१ ग्रहण्या श्लेष्मदुष्टाया वमिताय थथाविधि । कट्वाल लवणक्षार स्तीक्ष्णश्चाग्नि विवर्धयेत ।
२ त्रिदोषे विधिवद् वैद्य पञ्चकर्माणि कारयेत्, घृत क्षारासवारिष्ट्रान् दद्याच्चाग्निविवर्धनान् ।। क्रिया वाचानिलादोना निर्दिष्टा ग्रहणी प्रति, व्यत्यसात्ता समस्ता च कुर्याद् दोषविशेषवित् ।
३ तक्रं तु ग्रहणीदोपे दीपन ग्राहि लाघवात् । श्रेष्ठ मधुरपा कित्वान्न च पित्त प्रकोपयेत्, कषायोष्णविकासित्वाद् रौक्ष्याच्च व कफे मतम् । -