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भिषक्कर्म-सिद्धि
युक्त है । अस्तु, शास्त्रकारो के इम प्रकार के विभाजन का लक्ष्य केवल बाहुल्य प्रदर्शन है । अर्थात् जिन भेपजो मे रमायन गुणो की बहुलना है, वे रमायन, जिनमें वृ कार्य की बहुलता है वे वाजीकरण और जिनमें रोगो के रोग प्रशमन की बहुलता पाई जाती है वे रोगनुत् औषध है । यद्यपि सभी औपधियाँ उभयार्थफारी होती है, सभी प्रयोजनो मे व्यवहृत हो सकती है, परन्तु उनमे तद्-तद् गुणो की बहुलता विशेषतया आधिक्य होने मे तद्-तद् औपधियो का वृष्य रसायन या रोगनूत् का विशेषण दिया गया है । प्राय शब्द का व्यवहार इनकी विशेषता द्योतनार्थ होता है ।" इस प्रकार सक्षेप मे कहना हो तो ऐसा कहेंगे कि जो औषधियाँ नामलकी, कपिकच्छू आदि विशेषकर स्वस्थ को अधिक प्रशस्तकर चनाती है वे वृष्य या रसायन के विभाग में और जो बहुलता से रोग प्रशमन मे व्यवहृत होती है जैसे पाठा, कुटज, मतपणं प्रभृति वे व्याविहर औषधियो के वर्ग में आती है | इनमे स्वस्थ को उर्जस्कर बनाने वाले भेपजी के दो विभाग हैरसायन तथा वाजीकरण एव व्याधिहर औपवियों का एक दूसरा ही वर्ग है जिनका उल्लेख पूर्व के अध्यायों मे चिकित्सा वीज मे हो चुका है । इस प्रकार भेषजी के तीन वर्ग रनायन, वाजीकरण तथा व्याधिहर है ।"
भेषज का विपरीत शब्द अभेपज है । इनका सेवन नही करना चाहिए ये शरीर के लिए हानिप्रद है । ये न रसायन है, न वाजीकरण और न व्याधिहर, प्रत्युत विकल्प है । शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए केवल भेपज या ओपध का उपयोग करना चाहिए, अभेपज का नही । ये अभेपज भी दो प्रकार के होते है । १ बाधन तथा २. सानुवाधन । वाधन उन अपथ्यो या अभेपजो को कहते है जो तत्काल अपना हानिप्रद प्रभाव शरीर के ऊपर दिखावे । जैसे विविध प्रकार के तीव्र विष । अनुबाचन उन अपथ्यो या अभेषजो को कहते है जो दूपी विष या गर विप स्वरूप के और दीर्घ काल तक अपना प्रभाव दिखाकर कुष्ठादि व्याधियों को पैदा करे । समामत सद्यो बाधक अभेषजो को बाचन तथा दीर्घकालीन परिणामी अभेषजो का अनुवाधन कहते है ।
१ स्वस्थस्योर्जस्करं यत्तु तद् वृष्य तद् रसायनम् ।
प्राय प्रायेण रोगाणां द्वितीयप्रशमे मतम् ॥
प्राय दो विशेषार्थो ह्यभय ह्युभयार्यकृत् । (च.चि १ )
२. स्वम्ययोपरत्वे द्विविध प्रोक्तमौषधम् ।
यद् व्याविनिर्घातकरं वक्ष्यते तच्चिकित्सिते ॥