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चतुर्थ खण्ड : वाइसवॉ अध्याय परम्परचा। इसके लिये महर्षि चरक ने कहा है कि देवता, राक्षस, गधर्व आदि किसी को भी रोगोत्पत्ति का साक्षात् कारण नही माना जा सकता है क्यो कि सम्पूर्ण दु ख का कर्ता अपनी बुद्धि को ही समझना चाहिये । रोग की उत्पत्ति प्रजापराध से ही होती है-देव, यक्ष आदि आगन्तुक या निमित्त कारण के रूप ने माते है । मनुष्य अच्छा कर्म करता हुआ सदा निर्भीक रह सकता है ।
नैव देवा न गन्धर्वा न पिशाचा न राक्षसाः। न चान्ये स्वयमलिष्टमुपक्लिश्यन्ति मानवम् ॥ ये त्वेनमनुवत्तन्ते लिश्यमानं स्वकर्मणा । न स तद्धेतुकः क्लेशो नास्ति कृतकृत्यता ।। प्रज्ञापराधात् सम्भूते व्याधौ कर्मज आत्मनः । नाभिशंसेद् बुधो देवान्न पितृन्नापि राक्षसान् ।। आत्मानमेव मन्येत कर्तारं सुख-दुःखयोः।
तस्माच्छेयस्कर मार्ग प्रतिपद्येत नो सेत् ।। ( च ) कहने का तात्पर्य यह है मनुष्य अपनी गल्लियो से यदि इन वाधक देवो को कष्ट देता है तब वे क्रुद्ध होकर उस मनुष्य को भी कष्ट देने लगते हैअन्यथा नहीं।
भतोन्माद की विशेषता-ये उन्माद अधिकतर आगन्तुक स्वरूप के होते हैं। उनकी उत्पत्ति मे कोई तर्कसंगत उपपत्ति नहीं दी जा सकती है। और उन्मत्त व्यक्तियो की वाणो, पराक्रम, शक्ति व चेष्टाये अमर्त्य या अनमाषिक स्वरूप की अर्थात् मनुष्यो से अधिक तथा विचित्र स्वरूप की होती है । ऐसे उन्मत्त व्यक्तियो में ज्ञान-विज्ञान एव बल भी अद्भुत स्वरूप का पाया जाता है। इन उन्मादो में दोपज उन्मादो के समान उन्माद का समय नियत न होकर अनिश्चित होता है। ऐसे उन्माद को भूतोत्थ उन्माद कहा जाता है। भूतोन्माद इस एक शब्द से चरकोक्त देवोन्माद, गंधर्वोन्माद आदि अष्टविध आगन्तुक उन्मादो का ग्रहण हो जाता है।
अमर्त्यवाग्विक्रमवीर्यचेष्टो जानादिविज्ञानबलादिभियः। । उन्मादकालोऽनियतश्च तस्य भूतोत्थमुन्मादमुदाहरन्ति ।
(च चि ९) आचार्य सुश्रुत ने इस भूतोन्माद को विशेषता बतलाते हुए लिखा है। गुप्त (गुह्य) वातो का भेद दे देना, भविष्य मे घटने वाली घटनावो को पहले ही बतला देना, चित्त को अनवस्था, सहिष्णुता का अभाव ( सहने की शक्ति का अभाव )