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चतुर्थ खण्ड : सप्तम अध्याय
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वस्तुन गरीर में किसी भी प्रकार की विपमयता ( toxaemia) के उत्पन्न होने पर उसको दूर करने के लिये अतिसार एक प्राकृतिक साधन है। पतले दस्त होने से शरीर से बहुत प्रकार के विप निकल जाते है, शरीर का शोधन हो जाता है । दमको प्रारम्भ मे ही बद कर देने से या अतिसार के रोकने से शरीर के भीतर आम दोप या अन्तस्य विप अधिक मात्रा मे बढ कर गोथ, पाण्डु, प्लीहा, कुठ, गुल्म ज्वर, दण्डक, अलमक, आध्मान, ग्रणी और अर्श प्रभृति बहुत से रोग या उपद्रव को पैदा करता है, अन्तु प्रारभ मे अर्थात् आमदोष की दशा मे अतिमार का स्तमन नहीं करना चाहिये । परन्तु शरीर के आम या अन्तस्थ विप के निकल जाने के अनन्तर ग्राही औपधियो का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है क्यो कि अतिमार मे मल के निकलने के साथ ही साथ द्रव धातु (जल), लवण और क्षार धातु का भी सरण होता है। जिसके परिणाम स्वरुप जलाल्पता या द्रवधातुक्षय ( Dehydration ) हो कर रोगी की मत्य हो जाती है । अस्तु पक्व अतिसार मे पुरोपसग्रहणीय या स्तभक औपवियो का योग कर यथाशीघ्र पतले दस्त को बद कर देना चाहिये ।।
कई वार अतिसार के प्रबल होने पर द्रव-धातु-क्षय से रक्षा करने के निमित्त तथा रोगी के प्राण रक्षार्य आमावस्था में भी अतिसार का स्तभन आवश्यक हो जाता है। अस्तु रोगी की धातु की दशा तथा वल देखते हए यदि अतिसार वडा प्रबल हो तो दो-तीन दस्त के बाद ही उसकी आमावस्था मे भी ग्राही भेपजो का प्रयोग शास्त्र सम्मत है।'
अत्यन्त क्षीण धातु और वल वाले रोगियो मे अतिसार के स्तभन के लिये ही औषधि देनी चाहिये, उसके लिये लपन और पाचन आदि क्रमो की प्रतीक्षा नही चाहिये।
आमातिसार-१ प्रारभ मे लघन एव पाचन करना, पश्चात् स्तभन करना चाहिये । पथ्य मे प्रद्रव और लघु भोजन देना चाहिये। रोगी बलवान्
१ न त सग्रहण दद्यात् पूर्वमामातिसारिणे । दोपा ह्यादी रुद्धयमाना जनयल्यामयान बहून् ॥ शोथपाण्ड्वामयप्लीहकुष्ठगुल्मोदरज्वरान् । दण्डकालसकाध्मानग्रहण्य गदास्तथा । पाकोऽसकृदतीसारो। ग्रहणीमार्दवाद्यथा । प्रवर्तते तदा कार्य क्षिप्रं साग्राहिको विधि ॥
२ क्षीणवातुवलार्तस्य बहुदोपोऽतिनि सृत । आमोऽपि स्तम्भनीयः स्यात पाचनान्मरण भवेत् ॥